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पोंटी के प्यार में यूपी सरकार

शराब कारोबारी पोंटी चड्ढा की गाजियाबाद स्थित परियोजना वेव सिटी अपनी शुरुआत से ही नियम-कायदों की भयानक अनदेखी और किसानों के दमन का उदाहरण रही है.जयप्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट बताती है कि किस तरह उत्तर प्रदेश में अलग-अलग समय पर रही सरकारों ने इस परियोजना के प्रति खास दरियादिली दिखाई

किस्तों में कत्ल हुआ मेरा, कभी खंजर बदल गए, कभी कातिल बदल गए… कुछ ऐसी ही पीड़ा है गाजियाबाद से सटे नायफल गांव के रविदत्त शर्मा की. शर्मा ही नहीं, आस-पास के करीब 18 गांवों के किसानों का यही दर्द है. सरकार उनकी करीब नौ हजार एकड़ जमीन वेव सिटी के नाम पर चर्चित शराब कारोबारी पोंटी चढ्ढा के स्वामित्व वाली कंपनी को औने-पौने दामों पर दे चुकी है. हालांकि कागजों में योजना का स्वामित्व पोंटी के रिश्तेदार गिन्नी चड्ढा को दिखाया गया है. वेव सिटी बनवाने के लिए सरकारें कितनी बेताब रहीं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2003 से उत्तर प्रदेश की सत्ता में रही समाजवादी पार्टी रही हो या दलितों की रहनुमा बसपा सभी ने नियम- कानूनों के साथ ऐसा खिलवाड़ किया कि गरीब किसान एक ही झटके में अपनी खेती-बाड़ी की जमीन से महरूम हो गए. ऐसा नहीं कि किसानों ने सरकार और बिल्डर के जुल्म के खिलाफ आवाज नहीं उठाई, लेकिन पैसे और सत्ता की ताकत के आगे उनकी आवाज गांव की गलियों में ही दफन हो गई.

सबसे पहले बात करते हैं टाउनशिप नीति की जिसकी शुरुआत नवंबर, 2003 में हुई थी. तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह थे. सरकार ने उस समय गाजियाबाद जिले के नायफल गांव से सटे कुछ गांवों में हाईटेक सिटी बनाने का लाइसेंस पोंटी चड्ढा को दिया. 2003 से 2006 तक वेव सिटी के निर्माण में कोई खास तेजी नहीं आई. इस दौरान बिल्डर की ओर से कुल भूमि के करीब 20 से 25 प्रतिशत का अधिग्रहण हो सका.  2007 में बसपा की सरकार राज्य में बनी. नई सरकार ने नई टाउनशिप नीति घोषित कर दी. इसके मुताबिक परियोजना की 75 प्रतिशत भूमि बिल्डर को सीधे किसानों से खरीदनी थी. बाकी 25 प्रतिशत भूमि सरकार को अधिग्रहण के जरिए उपलब्ध करवानी थी.

2007 में बनी यह नीति सिर्फ दो साल चली. जनवरी, 2009 में इसमें एक बार फिर से संशोधन किया गया. इस संशोधन में सरकार ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों पर खास ध्यान दिया. नई नीति में कहा गया कि हाईटेक टाउनशिप के चयन स्थल में अनुसूचित जाति एवं  जनजाति के व्यक्तियों की जितनी भी भूमि बिल्डर द्वारा खरीदी जाएगी उतनी ही भूमि आस-पास के क्षेत्र में खरीद कर उन लोगों को दी जाएगी.  यह अपने आप में ही अव्यावहारिक है. जानकार कहते हैं कि एनसीआर के इलाके में जमीनों की ही लड़ाई है ऐसे में जमीन के भूखे बिल्डर जमीन खरीद कर देने की सोच भी नहीं सकते.

खेती-बाड़ी पर गुजर-बसर करने वाले दलित और गरीब किसानों के लिहाज से नई टाउनशिप नीति वरदान सरीखी थी. लेकिन असल हालात कुछ और ही कहानी बयान करते हैं. दलित रतन सिंह की पौने तीन बीघा जमीन अर्जेंसी क्लॉज लगा कर सरकार ने वेव सिटी को आवंटित कर दी. जमीन जाने का रंज रतन को इस कदर है कि जमीन का जिक्र आते ही वे बिफर उठते हैं, ‘जमीन के बदले जमीन देना तो दूर मुआवजा तक ठीक से नहीं मिला. मुझे 9.27 लाख रुपये बीघे के हिसाब से मुआवजा मिला है जबकि मेरी जमीन का बाजार भाव 60-70 लाख रुपये बीघा है क्योंकि यह पूरी जमीन नगर निगम गाजियाबाद की सीमा में आती है.’

सपा रही हो या बसपा, पोंटी के मेगा प्रोजेक्ट के आगे किसानों के अधिकार और हक की सुनवाई कहीं नहीं हुई. नियमों को तार तार करने में सरकार के साथ नौकरशाह भी शामिल रहे. आरोप है कि सरकारी मशीनरी ने बिल्डर के पक्ष में किसानों को बरगलाने का काम किया. रतन बताते हैं, ‘तत्कालीन भू-अर्जन अधिकारी ने दलित किसानों को बुलवाया और कहा कि आप लोग अपनी ही बिरादरी के हैं. अभी जमीन दे दीजिए, आगे यदि जमीन का रेट बढ़ता है तो कंपनी से बात करके मैं बढ़ा रेट जरूर दिलवाऊंगा.’ रतन आगे कहते हैं, ‘अधिकारी की बातों पर विश्वास करके हमने जमीन दे दी, अब हमारे पास कुछ नहीं है. चार बेटे हैं. कभी यदि वे अपना अलग मकान बनाना चाहें तो एक इंच जमीन भी नहीं बची है.’

वेव सिटी के लिए सरकार की दरियादिली किसानों की जमीन दिलाने तक ही सीमित नहीं रही. गांव की उन तमाम सरकारी जमीनों को भी उसने इस परियोजना के हवाले कर दिया जिन्हें सिर्फ सामुदायिक कार्यों के लिए  इस्तेमाल किया जा सकता है. इन सरकारी जमीनों में चकरोड, रास्ते, नहरें, नालियां और ग्रामसभा की जमीनें आती थीं. गाजियाबाद नगर निगम के सभासद राजेंद्र त्यागी कहते हैं, ‘जिले की कई ग्राम सभाओं की 70.488 एकड़ सरकारी जमीन का पुनर्ग्रहण (ऐसी जमीनें जो अतीत में सरकार ने ही लोगों को आवंटित की हों) कर हाइटेक सिटी के हवाले कर दिया गया जबकि प्रदेश सरकार की ओर से 1991 में एक आदेश पारित कर यह नियम बनाया गया था कि सरकारी जमीनों का उपयोग भूमिहीनों के आवंटन एवं ग्रामीणों के सामुदायिक विकास के लिए ही किया जा सकता है.’  त्यागी आगे बताते हैं, ‘सरकार इन जमीनों का पुनर्ग्रहण सिर्फ राज्य ही कर सकती है. निजी क्षेत्र को ऐसी भूमि के आवंटन पर भी आदेश में स्पष्ट नियम हैं. इसके मुताबिक सिर्फ उसी निजी उद्यम को ऐसी जमीने उपलब्ध करवाई जा सकती हैं जिनमें सरकार की 50 प्रतिशत या अधिक की अंश पूंजी लगी हो.’

गांव की उन तमाम सरकारी जमीनों को भी इस परियोजना के हवाले कर दिया गया जिन्हें सिर्फ सामुदायिक कार्यों के लिए ही इस्तेमाल किया जा सकता है

दिहाड़ी मजदूर रामपाल को 1981 में राज्य सरकार ने छह बीघे जमीन का पट्टा 1981 में दिया था. अब यह जमीन निजी क्षेत्र को देने के लिए वापस ले ली गई है. किसान नेता डॉक्टर रूपेश कहते हैं, ‘जब सरकारी जमीन को निजी क्षेत्र के हाथ सौंपने का कोई नियम-कानून ही नहीं है तो सरकार एक खास बिल्डर पर इतनी मेहरबान क्यों हैं?’

जमीनों की कीमत भी झगड़े की जमीन तैयार करती है. जिस जमीन को सरकार ने बिल्डर को 1100 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से आवंटित किया है उसे वेव सिटी में 18,700 रुपये प्रतिवर्ग मीटर से लेकर 35,000 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से बेचा जा रहा है. इस मनमानी के खिलाफ सभासद त्यागी ने राज्यपाल को भी एक ज्ञापन भेजा है. अपने ज्ञापन में उन्होंने लिखा है कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी यदि कोई जमीन खरीदता है तो उसे स्टांप ड्यूटी देनी होती है जबकि पोंटी चड्ढा को सरकार की ओर से ड्यूटी में छूट दी गई है.

पोंटी पर सरकार की मेहरबानी 2006 के बाद से अचानक ही बढ़ गई. तब प्रदेश में सपा का शासन था. 2006 में वेव सिटी के लिए सरकार ने डासना, बयाना, नायफल, महरौली व काजीपुरा गांव की 433.639 हेक्टेयर जमीन पर अर्जेंसी क्लाज लगाकर अधिग्रहण की पृष्ठभूमि तैयार की. सपा शासन के अंतिम दौर में जनवरी 2007 में दुरयाई गांव की 96.013 हेक्टेयर जमीन पर अर्जेंसी क्लाज लगाकर वेव सिटी का रास्ता खोला गया.

इस अर्जेंसी क्लॉज के खिलाफ किसानों ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली. यहां उन्हें बड़ी राहत मिली और यथास्थिति बनाए रखने का आदेश कोर्ट ने जारी किया. यहां एक बार फिर से किसान खेती-बाड़ी में लग गए. लेकिन शांति ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रही. बसपा सरकार ने 2009 में एक बार फिर डासना, बयाना, नायफल, महरौली व काजीपुरा की उन्हीं जमीनों पर अर्जेंसी क्लॉज लगा दिया जिन पर सपा ने 2006 में लगाया था. सरकार के इस कदम से नाराज 252 किसानों ने एक बार फिर से हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हाई कोर्ट ने गाजियाबाद के जिलाधिकारी से स्थिति साफ करने को कहा. इस फैसले से असंतुष्ट किसान सुप्रीम कोर्ट चले गए. सुप्रीम कोर्ट में किसानों ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि सरकार उनकी जमीनों का बेवजह अर्जेंसी क्लाज में अधिग्रहण कर रही है और हाई कोर्ट दोबारा उन्हें सरकार के पास ही भेज रहा है. इस पर सुनवाई करते हुए जस्टिस आरएम लोढ़ा और एचएल गोखले की पीठ ने 30 जनवरी 2012 को फिर से पूरी जमीन पर यथास्थिति बनाए रखने का निर्णय दे दिया. महरौली गांव के प्रमोद कुमार कहते हैं, ‘जब सुप्रीम कोर्ट ने एक बार यथास्थिति बनाए रखने का निर्णय दे दिया था तब सरकार ने दोबारा उसी जमीन पर अर्जेंसी क्लॉज कैसे लगा दिया. क्या सरकार का निर्णय देश की सर्वोच्च न्यायपालिका के आदेश से बड़ा है?’

नायफल के किसान रविदत्त शर्मा कहते हैं, ‘सरकार को निजी क्षेत्र की टाउनशिप बनवाने के लिए अर्जेंसी क्लॉज लगाने की जरूरत क्यों पड़ गई. जबकि न्यायालय ने अपने निर्देश में साफ कहा है कि अर्जेंसी क्लॉज लोकहित के लिए ही लगाया जा सकता है मसलन छावनी बनाना, आपदा पीड़ितों और विस्थापितों को बसाना आदि. यहां इनमें से कोई भी स्थिति नहीं है.’

चड्ढा और सरकार की इस स्वप्निल परियोजना को सिरे चढ़ाने के लिए गाजियाबाद जिले का पूरा प्रशासनिक अमला भी आमादा था. दुरियाई गांव निवासी ब्रह्म प्रकाश कहते हैं, ‘अधिकारियों ने किसानों को कागजों में ऐसा उलझाया कि वे अपनी जमीनंे बचाने के लिए कोर्ट-कचहरी के चक्कर में उलझ गए और जमीन पर धीरे-धीरे बिल्डर का कब्जा होता गया.’ सरकारी मशीनरी की ओर से बिछाए गए जाल का उदाहरण देते हुए प्रकाश बताते हैं कि उनका 15 बीघा खेत एक ही जगह पर स्थित है लेकिन उसमें से साढ़े सात बीघे पर अर्जेंसी क्लॉज लगाया गया और साढ़े सात बीघे पर आपत्ति मांगी गई. अर्जेंसी क्लॉज तब लगाया जाता है जब जमीन की आवश्यकता तुरंत हो. ऐसे में सवाल उठता है कि जब खेत एक ही जगह हैं तो आधे में अर्जेंसी क्लॉज और आधे पर आपत्ति क्यों मांगी गई जबकि पूरा प्रोजेक्ट एक ही है. अपने सवाल का जवाब भी प्रकाश खुद ही देते हैं, ‘ऐसा किसानों को उलझाने के लिए किया गया है ताकि वे एकजुट न हो पाएं.’

ऐसा सिर्फ प्रकाश के नहीं बल्कि काजीपुरा, डासना, बयाना, नायफल सहित कई गांवों के सैकड़ों किसानों के साथ हुआ है. नायफल की 184.031 हेक्टेयर जमीन में से 147.964 हेक्टेयर जमीन पर अर्जेंसी क्लॉज लगाया गया, जबकि 36.067 हेक्टेयर पर किसानों से आपत्ति मांगी गई. इसका क्या आधार  था, अधिकारियों के पास कोई जवाब नहीं. कोशिश करने पर जो जवाब किसानों को मिले वे हास्यास्पद हैं. किसानों द्वारा दायर एक आपत्ति के जवाब में गाजियाबाद प्राधिकरण का एक जवाब देखें- ‘…आपत्तिकर्ताओं को सुना गया. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लोक प्रयोजन हेतु जनपद गाजियाबाद के विकास एवं सुख सुविधा एवं दुर्बल वर्ग के व्यक्तियों को सुखागार एवं हाईटेक टाउनशिप योजना के अंतर्गत भूमि अधिगृहीत की जा रही है…’

एनसीआर प्लानिंग बोर्ड ने 13 फरवरी 2012 को अपने जवाब में बताया कि वेव सिटी टाउनशिप के विकास हेतु किसी भी प्रस्ताव को उसने मंजूरी नहीं दी है

एक बार को यह मान लेते हैं कि योजना दुर्बल वर्ग के लोगों को ध्यान में रख कर बनाई जा रही है. लेकिन पूरी वेव सिटी परियोजना में जमीन की कीमत  देखी जाए तो यह 18 से 35 हजार रु प्रति वर्गमीटर के बीच है. इसके बाद कोई भी समझ सकता है कि योजना किस आयवर्ग के लिए है.

दुरियाई गांव के किसान अमन जाटव कहते हैं, ‘जब किसानों ने एकजुट होकर जमीन न देने के लिए आंदोलन शुरू किया तो सरकार व प्रशासनिक अधिकारियों ने बलपूर्वक तथा बिल्डर ने लालच देकर उनमें फूट डालने की कोशिश की. किसान मामचंद्र की जमीन का जो करार हुआ उसके बदले सरकार की ओर से 58,63,000 रुपये का चेक आठ अप्रैल 2010 को दिया गया. इसके दो दिन बाद ही यानी 10 अप्रैल 2010 को 17,84,057 रु का एक अकाउंट पेयी चेक किसी चंदन सिंह के नाम का भी दिया जाता है. यह चेक गाजियाबाद स्थित एक्सिस बैंक के अकाउंट संख्या 000199740950102 की ओर से जारी किया गया.’ अमन आरोप लगाते हुए कहते हैं, ‘जमीन की जो रकम सरकार की ओर से मामचंद्र को दी गई वह तो ठीक थी लेकिन दो दिन बाद जो चेक चंदन सिंह के नाम से मामचंद्र को जारी किया गया वह जमीन देने के बदले समझौते की रकम थी.’ अमन बताते हैं कि सरकार व प्रशासन की मिली भगत से बिल्डर के लोगों ने कई किसानों को तोड़ने का काम इसी तरह किया.

