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खेल से खिलवाड़

12 फरवरी से 26 फरवरी, 2011 का समय झारखंड वालों के लिए यादगार रहेगा. यह 34वें राष्ट्रीय खेलों के आयोजन की तारीख है. राज्य की राजधानी रांची, जमशेदपुर और धनबाद के 22 चमचमाते स्टेडियमों में संपन्न हुए राष्ट्रीय खेलों में भाग लेने के लिए देश भर के 6,114 खिलाड़ी जुटे थे. झारखंड सरकार सिर्फ आयोजन पर ही नहीं बल्कि इस तथ्य पर भी इतरा रही थी कि पदक तालिका में झारखंड शीर्ष पांच में शामिल है. 

लेकिन इस सच्चाई से जुड़े दो और पहलू हैं. एक तो यह कि झारखंड ने ऐसे-ऐसे खेलों में पदक बटोरे थे जिन्हें देखना तो दूर झारखंड के लोगों ने उनका नाम भी शायद ही सुना हो. दूसरे, 80 प्रतिशत से ज्यादा पदक उन खिलाड़ियों के सहारे आए जो झारखंड के थे ही नहीं, उन्हें सरकार ने किराये पर बुला रखा था यानी आयातित खिलाड़ी. बताते हैं कि सरकार की सनक थी कि पदक आने चाहिए चाहे जैसे आएं. उन खेलों पर गौर करते हैं जिनमें झारखंड ने पदक जीते थे. हॉकी, तीरंदाजी, फुटबॉल, कबड्डी जैसे खेलों का तो झारखंड गढ़ ही रहा है. बॉलीबॉल, बास्केटबॉल, कुश्ती, बॉक्सिंग, जिमनास्टिक, टेबल टेनिस, जूडो, स्क्वैश, रग्बी, तलवारबाजी, घुड़सवारी जैसे खेल भी झारखंड न सही देश के किसी न किसी हिस्से में खेले जाते हैं और लोग इनके बारे में जानते भी हैं. लेकिन यहां ऐसे खेल भी हुए जिनमें हमारी राज्य स्तरीय तो छोड़िए राष्ट्रीय टीम तक नहीं है. कयाकिंग, रोइंग, कैनोइंग, ताईक्वांडो, वुशू, ट्राइथलोन, इक्विस्ट्रियन जैसे खेल जिनका नाम लेने में भी जीभ लरज जाए. झारखंड के खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों ने ये नाम ही पहली दफा सुने थे. मजे की बात है कि राज्य ने इन खेलों में पदक भले ही जीत लिया हो मगर राज्य के खिलाड़ी अब तक उन खेलों से परिचित नहीं हो सके हैं. क्यों? यह आप इस छोटे-से उदाहरण से समझ सकते हैं. झारखंड ने घुड़सवारी में भी भाग लिया था. इसका संघ आज भी मौजूद है लेकिन घोड़ा और घुड़सवार न तब थे, न अब हैं. इस संबंध में घुड़सवारी संघ के सचिव कुलदीप सिंह बस इतना ही कहते हैं, ‘एक घोड़े की कीमत पचास लाख रुपये है. हर दिन उसे खिलाने का खर्च हजार रुपये आता है. यह खर्च हम नहीं उठा सकते. अभी हमारे पास कोई ढांचा नहीं है.’ स्वाभाविक ही सवाल उठता है कि फिर संघ का क्या काम. 

