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मगध में मुरदहिया सन्नाटा

बिहार के मगध क्षेत्र में इंसेफलाइटिस पिछले तीन महीने से अमूमन हर रोज एक बच्चे की जान ले रहा है. जो बच्चे बच जा रहे हैं उन्हें बाकी जिंदगी अपंगताओं के साथ गुजारनी होगी. लेकिन इलाके के जनप्रतिनिधि, शासन-प्रशासन और कथित समाजसेवी संस्थाएं आंखें मूंदे बैठे हैं. निराला की रिपोर्ट,फोटो:विकास कुमार

पिंकी की उम्र आठ-नौ साल होगी. गया-पटना रोड पर स्थित रसलपुर गांव की रहने वाली है. उसके सामने जाते ही उसकी हालत देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. अचानक पहुंचे दो-तीन अजनबियों को देख वह अपने छोटे भाई की गोद में उससे चिपक जाती है. रोने लगती है. उसकी मां बताती है कि कुछ माह पहले तक पिंकी भी अपनी सहेलियों के साथ स्कूल जाती थी. खेलती थी. घर के काम में भी थोड़ा-बहुत हाथ बंटाती थी. अपने छोटे भाई पर रोब भी जमा लेती थी. कुछ माह पहले तक अपनी बड़ी बहन का प्यार-दुलार पाने वाला यही छोटा भाई अब अपनी बड़ी बहन को गोद में चिपकाए रहता है. पिता या बुजुर्ग अभिभावक की तरह  ममता, स्नेह, प्यार बरसाता है. पिंकी बोलने में अक्षम हो गई है. उसके पैरों में इतनी भी जान नहीं कि क्षण भर भी खड़ी रह सके. इसी मजबूरी में वह अपनी माई के व्यस्त रहने पर छोटे भाई की गोद पर उम्मीद भरी निगाहें टकटका देती है.

तीन माह पूर्व बिहार के मगध क्षेत्र में शुरू हुए जापानी इंसेफलाइटिस की पहली शिकार पिंकी ही हुई थी. गया के अनुग्रह नारायण मेडिकल कॉलेज ऐंड हॉस्पिटल में इलाज के बाद किसी तरह उसकी जान तो बच गई लेकिन बची जिंदगी वह अपाहिजों की तरह गुजारने को अभिशप्त है. पिंकी ठीक हो जाएगी, इसका जिम्मा अब गांव के एक झोलाछाप डॉक्टर पर है.

यह इलाका पिछले तीन माह से मुरदहिया घाटी में बदला हुआ है. इस दौरान अलग-अलग जिले से करीब 392 बच्चे गया के मेडिकल कॉलेज पहुंचे. इनमें 85 अकाल ही काल के गाल में समा गए. जो बचकर वापस लौटे हैं उनमें से अधिकांश की हालत पिंकी के जैसी या उससे भी बुरी है.
पिंकी के घर से निकलकर हम सोनी के घर पहुंचते हैं. 12 साल की सोनी भी इंसेफलाइटिस से जंग जीतकर अपने घर आ गई है, लेकिन उसके मस्तिष्क ने करीब-करीब उसका साथ छोड़ दिया है. वह चलने-फिरने में तो सक्षम है, लेकिन अस्पताल से आने के बाद से एक सेकंड के लिए भी सो नहीं सकी है. उसे घर आए कई दिन हो चुके हैं. अब वह रात के अंधेरे में जोर-जोर से रोती रहती है या दिन के उजाले में मानसिक विक्षिप्तों की तरह लोगों की नजरों से बचने की कोशिश करती है. गया मेडिकल कॉलेज में भर्ती संजीत भी इंसेफलाइटिस से बच गया है पर आठ साल के इस बच्चे का एक पांव पोलियोग्रस्त पैर जैसा पतला हो गया है.

पिंकी, सोनी और संजीत की तरह कई बच्चे इंसेफलाइटिस से पार पा लेने के बाद अब बाकी की जिंदगी ऐसी ही शारीरिक व मानसिक अपंगता के साथ गुजारेंगे. अस्पताल से जो बच्चों के शवों के साथ घर लौटे उनकी पीड़ा तो अथाह रही ही होगी, लेकिन जो जिंदगी बचाने के बाद अपने बच्चे को घर ले आए हैं उनमें से कुछ तो भविष्य की मुश्किलों और चुनौतियों से घबराकर अपने बच्चे के मर जाने तक की कामना करने लगे हैं.

गया में दूसरे मौकों पर सैकड़ों समाजसेवी संस्थाएं दिख जाएंगी, लेकिन इस मानवीय त्रासदी में वे गायब हैं

तीन महीने बाद गया मेडिकल कॉलेज में इंसेफलाइटिस के मरीजों के आने का सिलसिला तो थम रहा है, लेकिन मौत की परछाईं दूसरे रूप में रंग दिखा रही है. अब सेरेब्रल मलेरिया (दिमागी बुखार) बच्चों की जान ले रहा है. इस बीमारी से अब बच्चे पतंगे की तरह फड़फड़ा कर मर रहे हैं. इससे अब तक करीब दो दर्जन बच्चों की मौत की सूचना है.अब बिहार में इंसेफलाइटिस से मौत हो जाना कोई नई बात नहीं. कुछ माह पहले मुजफ्फरपुर का इलाका इसकी चपेट में था. वहां भी मौत का ग्राफ कुछ इसी तरह तेजी से बढ़ा था. वहां भी मरने वाले अधिकांश बच्चे दलित, महादलित, अति पिछड़े वर्ग से थे. मगध क्षेत्र में भी कमोबेश उसी श्रेणी वाले ज्यादा हैं.

इस इलाके में बच्चों की हुई मौत को कानूनी और तकनीकी शब्दावलियों के जरिए ‘मौत’ ही माना जाएगा, लेकिन मानवीय आधार पर या फिर मानवाधिकार की भाषा में इसे ‘हत्या’ भी कहा जा सकता है. मगध मेडिकल कॉलेज के शिशु रोग विभाग के अध्यक्ष डॉ एके रवि तहलका से बातचीत में खुद कहते हैं कि अस्पताल के कुल पांच आईसीयू में से जो एक किसी तरह चालू है, यदि उसका वेंटिलेटर ही ठीक होता तो कम से कम 12-14 बच्चों की जान बच सकती थी. लेकिन तकनीकी और कागजी पेंचों के चलते वेंटिलेटर ठीक नहीं कराया जा सका. कई बार आग्रही आवेदन के बावजूद वेंटिलेटर में एक मामूली-सी ट्यूब नहीं डाली जा सकी. चौंकाने वाली बात यह है कि स्वास्थ्य मंत्री के निर्देश के बावजूद अस्पताल के प्रबंधन का रवैया इस मामले में बड़ा ढुलमुल रहा. अस्पताल के अधीक्षक कहते हैं कि वेंटिलेटर चलाने के लिए प्रशिक्षित लोगों की कमी है और वे इसके लिए ट्रेनिंग दे रहे हैं. काश, यह काम अगर समय पर होता तो कुछ बच्चों की जिंदगी बच गई होती.

बिहार में खरीफ की फसल कटने का समय एक बड़ी आबादी के लिए साल भर की रोजी-रोटी जुटाने का जरिया होता है. इस महीने में कमाई का यह जरिया छोड़ गरीब मजदूर अपने बच्चों को बचाने के लिए अस्पताल पहुंचते रहे,  डेरा डालते रहे, लाशों के संग या जिंदा बची लाशनुमा जिंदगियों को लेकर लौटते रहे.डॉ एके रवि गंभीर छवि रखने वाले चिकित्सक हैं. मेडिकल कॉलेज के शिशु रोग विभाग के अध्यक्ष हैं.  जब वे खुद कह रहे हैं कि वेंटिलेटर ठीक नहीं कराने की वजह से दर्जन भर से ज्यादा बच्चे मरे तो इसे सामान्य मौत क्यों माना जाए? क्यों नहीं इसे एक किस्म की हत्या माना जाए!

इस इलाके में बच्चों की मौतों का आंकड़ा जिस समय अपना शिखर छू रहा था उस दौरान राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सेवा यात्रा पर निकलने की तैयारी और उसके बाद यात्रा पर थे. नीतीश की यात्रा का उद्देश्य बड़ा है, पहले से तय है, इसलिए इस ‘छोटे’ उद्देश्य के लिए खुद गया पहुंचना उन्हें उचित नहीं लगा होगा. हां, स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चौबे जरूर दो बार गया पहुंचे. उनके गया पहुंचने का क्या फायदा हुआ, यह अभी कोई नहीं बता सकता. हालांकि उनका कहना था कि सरकार इस मामले को गंभीरता से ले रही है  इसीलिए वे गया आए हैं. चौबे का कहना था, ‘शीघ्र ही सरकार व्यापक तौर पर पांच करोड़ बच्चों को टीकाकरण का फायदा पहुंचाएगी और इस बार बीमारी से जो बच्चे विकलांग हो गए हैं उनके पुनर्वास का भी इंतजाम होगा. पूरे प्रदेश में इंसेफलाइटिस का टीका पांच करोड़ बच्चों को लगेगा.’

यह भविष्य की योजना है. फिलहाल गया क्षेत्र में टीकाकरण का आंकड़ा यह है कि 13 लाख बच्चों में से यहां सिर्फ 1,18,809 बच्चों को ही टीका दिया जा सका है. जब मंत्री कह रहे हैं और सरकार गंभीर है तो संभव है कि विकलांग हुए बच्चों का पुनर्वास भी हो जाए लेकिन आने वाले दिनों में यह संकट और बढ़ेगा. डॉ रवि कहते हैं, ‘जिन्हें एक बार इंसेफलाइटिस हो गया, उन बच्चों को जीवन भर कई किस्म की विकलांगता के साथ ही जिंदगी गुजारनी होगी. और जो इस वायरस की चपेट में एक बार आ गए वे अगर इंसेफलाइटिस से बचेंगे भी तो 25-30 अलग किस्म की बीमारियों से उन्हें जूझना होगा. इन बीमारियों में सेरेब्रल मलेरिया, टीबी, पोलियो, चेचक आदि हैं.’

घटना की व्यापकता को देख कर प्रधानमंत्री कार्यालय की टीम भी गया पहुंची. गया में डॉक्टरों की केंद्रीय टीम भी पहुंची, लेकिन वे नहीं पहुंचे जिन्हें सबसे पहले पहुंचना चाहिए था. अपने इलाके की मौत की खोज-खबर लेने में मगध क्षेत्र के जनप्रतिनिधि नीतीश से भी ज्यादा व्यस्त निकले. गया जिले के अंतर्गत आने वाली दस विधानसभा सीटों में से फिलहाल नौ पर एनडीए का कब्जा है. इन नौ में दो मंत्री हैं- प्रेम कुमार और जीतन राम मांझी. प्रेम कुमार गया के विधायक हैं और शहरी विकास मंत्री है. जीतनराम मांझी अनुसूचित जाति के मामलों को देखते हैं. बिहार विधानसभा अध्यक्ष उदयनारायण चौधरी भी इसी जिले से जीतकर विधानसभा पहुंचते हैं. प्रेम कुमार अक्सर कई-कई किस्मों के काम लेकर गया आते रहते हैं, लेकिन इंसेफलाइटिस के कहर के दौरान वे पटना से गया के बीच की लगभग 100 किलोमीटर की दूरी तय नहीं कर सके. जीतन राम मांझी पूरे प्रदेश की अनुसूचित जातियों का मामला देखते रहे हैं, लेकिन अपने इलाके में काल का शिकार बन रहे अनुसूचित जाति के बच्चों की खबर लेने की फुर्सत उन्हें नहीं रही. उदयनारायण चौधरी विधानसभा अध्यक्ष हैं, सदन के सत्र की अवधि के बाद इतनी फुर्सत तो रहती ही होगी कि एक दिन का समय निकाल पहुंच सकें, लेकिन वे भी नहीं आए.

जिम्मेदार लोगों की बेरुखी का असर यह रहा कि केंद्रीय टीम, पीएमओ से आई टीम और राज्य के स्वास्थ्य मंत्री तो गया मेडिकल कॉलेज पहुंचते रहे लेकिन यहां की जिलाधिकारी वंदना प्रेयसी ने कॉलेज में जाकर एक बार भी व्यवस्था देखने की जहमत नहीं उठाई. डीएम नहीं गईं तो कमिश्नर के वहां जाने की उम्मीद क्यों हो. गया में रहने वाले समाजसेवी-संस्कृतिकर्मी संजय सहाय कहते हैं, ’10 में से नौ सीटों पर जिस दिन सत्तारूढ़ गठबंधन का कब्जा हुआ था उसी दिन यह साफ हो गया था कि अगले चुनाव तक जनता के सवाल हाशिये पर रहेंगे, क्योंकि कोई विरोध का स्वर ही नहीं रहाे. अब वही हो रहा है.’यह तो शासन-प्रशासन ने रिकाॅर्ड कायम किया. इससे ज्यादा शर्मनाक पहलू दूसरा है. गया विष्णु और बुद्ध की नगरी है. गयावालों को पालनहार विष्णु की नगरी होने पर अभिमान है. मृत्यु से ही जीवन की सीख लेकर ज्ञान प्राप्ति करने पहुंचे बुद्ध से जुड़ाव का भी. विष्णु के नाम पर पितृपक्ष मेले के समय और कालचक्र पूजा के समय बोधगया में 200 से अधिक संस्थाएं खड़ी दिखती हैं. खिलाने-पिलाने से लेकर धर्मशाला वगैरह उपलब्ध कराने के नाम पर. अन्य प्रकार के उपक्रमों के साथ भी. लेकिन धर्म की इस जुड़वां नगरी के अधिकांश समाजसेवियों को पिछले तीन माह से जारी अमूमन हर रोज की एक मौत ने मानवीय धर्म निबाहने को कतई प्रेरित नहीं किया. अंबेडकर के नाम पर गठित एक अचर्चित संस्था ने जरूर कुछ दिनों पहले प्रदर्शन आदि करके मौत का मुआवजा और विकलांग हुए बच्चों के पुनर्वास की मांग की थी.

पानी पर काम करने वाले गया के प्रभात शांडिल्य कहते हैं, ‘यहां समाजसेवा या तो दिखावे की होती है या दोहन की. धर्म और धन के बीच मानवीय सरोकार नहीं रहता.’ शांडिल्य कहते हैं कि कम लोग जानते हैं कि गया के ही जागेश्वर प्रसाद खलिश ने इस शेर को रचा था-

बरबाद गुलिस्तां करने को, बस एक ही उल्लू काफी है. हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा…

खलिश ने शायद बहुत पहले ही गयानगरी में कई शाखों पर बैठे रहने वाले उल्लुओं को देख िलया होगा.गया में दो माह पहले लगे पितृपक्ष मेले की खुमारी उतर गई है. अब बोधगया में कालचक्र पूजा की तैयारी जोरों पर है. उम्मीद है कि इस बार यहां लगभग ढाई लाख देशी-विदेशी मेहमान पूजा देखने पहुंचेंगे. करीबन 200 से अधिक संस्थाएं कालचक्र पूजा के जरिए कमाई का चक्र पूरा करने में तन्मयता से लगी हुई हैं. भुखमरी, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के नाम पर फंड की फंडेबाजी का खेल परवान चढ़ रहा है.

कालचक्र के आयोजन के बहाने अपने-अपने सेवा कार्य को दिखाने में लगे कथित समाजसेवियों को काल के गाल में समा रहे अपने पड़ोस के बच्चों के लिए समय नहीं मिला. सरकार को कोसने से पहले इस पहलू पर भी गौर करना होगा.

बंटवारा या बंटाधार?

