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‘‘अविरल धारा के नाम पर धर्माचार्य गंगा को शौचालय बनाये रखना चाहते हैं’

आप इतने वर्षों से गंगा पर बात और काम, दोनों कर रहे हैं. गंगा के सवाल पर रह-रहकर हो-हंगामा होता है लेकिन आम जनता कभी  आक्रोशित-आंदोलित होती नहीं दिखी! 

जनता को पूरी हकीकत का पता ही नहीं है कि गंगाजी के साथ क्या हो रहा है. जाकर कुंभ में देखिए, लाखों-करोड़ों की भींड़ होती है. पानी पीने लायक या नहाने लायक नहीं होता. फिर भी सरकार खुलकर नहीं कह पाती कि आप स्नान न करें, आचमन भी न करें. आखिर किसलिए प्रयाग पहुंचती है जनता? कुंभ के नाम पर प्रशासनिक दृष्टि से अलग जिला बनता है, स्पेशल टैक्स लिया जाता है, पोलियो- हैजा का टिका लगाते रहते हैं सरकार के लोग. लेकिन असलियत छुपाये रहते हैं. सच यह है कि संगम में नहाने लायक स्थिति नहीं है. और मीडिया भी तो दूसरी बातों को रटते रहती है. साधू संत कहते हैं कि माघ मेले या कुंभ के समय टिहरी नहीं खुलने पर जल समाधि ले लेंगे, मीडिया उसे प्रचारित करती है. कोई साधू-संतों से यह क्यों नहीं पूछता कि इलाहाबाद, नैनी, झूंसी का पूरा सीवर क्यों सालों भर गिरता रहता है प्रयाग नगरी में. संगम से बमरौली एयरपोर्ट तक तो नाले ही नाले हैं. गंगा में 40 प्वाइंट, यमुना में 20 प्वाइंट, झूंसी में 10 नाले हैं. 

 आप गंगा के मसले पर सरकार से ज्यादा साधू-संतों से खफा लगते हैं…!

  मैं किसी से खफा नहीं लेकिन असल मसले पर भी तो सबको बात करनी चाहिए. नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी ने काफी पहले दिखा दिया है कि नालों से गंगा कैसे पटी हुई है. अब बताइये इलाहाबाद में तो गंगा के लिए अलग से कोर्ट भी हो गया. हर साल मुकदमा होता है लेकिन 12 साल में हुआ क्या? गंगा के लिए एक भी ठोस आॅर्डर तो होता! कुंभ या माघ मेले के वक्त वहीं पास में रेत पर ही मिट्टी का तालाब बनाकर मल को जमा किया जाता है. यह सामान्य समझ क्या किसी को नहीं कि मल भले तालाब में जमा हो जाए, पानी तो अंदर-अंदर फिर गंगा में ही जाना है. और कुछ लोग गंगाजी की दुर्दशा के लिए उन गंगापे्रमियों को दोषी ठहराते रहते हैं, जो नियमित रूप से गंगा को उपयोग में लाते हैं. कहते हैं कि धोबी के कपड़ा धोने से, भक्तों द्वारा प्लास्टिक फेंकने से, लाश जलाने से, फूल-माला आदि फेंकने से गंदगी फैल रही है. यह सरासर झूठ है. गंगा का जो कूल प्रदूषण है, उसमें गंगा प्रेमियों द्वारा पांच प्रतिशत से अधिक प्रदूषण नहीं फैलाया गया. 95 प्रतिशत प्रदूषण सीवर और औद्योगिक कचरों से है. गंगा प्रेमियों को भी दोष दीजिए लेकिन गंगा के किनारे जो 114 छोटे-बड़े शहर बसे हैं, कई औद्योगिक इकाइयां हैं,वहां के कचरों को सीधे गंगा में गिराया जाता है, यह ज्यादा महत्वपूर्ण और खतरनाक है, इसका रोना भी रोइये. लेकिन साधु-संन्यासी इस पर नहीं बोलेंगे, क्योंकि वे खुद अपना सीवर सीधे गंगाजी में गिराते हैं.

 आप नालों को गंगा की बर्बादी का मुख्य स्रोत मानते हैं. गंगा एक्शन प्लान तो सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की अवधारणा पर ही चलाया गया था! 

  गंगा एक्शन प्लान का हश्र तो सबने देख ही लिया है. इस देश के प्रधानमंत्री ने खुद स्वीकार किया है कि गंगा में 2900 मिलियन लीटर प्रतिदिन सीवेज गिरता है, उसमें 1200 मिलियन लीटर के ही ट्रीटमेंट की व्यवस्था है. वह ट्रीटमेंट भी किस तरह होता है, यह किसी से छुपा नहीं. बारिश और बाढ़ के दिनों में पूरा का पूरा नाला ही खोल दिया जाता है. गंगा एक्शन प्लान के बाद गंगाजल में बीओडी 20-23-25 तक रह रहा है, जबकि तीन से ज्यादा नहीं होना चाहिए. 

 कुल मिलाकर यह कि आपके अनुसार डैम, बराज, पावर हाउस या गंगा में टिहरी से फ्लो बढ़ाया जाना खास मसला नहीं बल्कि सीवर आदि हैं!देश को बिजली की जरूरत है, उस पर विचार किया जाना चाहिए लेकिन मैं यह तर्क कतई स्वीकार नहीं करता कि टिहरी से फ्लो बढ़ा दो, गंदगी को बहा ले जाएगी गंगा. धर्माचार्य आंदोलन तो कर रहे हैं लेकिन सीवर आदि पर नहीं बोलते, क्यांेकि बनारस, इलाहाबाद आदि जगहों पर वे खुद अपना सीवर गंगा में बहा रहे हैं. धर्माचार्य बस किसी तरह एक माह टिहरी से पानी छोड़ने की जिद करते हैं कि कुंभ और माघ मेला पार लग जाये. यह तो गंगा को टाॅयलेट की तरह मान लेना है कि गंगा शौचालय है, मल-मूत्र-गंदगी डालते रहिए और उपर टिहरी से पानी मारकर फ्लश करते रहिए. मैं सहमत नहीं हूं इससे. 

आप तो बड़े वैज्ञानिक भी हैं, कुछ विकल्प भी तो होगा आपके जेहन में? सीवर ट्रीटमेंट प्लांट तो फेल हो चुका है भारत में? 

 मैं तो गंगा किनारे इंटरसेप्टर बनाने की बात 1997 से ही कर रहा हूं. मैं कह रहा हूं कि घाटों के किनारे एक टनल बनाया जाना चाहिए, जिसमें सारे नारे सीधे गिरे और फिर उस टनल से कचरे को दूर ले जाया जाना चाहिए. बनारस में इसके लिए सात किलोमीटर दूर सोता नामक एक जगह पर जमीन भी हमने देखकर बताया है. वह लो लैंड है और रेगिस्तान जैसा है. टनल से सीवर के पानी को पहुंचाकर फिर एआईडब्ल्यूपीएच नाम से एक पद्धति है, उससे इसका ट्रीटमेंट होना चाहिए. यह पद्धति कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी द्वारा विकसित की हुई है और पिछले 40 साल से इसे आजमाया जा रहा है. बिजली की खपत इसमें न के बराबर है. 2008 में इसे स्वीकृत भी किया जा चुका है लेकिन अब डीपीआर में पेंच फंसाया जा रहा है और डीपीआर में भी एक्सप्रेसन ऑफ इंटेरेस्ट मांगा जा रहा है. पता नहीं क्या और कैसे करना चाहते हैं, समझ में नहीं आता.

 

एक नदी का मर्सिया

सूरज ठीक सिर पर आ चुका है. धूप तेज है मगर हवा ठंडी. देहरादून से करीब 45 किलोमीटर दूर जिस जगह पर हम हैं उसे डाक पत्थर कहते हैं. डाक पत्थर वह इलाका है जहां यमुना नदी पहाड़ों का सुरक्षित ठिकाना छोड़कर मैदानों के खुले विस्तार में आती है. यमुना इस मामले में भाग्यशाली है कि पहाड़ अब भी उसके लिए सुरक्षित ठिकाना बने हुए हैं. उसकी बड़ी बहन गंगा की किस्मत इतनी अच्छी नहीं. जिज्ञासा होती है कि आखिर गंगा की तर्ज पर यमुना के पर्वतीय इलाकों में बांध परियोजनाओं की धूम क्यों नहीं है. जवाब डाक पत्थर में गढ़वाल मंडल विकास निगम के रेस्ट हाउस में प्रबंधक एसपीएस रावत देते हैं. रावत खुद भी वाटर राफ्टिंग एसोसिएशन से जुड़े रहे हैं. वे कहते हैं, ‘पहाड़ों पर यमुना में गंगा के मुकाबले एक चौथाई पानी होता है. इसके अलावा यमुना पहाड़ों में जिस इलाके से बहती है वह चट्टानी नहीं होकर कच्ची मिट्टी वाला है जिस पर बांध नहीं बनाए जा सकते.’हालांकि यमुना की अच्छी किस्मत भी डाक पत्थर तक ही उसका साथ दे पाती है. यहां से आगे ऐसा लगता है कि जैसे हर कोई उसे जितना हो सके निचोड़ लेना चाहता हो. यमुना के किनारे चलते हुए तहलका ने उत्तराखंड से उत्तर प्रदेश तक अलग-अलग इलाकों की लगभग 600 किलोमीटर लंबी यात्रा की. हर जगह हमने यही पाया कि यमुना की हत्या में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही.

शिवालिक पहाड़ियों में पतली धार वाली घूमती-इतराती यमुना डाक पत्थर में अचानक ही लबालब पानी से भरा विशाल कटोरा बन जाती है. इसकी वजह है टौंस. इसी जगह पर यमुना से दस गुना ज्यादा पानी अपने में समेटे टौंस इससे मिलती है. डाक पत्थर वह जगह है जहां यमुना पर आदमी का पहला बड़ा हस्तक्षेप हुआ है. इस बैराज से एक नहर निकलती है और करीब बीस किलोमीटर आगे जाकर पांवटा साहिब में यमुना की मुख्य धारा में फिर से मिल जाती है. यानी डाक पत्थर से आगे यमुना की मुख्य धारा में एक बूंद भी पानी नहीं जाता. बीस किलोमीटर लंबी यह पट्टी जल विहीन है क्योंकि सारा पानी नहर में छोड़ा जाता है. डाक पत्थर से पांवटा साहिब तक जाने वाली इस नहर पर बीच में थोड़े-थोड़े अंतराल पर तीन जल विद्युत संयंत्र बन हुए हैं- ढकरानी, धालीपुर और कुल्हाल.

कहते हैं कि एक नेता जी ने कभी किसी बांध का विरोध करते हुए कह दिया था कि ‘पानी से बिजली निकाल लेंगे तो पानी में क्या बचेगा.’ नेता जी की यह टिप्पणी कई बार नेताओं की अज्ञानता पर व्यंग्य करने के लिए इस्तेमाल की जाती है. लेकिन अज्ञानता में कही गई उस बात में कुछ सच्चाई भी है. पानी से बिजली बनाने वाली परियोजनाओं की वजह से पानी का सब कुछ नहीं लेकिन बहुत कुछ खत्म हो जाता है. सर्दियों में पहाड़ की शीतल धाराओं से निकल कर जो मछलियां नीचे मैदानों की तरफ आती थीं वे गर्मियों में प्रजनन के लिए एक बार फिर से धारा की उल्टी दिशा में जाती थीं. कतला, रोहू, ट्राउट जैसी उन मछलियों का क्या हुआ कोई नहीं जानता. बड़ी-बड़ी पीठ वाले वे कछुए जिन्हें पौराणिक कथाओं में यमुना की सवारी माना गया है अब नहीं दिखते क्योंकि बांधों को कूद कर वापस ऊपर की तरफ जाने की कला उन्हें नहीं आती थी, खैर मछलियों और नदियों के आंसू किसने देखे हैं. उन 500 से ज्यादा मछुआरे गांवों के बारे में भी किसी सरकारी दफ्तर में कोई रिकॉर्ड नहीं है जो सत्तर के दशक तक इसी यमुना के पानी पर मछली पालन का काम करते थे. वे जल पक्षी भी अब नहीं दिखते जो पुराने लोगों की स्मृतियों में नदी के मुहानों पर जलीय जीवों का शिकार करते थे. डाक पत्थर से निकलने वाली यमुना नहर में बंशी लगाए बैठे 27 वर्षीय जितेंदर कहते हैं, ‘यहां कोई मछली नहीं मिलती. अपने खाने को मिल जाए वही बहुत है.’ हिमाचल प्रदेश के पांवटा साहिब में नहर यमुना की मुख्य धारा में मिलती है और उसे नया जीवन देती है. पांवटा साहिब सिखों का पवित्र धार्मिक स्थल है. कहते हैं कि गुरु गोविंद सिंह यहां कुछ दिन रुके थे. उन्होंने अपने कई हथियार यहीं छोड़ दिए थे जिनके दर्शन के लिए श्रद्धालु यहां आते हैं. डाक पत्थर से पांवटा साहिब तक एक तरफ हिमाचल प्रदेश और दूसरी ओर उत्तराखंड है. यमुना दोनों राज्यों की सीमा तय करती चलती है.

यमुना नहर की वजह से डाक पत्थर से पांवटा साहिब तक नदी की मुख्य धारा सूखी रहती है. इस 20 किमी की दूरी में जो हो रहा है उसे देखकर लगता है कि यमुना की हत्या के बाद उसकी लाश भी बुरी तरह नोची जा रही हो. सुप्रीम कोर्ट ने सालों पहले नदी में किसी भी तरह के खनन पर प्रतिबंध लगा रखा है. लेकिन नदी के बेसिन में खुदाई करते मजदूर और ट्रकों-ट्रैक्टरों का निर्बाध आवागमन देखना यहां कतई मेहनत का काम नहीं है. नदी के पाट में खनन का पारिस्थितिकी पर काफी बुरा असर पड़ता है. नदी की धारा बदल सकती है. मानसून में पानी आने पर तटों के कटाव का खतरा बढ़ जाता है. पांवटा साहिब औद्योगिक नगर भी है. यहां सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया है, टेक्सटाइल्स उद्योग हंै, केमिकल फैक्टरियां हैं और दवा के कारखाने भी हैं. इन सबकी थोड़ी-थोड़ी निर्भरता यमुना पर है और सबका थोड़ा-थोड़ा योगदान यमुना के प्रदूषण में है. हालांकि तब भी यह गंदगी उतनी ही है जितनी नदी खुद साफ कर सकती है.

यमुना की सफाई के नाम पर पिछले दो दशक के दौरान यमुना एक्शन प्लान के तहत करीब 1000 करोड़ रु खर्च हुए. यह अलग बात है कि इसके बावजूद नदी आज भी उतनी ही मैली है जितनी तब थी

पांवटा साहिब से यमुना आगे बढ़ती है. लगभग 25 किमी आगे कलेसर राष्ट्रीय प्राणी उद्यान के शांत और सुरम्य वातावरण से गुजरते हुए अचानक ही सामने एक विशाल बांध दिखता है. यह ताजेवाला है. यहीं पर हथिनीकुंड बांध बना है. यह यमुना की कब्र है. यहां से आगे एक बूंद पानी यमुना में नहीं जाता सिवाय बरसात के तीन महीनों के, जब नदी की धारा पर कोई बंधन काम नहीं करता.  यहां से यमुना का सारा पानी दो बड़ी नहरों में बांट लिया जाता है. पश्चिमी यमुना नहर और पूर्वी यमुना नहर. पश्चिमी यमुना नहर हरियाणा के आधे हिस्से की खेती-बाड़ी और प्यास बुझाने में होम हो जाती है, पूर्वी यमुना नहर उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से का गला तर करने में खेत रहती है. इस तरह नदी की मुख्य धारा एक बार फिर से सूख जाती है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारी डीडी बसु कहते हैं, ‘हथिनीकुंड में यमुना की मृत्यु हो जाती है. अगर एक भी फीसदी कुदरती बहाव यमुना में नहीं होगा तो केवल सीवर के पानी के सहारे यमुना जिंदा नहीं रहेगी. आप लाख ट्रीटमेंट प्लांट लगा लें.’

हथिनीकुंड में यमुना की मौत का नजारा देखने के बाद यमुनानगर आता है. यमुना के तट पर बसा पहला बड़ा शहर. हरियाणा में पड़ने वाला यह शहर हमें चकित करता है. यमुना में ठीक-ठाक पानी मौजूद है. जब हथिनीकुंड से पानी आगे बढ़ता ही नहीं तो यहां पानी पहुंचा कैसे? इसका जवाब नदी के किनारे-किनारे उस सीमा तक यात्रा करने पर मिलता है जहां से यमुना यमुनानगर में घुसती है. दसियों छोटे-बड़े नाले मुख्य धारा में अपना मुंह खोले हुए हैं. एक बड़ा विचित्र खेल यहां देखने को मिलता है. जहां दस एमएलडी क्षमता वाला सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा है उसके ठीक बगल से दो बड़े नाले बिना किसी ट्रीटमेंट के नदी में मिल रहे हैं. यहीं पर यमुनानगर का श्मशान घाट भी है. इससे थोड़ा ऊपर की तरफ हिमालय की निचली पहाड़ियों से निकलने वाली एक-दो छोटी धाराएं भी यमुना में मिलती हैं और इसे जीवन देती हंै. नदी किनारे दसियों लोग मछली मारते हुए दिखते हैं. लेकिन डाक पत्थर के उलट यहां मछली मारने वालों का उद्देश्य अलग है. वे जानते हैं कि ये मछलियां खाने के लायक नहीं हैं. वे इन्हें पकड़ते हैं और पास में ही रेहड़ी लगा कर बेच देते हैं. यहां नदी किनारे घूमते वक्त एक भी ऐसा स्थान नहीं मिला जहां नाक से रुमाल हटाया जा सके. यहां से आगे दो और शहर हैं- सोनीपत और पानीपत. हालांकि ये ठीक नदी किनारे नहीं हैं. इसलिए इनकी गंदगी का कुछ हिस्सा ही यमुना को ढोना पड़ता है. कुछ मौसमी धाराओं और भूगर्भीय जलस्त्रोतों से खुद को जिंदा रखते हुए यमुना आगे दिल्ली की तरफ बढ़ती है.

