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इंसान है सलमान

सलमान खान की ताजा हिट फिल्म दबंग में कई चीजों के साथ पहला शब्द जुड़ा हुआ है. मसलन बतौर निर्देशक अभिनव कश्यप की यह पहली फिल्म है, बतौर निर्माता अरबाज खान की और बतौर हीरोइन सोनाक्षी सिन्हा की. पहली ही बार ऐसा हुआ है कि सलमान खान किसी फिल्म में मूंछों में नजर आए हैं. उनके बारे में इन दिनों मीडिया में जो कुछ भी आ रहा है उस पर जाएं तो आपको यकीन सा होने लगेगा कि उनको नापने का पैमाना उनकी मूंछें ही हैं.

पिछले 22 साल से सलमान दर्जनों फिल्मों में एक जैसी ही भूमिका बार-बार निभाते रहे हैं और वह भी असाधारण सफलता के साथ. अब निर्देशक अभिनव कश्यप को लगता है कि उन्हें सलमान के सांचे को बदलने में थोड़ी ही सही पर सफलता मिली है. वे बताते हैं, ‘मूंछें रखने के लिए सलमान को राजी करने में मुझे एक साल लग गया. वे बार-बार यही कहकर इनकार कर देते थे कि मेरे प्रशंसकों को ये पसंद नहीं आएंगी. शूटिंग के पहले दिन तक मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था कि वे मान जाएंगे. मगर वे सेट पर आए तो उनके पास कई तरह की मूंछें थीं. मुझे लगता है कि वे मेरे इरादे की मजबूती परख रहे थे.’

लेकिन अभिनव के लिए चुनौतियां और भी थीं. सलमान खान का उसूल है कि वे परदे पर न गाली देते हैं और न चुंबन लेते हैं. साथ ही उन्हें फिल्म में एक सीन ऐसा भी चाहिए जिसमें उनका कसरती बदन दिखे. और अगर यह एक्शन फिल्म है तो यह बेहद जरूरी है कि वे आखिर में खलनायक की जमकर धुनाई करते नजर आएं. इसके अलावा सुबह की शिफ्ट में उनसे काम लेना जरा मुश्किल है. इस सुपरस्टार की मिथकीय आभा इन्हीं बुनियादी रंगों से बनती है. कश्यप कहते हैं, ‘इन नियम-कायदों को दिमाग में बिठा लें तो आप कुछ भी कर सकते हैं.’

सलमान का पहला ही जवाब उनके एक ऐसे पहलू की झलक देता है जिसका अंदाजा उनके बारे में अब तक सुनी और पढ़ी बातों से नहीं लगाया जा सकता हालांकि सलमान पर लिखने के बारे में सोचने पर पहली नजर में ऐसा नहीं लगता कि उन पर बहुत-कुछ किया जा सकता है. अगर आप फिल्मी परदे पर सलमान की मोहक मुस्कान, चमकती आंखें, कॉमिक टाइमिंग और उनसे फूटती अच्छाई देखें तो आपके मन में उनकी छवि एक ऐसे आदमी की बनेगी जो असल जिंदगी में उपजने वाले तनाव को छूमंतर कर दे. लेकिन यदि आप अखबारों में उनके बारे में पढ़ें तो उनकी एक दूसरी ही तसवीर उभरने लगती है- एक गुस्सैल, बददिमाग, लापरवाह और हिंसक व्यक्ति की. हालांकि पिछले कुछ समय से स्थिति थोड़ी-थोड़ी बदल रही है. मीडिया उनके प्रति पहले की तुलना में उदार हो रहा है. 22 साल तक लगातार मीडिया का ध्यान खींचने वाले सलमान खान के बारे में नवीनतम आकलन यह है कि उनका बर्ताव भले ही अच्छा न रहता हो मगर वे दिल के अच्छे आदमी हैं.

मगर क्या सलमान की शख्सियत का पूरा सच यही है? इससे कोई इनकार नहीं करता कि उनमें वह खूबी मौजूद है जो सही मायनों में एक सुपरस्टार को बनाती है. सलमान कहीं दिख जाएं तो लोग अपनी कमीजें फाड़ने के लिए तैयार रहते हैं. ऐसा ही कभी गुजरे जमाने के सुपरस्टार राजेश खन्ना के साथ हुआ करता था. पिछले दो दशक में परिदृश्य में छाए रहे बाकी दो खानों से उनकी तुलना करें तो आमिर के पास प्रतिभा ज्यादा है मगर सलमान सा आभामंडल नहीं. उधर, शाहरुख के पास स्टाइल है मगर शायद वैसा प्यार नहीं जो दर्शकों से सलमान को मिलता रहा है.

तो आखिर ऐसा क्या है जो लोगों को सलमान की तरफ खींचता है? उनकी अब तक की जो विरासत है उसे कैसे समझा जाए? फिल्मों के दीवाने इस देश में हर स्टार से जुड़ी कहानियां होती हैं और हर स्टार की एक कहानी होती है. स्वाभाविक है सलमान पर भी बहुत-सी कहानियां हैं और उनकी भी एक कहानी है.

सलमान से मैं मुंबई के बांद्रा हिल इलाके में उनकी बहन अलवीरा के घर पर मिलती हूं. अपने परिवार के सदस्यों से घिरे वे डाइनिंग टेबल पर बैठे हुए हैं. उनकी आंखें लाल हैं और दाढ़ी बढ़ी हुई. कंधे पर एक तौलिया है जिससे वे बार-बार अपनी नाक पोंछते हैं. उन्हें कुछ समय से तेज बुखार है और उन तक पहुंचना मुश्किल से संभव हो सका है. लेकिन अब भी मुश्किल खत्म हो गई हो ऐसा नहीं लगता. अब उन्हें अकेले में बात करने के लिए राजी करना है. सलमान बड़ी मुश्किल से ऐसा करने के लिए तैयार होते हैं. वे कहते हैं, ‘क्या फर्क पड़ता है. क्या यह इंटरव्यू छपेगा नहीं? लोग तो इसे पढ़ेंगे ही न?’

सलमान का पहला ही जवाब उनके एक ऐसे पहलू की झलक देता है जिसके बारे में अब तक देखी, सुनी और पढ़ी बातों के आधार पर अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. फिल्म जगत में उनके अब तक के काम का क्या योगदान रहा है, इस पर वे कहते हैं, ‘सीधी-सी बात है. कुछ पिता ऐसे हैं जो चाहते हैं कि उनके बेटे बड़े होकर मुझ जैसे बनें. दूसरे कहेंगे कि कुछ भी बनना मगर इस आदमी की तरह मत बनना. किसी भी तरह से देखिए, यह अच्छा ही है.’

जुझारू और सटीक बुद्धिमत्ता. सलमान को पता है कि उनके इर्द-गिर्द किस तरह का मजमा लगा है. दायरा थोड़ा बड़ा करें तो उनमें दुनिया की समझ है. और उनकी इस समझ में एक तिरस्कारपूर्ण रवैया नजर आता है. सलमान को समझना मुश्किल है. उनसे बात करना भी आसान नहीं. उनमें पहले से तैयार कोई गर्मजोशी नहीं दिखती. उन्हें अपनी कहानी बताने की भी कोई हड़बड़ी नहीं.

डाइनिंग टेबल पर बैठे सलमान बातों के दौरान एक सवाल पर कहीं खो जाते हैं. और फिर कहते हैं, ‘क्या मुझे गलत समझा गया है? हर कोई मुझसे वही बात पूछता रहता है. मुझे यह समझ नहीं आता. आ सकता था अगर इंडस्ट्री में मेरा यह पहला साल होता. मगर मुझे यहां 22 साल हो गए हैं. मैं क्या हूं यह साफ दिखता है. तो फिर यह क्या सवाल है? बातचीत शुरू करने का तरीका. शब्दों की कमी, विचारों का अभाव? क्या है यह? ऐसा नहीं हो सकता कि आप 22 साल से भी ज्यादा वक्त तक गलत समझे जाते रहें. क्या ऐसा हो सकता है?’

सलमान नर्म लहजे और छोटे-छोटे वाक्यों में अपनी बात कहते हैं, और वह भी खालीपन भरी एक ऐसी नजर के साथ जिसे दरकिनार करना मुश्किल होता है. आप नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर होते हैं. आप किसी बच्चे से बात नहीं कर रहे. यह 45 साल का एक  शख्स है. और वह आखिर क्या कहना चाह रहा है? क्या वह आपका मखौल उड़ा रहा है? या फिर अपनी नकारात्मक छवि की जिम्मेदारी ले रहा है? या फिर कहीं यह टिप्पणी सारे पत्रकारों का मजाक उड़ाने के लिए तो नहीं की गई है जो आते हुए तो यह दावा करते हैं कि वे सलमान को ऐसे तरीके से समझना चाहते हैं जैसे पहले कभी नहीं समझा गया, मगर वापस जाकर वही रटी-रटाई बातें लिखते हैं?

सलमान खान स्टीरियोटाइप नहीं हैं. मगर उनसे जुड़े कई किस्सों को अगर जोड़ना हो तो इसकी शुरुआत यहीं से की जा सकती है सलमान खान स्टीरियोटाइप नहीं हैं. मगर उनसे जुड़े कई किस्सों को अगर जोड़ना हो तो इसकी शुरुआत यहीं से की जा सकती है कि जब मैंने सलमान का इंटरव्यू लेने की बात मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले एक शख्स को बताई तो उसका कहना था, ‘आप उसपर क्यों लिख रही हो…क्या वह एक अपराधी तत्व नहीं है?’ सिनेमा से जुड़ी उन जैसी शख्सियत के लिए ये स्टीरियोटाइप शिकार, प्रेम प्रसंग, शराब और एक दुर्घटना से उपजी चीजें हैं.

1998 में यानी फिल्मी दुनिया में प्रवेश के एक दशक बाद सलमान पर आरोप लगा कि 28 सितंबर को उन्होंने छह दूसरे लोगों के साथ मिलकर एक ब्लैक बक यानी काले हिरण का शिकार किया. इनमें उनके साथी कलाकार सैफ अली खान, नीलम, सोनाली बेंद्रे और तब्बू शामिल थे. ये सभी उस दौरान हम साथ साथ हैं नाम की फिल्म की शूटिंग के लिए जोधपुर में थे. ब्लैक बक खतरे में पड़ी एक प्रजाति है. तब तक सलमान की छवि एक बिगड़ैल व्यक्ति की बन चुकी थी. इस घटना ने उनकी इस छवि को और पक्का कर दिया. दुर्भाग्य से इस घटना के एक दशक से ज्यादा वक्त बीतने के बाद भी इससे जुड़े पूर्वाग्रहों और सच्चाइयों को अलग-अलग करना मुश्किल है. इस घटना के बारे में कई विरोधाभासी लेख छपे हैं. उनमें से कोई भी ऐसा नहीं जो कोई खास नई बात बताता हो. उदाहरण के लिए, कम ही लोग जानते हैं कि सलमान के खिलाफ तीन अलग-अलग मामले चल रहे हैं. भवाड गांव केस, घोड़ा फार्म केस और कांकणी केस. तथ्यों के घालमेल के बावजूद ये कहानियां एक बुरी छवि बनाती हैं. रिपोर्टों के मुताबिक घटना के कुछ दिनों बाद एक अहम गवाह ड्राइवर हरीश दुलानी ने पुसिस को बताया कि सलमान ने न सिर्फ ब्लैक बक पर गोली दागी बल्कि एक चाकू से उसकी गर्दन भी काटी (कुछ दूसरी रिपोर्टों में दुलानी को यह कहते हुए बताया गया है कि सलमान ने ब्लैक बक की टांगें काटीं). बीते सालों में दुलानी ने कई बार अपने बयान बदले. क्रॉस एक्जामिनेशन से पहले 2002 में वह फरार हो गया. 2006 में वह फिर प्रकट हुआ और एक टीवी चैनल के सामने यह कहते हुए अपने पुराने बयान से एक बार फिर पलट गया कि वन अधिकारियों और कुछ दूसरे लोगों ने उस पर सलमान का नाम लेने का दबाव डाला. मगर ट्रायल कोर्ट ने दुलानी को फिर से बतौर गवाह बुलाने से इनकार कर दिया. इसके बाद जल्दी ही सलमान को दोषी पाया गया और उन्हें कुछ दिन जेल में गुजारने पड़े. उनके साथी कलाकारों को बरी कर दिया गया. अब दुलानी ने दावा किया कि वह इसलिए अपने बयान से पलट गया था कि सलमान के परिवार ने उसे पहले धमकी और फिर रिश्वत देने की कोशिश की. कुछ महीनों बाद एक सत्र अदालत ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा. सलमान को फिर से कुछ दिन जेल में बिताने पड़े.

सलमान और उनका परिवार इस बारे में बात नहीं करना चाहते. अलवीरा कहती हैं, ‘मजिस्ट्रेट ने ऑन रिकॉर्ड कहा कि अगर इसमें शामिल शख्स सलमान न होता तो वे मामला खारिज कर देते, मगर कोई यह बात नहीं लिखता.’ सलमान कहते हैं, ‘मुझे बताया गया कि मामला न्यायालय में विचाराधीन है और इस पर कुछ नहीं कहना. मगर क्या यह मीडिया के लिए विचाराधीन नहीं है?’

ब्लैक बक पर मचा बवाल शांत ही हुआ था कि 1999 में फिल्म हम दिल दे चुके सनम की शूटिंग के दौरान सलमान ऐश्वर्या राय के प्रेम में पड़ गए. हर मायने में तूफान मचाने वाला यह अफेयर 2002 में खत्म हुआ. मगर ऐसा लगता है कि इस घटना ने सलमान को असंतुलित कर दिया. चर्चाएं हुईं कि सलमान ऐश्वर्या को बार-बार फोन कर रहे हैं, उनका दरवाजा पीट रहे हैं, खुद को नुकसान पहुंचाने की धमकी दे रहे हैं, उनकी फिल्मों के सेट पर पहुंचकर उनके साथ धक्का-मुक्की कर रहे हैं. पहले-पहल ऐश्वर्या ने इससे इनकार किया. मई, 2002 में फिल्मफेयर को दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, ‘हर कोई इस पर यकीन करने से इनकार करता है कि मेरे चेहरे पर चोट सीढ़ियों से गिरने की वजह से लगी थी…मीडिया मुझे सदी की महिला कहता है. फिर वही मीडिया मुझे ऐसा कैसे दिखा सकता है जैसे मैं दरवाजे पर पड़ा कोई पायदान हूं? अगर मेरे साथ जबर्दस्ती या मारपीट हुई होती तो मैंने भी हिंसक प्रतिक्रिया दी होती…’

हालांकि इसके कुछ ही महीनों बाद 27 दिसंबर, 2002 को अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए ऐश्वर्या ने बिलकुुल ही अलग बात कही. उनका कहना था, ‘सलमान खान नाम का अध्याय मेरी जिंदगी का दुःस्वप्न था.’ इसके बाद उन्होंने सलमान की शराब की आदत, उनके दुर्व्यवहार, गाली-गलौज और धोखेबाजी पर काफी कुछ कहा.

किसी नाकाम दिल की ज्यादतियां जब सार्वजनिक हो जाएं तो उनकी गूंज बहुत तेज सुनाई देती है. उस इंटरव्यू को पचाना आसान नहीं रहा होगा. मानो किसी फिल्मी स्क्रिप्ट की तरह उसी रात या कहें कि अगले दिन तड़के सलमान का एक एक्सीडेंट हुआ. एक गायक दोस्त और पुलिस अंगरक्षक के साथ जुहू स्थित होटल जेडब्ल्यू मैरिएट से वापस आते हुए अमेरिकन बेकरी के पास फुटपाथ पर सो रहे नूर अल्ला खान की उनकी गाड़ी के नीचे आकर मौत हो गई. तीन दूसरे लोग घायल हुए. इससे भी बुरा यह रहा कि सलमान ने इस घटना के कई घंटों बाद जाकर पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया. अब अदालत में इस पर बहस हो रही है कि गाड़ी वे चला रहे थे कि उनका ड्राइवर.

लेकिन इससे भी बुरा होना अभी बाकी था. 2003 में अभिनेता विवेक ओबेराय, जिनका नाम थोड़े से समय के लिए ऐश्वर्या राय के साथ जुड़ा था, ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और दावा किया कि ऐश्वर्या के साथ उनके रिश्ते की वजह से सलमान उन्हें फोन करके धमका रहे हैं. 2005 में हिंदुस्तान टाइम्स अखबार ने सलमान और ऐश्वर्या की वह बातचीत प्रकाशित की जिसे कथित तौर पर बॉलीवुड और अंडरवर्ल्ड पर निगाह रखने के मकसद से पुलिस ने टैप किया था. इसमें सलमान को ऐश्वर्या पर एक शो में हिस्सा लेने का दबाव बनाते हुए सुना गया जो अंडरवर्ल्ड डॉन अबू सलेम करवा रहा था. इस बातचीत में सलमान ऐश्वर्या को अबू सलेम से अपने संबंधों की भी धौंस दिखा रहे थे. 2006 में एक नेशनल फॉरेंसिक लैब ने इन टेपों को फर्जी बताया. हालांकि 2005 में तहलका को दिए एक साक्षात्कार में एक दूसरे अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन ने कहा था कि उसने सलमान को दुबई में दाऊद इब्राहिम के साथ खाना खाते देखा है. इन सभी हलचलों के दौरान सलमान खुद कभी मीडिया से रूबरू नहीं हुए बल्कि उन्होंने खुद को दुनिया से दूर कर लिया और खुद को आराम देने के लिए अपने परिवार की सुकून भरी छांह मे चले गए.

उनके साथ समय का तालमेल नहीं बिठाया जा सकता. वे तभी मिलते हैं जब उनको मिलना होता है. तभी फोन उठाते हैं जब उनको उठाना होता है

सलमान की यह आदत है कि कोई अगर उन्हें गहरे टटोलने की कोशिश करता है तो वे बातें मजाक में उड़ाकर सामने वाले को असहज कर देते हैं. वे कहते हैं, ‘समय के साथ आपके स्वभाव में नरमी आती है. मगर जब तक आप जिंदगी में बिलकुल ही गलत ट्रैक पर नहीं चल रहे तब तक आपको बदलने की क्या जरूरत है.’ मैं पूछती हूं कि भारतीय अदालतों के तजुर्बे का उन पर क्या असर पड़ा है और वे बिना कोई गंभीरता दिखाए सोने का अभिनय करते हुए कहते हैं, ‘इन जगहों के माहौल में मुझे नींद आने लगती है.’

कायदे से चलने वाले सलमान के इस व्यवहार पर सिर धुन सकते हैं (उनके भाई अरबाज खान कहते भी हैं कि सलमान को जिंदगी में व्यवस्थित होने की जरूरत है). मगर यही व्यवहार लोगों को उनकी तरफ खींचता भी है. उनमें स्टार जैसी बात भी पैदा करता है. सलमान एक चीज पर बहुत समय तक ध्यान नहीं दे सकते. उनके साथ समय का तालमेल नहीं बिठाया जा सकता. वे तभी मिलते हैं जब उनको मिलना होता है. तभी फोन उठाते हैं जब उनको उठाना होता है. अगर आप मुश्किल में हैं तो हो सकता है कि वे अपना पूरा दिन आपके नाम कर दें. मगर उन पर दबाव डालिए और वे आपके लिए पत्थर जैसे हो जाएंगे. अरबाज चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘जब हम उनसे कोई काम करवाना चाहते हैं तो उन्हें ठीक उलटी सलाह देते हैं.’ सलमान अपनी उदारता के लिए भी जाने जाते हैं. वे हमेशा कुछ न कुछ देते रहते हैं, पैसा, घड़ियां, कारें. अरबाज कहते हैं, ‘ज्यादातर लोग दो को दस कैसे करना है जानते हैं. मगर सलमान को पता है कि कैसे दस को दो करना है. इसीलिए अब्बा उनके पैसे को मैनेज करते हैं.’

सलमान चलन के मुताबिक नहीं चलते. अपने स्टारडम के बावजूद वे बांद्रा का वही लड़का बने रहकर संतुष्ट हैं जो वे अपने करिअर की शुरुआत में थे. उनका आशियाना आज भी वही एक बेडरूम का फ्लैट है जिसके ऊपर उनके माता-पिता रहते हैं. उनके साथ यह फ्लैट चार कुत्ते, तीन बिल्लियां और एक गौरैया साझा करती है. इस गौरैया को हाल ही में उन्होंने बचाया है. कुत्तों के नाम हैं सेंटू, माय लव, मोगली और बीरा. यहीं सलमान पेंटिंग भी बनाते हैं और पार्टियां भी देते हैं. उनकी बनाई तस्वीरों में ईसाई, इस्लाम और हिंदू धर्म के अलग-अलग रूप दिखते हैं.

आमिर खान सलमान के असंभावित दोस्त हैं. वे सलमान को शुरू से जानते हैं और अब उन्हें और भी पसंद करने लगे हैं. आमिर कहते हैं, ‘सलमान आम शख्स नहीं हैं. वे अपनी ही तरह के इंसान हैं. वे रूखे और अप्रत्याशित हो सकते हैं मगर बहुत आकर्षक भी. उनमें एक आभा है, एक नजरिया है. सोचने का एक अजब और अलग तरीका है. वे बहुत बुद्धिमान हैं. वे भले ही पढ़ने का शौक न रखते हों और उन्हें पारंपरिक अर्थों में बौद्धिक न कहा जा सके मगर उनकी बुद्धि बहुत तेज है.’

जिंदगी और काम को लेकर सलमान से बिलकुल उलट नजरिया रखने वाले आमिर के मुंह से यह सुनना अजीब है. फिल्में करने को लेकर आमिर का तरीका मशहूर है. वे एक बार में एक ही फिल्म करते हैं. उधर, सलमान के करिअर पर नजर डाली जाए तो पिछले दो दशक के दौरान उनकी हर साल औसतन तीन फिल्में रिलीज हुई हैं. रामगोपाल वर्मा भी इस रफ्तार से रश्क कर सकते हैं. सलमान के लिए सिनेमा महज एक फॉर्मूला है. वे कहते हैं, ‘दुनिया में सात प्लॉट होते हैं. अच्छा-बुरा, हीरो-विलेन, लड़का-लड़की. क्या फर्क पड़ता है? यह मनोरंजन है. अगर आप कुछ ज्यादा पेचीदा काम करना चाहते हैं तो किताब लिखिए ना.’

सलमान फिल्में सिर्फ इसलिए नहीं करते क्योंकि स्टोरी उन्हें जम जाती है. वे इसलिए भी फिल्में करते हैं ताकि कुछ लोगों की जिंदगी बन जाए या किसी की मुश्किलें टल जाए. यही अतार्किक उदारता उन्हें तारीफ दिलवाती है और आलोचना भी. अरबाज की पत्नी और अभिनेत्री मलाइका अरोड़ा कहती हैं, ‘वांटेड में एक डायलॉग है-मैंने कमिटमेंट कर दिया तो कर दिया. फिर मैं अपने आप की भी नहीं सुनता. सुनने में यह भले ही घिसी-पिटी बात लगे मगर सलमान वास्तव में ऐसे ही हैं.’

बॉलीवुड के सबसे मशहूर पटकथा लेखकों में से एक सलीम खान का यह बेटा इस तरह के नजरिए तक कैसे पहुंचा? सलमान की जिंदगी की कहानी की चाबी शायद इसी विरोधाभास में कहीं छिपी है.

सलीम खान के पिता इंदौर में पुलिस अधिकारी थे. वे नौ साल के ही थे जब उनकी मां की टीबी की वजह से मौत हो गई. मौत से ठीक पहले उन्हें घर लाया गया था. जब वे घर में आईं तो उस समय काला स्वेटर पहने सलीम बरामदे में खेल रहे थे. उन्होंने पूछा, ‘ये बच्चा कौन है?’ वे अपने बेटे को ही नहीं पहचान पा रही थीं. पहचानतीं भी कैसे. पिछले चार साल से उन्हें उससे दूर नैनीताल के नजदीक भोवाली सैनिटोरियम में रखा जा रहा था.
इसके बाद जल्दी ही सलीम के पिता भी चल बसे. उस समय सलीम की उम्र 14 साल थी. उनके बड़े भाई-बहन अब उनके साथ नहीं थे. कुछ की शादी हो चुकी थी. कुछ काम के सिलसिले में अलग रहने लगे थे. 16 बेडरूम के घर के एक हिस्से में सलीम की परवरिश नौकरों ने की. बड़ा होने पर उन्होंने कई सपनों का पीछा किया. वे क्रिकेटर, पायलट, अभिनेता…न जाने क्या-क्या बनना चाहते थे. जब वे इनमें से किसी क्षेत्र में कोई उपलब्धि हासिल नहीं कर सके तो उन्होंने जावेद अख्तर के साथ मिलकर स्क्रिप्ट लेखन शुरू किया. सलीम-जावेद की इस जोड़ी ने सफलताओं की जो नई इबारतें लिखीं वे अब बॉलीवुड के स्वर्णिम इतिहास का हिस्सा हैं.

तब तक सलीम की शादी हो चुकी थी. उनकी पत्नी महाराष्ट्र की थीं जिनका नाम था सुशीला चरक. सुशीला बाद में सलमा खान बन गईं. इसके बाद उन्हें बॉलीवुड की मशहूर अभिनेत्री हेलन से प्यार हुआ. हेलन ईसाई थीं. सलीम कहते हैं, ‘मैं इसे निजी मामला कहकर खारिज कर सकता था. मगर जिम्मेदारी के बिना प्यार की बात मुझे समझ नहीं आती. इसलिए मैंने अपनी पत्नी को इसके बारे में बता दिया. इसके बाद मैं अपने बच्चों के साथ बैठा (सलमान तब 10 साल के थे) और उन्हें यह बात बताई. मैंने कहा, शायद तुम अभी न समझो, मगर जब तुम बड़े हो जाओगे तो तुम मेरी आवाज का लहजा याद करोगे और जान जाओगे कि मैं नाटक नहीं कर रहा था.’

सलमान फिल्में सिर्फ इसीलिए नहीं करते क्योंकि स्टोरी उन्हें जम जाती है बल्कि इसलिए भी करते हैं ताकि कुछ लोगों की जिंदगी बन जाएशुरुआत में सबको झटका लगा मगर बाद में परिवार और भी करीब हो गया. दोनों महिलाएं दोस्त बन गईं. सलमान बताते हैं, ‘इसमें चोट जैसी बात नहीं है. एक वक्त ऐसा भी था जब हम चाहते थे कि अब्बा और हेलन आंटी के बच्चे हो जाएं ताकि हमें और भाई-बहन मिल जाएं.’

