सुब्रमण्यम सुनामी

सुब्रमण्यम स्वामी के बारे में यह कहानी सच्ची है  या मनगढ़ंत, यह तो पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना पक्का है कि यह लुटियन की दिल्ली में कई बार सुनने को मिल जाती है. बताते हैं कि एक बार एक रसूखदार संपादक ब्लैकमेलिंग के इरादे से स्वामी के घर गए. दक्षिण दिल्ली में बने इस घर के बेसमेंट में स्वामी का दफ्तर भी था. संपादक साहब भीतर घुसे और मेज पर कागजों का एक पुलिंदा पटकते हुए डराने वाले अंदाज में बोले, ‘डॉ. स्वामी, मेरे पास आपके खिलाफ एक फाइल है.’

स्वामी की सहजता पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. उन्होंने आराम से मेज की दराज खोली, उसमें से एक फोल्डर निकाला, उसे मेज पर रखा और बोले, ‘संपादक जी, मेरे पास भी आपके खिलाफ एक फाइल है.’

कुछ साल पहले स्वामी से किसी ने पूछा था कि क्या यह किस्सा सच है. तब वे सिर्फ हंस दिए थे. किस्सा हो सकता है सच्चा न हो मगर फिर भी इससे जो रोब पड़ता है उससे भला कौन इनकार करना चाहेगा. इस कहानी से स्वामी की इस ख्याति में चार चांद ही लग रहे थे कि वे एक ऐसे शख्स हैं जिसके पास हर किसी के खिलाफ एक फाइल रहती है. हैरानी की बात नहीं कि दोस्तों और मुरीदों को वे नायक लगते हैं और दुश्मनों को सबसे बड़ा दुस्वप्न.

पिछले कुछ समय से स्वामी लगातार चर्चा में रहे हैं. 2जी स्पेक्ट्रम मामले में चिदंबरम को मुश्किलों में डालना हो या अपने एक विवादास्पद लेख के कारण हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के विजिटिंग प्रोफेसर की अपनी कुर्सी गंवाना, उन्होंने अपने आप को लगातार प्रासंगिक बनाए रखा है. एक तरह से देखा जाए तो पिछला कुछ समय उनकी वापसी का समय रहा है. संसद से उनकी विदाई 1999 में ही हो गई थी. इसी साल उन्होंने एनडीए की पहली सरकार गिरने में अहम भूमिका निभाई थी. उनकी यह सबसे दुस्साहसिक उपलब्धि ही उनके लिए मुश्किल बन गई. जो सरकार पांच साल चलने की उम्मीद कर रही थी वह उनकी वजह से एक साल में गिर गई थी. इसके बाद मुख्यधारा की पार्टियों ने एक लंबे समय तक उनसे अछूत जैसा बर्ताव किया. उन्हें स्वामी जरूरत से ज्यादा ही चतुर लगते थे.

स्वामी भारतीय राजनीति की उन अजीब विडंबनाओं में से एक का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कड़वी भी हैं और मीठी भी

लेकिन लंबे समय तक अलग-थलग रहने के बाद स्वामी फिर से सुर्खियों में आ गए हैं. उन्होंने विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार के दक्षिणपंथ की सहानुभूति बटोरी है जो भाजपा द्वारा अयोध्या का मुद्दा पीछे छोड़ने के बाद बेसहारा महसूस कर रहा था. इसके साथ ही 2जी घोटाले में जिस तरह से उन्होंने अपनी चिरपरिचित शैली में गृहमंत्री चिदंबरम को मुसीबत में डाला है उससे उन्होंने खुद की छवि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले एक योद्धा जैसी बना ली है.

