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शंघाई हमारी राष्ट्रीय फ़िल्म है

फिल्म शंघाई

निर्देशक दिबाकर बैनर्जी 

कलाकार अभय देवल, इमरान हाशमी और कल्की 

एक लड़का है, जिसके सिर पर एक बड़े नेता देश जी का हाथ है. शहर के शंघाई बनने की मुहिम ने उसे यह सपना दिखाया है कि प्रगति या ऐसे ही किसी नाम वाली पिज़्ज़ा की एक दुकान खुलेगी और ‘समृद्धि इंगलिश क्लासेज’ से वह अंग्रेजी सीख लेगा तो उसे उसमें नौकरी मिल जाएगी. अब इसके अलावा उसे कुछ नहीं दिखाई देता. जबकि उसकी ज़मीन पर उसी की हड्डियों के चूने से ऊंची इमारतें बनाई जा रही हैं, वह देश जी के अहसान तले दब जाता है. यह वैसा ही है जैसी कहानी हमें ‘शंघाई’ के एक नायक (नायक कई हैं) डॉ. अहमदी सुनाते हैं. और यहीं से और इसीलिए एक विदेशी उपन्यास पर आधारित होने के बावज़ूद शंघाई आज से हमारी ‘राष्ट्रीय फ़िल्म’ होनी चाहिए क्योंकि वह कहानी और शंघाई की कहानी हमारी ‘राष्ट्रीय कथा’ है. और उर्मि जुवेकर और दिबाकर इसे इस ढंग से एडेप्ट करते हैं कि यह एडेप्टेशन के किसी कोर्स के शुरुआती पाठों में शामिल हो सकती है.

लेकिन कपड़े झाड़कर खड़े मत होइए, दूसरी राष्ट्रीय चीजों की तरह ‘शंघाई’ कहीं गर्व से नहीं भरती, कहीं अपने सम्मान में तनकर सीधे खड़े होने की माँग नहीं करती, बल्कि आपकी छाती पर हथौड़े मारती है और आपके कानों को हमेशा के लिए आपके ढाँचे से निकालकर एक बूढ़ी औरत की उस पुकार में ले जाती है, जो हमारे रचे इस वर्तमान में रह नहीं पा रही, इसलिए अतीत में जाकर अपने बेटे कुक्कु को पुकारती रहती है. 

’कुक्कु कौन है?’

वीडियो शूटर जोगी उस बेटे की बेटी शालिनी से पूछता है. और हम सब एक दूसरे से. कुक्कु यूं तो शालिनी के पिता हैं लेकिन वह हर आदमी भी है जिसे सच्चे होने की सज़ा मिली. जिसे किसी बेचैन रात में इसीलिए कुचल दिया गया, क्योंकि वह कमज़ोरों के कुचले जाने का विरोध कर रहा था. जो बराबरी के लिए लड़ रहा था, उसे पचासों लोगों ने मारा और हम सब की चुप्पी ने. कि हम अख़बार पढ़ते रहे, वे सब बिके हुए अख़बार, जिन्हें इस बात की फ़िक्र ज़्यादा है कि एक हीरोइन टीना की प्रियंका चोपड़ा से कोई अनबन है क्या. कि हम मॉल्स में जाते रहे, 35 रुपए का पानी पीने, 90 रुपए की मकई खाने, जिन्हें हमारी ज़मीन और उसी के कुंओं से निकाला गया. हम उन काँच के दरवाज़ों के पीछे खड़े होकर उस मॉल में आने वालों से समृद्धि इंगलिश क्लासेज से सीखी टूटी फूटी अंग्रेजी में कहते रहे, “मे आई चैक यू सर?” और इस से भारत चमकता रहा, चमक रहा है, पुल, बाँध, सड़क, एटोमिक पावर, स्काईस्क्रैपर, सेक्स, सेंसेक्स, आईपीएल, बिगबॉस. और सल्फ़ास खाकर वे सब मरते रहे, जिन्हें हर रेल में चिपके हुए ‘सिक्योरिटी गार्ड और हैल्पर की भर्ती’ के विज्ञापन ही मार डालते थे. टीवी पर ख़बर आई कि ‘हमारे पत्रकार ने शिवजी के कुत्ते से बात की है.’ हमने आँखें गड़ाकर देखी भी.     

ख़ैर, डॉक्टर अहमदी ने जो कहानी सुनाई और जो दिबाकर बनर्जी और उनकी टीम ने हमें सुनाई, उस कहानी पर हमारे और आपके बात करने का कोई ख़ास फ़ायदा नहीं है, क्योंकि जहाँ वह कहानी पहुँचनी चाहिए, वहाँ शायद ‘राउडी राठौड़’ देखी जा रही हो या अगली ऐसी ही किसी दूसरी फ़िल्म का इंतज़ार किया जा रहा हो. (मैं ग़लत सिद्ध होऊं, यह चाहता रहूंगा) और जहाँ हम उसे देख रहे हैं, बात कर रहे हैं, वहाँ हमारे पास उस कहानी के अच्छे अंत का शायद कोई विकल्प नहीं. बदलना तो है लेकिन बदलें कैसे, यह सोचने की हमें फ़ुर्सत नहीं है. और साहस तो देखिए, महंगा बहुत है.

मैंने भी तो यह फ़िल्म एक मॉल में देखी, झारखंड से आए एक गार्ड ने मुस्कुराकर मेरी तलाशी ली जो बारह घंटे की एक रात के सौ रुपयों के लिए रात को एक दूसरी बिल्डिंग में चौकीदारी करता है, और जिसके साथ खड़ा उसका कोई हमपेशा मुझे विकल्प देता है कि कि मैं डेढ़ सौ रुपए में दो टब पॉपकोर्न ले सकता हूं या कोल्डड्रिंक की दो बोतल.

’शंघाई’ का एक और नायक कृष्णन यह सब नहीं जानता था. वह विकास के बाँध देखता था लेकिन उनके पानी में मिले इंसानी खून को, उसकी आईआईटी की पढ़ाई, हाईप्रोफ़ाइल सरकारी नौकरी और विदेश जाने के सपने अनदेखा कर देते थे. शंघाई सबसे अच्छा काम यही करती है कि उसके लैपटॉप पर आग फेंककर उसे भारतनगर के कीचड़ में उतारती है और सब देखने देती है. तब लौटने या बचने का कोई रास्ता नहीं. वह ईमानदार रहा है और दिमागदार भी. इसीलिए वह बाकी नायकों की तरह शहीद नहीं होता और उम्मीद जगाता है.   

 यूं तो ‘शंघाई’ पर एक फ़िल्म की तरह भी बात की जा सकती है और बताया जा सकता है कि कैसे इमरान हाशमी कोई और ही लगने लगते हैं, कैसे चुम्बन के एक पागल सीन में उत्तेजना के अलावा सब कुछ है- सारा दर्द और गुस्सा, कैसे आप सिनेमाहॉल से बाहर आकर अभय देओल से मिल लेना चाहते हैं, कैसे मुझ जैसे नासमझ का यह भ्रम चूर-चूर होकर टूटता है कि कल्कि ज़्यादा अच्छी अभिनेत्री नहीं हैं, कैसे छोटे से छोटा एक-एक किरदार लिखा गया है और कैसे सब अभिनेताओं ने उन्हें जिया है, कैसे फ़िल्म अपने गरीबों के साथ खड़ी रहती है और उनके बुरे होने पर भी इसकी मज़बूर वजहों पर ज़्यादा ठहरती है, कैसे कर्फ़्यू के एक सीन पर फ़िल्म अपने किरदारों के साथ न चलकर उसके साथ वाली समांतर सड़क पर चलती है – बन्द शटरों और आग को दिखाती हुई, कैसे डॉ. अहमदी की ‘किसकी प्रगति किसका देश’ किताब बेच रहे दुकानदार के चेहरे पर कालिख पोती जाती है, स्लो मोशन में, ताकि यह थोड़ी हम सबके चेहरों पर भी पुते. 

 लेकिन इस तरह ज़्यादा नहीं बोला जा सकता क्योंकि ‘शंघाई’ किसी भी कोण से फ़िल्म नहीं लगती, भले ही आप उसे सिनेमाहॉल में देख रहे हों. वह सौ प्रतिशत बेबाकी से कही गई एक दुर्लभ और सच्ची कहानी है जिसे कभी स्कूलों में नहीं सुनाया जाएगा, इस फ़िल्म को कभी किसी कोर्स में भी शामिल नहीं किया जाएगा, जबकि उसका देखा जाना कम से कम वोट डालने से पहले की ज़रूरी योग्यता तो बना ही देना चाहिए. 

लेकिन तब भी ख़त्म करने से पहले हमें शंघाई के दो और नायकों की भी बात करनी चाहिए. उसकी, जो जोधपुर के अपने घर से तब भाग आया था जब उसकी दूसरी जाति की प्रेमिका के घरवाले उसे मारने आ रहे थे और उसके पिता ने उसके लिए दरवाजा खोलकर पूछा था कि लड़ना है या भागना है? तब वह भाग आया था लेकिन जब क्लाइमैक्स के एक सीन में वह सीपीयू लेकर चीखता हुआ भागता है तो यह लड़ना ही है. आख़िरी लड़ाई, जिसका नायक वही है. और हमारी पुलिस उसे अश्लील फ़िल्में बनाने के इल्ज़ाम में ढूंढ़ रही है.

और एक और नायक शालिनी सहाय, जो अपनी सूरत से विदेशी लगती है. वह औरत के शरीर में सारी नैतिकता बसा देने वाले समाज पर थूकती हुई अपने शरीर को खूंटी पर टांग देने को तैयार हो जाती है, ताकि न्याय मिल सके. यह तब है, जब उसके पास न्याय का दम घोटने वाले हाथों को काट डालने के लिए तीखे दाँत भी हैं. वह फ़िल्म के लगभग सब पुरुष किरदारों से ज़्यादा निडर है. और हाँ, अगर मैंने फारुक शेख, प्रोसेनजित और पितोबाश के अभिनय की, निकोस की सिनेमेटोग्राफी और नम्रता राव की एडिटिंग की कहीं तारीफ़ नहीं की तो मुझे नादान समझकर माफ़ कीजिए. फ़िल्म को इस स्तर तक ले जाने वाले बहुत सारे और भी लोग हैं, जिनके नाम मुझे नहीं मालूम.          

कुल मिलाकर, राजनीति, ब्यूरोक्रेसी, कॉर्पोरेट, और इनकी मुट्ठी में जनता – शंघाई हमारे समाज के हर हिस्से को अलग फ़ॉर्मेट में, लेकिन उसी कैमरे से देखती है जैसे दिबाकर अपनी पहले की फ़िल्मों में देखते आए हैं. लेकिन यह उन सबसे अलग है और बहुत आगे. यह आपसे पूछती है कि क्या दिबाकर ख़ुद इससे ज़्यादा सम्पूर्ण फ़िल्म बना पाएँगे? हम यह दिबाकर से पूछते हैं. और चलते-चलते उन्हें बताते हैं कि वे हमारे ‘राष्ट्रीय फ़िल्मकार’ जैसे हैं. अगर इससे कुछ ग्राम भी शुक्रिया अता हो सकता हो तो हमें चिल्लाकर कहने दीजिए कि हम उन्हें और उनकी फ़िल्मों को बेहद प्यार करते हैं और उन्हें हमारे समय की सबसे अच्छी फ़िल्में मानते हैं, भले ही उन्हें ईनाम दिलवाने और सुपरहिट बनाने की हमारी औकात न हो.

– गौरव सोलंकी

‘उस कोशिश से उपजी खुशी आज भी मेरे साथ चलती है’

कभी-कभी जीवन में कुछ ऐसे लम्हे आते हैं जो आपको याद दिलाते हैं कि इंसानियत के आगे नियम-कायदे छोटे पड़ जाते हैं. बात 1985 की है. तब मैं हिन्दुस्तान एरोनाटिक्स लिमिटेड में काम करता था. एक दिन कार्मिक विभाग में काम करने वाले एक कर्मचारी ने मुझसे भीतर आने की इजाजत मांगी. पूरा नाम तो मुझे ध्यान नहीं है पर लोग उन्हें उपाध्याय जी बुलाते थे. खैर मैंने उन्हें भीतर बुलाया और उनके आने का कारण जानना चाहा. उन्होंने कहा, ‘सर मुझे एडवांस सेलरी चाहिए.’ मैं सोच में पड़ गया. दरअसल मेरे सामने एक दुविधा खड़ी हो गई थी. उपाध्याय चौथी बार सेलरी एडवांस देने की मांग कर रहे थे. उधर विभाग का नियम कहता था कि एक साल में इस सुविधा का फायदा तीन से ज्यादा बार नहीं उठाया जा सकता. 

इसलिए स्वाभाविक ही था कि मैंने इसके लिए असमर्थता जता दी. यह सुनकर उपाध्याय का मुंह उतर गया. उनका कहना था, ‘साहब मैं आपके पास बहुत उम्मीद ले कर आया था. पर उदास हो कर जा रहा हूं.’ वे बड़बड़ा रहे थे कि सारे नियम-कायदे तो गरीब लोगों के लिए ही बनते हैं. और इसमें उनके जैसे गरीब लोग ही पिसते हैं. तब मैंने उस चेहरे की तरफ देखा. उस पर चिंता और उदासी छाई हुई थी. वास्तव में ऐसा लग रहा था कि उपाध्याय मुझसे काफी उम्मीदें लगाकर आए थे जिन पर मैंने तुषारापात कर दिया था. उनके चेहरे पर एक अजीब सी बेचैनी नजर आ रही थी. 