आज खान परिवार छोटा-सा भारत है. इसमें हिंदू, मुसलमान, ईसाई सभी एक-दूसरे से अलग-अलग रिश्तों की डोर में गुंथे हुए हैं. सलमान गणपति पूजा के दौरान गणेश प्रतिमा अपने कंधे पर लेकर विसर्जन के लिए भी जाते हैं (जिसके लिए उनके खिलाफ फतवा भी जारी हुआ है) और मलाइका अरोड़ा और हेलन के साथ ईसाई त्योहार भी उतनी ही धूमधाम से मनाते हैं.

सलमान के व्यक्तित्व पर सबसे ज्यादा असर सलीम का ही है. सलमान कहते हैं, ‘क्योंकि वह एक संपूर्ण व्यक्ति हैं. उनमें वे सारी खासियतें हैं जो एक आदमी में होनी चाहिए.’ आपस में बहुत ज्यादा करीब होने पर भी पिता-पुत्र का रिश्ता जटिल है. सलीम के बारे में कहा जाता है कि उन्हें गुस्सा जल्दी आता है और उनके मानदंड बहुत ऊंचे हैं. उनके बच्चों, खासकर सलमान ने अपनी शरारतों और बुरे प्रदर्शनों के लिए कई बार उनसे खूब मार खाई है. ऐसा लगता है कि सलमान की बुनावट अपने पिता के खिलाफ उनके व्यर्थ विरोध से बनी है. 1990 में दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘मैं और मेरे पिता अकसर आंख मिलाकर बात नहीं करते. मैं उन्हें लगातार गलत चीजों पर गलत साबित करने की कोशिश करता रहता हूं और बुरी तरह नाकामयाब होता हूं. मैं बिना मकसद का बागी हूं.’

संघर्ष की गैरमौजूदगी वह बड़ा कारक हो सकती है जो सलमान की जिंदगी में एक बड़ी बाधा रहा है. पेशेवर जिंदगी में उन्हें एक बार ही ना सुननी पड़ी है और वह भी तब जब वे पहली बार ऑडिशन देने गए थे. कुछ समय पहले एक रिपोर्टर से बात करते हुए सलमान ने कहा था, ‘बॉलीवुड में कई लोगों की तरह मुझे सड़कों पर सोकर और चने खाकर जिंदा नहीं रहना पड़ा. इसलिए मैं उन लोगों का शुक्रगुजार हूं जिन्होंने मुझे रिजेक्ट किया. मैंने इसे अपनी चने वाली कहानी बना लिया और एक चुनौती की तरह लिया कि एक दिन मैं सफल होऊंगा और तुम्हें दिखाऊंगा.’

शुरुआत में सलीम अपने बेटे के बारे में बात करने के इच्छुक नहीं जान पड़ते. ‘अपने बच्चों की तारीफ करना हमारी तहजीब नहीं है’ वे कहते हैं. वे चार्ली चैप्लिन की फिल्म ‘लाइमलाइट’ के एक दृश्य के बारे में बताते हैं. इस फिल्म में चैप्लिन एक प्रतिभाशाली नर्तकी की मदद करते हैं. नर्तकी के पहले शो के बाद लोग उसके लिए जमके तालियां बजाते हैं और उस पर फूलों की बारिश करते हैं. बाद में चैप्लिन नर्तकी से पूछते हैं कि उसे कैसा लग रहा था. ‘मुझे नहीं पता’ वह कहती है, ‘मैं तो सिर्फ शोर ही सुन सकती थी किसी को देख नहीं सकती थी.’ ‘तुम्हारी जिंदगी की अब यही त्रासदी होने वाली है’ चैप्लिन कहते हैं, ‘तुम अब केवल शोर ही सुन सकोगी खुद या दूसरों को देख नहीं सकोगी.’

‘कोई अभिनेता मुश्किल से ही खुद के साथ ऐसा होने को रोक सकता है’ सलीम कहते हैं. वे अपने बेटे के बारे में सीधी बात कहने से बचते हैं. लेकिन जो कहते हैं उन्हीं में से उसकी कुछ कमियां सामने आ जाती हैं. ‘सलमान काफी हद तक एक अच्छा लड़का है. वह एक प्रतिभाशाली अभिनेता है मगर अपनी प्रतिभा का ठीक से इस्तेमाल नहीं कर रहा है’, वे कहते हैं. यह पूछने पर कि क्या प्यार और मानवीय संबंधों के प्रति उनके बच्चों का नजरिया उनके जैसा ही अक्लमंदी भरा है, वे कहते हैं, ‘यदि आप एक ऐसी लड़की से प्यार करते हैं जो स्टार हो औऱ अपने करियर की बुलंदी पर हो तो आप उसमें अगले ही दिन से अपनी मां की छवि नहीं ढूंढ़ सकते. आप यह तय नहीं कर सकते कि उसे क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं. यह संभव नहीं है (सलमान का इसे लेकर अपना अलग ही नजरिया है. उन्हें नहीं समझ आता कि महिलाएं उनके जिन गुणों की वजह से उनके प्रति आकर्षित होती हैं बाद में उन्हीं को बदलने की कोशिश क्यों करती हैं’).

सलीम के पास वह आईना जो शायद यह दिखाता है कि सलमान की जिंदगी जैसी है उसकी वजह क्या रही है. ‘गलती करना कोई गलती नहीं होती. गलती नहीं करना कभी-कभी गलती होती है और गलतियों को दोहराना सबसे बड़ी गलती होती है.’

दबंग में सलमान को देखकर एक बार फिर हैरानी होती है कि कैसे इतना गंभीर रहने वाला यह शख्स कैमरे पर आते ही इतना शरारती हो जाता है जब सलमान करीब दस साल के थे तो उनके स्कूल स्टैनिसलॉ स्कूल के प्रिंसिपल ने कहा कि अमीर घरों के बच्चे अपनी क्लास के उन बच्चों के लिए एक एक्स्ट्रा टिफिन लेकर आएं जिनके मां-बाप इसका खर्च नहीं उठा सकते. सलमान ने प्रिंसिपल से पूछा कि उनकी क्लास में ऐसे कितने बच्चे हैं. जवाब मिला दस. सलमान अकसर इन दसों को अपने घर लेकर आने लगे. सलीम इस किस्से को बहुत गर्व के साथ याद करते हैं. वे कहते हैं, ‘सलमान में हमेशा से दूसरों के प्रति गहरी संवेदना रही है.’

सलमान ने इस सिलसिले को आगे भी बढ़ाया. कुछ सालों पहले एक शाम आमिर, शाहरुख और सलमान ने साथ में गुजारी थी. तब शाहरुख और सलमान के रिश्ते मधुर हुआ करते थे. आमिर याद करते हैं कि उस मुलाकात के दौरान सलमान ने गरीबों के लिए तीनों खान के नाम से एक मेडिकल इंश्योरेंस स्कीम बनाने की बात बार-बार की थी. हालांकि यह विचार तो हकीकत नहीं बन सका मगर आज सलमान का अपना एक चैरिटी ट्रस्ट है. इसका नाम है बीइंग ह्यूमन. वे मोतियाबिंद के सैकड़ों ऑपरेशनों का खर्च उठा रहे हैं, साइकिलें दान कर रहे हैं, बोन मैरो बैंक के लिए पैसा दे रहे हैं. जल्दी ही वे अपने ट्रस्ट के लिए पैसा जुटाने के मकसद से कपड़ों और घड़ियों का अपना ब्रांड लांच करने वाले हैं. सलमान बताते हैं, ‘आम तौर पर जब आप महंगे प्रोडक्ट खरीदते हैं तो फायदा अरमानी और वर्साचे जैसे लोगों को जाता है जो और अमीर होते हैं. मेरे ब्रांड के कपड़े खरीदने पर यह पैसा बीमारियों का इलाज करने और लोगों की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए जाएगा. और दानदाता को इसके बदले कुछ मिलेगा भी. जींस, टी शर्ट, घड़ी जो भी वह चाहे. मैं लोगों से सिर्फ यह नहीं कह रहा कि मेरी चैरिटी के लिए दान दे दीजिए.’

दिलचस्प है कि सलमान की उदारता के किस्से आज उसी प्रमुखता से सुनने को मिल रहे हैं जितनी प्रमुखता से कभी उनके बारे में नकारात्मक चीजें सुनने को मिलती थीं. उनके करीबी दोस्त और संगीतकार साजिद, जो अपने करिअर का श्रेय ही सलमान को देते हैं, कहते हैं, ‘गलतियां सभी करते हैं मगर सलमान इससे झिझकते नहीं. वे फकीर हैं. ऐसे आदमी हैं जो कभी किसी से कुछ नहीं मांगता. उन्होंने लोगों को सिर्फ दिया ही है, उनकी मदद ही की है.’

दबंग में सलमान खान को देखकर एक बार फिर से हैरानी होती है कि कैसे परदे से इतर इतना गंभीर रहने वाला यह शख्स कैमरे पर आते ही इतना शरारती हो जाता है. यह कहना गलत है कि उन्हें ज्यादा एक्टिंग नहीं आती. सलमान कहते हैं, ‘आपको अपनी सोच जवान बनाए रखनी होती है. जिस दिन आपका दिमाग बूढ़ा हो गया खेल खत्म.’

ज्यादातर लोगों का मानना है कि बॉलीवुड में सलमान की विरासत यही होगी कि उन्होंने सुघड़ काया का चलन शुरू किया. और शायद अब मूंछ का भी. मगर ऐसा करना असल मुद्दे को न देखना होगा. सलमान खान की वास्तविक और आगे जाने वाली विरासत यह है कि वे इंसान रहे. यही खूबी उनके प्रशंसकों को उनसे जोड़े रखती है. उनमें सितारों जैसी रहस्यात्कमकता और इंसानों जैसी संवेदनशीलता का मेल है.

गीतकार और विज्ञापन फिल्म निर्माता प्रसून जोशी कहते हैं, ‘सलमान का स्टारडम बिना शर्त वाला है. यहां तक कि जब वे सबसे खराब फिल्में भी साइन करते हैं तो भी उनके प्रशंसक हॉल तक जाते हैं. अगर उन्हें निराशा हुई तो वे कभी सलमान को दोष नहीं देते. मैंने एक बार उनकी फ्लॉप फिल्म देखकर बाहर आ रहे कुछ लोगों की बात सुनी. वे कह रहे थे-भाई को गलत फिल्म साइन करवा दिया.’
दर्शकों का यही प्यार भरा जुड़ाव सलमान खान की कहानी है.

(ऋषि मजूमदार के सहयोग के साथ)

फिर हिंदी का शून्यकाल

भाषाएं सिर्फ शब्दों या वाक्य रचनाओं से नहीं बनतीं, वे समाज से भी बनती हैं और समाज को भी बनाती हैं

लिखने को कश्मीर की कशमकश थी, क्रिकेट की मिलीभगत थी, झारखंड की मौकापरस्ती थी, ‘दबंग’ की सफलता थी, कॉमनवेल्थ पर मंडरा रहे साए थे, केंद्र सरकार के मंत्रियों के झगड़े थे, आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर ऐक्ट की प्रासंगिकता का सवाल था, लेकिन इन सबको छोड़कर मैंने वह विषय चुना जिस पर नए सिरे से कुछ न लिखने की न जाने कितनी बार कसम खाई है. पिछले कुछ वर्षों से हर 14 सितंबर के आसपास निश्चय करता हूं कि इस साल हिंदी के हाल पर कुछ नहीं लिखूंगा. इस विषय पर इतना कुछ लिख और पढ़ चुका हूं कि लगता है कि जो लिखूंगा उसमें काफी कुछ दुहराव होगा.  इसके अलावा 14 सितंबर पर हिंदी के वर्तमान, भविष्य, उसकी संभावना या प्रगति या दुर्गति पर लेख लिखना भी ऐसा कर्मकांड हो चुका है जैसे हिंदी दिवस से जुड़े दूसरे आयोजन होते हैं.

इसके बावजूद हिंदी के हाल पर लिखने बैठ गया- सिर्फ अपने भाषामोह की वजह से नहीं, इस लगातार गहरे होते एहसास के चलते भी कि इन तमाम वर्षों में हिंदी को लेकर चलने वाले पाखंड और परोसे जाने वाले भ्रम कुछ ज्यादा ही मजबूत हुए हैं और पुरानी हिचक की जगह नए आत्मविश्वास से दुहराए जा रहे हैं. हमारा राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व जाने-अनजाने हिंदी के साथ छल के इस खेल में शामिल है. वह पहले उसे ठोकर लगाता है और फिर औंधे मुंह गिरी हिंदी को 14 सितंबर के दिन उठाकर गले लगाने की रस्म निभाता है. इस छल को समझना सिर्फ हिंदी को बचाने के लिए नहीं, एक समाज के रूप में अपनी सहजता, मेधा और मौलिकता को बचाने के लिए भी जरूरी है.

14 सितंबर की शाम हमारे गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भी यह रस्म अदायगी की. हिंदी भाषी समाज ने कुछ अभिभूत होकर और कुछ कृतज्ञता के साथ देखा कि हमेशा नफीस अंग्रेजी बोलने वाला उनका गृहमंत्री क्लिष्ट शब्दों से भरा एक लंबा, टेढा-मेढ़ा हिंदी वाक्य  बोलने का कष्ट कर रहा है. जिस शाम गृहमंत्री पी चिदंबरम हिंदी का एक वाक्य बोलने का अभ्यास कर रहे थे, उसी शाम हिंदी के सबसे बड़े अखबार ने हिंदी पर एक बड़ी संगोष्ठी की- लगभग जानी-पहचानी चिंताओं के साथ वहां भी अंग्रेजी बोलने वाले वक्ताओं ने यह बात रेखांकित की कि हिंदी दिल की भाषा है, उसे दिमाग की भाषा बनाना होगा. उन्होंने इस बात पर  खुशी जताई कि सारी चीजों के बावजूद हिंदी का प्रचार-प्रसार जोर-शोर से हो रहा है और इस पर अफसोस कि हिंदी भाषी नेता भी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजते हैं और बॉलीवुड के सितारों को भी कायदे की हिंदी नहीं आती.

अंग्रेजी में जो आत्मविश्वास और अहंकार दिखता है, वह इस देश के संसाधनों पर अपने संपूर्ण अधिकार के भरोसे से पैदा हुआ है

लेकिन क्या यह संकट सिर्फ हिंदी या भारतीय भाषाओं का है? पी चिदंबरम के लिए हिंदी या तमिल मायने नहीं रखतीं, वे उस विशेषाधिकार संपन्न अंग्रेजी की पैदाइश हैं जो इस देश में शासन और प्रशासन की ही नहीं, ज्ञान-विज्ञान और व्यवसाय की इकलौती भाषा मान ली गई है. इस अंग्रेजी में जो आत्मविश्वास और अहंकार दिखता है वह इस देश के संसाधनों पर अपने संपूर्ण अधिकार के भरोसे से पैदा हुआ है और इस साम्राज्यवादी उम्मीद से कि जो बचे-खुचे संसाधन हैं वे भी एक दिन उसकी झोली में आ जाएंगे. यही वर्ग इस देश में अंग्रेजी के महंगे स्कूल खुलवाता और चलवाता है और हिंदी और तमिल के सरकारी स्कूलों को ऐसी उपेक्षा का शिकार बना डालता है जहां बचे-खुचे समाज के बच्चे आकर साक्षर हों और उसके तंत्र के निचले हिस्से की जरूरतें पूरी करें. फिर यही वर्ग यह शिकायत भी करता है कि हिंदी बोलने वाले घरों को अगर हिंदी से प्रेम है तो उनके बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में क्यों जा रहे हैं.

समझने की बात यह है कि यह अंग्रेजी या हिंदी का मामला नहीं है, न ही यह भाषा के रूप में किसी के कमजोर-मजबूत होने की बात है. यह दरअसल भाषा की राजनीति है जो भाषा की हैसियत तय करती है. अंग्रेजी अगर दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण भाषा बन गई है तो इसलिए कि वह अमेरिका की भाषा है. अगर उसके नए शब्दकोशों में ढेर सारे चीनी शब्द और मुहावरे ठूंसे जा रहे हैं तो इसलिए कि चीन ने इस दौर में वह राजनीतिक और आर्थिक हैसियत हासिल कर ली है कि अंग्रेजी भी अपना एक चीनी रूप विकसित करने लग गई है. जब सोवियत संघ और रूसी प्रतिष्ठान मजबूत था तो रूसी सीखने वालों की तादाद दुनिया में बहुत ज्यादा थी. जब अंग्रेजों से पहले भारत में हुकूमत की भाषा फारसी थी तो स्कूलों में फारसी पढ़ाई जाती थी. आधुनिक भारत में अंग्रेजी अगर सबसे महत्त्वपूर्ण है तो इसलिए कि वह सत्ता की भाषा है. अपनी इस हैसियत से वह ज्ञान-विज्ञान की दूसरी शाखाओं को भी अपने एकाधिकार के दायरे में ला रही है और कारोबार को भी.

लेकिन अंग्रेजी सिर्फ यही नहीं कर रही कि वह हर जगह फैल रही है, वह दूसरी भाषाओं के चरित्र को भी बदल रही है. जो लोग इस बात पर पुलकित होते हैं कि हिंदी का बाजार बड़ी तेजी से फैल रहा है, हिंदी के अखबार सबसे ज्यादा पढ़े जाते हैं, हिंदी की फिल्में सात समंदर पार भी देखी जाती हैं, हिंदी के टीवी चैनल दूर-दराज तक पहुंच गए हैं, उन्हें यह भी देखना चाहिए कि यह कैसी हिंदी है जो कारोबार में, बाजार में और अखबार में दिखाई पड़ रही है. दरअसल यह अंग्रेजी की नकल की मारी वह इकहरी हिंदी है जो अपनी सार्थकता इस बात में समझती है कि उसमें भी अंग्रेजी जैसी स्मार्टनेस चली आए, जो यह नहीं समझती कि यह भाषा की नहीं, उस फैशन की स्मार्टनेस है, जिस पर एक छोटे-से तबके ने अपनी मुहर लगा रखी है. इस स्मार्टनेस में जितना सरोकार है, उससे कम संस्कृति है और उससे भी कम स्मृति है. नतीजे में इस नकल से तैयार होने वाली हिंदी एक खोखली और सतही हिंदी होती है- ऐसी हिंदी जिसको लिखने और बोलने की इकलौती कसौटी यही है कि उसे कोई अंग्रेजीवाला भी बिना किसी दिक्कत के समझ ले.

मुश्किल यह है कि जो लोग इस तरह की बात करते हैं, भाषा में संस्कृति, स्मृति और सरोकार खोजते हैं, वे शुद्धतावादी मान लिए जाते हैं- ऐसे शुद्धतावादी जिन्हें दूसरी भाषाओं के शब्दों और चलन से परहेज है. उन्हें अचानक शुद्ध हिंदी लिखना और बोलना चाहने वालों की ऐसी जमात में ठेलने का अभियान छेड़ दिया जाता है जो लुप्तप्राय हो रही है और उसका लुप्त होना ही हमारे समकालीन पर्यावरण के लिए ठीक है. ये वे लोग हैं जो नहीं जानते कि भाषाएं सिर्फ शब्दों या वाक्य रचनाओं से नहीं बनतीं, वे समाज से भी बनती हैं और समाज को भी बनाती हैं. यानी अंग्रेजी अगर हिंदी या बाकी भारतीय भाषाओं का चरित्र बदल रही है तो वह सिर्फ भाषाओं का ही नहीं, समाजों का भी चरित्र बदल रही है.

सार्त्र ने जिन्हें डेढ़ अरब माना था, उनकी तादाद काफी हो चुकी है और भारत में भी वे इतनी बड़ी संख्या हैं कि अपनी मर्जी का समाज बना सकें इससे भी हमें क्यों परहेज हो? अगर अंग्रेजी नए जमाने की भाषा है तो हम उसे क्यों न अपना लें? अगर उसी में तरक्की और ताकत मुमकिन है तो हम उसके साथ क्यों न हो लें? इस भोले लगने वाले सवाल को ध्यान से देखें. भारत के संदर्भ में अंग्रेजी अब तक एक साम्राज्यवादी भाषा है- एक छोटे से अल्पतंत्र की भाषा- जिसने एक बड़े समाज को अपना उपनिवेश बना रखा है. यह अनायास नहीं है कि जो नया बनता हुआ, ताकतवर भारत है, उसने अपनी भाषा अंग्रेजी ही मान ली है- उसकी वफादारी अमेरिका और यूरोप के प्रति ज्यादा है, भारत के प्रति कम. गरीबों का, कमजोरों का एक बड़ा भारत है जो हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाएं बोलता है. इन गरीबों को भी अपने दायरे से बाहर जाने की कुंजी अंग्रेजी ही लगती है और इस नाते जो झोंक सकते हैं, वे अपने सबसे ज्यादा संसाधन अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजने पर लगाते हैं.

हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं की यह आर्थिक विपन्नता अनायास उनकी सांस्कृतिक और बौद्धिक विपन्नता में बदल जाती है. हिंदी में जो भी काम होता है- चैनलों से लेकर फिल्मों तक में- उस पर मुहर अंग्रेजीवाले ही लगाते हैं. हिंदी अखबारों में अंग्रेजी के सतही लेखकों के कॉलम छपते हैं और हिंदीभाषी समाज के बीच उनके सतही उपन्यास बिकते हैं. अंग्रेजी फैसला करती है और वह चाहे जितनी सदाशयता से फैसला करे, यह मान कर चलती है कि वह इन देसी लोगों से श्रेष्ठ है और इन्हें कुछ सिखाना उसका फर्ज है. फ्रैंज फेनन की मशहूर किताब ‘रेचेड ऑफ द अर्थ’ की उतनी ही मशहूर भूमिका की शुरुआत में ही ज्यां पाल सार्त्र ने लिखा है, ‘ज्यादा दिन नहीं हुए, जब धरती पर दो अरब लोग थे- इनमें 50 करोड़ इनसान थे और बाकी डेढ़ अरब गंवार (नेटिव). पहले के पास भाषा थी और दूसरों के पास उसका इस्तेमाल.‘आगे वह लिखता है कि यूरोपीयन एलीट ने एक देसी एलीट बनाने का काम अपने ऊपर लिया, वहां के कुछ संभावनाशील युवा लोगों को चुना, उन्हें अपने पश्चिमी रंग में रंगा, अपने भारी-भरकम मुहावरे उनके मुंह में ठूंस दिए और उन्हें वापस भेज दिया.

यह छोटा-सा वापस भेजा हुआ- अंग्रेजी बोलता अल्पतंत्र अब भी साम्राज्यवादी ताकतों का प्रतिनिधि बना हुआ है और ऐसा भारत बना रहा है जो अमेरिका की राजधानी लगे. बेंगलुरु, दिल्ली और मुंबई से लेकर छोटे-छोटे शहरों तक के किशोर जिस तरह लांस एंजिलिस और न्यूयॉर्क के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने से लेकर उनके बिजली बिल भेजने और तगादा करने और शिकायतें सुनने तक का काम निबटा रहे हैं, उससे यही लगता है.
लेकिन हिंदी क्या करे? और हिंदीभाषी समाज क्या करे? क्या वह अपने खोल में सिमट जाए और एक प्रतिक्रियावादी भाषा और समाज की तरह पेश आए? या वह अपनी आधुनिकता का, अपनी बौद्धिकता का पुनराविष्कार करे, उन छलों को समझे जो सियासत से लेकर तिजारत तक उनके साथ कर रही है और उनसे लोहा ले? यह काम आसान नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं.

सार्त्र ने जिन्हें डेढ़ अरब माना था, उनकी तादाद काफी बड़ी हो चुकी है और भारत में भी वे इतनी बड़ी संख्या बनाते हैं कि अपनी मर्जी का समाज बना सकें. लेकिन इसके लिए भाषा के साथ और समाज के साथ हो रहे छल को समझना होगा.

डराओ और कमाओ

अपनी इसी नीति की वजह से समाचार चैनल   कभी-कभी कुछ हद तक वास्तविक और अकसर बहुत बनावटी खतरे गढ़ते हैं

समाचार चैनलों को दर्शकों को डराने में बड़ा मजा आता है. उन्हें लगता है कि जितना बड़ा डर, उतने अधिक दर्शक. जितना टिकाऊ डर, उतनी देर चैनल से चिपके दर्शक. कहते भी हैं: ‘ इफ इट ब्लीड्स, इट लीड्स ‘. नतीजा हम सबके सामने है. चैनल हमेशा ऐसी ‘खबर’ की तलाश में रहते हैं जिससे दर्शकों को डराया और चैनल से चिपकाया जा सके. खासकर प्राकृतिक या मनुष्य निर्मित आपदाओं जैसे बाढ़, भूकंप, आतंकवादी हमलों के प्रति उनका ‘उत्साह’ देखते ही बनता है.

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें हर बाढ़, भूकंप या आतंकवादी हमला एकसमान उत्साहित करता है.  बाढ़, भूस्खलन, आतंकवादी हमला दिल्ली या मुंबई या पश्चिमी-उत्तरी भारत से जितनी दूर होता है, उसके प्रति चैनलों का उत्साह उसी अनुपात में कम होता चला जाता है. लेकिन अगर वह आपदा बड़े टीआरपी शहरों या दिल्ली-मुंबई जैसे महा(टीआरपी) नगरों पर आने को हो या आ जाए तो चैनलों की उत्तेजना और उत्साह का जैसे ठिकाना नहीं रहता. चैनलों के इस रवैए के कारण कई बार ऐसा लगता है जैसे वे विपदाओं की प्रतीक्षा करते रहते हैं. उस गिद्ध की तरह जो अकाल का इंतजार करता रहता है ताकि उसका महाभोज हो सके. याद कीजिए, ‘पीपली लाइव’ में अकाल के बीच एक किसान की आत्महत्या की ‘खबर’ दिखाने के लिए गिद्धों की तरह पीपली गांव में उतरे चैनलों को जो नत्था जैसे किसानों के दुख-दर्द से ज्यादा लाइव आत्महत्या दिखाने को बेताब थे.