देश के कई हिस्सों की तरह उत्तर प्रदेश में भी इन दिनों राज्य के बंटवारे की फिजा गरमाई हुई है. लेकिन यहां की परिस्थितियां अन्य प्रदेशों से भिन्न हैं. यहां कोई बड़ा भावनात्मक जनउभार नहीं है. बाकी क्षेत्रों में जहां जनता सड़कों पर है वहीं उत्तर प्रदेश में सिर्फ नेता और राजनीतिक पार्टियां ही बंटवारे की लड़ाई लड़ रहे हैं. वीरेंद्रनाथ भट्ट का आकलन

पूरे प्रदेश में नए राज्य के लिए न कहीं धरना हो रहा है न प्रदर्शन न ही अनशन. फिर भी उत्तर प्रदेश को बांटने का प्रस्ताव यहां की विधानसभा ने पारित कर दिया है. इतने महत्वपूर्ण फैसले पर विधानसभा में कोई बहस तक नहीं हुई और मात्र तीन मिनट में ही बंटवारे का प्रस्ताव पारित कर दिया गया. यह उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति की बानगी है जिसने हवा में प्रदेश को बांटने का मुद्दा खड़ा किया है. विपक्ष का आरोप है कि मायावती ने अपने पांच वर्ष के कुशासन, भ्रष्टाचार और ध्वस्त कानून-व्यवस्था से जनता का ध्यान बांटनेे की नीयत से राज्य के बंटवारे का खेल खेला है.
विपक्ष मायावती पर सीधा हमला करने की बजाए बंटवारे के तौर-तरीकों पर सवाल उठा रहा है. कांग्रेस और भाजपा इस प्रस्ताव का सीधा विरोध करने से बचते हुए राज्य पुनर्गठन आयोग बनाने की मांग कर रहे हैं.

राजनीति के कई जानकारों का पहली नजर में एक ही मत सामने आता है कि राज्य बंटवारे का प्रस्ताव जिस अफरा-तफरी में पारित किया गया है उसके पीछे मुख्यमंत्री मायावती की मंशा वह नहीं है जो ऊपर से दिखती हैै. प्रदेश के एक पूर्व मुख्य सचिव का कहना है कि राज्य का बंटवारा भ्रष्टाचार और कुशासन का विकल्प नहीं हो सकता. यदि बसपा को प्रदेश के विकास व जनता की भलाई की ही चिंता है तो उसे राजनीतिक, प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए ताकि व्यवस्था पारदर्शी व जनता के प्रति उत्तरदायी बने. इस लिहाज से बंटवारे का यह शिगूफा सरकार की अपनी राजनीतिक और प्रशासनिक अक्षमता पर परदा डालने की कोशिश में उठाया गया कदम है.

अक्टूबर, 2007 में कांशीराम की पहली पुण्यतिथि के मौके पर लखनऊ में एक विशाल रैली को संबोधित करते हुए मायावती ने पहली बार उत्तर प्रदेश के बंटवारे का जिक्र किया था. लेकिन तब उन्होंने एक शर्त रखी थी कि उनकी सरकार उत्तर प्रदेश विधानसभा में राज्य के बंटवारे का प्रस्ताव पारित कर सकती है बशर्ते केंद्र सरकार इस संबंध में अपनी सहमति दे दे. लेकिन 21 नवंबर को विधानसभा से प्रस्ताव पास कराने के दौरान मायावती ने यह नहीं बताया कि क्या केंद्र सरकार ने उनके प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे दी है या वह संसद में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन संबंधी आयोग बनाने पर सहमत है.विधानसभा में प्रस्ताव पेश करने के दौरान मायावती ने कहा, ‘उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन में राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं है. इसके लिए केंद्र सरकार और राज्य की विपक्षी पार्टियों को एकमत होना पड़ेगा.’ इस तरह से मायावती ने एक साथ कांग्रेस और सपा दोनों के पाले में गेंद डालकर चुनावी लाभ लेने की कोशिश की और विरोध करने की हालत में सपा और कांग्रेस की फजीहत होने की जमीन भी तैयार कर दी है.

यह सभी को पता है कि नया राज्य बनाने के लिए विधानसभा में प्रस्ताव पास कराना राज्य सरकार की संवैधानिक बाध्यता नहीं है. राज्य के गठन का अधिकार संविधान में सिर्फ केंद्र सरकार को दिया गया है. ऐसे में मायावती के प्रस्ताव की चुनावी लाभ के इतर और क्या मंशा हो सकती है? और यदि उनकी नीयत साफ है तो जिस केंद्र सरकार को वे हर आंधी-पानी से बचाती आई हैं उस पर पांच साल में राज्य के पुनर्गठन का दबाव उन्होंने क्यों नहीं डाला? खैर प्रस्ताव पारित करवाने के साथ ही मायावती ने साफ कर दिया कि भाजपा, सपा व कांग्रेस उत्तर प्रदेश के विभाजन के खिलाफ हैं, ये सभी पार्टियां उत्तर प्रदेश और यहां की जनता का विकास होते हुए नहीं देखना चाहतीं.

राज्य के गठन का अधिकार संविधान में सिर्फ केंद्र सरकार को है. ऐसे में मायावती के प्रस्ताव की चुनावी लाभ के इतर क्या मंशा हो सकती है?

इधर बंटवारे का प्रस्ताव आने से उनकी अपनी पार्टी में थोड़ा सुकून का माहौल दिखा है. पिछले लगभग हर हफ्ते लोकायुक्त द्वारा बसपा मंत्री और विधायकों को भ्रष्टाचार संबंधी नोटिस दिए जाने से परेशान बसपा नेता बंटवारे के शिगूफे के बाद कुछ आश्वस्त नजर आ रहे हैं. बसपाइयों का मानना है कि बहन जी ने बंटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में पास करा कर बसपा के विरोधियों को चारों खाने चित्त कर दिया है.

हालांकि बसपा बंटवारे को राजनीतिक लाभ का मुद्दा न मानकर विचारधारा का सवाल मानती है. उसके मुताबिक बाबा साहब अंबेडकर ने 1955 में उत्तर प्रदेश को तीन राज्यों में बांटने का सुझाव दिया था लेकिन कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों के कारण इसे नकार दिया था. वैचारिकता के तर्क को खारिज करते हुए राजनीतिक टीकाकार डॉ प्रमोद कुमार कहते हैं, ‘डाॅ अंबेडकर ने यह कब कहा था कि नए राज्यों के गठन का एलान ऐन चुनाव से पहले करो. यदि बसपा डॉ अंबेडकर की नीतियों और विचारों में इतनी ही गहरी आस्था रखती है तो उसे मूर्तियों, पार्कों व स्मारकों पर पांच साल लुटाने से पहले उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन का काम ही करना चाहिए था.’ उनका यह भी कहना है कि उत्तर प्रदेश में मायावती के पिछले पांच साल के कारनामों को देखते हुए कौन इस बात पर विश्वास करेगा कि राज्य के बंटवारे से जनता का हित होगा.

मगर राजनीतिक लाभ की बातों को खारिज करते हुए जेएनयू के अध्यापक डॉ विवेक कुमार पूछते हैं, ‘1955 में राज्यों के पुनर्गठन का आधार क्या था? औपनिवेशिक मानसिकता वाले तत्कालीन सत्ताधीशों ने मनमाने तरीके से राज्य बना दिए. पुनर्गठन के नाम पर नवाब, अवध के ताल्लुकेदार, पश्चिम के रूहेले, बुंदेलखंड के बुंदेले, जमींदारों और रैयतवारों सभी को एक राज्य में ठूंस दिया गया.’ डॉ कुमार उत्तर प्रदेश के वर्तमान स्वरूप को कांग्रेस के हितों का पोषक मानते हैं. उनके मुताबिक तीन पहाड़ी ब्राह्मणों – गोविंद बल्लभ पंत, नारायण दत्त तिवारी और हेमवती नंदन बहुगुणा – को कांग्रेस ने इतनी विविधताओं वाले राज्य के ऊपर थोप दिया जिसका खामियाजा प्रदेश आज भुगत रहा है.

राज्य के बंटवारे के समर्थकों के अपने तर्क हैं. गिरी विकास अध्ययन संस्थान के निदेशक डॉ एके सिंह कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश को एक दिन तो बंटना ही है, चाहे आज हो या पांच साल बाद. उत्तर प्रदेश बेडौल है, इसका बंटवारा होना चाहिए, यह अहसास पं जवाहर लाल नेहरू को भी था लेकिन कांग्रेस ने अपने तात्कालिक हितों के चलते इसे नहीं होने दिया. 1955 में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग के सदस्य पणिक्कर ने तो विरोध में मत भी दिया था. वे उत्तर प्रदेश के तीन हिस्सों के बंटवारे के पक्ष में थे.’

मगर नए राज्यों के गठन का आर्थिक पहलू भी है. नई सरकारों पर जबरदस्त वित्तीय बोझ आएगा जिसका खामियाजा अंततः जनता को भुगतना पड़ेगा. डाॅ सिंह का कहना है कि यह बड़ा मुद्दा नहीं है. यदि वर्तमान इलाहाबाद हाई कोर्ट में 140 जज हैं तो बंटवारे के बाद प्रत्येक राज्य में 35 जज आएंगे. थोड़ा-बहुत खर्च बढ़ता है तो यह बेजा नहीं होगा.

लेकिन सिंह के तर्क पूर्व में कई बार धराशायी हो चुके हैं. उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड के बंटवारे के दौरान भी प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों के आनुपातिक बंटवारे का प्रावधान था लेकिन उत्तराखंड सरकार ने उत्तर प्रदेश के कर्मियों को अपने यहां समायोजित करने से इनकार करके नए कर्मचारी नियुक्त किए. प्रशासनिक सेवा में भी नए लोगों की भर्ती हुई. ऐसा इसलिए हुआ कि राज्य सरकार की अपनी राजनीतिक मजबूरी है. नियुक्तियों और तबादलों का अर्थशास्त्र भी इसका बड़ा कारक रहा था. नतीजा आज भी उत्तर प्रदेश के कई विभागों में जरूरत से ज्यादा अधिकारी हैं और उत्तराखंड में धड़ाधड़ नई नियुक्तियां हो रही हैं. यही समस्या बिहार और झारखंड के संदर्भ में भी खड़ी हुई थी.

वर्तमान उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में कुल आबादी का 37 प्रतिशत निवास करता है. पूर्वांचल का हिस्सा 40 प्रतिशत है व मध्य में 18 प्रतिशत आबादी है जबकि बुंदेलखंड में मात्र 5 प्रतिशत लोग आते हैं. मजे की बात है कि बंटवारे के बाद बुंदेलखंड के अलावा बाकी तीनों क्षेत्रों के आर्थिक रूप से सक्षम, समृद्ध व आत्मनिर्भर होने की संभावना है. मगर जमीनी हालत यह हैं कि इन तीनों ही क्षेत्रों में बंटवारे को लेकर कोई जनांदोलन नहीं है. ले-देकर बुंदेलखंड में आंदोलन की सुगबुगाहट रहती है लेकिन उसमें भी अगर मध्य प्रदेश के हिस्से वाला बुंदेलखंड शामिल नहीं हुआ तो अलग बुंदेलखंंड बनने-न बनने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा.

खनिज संपदा से संपन्न झारखंड या फिर गोवा जैसे छोटे राज्यों की राजनीतिक अस्थिरता और विराट भ्रष्टाचार के उदाहरण हमारे सामने हैं. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा तो काफी अरसे से जेल में भी हैं और राज्य अभी भी अस्थिरता के कुचक्र से बाहर निकलने का साहस नहीं जुटा पा रहा है.
जानकारों का यह भी मानना है कि बंटवारे से उत्तर प्रदेश की देश की राजनीति में हैसियत कम हो जाने के सवाल को यदि दरकिनार कर भी दें तो भी यह सवाल तो बना ही रहेगा कि अगर कोई हिस्सा पिछड़ा और अविकसित है तो उसके लिए जिम्मेदार हमारा अक्षम राजनीतिक नेतृत्व और नकारा प्रशासनिक मशीनरी ही तो है. राज्य का चार हिस्सों में बंटवारा इसका हल कैसे हो सकता है.

राज्य के पिछड़े इलाकों के विकास की भरपाई केवल बंटवारे का चलन शुरू करके नहीं की जा सकती. इसे शुरू करना आसान है लेकिन रोकना मुश्किल. इस तरह की क्षणिक अवसरवादिता का अंत कहां होता है? कम से कम मायावती जी को तो नहीं पता है.

मनरेगा की महाभारत

मनरेगा को लेकर इन दिनों केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार के बीच तकरार हो रही है. हाल ही में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने प्रदेश में इस योजना में हो रही गड़बड़ियों की शिकायत करते हुए मुख्यमंत्री मायावती को चिट्ठी लिखी तो मायावती ने आरोप लगाया कि चुनावों से ठीक पहले उन्हें सिर्फ उत्तर प्रदेश का मनरेगा दिखाई दे रहा है. आरोप-प्रत्यारोप के इस खेल में किसी को इससे कोई मतलब नहीं कि भ्रष्टाचार का पर्याय बनती जा रही मनरेगा की खामियां कैसे दूर की जाएं. जयप्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट

भ्रष्ट अधिकारियों, कर्मचारियों, बाहुबलियों और नेताओं का गठजोड़ मनरेगा को किस कदर खोखला कर रहा है, इसकी बानगी तहलका को उन जिलों में देखने को मिली जो इस महत्वाकांक्षी योजना में चल रही अनियमितताओं की वजह से पिछले कुछ समय से लगातार सुर्खियों में रहे हैं.  

संतकबीर नगर

उत्तर प्रदेश के ग्राम विकास विभाग की ओर से मई, 2011 में कराई गई जांच में संतकबीरनगर में करोड़ों का घोटाला उजागर हुआ था. घोटाले का ताना-बाना बुनने में सत्तापक्ष के विधायक व करीबियों से लेकर अधिकारी व कर्मचारी तक शामिल हैं जिन्होंने सरकारी धन की लूट के लिए नियम-कानूनों को जैसे चाहा तोड़-मरोड़ लिया.

संतकबीर नगर का एक गांव है खजुरी. यह बसपा विधायक ताबिश खां का गांव भी है. यहां की प्रधान खुद विधायक की पत्नी शायदा खातून हैं. गांव में एक नाली के निर्माण के लिए 3,37,374 रुपये का एस्टीमेट तैयार किया गया. नियम के अनुसार दो लाख से चार लाख तक के काम का प्रारूप ब्लाॅक के अवर अभियंता द्वारा बनाए जाने का नियम है. इसके बावजूद तकनीकी सहायक शिवापति त्रिपाठी ने पूरे कार्य का प्रारूप तैयार कर दिया. जांच अधिकारी जब गांव में नाली के निर्माण के सत्यापन के लिए पहुंचे तो प्रधान मौके पर नहीं पहुंचीं बल्कि विधायक के भाई व उनके कुछ लोगों ने अधिकारियों को स्कूल के पास बनी एक नाली को मनरेगा के तहत बना हुआ दिखाया. लेकिन विधायक के भाई की बातों की पोल गांव के ही कुछ लोगों ने खोल दी. गांव के निवासी व पूर्व सूबेदार अब्दुल गनी ने जांच दल के अधिकारियों को बताया कि यह नाली तो 2007-08 में बनी थी जो कई जगहों से टूट गई थी. गनी का कहना था कि उसकी बस मरम्मत कर दी गई और उसे ही नया बना हुआ बता दिया गया. उक्त नाली के निर्माण के लिए कागजों में 10 राजमिस्त्री तथा 35 श्रमिकों को आठ दिन तक काम पर दिखाया गया. काम के लिए 2,83,149 रुपये की सामग्री की खरीद दिखाई गई. इसमें भी नियमों का पालन नहीं हुआ. यानी न तो कोई टेंडर प्रक्रिया हुई न ही कोटेशन मांगे गए.

ऐसा क्यों हुआ इसका जवाब खुद जांच दल के कर्मचारियों ने लिखित बयान व शपथपत्र देकर दिया जो काफी चौंकाने वाला है. कनिष्ठ लेखा लिपिक विजय कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि काम के लिए ईंट की सप्लाई जिस भट्टे से हुई वह विधायक ताबिश खां का है जो उनके पिता शाकिर अली के नाम पर है. विधायक के भट्टे मेसर्स जनता ब्रिक फील्ड से 1,80,100 रुपये की ईंट उक्त निर्माण के लिए खरीदी गई. लिपिक ही नहीं आरईएस (ग्रामीण अभियंत्रण सेवा) के अवर अभियंता गंगा प्रसाद श्रीवास्तव ने भी जांच अधिकारियों को शपथ पर बयान दिया कि नाली निर्माण में उन्होंने न तो एस्टीमेट बनाया और न ही तकनीकी मंजूरी दी. कार्य के भुगतान के लिए जो मांग पत्र है उनकी संस्तुति विधायक के भाई ने दबाव डालकर करवाई.