मुझे लगा कि मुझे मसले को यूं ही खारिज नहीं करना चाहिए. क्या पता इस व्यक्ति के साथ क्या दिक्कत हो. मैंने उन्हें कुर्सी पर बैठने के लिए कहा और पूछा कि आखिर क्या वजह है कि उन्हें निर्धारित सीमा से ज्यादा एडवांस लेना पड़ रहा है. ऐसा क्या हो गया है? जो वजह निकलकर आई उससे मैं धर्मसंकट में पड़ गया. उपाध्याय ने बताया कि उनका सात साल का बेटा गहरी मुसीबत में है. उसके एक दोस्त ने तीर-कमान का खेल खेलते-खेलते तीर उसकी आंख में मार दिया है. उनका कहना था, ‘बहुत परेशानी है सर. समझ में नहीं आ रहा क्या करूं. बच्चे का इलाज लखनऊ और सीतापुर से कराने के बाद भी कोई लाभ नहीं हुआ है. उसकी आंख की रोशनी करीब-करीब जा चुकी है. उसी के लिए अब दिल्ली जाने के लिए एडवांस की अर्जी आपको दी है.’ मैं सोच में पड़ गया. मुझे लगा कि संकट के इस समय में इस शख्स को सिर्फ पैसों की ही नहीं सहानुभूति की भी जरूरत है. नियम-कायदे अपनी जगह हैं मगर इस तरह की मुसीबत है तो कैसे भी करके मुझे कुछ करना चाहिए. 

इसके लिए बस थोड़ी सी कोशिश की जरूरत थी. मैंने विभागीय नियमों में ढील देकर उपाध्याय के लिए तीन हजार रु की राशि मंजूर करवाई. मैंने उन्हें यह सलाह भी दी कि वे दिल्ली न जाकर अपने बच्चे को अलीगढ़ के एक मशहूर नेत्र सर्जन को दिखाएं. उपाध्याय ने मेरा सुझाव माना भी. अलीगढ़ में ठहरने, खाने-पीने के प्रबंध और डॉक्टर से अप्वाइंटमंेट के सिलसिले में भी मैंने जहां तक हो सका सहायता करने की कोशिश की. 

फिर एक दिन ऐसी खुशखबरी मिली जिसका मुझे समेत कई लोग महीनों से इंतजार कर रहे थे. ईश्वर की ऐसी कृपा हुई कि उपाध्याय के बेटे की आंखों की रोशनी वापस आ गई. बच्चे को आंख की रोशनी दोबारा मिलने से जो खुशी उपाध्याय परिवार को मिली, उस खुशी में मेरा भी हिस्सा था. आज 27 साल बाद भी इस वाकये के बारे में सोचकर दिल में खुशी महसूस होती है.   

(इस आपबीती के लेखक प्रभु वार्ष्णेय सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी हैं और लखनऊ में रहते हैं)

 

 

 

 

 

 

धार्मिक परिसर, राजनीतिक स्मारक!

पंजाब के अमृतसर स्थित हरमंदिर साहिब अर्थात स्वर्ण मंदिर के शांत, शीतल, आध्यात्मिक और जीवंतता से भरे पवित्र माहौल में घूमते हुए विश्वास नहीं होता कि कभी यह जगह गोली, बम, हथियार और विस्फोटकों से पटी पड़ी थी. पवित्र अमृत सरोवर, जिसके एक छोर पर कुछ लोग स्नान कर रहे हैं और दूसरे छोर पर श्रद्धालु जिसके किनारे बैठकर ध्यान लगा रहे हैं, उसका पानी कभी विस्फोटकों से पूरी तरह दूषित हो चुका था. 5-6 जून, 1984 को यह जगह एक रणभूमि में तब्दील हो गई थी. एक तरफ भारतीय सेना थी तो दूसरी तरफ कुछ हथियारबंद लोग. ऑपरेशन ब्लू स्टार के नाम से जाने जाने वाले इस ऑपरेशन के जरिए सेना मंदिर में शरण लिए हुए हथियारबंद जरनैल सिंह भिंडरावाले और उसके साथियों को बाहर निकालना चाहती थी. सेना के मुताबिक ये लोग मंदिर से अपने आतंक का नेटवर्क चलाते हुए पूरे पंजाब में अलगाववाद और आतंक फैला रहे थे. सरकारी रिकॉर्ड में यह एक ऐसी घटना के रूप में दर्ज है, जिसमें तत्कालीन केंद्र सरकार ने सेना के माध्यम से आतंक और आतंकवादियों के खात्मे के लिए एक ऑपरेशन चलाया जो सफल रहा. लेकिन तस्वीर का दूसरा पक्ष भी है. जरनैल सिंह भिंडरावाले सहित इस ऑपरेशन में मारे गए जिन लोगों को भारत सरकार आतंकवादी मानती है, उन्हें सिखों की सर्वोच्च संस्था अकाल तख्त ने शहीद का दर्जा दिया हुआ है. जब इतिहास की एक त्रासद घटना को लेकर दो एकदम विपरीत दृष्टिकोण हों तो फिर स्थितियां बेहद जटिल हो जाती हैं.

आगामी 6 जून को उस घटना को पूरे 28 साल हो जाएंगे. इस दौरान बड़ी मुश्किल से राज्य में अमन-चैन की स्थापना हुई और अलगाववाद का दौर समाप्त हुआ. धीरे-धीरे पंजाब के बाकी देश से संबंध सामान्य हो चुके हैं. राज्य में अलगाववाद का बीज बोने वाले या तो खत्म हो गए या फिर उनकी संख्या उंगलियों पर गिने जाने लायक रह गई. प्रदेश की जनता ने हर उस प्रयास को नकारा जो उसे किसी तरह से पूरे देश से अलग-थलग करने की कोशिश करता हो. धीरे-धीरे स्वर्ण मंदिर में घटा वह दुखद वाकया भी लोगों के जेहन से मिटने लगा था. लेकिन शायद राजनीति को यह मंजूर नहीं. 2002 में एसजीपीसी, जो सिखों के धार्मिक मामलों की देखरेख करती है, उसने एक प्रस्ताव पास करते हुए कहा कि गोल्डन टेंपल परिसर में उन लोगों की याद में एक स्मारक बनाया जाएगा जो ऑपरेशन ब्लू स्टार में मारे गए थे. ये वही लोग थे जिन्हें भारत सरकार आतंकवादी मानती है. 2002 से शुरू हुई यह कहानी आज अपने अंतिम चरण में है. 20 मई को स्वर्ण मंदिर के परिसर में स्मारक बनाए जाने के काम की औपचारिक शुरुआत हो गई. स्थितियां अब और जटिल हो जाती हैं क्योंकि जिस एसजीपीसी ने इस काम को शुरू करवाया है उस पर राज्य में सत्तारूढ़ शिरोमणी अकाली दल का ही शासन है.

 यानी भारत सरकार जिन लोगों को आतंकवादी मानती है राज्य में सत्तारूढ़ दल और एक तरह से राज्य सरकार उनकी याद में स्मारक बनवा रहे हैं.

इस काम को करने की जिम्मेदारी उसने जिस संस्था दमदमी टकसाल को सौंपी है उसके प्रमुख जरनैल सिंह भिंडरावाले की ही ऑपरेशन ब्लूस्टार में मौत हुई थी. स्थितियां इतनी जटिल हैं शायद इसीलिए अकाली दल का कोई भी छोटा-बड़ा नेता इस मसले पर कुछ भी बोलने को तैयार नहीं. ऑपरेशन के दौरान मारे गए लोगों की याद में बन रहे इस स्मारक में सभी मृतकों के नाम दीवारों पर लिखे जाएंगे. इनमें शहीद का दर्जा प्राप्त भिंडरावाले का नाम सबसे ऊपर होगा. इनकी तस्वीरें भी इस स्मारक में लगाई जाएंगी. ऑपरेशन के दौरान जिन प्रमुख चीजों को नुकसान पहुंचा उनको भी इसमें प्रदर्शित और संरक्षित किया जाएगा. इसमें वे सोने की प्लेटें और वह पवित्र गुरु गंथ साहिब भी होंगे जिनपर गोली लगने के निशान मौजूद हैं.

स्मारक बनाने की जगह, जरूरत और उसको बनाने के पीछे की मंशा पर तमाम तरह के गंभीर सवाल उठ रहे हैं. जानकारों का एक वर्ग मानता है कि यह सब कुछ संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है. नहीं तो क्यों ऐसा विवादास्पद स्मारक बनाने के लिए अकाली दल और सरकार तैयार हो जाते जिसको लेकर प्रदेश की जनता में कोई मांग ही नहीं है? जैसा कि पंजाब विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर मंजीत सिंह कहते हैं, ‘देखिए जितना मुझे पता है, समाज की तरफ से ऐसा कोई स्मारक बनाने को लेकर न कोई आंदोलन था और न ही कोई मांग थी.’ मगर कुछ जानकारों के अनुसार स्मारक बनाने को लेकर आम जनता का भले कोई दबाव नहीं हो लेकिन कट्टरपंथी सिख संगठनों ने लगातार इसके लिए दबाव बना रखा था, परिणामस्वरूप सरकार ने इसके लिए रजामंदी दे दी.

विभिन्न जानकारों का यह भी मानना है कि इस स्मारक के बनने से भविष्य में किस तरह का प्रभाव पड़ेगा यह तो देखने वाली बात होगी लेकिन इसके दुरुपयोग की संभावना हमेशा बनी रहेगी. मंजीत कहते हैं, ‘देखिए स्मारक बनाकर उसमें जिन लोगों के नाम और तस्वीरें लगाए जाएंगे और जिन्हें उस स्मारक में शहीद का दर्जा दिया जाएगा, वे संभव है, कई लोगों को उसी रास्ते पर जाने के लिए प्रेरित करें जिस रास्ते पर वे खुद गए थे.’ हर हालत में अपना नाम न छापने की शर्त पर प्रदेश कांग्रेस के एक बहुत बड़े नेता कहते हैं, ‘देखिए हमारे यहां शहीदों को जो दर्जा दिया जाता है उसका मतलब होता है कि लोगों को उनका अनुसरण करना चाहिए. कल्पना कीजिए अगर इस मामले में लोगों ने अनुसरण करना शुरू कर दिया तो कैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है.’ इस बात को आगे बढ़ाते हुए मंजीत कहते हैं, ‘अभी इस स्मारक को बनाने वाले इसे बनाने के पीछे कुछ और कारणों का हवाला दे रहे हैं लेकिन इस बात की गारंटी कौन लेगा कि इस स्मारक का प्रयोग राजनीतिक मकसद को पूरा करने के लिए नहीं किया जाएगा. अगर ऐसा हुआ तो फिर एक भयावह तस्वीर हमारे सामने होगी.’

एक प्रश्न यह भी बहुत पहले से उठता रहा है जिसकी प्रासंगिकता आज और बढ़ गई है कि आखिर ऑपरेशन ब्लूस्टार को पंजाब के लोगों को कैसे देखना चाहिए? ‘पहले ये फैसला होना चाहिए कि इतिहास में इसका क्या स्थान है. भिंडरावाले और उनके साथियों ने जो किया, सरकार के खिलाफ बगावत की, आवाज उठाई, दरबार साहब के अंदर हथियार और गोला बारूद ले आए, दरबार साहब के अंदर किलेबंदी की, लड़ाई की, ये क्या था. क्या उन्होंने जो किया वो सही था’ ब्रिगेडियर ओएस गोरैया, जो इस ऑपरेशन के दौरान स्वर्ण मंदिर में मौजूद थे, कहते हैं, ‘भिंडरावाले और उसके साथी ऑपरेशन ब्लू स्टार में मारे गए थे, शहीद नहीं हुए थे. ऐसे में उन्हें शहीद का दर्जा देकर उनकी याद में स्मारक बनाना बिलकुल गलत है.’

लोगों में इस बात का डर भी है कि भविष्य में यह स्मारक अलगाववादियों और भारत विरोधी तत्वों के लिए प्रेरणास्थली न बन जाएं. इस बात की भी आशंका व्यक्त की जा रही है कि आगे चलकर अस्थिरता फैलाने के इरादे से भारत विरोधी तत्व इस स्मारक का दुरुपयोग कर सकते हैं. प्रदेश के एक वरिष्ठ राजनेता कहते हैं, ‘इस तरह अगर हम आतंक का महिमामंडन करने लगे तो कल देश के हर कोने से ऐसे स्मारक बनाए जाने की आवाज उठने लगेगी. हर गलत काम करने वाले की पूजा शुरू हो जाएगी. हत्यारे हीरो बन जाएंगे. उस समय आपके पास ऐसे लोगों को रोकने का कोई आधार नहीं होगा क्योंकि एक जगह पर अगर आपने गलत परंपरा की नींव डाली तो यह एक श्रृंखला बन जाएगी.’ एक विचार और भी सामने आ रहा है कि अगर स्मारक बनाना ही है तो फिर क्यों न उस दौरान मारे गए सभी लोगों की याद में बनाया जाए जिससे कि आने वाली पीढ़ियां और सरकारें इससे सबक लें. सिर्फ उनके लिए स्मारक बनाना जो भारतीय सेना से लड़ते हुए मरे बाकी अन्य लोग, जो सरकारी या फिर गैर-सरकारी आतंक का शिकार हुए, उनका अपमान होगा.

इस पूरे मामले पर कोई भी राजनीतिक दल खुलकर कुछ भी बोलने से बच रहा है. कांग्रेस की हालत तो और खराब है. वह न तो इस स्मारक का समर्थन कर पा रही है और न ही खुलकर विरोध.

नाम न छापने की शर्त पर कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘देखिए यही शिरोमणी अकाली दल की दोगली नीति है. चुनाव से पहले उसने कैसे अपने आपको एक सेक्युलर दल के रूप में प्रचारित किया. विकास के नारे लगाते रहे. कोई पंथिक मुद्दा नहीं उठाया. लेकिन अब जब सत्ता में आ गए तो अपना असली चेहरा उजागर कर दिया. अब ये फिर से धर्म और पंथ की राजनीति करने लगे. कट्टरपंथियों के तुष्टीकरण की राजनीति शुरू कर दी. फिर से इन्होंने लोगों की भावनाओं के साथ खेलना शरू कर दिया. इन्हें डर था कि ऐसा न हो कि विकास और सुशासन की चर्चा में ये अपने असली वोट बैंक को ही खो दें. इसी कारण से इन्होंने वापस अपनी पुरानी संकीर्ण राजनीति शुरू कर दी. राजौना के मामले में इन्होंने क्या किया सबके सामने है. अब यह नया मामला सामने है.’ मंजीत कहते हैं, ‘अकाली दल की ये कल्पना हो सकती है कि उसके इस निर्णय से उसका पारंपरिक वोट बैंक मजबूत होगा. शायद इसीलिए वो ऐसा कर रहे हैं. भारत के लगभग सभी राजनीतिक दल कुछ इसी तरह से संकीर्ण राजनीति करते रहे हैं यही कारण है कि कोई ऐसा दल नहीं है जो अकाली दल को ये कह सके कि ये गलत हो रहा है.’    