चैनल विपदाओं की प्रतीक्षा करते रहते हैं. उस गिद्ध की तरह जो अकाल का इंतजार करता रहता है ताकि उसका महाभोज हो सकेहालांकि बहुतों को लग रहा था कि पीपली लाइव में चैनलों का अतिरेकपूर्ण चित्रण किया गया है, लेकिन शायद अब अतिरेक और चैनल एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं. आश्चर्य नहीं कि चैनलों ने पिछले दिनों जैसे ही दिल्ली में ‘ बाढ़ ‘ की ‘संभावना’ देखी, वे उसे भुनाने के लिए यमुना में कूद पड़े. स्टार राजनीतिक रिपोर्टरों से लेकर नत्थू-खैरे रिपोर्टर तक यमुना में उतर पड़े. कोई लाइफ जैकेट और नाव के साथ डूबती दिल्ली की खोज-खबर ले रहा था तो कोई घुटने भर और कोई कमर भर पानी में खड़ा होकर चढ़ती यमुना की पल-पल की खबर देने लगा. गोया खतरे का निशान उनके साढ़े पांच फुट के शरीर पर बना हो.

बिल्कुल फिल्मी दृश्य. वही नाटकीयता, सस्पेंस (आपके घर से कितना दूर है पानी), रिपोर्टरों की उत्तेजना और थरथराहट से फटी जा रही आवाज, कैमरे के कमाल से वास्तविकता से कहीं ज्यादा उफनती यमुना और रही-सही कसर पूरा करते स्टूडियो में बैठे भाषा के खिलाड़ी- ऐसा लग रहा था जैसे दिल्ली में प्रलय आ गई हो. हालांकि बाढ़ तो न आनी थी और न आई लेकिन चैनलों ने अपनी उत्तेजना में दिल्ली को बाढ़ में डुबोने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी.

जाहिर है कि चैनल दिल्ली को डुबोने वाली बाढ़ लाने में इसलिए लगे थे वे लोगों को डराकर अधिक से अधिक दर्शक जुटाने और उसकी टीआरपी को भुनाने की कोशिश कर रहे थे. असल में, समाचार चैनलों को सबसे आसान और सस्ता तरीका यह लगता है कि लोगों को किसी भी तरह से डराकर चैनल से चिपकाए रखा जाए. इसके लिए वे  कभी-कभी कुछ हद तक वास्तविक और अकसर बहुत बनावटी खतरे गढ़ते हैं, लेकिन मकसद दर्शकों को आश्वस्त करना नहीं बल्कि उनमें और अधिक घबराहट, बेचैनी और खौफ पैदा करना होता है.
कई शोध सर्वेक्षणों और विशेषज्ञों का मानना है कि आम तौर पर समाचारों के कम लेकिन निश्चित दर्शक होते हैं लेकिन किसी राजनीतिक, सामुदायिक या प्राकृतिक संकट के समय दर्शकों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है. खासकर अगर वह संकट सीधे दर्शकों के खुद और अपने करीबियों और उनके जीवन और भविष्य से जुड़ा हो तो उनकी उत्सुकता, बेचैनी, संलग्नता और सक्रियता बहुत बढ़ जाती है.

दरअसल, इसका सीधा कारण लोगों के मनोविज्ञान से जुड़ा हुआ है. माना जाता है कि लोग समाचार इसलिए भी पढ़ते-देखते-सुनते हैं क्योंकि वह हमारे अंदर बैठे ‘अज्ञात के भय ‘ से निपटने में मदद करता है. समाजशास्त्रियों के मुताबिक सभ्यता की शुरुआत से ही लोग समाचारों में इसलिए दिलचस्पी लेते रहे हैं क्योंकि इससे उन्हें अपने सीधे प्रत्यक्ष अनुभव से इतर ‘अज्ञात के भय ‘ से निपटने में मदद मिलती है. लोग हर वह खबर जानना चाहते हैं जो किसी भी रूप में उन्हें और उनके करीबियों को प्रभावित कर सकती है.

किन चैनलों की इस ‘ डराओ और उससे कमाओ ‘ नीति का पहला शिकार तथ्य होता है. इसमें तथ्यों और वास्तविकता की बजाय मनमुताबिक तथ्य और वास्तविकता गढ़ने की कोशिश की जाती है. तथ्यों और वास्तविकता को हमेशा परिप्रेक्ष्य और उसकी पृष्ठभूमि से काटकर पेश किया जाता है. इस सबकी कीमत अंततः उनके दर्शक ही चुकाते हैं. कारण, ऐसी खबरों से अफवाहों को पैर मिल जाते हैं. लोग घबराहट में उल्टे-सीधे फैसले करने लगते हैं. राहत और बचाव में लगी एजेंसियों के लिए अपना काम करना मुश्किल होने लगता है.

लेकिन इधर अच्छी बात हुई है कि लोग चैनलों के इस खेल को समझने लगे हैं. अब बारी चैनलों के डरने की है.

इल्म की आड़ जुल्म का पहाड़

उत्तरी दिल्ली की शकूरपुर बस्ती. मुसलिम बहुल इस इलाके में एक चारमंजिला इमारत है. यह दारुल उजलूम निजामिया गासुल उलूम मदरसा है जिसकी सबसे निचली मंजिल पर एक मस्जिद है. बाहर से देखने पर आपको ऐसा कुछ नजर नहीं आएगा जो इसे देश के बाकी 35 हजार मदरसों से अलग करता हो. लेकिन तहलका की पड़ताल के बाद यह सच सामने आया कि समुदाय की आंखों में धूल झोंकते हुए दारुल उजलूम मदरसा ऐसे कामों को अंजाम दे रहा है जो न सिर्फ उसके असल मकसद के खिलाफ जाते हैं बल्कि कानून के नजरिए से अपराध की श्रेणी में भी आते हैं.

यहां इस समस्या का एक और अंधेरा पहलू दिखता है और वह है मजहब के नाम पर गरीबों से बच्चे छीनना और फिर उन्हें एक नरक में धकेल देना

मुसलिम समाज में मदरसों की हमेशा से खासी अहमियत रही है. ये धार्मिक शिक्षा का केंद्र तो हैं ही, गरीब इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए अनौपचारिक शिक्षा का एक सुलभ जरिया भी हैं. भारत में ज्यादातर मदरसे देवबंदी, बरेलवी या अहले-हदीथ संप्रदायों से संबद्ध हैं और जकात (भलाई के कामों के लिए अपनी आय का 2.5 हिस्सा दान करना) से मिले पैसे से इनका खर्च पूरा किया जाता है. इसी रवायत के तहत 1992 में दारुल उजलूम मदरसा शुरू हुआ था. बरेलवी संप्रदाय के तीन मौलवियों ने इसकी स्थापना की थी. मदरसे का मकसद 150 मुसलिम बच्चों के रहने, खाने और पढ़ने की व्यवस्था सुनिश्चित करना था. लेकिन हमने पाया कि इस मदरसे से बच्चों को गैरकानूनी तरीके से 12-12 घंटों की पालियों में आसपास की फैक्टरियों और दुकानों में काम करने के लिए भेजा जा रहा था.

ऐसा ही एक बच्चा है अनीस. दस साल का अनीस बिहार के पूर्णिया जिले का रहने वाला है. उसके पिता वहां दिहाड़ी मजदूर हैं. उल्लेखनीय है कि बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के बाद भारत में सबसे ज्यादा मुसलिम आबादी वाला राज्य है. 2001 की जनगणना के मुताबिक राज्य के 87 फीसदी मुसलिम ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और इनमें से 49 फीसदी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करते हैं. औसतन देखा जाए तो राज्य के ग्रामीण इलाकों में हर तीन में से दो मुसलिम परिवार कम-से-कम अपने एक बच्चे को उसके बेहतर भविष्य की उम्मीद में घर से दूर भेज देते हैं. अनीस का परिवार भी इन्हीं में से एक है. उसके पिता की दिहाड़ी 50 रुपए है जो आठ सदस्यों के परिवार के लिए दो वक्त का खाना जुटाने के लिहाज से काफी नहीं. इन्हीं हालात में एक शख्स जिसे वे ‘चाचू’ कहते हैं, ने उन्हें सलाह दी थी वे अपने सबसे बड़े बेटे को दिल्ली के मदरसे में भरती करवा दें जिससे वह हाफिज कुरान (वह व्यक्ति जिसे पूरी कुरान कंठस्थ होती है) बन सके (चाचू बाल तस्करी की दुनिया में आम शब्द है. कई बार ये रिश्तेदार या परिचित होते हैं जो मां-बाप से झूठे वादे करते हैं और उन्हें बच्चों को उनके साथ भेजने के लिए फुसलाते हैं. शिकंजे में फंसे हर बच्चे के लिए ऐसे चाचुओं को दो से ढाई हजार रु कमीशन मिलता है). अनीस के पिता तुरंत ही इस पर राजी हो गए और अपने बेटे को चाचू के सुपुर्द कर दिया. यह अनीस के मदरसे तक आने की कहानी है.

मदरसे की इन गतिविधियों के बारे में हमें एक सामाजिक कार्यकर्ता से सूचना मिली थी. इसके भीतर दाखिल होने के लिए तहलका संवाददाता ने खुद को फंड मुहैया करवाने वाले लखनऊ के एक एनजीओ का प्रतिनिधि बताया. हमारे छिपे हुए कैमरे के सामने मदरसे में अनीस से हमारी बातचीत हुई.

अनीस : चाचू ने कहा था कि हाफिज कुरान बनने के बाद मैं मस्जिद में इमाम बन जाऊंगा और मुझे पांच हजार की पगार मिलेगी.
तहलका : क्लास कितने बजे होती है?
अनीस :  सुबह आठ से दस बजे तक.
तहलका : सिर्फ दो घंटे?
अनीस : हां, उसके बाद मैं काम करने जाता हूं.
तहलका : काम करने कहां जाते हो?
अनीस : ब्रिटैनिया बिस्किट फैक्टरी.
(तहलका ने अलग से अनीस के ब्रिटैनिया बिस्किट
फैक्टरी में काम करने की पुष्टि नहीं की है)
तहलका : क्या काम करते हो वहां ?
अनीस : पैकिंग करता हूं.
तहलका : काम करने का वक्त क्या है?
अनीस : दोपहर के दो बजे से रात दस बजे तक.
तहलका : वहां कितना पैसा मिलता है?
अनीस : 2,500.
तहलका : कितने वक्त से काम कर रहे हो?
अनीस : चार महीने से.
तहलका : तुम्हारे पास आई-कार्ड है?
अनीस : हां.
तहलका : तुम्हारे अब्बू-अम्मी को पता है कि तुम काम करते हो?
अनीस : नहीं.

" मैं सुबह नौ बजे से रात के साढ़े नौ बजे तक एक जूता फैक्ट्री में काम करता हूं. मुझसे कहा गया है कि मुझे हर महीने तीन हजार रुपए मिलेंगे. सेठ कहता है कि वह मुझे पैसे तब देगा जब मैं वापस अपने गांव जाऊंगा "

– जमील, 13 वर्ष

बातचीत के दौरान हम जैसे ही अनीस से पूछते हैं कि वह फैक्टरी से मिले पैसे का क्या करता है, मौलवी उसे कमरे से बाहर जाने को कह देते हैं.

इजाजत लेने के बाद हम इमारत का चक्कर लगाते हैं. ट्रेन के डिब्बों की तरह एक के पीछे एक बने छोटे-छोटे कमरे. इनमें बच्चों का सामान ठुंसा पड़ा है और खाली और खुली जगह कम ही दिखती है. कुछ कमरे खुले हैं और ज्यादातर बंद. साफ है कि अधिकांश बच्चे काम पर गए हैं. अनीस की दो बजे वाली शिफ्ट का वक्त भी होने ही वाला है.

बाल श्रम भारत में नई बात नहीं है मगर यहां इस समस्या का एक और अंधेरा पहलू दिखता है और वह है मजहब के नाम पर गरीबों से उनके बच्चे छीनना और फिर उन्हें एक ऐसे नरक में धकेल देना जहां हाड़तोड़ मेहनत है, नाम को खाना और काम के बदले अकसर कुछ नहीं.

तहलका की इस पड़ताल का दायरा बहुत बड़ा (दिल्ली के पांच मदरसे) तो नहीं मगर इससे जो संकेत मिलते हैं वे जरूर चिंता जगाते हैं. मानव संसाधन और शिक्षा मंत्रालय के अनुमानों के मुताबिक देश भर में 35 हजार मदरसे हैं और इनमें तकरीबन 15 लाख छात्र पंजीकृत हैं. अकेले दिल्ली में पांच हजार मदरसे हैं और इस आंकड़े में उन मदरसों की संख्या शामिल नहीं है जो बिना पंजीकरण के चल रहे हैं.

यह हमारे लिए काफी हैरानी भरी बात थी कि दारुल उजलूम मदरसा के मौलवी असरार-ए-कादरी और नसीम अझाई ने हमारे सामने खुलकर माना कि बच्चों को काम करने के लिए बाहर भेजा जाता है. वे हमें कागजात भी दिखाते हैं जिनमें उनके काम करने की जगहों के नाम और पते दर्ज हैं. हो सकता है कि यह बेपरवाह नजरिया उस घनघोर गरीबी को देखकर उपजता हो जिसमें ये बच्चे मदरसे आने से पहले रह रहे थे. यह भी हो सकता है वे उस एनजीओ से फंड मिलने के लालच में यह कर रहे हों जिसके हम प्रतिनिधि बनकर गए थे.

इसके बाद हमारी मौलवी नसीम अझाई से बातचीत होती है – 

तहलका : हम यह जानना चाहते हैं कि क्या मदरसे के बच्चे कहीं काम करते हैं.
नसीम : देखिए, गरीब लोग अपने बच्चों का खर्चा नहीं उठा सकते. यदि बच्चे थोड़ा बहुत काम करके कुछ कमाई कर लें तो इसमें कोई बुराई नहीं है.
तहलका : क्लास किस वक्त होती है?
नसीम : सुबह 8 बजे से 11:30 तक. लेकिन जिन बच्चों को पहले काम पर जाना होता है उन्हें हम 10 बजे ही छोड़ देते हैं.
तहलका : वे कहां काम करते हैं?
नसीम : जरी फैक्टरी, कोल्ड स्टोर, कपड़ा फैक्टरी, मोबाइल शॉप और दूसरी दुकानों में.
तहलका : ये नजदीक ही हैं?
नसीम : हां. शकूरपुर गांव में सड़क के पार हैं.
तहलका : बच्चों का सारा खर्च मदरसा उठाता है?
नसीम : हां, खाने, रहने और पढ़ने का पूरा खर्च हम ही उठाते हैं.
तहलका : बच्चों को कितने वक्त का खाना दिया जाता है?
नसीम : जो बच्चे काम पर जाते हैं उनके बारे में तो हम नहीं बता सकते. जो मदरसे में रुकते हैं उन्हें खाना दिया जाता है.
तहलका : मदरसे में कितने बच्चे रहते हैं?
नसीम : 150.
तहलका : इनमें से कितने काम पर नहीं जाते?
नसीम : सिर्फ 30.

हालांकि तहलका को इसके सबूत नहीं मिले कि मौलवी को उन व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से कोई सीधा फायदा होता है जहां ये बच्चे काम करने जाते हैं, लेकिन नसीम की बातों से बहुत-सी सच्चाइयां उजागर हो जाती हैं. कादरी और नसीम मदरसा चलाने के खर्च के बारे में बात करते हैं. बच्चों के तीन वक्त के खाने का मासिक खर्चा 600 रुपए होता है लेकिन नसीम के शब्दों में ‘हम बच्चों के मालिकों से कहते हैं कि उन्हें खाना भी दें.’ जैसे कि नसीम हमें पहले बता चुके हैं कि 150 में से 120 बच्चे काम पर जाते हैं. वे मदरसे के बाहर ही खाना खाते होंगे. इस हिसाब से हर महीने मदरसा चलाने में 72 हजार रुपए का खर्च बचता होगा. इसका कोई हिसाब नहीं है कि मौलवी इस बचत का इस्तेमाल कैसे करते हैं.

खाना और भूख इस कहानी का सबसे दर्दनाक पहलू है. अनीस की तरह ही 11 साल का मोहम्मद कल्लन भी इसी मदरसे में रहता है. कल्लन शकूरपुर की एक कपड़ा फैक्टरी में काम करता है जहां उसकी सुबह नौ बजे से रात के नौ बजे तक 12 घंटे की शिफ्ट होती है. कल्लन के मुताबिक वह जींस की सिलाई करता है जिसमें अक्षय कुमार की फोटो आती है. हालांकि तहलका अलग से यह पुष्टि नहीं कर सका कि ये जींस असली होती हैं या नकली, पर कल्लन की बात से जाहिर होता है कि वह उस फैक्टरी में काम करता है जहां स्पाइकर ब्रांड के लिए जींस बनाई जाती हैं.

बच्चों को काम पर भेजने के बारे में मौलवी नसीम का तर्क था कि गरीब बच्चे काम करके कुछ कमाई कर लें तो कोई हरजा नहीं है, लेकिन विडंबना यह है कि कल्लन को कभी पगार ही नहीं दी गई. कल्लन बचपन की पूरी मासूमियत के साथ कहता है, ‘कोई बात नहीं, अभी तो मैं ट्रेनी हूं, उन्होंने कहा है कि अगले साल से मुझे हर महीने 1,200 रुपया पगार देंगे.’

"चाचू ने कहा था कि हाफिज कुरान बनने के बाद मुझे इमाम के तौर पर पांच हजार रु की नौकरी मिल सकती है. अभी मैं दो बजे से दस बजे तक ब्रिटैनिया फैक्टरी में काम करता हूं"

– अनीस, 10 वर्ष

बिहार में मधेपुरा के रहने वाले कल्लन के अब्बू का इंतकाल हो चुका है. कोई जहांगीर चाचू उसे 2008 में मधेपुरा से लाकर दारुल उजलूम मदरसे में भरती करा गया था. कल्लन इसी मदरसे के अपने 25 साथियों के साथ काम पर जाता है. सभी से कहा गया था कि उन्हें दिन में दो बार खाना भी मिलेगा. कल्लन के मुताबिक रात में जब वे काम खत्म करते हैं तो उन्हें दो रोटी और थोड़ा-सा मटन दिया जाता है. लेकिन सुबह जब वे मदरसे से बिना कुछ खाए-पिए निकलते हैं तो फैक्टरी में एक कप चाय दी जाती है और साथ में दो ब्रेड जिनमें आयोडेक्स लगा होता है. कल्लन बताता है, ‘खाने पर पहले पेट में जलन होती है फिर मुंह में ठंडा लगने लगता है.’ खाने में आयोडेक्स का इस्तेमाल नशे के तौर पर होता है. यह किडनी और तंत्रिकातंत्र पर घातक असर डालता है. इसे खाने के बाद नशे की हालत में बच्चे घंटों तक बिना रुके काम करते रहते हैं. असंगठित क्षेत्र में बिना लिखा-पढ़ी के काम पर रखे गए बच्चों को ट्रेनी या अप्रेंटिस के तौर पर रखना आम बात है. ऐसा मजदूरी की लागत बचाने के लिए किया जाता है. अप्रेंटिसशिप कानून के मुताबिक यह गैरकानूनी है. स्वाभाविक ही है कि फैक्टरी मालिकों से इस मुद्दे पर बात करने की हमारी सारी कोशिशें नाकाम रहती हैं.

शकूरपुर बस्ती की इस दारुल उजलूम मस्जिद में हर शुक्रवार को 500 लोग नमाज पढ़ने आते हैं. लेकिन इनमें से किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं कि यहां पर कुछ ऐसा भी हो रहा है जिसे कुरान के मुताबिक गुनाह माना जाता है.

उत्तरी दिल्ली के खजूरी खास इलाके में भी एक मदरसा है. लगभग ढाई कमरे की जगह घेरने वाले इस फैज-ए-आजम मदरसे से बच्चे काम करने बाहर नहीं जाते बल्कि यही उनकी मजदूरी की जगह है. उमस भरे माहौल में यहां 5 से 10 साल की उम्र के तकरीबन 20 बच्चे बिंदियां पैक कर रहे हैं. कमरे में न पंखा है और न कुदरती रोशनी. तेज आवाज में रेडियो बज रहा है और मेजों पर झुके बच्चे बिंदियों पर चमकीले दाने चिपकाने में व्यस्त हैं.

एक दिन पहले हम यहां बिंदियों के कारोबारी की हैसियत से आ चुके थे. हम बच्चों को देख ही रहे होते हैं कि अचानक मौलवी इफ्तेकार कादरी (मदरसे के संचालक) हड़बड़ी में कमरे में आते हैं और बच्चों से किताबें निकालने को कहते हैं. मानो सब कुछ पहले से तय हो, बिंदियों के पैकेट अलग रख दिए जाते हैं, बच्चे चार लाइनों में व्यवस्थित होकर बैठ जाते हैं, ब्लैक बोर्ड खींचकर लटका दिया जाता है और इसके साथ ही मौलवी बच्चों को पढ़ाना शुरू कर देते हैं.

शायद उन्हें किसी ने खबर दे दी है कि मदरसे पर छापा पड़ने वाला है. कुछ ही देर के बाद यहां श्रम निरीक्षक गिरीश राज और एक स्वयंसेवी संस्था शांति वाहिनी के सदस्य पुलिस के साथ पहुंचते हैं. 27 बच्चों को बचा लिया जाता है. कुछ खिड़की के रास्ते भाग जाते हैं. इसके बाद मौलवी से पूछताछ की जाती है. हम जब कादरी से पूछते हैं कि वे बच्चों का शोषण क्यों करते हैं तो उनका जवाब आता है, ‘मैं मदरसा तीन दिन पहले ही आया हूं. मुझे बिंदी के धंधे के बारे में कुछ पता नहीं.’ उधर, शाहदरा के एसएचओ हमें बताते हैं कि जांच से बचने के लिए मौलवी झूठ बोल रहे हैं. श्रम निरीक्षक राज भी एसएचओ की बात की पुष्टि करते हैं. वे कहते हैं, ‘सच्चाई यह है कि बच्चे वहां रहते हैं और काम करते हैं. जब भी हम छापा मारकर उन्हें पकड़ने की कोशिश करते हैं तो तुरंत ही बिंदी बनाने की जगह कक्षा में बदल दी जाती है.’

बाल मजदूरी और शोषण की इस सामाजिक समस्या को गंभीर बनाने में फैज-ए-आजम जैसे गैरमान्यताप्राप्त मदरसों की काफी अहम भूमिका है. यह मदरसा जिस मोहल्ले में बना है वहां आस-पड़ोस के लोगों को इसके बारे में शक था लेकिन किसी के पास पुख्ता जानकारी नहीं थी. इसके पास ही रहने वाली मेहनाज बताती हैं, ‘छह साल से यहां हम दो-तीन लोगों को आते-जाते देख रहे हैं, लेकिन बच्चे बाहर नहीं निकलते. हमने जब भी पूछा कि इतने सारे बच्चे क्यों रखे गए हैं तो बताया गया कि यह मदरसा है. लेकिन वे स्थानीय बच्चों को मदरसे में दाखिला नहीं देते. हर बार कुछ महीने बाद नए बच्चे आ जाते हैं.’

यहां न तो सरकार की नजर है और न ही समुदाय के लोग इस पर ध्यान देते हैं. यही वजह है कि मोहम्मद अकमल जैसे बच्चे मौलवी इफ्तेकार कादरी जैसों के चंगुल में फंस जाते हैं. मूल रूप से बिहार के अररिया जिले का रहना वाला नौ साल का अकमल दो साल पहले यहां आया है. अकमल के पिता, जो रिक्शा चलाकर अपना गुजर-बसर करते हैं, ने उसे साकिब के साथ दिल्ली भेजा था. अकमल के चचेरे भाई साकिब ने उसे यहां आते ही कादरी साहब के सुपुर्द कर दिया. उसके बाद साकिब दोबारा उनसे मिलने कभी नहीं आया. यहां आने के बाद से ही इस सात साल के बच्चे को काम में लगा दिया गया. बच्चे यहां सुबह सात बजे से लेकर रात के दस बजे तक लगातार काम करते हैं. इस दौरान उन्हें छत पर जाने की भी इजाजत नहीं होती. अकमल बताता है, ‘मौलवी साहब ने बताया था कि जल्दी ही क्लासें शुरू होंगी तब तक मुझे यह काम सीखना चाहिए. लेकिन अभी तक क्लासें शुरू नहीं हुई हैं.’ इसके बाद अकमल हमें जो आपबीती सुनाता है वह हमारे रोंगटे खड़े करने के लिए काफी है. अकमल बताता है, ‘मैं पहले बहुत धीरे काम करता था, एक दिन में सिर्फ 20-30 पैकेट ही बना पाता था. एक दिन कादरी साहब नाराज हो गए और सब लोगों से कहा कि मुझे सबक सिखाएं.’ फिर सब बच्चों से उसके ऊपर थूकने और पेशाब करने को कहा गया. अकमल आगे कहता है, ‘मैं खूब रोया, मैंने उल्टियां भी कीं लेकिन उसके बाद मैं तेजी से काम करने लगा.’

अकमल अब एक दिन में बिंदियों के 100 पैकेट तैयार कर लेता है. दो साल से वह घर नहीं गया. जाना चाहता है, अपने छोटे भाई रफीक के साथ गिल्ली-डंडा खेलना चाहता है. लेकिन मजबूर है. अपने काम के लिए उसे हर इतवार को 50 रुपए मिलते हैं. उसकी जिंदगी में वही थोड़ी राहत का दिन होता है क्योंकि इनसे वह एक होटल में जाकर ढंग का खाना खाता है.

मौलवी इफ्तिकार कादरी और उनके साझीदारों को कठघरे में खड़ा करते हुए एसडीएम एके शर्मा कहते हैं कि मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों के हाथों बनाई गई बिंदियां बेचकर ये लोग 40,000 रुपए महीने तक कमाते हैं और इस तरह मजहब और मानवता का खून करते हैं.

जैसा कि हमने पहले भी कहा, तहलका की यह पड़ताल एक बहुत बड़ी और गंभीर समस्या की छोटी-सी झलक हो सकती है. इस समस्या की जड़ें कितनी गहरी हैं, अंदाजा लगाना मुश्किल है पर बेशक यह एक गंभीर चेतावनी तो है ही. कई सालों से बाल तस्करी पर काम कर रहे बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) नाम के एक संगठन के मुताबिक उसने पिछले एक साल में दिल्ली के अलग-अलग मदरसों से करीब 50 बच्चों को छुड़ाया है.

