आग और जलते सवाल

लगभग एक सदी पुरानी आग से जूझते झरिया के सामने क्या पुनर्वास के अलावा कोई और विकल्प नहीं है? और क्या पुनर्वास से शहर के लोगों की जिंदगी वास्तव में सुधरने वाली है? सवाल यह भी कि असल मुद्दा आग है या फिर झरिया के नीचे दबा बेशकीमती कोयला. अनुपमा की रिपोर्ट

बिदवा देवी हल्की आहट से ही हड़बड़ाकर ऐसे डरते हुए उठती हैं जैसे उनके जले और ढहे हुए घर में, जहां पीने को पानी तक नहीं, वहां कोई चोरी-डकैती करने आया हो. अजनबी चेहरे को देख वे आधी नींद में ही अपनी भाषा में बड़बड़ाने लगती हैं, ‘मैं बस आराम करने आई थी यहां, लेटी तो नींद आ गई, यहां रहती नहीं हूं. बेलगढि़या में रहती हूं. यह घर छोड़ दिया है हमने.’

पिछले महीने बिदवा से हमारी मुलाकात बोकापहाड़ी के टूटे हुए घर में हुई थी. कभी आबाद रही इस बस्ती में अब बर्बादी की कहानियों के अवशेष बिखरे पड़े हैं.  बोकापहाड़ी की बसाहट झरिया शहर से कुछ ही दूरी पर है. वही झरिया जहां धरती के नीचे दुनिया की सबसे बड़ी आग पिछले नौ दशक से भी अधिक समय से धधक रही है. आग के नाम पर  यहां के लोगों को बेलगढि़या में बसा दिया गया है. बिदवा उन्हीं कई लोगों में से एक है जो पुनर्वास के नाम पर वहां से लगभग 10-12 किलोमीटर दूर बसे बेलगढि़या में तो जाकर बस गए हैं लेकिन सूरज निकलने से पहले ही बोकापहाड़ी इलाके में चले आते हैं. कोयला निकालने. कोयले के बगैर जिंदगी की कल्पना इन लोगों के लिए बेमानी है.

लेकिन अब बोकापहाड़ी ही नहीं, उसके पास का झरिया शहर भी आहिस्ते-आहिस्ते कालखंड के उस मुहाने पर पहुंच रहा है जहां कई बिदवाओं को मोह-माया-ममता छोड़कर सदा के लिए अपनी माटी को भूल जाना होगा. झारखंड के धनबाद जिले में पड़ने वाले झरिया कोयलांचल की धरती के गर्भ में मौजूद कोयला भंडार को कुदरत का बेशकीमती वरदान माना जाता रहा है. अब यही वरदान अभिशाप बन गया है. आग के चलते अंदर से खोखले हो चुके इस इलाके के बारे में कई अध्ययनों के बाद अमेरिका की पिट्सबर्ग कंपनी भविष्यवाणी कर चुकी है कि अगर दस वर्षों के अंदर इसे खाली नहीं कराया गया तो यहां कभी भी दुनिया की सबसे बड़ी भू-धंसान की घटना घट सकती है.

लेकिन झरियावाले ऐसी किसी रिपोर्ट की बजाय खुद ही बहुत अच्छे से जानते हैं कि कई कारणों से धीरे-धीरे उनका शहर वहां पहुंच चुका है जिसे आग में मिलकर खाक हो जाना है. इसकी एक वजह राजनीति भी है और उससे बड़े स्तर पर झरिया के नीचे उच्च कोटि के कोयले का होना. अलग-अलग आंकड़ों के मुताबिक इसमें से अब तक तीन करोड़ 17 लाख टन जलकर राख हो जाने के बावजूद एक अरब 86 करोड़ टन अब भी बचा हुआ है.