भाजपा जो राज्य में अकाली दल के साथ मिलकर गठबंधन की सरकार चला रही है वह भी इसे लेकर बड़ी पसोपेश की स्थिति में है. इसीलिए तहलका से राज्य भाजपा का कोई भी नेता इस मसले पर बात करने को तैयार नहीं हुआ. मगर भाजपा के वरिष्ठ नेता और पंजाब के प्रभारी शांता कुमार इस मामले पर आश्चर्यजनक रूप से बड़ी बेबाकी से अपनी राय रखते हैं, ‘हम आतंकवाद और उसमें लिप्त लोगों को किसी तरह का समर्थन देने या फिर उनका महिमामांडन करने के सख्त खिलाफ है. इस स्मारक के हम विरोध में है. ये नहीं होना चाहिए क्योंकि बहुत कीमत देकर पंजाब में शांति और स्थिरता आई है. ऐसे में इस तरह के कृत्यों से बचा जाना चाहिए.’ इस प्रश्न के जवाब में कि क्या भाजपा अकाली दल के सामने इस विषय पर अपना विरोध दर्ज कराएगी. शांता कुमार कहते हैं, ‘हम मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल से इस विषय पर बात करेंगे कि वे स्मारक के बनने पर जल्द से जल्द रोक लगवाएं.’­   

 

 

 

नरेंद्र मोदी लाइव

न्यूज चैनलों का नरेंद्र मोदी प्रेम किसी से छिपा नहीं है. इसका ताजा सबूत यह है कि भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मुंबई बैठक में  मोदी के आने या न आने से लेकर समापन रैली में उनके भाषण तक की न्यूज चैनलों खासकर हिंदी चैनलों पर 24X7 हाई वोल्टेज कवरेज हुई. इस कवरेज के आगे भाजपा के सभी नेता फीके पड़ गए. कार्यकारिणी में हर ओर मोदी ही मोदी दिखाई पड़ रहे थे. सच पूछिए तो चैनलों की मदद से मोदी भाजपा की मुंबई कार्यकारिणी को लूट ले गए. हालत यह हो गई कि इस मोदीमय माहौल में खुद को अप्रासंगिक महसूस कर रहे आडवाणी और सुषमा स्वराज भाजपा की समापन रैली में शामिल नहीं हुए. एक मायने में उनका फैसला सही था क्योंकि चैनलों की निगाह सिर्फ नरेंद्र मोदी पर थी.

भाजपा ने भले ही उन्हें अभी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया हो लेकिन चैनलों ने उन्हें अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है

आश्चर्य नहीं कि चैनलों खासकर हिंदी न्यूज चैनलों ने प्राइम टाइम में 40 मिनट तक नरेंद्र मोदी को लाइव दिखाया. यही नहीं, एक ओर मोदी की दहाड़ लाइव गूंज रही थी और दूसरी ओर, उनके बोल ब्रेकिंग न्यूज बन रहे थे. चैनल वैसे भी नेताओं के भाषणों और बयानों को आम तौर पर बिना किसी पड़ताल और आलोचना के दर्शकों पर थोपते रहे हैं. मोदी के मामले में तो उनका भक्ति-भाव और बढ़ जाता है. हैरानी की बात नहीं है कि मोदी जो बोल रहे थे, वह वही टिपिकल मोदी स्टाइल थी जिसमें सांप्रदायिक राजनीति को आक्रामक तेवर में आधे सच और आधे झूठ की चाशनी में लपेटकर पेश किया जाता है.

याद रहे, मोदी इसी अंदाज और तेवर में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और घृणा पर आधारित राजनीति करते रहे हैं. उनके ताजा भाषण के तेवर और टोन से साफ है कि सद्भावना उपवासों और यात्राओं के बावजूद उनमें कोई बदलाव नहीं हुआ है. लेकिन अफसोस यह कि चैनलों में इसे लेकर कहीं कोई सवाल नहीं था. जो थोड़े-बहुत सवाल थे, वे मोदी के भाषण और उसमें उठाए मुद्दों के बारे में कम और भाजपा की अंदरूनी लड़ाई और मोदी की प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनने की संभावनाओं पर अधिक थे. मजे की बात यह है कि भाजपा ने भले ही उन्हें अभी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया हो लेकिन चैनलों ने उन्हें अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है.

ऐसा लगता है कि चैनल मोदी लाइव के खतरों को नहीं समझ रहे हैं. मोदी और उनकी राजनीति के प्रति चैनलों का यह अन-क्रिटिकल रवैया कई कारणों से चिंता का विषय है. मोदी के ताजा भाषण से साफ है कि उनकी राजनीति और भाषणों ने गुजरात में जिस तरह के सांप्रदायिक विभाजन और गोलबंदी को बढ़ावा दिया है, वे उसी राजनीति के साथ राष्ट्रीय रंगमंच पर उतारना चाहते हैं. जाहिर है कि अब बात सिर्फ गुजरात तक सीमित नहीं रहने वाली है. बतौर प्रधानमंत्री के दावेदार उनकी बातों और राजनीति का असर देश भर में होने जा रहा है. इस कारण उनकी राजनीति, भाषणों और दावों की सतर्क और सजग पड़ताल बहुत जरूरी है.

दूसरे, चैनलों को मोदी के भाषणों को लाइव दिखाते हुए याद रखना होगा कि वह असंपादित और अनियंत्रित प्रसारण है. मोदी जिस तरह से भावनाएं भड़काते और लोगों को उत्तेजित करते हैं, सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ाते हैं, उसके कारण स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक सांप्रदायिक तनाव से लेकर माहौल बिगड़ने के खतरे को अनदेखा करना ठीक नहीं है. इससे आने वाले महीनों में न सिर्फ चुनावी प्रक्रिया के बल्कि समूची लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रदूषित होने की आशंका बढ़ गई है. साफ है, चैनलों का मोदी प्रेम और मोदी गान देश, समाज और लोकतंत्र सबके लिए बहुत भारी पड़ सकता है.

अहंकार, अपमान और अज्ञान की पीठ!

तहलका ने कुछ समय पहले एक आवरण कथा की थी. शीर्षक था साहित्य के सामंत (31 अगस्त 2011, https://www.tehelkahindi.com/indinoo/national/947.html). यह बताती है कि हिंदी साहित्य से जुड़े कुछ संस्थानों और उनसे जुड़े लेखकों-आलोचकों-प्रकाशकों की इच्छा के बिना अदब की इस दुनिया का एक पत्ता तक हिलना मुश्किल है और कैसे हिंदी साहित्य की एक बड़ी दुनिया ने इसे अपनी नियति मानकर इससे समझौता कर लिया है.

लेकिन साहित्य की इस तिकड़मी और समझौतावादी दुनिया के पिछले दो हफ्ते बेहद हलचल भरे रहे. यह सब तब शुरू हुआ, जब युवा लेखक गौरव सोलंकी ने भारतीय ज्ञानपीठ को एक पत्र लिखकर प्रतिष्ठित नवलेखन पुरस्कार ठुकरा दिया और अपनी दो किताबों, ‘सौ साल फिदा’ और ‘सूरज कितना कम’ के प्रकाशन-अधिकार ज्ञानपीठ से वापस ले लिए. अपने पत्र में गौरव ने ऐसा करने की दो मुख्य वजहें बताईं. पहली, वरिष्ठ साहित्यकारों द्वारा अनुशंसित उनके कहानी संग्रह को ज्ञानपीठ के पदाधिकारियों द्वारा ‘अश्लील’ बताकर छापने से मना करना और दूसरा, इस पर सवाल-जवाब करने पर ज्ञानपीठ के ट्रस्टी और उच्चाधिकारियों द्वारा उन्हें अपमानित करना.
भारतीय ज्ञानपीठ को लिखे गौरव सोलंकी के कई पत्रों (पुरस्कार ठुकराने से पहले भी गौरव ने ज्ञानपीठ को कई पत्र लिखे थे) और उसके बाद से लगातार सामने आ रही जानकारियों से बेहद प्रतिष्ठित माने जाने वाले इस संस्थान के भीतर चल रही राजनीति की जो परतें खुलती हैं वे चौंका देने वाली हैं. प्रसिद्ध कथाकार उदय प्रकाश कहते हैं, ‘गौरव सोलंकी ने तो आवाज उठाई, उनकी सोचिए जो चुप रहे और हाशिये के भी बाहर धकेल दिये गए.’

‘अगर ज्ञानपीठ ज्यूरी के फैसलों को उलट रहा है तो मैं आगे से उसमें शामिल नहीं होऊंगा’ – नामवर सिंह, वरिष्ठ आलोचक

भारतीय ज्ञानपीठ तो पिछले कुछ वर्षों में इतने आरोपों और विवादों से घिरा रहा है कि हिन्दी के एक वरिष्ठ कहानीकार कहते हैं, ‘ये सुधरने वाले नहीं हैं.’ हताशा से भरे इस बयान पर सीधे विश्वास कर पाना मुश्किल है, इसलिए हमने हिंदी के वरिष्ठ और युवा सहित अनेक साहित्यकारों से बात की. इससे जो कहानी बनी, उसका अंत हिन्दी की किसी भी मार्मिक कहानी से ज्यादा मार्मिक था. लेकिन उस अंत से पहले कहानी की शुरुआत जानते हैं.

भारतीय ज्ञानपीठ की प्रतिष्ठा को पहला बड़ा धक्का तब लगा, जब मई, 2007 में ‘नया ज्ञानोदय’ (भारतीय  ज्ञानपीठ की मासिक साहित्यिक पत्रिका) में अजीबोगरीब शैली में लेखक-लेखिकाओं के  परिचय छपे. इससे लेखक समुदाय बौखला गया और उसने ज्ञानपीठ के प्रबंध न्यासी साहू अखिलेश जैन को पत्र लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया. उस समय लेखकों ने बड़े पैमाने पर पत्र-पत्रिकाओं में इसके खिलाफ लेख लिखे और ज्ञानपीठ के निदेशक रवीन्द्र कालिया को बर्खास्त करने की भी मांग की. लेकिन उनकी आवाज नहीं सुनी गई. यह रवीन्द्र कालिया के भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक और ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक के रूप में शुरुआती दिन थे.

दूसरा बड़ा हंगामा तब हुआ, जब ‘नया ज्ञानोदय’ के अगस्त, 2010 के अंक में छपे साक्षात्कार में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय ने लेखिकाओं को ‘छिनाल’ कहा और अपने संपादकीय में रवीन्द्र कालिया ने इस साक्षात्कार को ‘बेबाक’ बताया. इसके बाद फिर से हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक विरोध में सड़कों पर उतर आए. लेकिन तब भी उनकी आवाज नहीं सुनी गई.

तीसरा बड़ा विरोध गौरव सोलंकी के पुरस्कार लौटाने के लिए लिखे पत्र के बाद शुरू हुआ है. युवा लेखकों द्वारा फेसबुक पर ‘ज्ञानपीठ के भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत’ नामक एक पेज भी बनाया गया है. ‘छिनाल प्रकरण’ में लेखकों की आवाज नहीं सुने जाने के विरोध में ज्ञानपीठ से अपनी पुस्तक ‘जानकी पुल’ वापस ले चुके लेखक प्रभात रंजन कहते हैं, ‘गौरव के प्रकरण ने भारतीय ज्ञानपीठ के पतन की एक झांकी दिखाई है, कि किस तरह भारतीय ज्ञानपीठ अपने कालिया-काल में साहित्य के एक बड़े प्रहसन में बदलता जा रहा है.’

अश्लीलता के आवरण और सरकारी पैसे का दुरुपयोग 

गौरव सोलंकी के पुरस्कार ठुकराने और अपनी पुस्तकें वापस लेने के बाद भारतीय ज्ञानपीठ ने उन्हें एक पत्र भेजा है, जिसमें कहा गया है कि लेखक शैलेन्द्र शैल से पुनर्मूल्यांकन करवाने के बाद गौरव की कहानियों में कुछ ऐसे तत्व पाए गए जिनसे ‘हिंदी के पाठकों के संस्कार आहत हो सकते हैं.’ यह पहला मामला नहीं है, जब वरिष्ठ साहित्यकारों की ज्यूरी के निर्णय से ज्ञानपीठ ने छेड़छाड़ की है. ज्ञानपीठ से जुड़े लेखक बताते हैं कि पहले भी कई बार उनकी पुस्तकों के अंश ‘अश्लीलता’ का हवाला देकर काटे जा चुके हैं.  नवलेखन-पुरस्कार विजेता युवा कथाकार विमलचन्द्र पांडेय कहते हैं कि कुछ साल पहले उन्हें भी अपने पहले कहानी संग्रह ‘डर’ के कुछ हिस्से इसी दबाव में काटने पड़े थे. कवि हरिओम राजोरिया की पुस्तक के साथ भी यही हो चुका है. वे कहते हैं कि ज्ञानपीठ की गड़बड़ियों को लेकर लेखकों और उनके संगठनों को भी सामने आना चाहिए.