यह एक तरह से स्वामी का पुनर्जीवन है. हिंदू राष्ट्रवाद और कांग्रेस का विरोध उनकी पहचान बन गया है. कम से कम आज की पीढ़ी उन्हें इसी रूप में जानती है. वे उन दुर्लभ नेताओं में से हैं जो अपने राजनीतिक प्रचार के लिए ट्विटर का बखूबी इस्तेमाल करते हैं. सोशल मीडिया में उनकी मौजूदगी का आलम यह है कि ट्विटर पर उनके 40,000 प्रशंसक हैं जिन्हें लगता है कि स्वामी भारत के सबसे अच्छे प्रधानमंत्री साबित हो सकते थे. एक नजर में यह प्रभावशाली आंकड़ा है. 1998 से लेकर आज तक स्वामी ने एक भी चुनाव नहीं जीता है. 2004 में जब वे तमिलनाडु के मदुरै से लड़े थे तो पूरा जोर लगाने के बावजूद उन्हें सिर्फ 12,000 वोट मिले थे और वे चौथे स्थान पर रहे थे. इसके बावजूद उन्होंने इंटरनेट की दुनिया पर अपने लिए प्रशंसकों की खासी बड़ी फौज खड़ी कर ली है. वे अकेले ऐसे गंभीर राजनेता होंगे जिसके पास वोटरों से ज्यादा ट्विटर के फॉलोअर हैं.

स्वामी भारतीय राजनीति की उन अजीब विडंबनाओं में से एक का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कड़वी भी हैं और मीठी भी. कइयों को लगता है कि उनकी कुशाग्र बुद्धि, प्रतिभा, दृढ़ता और दुनिया भर में उनके संपर्कों को देखते हुए उनके पास एक ऐसी जगह होनी चाहिए थी जहां वे देश की आर्थिक और कूटनीतिक रणनीति में अपना कोई योगदान देते. इसकी बजाय वे हमेशा इस तंत्र के लिए एक बाहरी आदमी रहे जिसकी छवि झमेला खड़े करने वाले व्यक्ति की रही. एक तरह से यह भारतीय राजनीति की असफलता भी है. इस मायने में कि हार्वर्ड जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले अकेले सांसद का वह कोई रचनात्मक इस्तेमाल नहीं कर पाई. और दूसरी नजर से देखें तो यह स्वामी और जीवन के अलग-अलग पड़ावों पर उनके द्वारा लिए गए फैसलों के बारे में भी काफी कुछ बताता है.

सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हर व्यक्ति के पीछे एक दिलचस्प कहानी होती है. स्वामी की तो अनेक कहानियां हैं. वे दिल्ली के उस वर्ग से ताल्लुक रखते हैं जिसे समाज की सबसे ऊपरी और ऊंची परत कहा जा सकता है. उनके गणितज्ञ पिता सीताराम सुब्रमण्यन सेंट्रल स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट के निदेशक थे. उस दौर में एक दूसरे गणितज्ञ भी थे जिन्हें सीताराम सुब्रमण्यन का कट्टर प्रतिद्वंदी कहा जाता था. वे थे योजना आयोग के जनक पीसी महालनोबिस. अपने पिता की तरह स्वामी का झुकाव भी गणित की तरफ हुआ. वे हिंदू कॉलेज में पढ़े. दाखिला तो उन्हें सेंट स्टीफेंस में भी मिल सकता था मगर उन्होंने इसे छोड़ दिया क्योंकि उन्हीं के शब्दों में, ‘मुझे वहां ऐसा लगता था जैसे मैं कहीं बाहर से आया हूं.’ स्नातक की पढ़ाई पूरी हुई तो दिल्ली विश्वविद्यालय में सबसे ज्यादा अंक पाने वाले छात्रों की सूची में वे तीसरे स्थान पर थे. मास्टर डिग्री के लिए उन्होंने कोलकाता (तब कलकत्ता)स्थित इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट में दाखिला लिया. इसके मुखिया महालनोबिस थे.

स्वामी बताते हैं, ‘वहीं मुझे सबसे पहले भेदभाव महसूस हुआ. महालनोबिस को पता चल गया था कि मेरे पिता कौन हैं और इस वजह से मुझे मेरी योग्यता से कम अंक मिलने लगे.’ इसके बाद स्वामी ने वह दांव खेला जिसकी महालनोबिस कल्पना भी नहीं कर सकते थे. दरअसल महालनोबिस ने एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के लिए डेरिवेटिव पर एक पेपर लिखा था. पोस्ट ग्रैजुएट छात्र के रूप में स्वामी ने इसकी समीक्षा की और एक पेपर लिखा जिसमें कहा गया था कि महालनोबिस का काम मौलिक नहीं था बल्कि उन्होंने एक दूसरे गणितज्ञ की नकल की थी जिसने इसी विषय पर एक सदी पहले काम किया था. यह पेपर स्वीकार कर लिया गया और इसे उसी अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित किया गया. अपने संस्थान में तो स्वामी का इससे कोई भला नहीं हुआ पर हार्वर्ड के एक प्रोफेसर की नजर उन पर पड़ी और उन्होंने इस छात्र को एक फेलोशिप की पेशकश कर दी.

