जड़ मांगे पानी, कवायद सिर्फ जुबानी

सरकारें विश्वविद्यालय प्रशासनों पर ठीकरा फोड़ देती हैं और वे सरकारों पर. इसी खींचातानी में पिछले 27 साल से बिहार के विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव नहीं हुए हैं. एक समय में राज्य और देश की दिशा तय करने वाले छात्र आंदोलन यहां दम तोड़ चुके हैं. इसके कारण और असर की पड़ताल करती इर्शादुल हक की रिपोर्ट

बीती नौ जनवरी को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब पटना कॉलेज की 150वीं वर्षगांठ समारोह में शिरकत करने पहुंचे तो उन्हें कुछ ऐसे माहौल का सामना करना पड़ा जिसकी उन्हें उम्मीद नहीं थी. उनके सामने  छात्र संघ चुनाव न होने के मुद्दे पर अपना विरोध जताते विश्वविद्यालय के छात्र थे. माहौल भले ही 1974 के छात्र आंदोलन जैसा न रहा हो मगर इसे देख कर निश्चित रूप से मुख्यमंत्री को अपने छात्र जीवन के आंदोलनों की याद ताजा हो गई होगी जब उन जैसे दर्जनों छात्र नेता पटना विश्वविद्यालय के इन्हीं परिसरों में तत्कालीन सरकार के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंका करते थे. शायद इसीलिए उन्होंने न सिर्फ छात्रों पर लाठी बरसाने पर आमादा पुलिस को नरमी बरतने को कहा बल्कि इस बात की भी पुरजोर वकालत की कि विश्वविद्यालय छात्र संघों के चुनाव जरूर होने चाहिए. यही मांग आंदोलनकारी छात्र पिछले 27 साल से करते रहे हैं और उस दिन भी उनके आंदोलन का यही मकसद था.

20 जनवरी को नीतीश एक बार फिर पटना विश्वविद्यालय परिसर में थे. इस बार वे यहां एक सौ साल पुराना इतिहास दोहराने आए थे. इसी दिन यानी 20 जनवरी, 1912 को बिहार विधान परिषद की पहली बैठक पटना विश्वविद्यालय में ही हुई थी. उसी इतिहास को ताजा करने के लिए विधान परिषद के तमाम सदस्य सभापति ताराकांत झा के साथ यहां मौजूद थे. विधान परिषद की इस ऐतिहासिक बैठक को छात्रों ने अपने लिए बेहतरीन अवसर समझा और छात्रसंघों के चुनावों के लिए विश्वविद्यालयों को अधिसूचना जारी करने की मांग को लेकर वे सड़कों पर उतर आए. लेकिन इस बार पुलिस पूरी तरह तैयार थी. उसने छात्रों पर लाठियां बरसाईं और कइयों को गिरफ्तार कर लिया.

व्यवस्था के इसी रुख के चलते पिछले ढाई दशक से बिहार के विश्वविद्यालयों में एक सवाल पर चर्चा आम है. सवाल यह कि क्या छात्र आंदोलनों से निकल कर राष्ट्रीय स्तर के नेता बनने की परिपाटी अब समाप्त हो गई है या कर दी गई है. क्या अब उच्च शिक्षा के इन केंद्रों से नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, सुशील मोदी और रविशंकर प्रसाद सरीखे नेताओं के उदित होने का दौर खत्म हो गया है? सन 74 के आंदोलन में छात्रों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था. इस आंदोलन ने देश की राजनीति की नई दिशा गढ़ी थी और तत्कालीन कांग्रेस सरकार को सत्ता से बाहर करने में अहम भूमिका तक निभाई थी. पर आज छात्र संघों का वजूद तक नहीं बचा है. विश्वविद्यालय, जिन्हें आम तौर पर लोकतांत्रिक राजनीति की पाठशाला भी कहा जाता है, पिछले 27 साल से मरणासन्न पड़े हैं. यहां छात्रसंघों के चुनाव नहीं होने के कारण छात्र राजनीति के रास्ते मुख्यधारा की राजनीति में, नई पीढ़ी के उच्च शिक्षा प्राप्त वर्ग के प्रवेश के रास्ते एक हद तक बंद होकर रह गए हैं.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक श्रीकांत कहते हैं, ‘लगभग 20 साल तक बिहार में पंचायती चुनाव नहीं हुए जिसके कारण लोकतंत्र की पहली सीढ़ी के रास्ते शीर्ष राजनीति की तरफ बढ़ने की परंपरा मिट-सी गई थी. लेकिन जब वर्ष 2000-01 के बाद से पंचायतें फिर से वजूद में आईं तो अब राजनीति में एक नए वर्ग का प्रवेश शुरू हुआ है. इसमें बड़ी संख्या में महिलाएं और कमजोर समाज के लोग भी शामिल हैं. पर जब हम उच्च शिक्षा प्राप्त युवा वर्ग की तरफ देखते हैं तो ऐसा साफ महसूस होता है कि उसका राजनीति में दखल कम होता जा रहा है. इसका असर मौजूदा राजनीति में देखा जा सकता है. इसकी असल वजह विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों का चुनाव न कराया जाना ही है.’ अपनी बातों में एक और महत्वपूर्ण मुद्दे का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं, ‘राजनीति जैसे-तैसे गतिशील रहती ही है. पर उच्च शिक्षा प्राप्त वर्ग के राजनीति में आगे न आने के कारण बदलते समय में नई विचारधारा के सृजन की संभावना भी धूमिल होने लगती है. इससे राजनीति में जड़ता भी आती है. इससे कुल मिला कर राजनीति और समाज का नुकसान ही होता है.’