‘ये अदबी दहशतगर्द इतने ताकतवर और चिकने घड़े हैं कि नए लोग इनके खिलाफ आवाज उठाने से डरते हैं’ – मुनव्वर राणा, शायर

अश्लीलता के ये आरोप तब हैं, जब नवलेखन पुरस्कार के निर्णायक मंडल के अध्यक्ष नामवर सिंह, गौरव सोलंकी की कहानियों के बारे में कहते हैं, ‘हमें उसकी रचनाएं अच्छी लगीं और हमने उसके पक्ष में निर्णय लिया.’ ज्ञानपीठ द्वारा अश्लील बताई जा रही कहानी पर उदय प्रकाश कहते हैं, ‘गौरव की यह कहानी हमारी नयी आर्थिक-सामाजिक नीतियों और नए तरह की सामाजिक बनावटों की बहुत रोचक, अपारंपरिक और पठनीय कहानी है. वह हमारे नए यथार्थ को पूरी कलात्मकता के साथ न सिर्फ व्यक्त करती है बल्कि उसे भरपूर युवा नैतिक साहस से आईना दिखाती है, यह बताने के लिए, कि यह चेहरा कितना विद्रूप है. ऐसी कहानियां किसी चालू (प्रचलित) सोच के लेखक-आलोचक के द्वारा आसानी से स्वीकृत नहीं होतीं.’

ज्यूरी के एक और सदस्य तथा प्रसिद्ध कथाकार अखिलेश भी गौरव को ‘प्रतिभाशाली कथाकार’ मानते हैं. वरिष्ठ कवयित्री अनामिका, जिन्होंने बहुत-से और लेखकों की तरह ‘छिनाल प्रकरण’ के बाद से ही अंतरराष्ट्रीय महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, वर्धा से निकलने वाली पत्रिका ‘बहुवचन’ और भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ में अपनी रचनाएं भेजनी बंद कर दी, कहती हैं, ‘गौरव के साथ यह गलत हुआ है. इस तरह की घटनाओं को अंजाम देना एक किस्म की कुंठा है. भारतीय ज्ञानपीठ में बैठे पदाधिकारियों की यह कुंठा बार-बार प्रकट हुई है. ये बूढ़े सुग्गे हैं. मैं नौजवान और तेजस्वी किस्म के लेखकों की ओर बहुत उम्मीद से देखती हूं. इस कीचड़ में छपाछप करने से बेहतर है कि मैं एक सुंदर भविष्य की उम्मीद करूं.’ साथ ही ‘स्त्रीकाल’ नामक पत्रिका के संपादक संजीव चंदन भारतीय ज्ञानपीठ के अश्लीलता के मानदंडों पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं, ‘क्या नया ज्ञानोदय में लेखिकाओं को छिनाल कहलवाना अश्लील नहीं है? पत्रिका में महिलाओं के परिचय में उनके शरीर सौष्ठव के बारे में लिखना अश्लील नहीं है?’

नया ज्ञानोदय के जिस अंक की बात संजीव कर रहे हैं और जिसका जिक्र हम पहले कर चुके हैं, उसमें लेखक-लेखिकाओं के परिचय कुछ इस तरह से छापे गए थे –‘दुबली-पतली और सुंदर कथाकार/अविवाहित कथाकार,  हर मंगलवार को मंदिर और शनिवार को हंस का कार्यालय/ करीब आधा दर्जन प्रेम और इतनी ही कहानियां.’ ‘नया ज्ञानोदय’ के इस अंक के संपादन सहयोगी कुणाल सिंह थे. वे आज भी वहां सहायक संपादक हैं. ज्ञानपीठ से जुड़े एक युवा कहानीकार का कहना है कि इन परिचयों के लेखक कुणाल सिंह ही थे. ‘नया ज्ञानोदय’ के स्तर पर वरिष्ठ कवि राजेश जोशी ने तब कहा था, ‘रवींद्र कालिया मेरे अग्रज रचनाकार हैं, लेकिन उन्होंने यह कहने को बाध्य कर दिया है. लुंपनिज्म और सेंसेशनेलिज्म को साहित्यिक पत्रकारिता का एक मूल्य बना देने से आनेवाले समय में किसी गंभीर विचार विमर्श के लिए कोई गुंजाइश नहीं होगी. सिर्फ सनसनियां, आक्रामकता होगी, उचक्कापन होगा, उजड्डता होगी. और संपादक जैसा चाहेगा, वैसा होगा.’

अगस्त, 2010 में ‘नया ज्ञानोदय’ में छपे वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति वीएन राय के साक्षात्कार के बारे में विस्तार से बात करें तो उसमें राय ने कहा था, ‘लेखिकाओं में होड़ लगी है, यह साबित करने की कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है.’ उन्होंने लेखिकाओं के लिए ‘निम्फोमेनियेक कुतिया’ जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल किया था. तब भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यालय से लेकर शास्त्री भवन, दिल्ली तक लेखक और पत्रकार सड़क पर उतरे थे. उस समय साहित्यकारों ने राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटील और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल से भी मुलाकात की थी और वीएन राय और रवीन्द्र कालिया को उनके पदों से हटाने की मांग की थी. वरिष्ठ साहित्यकार कृष्ण बलदेव वैद्य, गिरिराज किशोर और प्रभात रंजन ने तब विरोधस्वरूप अपनी किताबें ज्ञानपीठ से वापस ले ली थीं. वर्धा के एक न्यायालय ने कालिया, राय आदि को महिलाओं के अपमान के लिए नोटिस भी जारी किया था.

‘किताब छपने के लिए डेढ़-दो साल ज्यादा समय नहीं होता. ये लड़के हैं इन्हें कुछ नहीं पता’ – रवीन्द्र कालिया, निदेशक भारतीय ज्ञानपीठ

जब यह सब चल रहा था उस समय राय भारतीय ज्ञानपीठ की एक चयन समिति, जो प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए कृतियों का चयन करती है,  के सदस्य भी थे. लेखकों के भारी विरोध की वजह से भारतीय ज्ञानपीठ ने राय को अपनी चयन समिति से बाहर का रास्ता तो दिखाया, लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं हुआ. जानकार बताते हैं कि यह एक-दूसरे की पीठ खुजाने जैसा मामला था. आरटीआई कार्यकर्ता पीके शाही के मुताबिक कुलपति राय ने हिंदी विश्वविद्यालय के कार्यालय के लिए दिल्ली में ज्ञानपीठ के एक ट्रस्टी का मकान डेढ़ लाख रुपये प्रति महीना के महंगे किराये पर लिया था. बाद में ज्ञानपीठ से बाहर किए जाने पर राय ने कार्यालय किसी दूसरी जगह पर मात्र 40,000 रुपये महीने के किराये पर ले लिया. उधर ज्ञानपीठ ने राय को अपनी चयन समिति का सदस्य बना दिया था. कुलपति बनने के बाद राय ने रवींद्र कालिया की पत्नी को विश्वविद्यालय की अंग्रेजी पत्रिका ‘हिंदी’ का संपादक बना दिया था. इसके एवज में रवींद्र कालिया ने राय का साक्षात्कार छापा और इस मामले में बचाव भी किया.

संजीव चंदन एक-दूसरे को लाभान्वित करने के इस खेल का आधार वीएन राय और रवीन्द्र कालिया की पुराने दिनों की दोस्ती को बताते हैं. संजीव इस व्यक्तिगत विडंबना की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ‘राय-कालिया की इस दोस्ती का जिक्र ममता कालिया की पुस्तक ‘कितने शहरों में कितनी बार’ में भी है. नया ज्ञानोदय के विवादास्पद साक्षात्कार में इसकी पैरोडी पेश करते हुए राय एक प्रतिष्ठित लेखिका की आत्मकथा का शीर्षक ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’ रखने की नसीहत देते हैं.’

ज्ञान का अपमान और ‘मैं जीवन भर तुमसे बदला लूंगा’

लेखकों और लेखिकाओं के पत्रिका द्वारा किए गए सामूहिक अपमानों के बीच में ज्ञानपीठ के पदाधिकारियों द्वारा अपने पद का फायदा उठाकर किए गए अनगिनत व्यक्तिगत अपमान भी हैं, जिनमें से ज्यादातर कभी सामने नहीं आते. गौरव सोलंकी भी अपने पत्र में ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन द्वारा किए गए अपमान और दी गई धमकियों का जिक्र करते हैं. इसी सिलसिले में जब जनसत्ता के संवाददाता राकेश तिवारी ने आलोक जैन को उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए फोन किया तो उन्होंने गौरव सोलंकी के लिए कई बार ‘साले’ शब्द का प्रयोग किया. जनसत्ता के संपादक ओम थानवी के मुताबिक आलोक जैन इससे पहले भी वरिष्ठ पत्रकार और लेखक राजकिशोर के एक लेख पर कुपित होकर उन्हें गोली मार देने की धमकी दे चुके हैं. तहलका ने जब गौरव प्रकरण के मसले पर आलोक जैन को फोन किया तब कुछ पूछने से पहले ही उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि ‘इस मामले से मेरा कोई लेना-देना नहीं है और इस बारे में ज्ञानपीठ के अधिकारियों से बात कीजिए.’ युवा कहानीकार श्रीकांत दुबे, जिनका कहानी-संग्रह ‘पूर्वज’ कुछ महीने पहले ही ज्ञानपीठ से छपा है, वे भी ज्ञानपीठ के ‘अतार्किक, ढीले-ढाले और गैरजिम्मेदाराना रवैये’ की बात करते हैं और कहते हैं, ‘जब अपने इस अनुभव को मैंने फेसबुक पर लिखा, तो अनेक तरीकों से मुझे भी चेताया गया कि मैं गलती कर रहा हूं.’ कई लेखक अपने अनुभव बताते हैं कि कैसे उनकी रचनाओं को महीनों-सालों तक ज्ञानपीठ ने लटकाए रखा और जब उन्होंने अपनी रचनाओं की स्थिति जानने की कोशिश की तो या तो बात ही नहीं की गई या बुरी तरह अपमानित किया गया. इन उदाहरणों को देखा जाए तो पदों का यह अहंकार ज्ञानपीठ के हर स्तर पर मौजूद दिखता है.

हिंदी के कई लेखक ‘नया ज्ञानोदय’ के सहायक संपादक कुणाल सिंह के हाथों भी अपमानित हो चुके हैं. लेकिन वे ऐसे व्यवहार और उसकी लगातार शिकायतों के बाद भी वहां कैसे बने रहे? यह पूछने पर ‘छिनाल प्रकरण’ पर भारतीय ज्ञानपीठ के खिलाफ चले अभियान की अगुवाई करने वाले एक लेखक कहते हैं, ‘रवींद्र कालिया ने अपने फेसबुक अकाउंट में ‘गतिविधियां और रुचि’ वाले विकल्प के आगे सिर्फ कुणाल सिंह का नाम लिखा है. इसी से आप कालिया जी के कुणाल के प्रति व्यक्तिगत स्नेह का अनुमान लगा सकते हैं.’

भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता से जुड़े कई कर्मचारी बताते हैं कि कुणाल वहां के पूर्व निदेशक और वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह के साथ भी बेहद अपमानजनक व्यवहार कर चुके हैं. उसके बाद भाषा परिषद की सचिव कुसुम खेमानी ने एक भी साहित्यकार की अनुशंसा के बिना कुणाल को भारतीय भाषा परिषद का युवा पुरस्कार दिया. कर्मचारी बताते हैं कि विजय बहादुर सिंह इस समेत संस्था की कई अनीतियों का विरोध कर रहे थे और इस कारण उन्हें अनुबंध की अवधि पूरी होने से पहले ही पद छोड़ना पड़ा.
कथाकार दुष्यंत भी रवीन्द्र कालिया को लिखा एक पत्र दिखाते हैं जिसमें उन्होंने लिखा है कि अपनी कहानी की स्थिति पूछने पर ही कुणाल ने उनसे अपमानजनक व्यवहार किया. एक युवा लेखिका ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर तहलका को बताया कि कैसे ‘नया ज्ञानोदय’ में उनकी कहानी छापने की बार-बार घोषणा करने के बावजूद भी कई महीनों तक उनकी कहानी प्रकाशित नहीं की गई. इसकी वजह थी कि इस बीच पत्रिका के सहायक संपादक कुणाल सिंह ने एक दिन फोन करके उनसे ‘प्रेम निवेदन’ किया और इस अप्रत्याशित प्रस्ताव पर चौंकी लेखिका ने तुरंत इनकार कर दिया. इसके बाद कुणाल ने उनसे कहा, ‘मैं जीवन भर तुमसे बदला लूंगा.’ तात्कालिक रूप से यह बदला कहानी न छापने तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि जब महीनों बाद लेखिका ने पत्र लिखकर अपनी कहानी वापस ले ली और बाद में वह दूसरी पत्रिका में छपने ही वाली थी, तब बिना उनकी अनुमति के ‘नया ज्ञानोदय’ में वह कहानी छाप दी गई.

जो भी हो, ‘ज्ञानपीठ’ द्वारा ’बदला लेने’ का यह सिलसिला न यहां शुरू हुआ, न खत्म. केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा की साहित्यिक पत्रिका ‘गवेषणा’ के सहायक संपादक प्रकाश भी एक चौंका देने वाला अनुभव बताते हैं. प्रकाश ने ज्ञानपीठ के प्रबंध न्यासी साहू अखिलेश जैन को 30 जनवरी, 2009 को एक पत्र लिखकर कुणाल सिंह द्वारा की गई बदसलूकी की शिकायत की थी. प्रकाश ने इस पत्र की प्रति भारतीय ज्ञानपीठ के अन्य न्यासियों और निदेशक रवीन्द्र कालिया को भी भिजवाई थी.  पत्र में वे कहते हैं, ‘तुम हिंदी के दो कौड़ी के लेखकों में हो, और तुम्हारी किताब भी फाड़कर मैं डस्टबिन में डाल दूंगा.’ हालांकि कुणाल सिंह इन आरोपों का खंडन करते हुए कहते हैं, ‘मैं नया ज्ञानोदय में एक अन्य कर्मचारी की तरह हूं. किस हैसियत से मैं ऐसा करूंगा. अगर मैंने किसी को अपमानित किया तो वे आज तक कहां थे?’ ‘अंबेडकर संचयन’ के संपादक रामजी यादव और कहानीकार प्रभात रंजन से इतर ज्ञानपीठ में काम कर चुके या छप चुके कई लेखक कुणाल के अहंकार भरे रवैये के बारे में बात करते हैं.