कोई नहीं जानता कि स्वामी और वाजपेयी की दुश्मनी क्यों हुई मगर यह कहा जा सकता है कि इसके परिणाम भारतीय लोकतंत्र को महंगे पड़े

हार्वर्ड में 24 साल का होते-होते स्वामी ने अपनी पीएचडी पूरी कर ली और अध्यापन के क्षेत्र में आ गए. तब तक वे चीन की अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ के रूप में मशहूर हो गए थे. 1969 में जब वे एसोसिएट प्रोफेसर थे तो अमर्त्य सेन ने उन्हें दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अपनी सेवाएं देने के लिए बुलाया. उन्हें चीन मामलों के अध्ययन वाले विभाग के मुखिया की कुर्सी संभालनी थी. स्वामी ने सामान पैक किया और अपने देश वापस आ गए.

लेकिन इस बीच इस संस्थान को अपनी सेवाएं देने वाले दूसरे व्यक्तियों को लगा कि स्वामी कुछ ज्यादा ही बाजारसमर्थक और बेलागलपेट बोलने वाले आदमी हैं. यहां आने पर उन्हें रीडर का पद दिया गया. यह साफ अन्याय था. छात्र स्वामी के समर्थन में आवाज उठाने लगे. उस दौर के गवाह रहे लोग आज भी याद करते हैं कि आज प. बंगाल के वित्त मंत्री अमित मित्रा ने एक सभा में स्वामी को कंधों पर उठा लिया था. आज भी वे स्वामी के करीब हैं. यह दर्शाता है कि स्वामी के संपर्कों का दायरा कितना लंबा-चौड़ा है.

इस अध्याय के बाद स्वामी आईआईटी में आ गए. यहां वे छात्रों को अर्थशास्त्र पढ़ाते थे. वे छात्रों के हॉस्टलों में भी चले जाते और उनसे राजनीति और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बतियाते. जल्द ही छात्रों के बीच वे मशहूर हो गए. उन्होंने स्वदेशी प्लान नामक एक पुस्तक भी प्रकाशित की जिसमें उनका कहना था कि भारत को विदेशी मदद की जरूरत नहीं है. इसमें उन्होंने पंचवर्षीय योजना का एक विकल्प भी सुझाया था जो बाजारोन्मुखी था. उनका कहना था कि इसके बूते 10 फीसदी विकास दर हासिल की जा सकती है. मार्च, 1970 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बजट पर संसदीय चर्चा के दौरान बोलते हुए स्वामी का नाम लिया और उनके विचारों को अव्यावहारिक बताकर खारिज कर दिया.

1972 में दिसंबर की एक शाम स्वामी को एक पत्र मिला. पत्र उन्हें सवा पांच बजे दिया गया था और इसमें लिखा गया था कि उन्हें आईआईटी से हटाया जाता है. बर्खास्तगी का समय लिखा था पांच बजे. गणित पढ़ाने वाली उनकी पत्नी को भी हटा दिया गया था. स्वामी आईआईटी को अदालत में ले गए. 1991 में आखिरकार उन्होंने मामला जीत भी लिया. उन्होंने बतौर प्रोफेसर एक दिन के लिए ज्वाइन किया और फिर त्यागपत्र दे दिया.1972 से लेकर 1991 तक की सैलरी एरियर के लिए आईआईटी के खिलाफ उनका मामला अब भी चल रहा है जिस पर वे 18 फीसदी ब्याज चाहते हैं.

सत्ताधारी पार्टी की तरफ से दुत्कारे जाने के बाद स्वामी को जनसंघ के रूप में एक स्वाभाविक साझीदार मिल गया. इसने 1974 में स्वामी को राज्यसभा भेज दिया. जून, 1975 में आपातकाल लागू हो गया और उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ. सिख का भेस बनाकर स्वामी चेन्नई निकल गए. वहां से उन्होंने श्रीलंका और फिर अमेरिका की फ्लाइट पकड़ ली. वहां उन्होंने खुद को भारत की विपक्षी पार्टियों के प्रवक्ता के रूप में स्थापित किया और साथ ही हार्वर्ड में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में भी.