करीब 200 किलोमीटर पहाड़ों में और इससे थोड़ा-सा ज्यादा मैदानों में घूमते-घामते यमुना पल्ला गांव पहुंचती है. यह गांव दिल्ली की उत्तरी सीमा पर बसा है और यहां से यमुना की दिल्ली यात्रा शुरू होती है. 22 किलोमीटर की इस पट्टी में 22 तरह की मौतें है. एक मरी हुई नदी को बार-बार मारने का मानवीय सिलसिला यहां चलता है. पहला काम होता है वजीराबाद संयंत्र के पास बचा हुआ सारा पानी निकालने का. दो करोड़ लोगों के भार से दबे जा रहे यमुना बेसिन के इस शहर का एक हिस्सा अपनी प्यास इसी पानी से बुझाता है. इस पानी को निकालने के बाद इसकी पूर्ति करना भी तो जरूरी है सो दिल्ली ने नजफगढ़ नाले का मुंह यहीं पर खोल दिया है. अपने आठ सहायक नालों के साथ तैयार हुआ यह नाला शहर की शुरुआत में नदी का गला घोंट देता है. अब यहां से यही कचरा लेकर यमुना आगे बढ़ती है और बीच-बीच में कई दूसरे कचरे अपने भीतर समेटती चलती है. बदरपुर के पास शहर छोड़ने से ठीक पहले एक और बड़ा नाला, जिसे शाहदरा ड्रेन के नाम से जाना जाता है, इसमें आकर मिल जाता है. अपनी गंदगी से मुक्ति पाकर शहर कभी यह सोचने की जहमत ही नहीं करता कि जो कचरा उसने छोड़ा, वह गया कहां. और अगर वह फिलहाल चला भी गया तो क्या हमेशा के लिए चला गया?

दिल्ली कितनी गंदगी यमुना में घोलती है, इसका एक अंदाजा यहां यमुना में मौजूद कोलीफॉर्म बैक्टीरिया से लगाया जा सकता है. ये बैक्टीरिया पानी में मानव मल के ऊपर ही पोषित होते हैं. कोलीफॉर्म से प्रदूषित पानी हैजा, टायफाइड और किडनी खराबी जैसी बीमारियां फैलाता है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यानी सीपीसीबी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पल्ला में जहां नदी शहर में प्रवेश करती है वहां कोलीफॉर्म का स्तर सामान्य से 30 से लेकर 1,000 गुना तक ज्यादा है. और शहर पार करने के बाद ओखला बांध के पास इसकी मात्रा सामान्य से दस हजार गुना तक ज्यादा पाई गई है. यानी यह पानी छूने लायक भी नहीं.

हालांकि दिल्ली के नालों को सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के जरिए साफ करने की कई योजनाएं हैं. हम इन्हें यमुना एक्शन प्लान के नाम से जानते हैं. 1993 से हम इसके बारे में सुनते आ रहे हैं और आज भी यह प्लान उतना ही सफल-असफल है जितना दो दशक पहले था. तब भी यमुना मैली थी आज भी मैली है. हां! सफाई के नाम पर इन दो दशकों में 1000 करोड़ रुपये जरूर साफ हो चुके हैं. फिलहाल यमुना एक्शन प्लान का तीसरा चरण शुरू हो चुका है. हर योजना समय पर पूरी होने में असफल रही है. हर योजना के बजट में बाद में दिल खोलकर बढ़ोतरी भी की गई है. लेकिन हासिल के नाम पर कुछ नहीं है. एक जिम्मेदार अधिकारी इस संबंध में पूछने पर पहले तो कुछ बोलने से मना करते हैं. फिर जल्द ही नजदीक खड़े अपने रिटायरमेंट की दुहाई देते हैं और फिर नाम न छापने की शर्त पर ऐसी बात बताते हैं जिससे शायद ही दुनिया को कोई फर्क पड़े. वे कहते हैं, ‘देखिए, इस तरह की योजनाओं के पूरा होने का समय और उस पर आने वाली लागत अनुमानित होती है. इनका बढ़ना कोई बड़ी बात नहीं है.’यह कहकर वे चले जाते हैं. सवाल है कि आखिर इस देश में ऐसी भी कोई योजना है जिसने अनुमानित अवधि से पहले अपना काम निपटा दिया हो और आवंटित बजट से कम में काम कर दिखाया हो? हर बार यह अनुमान बढ़ता ही क्यों है?

हाल ही में देश के 71 शहरों द्वारा पैदा किए जा रहे मल-मूत्र पर दिल्ली स्थित चर्चित संस्था सेंटर फॉर साइंस एेंड इनवायरनमेंट(सीएसई) की एक रिपोर्ट आई है. इसमें दिल्ली द्वारा पैदा की जा रही गंदगी पर विस्तार से रोशनी डाली गई है. सीएसई के प्रोग्राम डाइरेक्टर फॉर वाटर नित्या जैकब बताते हैं, ‘यह शहर हर दिन 445 करोड़ लीटर से भी ज्यादा गंदगी पैदा कर रहा है. इसमें से सिर्फ 147.8 करोड़ लीटर का ट्रीटमेंट हो रहा है. हालांकि एक्शन प्लान वालों का दावा है कि उनके पास 233 करोड़ लीटर सीवेज ट्रीट करने की क्षमता है.’यहां यमुना के खादर में खेती भी खूब होती है. खीरा, लौकी, ककड़ी, तरबूज, खरबूज, पालक, तोरी, भिंडी, और भी बहुत कुछ. दि एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टीईआरआई) की इसी साल आई रिपोर्ट बताती है कि इन सब्जियों में निकिल, लेड, मरकरी और मैंगनीज जैसी भारी धातुएं सुरक्षित सीमा से कई गुना ज्यादा पाई गई हैं. टीईआरआई का शोध उन्हीं सब्जियों पर आधारित है जो किसी न किसी तरह से यमुना पर निर्भर रही हैं.

इसकी वजह ढूंढ़ने पर पता चलता है कि आज भी दिल्ली शहर में तमाम सरकारी दावों के विपरीत बैट्री बनाने वाली लगभग दो सौ वैध-अवैध फैक्टरियां निर्बाध रूप से संचालित हो रही हंै. इसके अलावा एक और जानकारी आश्चर्यजनक है जिसकी ओर पहली बार लोगों का ध्यान गया है. शहर की सड़कों पर दौड़ रहे लाखों दोपहिया और चार पहिया वाहनों का हुजूम भी यमुना के प्रदूषण की एक बड़ी वजह है. इनके रिपेयरिंग के काम में लगी हुई तमाम बड़ी सर्विस कंपनियों के साथ-साथ लगभग तीस हजार छोटे-मोटे ऑटो रिपेयरिंग शॉप पूरे शहर में कुटीर उद्योग की तरह फैले हुए हैं. सर्विसिंग से पैदा होने वाला ऑटोमोबाइल कचरा, मोबिल आयल आदि भी धड़ल्ले से यमुना के हवाले ही किया जा रहा है. ये सीपीसीबी के राडार पर अब जाकर आए हैं. लेकिन इन्हें रोक पाना कितना मुश्किल या आसान होगा, हमें पता है. जो शहर आज तक लोगों को ट्रैफिक के साधारण नियम का पालन करना नहीं सिखा सका, वहां एक मरी हुई नदी की फिक्र किसे होगी. यहां यमुना की हत्या का एक और हिस्सेदार है. इसका ताल्लुक आधुनिक जिंदगी के आराम से जुड़ता है. टेलीविजन, फ्रिज, गर्मी को दो हाथ दूर रखने वाले एसी और सर्दी भगाने वाले हीटरों के लिए दिल्ली के बाशिंदों को बिजली चाहिए. थोड़ी-बहुत नहीं. उत्तर प्रदेश को जितनी बिजली मिलती है उससे ज्यादा दिल्ली की जरूरत है. इसका इंतजाम भी दिल्ली ने यमुना के किनारों पर कर रखा है. राजघाट पावर स्टेशन, इंद्रप्रस्थ पावर स्टेशन और बदरपुर पावर स्टेशन कोयला जलाकर शहर को बिजली मुहैया करवाते हैं.

हालांकि सिर्फ इतने से दिल्ली की प्यास नहीं बुझती. दिल्ली विश्वविद्यालय का एक विभाग है भूगर्भशास्त्र विभाग. इसके अध्यक्ष डॉ. चंद्रा एस दुबे हैं. इन्हीं की निगरानी में विभाग ने महीने भर पहले यमुना में आर्सेनिक प्रदूषण का विस्तृत अध्ययन करके एक रिपोर्ट तैयार की है. यह बताती है कि दिल्ली के तीनों थर्मल पावर प्लांट कोयला जलाने के बाद बची हुई राख का एक बड़ा हिस्सा यमुना में बहा रहे हैं. डॉ. दुबे के मुताबिक राजघाट पावर प्लांट इस राख के जरिए हर साल 5.5 टन आर्सेनिक यमुना के पानी में बहा रहा है. इसी तरह बदरपुर वाले संयत्र का योगदान सालाना लगभग दो टन है. आर्सेनिक अच्छे-भले आदमी की थोड़े ही समय में हृदय रोग और कैंसर से मुलाकात करवा सकता है. दिल्ली में अक्षरधाम मंदिर और मयूर विहार फेज 1 वाला इलाका ऐसा है जहां यमुना के कछार में मौसमी सब्जियां खूब उगाई जाती हैं. यहां टीम ने आर्सेनिक का स्तर 135 पार्ट पर बिलियन पाया. जबकि न्यूनतम सुरक्षित सीमा है 10 पार्ट पर बिलियन.

इस अध्ययन के संदर्भ में एक और बात समझना जरूरी है. कंक्रीट के इस जंगल में सिर्फ यमुना के डूब में आने वाला इलाका बचा है जो इस शहर के भूगर्भीय जल को रीचार्ज करने का काम करता है. यहां जो भूगर्भीय जल जांचा गया उसमें आर्सेनिक का स्तर 180 पार्ट पर बिलियन पाया गया है. 

यमुना की मौत का एक और साइड इफेक्ट है. सालों साल से हम अपना मल-मूत्र, कचरा, प्लास्टिक जैविक-अजैविक जो यमुना में बहाते आ रहे हैं तो क्या नदी वैसे ही बनी रहती. नहीं. विशेषज्ञ बताते हैं कि धीर-गंभीर और अपनी गहराई के लिए मशहूर यमुना उथली हो गई है. मानसून के दौरान इसमें जो पानी आता भी है वह भूगर्भीय जल को रीचार्ज करने से पहले ऊपर ही ऊपर आगे बढ़ जाता है. जल्द ही हमें इसकी भी कीमत चुकानी पड़ेगी. खैर, अपना सब कुछ गंवा कर और जमाने का नरक लाद कर यमुना आगे बढ़ जाती है. दनकौर के पास गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा और बुलंदशहर का कचरा समेटे हिंडन नदी यमुना की बची-खुची सांस भी छीन लेती है. एक समय में यह नदी यमुना को जीवन देती थी.

यमुना का अगला पड़ाव है भगवान श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा. मथुरा से पहले यमुना वृंदावन आती है. यहां चीर घाट पर भक्त ‘नर सेवा नारायण सेवा’ का नारा लगाते हुए मिलते हैं. समय की मांग है ‘नदी सेवा, नारायण सेवा,’ जिसे कोई नहीं सुनना चाहता. कृष्णभक्त रसखान ने कभी लिखा था कि जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदी-कूल-कदम्ब की डारन. उनकी कामना थी कि यदि ईश्वर अगले जन्म में उन्हें पक्षी बनाए तो उनका बसेरा कालिंदी यानी यमुना किनारे खड़े कदंब के पेड़ों पर हो. आज की तारीख में रसखान निश्चित पुनर्विचार करते.

वृंदावन में हमारा सामना अव्यवस्थित घाट, काम चलाऊ सुविधाओं और सड़क की जगह तीन किलोमीटर लंबी धूल भरी पगडंडी से होता है. इन सबसे पार पाकर जब हम चीर घाट पहुंचते हैं तो वहां नदी की धार के समानांतर पूरे वृंदावन का सीवर समेटे एक नाला भक्तों का स्वागत करता दिखता है. ठीक उसी जगह, जहां श्रद्धालु स्नान करके पुण्य कमा रहे हैं वहीं यह नाला भी खुद को यमुना में विसर्जित करके पापमुक्त हो रहा है. आंध्र प्रदेश के किसी गांव से आए श्रद्धालुओं का पूरा जत्था यहां कर्मकांड में लीन है. एक भक्त से यह पूछने पर कि यहां स्त्रान-पूजा करने पर आपको दिक्कत नहीं होती है, उनका जवाब धर्म की ध्वजा बुलंद करने वाला होता है. वे कहते हैं, ‘यमुना माता को कोई क्या गंदा करेगा. ये सब इसमें आकर पवित्र हो जाते हैं.’ यानी चीर घाट पर भी यमुना के चीर हरण की किसी को परवाह नहीं थी. यमुना में फूल-धूप-दीया बत्ती चढ़ाने वाले खुद को पापमुक्त मानकर आगे बढ़ जा रहे थे यह मानकर कि नदी तो खुद ही देवी है, उसे कोई क्या गंदा करेगा.

आगे बढ़ते हुए हम मथुरा पहुंचते हैं. यहां हमारा सामना मसानी नाले से होता है. गर्मी के इस मौसम में अनुमान लगाना मुश्किल है कि मसानी नाला बड़ा है या यमुना बड़ी है. श्मशान के किनारे से बहने के कारण शायद इस नाले का नाम मसानी नाला पड़ गया है. पास ही चाय की दुकान पर बैठे पुरुषोत्तम यादव यमुना की दुर्दशा पर चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘यमुना तो सूखती-भीगती रहती है. मसानी बारहमासी है.’ मथुरा का नाम भगवान कृष्ण और यमुना के रिश्तों की अनगिनत कथाओं से जुड़ा हुआ है. लेकिन यहां भी हमें यमुना की वही दशा देखने को मिलती है जैसी बाकी जगहों पर है, कहीं कोई अंतर नहीं. भगवान कृष्ण की जन्मस्थली का गर्व रखने वाले मथुरावासियों को विचारने का वक्त नहीं है कि उनकी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही यमुना नाला क्यों बन गई है. कुरेदने पर वे सरकार को कोसते हैं और जब अपनी जिम्मेदारियों को निबाहने की बात छिड़ती है तो टाल-मटोल करने लगते हैं. यमुना की दुर्दशा में मथुरा कुछ योगदान औद्योगिक कचरे से भी देता है. यहां सस्ती साड़ियों की रंगाई का बड़ा कुटीर उद्योग है.

रंगाई-पुताई के बाद सारा रसायन यमुना के हवाले कर दिया जाता है. यह शहर निकिल से बनने वाले नकली आभूषणों का भी बड़ा उत्पादक है. इनके निर्माण से लेकर घिसाई और चमकाई में बहुत सारे रसायनों का इस्तेमाल होता है और ये सब बेचारी यमुना को ही समर्पित किए जाते हैं. 

आगे महाबन है. कृष्ण भक्त रसखान की चार सौ साल पुरानी समाधि यहीं यमुना के किनारे बनी है. यहीं गोकुल बैराज भी बना है. यमुना यहां से बढ़ती हुई आगरा पहुंचती है जो इसके तट पर बसा दूसरा सबसे बड़ा शहर है. यहां भी नदी के साथ बाकी शहरों वाली कहानी दोहराई जाती है. दीपक की तली से लेकर सिर तक अंधेरा हमें आगरा में देखने को मिलता है. यमुना पर बने नयापुल से सटा हुआ यमुना एक्शन प्लान का दफ्तर है और उसके ठीक बगल से शहर का एक बड़ा-सा नाला बिना रोक-टोक के यमुना में मिल रहा है. नदी के उस पार ताजमहल है. ताजमहल के ठीक पीछे महज सौ मीटर की दूरी पर शहर का एक और बड़ा नाला नदी में खुल रहा है. यमुना और ताजमहल के बीच मरे हुए जानवर की लाश चील-कौए नोच रहे हैं. विदेशी खूब प्यार से इस मनमोहक दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर रहे हैं. ताजमहल से ही सटा हुआ दशहरा घाट है. यहां एक पुलिस अधिकारी खुद ही घाट की साफ-सफाई में लगे हुए मिलते हैं. हम हैरान हैं. पूछने पर पता चलता है कि वे आगरा के पर्यटन थाने के एसओ सुशांत गौर हैं. उनसे बातचीत में पुलिस विभाग की अलग ही तस्वीर सामने आती है. अपने देश, अपने शहर और अपने लोगों की पहचान के प्रति बेहद जागरूक और चिंतित सुशांत किसी वीआईपी के आगमन से पहले खुद ही व्यवस्था की कमान अपने हाथ में लिए हुए हैं. वे कहते हैं, ‘ये विदेशी हमारे बारे में क्या छवि लेकर जाते होंगे. हर दिन मैं लोगों को समझाता रहता हूं कि अपना कचरा यहां न डालें. मैं खुद हाथ में झाड़ू लेकर खड़ा हो जाता हूं. शायद मुझे देखकर लोगों पर कुछ असर पड़े.’

आगरा में यमुना की कुछ और मौतें हैं. हाथीघाट पर शहर का सबसे बड़ा धोबीघाट है. यहां सीवर के पानी में लोगों के कपड़े चकाचक करने का कारोबार चलता है. इसके लिए कपड़े धोने वालों ने बड़ी-बड़ी भट्टियां लगा रखी हैं. इन भट्टियों में नदी का पानी गर्म करके उसका इस्तेमाल किया जाता है और उसे फिर नदी में बहा दिया जाता है. गर्मी, डिटरजेंट और दूसरे रसायनों से भरपूर यह पानी जलीय जीवन के ऊपर कहर बनकर टूटता है. एक धोबी, जो पहले कैमरा और साथ में पुलिस का एक जवान देखने के बाद भागने लगा था, काफी मान-मनौव्वल के बाद सिर्फ इतना कहता है, ‘पीढ़ियों से यही काम करते आ रहे हैं. दूसरा काम क्या करेंगे. हमें कोई और जगह दिला दीजिए, हम चले जाएंगे.’

इतनी मौतों के बाद यमुना में कुछ बचता नहीं. लेकिन नदी जो सदियों से बहती आई है वह आगे बढ़ती है. आगरा के बाद यमुना उस इलाके में पहुंचती है जहां इंसानी विकास की रोशनी थोड़ी कम पड़ी है. आगरा से लगभग 80 किलोमीटर आगे बटेश्वर है. यह मंदिरों और घंटे-घड़ियालों का नगर है. नदी की बीच धारा में मंदिरों की पंक्ति बिछी हुई है. कहते हैं एक समय में इन मंदिरों की संख्या 101 हुआ करती थी. फिलहाल बीच धारा में 42 मंदिर आज भी देखे जा सकते हैं. यहां घंटे चढ़ाने का रिवाज है. मेला भी लगता है और चंबल के मशहूर डाकुओं में यहां घंटा चढ़ाने की स्पर्धा भी अतीत में खूब होती रही है. हम राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या दो पर चलते हुए इटावा पहुंचते हैं. शहर से करीब 25 किलोमीटर आगे राष्ट्रीय राजमार्ग से अलग उत्तर दिशा की तरफ एक पतली सड़क भीखेपुर कस्बे तक जाती है. भीखेपुर से लगभग बीस किलोमीटर और आगे बीहड़ में यमुना का चंबल नदी के साथ संगम होता है. यहां दोनों नदियां मिलने के बाद जुहीखा गांव पहुंचती हंै. जुहीखा पहुंच कर रास्ता खत्म हो जाता है. आगे जाने के लिए पीपे का पुल हर साल बनता है जो बरसात में टूट जाता है. पिछले साल की बरसात में कुछ पीपे बह गए थे, इसलिए इस बार पुल नहीं बन पाया है.