वेव सिटी नियम-कानूनों को धता बता कर खड़ी की जा रही है, इसके और भी तमाम सबूत हैं. रविदत्त शर्मा ने जनवरी, 2012 में शहरी विकास मंत्रालय के अधीन आने वाले एनसीआर प्लानिंग बोर्ड में आरटीआई डाल कर यह जानकारी मांगी कि क्या बोर्ड ने हाईटेक टाउनशिप के लिए उत्तर प्रदेश सरकार अथवा गाजियाबाद विकास प्राधिकरण को स्वीकृति प्रदान की गई है. जवाब चौंकाने वाला था. बोर्ड ने 13 फरवरी 2012 को अपने जवाब में बताया कि वेव सिटी टाउनशिप के विकास हेतु किसी भी प्रस्ताव को बोर्ड ने मंजूरी नहीं दी है. कुछ महीने पहले कुछ ऐसा ही सवाल उठाने पर एनसीआर प्लानिंग बोर्ड की कमिश्नर प्रोमिला शंकर को निलंबन के रूप में इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था.  हाल ही में केंद्र के हस्तक्षेप के बाद वे बहाल हुई हैं. तहलका के साथ बातचीत में प्रोमिला का कहना था, ‘कृषि योग्य भूमि पर हो रहा अंधाधुंध निर्माण भविष्य में सामाजिक अस्थिरता पैदा कर सकता है, इसलिए एनसीआर में होने वाले किसी भी अधिग्रहण के लिए प्लानिंग बोर्ड की सहमति जरूरी होती है.’

वेव सिटी के लिए गाजियाबाद के अतिरिक्त गौतमबुद्धनगर के भी पांच गांवों की जमीन अधिगृहीत की जा रही है. यह जमीन एनएच 24 से लेकर जीटी रोड तक स्थित है. टाउनशिप की सीमा प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के पैतृक गांव बादलपुर तक जाती है. बादलपुर से सटे दुजाना गांव की 256.695 हेक्टेयर जमीन टाउनशिप में शामिल की जा रही है. क्षेत्र में किसानों की हालत यह है कि अधिग्रहण के चलते उनकी पूरी दिनचर्या ही बदल गई है. पिछले कुछ सालों से किसानों का ज्यादातर समय कोर्ट कचहरी के चक्करों में बीत रहा है और बचा-खुचा समय गांव की पंचायतों में बैठकें करके जमीन बचाने की रणनीति बनाने में बीतता है. सआदतनगर इकला के टीकम नागर जैसे युवक गांव-गांव जाकर लोकगीतों के माध्यम से किसानों को जागरूक करने का काम कर रहे हैं. पीएचडी करके किसानों की लड़ाई लड़ रहे डाक्टर रूपेश कहते हैं, ‘पूरे एनसीआर में जिस तरह उपजाऊ जमीन का सरकार बिल्डरों को फायदा देने के लिए अधिग्रहण कर रही है आने वाले समय में नोएडा, गाजियाबाद, दिल्ली ही नहीं, आसपास के पूरे क्षेत्र में लोगों को दूध व अनाज की भारी किल्लत का सामना करना पड़ेगा. जब खेत और मवेशी ही नहीं होंगे तो किसानी और पशुपालन कहां से होगा.’

लेकिन जब एक सीनियर आईएएस अधिकारी तक को सवाल उठाने पर निलंबन भुगतना पड़ा हो तो आम आदमी का क्या कहा जाए.

रेणु के गांव में आज भी जिंदा हैं ‘मैला आँचल’ के पात्र

मैला आंचल और   परती-परिकथा में रेणु ने जिस जातीय व्यवस्‍था की बात की थी वह उनके गांव औराही हिंगना में आज भी वैसी ही दिखती है. संजीव चंदन की रिपोर्ट

 पूर्णिया में प्रगतिशील लेखक संघ के राज्य अधिवेशन में शिरकत करने के दौरान रेणु जी के गाँव जाना संभव हुआ. औराही हिंगना  को, रानी गंज के इलाके  ( मैला आँचल में मेरीगंज ) को, जहाँ फणीश्वर नाथ रेणु का पुश्तैनी घर है, जो मैला आँचल और परती-परिकथा सहित उनकी कई कहानियों की आधारभूमि है,  जहां पंचलैट के टोले हैं, जहाँ तीसरी कसम  के जीवंत पात्र और कसबाई तथा ग्रामीण समाज  की उपस्थिति है, को एक बार देखने की ललक पुर्णिया या अररिया जाने वाले हर साहित्य प्रेमी में होती है.

औराही हिंगना में ‘ रेणु स्मृति भवन ‘ के लिए एक करोड़ रुपये की व्यवस्था हो चुकी है, और पटना में एक पार्क में रेणु जी की  एक प्रतिमा का अनावरण चार मार्च को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हाथों होने वाला है.

पूर्णिया से पटना तक, रेणु जी के परिवार से मिलकर ख़ुशी इस बात की हुई कि अब उनका परिवार रेणु जी की विरासत को समझ रहा है, उसे संजोने में लगा है. राज्य सरकार भी परिवार की भावनाओं के आदर, बिहारी अस्मिता के निर्माण, महान रचनाकार के सम्मान और धानुक मंडल जाति के वोट वैंक की हिफाजत के मिश्रित भाव में उदार दिख रही है. औराही हिंगना में ‘ रेणु स्मृति भवन ‘ के लिए एक करोड़ रुपये की व्यवस्था हो चुकी है, और पटना में एक पार्क में रेणु जी की  एक प्रतिमा का अनावरण चार मार्च को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हाथों होने वाला है.  ‘ रेणु स्मृति भवन ‘ का खांचा रेणु जी के छोटे बेटे ने खींच रखा है. लाइब्रेरी होगी, सेमिनार हल होगा, गेस्ट रूम होंगे, डिजिटल संग्रहालय होगा.

आलोचक वीरेन्द्र यादव का कहना है कि  रेणु जी को राज्य सरकार से मिलता सम्मान सिर्फ महान रचनाकार को मिलता सम्मान नहीं है, धानुक  मंडल की जनसांख्‍यिकी को साधने की कोशिश भी है . रेणु जी के गाँव की आबादी का शत प्रतिशत धानुक मंडल जाति का है, जिससे खुद रेणु जी आते थे तथा जो बिहार की अति पिछड़ी जाति है. पंचायत की 11 हजार आबादी का 60 फीसदी हिस्सा धानुक मंडल का ही, . शेष 20-20 फीसदी आबादी मुस्लिम और महादलित है.  रेणु  जी का सबसे बड़ा बेटा पद्मपराग वेणु इस जातीय समीकरण के कारण ही शायद इस इलाके से भाजपा के  विधायक हैं.

औराही हिंगना की ओर जाते हुए नेशनल हाइवे शानदार है – सफ़र करते हुए रोड और भवनों के माध्यम से विकास के गणित में फंसा जा सकता है. हालंकि रेणु के गाँव तक जाने में लगभग तीन किलोमीटर लंबी सड़क पर ‘सुशासन’ की मेहरबानी अभी तक नहीं हुई है. हाँ, गाँव तक जाने के दो सड़कों में से एक पर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना का नाम जरूर अच्छे से खुदा है. लेकिन जो एक दूसरी सड़क  पर , जिससे हम हिचकोले खाते, धूल उड़ाते  रेणु जी के गाँव पहुंचे प्रधान मंत्री ग्राम सड़क की पट्टी तो लगी है लेकिन  सड़क गायब है.

मैला आँचल में रेणु जी जाति समाज और वर्ग चेतना के बीच विरोधाभास की कथा कहते हैं. आज इस इलाके को मैला आँचल की दृष्टि से देखने पर जाति समीकरण और संसाधनों पर वर्चस्व की जातीय व्यवस्था उपन्यास के कथा समय के लगभग अनुरूप ही दिखता है. जलालगढ़ के पास ‘मैला आँचल ‘ के मठ का वर्तमान संस्करण दिखा, जिसके नाम पर आज भी सैकड़ो एकड़ जमीन है. वहीँ बालदेव के वर्तमान भी उपस्थित थे, जाति से भी यादव, नाथो यादव, जिनके जिद्दी अभियान से बिहार सरकार जलालगढ़ के किले का जीर्णोद्धार करने जा रही है. साधारण मैले कपडे में, थैला लटकाए आधुनिक बालदेव यानि नाथो ने किले की जमीन को कब्ज़ा मुक्त किया, वह भी अपनी ही जाति  के किसी दबंग परिवार के कब्जे से.

रेणु जी के घर में अब  उनके  समय के अभाव नहीं है, रेणु जी की खुद की पुश्तैनी खेती 22 सौ बीघे की थी, जो अब सीलिंग के बाद कुछ सैकड़ों में सिमट गई है. इस विशाल भूखंड के मालिकाना के बावजूद रेणु जी के आर्थिक संघर्ष छिपे नहीं हैं -कारण ‘परती परीकथा’ -कोशी की बंजर भूमि- पटसन की खेती, वह भी अनिश्चित . हालाँकि खेत के कुछ भाग में रेणु जी के  रहते, यानी 70 के दशक में धान की खेती संभव होने लगी थी. जमीन पर मालिकाना ‘भूमफोड़ क्षत्रियों’ ( मैला आँचल में व्यंग्यात्मक जाति संबोधन ) का है, मठों का है , कायस्थ विश्वनाथ प्रसाद तो कोई नहीं मिला कुछ घंटे की यात्रा में, लेकिन जलालगढ़ में ही साहित्यकार पूनम सिंह ( जो इस इलाके के होने के कारण हमारी गाइड थीं ) के भूमिहार परिवार ( सवर्ण ) के पास भी काफी जमीनी मालिकाना है. जातियां उपन्यास के कथा काल की हकीकत थीं और आज की भी.

(लेखक ‘स्‍त्रीकाल’ पत्रिका के संपादक हैं.)

 

 

 

 

सबक, स्वार्थ और संदेश

 

महात्मा गांधी के पौत्र और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी बदलते बिहार पर वैश्विक सम्मेलन के समापन सत्र में अपना भाषण एक काल्पनिक चिट्ठी के रूप में पेश करते हैं. जयप्रकाश नारायण के नाम लिखे पत्र में वे कहते हैं, ‘जयप्रकाश जी अगर आज आप होते तो खुश होते कि आपके दो शागिर्दों-लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने बिहार में कितना अच्छा काम किया है. लालू ने बिहार में सामाजिक न्याय की अद्भुत चेतना जगाई. और आपके दूसरे शागिर्द नीतीश कुमार ने प्रदेश में न्याय के साथ विकास का महान काम शुरू कर दिया है.’ नीतीश गोपाल कृष्ण गांधी की बातों को टकटकी लगाये मोहित होकर सुनते रहते हैं. सम्मेलन के एक अन्य सत्र में भारतीय मूल के ब्रितानी उद्योगपति करण बिलमोरिया बिहार के नेतृत्व की तुलना ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्ग्रेट थैचर से करते हैं. कहते हैं कि थैचर की कोशिशों से ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था का स्वरूप बदल गया था. नीतीश भी कुछ उसी अंदाज में तरक्की का इतिहास रच रहे हैं. 

लेकिन ऐसा नहीं है कि 17-19 फरवरी तक चले इस बहुप्रचारित सम्मेलन में नीतीश सरकार के कामों को सिर्फ सराहना ही मिली. आदित्य बिड़ला ग्रुप के चेयरमैन कुमार मंगलम बिड़ला ने साफ कहा कि आप चाहे जो कुछ भी कर लें कोई भी निवेशक आपके यहां तब तक अपनी पूंजी का पिटारा नहीं खोलेगा जब तक आपके यहां बुनियादी सुविधाओं का विकास नहीं होगा. उन्होंने कहा कि बिहार में बिजली की स्थिति इतनी दयनीय है कि कोई यहां निवेश करने से पहले कई बार सोचेगा. नीतीश को भी इसका अहसास रहा होगा. शायद तभी उन्होंने सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में ही कह दिया था कि इस आयोजन का मकसद पूंजी निवेश हासिल करना नहीं बल्कि यह है कि इस सम्मेलन में होने वाले विचार मंथन से जो आइडिया सामने आयेंगे, उन्हें सरकार अपने विकास के एजेंडा का हिस्सा बनायेगी. 

हालांकि ऐसा नहीं है कि बिहार की बुनियादी सुविधाओं की बदहाली के कारण किसी ने इस दौरान निवेश की घोषणा नहीं की. भले ही नीतीश ने कहा हो कि यह सम्मेलन निवेश हासिल करने की कवायद नहीं है पर बिड़ला ने पांच सौ करोड़ रुपये के निवेश से सीमेंट फैक्ट्री लगाने का ऐलान कर दिया.

 इस सम्मेलन में देश-दुनिया के लगभग 1500 प्रतिनिधियों और 150 विशेषज्ञ वक्ताओं ने हिस्सा लिया. इनमें नेपाल के प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई, भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव, लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स के अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर लॉर्ड निकोलस स्टर्न और लॉर्ड मेघनाद देसाई और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया सहित कई अन्य बहुचर्चित लोग शामिल थे.  कवायद इस पर केंद्रित रही कि बिहार को कम से कम समय में विकसित राज्य कैसे बनाया जाये. लेकिन कई चीजें इसके इतर भी हुईं. जैसे आयोजन के दौरान कई बार केंद्र और राज्य की तनातनी की झलक दिखी. नीतीश ने एक बार फिर बिहार के साथ केंद्र केंद्र के सौतेले रवैय्ये का राग छेड़ा. वे केंद्र द्वारा बिहार को विशेष दर्जा नहीं देने और राज्य के साथ सौतेला रवैया अपनाने वाली बात कह कर जनता का समर्थन लेने की कोशिश करते रहे हैं. इसलिए उन्होंने जहां योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया को निशाना बनाया वहीं योजना आयोग के सदस्य अभिजीत सेन पर भी तंज के तीर छोड़े. उधर, मोंटेक और सेन ने भी बिहार सरकार के तर्कों का करारा जवाब दिया.मोंटेक ने कहा कि राज्य को तरक्की की गति के साथ यह भी सुनिश्चित करना होगा कि विकास के लाभ का असर गरीबों की आमदनी में इजाफे के तौर पर दिखे, जो कि अभी बिहार में नहीं हो रहा है. 

उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने केंद्र सरकार के बजाय केंद्रीय वित्तीय संस्थानों यानी बैंकों के कथित दोहरे रवैये को अपनी राजनीति का रामबाण एजेंडा बना रखा है. सुशील बोलते रहे हैं कि बिहारियों के 99000 हजार करोड़ रुपये बैंकों में जमा हैं और ये बैंक बिहारियों के पैसों का निवेश बिहार से बाहर करते हैं लेकिन बिहारियों को कर्ज नहीं देते. इस बार उनकी इस बात पर सेबी के अध्यक्ष ने राज्य सरकार को झटका दिया. सेबी के अध्यक्ष यूके सिन्हा ने बिहार सरकार द्वारा प्रचारित तथ्यों को झुठला दिया. सिन्हा ने कहा कि यह गलतफहमी फैलाना ठीक नहीं है और लोगों को इस तरह की गलतफहमी को अपने सर पर हावी नहीं होने देना चाहिए . 

बिहार सरकार इस सम्मेलन द्वारा एक और अहम एजेंडे पर लगी रही. उसका प्रयास रहा कि इस आयोजन से बिहार की बदलती छवि को पेश किया जाये. बिहार की ब्रांडिंग की जाए. यह अलग बात है कि यह बिहार से ज्यादा नीतीश की छवि चमकाने की कवायद दिखी. 97 प्रतिशत वक्ताओं के शब्द मुख्यमंत्री की विराट छवि को समर्पित रहे. 