विधायक के ही गांव में मिट्टी खडं़जा कार्य तथा पुलिया निर्माण के लिए कागजों में छह लाख 62 हजार रुपये का एस्टीमेट दर्शाया गया है. इसमें सामग्री अंश पांच लाख 33 हजार 717 रुपये, श्रमांश 1,23,757 रुपये तथा फोटोग्राफी व साइनबोर्ड के मद में 5000 रुपये का खर्च दिखाया गया है. काम का एस्टीमेट साथा ब्लॉक के आरईएस अवर अभियंता द्वारा निर्मित दिखाया गया है. लेकिन आरईएस अवर अभियंता गंगा प्रसाद श्रीवास्तव ने जांच टीम को बयान दिया कि एस्टीमेट पर उनके हस्ताक्षर ही नहीं हैं. उन्होंने आगे बताया कि एस्टीमेट पर हस्ताक्षर न होते हुए भी उन्होंने कार्य के भुगतान की संस्तुति विधायक के भाई व उनके लोगों के दबाव में आकर की. कागजों में खड़ंजे के काम के लिए विधायक के ही भट्टे से 70,000 ईंटें मंगाई गई जबकि तकनीकी मूल्यांकन आख्या में उक्त कार्य के लिए महज 44,965 ईंटें ही अंकित की गई हैं. उधर, ग्रामीणों ने जांच दल को बताया कि जो खड़ंजा बनाया गया है वह पांच साल पुराना है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर काम के लिए जो ईंटें कागजों पर मंगाई गईं वे आखिर गईं कहां?

सरकारी धन की लूट के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाए जाते हैं, यह देखकर जांच दल भी हैरान रह गया. जांच दल की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि खडंजे के एक कार्य के लिए दो-दो पत्रावलियां तैयार कर ली गईं. इनमें से एक पत्रावली संख्या 53 के लिए एस्टीमेट 3.14 लाख तो दूसरी पत्रावली संख्या 12 के लिए 6.99 लाख रुपये का एस्टीमेट तैयार किया गया. यह घोटाला उजागर होने पर अवर अभियंता श्रीवास्तव ने अधिकारियों को बताया कि बीडीसी आदि रात 10 बजे घर पर आकर भुगतान की संस्तुति के लिए हस्ताक्षर करने का दबाव बनाते थे. अधिकारियों की लाचारी है या फंसने के बाद का डर कि बयान में श्रीवास्तव ने जांच करने गए अधिकारियों से निवेदन किया कि उन्हें मंडलीय कार्यालय से संबद्ध करा दिया जाए. उनका कहना था कि नेता उन्हें जबरन फील्ड में लगवा देते हैं क्योंकि वे नेताओं और दबंगों का विरोध नहीं कर पाते.

छह माह के बाद अभी तक किसी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करना तो दूर कठोर कार्रवाई तक नहीं हुई है

मनरेगा के एक काम के लिए मस्टर रोल में 1.44 लाख का भुगतान दिखाया गया है. जबकि तकनीकी जांच में उक्त कार्य महज 35 हजार 250 रुपये का ही पाया गया. उक्त काम को कराने की जिम्मेदारी जिस पंचायत सेक्रेटरी राजमन की थी उसका बयान यह बताने के लिए पर्याप्त है कि किस तरह सत्तापक्ष और बाहुबल के दबाव में जिले में करोड़ों की विकास योजनाओं को पलीता लगाने का काम किया गया. अधिकारियों को दिए लिखित बयान में राजमन ने कहा है कि वे ऐसे 10 कार्यों के प्रभारी रहे है जिनकी कार्ययोजना विधायक ताबिश खां के कहने पर बनाई गई और विधायक के आदमियों ने ही सभी काम करवाए. राजमन ने माना कि कानून के हिसाब से उन्हें ही सभी कार्य कराने चाहिए थे लेकिन विधायक ने ही कहा कि उनके आदमी सभी कार्य कराएंगे.

ये उदाहरण तो एक बानगी भर हैं. इनके अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस जिले में जांच दल ने नरेगा के कई कामों में लाखों का घोटाला उजागर किया है.शासन को भेजी गई रिपोर्ट में अधिकारियों ने सरकारी धन की लूट और दुरुपयोग को देखते हुए आपराधिक मामला दर्ज करने और जांच पुलिस विभाग की किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराए जाने की मांग भी की है. लेकिन छह माह का समय बीत जाने के बावजूद अभी तक किसी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करना तो दूर कठोर कार्रवाई तक नहीं हुई है.

बलरामपुर व गोंडा

बलरामपुर व गोंडा में मनरेगा की लुटिया डुबाने का काम नेताओं व बाहुबलियों की जगह आईएएस व पीसीएस अधिकारियों ने किया. अधिकारियों ने खरीद-फरोख्त में न तो मानकों का ध्यान रखा न ही मूल्य का. इसका खुलासा संयुक्त विकास आयुक्त, देवीपाटन मंडल बलिराम की रिपोर्ट में होता है. मनरेगा के तहत ग्राम पंचायतों में रोजगार सेवकों के बैठने के लिए कुर्सी-मेजों की आपूर्ति करने हेतु परियोजना निदेशक ने अप्रैल, 2008 को यूपी उपभोक्ता सहकारी संघ लिमिटेड को आदेश दिया था. रिपोर्ट में कहा गया है कि यह काम बिना किसी टेंडर प्रक्रिया के किया गया. फर्म से 1352 कुर्सियां व 338 मेजें ली गईं. सप्लाई करने वाली फर्म ने अपने कोटेशन में कहीं भी सामान का मानक एवं विशिष्टियां नहीं लिखी थीं. संयुक्त विकास आयुक्त ने लिखा है, ‘मेरे द्वारा स्वयं फर्म की जांच करने पर यह तथ्य भी संज्ञान में आया है कि फर्म द्वारा फर्नीचर स्वयं नहीं बनाया जाता. इससे स्पष्ट है कि फर्म किसी और फर्म से फर्नीचर की खरीद करती है और अपना कमीशन जोड़ कर फिर आपूर्ति करती है. अतः ऐसी फर्म से क्रय किया जाना उचित एवं नियमानुसार नहीं है. कुर्सी-मेज की आपूर्ति के लिए नोटशीट पर मुख्य विकास अधिकारी की संस्तुति पर जिलाधिकारी ने 15 जनवरी, 2008 को स्वीकृति प्रदान की थी.’

स्वीकृति के बाद फर्म ने प्रतिकुर्सी 2500 तथा प्रतिमेज 6900 रुपये के हिसाब से आपूर्ति की. मूल्यांकन टीम ने जांच में पाया कि एक कुर्सी का बाजार मूल्य मात्र 1500 रु तथा मेज का 2928 रुपये है. मतलब साफ है कि एक कुर्सी पर अधिकारियों ने एक हजार रुपये तथा एक मेज पर 3972 रुपये अधिक भुगतान किया है. इस प्रकार 1352 कुर्सियों पर 13 लाख 52 हजार रुपये तथा 338 मेजों पर 13 लाख 42 हजार 536 रुपये अधिक व्यय किया गया है. जांच अधिकारी ने लिखा है कि ऐसे में आपूर्ति आदेश निर्गत करने व अनुमोदन देने वाले तत्कालीन जिलाधिकारी सच्चिदानंद दुबे, सीडीओ हरि प्रसाद तिवारी व प्रकरण से जुड़े सभी कर्मचारी दोषी हैं. गौरतलब है कि सीडीओ तिवारी की मृत्यु हो चुकी है जबकि तत्कालीन जिलाधिकारी दुबे को दोषी पाए जाने के बाद भी सरकार ने दंडित करने की बजाय जिलाधिकारी बना कर दूसरे जिले में स्थानांतरित कर दिया.

कुर्सी-मेज ही नहीं, कैनवॉस मूवेवल वर्कशेड में भी जमकर लूट की गई. साइज अंकित किए बगैर 24,900 रुपये प्रति वर्कशेड के हिसाब से 667 ग्राम पंचायतों को फर्म ने सामान सप्लाई किया. इसमें तीन प्रतिशत भाड़ा व व्यापार कर अलग से जोड़ा गया. जांच अधिकारी ने वर्कशेड में प्रयुक्त सामानों का मदवार विवरण तैयार करके सत्यापन कानपुर के बाजार से कराया जिसके हिसाब से एक वर्कशेड की लागत 12,348 रुपये आती है. इस आकलन के हिसाब से प्रतिवर्क शेड 15,664 रुपये या कहें तो कुल 667 वर्कशेडों पर अधिकारियों ने एक करोड़ से भी ज्यादा रुपये बिना सोचे-समझे फर्म पर दरियादिली दिखाते हुए न्योछावर कर दिए.

मनरेगा मजदूर भी अपनी सुरक्षा में बंदूकधारी लेकर चलते हों, यह जानकर हैरानी होना स्वाभाविक है

बलरामपुर से सटे हुए जिले गोंडा के अधिकारी तो और भी दरियादिल निकले. गोंडा में मनरेगा के अंतर्गत काम करने वाली महिलाओं के बच्चों के लिए 37 लाख 41 हजार 700 रु के खिलौने खरीद लिए गए. बिना टेंडर प्रक्रिया के इस जिले में भी काम उत्तर प्रदेश उपभोक्ता सहकारी संघ लिमिटेड को दिया गया. जब जांच हुई तो यह भी पता चला कि तत्कालीन सीडीओ राजबहादुर ने डीएम मुक्तेशमोहन मिश्र से नियमानुसार स्वीकृति प्राप्त नहीं की और न ही फर्म को भुगतान करते समय चेक पर डीएम के हस्ताक्षर ही कराए. जबकि भुगतान डीएम व सीडीओ दोनों के संयुक्त हस्ताक्षर से होना चाहिए था. जांच में सीडीओ राजबहादुर के दोषी पाए जाने के बाद उन्हें बस इतना दंड मिला कि उन्हें भी दूसरे जिले में स्थानांतरित कर दिया गया. ऐसी स्थिति तब है जब मुख्यमंत्री ने स्वयं प्रेसवार्ता के दौरान 30 मार्च, 2010 को गोंडा के सीडीओ के निलंबन का फरमान सुना दिया था.

कुशीनगर

माननीयों और वीआईपी लोगों की सुरक्षा में बंदूकधारियों को चलते तो आपने देखा होगा लेकिन मनरेगा मजदूर भी अपनी सुरक्षा में बंदूकधारी लेकर चलते हों, यह जानकर हैरानी होना स्वाभाविक है. लेकिन उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में ऐसा हुआ है. मजेदार बात यह है कि मनरेगा मजदूरों की सुरक्षा में जो लोग आए उनका भुगतान भी मनरेगा के धन से ही किया गया. बात जिले के खड्डा ब्लॉक के शाहपुर गांव की है, जहां सात मई, 2008 से 19 मई, 2008 तक 36 मजदूरों का नाम मस्टर रोल में अंकित किया गया है. जिले में मनरेगा के कार्यों में हुई धांधली की शिकायत पर जब राज्य सरकार की ओर से रिटायर्ड आईएएस अधिकारी विनोद शंकर चौबे जिले में गए तो उन्होंने यह हैरतअंगेज कारनामा अपनी रिपोर्ट में अंकित किया.

मस्टर रोल के सत्यापन से इस बात का भी खुलासा हुआ कि जिन 36 मजदूरों के नाम दर्ज हैं उनमें से कोई भी गांव का रहने वाला नहीं है. हरिश्चंद्र नाम के व्यक्ति के साथ तीन-चार अन्य लोगों ने मजदूरी भले ही न की हो लेकिन उन्हें कागजों में शस्त्र के साथ मजदूरों की सुरक्षा में तैनात दिखाते हुए भुगतान भी किया गया.

अधिकारियों ने लूट-खसोट करने के लिए नियम-कानूनों को तार-तार किया. 23 नवंबर, 2011 को एक बैठक के सिलसिले में जिले के सीडीओ लखनऊ गए थे. सीडीओ की अनुपस्थिति में डीडीओ वीपी मिश्र ने 234 परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान कर दी. इनकी अनुमानित लागत 1397.57 लाख रु थी. डीडीओ ने हर जगह जहां अपने दस्तखत किए वहां पदनाम सीडीओ ही अंकित कराया. जांच अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ‘यह कोई रुटीन कार्य नहीं है, जो अधिकारी चाहे संपादित कर दे.’ सीडीओ के स्थान पर डीडीओ द्वारा करोड़ों की योजनाओं की स्वीकृति दिए जाने पर जांच दल ने लिखा है कि यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और पूरी प्रशासनिक संस्कृति को कलंकित करता है इसलिए इसे भारी भ्रष्टाचार की संज्ञा दी जाएगी.
योजना के मद को लूट के लिए किस रास्ते निकालना है यह काम बखूबी अधिकारियों ने अंजाम दिया तो उसे लूटने का बेहतर माध्यम बना वहां का एक जनप्रतिनिधि. सरकारी कर्मचारी पंचायत सचिव उमेश चंद्र राय का बयान तो यही बताता है. राय के मुताबिक शाहपुर, भैसहा, नरायणपुर, पकड़ी आदि गांवों में नरेगा का धन जिला पंचायत सदस्य विजय कुमार अग्रवाल उर्फ मिट्ठू द्वारा सीधे जिले की ग्राम पंचायतों के लिए लाया गया. ये सभी गांव अग्रवाल के क्षेत्र के गांव हैं. पूर्व में कभी भी इन गांवों के लिए इतना धन नहीं आया. राय के शब्दों में, ‘जिला पंचायत अध्यक्ष से फोन पर अग्रवाल ही बात कराते थे और अध्यक्ष के माध्यम से प्रधान व सचिवों पर दबाव डलवाते थे.’ जिला पंचायत सदस्य के क्षेत्र के गांवों में होने वाले विकास कार्यों के बाद भुगतान के चेक फर्जी नाम से जारी करने का मामला भी जांच के दौरान उजागर हुआ. नरेगा के काम के जो चेक प्रधान के नाम से कटने चाहिए थे वे राजेश नाम से कटे हैं. पंचायत सचिव ने बयान में कहा है कि राजेश के नाम का चेक जिला पंचायत सदस्य विजय अग्रवाल ही कटवाते थे और अपने साथ ले जाते थे. शाहपुर, पकड़ी, नारायनपुर आदि गांवों में अधिकांश चेक राजेश के नाम से ही कटे हैं क्योंकि अग्रवाल के एक भाई का नाम भी राजेश ही है. हद तो तब हो गई जब राजेश नाम को सही ठहराने के लिए शाहपुर गांव की प्रधान सलहंता के पुत्र संतोष राय को राजेश बना कर खड़ा कर दिया गया. संतोष ने अधिकारियों को बताया कि स्कूल के दस्तावेजों, बैंक की पासबुक और परिवार रजिस्टर आदि में उसका नाम संतोष ही है लेकिन प्यार से सब उसे राजेश कहते हैं.

जांच अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, ‘राजेश नाम से काटे गए चेकों में आपराधिक कृत्य किया गया है और इस अपराध में राजेश नाम से चेक काटने वाले, राजेश हस्ताक्षर प्रमाणित करने वाले, प्रधान तथा पंचायत सचिव तो अपराधी हैं ही साथ-साथ जिला पंचायत सदस्य विजय अग्रवाल उर्फ मिट्ठू भी इसमें शामिल हैं.’

यह फर्म अधिकारियों की अपनी थी जिसके माध्यम से फर्जी बिलिंग के आधार पर टेंट की आपूर्ति दिखाई गई

रुपये की लूट के चक्कर में जिले के अधिकारी ये तक भूल गए कि नरेगा का धन सिर्फ गांव के विकास में ही खर्च किया जा सकता है. अधिकारियों की मिलीभगत से नरेगा के लाखों रुपये का काम नगरपालिका खड्डा में करा दिया गया. जांच दल ने जिले के सिर्फ एक ब्लाॅक का निरीक्षण किया जहां लाखों का घोटाला नजर आया, शायद पूरे जिले की जांच होती तो स्थिति कितनी भयानक निकलती इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. शायद इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए जांच अधिकारियों ने शासन को सौंपी अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि एफआईआर दर्ज करवा कर मामले की जांच सीबीसीआईडी या किसी अन्य एजेंसी से कराई जाए. लेकिन एक साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद न तो अभी तक किसी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हुई है और न ही किसी एजेंसी को जांच सौंपी गई.