10 अगस्त, 1976 को हुई एक घटना शायद आपातकाल की सबसे नाटकीय घटना होगी. संसद के मानसून सत्र का पहला दिन था. स्वामी बताते हैं,  ‘मैं छह महीने से संसद नहीं पहुंचा था. अनुपस्थिति के कारण मेरी सदस्यता समाप्त हो सकती थी. मेरे ऊपर आरोप लग रहे थे कि मेरे सहयोगी जेल में पड़े हैं जबकि मैं अमेरिका में जिंदगी के मजे लूट रहा हूं.’

स्वामी वापस भारत लौटे. संसद भवन पहुंचे और चुपचाप अपनी सीट पर जा बैठे. राज्यसभा अध्यक्ष (तत्कालीन उपराष्ट्रपति बीडी जत्ती) हाल में दिवंगत हुए सदस्यों को श्रद्धांजलि दे रहे थे. स्वामी अपनी जगह पर खड़े होकर बोले, ‘मुझे एक दिक्कत है. आपकी श्रद्धांजलि में लोकतंत्र का जिक्र नहीं आया. इसकी भी मौत हो चुकी है.’ जत्ती को सांप सूंघ गया. वे बुदबुदाए, ‘कोई दिक्कत नहीं है.’ इसके बाद उन्होंने सदस्यों से मृतक आत्माओं की शांति के लिए दो मिनट का मौन रखने का आग्रह किया. स्वामी बताते हैं, ‘उन्हें मार्शल को मुझे पकड़ने का आदेश देना चाहिए था क्योंकि मेरे खिलाफ वारंट जारी था.’ इसी गफलत में जब पूरा सदन मृतक आत्माओं की शांति के लिए मौन खड़ा था, स्वामी गायब हो गए.

आगे की कहानी और भी दिलचस्प है. उस समय तक संसद में नाममात्र की सुरक्षा हुआ करती थी. स्वामी अपनी कार में बैठे और बिड़ला मंदिर की तरफ चल पड़े. यहां उन्होंने अपनी गाड़ी खड़ी की और कपड़े बदल लिए. वे बताते हैं, ‘मैंने कुर्ता और कड़ा पहन लिया ताकी यूथ कांग्रेस के लड़कों की तरह दिख सकूं.’ संजय गांधी की एक जनसभा उसी समय खत्म हुई थी. स्वामी उसी भीड़ में शामिल हो गए जो रेलवे स्टेशन की तरफ जा रही थी. वहां से उन्होंने मथुरा की ट्रेन पकड़ ली. वहां से नागपुर फिर मुंबई पहुंच गए. अंतत: उन्होंने सीमा पार की और नेपाल जा पहुंचे. वहां से बैंकॉक और फिर अमेरिका जा पहुंचे. संघ के नेटवर्क ने उनकी पूरी यात्रा का प्रबंध किया था और विदेशी सरकारों ने उनके निरस्त पासपोर्ट का भी सम्मान किया था. इस घटना ने उन्हें आपातकाल के विरोधियों का नायक बना दिया था.

इसी दौर में उन्होंने एक और बड़ा दुश्मन बनाया- अटल बिहारी वाजपेयी. किसी को नहीं पता कि वाजपेयी और उनकी दुश्मनी कैसे शुरू हुई थी. कुछ लोग बताते हैं कि वाजपेयी उनसे खतरा महसूस करते थे. खुद स्वामी इसे व्यक्तित्वों का टकराव मानते हैं. वे कहते हैं, ‘मैं नानाजी देशमुख का चेला था. और नानाजी और वाजपेयी के बीच अलगाव हो चुका था.’