इस इलाके को पंचनदा कहा जाता है. इसकी वजह यह है कि यहां थोड़ी-थोड़ी दूर पर यमुना में चार नदियां मिलती हैं- चंबल, क्वारी, सिंधु और पहुज. इस तरह पांच नदियों के संगम से मिलकर बनता है पंचनदा. लेकिन हम पंचनदा तक नहीं पहुंच सके. जुहीखा में जहां सड़क खत्म होती है वहां से लगभग एक किलोमीटर रेत में आगे बढ़ने पर यमुना की पतली धारा बह रही है. पानी साफ है क्योंकि चारों नदियों ने मिलकर यमुना को नया जीवन दे दिया है. इनमें सबसे बड़ी चंबल है. देश और दुनिया की कुछेक सबसे साफ-सुथरी नदियों में चंबल का नाम शुमार है. जहां चंबल यमुना में मिलती है वहां यमुना और चंबल के पानी का अनुपात एक और दस का है.

खैर, यमुना के प्रदूषण की मार से देश की सबसे साफ-सुथरी नदी चंबल भी नहीं बच सकी है. चंबल अपने अनोखे और समृद्ध जलीय जीवन के लिए भी दुनिया भर में प्रसिद्ध है. इसमें मीठे पानी की डॉल्फिनें मिलती है. चंबल का सबसे विशिष्ट चरित्र है भारतीय घड़ियाल. घड़ियाल सिर्फ चंबल में पाए जाते हैं. 2008 में अचानक ही ये घड़ियाल मरने लगे. दो महीने के भीतर सौ से ज्यादा घड़ियालों की मौत हो गई. इस आपदा के कारणों को जानने और रोकने के लिए वरिष्ठ सरीसृप विज्ञानी रौमुलस विटेकर के नेतृत्व में एक टीम ने जांच रिपोर्ट तैयार की थी. रौम कहते हैं, ‘शुरुआती सारे सबूत एक ही तरफ इशारा करते हैं- यमुना. इस नदी को हमने जहर का नाला बना दिया है. बहुत ईमानदारी से कहूं तो मौजूदा हालात में घड़ियालों और डॉल्फिनों के ज्यादा दिन तक बचे रहने की संभावना नहीं है. मौजूदा कानूनों के सहारे नदी को प्रदूषित कर रहे सभी जिम्मेदार लोगों को रोका नहीं जा सकता. एक अरब की भीड़ से कैसे निपटेंगे आप?’ घड़ियालों की मौत में यमुना की भूमिका पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने वाले घड़ियाल कंजरवेशन अलायंस के एक्जीक्यूटिव ऑफिसर तरुन नायर कहते हैं, ‘हमारे टेलीमिट्री प्रोजेक्ट में यह बात सामने आई कि 2008 में बहुत-से घड़ियालों ने अपने घोंसले यमुना-चंबल संगम के बीस किलोमीटर के दायरे में बनाए थे. इसी बीस किलोमीटर के इलाके में ही सारी मौतें हुई थीं.’

घड़ियालों की मौत का दाग अपने सिर पर लेकर यमुना बीहड़ से आगे एक बार फिर खुले मैदानों की ओर बढ़ जाती है. बुंदेलखंड (काल्पी, हमीरपुर) के कुछ इलाकों को छूती हुई यह इलाहाबाद पहुंचती है. हजार मौतें मरने के बाद यह अपना अस्तित्व अपनी सहोदर गंगा में समाहित कर देती है. लोग इसे प्रयाग का विश्वप्रसिद्ध संगम कहते हैं. इतना सब जानने के बाद कोई पूछेगा कि आखिर यमुना की समस्या का उपाय क्या है. हमने यह यात्रा उपाय बताने के लिए नहीं की थी, हमारा मकसद सिर्फ यमुना की दशा खुद जानना और अपनी आंखों देखी लोगों के सामने रखना था. उपाय के सवाल पर जल-थल- मल विषय पर शोध कर रहे वरिष्ठ पत्रकार सोपान जोशी कहते हैं, ‘हम नदी से सारा पानी निकाल लेना चाहते हैं और अपनी गंदगी उसी में बहाना चाहते हैं. आज विकसित उसे माना जाता है जिसके पास नल में पानी हो और बाथरूम में फ्लश. यमुना कभी देवी रही होगी, आज तो बिना पानी के शौचालय जैसी है, जिसमें फ्लश करने के लिए कुछ भी नहीं है.’

तो क्या कोई रास्ता नहीं है? जवाब में अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘हमारे समाज ने बरसात में गिरने वाले पानी के हिसाब से अपनी अर्थव्यवस्था, इंजीनियरिंग तय की थी न कि बांधों और दूसरे के हिस्से का पानी छीन लाने की कला के आधार पर.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘विकास के नए विचार ने उस व्यवस्था को भुला दिया है. हम अपने शहर-गांव जल स्रोतों के रास्ते में बनाने लगे हैं. दूसरे शहरों और गांवों के हिस्से का पानी छीन लाने के मद में ऊपर से गिरने वाले पानी का मोल भूल गए हैं. जमीन और नदी से जितना लेना है उतना ही उसे बरसात के महीनों में लौटाना है, यह फार्मूला दरअसल हम भूल गए हैं. पानी के लिए जमीन छोड़ना भूल गए हैं. इसे ही आप चाहें तो उपाय मान सकते हैं.’

 

सर्वनाश में सर्वसम्मति

तीन नदियां, करोड़ों जिंदगियां. मैं इस पंक्ति के साथ मुट्ठी भर राजनेता भी जोड़ना चाहूंगा. जब भी हम इन तीन नदियों और करोड़ों जिंदगियों के बारे में सोचें तो यह भी सोचें कि किस तरह कुछ मुट्ठी भर राजनेता पिछले चार दशकों से उनकी जिंदगी तय या बर्बाद कर रहे हैं. पिछले तीस-चालीस सालों से ये तीनों नदियां बहुत ही बुरे दौर से गुजर रही हैं. तीनों पर ये संकट के बादल विकास की नई अवधारणाओं के कारण छाए हुए हैं. इन नदियों की उम्र कुछ लाख-लाख साल है. इन नदियों को बर्बाद करने का यह खेल करीब सौ साल के दौरान शुरू हुआ है. सबसे पहले हम नर्मदा नदी को लें क्योंकि यह गंगा और यमुना से भी पुरानी है. पौराणिक साक्ष्य और भूगर्भ वैज्ञानिकों के साक्ष्य भी यही बताते हैं कि नर्मदा अन्य दोनों नदियों के मुकाबले पुरानी है. यह नदी जिस इलाके से बहती है वहां भूगर्भ की एक बड़ी विचित्र घटना का उल्लेख मिलता है. उस जगह का नाम लमेटा है. लमेटा के किनारे एक सुंदर घाट भी बना हुआ है. कहा जाता है कि जिस तरह मनुष्य के जन्म के साथ उसके शरीर पर कोई-न-कोई चिह्न होता है जिसे अंग्रेजी में ‘बर्थ मार्क’ कहते हैं. ऐसे ही चिह्न लमेटा में मिलते हैं. इस नदी के साथ आज क्या हो रहा है, इसके बारे में बात करना जरूरी होगा.

विकास की नई अवधारणा के कारण पिछले दिनों एक वाक्य चल निकला कि नर्मदा इतनी-इतनी जलराशि, पता नहीं उसका कुछ हिसाब बताते हैं कि समुद्र में व्यर्थ गिराती है. इसी तर्क के साथ इस नदी पर बांध बनाने का प्रस्ताव सामने आया. यह कहा जाने लगा कि बांध बनाकर इसके व्यर्थ पानी को रोक पाएंगे. इस पानी का उपयोग सिंचाई जैसे कामों में किया जा सकेगा. इससे पूरे देश का या एक प्रदेश विशेष का विकास हो सकेगा. यह माना गया कि गुजरात प्रदेश का विकास होगा. मध्य प्रदेश का विकास हो पाएगा, लेकिन कुछ नुकसान भी उठाना पड़ सकता है. नर्मदा पर बांध बनने से मध्य प्रदेश की एक बड़ी आबादी का और घने वनों का हिस्सा डूब जाएगा. इस नदी को लेकर दो राज्यों के बीच छीना-झपटी भी चली. उस समय केंद्र में इंदिरा जी के नेतृत्व में एक मजबूत सरकार थी. बीच में कुछ सालों के अपवादों को छोड़ दें तो राज्यों में भी कांग्रेस की ही सरकारें रहीं. लेकिन इस विकास के संदर्भ में कभी भी यह तय नहीं हो पाया कि बिजली और पानी के वितरण के क्या अनुपात होंगे. यानी किन राज्यों को कितना-कितना पानी मिल पाएगा. बाद के दिनों में यह झगड़ा इतना बढ़ गया कि इसे एक पंचाट को सौंपना पड़ा. पंचाट ने भी इन सारे पहलुओं पर बहुत लंबे समय तक विचार किया. हजारों पन्नों के साक्ष्य दोनों पक्षों की ओर से सामने आए. बाद में इसमें तीसरा पक्ष राजस्थान का भी आया और यह तय हुआ कि उसकी प्यास बुझाने के लिए उसे भी कुछ पानी दिया जाएगा. इस तरह पंचाट ने इस काम को करने के लिए तीन दशक से भी ज्यादा का समय लिया. नतीजा आया तो लगा कि यह गुजरात के पक्ष में है. मध्य प्रदेश को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. उन्हीं दिनों इस बांध के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन शुरू हुआ.

लेकिन हमारी यह बहस बांध के पक्ष और उसके विरोध में बंटकर रह गई. इसको तटस्थ ढंग से कोई देख नहीं पाया कि विकास की यह अवधारणा हमारे लिए कितने काम की है. इससे पहले हम देखें तो हरेक नदी के पानी का उपयोग समाज अपने ढंग से करता ही रहा है. हमारा यह ताजा कैलेंडर 2012 साल पुराना है. इसके सारे पन्ने पलट दिए जाएं तो उसके कुछ पीछे लगभग ढाई हजार साल पहले नर्मदा के किनारे मध्य प्रदेश में कुछ छोटे-छोटे बड़े खूबसूरत राज्य हुआ करते थे. उनमें से एक राज्य के दौरान जैन तीर्थंकर की एक मूर्ति बनाई गई और उसका नाम बाद में समाज ने ‘बावन गजा’ के तौर पर याद रखा क्योंकि इसमें मुख्य मूर्ति बावन गज ऊंची है. यह मूर्ति पत्थर से काटकर नदी के किनारे बनाई गई. जो लोग ढाई हजार साल पहले बावन गज ऊंची मूर्ति बना सकते थे, वे पांच गज ऊंचा बांध तो नदी पर बना ही सकते थे. लेकिन उन्होंने नदी के मुख्य प्रवाह को रोकना ठीक नहीं समझा था. आज ढाई हजार साल बाद भी यहां तीर्थ कायम है और हजारों लोग अब भी माथा टेकने पहुंचते हैं. लेकिन इसके किनारे हमारे लोगों ने जो बांध बनाए हैं, उनके हिसाब से भी इनकी उम्र चिरंजीवी नहीं है. बहुत अच्छा रहा तो बांधों की उम्र सौ-सवा सौ साल होती है, नहीं तो ये पचास-साठ सालों में ढहने की तैयारी में आ जाते हैं. पानी रोक कर ले जाने का चिंतन आज का है. पहले हमारी मान्यता थी कि नदी सबसे निचले इलाके में बहने वाली कुदरत की एक देन है. इसलिए उसके ऊपर से तालाबों की श्रृंखला बनाकर नीचे की ओर लाते थे. वे ऐसा करके बाढ़ और सुखाड़ दोनों ही समस्याओं से निजात पाते थे. हमने ऊपर की सब बातें भुला दीं. नीचे नदी पर बांध बनाने की राय के पक्ष में सारी बातें चली गई हैं. 

बांध से जिन लोगों को फायदा पहुंचने की बात कही गई थी उन्हें भी इससे नुकसान हुआ. तवा नदी पर बने बांध से होशंगाबाद में दलदल बनने की शिकायतें आने लगीं

पुरानी कहानी में जिस तरह द्रौपदी के चीर हरण की बातें थीं उसी तरह आज जल हरण की बातें हो रही हैं. दुर्भाग्य से नदियों से जो जल हरा जा रहा है, उसे पीछे से देने वाला कोई कृष्ण नहीं है. इसलिए बांध भरा हुआ दिखता है और मुख्य नदी सूखी. उस बांध में जो लोग डूबते हैं, उसकी कीमत कभी नहीं चुकाई जा सकी है. इतिहास के पन्ने पलट कर देखें तो भाखड़ा बांध की वजह से विस्थापित हुए लोगों की आज तीसरी पीढ़ी कहां-कहां भटक रही है, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है. नर्मदा की इस विवादग्रस्त योजना में लोगों का ध्यान लाभ पाने वाले राज्य यानी गुजरात की एक बात की ओर बिल्कुल भी नहीं गया है. वैज्ञानिकों का मानना है कि नर्मदा घाटी परियोजना के क्षेत्र वाला गुजरात काली मिट्टी का क्षेत्र है. काली मिट्टी का स्वभाव बड़े पैमाने पर सिंचाई के अनुकूल नहीं है. यह आशंका व्यक्त की जाती रही है कि बड़े पैमाने पर सिंचाई इस क्षेत्र को दलदल में भी धकेल सकती है. 

थोड़ा पीछे लौटें तो सन 1974 में नर्मदा की एक सहायक नदी तवा पर बांध बनाया गया था. पंचाट विवाद की वजह से फैसला आए बगैर मध्य प्रदेश का सिंचाई विभाग नर्मदा की मूलधारा पर एक ईंट भी नहीं रख सकता था. लेकिन विकास को लेकर एक तड़प थी, इसलिए उसने एक तवा नाम की नदी को चुना और उस पर बांध बनाया. इस बांध के विस्थापितों को लेकर जो अन्याय हुआ वह तो एक किस्सा है ही लेकिन उसे अभी थोड़ा अलग करके रख भी दें  तो जिन लोगों के लाभ के लिए ये बांध बनाया गया उनका नुकसान भी बहुत हुआ. तवा पर बनाए गए बांध के कमांड एरिया में, खासकर होशंगाबाद इलाकों से दलदल बनने की शिकायतें आने लगीं. इस तरह तवा पर बना बांध हमारे लिए ऐसा उदाहरण बन गया जिसका नुकसान डूबने वालों के साथ-साथ लाभ पाने वालों को भी हुआ. बाद में यहां उन किसानों ने जिनको पहले लाभ हो रहा था, एक बड़ा आंदोलन किया. लेकिन वह कोई तेज-तर्रार आंदोलन नहीं था. थोड़ा विनम्र आंदोलन था और विपरीत किस्म का आंदोलन था. उल्टी धारा में बहने वाला आंदोलन था, इसलिए सरकारों और अखबारों ने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. लेकिन आंदोलन करने वाले लोगों ने देश और समाज के सामने यह बात पहली बार रखी कि बांध बनाने से लाभ पाने वालों को भी नुकसान हो सकता है. आज करीब 35-36 साल बाद भी यह बांध कोई अच्छी हालत में नहीं है. इसी बांध के बारे में यह बात दोहरा लें कि इसे नर्मदा का रिहर्सल कहकर बनाया गया था. और यह रिर्हसल बहुत खराब साबित हुई. उसके बाद सरदार सरोवर और इंदिरा सागर बांध बनाए गए. 

नर्मदा लाखों साल पहले बनी नदी है. तब हम भी नहीं थे और न ही हमारा कोई धर्म अस्तित्व में था. लेकिन बाद में इसके किनारे बसे लोगों ने इसके उपकारों को देखा. अपनी मान्यताओं के हिसाब से इसे अपने मन में देवी की तरह रखा. इसका नाम रखा नर्मदा. नर्म यानी नरम यानी आनंद. दा यानी देने वाली. आनंद देने वाली नदी. लोगों को अपने ऊपर बनने वाली योजना की वजह से आज ये थोड़ा कम आनंद दे रही है. बल्कि परेशानी थोड़ा ज्यादा दे रही है. लेकिन इसमें नदी का दोष कम है और लोगों का ज्यादा है. उन मुट्ठी भर राजनेताओं का दोष ज्यादा है जिन्होंने यह माना कि नर्मदा अपना पानी व्यर्थ ही समुद्र में बहा रही है. नर्मदा के प्रसंग में बात समाप्त करने से पहले व्यर्थ में पानी बहाने वाली बात और अच्छे से समझ लेनी चाहिए. कोई भी नदी समुद्र तक जाते हुए व्यर्थ का पानी नहीं बहाती है. नदी ऐसा करके अपनी बहुत बड़ी योजना का हिस्सा पूरा करती है. वह ऐसा धरती की ओर समुद्र के हमले को रोकने के लिए करती है. आज समुद्र तक पहुंचते-पहुंचते नर्मदा की शक्ति बिल्कुल क्षीण हो जाती है. पिछले 10-12 सालों के दौरान ऐसे बहुत सारे प्रमाण सामने आए हैं कि भरुच और बड़ौदा के इलाके में भूजल खारा हो गया है. समुद्र का पानी आगे बढ़ रहा है और मिट्टी में नमक घुलने लगा है. दूसरी नदी यमुना को लें तो फिर याद कर लें कि यह कुछ लाख साल पुरानी हिमालय से निकलने वाली एक नदी है. बाद में यह इलाहाबाद पहुंचकर गंगा में मिलती है. इसलिए यह गंगा की सहायक नदी भी कहलाएगी. आजकल जैसे रिश्तेदारों का चलन है कि कौन, किसका रिश्तेदार है. उसकी हैसियत उसके हिसाब से कम या ज्यादा लगाई जाती है. उस हिसाब से देखें तो यमुना के रिश्तेदारों की सूची में उनके भाई का नाम कभी नहीं भूलना चाहिए. ये यम यानी मृत्यु की देवता की बहन हैं. यमुना के साथ छोटी-बड़ी कोई गलती करेंगे तो उसकी शिकायत यम देवता तक जरूर पहुंचेगी और तब हमारा क्या हाल होगा यह भी हमें ध्यान रखना होगा.  