महो­बा

जिले में करोड़ों रुपये के टेंट घोटाले में अधिकारियों पर सरकार की ही मेहरबानी ऐसी रही कि जांच में दोषी पाए जाने के बाद उन्हें निलंबित तो किया गया लेकिन जल्द ही बहाल भी कर दिया गया. केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य संजय दीक्षित ने 2009 में महोबा का भ्रमण करके सभी 247 पंचायतों में टेंट खरीद में हुए घोटाले की शिकायत शासन से की थी. दीक्षित की शिकायत के बाद जब एसडीएम महोबा जय शंकर त्रिपाठी ने मामले की जांच शुरू की तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. त्रिपाठी ने जैतपुर, पनवाड़ी और करबई ब्लाॅकों में प्रधान सहित कई लोगों के बयान लिए. इसके अतिरिक्त करबई, चरखारी एवं जैतपुरा ब्लाॅक मुख्यालय के बीडीओ और अन्य कर्मचारियों से संपर्क किया गया तो पता चला कि सभी स्थानों पर अमन इंटरप्राइजेज लखनऊ द्वारा ही नरेगा के अंतर्गत टेंट की आपूर्ति की गई है. उक्त संस्था से समस्त 247 ग्राम पंचायतों में नरेगा के तहत करीब 19 हजार रुपये प्रतिटेंट की आपूर्ति प्राप्त की गई और धनराशि के भुगतान के लिए जब-जब ब्लाॅक पर मीटिंग हुआ करती थी तब-तब संबंधित बीडीओ ग्राम पंचायत अधिकारी आदि को टेंट के भुगतान के लिए दबाव डाला करते थे. टेंट सप्लाई करने वाली संस्था के प्रतिनिधि का बयान भी कम मजेदार नहीं है. उसने जांच अधिकारी को बताया, ‘लिखित तौर पर टेंट की आपूर्ति के लिए 29 मार्च, 2008 को आदेश दिया गया लेकिन समय से आपूर्ति न हो पाने के कारण 19 मई, 2008 को आपूर्ति का आदेश निरस्त कर दिया गया. उसकी फर्म को किसी सक्षम अधिकारी द्वारा न तो टेलीफोन पर न मौखिक रूप से ही अवगत कराया गया. इस दशा में फर्म ने पूर्व में पारित आदेश के तहत ही 247 टेंट की आपूर्ति ब्लाॅक मुख्यालय पर कर दी. किसी भी बीडीओ, परियोजना निदेशक अथवा सीडीओ ने आपूर्ति न करने के संबंध में कुछ भी नहीं कहा. ऐसे में यह प्रतीत होता है कि टेंट की आपूर्ति को लेकर सहमति सबकी थी कागजों में आदेश चाहे जो भी हो.’

टेंट आपूर्ति करने वाली फर्म की जांच परियोजना निदेशक लखनऊ ने की. कागजों में फर्म का लखनऊ में जो पता बताया गया उस पर कोई फर्म मिली ही नहीं. जांच के बाद बीडीओ राजेश कुरील, डीडीओ जय राम लाल वर्मा और परियोजना निदेशक हरनारायण को निलंबित किया गया. लेकिन कुछ दिनों बाद ही ग्राम विकास मंत्री दद्दू प्रसाद की ओर से पत्र जारी किया गया कि अधिकारियों द्वारा किसी भी फर्म को कोई लिखित या मौखिक आदेश क्रय के लिए जारी नहीं किया गया है. इतना ही नहीं पत्र में लिखा गया कि अधिकारियों पर कोई भी आरोप आंशिक रूप से भी प्रमाणित नहीं हो पाया है. सवाल यह है कि जब एसडीएम, महोबा ने जांच में साफ लिखा है कि टेंट की खरीद में बीडीओ डीडीओ और परियोजना निदेशक की संलिप्तता प्रकाश में आई है क्योंकि इनकी मदद से टेंट की आपूर्ति होती रही, लिहाजा उक्त अधिकारी दोषी हैं तो सरकार तक पहुंचते-पहुंचते एडीएम की जांच रिपोर्ट में एकत्र किए गए सभी सबूत कमजोर कैसे पड़ गए.

केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य दीक्षित आरोप लगाते हैं, ‘अमन इंटरप्राइजेज नाम की जिस फर्म से टेंट की खरीद दिखाई गई है, वास्तव में वह फर्जी है जिसका खुलासा जांच में भी हो गया है.’ यह फर्म अधिकारियों की अपनी थी जिसके माध्यम से फर्जी बिलिंग के आधार पर टेंट की आपूर्ति दिखाई गई. दीक्षित का दावा है कि कई ऐसी ग्राम सभाएं भी हैं जहां टेंट की सप्लाई हुई ही नहीं. टेंट की खरीद पंचायत स्तर पर होने का नियम है. लिहाजा खरीद को लेकर कहीं अधिकारियों पर अंगुलि न उठे इसके लिए अधिकारियों ने ग्राम सभाओं से ही फर्म को चेक जारी करवाए. लेकिन पंचायतों से चेक जारी करवाने के लिए बैठकों में अधिकारियों का दबाव बनाया जाना यह साबित करता है कि जिस फर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं है उसके भुगतान को लेकर वे चिंतित क्यों थे.

चिदंबरम पर एक और चिट्ठी वार

2जी मामले में केंद्र सरकार की मुश्किलें और बढ़ती दिख रही हैं. इसकी वजह यह है कि अब पूर्व वित्त सचिव डी सुब्बाराव द्वारा जुलाई, 2008 में लिखा गया एक पत्र सामने आया है. इसमें जो लिखा गया है उससे केंद्र और सीबीआई के लिए 2जी घोटाले में पहले से ही मुश्किलों में घिरे गृहमंत्री पी चिदंबरम का बचाव करना और मुश्किल हो गया है.

गौरतलब है कि जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते हुए मांग की है कि इस मामले में चिदंबरम की कथित भूमिका की जांच की जाए. इसका विरोध करते हुए सीबीआई का सबसे बड़ा तर्क यह था कि स्पेक्ट्रम आवंटन के संबंध में 10 जनवरी, 2008 को तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा ने जो आशय पत्र जारी किए  नुकसान उन्हीं से हो चुका था. इसके बाद चिदंबरम कुछ नहीं कर सकते थे क्योंकि सरकार कानूनी अनुबंधों से बंधी थी. सुप्रीम कोर्ट को दिए गए अपने लिखित जवाब में सीबीआई का कहना था, ‘यह कहना सही नहीं होगा कि प्रत्येक लाइसेंस के लिए 1,600 करोड़ रुपये हासिल करने और आशय पत्र की सभी शर्तें पूरी करने के बाद भी लाइसेंस को रद्द करने का विकल्प खुला था.’

लेकिन हाल ही में सामने आए इस नोट की मानें तो स्पेक्ट्रम की कीमतें दो हिस्सों में वसूली जा सकती थीं. नोट के शब्द हैं, ‘कानूनी और प्रशासनिक रूप से यह तर्कसंगत है कि स्पेक्ट्रम की कीमतें दो हिस्सों मंे वसूली जाएं–पहला, एक बार ही चुकाई जाने वाली एक तय राशि के रूप में जो सार्वजनिक संसाधन का इस्तेमाल निजी लाभ के लिए करने के लिए हो और दूसरा, स्पेक्ट्रम के उपयोग से होने वाले लाभ में सरकार की हिस्सेदारी के रूप में’.

यानी एक तरह से देखा जाए तो आशय पत्र जारी हो जाने के छह महीने बाद भी सरकार में इस बात को लेकर सहमति थी कि स्पेक्ट्रम की और ज्यादा कीमत वसूलना कानूनी और प्रशासनिक आधार पर पूरी तरह संभव है. लेकिन ऐसा नहीं किया गया. इसकी वजह इस पत्र के दूसरे पन्ने के पांचवें पैराग्राफ में बताई गई है- ‘ऐतिहासिक कारणों से, जीएसएम के लिए 6.2 Mhz तक और सीडीएमए के लिए 5 Mhz तक के स्पेक्ट्रम आवंटन पर कोई चार्ज नहीं वसूला जा सकता, न तो नए ऑपरेटर से और न ही पुराने ऑपरेटर से.’

इससे साफ हो जाता है कि गलती सुधारने के लिए काफी वक्त था लेकिन चिदंबरम की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी

गौर करें कि अभी सरकार अपने बचाव में यह तर्क दे रही है कि कम कीमत में स्पेक्ट्रम आवंटन के उसके फैसले की वजह जनहित थी. लेकिन नोट में सरकार द्वारा स्पेक्ट्रम की अतिरिक्त कीमत नहीं वसूलने के पक्ष में दिया गया तर्क कहीं से भी इस बात को साबित नहीं करता. अगर ऐसा होता तो नोट में ‘ऐतिहासिक कारण’ जैसे भारी-भरकम शब्द की जगह सस्ती कीमत पर सेवाओं के व्यापक प्रसार जैसा तर्क होता.

चार जुलाई, 2008 का यह पत्र राजा, चिदंबरम और प्रधानमंत्री के बीच उसी दिन निर्धारित एक बैठक के मद्देनजर तैयार किया गया था. छह जुलाई, 2008 को एक अन्य पत्र में सुब्बाराव ने इस बात का फिर से जिक्र किया- ‘चार जुलाई, 2008 के पत्र में वर्णित मुद्दों पर प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और दूरसंचार मंत्री के साथ चर्चा हुई. इस बैठक में दूरसंचार सचिव और मैं भी उपस्थित था. इस पत्र के सभी मुद्दों पर हमारी सहमति थी.’

इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि 2001 में निर्धारित स्पेक्ट्रम की कीमतों के आधार पर आवंटन करने के ए राजा के फैसले पर प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दोनों सहमत थे. पत्र से यह भी साफ होता है कि बैठक में स्पेक्ट्रम की नीलामी या फिर उसके बाजार मूल्य पर आवंटन जैसे मुद्दों पर कोई चर्चा ही नहीं हुई. इससे यह भी पता चलता है कि लाइसेंस की इतनी कम कीमत वसूलने के पीछे अनुबंध की बाध्यता जैसी वजह बाद में सोची गई. अगर राजा द्वारा हड़बड़ी में जारी आशय पत्र में सुधार या लाइसेंस आवंटन को रद्द करने संबंधी कोई चर्चा हुई होती तो इसका जिक्र पत्र में जरूर मिलता.  नौ जनवरी, 2008 तक यानी राजा द्वारा आशय पत्र जारी करने से ठीक एक दिन पहले चिदंबरम का सार्वजनिक विचार था कि या तो 2जी स्पेक्ट्रम की बोली लगवाई जाए या फिर बाजार मूल्य पर इसकी कीमतें निर्धारित की जाएं. लेकिन 15 जनवरी, 2008 को चिदंबरम ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा कि 10 जनवरी, 2008 को ए राजा द्वारा जारी आशय पत्र को अब खत्म मामला समझा जाए. इस घटनाक्रम में गौर करने की बात यह है कि सभी 150 लाइसेंसों का आवंटन 27 फरवरी से सात मार्च के बीच हुआ था. यानी गलती सुधारने के लिए काफी वक्त था लेकिन चिदंबरम की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी.

अचानक हुए इस हृदय परिवर्तन पर चिदंबरम ने कोई सफाई नहीं दी है. सीबीआई द्वारा दाखिल की गई चार्जशीट में भी इस बात की कोई जानकारी नहीं दी गई कि आखिर वित्तमंत्री ने अचानक ही अपना रुख क्यों बदल लिया. इससे कई लोग हैरानी के साथ यह सवाल भी पूछ रहे हैं कि इसके बाद भी सीबीआई ने चिदंबरम से पूछताछ करना या उनका बयान रिकॉर्ड करना जरूरी क्यों नहीं समझा.

2जी आवंटन की आधिकारिक फाइल में आशय पत्र रद्द करने का विरोध करता एकमात्र कथन दूरसंचार विभाग का है. आठ फरवरी, 2008 को तत्कालीन दूरसंचार सचिव सिद्धार्थ बेहुरा ने वित्त मंत्रालय को पत्र लिखकर बताया कि 4.4 Mhz वाले स्पेक्ट्रम का आरंभिक आवंटन लाइसेंस की शर्तों का हिस्सा है. अगर इसकी कीमत वसूली जाएगी तो इससे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को नुकसान पहुंचेगा और साथ ही वर्तमान आशयपत्र धारक कोर्ट की शरण में चले जाएंगे.  लेकिन फाइल में कहीं से भी इस बात की जानकारी नहीं मिलती कि दूरसंचार विभाग की इस आपत्ति पर चिदंबरम ने कभी गंभीरता से विचार किया हो या फिर राय के लिए इसे कानून मंत्रालय को भेजा गया हो.

चार जुलाई की बैठक का एकमात्र मकसद था 6.2 Mhz से ऊपर के स्पेक्ट्रम आवंटन की कीमत निर्धारित करना. प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और ए राजा के बीच बाजार संचालित प्रक्रिया से कीमत तय करने पर सहमति बनी थी. यहां एक और दिलचस्प बात है कि शुरुआती स्पेक्ट्रम (जिसकी कीमत तय नहीं की गई) की जो सीमा 4.4 Mhz थी वह बढ़कर 6.2 Mhz कैसे हुई इसकी कोई स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है.

जो बात लोगों को खटक रही है वह है सरकार का दोहरा रवैया. सरकार 6.2 Mhz के ऊपर के स्पेक्ट्रम को तत्कालीन बाजार दर पर ही आवंटित करने की इच्छुक थी, लेकिन 6.2 Mhz तक के स्पेक्ट्रम के लिए उसकी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी. मान लेते हैं कि 6.2 Mhz तक के स्पेक्ट्रम के लिए बाजार कीमत नहीं वसूलने के पीछे सोच यह थी कि ऑपरेटरों को हुआ यह फायदा अपने आप नीचे तक पहुंचेगा जिससे उन्हें कम कीमत पर सेवा मिलेगी और मोबाइल का प्रसार बढ़ेगा. तो सवाल उठता है कि यही तर्क 6.2 Mhz के ऊपर के स्पेक्ट्रम धारकों पर भी तो लागू हो सकता है.

यानी बैठकें हुईं, कागजों के ढेर लगे और सहमति बनी कि स्पेक्ट्रम का आवंटन तत्कालीन बाजार दर के हिसाब से हो, इसके बावजूद नतीजा सिफर रहा.

‘यह कानून होता तो राष्ट्रमंडल खेलों में घोटाला नहीं होता’

नया कानून खेलों के विकास को गति देने के लिए कितना जरूरी है?

खेलों के विकास के लिए तीन प्रमुख समस्याओं का समाधान करना पड़ेगा. पहला देश में खेलों का दायरा बढ़ाया जाए और खेल की संस्कृति विकसित की जाए. इसके लिए खेलों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए. दूसरी बात प्रशिक्षण से जुड़ी हुई है. इसके लिए हमें अपना ढांचा और दुरुस्त करना होगा. तीसरी समस्या है पारदर्शिता की जिस वजह से कॉरपोरेट क्षेत्र खेलों में पैसा लगाने से कतरा रहा है. कई खेल संगठनों में लोग दशकों से कब्जा जमाकर जमींदारी की तरह खेलों को चला रहे हैं. इससे कई अनैतिक चीजें खेल में आ गई हैं जैसे यौन उत्पीड़न, डोपिंग और उम्र को लेकर गड़बड़ी. इन्हें दूर करने के लिए हम नया कानून लाने की कोशिश कर रहे हैं. यह विधेयक देश के खेलों की तसवीर बदल देगा.

सुधारों का काम शुरू करने में इतना वक्त लगने की वजह क्या है?

मुझसे पहले जो लोग खेल मंत्रालय में थे उन्होंने भी समय-समय पर सरकारी आदेशों के जरिए सुधार की कोशिश की और मैं उनके ही काम को आगे बढ़ा रहा हूं. हमें यह लगा कि जब तक इन बदलावों को बाकायदा एक कानून के जरिए नहीं लाया जाएगा तब तक सफलता मिलना आसान नहीं है. 1989 में एक संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश किया गया था जिसमें कहा गया था कि खेलों को राज्य से निकालकर समवर्ती सूची में लाना चाहिए ताकि इन्हें सही ढंग से चलाने का काम केंद्र सरकार कर सके. इसलिए यह कहना गलत होगा कि सुधार की कोशिश पहले नहीं की गई. 2007 में अटॉर्नी जनरल ने यह राय दी है कि हम खेलों को समवर्ती सूची में लाए बगैर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रतिनिधित्व को आधार बनाकर राष्ट्रीय खेल संघों के लिए कानून बना सकते हैं. इसके बाद 1989 के प्रस्ताव को 2007 में वापस लिया गया और उस समय से खेल मंत्रालय लगातार सुधारों को लेकर काम कर रहा है जिसका नतीजा अब आपको इस कानून के रूप में दिख रहा है.

आपने कॉरपोरेट फंडिंग की बात की लेकिन बीसीसीआई ने तो निजी क्षेत्र को काफी आकर्षित किया है.