"एक बार पुलिस का छापा पड़ा तो सेठ ने मुझे बांधकर एक बोरे में बंद कर दिया. दिन भर मैं गोदाम में पड़ा रहा. शाम को जब उन्होंने बोरा खोला तो मैं बेहोश था. मैं सुबह आठ बजे से रात दस बजे तक काम करता हूं"

– जुनैद, 9 वर्ष

शक्ति वाहिनी को चलाने वाले ऋषिकांत कहते हैं, ‘यह बहुत संवेदनशील मामला है. जिम्मेदार संस्थानों को इसके खिलाफ तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए. इस तरह की चीजें हमारे लिए बिलकुल नई हैं. मैं एकदम सही आंकड़े तो नहीं बता सकता लेकिन पिछले एक महीने में ऐसे 15 मामले मेरे सामने आए हैं जिनमें हम 10 बच्चों को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन और कुछ मदरसों से निकाल पाने में कामयाब रहे हैं. बच्चों को इस वादे पर लाया जाता है कि उन्हें मदरसों में पढ़ाया जाएगा, लेकिन यहां लाकर उन्हें कारखानों में फेंक दिया जाता है. गृह मंत्रालय और एनसीपीसीआर (राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग) को चाहिए कि इन मदरसों के लिए सख्त हिदायतें बनाई जाएं. जो बच्चे यहां पढ़ते हैं उनका पंजीयन हो और उनका ब्योरा सरकारी दस्तावेजों में हो ताकि पुलिस और गैरसरकारी संस्थानों को इस तरह की तस्करी पर अंकुश लगाने में कुछ मदद मिल सके.’

ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर के अध्यक्ष कैलाश सत्यार्थी इस पर सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘यह शर्मनाक है कि बच्चों की तस्करी करने वालों का धार्मिक संस्थाओं के साथ गठजोड़ हो गया है. दो साल पहले हमें बाल तस्करी के इस नए तरीके के संकेत मिले थे जब हमने बिहार-नेपाल सीमा से कुछ बच्चों को छुड़वाया था. बहुत पूछताछ के बाद पता लगा कि उन बच्चों को मदरसों में ले जाया जा रहा था ताकि धार्मिक संस्थाओं की आड़ में उनसे मजदूरी करवाई जा सके. अभी तक हम तकरीबन 150 बच्चों को ऐसे लोगों की गिरफ्त से छुड़वा चुके हैं. ये लोग जांच एजेंसियों की आंखों में धूल झोंकते हुए बाल शोषण के नए-नए तरीके ईजाद करते हैं. बस नाम के मदरसों में बच्चों को रखकर उनसे मजदूरी करवाना इन्हीं तरीकों में से एक है. बचपन बचाने और मदरसों से जुड़े इन रैकेटों का पर्दाफाश करने के लिए मुसलिम नेताओं और मौलवियों को आगे बढ़कर हमारा साथ देना होगा क्योंकि किसी भी धार्मिक ढांचे की छानबीन का मसला बहुत संवेदनशील है और यह हमारे काम में बड़ी मुश्किलें खड़ी करता है.’

पिछले साल सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने केंद्रीय मदरसा बोर्ड बनाने का प्रस्ताव रखा था. इसका काम होता परीक्षाएं करवाने, पाठ्यक्रम डिजाइन करने और बुनियादी सुविधाओं का सृजन करने में मदद करना. शायद इस तरह मदरसों की व्यवस्था में कुछ हद तक जवाबदेही आती. इससे पहले कि यह प्रस्ताव पारित होता मुसलिम समुदाय के एक धड़े की आलोचना के चलते इसे ठंडे बस्ते में रख देना पड़ा.

दूसरे राज्यों की तरह दिल्ली में राज्य मदरसा बोर्ड तक नहीं है जो कम से कम इस घटिया खेल को कुछ हद तक ही सही, रोक पाता. शाहदरा के एसएचओ ईश्वर सिंह कहते हैं, ‘शुरू में जब भी बच्चों को इस चंगुल से छुड़वाने हम मदरसों में जाते तो मौलवी हमें मदरसे का सर्टिफिकेट दिखाकर दरवाजे से लौटा देते थे, लेकिन बाद में जब ऐसी शिकायतें बढ़ने लगीं तो हम सक्रिय हुए और उनके दस्तावेजों की जांच-पड़ताल शुरू की. दो मामलों में सर्टिफिकेट फर्जी निकले. पिछले छह महीनों में पांच मदरसों से बिंदी बनाने और जरी के कारखानों में काम करने वाले 30 बच्चों को छुड़वाने में हमें कामयाबी मिली है. इस मामले को लेकर अब हमारी सजगता बढ़ गई है.’
सात साल का मोहम्मद नन्हे एलएनजेपी कॉलोनी में बने एक छोटे-से मदरसे से छुड़वाया गया है जिसका नाम उसे याद नहीं (बचाने वाली संस्था बताती है कि यह अलिया अरबिया मदरसा है). यह पूछने पर कि वह करता क्या था, नन्हे झट से चांदी का झुमका बनाने का तरीका बताने लगता है, ‘चांदी का लंबा-सा तार लो. उसको दो हिस्सों में काटो. फिर हरे और लाल मोती को एक-एक कर उस तार में लगाओ और झुमका तैयार. नन्हे के मुताबिक वह एक दिन में 20 जोड़े झुमके बना सकता था और कई विदेशी इन्हें थोक में खरीदने आते थे.

लेकिन सीखने की यह प्रक्रिया क्रूरता से भरी हुई है. बिहार के कटिहार जिले से यहां लाए गए नन्हे को जरूरत से ज्यादा तार लगाने की सजा के तौर पर ऐसी यातना दी गई जिसे सुनकर रूह कांप जाती है. तारों को काटने वाले वायर कटर से उसकी दाईं हथेली इस निर्ममता से दबाई गई कि उसकी दो उंगलियां टूट गईं और बाकी में गहरा जख्म हो गया. दो साल की भयावह यातना झेलने के बाद नन्हे और उसके तीन दोस्तों को वहां से छुड़ाकर मुक्ति आश्रम (नई दिल्ली के बुराड़ी गांव में बीबीए द्वारा बनाया गया छोटा-सा घर) लाया गया. हम नन्हे से पूछते हैं कि क्या उसने कभी अपने मां-बाप को अपनी हालत के बारे में बताया, तो वह कहता है, ‘क्या फायदा है? वे बेमतलब रोएंगे, चिल्लाएंगे और परेशान होंगे.’ महज सात साल के बच्चे का ऐसा जवाब जाने कितने सवाल खड़े करता है.
बीबीए के अध्यक्ष आरएस चौरसिया कहते हैं, ‘नन्हे जैसे बच्चों ने इतनी यातना झेली है कि इन्हें सलाह दे पाना या समझा पाना बहुत मुश्किल है. एक बार सारी कानूनी प्रक्रियाएं पूरी हो जाएं तो फिर उसके मां-बाप से बातचीत कर हम उसे घर पहुंचवा देंगे. इन बच्चों की दोबारा तस्करी न हो, इसके लिए इनका पुनर्वास जरूरी है.’

बचपन के साथ हो रहे इस खतरनाक खिलवाड़ में फंसे बच्चों में बिहार के बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है. एक अनुमान के अनुसार बिहार में कुल 4,000 मदरसे हैं, बावजूद इसके वहां लोग अपने बच्चों को  इतनी दूर दिल्ली भेजते हैं. असल में उन्हें भरमाया जाता है कि देश की राजधानी में उनके बच्चों को बेहतर जिंदगी मिलेगी.

बिहार के सीतामढ़ी जिले से बरगला कर लाए गए नौ साल के जुनैद की कहानी भी ऐसी ही है. उसे भी कोई चाचू छह दूसरे बच्चों के साथ नांगलोई (उत्तर दिल्ली) के जीनातुल मदरसे तक लेकर आया था. खजूरी खास में बने फैज-ए-आजम मदरसे की तरह नांगलोई का यह मदरसा भी किसी संप्रदाय या संस्था से संबद्ध नहीं है. बल्कि कहा जाए तो यह मदरसा नहीं बल्कि एक अस्थायी डेरा है जहां बच्चे बंधुआ मजदूरी पर जाने से पहले कुछ समय के लिए रखे जाते हैं.

जुनैद बताता है, ‘चाचू ने कहा कि वे शाम को लौट आएंगे. लेकिन साल भर होने को आया वे अभी तक नहीं लौटे.’  इस बीच मौलाना अल्लामा हसनैन रजा खान – जिसके जिम्मे जुनैद को सौंपा गया था- ने उसे किसी और के हाथ सौंप दिया जिसे वह सेठ के नाम से पुकारता था. यह सेठ प्रशांत प्रसाद नाम का एक शख्स था जिसकी नांगलोई इलाके में जूतों की फैक्टरी थी, जिसे जूतालैंड के नाम से पुकारा जाता था. दूसरे बच्चों के साथ जुनैद सुबह आठ बजे से रात दस बजे तक इस फैक्टरी में काम करता था. उन दिनों को याद करते हुए वह बताता है, ‘एक बार पुलिस ने फैक्टरी पर छापा मारा तो सेठ ने मुझे बोरे में बांधकर गोदाम में छिपा दिया था.’ शाम को बोरा खोला गया तो वह बेहोश हो चुका था. जुनैद को 1,200 रुपए महीना तनख्वाह देने का वादा किया गया था जो उसे कभी नहीं मिली. जुनैद कहता है, ‘सेठ ने कहा कि जब मैं घर जाऊंगा तब पैसे मुझे मिलेंगे.’

खुद को एक खरीददार बताकर तहलका जूतालैंड पहुंचा जो नांगलोई पुलिस थाने से महज 500 मीटर दूर है. अब पढ़िए प्रशांत प्रसाद ने कैमरे के सामने  क्या कहा.

तहलका : जूतालैंड में आप कौन-सा ब्रांड बनाते हैं?
प्रशांत : हम सभी लोकल ब्रांड बनाते हैं.
तहलका : जैसे?
प्रशांत : एक्शन, कैंपस, बेसिक, ऐक्टिव, बाटा.
तहलका : आप कारीगर कहां से लाते हैं?
प्रशांत : बिहार
तहलका : कैसे?
प्रशांत : वहां हमारे लोग हैं.

इसके बाद असहज प्रशांत आगे किसी भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर देता है. हालांकि तहलका स्वतंत्र रूप से इस बात की पुष्टि नहीं कर सका कि जूतालैंड उन ब्रांडों की सप्लाई चेन का हिस्सा है या नहीं जिनका जिक्र प्रशांत ने किया था, लेकिन प्रशांत ने अपनी फैक्टरी में निर्मित बाटा चप्पल का एक सैंपल हमें जरूर मुहैया करवाया (Art. no. 601-9008). इस बात की पुष्टि पंजाबी बाग के एसडीएम पीआर झा भी करते हैं. झा भी बचाव टीम के सदस्य थे. वे कहते हैं, ‘छुड़ाए गए बच्चे फैक्टरी के सिलाई वाले विभाग में काम करते थे, वे बाटा की चप्पलें तैयार कर रहे थे’ बाजार में बहुतायत में मौजूद नकली वस्तुओं को देखते हुए जरूरी नहीं कि यहां असली माल ही बन रहा हो, मगर बड़ी कंपनियों के लिए ये एक चेतावनी तो है ही कि वे अपनी निर्माण चेन की निगरानी कड़ाई से करें.
इसी साल 5 मार्च को बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) ने जूतालैंड से 27 बच्चों को छुड़ाया. इनमें से एक 10 वर्षीय साहिल से बातचीत में वहां की अमानवीय स्थितियों का अंदाजा मिलता है. इसकी असेंबली लाइन में काम करने वाले बच्चों ने भी यहां तमाम बड़े ब्रांडों के स्पोर्ट शूज बनाए जाने की बात कही. यहां हम एक बार फिर कहना चाहेंगे कि तहलका स्वतंत्र रूप से इन दावों की पुष्टि नहीं कर सका.

तहलका : तुम फैक्टरी में क्या करते थे?
साहिल : मैं सिलाईवाले डिपार्टमेंट में था.
तहलका : कितनी देर तक काम करना पड़ता था?
साहिल : 12 घंटे की शिफ्ट थी.
तहलका : तुम्हारी उम्र कितनी है?
साहिल : दस.
तहलका : तुम्हें तनख्वाह कितनी मिलती थी?
साहिल : एक घंटे के 30 रुपए.

(इतनी छोटी उम्र में साहिल शायद अपनी आय का अनुमान नहीं लगा सकता. यही सवाल हमने दूसरे और उम्र में बड़े  जामिल से पूछा.)

तहलका : कौन-से ब्रांड बनाते थे?
जामिल : एडीडास, रिबॉक और एयरफोर्स.
तहलका : सेठ तुम्हें कितनी तनख्वाह देता था?
जामिल : 3,000.
तहलका : कब से यहां काम कर रहे हो?
जामिल : दो साल से.
तहलका : तुम्हारी उम्र कितनी है?
जामिल : 13.
तहलका : कभी तनख्वाह मिली?
जामिल : सेठ कहते थे कि जब मैं गांव जाऊंगा तब वे मुझे पैसे देंगे.
तहलका : तुम्हारा गांव कहां है?
जामिल : नालंदा, बिहार में.
तहलका : कितने से कितने बजे तक काम करते थे?
जामिल : सुबह 9 बजे से रात 9.30 बजे तक. 

"मैं सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक जींस पर पॉकेट की सिलाई का काम करता हूं. नाश्ते में ब्रेड और आयोडेक्स खाता हूं. कुछ देर पेट में जलन होती है फिर मुंह में ठंडा लगता है"

-मोहम्मद कल्लान, 11 वर्ष

लेकिन मौलाना कादरी की तरह ही प्रशांत प्रसाद भी एक हफ्ते के भीतर जमानत पर रिहा हो गया. देश भर में बाल तस्करी की व्यापक समस्या के बावजूद इसके खिलाफ कानून बेहद लचर हैं. बच्चों की खरीद-फरोख्त करने वाले के खिलाफ इनमें से किसी भी कानून के तहत कार्रवाई की जा सकती है- भारतीय दंड संहिता, बालश्रम विरोधी कानून, जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट और बंधुआ मजदूर कानून. हालांकि इन कानूनों के तहत छह महीने तक की जेल की सजा का प्रावधान है, लेकिन जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट को छोड़कर बाकी मामलों में जमानत हो सकती है. जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट भी सिर्फ दिल्ली में ही गैरजमानती है. अगर आरोपित पर बालश्रम विरोधी कानून के तहत कार्रवाई होती है तो उसके ऊपर प्रति बालक 20,000 रुपए का जुर्माना लगाने का प्रावधान है. यह रकम उस कोष में जमा हो जाती है जिसका उपयोग छुड़ाए गए बच्चों की 18 साल की उम्र तक देखरेख के लिए किया जाता है. अगर आरोपित को बंधुआ मजदूर कानून के तहत गिरफ्तार किया जाता है तो उसे बच्चों के मां-बाप को तत्काल ही 20,000 रुपए देने पड़ते हैं. साफ है कि ये सभी कानून बाल तस्करी रोकने के लिए नाकाफी हैं.

लेकिन सबसे दुखद पहलू अभी बाकी है. तस्करी किए गए इन बच्चों की कहानी का सबसे बुरा पहलू है इनका यौन शोषण. दक्षिणी दिल्ली के मुसलिम बहुल इलाके जामिया नगर की संकरी गलियों में मदरसों की एक पूरी शृंखला है जो महज नाम के लिए मदरसे हैं. ये दरअसल इन इलाकों में मौजूद अनगिनत जरी और कढ़ाई की दुकानों में काम करने वाले बच्चों की आपूर्ति के केंद्र जैसे हैं (इस धंधे में बच्चों को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि उनकी पतली और फुर्तीली उंगलियों से काम तेजी और आसानी से होता है).
12 वर्षीय सद्दाम चार साल पहले उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर से पढ़ाई के लिए तर्तुल कुरान जामिया मदरसा (बटला हाउस के पास) आया था. यह मदरसा देवबंद से जुड़ा हुआ है. इस मदरसे में सद्दाम हर रविवार को दो घंटे शरीयत की पढ़ाई करता है. सप्ताह के बाकी दिन वह एक जरी फैक्टरी में सुबह 7 बजे से रात के 12 बजे तक काम करता है. शुरुआत में सद्दाम ने खुद पर हो रही ज्यादती का विरोध किया. वह बताता है, ‘सेठ ने मुझसे कपड़े उतारने के लिए कहा और मेरे साथ गलत काम किया. जब उसने यह बात मदरसे के मौलवी शाह अहमद नूरानी को बताई तो उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘मजा आया?’

यह सद्दाम की बेबसी का मजाक था. इस सदमे को बर्दाश्त करने के लिए वह लिक्विड जूता पॉलिश सूंघने लगा. सड़कों पर रहने वाले गरीब बच्चों के बीच नशाखोरी के लिए इसका इस्तेमाल आम बात है. सद्दाम कहता है, ‘इससे मुझे राहत मिलती थी. मैं इससे जोश महसूस करता था.’ वह आज तक एक बार भी घर नहीं गया है. कैसे जाए, इतने पैसे ही नहीं होते. उसने एक बार फैक्टरी से भागने की कोशिश भी की लेकिन उसे पकड़ लिया गया और अगले दो दिन तक जंजीरों से बांधकर रखा गया. सद्दाम कहता है कि वह फिर से भागने की कोशिश करेगा.

जब तहलका इस बात की पुष्टि करने के लिए मदरसा पहुंचा तो मदरसे के प्रमुख मौलवी हसन अबरार ने यह कहते हुए हमसे बात करने से इनकार कर दिया कि हम मदरसे की छवि और इस्लाम को बदनाम करना चाहते हैं.

खुशकिस्मती से समुदाय के दूसरे बुजुर्ग इतने अड़ियल नहीं हैं. तहलका ने इस संबंध में दारुल इफ्ता उलूम देवबंद के प्रमुख मुफ्ती हबीबुर रहमान से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि मदरसा बाल श्रमिकों की आपूर्ति कर रहा है. उनका कहना था, ‘अगर ऐसा हो रहा है तो हम इसकी पुरजोर मजम्मत करते हैं. यह गुनाह है.’

देश भर की मस्जिदों के इमामों की संस्था अखिल भारतीय इमाम संगठन के अध्यक्ष जनाब अल-हाज हजरत मौलाना जमील अहमद इलियासी और भी कड़ा रुख दिखाते हुए कहते हैं, ‘ये वक्त की जरूरत है कि मदरसे मुसलिम समुदाय की तरक्की और उसे रास्ता दिखाने में अहम भूमिका निभाएं. उनके काम ऐसे हों जिनसे मुसलमान आपसी भाईचारे और इंसानियत की बातें सी

राजनीति के आसमान पर जमीन

बंद्योपाध्याय भूमि सुधार आयोग बनाने के बाद नीतीश सरकार उस रिपोर्ट से किनारा तो कर चुकी है लेकिन इसने बिहार में चंपारण से लेकर बोधगया तक भूमि के सवाल पर खामोश लेकिन एक बेहद धारदार आंदोलन की शुरुआत कर दी है, निराला की रिपोर्ट

फुलकली देवी बहुत विनम्रता से ठेठ-गंवई अंदाज में परनाम बोलती हैं. फिर तुरंत घर की बात बताने लगती हैं कि उनके कितने बबुआ हैं और कितनी बबी यानी बेटी. ठेठ भोजपुरी में ही यह भी बताती हैं कि वे घास काटने गई थीं इसलिए आने में थोड़ा विलंब हो गया. कुछ पल के लिए तो लगता है कि शायद सही फुलकली से बात नहीं हो रही!

पिछले कुछ वर्षों में यहां नये भूपतियों का तेजी से उदय हुआ है, जो जमींदारों के वंशज नहीं बल्कि नवधनाढ्य राजनीति की उपज हैं और हर दल में हैंबात बदलते हुए पूछता हूं कि जमीन के कब्जे का क्या हुआ, क्या लड़ाई जीतने की कोई गुंजाइश है? इस एक सवाल के बाद उनका स्वर बदलता है. फिर जो जवाब मिलते हैं उनसे सारी शंका-आशंका मिट जाती है. फुलकली लगभग दहाड़ने के से अंदाज में बोलती हैं, ‘बबुआन लोगों का पसेना (पसीना) छोड़ा देंगे. हमको धमकी देते हैं कि मार देंगे-मुआ देंगे. मार दें-मुआ दें लेकिन जमीन पर कब्जा तो देना ही होगा. कइसे नहीं देंगे. कोई खैराती थोड़े न मांग रहे हैं! परचा है हमारे पास तो कब्जा भी हमारा ही होगा.’

फुलकली का बबुआन से इशारा चंपारण के भूस्वामियों की ओर होता है और परचे से उनका मतलब बिहार भूमि सुधार (अधिकतम सीमा निर्धारण तथा अधिशेष भूमि अर्जन) कानून (लैंड सीलिंग ऐक्ट या हदबंदी कानून) के तहत भूमिहीनों को दी गई भूमि के परवाने से है. फुलकली चंपारण के मंगलपुर गांव की रहने वाली हैं. जाति से मुसहर. उम्र यही करीब 50 साल. परचाधारी संघर्षवाहिनी की अध्यक्ष हैं. रतवल, रायबरी, महुअवा, चिड़िहरवा, बनकटवा, तुरहापट्टी, मंगलपुर जैसे कई गांवों के भूमिहीनों को गोलबंद करने वाली नेता. जब वह तिरंगा लेकर परचाधारी भूमिहीनों का नेतृत्व करते हुए जमीन पर कब्जे के लिए निकलती हैं तो सच में ही बडे़-बड़े जमींदारों के पसीने छूटने लगते हैं. इसी साल 26 जनवरी को रतवल गांव में फुलकली के नेतृत्व में जब सैकड़ों भूमिहीन मुसहर व अन्य पिछड़ी जाति के लोगों ने तिरंगा लेकर भूमि के कब्जे के लिए चढ़ाई की तो दशकों से चंपारण का बना-बनाया समीकरण देखते ही देखतेे भरभरा कर गिरने लगा था. यहां लगभग 400 एकड़ सरकारी जमीन पर बबुआनों का कब्जा था. ये जमींदार कसमसा कर रह गए. मजबूरी में ही सही, स्थानीय प्रशासन को करीब 300 परचाधारी परिवारों के बीच एक-एक एकड़ जमीन वितरित करनी पड़ी. चंपारण बिहार का वह इलाका है जहां गांधी जी ने 1917 में अपने आंदोलन की नींव रखी थी. चंपारण वह इलाका भी है जहां बिहार के बड़े-बड़े भूस्वामी वास करते रहे हैं. और अब चंपारण ही बिहार का वह इलाका भी है जहां समाज एक नई लड़ाई की अंगड़ाई ले रहा है. जमीन पर कब्जे की यह लड़ाई माओवादियों की तर्ज पर हरवे-हथियारों से लैस होकर लाल झंडा गाड़ने की नहीं है. 1974 के जेपी आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले और 1978 के बोधगया भूमि मुक्ति आंदोलन के अगुवा रहे पंकज जैसे समाजवादी कार्यकर्ता बहुत ही खामोशी से सत्याग्रह, उपवास और तिरंगे को हथियार बनाने की प्रेरणा देकर जमीन के लिए दलविहीन जमीनी नेता तैयार कर रहे हैं. असर यह है कि अब यहां फुलकली के साथ जब जिनिया, बियफी, जितेंद्र, संजय, गिरधारी, विनोद आदि अनपढ़, भूमिहीन और परंपरागत रूप से बंधुआ-सी जिंदगी गुजारने वाले किसानों की फौज तिरंगा लेकर निकलती है तो इलाके के बुजुर्ग बाशिंदों को गांधी जी का आंदोलन याद आ जाता है. अकेले पश्चिमी चंपारण में 35 हजार परचाधारी किसान गोलबंद हो गए हैं. 26 हजार एकड़ जमीन पर कब्जे की तैयारी है.

विपक्षी लालू प्रसाद, रामविलास पासवान हों या सत्ताधारी नीतीश कुमार और सुशील मोदी, भूमि के सवाल पर कोई भी खुलकर बोलने को तैयार नहीं

पश्चिम चंपारण के एक बड़े हिस्से में जिस तरह से भूमिहीनों का सत्याग्रही आंदोलन पिछले दो साल से चल रहा है, उसका असर तेजी से और साफ-साफ दिखने लगा है. सरकारी तंत्रों की मिलीभगत और खामोशी ने चंपारण में जिस आंदोलन की जमीन तैयार की उसकी धमक अब पूरे बिहार में सुनाई पड़ने लगी है. बिहार के अलग-अलग हिस्सों में फूलकलियों की फौज तैयार हो रही है. वर्षों से शांत पड़े और नासूर की तरह अंदर ही अंदर पक रहे जख्म को भूलवश या भविष्य की ठोस रणनीति के तहत, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भूमि सुधार आयोग बनाकर फिर से हरा कर दिया है.

बिहार में विधानसभा चुनाव सामने है. चुनावी मसला क्या होगा, तय नहीं है. विपक्षी लालू प्रसाद, रामविलास पासवान हों या सत्ताधारी नीतीश कुमार और सुशील मोदी, भूमि के सवाल पर कोई भी खुलकर बोलने को तैयार नहीं. संभव है राजधानी पटना में घूमते हुए जमीन का यह सवाल बेमानी-सा लगे, लेकिन मेटल रोड से उतरकर गांव-देहात में पहुंचते ही इसकी तपिश साफ महसूस होती है. लोगों के जेहन में अलग-अलग रूपों में भूमि का सवाल शामिल हो चुका है.