सबसे बड़ा सवाल झरिया के उन बाशिंदो के सामने है जिन्होंने कई पीढ़ियों पहले यहां आकर पनाह ली और इसी शहर में रहते हुए अगली कई पीढ़ियों के लिए हसीन ख्वाब भी बुन डाले. व्यवसायी नवल ओझा कहते हैं, ‘पुनर्वास के नाम पर बद से बदतर स्थिति में भेजने का इंतजाम किया जा रहा है. एक तरफ कुआं, दूसरी तरफ खाई का विकल्प है तो बेहतर है कि हम यहीं मर जाएं. कम से कम मरते वक्त अपनी जमीन पर मरने का सुकून तो रहेगा!’ ओझा आगे पूछते हैं, ‘ईमानदारी से बीसीसीएल (भारत कोकिंग कोल लिमिटेड) प्रबंधन, नेता और प्रशासन बताए कि क्या सच में हमें नहीं बचाया जा सकता था.’ देशबंधु सिनेमा हॉल के मालिक और झरिया बचाओ आंदोलन के नेता गोपाल अग्रवाल कहते हैं, ‘अब भी बचाया जा सकता है हमारे झरिया को. कोई तो उपाय होगा ही!’ उधर, इंडियन स्कूल ऑफ माइंस के प्राध्यापक रहे डॉ प्रमोद पाठक कहते हैं, ‘अब झरिया को अपना वजूद खोना ही होगा, बचाने का कोई उपाय नहीं है.’

बार-बार झरिया ऐक्शन प्लान की बात होती है.  क्या सच में इससे इतनी बड़ी चुनौती से पार पाया जा सकता है?

पांच साल बाद झरिया की आग का शताब्दी वर्ष मनाया जाएगा. 1916 में पहली बार भौंरा की एक कोयला खदान में आग लगी थी. इसके बाद एक-एक कर नये इलाके में आग का फैलाव होता गया. अब 70 जगहों पर भौंरा की तरह आग ही आग है.हाल हीं में झरिया के एक कॉलेज के बहाने आग की कथा-कहानी फिर चर्चा में आई. आग पर बसे इस शहर वालों का आग के संग खेलना, जीना-मरना नियति की तरह है. लेकिन जब यह सूचना मिली कि झरिया शहर में बसे आरएसपी कॉलेज से बस कुछ ही दूरी पर आग पहुंच गई है तो खलबली मच गई. झरिया राजा शिवप्रसाद के नाम से 65 साल पहले बने इस कॉलेज में लगभग 6500 विद्यार्थी पढ़ते हैं. बताया गया कि आग इस कॉलेज से मात्र 100 मीटर की दूरी पर पहुंच गई है. कॉलेज को हटाने की बात हुई जिसका विरोध हुआ. झरियावासी जानते हैं कि आरएसपी कॉलेज हट गया तो शहर से लोगों को हटाने की प्रक्रिया भी आसान हो जाएगी. दबाव बना तो कॉलेज को हटाने का फैसला रुका.

कॉलेज को बचाने के लिए ट्रेंच कटिंग की बात हुई. हर रोज 6500 क्यूबिक मीटर मिट्टी की कटाई करके जल्द ही दक्षिणी छोर में ट्रेंच तैयार करने की बात हुई. तहलका से बातचीत में झरिया विधायक कुंती सिंह का कहना था कि आरएसपी कॉलेज को किसी हाल में नहीं उजड़ने दिया जाएगा. धनबाद के उपायुक्त सुनील कुमार वर्णवाल ने कहा, ‘बचाने की कोशिश हो रही है.’ बीसीसीएल ने कहा कि ट्रेंच कटिंग में कम से कम 20  महीने लगेंगे. उपायुक्त वर्णवाल ने कहा कि काम 10 महीने में ही पूरा कर लिया जाए. बयानबाजी ऐसे ही होती रही, जैसे कोयले में लगी हुई आग भी शासन-प्रशासन और नेताओं के फरमान से अपनी गति कम या ज्यादा कर लेगी. सेंट्रल इंस्टीट्यूट आॅफ माइनिंग फ्यूएल रिसर्च के एन सहाय कहते हैं कि आग के बढ़ने की गति लगभग पांच मीटर प्रतिमाह है.

आरएसपी कॉलेज को बचाने की जुबानी कवायद से काॅलेज के आसपास बसे लगभग 200 परिवार खुश हुए कि कॉलेज के बहाने ही सही, वे भी बच जाएंगे. लेकिन सवाल उठा कि कब तक. आज ही क्यों इतनी हड़बड़ी है? क्या आग आज ही इतनी विकराल हुई है? धनबाद के डिप्टी मेयर नीरज सिंह कहते हैं, ‘2006 से जब कॉलेज की ओर आग तेजी से बढ़ने के खतरे की चेतावनी दी जा रही थी, तब ट्रेंच कटिंग क्यों नहीं हुई? 2002 में ही डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने भी कह दिया था कि जल्दी से जल्दी इंतजाम होना चाहिए, फिर भी बीसीसीएल प्रबंधन क्यों सोया रहा?’ वरिष्ठ पत्रकार ओम प्रकाश अश्क पूछते हैं, ‘बकरे की अम्मा आखिर कब तक खैर मनाएगी. ट्रेंच से आखिर कितने दिनों तक बचाव होगा? 10 साल, 15 साल, उसके बाद क्या?’