एक और बड़े बदले की कहानी महेन्द्र राजा जैन की है, लेकिन उनके मुताबिक उनसे बदला लिया निदेशक रवीन्द्र कालिया ने. महेन्द्र राजा जैन को भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से तत्कालीन निदेशक प्रभाकर श्रोत्रिय ने 2005 में जैनेन्द्र रचनावली का इंडेक्स तैयार करने का कार्यभार दिया था. गौरतलब है कि बाद में श्रोत्रिय की जगह रवीन्द्र कालिया ने ले ली. लगभग पूरे हो चुके इस काम को बीच में ही कालिया ने बंद करा दिया. बहुत खतो-किताबत करने और अंततः ज्ञानपीठ को कानूनी नोटिस भिजवाने के बाद राजा जैन को इस काम का आधा-अधूरा पारिश्रमिक ही मिल सका.

राजा जैन के साथ भारतीय ज्ञानपीठ का दूसरा प्रसंग तो और भी बुरा रहा है. प्रकाशन के लिए वर्ष 2004 में ही स्वीकृत ‘विराम चिह्न : क्यों और कैसे’ की पांडुलिपि लगभग छह साल बाद उन्हें वापस लौटा दी गई. इस किताब के बारे में महेंद्र राजा जैन को 2 जून, 2008 को लिखे गए एक पत्र में रवींद्र कालिया लिखते हैं, ‘ज्ञानपीठ से अब तक कोई व्याकरण की पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है. प्रयोग के तौर पर प्रथम संस्करण की 300 प्रतियां प्रकाशित करेंगे. अगर पुस्तक बाजार में चल निकली तो उसका अगला संस्करण प्रकाशित किया जा सकता है.’ इस सीधी और अच्छी लगने वाली बात के बाद तीखा मोड़ लेकर यह कहानी एक साथ कई लेखकों की साझी कहानी हो जाती है.

अपनी किताब के प्रकाशन को लेकर जैन ने भारतीय ज्ञानपीठ के अधिकारियों को कुछ महीनों के दौरान कई पत्र लिखे. लेकिन उनके पत्रों का या तो जवाब नहीं दिए गए या फिर उन्हें गोलमोल जवाब दिए गए. यही सब गौरव के साथ हुआ. उनके मुताबिक, वे भी अपनी किताब वापस लेने का आखिरी पत्र लिखने से पहले रवीन्द्र कालिया और आलोक जैन को लगातार खत लिखते रहे थे, जिनके जवाब नहीं दिए गए.

खैर, राजा जैन के मामले में लगभग चार महीने बाद 9 मई, 2009 को रवींद्र कालिया ने उनसे मिलकर ‘विराम चिह्न  क्यों और कैसे’ की पांडुलिपि लौटा दी. जैन अपने साथ हुए इस दुर्व्यवहार की वजह कुछ इस तरह बताते हैं, ‘रवींद्र कालिया जब भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका वागर्थ के संपादक थे तब उन्होंने लिखा था कि ‘इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की किसी साहित्यिक कृति का उल्लेख नहीं है. भारतीय भाषा परिषद ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य की इस अनदेखी के प्रति एक आंदोलन शुरू किया है.’ मैंने इस गलती की ओर पत्र लिखकर उनका ध्यान दिलाया कि इनसाइक्लोपीडिया में लगभग 150 पन्नों में भारतीय भाषाओं के बारे में छपा हुआ है. लेकिन कालिया जी ने वागर्थ के अगले अंक में फिर से वही सब दोबारा लिख डाला. तब मैंने पाठकों को सही जानकारी देने के लिए ‘समयांतर’ में  लेख लिखा. कालिया जी ने इसे गांठ बांध लिया और उसका बदला मुझसे ज्ञानपीठ में आकर निकाला.’ राजा जैन से जुड़े मसले पर तहलका ने रवींद्र कालिया का पक्ष जानने की कोशिश की लेकिन उनसे बात नहीं हो पाई. गौरव सोलंकी ने भी तहलका में साहित्य के सामंत वाली कवर स्टोरी में मठाधीशी और गुटबाजी के खिलाफ एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ‘बल्ब बड़ा या सूरज’. इस कवर स्टोरी में रवींद्र कालिया को भी साहित्य के एक सत्ताकेंद्र के रूप में दिखाया गया था.

तो क्या इस लेख का छपना ही गौरव के साथ जो कुछ हुआ उसकी वजह है. ‘यह लेख भी एक वजह हो सकती है क्योंकि आलोक जैन और रवीन्द्र कालिया ने कहा भी कि मेरे एटीट्यूड और बेबाकी से उन्हें प्रॉब्लम है. वह लेख अगस्त, 2011 में छपा था. उन्होंने मेरे साथ सब उसके बाद ही किया. मैं तो खुद महीनों से असल वजह जानना चाहता हूं.’ गौरव कहते हैं.

ये घटनाएं भले ही प्रकाश, महेन्द्र राजा जैन, गौरव सोलंकी और कई दूसरे लेखकों के साथ घटी हों, लेकिन हिन्दी साहित्य की एक परेशान करने वाली तस्वीर तो बना ही जाती हैं. शायद इसीलिए वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा कहती हैं, ‘ज्ञानपीठ के व्यवसाय में भले ही इजाफा हुआ होगा, लेकिन सच तो यह है कि भारतीय ज्ञानपीठ ने अपना गौरव  खोया है, उसके मूल्यों में गिरावट आई है.’
गौरव सोलंकी पर भी पहले रवींद्र कालिया का साथ देने और अब व्यक्तिगत मनमुटाव के चलते पुरस्कार लौटाने के आरोप लग रहे हैं. इसके जवाब में गौरव कहते हैं, ‘अगर किसी पत्रिका में कुछ कहानियां छपना दोस्ती है तो इस देश की दर्जन भर पत्रिकाएं और अखबार मेरे दोस्त हैं. मेरा इससे पहले का अनुभव ठीक ही था.  आप इसे व्यक्तिगत कैसे कह सकते हैं? गांधी जी से किसी भी कीमत पर अपनी तुलना नहीं कर रहा हूं लेकिन उन्हें जब काला कहकर अंग्रेजों ने ट्रेन से फेंका तभी उनकी लड़ाई शुरू हुई.’

यह पूछने पर कि अब वे चाहते क्या हैं, गौरव आगे कहते हैं, ‘मैं कुछ नहीं चाहता, न कोई ईनाम, न किताब छपवाना, न ये कि वे मुझसे माफी मांगें. बस ये हो कि हिंदी के लेखक ऐसे भ्रष्ट और पूर्वाग्रही सिस्टम से आजाद हों किसी तरह. ये संस्थाएं शायद अपना चरित्र न बदलें लेकिन हमें इनका बहिष्कार करना होगा. और कोई भले ही न करे, लेकिन मैंने तय किया है कि जितना बन पड़ेगा, नया रास्ता खोजूंगा। भले ही सब लिखा हुआ हमेशा के लिए मुझे अपने कमरे में रखना पड़े.’

गौरव सोलंकी प्रकरण का हिंदी साहित्य की दशा पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन युवा कवि और साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतिलिपि’ के संपादक गिरिराज किराड़ू का यह निष्कर्ष ज्यादा उम्मीद नहीं जगाता- ‘गौरव प्रकरण ने ज्ञानपीठ  को ही नहीं, हम युवा हिंदी लेखकों को भी एक्सपोज कर दिया है. सचमुच, जॉर्ज बुश से ज्यादा मुश्किल है, अपने बॉस का विरोध करना.’ 

तिवारी ने दिया खून का नमूना

चार साल पुराने पितृत्ववाद में 32 वर्षीय रोहित शेखर को एक बड़ी सफलता मिल गई. एनडी तिवारी ने जांच के लिए अपने खून के नमूने दे दिए हैं.  आन्ध्रप्रदेश के पूर्व राज्यपाल 86 वर्षीयतिवारी उच्च न्यायालय के सात आदेशों के बाबजूद डीएनए टेस्ट के लिए अपने खून का नमूना न देने के लिए बहाने बनाते हुए कानूनी लड़ाई को लंबा खींच रहे थे.

तिवारी के उच्च सम्पर्कों और पंहुच के बाद भी रोहित को न्यायालय की निगरानी और हैदराबाद स्थित सीडीएफडी पर पूरा भरोसा है.उनकी मां उज्जवला शर्मा का दावा है कि यदि सब कुछ ईमानदारी से चला तो शेखर की जीत होगी. रोहित शेखर ने न्यायालय में मामला दायर कर तिवारी को अपना जैविक पिता बताया था. तिवारी उनके इस दावे को झुठलाते हुए कानूनी लड़ाई को लंबा खींचते हुए खून का नमूना देने से बच रहे थे.

उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार और देहरादून के जिला जज की मौजूदगी में तिवारी ने नियत समय पर देहरादून जिला अस्पताल के डाक्टरों और सी.डी.एफ.डी के फोरंसिक विशेषज्ञों को खून का नमूना दे दिया. देहरादून के भारतीय वनसंस्थान स्थित तिवारी के आवास पर ये नमूने रोहित शेखर और उनकी मां उज्जवला शर्मा की मौजूदगी में लिए गए.

शेखर बताते हैं कि आज जब न्यायालय के आदेश पर उनका जब तिवारी से मिलन हुआ तो तिवारी ने उनसे निष्ठुरता से पूछा कि रोहित शेखर आपकी पड़ाई कैसी चल रही है? शेखर बताते हैं, ‘मैंने कहा कि आपकी कृपा से पिछले पांच-छह सालों से कोर्टों में धक्के खाते-खाते मैं काफी कानून सीख गया हूं. वे आगे बताते हैं कि तिवारी जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे तो शुरु-शुरू में वे और उनकी मां मुख्यमंत्री आवास आते थे. उनका दावा है कि, तिवारी के सभी अधिकारी और कर्मचारी इस रिश्ते का सच जानते थे .शेखर बताते हैं, बात में हमसे कहा जाने लगा कि हम बिना अप्वाइंटमेंट के उनसे नहीं मिल सकते. हमें तो बड़ा धक्का लगा. एक पुत्र को अपने पिता से मिलने के लिए समय लेना पड़ेगा. तिवारी मुझे बंद कमरे में तो अपना पुत्र बताते थे और बाहर आते ही अजनबी जैसा व्यवहार करते थे. शेखर कहते हैं कि तिवारी चूंकि इस संबंध को स्वीकार नहीं कर रहे थे इसलिए वे निराश और कुंठित हो गए थे.

इस दोहरे व्यवहार और तिवारी के निष्ठुरपन से चोट खाए शेखर की दशा देख कर उनके नाना प्रोफेसर शेर सिंह ने प्रधानमंत्री सहित अन्य नेताओं को अपनी पुत्री और शेखर को उसका अधिकारदिलाने के लिए पत्र लिखे थे. शेर सिंह केन्द्रीय रक्षा राज्य मंत्री और संयुक्त पंजाब के उप-मुख्यमंत्री रह चुके थे. इन पत्रों को लिखने औरबात के सार्वजनिक होने पर भी कुछ न होने पर शेखर न्यायालय की शरण में गए. शेखर मानते हैं कि उनकी मुहिम के कारण ही तिवारी की 2007 में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को धक्का लगा.

शेखर से जब तहलका ने यह पूछा कि, वे नाम के लिए या पहचान के लिए यह लड़ाई लड़ रहे हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि दोनों के लिए. उन्होंने सवाल दागा, किसे अच्छा नहीं लगेगा कि उसका पिता मुख्यमंत्री हो.’ वे कहते हैं कि, मुकदमा जीतने के बाद वे न्यायालय के माध्यम से ही अपने हर हक की लड़ाई लड़ेगें. शेखर को भरोसा है कि तिवारी की उन्हें सार्वजनिक रुप से पुत्र न मानने की जिद और घमंड से न्यायालय में जीतने के बाद तिवारी और कानूनी मुसीबतों में फंसेगे.

‘प्रेम और प्रकृति की कविता वामपंथियों को रास नहीं आती’

खुद को अज्ञेय का छात्र बताने वाले ओम थानवी की भाषा पर उनके गुरु की छाप साफ साफ दिखती है. वे इसे स्वीकारते भी हैं. पिछले दिनों यात्रा-संस्मरण पर उनकी किताब ‘मुअनजोदड़ो’ आई थी जिसने काफी चर्चा बटोरी. अब उनके संपादन में ‘अपने-अपने अज्ञेय’ किताब वाणी प्रकाशन से छपकर आई है. अज्ञेय पर लिखे सौ से ज्यादा संस्मरण इसमें शामिल किए गए हैं. स्वतंत्र मिश्र से बातचीत में जनसत्ता के संपादक थानवी ने इस पहल और अज्ञेय के व्यक्तित्व पर विस्तार से बातचीत की

‘अपने-अपने अज्ञेय’  के कवर पर अज्ञेय की लिखावट में साहित्य के प्रकाशन के लिए पेड़ काटने की पीड़ा को दर्शाया गया है. फिर क्या जरूरत हुई कि आपने अज्ञेय पर लिखे लेखों को दो मोटे-मोटे खंडों में प्रकाशित करवाया?

 इस संग्रह में सौ से ज्यादा संस्मरण प्रकाशित किए गए हैं. लेख और समीक्षा कोई भी लिख सकता है. लेकिन संस्मरण वही लिख सकते हंै जो अज्ञेय के आस-पास रहे हों. मैंने आग्रह करके बहुत सारे संस्मरण लिखवाए हैं. अज्ञेय जब 75 साल के हुए तब कई लोगों ने उनके बारे में लिखा था. उनके निधन के बाद भी कुछ लोगों ने संस्मरण लिखे. मैंने यत्न किया तो पाया कि संस्मरणों की संख्या सौ पार चली गई. यह संयोग है कि हम अज्ञेय का जन्मशती वर्ष भी मना रहे हैं. मैं नहीं समझता हूं कि हिंदी या दूसरी भाषाओं में किसी लेखक पर सौ से ज्यादा लोगों ने संस्मरण लिखे होंगे. अज्ञेय के बारे में लिखने वाले लेखक भी बहुत महत्वपूर्ण लेखक और साहित्यकार हैं. ये केवल संस्मरण भर नहीं हैं. इसमें उनके साहित्य की आलोचना भी है. कई संस्मरणों में अज्ञेय की निंदा भी की गई है. यह कोई अभिनंदन ग्रंथ नहीं है. एक बड़े लेखक का जन्मदिन इस तरह से मनाया जा सकता था इसलिए मैंने इसे अंजाम तक पहुंचाया.