दरअसल, ठंडे बस्ते में पड़े मसले को बडे़ भूचाल का रूप बिहार में भूमि सुधार को सफल बनाने वाले देबब्रत बंद्योपाध्याय की अध्यक्षता में गठित भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट ने दिया है. डी बंद्योपाध्याय ने दो साल के अध्ययन, 15 जनसुनवाइयों और तमाम तकनीकी पेंचों के विस्तृत अध्ययन के बाद कुछ ऐसे सवाल उछाल दिए हैं, ऐसे निष्कर्ष दिए हैं जिन्होंने भूचाल ला दिया है. आयोग ने कहा है कि बिहार में भूदान और सीलिंग ऐक्ट वाली जमीन के अलावा जो गैरमजरुआ जमीन है उसका वितरण सरकार तुरंत करवाए. बिहार में भूमि विवाद की गहरी समझ रखने वाले और जनशक्ति पत्रिका के संपादक यूएन मिश्र, बंद्योपाध्याय  की रिपोर्ट और अन्य आंकड़ों का हवाला देते हुए बिहार में ऐसी करीब 21 लाख एकड़ जमीन के होने की बात कहते हैं. वे बताते हैं कि बिहार में जमीन का खेल कैसे-कैसे चलता रहा है. लाखों एकड़ जमीन को किस तरह और किस-किस किस्म के लोगों ने पीढ़ी दर पीढ़ी या तो अपने कब्जे में कर रखा है या चिरईं-चिरगुन से लेकर देवी-देवताओं के नाम कागजों में करवा रखा है.

अहम सवाल यह है कि क्या बिहार में कोई सरकार यह साहस दिखा पाएगी कि वह चिरईं-चिरगुन वाली जमीन को इनसान के नाम करवा दे या जबरिया कब्जे में फंसी जमीन को उसके वाजिब हकदारों को दिलवा दे. बिहार का इतिहास यही बताता है कि यह दुरूह कार्य है और कुछ हद तक नामुमकिन भी. भविष्य में क्या होगा, कुछ निश्चित नहीं है लेकिन फिलहाल बंद्योपाध्याय आयोग की रिपोर्ट से उपजी शंकाओं-आशंकाओं के साथ जगी उम्मीदों की गरमाहट ने बिहार के सामाजिक और राजनीतिक समीकरणों को पूरी तरह से चरमरा दिया है. सीलिंग ऐक्ट के तहत फाजिल जमीन का परचा-परवाना और उसकी कब्जेदारी, भूदान की जमीन पर हक और बंटाईदार बिल का मसला हर रोज किसी न किसी रूप में ग्रामीण चौपालों का प्रमुख विषय रहता है.

‘हमारे सामने इतनी जमीन परती छोड़ने से संकट तो होगा लेकिन क्या करें, हमारी भी मजबूरी है. फसल न सही, जमीन तो बची रहेगी. क्या पता किस रोज बिहार सरकार का मन बदले और बंटाईदार कानून लागू कर दे.’

औरंगाबाद जिले के महथू गांव में एक शाम गुजारने के बाद इसका एहसास बखूबी हो जाता है. यहां बहसबाज हर जगह अलग-अलग खेमे में बंटे नजर आते हैं, लेकिन ज्यादातर बात सिर्फ जमीन से जुड़े़ मसलों पर ही होती है. इस चौपाली-चर्चे को रोज ही खाद-पानी भी मिल रहा है. बेशक, बड़ी-बड़ी सभाएं नहीं हो रहीं, लेकिन पोस्टर, परचा और बुकलेट-वार पूरे बिहार में शुरू हो चुका है. भाकपा माले भूदान, बंटाईदार और हदबंदी आदि विषयों को केंद्र में रखकर पूरे बिहार में पुस्तिकाएं बांटने का काम कर रही है तो भाकपा की नेशनल काउंसिल के सदस्य एम जब्बार आलम ने एक लघु पुस्तिका भूमि सुधार आयोग का खुलासा शीर्षक से तैयार की है, जिसे गांव-देहात में वितरित किया जा रहा है. एक तीसरा खेमा नीतीश के पुराने संगी-साथियों यानी समाजवादियों का भी है जो चंपारण के आंदोलन को बौद्धिक रूप से खाद-पानी देकर उसे एक मुकम्मल मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश में है. समाजवादियों द्वारा ‘लोहिया आयोग रिपोर्ट-1950’ नाम की एक बुकलेट भी अब बिहार के ज्यादातर हिस्सों में पहुंच चुकी है, जिसमें चंपारण के किसानों की कंगाली से संबंधित व्यथा कथाओं का अध्ययन है.

रही-सही कसर महाराष्ट्र के बुजुर्ग समाजवादी नेता बाबूराव चंदावर ने तब पूरी कर दी जब वे कुछ समय पहले पटना में भूदान की जमीन के पेंच को सुलझाने की मांग के साथ भूख हड़ताल पर बैठ गए. द्वंद्व और दुविधा में फंसी राज्य सरकार को अंततः बाबूराव की हड़ताल खत्म करवाने के लिए झुकना पड़ा. बुजुर्ग बाबूराव बिहार सरकार से भूदान यज्ञ कमिटी को अधिक अधिकार देने, भूदान के तहत बंटी जमीनों का ‘म्यूटेशन’ कराने और संस्थाओं को दी गई भूदान की करीब 20 हजार एकड़ जमीन को जनता के बीच बांटने की मांग कर रहे थे. सरकार ने आश्वासन दिया है कि मार्च, 2011 तक मॉडल के तौर पर सुपौल जिले में इन मांगों को पूरा किया जाएगा. बाद में शेष बिहार में इसे लागू करेंगे. जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और बाबूराव चंदावरकर के अभियान में अहम भूमिका निभाने वाले चक्रवर्ती अशोक प्रियदर्शी कहते हैं, ‘यदि सुपौल में यह मॉडल सफल हो गया तो इससे पूरे बिहार के आंदोलनकारियों को एक आधार मिलेगा.’

प्रियदर्शी इन दिनों बिहार की भूमि समस्या पर अनुसंधान भी कर रहे हैं. वे कहते हैं कि नीतीश कुमार जितना ही द्वंद्व-दुविधा में रहेंगे, उसका उतना ही प्रतिकूल असर पड़ेगा. उनके पास तो एक बड़ा मौका है कि वह माहौल को अपने पक्ष में कर सकते हैं. बकौल प्रियदर्शी बिहार में करीब 20 लाख परिवार ऐसे हैं जिनके पास अपना घर तक नहीं. सरकार के पास साफ तौर पर सीलिंग और भूदान की इतनी चिह्नित जमीन है, जिसका बंटवारा कर देने से करीब 7 लाख भूमिहीन परिवारों को रोजगार का नया साधन मिल जाएगा. इन चिह्नित जमीनों में कोई ज्यादा पेंच भी नहीं है. प्रियदर्शी कहते हैं, ‘सात लाख परिवार का मतलब होता है औसतन 49 लाख आबादी को लाभान्वित करना. अगर वोट बैंक के हिसाब से इसे देखें तो 28 लाख मतदाताओं को अपने पक्ष में करना. आखिर महादलित की राजनीति जब नीतीश कर रहे हैं तो इस बंटवारे से अधिकतर महादलितों को ही लाभ होगा.’

प्रियदर्शी जितनी आसानी से बातों को कहते हैं, व्यावहारिक तौर पर बिहार में वह इतना आसान है नहीं. पिछले कुछ वर्षों में यहां नये भूपतियों का तेजी से उदय हुआ है, जो जमींदारों के वंशज नहीं बल्कि नवधनाढ्य राजनीति की उपज हैं. नए भूपति राजनीतिबाज हर दल में हैं, इसीलिए गरीबों के मसीहा लालू प्रसाद हों, दलित राजनीति करने वाले रामविलास पासवान या फिर सामाजिक न्याय की वकालत करने वाले नीतीश कुमार, कोई भी भूमि के सवाल पर खुलकर बोलने को तैयार नहीं क्योंकि इस पेंच में फंसने का मतलब होगा सबसे पहले अपने ही दल में बगावत का सामना करना. लेकिन दूसरी ओर पूरे बिहार में न सही, अपने प्रभाव वाले क्षेत्र में ही वामपंथी दल इस मसले को सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं. भाकपा माले के वरिष्ठ नेता रामजतन शर्मा कहते हैं, ‘नीतीश कुमार से भूमि सुधार आयोग बनवाने की मांग किसी ने नहीं की थी, उन्होंने खुद ही उसे बनवाया. अब जब रिपोर्ट आ गई है तो उसे लागू करने में वे पीछे हट रहे हैं, लेकिन अब उनके पीछे हटने से कुछ नहीं होगा. अब उन्हें जमीन का बंटवारा करना ही होगा, बंटाईदार कानून को जमीनी स्तर पर लागू करना ही होगा.’

बंटइया ने बांट डाला

पूर्णिया जिले के अकबरपुर के रहने वाले राघव मध्यम वर्ग किसान के बेटे हैं. राघव झारखंड की राजधानी रांची में निजी नौकरी करते हैं. उनके किसान पिता अस्वस्थता के कारण इस बार ज्यादा खेती-बाड़ी करने में असमर्थ थे. राघव ने पिता को समझा-बुझाकर करीब छह एकड़ जमीन को इस बार परती छोड़ दिया है. तीन पीढ़ी से उनकी जमीन पर खेती करने वाले रामायण कहते रहे कि आप निश्चिंत होकर खेत दीजिए, हम या हमारे परिवार को बंटाई-सटाई कानून से कोई लेना-देना नहीं. लेकिन ईमान, धरम, पीढि़यों के रिश्तों की दुहाई का कोई असर नहीं हुआ. राघव खेत को परती छोड़ निश्चिंत भाव से रांची नौकरी करने चले आए हैं. वे कहते हैं, ‘हमारे सामने इतनी जमीन परती छोड़ने से संकट तो होगा लेकिन क्या करें, हमारी भी मजबूरी है. फसल न सही, जमीन तो बची रहेगी. क्या पता किस रोज बिहार सरकार का मन बदले और बंटाईदार कानून लागू कर दे.’ राघव पढ़े-लिखे किसान हैं. उन्हें पता है कि बिहार में बंटाई कानून को लागू करना इतना आसान नहीं. सार्वजनिक तौर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वयं भी किसानों को बार-बार आश्वासन दे चुके हैं कि फिलहाल कोई नया बंटाईदार कानून नहीं बनने जा रहा, लेकिन बंद्योपाध्याय आयोग की रिपोर्ट के बाद यहां ऐसा कोरा भ्रमजाल बना है कि राघव की तरह बिहार के कई किसानों ने अपनी जमीन परती छोड़ दी है. पूर्णिया यूं भी बंटाई के बवाल का सबसे चर्चित इलाका रहा है. 1971 में इसी जिले में रुपसपुर-चंदवा नरसंहार कांड हुआ था जिसमें 14 बंटाईदार आदिवासी खेत मजूदर-किसान मार दिए गए थे. एक तरीके से रुपसपुर-चंदवा कांड ने बिहार में भूमि संघर्ष के नाम पर होने वाले नरसंहारों की बुनियाद रखी थी, जिसका विस्तार बाद में बेलछी कांड से लेकर लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के रूप में देखने को मिला. भूमि सेना, ब्रह्मर्षि सेना, लोरिक सेना, कुंवर सेना, रणबीर सेना, सनलाइट सेना आदि भूमि विवाद के गर्भ से ही निकले.

भूमि के मसले पर सबसे बड़ा पेंच और बवाल बंटाई को लेकर ही हैं. तहलका से बातचीत में बंद्योपाध्याय खुद कहते हैं, ‘बिहार में सबसे बड़ी चुनौती बंटाईदार कानून बनाने या लागू करने की है. यह हो जाए तो देखते ही देखते बिहार बदल जाएगा. बिहार की कई समस्याएं खत्म हो जाएंगी. सामाजिक तनाव में कमी आएगी, गरीबी-बेरोजगारी भी दूर होगी.’ वे यह भी जोड़ते हैं कि इसे यदि नीतीश लागू नहीं कर पाए तो फिर किसी दूसरे से इसकी उम्मीद करना बेमानी होगा.
बंद्योपाध्याय जितनी सहजता से इस कानून से बिहार की समस्याओं का समाधान देखते हैं, असल में वैसा भी नहीं है. अभी सिर्फ बंटाईदार कानून का जिन्न बाहर निकला है तो बिहार में भूचाल आ गया है, कानून बनेगा या लागू होगा तो पता नहीं क्या होगा. यह बंटाईदारी के भूचाल का ही असर है कि सूखे की मार झेल रहे बिहार के जिन खेतों में उपज की संभावना थी, उसका भी एक हिस्सा इस बार परती पड़ा हुआ है. बंटाइदारों को भूमालिक वर्षों से अपने खेत जोतने के लिए दिया करते थे जिससे दोनों के रिश्तों में पारिवारिक संबंध जैसी गरमाहट होती थी जो अब एक झटके में बिखरने लगा है. बटाईदार बदले जा रहे हैं. औरंगाबाद और जहानाबाद जिले की सीमा पर बसे गोह इलाके के गांवों में यह स्थिति साफ तौर पर देखी जा सकती है. इस इलाके के एक बड़े किसान अनिल चौबे कहते हैं, ‘पहले तो सब-कुछ शांत ही चल रहा था. लेकिन अब सब अशांत ही है.’ तीन बार विधान पार्षद रह चुके और अब पटना उच्च न्यायालय में वकालत करने वाले रमेश प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘इस बार बिहार में वैसे ही सूखे से पैदावार कम होनी थी. बंटाई के शोर से और भी ज्यादा कमेगा. इसका असर सामाजिक तनाव के साथ-साथ आने वाले दिनों में हिंसा और अपराध के रूप में भी देखने को मिलेगा.’ वे आगे कहते हैं, ‘पीढ़ी दर पीढ़ी से जो कमाने-जीने की व्यवस्था बनी हुई थी उसे नीतीश कुमार ने एक झटके में ढहा दिया है. उन्होंने भूमि सुधार नहीं, भूमि बिगाड़ आयोग का गठन किया था. छोटे-बड़े सभी किसानों के मन में यह भय घर कर गया है कि यदि बंटाईदारों को कानूनी मान्यता मिल जाएगी तो वह पुश्त दर पुश्त खेत को जोतने लगेगा. बंटाई जोतने वाला जमीन पर कर्ज भी लेने लगेगा और यदि इसे चुकता नहीं किया तो खेत मालिक को ही नुकसान उठाना पड़ेगा.’ वे आगे जोड़ते हैं कि यदि यह कानून लागू करने की कोशिश हुई तो बिहार हिंसा की उस आग में झुलसेगा कि उसे संभाल पाना संभव नहीं होगा. रमेश प्रसाद सिंह की तरह ही सोच रखने वाले बिहार में किसानों की एक बड़ी फौज मिलेगी, लेकिन बंद्योपाध्याय ऐसी हर आशंका को खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ‘ऐसा कुछ नहीं होगा बल्कि बिहार में अराजकता और हिंसा को खत्म करने का सबसे कारगर औजार साबित होगा बंटाईदार कानून का बनना और उसका लागू होना.’

बंद्योपाध्याय की बातों से सहमति जताते हुए एम जब्बार आलम कहते हैं, ‘सीलिंग, भूदान और गैरमजरुआ जमीनों पर भूमाफियाओं का कब्जा बना रहे, इसके लिए सारी बहस को बंटाईदार पर समेटा जा रहा है.’ वह सवाल पूछते हैं, ‘जिस बिहार में 30-35 प्रतिशत खेती-किसानी पूरी तरह से बंटाई व्यवस्था पर ही निर्भर है, उसे लेकर कोई कानून, कोई तंत्र नहीं होना चाहिए? अगर बंद्योपाध्याय ने गलत सुझाव दिए हैं तो नीतीश उनमें संशोधन करने के लिए स्वतंत्र हैं. वे संशोधन करने के लिए तैयार हों, सर्वदलीय सहमति से कोई तो नया कानून बने. लेकिन चुप्पी साध लेने से तो समस्या बढ़ेगी ही.’
बिहार के राजस्व एवं भूसुधार मंत्री नरेंद्र नारायण यादव कहते हैं, ‘कहीं कोई भ्रम नहीं है. हम बटाईदारी को लेकर न तो कोई नया कानून बनाने जा रहे हैं न कोई और नई कवायद ही हो रही है तो फिर भ्रम क्यों रहेगा किसी के मन में?’ नारायण यादव कहते हैं, ‘बिहार पूरी तरह से शांत है, यह सब कोरा भ्रम कुछ लोग फालतू में फैला रहे हैं. हम बोलने से तो किसी को रोक नहीं सकते लेकिन मुख्यमंत्री जब खुद बार-बार कह चुके हैं तो किसानों को निश्चिंत रहना चाहिए.’ नारायण यादव सही कहते हैं. चुनाव सामने है. नीतीश ऐसी कोई भी भूल नहीं करना चाहेंगे लेकिन नीतीश विरोधियों ने इस मसले को हर स्तर पर खाद-पानी देकर हरा-भरा बनाने की कोशिश की है.

आगे नतीजा जो भी हो फिलहाल बंटाईदारी का जिन्न बिहार के खेतों से उड़कर राजनीतिबाजों के कंधे पर आ गया है. यह अब खेती किसानी का कम और राजनीति का मसला ज्यादा है. इसी साल मई में पटना के गांधी मैदान में जब बंद्योपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट के खिलाफ राज्य के बड़े भूस्वामियों की ‘किसान महापंचायत’ हो रही थी तो ठीक उसी वक्त पटना जंक्शन गोलंबर पर किसान और खेतमजदूर भी अपनी सभा में आयोग की रिपोर्ट लागू कराने के लिए आर-पार की लड़ाई छेड़ने का एलान कर रहे थे. ऐसा लग रहा था मानो भूस्वामियों और जोतदारों का राजनीतिक बंटवारा हो गया हो. दरअसल, बिहार की राजनीति हमेशा से जमीन के मसले को अटकाकर रखती आई है. इस बार भी वही हो रहा है. बिहार के ‘राजनीतिबाज’ नहीं चाहते कि जमीन का मसला निपट जाए, क्योंकि तब उनके पास आम लोगों को बरगलाने के लिए क्या रह जाएगा. जमीन का असमान वितरण ही इस विवाद की जड़ में है. 10 प्रतिशत बडे़ भूस्वामियों के पास 90 प्रतिशत जमीन है, जाहिर तौर पर बंटाईदारी से ही ये भूस्वामी अपनी फसल ले पाते हैं. राजनीति करने वालों का एक बड़ा वर्ग नया या पुराना जमींदार भी है,  उनके अपने हित हैं जो बंद्योपाध्याय कमिटी की रिपोर्ट के राजनीतिक विरोध के लिए उन्हें मजबूर करते हैं. 

दबंग : यह श्रद्धांजलि है, जश्न नहीं

फिल्म  दबंग

निर्देशक अभिनव सिंह कश्यप

कलाकार सलमान खान, सोनाक्षी सिन्हा, अरबाज खान

दबंग कितनी देखी जा रही है, यह बताने की जरूरत नहीं है. एक वर्ग है जो ऐसी फिल्मों से सिर्फ इसीलिए खुश है क्योंकि छोटे शहरों के सिनेमाघरों में इनसे फिर रौनक लौटती है. कुछ उत्साही समीक्षकों के लिए वांटेड, गजनी और दबंग भदेस हिन्दुस्तानी हीरो की वापसी की फिल्में हैं जो हर वाक्य में अंग्रेजी के शब्द नहीं झाड़ता और जिसकी फाइटिंग में मर्दों वाली बात है. वही पुराना फिल्मी हीरो जिससे पूरे हिन्दुस्तान को अपनापन लगता है.

यह आसान सी बात खासी हैरत की भी है. लोग उससे अपने आपको ज्यादा रिलेट करते हैं जिसकी हड्डियां शायद फौलाद की बनी हैं और जिसे देखते हुए बचपन में कॉमिक्सों में पढ़े डोगा और नागराज के कारनामे ज्यादा याद आते हैं. हां, दबंग का चुलबुल पांडेय उन्हीं कॉमिक्सों के नायकों की तरह अपने गांव कस्बे के भले के लिए कई हजार लोगों को अकेले मार सकता है. उसके पास बड़ी पुलिस फोर्स है जो उसके साथ युद्धभूमि में जाती भी है, लेकिन उसे उसकी जरूरत नहीं. वह पहले बारी बारी से खलनायक के पचास-सौ साथियों को मारेगा और फिर खलनायक को अकेले. वह भारतीय मसाला फिल्मों का महानायक है, जिसे एक दौर में बॉलीवुड के नब्बे फीसदी नायकों ने जिया है. लेकिन वह सुपरहिट अचानक होने लगा है. इसकी वजह उसका गायब हो जाना और फिर यही वापसी ही है. दबंग एक जॉनर है. उसे सिर्फ एक्शन या ड्रामा फिल्म नहीं कहा जा सकता. वह मसाला जॉनर है, जिसमें एक्शन के चार लम्बे सीक्वेंस हैं जिनके परिणाम आपको शुरु से पता होते हैं, उसमें ओवरएक्टिंग करती एक मां है (समझ नहीं आता कि डिम्पल कपाड़िया वैसी एक्टिंग जानबूझकर हंसाने के लिए करती हैं या ऐसा ही उनसे हो पाया है), दो सौतेले भाई हैं, एक को ज्यादा चाहने वाला पिता है, एक लड़की है जिसका किरदार इतना पैसिव है कि उसे प्यार से गोद में उठाकर घर लाया जाए या जानवर की तरह हांककर, वह दोनों ही स्थितियों में हीरो से बराबर प्यार करेगी, असल में उसका जन्म ही इसीलिए हुआ है. आखिर में हैप्पी एंडिंग भी है, जिसमें हीरो का परिवार सकुशल है और सब लड़कियां अपने अपने मालिकों के पास हैं. वे सबकी सब अपने पतियों के लिए मुन्नी हैं, जो बदनाम नहीं हुई हैं. जो मुन्नी बदनाम हुई है, वह हिन्दी फिल्मों की महान मुजरा परंपरा के उत्सव की तरह आती है और दुनियादारी को गोली मारते हुए आनंदित करती है.

सलमान खान रजनीकांत हो गए हैं और दबंग उस जॉनर की फिल्म है, जिससे हिन्दी सिनेमा इतना दूर चला आया है कि ये फिल्में अब उस याद को संग्रहालय में देखने की तरह आती हैं. उसे आदर देती और हंसती हुई. गंभीर और अर्थवान सिनेमा को ये फिल्में डरा सकती हैं लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि यह किसी विलुप्त हो चुके विषय की वापसी नहीं है. यह दरअसल श्रद्धांजलि है. और मरने के बाद तो दुश्मन को भी बुरा नहीं बताना चाहिए.

गौरव सोलंकी

कुछ काम भी आई सीबीआई?

सबसे स्वस्थ वे समाज होते हैं जो किसी भी प्रकार की जांच-परख से जरा भी भयभीत नहीं होते, मामलों की तह तक पहुंचना जिनकी मानसिकता का एक हिस्सा होता है और जो इस उद्देश्य की पूर्ति के उपकरणों की व्यवस्था करने से जरा भी नहीं हिचकते. ऐसा ही एक उपकरण केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई है जिसकी स्थापना भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के उद्देश्य से 1963 में की गई थी. आज 47 साल के बाद स्थिति जस की तस है. आज के भारत में बदलाव की, सुधार की उम्मीद के हरकारों की बात करें तो इनमें सबसे पहला नाम सीबीआई का होना चाहिए था. इसकी वजह से, जिनमें जरूरी है उनमें भय और हममें न्याय की लड़ाई के प्रति विश्वास का संचार होना चाहिए था.

मगर सीबीआई की वर्तमान स्थिति दोनों में से कुछ भी नहीं कर पाती. वैधानिक रूप से सीबीआई देश के कार्मिक मंत्रालय से संबद्ध संस्था है जो सीधे देश के प्रधानमंत्री के अधीन आती है. इसे अपने कार्य के लिए जरूरी शक्तियां दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना कानून, 1946 के तहत जारी एक प्रस्ताव से मिलती हैं. इसके मुताबिक संघीय क्षेत्र सीधे तौर पर सीबीआई के अधिकार क्षेत्र में आते हेँ. मगर राज्यों में किसी जनसेवक की जांच और उसके ऊपर कार्रवाई के लिए उसे राज्य सरकार की अनुमति की आवश्यकता होती है. यहां तक कि सीबीआई अपने अधीन रहे मामलों को लेकर भी खुदमुख्तार नहीं है. वह अपने आप सर्वोच्च अदालत में विशेष अनुमति याचिका तक दायर नहीं कर सकती. उदाहरण के तौर पर, एक विशेष सीबीआई अदालत ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में लालू प्रसाद यादव को बरी कर दिया. सीबीआई कहती है कि उसके पास उनके खिलाफ और तमाम मजबूत साक्ष्य हैं. मगर विधि मंत्रालय ने उसे याचिका दायर करने की अनुमति ही नहीं दी. इसके अलावा सीबीआई संयुक्त सचिव से ऊपर के स्तर के किसी भी सरकारी अधिकारी के खिलाफ जांच की कार्रवाई शुरू नहीं कर सकती. ऐसा करने के लिए उसे केंद्र सरकार की अनुमति की आवश्यकता होती है. वर्तमान में ऐसे कम से कम 30 प्रार्थनापत्र सरकार के पास लंबित पड़े हुए हैं.

यहां तक कि मुकदमा चलाने के लिए भी सीबीआई को केंद्र सरकार का मुंह ताकना पड़ता है. देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी का कोई अधिकारी बिना केंद्र सरकार की अनुमति के देश से बाहर जांच के लिए नहीं जा सकता जबकि आज के वैश्विक गांव वाले वातावरण में कदम-कदम पर ऐसी आवश्यकताएं आन खड़ी होना कोई बड़ी बात नहीं. देश के सबसे चर्चित मामलों में से एक में सीबीआई को ओत्तावियो क्वात्रोकी के पीछे जाना था. विधि मंत्रालय ने इस मामले को ही बंद करवा दिया. क्वात्रोकी निकल गया.