यमुना के साथ भी हमने छोटी-बड़ी गलतियां की हैं. इन अपराधों की सूची में दिल्ली का नाम सबसे ऊपर आता है. इसके किनारे जब दिल्ली बसी होगी तब इसका पूरा लाभ लिया होगा. आज लाभ लेने की मात्रा इतनी ऊपर पहुंच गई है कि हम इसे मिटाने पर तुल गए हैं. दिल्ली के अस्तित्व के कारण अब यमुना मिटती जा रही है. इसका पूरा पानी हम अपनी प्यास बुझाने के लिए लेते हैं और शहर की पूरी गंदगी इसमें मिला देते हैं. दिल्ली में प्रवेश करके यमुना नदी नहीं रहकर नाला बन जाती है. आने वाली पीढ़ियां इसको नदी के बजाय नाला कहना शुरू कर दें तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए. आज इसके पानी में नहाना तो दूर, हाथ डालना भी खतरनाक माना जाता है. इसके पानी की गंदगी को देखकर सरकार के विभागों ने इस तरह के वर्गीकरण किए हैं. बाद के शहरों में वृंदावन और मथुरा आते हैं. इन्हें हमारे सबसे बड़े देवता श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और खेलभूमि माना गया. लेकिन दिल्ली से वहां तक पहुंचते-पहुंचते साफ पानी खत्म हो जाता है और उसमें सब तरह की गंदगी मिल चुकी होती है. मुझे तो लगता है कि कृष्ण जी ने यहां रहना बंद कर दिया होगा और निश्चित ही द्वारका चले गए होंगे. एक समय में यमुना के कारण दिल्ली और संपन्न होती थी. शहर के एक तरफ यमुना नदी बहती है और दूसरी ओर अरावली पर्वत श्रृंखला है जिससे छोटी-छोटी अठारह नदियां वर्षा के दिनों में ताजा पानी लेकर इसमें मिलती थीं. लेकिन 1911 में जब दिल्ली देश की राजधानी बनी तब से हमने इन छोटी-छोटी नदियों को एक-एक करके मारना शुरू कर दिया. नदी हत्या का काम तो दूसरी जगहों पर भी हुआ लेकिन दिल्ली में जितनी तेजी से यह काम हुआ उतना कहीं भी नहीं हुआ. इस दौर में शहर के सात-आठ सौ तालाब नष्ट हुए जिनसे शहर को पानी मिलता था. यमुना के साफ स्त्रोत हमने नष्ट कर दिए. और अब तो इस नदी को भी सुखा डाला. अब इसमें गंगा नदी के मिलने से पहले ही हम इसमें गंगा जल मिला देते हैं. यह साफ गंगा जल नहीं है. भागीरथी से जो नदी हमारी प्यास बुझाने आती है उसमें हम दिल्ली का पूरा मल-मूत्र मिलाकर यमुना में चढ़ा देते हैं. इसलिए यमुना की हालत इलाहाबाद पहुंचते-पहुंचते इतनी खराब हो जाती है कि अगर राजस्थान की ओर से आने वाली चंबल और कुंवारी जैसी नदियां नहीं मिलतीं तो इसमें इतना दम भी नहीं बच पाता कि ये गंगा से कुछ बतिया सकतीं, उनसे संगम कर पातीं. 

हम नदियों की सारी जलराशि को निचोड़ कर अपने बल्ब जलाने, अपने कारखाने चलाने, अपने खेतों की सिंचाई करने को ही विकास की योजनाएं मान चुके हैं

तीसरी नदी इस समय भारी उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है. पिछले दिनों हमने गंगा को सबसे अधिक पवित्रता का दर्जा दिया. वैज्ञानिक शोधों के अनुसार गंगा के पानी में ऐसे तत्व हैं जो उसके जल को शुद्ध करते रहते हैं. शायद एक वजह यह हो. लेकिन यह दर्जा भी हमारी समझदारी की कमी का है. हमारे समाज ने किसी एक नदी को सबसे पवित्र होने का दर्जा नहीं दिया. सभी नदियों को पवित्र माना और जितने अच्छे काम माने गए सब उनके किनारे पर किए. और जितने बुरे काम माने गए उन्हें करने से खुद को रोका. गंगा के साथ हमने ऐसा नहीं किया. हमने यह समझा कि पाप करो और गंगा में धो डालो. पुराने समाज में लोग अपने पुण्य को लेकर भी गंगा में जाते थे तो इस नदी के किनारे कुछ अपने अच्छे काम भी छोड़कर आते थे. पाप धोने वाले भी जो जाते थे उन्हें लगता था कि पाप अगर धुल गया तो इसे दोबारा गंदा नहीं करना है. लेकिन आज वह मानसिकता बची ही नहीं है. 

भगीरथ के प्रयास से गंगा इस धरती पर आई. भगीरथ का परिवार भी वही है जो रामचंद्र जी का है. सूर्यवंश और रघुवंश. भगीरथ भगवान राम के परदादा थे. उन्हें धरती पर गंगा को लाने की जरूरत क्यों महसूस हुई, उस कारण को भी संक्षेप में देख लें. उनके पुरखों से एक गलती हुई थी. सगर के बेटों ने जगह-जगह खुदाई करके अपने अश्वमेध के घोड़े को ढूंढ़ने की कोशिश की थी. उन्हें लगता था कि उसे किसी ने चुरा लिया था. इसी वजह से उन्हें एक श्राप मिला था जिसे खत्म करने के लिए भगीरथ गंगा को धरती पर लाए. वह किस्सा लंबा है जिसे यहां दोहराना अभी जरूरी नहीं है. लेकिन आज अगर हम भगीरथ को याद करें तो उनसे ज्यादा हमें सगर पुत्रों को याद करना होगा. भगीरथ हमारे आस-पास नहीं हैं लेकिन सगर पुत्र हमारे बीच आज भी मौजूद हैं. वे गंगा में खुदाई भी कर रहे हैं और उनके खिलाफ जगह-जगह आंदोलन भी चल रहे हैं. संतों ने भी आमरण अनशन किए हैं, उनमें से एक ने अपनी बलि भी चढ़ा दी है. यह क्रम जारी है. गंगा पर छोटे और बड़े अनेक बांध बनाए जा रहे हैं. समय-समय पर मुट्ठी भर राजनेताओं का ध्यान इस ओर भी जाता है, शायद वोट पाने के लिए. राजीव गांधी ने 1984 में प्रधानमंत्री बनने के बाद ऐसे ही एक गैरराजनीतिक योजना शुरू की थी – ‘गंगा एक्शन प्लान.’ यह एक बड़ी योजना थी. उस योजना की सारी राशि गंगा में बह चुकी है. पानी एक बूंद भी साफ नहीं हो पाया. विश्व बैंक ने भी अब एक बड़ा प्रस्ताव रखा है जिसके लिए एक बड़ी राशि फिर से गंगा में बहाने की योजना बन रही है. इस बारे में भी जानकारों का मानना है कि कोई ठोस प्रस्ताव नहीं है जिससे गंगा की गंदगी कम हो सकेगी और उसमें मिलने वाले नालों में कोई रुकावट आएगी. 

कुल मिलाकर यह दौर बड़ी नदियों से जल राशि हरण करने का है और उसमें उसी अनुपात से गंदगी मिलाने का है. छोटी नदियां सूखकर मर चुकी हैं. बड़ी नदियां मार नहीं सकते, इसलिए उन्हें हम गंदा कर  रहे हैं. आने वाली पीढ़ी को भी बिजली की जरूरत होगी, इसकी चिंता नहीं है. हम इन नदियों को अधिकतम निचोड़ कर अपने बल्ब जलाने, अपने कारखाने चलाने, अपने खेतों की सिंचाई करने को ही विकास की योजना मान चुके हैं. इसमें सारी सरकारें एकमत दिखती हैं. और यदि हम कहें कि सर्वनाश में सर्वसम्मति है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. ये तीन नदियां हमारे देश का एक बड़ा हिस्सा, करोड़ों जिंदगियां को अपने आंचल में समेटती रही हैं. लेकिन हमने अभी इसके आंचल का, चीर का हरण करना शुरू किया है. और ये सारी बातें तब भी रुकती नहीं दिखती हैं जब सभा में सारे ‘धर्मराज’ बैठे हुए दिखते हैं.

मर-मर गंगे…

‘25 साल पहले गंगा की सफाई के नाम पर हमारे इलाके में वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगा. शहर के गंदे नालों का पानी आया तो पहले-पहल तो खेतों में क्रांति हो गई. फसल चार से दस गुना तक बढ़ी. लेकिन अब तो हम अपनी फसल खुद इस्तेमाल करने से बचते हैं. लोग भी अब हमारे खेत की सब्जियां नहीं लेते, क्योंकि वे देखने में तो बड़ी और सुंदर लगती हैं मगर उनमें कोई स्वाद नहीं होता. दो घंटे में कीड़े पड़ जाते हैं उनमें. वही हाल गेहूं-चावल का भी है. चावल या रोटी बनाकर अगर फौरन नहीं खाई तो थोड़ी देर बाद ही उसमें बास आने लगती है. अब तो हम लोगों ने फूलों की खेती पर ध्यान देना शुरू कर दिया है. फूल भगवान पर चढ़ेंगे. उनको तो कोई शिकायत नहीं होगी.’

वाराणसी के पास सारनाथ से सटे कोटवा गांव के किसान अरुण पांडेय की यह बात उस महात्रासदी का सिर्फ एक सिरा दिखाती है जो गंगा की घाटी में घट रही है. करीब दो दशक पहले पास ही दीनापुर में गंगा की सफाई के लिए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा था. इससे निकलने वाला पानी गांववालों के खेत में दिया जाने लगा. पहले तो खेती बढ़ गई. लोगों को लगा कि खेत सोना उगल रहे हैं. लेकिन बाद में पता लगा कि यह सोने की शक्ल में जहर था. आज इन लोगों के खेतों में कोई फसल ऐसी नहीं होती जिसका इस्तेमाल ये खुद के लिए कर सकें. ये लोग गेहूं-चावल उपजाते हैं तो गाजीपुर आदि के बाजार में मोटे आसामियों के यहां बेच आते हैं और सब्जियों को किसी तरह बाजार में खपा पाते हैं. कुछ समय पहले बनारस हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा किया गया एक अध्ययन भी बताता है कि इस इलाके में उगने वाली साग-सब्जियों में कैडमियम, निकिल, क्रोमियम आदि जैसी भारी धातुओं की इतनी ज्यादा मात्रा होती है कि इन्हें खाने वाले लोगों की सेहत को कई गंभीर खतरे हैं. इलाके के लोगों की मानें तो चर्मरोग और सांस की बीमारियां यहां इतनी आम हो गई हैं कि लोग यहां रिश्ते करने से परहेज करने लगे हैं. काफी हो-हंगामे के बाद एक माह पहले से इस पानी की सप्लाई खेतों में बंद हो गई है लेकिन जानकार बताते हैं कि इतने वर्षों में इलाके का भूजल पूरी तरह दूषित हो चुका है. मिट्टी का ऊसरपन बढ़ चुका है. गांव बंट चुका है. कुछ लोग कहते हैं कि जहर वाला पानी ही खेतों को दो ताकि कम से कम उस गंदे पानी से मंदिरों में सप्लाई करने के लिए फूल की खेती करके दाल-रोटी का इंतजाम तो हो जाए. उधर, कुछ लोग कह रहे हैं कि नहीं, यह पानी अब एक बूंद भी नहीं चाहिए नहीं तो आगे की पूरी पीढ़ी ही बीमार पैदा होगी.

गंगा के साथ उत्तराखंड से लेकर फरक्का बैराज तक की 15 दिवसीय यात्रा में करीब 300 अलग-अलग लोगों से हुई बात-मुलाकात में महाविनाश की इस कहानी के कई सिरे हमारे सामने खुलते हैं. सभी लोग अपने-अपने तरीके से गंगा पर बात करते हैं. अथाह पीड़ा के साथ भविष्य की चिंता और दांव पर लगे अस्तित्व की बात सुनाने वाले कई बार रो भी पड़ते हैं. जो भावना के स्तर से उठकर बात करते हैं, वे राज-समाज-नदी आदि का कॉकटेल बनाकर बताते हैं. और जो अपनी-अपनी गंगा बहाने वाले हैं, वे बहुत कायदे से गंगा को आंकड़ों में समेटकर बच्चों द्वारा सुनाई जाने वाली गिनती के अंदाज में मुंहजबानी सब कुछ सुना देते हैं. यानी अलग-अलग व्यथाएं और कथाएं हैं. हां, इन सबमें समानता का एक बिंदु जरूर दिखता है. वह यह कि कोई भी ऐसा नहीं जो गंगा के भविष्य को आशा भरी निगाहों से देखता हो. सभी कहते हैं कि बस! गंगा चलाचली की बेला में है. कई बार इतनी सहजता से, जैसे मिट जाना ही अब गंगा की नियति है और इसके मिट जाने से भी सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा.

लेकिन क्या वाकई सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा? जादवपुर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक व पर्यावरणविद रुद्र कल्याण कहते हैं, ‘जैसी स्थिति है उससे तो कुछ सालों बाद गंगा में किसी भी किस्म के उपयोग के लायक पानी बचेगा ही नहीं. गंगा मिटेगी तो ग्राउंड वाटर खत्म होगा. फिर तबाही की नई कहानी शुरू होगी. फिर पता नहीं क्या होगा देश के 40 करोड़ लोगों का जो गंगा बेसिन के दायरे में रहते हैं. ‘वे आगे कहते हैं कि बांधों और प्रदूषण के चलते पहले ही गंगा का दम घुटा जा रहा है, ऊपर से हाइड्रोडिप्लोमेसी के इस दौर में नेपाल का व्यवहार जिस तरह बदल रहा है,उसमें यदि उसने यह कहना शुरू किया कि हम अपनी नदियों का पानी अब खुद ही इस्तेमाल करेंगे तो क्या होगा. गंगा तो नेपाली नदियों से ही अस्तित्व में है.’

जानी-मानी संस्था वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने गंगा को दुनिया की उन 10 बड़ी नदियों में रखा है जिनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. इस पर बनते बांधों, इससे निकलती नहरों, इसमें घुलती जहरीली गंदगी और इसमें होते खनन को देखते हुए यह सुनकर हैरानी नहीं होती. गंगा के बेसिन में बसने वाले करीब 40 करोड़ लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इस पर निर्भर हैं. गंगा के पूरी तरह से खत्म होने में भले ही अभी कुछ समय हो लेकिन उस पर आश्रितों करोड़ों जिंदगियां खत्म होती दिखने लगी हैं. जहां से गंगा शुरू होती है उस उत्तराखंड से लेकर इसके आखिरी हिस्से में पड़ने वाले फरक्का बैराज तक हमें जो छोटी-छोटी कहानियां मिलती हैं उन्हें जोड़कर देखें तो एक भयावह तस्वीर बनती है.

  जिस दीनापुर प्लांट का जिक्र शुरुआत में आया है, उससे बहुत सारी बातें साफ होती हैं. एक सीवेज  ट्रीटमेंट प्लांट के पानी से दीनापुर समेत आस-पास के कई गांव तबाही के मुहाने पर पहुंच गए हैं. ऐसे कई प्लांटों से निकलने वाला पानी कई साल से गंगा में मिल रहा है. खुद प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा है कि गंगा में रोज 290 करोड़ लीटर नालों का गंदा पानी जाता है. इसमें से दो तिहाई तो बिना किसी ट्रीटमेंट के यूं ही गंगा में मिल रहा है. गंगा जल और उसे इस्तेमाल करने वालों पर इसका क्या असर पड़ रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है. 1985 में जब गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत हुई थी तो अकेले बनारस में ही तीन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट शुरू किए गए थे. आंकड़े बताते हैं कि शहर में रोज दो करोड़ लीटर सीवर का पानी निकलता है जिसका एक बड़ा हिस्सा यूं ही गंगा में मिल जाता है. जिस पानी का ट्रीटमेंट हो रहा है उसके नतीजे भी हम शुरुआत में देख ही चुके हैं. पूरे उत्तर प्रदेश को देखें तो ऐसे ही उपक्रमों की स्थापना के लिए 102.25 करोड़ रुपये खर्च किए गए. 31 मार्च, 2000 को गंगा एक्शन प्लान का पहला चरण खत्म हुआ तो यह निष्कर्ष निकला कि उत्तर प्रदेश में 35 प्रतिशत सीवर की गंदगी ही साफ हो सकी. अंदाजा लगाइए, अकेले उत्तर प्रदेश में ही कितने दीनापुर बने होंगे. कितनी जिंदगियां तबाह हुई होंगी.

जिस तरह दीनापुर के लोग जीविका के मोह में अभिशप्त जिंदगी गुजारने को तैयार हैं, वैसे ही कानपुर में भी करीब 400 चमड़ा उद्योगों से जुड़े 50 हजार लोग गंगा में क्रोमियम समेत तमाम किस्म के खतरनाक कैमिकल प्रवाहित करके अपनी जिंदगी को नरक बनाने को विवश हैं. बात को बनारस-कानपुर या उत्तर प्रदेश के बजाय राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो गंगा एक्शन प्लान में ऐसे खतरनाक नालों के ट्रीटमेंट के लिए करीब 960 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं, जिसके नतीजे के बारे में 2006 में संसद की लोक लेखा समिति की रिपोर्ट में बताया जा चुका है कि खर्च तीन गुना बढ़ाने के बावजूद सफलता 20 प्रतिशत ही मिल सकी. नदी वैज्ञानिक डॉ यूके चौधरी कहते हैं, ‘गंगा बेसिन का दायरा देश के 11 राज्यों में फैला हुआ है. देश की आबादी का 40 प्रतिशत हिस्सा इसी दायरे में रहता है. यह दुनिया का सबसे बड़ा रिवर बेसिन है. 100 से ज्यादा शहर इसके किनारे हैं. याद रखिए कि गंगा किनारे जो दिख रहा है, उसका प्रभाव गंगा बेसिन में भी फैल रहा है. खेती खत्म होगी और तमाम किस्म की बीमारियों का दौर शुरू होगा क्योंकि ट्रीटमेंट आदि का स्वांग पूरी तरह से अवैज्ञानिक नजरिये के साथ चल रहा है.’

हिल्सा और झींगा जैसी मछलियों की आवाजाही खत्म करके फरक्का बैराज ने हजारों मछुआरों की आजीविका छीन ली.अब ये दूसरे शहरों में रिक्शा चलाते हैं या मजदूरी करते हैं

कई बातें उनकी भविष्यवाणी को वजन देती लगती हैं. जादवपुर विश्वविद्यालय, कोलकाता के वैज्ञानिक दीपंकर चक्रवती ने हाल ही में यह कहा था कि गंगा की वजह से करीब दो करोड़ लोग आर्सेनिक युक्त पानी पी रहे हैं. गाजीपुर, बलिया आदि के इलाके में आर्सेनिक पट्टी बननी शुरू हो चुकी है. इन क्षेत्रों में बसे लोग आर्सेनिक से जुड़ी बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं. इनमें दांतों का पीला होना, दृष्टि कमजोर पड़ना, बाल जल्दी पकने लगना, कमर टेढ़ी होना और त्वचा संबंधी बीमारियां प्रमुख हैं. केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय खुद मानता है कि कानपुर से आगे बढ़ने पर बनारस, आरा, पटना, मुंगेर से लेकर फरक्का तक आर्सेनिक की मात्रा सुरक्षित सीमा से औसतन 10 से 15 गुना ज्यादा तक पाई गई है. यह इसलिए है कि गंगा में करीब तीन सौ करोड़ लीटर प्रदूषित कचरा रोज गिर रहा है. विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि उत्तर प्रदेश की 12 प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा जल है.