ऐसा इसलिए है कि उनके वहां उम्र और कार्यकाल को लेकर अपने स्तर पर ही अच्छे नियम हैं. लेकिन वहां कार्यक्षमता तो है पारदर्शिता नहीं है. यही वजह है कि आईपीएल या क्रिकेट से संबंधित घोटालों की बातें सामने आती रहती हैं.

इस विधेयक को कई ओर से विरोध झेलना पड़ रहा है. ऐसे में इसका क्या भविष्य है?

हम जब पहली बार इसे कैबिनेट में लेकर गए थे तो कुछ बातों पर आपत्ति थी. नए मसौदे में कुछ संशोधन किए गए हैं. हमने वे प्रावधान हटा दिए हैं जिससे लोगों को जरा भी संदेह हो कि इसके जरिए सरकार खेल संघों पर कब्जा करना चाहती है. खेल संघों को मंत्रालय के प्रति जवाबदेह न बनाकर उन्हें स्पोर्ट्स ट्राइब्यूनल के प्रति जवाबदेह बनाया गया है. इसका गठन वह समिति करेगी जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश करेंगे. आरटीआई और एंटी डोपिंग के मामले में भी हमने खेल संघों को कुछ छूट दी है. खिलाडि़यों के फिटनेस और चयन के आधार को आरटीआई से छूट देने का प्रावधान किया है. जब पहले इसे भी आरटीआई के दायरे में रखने का प्रावधान था तो खिलाडि़यों ने ही कहा कि इन सूचनाओं से हमारी विरोधी टीमों को फायदा मिल सकता है.

आपने चयन के आधार को आरटीआई के दायरे से बाहर निकाल दिया लेकिन चयन प्रक्रिया पर कई बार सवाल उठते रहे हैं…

अब तक ये बातें राष्ट्रीय स्तर पर बहुत कम आई हैं. ऐसी बातें राज्य के स्तर पर अधिक आती हैं. हम राष्ट्रीय खेल संघों के लिए तो कानून बना सकते हैं लेकिन राज्य खेल संघों के लिए नहीं. मेरा मकसद इस विधेयक को कैबिनेट से पारित करवाना है, इसलिए जो भी हल्के-फुल्के बदलाव हुए हैं उन्हें इससे जोड़कर देखा जाना चाहिए.

खेल संघों पर काबिज केंद्रीय नेता विधेयक का पुरजोर विरोध कर रहे हैं. ऐसे में क्या संसद के शीतकालीन सत्र में यह विधेयक पारित हो सकेगा?

हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सुधारों का विरोध किया है. इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि सिर्फ कैबिनेट के अंदर इसका विरोध हो रहा है. हम कैबिनेट से मंजूरी लेने की कोशिश करेंगे और अगर मंजूरी मिल जाती है तो हम इसे शीतकालीन सत्र में संसद में जरूर लेकर आना चाहेंगे.

इन बदलावों के बावजूद बीसीसीआई को अब भी इस विधेयक को लेकर आपत्ति है.

बीसीसीआई ने हमारे पत्र के जवाब में बताया है कि वे हमारी बात नहीं मानेंगे. उन्होंने तो कार्यकारिणी में खिलाडि़यों की 25 फीसदी हिस्सेदारी के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया. ये  बेहद चौंकाने वाली बात है. अगर किसी खेल पर लिए फैसले में एक चौथाई खिलाड़ी भी शामिल नहीं होंगे तो आखिर कैसे सही निर्णय लिया जाएगा. ऐसे ही आरटीआई का विरोध करने का भी कोई मतलब नहीं है. अगर किसी के पास कुछ छिपाने के लिए नहीं है तो फिर आरटीआई का विरोध नहीं होना चाहिए.

नए विधेयक में स्पोर्ट्स ट्राइब्यूनल के गठन की बात की गई है. क्या इसके पास यह अधिकार होगा कि यह स्वतः संज्ञान लेकर किसी मामले की जांच शुरू कर सके?

बिल्कुल, उसे ऐसा अधिकार होगा. हमने यह प्रावधान भी किया है कि खिलाड़ी या खेल से प्रेम करने वाला कोई भी व्यक्ति अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है और उसकी जांच की जाएगी. खिलाडि़यों की समस्याओं और खेल संघों के आपसी झगड़ों का निपटारा भी ट्राइब्यूनल करेगा.

अगर इस तरह का कानून पहले से होता तो क्या आईपीएल और राष्ट्रमंडल खेलों से संबंधित घोटाला टल सकता था?

अगर इस तरह का कानून पहले से होता तो कम से कम राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में जो घोटाला हुआ वह नहीं होता. क्योंकि इन खेलों के आयोजन समिति के अध्यक्ष और खजांची जो जेल में हैं, वे दोनों आईओए के पदाधिकारी नहीं बन पाते. इसलिए इस कानून की बहुत ज्यादा जरूरत है.

जब जनप्रतिनिधियों के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है तो फिर खेल से जुड़े पदाधिकारियों के लिए ऐसा क्यों?

जनप्रतिनिधियों के चुनाव में 18 से अधिक उम्र के हर व्यक्ति की भागीदारी होती है. लेकिन इन खेल संगठनों में वोट देने वाले पहले से चुने हुए होते हैं. यहां हर कोई वोट नहीं दे सकता. ज्यादातर खेल संघों के आंतरिक चुनाव तो हाथ खड़े करके हो जा रहे हैं. वे तो बैलेट का भी इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.

खेल को चाहिए नई नकेल

2010 को भारत के लिए घोटालों का साल माना जाता है. इसी साल कई बड़े घोटाले उजागर हुए. चाहे वह 2जी स्पेक्ट्रम की नीलामी का मामला हो या फिर आदर्श सोसायटी का मामला. इसी साल काले धन के मसले ने भी काफी जोर पकड़ा. 2010 में जब एक पर एक घोटाले सामने आ रहे थे तभी खेलों से जुड़े दो घोटालों ने भी लोगों को सन्न कर दिया. इनमें एक था आईपीएल और दूसरा राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में अरबों रुपये के हेरफेर का मामला. आईपीएल में आम लोगों की गाढ़ी कमाई सीधे तौर पर नहीं लगी थी शायद इसलिए यह मामला अपने ढंग से उठकर दब गया. लेकिन राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में धांधली का मामला शांत होता नहीं दिख रहा है. इसमें सीधे तौर पर सरकारी पैसा यानी आम आदमी की गाढ़ी कमाई में से कर के तौर पर वसूला जाने वाला पैसा लगा था. आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी समेत उनके कई सहयोगी इस मामले में दिल्ली के तिहाड़ जेल में बंद हैं.

जब ये दोनों मामले सामने आए तो हर ओर से कहा गया कि देश में खेलों के संचालन में पारदर्शिता का घोर अभाव है. आरोप लगे कि ज्यादातर खेल संगठनों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है और सालों से एक ही व्यक्ति या एक ही कुनबा खेल संगठनों पर काबिज है. ये ऐेसेे लोग हैं जिन्हें संबंधित खेलों का कोई अनुभव नहीं है.  यह बात भी सामने आई कि कई लोग एक से ज्यादा खेल संगठनों के कर्ताधर्ता बने हुए हैं. हर तरफ से मांग उठी कि यदि खेलों के संचालन में पारदर्शिता बढ़ेगी तो ऐसे घोटालों पर अंकुश लग सकेगा और खेलों का भी विकास होगा. एक मजबूत कानून की जरूरत पर जोर दिया गया. अब जबकि केंद्रीय खेल राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अजय माकन एक ऐसा मजबूत कानून लाने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्हें न सिर्फ विपक्षियों के बल्कि अपने दल के और सहयोगी नेताओं के भी भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है.

हालांकि, ऐसा नहीं है कि खेल संगठनों के काम-काज पर पहली बार 2010 में ही सवाल उठे.  इन संगठनों पर तरह-तरह के आरोप तो लंबे समय से लगते रहे हैं. 2008 में एक खबरिया चैनल के स्टिंग ऑपरेशन से यह बात सामने आई थी कि भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) के महासचिव के ज्योति कुमारन ने राष्ट्रीय टीम में एक खिलाड़ी के चयन के लिए पैसे लिए हैं. अजलान शाह हॉकी टूर्नामेंट के लिए जा रही टीम में चयन के लिए कुमारन ने पांच लाख रुपये की रिश्वत की मांग की थी. कुमारन को दो किश्तों में तीन लाख रुपये लेते हुए दिखाया गया था. इस विवाद में कुमारन की कुर्सी तो गई ही साथ ही भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) ने आईएचएफ की मान्यता भी रद्द कर दी. इसके साथ ही लंबे समय से हॉकी पर कब्जा जमाकर बैठे पूर्व पुलिस अधिकारी केपीएस गिल की भी छुट्टी हो गई. गिल पर भारतीय हॉकी पर अपनी दादागीरी चलाने का आरोप लगता रहा है. भारतीय हॉकी से जुड़े लोग तहलका से कहते हैं कि गिल ने राज्य हॉकी संघों में पुलिस अधिकारियों को पदाधिकारी बनवा दिया था और इसके एवज में ये पदाधिकारी गिल को आईएचएफ का अध्यक्ष बनाए रखते थे. इन लोगों का दावा है कि आईएचएफ में चुनाव नाममात्र को होता था क्योंकि सदस्य गिल को हाथ उठाकर अध्यक्ष चुन लेते थे.

मान्यता रद्द होने पर आईएचएफ के अधिकारी अदालत गए और दूसरी तरफ हॉकी इंडिया के नाम से एक नया संगठन बना. इसे आईओए और अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) से मान्यता मिल गई. लगा अब हॉकी के दिन बदलेंगे. लेकिन यहां भी चुनाव में वही पुराना ढर्रा अपनाया गया और ओलंपिक खिलाड़ी रह चुके 45 साल के परगट सिंह को 83 साल की कांग्रेसी नेता विद्या स्टोक्स ने हरा दिया. एक बार फिर राष्ट्रीय खेल के दिन बदलने का हॉकी खिलाडि़यों का मंसूबा धरा का धरा रह गया. हॉकी इतिहासकार और स्टिकटूहॉकी डॉट कॉम के संपादक के अरुमुगम तहलका को बताते हैं, ‘यह एक अच्छा अवसर था कि भारतीय हॉकी को चलाने का काम किसी हॉकी खिलाड़ी के हाथ में जाता. लेकिन ऐसा हो नहीं सका और हॉकी फिर सियासत की शिकार बन गई. इससे उन पुराने खिलाडि़यों को भी झटका लगा जो हिम्मत करके हॉकी की सेहत सुधारने के लिए खेल प्रशासन की ओर रुख कर रहे थे.’ बाद में अदालत ने आईएचएफ के मामले में आईओए को यह निर्देश दिया कि आप किसी व्यक्ति पर तो कार्रवाई कर सकते हैं लेकिन संगठन को बेदखल नहीं कर सकते. अभी यह मामला अदालत में है.

यदि मेरे थोड़ा समझौता कर लेने से देश का भला हो तो ऐसा करने में हर्ज ही क्या? कपिल देव,पूर्व क्रिकेट कप्तान

2010 के शुरुआती दिनों में हॉकी विश्व कप के ठीक पहले खिलाड़ियों ने बोर्ड पर बाकी 4.5 लाख रुपये मेहनताने को लेकर विद्रोह कर दिया था और तैयारी में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था. इससे पता चला कि हॉकी पर राज करने वाला संगठन हॉकी इंडिया खिलाड़ियों के प्रति कितना असंवेदनशील है. इसी तरह महिला हॉकी टीम के कोच एमके कौशिक और आधिकारिक वीडियोग्राफर बसवराज पर यौन उत्पीड़न का आरोप टीम की खिलाड़ी ने ही लगाया. इसके बाद दोनों की छुट्टी कर दी गई.

जनवरी, 2011 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उस समय के खेल मंत्री एमएस गिल को सांख्यिकी एवं क्रियान्वयन मंत्रालय में भेजा और गृह राज्य मंत्री अजय माकन को खेल मंत्रालय में ले आए. माकन के आते ही मंत्रालय ने राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक लाने की कोशिश की और इसका पहला मसौदा फरवरी में जारी हुआ. जब यह विधेयक अगस्त में केंद्रीय कैबिनेट में पहुंचा तो इसे यह कहते हुए वापस लौटा दिया गया कि इसमें काफी सुधार करने की जरूरत है. हालांकि, विधेयक का मसौदा पढ़ने के बाद यह साफ हो जाता है कि आखिर कैबिनेट ने इस विधेयक को वापस क्यों लौटा दिया. इसमें खेल संगठनों को पारदर्शी बनाने के लिए इन्हें सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाने और पदाधिकारियों के लिए उम्र और कार्यकाल की सीमा निर्धारित करने की बात थी. कैबिनेट में जिन मंत्रियों ने इस विधेयक का सबसे ज्यादा विरोध किया वे थे – शरद पवार, विलासराव देशमुख, प्रफुल्ल पटेल, फारुख अब्दुल्ला और सीपी जोशी. ये सभी केंद्रीय मंत्री किसी न किसी खेल संगठन से भी जुड़े हुए हैं.

इसके बाद मंत्रालय ने विधेयक के मसौदे में कुछ बदलाव किए और अब माकन एक बार फिर इसे कैबिनेट में ले जाने की तैयारी कर रहे हैं. तहलका के साथ बातचीत में वे इस विधेयक को संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में पारित करवाने की इच्छा जताते हुए कहते हैं, ‘हमने पुराने मसौदे में से उन चीजों को हटाया है जिससे लोगों को यह लग रहा था कि हम खेलों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं.’ आरटीआई के तहत भी खेल संगठनों को चयन आधार और खिलाडि़यों की फिटनेस से संबंधित सूचनाओं को उजागर नहीं करने की छूट इस नए बिल में दी गई है.
इसके बावजूद इस विधेयक के पारित होने का रास्ता आसान नहीं है. विरोध करने वालों में वििभन्न खेल संगठनों के पदाधिकारी और सिर्फ कैबिनेट के लोग नहीं हैं बल्कि खेल संगठनों पर काबिज सभी दलों के नेता शामिल हैं. इनमें कैबिनेट के पांच नेताओं के अलावा प्रमुख हैं- राजीव शुक्ला, ज्योतिरादित्य सिंधिया, गोवा के मुख्यमंत्री दिगंबर कामत, पूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीश टायटलर, भाजपा नेता और राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता अरुण जेटली, भाजपा नेता यशवंत सिन्हा, दिल्ली विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता विजय कुमार मल्होत्रा, भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर, अकाली दल के सुखदेव सिंह ढींढसा, इंडियन नैशनल लोकदल के अभय चौटाला और अजय चौटाला आदि.

माकन के लिए विधेयक पारित करवाना बेहद चुनौतीपूर्ण है क्योंकि उनका विरोध न सिर्फ विपक्षी दलों के लोग कर रहे हैं बल्कि खुद माकन की पार्टी के तमाम प्रभावशाली नेता खुलेआम नए कानून का विरोध कर रहे हैं. भारतीय तीरंदाजी संघ के अध्यक्ष और आईओए के कार्यकारी अध्यक्ष विजय कुमार मल्होत्रा तहलका के साथ बातचीत में विधेयक पर कड़ा एतराज जताते हुए इसे दमनकारी और असंवैधानिक करार देते हैं, ‘आखिर क्यों माकन देश में खेल को बर्बाद करने पर आमादा हैं. जिस तरह से वे खेलों पर सरकारी कब्जा जमाना चाहते हैं उससे तो देश में खेल चौपट हो जाएंगे. क्योंकि आईओसी ने कहा है कि हम ऐसे सरकारी नियंत्रण को नहीं मानेंगे और अगर ऐसा किया गया तो हम भारत की मान्यता रद्द कर देंगे.’ मल्होत्रा कहते हैं.

आरटीआई के सवाल पर वे कहते हैं, ‘आईओए पर तो अब भी आरटीआई लागू होता है और इसके आर्थिक मामले सीएजी की जांच के दायरे में हैं. इसलिए नए सिरे से कुछ करने की जरूरत ही क्या है. सभी खेल संगठन सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन ऐक्ट के तहत पंजीकृत होते हैं. अगर सरकार खेल संगठनों को आरटीआई के दायरे में लाना चाहती है तो आरटीआई कानून में संशोधन करके सोसाइटीज ऐक्ट के तहत पंजीकृत  सभी संगठनों को आरटीआई के दायरे में ला सकती है. जहां तक सवाल चुनाव में धांधली का है तो ऐसा कहीं-कहीं है हर जगह नहीं…खेल संगठन निर्णय प्रक्रिया में खिलाडि़यों की हिस्सेदारी खुद ही बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं.’