राष्ट्रीय खेल के समय झारखंड ओलंपिक एसोसिएशन की छत्रछाया में 30 खेल संघों का गठन हुआ था. तकनीकी विवाद में पड़कर चार खेल संघ कोर्ट में लड़ाई लड़ रहे हैं और शेष बचे 26 अस्तित्व में हैं. लेकिन इन खेल संघों के रहने का जमीनी नतीजा देखें तो राष्ट्रीय खेल के बाद से अब तक करीब 50 फीसदी खेल संघों (खोखो, रोइंग, जिमनास्टिक, नेटबॉल, हॉकी, कैनोइंग-कयाकिंग, रग्बी, टेबल टेनिस, फेंसिंग, जूडो, कराटे, वेटलिफ्टिंग, बैडमिंटन और घुड़सवारी) के खाते में एक भी खेल गतिविधि नहीं है. कइयों की तो स्थिति भी ऐसी नहीं कि वे कुछ करवा सकें. झारखंड ओलंपिक संघ के कोषाध्यक्ष मधुकांत पाठक कहते हैं, ‘खेलों के साथ सरकार फुटबॉल खेल रही है.’ पाठक एथलेटिक्स संघ के सचिव भी हैं. वे कहते हैं, ‘हमने राष्ट्रीय खेल के बाद पिछले डेढ़ सालों में तीन राष्ट्रीय चैंपियनशिप करवाई है. सरकार ने हमें वित्तीय मदद देने का भरोसा दिया था. लेकिन खेल हो जाने के बाद सरकार ने 14 लाख के बजाय अब तक सिर्फ पांच लाख 38 हजार रुपये ही दिए हैं.’ यही पाठक जिमनास्टिक संघ के भी प्रमुख हैं. जब उनसे जिमनास्टिक में ठप पड़ी गतिविधि के बारे में पूछा जाता है तो उनका सुर बदल जाता है, ‘अभी तो उस खेल की जमीन तैयार हुई है. खिलाड़ी नहीं हैं. वैसे भी जमीन के बाद ही मकान की उम्मीद की जा सकती है.’ लेकिन मकान कैसे बने जब जमीन संभालना ही बस से बाहर हो. शूटिंग संघ के अध्यक्ष संजेश मोहन ठाकुर कहते हैं, ‘यह जो भारी-भरकम इंफ्रास्ट्रकचर है उसका किराया बहुत महंगा है, ऊपर से बिजली का बिल भी 15 हजार रुपये रोज देना पड़ता है. ऐसे में भला कोई खेल संघ कैसे कोई आयोजन करेगा?’

झारखंड ने ऐसे-ऐसे खेलों में पदक जीते जिनके नाम तक लोगों ने नहीं सुने थे. ऊपर से 80 प्रतिशत से ज्यादा पदक आयातित खिलाड़ियों के सहारे आए.

31 मार्च, 2012 को समाप्त हुए वित्त वर्ष में सरकार द्वारा आवंटित खेल बजट के 80 लाख रुपये बिना किसी इस्तेमाल के वापस लौट गए. इसे देखते हुए पाठक और संजेश मोहन का संसाधनों के लिए रोना वाजिब लगता है. इस बात पर झारखंड ओलंपिक संघ के सचिव सैय्यद मतलूब हाशमी कहते हैं, ‘यह सच है कि कुछ बकाये का भुगतान सरकार ने अभी नहीं किया है. पर हर काम सरकार ही क्यों करे?’ हम हाशमी से पूछते हैं कि वे भी तो कायाकिंग, कैनोइंग और रोइंग जैसे अजूबे खेल संघों के पदाधिकारी हैं और वे तो कभी खेल से जुड़े भी नहीं रहे. बीच में ही बात काटते हुए वे कहते हैं, ‘मैं वॉलीबॉल से जुड़ा रहा हूं. लेकिन यह याद रखिए कि इस देश में अधिकांश खेल संघों के पदाधिकारियों का खेल से कोई वास्ता नहीं रहा है. एडमिनिस्ट्रेटर और खिलाड़ी में अंतर होता है. यह जरूरी नहीं है कि जो खिलाड़ी होगा वह संघ के पदाधिकारी के रूप में बेहतर काम करेगा. हमने राज्य की शान को बढ़ाया है और जिन खेलों का झारखंड के लोगों ने नाम तक नहीं सुना था उन खेलों को यहां पैदा किया है. अब इन्फ्रास्ट्रक्चर बन गया है तो हम खिलाड़ी भी पैदा कर रहे हैं. इन बातों में उलझने से कोई फायदा नहीं है कि इन खेलों की साल भर से कोई प्रतियोगिता नहीं हुई.’ 