हालांकि तीन दिनों के इस सम्मेलन में कुछ ऐसे लम्हे भी आए जब सरकारी दांव उलटा पड़ गया. श्रोताओं में ऐसे भी थे जो सरकारी गुणगान को हद से ज्यादा होता देख जबरन माइक तक पहुंचने से भी बाज नहीं आए. सम्मेलन के दूसरे दिन अचानक एक अंजान सा चेहरा तमाम रुकावटों को दर किनार करता हुआ मंच तक जा पहुंचा. उसका कहना था, ‘सिर्फ गुणगान और प्रशंसा ही करनी थी तो इसमें हम जैसों की जरूरत ही क्या थी. राज्य में फैले भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की समस्याओं पर कोई चर्चा तक क्यों नहीं करता. जो बिहार से बाहर के हैं सिर्फ उन्हें ही सुशासन दिख रहा है.’ 55 साल का वह व्यक्ति इतना ही कह पाया था कि उसे मंच से उतार दिया गया.  फिर वह भीड़ में खो गया. इसे आयोजकों की चौकसी कहिए या उनके मीडिया प्रबंधन की चालबाजी, कि ऐसी घटनाएं स्थानीय अखबारों में खबर नहीं बन पाईं. अब गुमनाम आदमी की बात को भले ही कुछ लोग तवज्जो न देते हों पर इसमें संदेह नहीं कि वह समाज के एक हिस्से का प्रतिनिधित्व तो करता ही है. 

जिस तरह से इस आयोजन की एक विराट छवि स्थापित की गई थी उससे इसमें शामिल प्रतिनिधियों और जिन्हें इसके लिए आमंत्रित नहीं किया गया था, उनमें दो तरह के भाव तो स्पष्ट थे. जो शामिल थे वे इसे अपने लिए बड़ी उपलब्धि समझ रहे थे और बदले में शाइनिंग बिहार के नारे लगाकर अपना हक अदा कर रहे थे. पर बिहार के ऐसे स्थानीय विद्वान या विशेषज्ञ, जो आम तौर पर सरकार के आलोचक रहे हैं और जिन्हें इस सम्मेलन का हिस्सा बनने का मौका नहीं मिला, वे इसे बिहार के असल धरतीपुत्रों का अपमान कह रहे थे. बिहार के चर्चित अर्थशास्त्री एनके चौधरी उनमें से ही एक हैं.  टीवी कलाकार शेखर सुमन के इस समारोह में शामिल होने के ठीक पहले कांग्रेस से इस्तीफा देने की घोषणा ने भी कइयों को सोचने के लिए मजबूर किया. सवाल उठे कि क्या इस सम्मेलन में शामिल होने के लिए किसी और पार्टी की वफादारी छोड़ना एक जरूरी शर्त तो नहीं थी. शेखर 2009 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़कर हार चुके हैं. इस्तीफे की घोषणा के साथ सुमन ने संकेत भी दिया कि वह जनतादल यू में शामिल हो सकते हैं. शत्रुघ्न सिन्हा का बुलावे के बावजूद इस सम्मेलन में न आना कई तरह के कयासों को जन्म दे गया. वह पटना से भाजपा सांसद हैं पर उन्हें एक बिहारी कलाकार की हैसियत से आमंत्रित किया गया था.

ऐसा नहीं कि राजनीतिक एजेंडे फिल्म और टीवी  कलाकारों के ही रहे हों. आयोजन में शामिल कुछ बड़े पत्रकारों के बारे में भी कई तरह की चर्चाएं तैरती दिखीं. कहा जा रहा है कि वे सरकार के पक्ष में निभाई गई अपनी वफादारी के बदले इसकी कीमत वसूलने में भी लगे हैं. अगले अप्रैल में होने वाले राज्यसभा चुनाव में इन हस्तियों में से किसी एक को टिकट मिल जाये तो यह आश्चर्य की बात नहीं होगी. l

 

प्रेम, राजनीति और नेहरू-गांधी परिवार

भारत के सार्वजनिक जीवन में नेहरू-गांधी परिवार की उपस्थिति इतनी व्यापक रही है कि उसे प्रेम जैसे संदर्भ में याद करने के अपने कई खतरे हैं. सबसे बड़ा खतरा जानी-पहचानी सूचनाओं और तरह-तरह के अतिरेकी निष्कर्षों के जाल में फंसने का है. फिर इस परिवार की निजता का इतनी बार उल्लंघन हुआ है कि उसकी कथाओं में कुछ भी गोपनीय नहीं रह गया है. उल्टे इन पर तथ्यों से ज्यादा कल्पना की धूल चढ़ चुकी है.
मिसाल के तौर पर, जवाहरलाल नेहरू और एडविना माउंटबेटन के प्रेम प्रसंग पर कई तरह की चर्चाएं रहीं. 1980 में रिचर्ड हफ ने माउंटबेटन की जीवनी लिखते हुए पहली बार इसे तथ्य के रूप में स्वीकार किया, हालांकि माउंटबेटन परिवार ने तत्काल इसका खंडन किया. बाद में माउंटबेटन के दामाद लॉर्ड ब्रेबॉर्न ने नेहरू और एडविना के बीच हुए पत्र-व्यवहार और उनके जीवनीकारों फिलिप जीग्लर और जेनेट मोर्गन का हवाला देते हुए कहा कि नेहरू और एडविना के बीच कभी कुछ शारीरिक नहीं रहा.

एक और लेखिका एलेक्स वॉन तंजेलमान की किताब ‘इंडियन समर, द सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ द एंड ऑफ एन एंपायर’ से यह विवाद कुछ और तीखा हो गया. तब किताब पर आधारित एक फिल्म बनाई जा रही थी जिसकी स्क्रिप्ट पर भारत सरकार ने आपत्ति जताई और स्क्रिप्ट में मौजूद चुंबन, नृत्य और साथ लेटने के दृश्य हटाने की मांग की. हालांकि यह फिल्म बन नहीं सकी. फ्रेंच लेखिका कैथरीन क्लेमेंट ने नेहरू और एडविना के प्रसंग पर पूरा उपन्यास लिख डाला और दावा किया कि एडविना ने माउंटबेटन को लिखे एक पत्र में कहा था कि नेहरू से उनके रिश्ते ज्यादातर प्लेटॉनिक- आध्यात्मिक- थे. ‘ज्यादातर’ का मतलब था कि निश्चय ही दोनों के बीच करीबी संबंधों के मौके आए होंगे.

बहरहाल इस संबंध में निहित ऊष्मा, आत्मीयता और द्वंद्व को समझे बगैर नेहरू-विरोधी अक्सर इसे नेहरू के चरित्र की किसी भारी विसंगति की तरह पेश करते हैं. वे यहां तक आरोप लगाते हैं कि इस रिश्ते की वजह से कश्मीर, पंजाब और बंगाल बंट गए. इस अतिवादी निष्कर्ष में न इतिहास की समझ दिखती है, न व्यक्ति की. निश्चय ही नेहरू के व्यक्तित्व के अपने कई अंतर्विरोध थे जिनका एक सिरा उनकी राजनीति से जुड़ता है तो दूसरा उस निजी ज़िंदगी से जिसमें पत्नी कमला नेहरू के साथ उनके संबंधों में अपनी तरह की दूरी बताई जाती रही. आखिरी दिनों में कमला नेहरू की बीमारी ने नेहरू विरोधियों को जैसे यह कहने का अधिकार सुलभ करा दिया कि नेहरू ने उनकी उपेक्षा की थी. अब इस उपेक्षा के साथ एडविना के प्रेम प्रसंग को जोड़ दें तो नेहरू का वह खलनायकत्व संपूर्ण हो जाता है. जाहिर है, इन संबंधों की निजता और नजाकत की परवाह किए बिना इनके बारे में टिप्पणी करने वालों को उनके राजनीतिक-सामाजिक पूर्वाग्रह संचालित करते रहे हैं.

वैसे इस पूर्वाग्रह के निशाने पर जितना नेहरू रहे, उससे कहीं ज़्यादा उनकी बेटी इंदिरा गांधी रहीं. इंदिरा गांधी ने फिरोज गांधी से प्रेम किया और फिर पिता की मर्जी के विरुद्ध जाकर विवाह किया. बताते हैं कि फिरोज और इंदिरा की मुलाकात मार्च, 1930 में हुई थी जब आजादी की लड़ाई के क्रम में एक कॉलेज के सामने धरना दे रही कमला नेहरू बेहोश हो गई थीं और फिरोज गांधी ने उनकी देखभाल की थी. संयोग से यह सिलसिला काफी आगे तक गया. फिरोज भुवाली के टीबी सैनिटोरियम में कमला नेहरू के साथ रहे और जब कमला इलाज के लिए यूरोप गईं तो वहां भी उन्हें देखने पहुंचे. 1936 को जब कमला नेहरू का देहांत हुआ तब भी फिरोज गांधी उनकी मृत्युशैया के पास थे. शायद फिरोज गांधी के भीतर सेवा और संवेदना का यह नितांत आत्मीय तत्व था जिसने युवा इंदिरा को उनकी ओर आकृष्ट किया होगा. मार्च, 1942 में आखिरकार उन्होंने शादी कर ली. नेहरू ने भी अंत में इसे अपनी स्वीकृति दी. इसके तत्काल बाद भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ जिसमें पति-पत्नी ने जेल भी काटी.

हालांकि बाद के दौर में यह रिश्ता जटिल हुआ. कहना मुश्किल है, पति और पिता के निजी और राजनीतिक संबंधों के बीच बंटी इंदिरा गांधी वह संतुलन नहीं बैठा पाईं, या उनकी निजी जिंदगी में ऐसे झंझावात आए कि तीस के दशक में परवान चढ़ा प्रेम धीरे-धीरे परस्पर खिन्नता की तरफ बढ़ता गया. 1949 में इंदिरा गांधी अपने बच्चों को लेकर पिता का घर संभालने चली आईं जबकि फिरोज लखनऊ में बने रहे. 1952 में रायबरेली से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद फिरोज दिल्ली आ गए, लेकिन तब भी इंदिरा जवाहरलाल नेहरू के आवास तीन मूर्ति भवन में ही बनी रहीं. हालांकि फिरोज गांधी का चुनाव अभियान रायबरेली जाकर इंदिरा गांधी ने ही संभाला था.

बाद के वर्षों में यह दूरी कुछ और बढ़ी जब राजनीतिक विवादों ने नेहरू और फिरोज गांधी को आमने-सामने ला खड़ा किया. 1956 में फिरोज गांधी ने तब देश के सबसे अमीर लोगों में एक रामकिशन डालमिया का घपला उजागर किया जो सरकार के बहुत करीब थे. डालमिया को दो साल की जेल हुई. इसके फौरन बाद 1958 में फिरोज ने चर्चित हरिदास मूंदड़ा घोटाला उजागर किया तो एक बार फिर नेहरू सरकार की काफी किरकिरी हुई. मूंदड़ा को जेल जाना पड़ा और वित्त मंत्री टीटी कृष्णमचारी को इस्तीफा देना पड़ा.

इस एक फैसले से वे भारतीय राजनीति में सबसे बड़ी, सबसे ऊपर हो गईं. राजीव गांधी के प्रेम का इससे बेहतर प्रतिदान और क्या हो सकता है

हालांकि एक साल बाद ही फिरोज गांधी को दिल का दौरा पड़ा. इस दौर में फिर इंदिरा गांधी ने उनकी देखभाल की. लेकिन 1960 में दूसरे दिल के दौरे के साथ फिरोज चल बसे और आजादी की लड़ाई के समय परवान चढ़ी एक प्रेमकथा अपने अनिश्चित और धुंधले अंत के साथ खत्म हो गई.
फिरोज और इंदिरा गांधी के दोनों और एक-दूसरे से काफी अलग मिजाज के बेटों ने भी प्रेम विवाह किया- संजय गांधी ने मेनका के साथ और राजीव गांधी ने सोनिया के साथ. यह देखना बेहद दिलचस्प है कि इन दोनों जोड़ियों का अपनी पारिवारिक विरासत के साथ क्या रिश्ता रहा.

कहते हैं, मेनका जब सिर्फ 17 साल की थीं तब बॉम्बे डाइंग के एक विज्ञापन में उन्हें देख संजय उनकी तरफ आकृष्ट हुए. महज एक साल बाद उन्होंने मेनका से शादी कर ली. संजय गांधी दुस्साहसी और महत्वाकांक्षी नौजवान थे जिन्होंने अपनी मां की सत्ता का भरपूर इस्तेमाल किया. एक दौर में संजय और मेनका देश के दो सबसे ताकतवर नौजवान थे जिनके इशारों पर सरकार चलती थी. इमरजेंसी के दौर की ज्यादतियों और इंदिरा गांधी के पतन के लिए भी संजय को जिम्मेदार बताया जाता रहा. हालांकि कई लोग 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी का श्रेय भी संजय को देते रहे. 23 जून 1980 को दिल्ली में एक विमान हादसे में संजय गांधी की मौत हो गई. कुछ ही समय के बाद मेनका अपनी सास से नाराज होकर अपने छोटे-से बेटे वरुण का हाथ थामे घर से निकल गईं. इसके बाद तो मेनका और वरुण जीवन और राजनीति की राहों पर इतने दूर और अलग हो चुके हैं कि यह याद करना अजीब-सा लगता है कि कभी यह परिवार इंदिरा और नेहरू-गांधी की विरासत संभालने का सबसे आक्रामक दावेदार था.

दूसरी तरफ इंदिरा और संजय गांधी के रहते राजीव गांधी विमान चलाकर खुश थे. 1965 में कैंब्रिज के एक रेस्टोरेंट में उनकी सोनिया गांधी से मुलाकात हुई थी. तीन साल बाद, 1968 में उन्होंने सोनिया से शादी कर ली. यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं कि देश के सबसे ताकतवर घराने का सबसे बड़ा बेटा होते हुए भी राजीव की सत्ता में दिलचस्पी नहीं थी. उनकी पत्नी सोनिया भी खुद को इन सबसे दूर रखना चाहती थीं. जब 1977 में इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं तब यह अफवाह भी उड़ाई गई कि राजीव इटली जाकर बस सकते हैं. 1980 में संजय गांधी की मौत के बाद इंदिरा आखिरकार उन्हें राजनीति में ले आईं. सोनिया ने ख़ुद स्वीकार किया है कि वे इस फैसले के पूरी तरह खिलाफ थीं और नहीं चाहती थीं कि राजीव राजनीति में आएं. लेकिन आखिरकार उन्होंने महसूस किया कि नेहरू-गांधी परिवार में होने की कुछ क़ीमत तो उन्हें अदा करनी ही पड़ेगी.

और यह कीमत एक लिहाज से काफी महंगी साबित हुई. 1984 में इंदिरा गांधी की आकस्मिक मौत हो गई और राजनीति में नितांत अनुभवहीन राजीव गांधी ने देश की कमान संभाल ली. फिर 1991 में 21 मई का वह दिन भी आया जब श्रीपेरुंबदूर की एक सभा में मौत माला लिए आई, उनके पांव के पास झुकी और फट गई.

सोनिया गांधी इसके बाद बिल्कुल अकेली थीं- दो छोटे-छोटे बच्चों राहुल और प्रियंका का हाथ थामे. उन्होंने खुद को राजनीति से दूर रखने की कोशिश की. पूरे सात साल उन्होंने दस जनपथ का वह दरवाजा बंद रखा जो कांग्रेस मुख्यालय में खुलता है. लेकिन सोनिया घर के दरवाजे बंद कर सकती थीं, उस नियति और विरासत के नहीं जिसके साथ वे जाने-अनजाने जुड़ चुकी थीं.

इसके बाद का सफर भी कम नाटकीय नहीं है. उनके राजनीति में आने पर संदेह जताया गया, उनके विदेशी मूल पर सवाल उठे, उनकी हिंदी की खिल्ली उड़ाई गई,  उन्हें कमजोर बताया गया. लेकिन 2004 आते-आते तस्वीर बदल चुकी थी. 2004 में यूपीए को मिली चुनावी कामयाबी ने यह सुनिश्चित कर दिया कि वे देश की प्रधानमंत्री बनेंगी. उनके समर्थन में राष्ट्रपति को चिट्ठियां तक चली गईं. उनके विरोध में सुषमा स्वराज और उमा भारती जैसी नेत्रियों ने बाल मुंडाने तक के एलान कर दिए.

लेकिन इन सबके बीच बिल्कुल आखिरी लम्हे में सोनिया मुड़ीं, उन्होंने कहा कि उन्हें प्रधानमंत्री पद नहीं चाहिए. अब इस फैसले की बहुत तरह से व्याख्या होती है. चापलूस कांग्रेसी संस्कृति इसे सोनिया के त्याग और उनकी महानता के बहुत सतही और कभी-कभी भोंडे बखान में बदल डालती है. विरोधी इसे ऐसा चालाकी भरा कदम बताते हैं जिसके बाद सोनिया सुपर प्रधानमंत्री हो गईं.