खेलों पर सरकारी कब्जा जमाने की कोशिश से तो देश में खेल चौपट हो जाएंगे. वीके मल्होत्रा,कार्यकारी अध्यक्ष, आईओए

खेल प्रशासकों के लिए उम्र की सीमा तय करने के मसले पर 32 साल से तीरंदाजी संघ के अघ्यक्ष  रहे 80 वर्षीय मल्होत्रा कहते हैं, ‘यह कहां का न्याय है कि सांसदों और मंत्रियों के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं लेकिन खेल प्रशासकों की उम्र सीमा तय हो. प्रधानमंत्री 80 साल के होने वाले हैं. केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की उम्र 76 साल है. विदेश मंत्री एसएम कृष्णा 79 साल के हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज्यादातर खेल संगठनों के प्रमुख 70 साल से अधिक उम्र के हैं.’ इसका जवाब माकन यह कहते हुए देते हैं कि सांसदों या किसी भी जनप्रतिनिधि का चुनाव सीधे जनता करती है जबकि खेल संगठनों के पदाधिकारियों का चुनाव इस ढंग से नहीं होता इसलिए यह तुलना ठीक नहीं है.

हालांकि, खेल संगठनों और खेल प्रशासकों के विरोध के बावजूद खिलाड़ी, खेलों के जानकार और खेलप्रेमियों की तरफ से माकन की कोशिशों को भारी समर्थन मिल रहा है. भारत को पहली दफा क्रिकेट विश्व कप दिलाने वाले कपिल देव तहलका को बताते हैं, ‘यह विधेयक देश में खेलों का भला करेगा. इसे लागू करवाया जाना चाहिए.’ यह पूछे जाने पर कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने इस विधेयक को खारिज कर दिया है, कपिल देव कहते हैं, ‘नए कानून से बीसीसीआई सीधे तौर पर प्रभावित होगी इसलिए वे विरोध कर रहे हैं. मेरी समझ में यह नहीं आता कि अगर मेरे थोड़ा-सा समझौता कर लेने से देश का भला होता है तो ऐसा करने में आखिर किसी को दिक्कत क्यों हो रही है.’

माकन कहते हैं कि जिस तरह का कानून हम लाने जा रहे हैं अगर वैसा कानून पहले होता तो राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में जो गड़बड़ियां हुईं वे नहीं होतीं. इस बात से सहमति जताते हुए अरुमुगम कहते हैं कि अगर ऐसा कानून होता तो हाॅकी में भी जो गड़बडि़यां हुईं उसकी नौबत ही नहीं आती. यही बात क्रिकेट पर भी लागू होती है. अगर बीसीसीआई के आर्थिक मामलों में पारदर्शिता होती तो संभवतः आईपीएल के नाम पर अरबों रुपये का हेरफेर नहीं होता.

खेल विकास विधेयक के दूरगामी असर के बारे में अरुमुगम कहते हैं, ‘इससे हर खेल को फायदा होगा. मुझे लगता है कि नए कानून से सबसे ज्यादा फायदा हॉकी को मिलने वाला है क्योंकि अभी देश में खेलों की जो स्थिति है उसके लिए अगर सबसे अधिक कोई चीज जिम्मेदार है तो वह है खेलों का प्रशासन गलत हाथों में होना. अगर खेलों को चलाने का काम खिलाडि़यों के हाथों में आता है और हर स्तर पर पारदर्शिता आती है तो इसका फायदा निश्चित तौर पर खेलों को मिलेगा और इसका असर कुछ ही सालों में अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भारत के अच्छे प्रदर्शन के तौर पर दिखेगा.’­

‘वजन बढ़ने का क, ख, ग, समझेंगे तो बात बनेगी’

मोटापे को लेकर डॉक्टर से प्रायः दो तरह के सवाल पूछे जाते हैं. पहला सवाल- क्या मैं मोटा हूं? डॉक्टर एक स्वयंसिद्घ बात को कैसे कहे? भैया, मोटापा जानने का सबसे सटीक तरीका है कि अपने सारे कपड़े उतारकर आदमकद शीशे के सामने खड़े हो जाएं. अब यदि आप एक ही जगह कदमताल करें तो बदन पर यत्र-तत्र चर्बी की लहरों का उठना गिरना ही आपके प्रश्न का उत्तर दे देगा. दूसरा प्रश्न भी बड़ा आम है कि डॉक्टर साब, मेरा वजन कितना होना चाहिये? यूं डॉक्टर के कमरे में लटके चार्टों-टेबलों में, विशेष कद के लिए ‘आदर्श वजन’ दर्ज हुआ रहता है लेकिन आदर्श वजन का मामला भी इतना सरल नहीं है. साधारण सी बात है कि स्वयं को तब मोटा मान लें जब आपसे अपना ही वजन उठाते न बने, जब इंडियन टॉयलेट में बैठने में नानी मरने लगे.

कैलोरी जलकर शरीर को ऊर्जा देती है. जरूरत से ज्यादा कैलोरी को शरीर चर्बी के रूप में जमाकर मोटापा बढ़ाता है

एक और प्रश्न इस प्रश्न से जुड़ा है. आप डॉक्टर से पूछेंगे ही कि वजन कम कैसे करें? प्रायः डॉक्टर का उत्तर बेहद जटिल, अति संक्षिप्त तथा कठिन वैज्ञानिक शब्दावली में पगा होता है. वह उड़ता-उड़ता सा कह देता है कि शक्कर, आलू, चावल कम करिए, घी-तेल मत खाइए, या इसी तरह की कोई कुहासे में डूबी धुंधलके भरी सलाह. कितना कम? इन चीजों की जगह फिर क्या खाएं? इन प्रश्नों के उत्तर में वह आपको डायटीशियन के पास भेज देगा. डायटीशियन आपको ऐसा जन्मपत्रीनुमा चार्ट थमा देता है जिसमें इतनी सारी हिदायतें रहती हैं कि या तो आपका भोजन अलग से पकाया जायेगा, या फिर पत्नी आपसे तलाक ले लेगी. फिर मोटा आदमी क्या करे?

क्या वह डायटिंग करे जिसकी सलाह उसे हर एैरा-गैरा देता रहता है. परंतु डायटिंग कर रहे किसी आदमी को कभी देखा है आपने? मैं बताता हूं ऐसे आदमी की पहचान. एक मोटा-ताजा, हंसमुख आदमी जो अचानक कुछ दिनों से बेवजह चिड़चिड़ा हो गया हो- जान लें कि डायटिंग पर है. क्या करे बेचारा. वह भूखा है. वह निरंतर भोजन की ही सोचता रहता है और बौखलाया-सा रहता है. तो डायटिंग वह चीज है जो लंबे समय तक नहीं सुहाती. तो फिर क्या किया जाए?

मैं आपको कुछ बुनियादी बातें बता दूं फिर उनके आधार पर आप स्वयं ही तय कर सकेंगे कि अपना वजन कैसे कम करें? इन बुनियादी बातों के बिना वजन कम नहीं कर पाएंगे. जब तक आप ठीक से यह नहीं जानेंगे कि आप जो खा रहे हैं उसमें मोटे तौर पर कितनी कैलोरीज हैं, चर्बी या कार्बोहाइड्रेट आदि कितना है तथा वह खाने के बाद कितनी देर में पचकर आपको ताकत देगा- तब तक आप वजन कम नहीं कर पाएंगे. पहले इस कैलोरीज फैट, प्रोटीन, कार्बो आदि की माया समझ लें.

कैलोरीः कैलोरी काे मान लें, ताकत. जो आप खाते हैं वह शरीर में ईंधन बन जाता है. मानव शरीर का बुनियादी ईंधन है ग्लूकोज. आप जो खाते हैं शरीर उसे ग्लूकोज में बदल कर ही ताकत पैदा कर पाता है. कार्बोहाइड्रेट्स तो सीधे ग्लूकोज में बदल जायेंगे. प्रोटीन तथा चर्बी को भी ग्लूकोज में बदलने का जटिल सिस्टम हमारे लिवर में है जो उस मौके पर काम आता है जब किसी कारण शरीर को ग्लूकोज न मिल रहा हो. भूखे हों, डायबिटीज कंट्रोल में न हो रही हो- ऐसी स्थितियों में.

यह ग्लूकोज, ऑक्सीजन की सहायता से शरीर के इंजन में जलकर जो ऊर्जा पैदा करता है वह कैलोरी कहलाती है. जरूरत से ज्यादा कैलोरी की शरीर को जरूरत नहीं होती. कैलोरी का काम है आपको दौड़ने-भागने की ताकत देना, दिल, दिमाग, किडनी को निरंतर सक्रिय रखना. इससे ज्यादा जो भी होगा, वह अंततः चर्बी में बदलकर शरीर में जमा हो जायेगा. अधिक खाना चर्बी बनकर इकट्ठा होता जाता है और आप मोटे होते जाते हो. यह जानना होगा कि हम ऐसा क्या खाते रहते हैं जिसमें बहुत कैलोरी होती है? यह पता चल जाए तो आप उस पर नियंत्रण करके अपने वजन पर नियंत्रण कर सकते हैं.

कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन तथा फैटः खाने की वैज्ञानिक शब्दावली में ये तीन शब्द बराबर आते हैं. इन्हें समझ लें तो मान लीजिए कि वजन पर नियंत्रण की कुंजी आपके हाथ लग जायेगी. कार्बोहाइड्रेट का मतलब है दो तरह के खाद्य पदार्थ. एक तो सरल कार्बोहाइड्रेट जैसे कि शक्कर, ग्लूकोज, फल आदि. ये इस मायने में सरल हैं कि आपने खाया कि सीधे पंद्रह मिनट से आधे पौन घंटे में ही पचकर रक्त में ग्लूकोज बढ़ा देते हैं. इससे तुरंत शक्ति भी मिलती. दूसरे कार्बोहाइड्रेट जटिल कार्बो कहलाते हैं. ये पचने में एक से दो घंटे लेते हैं. ग्लूकोज ये भी बढ़ाते हैं, पर देर से. इनमें आलू, अरवी, गेहूं, चावल, मटर, फलियां आदि आते हैं.

प्रोटीन दूसरा ग्रुप है. इसे पचने में तीन से चार घंटे लगते हैं. इसीलिए यदि भूख लगी हो तो यह तुरंत मदद नहीं करेगा. खा लोगे, पर भूख बनी रहेगी. इस चक्कर में ज्यादा खा जाओगे. शरीर में प्रोटीन का काम मांसपेशियां बनाना, तथा अन्य तोड़फोड़ को वापस दुरुस्त करना है. मांस, मछली, अंडे की सफेदी, दूध तथा दालों में प्रोटीन होता है. तीसरा ग्रुप है फैट या चर्बी. घी, तेल, मक्खन, मलाई, अंडे, की (पीली) जर्दी आदि में मूलतः यही होता है. इसे खा तो लो पर पचने में आठ घंटे लगेंगे. इसमें कैलोरी तो बहुत है परंतु शरीर इसे सीधे ताकत प्राप्त करने में इस्तेमाल नहीं कर पाता, फिर? यह थोड़े बहुत हार्मोन में इस्तेमाल होने अलावा ज्यादातर चर्बी में बदलकर शरीर में यत्र-तत्र जमा हो जाता है. इतने सारे इस ज्ञान का मतलब क्या हुआ भैया? गुस्सा न हों. इस ज्ञान का संदर्भ तब आएगा जब अगली बार आपको वजन कम करने के एकदम वैज्ञानिक तथा सीधे उपाय बताए जाएंगे. सो इसे याद रखियेगा. तब काम आयेगा. 

यह गूंजता हुआ बेबस गुस्सा

शरद पवार पर हरविंदर सिंह ने थप्पड़ एक बार चलाया, टीवी चैनलों ने सैकड़ों बार दिखाया- और हर बार यह बताते हुए कि यह बहुत बुरा हुआ, लोकतंत्र में ऐसा नहीं होना चाहिए. अण्णा हजारे बड़ी मासूमियत से इसकी निंदा करते हुए भी यह खुशी छिपा नहीं पाए कि एक ही मारा! यानी यह एहसास सबको है कि जो हुआ सो गलत हुआ. लेकिन फिर भी क्या कोई छिपी हुई संतृप्ति है कि हो गया तो ठीक हुआ? वरना इतने अफसोस में होते तो टीवी चैनल इसे इतनी बार दिखाते क्यों? और अगर उन्हें डर होता कि लोग इसे नापसंद करेंगे तो इसे बार-बार तरह-तरह के बहानों में फेंट और लपेट कर पेश क्यों करते रहते?

यह कहावत चाहे जितनी विदेशी और पुरानी हो, लेकिन पूरी तरह सच है कि जनता को वैसे ही नेता मिलते हैं जैसी वह खुद होती है

टीवी चैनलों पर ही नहीं, सबसे पहले प्रतिक्रिया देने और दिखाने वाली सोशल साइटों और तरह-तरह के ब्लॉगों पर भी शरद पवार को लगे थप्पड़ पर कुल मिलाकर चुटकी वाला अंदाज ही है. फेसबुक पर कई लोगों ने सलमान खान की फिल्म दबंग का संवाद कुछ बदल कर दुहराया, ‘थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, चैनलों पर बार-बार दिखाए जाने से डर लगता है.’ अगले दिन संसद में भी इस बात पर चिंता जताई गई कि मीडिया नेताओं की छवि खराब कर रहा है. शरद यादव ने कहा कि एक बार चले थप्पड़ को पचास बार दिखाया गया. लेकिन थप्पड़ की यह आवृत्ति सिर्फ मीडिया का चरित्र ही नहीं, हमारे नेताओं की छवि का सच भी उजागर करती है. बेशक, हमारे नेता लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से चुन कर आए हैं; बेशक, उनमें से बहुत सारे लोग ईमानदार हैं या कम से कम ऐसे बेईमान नहीं जैसी उनकी छवि बना दी गई है, लेकिन कुल मिलाकर जनता और नेता के बीच दूरी है और इस दूरी में आपसी सम्मान का भाव कम, जनता की तरफ से शिकायत और नेता की तरफ से उपेक्षा का भाव ज्यादा है. नेता और जनता के बीच खाऊ-पकाऊ और दिखाऊ कार्यकर्ता हैं जो हर काम वफादारी साबित करने से ज्यादा प्रदर्शित करने की नीयत से करते दिखाई पड़ते हैं और इसलिए अपने नेताओं की मनाही के बावजूद अदालत से निकलते हताश और कुंठित हरविंदर सिंह के साथ हाथापाई करते हैं और महाराष्ट्र की सड़कों पर ताकत दिखाते हैं. सुप्रिया सुले या शरद पवार भी इन्हें सख्ती से नहीं रोकते, क्योंकि उन्हें मालूम है कि इससे उनकी राजनीतिक हैसियत प्रकट होती है.

वैसे यह मामला सिर्फ शरद पवार का नहीं है. चाहें तो याद कर सकते हैं कि इराक में मुंतजेर अल जैदी ने बुश पर जूता फेंक कर एक निजी किस्म के प्रतिरोध की जो सनसनीखेज शुरुआत की उसकी सबसे ज्यादा अनुगूंजें भारत में दिखाई दीं. 1984 की सिख विरोधी हिंसा के बाद की नाइंसाफी से तंग एक पत्रकार जरनैल सिंह ने गृह मंत्री पी चिदंबरम पर जूता उछाला था. उसे उसके अखबार से निकाल दिया गया. लेकिन उसके बाद भी बहाने बदलते रहे हैं, निशाने बदलते रहे हैं, लेकिन जूते-चप्पल भारतीय राजनीति में उछलते रहे हैं.

इन सारी घटनाओं के पीछे एक ही तरह के लोग हैं, एक ही तरह की जमात है जो अपनी समझ, सुविधा और जरूरत के हिसाब से राजनीतिक दल बदलती रहती है

आखिर इसकी वजह क्या है? क्या हमारे नेता बहुत सारे लोगों की निगाह में इस लायक हैं कि उनके साथ ऐसा सलूक हो?  निश्चय ही नहीं, और अगर वे हैं भी तो उसके लिए जिम्मेदार हम हैं, क्योंकि आखिर हम ही तो उन्हें चुन कर संसद और विधानसभाओं में भेजते हैं. फिर यह कहावत चाहे जितनी विदेशी और पुरानी हो, लेकिन पूरी तरह सच है कि जनता को वैसे ही नेता मिलते हैं जैसी वह खुद होती है.

