उतावलेपन के चश्मे से संतुलित

कई संशोधनों के बाद अब परमाणु उत्तरदायित्व बिल काफी हद तक संतुलित है. फिर भी इसमें कई अनावश्यक जटिलताएं और कमियां हैं

परमाणु उत्तरदायित्य विधेयक कई दिनों की खींचतान के बाद 25 अगस्त को लोकसभा और 30 अगस्त को राज्यसभा में पारित होकर तमाम सवाल पीछे छोड़ गया है. विधेयक का घोषित उद्देश्य किसी परमाणु प्रतिष्ठान में दुर्घटना की स्थिति में पीड़ितों को उचित मुआवजा और इसका तालमेल कुछ अंतर्राष्ट्रीय करारों के साथ सुनिश्चित करना था. इसके मूल विधेयक को मई में लोकसभा में पेश किया गया था. तब इसके कई प्रावधानों पर काफी हो-हल्ला मचा था जिसके बाद इसे संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया था.

विपक्ष को मूल विधेयक की मुख्यतः दो बातों पर एतराज था. एक, अधिकतम मुआवजा कितना और कैसे दिया जाए और दूसरा परमाणु संयंत्र चलाने वाले (संचालक) का यदि दोष न हो तो ऐसे में अपने नुकसान की भरपाई परमाणु उपकरण बेचने वाली संस्था (आपूर्तिकर्ता) से वह कैसे कर सकता है?

मूल बिल में अधिकतम मुआवजे की सीमा करीब 2,100 करोड़ रुपए रखी गई थी जिसमें से संचालक का हिस्सा सिर्फ 500 करोड़ रुपए ही था. बाकी 1600 करोड़, यदि जरूरी हो तो, सरकार को देना था. बिल में यह स्पष्ट नहीं था कि संचालक पीड़ितों के नुकसान को पहले ही भर देगा या आपूर्तिकर्ता से उसे मुआवजा मिलने या न मिलने के फैसले के बाद ऐसा करेगा.

1986 में युक्रेन के चेर्नोबिल में विश्व की अब तक की सबसे बड़ी परमाणु दुर्घटना हुई थी. इसमें कम से कम साढ़े तीन लाख लोग विस्थापित हुए थे और प्रभावित लोगों की कुल संख्या छह लाख पार कर गई थी. भोपाल गैस त्रासदी में मारे गए कुल लोगों की संख्या करीब 20 हजार बताई जाती है और इससे प्रभावित लोगों की संख्या पांच लाख से ज्यादा. भोपाल त्रासदी के बाद यूनियन कार्बाइड से मिला मुआवजा – जिसे बहुत कम माना जाता है – भी मूल परमाणु उत्तरदायित्व बिल में ऑपरेटरों के लिए निर्धारित मुआवजे की राशि के चार गुने से ज्यादा था. इसके अलावा यह कौन-सा तरीका है कि करे कोई और भरे कोई. यानी मान लिया जाए कि गलती परमाणु संयंत्र चलाने वाले की हो तो दुर्घटना की हालत में वह तो केवल 500 करोड़  देगा और इसके ऊपर के 1,600 करोड़ जनता के पैसे से ही जनता को दे दिए जाएंगे. जाहिर सी बात है विपक्ष तो क्या किसी को भी इन बातों पर एतराज हो सकता था.

सवाल यह भी है कि विधेयक में सरकार ने ऑपरेटर और सरकार को अलग-अलग क्यों बताया है जबकि हमारे देश में सारे परमाणु संयंत्र परमाणु ऊर्जा कानून, 1962 के मुताबिक सरकारी ही हैं. तो क्या उत्तरदायित्व विधेयक परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में निजी कंपनियों की घुसपैठ की दिशा में एक छोटा-सा कदम था?