आपने किताब में लिखा है कि संस्मरण को साहित्य का दर्जा नहीं मिला है जबकि संस्मरण लिखना भी एक महत्वपूर्ण काम है. इसके पीछे क्या तर्क दिए जाते हैं?

 देखिए, साहित्य में जो खांचेबाजी होती है उसके चलते ही यह कहा जाता रहा है कि संस्मरण सृजनात्मक विधा नहीं है. आप देखेंगे कि साहित्य में जो पुरस्कार दिए जाते हैं उसमें कथा, कहानी, कविता या आलोचना को ही रखा जाता है. परंतु मैं ऐसा नहीं मानता. 

 

आप अज्ञेय को सबसे पेचीदा क्यों मानते हैं?

हां, मैंने ऐसा लिखा है. यह अपने आप में एक तरह से सही भी है. अज्ञेय के व्यक्तित्व में एक पेचीदगी थी. हालांकि उनके व्यक्तित्व में एक किस्म की सहजता भी थी. संजीदगी और गरिमा भी थी. मुझे उनके करीब रहने का मौका मिला. उनके साथ मैंने कई यात्राएं कीं. मैंने पाया कि वे मानवीय गरिमा से भरपूर व्यक्ति थे. पेचीदगी यह थी कि वे बहुत संवेदनशील थे. बहुत चुप रहते थे. हालांकि उनकी चुप्पी किसी घुन्ने व्यक्ति वाली नहीं थी. लेकिन उन्हें घुन्ना मान लिया जाता था. एक दफा एक बड़े आलोचक ने उन्हें मनहूस चिपांजी भी कह दिया था. जबकि मैंने उन्हें खूब हंसी, ठठ्ठा करते भी देखा है. मैं एक बार उनके साथ दिल्ली से लखनऊ रेलगाड़ी से गया. वे सामान रखने वाली जगह पर बैठ गए और पूरी नाटकीय भाव-भंगिमा के साथ उन्होंने अपने समय के कवियों की मिमिकरी करके दिखाई. हम पूरे रास्ते खूब हंसते रहे. उनके व्यक्तित्व की जो पेचीदगी है उसके कई सारे पहलू हैं जो एक जगह आकर जुड़ते हैं. उनमें कुछ परस्पर विरोध भी थे. लेकिन उनके करीब आप ज्यों-ज्यों पहुंचते हैं त्यों-त्यों उनके पेंच खुलते जाते हैं.

‘गुलशन नंदा की लोकप्रियता ओछी किस्म की है लेकिन अज्ञेय की सात्विक किस्म की है. इसके अच्छे और बुरे दोनों पहलू होते हैं’

अज्ञेय को लेकर जन्मशती समारोह, संस्मरण ग्रंथ सब कुछ हो रहा है. दूसरी ओर मुक्तिबोध को लेकर सुस्ती क्यों है?

मुक्तिबोध निस्संदेह बड़े कवि थे. इसको लेकर किसी को कोई संदेह नहीं है. 

अज्ञेय को बड़ा और मुक्तिबोध को छोटा करने की राजनीति चलाई जाती रही है. ऐसा लोग क्यों कहते हैं?

हमारे यहां की वामपंथी राजनीति ने बहुत सारे बड़े लेखक और आलोचक दिए. लेकिन साथ में बड़ी अजीबोगरीब राजनीति भी दी है. उस राजनीति का सिरा पकड़ना आसान नहीं है. अमेरिका के किसी भी अनुदान को बुरा माना जाता था लेकिन सोवियत भूमि के किसी भी अनुदान और पुरस्कार को बहुत श्रेष्ठ. इसी तरह से वे साहित्य को भी देखते थे. अगर उनके अनुकूल हो तो सब ठीक है अन्यथा सब गड़बड़ है. विचार में तब्दीली आती है. हो सकता है कि जो आज आप सोच रहे हैं कोई जरूरी नहीं है कि कल भी सोचें. आप जड़ नहीं होते हैं. लेकिन आप जब पार्टी के सदस्य बन जाते हैं तब आप प्रतिज्ञा कर लेते हैं. साहित्य में इस तरह के विचार नहीं चल सकते हैं. शुरू में अज्ञेय वामपंथी विचार से जुड़े रहे. सक्रिय कार्यकर्ता रहे. लेकिन बाद में वे जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अंतत: गांधी के करीब आ गए. अब वे वामपंथियों के लिए दुश्मन हो गए. यह कोई स्वस्थ विचार नहीं है. अज्ञेय को लेकर बड़ी बेकार-बेकार बातें हुईं. वे नपुंसक हैं और साथ ही उनकी जायज संतानें हैं. परस्पर विरोधी बातें. एक कवि और साहित्यकार का इन बातों से क्या लेना-देना? अगर एक बार ये बातें सच हों भी तब भी क्या मतलब रह जाता है. लेकिन लांछन लगाकर उनकी साहित्यिक गतिविधियों में बाधा पहुंचाई जाए. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और ऐसा होता भी नहीं है. इसे मैं जातिवादी दृष्टिकोण कहना चाहूंगा. क्योंकि जात-पात करने वाले लोग यही तो करते हैं कि एक जाति के लोग दूसरी जाति को हीन बताकर आगे बढ़ना चाहते हैं. वे अपनी जाति के सदस्यों को आगे बढ़ाने के लिए हर छोटी-बड़ी बातों को अंजाम देते हैं. इस तरह की राजनीति करने वालों ने ही अज्ञेय को कभी मुक्तिबोध तो कभी नागार्जुन के बरक्स खड़ा करने की कोशिश की है. सच तो यह है कि मुक्तिबोध और अज्ञेय एक ही मंच से कविता पढ़ते थे. आप राजेंद्र शर्मा के संस्मरण में यह देख सकते हैं. मुक्तिबोध की मृत्यु पर अज्ञेय ने संस्मरण भी लिखा था. मुझे अज्ञेय के दस्तावेजों में वह संस्मरण मिला. मैंने उसे जनसत्ता में प्रकाशित भी किया था. उसे पढ़कर यह पता चलता है कि मुक्तिबोध का अज्ञेय कितना आदर करते थे. शमशेर बहादुर सिंह और केदारनाथ उनके पहले सप्तक तारसप्तक में शामिल थे. तार सप्तक में सात में से चार कवि तो वामपंथी विचारधारा के थे. इस किताब को पढ़कर पता चलेगा कि अज्ञेय ने नागार्जुन को भी सप्तक में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था. त्रिलोचन को भी आमंत्रित किया था. उनका वामपंथियों से कोई दुराव नहीं था. लेकिन अज्ञेय किसी एक खूंटे से बंधना नहीं चाहते थे. वे एक ऐसे लेखक थे जिसमें सब तरह की विचारधारा समा जाती है. अज्ञेय का यह स्पष्ट मानना था कि किसी की विचारधारा की वजह से आप किसी लेखक की कृति को पसंद या नापसंद नहीं कर सकते. पाब्लो नेरुदा मार्क्सवादी होते हुए प्रेम की कविता लिख सकते हैं लेकिन अपने यहां विचारवादी किस्म के लेखकों ने प्रेम और प्रकृति की कविता को असामाजिक करार दिया. अज्ञेय का विरोध करते-करते लोगों ने प्रेम और प्रकृति की कविताओं को खारिज कर दिया. इस तरह आप हिदुस्तान ही नहीं बल्कि चीनी और जापानी कविताओं को भी खारिज कर देंगे. प्रकृति या प्रेम की कविता कैसे असामाजिक कविता हो सकती है? क्या प्रेम और प्रकृति समाज का हिस्सा नहीं है? अज्ञेय की रुचि मनोविज्ञान, प्रेम और प्रकृति में थी, जो वामपंथी लेखकों को रास नहीं आती थी.

भारतीय समाज में या तो मूर्ति बनाने वाले लोग हैं या फिर मूर्तिभंजक. ऐसा विरोधाभास क्यों है?

किसी साहित्यकार को देवता बनाना ठीक नहीं है लेकिन उसे दानव की तरह पेश करना भी ठीक नहीं है. बड़े और महान साहित्यकारों में हजारों खोट हो सकते हैं और उन पर ध्यान दिया जाना चाहिए. लेकिन उसका कुछ अनुपात तो तय हो. आप कमियां निकालने में उनके मुख्य  अवदान को भूल जाते हैं. अज्ञेय को नापसंद करने वाले कुछ लेखकों ने मुझसे कहा कि आप तो उनके भक्त हैं. कुछ ने मुझे उनका अंधभक्त बताया. लेकिन कुछ लोगों ने कहा कि आपने यह काम बड़ी श्रद्धा के साथ किया है. मुझे नहीं पता कि इस देश में श्रद्धा कब से बुरी चीज हो गई? समर्पण का भाव होना और समर्पित होने में फर्क है. इसमें कोई शक नहीं है कि मेरे मन में अज्ञेय के प्रति श्रद्घा नहीं होती तो मैं इतनी मेहनत नहीं करता. पूरा साल नहीं लगाता. मैं मानता हूं कि मुझे हिंदी का जो भी ज्ञान है, उसमें अज्ञेय की बड़ी भूमिका रही है. मैं हिंदी का छात्र नहीं रहा हूं. अज्ञेय एक-एक शब्द को लेकर बहुत संवेदनशील रहते थे. मैंने अज्ञेय का साहित्य पढ़कर एक भाषा अर्जित की है. भला ऐसे में मैं अज्ञेय के प्रति कृतज्ञ क्यों न रहूं? मैं मानता हूं कि उनके भीतर महानता के तत्व ज्यादा हैं और मेरा ध्यान उसी ओर ज्यादा जाता है.

अज्ञेय पर हमेशा आरोप लगाए जाते रहे. आरोप लगाने वाले कौन हैं और वे ऐसा क्यों करते रहे?

किसी भी व्यक्ति को लांछित करने के लिए कुछ भी आरोप लगाए जा सकते हैं. अज्ञेय ने कभी अपने ऊपर लगे आरोपों का कोई जवाब नहीं दिया तो इसका जवाब मैं क्यों दूं. हां, उन्होंने एक बार इतना जरूर लिखा कि आपको जो करना था आपने किया. इन बातों से न ही आपका कुछ बिगड़ा और न ही मेरा. इतना कुछ किए जाने के बाद आप हिंदी पट्टी के घरों में जाइए किसी और साहित्यकार की किताबें मिलें या न मिलें लेकिन आपको अज्ञेय की दो-चार किताबें जरूर मिल जाएंगी. अज्ञेय का एक विशाल पाठक वर्ग है. हाल ही में आसनसोल (पश्चिम बंगाल) में अज्ञेय की जन्मशती का आयोजन किया गया. नामवर जी ने भीड़ देखकर कहा कि इतनी भीड़ तो आजकल चुनावी गोष्ठियों में ही होती है साहित्य की सभाओं में नहीं. अज्ञेय अगर इतनी भीड़ देखते तो शायद बेहोश हो जाते. शायद अज्ञेय की यही लोकप्रियता उन लोगों को चुभती है. उन्हें लगता रहा कि अज्ञेय खत्म हो जाएंगे. लेकिन स्थितियां आज इसके विपरीत हो गईं. सच तो यह है कि वे सही अर्थोंं में लोकप्रिय साहित्यकार हैं. गुलशन नंदा की लोकप्रियता एक ओछी किस्म की लोकप्रियता है लेकिन अज्ञेय की लोकप्रियता सात्विक किस्म की है. लोकप्रियता के अच्छे और बुरे दोनों पहलू हैं. अज्ञेय की लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ती गई. जन्मशती इस बात का प्रमाण है कि अज्ञेय को लेकर जितने आयोजन हुए उतने किसी लेखक को लेकर नहीं हुए. हमें नहीं पता कि आसनसोल में किसने आयोजन किया. न ही ओम थानवी ने, न ही अशोक वाजपेयी ने और न ही वत्सल निधि ने किया. मैंने तो यह खबर अखबार में पढ़ी. हां, कलकत्ता में हमने जन्मशती का आयोजन किया. वहां भी यह देखकर मुझे हैरानी हुई कि अज्ञेय का सम्मान गैरहिंदी प्रांत में भी बहुत ज्यादा है. एक अखबार ने लिखा कि अज्ञेय आयोजन में हिंदी के लोग कम बंगाल के लोग ज्यादा थे. बंगाली समाज यह मानने को तैयार ही नहीं है कि टैगोर के बाद कोई इतना बड़ा साहित्यकार हुआ है और वहां अज्ञेय की जन्मशती के आयोजन में हॉल खचाखच भरा होना उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है. आयोजन में शंख घोष जैसे कवि पहुंचे जो किसी अन्य आयोजन में आते-जाते नहीं हैं. हाल ही में दादा साहब फाल्के से सम्मानित सौमित्र चटर्जी ने अज्ञेय की कविताओं का बांग्ला में पाठ किया. अर्पिता चटर्जी ने बांग्ला में उनकी कविता का पाठ किया. मंच पर सुनील गंगोपाध्याय भी मौजूद थे. जन्मशती वर्ष में उनकी लोकप्रियता और उजागर हुई है. यह सब अज्ञेय पर आरोप मढ़ने वाले लोगों को और चिढ़ाता है. एक वामपंथी लेखक ने यह भी लिखा है कि इस बात की जांच की जानी चाहिए कि अज्ञेय की विदेश यात्रा का खर्च किसने उठाया है अज्ञेय जी की विदेश यात्रा के पचास-साठ साल के बाद आप यह पूछें कि उसका खर्च किसने उठाया तो इससे हास्यास्पद बात क्या हो सकती है? पंकज बिष्ट ने अपनी पत्रिका ‘समयांतर’ में लिखा कि वामपंथियों को अज्ञेय की जन्मशती का विरोध करना चाहिए. उन्होंने तीन पेज की रिपोर्ट लिखी. उसमें अपील की कि लेखकों को कार्यक्रम में शिरकत नहीं करनी चाहिए. हम लोगों ने पंकज बिष्ट जी को आमंत्रित किया और वे कलकत्ता चले आए. आप देख सकते हैं कि इनकी कथनी और करनी में कितना अंतर है.