लेकिन जनता और नेता के बीच का रिश्ता वोट की जगह चोट से बनने लगे तो मानना चाहिए कि गड़बड़ी कुछ ज्यादा है. इस गड़बड़ी के कई संगीन पहलू हैं. एक सच्चाई तो यही है कि आम आदमी इन दिनों अपने सार्वजनिक जीवन में अकेला और असहाय हुआ है. वैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं में उसकी आस्था घटी है क्योंकि उसे कहीं से न्याय मिलता नजर नहीं आता. थानों में उसकी रिपोर्ट नहीं लिखी जाती, अदालतों में अच्छा वकील करने लायक पैसे उसके पास नहीं होते, विधानसभाओं और संसद में उसे ऐसे दागदार चेहरे दिखते हैं जिनके खिलाफ वह शिकायत तक नहीं कर पाता. इस बेचारगी का दूसरा सिरा इस हकीकत से जुड़ता है कि उसकी मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं, उसके अभाव बड़े होते जा रहे हैं और दूसरों की संपन्नता उसका मुंह चिढ़ाती जा रही है. इन सबके बीच हताशा और कुंठा की ऐसी घड़ियां बहुत संभव हैं जिनमें इन सबके लिए जिम्मेदार लोगों को थप्पड़ लगाने की इच्छा पैदा हो और कभी कोई दुस्साहसी शख्स ऐसा कर भी डाले. फिर दुहराना होगा कि यह हरविंदर सिंह के किए की कैफियत नहीं है, लेकिन यह समझना जरूरी है कि हमारे समाज में हरविंदर जैसे शख्स क्यों बढ़ रहे हैं.

इस संकट का एक पहलू और है. हमारे समाज में हिंसा की स्वीकृति बढ़ी है. कहने को हमारी सरकारें आतंकवाद और नक्सलवाद सबसे लड़ने की बात करती हैं, सबकी भर्त्सना करती हैं, लेकिन उनके अपने बरताव में, हमारी राजनीतिक और सार्वजनिक चर्या में हिंसा इतने सूक्ष्म और स्थूल रूपों में विद्यमान है कि उससे आंख चुराना संभव नहीं है. बल्कि जो ताकतवर लोग हैं वे इस हिंसा की बहुत कुत्सित अभिव्यक्ति में लिप्त पाए जाते हैं. ज्यादा दिन नहीं हुए जब फूलपुर में राहुल गांधी की रैली के दौरान उन्हें काला झंडा दिखाने आए एक शख्स की सार्वजनिक पिटाई हुई. इस पिटाई में आम लोग नहीं, राहुल गांधी के सबसे करीबी रहने वाले नेता और मंत्री शामिल थे. किसी ने इस पिटाई पर अफसोस नहीं जताया, उल्टे वे बताते रहे कि जब बाकी एजेंसियां फेल हो गईं तो कैसे उन्होंने बहादुरी दिखाते हुए अपने राहुल गांधी की रक्षा की.

निश्चय ही यह हिंसक बरताव का बहुत शाकाहारी उदाहरण है. इसके कहीं ज्यादा गंभीर और डरावने उदाहरणों की कमी नहीं. कुछ ही महीने पहले कश्मीर पर प्रशांत भूषण के रुख से नाराज एक दक्षिणपंथी संगठन के लोगों ने उनके चैंबर में घुसकर उन पर हमला किया, उनके साथ मारपीट की. पेंटिंगों और नाटकों पर हमलों का भी जैसे एक पूरा सिलसिला है. इन सबके शिखर 1984 की हिंसा से लेकर 2002 के गुजरात दंगे तक दिखाई पड़ते हैं. इन दोनों के लगभग बिल्कुल बीच पड़ने वाला बाबरी मस्जिद ध्वंस भी हमारे लोकतंत्र विरोधी हिंसक व्यवहार की एक वेधक पुष्टि भर है.

आम तौर पर इन घटनाओं को दलगत नजरिये से देखने के आदी हम पाते और बताते हैं कि एक घटना एक पार्टी विशेष के समय हुई तो दूसरी घटना दूसरी पार्टी के समय. जबकि सच्चाई यह है कि इन सारी घटनाओं के पीछे एक ही तरह के लोग हैं, एक ही तरह की जमात है जो अपनी समझ, सुविधा और जरूरत के हिसाब से अपने राजनीतिक दल बदलती रहती है. मूलतः यह हिंसक प्रतिक्रियावाद किसी भी तरह के नए विचार के विरुद्ध ज्यादा दिखता है और जब उसे अपनी जड़ों पर चोट होती लगती है, तो वह ज्यादा खौफनाक हो उठता है. लेकिन इसके मूल में छिपा पाखंड- चाहे वह धार्मिकता का हो या देशभक्ति का या फिर अहिंसा और सदाचार का- वह छिपा नहीं रह पाता.

दरअसल थप्पड़ जैसे दुस्साहसी प्रयत्न की तीसरी वजह इस पाखंड से भी निकलती है. इस देश में धीरे-धीरे आदमी समझता जाता है कि वह कई पाखंडों के बीच जी रहा है- सदाचार का पाखंड, न्याय का पाखंड, कानूनी समानता का पाखंड और इन सबसे बढ़कर लोकतंत्र की आम सहमति का पाखंड. यह पाखंड फिर उसे ऐसे दुष्चक्र में धकेलता है कि उसका किसी व्यवस्था पर भरोसा बचा ही नहीं रहता. वह अंततः सनसनी का सहारा लेता है और इस आखिरी उम्मीद में चप्पल या थप्पड़ चलाता है कि कम से कम इसकी गूंज सुनी तो जाएगी. लेकिन थप्पड़ पर भी एक आम सहमति बनी दिखती है. इसमें दूसरों के प्रति निंदा भाव तो मिलता है, लेकिन अपने सख्त आत्मालोचन की जरूरत नहीं दिखती. नेता जैसे धूल झाड़कर आगे बढ़ जाते हैं- इस बात से आश्वस्त कि थप्पड़ मारने वालों से उनके कार्यकर्ता निपट लेंगे या ऐसे लोगों से उनके राजनीतिक भविष्य पर कोई आंच नहीं आएगी.

जहां तक मीडिया के अपने व्यवहार का सवाल है, उसके अपने असंतुलन छिपे हुए नहीं हैं. लेकिन जनता की नब्ज पर उसका हाथ कम से कम अपने नेताओं के मुकाबले कहीं ज्यादा है. उसे यह बात अच्छी तरह समझ में आती है कि ऐसे चप्पल और थप्पड़ वाले दृश्य वह जितना दिखाएगा, जनता उतना ही देखेगी. दुर्भाग्य से वह अपने नेताओं को प्रेम से कम, हिकारत से ज्यादा देखने की आदी हो गई है. ऐसा नहीं कि यह भारतीय मीडिया का ही मिजाज हो. चाहें तो याद कर सकते हैं कि बुश पर चले जूते को पश्चिम के मीडिया ने कितनी बार और कितनी तरह से दिखाया था. उसकी मिनटों और घंटों में गिनती हो रही थी और उस पर रातों-रात वीडियो गेम तैयार कर लिए गए. अमेरिका ने जैदी के जिस जूते को नष्ट कर दिया वह साइबर संसार में पूरी ढिठाई के साथ स्थापित और अमर हो गया.

उन्हीं दिनों हिंदी की मशहूर उपन्यासकार अलका सरावगी ने ‘जनसत्ता’ में अपने साप्ताहिक स्तंभ में एक टिप्पणी करते हुए लिखा था कि मीडिया पर दृश्यों का दुहराव देखकर अक्सर कोफ्त होती है, लेकिन बुश पर जूता उछाले जाने का दृश्य जब भी चलता है, तब यह उम्मीद पैदा होती है कि इस बार तो जूता लग जाएगा. यहां तो किसी उम्मीद की जरूरत भी नहीं. थप्पड़ लग चुका है, बस उसे दिखाने का बहाना चाहिए. 

अपराध और दंड

अकसर देखा गया है कि चैनलों को दूसरों के दुख या परेशानी या कष्ट की खिल्ली उड़ाने में बहुत मजा आता है. लेकिन कहते हैं कि कभी-कभी ऊंट भी पहाड़ के नीचे आ जाता है.  सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पीबी सावंत द्वारा दाखिल मानहानि के मुकदमे में पुणे की एक स्थानीय अदालत ने ‘टाइम्स नाउ’ पर 100 करोड़ रु का जुर्माना ठोंक दिया है. यही नहीं, इस फैसले के खिलाफ मुंबई हाई कोर्ट में ‘टाइम्स नाउ’ की अपील पर कोर्ट ने कोई राहत देने से पहले चैनल से कोर्ट में 20 करोड़ रु और 80 करोड़ रु की बैंक गारंटी जमा करने का आदेश दिया है. चैनल ने इसके बाद राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की जिसे कोर्ट ने यह कहकर खारिज कर दिया कि वह राहत के लिए हाई कोर्ट के पास ही जाए. कहने की जरूरत नहीं है कि इस फैसले ने न्यूज चैनलों के साथ-साथ सभी समाचार माध्यमों को सन्न कर दिया है. एडिटर्स गिल्ड से लेकर प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू तक अनेक मीडिया संगठनों और अरुण जेटली जैसे इक्का-दुक्का नेताओं ने भी इस फैसले की आलोचना की है.

यह संयोग नहीं कि अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार के लिए लड़ने वाली चर्चित आवाजें इस मुद्दे पर खामोश हैं 

लेकिन विरोध के सुर बहुत तीखे नहीं बल्कि दबे-दबे और कुछ सहमे-सहमे से हैं. विरोध में औपचारिकता अधिक है. यही नहीं, इस फैसले का विरोध जुर्माने की भारी राशि को लेकर ज्यादा है. सभी मान रहे हैं कि ‘टाइम्स नाउ’ से गलती हुई है और वह गलती जान-बूझकर नहीं हुई है. ऐसे में, वे हर्जाने की इतनी भारी राशि को पचा नहीं पा रहे हैं. रिपोर्टों के मुताबिक, मानहानि के किसी मुकदमे में यह पहला ऐसा मामला है जहां इतनी बड़ी राशि का हर्जाना ठोंका गया है.

लेकिन ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अलग-अलग कारणों से ‘टाइम्स नाउ’ पर ठोंके गए इस हर्जाने से अंदर ही अंदर खुश हैं. बहुतों को इसमें एक तरह का ‘परपीड़क सुख’ मिल रहा है. यही कारण है कि देश में अभिव्यक्ति और प्रेस की आजादी के लिए गंभीर और गहरे निहितार्थों से भरे इस फैसले को लेकर वैसी बहस और चर्चा नहीं हो रही है, जैसी कि अपेक्षा थी. यह संयोग नहीं है कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार के लिए लड़ने और बोलने वाली चर्चित आवाजें इस मुद्दे पर खामोश हैं या उतनी मुखर नहीं हैं जितनी अकसर दिखाई पड़ती हैं.

पुणे कोर्ट का फैसला सिर्फ ‘टाइम्स नाउ’ तक सीमित मामला नहीं है. यह एक तरह से टेस्ट केस है. अगर यह नजीर बन गया तो अखबारों और चैनलों का आजादी और निर्भीकता के साथ काम करना बहुत मुश्किल हो जाएगा. इसका सबसे अधिक फायदा ताकतवर लोग और कंपनियां उठाएंगी. वे इस फैसले का दुरुपयोग चैनलों और न्यूज मीडिया को धमकाने और उनका मुंह बंद करने के लिए करने लगेंगे. आश्चर्य नहीं होगा अगर इस फैसले से प्रेरणा लेकर ताकतवर राजनेता, अफसर, कारोबारी और कंपनियां सिर्फ परेशान करने के लिए चैनलों और अखबारों पर मुकदमे ठोकने लगें. कितने अखबार और चैनल ये मुकदमे लड़ने के लिए संसाधन जुटा पाएंगे? आखिर कितने चैनल और अखबार 100 करोड़ रु का हर्जाना देकर चलते और छपते रह सकते हैं? ब्रिटेन और अमेरिका जैसे कई विकसित देशों में कड़े मानहानि कानूनों के कारण पत्रकारिता के तेवर पर असर पड़ा है. समाचार कक्षों में वकील नए गेटकीपर बन गए हैं. खबरों को संपादकों के साथ-साथ वकीलों के चश्मे से भी गुजरना पड़ता है. इससे एक तरह की सेल्फ सेंसरशिप की स्थिति पैदा हो जाएगी जो वॉचडाॅग पत्रकारिता के लिए घातक साबित हो सकती है.

लेकिन यह कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि चैनलों को मनमानी करने, जान-बूझकर किसी पर कीचड़ उछालने और लापरवाही करने की छूट देनी चाहिए. निश्चय ही, चैनलों को खबरों और विजुअल के चयन और प्रस्तुति में तथ्यों, वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता जैसे संपादकीय मूल्यों के पालन पर जोर देना चाहिए. लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि तमाम सावधानियों के बावजूद समाचार संकलन और माध्यम के साथ-साथ पत्रकारों की सीमाओं के कारण चैनलों से गलतियां होना असामान्य बात नहीं है. अलबत्ता, ध्यान दिलाने पर उन गलतियों खासकर तथ्यों संबंधी भूलों को तुरंत दुरुस्त न करना कहीं बड़ी गलती है जो चैनल की बदनीयती को जाहिर करता है. ऐसे मामलों में कानून को अपना काम करना चाहिए. लेकिन अपराध और सजा के बीच भी कोई अनुपात, संतुलन और तर्क होना चाहिए. ‘टाइम्स नाउ’ के मामले में अदालत के फैसले में यह संतुलन और अनुपात नहीं है.

लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. अभिव्यक्ति और प्रेस की आजादी की दुहाइयां देने वाले चैनलों को यह जवाब जरूर देना चाहिए कि वे खुद अपने आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए मानहानि कानून की धमकी क्यों देने लगते हैं. ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें ‘टाइम्स नाउ’ जैसे बड़े चैनलों ने मीडिया साइटों और ब्लॉग लेखकों को कानूनी नोटिस भेजे हैं. आखिर उनमें अपनी आलोचना सुनने को लेकर इतनी तंगदिली क्यों है? क्या यह दोहराने की जरूरत है कि जो दूसरों की आजादी के हक में नहीं खड़ा होता उसे अपनी आजादी को गंवाने के लिए तैयार रहना चाहिए?     

सिनेमाई समझ वाला रॉकस्टार

रॉकस्टार के शुरुआती दृश्य में रणबीर कपूर रोम की गलियों में भटकते हुए कुछ लोगों से पिटते दिखते हैं. फिर वे बचकर भागते हैं और जल्दी में एक बस की सवारी लेकर अपने कंसर्ट में पहुंचते हैं. वहां पहुंचकर वे आयोजनस्थल पर लगे बैरीकेडों को लात मार कर भीतर घुसते हैं, प्रशंसकों के गगनभेदी शोर के बीच अपने आपको कामचलाऊ तरीके से व्यवस्थित करते हैं और गुस्से में भरा चेहरा ताने माइक की तरफ बढ़ आते हैं. इस एक सीन में आप रणबीर कपूर को एक बेचैन एंग्री यंग मैन के किरदार को आत्मसात करते हुए देख सकते हैं.

‘ मैं आदर्श फिल्मी हीरो जैसे रोल नहीं कर सकता क्योंकि वे मेरे लिए स्वाभाविक नहीं हैं. मुझे राज कपूर की श्री 420 जैसी फिल्में ही पसंद आती हैं. मुझे किरदार का फालतू रहना और व्यर्थ समय गंवाना अच्छा लगता है ‘

रॉकस्टार उस विचार को फिल्माती है जो कहता है कि टूटे हुए दिल से ही संगीत निकलता है. नायक जनार्दन जाखड़ (या जार्डन) के पास सृजनात्मकता भी इसी फलसफे से आती है जिसके बाद वह अकसर बेचैनी में स्टेज पर जोर-जोर से तब तक चिल्लाता है जब तक वह थक कर चूर नहीं हो जाता. जार्डन के इस बेचैन और उग्र किरदार के ठीक विपरीत 29 साल का यह अभिनेता अपने गुस्से और बेचैनी को दरकिनार करके अपना पूरा ध्यान अभिनय पर केंद्रित करना चाहता है. मुंबई के चांदीवली स्टूडियो में अपनी अगली फिल्म बर्फी की शूटिंग में व्यस्त रणबीर कपूर पक्के पेशेवर की तरह पेश आते हैं जो मृदुभाषी और शिष्ट होने के साथ ही सहज भी है. एक मुश्किल सीन को आसानी से सिर्फ एक बार में ओके करने के बाद भी 20वें शॉट तक लगातार बिना विचलित हुए रीटेक देना, सिर्फ इसलिए कि दूसरे को-स्टार भी अपना बेहतर दे सकें, एक पेशेवर अभिनेता होने की ही निशानी है.