गंगा के कारण खत्म होते सामुदायिक जीवन की कहानी का दायरा वहीं तक नहीं है, जिस पर अक्सर बात होती है. टिहरी, कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, पटना से आगे भी गंगा बहती है और उस इलाके में रहने वाले लोगों की भी अपनी पीड़ा है जिसका जिक्र गंगा को लेकर होने वाली बहस में अक्सर न के बराबर होता है. बिहार के कहलगांव से लेकर सुलतानपुर तक फैले इलाके को ही लीजिए. 80 किलोमीटर लंबे इस इलाके को डॉल्फिन सेंचुरी घोषित किया गया है. बताया जाता है कि इस सेंचुरी में फिलहाल 170-190 डॉल्फिनें बची हैं. डॉल्फिन सिन्हा के नाम से मशहूर वैज्ञानिक व गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी के सदस्य डॉ आरके सिन्हा कहते हैं, ‘पूरे देश में करीब 2,500 डॉल्फिनें बची हैं. इनमें 1,000 के करीब गंगा में हैं और उनमें भी 60 प्रतिशत बिहार वाले इलाके में. डॉल्फिन को गंगा के स्वास्थ्य का सूचक बताया जाता है. इसको देखकर यह पता किया जा सकता है कि गंगा जल की क्या स्थिति है.’

यहां एक दूसरी कहानी सामने आती है. डॉल्फिन सेंचुरी घोषित होने के बाद कहलगांव से लेकर सुलतानगंज तक फ्री फिशिंग पर प्रतिबंध है. यह मछुआरों का इलाका है. यहां के मछुआरों ने गंगा मुक्ति आंदोलन नाम से दो दशक तक लड़ाई लड़कर महाशय घोष और मुशर्रफ हुसैन प्रामाणिक नामक जल के जमींदारों से आजादी पाई थी. पहले मछलियां मारने पर इन दोनों जमींदारों के लठैत मछुआरों से टैक्स ले लेते थे. जमींदारों से मुक्ति मिली तो अब सेंचुरी का घेरा उनके रोजगार को मार रहा है. गंगा मुक्ति आंदोलन के प्रणेता रहे अनिल प्रकाश कहते हैं,  ‘बिहार के मछुआरे गंगा से 47 किस्म की मछलियां पकड़ते थे और उनका कारोबार पूरे देश में करते थे. गंगा के प्रदूषण ने कई डेड जोन बनाए हैं जिनके चलते नदी की 75 प्रतिशत मछलियां खत्म हो चुकी हैं. अब जो मछलियां बची हैं वे मछुआरों के लिए नहीं हैं.’

मछलियों की यह समस्या प्रदूषण की वजह से तो हुई ही, फरक्का बैराज ने इस पर ताबूत में आखिरी कील वाला काम किया. यह बैराज उस जगह से कुछ किलोमीटर पीछे बना है जहां से गंगा बांग्लादेश में प्रवेश करती है. इसका उद्देश्य यह था कि गंगा की ही एक धारा (जिसे आगे हुगली कहा जाता है) में गर्मियों के मौसम में भी पर्याप्त पानी सुनिश्चित किया जा सके. डॉ आरके सिन्हा कहते हैं, ‘फरक्का ने हिलसा और झींगा जैसी मछलियों को तो खत्म ही कर दिया. झींगा मछली मीठे पानी में रहती है और अंडे देने के लिए खारे पानी में जाती है. उधर, हिल्सा खारे पानी में रहती है लेकिन अंडे देने के लिए मीठे पानी की ओर आती है. फरक्का बैराज मीठे और खारे पानी के बीच खड़ा हुआ. मछलियों की आवाजाही के लिए जो रास्ते छोड़े गए, वे बेकार पड़ गए.’

 गंगा की बात चलती है तो टिहरी पर अक्सर बात होती है लेकिन फरक्का पर कभी उस तरह से बात नहीं होती. हालांकि वीरभद्र मिश्र से लेकर यूके चौधरी जैसे वैज्ञानिक कहते हैं कि फरक्का का आकलन जरूरी है, वरना आज अविरल धार-निर्मल धार की मांग हो रही है, कुछ सालों बाद जलमग्न इलाकों को बचाने में पूरी ऊर्जा लगानी होगी. दरअसल फरक्का नदी के साथ प्राकृतिक रूप से बहने वाले बालू और मिट्टी को रोकते जा रहा है. इसकी वजह से गंगा में रेत के टापू बन रहे हैं.  इन टापुओं की वजह से गंगा बाढ़ के दिनों में आस-पास के इलाके का कटाव करती है और गांव के गांव साफ हो जाते हैं. प. बंगाल में मालदा का पंचाननपुर जैसा विशाल गांव तो इसका एक उदाहरण रहा है, जिसका अस्तित्व ही खत्म हो गया. बैराज से लगभग छह किलोमीटर की दूरी पर बसे गांव सिमलतल्ला का भी अब कोई अस्तित्व नहीं है, जो हजार घरों वाला आबाद गांव हुआ करता था. रेत के टापू बनने का सिलसिला झारखंड के राजमहल तक पहुंच चुका है. बिहार के कई हिस्सों में गंगा की वजह से दूसरी नदियों में गाद के ढेरों टापू बनने लगे हैं जिससे जलजमाव के इलाके भी बढ़ने लगे हैं.

फरक्का के आंकड़े कहते हैं कि 1975 में जब यह बैराज बना था तो मार्च के महीने में भी वहां 72 फुट तक पानी रहता था, अब नदी के बालू-मिट्टी से भरते जाने की वजह से नदी की गहराई 12-13 फीट तक रह गई है. बैराज के कारण पांच लाख से अधिक लोग अब तक अपनी जमीन से उखड़ चुके हैं और बंगाल के मालदा तथा मुर्शिदाबाद जिले की 600 वर्ग किलोमीटर से अधिक उपजाऊ जमीन गंगा में विलीन हो चुकी है. यूके चौधरी कहते हैं, ‘बेवकूफाना अंदाज में एक ऐसा बैराज बना दिया गया है जो सिर्फ और सिर्फ तबाही और विनाश का ही कारण बनता जा रहा है. फरक्का के आस-पास साल भर बाढ़ का खतरा बना रहता है. वहां 110 फुट से ऊंचाई तक बालू जमा हो गया है. 100 से अधिक गांव गंगा में समाने की राह पर हैं. लेकिन अपने देश में तो बस सारा जोर किसी तरह निर्माण करने पर ही रहता है. बाद में कोई एसेसमेंट तो होता ही नहीं. न आज तक टिहरी का एसेसमेंट हुआ, न फरक्का का.’

गंगा का मायका कहे जाने वाले उत्तराखंड में भी हालात अच्छे नहीं है. हरिद्वार जिले में नियम-कायदों का मखौल उड़ाकर नदी के तल में होते खनन की खबरें पिछले कुछ समय से आम रही हैं. तहलका ने कुछ समय पहले यहां कई किसानों से मुलाकात की थी जिन्होंने बताया था कि इस खनन का उनकी जिंदगी पर कितना बुरा असर पड़ रहा है. मिस्सरपुर के किसान जीतेंद्र सैनी का कहना था, ‘बरसात के दौरान पहाड़ों से पोषक तत्वों से युक्त मिट्टी बहकर आती है. पहले यह मिट्टी मैदानी इलाके में आते ही बढ़ते जल स्तर के साथ खेतों में भर जाती थी. इसे हम किसान ‘पांगी चढ़ना’ कहते हैं. खनन से नदी का पाट गहरा हुआ है जिससे नदियों का पानी सीधे आगे बढ़ जाता है और इस मिट्टी का फायदा किसानों को नहीं मिल पाता. ऊपर से क्रेशरों की धूल. इस सबसे हमारी खेती चौपट  हो रही है.’

हरिद्वार वह इलाका है जहां गंगा मैदान में आती है. थोड़ा और ऊपर जाकर पहाड़ों में देखें तो वहां भी गंगा को बांधने की कोशिशों ने तबाही की कई कहानियां लिखी हैं. टिहरी बांध को ही लीजिए. दुनिया में आठवें सबसे ऊंचे इस बांध ने साढ़े तीन दशक पहले विस्थापन की जो कहानी शुरू की थी वह आज तक खत्म नहीं हुई है. टिहरी बांध परियोजना के कारण टिहरी शहर के अलावा 125 गांव प्रभावित हुए. शुरुआत में यह आकलन किया गया था कि इस परियोजना से टिहरी शहर के अलावा 39 गांव पूर्णतया और 86 गांव आंशिक रूप से प्रभावित होंगे. लेकिन यह संख्या बढ़ती जा रही है. दो साल पहले इस बांध के करीब 44 किलोमीटर लंबे जलाशय का स्तर 832 मीटर क्या पहुंचा इसके ऊपर स्थित पहाड़ों पर बसे दर्जनों गांव धंसने लगे. दरअसल झील का पानी लगातार उन ढलानों को कमजोर कर रहा है जिन पर ये गांव बसे हैं. यह इन गांवों में जाकर भी देखा जा सकता है जहां खेतों और मकानों के धंसने की घटनाएं आम हो चली हैं. जियॉलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट कहती है कि ये ढलानें अस्थिर हो रही हैं जिसके नतीजे में ये गांव कभी भी गंगा के पानी से बनी विशाल झील में समा सकते हैं. यह तो एक बांध की बात है. उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बन चुके या फिर बन रहे ऐसे बांधों का आंकड़ा 600 के करीब है. चिंता की बात इसलिए भी है कि इनमें ज्यादातर ऐसे हैं जिनमें काम मनमानी की तर्ज पर हो रहा है. कैग की रिपोर्ट ही बता रही है कि उत्तराखंड में बन चुके या बन रहे 85 फीसदी बांधों की क्षमता में मूल प्रस्ताव से 22 से 329 फीसदी तक बदलाव किया गया है. श्रीनगर के पास धारी नाम के एक गांव में रहने वाले बीबी चमोली कहते हैं कि ये बांध शक्ति का नहीं बल्कि छल और विनाश का प्रतीक हैं. अपने घर के पास बन रही एक परियोजना का हवाला देते हुए वे कहते हैं, ‘मंजूरी मिलते वक्त इसे आवंटित की गई क्षमता 200 मेगावॉट और ऊंचाई 63 मीटर थी. अचानक ऊंचाई और क्षमता बढ़ाकर 93 मीटर और 330 मेगावॉट कर दी गई. बड़ी अजीब बात है. कौन देता है इसकी मंजूरी.’ कैग की रिपोर्ट आगाह भी करती है कि इतनी सारी परियोजनाएं उस क्षेत्र में बनाई जा रही हैं जो भूगर्भीय रूप से बहुत अस्थिर है और भूकंप के लिहाज से जोन पांच में स्थित है. बांध निर्माण का एक पक्ष यह भी है कि जब  भी इससे पानी छोड़ा जाता है तो नदी का स्तर एकदम से बढ़ जाता है. अचानक आए पानी के साथ लोगों के बहने के किस्सों की इस इलाके में कमी नहीं.

 

‘मिशन फॉर क्लीन गंगा 2020 ब्यूरोक्रेटों की चोंचलेबाजी और चालबाजी है’

गंगा की इस देश के लिए क्या कीमत है, इसे किसी आंकड़े से नहीं बताया जा सकता. एक सभ्यता को पालने-पोसने की कोई कीमत लगाई भी कैसे जा सकती है? सदियों से गंगा एक बड़ी जनसंख्या का भौतिक और आध्यात्मिक पोषण करती आई है. इसके पारिस्थितिकी तंत्र और इसके सहारे चल रही बिजली और सिंचाई परियोजनाओं को देखा जाए तो आज भी करोड़ों लोगों की जिंदगी इसके सहारे ही चल रही है. लेकिन विडंबना देखिए कि जिस सभ्यता को इसने जन्म दिया वही सभ्यता इसका दम घोंटने पर उतारू है. जल संरक्षण पर काम करने वाले समाजशास्त्री प्रभात शांडिल्य कहते हैं, ‘अब यही समझिए कि गंगा को मोर और बाघ की तरह देखेंगे. यह जिस दिन राष्ट्रीय प्रतीक बनी, उसी दिन यह संकेत भी मिल गया कि अब यह भी दुर्लभ-सी हो जाएगी.’  उत्तर प्रदेश के मिरजापुर-चुनार के इलाके में गंगा किनारे चरवाही करने वाले अनपढ़ सिताराम यादव दो मिनट में सहजता से गंगा का गणित समझाते हैं. कहते हैं, ‘गंगा में पानिये ना रही तो खेती कईसे होई. माल-मवेशी कईसे जिंदा रही. ज  खेतिये ना होई, माल-मवेशी ना रही तो गांव के लोग कवना चीज के असरा में गांव में बईठल रही. सबलोग शहर भागी. शहर में रहे के जगह ना मिली तो मार-काट मची. डकैती-जनमरउवल रोज होई.’

इसी क्रम में इलाहाबाद में संतन पांडेय मिलते हैं. गंगा पर बात करने पर कुछ बोलने के बजाय वे पहले अपनी जेब से अखबार की एक कतरन निकालकर पकड़ा देते हैं. वह कतरन 17 अप्रैल को नई दिल्ली में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन अथॉरिटी की हुई तीसरी मीटिंग की खबर वाली होती है, जिसमें प्रधानमंत्री का यह बयान शीर्षक में है- ‘गंगा के पास अब समय बहुत कम बचा है, इसे शीघ्र साफ करना होगा.’ संतन कहते हैं, ‘हम लोग तो गंगा को खत्म होते हुए करीब से देख रहे हैं. लेकिन खास यही है कि अब दिल्ली में रहने वाले प्रधानमंत्री भी स्वीकारने लगे हैं कि गंगा के पास समय कम बचा है.’ संतन अखबार की कतरन वापस मांग लेते हैं और कहते हैं, ‘अब जरा आप लोग दिल्ली में पूछिए प्रधानमंत्री जी से कि वे गंगा की किस तरह की सफाई जल्दी चाहते हैं. गंदगी को साफ करने की बात कर रहे हैं या गंगा को ही सदा-सदा के लिए…!’

 

 कैसे साफ होगी गंगा?

चर्चित नदी विज्ञानी डॉ यूके चौधरी का मानना है कि गंगा के सामने आज जितनी समस्याएं या चुनौतियां हैं, उसके मूल में इसके जल की क्वांटिटी का कम होना ही प्रमुख है. वे कहते हैं, ‘गंगा में यदि प्रवाह रहे और बालू आदि की मात्रा सही रहे तो गंगा खुद ही गंदगी को साफ करने में सक्षम है. बालू में शोधक क्षमता बहुत होती है और वह ऐसी गंदगियों को खुद में मिला लेता है. इसलिए गंगा में प्रवाह रहे तो ऐसी गंदगियां बहुत हद तक खुद-ब-खुद साफ होती रहेंगी.’ गंगा महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री आचार्य जितेंद्र भी मानते हैं कि अविरलता के बिना निर्मल गंगा की कामना नहीं की जा सकती. उनके मुताबिक सिर्फ निर्मलता के नाम का जाप वे लोग ज्यादा करते रहते हैं जिनकी रुचि इसके नाम पर बजट बढ़ाने-बढ़वाने का खेल करने में होती है. बनारस में चल रहे गंगा आंदोलन के संरक्षक और गंगा सेवा अभियानम के संयोजक स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद कहते हैं कि सबसे बड़ी चुनौती गंगा की अविरलता को लेकर ही है.

हालांकि सब लोग ऐसा नहीं मानते. गंगा के  लिए संघर्षरत और संकटमोचन फाउंडेशन के अध्यक्ष वीरभद्र मिश्र का मानना है कि सिर्फ अविरलता से बात नहीं बनेगी. वे कहते हैं, ‘गंगा में 95 फीसदी प्रदूषण सीवर और औद्योगिक कचरों से है.’ वे आगे जोड़तेे हैं, ‘देश को बिजली की जरूरत है, उस पर विचार किया जाना चाहिए लेकिन मैं यह तर्क कतई स्वीकार नहीं करता कि टिहरी से फ्लो बढ़ा दो, गंदगी को बहा ले जाएगी गंगा. धर्माचार्य आंदोलन तो कर रहे हैं लेकिन सीवर आदि पर नहीं बोलते, क्योंकि बनारस, इलाहाबाद आदि जगहों पर वे खुद अपना सीवर गंगा में बहा रहे हैं. धर्माचार्य बस किसी तरह एक माह टिहरी से पानी छोड़ने की जिद करते हैं कि कुंभ और माघ मेला पार लग जाए. यह तो गंगा को टायलेट की तरह मान लेना है कि गंगा शौचालय है, मल-मूत्र-गंदगी डालते रहिए और ऊपर टिहरी से पानी मारकर फ्लश करते रहिए.’ जल संरक्षण पर अपने काम के लिए चर्चित राजेंद्र सिंह कहते हैं कि गंगा को सिर्फ राष्ट्रीय नदी घोषित भर किया गया है लेकिन राष्ट्रीय सम्मान जैसा तो कुछ नहीं दिया गया. वे कहते हैं, ‘जो  राष्ट्रध्वज का अपमान करता है, राष्ट्रीय गीत या राष्ट्रगान का मजाक उड़ाता है, उसके लिए दंड की व्यवस्था है लेकिन गंगा के मामले में तो ऐसा अब तक कुछ भी होता नहीं दिखता.’ उनके मुताबिक जब ऐसा होगा तभी कुछ बात बनेगी. उधर, एक वर्ग का यह भी मानना है कि बांध हों या बैराज, जब तक गंगा पर हुए निर्माणों का ठीक से आकलन नहीं होगा तब तक बात नहीं बनेगी. यूके चौधरी कहते हैं, ‘भारत में गंगा या दूसरी नदियों पर निर्माण के लिए विशेषज्ञों को रखने का चलन है. बाकी दुनिया में इंजीनियरों की सेवा ली जाती है. यहां पैथोलॉजिस्टों से ही बीमार गंगा के संपूर्ण इलाज की उम्मीद की जा रही है, कभी डॉक्टरों से भी तो रायशुमारी करते कि मर्ज कैसे दूर होगा.’