हाशमी जितनी आसानी से एडमिनिस्ट्रेटर और खिलाड़ी का फर्क समझाते हैं, बात उतनी आसान नहीं है. राज्य में खेलों से जुड़ी राजनीति का एक और पहलू है जिसे शक्ति समीकरण कहा जा सकता है. ताकत का यह खेल बेमतलब के खेल संघों को अस्तित्व प्रदान करता है. राष्ट्रीय खेलों के दौरान सभी खेल संघों पर धन की बरसात हो रही थी. खेलों के बाद अब यह बहुतों के लिए अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने का मामला बन गया है. आलम यह है कि सभी पदाधिकारी सरकार के असहयोग की तो शिकायत करते रहते हैं लेकिन वे संघ के पदों पर किसी भी तरह से जमे रहना चाहते हैं. एक-एक व्यक्ति के पास चार-चार या उससे भी ज्यादा संघों का दायित्व है. उदाहरण के लिए झारखंड ओलंपिक संघ के अध्यक्ष आरके आनंद के पास तीन खेल संघ थे (वॉलीबॉल, जिमनास्टिक और वेटलिफ्टिंग), इनमें से वेटलिफ्टिंग इन्होंने छोड़ दिया है. इसी तरह झारखंड ओलंपिक एसोसिएशन के सचिव मतलूब हाशमी छह खेल संघों में अध्यक्ष या महासचिव हैं. ओलपिक एसोसिएशन के कोषाध्यक्ष मधुकांत पाठक तीन खेल संघों में अध्यक्ष या सचिव हैं. इसी तरह एक और तथ्य यह भी है कि 26 खेल संघों में से सिर्फ तीन खेल संघों के अध्यक्ष तथा 12 खेल संघों के सचिव या महासचिव ही उस खेल से जुड़े रहे हैं. ज्यादा से ज्यादा खेल संघों पर काबिज होने के पीछे की राजनीति को जानना जरूरी है. जब स्टेट ओलंपिक एसोसिएशन के लिए वोटिंग होती है तो हर खेल संघ से एक पदाधिकारी (सचिव या अध्यक्ष) वोट डालता है. यानी एक संघ एक वोट. ऐसे में जिसके पास जितने ज्यादा संघ होंगे उसके पास उतने ज्यादा वोट होंगे. ऐसे में खेलों का तेल निकल रहा है. जानकार सवाल करते हैं कि एक ही संघ संभालना मुश्किल होता है तो ये पदाधिकारी 4-4 या 6-6 संघों को अपने पास रखकर खिलाड़ियों का कितना भला कर पाते होंगे. 

राज्य की खेल उपनिदेशक सरोजिनी लकड़ा कहती हैं, ‘यहां के खेल संघ लंबी-लंबी बात कर दूसरे किस्म की राजनीति में ज्यादा रुचि लेते हैं. बिना कुछ किए-धरे बस पैसा बनाना चाहते हैं. हमने खेल संघों से स्पोर्ट्स कैलेंडर बनाकर भेजने को कहा था. पर अब तक किसी संघ ने नहीं भेजा है. सरकार को जितना करना चाहिए वह उससे ज्यादा कर रही है. सरकार चाहती है कि पंचायत, ब्लॉक और जिला स्तर पर खेलों को प्रोत्साहन मिले और यहां के खिलाड़ी प्रोफेशनल बनंे, ताकि बार-बार आयातित खिलाड़ियों का मुंह न तकना पड़े.’ यानी संघ गेंद सरकार के पाले में फेंक रहे हैं और सरकार ठीकरा संघों पर फोड़ रही है. इस सबमें नुकसान उन खेलों और खिलाड़ियों का हो रहा है जिनकी वजह से झारखंड की पहचान रही है और यहां के खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धाक जमाते आए हैं. हॉकी को लें. इस खेल में पंजाब के बाद झारखंड के खिलाड़ियों का बोलबाला रहता आया है. पर आज राज्य का हॉकी संघ अधर में अटका हुआ है. राष्ट्रीय खेलों से पहले राज्य में महिला और पुरुष हॉकी संघ अलग-अलग थे. हालांकि महिला संघ इसके लिए तैयार नहीं था. बीच का रास्ता निकाला गया. तय हुआ कि राष्ट्रीय खेल एकीकृत संघ के तहत हो जाएं इसके बाद फिर बातचीत के जरिए रास्ता सुलझा लिया जाएगा. वह दिन बीता और आज का दिन आ गया. महिला संघ की पदाधिकारी सावित्री पूर्ति अदालत का दरवाजा खटखटा चुकी हैं. इस झगड़े की भेंट जिला से लेकर राज्य स्तर पर होने वाली हॉकी प्रतियोगिताएं चढ़ गईं हैं. डेढ़ सालों से एक भी हॉकी प्रतियोगिता आयोजित नहीं हुई है. यही हाल कबड्डी, शूटिंग आदि का भी है. ये सभी ऐसे खेल हैं जिनमें झारखंड लगातार अव्वल रहा है. शूटिंग संघ के संजेश मोहन ठाकुर कहते हैं, ‘पिछले महीने ही हमने राज्य स्तरीय शूटिंग कैंप आयोजित किया था, लेकिन यह कैंप राजधानी से लगभग 20-25 किलोमीटर दूर एक कस्बाई स्कूल में हुआ क्योंकि राष्ट्रीय खेल में जो शूटिंग स्टेडियम चमकता हुआ दिखता था, रख-रखाव की कमी के कारण फिलहाल बेकार हो गया है.’ राष्ट्रीय खेल के दौरान करीब 650 करोड़ की लागत से बने अधिकांश स्टेडियम आज खंडहर बनने की राह पर हैं. स्टेडियमों के केयर टेकर मारुति ठाकुर कहते हैं, ‘रख-रखाव का खर्च भी नहीं मिल रहा है, इसलिए इनकी दुर्दशा है. अगर खेल होते तो उससे इनका रखरखाव तो बेहतर हो ही सकता था.’