श्रीकांत की तरह खुद उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी इस मामले को लेकर खासे चिंतित हैं. तहलका से बातचीत में वे कहते हैं, ‘निश्चित तौर पर यह गंभीर चिंता की बात है कि विश्वविद्यालयों के रास्ते राजनीतिक पटल पर चिंतनशील युवाओं का आना अब लगभग समाप्त-सा हो गया है.’ पर मोदी इसके लिए बदलते समय और हालात को जिम्मेदार बताते हुए आगे कहते हैं, ‘मौजूदा दौर में छात्रों के लिए उच्च शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण व्यावसायिक शिक्षा हो गई है. उनका राजनीति से मोह भंग होता जा रहा है. पर किसी भी क्षेत्र में हमेशा स्पेस खाली नहीं रहता. पहले सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के केंद्र में छात्र राजनीति रहती थी, अब ये जगह एनजीओ लेने लगे हैं. अन्ना के आंदोलन में युवा शक्तियों ने यह उदाहरण सामने रखा है.’

80 के दशक में छात्र राजनीति से उभरे नेता सामाजिक न्याय और न्याय के साथ विकास जैसी नई धाराओं के साथ राजनीतिक पटल पर उभरे थे. तो सवाल उठता है कि उन्हीं नेताओं के शासनकाल में छात्र राजनीति की धारा कुंद क्यों हो गई. उन्हीं नेताओं ने छात्र राजनीति को फलने-फूलने क्यों नहीं दिया? मुजफ्फरपुर स्थित बीआर अंबेडकर विश्वविद्यालय के छात्र और ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन के नेता आशुतोष कुमार, ‘1990 में लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने. 2005 में नीतीश आए. ये दोनों छात्र राजनीति से ही आगे बढ़े ये छात्र शक्ति की हकीकत बखूबी जानते हैं. उन्हें भय है कि यही छात्र उनके लिए चुनौती बन जाएंगे.’ और लोकजनशक्ति पार्टी के छात्र संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष रोहित कुमार बात आगे बढ़ाते हैं, ‘इसलिए ये नेता छात्रसंघों का चुनाव नहीं कराते. 2005 में छात्र न्याय सम्मेलन में शरीक होते हुए नीतीश ने कहा था कि अगर उनकी सरकार बनी तो तीन महीने के अंदर छात्रसंघों के चुनाव करा दिए जाएंगे. नीतीश पिछले छह साल से मुख्यमंत्री हैं. अब तो उन्हें अपनी बात याद तक नहीं.’ ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अभ्युदय मौजूदा नेताओं को तानाशाह प्रवृत्ति का बताते हुए कहते हैं, ‘उनमें कोई लोकतांत्रिक विचार नहीं है. उन्हें इस बात का खतरा रहता है कि विश्वविद्यालय में लोकतंत्र मजबूत हुआ तो उनका सिंहासन खतरे में पड़ जाएगा.’
हालांकि इन आरोपों को उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी सिरे से खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ‘सरकार विश्वविद्यालयों को चुनाव कराने से कब रोकती है? वे इसके लिए स्वतंत्र हैं. चाहें तो चुनाव करा सकते हैं.’

पर बात इतनी सरल है नहीं, यह पटना विश्वविद्यालय के कुलपति शंभूनाथ सिंह की बातों से स्पष्ट हो जाता है. शंभूनाथ कहते हैं, ‘सरकार का काम है शिगूफा छोड़ देना और अपना रास्ता लेना. छात्रसंघों के चुनाव से पहले हमारे सामने कानून-व्यवस्था की चुनौती काफी गंभीर है. परिसरों में असामाजिक तत्व खुल्लमखुल्ला अराजकता फैलाते हैं, दफ्तरों में ऐसे लोग कट्टा लेकर घुस जाते हैं पर पुलिस खामोश रहती है.’ कमोबेश शंभूनाथ जैसा जवाब बीआर अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय और ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के उपकुलपतियों के भी हैं. वहीं इस मामले में शंभूनाथ सिंह एक और बात कहते हैं, ‘हम लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के आधार पर चुनाव कराने के पक्ष में हैं, क्योंकि ऐसा निर्देश राजभवन की तरफ से भी आया है.’

वहीं शंभूनाथ के इस प्रस्ताव पर छात्र संगठन आपस में बंटे हुए हैं. कुछ का तर्क है कि लिंगदोह कमेटी (देखें बाक्स) चुनाव के साथ-साथ मनोनयन का भी विकल्प देती है जो लोकतांत्रिक नहीं है. छात्र नेता फिरोज अहमद मेहर कहते हैं, ‘लिंगदोह कमेटी की सिफारिशें छात्रसंघों को कमजोर करने का षड्यंत्र हैं जो निजी विश्वविद्यालयों के हितों का समर्थन करती हैं.’ वहीं रोहित कहते हैं, ‘कमेटी की सिफारिशों पर देश के कई विश्वविद्यालयों में चुनाव होते हैं. ये सिफारिशें उतनी बुरी नहीं हैं जितना कुछ लोग उन्हें बताते हैं. पर सवाल यह है कि उन सिफारिशों पर भी तो बिहार में चुनाव नहीं कराए जाते.’ रोहित कहते हैं, ‘राजभवन, राज्य सरकार और विश्वविद्यालय दरअसल यह नहीं चाहते कि विश्वविद्यालयों से सेकंड लाइन की लीडरशिप उभरे क्योंकि यह उनके लिए ही खतरा है.’

विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों के चुनाव पुराने पैटर्न पर हों या लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के आधार पर, यह विवाद उतना गहरा नहीं है. लेकिन सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन जिस तरह से एक-दूसरे के नाम पर बहाने बना कर चुनाव रोकते हैं इससे दोनों की मंशा झलकती है कि वे चुनावों के पक्ष में नहीं हैं. इसका खामियाजा छात्र राजनीति को भुगतना पड़ रहा है.