अश्क की बातों को ही अपने तरीके से पुष्ट करते हुए साउथ इस्टर्न कोल लिमिटेड के पूर्व कार्यकारी निदेशक एनके सिंह कहते हैं, ‘यह कोई कारगर उपाय नहीं है. दूसरी दिशा से भी तो आग धधक ही रही होगी. जब तक उस दिशा से बचाव के उपाय किए जायेंगे, दूसरी ओर से आग पहुंच जाएगी.’

यह सच भी है. भूमिगत आग वाली देश भर की नौ कोयला कंपनियों के 158 क्षेत्रों में से 70 सिर्फ बीसीसीएल के झरिया कोयला क्षेत्र में हैं. झरिया इलाका चारों ओर से 17.32 वर्ग किलोमीटर में फैले 70 आग क्षेत्रों की चपेट में है. पहली बार आग का पता 1916 में ही चला था. तब निजी कंपनियों के जिम्मे सारा कारोबार था तो माना गया कि निजी कंपनियों को लोगों की परवाह क्यों होगी. उन्हें तो बस कोयले से ही मतलब है. 1971 में कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ तो आस जगी कि अब तो सब सरकारी है, लोगों के जान-माल की भी चिंता होगी लेकिन 40 साल से बीसीसीएल के लिए भी कोयला ही प्रमुख बना रहा, लोग हाशिये पर रहे.

बड़ा सवाल यह भी है कि झरिया के करीब पांच लाख लोगों की जिंदगी क्या पुनर्वास से कुछ सुधरने वाली है

अब इतनी बातों के बाद ताजा जानकारी यह है कि ट्रेंच कटिंग को लेकर जुबानी जंग के बाद जो काम शुरू हुआ और 30 फुट चौड़ाई, 60 फुट गहराई के साथ ट्रेंच काटने का जो काम शुरू हुआ था अब वह भी वर्चस्व और मूंछ की लड़ाई की भेंट चढ़ते हुए गति से दुर्गति की राह पर है. उसकी रफ्तार कम हो गई है. उधर, आग अपनी गति से बढ़ती जा रही है.

उजाड़ने और बसने के बीच का प्रश्न

झरिया बचाओ, नया झरिया बनाओ-बसाओ, इन्हीं दो अभियानों के बीच झरिया की आबादी पिस रही है. बीसीसीएल के अधिकारियों से यदि आग और पुनर्वास की स्थिति पर बात की जाती है तो एक सधा हुआ जवाब मिलता है – झरिया ऐक्शन प्लान चल रहा है, सभी समस्याओं से पार पा लिया जाएगा. लेकिन क्या सच में एक्शन प्लान के जरिए इतनी बड़ी चुनौती से पार पाया जा सकता है?

पहला सवाल तो यही है कि क्या सच में झरिया को कहीं और बसा देना ही विकल्प है. जानकार बताते हैं कि आग तो सिर्फ एक पहलू है. कई नजरें इस शहर के नीचे पड़े कोकिंग कोल पर हैं, जिसकी मांग दुनिया भर में सबसे ज्यादा है. उसी के लिए शहर को किस्तों में मारा जा रहा है. ‘झरिया में आग’ नामक पुस्तिका निकालकर इस विषय पर शोध करने वाले पत्रकार अमित राजा कहते हैं, ‘देखते रहिए कि कैसे विवश कर लोगों को झरिया छोड़ने पर मजबूर किया जाता है. एक-एक कर सारी सुविधाएं शहर से छीन ली जाएंगी. तब आज जिद पर अड़े झरियावाले मजबूरी में यहां से विदा हो जाएंगे.’

कुछ हद तक इन बातों में सच्चाई भी है. जब झरिया में रेल का परिचालन बंद हुआ था तो झरियावाले आक्रोशित हो गए थे. दशहरे में रावण के साथ तत्कालीन रेलमंत्री नीतीश कुमार और बीसीसीएल के सीएमडी का पुतला भी जलाया गया था. लेकिन इससे आगे वे कुछ कर भी नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने नियति को स्वीकार कर लिया.

