यह गूंजता हुआ बेबस गुस्सा

शरद पवार पर हरविंदर सिंह ने थप्पड़ एक बार चलाया, टीवी चैनलों ने सैकड़ों बार दिखाया- और हर बार यह बताते हुए कि यह बहुत बुरा हुआ, लोकतंत्र में ऐसा नहीं होना चाहिए. अण्णा हजारे बड़ी मासूमियत से इसकी निंदा करते हुए भी यह खुशी छिपा नहीं पाए कि एक ही मारा! यानी यह एहसास सबको है कि जो हुआ सो गलत हुआ. लेकिन फिर भी क्या कोई छिपी हुई संतृप्ति है कि हो गया तो ठीक हुआ? वरना इतने अफसोस में होते तो टीवी चैनल इसे इतनी बार दिखाते क्यों? और अगर उन्हें डर होता कि लोग इसे नापसंद करेंगे तो इसे बार-बार तरह-तरह के बहानों में फेंट और लपेट कर पेश क्यों करते रहते?

यह कहावत चाहे जितनी विदेशी और पुरानी हो, लेकिन पूरी तरह सच है कि जनता को वैसे ही नेता मिलते हैं जैसी वह खुद होती है

टीवी चैनलों पर ही नहीं, सबसे पहले प्रतिक्रिया देने और दिखाने वाली सोशल साइटों और तरह-तरह के ब्लॉगों पर भी शरद पवार को लगे थप्पड़ पर कुल मिलाकर चुटकी वाला अंदाज ही है. फेसबुक पर कई लोगों ने सलमान खान की फिल्म दबंग का संवाद कुछ बदल कर दुहराया, ‘थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, चैनलों पर बार-बार दिखाए जाने से डर लगता है.’ अगले दिन संसद में भी इस बात पर चिंता जताई गई कि मीडिया नेताओं की छवि खराब कर रहा है. शरद यादव ने कहा कि एक बार चले थप्पड़ को पचास बार दिखाया गया. लेकिन थप्पड़ की यह आवृत्ति सिर्फ मीडिया का चरित्र ही नहीं, हमारे नेताओं की छवि का सच भी उजागर करती है. बेशक, हमारे नेता लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से चुन कर आए हैं; बेशक, उनमें से बहुत सारे लोग ईमानदार हैं या कम से कम ऐसे बेईमान नहीं जैसी उनकी छवि बना दी गई है, लेकिन कुल मिलाकर जनता और नेता के बीच दूरी है और इस दूरी में आपसी सम्मान का भाव कम, जनता की तरफ से शिकायत और नेता की तरफ से उपेक्षा का भाव ज्यादा है. नेता और जनता के बीच खाऊ-पकाऊ और दिखाऊ कार्यकर्ता हैं जो हर काम वफादारी साबित करने से ज्यादा प्रदर्शित करने की नीयत से करते दिखाई पड़ते हैं और इसलिए अपने नेताओं की मनाही के बावजूद अदालत से निकलते हताश और कुंठित हरविंदर सिंह के साथ हाथापाई करते हैं और महाराष्ट्र की सड़कों पर ताकत दिखाते हैं. सुप्रिया सुले या शरद पवार भी इन्हें सख्ती से नहीं रोकते, क्योंकि उन्हें मालूम है कि इससे उनकी राजनीतिक हैसियत प्रकट होती है.

वैसे यह मामला सिर्फ शरद पवार का नहीं है. चाहें तो याद कर सकते हैं कि इराक में मुंतजेर अल जैदी ने बुश पर जूता फेंक कर एक निजी किस्म के प्रतिरोध की जो सनसनीखेज शुरुआत की उसकी सबसे ज्यादा अनुगूंजें भारत में दिखाई दीं. 1984 की सिख विरोधी हिंसा के बाद की नाइंसाफी से तंग एक पत्रकार जरनैल सिंह ने गृह मंत्री पी चिदंबरम पर जूता उछाला था. उसे उसके अखबार से निकाल दिया गया. लेकिन उसके बाद भी बहाने बदलते रहे हैं, निशाने बदलते रहे हैं, लेकिन जूते-चप्पल भारतीय राजनीति में उछलते रहे हैं.