1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी. मोरारजी ने स्वामी को वित्त राज्य मंत्री बनाने का प्रस्ताव किया, वाजपेयी इसके विरोध में थे. 1980 में भाजपा के गठन के वक्त वाजपेयी ने स्वामी को पार्टी में शामिल करने से मना कर दिया. इसकी प्रतिक्रिया में उन्होंने वाजपेयी की निजी जिंदगी पर सवाल उठाए और आरोप लगाया कि वे इंदिरा गांधी से मिले हुए हैं. इसके दो दशक बाद वाजपेयी और स्वामी के बीच निर्णायक मुठभेड़ हुई. 1998 में भाजपा को केंद्र में सरकार बनाने के लिए एआएडीएमके (जयललिता) के समर्थन की दरकार थी. मदुरै के सांसद और दिल्ली में जयललिता के दूत के तौर पर तैनात स्वामी ने बातचीत शुरू की. सुबह के नाश्ते पर हुई मीटिंग के दौरान डील तय हो गई. स्वामी बताते हैं, ‘वाजपेयी ने मुझे वित्त मंत्री बनाने का वादा किया था, लेकिन जैसे ही उन्हें जयललिता का पत्र मिला वे अपने वादे से मुकर गए.’

एक अर्थशास्त्री के तौर पर उनकी कई भविष्यवाणियां  सही साबित हुईं. चीन के बारे में उनकी समझ का तो दुनिया लोहा मानती है

उस दिन नाश्ते की टेबल पर चार लोग मौजूद थे. बाकी तीन में से एक ने तहलका से इसकी पुष्टि की कि स्वामी ने वित्त या विदेश मंत्रालय की शर्त रखी थी और वाजपेयी ने स्पष्ट वादा करने की बजाय कुछ बुदबुदाया था. साल भर बाद ही स्वामी सोनिया गांधी के दफ्तर में थे. बताया जाता है कि सोनिया ने उनसे कहा, ‘मेरे ख्याल से आप इस सरकार को गिराना चाहते हैं. हम भी यही चाहते हैं.’

फिर स्वामी ने दिल्ली के एक होटल में एक बहुचर्चित चाय पार्टी का आयोजन किया. इसमें सोनिया और जयललिता दोनों आमंत्रित थीं. इसके बाद एआईएडीएमके ने वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस ले लिया. अप्रैल 1999 में भाजपा सत्ता से बेदखल हो गई. स्वामी का दावा है कि सोनिया गांधी ने उनसे वादा किया था कि वे एक गैरकांग्रेसी, गैरभाजपाई सरकार बनाने में सहयोग करेंगी जिसमें वे खुद प्रधानमंत्री बनेंगे. वे बताते हैं, ‘चंद्रशेखर और देवेगौड़ा के नाम पर भी चर्चा हुई थी.’ इसकी बजाय सोनिया ने खुद की सरकार बनाने की कोशिश की. लेकिन वे इसके लिए जरूरी समर्थन नहीं जुटा सकीं.

इसके बाद मध्यावधि चुनाव हुए और भाजपा फिर से सत्ता में आई. वाजपेयी सत्ता में थे. कांग्रेस और जयललिता के बीच चुनावी दोस्ती हुई, पर इसमें स्वामी नहीं थे. उन्हें अपनी लोकसभा सीट भी गंवानी पड़ी. तब से शुरू हुआ संसद से उनका निर्वासन आज भी जारी है.तो क्या उनके निर्वासन को उनके राजनीतिक जीवन का अंत माना जाए? लगता तो नहीं. भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने हाल ही में अपने सहयोगियों से कहा कि वे स्वामी से काफी प्रभावित हैं और उन्हें राज्यसभा भेजने की इच्छा रखते हैं. स्वामी आडवाणी का मन जीत चुके हैं. वे संघ और विहिप को भी भा चुके हैं. पूर्व सरसंघचालक केएस सुदर्शन, विहिप अध्यक्ष अशोक सिंहल और आडवाणी के करीबी एस गुरुमूर्ति उनके समर्थक हैं. लेकिन भाजपा की कथित दूसरी पीढ़ी उनका विरोध कर रही है. बताते हैं कि 2005 में पार्टी की एक बैठक में आडवाणी ने जब स्वामी को पार्टी में लाने का विचार रखा था तो स्वर्गीय प्रमोद महाजन ने कहा था, ‘आडवाणी जी, पहले से क्या कम सुब्रमण्यम स्वामी पार्टी में हैं जो आप असली स्वामी को भी लाना चाहते हैं?’

