आत्महत्या पर उतारू चैनल

समाचार चैनलों के आलोचकों का दायरा लगातार बढ़ रहा है और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए  यह शुभ संकेत नहीं

समाचार चैनलों के लिए खतरे की घंटी तो काफी समय से बज रही है लेकिन अब लगता है कि पगली घंटी भी बज गई है. चैनल न सिर्फ सार्वजनिक मजाक और आलोचना के विषय बन गए हैं बल्कि उनकी कारगुजारियों को लेकर भी लोगों में गुस्सा बढ़ता जा रहा है. यह आलोचना, उपहास और आक्रोश कई रूपों में सामने आ रहा है. चैनलों के कर्ता-धर्ता अपने शीशे के चैंबरों से बाहर झांकें और अपनी ही बनाई ‘मेक बिलीव’ दुनिया से बाहर देखें कि अब यह सिर्फ कुछ ‘कुंठित, असफल और अज्ञानी’ मीडिया आलोचकों की राय नहीं है बल्कि आलोचकों का दायरा और उनकी तादाद लगातार बढ़ती जा रही है.

सरकार चैनलों के कंटेंट रेगुलेशन का जाल बिछाकर बैठी है. अपनी आदत से मजबूर चैनल इसमें फंसने के लिए लगभग प्रस्तुत हैंकुछ हालिया उदाहरण सामने हैं. समाचार चैनलों की भेड़चाल, हमेशा सनसनी की तलाश, अंधी होड़ और असंवेदनशीलता की खिल्ली उड़ाती फिल्म ‘पीपली लाइव’ को ही लीजिए. मानना पड़ेगा कि आमिर खान को वक्त और जनता की नब्ज की सही समझ है. उनकी फिल्म बिलकुल सही समय पर आई है. ऐसे समय में जब समाचार मीडिया खासकर समाचार चैनल मजाक के विषय बन गए हैं और दर्शकों में उनकी कारगुजारियों को लेकर गुस्सा बढ़ता जा रहा है, इस फिल्म के आने के कई मायने हैं. इससे पहले रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘रण’ ने भी चैनलों के बीच और उनके अंदर चलने वाली गलाकाट होड़,  खबरों के साथ खिलवाड़ और तोड़-मरोड़ को सामने लाने की कोशिश की थी.

असल में, ‘पीपली लाइव’ ने समाचार चैनलों की लगातार बदतर, बदरंग और बेमानी होती पत्रकारिता और उनकी नीचे गिरने की सामूहिक होड़ को एक बड़े दर्शक वर्ग के सामने उघाड़कर रख दिया है. अगली बार इस फिल्म को देखने वाला कोई दर्शक समाचार चैनलों की किसी खबर के साथ ऐसे ही खेल को देखेगा तो हैरान-परेशान होने की बजाय शायद वह हंसेगा.

इसमें कोई शक नहीं कि यह फिल्म समाचार चैनलों और उनके कामकाज के तरीकों का खूब मजाक उड़ाती है लेकिन उससे अधिक यह एक दुखांतिका है. सच पूछिए तो ‘पीपली लाइव’ किसानों की आत्महत्या से ज्यादा चैनलों की आत्महत्या की कहानी है.
कहते हैं कि विज्ञापन निर्माताओं की भी उपभोक्ताओं के मनोविज्ञान पर जबरदस्त पकड़ होती है. अगर आपने समाचार चैनलों की ब सिर-पैर पत्रकारिता का मजाक उड़ाता ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ का एक टीवी विज्ञापन देखा हो तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि लोग समाचार चैनलों और उनकी पत्रकारिता को कैसे देखते हैं? विज्ञापन में नकली दवा के शिकार मृतक की शोकसंतप्त पत्नी के आगे माइक लगाकर एक टीवी रिपोर्टर पूछती है कि उसे कैसा लग रहा है. इस सवाल पर रिपोर्टर के सिर पर पीछे से अखबार की थाप पड़ती है और संदेश आता है: ‘इट्स टाइम फॉर बेटर जर्नलिज्म.’ साफ है कि अखबार अपने को समाचार चैनलों की पत्रकारिता से अलग दिखाने की कोशिश कर रहे हैं.

बात फिल्म और विज्ञापन तक ही सीमित नहीं. पिछले पखवाड़े ही सुप्रीम कोर्ट ने आरुषि मामले में कुछ चैनलों और अखबारों की निहायत ही गैर जिम्मेदार, सनसनीखेज और चरित्र हत्या करने वाली रिपोर्टिंग को गंभीरता से लेते हुए इस तरह की रिपोर्टिंग पर प्रतिबंध लगा दिया है. यह सामान्य निर्देश नहीं है. लेकिन इक्का-दुक्का आवाजों को छोड़कर इसके विरोध में कोई सामने नहीं आया. उधर, केंद्र सरकार चैनलों के कंटेंट रेगुलेशन का जाल बिछाकर बैठी हुई है. अपनी आदत से मजबूर चैनल उस जाल में फंसने के लिए लगभग प्रस्तुत हैं.

यह सचमुच बहुत अफसोस और चिंता की बात है कि चैनल सब-कुछ जानते-समझते हुए भी आत्महत्या पर उतारू हैं. अगर कोई चैनल रक्षाबंधन पर ‘जहरीली बहना’ शीर्षक से मिठाइयों में मिलावट पर कार्यक्रम दिखाता है तो उसे क्या कहा जाए? साफ है पानी सिर से ऊपर बहने लगा है. मुझे खुद भी अकसर इसका अनुभव होता रहता है. अभी पिछले सप्ताह एनसीईआरटी में दिल्ली के जाने-माने स्कूलों की शिक्षिकाओं के एक मीडिया प्रशिक्षण कार्यक्रम में समाचार चैनलों को लेकर उनके तीखे सवालों के बीच मेरे लिए लोकतंत्र में पत्रकारिता की भूमिका और उसकी जरूरत का बचाव करना मुश्किल होने लगा. उनसे बात करते हुए लगा कि वे सिर्फ समाचार चैनलों ही नहीं, पूरी पत्रकारिता से चिढ़ी हुई हैं.

यह स्थिति हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं. एक स्वतंत्र, निष्पक्ष, ताकतवर और सक्रिय समाचार मीडिया और उसकी बेहतर पत्रकारिता के बिना लोकतंत्र की जड़ें सूखने लगती हैं. समाचार मीडिया की आज़ादी और उसकी ताकत दर्शकों, पाठकों और श्रोताओं के भरोसे पर टिकी होती है. पर समाचार चैनल अपनी कारगुजारियों से दर्शकों का विश्वास खो रहे हैं. पता नहीं क्यों वे यह नहीं समझ पा रहे कि यह विश्वास खोकर वे कहीं के नहीं रहेंगे? यह और बात है कि इसका सबसे अधिक नुकसान आम लोगों और लोकतंत्र को ही होगा. पगली घंटी जोर-जोर से बज रही है. लेकिन क्या आत्महत्या पर उतारू चैनल उसे सुन पा रहे हैं?