पुनर्वास की हकीकत

झरिया और रानीगंज कोलफील्ड इलाके में बसे लाखों लोगों को कहीं और बसाने और भूगर्भ खदानों में लगी आग को बुझाने के साथ-साथ इस क्षेत्र के विकास को देखते झरिया एेक्शन प्लान की योजना को काफी महत्वपूर्ण बताया जा रहा है. इस योजना का प्रस्ताव 1999 में दिया गया था. सबसे पहले मंजूरी के लिए इसे कोयला मंत्रालय को भेजा गया. पिछले साल राज्य सरकार ने भी इसे मंजूरी दे दी. इस योजना के तहत बीसीसीएल और ईस्टर्न कोल लिमिटेड (ईसीएल) द्वारा पुनर्वास और बुनियादी सुविधाओं का विकास करने के साथ ही आग बुझाने के लिए लगभग 9657 करोड़ रुपये खर्च किए जाने की योजना है. यह किसी भी सरकारी कंपनी द्वारा शुरू की जाने वाली सबसे बड़ी पुनर्वास व मुआवजा योजना है जो 1999 से ही अटकी पड़ी थी. बीसीसीएल के अनुसार इसे पूरा करने में 10 वर्षों का समय लगेगा. योजना के तहत करीब 79 हजार परिवारों के पांच लाख लोगों को झरिया के खतरनाक क्षेत्र से निकालकर पुनर्वासित किया जाएगा.

पर सवाल यह है कि क्या पुनर्वास से लोगों की जिंदगी सुधरेगी. इस क्षेत्र से तकरीबन पांच लाख की आबादी को पुनर्वासित किया जाना है. इसके लिए लगभग 79,179 परिवारों के लिए मकान बनाए जाने की बात की जा रही है. इनमें से लगभग 46,000 परिवार बीसीसीएल कर्मचारी ही हैं. इस योजना के तहत लोगों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराए जाने की बात की गई है, लेकिन बोकापहाड़ी के लोगों को पायलट प्रोजेक्ट के तहत जिस तरह जंगल के बीच बनी एक कॉलोनी बेलगढि़या में बसाया गया है उससे पुनर्वास की सार्थकता पर सवाल खड़े होते हैं. कई घरों में न तो बिजली है, न पानी. बच्चों का नामांकन भी नहीं हुआ. कोई हाट-बाजार भी नहीं. रोजगार के लिए लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है, इसलिए वे दिन भर कोयला निकालने कोल क्षेत्रों में आ जाते हैं और फिर शाम को घर लौट जाते हैं. झरिया से 10-12 किलोमीटर दूर बेलगढि़या में घर इनके छोटे-छोटे हैं कि पांच लोगों के परिवार को सिर्फ सोने की जगह मिल पाएगी. रसोईघर भी बनाया गया है लेकिन इतना छोटा कि वहां दो लोग भी मुश्किल से खड़े हो सकें. एक छोटा-सा टॉयलेट भी है, लेकिन पानी ही नहीं मिलता तो कई लोगों ने उसे भरकर कमरे के रूप में तब्दील कर दिया है जिसमें वे अपनी बकरियां और मुर्गियां रखते हैं. आबाद शहर झरिया में रह रहे लोगों के ऐसे ही पुनर्वास के लिए झरिया ऐक्शन प्लान के तहत  झरिया रीहैबिलिटेशन डेवलपमेंट अथॉरिटी (जेआरडीए ) का गठन किया गया है. जेआरडीए और बीसीसीएल की इस योजना को अर्बन डेवलपमेंट कॉरपोरेशन की मदद से पूरा किया जाना है.

कोयले और स्टील का रिश्ता

बीसीसीएल के सीएमडी पीके लहरी कहते हैं कि बीसीसीएल पुनर्वास योजना को मुकम्मल तरीके से लागू करने को तैयार है, बस सरकार से सही समय पर समुचित सहयोग चाहिए. अगर समय पर फंड मिले तो काम नियत समय पर पूरा हो जाएगा. बीसीसीएल जनसंपर्क अधिकारी आरआर प्रसाद भी कहते हैं कि जितनी जल्दी पुनर्वास हो उतना बेहतर.

देश में घरेलू कोयले का भंडार 93 अरब टन है जिसका 13 फीसदी भाग ही कोकिंग कोल है बाकि थर्मल कोल है

लेकिन बीसीसीएल के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि खेल सिर्फ उजाड़ने-बसाने का नहीं है, बल्कि कुछ और है. नाम गुप्त रखने की शर्त पर वे बताते हैं, ‘इस योजना की मंजूरी से कंपनी दीर्घकालिक हित देख रही है. झरिया जिस दिन खाली हो जाएगा, उस दिन कोकिंग कोल कोयले के लिए रास्ता साफ हो जाएगा, जिसके लिए इस्पात कंपनियां इंतजार कर रही हैं. यहां से आबादी हटने के बाद ही कोयले के दोहन का काम संभव हो पाएगा.’