राजनीतिक रूप से स्वामी की लोकप्रियता का बड़ा हिस्सा उनके सोनिया विरोध से आता है. वे आरोप लगाते रहे हैं कि सोनिया ने विदेशों में पैसा जमा कर रखा है. उनका मानना है कि बोफोर्स की दलाली का पैसा उनके परिवार के पास पहुंचा है न कि राजीव गांधी के पास. वे कहते हैं, ‘पी चिदंबरम के बाद अगला निशाना रॉबर्ट बाड्रा होंगे. मेरे पास उनके खिलाफ दस्तावेज हैं. लेकिन मैं अपने हिसाब से कार्रवाई करूंगा.’ कई बार तो उनके पास अपने आरोपों के पक्ष में पुख्ता सबूत भी नहीं होते. वे अपनी बात के समर्थन में केजीबी अधिकारियों की आत्मकथाओं के अनुवादित संस्करणों का हवाला देते हैं. अनाम अखबारों में प्रकाशित खबरों का जिक्र करते हैं जिनका सबूत के तौर पर इस्तेमाल तक नहीं किया जा सकता.

राजीव से स्वामी की निकटता 1989 में हुई. तब चंद्रशेखर चार महीने की सरकार के प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस बाहर से इसे समर्थन दे रही थी. स्वामी वाणिज्य और कानून विभाग के मंत्री थे. क्या उन दोनों के बीच एक अच्छा रिश्ता बन गया था या फिर दोनों एक-दूसरे का इस्तेमाल कर रहे थे?

यह सवाल इसलिए खड़ा होता है क्योंकि राजीव उस वक्त बोफोर्स के साये में थे. तो ऐसे में स्वामी ने अपनी भ्रष्टाचार विरोधी छवि के साथ कैसे तालमेल बैठाया? वे कहते हैं कि और भी तमाम लोग बोफोर्स घोटाले में शामिल थे. इनमें वीपी सिंह और अरुण नेहरू भी शामिल थे. नेहरू इस आरोप को हंसी में उड़ा देते हैं. उधर, स्वामी कहते हैं, ‘मैं सीबीआई को बोफोर्स के साथ डील करने के लिए तैयार कर रहा था कि कंपनी उन नामों का खुलासा कर दे तो हम कंपनी के ऊपर लागू प्रतिबंधों को हटा देंगे.’ सीबीआई के पुराने अधिकारी अलग बात कहते हैं. वे बताते हैं कि कानून मंत्री के तौर पर स्वामी ने अभियोजन पक्ष को प्रभावित करने और मामले को उलझाने की कोशिश की.’

इन छल-प्रपंचों और षड्यंत्रकारी कहानियों के बीच स्वामी के व्यक्तित्व का एक नया पहलू उद्घटित होता है. वह यह कि मौका पड़ने पर वे एक शानदार बौद्धिक क्षमता वाले व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं. अमेरिका और इजराइल के साथ बेहतर संबंधों का समर्थन उन्होंने काफी पहले ही कर दिया था. वित्तीय सुधारों का सुझाव उन्होंने तब दे दिया था जब बहुतों की सोच वहां तक नहीं गई थी. चीन के प्रति उनका रणनीतिक विरोध भले हो लेकिन इसके बारे में उनकी समझ को कोई नहीं नकारता. चीन के बारे में उनकी कई बातें बात में सही साबित हुई हैं. अब उनकी भविष्यवाणी है कि चीन अगले दो सालों में गंभीर आर्थिक संकट की चपेट में होगा क्योंकि उसकी बैंकिंग और वित्तीय व्यवस्था लड़खड़ा रही है.

हार्वर्ड में विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर स्वामी के तीन कार्यकाल रहे हैं. 70 के मध्य में, 80 के मध्य में और फिर 2001 से लेकर पिछली गर्मियों तक. हर साल वे दो महीने के लिए अमेरिका चले जाते हैं. विश्वविद्यालय में वे दो विषय पढ़ाते हैं- पहला मैथमैटिक्स फॉर इकोनॉमिस्ट और दूसरा इकोनॉमिक डेवलपमेंट ऑफ चाइना ऐंड इंडिया. डीएनए अखबार में प्रकाशित उनके विवादास्पद लेख के बाद हार्वर्ड के वरिष्ठ प्रोफेसरों के एक समूह ने उनके साथ करार रद्द करने और उन्हें 2012 में न बुलाने का फैसला किया है. गुस्साए स्वामी कहते हैं, ‘मेरे एक भी छात्र ने मेरे खिलाफ या लेख के विरोध में शिकायत नहीं की है.’