इन सारी घटनाओं के पीछे एक ही तरह के लोग हैं, एक ही तरह की जमात है जो अपनी समझ, सुविधा और जरूरत के हिसाब से राजनीतिक दल बदलती रहती है

आखिर इसकी वजह क्या है? क्या हमारे नेता बहुत सारे लोगों की निगाह में इस लायक हैं कि उनके साथ ऐसा सलूक हो?  निश्चय ही नहीं, और अगर वे हैं भी तो उसके लिए जिम्मेदार हम हैं, क्योंकि आखिर हम ही तो उन्हें चुन कर संसद और विधानसभाओं में भेजते हैं. फिर यह कहावत चाहे जितनी विदेशी और पुरानी हो, लेकिन पूरी तरह सच है कि जनता को वैसे ही नेता मिलते हैं जैसी वह खुद होती है.

लेकिन जनता और नेता के बीच का रिश्ता वोट की जगह चोट से बनने लगे तो मानना चाहिए कि गड़बड़ी कुछ ज्यादा है. इस गड़बड़ी के कई संगीन पहलू हैं. एक सच्चाई तो यही है कि आम आदमी इन दिनों अपने सार्वजनिक जीवन में अकेला और असहाय हुआ है. वैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं में उसकी आस्था घटी है क्योंकि उसे कहीं से न्याय मिलता नजर नहीं आता. थानों में उसकी रिपोर्ट नहीं लिखी जाती, अदालतों में अच्छा वकील करने लायक पैसे उसके पास नहीं होते, विधानसभाओं और संसद में उसे ऐसे दागदार चेहरे दिखते हैं जिनके खिलाफ वह शिकायत तक नहीं कर पाता. इस बेचारगी का दूसरा सिरा इस हकीकत से जुड़ता है कि उसकी मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं, उसके अभाव बड़े होते जा रहे हैं और दूसरों की संपन्नता उसका मुंह चिढ़ाती जा रही है. इन सबके बीच हताशा और कुंठा की ऐसी घड़ियां बहुत संभव हैं जिनमें इन सबके लिए जिम्मेदार लोगों को थप्पड़ लगाने की इच्छा पैदा हो और कभी कोई दुस्साहसी शख्स ऐसा कर भी डाले. फिर दुहराना होगा कि यह हरविंदर सिंह के किए की कैफियत नहीं है, लेकिन यह समझना जरूरी है कि हमारे समाज में हरविंदर जैसे शख्स क्यों बढ़ रहे हैं.

इस संकट का एक पहलू और है. हमारे समाज में हिंसा की स्वीकृति बढ़ी है. कहने को हमारी सरकारें आतंकवाद और नक्सलवाद सबसे लड़ने की बात करती हैं, सबकी भर्त्सना करती हैं, लेकिन उनके अपने बरताव में, हमारी राजनीतिक और सार्वजनिक चर्या में हिंसा इतने सूक्ष्म और स्थूल रूपों में विद्यमान है कि उससे आंख चुराना संभव नहीं है. बल्कि जो ताकतवर लोग हैं वे इस हिंसा की बहुत कुत्सित अभिव्यक्ति में लिप्त पाए जाते हैं. ज्यादा दिन नहीं हुए जब फूलपुर में राहुल गांधी की रैली के दौरान उन्हें काला झंडा दिखाने आए एक शख्स की सार्वजनिक पिटाई हुई. इस पिटाई में आम लोग नहीं, राहुल गांधी के सबसे करीबी रहने वाले नेता और मंत्री शामिल थे. किसी ने इस पिटाई पर अफसोस नहीं जताया, उल्टे वे बताते रहे कि जब बाकी एजेंसियां फेल हो गईं तो कैसे उन्होंने बहादुरी दिखाते हुए अपने राहुल गांधी की रक्षा की.

निश्चय ही यह हिंसक बरताव का बहुत शाकाहारी उदाहरण है. इसके कहीं ज्यादा गंभीर और डरावने उदाहरणों की कमी नहीं. कुछ ही महीने पहले कश्मीर पर प्रशांत भूषण के रुख से नाराज एक दक्षिणपंथी संगठन के लोगों ने उनके चैंबर में घुसकर उन पर हमला किया, उनके साथ मारपीट की. पेंटिंगों और नाटकों पर हमलों का भी जैसे एक पूरा सिलसिला है. इन सबके शिखर 1984 की हिंसा से लेकर 2002 के गुजरात दंगे तक दिखाई पड़ते हैं. इन दोनों के लगभग बिल्कुल बीच पड़ने वाला बाबरी मस्जिद ध्वंस भी हमारे लोकतंत्र विरोधी हिंसक व्यवहार की एक वेधक पुष्टि भर है.