हालांकि एक रास्ता यह भी है कि कोयला खनन हो जाने से आग बुझाना भी आसान होगा, लेकिन उसमें एक बड़ा सवाल तो यही है कि आउटसोर्सिंग में लगी बीसीसीएल क्या कभी वैज्ञानिक तरीके से खनन शुरू कराने की पहल करेगी. इसीएल के रिटायर्ड निदेशक एनके सिंह की मानें तो झरिया में बीसीसीएल कंपनी नौ ओपन कास्ट माइंस से खनन का काम शुरू करेगी, जिससे इस्पात उद्योग की जरूरतों को पूरा किया जा सकेगा. फिलहाल 2025 मिलियन टन कोकिंग कोल ऑस्ट्रेलिया से आयात करना पड़ता है. लेकिन कार्य योजना लागू कर दी जाए तो घरेलू इस्पात उद्योग की 50 फीसदी जरूरतों को आसानी से पूरा कर दिया जाएगा. इससे राजस्व में भी काफी इजाफा होगा.

एनके सिंह की बातों को आगे बढ़ाते हुए अगर आंकड़ों से इसे समझने की कोशिश करें तो इसे वर्तमान स्थिति से समझा जा सकता है. देश की सबसे बड़ी इस्पात उत्पादक कंपनी स्टील अथॉरिटी  ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) के अनुमान के मुताबिक स्टील का उत्पादन इस वर्ष 6.5 करोड़ टन होने की संभावना है. इतने उत्पादन के लिए 4.5 करोड़ टन कोकिंग कोल की आवश्यकता होगी. देश में घरेलू कोयले का भंडार 93 अरब टन है जिसका 13 फीसदी भाग ही कोकिंग कोल है बाकी थर्मल कोल है. इसमें से 28 फीसदी प्राइम कोकिंग कोल और शेष मीडियम कोकिंग कोल है. भारतीय इस्पात उद्योग के विकास में सबसे बड़ी बाधा प्राइम कोकिंग कोल की अनुपलब्धता है. फिलहाल इसका उत्पादन 80 लाख टन है जिसे 2024-25 तक 1.8 करोड़ टन करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है जबकि इस्पात उद्योग की डिमांड 9.7 करोड़ टन हो जाएगी. मांग और आपूर्ति को देखते हुए भी बीसीसीएल इस ऐक्शन प्लान को महत्व दे रही है. धनबाद-पाथरडीह रेलवे लाइन को आग से प्रभावित कहकर हटा दिया गया ताकि वहां से कोयला निकाला जा सके और अब तक इस छोटी-सी जगह से 10 लाख टन से अधिक कोयला निकाला जा चुका है.

ये बातें अब झरियावाले भी जानने लगे हैं कि जिस कोयले ने उनकी जिंदगी में सारे बदलाव किए हैं, उन्हें जीने खाने का आसरा देने के साथ ही समृद्ध भी बनाया है, वही अब उनके लिए जी का जंजाल बना हुआ है. यह पूछने पर कि दुनिया के सबसे बड़े पुनर्वास के लिए इतना पैसा कहां से आएगा तो कागज का एक पुलिंदा सौंपा जाता है, जिसका सार कुछ इस तरह से है-  बीसीसीएल की होल्डिंग कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड गत तीन वर्षों से अपनी लाभजनक इकाइयों से प्रतिटन छह रुपये वसूलती है. इससे हर साल बीसीसीएल को 400 करोड़ रुपये मिलते हैं. यह पैसा इस काम में इस्तेमाल होगा. इसके अलावा, हर तरह के कोयले  (कोकिंग और नॉन कोकिंग) पर उत्पाद शुल्क 10 रुपये  प्रतिटन किया गया है, जो पहले साढ़े तीन रुपये प्रतिटन नॉन कोकिंग कोल पर तथा सवा चार रुपये प्रतिटन कोकिंग कोल पर था. इससे प्रतिवर्ष अतिरिक्त 240 करोड़ रुपये जमा होने का अनुमान है. इसी तरह पैसा जमा करके नया झरिया बसा दिया जाएगा.

लेकिन उससे पहले कई सवालों के जवाब की हैं.