लेकिन शायद वह झिलमिलाता हुआ लम्हा एक बहुत मानवीय लम्हा है. उस लम्हे में सोनिया गांधी को अपना पूरा भारतीय अतीत याद आया होगा, राजीव गांधी याद आए होंगे, सत्ता की ताकत और उसकी सीमाएं याद आई होंगी, इसका नशा और वह विडंबना भी याद आई होगी, जिसने एक ओर नेहरू-गांधी परिवार को देश का सबसे ताकतवर परिवार भी बनाया और दूसरी ओर सबसे वेध्य भी. शायद ये सारे धागे कहीं ज्यादा मजबूत साबित हुए- सत्ता का मोहपाश कम से कम उस घड़ी में सोनिया को नहीं बांध सका. इस एक फैसले से वे भारतीय राजनीति में सबसे बड़ी, सबसे ऊपर हो गईं. राजीव गांधी के प्रेम का इससे बड़ा प्रतिदान और क्या हो सकता है.

नेहरू-गांधी परिवार की यह प्रेम कहानी और आगे बढ़ चुकी है. प्रियंका ने रॉबर्ट वाड्रा से विवाह किया है. राहुल गांधी को लेकर तरह-तरह की अटकलें चलती रही हैं. लेकिन इन सबके बीच कम से कम दो-तीन बातें साफ हैं. एक तो यह कि जीवन अलग-अलग खानों में पूरी तरह बंट नहीं पाता. ऐसा संभव नहीं है कि प्रेम अपनी जगह रहे, राजनीति अपनी जगह. निजता अपनी जगह और सार्वजनिकता अपनी जगह. सब एक-दूसरे में घुसपैठ करते हैं- जीवन और रिश्तों का रसायन शायद बनता भी इसी तरह है. फिर जब आप एक ऐसे परिवार से हों जिस पर पूरे देश की निगाह रहती हो तो निजता बार-बार खंडित होती है, रिश्ते बार-बार कसौटी पर चढ़ाए जाते हैं और अकसर अलग-अलग ढंग से उनकी कीमत चुकानी पड़ती है. नेहरू-गांधी परिवार ने भी यह कीमत चुकाई- आपसी रिश्तों की चुभन से लेकर बाहरी चर्चाओं तक की छाया उनके प्रेम पर पड़ी.

लेकिन इसमें शक नहीं कि उन्होंने सरहदें तोड़ीं, प्रेम किए, जोखिम उठाए और अंततः अपनी शर्तों पर जीते रहे, जी रहे हैं.

इजहार-ए-इश्क का फच्चर

गालिब का इश्क, काम के आदमी गालिब को निकम्मा बनाता है. पता नहीं आपका इश्क आपको क्या बनाता है! चलिए हम मान लेते हैं कि वह आपको भी निकम्मा बनाता है. इश्क चाहे आपको कितना भी निकम्मा बनाए, मगर एक काम तो आपको करना ही पडे़गा, भले ही वह काम आप ‘मरता क्या न करता’ की तर्ज पर करें. मोहब्बत की है, तो मोहब्बत का इजहार भी तो करना होगा, क्योंकि बिना इजहार के इश्क जैसे बिन राह की मंजिल. जैसे बिन सिंदूर के सुहागन. जैसे बिन सेहरे के दूल्हा. जैसे किसी को अंधेरे में मारी गई आंख.
इश्क पर बहुत कुछ लिखा-बोला जा चुका है, तो इश्क पर कुछ न बोल कर इजहार-ए-इश्क के मीठे और प्यारे तरीकों के सफर पर एक लांग ड्राइव पर चलते हैं. हां मगर प्यार से!

सबसे पहले आदम और ईव के प्रेम का साधन कहिए या साक्षी या तरीका, सेब बना. यह इजहार-ए-मोहब्बत न होता, तो आज न आप होते न हम. अति प्राचीन प्रेमियों ने इजहार-ए-इश्क के लिए प्रकृति को चुना. मेघ जो बरसते थे, गरजते थे, वे प्रेमियों के लिए ओवर टाइम करने लगे. प्रेमी अपनी शकुंतला से अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए मेघों को दूत बना कर भेजा करते. इसी काम के लिए किसी प्रेमी ने परिंदों से चाकरी करवाई. किसी ने हवाओं को अपना हरकारा बनाया. किसी ने चांद की सेवा ली. किसी ने यह ठेका समुंदर की लहरों को दिया, तो किसी ने सितारों को अपना अनुचर बनाया, अपना प्रेम संदेश प्रीतम प्यारे तक पहुंचाने के लिए. यहां तक कि अगम पेड़ों को भी नहीं छोड़ा गया. उनको भी जोत दिया करते थे प्रेमी लोग अपने ह्नदय के उद्गार व्यक्त करने के लिए. क्या करते बेचारे! आज की तरह इतनी तो न सुविधा थी, न आधुनिक संचार व्यवस्था.

प्रेम कहानियों में लैला-मजनूं, हीर-रांझा, शीरी-फरहाद की सुपर हिट जोड़ियां हैं, मगर क्या किसी ने सोचा है कि इनके बीच इजहार-ए-इश्क कैसे हुआ? साहबान, तब जमाना बहुत बेरहम, बेदर्द था (कमोबेश जमाना अब भी अपने व्यवहार में ऐसा ही है, ये जमाना कब सुधरेगा!) तो इजहार-ए-इश्क का पावन,  महती और रिस्की कार्य सर-आंखों पर आंखों ने लिया. आंखों-आंखों में प्यार होता था और आंखों ही आंखों में इजहार. जमाना कितना भी नजर रखे या नजर लगाए, नजर गड़ाए प्रेमियों पर, मगर नजरों को उधर जाने से कौन रोक सका है जिधर वे जाना चाहती हैं, जिधर उनका प्रियतम है. सीधी-सी बात यह है,  ‘इजहार हुआ इनकार हुआ, कुछ टूट गए कुछ हार गए’,

अति प्राचीन प्रेमियों ने इजहार-ए-इश्क के लिए प्रकृति को चुना. मेघ प्रेमियों के लिए ओवर टाइम करने लगे. किसी ने परिंदों से चाकरी करवाई तो किसी ने हवाओं को हरकारा बनाया

‘इजहार-ए- मोहब्बत रह-रह के आंखों से पिया दीवानों ने.’ नजरों ने बड़ी मदद की प्रेमियों की. खास तौर से कच्चे दिल के प्रेमियों की क्योंकि नजरों की एक खासियत है कि वे अपना काम तो कर जाती हैं और मौका-ए-वारदात पर कोई सबूत भी नहीं छोड़तीं. नजरें ही वे दोस्त, सखी होती थी जो प्रेमियों का हाल-ए-दिल बयां करती थीं. होंठ जब-जब दिल की बात कहने में हिचकिचाए, थर्राए, तो नजरों ने उनकी भूमिका बखूबी अदा की और मौन भाषा में कह दिया कि हमें तुमसे प्यार है. अगर प्रेमियों को उर्दू जुबान आती (माशाअल्हा! ), तो कहा, हमें तुमसे मोहब्बत है. अगर अंग्रेजी लैंग्वेज आती तो कहा, आई लव यू. कहने का मतलब कि नजरों को कोई भी भाषा सीखने की जरूरत नहीं, क्योंकि वे हमेशा दिल की भाषा बोलती हैं. इसलिए इजहार-ए-इश्क के लिए नजर एक अति महत्वपूर्ण जरिया बनी. जो आज भी बनी हुई है.

नजरों के अतिरिक्त अपने प्रेम को व्यक्त करने का एक तरीका अपने मित्र या उनकी सखी से अपने दिल की बात कहलवाना या कहना था. कई बार कई प्रेमियों ने अपने इजहार-ए-मोहब्बत के लिए अपने-अपनी विश्वसनीय दोस्त-सखी की सहायता ली. लेकिन इजहार-ए-मोहब्बत का यह तरीका खतरों से खाली नहीं था. एक तो इसमंे प्रेम त्रिकोण बनने का खतरा बना रहता था. दूसरे, सनम की रुसवाई का डर बना रहता था.तीसरे विश्वसनीय दोस्त होना सबके भाग्य में कहां बदा रहता है!लिहाजा, इजहार-ए-मोहब्बत का यह तरीका कुछ भाग्यशाली प्रेमियों के ही खाते में रहा.

नजरें कह तो देतीं, मगर कुछ अनकही की कसर फिर भी रह ही जाती है न! इजहार-ए-मोहब्बत का कोई ऐसा तरीका हो जिसमें दिल खोल कर रख दिया जाए! इन गांठों को सुलझाया खत ने. फिर एक दौर ऐसा आया कि प्रेमी अपना इजहार-ए-इश्क खत के जरिए करने लगे. खत इतना पुख्ता तरीका सिद्ध हुआ इजहार-ए-मोहब्बत का, कि प्रेमी उसमें अपना दिल तक भेजने लगे और भावातिरेक में झूम झूम गाने लगे कि फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है. सृजनात्मक लेखन में तो ‘लव लेटर’ नाम की एक विधा-सी ही बन गई.

इसमें कोई शकोशुबहा नहीं कि खत ने बहुत साथ दिया आशिकों का. मगर खत भेजने में पेंच यह था कि कहीं किसी ऐसे-वैसे के हाथ लग गया, तो वह खत जमाने भर की जुल्मत का फरमान बन जाता था. अपने इस ऐब के बावजूद खत इजहार-ए-इश्क का एक लोकप्रिय जरिया बना. आशिक का दिल जब प्यार से लबालब होता है, तो वह अपने जज्बात का इजहार भी डूब कर करना चाहता है. इसके लिए खत से बेहतर तरीका और कोई नहीं. ‘अपनी अफ़सुरदा (मुरझाई, उदास) निगाहों के दो आंसू रखकर खत मुझे भेज दिया और लिखा कुछ भी नहीं.’ इजहार-ए-मोहब्बत के इस नेक, मगर कठिन काम को खतों ने बखूबी अंजाम दिया और आज भी दे रहे हैं.

इजहार-ए-मोहब्बत के तरीकों में मील का पत्थर बना एक तरीका. फूल. वह भी खासकर गुलाब. चटक लाल रंग आशिक की बेचैनी या प्यार की तीव्रता का, तो गुलाब प्रेम का प्रतीक बन गया. जब बसंत ऋतु प्रेम का प्रतीक है, तो उसकी आत्मा फूल को तो बनना ही बनना था! शोख फूल राज-ए-उलफत का पर्दाफाश करने लगे. लाल गुलाब ने कई खाली दिलों में मोहब्बत का रंग भरा. आशिकों के बीच फूल देने और लेने का यह तरीका बहुत मकबूल हुआ. संभावित प्रेमियों में जब कभी किताबों का आदान-प्रदान हुआ, तो किताबों के बीच फूल रखकर हुआ. और जब कभी विछोह के क्षण आए, तो किताबों के बीच सूखे फूल ने ढांढस भी बंधाया. फूल ने वह काम कर दिया जो बड़े से बड़े कवि, लेखक न कर सके. अंग्रेजों में तो फूलों की इस विशेषता के कारण एक कहावत भी है- से इट विद फ्लावर्स. और हमारे यहां ‘हम उनके लिए ढूंढ़ते अल्फ़ाज़ रह गए, वो चार फूल देकर सारी बात कह गए.’ इजहार-ए-मोहब्बत के इस तरीके के विषय में क्या अब कुछ कहने की जरूरत है!

कोई शक नहीं कि खत ने बहुत साथ दिया आशिकों का. मगर पेंच यह था कि कहीं खत किसी ऐसे-वैसे के हाथ लग गया तो वह जमाने भर की जुल्मत का फरमान बन जाता था

आज की बात की जाए तो प्रेमियों को बहुत सुविधा है (प्रेम करने की नहीं, प्रेम को व्यक्त करने की). चॉकलेट! चॉकलेट ने आशिकों की जिंदगी और प्रेम कहानी में खूब मिठास घोली. यहां तक कि एक कंपनी ने अपनी पंचलाइन में इसे इजहार-ए-मोहब्बत का एकमात्र प्रतीक ही बना दिया.
इजहार-ए-मोहब्बत में चॉकलेट को किसी ने टक्कर दी, तो वह है ग्रीटिंग कार्ड. इस काम में ग्रीटिंग कार्ड ने चॉकलेट से खूब होड़ की. ग्रीटिंगकार्ड देने से एक फायदा यह भी होता कि भाषा संबंधी अशुद्धियां नहीं होतीं और भेजने वाले का बौद्धिक स्तर क्या है, यह पता करना मुश्किल होता, जो खत लिखने में पकड़े जाने की संभावना होती (इसलिए कुछ चालाक प्रेमी किसी आलिम से खत लिखवा लेते हैं), इन सब विशेषताओं के चलते ग्रींटिग कार्ड दो दिलों को मिलाने में एक मजबूत सेतु बना.

ग्रीटिंग कार्ड के अलावा मोबाइल आज के प्रेमियों की बड़ी सेवा कर रहा है. एसएमएस के जरिए फट कह दी अपने दिल की बात. न कोई देख रहा न कोई पकड़ रहा. पूर्ववर्ती समय की तुलना में आज इजहार-ए- मोहब्बत करना काफी सेफ हो गया. इंटरनेट के जरिए खट से ईमेल कर दिया. चैट करके दिल की बात कर ली. प्रेमियों के लिए मात्र चौदह फरवरी (वैलेनटाइन डे) का एक खास दिन ही नहीं, प्रेम की पींगें बढ़ाने के लिए फरवरी में पूरे एक हफ्ते का मौका मिलता है, जैसे रोज डे (7 फरवरी), प्रपोज डे (8 फरवरी), चॉकलेट डे (9 फरवरी ), टेडी डे (10 फरवरी ), प्रॉमिस डे (11 फरवरी ), किस डे (12 फरवरी ), हग डे, हग से यहां मतलब आलिंगन से है, (13 फरवरी ), तो फिर उन्हें किस बात की चिंता. इसीलिए तो चांस पर डांस कर रहे हैं आज के भाग्यशाली युवा प्रेमी.

आशिकों की समस्या ‘इजहार-ए-मोहब्बत कैसे करें!’ को किसी ने समझा न समझा हो, बाजार ने इसे अच्छे तरीके से समझा है. आज उसने ग्रीटिंगकार्ड, टेडीबीयर, चॉकलेट, बैलून (ये सभी आइटम दिल शेप में भी हो सकते हैं) के अतिरिक्त तरह-तरह के आकर्षक गिफ्ट को उतार दिया है. कुछ पुराने तरीकों के साथ बहुतेरे नये तरीके आ गए हों आज, लेकिन सौ बात की एक बात–अगर आपके दिल में किसी के प्रति प्यार है, तड़प है, तो आपको इजहार-ए-मोहब्बत का कोई तरीका सूझे न सूझे, आपका प्यार अपने को व्यक्त करने का कोई न कोई तरीका जरूर ढूंढ़ लेगा, क्योंकि वह सच्चा है.

…तो मैं तुमसे प्रेम नहीं कर पाऊंगी

 (इस लेख में ‘मैं’ आज के भारत में रहने वाली एक सचेत, जागरूक और संवेदनशील स्त्री है. प्रेम और देह को लेकर इस स्त्री की संवेदनाएं जितनी दिल्ली-मुंबई की किसी लड़की के विचारों से जुड़ती हैं उतनी ही बैतूल-हरदा के कस्बों में डर-छिपकर प्रेम करने वाली कस्बाई लड़की से भी)

एक इंसान और शायद एक स्त्री के तौर पर भी मुझे पहला प्यार अपने आप से ही हुआ था. बचपन में मुझे अपने लंबे बाल और गहरी भूरी आंखें बहुत पसंद थीं. अपने आप से ही बातें करने की पुरानी आदत की वजह से मैं हमेशा ही अपने अंदर हो रहे शारीरिक और मानसिक बदलावों को लेकर बेहद सजग रही. एक स्त्री के तौर पर मैंने बहुत गहराई से अपने बड़े होने को महसूस किया है और घंटों अपने शरीर से बातें भी की हैं. किशोरावस्था आते-आते मुझे विश्वास हो गया था कि सौन्दर्य सिर्फ स्त्रियों के पास है और मुझे हमेशा अपनी नाजुक, रहस्यमयी और खूबसूरत शारीरिक बनावट पर नाज होता रहा. और सच, इस बीच कभी भी मेरे मन में ‘पुरुष’ या उसकी तरह बनने की इच्छा नहीं जागी. शायद इसलिए कि मैं हमेशा स्त्री होने के अद्वितीय अहसास को बहुत गहराई से जीती रही.