 

‘प्रेम और प्रकृति की कविता वामपंथियों को रास नहीं आती’

खुद को अज्ञेय का छात्र बताने वाले ओम थानवी की भाषा पर उनके गुरु की छाप साफ साफ दिखती है. वे इसे स्वीकारते भी हैं. पिछले दिनों यात्रा-संस्मरण पर उनकी किताब ‘मुअनजोदड़ो’ आई थी जिसने काफी चर्चा बटोरी. अब उनके संपादन में ‘अपने-अपने अज्ञेय’ किताब वाणी प्रकाशन से छपकर आई है. अज्ञेय पर लिखे सौ से ज्यादा संस्मरण इसमें शामिल किए गए हैं. स्वतंत्र मिश्र से बातचीत में जनसत्ता के संपादक थानवी ने इस पहल और अज्ञेय के व्यक्तित्व पर विस्तार से बातचीत की

‘अपने-अपने अज्ञेय’  के कवर पर अज्ञेय की लिखावट में साहित्य के प्रकाशन के लिए पेड़ काटने की पीड़ा को दर्शाया गया है. फिर क्या जरूरत हुई कि आपने अज्ञेय पर लिखे लेखों को दो मोटे-मोटे खंडों में प्रकाशित करवाया?

इस संग्रह में सौ से ज्यादा संस्मरण प्रकाशित किए गए हैं. लेख और समीक्षा कोई भी लिख सकता है. लेकिन संस्मरण वही लिख सकते हंै जो अज्ञेय के आस-पास रहे हों. मैंने आग्रह करके बहुत सारे संस्मरण लिखवाए हैं. अज्ञेय जब 75 साल के हुए तब कई लोगों ने उनके बारे में लिखा था. उनके निधन के बाद भी कुछ लोगों ने संस्मरण लिखे. मैंने यत्न किया तो पाया कि संस्मरणों की संख्या सौ पार चली गई. यह संयोग है कि हम अज्ञेय का जन्मशती वर्ष भी मना रहे हैं. मैं नहीं समझता हूं कि हिंदी या दूसरी भाषाओं में किसी लेखक पर सौ से ज्यादा लोगों ने संस्मरण लिखे होंगे. अज्ञेय के बारे में लिखने वाले लेखक भी बहुत महत्वपूर्ण लेखक और साहित्यकार हैं. ये केवल संस्मरण भर नहीं हैं. इसमें उनके साहित्य की आलोचना भी है. कई संस्मरणों में अज्ञेय की निंदा भी की गई है. यह कोई अभिनंदन ग्रंथ नहीं है. एक बड़े लेखक का जन्मदिन इस तरह से मनाया जा सकता था इसलिए मैंने इसे अंजाम तक पहुंचाया.

आपने किताब में लिखा है कि संस्मरण को साहित्य का दर्जा नहीं मिला है जबकि संस्मरण लिखना भी एक महत्वपूर्ण काम है. इसके पीछे क्या तर्क दिए जाते हैं?

देखिए, साहित्य में जो खांचेबाजी होती है उसके चलते ही यह कहा जाता रहा है कि संस्मरण सृजनात्मक विधा नहीं है. आप देखेंगे कि साहित्य में जो पुरस्कार दिए जाते हैं उसमें कथा, कहानी, कविता या आलोचना को ही रखा जाता है. परंतु मैं ऐसा नहीं मानता. 

आप अज्ञेय को सबसे पेचीदा क्यों मानते हैं?

हां, मैंने ऐसा लिखा है. यह अपने आप में एक तरह से सही भी है. अज्ञेय के व्यक्तित्व में एक पेचीदगी थी. हालांकि उनके व्यक्तित्व में एक किस्म की सहजता भी थी. संजीदगी और गरिमा भी थी. मुझे उनके करीब रहने का मौका मिला. उनके साथ मैंने कई यात्राएं कीं. मैंने पाया कि वे मानवीय गरिमा से भरपूर व्यक्ति थे. पेचीदगी यह थी कि वे बहुत संवेदनशील थे. बहुत चुप रहते थे. हालांकि उनकी चुप्पी किसी घुन्ने व्यक्ति वाली नहीं थी. लेकिन उन्हें घुन्ना मान लिया जाता था. एक दफा एक बड़े आलोचक ने उन्हें मनहूस चिपांजी भी कह दिया था. जबकि मैंने उन्हें खूब हंसी, ठठ्ठा करते भी देखा है. मैं एक बार उनके साथ दिल्ली से लखनऊ रेलगाड़ी से गया. वे सामान रखने वाली जगह पर बैठ गए और पूरी नाटकीय भाव-भंगिमा के साथ उन्होंने अपने समय के कवियों की मिमिकरी करके दिखाई. हम पूरे रास्ते खूब हंसते रहे. उनके व्यक्तित्व की जो पेचीदगी है उसके कई सारे पहलू हैं जो एक जगह आकर जुड़ते हैं. उनमें कुछ परस्पर विरोध भी थे. लेकिन उनके करीब आप ज्यों-ज्यों पहुंचते हैं त्यों-त्यों उनके पेंच खुलते जाते हैं.

‘गुलशन नंदा की लोकप्रियता ओछी किस्म की है लेकिन अज्ञेय की सात्विक किस्म की है. इसके अच्छे और बुरे दोनों पहलू होते हैं’

अज्ञेय को लेकर जन्मशती समारोह, संस्मरण ग्रंथ सब कुछ हो रहा है. दूसरी ओर मुक्तिबोध को लेकर सुस्ती क्यों है?

मुक्तिबोध निस्संदेह बड़े कवि थे. इसको लेकर किसी को कोई संदेह नहीं है. 

अज्ञेय को बड़ा और मुक्तिबोध को छोटा करने की राजनीति चलाई जाती रही है. ऐसा लोग क्यों कहते हैं?

हमारे यहां की वामपंथी राजनीति ने बहुत सारे बड़े लेखक और आलोचक दिए. लेकिन साथ में बड़ी अजीबोगरीब राजनीति भी दी है. उस राजनीति का सिरा पकड़ना आसान नहीं है. अमेरिका के किसी भी अनुदान को बुरा माना जाता था लेकिन सोवियत भूमि के किसी भी अनुदान और पुरस्कार को बहुत श्रेष्ठ. इसी तरह से वे साहित्य को भी देखते थे. अगर उनके अनुकूल हो तो सब ठीक है अन्यथा सब गड़बड़ है. विचार में तब्दीली आती है. हो सकता है कि जो आज आप सोच रहे हैं कोई जरूरी नहीं है कि कल भी सोचें. आप जड़ नहीं होते हैं. लेकिन आप जब पार्टी के सदस्य बन जाते हैं तब आप प्रतिज्ञा कर लेते हैं. साहित्य में इस तरह के विचार नहीं चल सकते हैं. शुरू में अज्ञेय वामपंथी विचार से जुड़े रहे. सक्रिय कार्यकर्ता रहे. लेकिन बाद में वे जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अंतत: गांधी के करीब आ गए. अब वे वामपंथियों के लिए दुश्मन हो गए. यह कोई स्वस्थ विचार नहीं है. अज्ञेय को लेकर बड़ी बेकार-बेकार बातें हुईं. वे नपुंसक हैं और साथ ही उनकी जायज संतानें हैं. परस्पर विरोधी बातें. एक कवि और साहित्यकार का इन बातों से क्या लेना-देना? अगर एक बार ये बातें सच हों भी तब भी क्या मतलब रह जाता है. लेकिन लांछन लगाकर उनकी साहित्यिक गतिविधियों में बाधा पहुंचाई जाए. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और ऐसा होता भी नहीं है. इसे मैं जातिवादी दृष्टिकोण कहना चाहूंगा. क्योंकि जात-पात करने वाले लोग यही तो करते हैं कि एक जाति के लोग दूसरी जाति को हीन बताकर आगे बढ़ना चाहते हैं. वे अपनी जाति के सदस्यों को आगे बढ़ाने के लिए हर छोटी-बड़ी बातों को अंजाम देते हैं. इस तरह की राजनीति करने वालों ने ही अज्ञेय को कभी मुक्तिबोध तो कभी नागार्जुन के बरक्स खड़ा करने की कोशिश की है. सच तो यह है कि मुक्तिबोध और अज्ञेय एक ही मंच से कविता पढ़ते थे. आप राजेंद्र शर्मा के संस्मरण में यह देख सकते हैं. मुक्तिबोध की मृत्यु पर अज्ञेय ने संस्मरण भी लिखा था. मुझे अज्ञेय के दस्तावेजों में वह संस्मरण मिला. मैंने उसे जनसत्ता में प्रकाशित भी किया था. उसे पढ़कर यह पता चलता है कि मुक्तिबोध का अज्ञेय कितना आदर करते थे. शमशेर बहादुर सिंह और केदारनाथ उनके पहले सप्तक तारसप्तक में शामिल थे. तार सप्तक में सात में से चार कवि तो वामपंथी विचारधारा के थे. इस किताब को पढ़कर पता चलेगा कि अज्ञेय ने नागार्जुन को भी सप्तक में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था. त्रिलोचन को भी आमंत्रित किया था. उनका वामपंथियों से कोई दुराव नहीं था. लेकिन अज्ञेय किसी एक खूंटे से बंधना नहीं चाहते थे. वे एक ऐसे लेखक थे जिसमें सब तरह की विचारधारा समा जाती है. अज्ञेय का यह स्पष्ट मानना था कि किसी की विचारधारा की वजह से आप किसी लेखक की कृति को पसंद या नापसंद नहीं कर सकते. पाब्लो नेरुदा मार्क्सवादी होते हुए प्रेम की कविता लिख सकते हैं लेकिन अपने यहां विचारवादी किस्म के लेखकों ने प्रेम और प्रकृति की कविता को असामाजिक करार दिया. अज्ञेय का विरोध करते-करते लोगों ने प्रेम और प्रकृति की कविताओं को खारिज कर दिया. इस तरह आप हिदुस्तान ही नहीं बल्कि चीनी और जापानी कविताओं को भी खारिज कर देंगे. प्रकृति या प्रेम की कविता कैसे असामाजिक कविता हो सकती है? क्या प्रेम और प्रकृति समाज का हिस्सा नहीं है? अज्ञेय की रुचि मनोविज्ञान, प्रेम और प्रकृति में थी, जो वामपंथी लेखकों को रास नहीं आती थी.

भारतीय समाज में या तो मूर्ति बनाने वाले लोग हैं या फिर मूर्तिभंजक. ऐसा विरोधाभास क्यों है?

किसी साहित्यकार को देवता बनाना ठीक नहीं है लेकिन उसे दानव की तरह पेश करना भी ठीक नहीं है. बड़े और महान साहित्यकारों में हजारों खोट हो सकते हैं और उन पर ध्यान दिया जाना चाहिए. लेकिन उसका कुछ अनुपात तो तय हो. आप कमियां निकालने में उनके मुख्य  अवदान को भूल जाते हैं. अज्ञेय को नापसंद करने वाले कुछ लेखकों ने मुझसे कहा कि आप तो उनके भक्त हैं. कुछ ने मुझे उनका अंधभक्त बताया. लेकिन कुछ लोगों ने कहा कि आपने यह काम बड़ी श्रद्धा के साथ किया है. मुझे नहीं पता कि इस देश में श्रद्धा कब से बुरी चीज हो गई? समर्पण का भाव होना और समर्पित होने में फर्क है. इसमें कोई शक नहीं है कि मेरे मन में अज्ञेय के प्रति श्रद्घा नहीं होती तो मैं इतनी मेहनत नहीं करता. पूरा साल नहीं लगाता. मैं मानता हूं कि मुझे हिंदी का जो भी ज्ञान है, उसमें अज्ञेय की बड़ी भूमिका रही है. मैं हिंदी का छात्र नहीं रहा हूं. अज्ञेय एक-एक शब्द को लेकर बहुत संवेदनशील रहते थे. मैंने अज्ञेय का साहित्य पढ़कर एक भाषा अर्जित की है. भला ऐसे में मैं अज्ञेय के प्रति कृतज्ञ क्यों न रहूं? मैं मानता हूं कि उनके भीतर महानता के तत्व ज्यादा हैं और मेरा ध्यान उसी ओर ज्यादा जाता है.

अज्ञेय पर हमेशा आरोप लगाए जाते रहे. आरोप लगाने वाले कौन हैं और वे ऐसा क्यों करते रहे?

