जहां नायिका, नायक है… : अंतर्द्वंद्व

फिल्म अंतर्द्वंद्व

निर्देशक सुशील राजपाल

कलाकार राज सिंह चौधरी, विनय पाठक, स्वाति सेन

रंगीन समय में ‘अंतर्द्वंद्व’ ब्लैक ऐंड व्हाइट नाम है और शहरी दर्शकों की बहुतायत (और छोटे शहरी, ग्रामीण भी) ऐसे नाम वाली फिल्म से कन्नी काटना ही पसंद करेगी, लेकिन आपको अपनी सीमाओं से थोड़ा बाहर जाकर फिल्में देखना और अच्छा पाने पर आनंदित होना अच्छा लगता हो तो यह फिल्म आपके लिए है.

यह वह कहानी है जिसके आसपास की कहानियां भी इन दिनों नहीं दिखतीं. अपने परिवेश और भाषा के साथ यह एक नया विषय हिंदी सिनेमा को थमाती है. बिहार का एक लड़का जो दिल्ली में आईएएस की तैयारी कर रहा है, साथ ही एक शिद्दत वाला प्रेम भी और जिसके पिता किसी रसूखदार अमीर की बेटी से उसके कीमती ब्याह के सपने संजोए हुए हैं, उसे एक दूसरा अमीर (या रसूखदार गुंडा) अपनी बेटी से शादी करवाने के लिए उठवा लेता है. सब अंतर्द्वंद्व इसी अनोखी और भयानक शादी से
जुड़े हैं.

निर्देशक सुशील राजपाल सिनेमेटोग्राफर हैं, इसलिए अंधेरे-उजाले को मिलाकर खूबसूरत दृश्य रचते हैं. स्क्रिप्ट अच्छी है लेकिन थोड़ी और तेज, थोड़ी और गहरी हो सकती थी. डायलॉग थोड़े और तीखे, थोड़े और परेशान करने वाले हो सकते थे.

यह सामाजिक मुद्दे वाली श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी है, लेकिन मेरी शिकायत दिल्ली और दिल्ली की प्रेम कहानी को फिल्मी ढंग से दिखाने से है. दिल्ली में नायक के अपनी प्रेमिका के साथ नोक-झोंक या प्रेम के दृश्य वैसे ही हैं, जैसा किसी भी आम फिल्म में आप देखेंगे. मगर ऐसी कमियों को राज सिंह चौधरी, विनय पाठक और स्वाति सेन अपनी विश्वास दिलाने वाली एक्टिंग से काफी हद तक ढंक लेते हैं.

असल जिंदगी में ऐसी शादियां जितनी क्रूर हैं, फिल्म उससे थोड़ी कम ही क्रूर होती है, इसलिए ज्यादा परेशान नहीं करती. हां, उसकी सफलता यह है कि वह उस शादी से जुड़े हर पहलू को आपको सीधा दिखा देती है. वह विनय पाठक के रूप में ऐसा बहुसंख्यक मध्यवर्गीय पिता दिखाती है जो अपने बेटे के सब फैसले करना चाहता है और वह अगर दिल्ली में किसी पंजाबिन से प्रेम रचा रहा है तो यह उसके आईएएस बनने की तमाम संभावनाओं के बावजूद घोर चारित्रिक पतन है. हालांकि भीतर की परत में अपनी मर्जी का रिश्ता करवाने में उसके सामाजिक स्वार्थ हैं.

फिल्म दिल्ली की प्रेम कहानी की भी नब्ज टटोलती है और उसे शुरू के दृश्यों की तरह उतना फिल्मी नहीं रहने देती. लेकिन असली अंतर्द्वंद्व उस लड़के और लड़की के भीतर छिड़ा है जिन्हें जबरन बलि पर चढ़ा दिया गया है. यहां लड़के के भीतर उतरना आसान और पारंपरिक है, लेकिन फिल्म लड़की के मन के भीतर गहरे उतरती है और उसे नायक बनाकर जीत जाती है.

गौरव सोलंकी