मैं तेजी से बदलते भारत में बड़ी हो रही थी. मेरे चारों तरफ सब कुछ तेजी से बहा जा रहा था. इस दौरान अपनी एक पहचान, अपने कौशल द्वारा कमाए गए अपने एक स्थान और आत्म-सम्मान की जद्दोजहद ने प्यार को भी कई परतों में उलझा कर मेरे सामने पेश किया.

मामला बहुत पहले ही उलझ गया था. बचपन में ठीक तब जब मेरे एक ममेरे भाई ने एक लड़ाई के दौरान अकड़ते हुए मुझसे कहा था कि वह जब चाहे मुझे पीट सकता है क्योंकि वह लड़का है. 12 साल की छोटी-सी उम्र में इस बात ने मेरे दिल पर गहरा असर किया. मैं दौड़ कर अपनी मां के पास गई थी और उनसे कहा था कि वे मुझे सीमेंट की एक बोरी लाकर दें. उनके चौंकने पर मैंने बताया कि मैं उस पर मुक्के मार-मार कर ताकतवर बनना चाहती हूं. घर में सब जोर से हंस दिए थे. शायद उसी दिन मेरे अंदर यह बात बैठ गई थी कि मैं किसी से कमतर नहीं बनूंगी. मैं जिससे भी प्रेम करूंगी, भले ही वह मेरा दोस्त, भाई या पिता ही क्यों न हों, कोई मुझे लड़की होने की वजह से कमजोर या कमतर नहीं आंकेगा. यहां प्रेम से पहले बराबरी का दर्जा आ गया था. एक ऐसी समानता जिसे मैंने पूरी ईमानदारी और कड़ी मेहनत से हासिल किया हो, पूरे सम्मान के साथ.

अपने यूनिवर्सिटी के सालों में मैंने धीरे-धीरे दुनिया की कुछ और दबी-छिपी परतों को डिकोड करना सीखा. मैंने महसूस किया कि अभी भी कट्टर उत्तर भारतीय मानसिकता ज्यादातर पुरुषों पर हावी है. मैंने पाया कि ज़्यादातर मामलों में वर्दी पहनने वाले पहरेदारों, बड़े अधिकारियों, नेताओं से लेकर गली-मोहल्लों में गुटका खाकर सफेद दीवारों पर थूकने और सीटियां बजाने वाले शोहदों तक की सोच स्त्रियों को लेकर बदली नहीं है. उनके लिए स्त्रियां सिर्फ मां-बहन की गालियां देकर गुस्सा निकालने या फिर शराब के प्यालों के बीच उछाले गए किसी भद्दे मज़ाक से उपजी किसी सेक्सुअल फंतासी तक सिमट कर रह गई हैं. पुरुषों द्वारा अपने परिवारों में रहने वाली मांओं, बहनों और पत्नियों को दिया जाने वाला सम्मान मुझे कभी संतुष्ट नहीं कर पाया. मैंने हमेशा अपने आसपास के पुरुषों की नजरों में छिपे उस भद्दे मजाक को पकड़ लिया था जो उन्होंने अपनी किसी महिला मित्र या किसी अन्य की महिला मित्र के वक्षों के ‘प्रोमिसिंग’ होने को लेकर किए थे. बस, उस लम्हे के बाद से मैं ऐसे लोगों से सहजता का कोई रिश्ता नहीं बना पाई.

ऐसे क्षणों में मुझे अपने उन सहपाठियों की याद आ जाती जो शाम को मिलने पर सार्त्र, कामू और फूको जैसे दार्शनिकों की सूक्तियां सुनाया करते थे और अपनी करीबी महिला मित्रों का एक फोन वेट पर आते ही उन पर ऐसे चिल्लाते जैसे वे उनकी बंधुआ मजदूर हों. उन पत्रकार साथियों की भी जो अपने लेखों में और स्टेज से महिला अधिकारों की गलाफाड़ बातें करते हैं और अपनी पत्नियों और अपनी महिला सहकर्मियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं. इस तरह के उलझे हुए दोगले वर्ग से मैं कभी प्रेम करने की नहीं सोच पाई.

पुरुषों के पाखंड पर भी मुझे उतनी आपत्ति नहीं रही, जितनी कि उसे कभी स्वीकार न कर पाने की उनकी कायरता से

पुरुषों के पाखंड पर भी मुझे उतनी आपत्ति नहीं रही, जितनी कि उसे कभी स्वीकार न कर पाने की उनकी कायरता से. यहां यह कहना भी ज़रूरी है कि इस बारे में मेरी जैसी तमाम अन्य स्त्रियों के उलझे होने की भी पूरी संभावना है. पर मैं उस दोगलेपन को स्वीकार करके उस पर बात करना चाहती हूं. क्योंकि इतनी उलझनों के बाद भी आखिर मैं प्रेम करना चाहती हूं.

एक स्वतंत्र स्त्री होने और इसे अपने साथी द्वारा पूरी तरह पचा न पाने के बावजूद मैंने प्रेम करने की कोशिश की. अब सबसे विस्फोटक उलझन सामने आई. मेरी तरफ से पहले हुए प्रेम के निवेदन को बाद में ‘उन्मुक्तता’ का नाम दे दिया गया. प्रेम और विश्वास में डूबे मेरे अस्तित्व ने जब सहजता के उजले शिखर पर पहुंचकर प्रेम से जुड़ी अपनी कल्पनाएं, इच्छाएं और जानकारियां साझा कीं तो परंपराओं और आधुनिकता के बीच झूल रहे उत्तर भारतीय पुरुष ने तुरंत तरह-तरह के सवाल उठा दिए. तब मैंने उससे कहा कि प्रेम का हर स्वरूप जितना उसके लिए हैं, उतना ही मेरे लिए भी है. मैं अपने अस्तित्व, अपने शरीर और उनको लेकर मेरे व्यवहार में पूरी तरह सहज हूं और अपनी असहजता दूर करना उसकी जिम्मेदारी है. उसे यह याद रखना होगा कि ‘गुनाहों का देवता’ पढ़कर अंकुरित होने वाली लिजलिजी प्रेम कहानियों का दौर अब समाप्त हो चुका है. आज अगर प्रेम में मेरी स्वाभाविक उत्सुकता और भागीदारी से तुम्हारे मन में संदेह उपजता है तो मैं तुमसे प्रेम नहीं कर पाऊंगी.

वक्त बीतने के साथ मैंने इंसानों की परतों को भी डिकोड करना सीख लिया और आत्मविश्वास से भरकर फिर से प्रेम करने की कोशिश की. इस बार मेरे साथी ने खुद को मेरे सामने एक मसीहा के तौर पर स्थापित करना चाहा. वह उस ‘गुड बॉयफ्रेंड’ की भूमिका में आना चाहता था जो सालों से भाइयों और पिताओं की संरक्षण रूपी सलाखों की कैद के पीछे सड़ रही लड़की को पहली बार अपनी मोटर-बाइक पर बैठाकर दुनिया दिखाता है. उसे झील किनारे ले जाकर एक वनीला आइसक्रीम खिलाता है और लड़की रोते हुए उससे कहती है कि वह उससे बहुत प्यार करती है. फिर लड़का उसे दुनिया भर का ज्ञान पिलाते हुए दुनियादारी समझाता है और हिदायत देते हुए कहता है, ‘तुम बहुत भोली हो, दुनिया बहुत खराब है. ज्यादा लड़कों से मेलजोल ठीक नहीं. जो भी करना है, सब मेरे साथ करो. मैं हूं न.’ भारत के तमाम शहरों और कस्बों में बसने वाले ऐसे ही तमाम मसीहा अपने खोखले व्यक्तित्व से उपजी असुरक्षा के आगे घुटने टेकते हुए अपनी प्रेमिकाओं के चेहरों पर रोज तेजाब फेंकते हैं, उन्हें जिंदा जला देते हैं या उनके साथ बिताए अंतरंग क्षणों को इंटरनेट या मोबाइल फोन के जरिए सार्वजनिक कर देते हैं.

पर अफसोस कि इस बार ऐसा नहीं होगा. मैंने तो पहले ही तय कर लिया था कि दुनिया अपनी ही आंखों से देखूंगी, किसी स्वघोषित ज्ञानी मसीहा की आंखों से नहीं. अपनी बेड़ियां मैं खुद खोलूंगी. मैं किसी को मेरे मना करने या असहमत होने पर मेरे साथ कुछ भी बुरा करने की इजाजत नहीं दूंगी. मैं प्यार के नाम पर ब्लैकमेल करने वालों की आंखें नोंच लूंगी और सड़क पर ज़बरदस्ती करने वालों को पलट कर मारूंगी. पुलिस हेल्प लाइन नंबरों के बारे में मैं और मेरी तमाम महिला परिचित जानती हैं. अब हम सब जानने लगी हैं और जो नहीं जानते उन्हें बता रही हैं कि यदि स्त्री किसी संबंध में खुश नहीं है या उसके साथ किसी भी तरह की मानसिक-शारीरिक हिंसा हो रही है तो वह तुरंत उस संबंध से बाहर आ सकती है. और ऐसा करने पर उस पर कोई नैतिक निर्णय नहीं थोपा जा सकता. तो अगर तुम पहले ऐसे ही ‘फरेबी मसीहा’ के रूप में मुझसे प्रेम करके, बाद में अपने आप को तकनीक का एक्सपर्ट मानने वाले कोई ‘जिल्टेड लवर’ हो तो मैं तुमसे प्रेम नहीं कर पाऊंगी.

हमारे समाज में स्त्री और पुरुष ऐसे क्यों हैं और उनमें आपस में हमेशा एक किस्म की रस्साकशी क्यों चलती रहती है, ये सवाल हमेशा मेरे दिमाग में कौंधते रहते थे. जवाब की तलाश में जो कुछ मिला उसने कुछ नए सवाल खड़े कर दिए. सत्रह साल की उम्र में पढ़ी गई ‘द सेकंड सेक्स’ स्त्री को समझने की दिशा में मेरा पहला प्रयास था. उन दिनों मैंने स्त्री और महिला आंदोलनों से जुड़ी तमाम किताबों को दूंढ-ढूंढ कर पढ़ना शुरू कर दिया था. एक बार मां ने मेज़ पर रखी स्थापित मूल्यों से उलट जाती कुछ किताबों को देख लिया. उन्होंने गुस्से में किताबों का बंडल पिता जी के सामने पटकते हुए कहा, ‘देखिए, ये लड़की क्या उल्टा-सीधा पढ़ रही है. इसीलिए कहती थी कि लड़कियों को बहुत नहीं पढ़ाया जाना चाहिए.’ मैंने रोते हुए अपनी किताबें वहां से उठा लीं और बेहद अपमानित महसूस किया. मैं किसी को समझाना नहीं चाहती थी कि मैं क्या और क्यों पढ़ रही हूं.

हमारे यहां के स्त्री-पुरुष संबंधों को समझने की राह में यह मेरा पहला सबक था. ज्ञान, शिक्षा, सुविधा, पोषण और निश्चल प्रेम से सदियों तक महरूम रही स्त्री किसी से भी सामान्य रूप से प्रेम कैसे कर सकती है? ऐसा सरलीकृत प्रेम जहां उसकी कोई पहचान या सम्मान न हो, वह सिर्फ उसके अंदर एक निरीह महिला और उपभोग की वस्तु होने के अहसास को ही और बढ़ाएगा. इसलिए स्त्री प्रेम की जटिलता को हमारे अपने सामाजिक ताने-बाने के परिणाम की तरह ही स्वीकार करना होगा.

दरअसल एक स्त्री के तौर पर मैं प्रेम को लेकर इतनी सशंकित क्यों हूं? क्यों प्रेम को लेकर मेरी बातें किसी ‘फेमिनिस्ट मैनीफेस्टो’ जैसी लगती हंै? जवाब शायद यह हो सकता है कि प्रेम करने का माध्यम भी तो आखिर मेरा यही अस्तित्व है न. और लंबे समय से मेरे अस्तित्व को नकारने वाले समाज ने मुझे ऐसा बना दिया है. मेरे अस्तित्व को नकारकर मुझे हासिल करने या अपने कब्जे में रखने की पुरुषों की भूख ने मुझे बागी बना दिया है. मुझ पर दिन-रात सालों से थोपे जा रहे नैतिक निर्णयों से अब मुझे कोफ्त होती है. मेरे लिए अब सम्मान पाने का एक ही रास्ता है, वह है मेरा काम और शिक्षा. और इस सब में प्रेम कहीं पीछे छूट-सा गया है. पर मेरा विश्वास करो, मैं वाकई प्रेम करना चाहती हूं. पर शर्तों में बंधा, एकतरफा प्रेम नहीं. मुझमें वाकई बहुत प्रेम है, करुणा है, जो बिखरने के लिए तुम्हारे साथ के लालित्यपूर्ण आकाश की राह देख रहा है. लेकिन जब तक तुम मेरे स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं करोगे और बहुत मेहनत से बनाई, छोटी-मोटी, जो भी मेरी पहचान है, उसे नहीं स्वीकारोगे, तब तक मैं तुमसे प्रेम नहीं कर पाऊंगी. यहां तुमसे यह कहना भी बहुत जरूरी है कि मुझे तुमसे बहुत आशाएं हैं. तुम अगर साथ नहीं आए तो भी मैं यह सफर पूरा कर ही लूंगी…पर अगर तुम आओगे तो जीवन के मायने ही बदल जाएंगे.

                                                                                                                                                                                                                                                                               – प्रियंका दुबे

प्रेम रोग है या संजीवनी ?

प्रश्न पूछा गया है कि प्रेम रोग है या संजीवनी.

प्रेम में यही मजा है. प्रेम हर पल नए प्रश्न प्रस्तुत करता है. कह लें कि प्रेम का यही मज ा है कि यहां प्रश्न ही प्रश्न हैं और उत्तर ‘एक्को’ नहीं. उत्तर हों भी तो उन्हें खोजने, देने की किसी प्रेमी के पास फुर्सत नहीं. प्रेम स्वयं में ‘फुल टाइम जॉब’ टाइप चीज है भाई साहब. किसके पास टाइम है कि आपके प्रश्न सुने? किसके पास फुर्सत है कि उत्तर तलाशता फिरे? प्रेम में तो हर एक प्रश्न को सदियों से ऊपर वाले की मर्जी पर छोड़ देने का रिवाज चला आता है. उसी ने हमें प्रेम में डाला, महबूब से मिलवाया, जूते पड़वाए इत्यादि, वही यह प्रश्न भी देखेगा.

प्रेम में एक यही प्रश्न नहीं है भाई साहब कि यह रोग है या संजीवनी? ढेर से और भी प्रश्न हैं. जिन्होंने प्रेम किया है, या जो एक प्रेम से निकलकर दूसरे और फिर तीसरे, चौथे में उसी सहजता से जाते रहते हैं जैसे कि सर्कस के झूलों पर करतब दिखाने वाले कलाकार एक झूले से दूसरे झूले पर किया करते हैं, या कि वे जो क्रॉनिक डीसेंट्री- भगंदर तथा बवासीर की भांति प्रेम से अहर्निश पीड़ित हैं तथा जिनका इलाज न एलोपैथी में मिलता है न ही यूनानी दवाखाने में, या कि वे प्रेमी जिन्हें प्रेम तो विकट होता है पर किसी को भी, यहां तक कि महबूब तक को बता नहीं पाते, या कि वे जिन्हें प्रेम बिगड़े जुकाम की भांति निरंतर पकड़े रहने के बावजूद कोई उनकी बीमारी को सीरियसली लेता ही नहीं – इन सबसे कभी आप यही प्रश्न पूछ कर देखिएगा कि प्रेम रोग है या संजीवनी पूछेंगे तो वे बताएंगे कि यही तो एक ऐसा विचित्र रोग है जो लग जाए तो संजीवनी भी सिद्ध हो सकता है.