किसी भी व्यक्ति को लांछित करने के लिए कुछ भी आरोप लगाए जा सकते हैं. अज्ञेय ने कभी अपने ऊपर लगे आरोपों का कोई जवाब नहीं दिया तो इसका जवाब मैं क्यों दूं. हां, उन्होंने एक बार इतना जरूर लिखा कि आपको जो करना था आपने किया. इन बातों से न ही आपका कुछ बिगड़ा और न ही मेरा. इतना कुछ किए जाने के बाद आप हिंदी पट्टी के घरों में जाइए किसी और साहित्यकार की किताबें मिलें या न मिलें लेकिन आपको अज्ञेय की दो-चार किताबें जरूर मिल जाएंगी. अज्ञेय का एक विशाल पाठक वर्ग है. हाल ही में आसनसोल (पश्चिम बंगाल) में अज्ञेय की जन्मशती का आयोजन किया गया. नामवर जी ने भीड़ देखकर कहा कि इतनी भीड़ तो आजकल चुनावी गोष्ठियों में ही होती है साहित्य की सभाओं में नहीं. अज्ञेय अगर इतनी भीड़ देखते तो शायद बेहोश हो जाते. शायद अज्ञेय की यही लोकप्रियता उन लोगों को चुभती है. उन्हें लगता रहा कि अज्ञेय खत्म हो जाएंगे. लेकिन स्थितियां आज इसके विपरीत हो गईं. सच तो यह है कि वे सही अर्थोंं में लोकप्रिय साहित्यकार हैं. गुलशन नंदा की लोकप्रियता एक ओछी किस्म की लोकप्रियता है लेकिन अज्ञेय की लोकप्रियता सात्विक किस्म की है. लोकप्रियता के अच्छे और बुरे दोनों पहलू हैं. अज्ञेय की लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ती गई. जन्मशती इस बात का प्रमाण है कि अज्ञेय को लेकर जितने आयोजन हुए उतने किसी लेखक को लेकर नहीं हुए. हमें नहीं पता कि आसनसोल में किसने आयोजन किया. न ही ओम थानवी ने, न ही अशोक वाजपेयी ने और न ही वत्सल निधि ने किया. मैंने तो यह खबर अखबार में पढ़ी. हां, कलकत्ता में हमने जन्मशती का आयोजन किया. वहां भी यह देखकर मुझे हैरानी हुई कि अज्ञेय का सम्मान गैरहिंदी प्रांत में भी बहुत ज्यादा है. एक अखबार ने लिखा कि अज्ञेय आयोजन में हिंदी के लोग कम बंगाल के लोग ज्यादा थे. बंगाली समाज यह मानने को तैयार ही नहीं है कि टैगोर के बाद कोई इतना बड़ा साहित्यकार हुआ है और वहां अज्ञेय की जन्मशती के आयोजन में हॉल खचाखच भरा होना उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है. आयोजन में शंख घोष जैसे कवि पहुंचे जो किसी अन्य आयोजन में आते-जाते नहीं हैं. हाल ही में दादा साहब फाल्के से सम्मानित सौमित्र चटर्जी ने अज्ञेय की कविताओं का बांग्ला में पाठ किया. अर्पिता चटर्जी ने बांग्ला में उनकी कविता का पाठ किया. मंच पर सुनील गंगोपाध्याय भी मौजूद थे. जन्मशती वर्ष में उनकी लोकप्रियता और उजागर हुई है. यह सब अज्ञेय पर आरोप मढ़ने वाले लोगों को और चिढ़ाता है. एक वामपंथी लेखक ने यह भी लिखा है कि इस बात की जांच की जानी चाहिए कि अज्ञेय की विदेश यात्रा का खर्च किसने उठाया है अज्ञेय जी की विदेश यात्रा के पचास-साठ साल के बाद आप यह पूछें कि उसका खर्च किसने उठाया तो इससे हास्यास्पद बात क्या हो सकती है? पंकज बिष्ट ने अपनी पत्रिका ‘समयांतर’ में लिखा कि वामपंथियों को अज्ञेय की जन्मशती का विरोध करना चाहिए. उन्होंने तीन पेज की रिपोर्ट लिखी. उसमें अपील की कि लेखकों को कार्यक्रम में शिरकत नहीं करनी चाहिए. हम लोगों ने पंकज बिष्ट जी को आमंत्रित किया और वे कलकत्ता चले आए. आप देख सकते हैं कि इनकी कथनी और करनी में कितना अंतर है.

हम जैसा बोलने वाला एक कवि

 

सोपान जोशी

इतने लिखने वाले कभी नहीं रहे जितने आज हैं. पढ़ने की सामग्री भी इतनी कभी नहीं रही. छपना-छपाना तो लिखने से भी सरल हो गया है.  इंटरनेट के सौजन्य से तो हर साक्षर मनुष्य खुद को लेखक मान सकता है. यह बढ़ोतरी आकार की ज्यादा है, प्रकार की थोड़ा कम. लोगों की लिखाई बहुत बेहतर हुई हो ऐसा लगता नहीं है. क्योंकि यह रोना भी कई रोते हैं कि पाठक नहीं मिलते.

हर लिखने वाले में एक पाठक भी होता है. हम अपने अंदर बैठे पाठक से पूछें तो जवाब मिल जाएगा. सहज ही मन छू ले ऐसी लेखनी आसानी से नहीं मिलती. जिस किसी को यह बात कचोटती हो उसे भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘कवि’ काम की लगेगी. बात कवि अपने आप से कर रहे हैं, पर सुनाई पड़ता है हर उस बोलने-सुनने वाले को जो हम सबके भीतर बैठा है, भावनाओं के टेलिफोन एक्सचेंज के ऑपरेटर की तरह.

कलम को साधना होता है, लिखाई के पीछे बरसों की साधना होती है, और वह दिखती है छोटी-छोटी बातों में, छोटे से छोटे वाक्य में. लेकिन कलम सधी हुई हो तो भी केवल दूसरों की बात तोते की तरह रटना काम नहीं आता. पढ़ने वाला आपकी बात सुनने बैठा है, यह जानने नहीं कि आप दूसरों की बातें कितना जानते हैं. और बात भी एक या आधी ही हो तो बेहतर. रद्दी की तरह तोल कर दिए विचार बोझ बढ़ाते हैं.

अभिव्यक्ति की आजादी भी इसलिए नहीं है कि आप अपनी टुच्ची से टुच्ची भावना हर किसी पर मढ़ें. अपनी ही शेखी न बघारें. लिखाई एक शब्द का दूसरे शब्दों से तालमेल है. यह सरल और तरल रहे तो पढ़ने वाला भी आपके साथ बहेगा. दूसरों का मन छूने के लिए उन्हीं की भाषा बोलनी होती है. लिखने और पढ़ने से बहुत पहले भाषा बोली जाती है. शब्द और उनके अर्थ हम अपने माता-पिता की गोद में सीखते हैं, कालिदास और प्रेमचंद बहुत बाद में आते हैं. बोली हुई भाषा का असर देखना हो तो 50 और 60 के दशक के हिंदी गाने सुनिए, जिन्हें आज भी लोग मन ही मन गुनगुनाते हैं. और पीछे जाइए, अनपढ़ कबीर के छंद तक, जिन्हें करोड़ों लोग आज भी अपने सुख-दुख में याद करते हैं, जिनमें न जाने कितने कबीर की ही तरह अनपढ़ हैं.

सादगी और सरलता का मतलब ऊब नहीं होता. वर्ना हम देश-विदेश के पकवान खाने के बाद भी घर के भोजन को तरसते नहीं. मां के भोजन का स्वाद ऐसा चढ़ता है कि कभी नहीं उतरता. अच्छा लिखने वालों के पाठक भी उनके लिखे का वैसे ही इंतजार करते हैं. मसला यह है कि आपके लिखे में स्वाद कितना है, ये नहीं कि मसाला कितना है. हर ठीक कही बात आगे होने वाली बातों का रस्ता साफ करती है. जैसे ठीक लिखा एक वाक्य पाठक को अगले वाक्य तक ले कर जाता है. जुमलों की बेल पर जो फल लगते हैं उन्हें पढ़ने वाला खा सकता है, रस और अर्थ पा सकता है. उनका काम केवल पन्ने भरना नहीं होता, तनख्वाह पाना भर नहीं होता.

जहां कहने वाले ज्यादा हों वहां उसकी सुनी जाती है जो सीधे बात करे. घुमा-घुमा कर जलेबी अच्छी बनती है, जुमले नहीं. कम शब्दों में सीधी कही बात समझ में जल्दी आती है, सच्चाई को ठीक से बताती है. झूठ फैलाने के लिए उलझन बढ़ाना जरूरी होता है. ज्यादा शब्द उन्हें चाहिए होते हैं जिन्हें साफ नहीं पता होता कि उन्हें कहना क्या है.

अच्छी लिखाई मौके या जगह की मोहताज नहीं होती. उसे बहुत ज्यादा प्रेरणा की जरूरत भी नहीं होती. अपनी बात ठीक से कहना अपने आप में प्रेरणा है. उसके लिए अति अनुरागी होना जरूरी नहीं है. उसकी भावनाओं के पर्यावरण में हवा-पानी का संतुलन रहता है, चाहे मौसम जो भी हो. अगर हालात फायदेमंद हों तो उस खुशी में उसके जुमले बौराते नहीं हैं. दुख के संताप से उसकी कलम कांपती नहीं है. चाहे वह बात उसी सुख या दुख की हो.

लिखाई में लिखने वाले का दायरा साफ दिखता है, फिर चाहे वह अपनी गली में दहाड़ता शेर हो या किसी नई जगह तबादला हो कर आया कारिंदा. हमारी दुनिया हमारे दायरे से बनती है और जिसका दायरा जितना बड़ा हो उसके संस्कार उतने ही सहज में उसे दूसरों से जोड़ते हैं. हमारे दौर के राजनेताओं के दायरे अपनी जात, अपने प्रांत तक सिकुड़ते जा रहे हैं. दलितों का नेता दलित ही हो सकता है, मराठियों का कोई मराठी ही. हिंदी बोलने वाली दुनिया का दायरा एक समय पूरे देश में था, क्योंकि हिंदी वाले बस अपनी ही गली के शेर नहीं थे. आज हिंदी में मलयाली या अरुणाचली या उड़िया नाम इसलिए गलत लिखे जाते हैं कि लिखने वाले अपने मलयाली या अरुणाचली या उड़िया मित्रों से पूछने की बजाय अंग्रेजी में पढ़ कर हिंदी में तुक्का लगाते हैं.

लिखाई में इन बातों का ध्यान रखने वाला जिस भी विषय पर लिखे, उसका असर पढ़ने वाले पर अच्छा ही होगा. अच्छे विचार अच्छी लिखाई की गाड़ी में ही चल सकते हैं. यह बात हर उस व्यक्ति को सहज ही पता होती है जिसकी बात दूसरे नि: स्वार्थ  सुनते हैं. भवानीबाबू ने यही बात हमें सुंदर गढ़े छंद में याद दिलाई थी. आज भी दिलाते हैं, उनके मृत्यु के 27 साल बाद और उनके जन्म के 100वें साल में.(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

 

‘आईजी पहले अपने भाई को मरवाकर दिखाते’

उन्हें अपने छह बच्चों और पति के साथ बैठकर घर परिवार की बात करते हुए देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि वे भारत के सबसे दुर्दांत और चतुर माने जाने वाले डकैतों, गड़रिया बंधुओं की बहन हैं. ठेठ ग्रामीण परिवेश की इस महिला के बारे में यह सोचना तो और भी मुश्किल है कि वे एक बार लोकसभा चुनाव (2007) लड़ चुकी हैं और इस चुनाव में भाजपा की यशोधरा राजे सिंधिया के खिलाफ उन्हें 60 हजार से ज्यादा वोट मिले थे. यह शायद रामश्री की जिंदगी का सबसे उजला पक्ष होगा. वे जिंदगी के 12 साल चंबल की अलग-अलग जेलों में गुजार चुकी हैं. उनपर मध्य प्रदेश दस्यु विरोधी अधिनियम के तहत अपने भाइयों की मदद करने से लेकर हत्या और अपहरण तक के 22 मुकदमे दर्ज थे.

शिवपुरी जिले की नरवर तहसील में बसे टुकी गांव में रहने वाली रामश्री कुख्यात गड़रिया गैंग और उन्हें पकड़ने के लिए सालों तक परेशान रही मध्य प्रदेश पुलिस के अथक प्रयासों की साक्षी रही हैं. डकैतों के घर परिवार के सदस्यों की तकलीफें उजागर करते हुए वे बताती हैं, ‘घाटी में जो लोग डाकू बन जाते हैं, उनका जीवन तो तबाह होता ही है पर उनके परिवारवालों की सबसे ज्यादा दुर्दशा होती है.’

गड़रिया गैंग अक्टूबर, 2004 के दौरान तब अचानक चर्चा में आया जब उसने ग्वालियर जिले के भनवारपुरा गांव में 13 गुर्जरों की निर्मम हत्या की थी. भनवारपुरा नरसंहार को याद करते हुए रामश्री कहती हैं, ‘गुर्जरों के मरते ही पुलिस ने मधुमक्खी के छत्ते की तरह हमारे घर को घेर लिया था. फिर हमें पकड़ ले गए. अलग-अलग जेलों में रखा और झूठे मुकदमे लगवा दिए. बच्चे छोटे-छोटे थे और सबको छोड़कर हमें जेल में रहना पड़ा. 12 साल लड़ाई लड़नी पड़ी. पर अंत में जज साहब ने मुझे छोड़ दिया. ‘

गड़रिया गैंग की खास बात यह थी कि दयाराम गड़रिया, रामबाबू गड़रिया, विजय गड़रिया, प्रताप गड़रिया और रघुवीर गड़रिया जैसे इस गैंग के ज्यादातर सदस्य एक ही परिवार के थे. लड़कियों के पैर छू कर उन्हें धन देने और गरीबों की शादियों में पैसा दान करके उन्होंने लोगों के बीच अच्छी छवि बना ली थी. जिसके चलते पुलिस के लिए इनका  सफाया काफी चुनौती पूर्ण काम था.

रामश्री पर हमेशा अपने भाइयों की मदद करने का आरोप लगता रहा. हालांकि वे इन आरोपों को सिरे से खारिज करती हैं, पर यह मानती हैं कि उन्हें जंगल में रहने वाले अपने भाइयों की चिंता रहती थी. वे बताती हैं,  ‘आईजी साहब मुझे उमा भारती के पास भी ले गए थे. तब वे मुख्यमंत्री थीं. उन्होंने भी मुझसे कहा कि मैं अपने भाइयों का पता दूं. आईजी साहब ने भी कहा. सब कहते थे कि मैं अपने भाइयों को मरवा दूं तो मेरे बेटे को एसपी बनवा देंगे…पर मैं हमेशा यही कहती कि पहले तुम अपने भाई को मरवाओ, फिर मुझसे कहना. मैंने अपने भाइयों का कभी बुरा नहीं चाहा पर वे सब अपने कर्मों से मारे गए.’