आम तौर पर इन घटनाओं को दलगत नजरिये से देखने के आदी हम पाते और बताते हैं कि एक घटना एक पार्टी विशेष के समय हुई तो दूसरी घटना दूसरी पार्टी के समय. जबकि सच्चाई यह है कि इन सारी घटनाओं के पीछे एक ही तरह के लोग हैं, एक ही तरह की जमात है जो अपनी समझ, सुविधा और जरूरत के हिसाब से अपने राजनीतिक दल बदलती रहती है. मूलतः यह हिंसक प्रतिक्रियावाद किसी भी तरह के नए विचार के विरुद्ध ज्यादा दिखता है और जब उसे अपनी जड़ों पर चोट होती लगती है, तो वह ज्यादा खौफनाक हो उठता है. लेकिन इसके मूल में छिपा पाखंड- चाहे वह धार्मिकता का हो या देशभक्ति का या फिर अहिंसा और सदाचार का- वह छिपा नहीं रह पाता.

दरअसल थप्पड़ जैसे दुस्साहसी प्रयत्न की तीसरी वजह इस पाखंड से भी निकलती है. इस देश में धीरे-धीरे आदमी समझता जाता है कि वह कई पाखंडों के बीच जी रहा है- सदाचार का पाखंड, न्याय का पाखंड, कानूनी समानता का पाखंड और इन सबसे बढ़कर लोकतंत्र की आम सहमति का पाखंड. यह पाखंड फिर उसे ऐसे दुष्चक्र में धकेलता है कि उसका किसी व्यवस्था पर भरोसा बचा ही नहीं रहता. वह अंततः सनसनी का सहारा लेता है और इस आखिरी उम्मीद में चप्पल या थप्पड़ चलाता है कि कम से कम इसकी गूंज सुनी तो जाएगी. लेकिन थप्पड़ पर भी एक आम सहमति बनी दिखती है. इसमें दूसरों के प्रति निंदा भाव तो मिलता है, लेकिन अपने सख्त आत्मालोचन की जरूरत नहीं दिखती. नेता जैसे धूल झाड़कर आगे बढ़ जाते हैं- इस बात से आश्वस्त कि थप्पड़ मारने वालों से उनके कार्यकर्ता निपट लेंगे या ऐसे लोगों से उनके राजनीतिक भविष्य पर कोई आंच नहीं आएगी.

जहां तक मीडिया के अपने व्यवहार का सवाल है, उसके अपने असंतुलन छिपे हुए नहीं हैं. लेकिन जनता की नब्ज पर उसका हाथ कम से कम अपने नेताओं के मुकाबले कहीं ज्यादा है. उसे यह बात अच्छी तरह समझ में आती है कि ऐसे चप्पल और थप्पड़ वाले दृश्य वह जितना दिखाएगा, जनता उतना ही देखेगी. दुर्भाग्य से वह अपने नेताओं को प्रेम से कम, हिकारत से ज्यादा देखने की आदी हो गई है. ऐसा नहीं कि यह भारतीय मीडिया का ही मिजाज हो. चाहें तो याद कर सकते हैं कि बुश पर चले जूते को पश्चिम के मीडिया ने कितनी बार और कितनी तरह से दिखाया था. उसकी मिनटों और घंटों में गिनती हो रही थी और उस पर रातों-रात वीडियो गेम तैयार कर लिए गए. अमेरिका ने जैदी के जिस जूते को नष्ट कर दिया वह साइबर संसार में पूरी ढिठाई के साथ स्थापित और अमर हो गया.

उन्हीं दिनों हिंदी की मशहूर उपन्यासकार अलका सरावगी ने ‘जनसत्ता’ में अपने साप्ताहिक स्तंभ में एक टिप्पणी करते हुए लिखा था कि मीडिया पर दृश्यों का दुहराव देखकर अक्सर कोफ्त होती है, लेकिन बुश पर जूता उछाले जाने का दृश्य जब भी चलता है, तब यह उम्मीद पैदा होती है कि इस बार तो जूता लग जाएगा. यहां तो किसी उम्मीद की जरूरत भी नहीं. थप्पड़ लग चुका है, बस उसे दिखाने का बहाना चाहिए.