संभवतः इसी सत्र में लोकसभा सीबीआई की भूमिका पर चर्चा करने वाली है क्योंकि इसके एक सदस्य ने निजी तौर पर ऐसा करने के लिए एक कदम उठाया है. ‘सीबीआई का होना ही कानूनन सही नहीं है. मैं अपने निजी विधेयक के माध्यम से एक बीज बो रहा हूं. हो सकता है कि कुछ सालों में इससे कोई फल निकल आए’, कांग्रेस प्रवक्ता और लुधियाना से सांसद मनीष तिवारी कहते हैं. सवाल उठता है कि अपने देश की सर्वोच्च जांच संस्था के नाम पर हम हर तरह की जंजीरों में गले तक जकड़ी, बात-बात पर कभी इस तो कभी उसका मुंह ताकने को मजबूर संस्था को कैसे स्वीकार कर सकते हैं. हम कड़वी लेकिन स्वस्थ लोकतंत्र और समाज के लिए जरूरी सच्चाइयों को घर के पिछवाड़े दफन कर अपने साथ सब-कुछ सही होने की उम्मीदें कैसे पाल सकते हैं? 30 करोड़ की आबादी वाले अमेरिका की संघीय जांच संस्था(एफबीआई) के बजट की तुलना सीबीआई से करने की सोचना भी पाप होगा. वह काफी हद तक स्वतंत्र भी है और इसीलिए दुनिया भर में प्रतिष्ठित है. मगर हमने सीबीआई को, जब कर सकते हैं तब अपने पक्ष में और विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए, किसी लायक नहीं छोड़ा. 50 सवालों के जरिए किया गया तहलका का यह आकलन भी इसी बात की पुष्टि करता है.

50.

गुजरात फर्जी मुठभेड़

सीबीआई ने अभय चुडासमा के खिलाफ मिल रही शिकायतों पर एक लंबे समय तक गौर क्यों नहीं किया?

सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में कथित तौर पर शामिल होने के आरोप में अहमदाबाद के भूतपूर्व डीसीपी (क्राइम ब्रांच) अभय चुडासमा को इस साल अप्रैल में गिरफ्तार किया गया था. एक लंबे समय तक जांच एजेंसी को चुडासमा के खिलाफ शिकायतें मिलती रही थीं मगर वह बैठी रही. चुडासमा पर उद्योगपतियों और बिल्डरों से जबरन-वसूली के लिए एक बहुत बड़ा रैकेट चलाने, इसके लिए सोहराबुद्दीन को इस्तेमाल करने का आरोप है. 23 जुलाई को सीबीआई ने अहमदाबाद में एक विशेष अदालत में एक आरोप-पत्र दाखिल किया जिसमें चुडासमा समेत कुल 15 लोगों पर अपहरण, आपराधिक षडयंत्र और हत्या जैसे गंभीर आरोप लगाए गए थे. गौरतलब है कि चुडासमा गुजरात के भूतपूर्व गृह राज्यमंत्री अमित शाह के भरोसेमंद पुलिस अफसर थे.

49.

इस पूरे मामले की जांच प्रक्रिया को गुमराह करने वाले पुलिस अफसर गीता जौहरी और ओपी माथुर को न तो हिरासत में लिया गया और न ही उनके बयान दर्ज किए गए, क्यों?

सीबीआई से पहले गुजरात पुलिस का विशेष जांच दल इस मामले की जांच कर रहा था. गीता जौहरी तब राज्य की पुलिस महानिरीक्षक थीं और ओपी माथुर सीआईडी (अपराध) के मुखिया. िफलहाल ये दोनों अफसर संदेह के घेरे में हैं. जौहरी को तो ठीक से जांच न करने के लिए अदालत से फटकार भी पड़ी. अब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके आरोप लगाया है कि सीबीआई उन पर नेताओं का नाम लेने के लिए दबाव डाल रही है.

48. 

सोहराबुद्दीन हत्याकांड

सीबीआई ने राजस्थान के पूर्व गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया से गहन पूछताछ क्यों नहीं की जबकि सोहराबुद्दीन हत्याकांड में उनकी कथित संलिप्तता की चर्चा है?
खबरों के मुताबिक सोहराबुद्दीन केस में सीबीआई के अहम गवाह आजम खान ने बताया कि राजस्थान की एक फर्म, राजस्थान मार्बल्स ने सोहराबुद्दीन को खत्म करवाने के लिए गुलाब चंद कटारिया को 10 करोड़ रुपए दिए थे.

 

 

47.

क्या हमारी जांच एजेंसी राजनेताओं की मिलीभगत से आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देने वाले पुलिस अफसरों पर नकेल कसने में विफल नहीं रही है?

नवंबर, 2005 में हुए सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर मामले का अकेला चश्मदीद गवाह प्रजापति एक मुठभेड़ में करीब एक साल बाद दिसंबर, 2006 में मारा गया था. गुजरात सीआईडी द्वारा अब जाकर इस साल 30 जुलाई को बनासकांठा की एक अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया गया. इसमें तीन आईपीएस अफसर डीजी वंजारा, विपुल अग्रवाल और एमएन दिनेश को मुख्य अभियुक्त ठहराया गया था. वंजारा और दिनेश पिछले तीन साल से पुलिस हिरासत में हैं. राजस्थान कैडर के आईपीएस दिनेश को जब 2007 में गिरफ्तार किया गया तो राजस्थान के तत्कालीन गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया और पुलिस महानिदेशक इस मामले में हस्तक्षेप करने गुजरात तक पहुंच गए थे.

 

46.

हरेन पंड्या हत्याकांड

सीबीआई अब तक मुफ्ति सुफियान का पता क्यों नहीं लगा पाई है?
 
गुजरात के पूर्व गृहमंत्री पंड्या की हत्या गन-मैन अशगर अली ने मुफ्ति सुफियान के इशारे पर की थी. आरोप लगे कि इस हत्या के पीछे मोदी और अमित शाह का हाथ था क्योंकि पंड्या ने एलिसब्रिज सीट खाली न करके और 2002 में हुए दंगों की जांच कर रही न्यायधीशों की एक टीम के सामने उपस्थित होकर मोदी को खुलेआम चुनौती दी थी. उसी समय युवा मुसलमान नेता सुफियान अहमदाबाद की लाल मस्जिद से उत्तेजक भाषण देते हुए कट्टरपंथियों के बीच लोकप्रिय हो रहा था. 2002 के दंगे के बाद वह पहले से भी ज्यादा कट्टरपंथी हो गया था. नमाज खत्म होने के बाद सुफियान अकसर उन्मादी भाषण दिया करता था. कहा जाता है कि उसके तार अहमदाबाद अंडरवर्ल्ड से जुड़े थे.

45.

सीबीआई का आरोप पत्र यह क्यों नहीं बताता कि मुठभेड़ के छह दिन बाद सुफियान देश से बाहर भागने में कैसे सफल हो गया?

44.

मामले की जांच कर रहे अफसरों के तबादले में नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सीबीआई ने मुख्यमंत्री से पूछताछ क्यों नहीं की?

43.

सुफियान को पकड़ने के लिए इंटरपोल से मदद क्यों नहीं ली गई?

42.

सीबीआई ने तुलसी प्रजापित हत्याकांड में जांच करके आरोपितों को क्यॊं नहीं पकड़ा जबकि उच्चतम न्यायालय ने उसे इस संबंध में निर्देश दिया था?

41.

प्रजापित मामले की सुनवाई टलने से सीआईडी को आरोपी अधिकारियों को हिरासत में लेने का वक्त मिल गया है. सीबीआई ने जांच शुरू कर दी होती तो इस स्थिति से बचा नहीं जा सकता था ?

40.

क्या सीबीआई उस समय सत्तारूढ़ बीजेपी के निर्देशों पर नहीं चल रही थी, जैसा कि हरेन पंड्या के पिता विट्ठल पंड्या का आरोप है?

रिपोर्टों के मुताबिक पंड्या की हत्या को उनके पिता विट्ठल पंड्या ने राजनीतिक षड्यंत्र बताया और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी उंगली उठाई थी. हालांकि बाद में सीबीआई ने कहा कि मोदी के हत्याकांड से जुड़े होने का कोई सबूत नहीं मिला है. मुख्य हत्यारा अशगर अली बाद में हैदराबाद से गिरफ्तार किया गया. सीबीआई के मुताबिक अशगर को पंड्या की हत्या की सुपारी मुफ्ति सुफियान ने दी थी. विट्ठल पंड्या ने गोधरा जांच समिति के सामने बयान दिया कि हरेन पंड्या के कहे अनुसार 2002 में हुआ दंगा राज्य के द्वारा प्रायोजित और मोदी द्वारा नियोजित था.

39.

मायावती : आय से अधिक संपत्ति का मामला

इसी साल 28 अप्रैल को मायावती ने संसद में कटौती प्रस्ताव का समर्थन करके यूपीए सरकार को गिरने से बचाया. एक हफ्ते के भीतर ही आयकर विभाग ने आय से अधिक संपत्ति मामले में उन्हें क्लीन चिट दे दी. जब सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि वह मायावती के खिलाफ मुकदमा चलाने को तैयार है तो फिर वह पीछे क्यों हट गई?

2003 में मायावती की कुल संपत्ति एक करोड़ रुपए थी लेकिन तीन ही साल में यह पचास करोड़ रुपए हो गई यानी पचास गुना बढ़ोतरी. सीबीआई ने इसे आधार बनाकर उन पर मामला दर्ज किया था. मायावती की कई बेनामी जमीन-जायदाद के बारे में जांच करने के बाद ब्यूरो ने दावा किया था कि वह कार्रवाई करने को तैयार है. लेकिन आज तक आरोप पत्र दाखिल नहीं किया जा सका.

38.

ताज कॉरिडोर मामला

यदि इस मामले की जांच का कोई नतीजा नहीं निकला तो क्या सीबीआई इससे जुड़ी केस डायरियां सार्वजनिक करेगी?

2002 में मायावती की पहल पर ताजमहल के आसपास पर्यटक सुविधाएं विकसित करने के लिए 175 करोड़ रुपए की परियोजना की शुरुआत हुई. सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि 74 करोड़ रुपए खर्च होने तक निर्माण स्थल पर सिर्फ पत्थर फिंकवाने का काम हुआ था.

37.

आय से अधिक संपत्ति के मामले में 6 साल बाद भी मायावती के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल क्यों नहीं किया गया?

36.

राज्यपाल ने सीबीआई को मायावती पर मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी थी. क्या दोबारा उनसे मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी गई?

35.

जम्मू-कश्मीर सेक्स कांड

क्या उमर अब्दुल्ला 2006 के सेक्स प्रकरण मामले में आरोपित हैं?

2006 में पुलिस को कश्मीरी औरतों का यौन शोषण दर्शाती कुछ वीसीडी मिली थीं. पीडीपी ने इस घटना के बाद आरोप लगाया था कि सीबीआई के आरोप पत्र में राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का नाम भी है.

34.

सीबीआई आरोप पत्र दाखिल करने में इतना वक्त क्यों लगा रही है?

33.

इस मामले में गिरफ्तार किए गए पुलिस अधिकारियों को क्यों छूट जाने दिया गया?

32.

मिसाइल घोटाला

2006 में एफआईआर दर्ज करने के बाद दो साल तक सीबीआई ने जॉर्ज फर्नांडीस से पूछताछ क्यों नहीं की?

2000 में भारत ने इजरायल से बराक मिसाइलें खरीदी थीं. सौदे में कथित गड़बड़ी के लिए सीबीआई ने फर्नांडीस के खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी. फर्नांडीस का दावा था कि तब रक्षामंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार रहे डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने सौदे को मंजूरी दी थी. सौदे में दो करोड़ की रिश्वत का आरोप है.

31.

जूदेव रिश्वत मामला

सीबीआई दिलीप सिंह जूदेव रिश्वत कांड में ढीली क्यों पड़ गई?

केंद्र में भाजपा नेतृत्व वाली सरकार के मंत्री जूदेव कैमरे के सामने रिश्वत लेते पकड़े गए. 2005 में सीबीआई ने कहा कि इस स्टिंग ऑपरेशन के पीछे छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के बेटे अमित का हाथ है.

30.

मुलायम सिंह : आय से अधिक संपत्ति का मामला

आखिर क्या वजह थी कि सीबीआई ने 2007 में मुलायम सिंह यादव के खिलाफ कार्रवाई आगे नहीं बढ़ाई और क्यों कार्रवाई रिपोर्ट अदालत में जमा करने से पहले केंद्र को भेजी गई?

ब्यूरो ने अपनी प्राथमिक रिपोर्ट अक्टूबर, 2007 में दाखिल करते हुए दावा किया था कि उसके पास मुलायम सिंह पर मामला दर्ज करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं.

29.

2009 में सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में मुलायम और उनके परिवार के खिलाफ केस दायर करने की अपनी अर्जी को वापस लेने की याचिका दी. क्यों?

क्या यह जुलाई, 2008 में वामदलों के केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद  समाजवादी पार्टी द्वारा केंद्र को समर्थन देने का पुरस्कार था?

28.

लालू-राबड़ी देवी : आय से अधिक संपत्ति का मामला

बिहार के इन दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों के खिलाफ पुख्ता सबूत होने के दावे के बावजूद सीबीआई जांच प्रक्रिया आगे क्यों नहीं बढ़ा रही?

2004 में सीबीआई ने इस मामले में सालों से चल रही जांच को किनारे कर दिया और यूपीए सरकार के लिए लालू प्रसाद और राबड़ी देवी को फायदा पहुंचाने का रास्ता तैयार कर दिया. 2006 में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने दोनों को बरी कर दिया, लेकिन सीबीआई मामले को हाई कोर्ट नहीं ले गई.

27.

ओपी चौटाला : आय से अधिक संपत्ति का मामला

आरोप है कि सीबीआई ने ओमप्रकाश चौटाला के खिलाफ कार्रवाई तब शुरू की जब वे यूपीए सरकार के लिए राजनीतिक रूप से गैरजरूरी हो गए.

हरियाणा के पांच बार मुख्यमंत्री रह चुके चौटाला के खिलाफ सीबीआई ने अज्ञात स्रोतों से कथित छह करोड़ रुपए अर्जित करने के मामले में आरोप पत्र दाखिल किया था. आरोप पत्र विधानसभा अध्यक्ष की अनुमति मिलने के बाद दाखिल किया गया था.

26.

सीके जाफर शरीफ : आय से अधिक संपत्ति का मामला

पूर्व मंत्री सीके जाफर शरीफ के खिलाफ प्रथमदृष्टया मामला दर्ज करने के बाद भी सीबीआई को आगे बढ़ने की अनुमति क्यों नहीं मिली?

सीबीआई ने 1997 में सीके जाफर शरीफ के खिलाफ पद के दुरुपयोग और आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज किया था. लेकिन 2006 में उसने मामला बंद करने की अर्जी दे दी क्योंकि केंद्र से उसे आगे जांच की अनुमति नहीं मिली.

25.

एनडीए शासनकाल में लालू प्रसाद के खिलाफ सीबीआई ने काफी सक्रियता दिखाई थी, लेकिन यूपीए सरकार बनने के बाद इस मामले में ब्यूरो की रफ्तार सुस्त क्यों पड़ गई?

24.

विशेष अदालत में लालू के खिलाफ मामला खारिज हो जाने के बाद सीबीआई हाई कोर्ट क्यों नहीं गई?

23.

सीबीआई ने पप्पू यादव की जमानत याचिका के खिलाफ कार्रवाई करने में देर क्यों लगाई?

22.

जयललिता ‘उपहार’  मामला

क्या जयललिता मामले को सीबीआई बिलकुल भूल चुकी है?

सीबीआई के मुताबिक तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री को विदेश से तीन करोड़ रुपए का ‘डोनेशन’ मिला था, जिसे उन्होंने 1992-93 के दौरान इनकम टैक्स रिटर्न दाखिल करते समय अपनी आय के रूप में दर्शाया. जब एचडी देवगौड़ा सरकार में तमिल मनीला कांग्रेस के पी चिदंबरम वित्तमंत्री थे तब उन्होंने सीबीआई प्रमुख जोगिंदर सिंह से ‘डोनेशन’ देने वाले की पहचान पता करने की बात कही थी. सिंह ने इस पर कार्रवाई भी शुरू की, लेकिन जांच आज भी बेनतीजा जारी है.

21.

भविष्यनिधि घोटाला

तकरीबन दो साल तक जांच के बाद सीबीआई आज भी दावा कर रही है कि जजों के खिलाफ मामला चलाने के लिए उसके पास पर्याप्त सबूत नहीं हैं, आखिर इसकी क्या वजह है?

अप्रैल, 2010  में सीबीआई ने सर्वोच्च न्यायालय में करोड़ों रुपए के भविष्यनिधि घोटाले से संबंधित जांच की स्टेटस रिपोर्ट दाखिल की थी. ब्यूरो ने इसमें उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के तीन जजों सहित राज्य के उपभोक्ता आयोग के अध्यक्ष और लोकायुक्त पर करोड़ों रुपए के भविष्यनिधि घोटाले में शामिल होने का आरोप लगाया था. सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस तरुण चटर्जी के अलावा आरोपितों की सूची में उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीश भी शामिल थे. आरोप था कि 2001 से 2008 के बीच गाजियाबाद की जिला अदालत के कोषाधिकारी आशुतोष अस्थाना ने जिला अदालत के न्यायाधीशों के साथ मिलकर तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के भविष्यनिधि खाते से करोड़ों रुपए निकाले.

20.

इस मामले में ब्यूरो ने जजों से पूछताछ की कोशिश क्यों नहीं की?

19.

प्रथमदृष्टया सबूत होने के बाद भी जजों के घरों पर छापे क्यों नहीं पड़े?

18.

बोफोर्स घूसखोरी मामला

मलेशिया और अर्जेंटीना में दो बार गिरफ्तार होने के बाद भी सीबीआई ने ओटावियो क्वात्रोची के खिलाफ रेडकॉर्नर नोटिस क्यों वापस लिया?

जब-जब केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार रही, इटली के इस हथियार सौदेबाज के खिलाफ सीबीआई जांच में तेजी बनी रही. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मृत्यु के बाद भी सीबीआई, मलेशिया और अर्जेंटीना सहित जहां भी क्वात्रोची गया, उसके पीछे पड़ी
रही. लेकिन बाद में मामला धीरे-धीरे रफा-दफा कर दिया गया.

17.

हर्षद मेहता शेयर घोटाला

शेयर घोटाले में पूछताछ के दौरान हर्षद मेहता ने कई राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के नाम उजागर किए थे. सीबीआई ने मामले में उनकी भूमिका की जांच क्यों नहीं की?

शेयर दलाल हर्षद मेहता ने बैंकिंग तंत्र की खामियों का फायदा उठाकर बैंकों का पैसा शेयरों की खरीद-फरोख्त में लगाया और शेयर बाजार को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया. मामला खुला तो शेयर बाजार भरभराकर गिरा और निवेशकों व बैंकों को करोड़ों रुपए का घाटा उठाना पड़ा. मेहता पर 72 आपराधिक मामले दर्ज हुए.

16.

यूरिया घोटाला

1995 के यूरिया घोटाले के प्रमुख आरोपितों में शामिल पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव के भतीजे बी संजीव राव और बेटे पीवी प्रभाकर राव कैसे बच गए?

15.

संजीव राव ने माना था कि रिश्वत की रकम कहां छुपाई गई, उन्हें पता है. फिर भी आरोप पत्र में उनका नाम क्यों नहीं था?

14.

प्रधानमंत्री कार्यालय के कौन-कौन अफसर इस मामले से जुड़े थे?

13.

झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड

सीबीआई ने इस मामले में ज्यादातर अभियुक्तों के दोषी साबित हो जाने के बाद क्या किया है?

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने साफ-साफ कहा था कि रिश्वत लेने और देने वाले सांसद अपने विशेषाधिकार का फायदा नहीं उठा सकते और उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है.

12.

सीबीआई ने सत्यम मामले में राजनेताओं की भूमिका की जांच क्यों नहीं की?

7 जनवरी, 2009 को सत्यम के चेयरमैन रामालिंगा राजू ने अपने बोर्ड मेंबरों और सेबी को यह बताते हुए इस्तीफा दिया था कि आईटी कंपनी के खाते में 5,000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा का घाल-मेल है.

11.

जैन हवाला कांड

उच्चतम न्यायालय ने हवाला कांड में राजनेताओं के खिलाफ लचर जांच-पड़ताल के लिए सीबीआई की आलोचना की थी, इससे कोई सबक लिया गया?

18 करोड़ डॉलर के इस घोटाले में वह पैसा भी शामिल था जो हवाला कारोबारी जैन भाइयों ने कथित तौर पर नेताओं को दिया. इस रकम का एक हिस्सा हिजबुल मुजाहिदीन को मिलने की बात भी हुई. लालकृष्ण आडवाणी और मदनलाल खुराना मुख्य आरोपितों में से थे. अदालत ने हवाला रिकॉर्डों को अपर्याप्त सबूत माना.

10.

एनके जैन ने दावा किया था कि उसने पीवी नरसिंहा राव को एक करोड़ रु. दिए. इसके बाद सीबीआई के सबूत जुटाने की रफ्तार अचानक धीमी क्यों पड़ गई?

9.

सेंट किट्स मामला

सेंट किट्स के दौरे के बाद धोखाधड़ी के इस मामले की तफ्तीश के लिए सीबीआई को कौन-से सुराग मिले?

सेंट किट्स धोखाधड़ी मामले में भूतपूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री केके तिवारी, सिद्धपुरुष चंद्रास्वामी और उनके सचिव केएन अग्रवाल के ऊपर आरोप लगे थे. मामला था वीपी सिंह की छवि को खराब करने के लिए फर्जीवाड़ा करने का. राव पर ये आरोप 1996 में तब लगाए गए जब वे प्रधानमंत्री के पद से हट चुके थे. बाद में सबूतों के अभाव में अदालत ने उन्हें इस आरोप से बरी कर दिया. बाकी आरोपी भी आखिरकार छूट गए.

8.

बाबरी विध्वंस

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई कोई भी पुख्ता सबूत नहीं जुटा पाई. क्यों?

6 दिसंबर, 1992 को कथित तौर पर संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की शह पर बाबरी मस्जिद को गिरा दिया. सीबीआई ने आरोप पत्र दाखिल किया जिसमें लालकृष्ण आडवाणी समेत 24 नेताओं का नाम था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ 17 सितंबर को इस मामले पर अपना फैसला सुनाएगी. मामला इतना संवेदनशील है कि मायावती ने फैसले के बाद की आशंकित स्थिति को संभालने के लिए अर्धसैनिक बलों की 300 कंपनियां पहले से ही बुला ली हैं.

7.

पाठक धोखाधड़ी मामला

इतने बड़े नेताओं पर इतने गंभीर आरोप लगे पर सीबीआई साक्ष्य जुटाने में नाकाम क्यों रही?

इंग्लैंड में रहने वाले कारोबारी लक्खूभाई पाठक ने तांत्रिक चंद्रास्वामी, उनके सचिव केएन अग्रवाल और पीवी नरसिंहा राव पर एक लाख डॉलर की धोखाधड़ी का आरोप लगाया था.

6.

तेलगी स्टांप पेपर घोटाला

सीबीआई ने उन नेताओं के खिलाफ जांच जारी क्यों नहीं रखी जिनका नाम तेलगी ने लिया था?
2006 में अब्दुल करीम तेलगी की गिरफ्तारी हुई. पूछताछ में उसने शरद पवार, छगन भुजबल समेत कई और राजनेताओं और नौकरशाहों के नाम लिए जो इस घोटाले में उसके हिस्सेदार थे. कभी फल बेचने वाले तेलगी को 1994 में स्टांप पेपर बेचने का लाइसेंस मिला और तब-से उसने फर्जी स्टांप पेपर छापने शुरू कर दिए.

5.

क्या एक अकेला आदमी नेताओं की शह के बिना इतना बड़ा घोटाला कर सकता है?

4.

हजारों करोड़ के इस घोटाले की जांच में सीबीआई को क्या मिला?

3.

आरुषि हत्याकांड को दो साल हो गए हैं. सीबीआई की क्या उपलब्धि है?

2.

सिख विरोधी दंगे

1984 के सिख विरोधी दंगों के मुख्य अभियुक्तों में से एक सज्जन कुमार के खिलाफ सीबीआई अभी तक ढुलमुल रवैया ही अपना रही है. क्यों?

सीबीआई के यह कहने पर कि सज्जन कुमार गायब हैं, फरवरी, 23 को इस केस की सुनवाई कर रही अदालत ने उसे फटकार लगाई.

1.

सिख विरोधी दंगे

कांग्रेस के सांसद जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट देने में सीबीआई को 15 साल क्यों लग गए?

उत्तर भारत में चार दिन तक हिंसा हुई. खासकर दिल्ली में. कांग्रेस के इशारों पर नाचती भीड़ ने निहत्थे सिखों को मारा. औरत, मर्द, बच्चे, बूढे़ सबको. सिखों के घरों और उनकी दुकानों को लूटा और जलाया गया. गुरुद्वारों तक को नहीं बख्शा गया. इस साल 10 फरवरी को सीबीआई ने दिल्ली कोर्ट में अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपी जिसमें भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट मिल गई. सीबीआई ने दिसंबर, 2007 में ही टाइटलर को क्लीन चिट दे दी थी पर अदालत ने इसे खारिज कर दिया था और एजेंसी को निर्देश दिए थे कि इस मामले में टाइटलर की भूमिका की दोबारा जांच हो. अप्रैल 2, 2009 को भी सीबीआई ने अपर्याप्त सबूतों का हवाला देते हुए टाइटलर को क्लीन चिट दी थी. क्लीन चिट देने के लिए सीबीआई ने जिन दस्तावेजों का सहारा लिया था उन्हें हासिल करने के मकसद से दाखिल एक पीड़ित की अर्जी पर जवाब देने के लिए दिल्ली की एक अदालत ने जांच एजेंसी को दो महीने का वक्त दिया है.

(रमन किरपाल की रिपोर्ट; राना अय्यूब, श्रीकांत एस और अनुकंपा गुप्ता के सहयोग से)

 

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आपकी पसंदीदा लेखन शैली क्या है?

कहानी मेरी प्रिय विधा है. कहानी के भीतर का स्पेस और काल मुझे एक शिशु की तरह उत्साहित करता है. हालांकि इसकी परिभाषा तय करना या इसकी व्याख्या करना मेरे लिए संभव नहीं, पर यह सच है कि स्पेस और काल में उतरते ही मुझे पंख लग जाते हैं और मैं पंछी की तरह परवाज़ भरने लगता हूं. इस क्रम में यथार्थ से, जीवनानुभवों से टकराना और फिर इस टकराव से पैदा होनेवाली छवियों को पकड़ना…. ये मेरे लिए आनंद के क्षण होते हैं, उत्सव के क्षण होते हैं…पीड़ा का आनंद, पीड़ा का उत्सव. नाटक लिखने की चुनौतियां अलग क़िस्म की हैं. वहां आपको प्रत्यक्ष रूप से मौन रहना होता है. पात्र मुखर होते हैं. अपने मौन को पात्रों की मुखरता में शामिल करना होता है. नाटक लिख भर लेने से उसकी यात्रा पूरी नहीं होती. मंचन के साथ पूरी होती है यह यात्रा. नाटक में केवल शब्द महत्व नहीं रखते. नाटक दृश्य-काव्य है.