(मनोज रावत और बृजेश पांडे के

योगदान के साथ)

 

दलबदल का दांव

ऐसा क्या हुआ कि उत्तराखंड में कांग्रेसी मुख्यमंत्री के लिए एक भाजपाई विधायक ने अपनी सीट छोड़ दी ? मनोज रावत की रिपोर्ट: 

उत्तराखंड विधानसभा में दलबदल का इतिहास दोहराया गया. पिछली बार भाजपा के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले चुके भुवन चंद्र खंडूड़ी के लिए कांग्रेस के विधायक और पूर्व मंत्री ले. जनरल टीपीएस रावत ने इस्तीफा दे दिया था ताकि खंडूड़ी उनकी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ सकें. इस बार राज्य के कांग्रेसी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए भाजपा विधायक किरन मंडल ने इस्तीफा दे दिया. नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट द्वारा मंडल के इस्तीफे में लेने-देन के सबूत होने का दावा करने के बाद राज्य में दलबदल की नैतिकता और अनैतिकता पर पिछले एक हफ्ते से चल रही बहस  और तीखी हो गई है. 70 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के 32 और भाजपा के 31 विधायक चुनाव जीत कर आए हैं. बहुमत के आंकड़े से चार कम होने के बावजूद कांग्रेस निर्दलीयांे, बसपाइयों और उक्रांद के विधायक की मदद से सरकार बनाने में सफल रही थी. शपथ ग्रहण करने के बाद छह महीने के भीतर मुख्यमंत्री बहुगुणा का विधानसभा  सदस्य बनना जरूरी है.

बहुगुणा के लिए सीट कौन छोड़ सकता है, इस बारे  में उनके शपथ ग्रहण करने के दिन से ही कयास लगाए जा रहे थे. जानकार बताते हैं कि हाल के विधानसभा चुनाव और उसके बाद के हालात में हुए जातीय और सामाजिक विभाजन को देखा जाए तो पहाड़ की किसी भी सीट पर मुख्यमंत्री को चुनाव लड़वा कर आसानी से उसे जीत में बदलने की सौ फीसदी गारंटी कोई नहीं दे सकता था. सदन में संख्या बल के लिहाज से कांग्रेस इस स्थिति में भी नहीं थी कि वह अपने किसी विधायक को इस्तीफा दिलाकर उस सीट से  मुख्यमंत्री को चुनाव लड़वाए. ऐसा करना उसके लिए आत्मघाती मुकाबले में उतरने जैसा होता. किसी कांग्रेसी विधायक के  इस्तीफा देते ही विधानसभा के भीतर दोनों दलों के विधानसभा सदस्यों की संख्या बराबर यानी 31 हो जाती. खाली हुई सीट पर हो रहे उपचुनाव में  अप्रत्याशित हार की स्थिति में कांग्रेस सबसे बड़े एकल दल की हैसियत तो गंवाती ही, सरकार बनाए रखने का उसका संवैधानिक और नैतिक अधिकार भी चला जाता. इसलिए पार्टी अपने विधायक के बजाय भाजपा के विधायक को इस्तीफा दिलाना चाहती थी.   

वैसे भी विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद से ही कांग्रेस के भीतर सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा था. बहुगुणा के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद से ही केंद्रीय राज्य मंत्री हरीश रावत का खेमा लगभग हर मुद्दे पर बगावती तेवर दिखा रहा था. ‘सत्याग्रह’ के बाद भले ही उनके खेमे को राज्य सभा सीट, विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी और चार मंत्री पद मिल गए हों, पर फिर भी हरीश रावत और उनके समर्थकों के मन से मुख्यमंत्री पद हाथ से जाने का मलाल नहीं गया है. धारचूला के विधायक और रावत समर्थक विधायक हरीश धामी विधानसभा के बजट सत्र के पहले दिन सदन में काली पट्टी बांध कर आए. उन्होंने चेतावनी दी कि यदि चार दिन में उनके  विधानसभा क्षेत्र की समस्याएं सुलझाई नहीं जातीं तो वे पहले अनशन पर बैठेंगे और फिर विधानसभा से भी इस्तीफा दे देंगे. धामी अपने क्षेत्र धारचूला के 82 गांवों को पिछड़ा क्षेत्र घोषित करने सहित अन्य कई मांगों को लेकर अपनी ही सरकार का विरोध कर रहे हैं. 

जानकारों के मुताबिक इन विपरीत परिस्थितियों में बहुगुणा किसी कांग्रेसी विधायक से इस्तीफा दिला कर चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते थे. यों भी पिछले आम चुनाव में मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए खंडूड़ी के चुनाव हार जाने के बाद मुख्यमंत्रियों के हर हाल में चुनाव जीतने का मिथक खत्म हो गया है. बहुगुणा कहां से चुनाव लड़ेंगे, इस सवाल के बीच उछलती कई संभावनाओं के बीच उधमसिंह नगर जिले की सितारगंज विधानसभा सीट का किसी को अंदाजा नहीं था. वैसे भी पिछले विधानसभा चुनाव में सितारगंज से भाजपा के प्रत्याशी किरन मंडल प्रदेश में सबसे अधिक मतों से जीतने वालों में एक थे. विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के उम्मीदवार की पतली हालत के कारण भी इस सीट पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा था. 

सदन में संख्या बल के लिहाज से कांग्रेस इस स्थिति में नहीं थी कि वह अपने किसी विधायक से इस्तीफा दिलाकर उस सीट से मुख्यमंत्री को चुनाव लड़वाए

फिर 17 मई को अचानक विधायक किरन मंडल के कांग्रेसियों के संपर्क में होने की अफवाह फैलने लगी. 91 हजार मतदाताओं वाली बहुवर्गीय जनसंख्या वाली सितारगंज विधानसभा सीट पर बंगाली समुदाय का वोट 25 फीसदी से ज्यादा है. मुसलिम मतदाता भी यहां अच्छी संख्या में हैं. जनसंख्या के लिहाज से इस सीट पर ठीक-ठाक संख्या में पंजाबी और पहाड़ी मतदाता भी हैं. बताया जाता है कि इस तरह बहुजातीय, बहुसमुदायी और बहुभाषाई इस सीट पर मुख्यमंत्री के विरुद्घ कोई वाद चलने की गुंजाइश न के बराबर है. मंडल के भाजपा के हाथ से निकलने के पहले ही मुख्यमंत्री एक-दो जगहों पर अपने पूर्वजों के बंगाल से उत्तराखंड आने का रहस्योद्घाटन कर बंगालियों से अपना भावनात्मक नाता जोड़ने की कोशिश कर चुके थे. सूत्रों के अनुसार सभी सर्वेक्षणों और खुफिया सर्वे के बाद पहले  ‘ऑपरेशन मंडल तोड़ो’ पर पूर्व मंत्री और उधमसिंह नगर के बड़े कांग्रेसी नेता तिलक राज बेहड़ को लगाया गया था. बेहड़ को सफलता न मिलने पर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और राजस्व मंत्री यशपाल आर्य के समर्थक युवा नेताओं ने मंडल को कांग्रेस के पाले में करने की कमान संभाली और मंडल की भेंट मुख्यमंत्री से करा दी. सितारगंज सहित उधमसिंह नगर के कई  हिस्सों में 1950 के बाद बड़ी संख्या में बंगाली शरणार्थी आए थे.  इसके छह दशक बाद भी उन्हें भूमिधरी अधिकार नहीं  मिल पाए हैं. इस कारण वे अपनी ही जोत-भूमि के स्वाभाविक मालिक होने के बजाय किरायेदार की दोयम हैसियत में हैं. मंडल से मुलाकात के बाद मुख्यमंत्री ने उन्हें आश्वासन दिया कि जल्दी ही भूमिधरी का मामला कैबिनेट के सामने लाया जाएगा. एक सप्ताह बाद ही सरकार ने 23 मई को कैबिनेट निर्णय करवाकर  ‘गवर्नमेंट ग्रांट ऐक्ट’ के तहत पट्टे पर मिली भूमि को भूमिधरी में बदलने का निर्णय कर दिया. उसी दिन किरन मंडल ने विधानसभा सदस्य के पद से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री के लिए सीट छोड़ने की घोषणा भी कर दी. 

सूत्रों के मुताबिक यह सारा अभियान मुख्यमंत्री बहुगुणा,  प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य और उनकी युवा टीम के बीच ही सीमित रहा. दरअसल सितारगंज उत्तराखंड के गठन से पहले यशपाल आर्य का विधानसभा क्षेत्र रहे खटीमा का ही हिस्सा है. यशपाल दो बार खटीमा से विधायक रहे थे. इसलिए उनके सितारगंज और उधम सिंह नगर में सभी लोगों से नजदीकी ताल्लुकात हैं. इन सभी समीकरणों को देखते हुए दबंग नेता बेहड़ के बजाय किरन मंडल ने सहज-सरल स्वभाव के यशपाल आर्य की मध्यस्थता में विधायकी छोड़ना उचित समझा. इस तरह जिन आर्य को कुछ महीने पहले राज्य के सभी बड़े नेताओं ने मुख्यमंत्री पद की दौड़ में सवर्ण बहुल राज्य उत्तराखंड का ‘कमजोर दलित नेता’ बताकर किनारे कर दिया था वही मुख्यमंत्री बहुगुणा के लिए अप्रत्याशित दलबदल करा सकने वाले अध्यक्ष सिद्घ हुए. जानकारों के मुताबिक बहुगुणा ने भी इस दांव से यह साबित कर दिया है कि वे भी पिता हेमवती नंदन की तरह राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं.

दूसरी ओर मंडल के इस्तीफा देने तक भाजपा आत्मसमर्पण की मुद्रा में हाथ पर हाथ धरे बैठी दिखी. दरअसल मंडल के गायब होने तक भाजपा में नेता प्रतिपक्ष का चुनाव तक नहीं हुआ था. पार्टी के तीनों बड़े खेमे और प्रभावशाली विधायक नेता प्रतिपक्ष बनने की होड़ में लगे थे.  मुंबई अधिवेशन से वापस आकर भाजपा के नेता विधायक मंडल के इस्तीफे और स्वाभाविक दलबदल और कुछ और विधायकों के टूटने की अफवाह से उपजी निराशा सेे जूझने की कोशिश कर रहे हैं. विधानसभा के भीतर लेन-देन के संगीन आरोप लगा कर भाजपा आक्रामक रुख अपना रही है. इसके जवाब में कांग्रेस के सांसद सतपाल महाराज कहते हैं,  ‘ इस परंपरा की नींव तो भाजपा ने 2007 में टीपीएस के दलबदल से डाल दी थी.’  कांग्रेसी मंडल के इस्तीफे को भाजपा द्वारा पूर्व में दी गई ‘टीपीएस लंगड़ी’ का उपयुक्त जवाब बता रहे हैं. हालांकि पहले खामोश दिख रही भाजपा इस मामले में लंबी लड़ाई लड़ने के मूड में दिख रही है. हालांकि इस घटनाक्रम से राज्य के लोग तो चिंतित हैं ही कई कांग्रेसी भी इस पर चिंता जता रहे हैं. पार्टी के बहुत से नेता दबी जुबान में यह आशंका जताते हैं कि इस तरह की परंपराएं राज्य को झारखंड जैसे हालात में झोंक सकती हैं.

 

प्रश्नोत्तर:भाजपा के मुख्यमंत्री मेरी मांगों पर बहाने बनाते थे’

मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए अपनी विधानसभा सीट छोड़कर उत्तराखंड का राजनीतिक तापमान बढ़ाने वाले किरन मंडल से मनोज रावत की बातचीत:

अपनी विधायकी और राजनीतिक विचारधारा की बलि देने की वजह?

यह निर्णय मैंने सिर्फ बंगाली कौम के लिए नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए किया है. कैबिनेट के इस निर्णय से सभी तरह के पट्टेधारकों को भूमिधरी मिल जाऐगी. तब वे अपनी जमीन के सचमुच मालिक हो जाएंगे. 

कई साल तक कार्यकर्ता रहने के बाद विधायक बनने पर आपने भाजपा छोड़ी. ऐसा क्यों?

भाजपा कार्यकर्ता के रूप में भूमिधरी की मांग मैंने भाजपा के सभी मुख्यमंत्रियों के सामने भी रखी थी. चुनाव से पहले वे सब हां कहते थे पर चुनाव खत्म होते ही बहाने बनाने लगते. 

लेकिन वहां तो पट्टे किसी और को बिक चुके हैं. ऐसे में कई बवाल नहीं होंगे क्या ? 

नहीं, पट्टे बेचने वाले और उस पर काबिज दोनों ही में समझौता और तालमेल हो जाएगा. अभी तो दोनों के ही नाम कानूनन कुछ नहीं है. 

अब अफवाहें उड़ रही हैं कि सितारगंज से मुख्यमंत्री के बजाय आपको या किसी और कांग्रेसी को चुनाव लड़ाया जाएगा.

मैंने केवल मुख्यमंत्री के लिए सीट छोड़ी है. मैं कांग्रेस में शामिल हो रहा हूं परंतु मुझे यह लालच नहीं है कि मैं फिर सितारगंज से चुनाव लड़ूं. मेरा मुख्यमंत्री से अनुरोध है, वे सितारगंज से चुनाव लड़ कर उस दूरस्थ और पिछड़े क्षेत्र को चमका दें.

लेकिन सितारगंज में आपके निर्णय का विरोध हो रहा है.

वहां सब खुश हैं. भाजपा के कुछ लोग जो अपना कद बढ़ाना चाहते हैं वे विरोध कर रहे हैं. 

हवा उड़ रही है कि आपको विधायकी छोड़ने के लिए मोटा पैसा मिला है.

यह गलत है. अगर ऐसा होता तो हमारी भूमिधरी जैसी कठिन मांग को क्यों पूरा करती सरकार? अपने लोगों की भलाई के लिए मैं फांसी भी चढ़ सकता हूं.

 

 

 

 

 

नक्सल नहीं, मलेरिया पीड़ित

पापा निम्मा माकीन, बिड़सी दायमुंती

 ममो बालेआस मंतोम, निवा एरकते ममो…

गोंडी बोली का यह गीत हमें पहली बार समझ में नहीं आया. स्थानीय लोग बताते हैं कि यह एक शोकगीत है. इसका मोटा-मोटा भावार्थ है कि हे बच्चे तुम हमें छोड़कर तो जा रहे हो लेकिन कभी यह भी सोचा है कि हम लोग कैसे जिएंगे. जब हम तुम्हारी याद में बीमार पड़ जाएंगे तो तुम्हारे पीछे-पीछे हमको भी आना पड़ेगा… इस समय छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में आपको ये गीत अक्सर सुनने को मिल जाएगा. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 570 किलोमीटर दूर नक्सल प्रभावित इलाके चिंतागुफा  ( पहले दंतेवाड़ा अब सुकमा जिला)  में प्रवेश करते ही हमें दो ग्रामीण पुरानी-सी खाट में एक बच्चे के शव को चादरों से ढांककर जंगल के भीतर जाते हुए दिखते हैं.. ये यहां के आम दृश्य हैं. पूछताछ करने पर ग्रामीणों ने बताया कि पुसवाड़ा गांव के पांच वर्षीय देव को मलेरिया प्रेत अपने साथ लेकर चला गया है. आदिवासी इलाकों में किसी बीमारी के साथ प्रेत शब्द का जुड़ जाना भी हैरानी की बात नहीं है. दरअसल बस्तर क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं का पूरी तरह से अभाव है. जहां डॉक्टरों की तैनाती की जाती है वहां वे नक्सलियों की आड़ लेकर गायब रहते हैं, फलस्वरूप आदिवासी अपने इलाज के लिए झाड़-फूंक और टोना-टोटके के नाम पर दुकानदारी चलाने वाले बैगा-गुनियाओं के पास ही जाते हैं. प्रेत शब्द इन्हीं लोगों के दिमाग की उपज है.

बस्तर इलाके में मलेरिया के प्रकोप का यह पहला साल नहीं है लेकिन इस बार हालात इस हद तक खराब हो चुके हैं कि पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक चेतावनी जारी करके बाहरी लोगों को छत्तीसगढ़ जाने से मना किया है. हालांकि सरकारी दस्तावेजों में बीमारी का प्रकोप अभी तक नियंत्रित ही बताया जा रहा है. तहलका की टीम ने जब दंतेवाड़ा के सरकारी अस्पताल (जिला अस्पताल) में मलेरिया से होने वाली मौतों की जानकारी चाही तो वहां पदस्थ चिकित्सकों ने दावा किया कि पिछले कुछ सालों में किसी भी शख्स की मौत मलेरिया से नहीं हुई. चिकित्सकों के इस दावे की पोल दंतेवाड़ा से महज आठ किलोमीटर दूर एक गांव कारली में ही खुल जाती है. गांव में रहने वाले एक ग्रामीण रामनारायण यादव ने बताया कि उसकी नौ साल की बेटी गरिमा अच्छी-खासी थी लेकिन कुछ महीने पहले ही उसे अचानक तेज बुखार ने जकड़ लिया. वे अपनी बच्ची को बेहतर इलाज के लिए दंतेवाड़ा के सरकारी अस्पताल ले गए जहां डॉक्टरों ने परीक्षण के उपरांत मामले को गंभीर बताते हुए यह कह दिया कि अब बच्ची का बचना मुश्किल है. दो दिन बाद ही गरिमा की मौत हो गई. इसी गांव में रहने वाले जमीनाथ की पुत्री संगीता भी मलेरिया से पीड़ित थी. जमीनाथ ने अपनी बेटी का इलाज चिकित्सकों से तो कराया ही, गांव में रहने वाले बड्डे यानी बैगा-गुनियाओं की भी मदद ली, लेकिन किसी भी तरह की मदद कारगर साबित नहीं हुई और संगीता भी चल बसी. आलनार गांव में हमारी मुलाकात मेहनत मजदूरी के जरिए जीवन यापन करने वाले एक ऐसे दंपति से हुई जिसके दो बच्चे मलेरिया का शिकार हुए थे. सोमारू और उनकी पत्नी सन्नी बताती हैं कि पिछले साल गर्मी के दिनों में सबसे पहले बड़ी लड़की रीना की तबीयत बिगड़ी.