चारों दिशाओं से उठे हल्ले के बाद संसद में पारित विधेयक में ऑपरेटरों के उत्तरदायित्व की अधिकतम सीमा 500 की बजाय 1,500 करोड़ रुपए कर दी गई है. हालांकि विधेयक में कुल क्षतिपूर्ति की सीमा अभी भी 2,100 करोड़ ही है लेकिन यह सरकार को इसे बढ़ाने के अधिकार भी देता है. पारित विधेयक की दो और महत्वपूर्ण बातें ये हैं कि एक तो अब यह केवल सरकारी संस्थानों पर ही लागू होता है और दूसरा ऑपरेटर को दुर्घटना की हालत में अपनी ओर से ही बिना आपूर्तिकर्ता को बीच में लाए मुआवजे की राशि दे देनी होगी.

दूसरे बड़े एतराज की बात करें तो मई में पेश हुए मूल विधेयक के मुताबिक संचालक को केवल उस हालत में ही ‘परमाणु सामग्री, उपकरणों या सेवाओं के आपूर्तिकर्ता’ से क्षतिपूर्ति का अधिकार था जब दुर्घटना उसके ‘जान-बूझकर किए गए कृत्यों या भयंकर लापरवाही’ की वजह से हुई हो. यह बड़ा अजीब था, गड़बड़ी तो गड़बड़ी ही है. आखिर यह कौन और कैसे तय करेगा कि गड़बड़ी जानबूझकर की गई थी. जब संसदीय समिति ने काफी विचार-विमर्श के बाद इस प्रावधान को हटाने की सिफारिश कर दी तो सरकार ने एक अलग ही शगूफा छोड़ दिया. उसने ‘जान-बूझकर’ किए गए कृत्यों को ‘क्षति पहुंचाने की नीयत’ से अंजाम दिए कृत्य में तब्दील कर दिया. मानो किसी की नीयत सही है या खराब इसका फैसला करना बेहद आसान हो. इस परिवर्तन ने सरकार की नीयत पर ही तमाम सवाल खड़े कर दिए. बाद में सरकार को एक बार फिर से झुकना पड़ा. अब आपूर्तिकर्ता के किसी भी कृत्य से हुई परमाणु दुर्घटना की हालत में संचालक हर्जाने का दावा कर सकता है.

हालांकि अब यह बिल काफी हद तक संतुलित है फिर भी इसमें कई अनावश्यक जटिलताएं और कमियां हैं. मसलन यदि केंद्र सरकार किसी प्रक्रिया से गुजरकर ज्यादा मुआवजे का प्रावधान कर सकती है तो फिर इस विधेयक में इसकी अधिकतम सीमा निर्धारित ही क्यों की गई है ? अमेरिका की बात करें तो यहां ऑपरेटरों के लिए क्षतिपूर्ति की सीमा करीब 50 हजार करोड़ रुपए (भारत की करीब 25 गुनी) और सरकार के लिए असीमित है. जापान में ऑपरेटरों और सरकार दोनों के ही उत्तरदायित्व की सीमा असीमित है.

विधेयक में एक ओर तो लिखा है कि यह केवल सरकारी संस्थानों पर लागू होगा मगर इसमें सरकार और संचालकों को अलग करके रखा गया है.
विधेयक  मुआवजा, उत्तरदायित्व और इसकी प्रक्रिया की बात तो करता है. लेकिन दुर्घटना की स्थिति में इलाज आदि की व्यवस्था पर कुछ नहीं कहता.

यह कहना कि हमारे देश में चाहे संचालक मुआवजा दे या सरकार बात तो एक ही है, सही नहीं है. चूंकि परमाणु उपकरणों के आपूर्तिकर्ता से मुआवजा केवल संचालक ही मांग सकता है, इसलिए विदेशी आपूर्तिकर्ता कंपनी के मुआवजे की सीमा संचालक की 1,500 करोड़ रुपए की सीमा तक ही सिमट जाती है.

परमाणु ऊर्जा के मसले पर जिस तरह की जल्दबाजी और कुछ भी दांव पर लगा देने का उतावलापन सरकार ने अब तक दिखाया है, यदि उसको ध्यान में रखा जाए तो इस विधेयक को संतुलित कहा जा सकता है.

संजय दुबे, वरिष्ठ संपादक