रणबीर कपूर के पास ऐसा आकर्षक व्यक्तित्व है जो लोगों को अपनी तरफ खींचता है और साथ ही एक ऐसा चेहरा भी जो अलग-अलग हाव-भावों को आसानी से पर्दे पर उकेर सकता है. शॉट खत्म होने के बाद रणबीर  अपने में व्यस्त हो जाते हैं. कभी ब्लैकबेरी के साथ तो कभी आई-पैड पर पसंदीदा गेम के साथ. रणबीर से मिलने पर आपको दो चीजें चकित करती हैं. एक उनका कुछ ज्यादा ही सपाट शरीर और दूसरा उनके सुर्ख लाल होंठ जो उनके अंकल शम्मी कपूर की याद दिलाते हैं.

2007 में आई सांवरिया और 2008 की बचना ऐ हसीनों की साधारण शुरुआत के बाद रणबीर ने 2009 में तीन अलग-अलग तरह की फिल्मों से अपनी पहचान मजबूत की थी. शहरी युवाओं की समस्याएं दिखाती वेक अप सिड हो या अनोखी अजब प्रेम की गजब कहानी या फिर सच्चाई दर्शाती राकेट सिंह, सभी में रणबीर ने जमीन से जुड़े किरदार निभा कर लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा. इन सभी फिल्मों में वे अपनी दिलचस्प कॉमिक टाइमिंग और नाटकीयता के लिए तारीफें बटोर ले गए. इसके बाद आई फिल्म राजनीति में उनके निर्जीव चेहरे ने उनके प्रशंसकों के एक वर्ग को निराश किया मगर रॉकस्टार में अपनी पीढ़ी का यह सबसे बेहतरीन अभिनेता यह दिखा जाता है कि वह गंभीर सिनेमा भी कर सकता है.

‘मैं कभी किसी शादी में नहीं नाचूंगा. किसी समारोह में जाकर फीता नहीं काटूंगा. कभी फेयरनेस क्रीम, सिगरेट या शराब का एड नहीं करूंगा’

अभी तक की अपनी आठ फिल्मों में रणबीर ने पढ़े-लिखे युवा की भूमिका ही निभाई है. कारण बताते हुए रणबीर कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता कि मेरा व्यक्तित्व सुपरहीरो वाला है. मैं आदर्श फिल्मी हीरो जैसे रोल नहीं कर सकता क्योंकि वे मेरे लिए स्वाभाविक नहीं हैं. मुझे राज कपूर की श्री 420 जैसी फिल्में पसंद आती हैं. मुझे किरदार का फालतू रहना और व्यर्थ समय गंवाना पसंद आता है. अगर मैं कसरत करने के लिए वजन उठाने वाले सीन में कुछ नया नहीं कर पाता तो उसमें हास्य जोड़ देता हूं, थोड़ा अनाड़ीपन ले आता हूं, वही मुझे बचा ले जाता है.’

फिल्मी परिवार में पले-बढ़े होने के कारण रणबीर फिल्मों की रिलीज के वक्त चिंतित नहीं होते लेकिन जब पिता ऋषि कपूर उनकी फिल्म देखते हैं तब रणबीर जरूर बेचैन होते हैं. वे बताते हैं, ‘मुझे सबसे ज्यादा घबराहट तब होती है जब मेरे पिता मेरी फिल्म देखते हैं. अभी तक उन्होंने सिर्फ दो फिल्में देखी हैं. हाल ही में मैंने उनके साथ एक ऐड फिल्म की थी और मैं बहुत डरा हुआ था क्योंकि मैं जानता था कि अगर मैंने खराब अभिनय किया तो वे इकलौते इंसान हैं जो यह बात आसानी से पकड़ लेंगे और फिर शायद वह यह मान कर चलंे कि मैं हमेशा से ही बुरा अभिनेता था.’ जब रणबीर का जन्म हुआ था तो पंजाब के एक फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर ने उनके दादा राजकपूर को एक टेलीग्राम भेजा था. इसमें लिखा था कि इंडस्ट्री में एक नये हीरो का स्वागत है. पिछले कुछ सालों से रणबीर कपूर को अगले सुपरस्टार की तरह पेश किया जा रहा है. और इस बात से रणबीर वाकिफ भी हैं और सीधे तौर पर स्वीकार भी करते हैं कि ऐसा वे हमेशा से चाहते थे. वे कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि मैं प्रतिभाशाली हूं. मुझमें वह प्रतिभा है जो मुझे इस देश का सबसे बेहतरीन अभिनेता बना सके. और मैं यह भी जानता हूं कि इसके लिए मेरे पास काफी सारा अच्छा काम होना चाहिए, ढेरों साल होने चाहिए और इस दौरान मुझे कई तरह के त्याग भी करने होंगे, मगर मैं इन सबके लिए तैयार हूं. मैंने अपने आपको इसके लिए ही तैयार किया है. मेरे आदर्श राज कपूर हैं लेकिन मैं उनसे भी बेहतर करना चाहता हूं. वे मेरे दादा थे और सभी अभिनेताओं में सर्वश्रेष्ठ थे, लेकिन अब वक्त है कि कोई उनसे भी बड़ा अभिनेता और बड़ा निर्देशक आए. यही मेरी महत्वाकांक्षा है.’

रॉकस्टार इसी महत्वाकांक्षा का परिणाम है. चाॅकलेटी हीरो का किरदार करते-करते रणबीर यहां तक तो आ गए लेकिन अब वे बदलाव चाहते हैं. अपनी इस अभिलाषा को बताते हुए रणबीर कहते हैं, ‘अंजाना-अंजानी करने के बाद मैं उस छवि से उकता गया था. अब रॉकस्टार और बर्फी के साथ मैं एक युवा लड़के से युवा आदमी के किरदार की तरफ बढ़ रहा हूं.’ न्यूयॉर्क से फिल्म और ऐक्टिंग स्कूल से पढ़ाई करके लौटने के बाद रणबीर ने परंपरा का सम्मान करते हुए घुड़सवारी, डांस, ऐक्शन और उच्चारण की क्लास ली. लेकिन आज अभिनय की परिभाषा के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘ज्यादातर लोगों को यह गलतफहमी होती है कि अभिनय का मतलब बॉडी बनाना और डांस क्लास में जाना होता है यानी अगर आप दिखने में अच्छे हैं तो आप हीरो बन जाएंगे. मगर अभिनेता बनना उसके आगे की चीज है. आप अपनी जिंदगी में जो कुछ इकट्ठा करते हैं, कभी समझदार बनकर, कभी भावुक होकर और कभी संवेदना के साथ…वह सब एक कलाकार का खजाना होता है. क्योंकि इसके बाद जब आप सेट पर अभिनय करने जाते हैं तो आपके पास देने के लिए बहुत कुछ होता है. अगर आप सिर्फ ऊपर-ऊपर से अभिनय करेंगे तो अभिनेता के तौर पर आपकी उम्र लंबी नहीं हो पाएगी क्योंकि लोग आपका बनावटी अभिनय पकड़ लेंगे.’

रणबीर की शैली देखकर आप समझ सकते हैं कि वे अमेरिकी कला से किस कदर प्रभावित हैं. वे इस बात पर जोर देते हैं कि एक निर्देशक की अपने अभिनेता के साथ बढ़िया छननी चाहिए. इम्तियाज अली के साथ उनकी निकटता इसका ताजा उदाहरण है. फिल्म के लिए उनकी तैयारियां भी उनके इस अमेरिकी प्रभाव को जाहिर करती है. वे कहते हैं, ‘रॉकस्टार के लिए हमलोगों ने जनार्दन को तंग जींस और स्वेटर दिए ताकि उसे एक खास चाल दी जा सके. अपने किरदारों के लिए मैं जूतों का काफी उपयोग करता हूं. वेक अप सिड के लिए मैंने ढीले जूते पहने जिससे यह लगे कि यह आलसी बंदा है जो जूते जमीन से रगड़-रगड़ के चलता है. राजनीति के लिए मैंने तंग जूते पहने. यहां तक कि उसमें पत्थर तक डाले ताकि किरदार को असुविधा का अनुभव हो. साथ ही मैं हर फिल्म में अलग-अलग परफ्यूम का उपयोग करता हूं क्योंकि पुरानी खुशबू आपको पुराने वक्त के किरदार में ले जाती है जिससे आज ध्यान केंद्रित करने में मुश्किल होती है.’

एक तरफ जहां रणबीर अपने अभिनय को जीवंत करने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाते हैं वहीं वे मेथड ऐक्टिंग और विस्तृत स्क्रिप्ट के पक्ष में नहीं हैं. वजह बताते हुए कहते हैं, ‘राॅकस्टार में एक अभिनेता के तौर पर यह मेरी जिम्मेदारी थी कि मैं नौसिखिए की तरह गिटार न बजाऊं, ताकि दर्शक मेरे किरदार के साथ खुद को जोड़ पाएं और बेवजह उनका ध्यान मेरे गिटार बजाने की तरफ न जाए. इस तरह की तैयारी आपका काम है और इसमें बहुत समझदार होने की जरूरत नहीं है. किरदार को जानने के लिए मैं उसका इतिहास वगैरह जानना जरूरी नहीं समझता. किरदार की आत्मा, सतहीपन, गहराई जैसी चीजों को समझने के लिए उस किरदार को जान लेना भर काफी होता है.’

रणबीर की इन स्पष्ट और समझदारी भरी बातों के पीछे यह व्यावहारिक ज्ञान भी छिपा है कि अभिनय दूसरों की बातों को समझना और उसे परदे पर उतारना है. वे कहते हैं, ‘आपके अंदर समर्पण का भाव होना चाहिए. मेरे खयाल से यह सबसे ज्यादा जरूरी है. अपने काम के प्रति समर्पण. टैलेंट का यही मतलब होता है शायद. मुझे समर्पण करने से डर नहीं लगता. मुझे इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि लोग मुझे बेवकूफ समझें, मेरे निर्देशक मुझ पर चिल्लाएं या लोग मुझ पर हंसें. क्योंकि मेरे काम का यही तकाजा है. मैं शारीरिक और मानसिक तौर पर बेशर्म हूं. मैंने अपनी पहली ही फिल्म में तौलिया गिराने वाला सीन दिया था, कहा जाए तो मैं पूरी तरह से नंगा था, लेकिन मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं हुई. मानसिक तौर पर अगर कोई मुझे ऐसी जगह ले जाना चाहता है जहां बेइंतहा दर्द हो तो मैं उसका अनुभव करने के लिए एकदम से तैयार हो जाऊंगा.’

रणबीर के आत्मविश्वास और अभिनय का संबंध कुछ हद तक अपने शरीर को लेकर उनकी सोच से भी है. गठीले शरीर वाले स्टारों से अलग सोचने वाले रणबीर कहते हैं, ‘अगर मैं बॉडी बनाऊंगा तो मैं हर किरदार में रणबीर रहूंगा, किरदार नहीं. मुझे पूर्णता पसंद नहीं है क्योंकि यह आपको अवास्तविक बना देती है. मुझे त्रुटियां पसंद हैं न कि खूबसूरत चेहरे या गठीला शरीर.’ रणबीर ने अपने गाल पर मौजूद निशान मिटाने से मना कर दिया था जबकि मीडिया अभी भी उस निशान को फोटो पर से हटा देता है. रणबीर को डेविएटेड सेप्टम नाम की तकलीफ है जिसके चलते उन्हें मुंह से सांस लेनी पड़ती है. लेकिन रणबीर ने उसका आॅपरेशन कराने से भी मना कर दिया क्योंकि वे इस स्थिति के साथ सहज हैं. इस दिक्कत की वजह से रणबीर तेज सांसें लेते हैं और जल्दी खाना खाते हैं. और शायद इसीलिए वे हमेशा गतिमान भी रहते हैं.

अपने रिश्तों को लेकर भी रणबीर सुर्खियों में रहते हैं. दीपिका पादुकोण के साथ उनके रिश्ते की काफी चर्चा हुई. इसके खत्म होने के बाद भी उन्हें लेकर अटकलें लगती रहती हैं. सवाल उछलते रहते हैं. जैसे कि, क्या रणबीर ने सोनम कपूर को डेट किया? या नरगिस फाखरी को? मीडिया और पीआर ने रणबीर की एक ऐसी छवि बनाई है जिसमें वे एक साथ दिलफेंक आशिक और मां के लाडले जैसे नजर आते हैं. वैसे जब रणबीर से यह सवाल किया गया कि हीरोइनों के साथ उनके रिश्तों को लेकर उड़ती अफवाहों, लोगों का उन्हें दिलफेंक आशिक बताना और उनका नई हीरोइनों के प्रति आकर्षित होना जैसे आरोपों से वे परेशान नहीं होते, तो उनका जवाब लाजवाब करने वाला था, ‘इनमें से ज्यादातर बातें सच हैं. मैं यह नहीं कहूंगा कि सभी झूठ हैं. मगर लोग इन बातों को बढ़ा-चढ़ा कर और ग्लैमर के साथ बताते हंै. मैं हमेशा इन बातों का बुरा नहीं मान सकता क्योंकि मैं जानता हूं कि यह सच है.’ वे आगे कहते हैं, ‘यह एक गलत धारणा है कि ऐक्टर कुछ ज्यादा ही डेट करते हैं. असल में उन्हें जो महिलाएं मिलती हैं वे फिल्म सेटों पर ही मिलती हैं. अभिनेत्रियां, कॉस्ट्यूम डिजाइनर, स्टाफ वगैरह-वगैरह. शायद इसीलिए ज्यादातर अभिनेताओं की शादी अभिनेत्रियों से ही होती है.’ बहुत-से बड़े ब्रांडों का विज्ञापन करने वाले रणबीर इस बात को लेकर कतई असमंजस में नहीं हैं कि पैसा ही सब कुछ नहीं होता. वे कहते हैं, ‘मैं कभी किसी शादी में नहीं नाचूंगा. किसी समारोह में जाकर फीता नहीं काटूंगा. मैं नहीं चाहता कि मैं अपने बच्चों के लिए करोड़ों का बैंक बैलेंस इकट्ठा करूं जिसे वे लॉस वेगस के जुआघरों में उड़ाएं.’ वे यह भी बताते हैं कि वे कभी फेयरनेस क्रीम, सिगरेट और शराब के विज्ञापन नहीं करेंगे. साथ ही रणबीर को लगता है कि अभिनेताओं को अपना सेलिब्रिटी स्टेटस चैरिटी या कहें तो परोपकार के कामों में इस्तेमाल करना चाहिए.

मगर आखिर में रणबीर के लिए सब कुछ फिल्मों पर आकर ही रुकता है. वे कहते हैं कि वे एक दिन में दो फिल्में देखते हैं. क्रिस्टोफर नोलन की इन्सेप्शन जहां रणबीर को खास प्रभावित नहीं कर पाई वहीं जिंदगी न मिलेगी दोबारा उन्हें काफी अच्छी लगी. फिलहाल उन्होंने तय किया है कि वे साल में सिर्फ दो फिल्मों तक ही सीमित रहेंगे. रणबीर का यह भी मानना है कि उनकी सफलता का कुछ लेना-देना इस बात से भी है कि वे सही वक्त पर सही जगह पर थे. वे कहते हैं, ‘मेरा आना ऐसे वक्त पर हुआ जब आगे की पांत वाले कुछ हीरो एक उम्र के आगे निकल गए थे. इसलिए नौजवानों वाली कई भूमिकाएं मेरे खाते में आ गईं.’
स्टारडम की इस चमक के आगे क्या जिंदगी की छोटी-छोटी खुशियां मिस नहीं करते, मसलन अपनी कार से कहीं घूमने जाना या फिर दोस्तों के साथ वक्त बिताना? इस सवाल पर रणबीर कहते हैं कि उन्हें समझ में नहीं आता दोनों जिंदगियों में कैसे संतुलन बैठाया जाए. वे कहते हैं, ‘चाहता तो हूं यह सब करना लेकिन अभी इतना फंसा हूं कि निकल नहीं सकता.’