चिंतागुफा इलाके में सीआरपीएफ की 150वीं बटालियन में फिलहाल 97 जवान तैनात हैं जिसमें 30 जवान मलेरिया से ग्रसित हैं

 

बुखार में तपती हुई बेटी को लेकर अस्पताल की दौड़ लगाई तो वहां कोई डॉक्टर नहीं मिला. थोड़ी ही देर में गांव से यह सूचना मिली कि छोटे बेटे संजू को भी बुखार चढ़ गया है. वे बेटे को अस्पताल लाने के लिए गांव की ओर भागे तो बेटी ने दम तोड़ दिया और जब गांव पहुंचे तब बेटा भी चल बसा था. तहलका की टीम ने जब दंतेवाड़ा से 37 किलोमीटर दूर बिंजाम इलाके का जायजा लिया तो वहां मलेरिया से मौत की कई घटनाएं और पीड़ित परिवारों की व्यथाएं सुनने को मिलीं. बिंजाम इलाके की एक महिला जैबती के पुत्र भुवनेश्वर को भी कुछ समय पहले मलेरिया ने लील लिया था. जैबती का कहना था कि यदि गांव में कोई स्वास्थ्य केंद्र होता तो शायद उसके बच्चे को जीवन मिल सकता था. जबकि बारसूर के हितामेटा इलाके में रहने वाली शकुंतला मंडावी गांव में अस्पताल रहने के बावजूद अपनी छह वर्षीया पुत्री सानिया को बचाने में कामयाब नहीं हो पाई थी. शकुंतला कहती है, ‘गांववालों की मांग पर सरकार ने अस्पताल तो खोल दिया है लेकिन अस्पताल कब खुलता है और कब बंद होता है इसकी जानकारी किसी के पास नहीं होती.’

तहलका की टीम बारसूर इलाके की सातधारा नदी को पार करने के बाद नक्सलियों के एक प्रमुख आधार क्षेत्र के रूप में विख्यात अबूझमाड़ के पठार पर बसे दो गांव एरपुड़ और मालेवाही भी पहुंची. एरपुड़ गांव के दो युवकों ने बताया कि बारसूर में तैनात की गई सीआरपीएफ गांवोंवालों के बीच से मुखबिर पैदा करने के लिए सिविक एक्शन प्रोग्राम का संचालन कर रही है. इस प्रोग्राम के तहत न केवल दवा-दारू बल्कि  टेलीविजन, हारमोनियम, साड़ी, गमछा यहां तक लुंगी और रेडीमेड ब्लाउज का वितरण भी किया जा रहा है. युवकों ने सीआरपीएफ के बारसूर केंप से संचालित किए जा रहे सिविक एक्शन प्रोग्राम को लेकर सवाल खड़े किए. युवकों का आरोप था कि सीआरपीएफ के इस कथित कल्याणकारी कार्यक्रम की वजह से कभी-कभार दर्शन देने वाले डॉक्टरों ने भी इलाके में आना-जाना छोड़ दिया है. डॉक्टरों को शायद लगता है कि जब सीआरपीएफ दवा बांट ही रही है तो फिर वे क्यों मरने जाएं. इसी गांव में रहने वाले चैतराम बताते हैं कि इलाके में यदा-कदा डॉक्टर आते रहे हैं लेकिन जबसे पुलिस ने उन्हें भी मुखबिर बनाने की कोशिश की है तब से उनका आना-जाना बंद हो गया है. उनके मुताबिक इस इलाके में पदस्थ डॉक्टर दीपककुमार को उन्होंने पिछले कई महीनों से नहीं देखा. ऐसा भी नहीं है कि मलेरिया का कहर केवल बच्चों और ग्रामीणों पर ही देखने को मिल रहा है. इलाके में नक्सलियों से मोर्चा लेने के लिए डटे हुए जवानों और खुद नक्सलियों को भी मच्छरों के खतरनाक डंक से मुकाबला करना पड़ रहा है. लगभग एक साल पहले जब नक्सली नेता गणेश उइके की मौत की खबर उड़ी थी तब यह बात आम थी कि उइके को पुलिस की गोली ने नहीं बल्कि मलेरिया ने अपना निशाना बनाया है. नक्सल समर्थक नेता कोबाड गांधी की पत्नी अनुराधा की मौत की वजह को भी फेल्सीपेरम मलेरिया को ही माना गया था. नक्सलियों से लोहा लेने के लिए आई हुई नागा बटालियन भी लंबे समय तक मच्छरों का प्रकोप झेलती रही है. बस्तर के बारसूर में सीआरपीएफ की 195 बटालियन के जवान कभी नक्सलियों से मुकाबला करते हुए हताहत नहीं हुए लेकिन उन्हें भी मच्छरों से मात खानी पड़ी है. कमांडेंट सुनील कुमार तहलका से बातचीत में यह स्वीकारते हैं कि बटालियन के दो जवान बाबूलाल और बृजेश कुमार की मौत की वजह मलेरिया रही है. 

दंतेवाड़ा से लगभग 35 किलोमीटर दूर बड़ेगुडरा में सीआरपीएफ की अल्फा यूनिट में एक सहायक कमांडंेट रहे पवन कुमार भोजक को लगभग सात मर्तबा मलेरिया ने अपनी गिरफ्त में लिया था. मलेरिया से लगातार पीड़ित रहने की वजह से कुछ समय पहले ही उन्हें तबादले में अमेठी भेजा गया है. दोरनापाल सीआरपीएफ कैंप के एक चिकित्सक संतोष कुमार की मानें तो पिछले साल फरवरी, 2011 से दिसंबर, 2011 तक कांकेरलंका, पोलमपल्ली, और चिंतागुफा,  इलाकों में तैनात दो सौ से ज्यादा जवान मलेरिया से पीड़ित पाए गए थे. चिंतागुफा इलाके में सीआरपीएफ की 150 वीं बटालियन में फिलहाल 97 जवान तैनात हंै जिनमें 30 जवान मलेरिया से ग्रसित हंै. बटालियन के कमांडंेट वी तिनी बताते हैं कि जवान नक्सलियों से बचने के लिए तो हथियार उठाकर चौकसी कर लेते हैं लेकिन मच्छरों से बचने के लिए उन्हें हर रोज फॉगिंग, फेस मास्क, हरे पत्ते का धुंआ, मच्छरदानी सहित और भी बहुत सारे उपायों का सहारा लेना पड़ता है. लेकिन इन सब एहतियातों के बावजूद जवान मौत के मुंह में जाने से नहीं बच पाते. l

 

मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम फेल

छत्तीसगढ़ में मलेरिया प्रकरणों की संख्या के लिहाज से दंतेवाड़ा, कांकेर, बीजापुर और नारायणपुर जैसे नक्सल प्रभावित जिलों को सबसे ज्यादा खतरनाक माना गया है. छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य महकमे के दस्तावेजों में यह उल्लिखित है कि गत वर्ष 2011 में मलेरिया के एक लाख 52 हजार 106 प्रकरण दर्ज किए गए थे जिनमें से ज्यादातर में फेल्सीपेरम मलेरिया का प्रभाव देखा गया. राज्य में मलेरिया से मृत्यु के कुल 42 प्रकरण दर्ज किए गए थे जिनमें सर्वाधिक 28 मौतें बस्तर संभाग में ही हुई थीं (यह एक सरकारी आंकड़ा है). मौतों का यह आंकड़ा कई गुना ज्यादा इसलिए भी हो सकता है कि हाल ही में स्वास्थ्य महकमे की समीक्षा बैठक में बस्तर संभाग के स्वास्थ्य संचालक ने यह स्वीकारा है कि कई उप स्वास्थ्य केंद्र अत्यंत दुर्गम स्थानों पर मौजूद है जहां स्वास्थ्य सुविधाओं का पहुंच पाना बेहद कठिन है. इलाके  के सात जिलों के लिए 212 चिकित्सा विशेषज्ञों की जरूरत बताई जाती है लेकिन महज 24 विशेषज्ञ ही कार्यरत हंै, जबकि 34 चिकित्सा अधिकारियों की कमी भी सीधे तौर पर बनी हुई है. जहां तक राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग ( मलेरिया ) नियंत्रण कार्यक्रम का सवाल है तो यह कार्यक्रम छत्तीसगढ़ में इसलिए भी फेल नजर आता है क्योंकि राज्य का मलेरिया नियंत्रण करने वाला महकमा ही घोटालों के चलते सीबीआई जांच में उलझा हुआ है. यहां यह बताना लाजिमी होगा कि वर्ष 2004-05 में मलेरिया महकमे के अफसरों और कर्मचारियों ने मलेरिया उन्मूलन के लिए विश्वबैंक से मिली 25 करोड़ रुपये की बड़ी राशि से माइक्रोस्कोप, पंप, स्लाइड, मच्छरदानी खरीदने के नाम पर फर्जी बिलों और दस्तावेजों के जरिए जमकर बंदरबांट की थी. इस मामले की जांच सीबीआई कर तो रही है लेकिन गड़बड़ घोटाले का आलम यह है कि दस्तावेजों को एकत्रित करने के लिए सीबीआई को भी सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगनी पड़ी है. इधर मलेरिया नियंत्रण के लिए केंद्र के स्वास्थ्य महकमे की तरफ से नौ लाख से ज्यादा कीटनाशक सिंचित मच्छरदानियां छत्तीसगढ़ को हासिल हुई है लेकिन इन मच्छरदानियों का ठीक-ठाक वितरण अब तक सुनिश्चित नहीं हो पाया है. गत वर्ष राज्य ने मलेरिया नियंत्रण के लिए 21 करोड़ 38 लाख 20 हजार का बजट निर्धारित किया था. इस बजट में से मात्र 14 करोड़ 25 लाख 68 रुपए का ही खर्च हो पाया.

 

 

 

एनटीआर का निलंबनः कांग्रेस

तेलगु फिल्मों के सुपरस्टार रहे एनटी रामाराव ने 1982  में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) का गठन किया था. कांग्रेस विरोध की बुनियाद पर गठित हुई यह पार्टी आंध्र प्रदेश में इतनी तेजी से लोकप्रिय हुई कि कांग्रेस को विधानसभा चुनाव के ठीक चार महीने पहले अपना मुख्यमंत्री बदलना पड़ा. इसके बावजूद पार्टी 1983 का चुनाव हार गई. फिल्मों के महानायक से करिश्माई नेता बने एनटीआर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए.

उस समय यह चर्चा जोरों पर थी कि कांग्रेस एनटीआर सरकार को अस्थिर करना चाहती है. टीडीपी में कई पूर्व कांग्रेसियों की उपस्थिति से ऐसी आशंकाओं को और बल मिल रहा था. इसी बीच टीडीपी सरकार में वित्त मंत्री भास्कर राव ने अगस्त, 1984  में अचानक यह घोषणा करके कि उनके साथ टीडीपी के ज्यादातर विधायक हैं, राज्यपाल के सामने दावा पेश कर दिया कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाए. भास्कर राव पहले कांग्रेस में रह चुके थे और राज्य में तत्कालीन राज्यपाल ठाकुर रामलाल भी कांग्रेस के पूर्व नेता थे. राज्यपाल ने आश्चर्यजनक रूप से तुरंत ही एनटीआर को बर्खास्त करके भास्कर राव को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया. आजाद भारत में किसी राज्यपाल की विवादित भूमिका का यह सबसे बड़ा उदाहरण था. इस घटना के बाद रामलाल और कांग्रेस टीडीपी सहित तमाम विपक्षी पार्टियों के निशाने पर आ गए. एनटीआर अपने सभी 200 (कुल 294 में से) विधायकों को लेकर राजभवन में भी पहुंचे लेकिन उसके बाद भी उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया. 

एनटीआर के इस कदम से कांग्रेस दबाव में आ गई और इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए कांग्रेसनीत तत्कालीन केंद्र सरकार (श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं) ने राज्यपाल को हटा दिया. डॉ शंकरदयाल शर्मा आंध्र प्रदेश के नए राज्यपाल नियुक्त किए गए. डॉ शर्मा ने तुरंत ही एनटीआर को दोबारा मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त कर दिया. लेकिन कुछ ही दिन बाद मुख्यमंत्री ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी. राज्य में जब दोबारा चुनाव हुए तो एक बार फिर टीडीपी ने भारी बहुमत से चुनाव जीता. कांग्रेस के समर्थन से हुए इस पूरे नाटकीय घटनाक्रम का पार्टी की छवि पर इतना बुरा असर पड़ा कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब देश में आम चुनाव हुए तब कांग्रेस को हर राज्य में भारी बहुमत मिला लेकिन आंध्र प्रदेश में उसका सूपड़ा साफ हो गया. टीडीपी ने यहां 30 लोकसभा सीटें जीतीं और पार्टी  लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल बन गई.  

पवन वर्मा

 

संसद, हम शर्मिंदा हैं

पहले कुछ दलित सांसदों के दबाव और बाद में लगभग पूरी संसद के शोर में जिस तरह एनसीईआरटी की राजनीति विज्ञान की ग्यारहवीं की किताब हटा लेने की त्वरित घोषणा हुई, वह सिर्फ शर्मनाक नहीं, सिहराने वाली भी है. कहना मुश्किल है कि यह सिर्फ दलित सांसदों की मांग थी या पूरी कांग्रेस की मंशा कि मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने बड़ी फुर्ती से न सिर्फ माफी मांग ली बल्कि पूरी किताब की ही जांच कराने की घोषणा भी कर दी. इस शोर में संसद ने अपने ही कई वरिष्ठ सांसदों की आवाज भी नहीं सुनी जो याद दिला रहे थे कि सहिष्णुता भी एक मूल्य है और किताब में प्रकाशित कार्टूनों को कहीं ज्यादा व्यापकता और गहराई से देखने की जरूरत है. दुर्भाग्य से हमारे समय की राजनीति जितने सपाट सरलीकरणों पर चल रही है, उसमें इस व्यापकता और गहराई का अवकाश दूर-दूर तक नजर नहीं आता. इसके नतीजे कितने खतरनाक हो सकते हैं, यह इस विवाद ने बताया है. वरना जो किताब अपनी नई तरह की प्रस्तुति और विषयवस्तु के लिए प्रशंसा की पात्र होनी चाहिए थी, उसे इस तरह प्रतिबंधित किए जाने की नियति नहीं झेलनी पड़ती. दरअसल जिस दौर में एनसीईआरटी दुनियाभर में शिक्षा को लेकर बदलते रवैये के साथ अपनी किताबों को ढालने में लगी थी और उन्हें एक आधुनिक रूप दे रही थी, उसी दौर में कई किताबों के साथ यह किताब भी तैयार की गई. नीरस मान ली गई पढ़ने-पढ़ाने की दुनिया में यह किताब एक रचनात्मक हस्तक्षेप की तरह आई.

इसमें शब्दों की एकरसता तोड़ती तस्वीरें थीं और ऐसे कार्टून जो राजनीति विज्ञान की सैद्धांतिकी के समानांतर उसकी व्यावहारिक और सच्ची समझ सुलभ कराते थे. जाहिर है, यह किताब इस नई और आधुनिक अवधारणा के बीच निकली थी कि शिक्षा ऐसी ठोस चीज नहीं है जिसे किसी किताब से उठाकर छात्रों में बांट दिया जाए. वास्तविक शिक्षा लगातार विचार-विमर्श और प्रयोगों के बीच आकार लेती है, वरना रटा हुआ ज्ञान परीक्षा में एक उपयोगितावादी भूमिका निभाने के बाद खत्म हो जाता है. इसी रटे हुए ज्ञान की मार्फत हमने प्रशासक, प्रबंधक, वैज्ञानिक, नेता सब पैदा किए, लेकिन वह प्रयोगशील, साहसी और अंतर्दृष्टि से भरा मनुष्य नहीं बना पाए जो प्रशासन, विज्ञान और राजनीति को नए मूल्य, नई चेतना और नए आविष्कार का सुख देता.

कांग्रेसी नेताओं ने देख लिया था कि किताब के ज्यादातर कार्टून तो उनके पुरखों पर हैं. इसलिए एक चतुर दांव खेलकर इसे कोर्स से हटा दिया गया

इसीलिए एनसीईआरटी ने ऐसी किताबें तैयार कीं जिनमें छात्रों के भीतर एक तरह की वैज्ञानिक चेतना विकसित हो, खुद सोचने-समझने का अभ्यास बने. यह किताब भी इसी परियोजना का हिस्सा थी और इत्तिफाक से यह पहली बार हुआ था जब किसी पाठ्य पुस्तक में अंबेडकर की ऐतिहासिक भूमिका के महत्व को ठीक से रेखांकित किया जा रहा था. लेकिन इतने सकारात्मक बदलावों से भरी, हमारी प्रजातांत्रिक चेतना को नए ढंग से गढ़ती यह किताब एक हल्ले के साथ प्रतिबंधित कर दी गई. इसे तैयार करने वाले पहले दलित विरोधी करार दिए गए और उसके बाद लोकतंत्र विरोधी, उन्हें खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया, उनके विरुद्ध कार्रवाई की मांग की गई. इस पूरे प्रसंग में दलित बुद्धिजीवियों की जो भूमिका रही, उसने जाने-अनजाने अंबेडकर को ही चोट पहुंचाई. तथाकथित श्रद्धा और आस्था की ब्राह्मणवादी शब्दावली के साथ वे समझाने में जुटे रहे कि यह कार्टून कैसे दलितों की भावनाओं पर चोट पहुंचाता है. जो बहस पूरी किताब पर चलनी चाहिए थी, वह शंकर के एक कार्टून पर ठिठक कर रह गई. किसी ने यह सोचना भी जरूरी नहीं समझा कि विधाओं के पाठ के अलग-अलग तरीके होते हैं. कविता अलग तरह से पढ़ी जाती है, निबंध अलग तरह से और कार्टून अलग तरह से. किसी ने यह भी नहीं देखा कि पूरी किताब में पाठ के समानांतर चलते करीब डेढ़ सौ कार्टून हैं जो जितना प्रहार अंबेडकर पर करते हैं, उससे कहीं ज्यादा नेहरू-गांधी परिवार पर. 

लेकिन जो कार्टून के खिलाफ खड़े बुद्धिजीवी नहीं देख पाए, वह कांग्रेसी नेताओं ने देख लिया. उन्हें फौरन समझ में आ गया कि किताब के ज्यादातर कार्टून तो उनके पुरखों पर हैं. इसलिए दलित सांसदों का गुस्सा खत्म करने के नाम पर ऐसी खतरनाक किताब सीधे कोर्स से हटा दी गई. लेकिन आत्मसमर्पण की मुद्रा में की गई इस चालाक राजनीति का खमियाजा वे बच्चे भुगतेंगे जिन्हें अब एक नियोजित- अच्छी-अच्छी बातें बताने वाला, लोकतंत्र के जड़ सिद्धांत रटाने वाला- राजनीति विज्ञान पढ़ना पड़ेगा. इसका खमियाजा हम और आप भुगतेंगे जो नेहरू से लेकर अंबेडकर तक- क्योंकि अगर नेहरू अंतर्विरोधों से घिरे हैं तो अंबेडकर के अंतर्विरोध भी कम नहीं हैं- किसी को हाथ लगाएंगे तो संसदीय सर्वानुमति से हमारे हाथ काट डाले जाएंगे. इसका खमियाजा वे दलित और आदिवासी भुगतेंगे जिन्हें यह कभी समझ में नहीं आएगा कि मौजूदा संसदीय लोकतंत्र उनके साथ कैसे-कैसे छल कर रहा है. 