अभी क्या पढ़ रहे हैं?

लंदन से कुछ नाटक लेकर लौटा हूँ. आयरलैंड के नाटक. उन्हें ही पढ़ने में लगा हूँ. अपने कथ्य और अपनी आंतरिक संरचना में ये नाटक विलक्षण हैं…वैसे इन दिनों पढ़ना कम और यायावरी ज्यादा हो रही है. कल ही चौदहवीं शताब्दी के नाटककार उमापति उपाध्याय के गांव कोईलख से उनकी डीह की माटी छूकर लौटा हूं. हम सब कृतघ्न लोग हैं. अपने पूर्वजों की स्मृतियों को सहेजना नहीं जानते.

वे रचनाएं या लेखक जिन्हें आप बेहद पसंद करते हों?

फणीश्वरनाथ रेणु का गद्य और शमशेर बहादुर सिंह की कविताएं मुझे प्रिय हैं. वैसे मैं कविताएं ज्यादा पढ़ता हूं. कबीर, निराला और शमशेर गहन संकट-काल में मेरे काम आते हैं. यार से छेड़ चली जाए…की तरह बाबा नागार्जुन के समग्र रचना-संसार से मेरा आत्मीय संबंध है. बाद के कवियों में विनोद कुमार शुक्ल, अरुण कमल और राजेश जोशी को पढ़ना मुझे अच्छा लगता है. बिल्कुल नए कवि मनोज कुमार झा और व्योमेश शुक्ल को लेकर बेहद उत्साहित हूं. अमरकांत और शेखर जोशी की कहानियां तथा अपने समय के गद्यकारों में दूधनाथ सिंह का कथेतर गद्य और काशीनाथ सिंह का गल्प मुझे प्रिय है. अपने साथ कहानियां लिख रहे प्रियंवद, महेश कटारे, आनंद हर्षुल, शशांक, अवधेश प्रीत, योगेंद्र आहूजा, पंकज मित्र, संतोष दीक्षित आदि की रचनाओं के प्रति हमेशा उत्सुकता बनी रहती है. इनका रंग अलग-अलग है. वंदना राग, रणेन्द्र, मनीषा कुलश्रेष्ठ और चंदन पांडेय जैसे नए कहानीकारों को भी पसंद करता हूं. वंदना के पास स्मृतियों की आवाजाही है, जो आज विरल है.

कोई जरूरी रचना जिसपर नजर नहीं गई हो?

ऐसी ढेरों रचनाएं हैं, जो साहित्य की गिरोहबंदी के कारण उपेक्षा का शिकार हुईं. हिंदी में अधकांश संपादक गिरोहबाज हैं. पाठकों की फिक्र न करनेवाला प्रकाशन तंत्र भी इसके लिए जिम्मेवार है. आलोचना का हाल बहुत बुरा है. बहुत कम लोग हैं जो गंभीरता से काम कर रहे हैं. अभी तो अमरकांत और शेखर जोशी जैसे लेखकों पर काम नहीं हुआ.

कोई रचना जो बेवजह मशहूर हो गई हो?

तस्लीमा नसरीन का उपन्यास लज्जाऔर अरूंधति राय का उपन्यास द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’. हिंदी में अनावश्यक रूप से चर्चित होनेवाली रचनाओं की फ़ेहिरस्त लंबी है.

पढ़ने की परंपरा को कायम रहे, इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?

हिंदीभाषी समाज में पढ़ने की परंपरा बेहद क्षीण रही है. यह समाज आज भी सामंती मूल्यों की जकड़न से पूरी तरह आज़ाद नहीं हो सका है. जिस समाज में कवि-लेखक होना विदूषक होने की तरह हो, वह समाज पढ़ने को भला कितनी प्राथमिकता देगा?…मेरे एक पत्रकार मित्र का कहना है कि पत्रकारिता से संवेदना और साहित्य से यथार्थ ग़ायब होता जा रहा है. इसीलिए पत्रकारिता अविश्वसनीय हो गई है और साहित्य अपठनीय.यह टिप्पणी एक सीमा तक सही भी है. साहित्य नहीं पढ़े जाने का एक यह भी कारण हो सकता है. दूसरा बड़ा कारण यह है कि पुस्तकें और पत्रिकाएं आम आदमी की पहुंच से बाहर हो चुकी हैं. अधिकांश प्रकाशकों की रुचि, पाठकों तक पुस्तकें पहुंचाने में नहीं है….हमारे जीवन से बहुत सारी चीजें इन दिनों ग़ायब होती जा रही हैं, पुस्तकें भी इनमें शामिल हैं. मैं दृश्य या अन्य माध्यमों को पुस्तकों के लिए ख़तरा नहीं मानता. पुस्तकों का कोई विकल्प नहीं है. आज शिक्षा को केवल रोज़गार से जोड़कर देखने का चलन है. जाहिर है कि ऐसे में साहित्य हाशिए पर ही रहेगा. साहित्य मनुष्य को कल्पनाशील, विवेकवान और संवेदनशील बनाता है. हिंदीभाषी समाज को साहित्य  पढ़ने की परंपरा नए सिरे से विकसित करनी होगी.

रेयाज उल हक

हिंदी फिल्मों के शुक्ल और कृष्ण पक्ष

गौरव सोलंकी चार निर्देशकों के बहाने हिंदी फिल्मों की उस नई धारा के बारे में बता रहे हैं जो मनोरंजक भी है और सार्थक भी. उसका एक हिस्सा परेशान करता है, दूसरा उम्मीदें जगाता है और तीसरा दोनों काम करता है, लेकिन अच्छी बात यह है कि तीनों तरह की फिल्में आखिर तक अपनी ईमानदारी नहीं छोड़तीं 

फिल्में चांद नहीं होतीं कि पंद्रह दिन उजाले की ओर बढ़ें और बाकी पंद्रह दिन अंधेरे की और उनमें से ज्यादातर फिल्में, जिनकी हम बात कर रहे हैं, यह सोचकर भी नहीं बनाई जातीं कि अबकी बार हंसी के पांच जबरदस्त सीन डालने हैं और अबकी बार रुला-रुला कर मार डालना है. यह अपने आप ही होता है कि उनमें से कुछ दिल में गुबार भर देती हैं और कुछ उसे गुब्बारे की तरह हल्का कर देती हैं. दिल हल्का कर देने वाली फीलगुड फिल्मों का एक बड़ा दर्शक-वर्ग है इसलिए वे बनती भी ज्यादा हैं. परेशान करने वाली फिल्मों का छोटा दर्शक-वर्ग है लेकिन वह वफादार है और उन्हें देखने के लिए प्रतिबद्ध, इसलिए वे चाहे कम हों, बनती जरूर हैं.

सिनेमा को मनोरंजन ही करना चाहिए या कुछ सार्थक कहने की कोशिश भी करनी चाहिए, इस पर लंबी बहसें होती रही हैं, लेकिन बहसों में पड़े बिना अस्सी और नब्बे के दशक के सतही दौर से हिंदी सिनेमा को उबारने के लिए पिछले कुछ सालों में कई हाथ खामोशी से उठते गए हैं. किसी क्रांति के दावे किए बिना उन्होंने वह बनाया है जिसे बनाने के लिए वे नागपुर, जमशेदपुर या बनारस की अपनी बेचैन रातें छोड़कर मुंबई आए थे. उसका हिस्सा पटकथा लेखक भी हैं, सिनेमेटोग्राफर, एडिटर और गीतकार, संगीतकार भी. उन सबके हिस्सों को पर्याप्त सम्मान देते हुए हम उन निर्देशकों की बात कर रहे हैं जिन्होंने बिना नारे लगाए परंपरा बदली है. जिन्होंने हिंदी फिल्मों की एक नई धारा विकसित की है जो मनोरंजन करने के लिए अपनी गहराई नहीं छोड़ती.

फिल्में चांद नहीं हैं लेकिन हम प्रतीकों में बात करने का मोह नहीं छोड़ पाए और हमने उन निर्देशकों को दो खांचों में बांटने की कोशिश की, परेशान करने वाला डार्क सिनेमा उसका कृष्ण पक्ष है और उम्मीदों पर खत्म होने वाला उजला सिनेमा उसका शुक्ल पक्ष. अगले पन्नों पर दो शुक्ल पक्ष के निर्देशक शिमित अमीन और दिबाकर बनर्जी हैं और दो कृष्ण पक्ष के निर्देशक अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज हैं. जाहिर-सी बात है कि ये चार निर्देशक मिलकर पूरा परिदृश्य नहीं रचते और वे अपने-अपने पक्ष में सर्वश्रेष्ठ हैं, ऐसा भी दावा यहां नहीं है और न ही ऐसी टॉप चार सूचियों का कोई औचित्य है. जैसे अगले पन्नों पर ‘मुन्नाभाई’, ‘सोचा ना था’ या ‘रंग दे बसंती’ के संदर्भ और राजकुमार हीरानी, इम्तियाज अली या राकेश ओमप्रकाश मेहरा नहीं हैं और यही सिद्ध करता है कि यह किसी तरह की रैंकिंग वाली सूची नहीं है. लेकिन यह जरूर है कि इन चारों निर्देशकों के काम में ऐसी निरंतरता रही है जिसने हिंदी फिल्मों में स्थायी रूप से कुछ न कुछ नया जोड़ा है. यह बस इस बहाने से इन चार महत्वपूर्ण निर्देशकों के अब तक के काम को एक साथ देखने की कोशिश है. ये चार नाम इसलिए भी यहां हैं कि इनके काम के महत्व की तुलना में मुख्यधारा के मीडिया में इनका जिक्र थोड़ा कम ही हुआ है.

बहरहाल, यदि नए और सार्थक हिंदी सिनेमा के पूरे फलक की बात करनी हो तो वह सुधीर मिश्रा की ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ के आदर्शों और उनसे मोहभंग के बिना पूरी नहीं हो सकती और न ही जोया अख्तर की ‘लक बाय चांस’ की नायिका के आखिरी फैसले के बिना. उच्च वर्ग के आत्मकेंद्रित लड़के-लड़कियों की फिल्मों का जॉनर शुरू करने वाली फरहान अख्तर की ‘दिल चाहता है’ का जिक्र भी जरूरी है और तिग्मांशु धूलिया की इलाहाबाद की कॉलेज राजनीति पर बनी ‘हासिल’ का उससे भी ज्यादा जरूरी. ‘इकबाल’ और ‘डोर’ के नागेश कुकुनूर, ‘एक हसीना थी’ और ‘जॉनी गद्दार’ के श्रीराम राघवन, ‘पिंजर’ के चंद्रप्रकाश द्विवेदी, ‘आमिर’ के राजकुमार गुप्ता, ‘उड़ान’ के विक्रमादित्य मोटवानी, ‘तेरे बिन लादेन’ के अभिषेक शर्मा और ‘पीपली लाइव’ की अनुषा रिजवी भी हमारी फिल्मों को उस तरफ ले जाते हैं जहां गर्व और ढेर सारी उम्मीदें हैं. 

जहां जिंदगी प्रेमगीत नहीं रह पाती…

(अनुराग कश्यप)

कमाल अचानक नहीं होता, लेकिन लगता अचानक ही है. वह पहाड़गंज के एक बेंच जैसे बिस्तर पर होता है जहां चंदा देव को बताती है कि कैसे उसके प्रेमी ने उसका एमएमएस बनाया था, जो देश भर के लोगों ने डाउनलोड करके देखा. उन देखने वालों में उसके पिता भी थे जिन्होंने आत्महत्या कर ली, यह कहने की बजाय कि कोई बात नहीं बेटा, जो हो गया सो हो गया, अब सब भूल जाओ. देव, जो देवदास है, इससे पहले तक लोकप्रिय संस्कृति का सबसे कायर और निष्ठुर नायक, उसे गले लगाता है और कहता है- कोई बात नहीं बेटा, जो हो गया सो हो गया, अब सब भूल जाओ.

अनुराग दुनिया की हर तरह की फिल्म लिख सकता है. जरूरी नहीं कि वह अनुराग तरह की फिल्म ही लिखे. उसकी बैंडविड्थ बहुत ज्यादा है. वह हर जॉनर के साथ न्याय कर सकता है – जयदीप साहनी

क्या आपने ध्यान दिया कि ‘देव डी’ की सहानुभूति उस पिता के साथ बिलकुल नहीं है जिसे आप बेचारा समझते हैं, तथाकथित रूप से जिसे अपनी इज्जत इतनी प्यारी है कि उसके बिना वह जी भी नहीं पाया. ‘देव डी’ उसे गाली देती है. वह और भी बहुत-से नए काम करती है. मसलन पारो अपने पति के साथ खुश है और शादी के बाद अंधेरे कमरों में फूट-फूटकर नहीं रोती. और यह भी नियम नहीं है कि जिसे हीरो छोड़ दे उसे ऐसा तलाकशुदा या विधुर ही मिले जो सिर्फ बच्चों का खयाल रखने के लिए शादी करना चाहता हो. उसकी चंदा किसी मजबूरी में वेश्या नहीं बनी. यह उसके लिए करियर है, साथ में पढ़ाई और दोस्त भी हैं. वह भी छिप-छिपकर नहीं रोती. उसके सुखांत में अपने ऊपर थोपी गई सारी महानता ठुकराकर देव स्वीकार करता है कि उसने कभी पारो से प्यार किया ही नहीं. इससे पहले देवदास तो क्या, कौन-सा हीरो था जिसने यह कुबूला था?

हमारे समय की एक डार्क फिल्म में इतनी सकारात्मक चीजें हैं. भंसाली के भव्य संस्करण के बावजूद (जिसके सेट अपनी फिल्म की थीम का उदास असर काटने के लिए बेशर्मी से महंगे हैं) उसी मूल कथा पर बनी ‘देव डी’ सिनेमा की परिभाषा में डार्क इसलिए है कि उसकी आखिरी तह में गहरा अवसाद है, उसके रंगों और संगीत में वह बुखार है जिसमें अपना सिर आपको फूले हुए गुब्बारे जैसा लगने लगता है. अच्छी बात यह होती है कि एक अखबार अपनी समीक्षा में उसे पांच सितारे देता है और अखबार देखकर फिल्म देखने निकलने वाली जनता हाउसफुल कर देती है. वे अनुराग कश्यप को जानने लगते हैं. हालांकि वे ‘ब्लैक फ्राइडे’ और ‘नो स्मोकिंग’ के बारे में नहीं जानते और न ही अगले महीने रिलीज होने वाली कहीं ज्यादा अंधेरी ‘गुलाल’ के लिए उतना उत्साह दिखाते हैं. उन्हें प्रेम कहानियां चाहिए जो अनुराग के पास ज्यादा नहीं हैं और हों भी तो शायद वे बनाना नहीं चाहते. वे शायद ‘सत्या’ और ‘शूल’ भी नहीं बनाना चाहते जो उनकी लिखी सबसे सराही गई फिल्मों में से हैं.

अनुराग का नायक ही है जो अपने पास बैठी शरीफ समझी जाने वाली औरत का बस-टिकट इस बात पर खा जाता है कि वह उसे शराब न पीने की बिन मांगी सलाह दे रही होती है. वह अपने चेहरे और नाम बदलता है लेकिन गुस्सा नहीं छूटता. ‘पांच’ के केके में वह चरम पर है, ऊपरी सतह पर लगभग बेवजह लगता हुआ, जो नैतिकतावादियों को अपनी सीट पर आराम से नहीं बैठना देता. ‘गुलाल’ में उस गुस्से के पीछे विश्वासघात और मोहभंग है. ‘ब्लैक फ्राइडे’ में वह गुस्सा सामूहिक है इसलिए सबसे ज्यादा तार्किक लगता है. ‘नो स्मोकिंग’ में वही गुस्सा खूबसूरत है. उसका जादुई यथार्थ उसे कोमल बनाता है. सायास-अनायास जब साहित्य में भी कविता हाशिए पर जा रही है तब ‘नो स्मोकिंग’ अनुराग की सबसे काव्यात्मक फिल्म है. उसके बनने के बाद भी वैसी किसी फिल्म का बॉलीवुड में बनना असंभव-सा लगता है. वही है जिसे देखकर आप अनुराग की हदें जान सकते हैं. वही है जिसे देखकर आप बेहतर समझ सकते हैं कि क्यों अनुराग कश्यप अचानक फिल्म-निर्देशक बनने की चाह रखने वाले युवाओं के आदर्श हो गए हैं. यदि नई तरह का सिनेमा वह है, जो अपने दर्शकों से इतनी मोहब्बत करता है कि उनकी परवाह ही नहीं करता, जो हर घटना की वजह बताने को वक्त को जाया करना समझता है, जो इशारों में बात करने से पहले या बाद उनके मतलब नहीं समझाता तो हां, ‘नो स्मोकिंग’ उस नए सिनेमा की अगुआ फिल्मों में से एक है. वह जिंदगी की तरह है, जो आपको नहीं बताती कि कलम पकड़ने वाली आपकी उंगलियां और सच बोलने वाली जुबान क्यों काटी जा रही हैं?

नए दौर के फिल्मकारों में अनुराग और विशाल सबसे ज्यादा असहज करते हैं. उनकी फिल्में हिंसा और जटिलताओं के बीच मासूम और निरीह हैं. अपनी गालियों के बीच वे सबसे साफ और निर्दोष जुबान हैं.  

जग जा री गुड़िया…

(विशाल भारद्वाज)

विशाल भारद्वाज के भीतर दो तरह के विशाल भारद्वाज हैं. कमीने के गुड्डू और चार्ली की तरह, लेकिन दोनों हकलाते या तुतलाते नहीं हैं. एक के पास अपार दुख, विश्वासघात और क्रोध की कहानियां हैं और दूसरे के पास बच्चों की कहानियां. आप ‘ब्लू अम्ब्रेला’ देखते हुए शायद नहीं कह सकते कि ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ से उसका इतना करीबी रिश्ता है. लेकिन आप संवादों पर ध्यान दें तो यह इतना मुश्किल भी नहीं है.

उनकी फिल्मों की अभूतपूर्व क्षेत्रीय बोली, स्थानीय गालियां और मुहावरे जिसके जरूरी हिस्से हैं, उन्हें विश्वसनीय बनाती है. यही बात है जो ‘ब्लू अम्ब्रेला’ को ‘ओमकारा’ से जोड़ती है. दूसरी बात सिनेमेटोग्राफी और लगातार गहराता हुआ दुख और अकेलापन है. अपनी कमजोर कहानी के बावजूद ‘कमीने’ भी यही खूबियां साझा करती है. ‘कमीने’ और ‘ब्लू अम्ब्रेला’ के बेचैन हैंडहेल्ड शॉट दिबाकर की ‘एल एस डी’ की तरह ही असहज करते हैं और आपकी आराम की आदतों को तोड़ते हैं.

विशाल के अंदर मेरठ उसी तरह बसा हुआ है जैसे दिबाकर के अंदर दिल्ली. मुझे उन लोगों की फिल्में देखना अच्छा लगता है जिनके काम में दिखता है कि वे कहां से हैं –    अनुराग कश्यप

नए दौर के कई और फिल्मकारों के साथ विशाल का असली विद्रोह हिंदी फिल्मों के अवास्तविक लगते डायलॉग से ही है. वे अपनी और इसीलिए हमारी भाषा बोलते हैं. बच्चों के मासूम सवाल और बड़ों के अश्लील मजाक, उतनी ही सच्चाई से. उनके अपराधी तमीज से बात नहीं करते और शायरी की उपमाएं नहीं देते. उनकी नायिकाएं अपने नायकों को प्यार से हरामखोर, भेडि़या या संपोला कहती हैं. भाषा की वास्तविकता के प्रति उनका यह आग्रह इतना पुख्ता है कि ‘कमीने’ में बंगाली भाई कई मिनट बंगाली में ही बात करते हैं. इससे बिलकुल बेफिक्र कि दर्शक उसे समझते हैं या नहीं. इसी तरह वे ‘ओमकारा’ की भाषा में लगातार एक खेल खेलते हैं. अपनी कहानी और किरदारों के प्रति ईमानदार रहना उनके लिए दर्शकों की सहूलियत का खयाल रखने से ज्यादा जरूरी है.

उदासी उनकी फिल्मों का स्थायी भाव है. ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ के अंत से काफी पहले शुरू होकर, खत्म होने के बहुत बाद तक वह उदासी आपके भीतर पैठ जाती है. इसमें शायद शेक्सपियर के उन नाटकों का भी काफी असर है जिनसे ये फिल्में प्रेरित हैं. लेकिन एक बड़ा हिस्सा विशाल का भी है. आत्मा से आत्मा तक पहुंचता उनका संगीत उनकी फिल्मों को और बड़ा कर देता है.        

उनमें दुखांतों के प्रति गहरा मोह भी है. एक न खत्म होने वाला गुस्सा और दुख, जिसका इसके अलावा कोई प्रायश्चित नहीं कि वह अपने साथ सबको खत्म कर ले. उनके यहां यथार्थ इतना नंगा है कि झूठ बोलकर उसे छिपाया भी नहीं जा सकता. उनके किरदारों के प्रेम में इतना जुनून है कि उसके लिए वे अपनी और दूसरों की सब सल्तनतें जलाकर राख कर सकते हैं. सबसे दुखद यह है कि सामान्य दुखांतों की तरह मरकर भी उनके नायक शांति नहीं पाते. खुद को गोली मारने से पहले ओमी जानता है कि उसे न यहां चैन मिलेगा न मरने के बाद. यही मकबूल भी जानता है. बस गुड्डू और चार्ली के पास वे गलतियां और विश्वासघात नहीं हैं, इसलिए न वैसी अशांति है और न ही इतना दुख. इसलिए उसका मृत्यु से पगा हुआ अंत बाद में महीनों तक दुखी नहीं करता, लेकिन शायद विशाल के लिए हर कथा में वह जरूरी है.

विशाल के सिनेमा को जानने के लिए उनके संगीत को जानना भी उतना ही जरूरी है. वे मूलत: कवि ही हैं जो हिंसा दिखाते हुए भी अपनी कोमलता नहीं छोड़ता. ‘माचिस’ के ‘छोड़ आए हम वो गलियां’ की तरह उनके संगीत और फिल्मों में बार-बार वही नॉस्टेल्जिया है जो उनकी फिल्मों को बॉलीवुड की अब तक की मुख्यधारा से अलग दुनिया देता है. ऐसा लगता है कि उनका कुछ ‘ओमकारा’ में मरती डॉली के साथ या ‘ब्लू अम्ब्रेला’ में गाना गाकर चंदा मांगते बच्चों के साथ छूट गया है. वे देर तक ‘जग जा री गुडि़या’ गाना चाहते हैं और समय बार-बार उनकी गुड़िया के मुंह पर तकिया रखकर उसका दम घोट देता है. उनका सारा सिनेमाई संघर्ष इसी गलती के कभी न हो सकने वाले प्रायश्चित से है. वे इस मजबूरी पर फिल्में खत्म करते हैं कि काश! पीछे लौटकर कुछ बदला जा सकता. एक नीली छतरी की चोरी (यह सब तब है जब मूल कहानियां उनकी नहीं हैं) पंकज कपूर को हत्यारे जितने अवसाद से भर देती है. वह मकबूल जितना ही अकेला है. अंधेरा और बाहर की दुनिया उसे उतना ही डराती है. वही बाहर जिसके उत्सवों से उसे बेदखल कर दिया गया है क्योंकि उसने शिद्दत से कुछ चाहा है और इस चक्कर में दुनिया और दुनियादारी को बिलकुल भूल गया है. विशाल उसका पक्ष भी नहीं लेते और इसीलिए आपको एक लंबी उदासी में डुबो देते हैं. वे हिंसा का सौंदर्यशास्त्र गढ़ते हैं, जिसमें दुख कुछ ज्यादा हो गया है. यही उन्हें हिंदी सिनेमा में जरूरी भी बनाता है.

खोसला, लकी और धोखा

(दिबाकर बनर्जी)

दिबाकर को इतनी आसानी से नहीं समझा जा सकता. बड़ी वजह यह है कि आप उनकी फिल्मों को बाकी निर्देशकों की तरह खास जॉनर या खांचों में नहीं बांट सकते. वे एक फिल्म बनाते हैं और उसे चाहने वाले दर्शकों का एक बड़ा वर्ग और फिर उसे भूलकर बिलकुल अलग किस्म की दूसरी फिल्म बनाते हैं, जिससे दूसरा वर्ग जुड़ता है और दिबाकर अगली बार उसके भी वफादार नहीं रहते. इसीलिए उनके काम में हर बार स्थायी रहे तत्वों को पहचानना भी मुश्किल है. यही चुनौती दिबाकर को सबसे खास बनाती है. आप न कॉमन चीजें ढूंढ़कर दूसरों को चमत्कृत कर सकते हैं और न ही उनके अगले काम के बारे में ज्यादा अनुमान लगा सकते हैं. आप ज्यादा से ज्यादा यह खोज कर सकते हैं कि उनकी फिल्मों में कॉमेडी कॉमन है (इस पर शायद आप बहस करना चाहें) और दिल्ली अपनी पूरी असलियत के साथ हर बार है. वे दर्शकों की आदत का खयाल रखते हुए उसे उस तरह नहीं दिखाते कि सब महत्वपूर्ण दृश्य कुतुब मीनार या पुराने किले में ही घटित हों. ‘ओए लकी लकी ओए’ में कुतुब मीनार या इंडिया गेट बस लकी के बड़े होने की तस्वीरों में है और वहां भी वह इसे मजाकिया अंदाज में पेश करती है.