फिर भी मैंने आपके इस प्रश्न पर साहित्यिक, सामाजिक तथा चिकित्सीए कोणों से विचार किया है. मेरे साहित्यिक मन ने इस प्रश्न से और आगे जाकर कई इसी तरह के प्रश्न मुझसे और भी पूछ लिए. वह कहता है कि जब प्रेम पर ऐसे ऊलजुलूल प्रश्न पर विचार करने पर उतारू ही हो तो प्रेम से जुड़े कुछ और प्रश्न भी लगे हाथों क्यों नहीं निपटाते चलते? चलो, न भी निपटा पाओ पर ये प्रश्न भी कम से कम सुन तो ले ही. तो आप भी सुनें.

कुछ और प्रश्न जो बनते हैं वे इस प्रकार हैं’ प्रेम आंवला है या मुरब्बा? कहीं प्रेम वह अचार तो नहीं जो मर्तबान में बहुत दिनों तक संयम का ढक्कन लगाकर सामाजिक वर्जनाओं की परछत्ती पर धर कर छोड़ दो तो उसमें फफूंद लग जाता है? इस अचार को फफूंद न लगने के लिए क्या किया जाना चाहिए? क्या नया अचार डाल लिया जाए, फफूंद हटा कर वही पुराना अचार चाटते रहें या कि अचार की बरनी को परछत्ती से उतारें ही नहीं और मात्र दाल-रोटी खाकर ही मन बहलाया जाए? प्रश्न है कि क्या प्रेम दाढ़ी बढ़ाने का बहाना मात्र है जैसा कि असफल प्रेम में देखा या दिखाया जाता है? क्या प्रेम वजन घटाने का शर्तिया ‘वेट लॉस प्रोग्राम’ है क्योंकि पारंपरिक प्रेमकथाओं में प्रेमियों को सूख कर कांटा होते बताया जाता है?

 प्रेम अगर प्राइवेट सेक्टर की गतिविधि है तो इसमें ‘पब्लिक’ सेक्टर द्वारा इतना दखल क्यों दिया जाता है?

मेरे परम मित्र अंजनी चौहान इस संदर्भ में यह व्यावहारिक प्रश्न भी उठाया करते हैं कि यदि हर तरह के प्रेम तथा उससे जुड़े ठनगनों का हश्र शयनकक्ष में होने वाली कतिपय अनिवार्य उठापटक में ही हाेना है जिसके लिए प्रेम भाव के अतिरिक्त अन्य कूव्वतों की भी उतनी ही आवश्यकता होती है तो फिर प्रेम अकेले का स्साला इत्ता हल्ला क्यों? चौहान साहब कहते हैं कि प्रेम तो खूब हो और मान लो कि कूट-कूट कर भी भरा हो तब भी फायनली तो बात इस पर जाकर ही टिकेगी न कि  प्रेम में आप बस ‘हें हें’ ही करते रहोगे या कुछ और भी ‘ठीकठाक’ कर पाते हो प्रेम के वायवीय या ‘प्लेटोनिक’ पक्ष पर तो बड़ी प्रेमकथाएं लिखी, पढ़ी तथा सरेआम सराही जाती हैं, परंतु जब इससे जुड़े असली खेल की बात पर बात आती है तो आप उसे अश्लील घोषित कर देते हो? ‘वैसा कुछ’ लिखा हो तो छिप कर पढ़ते हो?तो प्रश्न तो अनेक हैं. चलो, हम आपसे पूछते हैं कि क्या प्रेम लेमनचूस की गाेली है कि जिसे ठीक से चूसो तो कुछ देर में ही खत्म हो जाती है पर स्वाद छोड़ जाती है, या कि यह च्यूंगम टाइप कोई चीज है जो खत्म ही नहीं होती और आप अभ्यासवश या परंपरावश उसे स्वादहीन होने के बावजूद चबाए चले जाते हो और फिर भी समझते हो कि कोई महत्वपूर्ण काम कर रहो हो? प्रेम जीवन की गाड़ी है, या गाड़ी का पहिया है, या कि पहिए में भरी हवा मात्र है? कहीं प्रेम, जीवन की गाड़ी में लगे पहिये से जुड़ा पंक्चर की रबर का छोटा-सा टुकड़ा और ‘सिलोचन’ मात्र तो नहीं है? या प्रेम इस पहिये में लगा गैटर तो नहीं है जो नियमित अंतराल पर यादों के पहिये को जीवन भर दचके देता रहता है? प्रेम कुहासा है कि साफ दृश्य? प्रेम दृष्टि है कि दृष्टि में उतरा मोतियाबिंद, या मात्र अंधापन, या कि दिव्य दृष्टि? प्रेम पागलपन है या पागल दुनिया के बीच एकमात्र सही दिमाग वालों का ईश्वरीय करतब? प्रेम स्वयं को मूर्ख बनाने का तरीका है या कि जीवन को सबसे समझदारी से देखने वालों का काम? प्रेम काम है या कामचोरी? प्रेम प्राइवेट सेक्टर की गतिविधि है तो इसमें ‘पब्लिक’ सेक्टर द्वारा इतना दखल क्यों दिया जाता है? प्रेम यदि आग का दरिया है तो इस पर कोई भी पुल टिक कैसे सकता है और टिकेगा भी तो उतने गर्म पुल पर से आवाजाही कोई कैसे कर सकता है? समाज इस दरिया पर अपनी खाप पंचायतों, जाति, गोत्र, मान्यताओं और वर्जनाओं के बांध बांधने की कोशिश क्यों करता है? प्रेम कहीं वह गुलाब तो नही जो अंततः गुलकंद बनने को अभिशप्त हो?

अनेक प्रश्न हैं जो इस समय मेरे साहित्यिक मन में उठ रहे हैं. पर इन्हें यहीं छोड़ना श्रेयस्कर होगा. ये अतिप्रश्न जैसे हैं. अभी मैं आपके दिए प्रश्न पर बात करूं. मैं एक चिकित्सक के तौर पर प्रेम का अध्ययन करूं तो पाता हूं कि प्रेम को रोग भी कहा तो जा सकता है. प्रेम को बाकायदा एक रोग की भांति भी समझा जा सकता है जिसके लक्षण होते हों, डायग्नोसिस की जा सकती हो, टेस्ट किए जा सकते हों तथा कुछ हद तक इस रोग के शर्तिया टाइप के इलाज भी संभव हों.

डीएनए टेस्ट द्वारा भूतपूर्व प्रेमी तो पकड़े जा सकते हैं परंतु वर्तमान के अभूतपूर्व प्रेम रोगी को नहीं पकड़ा जा सकता

पहले प्रेमरोग के लक्षणों की बात कर ली जाए. प्रेम के रोगी को हल्की हरारत-सी लगी रहती है. तेज बुखार तो खैर नहीं आता परंतु बदन गर्म रहता है जो प्रेमी को देखकर एकाध डिग्री और बढ़ जाता है. यह बुखार थर्मामीटर में रिकॉर्ड नहीं हो पाता. कई बार समाज इसे अपने जूते से रिकॉर्ड करने की कोशिश अवश्य करता है, परंतु जूते के चमड़े की तासीर ठंडी होती है जबकि प्रेमी की खाल गर्म – दोनों का तालमेल नहीं बैठता. प्रेमरोगी का हृदय धड़कता रहता है. छाती में धक-धक होती है जो महबूब की गली की तरफ जाने में और बढ़ जाती है. कुछ को छाती में मीठा-मीठा दर्द भी होता है जिसके लिए वह कोई दवाई लेना पसंद नहीं करता. प्रेम के रोगी के हाथ कांपते हैं, मुंह सूखता है, आंखों के सामने ठीक से कुछ सूझता ही नहीं अर्थात ठीक वे सारे लक्षण होते हैं जो ज्यादा दस्त लग जाने पर डीहाइड्रेशन में हुआ करते हैं. इसलिए किसी को भी ये लक्षण हों और उसे दस्त न लगे हों तो जान लें कि उसे प्रेमरोग हो सकता है. पर कई बार ऐसे रोगी को लड़की के बाप या भाई को देखकर दस्त भी लग सकते हैं. तब यह थीसिस काम नहीं करेगी. प्रेम के रोगी को नींद नहीं आती और रात भी दिल खाली-खाली और छाती भरी-भरी लगती है. प्रेम की चपेट में आए रोगी का अपने पांवों पर नियंत्रण खत्म-सा हो जाता है. उसके पांव स्वतः महबूब की गली की तरफ चलने लगते हैं. प्रेमरोगी में ऐसा अजीब अंधापन भी देखा जाता है जहां काला चश्मा या सफेद घड़ी के बगैर भी वह बिना किसी से टकराए सड़क तो पार कर ही जाता है जिसके उस तरफ महबूब खड़ा हो या इस तरफ बाप जूता लेकर उसे तलाश रहा हो. प्रेमरोग से पीड़ित व्यक्ति इसके इलाज के लिए नहीं आता क्योंकि उसे लगता है कि इलाज कहीं और ही है.

क्या कोई टेस्ट होते हैं इस रोग के?

इस रोग की खासियत तथा परेशानी यही है कि इसे किसी खून, पेशाब, मल या एक्स-रे की जांच द्वारा नहीं पकड़ा जा सकता. डीएनए टेस्ट द्वारा भूतपूर्व प्रेमी तो पकड़े जा सकते हैं परंतु वर्तमान के अभूतपूर्व प्रेम रोगी को नहीं पकड़ा जा सकता है. ऐसा इसीलिए है कि प्रेम में मुब्तिला प्रेमरोगी अपना डीएनए स्वयं रच रहा होता है. वास्तव में प्रेमरोग तो एक क्लीनिकल डायग्नोसिस है और मरीज को ठीक से देखने से ही यह पकड़ में आ जाती है.

अब प्रेमरोग का इलाज

है न. बहुत-से इलाज हैं. मिर्गी के अलावा इस रोग के इलाज में भी जूते का एक आदरणीय स्थान सदियों से रहा है. जूते में फायदा यह भी है कि जूता हमेशा उपलब्ध रहता है, इसे तुरंत इस्तेमाल किया जा सकता है, यह इलाज लगभग मुफ्त होता है, एक ही जूते को कई रोगियों पर और बार-बार प्रयोग किया जा सकता है, और इसे पास या दूर खड़े रोगी पर उतनी ही तत्परता से प्रयोग किया जा सकता है. प्रेमरोग के इलाज में डंडों, थप्पड़, लात, घूंसों अादि का भी अपना स्थान है, पर ये औषधियां प्रायः बिगड़े हुए रोगी में ही ट्राई की जाती हैं. ये सारे इलाज कारगर होते तो हैं पर कई बार नहीं भी होते. हां, एक इलाज जो हर प्रेमरोगी को एकदम दुरुस्त कर देता है वह यह है कि आप ऐसे रोगी की उसी लड़की (या लड़के) से शादी करा दें. विवाह इस रोग का शर्तिया इलाज है.

अब हम आते हैं आपके प्रश्न पर कि प्रेम रोग है या संजीवनी. प्रेम रोग है, यह तो हमने अभी सिद्ध कर दिया. पर सच यह भी है कि इससे बड़ी संजीवनी भी आज तक खोजी नहीं गई. सो आपका यह प्रश्न मुर्गी और अंडे वाला शाश्वत प्रश्न है जिस पर हमेशा ही माथापच्ची होती रही है. यूं कह लें कि प्रेम रोग तो है पर यह किसी जीवनदायी टीके का काम भी करता है. जैसे पोलियो के टीके में बीमारी के कीटाणु शरीर में डाले जाते हैं ठीक वैसे ही. प्रेमरोग कभी हुआ हो तो आप जीवन को इतना अच्छा, इतनी तरह से, इतना गहरा समझने लगते हैं कि फिर जीवन का आनंद ही अलग हो जाता है. सो प्रेमरोग कितना भी रोग हो परंतु संजीवनी भी है – यही विरोधाभास है प्रेम का, क्या करें?

न्यायिक नियुक्ति का धनचक्कर

उत्तर प्रदेश में मायावती के राज में भ्रष्टाचार ने किस कदर पैर जमाया है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सूबे के वरिष्ठ अधिकारी नियुक्ति से पहले जजों तक से रिश्वत मांगने से परहेज नहीं करतेे. प्रदेश में अतिरिक्त जिला न्यायाधीश के पद के लिए चयनित गगन गीत कौर ने आरोप लगाया है कि उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्ति की कई सिफारिशों के बावजूद राज्य के आला अधिकारियों ने नियुक्ति के लिए उनसे रिश्वत की मांग की. गगन गीत पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट की सहायक महाधिवक्ता भी रह चुकी हैं. उन्होंने इन अधिकारियों को रिश्वत देने से मना कर दिया. कई दरवाजे खटखटाने के बाद भी जब कुछ नहीं हुआ तो कौर ने पिछले ही माह अपनी सीट सरेंडर कर दी. उनका कहना था कि वे भ्रष्ट बनकर न्याय की कुर्सी तक नहीं पहुंचना चाहतीं. गगन गीत ने राज्य नियुक्ति विभाग के प्रमुख सचिव कुंवर फतेह बहादुर, संयुक्त सचिव युगेश्वर राम मिश्रा और अनु सचिव (अंडर सेक्रेटरी) सुनील कुमार पर रिश्वत मांगने का आरोप लगाते हुए राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायाधीश और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष शिकायत भी दर्ज कराई है.

दरअसल, आज यह मामला जिस मोड़ पर है वहां तक के सफर की शुरुआत 2009 में हुई थी. उस साल उत्तर प्रदेश में अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए आवेदन मांगे गए थे. इसके लिए जो विज्ञापन इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ओर से जारी किया गया था उसमें साफ तौर पर उल्लेख था कि सामान्य वर्ग की कुल 24 में से पांच सीटों पर महिलाओं की नियुक्ति होगी. उत्तर प्रदेश में हायर ज्यूडीशियल सर्विस में महिलाओं के लिए 20 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है. इस संबंध में 26 फरवरी, 1999 को तब के उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव सुधीर कुमार द्वारा एक अधिसूचना जारी की गई थी. इसी आधार पर सामान्य वर्ग की 24 सीटों में से पांच पर महिलाओं की नियुक्ति की जानी थी.

लेकिन साक्षात्कार तक पहुंचने वाली सामान्य वर्ग की महिलाओं की संख्या केवल चार रही. इनमें  गगन गीत कौर भी थीं. सरकार के नियमों के मुताबिक इन चारों का चयन हो जाना चाहिए था. लेकिन 12 जनवरी, 2010 को जो अंतिम परिणाम आया उसके मुताबिक सामान्य वर्ग में से सिर्फ तीन महिलाएं ही चुनी गईं और इनकी दो सीटें पुरुष उम्मीदवारों को दे दी गई थीं. देखा जाए तो यह राज्य सरकार के खुद के नियमों का ही उल्लंघन था. इसके बाद गगन गीत कौर ने इसकी शिकायत इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से की और उनके सामने 24 जनवरी, 2010 को अपना पक्ष रखा. वे उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पास भी अपना मामला लेकर गईं और उनके सामने भी अपनी बात 10 फरवरी, 2010 को रखी. जब इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई तो उन्होंने 20 मार्च, 2010 को भारत के राष्ट्रपति के पास भी अपने साथ हुई नाइंसाफी की शिकायत की.

इसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के चयन और नियुक्ति रजिस्ट्रार राजीव कुमार त्रिपाठी ने उत्तर प्रदेश के नियुक्ति विभाग के अनु सचिव सुनील कुमार को 1 सितंबर, 2010 को एक पत्र लिखकर बताया, ‘गगन गीत कौर की नियुक्ति के मामले पर चयन और नियुक्ति समिति ने 26 अगस्त, 2010 को विचार किया और समिति ने उनके नाम की सिफारिश चयन के लिए की है.’ कौर की नियुक्ति प्रक्रिया आगे बढ़ाने के लिए एक बार फिर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक पत्र 5 मई, 2011 को सूबे के नियुक्ति विभाग को लिखा. इस बार यह पत्र नियुक्ति विभाग के प्रधान सचिव कुंवर फतेह बहादुर को लिखा गया. इसमें कहा गया, ‘पूर्ण कोर्ट ने गगनगीत कौर की नियुक्ति के मामले पर विचार किया और यह निष्कर्ष निकाला कि 2009 में आयोजित परीक्षा में 20 फीसदी महिला आरक्षण कोटे के तहत चौथी महिला उम्मीदवार के तौर पर कौर की नियुक्ति की सिफारिश राज्य सरकार को की जाए.’ पत्र में यह भी लिखा था कि सरकार की तरफ से कौर की नियुक्ति का आदेश जारी किया जाए और इसकी एक प्रति इलाहाबाद उच्च न्यायालय को जल्द से जल्द भेजी जाए.