रहा कार्टूनों को बच्चों की किताब में डालने का सवाल- तो ग्यारहवीं-बारहवीं के बच्चे 17-18 साल के होते हैं- यानी बालिग मतदाता होने की बिल्कुल दहलीज पर. क्या हम नहीं चाहते कि वे बालिग हों? कि वे जितना संसदीय राजनीति की अपरिहार्यता को समझें उतना ही उसके अंतर्विरोधों को, ताकि वे बेहतर नागरिक और संभव हो तो नेता भी बन सकें? कपिल सिब्बल ने जिसे लीगेसी- यानी विरासत- पर चोट कहा, दरअसल वह इसी डर के सैद्धांतिकीकरण की खोखली कोशिश के अलावा कुछ नहीं था. इसके पीछे वह डरी हुई दृष्टि छिपी नहीं रह पाती जो हर तरह की आलोचना से भागती है, कहीं भी कोई स्टैंड लेने से घबराती है, न मकबूल फिदा हुसेन को रोक पाती है, न तसलीमा नसरीन को ठीक से रख पाती है और न ही अपने विद्वानों का, अपने कार्टूनिस्ट का और अपने नेताओं और बच्चों का बचाव कर पाती है.

 

उम्मीद की तरंगें

हरियाणा के नूह कस्बे में सड़क किनारे बीएसएनएल  का एक विशाल टावर आसानी से नजर आ जाता है. जिस पर निगाह आसानी से नहीं पड़ती, वह एक छोटा -सा टावर है जो मेवात विकास प्राधिकरण की बिल्डिंग  पर लगा है. 2010 में जब यह लगा था तो इसने मोहम्मद आरिफ का ध्यान खींचा था. फरीदाबाद के एक स्थानीय अखबार में क्राइम रिपोर्टर के रूप में काम कर चुके मोहम्मद आरिफ ने जल्द ही पता लगा लिया कि इस टावर को सामुदायिक यानी कम्युनिटी रेडियो स्टेशन के लिए लगाया गया है. इसके बाद 27 साल के आरिफ ने रेडियो मेवात के लिए काम करना शुरू किया. कृषि पर अपनी हर रिपोर्ट के बाद वे कहते, ‘आपकी बात, मेरी बात, सुनिए रेडियो मेवात.’ वह रेडियो मेवात जिस पर वित्त मंत्री से देश के आर्थिक मुद्दों पर नहीं बल्कि एक स्थानीय बैंक अधिकारी का बचत योजनाओं पर इंटरव्यू लिया जाता है.जिस पर विजय माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस के लिए बेलआउट पैकेज पर घंटों लंबी बहस नहीं होती बल्कि ग्रामीण योजनाओं के लिए दिया गया पैसा सरपंच तक न पहुंच पाने जैसे मुद्दों पर सवाल उठाए जाते हैं. जिस पर हिन्दी फिल्मों के गाने नहीं सुनाई देते बल्कि स्थानीय मिरासी समुदाय द्वारा खास तौर पर तैयार किया गया संगीत बजता है. इस सबका नतीजा यह है कि मेवात के इस अनोखे रेडियो स्टेशन की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है.  कार्यक्रमों के दौरान अब महिला श्रोता भी फोन करती हैं. मेवात जैसे इलाके में यह एक उपलब्धि ही है. मुसलिम बहुल और रुढि़वादी माने जाने वाले इस इलाके की साक्षरता दर महज 44 फीसदी है. जब योजना आयोग की सदस्य सईदा हामिद जैसी हस्तियां इसके 15 मिनट के रेडियो शो ‘आज की मेहमान’ में शरीक होती हैं तो इलाके में इसकी चर्चा होती है. 

सामुदायिक यानी कम्युनिटी रेडियो जमीन पर आकार लेने वाला एक ऐसा नया आंदोलन है जिसे लेकर सरकार भी उत्साहित है. इसकी सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश भर में 130 रेडियो स्टेशन चल रहे हैं  और 233 प्रस्तावित हैं. इस साल फरवरी में जब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय पहली बार कम्युनिटी रेडियो के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार लेकर सामने आया तो इसकी चर्चा मीडिया में भी सुनाई दी. राष्ट्रीय पुरस्कार की रेस में रेडियो मेवात सबसे चहेता रहा और सस्टेनेबिलिटी मॉडल वर्ग में अवार्ड जीतने वाला वह अकेला स्टेशन रहा जबकि अन्य चार वर्गों में से प्रत्येक में तीन-तीन विजेता रहे. रेडियो मेवात की संस्थापक अर्चना कपूर कहती हैं, ‘इस पुरस्कार ने तो कमाल ही कर दिया. हमें  पुदुचेरी  स्थित औरूविले से फोन आया है जिसमें हमारे रेडियो स्टेशन के बारे में जानकारी मांगी गई है.’ 

ऐसा नहीं कि कम्युनिटी रेडियो की यह बयार मेवात में ही बह रही हो. पिछले दो वर्षों में देश भर में ऐसे स्टेशनों की संख्या 64 से बढ़कर 130 हो गई है

अर्चना स्मार्ट नामक गैरसरकारी संस्था से जुड़ी हैं जो रेडियो मेवात का संचालन करती है. इस साल मेवात में तीन और रेडियो स्टेशन स्थापित करने का प्रस्ताव है जिनमें से एक अलफाज-ए-मेवात की टेस्टिंग भी शुरू हो गई है. ऐसा नहीं कि कम्युनिटी रेडियो की यह बयार बस मेवात में ही बह रही हो. पिछले दो वर्षों में देश भर में ऐसे रेडियो स्टेशनों की संख्या 64 से बढ़कर 130 हो गई है. हालांकि कम्युनिटी रेडियो का क्षेत्र 2006 से ही पंजीकृत गैरलाभकारी संस्थाओं के लिए खोल दिया गया था, लेकिन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने इस मुहिम में अपनी तरफ से सक्रियता पिछले दो वर्षों के दौरान ही दिखाई. उदाहरण के तौर पर मंत्रालय की ओर से तरह-तरह के पुरस्कार दूसरे राष्ट्रीय सामुदायिक रेडियो सम्मेलन के मौके पर, घोषित किए गए, यह आयोजन इसलिए किया जाता है ताकि देश भर के कम्युनिटी रेडियो स्टेशनों को एक-दूसरे के साथ-साथ मंत्रालय से भी घुलने-मिलने और आपसी समझ बढ़ाने का मौका मिल सके. फरवरी में हुए इस सम्मेलन में ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और साउथ अफ्रीका के रेडियो प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की संयुक्त सचिव सुप्रिया साहू कहती हैं, ‘विकसित देशों में कम्युनिटी रेडियो अच्छा काम कर रहा है. हम उनसे सीखना चाहते हैं.’

सुप्रिया साहू बताती हैं, ‘एक बात जो हमने विदेशी जानकारों से सीखी है वह यह कि वहां एक शुरुआती फंड मुहैय्या कराया जाता है. यहां के हिसाब से यह फंड 10 से 15 लाख रु का होता है. इस फंड की महत्ता हम अब जान पाए हैं.’ शैक्षणिक संस्थान 80 कम्युनिटी रेडियो स्टेशन चलाते हैं, स्वयंसेवी संगठन 40 स्टेशन चलाते हैं जबकि 10 स्टेशन लोगों के व्यक्तिगत समूहों द्वारा चलाए जाते हैं. यही वजह है कि मंत्रालय का उद्देश्य है कि इस आंकड़े को और बढ़ाया जाए. ‘गुड़गांव की आवाज’ नाम के एक रेडियो स्टेशन मंे प्रोग्राम मैनेजर अनुरागिनी नागर बताती हैं, ‘लोग कम्युनिटी रेडियो स्टेशन सुनने के लिए अपने मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं. आजकल हर किसी के मोबाइल फोन में एफएम होता है. अभी बस बच्चों का आयुवर्ग ही है जिसे हम कवर नहीं करते. लेकिन बच्चों के साथ संवाद करना भी एक बड़ा अवसर होगा.  आंकड़ों की बात करें तो रेडियो मेवात स्टेशन में बैठा आरजे पांच लाख लोगों तक अपनी पहुंच रखता है.’

एक आंदोलन के तौर पर कम्युनिटी रेडियो स्टेशन की सफलता इस बात से भी ज़ाहिर होती है कि अलग-अलग संस्थाएं  कम्युनिटी रेडियो के साथ काम करने की कोशिशों में जुटी हैं. जैसे ग्राम वाणी जो रेडियो ऑटोमेशन जैसी तकनीकी सहायता  देती है जिससे संचालक रहित किसी भी स्टेशन से कार्यक्रम प्रसारित करने में आसानी होती है. साथ ही इससे फोन पर भी समाचार प्राप्त किए जा सकते हैं जिससे नागरिक भी पत्रकार बन सकते हैं. एक दुनिया एक आवाज़ एक वेब आधारित सेवा है जिससे रेडियो स्टेशन के कार्यक्रम इंटरनेट पर अपलोड किए जा सकते हैं. 

हालांकि सब कुछ अच्छा ही अच्छा भी नहीं है. उत्तराखंड के टिहरी जिले में स्थित हेंवलवाणी रेडियो स्टेशन के राजेन्द्र नेगी अपनी मुश्किलें गिनाते हुए कहते हैं, ‘सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से इजाज़त मिलने के बाद टेलीकॉम मंत्रालय से वायरलेस ऑपरेटर लाइसेंस लेना पड़ता है. बताया जाता है कि इस काम में अमूमन 30 दिन लगेंगे. लेकिन हकीकत में यह काम कराने में छह से आठ महीने लग जाते हैं.’ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की संयुक्त सचिव सुप्रिया साहू भी मानती हैं कि खामी है. वे कहती हैं, ‘इस प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए हर महीने मंत्रालयों के बीच मीटिंग होती है.’नक्शे में कम्युनिटी रेडियो स्टेशन का कवरेज क्षेत्र दिखाते हुए साहू कहती हैं, ‘पूर्वोत्तर अभी अनछुआ है. हम इस क्षेत्र में भी कुछ प्रगति देखना चाहते हैं. इसके लिए वहां अलग-अलग जगहों पर वर्कशॉप आयोजित होंगी.’कुल मिलाकर इस नई बयार का भविष्य उम्मीदों भरा दिखता है.

 

 

 

 

‘शंघाई से हम पैसे भी कमा रहे हैं और बहुत सारी इज्जत भी’

image_of_bollywood_movie_shanghai_847256517दिबाकर बनर्जी लीक से हटकर फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं. उनकी फिल्में न सिर्फ समीक्षकों की सराहना पाती हैं, बल्कि बॉलीवुड की मुख्यधारा से बिल्कुल अलग तेवरों के बावजूद बॉक्स ऑफिस पर भी मुनाफा कमाती हैं. अलग-अलग किस्म की 3 फिल्मों के बाद 8 जून को रिलीज हुई राजनीतिक थ्रिलर फ़िल्म ‘शंघाई’ उनकी चौथी फिल्म है. उनकी पिछली फ़िल्मों की ही तरह अधिकतर समीक्षकों ने तो इसे सर आँखों पर बिठाया ही है, लेकिन ऐसी फिल्मों से बाकी सार्थक और गंभीर फिल्मों के लिए भविष्य में कितने रास्ते खुलते हैं, यह प्रशंसा से ज़्यादा, उनके कमाए लाभ से ही तय होता है. एक ‘पान सिंह तोमर’, ‘कहानी’ या ‘विकी डोनर’ हिट होती है तो दस और ऐसी ही फिल्मों का बनना आसान हो जाता है. हमारे आसपास की गंभीर सामाजिक-राजनैतिक समस्याओं पर चोट करती ‘शंघाई’ जैसी फिल्म भी हिन्दी सिनेमा के लिए एक नया प्रयोग है. इसीलिए हम यह जानने के लिए उत्सुक थे कि यह प्रयोग फायदे की लाइन के इधर है या उधर? यह ऐसे विषयों पर फिल्म बनाने वाले बाकी फिल्मकारों का हौसला बढ़ाएगी या हतोत्साहित करेगी? हमने फिल्म की सह-निर्माता पीवीआर पिक्चर्स के वितरण प्रमुख दीपक शर्मा से यही सब पूछा.

शंघाई के फायदे-नुकसान का गणित हमें समझाइए. बॉक्स ऑफिस पर कैसी प्रतिक्रिया है?  

पहला वीकेंड 12 करोड़ रुपए का है, जिसमें करीब 40-45 सिंगल स्क्रीन सिनेमाज की इतवार की कलेक्शंस नहीं हैं. आठ-दस लाख रुपए उनका होगा. ओवरसीज की कलेक्शंस इसमें नहीं हैं. गल्फ में 28 प्रिंट रिलीज हुए थे. उसमें नेट कलेक्शंस करीब 70 लाख के हुए हैं. 40 लाख के करीब यूएस का होगा. ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, सिंगापुर, मलेशिया, फिजी का इसमें शामिल नहीं है. पाकिस्तान में जो मैंने बेचा, उसके 35 लाख, एयरलाइंस राइट्स के 14 लाख, वो सब नहीं हैं. इन सबका मिलाकर सोमवार तक 1.75 करोड़ आ चुके हैं. भारत में भी काफी सारी टेरिटरीज हम पहले ही बेच चुके थे. सैटेलाइट राइट्स और बाकी राइट्स से वगैरा से फिल्म के रिलीज होने से पहले ही हम 12 करोड़ कमा चुके थे. अभी होम वीडियो राइट्स, इंटरनेट राइट्स और दूरदर्शन तय होने बाकी हैं. उनके 1 करोड़ भी मानें तो हम बॉक्स ऑफिस के बिना ही 13 करोड़ रुपए कमा चुके थे. बॉक्स ऑफिस से 12 करोड़ की कलेक्शंस हैं पहले 3 दिन में, उसका आधा मैं अपना हिस्सा लूं, तो हमारे पास 6 करोड़ रुपए बॉक्स ऑफिस से आ चुका. ओवरसीज का बिजनेस अलग है. यानी पहले 3 दिन के बाद हम 20 करोड़ से ऊपर कमा चुके हैं. शंघाई का कुल बजट 19 करोड़ था. 10.5 करोड़ में फिल्म बनी थी और 8-8.5 करोड़ हमने पब्लिसिटी में लगाए. सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इतना अच्छा लिखा जा रहा है, लोग बात कर रहे हैं. माउथ पब्लिसिटी से हर दिन दर्शक बढ़ रहे हैं. हमारी लागत वसूल हो गई है, और सोमवार से हम फायदा ही कमाएंगे.  

लेकिन कुछ ट्रेड विश्लेषकों द्वारा तो यह कहा जा रहा है कि शंघाई चली नहीं. हम किसकी मानें?

अरे, हम तो बहुत अच्छे जा रहे हैं. और जिस आदमी का नुकसान हो रहा होता है, वो तो चीख-चीख कर कहता है कि मैं मर गया. यहां तो मैंने अपने आंकड़े बताए ही आपको. इनसे कोई भी आदमी खुद तय कर सकता है कि असलियत क्या है.   

किसी ने कहा कि शंघाईराउडी राठौड़ को धकेल नहीं पाई..

हमें धकेलना ही नहीं था. शंघाई का अलग रास्ता है. उसे देखने वाला वर्ग अलग है. यह एंटरटेनिंग फिल्म है, लेकिन एंटरटेनमेंट फिल्म नहीं है. और देखिए, अगर कोई 100 करोड़ की फिल्म बनाता है तो उसे 100 करोड़ की जादुई संख्या तक पहुंचना ही होगा. उसके बाद लाभ शुरू होगा. लेकिन आपको 70 करोड़ के कलेक्शंस सामने दिखाई देने लगते हैं तो आपको वह बहुत बड़ी संख्या लगती है. जबकि वह फिल्म अभी तक तो अपनी लागत ही रिकवर नहीं कर पाई है. आज आप अगर राउडी राठौड़ की बात करें, तो इतने बड़े स्टार के साथ आप फिल्म बनाएंगे कि 30 करोड़ का हीरो है, 30 करोड़ की मेकिंग है, 10 करोड़ रुपए का बाकी क्रू है. उसके बाद 15-20 करोड़ की पब्लिसिटी होगी. बड़ी रिलीज करेंगे. 2800 स्क्रीन्स की वह रिलीज थी. हम 800 स्क्रीन की रिलीज थे. 3 गुना ऊपर तो आपने पिक्चर रिलीज की है तो यह तो स्पष्ट ही होना चाहिए कि करीब 3 गुना कलेक्शंस तो होने ही चाहिए. नहीं तो आप उस जादुई संख्या पर पहुंचेंगे नहीं. आज अगर मेरी फिल्म अक्षय कुमार की फीस जितना कुल बिजनेस कर ले, तो मैं 10 करोड़ के प्रोफिट में होऊंगा. इसलिए अक्षय कुमार की फिल्म से शंघाई की किसी तरह तुलना ही नहीं की जा सकती. यह फिल्मकार के साथ भी गलत है. आप तुलना करना चाहते हैं तो आप लागत और प्रतिशत लाभ का अनुपात देखिए. कि भई, 20 करोड़ की फिल्म है, अगर वह 30 करोड़ कमाती है, तो यह 100 करोड़ की फिल्म के 150 करोड़ कमाने के बराबर है. हम अक्षय कुमार की भी फिल्म करेंगे, लेकिन दोनों फिल्मों के लिए हमारा मकसद अलग होगा. शंघाई जैसी फिल्में दोहरी कमाई देती हैं. हम पैसे भी कमा रहे हैं और प्रतिष्ठा भी. आज हम सोचेंगे कि हमें नैशनल अवॉर्ड भी मिल सकता है. हम हर तरह की फिल्में करेंगे. हम शुद्ध कमर्शियल फिल्में भी करते हैं. मैक्सिमम भी रिलीज करने वाले हैं. अंग्रेजी फिल्मों के हम भारत के सबसे बड़े इम्पॉर्टर हैं. लेकिन सबके साथ लक्ष्य अलग होता है.

यानी शंघाई आपकी उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन कर रही है. तो क्या यह मानें कि भविष्य में भी पीवीआर ऐसी फिल्मों में पैसा लगाएगा?   

हां, बिल्कुल लगाएंगे. और उम्मीद जितना क्या, शंघाई तो हमारी उम्मीद से कहीं ज्यादा कर रही है. हमें शंघाई के लिए बहुत गर्व हो रहा है. और क्या चाहिए किसी को? यह दोतरफा मुनाफा है. हम पैसे भी कमा रहे हैं और साथ में बहुत सारी इज्जत भी. 10 करोड़ रुपए बॉक्स ऑफिस पर कमाएंगे तो 10 करोड़ की गुडविल साथ में कमाएंगे.

  तहलका ब्यूरो