उन्हें आज नहीं तो कल हर साल अमेरिका जाना छोड़ना ही था. अब वे कह सकते हैं कि उन्होंने हिंदू हित के लिए हार्वर्ड की नौकरी छोड़ दी

हालांकि अपनी चिरपरिचित चतुराई से स्वामी इस झटके का इस्तेमाल भी अपने फायदे के लिए कर सकते हैं. उनकी 72 साल की उम्र को देखा जाए तो उन्हें आज नहीं तो कल हर साल अमेरिका जाना छोड़ना ही था. अब वे यह भी कह सकते हैं कि उन्होंने हिंदू हित के लिए मोटी तनख्वाह वाली हार्वर्ड की नौकरी छोड़ दी.

स्वामी के व्यक्तित्व की कई परतें हैं. उनका हिदुत्व प्रेम भी कई मायनों में अवसरवाद जैसा लग सकता है. उनके बेसमेंट वाले दफ्तर की दीवार कुछ साल पहले तक उनके ही चित्रों से पटी पड़ी रहती थी- देंग से लेकर मोरारजी तक के साथ. उसमें अब कुछ नए कैलेंडर जुड़ गए हैं- हिंदू देवी देवताओं के कलात्मक कैलेंडर. यह बदलाव कब हुआ? इसके जवाब में वे उसी सहज भाव के साथ कहते हैं, ‘जब कांची के शंकराचार्य को गिरफ्तार किया गया. मुझे लगा कि हिंदुत्व को निशाना बनाया जा रहा है. हिंदू भी आतंकवाद के पीड़ित हैं..’

जोड़-तोड़ और गुटबाजी के आरोपों से स्वामी भी बचे नहीं हैं. 2जी घोटाले में उन्होंने पी चिंदबरम को तो निशाना बनाया पर मनमोहन सिंह को परे रखा. फोन टैपिंग के मामले में जब उन्होंने रामकृष्ण हेगड़े को निशाना बनाया तब कहा गया कि वे कर्नाटक में हेगड़े के विरोधियों के इशारे पर काम कर रहे थे. हेगड़े को इस्तीफा देना पड़ा. संयोग की बात है कि जब उन्होंने करुणानिधि को निशाना बनाया तो इसका फायदा जयललिता को हुआ और जब जयललिता पर हमला बोला तो इसका लाभ करुणानिधि को हुआ.

बेंगलुरु में जयललिता पर भ्रष्टाचार का जो मामला चल रहा है उसकी जड़ स्वामी की याचिका में ही है. शायद इसी का नतीजा है कि स्वामी के बारे में यह भी कहा जाता है कि किसी से भी उनकी दोस्ती लंबे समय तक नहीं निभती. हालांकि वे इस आरोप को सिरे से नकारते हैं और जोर देते हैं कि उन्होंने कभी किसी को धोखा नहीं दिया. वे कहते हैं,  ‘चंद्रास्वामी, नरसिम्हा राव… मैं उनके साथ तब भी रहा जब सारे लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया था.’ 1990 की शुरुआत में राव ने उन्हें एक आयोग का अध्यक्ष बनाया था. इसका काम था एक समान मजदूरी मानकों पर एक योजना बनाना. राव ने उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया. यह आयोग उस समय वाणिज्य मंत्रालय के तहत आता था. जिसके मुखिया उस समय पी चिदंबरम थे. पर वे राज्य मंत्री थे. उस समय वे स्वामी के नीचे थे, आज वे स्वामी के निशाने पर हैं.

स्वामी पर कम ही लोग विश्वास करते हैं. लेकिन यह भी सच है कि उन्हें नजरअंदाज कर पाने वालों की संख्या उससे भी कम है. फिलहाल वे खुद के लिए राज्य सभा के सपने देख रहे हैं और पी चिदंबरम को डरावने सपने दिखा रहे हैं.