जब गगन गीत कौर ने उत्तर प्रदेश के नियुक्ति विभाग के अधिकारियों से अपना नियुक्ति पत्र जारी करने के लिए संपर्क साधा तो अधिकारियों ने उनसे रिश्वत की मांग शुरू कर दी. तहलका से बातचीत में कौर कहती हैं, ‘अधिकारियों से नियुक्ति पत्र के बारे में बात करने पर पता चला कि उच्च न्यायालय से जो चिट्ठी आई है उसे 20 दिनों तक दबाकर रखा गया. मैंने जब इसका कारण जानना चाहा तो चढ़ावा चढ़ाने यानी रिश्वत की मांग की गई. मैंने इसे मानने से इनकार कर दिया. सुनील कुमार ने नियुक्ति पत्र जारी करने के बदले मुझसे लाखों रुपये की मांग की.’

कौर ने इसकी शिकायत करते हुए 31 मई, 2011 को भारत के मुख्य न्यायाधीश और इलाहाबाद उच्च न्यायालय को पत्र लिखा. इसमें उन्होंने बताया, ‘मेरी फाइल को नियुक्ति विभाग के अनु सचिव सिर्फ इसलिए लटकाए हुए हैं कि उनकी रिश्वत की मांग मैं पूरी नहीं कर रही हूं. सुनील कुमार ने कहा कि जब तक मेरी मांगों को पूरा नहीं किया जाएगा तब तक वे अनावश्यक रोड़े अटकाते रहेंगे और फाइल रोके रहेंगे. कुमार ने तो यह भी कहा कि उन्हें मेरी नियुक्ति से संबंधित उच्च न्यायालय से कोई पत्र ही नहीं मिला है. उन्होंने यहां तक कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जिस पत्र की बात मैं कर रही हूं, वह फर्जी है.’

अब सवाल यह उठता है कि भले ही अनाधिकारिक तौर पर कौर की फाइल रोकने की वजह रिश्वत की मांग को नहीं पूरा किया जाना रहा हो लेकिन इसके लिए आधिकारिक वजह क्या बताई जा रही थी? इसके जवाब में कौर कहती हैं, ‘इन अधिकारियों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय को आधिकारिक वजह यह बताई कि जितनी सीटों के लिए विज्ञापन निकला था उतनी सीटें परीक्षा परिणाम के आधार पर भरी जा चुकी हैं. इसलिए वे नई नियुक्ति को मंजूरी नहीं दे सकते.’ नियुक्ति पत्र नहीं जारी करने की यह वजह बताते हुए नियुक्ति विभाग ने 17 जून, 2011 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय को पत्र लिखा था.

गगन गीत कौर ने सीट यह कहते हुए सरेंडर कर दी कि वह भ्रष्ट बनकर न्याय देने वाली कुर्सी तक नहीं पहुंचना चाहती हैं

उत्तर प्रदेश नियुक्ति विभाग की आपत्तियों को खारिज करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 13 जुलाई, 2011 को फिर एक पत्र सुनील कुमार के पास भेजा. इसमें साफ-साफ कहा गया था, ‘कौर की नियुक्ति की सिफारिश सरकार के 20 फीसदी महिला आरक्षण की नीति के आधार पर की गई है और यह 2009 में आयोजित चयन प्रक्रिया का ही हिस्सा है. कौर की नियुक्ति उस पद पर की जा रही है जिसके लिए रिक्ति उस अंतराल में पैदा हुई जब रिक्तियों की गणना की गई थी और इसके लिए विज्ञापन प्रकाशित किया गया था. कौर की नियुक्ति की सिफारिश अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति या अन्य किसी वर्ग के खाली पद पर नहीं की जा रही बल्कि सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के तौर पर की जा रही है.’

कौर कहती हैं, ‘इसके बाद भी राज्य के नियुक्ति विभाग के अधिकारियों ने मुझसे कुंवर फतेह बहादुर के नाम पर पैसे की मांग शुरू कर दी.’ तंग आकर कौर ने सितंबर में सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करके अपनी फाइल से संबंधित नोटिंग हासिल करने के लिए आवेदन कर दिया. कौर कहती हैं कि तब से लेकर अब तक छह महीने हो गए हैं लेकिन जवाब के नाम पर बस इतना बताया गया है कि आपके आवेदन का निरीक्षण किया जा रहा है. मामले में एक पेंच यह भी है कि नियुक्ति विभाग के जनसंपर्क अधिकारी भी वही सुनील कुमार हैं जिन पर पैसे मांगने का आरोप कौर लगा रही हैं. कौर का कहना है कि इसी वजह से उनके सूचना के अधिकार के तहत किए गए आवेदन का भी जवाब नहीं मिल रहा.

तकरीबन दो साल की भागदौड़ और अदालत से लेकर उत्तर प्रदेश के नियुक्ति विभाग के अधिकारियों के चक्कर काटने के बाद अंततः 23 जनवरी, 2012 को कौर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय को एक पत्र लिखकर अपनी सीट सरेंडर कर दी. उन्होंने अपने पत्र में लिखा, ‘2009 में आयोजित परीक्षा के तहत नियुक्ति का मैं अपना दावा वापस ले रही हूं क्योंकि रिश्वत देकर न्यायिक व्यवस्था का अंग बनना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ है. पहले मुझसे सुनील कुमार ने पैसे मांगे, जिसकी जानकारी मैंने आपको पिछले पत्र में दी थी. इसके बाद कुंवर फतेह बहादुर सिंह की तरफ से नियुक्ति विभाग के संयुक्त सचिव युगेश्वर मिश्रा ने पैसे मांगे.’ गगन गीत कहती हैं, ‘मिश्रा ने सम्मानित शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कुंवर फतेह बहादुर के लिए वित्तीय सहयोग की मांग की. मिश्रा ने कहा कि आपको नियुक्ति पत्र तभी जारी हो सकता है जब आप वित्तीय सहयोग के लिए तैयार हो जाएंगी. दिलचस्प बात यह है कि खुद मिश्रा ने ही यह जानकारी दी कि कुंवर फतेह बहादुर ने सुनील कुमार को मुख्य निर्वाचन अधिकारी के कार्यालय में तैनात कराया है इसलिए आपको कोई दिक्कत नहीं होगी और आपका सारा काम हो जाएगा.’ कौर कहती हैं, ‘भले ही मैंने अपनी सीट सरेंडर कर दी हो लेकिन भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ लड़ती रहूंगी. अगला कदम मैं इलाहाबाद उच्च न्यायालय का जवाब आने के बाद तय करुंगी. उच्च न्यायालय की वकील होने के बावजूद अगर मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई से बीच में हटी तो आम लोग तो भ्रष्टाचार के खिलाफ मुंह खोलने का हौसला भी नहीं जुटा पाएंगे.’ हाल ही में चुनाव आयोग के हस्तक्षेप के बाद कुंवर फतेह बहादुर को गृह विभाग के प्रमुख सचिव पद से हटाया गया. लेकिन वे अभी भी नियुक्ति विभाग के प्रमुख सचिव हैं. इस मामले में तहलका ने कुंवर फतेह बहादुर का पक्ष जानने के लिए कई बार उनसे संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय को भेजे पत्र में कौर ने भ्रष्टाचार के आरोपों के अलावा जो लिखा है वह बेहद महत्वपूर्ण है. उन्होंने लिखा है, ‘मुझे लगता है कि मैं जीती जंग हार गई हूं. लेकिन मुझे खुशी इस बात की है कि मैंने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. मैं गैरकानूनी तरीकों का इस्तेमाल करके न्याय व्यवस्था का अंग नहीं बनना चाहती क्योंकि अगर मैं ऐसा करूंगी तो यह मेरे पेशे के साथ न्याय नहीं होगा. मैं भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों को गैरकानूनी ढंग से पैसे देकर जज बनने की बजाय स्वतंत्र तौर पर वकालत ही करना चाहूंगी. मैं यह लड़ाई हार भले ही गई हूं लेकिन मुझे खुशी इस बात की है कि मैं भ्रष्ट होने से बच गई. मुझे पता है कि मैं अकेले इस भ्रष्ट व्यवस्था को नहीं बदल सकती लेकिन अपना दावा वापस लेकर मैं भ्रष्ट अधिकारियों को यह संदेश जरूर दे सकती हूं कि न्यायिक पद खरीद-बिक्री के लिए नहीं हैं.’

गुटबाजी के गीत

विधानसभा चुनाव होते ही उत्तराखंड में भाजपा के भीतर चल रही गला-काट गुटबाजी खुलकर सामने आ गई है. मतदान के बाद हफ्ता बीतते-बीतते पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ और मुख्यमंत्री भुवन चंद खंडूड़ी दोनों दिल्ली जाकर भाजपा आलाकमान के सामने अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में हुए षड्यंत्रों और भितरघात का रोना रो आए. इससे पूर्व निशंक ने इस बारे में पार्टी अध्यक्ष बिशन सिंह चुफाल से भी शिकायत की थी. दोनों ही नेताओं का दुखड़ा यह है कि उन्हें हराने के लिए उनके विधानसभा क्षेत्रों में उनके विरुद्ध दुष्प्रचार किया गया और पार्टी के ही लोगों ने उनके साथ भितरघात किया. निशंक इस मोर्चे पर मुखर-से दिखे हैं तो खंडूड़ी ने उचित पार्टी फोरम पर शिकायत को प्राथमिकता दी है. राज्य भाजपा के इन दोनों वरिष्ठ नेताओं ने अपनी-अपनी सीट के अलावा राज्य की अन्य  सीटों पर भी पार्टी की हालत और उसके कारण दिल्ली में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को अपनी-अपनी तरह से समझाए.

चुनावों से पहले अपने सारे समर्थकों के टिकट कटने से खिन्न निशंक मतदान निपटते ही सक्रिय हो गए थे. स्थानीय अखबारों में निशंक के साथ भितरघात की खबरों के छपने के बाद मुख्यमंत्री खंडूड़ी का बयान आया कि यदि ऐसा हुआ है तो इसकी शिकायत पार्टी फोरम पर करनी चाहिए.  इसके बाद पांच फरवरी को निशंक दिल्ली जाकर पार्टी के बड़े नेताओं के सामने अपनी बातें रख आए. इसके एक दिन बाद खंडूड़ी भी सरकारी कार्यक्रमों में हिस्सा लेने दिल्ली गए. सूत्रों के अनुसार उन्होंने भी पार्टी अध्यक्ष गडकरी और वरिष्ठ नेताओं के सामने अपनी शिकायतें रखीं. बताया जाता है कि फिलहाल पार्टी के बड़े नेताओं ने सभी को संयमित रहने की नसीहत दी है.

दरअसल पूर्व मुख्यमंत्री ‘निशंक’ के चुनाव क्षेत्र और देहरादून जिले के डोईवाला इलाके में चुनाव प्रचार के आखिरी चरण में व्यंग्य कविताओं का एक संग्रह, कुछ पैंफलेट और एक अखबार की पुरानी प्रतियों की फोटोकॉपियां बंटी थीं. चुनाव से ठीक दो दिन पहले 28 जनवरी को एक स्थानीय चैनल में एक महिला ने पूर्व मुख्यमंत्री निशंक पर संगीन चारित्रिक आरोप लगाए. यह महिला हत्या सहित कई मामलों में आरोपित रही है. अगले दिन डोईवाला में इस खबर की सीडी बंटने लगीं. अंतिम दौर में हुए चौतरफा हमलों के चलते चुनाव से एक सप्ताह पहले ठीक-ठाक हाल में दिख रहे निशंक के चुनावी समीकरण डगमगाते नजर आने लगे.

निशंक समर्थक इसे अपने ही दल के कुछ वरिष्ठ नेताओं की शह पर हुआ सुनियोजित अभियान बता रहे हैं. ऐसे ही एक समर्थक कहते हैं, ‘देहरादून में सभी को पता है कि यह सब किसके इशारे पर छपता है और दिखाया जाता है.’ निशंक समर्थक तो टीम अन्ना के उत्तराखंड भ्रमण को भी प्रायोजित कार्यक्रम बताते हैं. टीम अन्ना के सदस्यों ने उत्तराखंड आकर पूर्व मुख्यमंत्री निशंक पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे और मुख्यमंत्री खंडूड़ी की तारीफ की थी. निशंक समर्थकों का दावा है कि उन्होंने पार्टी अध्यक्ष गडकरी की सहमति से टीम अन्ना को मानहानि का कानूनी नोटिस भेज दिया है.

उधर, खंडूड़ी खेमा भी मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र कोटद्वार में अपने विरुद्ध किए गए दुष्प्रचार से व्यथित है. कोटद्वार में भाजपा ने निशंक समर्थक माने जाने वाले विधायक शैलेंद्र रावत का टिकट काट कर मुख्यमंत्री खंडूड़ी को चुनाव लड़ाया. पहले रावत के भी निर्दलीय चुनाव लड़ने की खबरें उड़ी थीं पर बाद में वे खंडूड़ी के सारथी की भूमिका में दिखे. नामांकन के समय माहौल खंडूड़ी के पक्ष में लग रहा था, पर चुनाव आते-आते जमीनी हकीकतें कांग्रेस प्रत्याशी सुरेंद्र सिंह नेगी को मजबूत दिखाने लगीं. खंडूड़ी खेमे का आरोप है कि कोटद्वार में भी खंडूड़ी के विरोध में पांच तरह के पर्चे बांटे गए. इनमें उनके कार्यकाल में मुख्यमंत्री कार्यालय के नजदीक रहे उनके समर्थकों, रिश्तेदारों और अधिकारियों को निशाना बनाया गया था. चुनाव से दो दिन पहले एक भाजपा नेता भुवनेश खर्कवाल की गाड़ी से शराब पकड़े जाने की घटना ने रही सही कसर पूरी कर दी. इसके बाद कांग्रेसी बेकाबू हो गए जिन्हें काबू करने के लिए अर्धसैनिक बलों द्वारा किए गए लाठी चार्ज से शहर का माहौल बिगड़ गया.

अचानक हुई इन घटनाओं को भी खंडूड़ी समर्थक चुनाव से ठीक पहले उनकी साफ छवि को बिगाड़ने की साजिश मानते हैं. इस खेमे के अनुसार मुख्यमंत्री के लिए मुश्किलें खड़ी करने की नीयत से पार्टी के ही एक खेमे ने कोटद्वार में बड़ी मात्रा में पैसा भी पहुंचाया. खंडूड़ी समर्थकों का आरोप है कि इस तरह आसानी से जीती जाने वाली कोटद्वार सीट भाजपा के लिए चुनौती बन गई. उधर, खंडूड़ी विरोधी खेमे का तर्क है कि शैलेंद्र रावत का टिकट काटने के चलते कोटद्वार में क्षेत्रीय और जातीय समीकरण खंडूड़ी के खिलाफ चले गए. उधर, राजनीतिक जानकार अलग ही बात कहते हैं. उनके मुताबिक जमीनी नेता नेगी को कोटद्वार में चुनौती देना जितना आसान समझा गया था उतना था नहीं.

उत्तराखंड भाजपा में खतरनाक गुटबाजी की नींव तो तभी पड़ गई थी जब अलग राज्य का गठन हुआ था

वैसे खतरनाक गुटबाजी की नींव तो उत्तराखंड भाजपा में राज्य बनते ही पड़ गई थी.  2002 के चुनावों में भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार कई वरिष्ठ लोगों को भितरघात करके हराने के मामले में आरोप-प्रत्यारोप लगे थे. लेकिन विपक्ष में बैठने की वजह से भाजपा में यह गुटबाजी अपने आप ही शांत हो गई थी. 2007 के विधानसभा चुनावों के बाद राज्य में खंडूड़ी और कोश्यारी दो गुट बन गए थे. तीसरा खेमा निशंक का था. इन पांच वर्षों में उत्तराखंड के इन तीनों बड़े नेताओं में से दो अपनी-अपनी सुविधा और फायदे के लिए एक होकर तीसरे को पटखनी देते रहे.