दिबाकर हमें दिल्ली को उस तरह दिखाते हैं, जिस तरह हम दिल्लीवाले भी उसे  नहीं देख पाते. उनके किरदार इतने वास्तविक होते हैं कि पहली बार में वे हमें नकली लगते हैं – राजा सेन, फिल्म समीक्षक

उनकी फिल्मों की भाषा और लहजे में इतना अपनापन है कि वह अपने आसपास का होते हुए भी अजीब-से आश्चर्य से भर देता है और बिना कोई अतिरिक्त प्रयास किए हंसाता है. इसीलिए ‘खोसला का घोंसला’ एक त्रासद कहानी होते हुए भी – एक रिटायर हुए आदमी का एक बेटा बेकार है, दूसरा विदेश जा रहा है और उसकी सारी जमा-पूंजी से खरीदा गया गुड़गांव का प्लॉट एक अमीर बिल्डर ने हथिया लिया है – पारिवारिक कॉमेडी फिल्म के रूप में ज्यादा जानी जाती है. ऐसा ही कुछ ‘ओए लकी लकी ओए’ के साथ है, लेकिन थोड़ा कम. वह हंसाती है लेकिन मध्यमवर्ग वाले पारिवारिक मूल्यों को तोड़ती है. लकी के पिता की नई पत्नी की नजर किशोर लकी पर है. शायद हिंदी सिनेमा में ऐसा पहली बार ही होता है कि एक ही चेहरे वाले तीन अलग-अलग किरदार हैं. वे लकी की जिंदगी के तीन अध्यायों की तरह हैं या तीन खलनायकों की, जो सिर्फ पैसे से प्यार करते हैं. लकी चोर है लेकिन वह पैसे से नहीं, चोरी से प्यार करता है इसीलिए हमें उससे प्यार हो जाता है.

‘लव सेक्स और धोखा’ कहानी और फॉर्म, दोनों के स्तर पर उनकी सबसे ज्यादा परंपरा तोड़ने वाली फिल्म है. उसके नाम में सेक्स है लेकिन सेक्स देखने के लिए उसे देखने वाले लोग गालियां देते हुए लौटते हैं. वह ‘चर्चगेट की चुड़ैल’ और ऐसे ही वीडियो की घोषणाओं के साथ फुटपाथी उपन्यासों की शैली में शुरू होती है और आपको किसी भी तरह की बौद्धिक बहस का न्यौता नहीं देती, लेकिन फिर भी आश्चर्यजनक रूप से इस साल की सबसे ज्यादा परेशान करने वाली फिल्मों में से एक बन जाती है.

हां, यही दिबाकर की खासियत है. उनकी फिल्मों में लगातार एक दुख है, एक जिद्दी ईमानदारी जो उसे हंसकर झेलती है और समझ में नहीं आता कि चुटीले डायलॉग से वह तकलीफ कम होती है या गहरी. कभी-कभी उल्टा भी होता है. खोसला साहब की बेचारगी और खुराना का कमीनापन दोनों हंसाते ही हैं, वहीं ‘एलएसडी’ में बॉलीवुड की प्रेम कहानियों का मजाक आगे पड़ने वाली चोट का असर और गहरा करता है. वहां वे आपकी खाल को पहले इतना नर्म करते हैं कि जब उसे काटा जाए तो दर्द बड़ा हो. इसीलिए ‘एलएसडी’ के पहले हिस्से का अंत कम से कम आधे घंटे का ब्रेक मांगता है. वह तो नहीं मिलता क्योंकि फिल्म को आगे बढ़ना है लेकिन आप यह नहीं मान पाते कि वह फिल्म है.

अगर उनकी पहली दोनों फिल्मों को देखा जाए तो उनके पास एक अच्छी दुनिया है, बहुत सारी मुश्किलें, लेकिन इतनी नहीं कि जिसके साथ आपकी सहानुभूति है, वह थोड़ा ज्यादा रो दे. एकाध आंसू तो चलता ही है. खासकर ‘खोसला का घोंसला’ अच्छाई की जीत की ऐसी फिल्म है जो नए सिनेमा के अच्छे हिस्से में से खत्म होती जा रही हैं. वह नई जुबान के साथ, सब अच्छे अर्थों में पुरानी तरह की फिल्म है. दिबाकर नए दौर के अकेले ऐसे फिल्मकार हैं जिनका कोई करीबी विकल्प हिंदी सिनेमा के पास नहीं है. इसी तरह उनकी फिल्मों का भी.

सत्तर मिनट का धुनी

(शिमित अमीन)

शिमित अमीन लॉस एंजिल्स में रहते थे. वहीं से ‘भूत’ की एडिटिंग करते हुए रामगोपाल वर्मा ने उन्हें ‘अब तक छप्पन’ का निर्देशक बनने को कहा. अपने निर्देशक बनने को शिमित महज एक संयोग मानते हैं, लेकिन यदि ऐसा है तो यह दशक के सबसे खूबसूरत संयोगों में से एक है. ’अब तक छप्पन’ पुलिसवालों की ‘सत्या’ ही है, जो आपको चौंकाती है लेकिन उसके लिए उसे लंबे एक्शन दृश्यों की जरूरत नहीं है. उसके किरदार आम हैं, उनकी मजबूरियां, इच्छाएं और बातें भी आम. फिल्म की शुरुआत के एनकाउंटर में गोली इस तरह मारी जाती है, हंसकर बातें करते हुए, जैसे आप बातें करते हुए अपने दफ्तर की कोई फाइल निपटा रहे हों. यह सपाट और आम होना ही एक खास ठंडक आपकी रगों में दौड़ा देता है. यूं तो ‘अब तक छप्पन’ पर रामगोपाल वर्मा का कुछ असर है लेकिन उसकी कई खूबियां आप शिमित के आगे के काम ‘चक दे इंडिया’ और ‘रॉकेट सिंह’ में हर बार देख सकते हैं, मसलन बहुत सारे किरदारों की फिल्म और उसमें कई छोटे किरदारों पर भी उतना ही ध्यान. उनकी फिल्मों के दो मिनट के रोल वाले किरदार भी बेवजह और मामूली नहीं होते. उनकी फिल्में प्रेम कहानियों को ज्यादा से ज्यादा पांच फीसदी रील देती हैं और संगीत पर भी उतनी निर्भर नहीं हैं जितनी अनुराग या विशाल की फिल्में हैं. इसलिए फिल्म का सारा दारोमदार उसकी कहानी पर होता है और वह आपको निराश नहीं करती. अपनी गंभीर कहानियों के बावजूद – गौर कीजिए कि उनकी तीनों फिल्में तीन बिलकुल अलग प्रोफेशनों की फिल्में हैं. उनकी फिल्में माहौल को बोझिल होने से बचाने की हर संभव कोशिश करती हैं, उनकी एडिटिंग इतनी सहज होती है कि नजर नहीं आती और उनका मुख्य किरदार अपने सफर में बहुत-कुछ खोता है, लेकिन हार नहीं मानता और आखिर में जीतता है. हां, रास्ते में एक-दो नाटकीय चीजें (जिन्हें फिल्मी टाइप की घटनाएं कहा जाता है) जरूर होती हैं लेकिन वे फिल्म को नकली नहीं बनातीं और न ही उन घटनाओं का असर कम करती हैं. उनकी फिल्में राजकुमार हीरानी या इम्तियाज अली जितनी फीलगुड नहीं हैं और न ही अनुराग या विशाल की फिल्मों जितनी उदास. हां, वे अपनी सादगी और ईमानदारी नहीं छोड़तीं. वे अपने अच्छे लोगों के साथ इतनी मजबूती से खड़ी होती हैं कि नियति को भी बदल देती हैं. वे अच्छाई की जीत की फिल्में हैं, इस तरह हिंदी फिल्मों की परंपरा के सबसे नजदीक और फिर भी अपनी वास्तविकता नहीं खोतीं.

शिमित खुदा का बंदा है. उसे पुरस्कारों और शोहरत से कोई मतलब नहीं है. उसके लिए यही सबसे बड़ी सफलता है कि आपको अपने कमरे में डीवीडी पर उसकी फिल्म देखकर अच्छा लगे –            जयदीप साहनी

इन लगातार दिखती खूबियों के बावजूद उनकी तीनों फिल्में एक-दूसरे से इतनी अलग हैं कि शिमित के काम के बारे में एक आम राय देना मुश्किल हो जाता है. दिबाकर की तीनों फिल्में अलग होने के बावजूद अपनी भाषा और दिल्ली की कड़ी से बंधी तो हैं, शिमित के यहां वैसी कोई कड़ी भी नहीं दिखती. इसकी एक वजह यह भी है कि यहां जिन चार निर्देशकों का जिक्र हुआ है उनमें से शिमित ही ऐसे हैं जो अपनी फिल्में खुद नहीं लिखते. इसलिए यदि उनकी तीन फिल्मों को थोड़ी समानताओं के आधार पर (हालांकि वे समानताएं भी दो-चार फीसदी होंगी) दो हिस्सों में बांटा जाए तो संदीप श्रीवास्तव की लिखी ‘अब तक छप्पन’ एक तरफ होगी और जयदीप साहनी की ‘चक दे इंडिया’ और ‘रॉकेट सिंह’ दूसरी तरफ. उनकी फिल्मों का यदि कोई आसानी से नजर आने वाला सिग्नेचर है तो वह शायद उनके लेखकों का है. लेकिन शिमित के काम में उन कहानियों की हर डीटेल के प्रति उतनी ही आस्था है और यह उनकी खासियत है कि उनका निर्देशक ‘चक दे इंडिया’ के हॉकी मैचों को एक जैसा होते हुए भी एक जैसा नहीं दिखने देता. वे ‘रॉकेट सिंह’ की उबाऊ दफ्तरी जिंदगी में से भी एकरसता निकाल फेंकते हैं और कहानी को भी समझौता नहीं करने देते. आप ‘चक दे इंडिया’ के हर राज्य की लड़की में क्षेत्रीय स्टीरियोटाइप भले ही तलाश लें, लेकिन आप उन जुनूनी लड़कियों की लड़ाई में उनके साथ ही खड़े होते हैं (वैसे ‘चक दे इंडिया’ अपनी मूल कहानी में ही कई स्टीरियोटाइप तोड़ती है- हॉकी पर फिल्म और वह भी लड़कियों की हॉकी).

शिमित की एक बड़ी सफलता यह भी है कि वे पहली बार शाहरुख खान को शाहरुख खान बने रहने की सीमा से बाहर खींचकर लाते हैं. ‘रॉकेट सिंह’ का हरप्रीत इतना विश्वसनीय है कि आपको रणबीर कपूर नामक व्यक्ति का अस्तित्व याद नहीं आता. इसी तरह वे नाना पाटेकर को उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में से एक थमाते हैं.

शिमित सत्तर मिनट वाली उस बेफिक्र, और साथ ही जिद्दी लड़ाई से हमें जोड़ते हैं और किसी भी पारंपरिक ढंग से स्त्रीवादी हुए बिना हिंदी फिल्मों के परदे पर औरत को उसके हिस्से का सम्मान देते हैं. वह ‘रॉकेट सिंह’ ही है, जिसमें आइटम गर्ल होने की तमाम खूबियों के बावजूद गौहर खान के किरदार का विद्रोह आइटम गर्ल होने से ही है.    

आंतरिक लोकतंत्र का फटा ढोल

कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का सपना भले कांग्रेस पार्टी में जमीनी कार्यकर्ताओं को सम्मान देने का हो लेकिन कम से कम उत्तराखंड में तो हकीकत इससे कोसों दूर है. यहां हाल ही में संपन्न हुए कांग्रेस के संगठन चुनावों में एक बार फिर से निष्ठावान कार्यकर्ताओं के स्थान पर अवसरवादियों को हर स्तर पर खूब मौके दिए गए. उपेक्षा से खफा कांग्रेसी जिलों में हंगामा करने के साथ-साथ हाईकमान तक अपनी शिकायतें पहुंचाने में लगे हुए हैं.

एक नजर संगठन चुनावों की प्रक्रिया पर डालें तो प्रत्येक पोलिंग बूथ तक संगठन को पहुंचाने की मुहिम के तहत राज्य के हर बूथ से एक सक्रिय सदस्य को बूथ प्रभारी के रूप में चुना जाना था और एक सदस्य को ब्लॉक कांग्रेस कमिटी के डेलीगेट के रूप में. (कांग्रेस ने संगठनात्मक दृष्टि से पूरे राज्य को160 चुनावी ब्लॉकों में बांटा था, इसलिए राज्य के 5 लोकसभा क्षेत्रों में से प्रत्येक में औसतन 32 ब्लॉक होते हैं). पोलिंग बूथों से चुने गए डेलीगेट ब्लॉक स्तर पर कांग्रेस कमिटी का अध्यक्ष चुनने के साथ-साथ एक प्रदेश कांग्रेस कमिटी (पीसीसी) व छह जिला कांग्रेस कमिटी (डीसीसी) के सदस्यों को चुनते हैं. बाद में जिला कांग्रेस कमिटी के सदस्य जिलाध्यक्ष का चुनाव करते हैं और हर ब्लॉक से चुने गए पीसीसी सदस्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और एआईसीसी के सदस्यों का. इसके बाद एआईसीसी के सदस्य ही कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष को चुनते हैं.

वर्ष 2008-09 से शुरु हुए राज्य कांग्रेस के सदस्यता अभियान में फर्जीवाड़े को रोकने के लिए फॉर्मों पर फोटो चिपकाना अनिवार्य बना दिया गया था. इन्हें जमा करने की अंतिम तिथि 31 दिसंबर, 2009 थी.

राज्य कांग्रेस में असंतोष के सबसे बड़े कारण पीसीसी सदस्य व जिलाध्यक्षों के पद हैं. हर बड़ा व मझोला कांग्रेसी नेता पीसीसी में जाना चाहता था ताकि वह प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की चुनाव प्रक्रिया में भाग ले सके और प्रदेश का हर कांग्रेसी क्षत्रप अपने प्रभाव के जिलों में ‘अपने अनुकूल’ जिलाध्यक्ष को चाहता था ताकि वह आगामी चुनावों में अपने चहेतों को टिकट दिलाने का रास्ता साफ कर सके. पहले कांग्रेस में लोकसभा सांसदों या संभावित प्रत्याशियों को अपनी सीटों वाले जिलों में अपने मुताबिक टीम बनाने की छूट थी. लेकिन राहुल गांधी की पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र लाने की मुहिम से उत्साहित कांग्रेसी इस बार चुनावों में ‘क्रांतिकारी परिवर्तन’ के साथ ‘पूर्ण आंतरिक लोकतंत्र’ की उम्मीद कर रहे थे.

अकेले देहरादून में कांग्रेस प्रत्याशियों के विरुद्ध चुनाव लड़ने वाले चार कांग्रेसियों को पीसीसी भेज दिया गया लेकिन ऐसा हुआ नहीं. हालांकि पीसीसी सदस्यों की सूची 28 अगस्त को को ही सार्वजनिक की गई है मगर इसके बारे में अखबारों में जानकारियां पहले से ही छपती रही हैं. प्रदेश कांग्रेस के कद्दावर नेता व कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मचारी बताते हैं, ‘इस बार भी लोकसभा सदस्यों ने अपने-अपने क्षेत्रों में अपने चहेतों को सभी पदों पर काबिज करा दिया.’ राज्य कांग्रेस के खजांची रहे ब्रह्मचारी हरिद्वार में कई राज्य स्तरीय कार्यक्रम आयोजित कर चुके हैं. पर वे इस बार हरिद्वार से पीसीसी को सदस्य बनने में सफल नहीं हो सके. ब्रह्मचारी के अनुसार वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में अधिक से अधिक समर्थकों को टिकट दिलाने के लिए ‘कागजी परिस्थितियां’ निर्मित करने के फेर में इन क्षत्रपों ने अपने क्षेत्र के अलावा अन्य लोकसभा क्षेत्रों में भी जमकर दखलअंदाजी की.

असंतुष्टों में सबसे मुखर खेमे के कांग्रेसियों ने पूर्व विधायक कुंवर सिंह नेगी, प्रदेश उपाध्यक्ष जोत सिंह बिष्ट, राजेंद्र शाह व सब्बल सिंह राणा के नेतृत्व में प्रदेश के 13 जिलों में से 10 में बैठकें कीं. पिछले दिनों इन नेताओं ने नौ जिलों में संगठन के चुनावों में हुई अनियमितताओं की एक रिपोर्ट बनाकर उत्तराखंड में कांग्रेस चुनाव के लिए गठित प्राधिकरण के अध्यक्ष मुकुट मिथी को दिल्ली में सोंपीं.

असंतुष्टों का आरोप है कि टिहरी जिले के जौनपुर ब्लॉक (थत्यूड़) में सर्वसम्मति से देवी सिंह चौहान पीसीसी सदस्य चुने गए थे. उनके पास ब्लॉक चुनाव अधिकारी(बीआरओ) प्यारेलाल हिमानी के हस्ताक्षर का पत्र भी है.  परंतु बाद में उनका नाम काट दिया गया। इसी तरह थौलधार ब्लॉक से जोत सिंह बिष्ट को निर्विरोध पीसीसी सदस्य चुना गया था. वे थौलधार के ब्लॉक प्रमुख भी रहे हैं. लेकिन बाद में वहां से टिहरी के लोकसभा सदस्य विजय बहुगुणा का नाम पीसीसी के लिए भेज दिया गया. बिष्ट का आरोप है कि ‘हर स्तर पर चुनाव में बेईमानी हुई है. संगठन की मतदाता सूचियां तक गोपनीय रखी गई. कुछ लोगों ने फर्जी सदस्यता के दम पर संगठन पर कब्जा जमाने की कोशिश की है जिससे पूरी चुनाव प्रक्रिया से जमीनी कार्यकर्ता गायब हैं.’ असंतुष्टों की रिपोर्ट के अनुसार पूरे टिहरी लोकसभा क्षेत्र में चुनाव के दौरान पार्टी द्वारा तय आरक्षण के नियमों का पालन नहीं किया गया. यहां से आरक्षित 16 पीसीसी सीटों में से केवल 2-3 पर ही आरक्षित वर्ग के नुमाइंदे पीसीसी में भेजे गए. टिहरी में जिलाध्यक्ष कीर्ति सिंह नेगी तीसरी बार जिलाध्यक्ष चुन लिए गए जबकि आरोप है कि इस पद के अन्य दावेदार विक्रम सिंह पंवार को नामांकन फार्म तक नहीं दिया गया.

‘राज्य के लगभग सभी जिलों में पार्टी संविधान और चुनाव प्रक्रिया की घोर अवहेलना हुई है,’असंतुष्टों के नेता और पूर्व विधायक कुंवर सिंह नेगी आरोप लगाते हैं. राज्य के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता नेगी भी रुद्रप्रयाग जिले से पीसीसी नहीं जा पाए हैं. उनका आरोप है कि सदस्यता फॉर्मों की छानबीन का काम जिलाध्यक्षों को दे दिया गया था जिन्होंने अपने चहेतों के तो आधे-अधूरे फार्म भी जमा कर लिए परंतु विपक्षियों के रास्ते में तरह-तरह की बाधाएं खड़ी कीं.

रिपोर्ट के अनुसार रुद्रप्रयाग जिले में डेलीगेटों की बैठक तक नहीं कराई गई और चुनाव प्रक्रिया एक दुकान से संचालित कर अखबारों में पदाधिकारियों के नाम घोषित कर दिए गए. रुद्रप्रयाग  के जिला चुनाव अधिकारी (डीआरओ) व पूर्व विधायक अनुसूया प्रसाद मैखुरी स्वीकार करते हैं कि रुद्रप्रयाग में चुनाव प्रक्रिया एक कार्यकर्ता की दुकान से संचालित की गई, मगर ऐसा किए जाने का कारण वे जिले में कांग्रेस का कोई कार्यालय न होने को बताते हैं. वे कहते हैं, ‘पार्टी के कुछ लोग चुनाव प्रक्रिया को ठीक से नहीं समझ पाए हैं, इसलिए चुने गए लोगों का विरोध कर रहे हैं.’ किंतु राज्य आंदोलनकारी रहे कांग्रेसी नेता राजेंद्र शाह खुली चेतावनी देते हुए कहते हैं, ‘पिछले दरवाजे से संगठन में घुस रहे इन दागियों, बागियों और रागियों (चाटुकारों) को पार्टी पदों पर काबिज होने नहीं दिया जाएगा.’ वे बताते हैं कि आपराधिक मुकदमों के बावजूद कई लोग पीसीसी की सूची में हैं.

संगठन के इन चुनावों में कुमाऊं के 6 जिलों में से केवल पिथौरागढ़ व चंपावत में ही नए जिलाध्यक्ष चुने गए हैं. ये जिले अल्मोड़ा के सांसद प्रदीप टम्टा के लोकसभा क्षेत्र में आते हैं. हटाए गए जिलाध्यक्ष उनके समर्थक माने जाते हैं. बाकी चार जिलों में पहले के जिलाध्यक्षों की ही फिर से ताजपोशी कर दी गई. पिथौरागढ़ से पूर्व अध्यक्ष नारायण सिंह बिष्ट बताते हैं, ‘पिथौरागढ़ के 4,000 सदस्यों की सूची तक गायब है. उनका पैसा कहां गया यह तक किसी को पता नहीं है.’पिछले 10 साल से चंपावत की जिलाध्यक्षा रहीं निर्मला गहतोड़ी बताती हैं कि जिन लोगों ने वर्ष 2002

व 2007 के चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशियों के विरुद्ध खुलकर प्रचार किया, चुन-चुनकर उन्हें ही पदाधिकारी बनाया गया है. जोत सिंह बिष्ट के मुताबिक इस बार पीसीसी की सूची में 8 लोग ऐसे हैं जिन्होंने 2007 में कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवारों के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़ा था. जबकि कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े 7 लोगों के नाम इसमें हैं ही नहीं. इनमें 25 साल से एआईसीसी के सदस्य रहे दिग्गज कांग्रेसी शूरवीर सिंह सजवाण भी हैं. उनका आरोप है कि इस सूची में ब्लॉक इकाइयों द्वारा सर्वसम्मति से भेजे गए 9 राज्य आंदोलनकारियों के भी नाम काट दिए गए हैं और 11 कांग्रेसियों को दूसरे जिलों से पीसीसी में भेजा गया है.

इन असंतुष्टों ने उत्तरकाशी, नैनीताल व उधमसिंह नगर जिलों में हुई अनेक अनियतिताओं को रिपोर्ट के जरिए हाईकमान को पेश किया है. इस रपट में पौड़ी जिले की भी कुछ मामूली शिकायतें हैं परंतु चमोली, अल्मोड़ा, हरिद्वार व बागेश्वर जिलों की अनियमितताओं का कोई जिक्र नहीं है. लेकिन हरिद्वार में एकतरफा जिलाध्यक्ष घोषित करने व चुनावों में हुई धांधलियों के आरोपों को लेकर पिछले एक महीने से कांग्रेसियों का पुतला फूको कार्यक्रम चल रहा है. यहां के कांग्रेसी नेता राजेंद्र कुमार चौधरी ‘जाट’ बताते हैं कि उनके अलावा मैदान में रहे दो अन्य प्रत्याशियों में से एक ने उनके समर्थन में नामांकन वापस ले लिया था. चुनाव की घोषित तिथि 15 जुलाई को जब पांच बजे तक चुनाव अधिकारी हरिद्वार नहीं आए तो उन्होंने उसी दिन दिल्ली जाकर मुकुट मिथी और आस्कर फर्नाडीज के पास शिकायत दर्ज करा दी. राजेंद्र जाट का दावा है कि हरिद्वार में डीसीसी के 72 में से 41 डेलीगेटों का लिखित समर्थन उनके साथ है फिर भी राजेन्द्र चौधरी को फिर से जिलाध्यक्ष बना दिया गया. हरिद्वार के कांग्रेसी बताते हैं कि ब्रह्मचारी जैसे वरिष्ठ नेता को 100 रुपए की सदस्यता वाली पर्ची कटाने के लिए अपनी एड़ियां घिसनी पड़ गई थीं.

इसी तरह अल्मोड़ा जिले के वरिष्ठ कांग्रेसी व प्रदेश कांग्रेस कमिटी के सचिव केवल सती कहते हैं, ‘अल्मोड़ा में चुनाव अधिकारियों ने कार्यकर्ताओं की बैठकें तक नहीं की, बस 100 रूपए और 2 फोटो ले लिए.’ अल्मोड़ा की 13 ब्लॉक व नगर इकाइयों में से आधे में तो कुल पोलिंग बूथों के 50 फीसदी सदस्य न होने के बावजूद चुनाव हो गए. पार्टी  संविधान के अनुसार यह गलत है. अल्मोड़ा के असंतुष्ट कांग्रेसी भी दिल्ली जाकर आस्कर फर्नाडीज व आरके धवन को अपना दुखड़ा सुना चुके हैं. असंतुष्ट कांग्रेसियों की जिलेवार वैठकें कर रहे इस गुट के चार कांग्रेसियों(नेगी, बिष्ट, शाह व राणा) को कांग्रेस की राज्य अनुशासन समिति ने कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया है. समिति के अध्यक्ष व पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह भंडारी के अनुसार ‘इन कांग्रेसियों के अपनी शिकायतें उचित फोरम मंे न उठाने की वजह से पार्टी की बदनामी हुई है.’ असंतुष्ट खेमे का मानना है कि ‘गुपचुप व फर्जी चुनाव कराने के लिए दोषी चुनाव अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई होनी चाहिए क्योंकि ये कृत्य भी अनुशासनहीनता के दायरे में आते है’.

कांग्रेस कार्यकर्ता व टिहरी के एडवोकेट ज्योति भट्ट दावा करते हैं कि उन्होंने चुनावों में हुई धांधलियों की याचिका जून में राज्य चुनाव प्राधिकरण के अध्यक्ष मुकुट मिथी के सामने दायर की थी. कुछ न होने पर उन्होंने कांग्रेस के राष्ट्रीय चुनाव प्राधिकरण के अध्यक्ष आस्कर फर्नाडीज से शिकायत की. भट्ट धमकी देते हैं कि अगर कार्रवाई न हुई तो वे न्यायालय की शरण लेंगे क्योंकि मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को संगठन के चुनाव निष्पक्ष कराना आवश्यक हैं.

‘हर लोकसभा चुनाव क्षेत्र में पदाधिकारी बनने वाले अधिकांश कांग्रेसी वर्तमान सांसद के गुट के हैं.’ वरिष्ठ पत्रकार हरीश जोशी बताते हैं कि जिस गुट की जहां चली उसने दूसरे का समूल नाश कर दिया. संगठन चुनावों से खिन्न एक कांग्रेसी कार्यकर्ता कहते हैं, ‘कार्यकर्ताओं को सम्मान देना तो महज एक नारा है. असल में जमीनी कार्यकर्ताओं की किसी को परवाह ही नहीं है.’