मार्च 2007- विधायकों का बहुमत भाजपा के उत्तराखंड अध्यक्ष भगत सिंह कोश्यारी के साथ होने पर भी हाईकमान ने खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बना दिया था. यहीं से भाजपा में खुली और मुखर गुटबाजी शुरू हुई. कोश्यारी और खंडूड़ी गुट आमने-सामने रहे. निशंक दोनों के बीच संतुलन की राजनीति करते रहे.

अगस्त, 2007- निशंक ने खंडूड़ी विरोधी मुहिम की कमान संभाली.  37 में से 24 विधायक खंडूड़ी को हटाने की मांग के साथ दिल्ली पहुंचे. निशंक और कोश्यारी साथ-साथ थे, लेकिन  वापस आते ही खंडूड़ी और निशंक में समझौता हो गया.

नवंबर, 2007- खंडूड़ी विरोधी खेमे की धार कम करने के लिए कोश्यारी को राज्यसभा भेजा गया.

मई, 2009- लोकसभा चुनावों में राज्य की पांचों सीट हारने पर नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए खंडूड़ी ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और नाटकीय रूप से इसे अगले दिन वापस भी ले लिया. तब तक खंडूड़ी ने निशंक की मदद से कोश्यारी खेमे के काफी विधायकों का समर्थन हासिल कर लिया था.

10 जून, 2009- खंडूड़ी को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए दबाव बनाने के लिए 14 विधायक विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफा सौंपकर भारत भ्रमण पर निकल गए. इनमें से अधिकांश कोश्यारी समर्थक थे. दबाव बढ़ाने के लिए कोश्यारी ने राज्यसभा से इस्तीफा दिया और फिर वापस भी ले लिया. इस समय खंडूड़ी और निशंक खेमों में एका हुआ. ज्यादा विधायक खंडूड़ी के साथ थे.

23 जून, 2009- दिल्ली में भाजपा विधायकों की बैठक हुई जिसमें वेंकैय्या नायडू ने खंडूड़ी को इस्तीफा देने का फरमान सुनाया. हाईकमान ने कोश्यारी को भी मुख्यमंत्री बनाने से इनकार किया. खंडूड़ी ने निशंक का समर्थन किया. शक्ति प्रदर्शन में निशंक जीते.

27, जून 2009- निशंक मुख्यमंत्री बने. शुरू में उन्हें खंडूड़ी का खुला आशीर्वाद रहा. कोश्यारी राज्य की राजनीति में अलग-थलग पड़े.

दिसंबर, 2009-  निशंक कार्यकाल में जल विद्युत परियोजनाओं का आवंटन, स्टर्डिया जमीन घोटाला जैसे मामले उच्च न्यायालय पहुंचे. पार्टी की बदनामी और गिरती साख के नाम पर खंडूड़ी और कोश्यारी निशंक को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए एक हुए.

सितंबर, 2011- खंडूड़ी समर्थक उन पर भाजपा से अलग विकल्प तलाशने का दबाव बनाने लगे. उत्तराखंड जन मोर्चा की खुली बैठक में खंडूड़ी और उनके गुट के कई वरिष्ठ भाजपा नेता शामिल हुए. बैठक के बाद खंडूड़ी दिल्ली पहुंचे. इस बार निशंक को हटाने के लिए खंडूड़ी और कोश्यारी ने हाथ मिला लिया था. भ्रष्टाचार के विरोध में आडवाणी की रथ यात्रा से पहले निशंक को हटाने पर सहमति बनी.

11  सितंबर, 2011- खंडूड़ी ने दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. निशंक अकेले पड़े.

जनवरी, 2012- निशंक के अधिकांश समर्थकों के टिकट कटे. कोश्यारी और खंडूड़ी ने मिल कर टिकट बांटे.

अब निशंक समर्थक उत्तराखंड में पार्टी की संभावित दुर्गति के लिए छह महीने पहले राज्य में मुख्यमंत्री बदलने, गलत टिकट वितरण और निशंक को प्रचार अभियान से किनारे रखने जैसे कारणों को जिम्मेदार मान रहे हैं. उधर,  खंडूड़ी समर्थक निशंक के समय गिरी पार्टी की साख और उसे संभालने के लिए मिला खंडूड़ी को मिला कम समय गिनाते हैं. जानकार कहते हैं कि चुनावों में 20 के लगभग सीटों पर भाजपा और संघ पृष्ठभूमि के बागी प्रत्याशी खड़े हुए. इसके अलावा एक दर्जन सीटों पर टिकट वितरण से उपजे असंतोष के कारण भितरघात हुआ. अब पार्टी के उन नेताओं की घेराबंदी की जा रही है जिन पर छोटे नेताओं को अनुशासन में रखने का दारोमदार था.

वैसे मतगणना के नतीजे ही तय करेंगे कि उत्तराखंड भाजपा में शीर्ष नेताओं के बीच शह और मात के ये खेल जीत का सेहरा अपने सिर पहनने के लिए हो रहे हैं या हार का ठीकरा दूसरे पर फोड़ने के लिए.

पंजाब चुनाव और पांच बदलाव

धृतराष्ट्र, विभीषण और तीसरा मोर्चा

राजनीति में परिवारवाद और चुनावों के समय करीबियों का बागी होना नई बात नहीं है. लेकिन दोनों ही मुख्य दलों के शीर्ष नेताओं के परिवारों में फूट पड़ना जरूर हैरानी की बात होती है. पंजाब चुनावों में इस बार ऐसा ही हुआ.

शिरोमणी अकाली दल (बादल) के पितामह और प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के 84 वर्षीय छोटे भाई गुरुदास सिंह उनके खिलाफ ही लांबी सीट से पीपीपी (पंजाब पीपल्स पार्टी) के टिकट पर चुनाव मैदान में थे. गुरुदास सिंह ने अब तक बड़े भाई की राजनीति को ही अपनी राजनीति माना था. लांबी सीट से चुनाव भले प्रकाश सिंह बादल लड़ते थे, लेकिन चुनावी अभियान की पूरी कमान गुरुदास के हाथों में होती थी. गुरुदास सिंह बादल सक्रिय राजनीति में नहीं थे लेकिन उनके पुत्र मनप्रीत बादल पार्टी में सक्रिय थे. 2007 की बादल सरकार में वे वित्त मंत्री थे. मनप्रीत के बारे में खुद प्रकाश सिंह बादल पूर्व में कई मौकों पर अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने की बात कह चुके थे.

पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर आशुतोष कुमार बताते हैं कि खुद प्रकाश सिंह ने 1985 में सार्वजनिक तौर पर यह घोषणा की थी कि मनप्रीत ही उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं. लेकिन असली दिक्कत पिछले कुछ सालों के दौरान तब आई जब प्रकाश सिंह की बढ़ती उम्र के साथ ही  उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी का सवाल तेजी से वास्तविक रूप लेने लगा. उनके बेटे और वर्तमान में पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने खुद को अपने पिता के राजनीतिक वारिस बनवाने की जब कोशिश की तो आखिरकार वही हुआ जो महाभारत में हुआ था. कभी मनप्रीत के नाम की रट लगाने वाले प्रकाश सिंह बादल ने तुरंत ही अपने पिछले सारे कसमें-वादे भुलाकर बेटे सुखबीर की बात मान ली. इसका नतीजा यह हुआ कि मनप्रीत ने अकाली दल से नाता तोड़कर नई पार्टी (पीपीपी) बना ली और अपने 84 वर्षीय उस पिता को उनके 86 वर्षीय उस भाई के सामने रणभूमि में उतारा जिनके लिए वह हमेशा युद्ध में सारथी रहा था. इस चुनाव में पीपीपी ने वाममोर्चे के साथ मिलकर अपने उम्मीदवार उतारे थे और उन्हें फिलहाल किंगमेकर समझा जा रहा है.

ऐसा नहीं है कि इस चुनावी महाभारत में बादल ही छाए रहे. विरोधी दल कांग्रेस ने भी इसमें भरपूर योगदान दिया. लंबे समय तक प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह तथा उनके भाई मलविंदर के बीच चले शीत युद्ध का नतीजा यह हुआ कि मलविंदर ऐन चुनावी मौके पर अपने भाई का साथ छोड़ कर विपक्षी खेमे (शिरोमणि अकाली दल) में शामिल हो गए. मलविंदर समाना विधानसभा सीट से टिकट चाहते थे. इसके लिए उन्होंने कई बार अमरिंदर सिंह से कहा भी. लेकिन पार्टी ने इस सीट से अमरिंदर के बेटे रणिंदर सिंह को  टिकट दे दिया. इसके बाद मलविंदर बागी हो गए. उनके मुताबिक उनकी जगह रणिंदर को टिकट देने का निर्णय उनके भाई अमरिंदर का नहीं है बल्कि उनकी भाभी परनीत कौर का है. मलविंदर ने न सिर्फ पार्टी और परिवार से बगावत की बल्कि समाना सीट पर रणिंदर के खिलाफ चुनाव प्रचार भी किया.

पंथ हुआ पीछे

इस चुनाव में सबसे बड़ा बदलाव सत्तारूढ़ शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन और विशेष रूप से शिरोमणि अकाली दल (बादल) की तरफ से देखा गया. अकाली दल ने इस बार के चुनाव प्रचार में किसी भी प्रकार के पंथिक मामले को उठाने से परहेज किया. हर बार विधानसभा चुनाव में 1984 के दंगों का मामला उठाकर कांग्रेस को दबाव में लाने की रणनीति अपनाने वाले अकाली दल ने इस बार हर जनसभा में विकास और सुशासन की ही बात की. इस बदलाव का असर कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा के चुनाव प्रचार में भी दिखाई दिया. पिछले चुनावों की तरह इस बार कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को आगे करके जहां खुद के सिख प्रेमी होने की बात प्रचारित नहीं की. वहीं भाजपा ने भी नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं को बुलाने से परहेज किया.

इसके अलावा इस बार शिरोमणि अकाली दल ने  सबसे ज्यादा 11 हिंदू उम्मीदवारों को विधानसभा चुनाव लड़वाया. अकाली दल अपने प्रमुख वोट बैंक जाट सिखों के अलावा दूसरे वर्गों को भी खुद से जोड़ने का जी-तोड़ प्रयास कर रहा है. इसी के तहत राज्य में अल्पसंख्यक हिंदुओं को बड़ी संख्या में पार्टी टिकट दिया गया.

शिरोमणि अकाली दल ने पहली बार सबसे ज्यादा 11 हिंदू उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा था. इसे दल की भाजपा से मुक्ति पाने की छटपटाहट से जोड़ा जा रहा है

जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो मानता है कि पार्टी की इस बदली हुई रणनीति का संबंध उसके बदले मानस से नहीं बल्कि चुनावी मजबूरियों से है. उसे यदि भाजपा की बैसाखी से मुक्ति पानी है तो अपनी खुद की ताकत बढ़ानी होगी. उल्लेखनीय है कि 2007 के चुनाव में भाजपा ने मात्र 23 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 19 सीटों पर जीत दर्ज की थी. अकाली दल इस युक्ति से खुद को मजबूत करने की जुगत भिड़ा रहा है.

मिले-जुले समर्थन का ‘डेरा’

पिछले कुछ समय से जिस तरह डेरा सच्चा सौदा का राजनीतिक प्रभाव पंजाब की राजनीति में बढ़ा है उसने यहां की राजनीति को एक अलग नकारात्मक ऊंचाई दी है. विधानसभा की 65 सीटों वाले मालवा इलाके में डेरे के प्रभाव का आलम यह है कि यहां चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी जनता से वोट मांगने की बजाय डेरे का आशीर्वाद लेना ज्यादा बेहतर समझते हैं. यही कारण है कि वर्तमान चुनाव में 200 से अधिक प्रत्याशी डेरा प्रमुख गुरुमीत राम रहीम का वोट रूपी आशीर्वाद लेने के लिए कतारबद्ध दिखे.

ऐसा नहीं कि सिर्फ सामान्य प्रत्याशी ही डेरा प्रमुख के आगे दंडवत थे वरन प्रदेश कांग्रेस के मुखिया अमरिंदर सिंह तथा पीपीपी प्रमुख मनप्रीत भी उस कतार में शामिल हुए. खैर, प्रकाश सिंह बादल और उनके पुत्र तो वहां नहीं दिखे लेकिन राजनीति के जानकार कहते हैं कि अकाली दल की तरफ से भी उनके चुनाव मैनेजरों ने गुरु के सामने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी.

2007 के विधानसभा चुनावों में डेरा ने खुल कर कांग्रेस का समर्थन किया था. उस चुनाव के परिणाम में मालवा, जो अकाली दल का गढ़ माना जाता है, में कांग्रेस ने 65 में से 37 सीटों पर जीत दर्ज की. लेकिन इसके बाद अकालियों ने अपने शासनकाल में डेरे को यह महसूस कराने में कई कोर-कसर बाकी नहीं रखी कि उनके खिलाफ जाने से उन्हें (डेरे को) कितनी मुश्किल उठानी पड़ सकती है. यही कारण है कि कांग्रेस की तमाम चरण वंदना के बाद भी इस बार डेरा खुलकर कांग्रेस के समर्थन में नहीं आया. उसने प्रेमियों (डेरे के भक्त) को अपनी इच्छानुसार कथित तौर पर स्वच्छ छवि वाले प्रत्याशियों को अपना मत देने की बात की.
दो पाटों के बीच फंसा डेरा न कांग्रेस को नाराज कर सकता था और न अकालियों को क्योंकि एक तरफ डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम के खिलाफ बलात्कार और हत्या के मामले को लेकर सीबीआई जांच चल रही है तो वहीं दूसरी तरफ राज्य पुलिस भी डेरा प्रमुख के खिलाफ केस दर्ज किए हुए है. ऐसे में इस बार डेरा ने सबको खुश करने की रणनीति पर काम किया है.

78.67% की रिकॉर्डतोड़ वोटिंग

मत प्रतिशत का यह आंकड़ा राज्य ने पहली बार छुआ है. वैसे 1992 का चुनाव (जिसका अकालियों ने बहिष्कार किया था) छोड़ दें जिसमें मात्र 26 फीसदी वोटिंग हुई थी तो उसके अलावा बाकी चुनावों में पंजाब में मतदान का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से हमेशा अधिक रहा है. लेकिन इस बार सारे रिकॉर्ड टूट गए. इतनी बड़ी संख्या में हुए मतदान को पारंपरिक तौर पर वर्तमान शासन के खिलाफ एंेटी इनकमबेंसी के तौर पर लिया जाता है. दूसरी बात यह भी है कि 1966 में पंजाब राज्य के पुनर्गठन के बाद से ही यहां कभी सत्ताधारी दल दुबारा सत्ता में नहीं आया. इस हिसाब से देखें तो मत बढ़ोतरी को अकाली-भाजपा गठबंधन के खिलाफ पड़े मतों के रूप में देखा जा सकता है. लेकिन राज्य में ऐंटी इनकमबेंसी जैसी कोई लहर नहीं दिखती.

कुछ जानकारों का यह भी मानना है कि पीपीपी के चुनाव में उतरने से मामला त्रिकोणीय हो गया है. ऐसे में जनता, जिसके पास पहले अकाली-भाजपा गठबंधन और कांग्रेस में से किसी एक को चुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, ने चुनावों में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की.

चुनाव से पहले कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा

अपनी स्थापित परंपरा के विरुद्ध जाकर कांग्रेस ने पंजाब में पहली बार मतदान से पहले ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा कर दी. राहुल गांधी ने एक सभा में इस बात की घोषणा की कि अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री बनेंगे. कांग्रेस के इस यू टर्न को जहां कुछ लोग उसकी चुनाव लड़ने के तरीकों में आ रहे बदलाव के रूप में देखते हैं. वहीं कुछ का मानना है कि पंजाब में कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा करना मजबूरी थी. क्योंकि हर रैली में अकाली-भाजपा जनता से यही कहते थे कि कांग्रेस विभाजित है.