अभयारण्य से भयभीत

तथाकथित ‘विकास’ के लिए लोगों की बेदखली और विस्थापन देश में अब उतनी नयी खबर नहीं हैं. इसमें नियम कानूनों को ताक पर रखना भी उतनी ही पुरानी परंपरा हो चुकी है. लेकिन छत्तीसगढ़ के एक अभयारण्य बारनवापारा से ग्रामीणों को विस्थापित करने के लिए जिस तरह नक्सलवाद की आड़ लेने से लेकर केंद्र सरकार द्वारा जबरन जमीन अधिग्रहण तक की बातें कही जा रही हैं, वह अभूतपूर्व है.

बारनवापारा अभयारण्य राजधानी रायपुर से महज सवा सौ किलोमीटर दूर है. यूं तो यहां के सभी 22 गांव अब-तब में उजड़ने वाले हैं लेकिन वन विभाग ने फिलहाल रामपुर, लाटादादर और नवापारा गांव के लगभग दो हजार लोगों को नयी जगह बसाने का लक्ष्य रखा है. विभाग को यह लगता है कि अभयारण्य की सीमा के भीतर होने वाली मानव हलचल वहां विचरण करने वाले जानवरों के लिए खतरनाक साबित हो रही है. जबकि गांववाले मानते हैं कि जानवरों और वनवासियों का आसपास रहना एक सतत प्रक्रिया है. दशकों से इस इलाके में रह रहे ग्रामीणों का कहना है कि वे जानवरों से डरते हैं तो जानवर भी एक अज्ञात भय के चलते उनसे दूरी बनाकर चलते हैं. इस तरह के पारस्परिक संबंध ने यहां वनजीवन और जनजीवन दोनों को पनपने में मदद की. वन विभाग वालों ने जब यह तय कर लिया कि अब गांवों को उजाड़ना ही है तब इस बात के लिए दबाव डाला गया कि ग्रामीण यह लिखकर दें कि जानवर फसलों को नुकसान पहुंचा  रहे हैं. हालांकि ग्रामीण थोड़े-बहुत नुकसान की बात स्वीकार करते हुए इस बात पर जोर देते हैं कि वे भी जंगल का उपयोग करते हैं ऐसे में फसल का थोड़ा बहुत नुकसान इतना बड़ा मसला नहीं है जिसके लिए उन्हें विस्थापित किया जाए. वन अधिकारों पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता गौतम बंधोपाध्याय जानवर और मनुष्य के सह-अस्तित्व को खतरनाक साबित करने वाले खेल में एक साजिश देखते हैं. वे कहते हैं, ‘ जंगल में विचरण करने वाले जानवरों के असली पहरेदार वन महकमे की ओर से तैनात किए जाने वाले वनरक्षक नहीं बल्कि वनवासी होते हैं. जब पहरेदारों को जंगल से खदेड़ दिया जाएगा तो फिर यह आसानी से सोचा जा सकता है कि जंगल के जानवरों के साथ किस तरह का सुलूक होने वाला है.’ 

जेसीबी मशीन ने यहां के चरागाह को तबाह कर दिया है. विस्थापित हो रहे लोगों को इसके बाद अपने पशु भी बेचने पड़ रहे हैं

अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी ( वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 / नियमावली 2008 में यह स्पष्ट उल्लिखित है कि अभयारण्य के भीतर मौजूद गांवों को किसी एक जगह से दूसरी जगह पर तब ही स्थानांतरित किया जाएगा जब इलाके में खास तरह का संकट कायम होगा. लेकिन बारनवापारा अभ्यारण्य में किस तरह संकट कायम है इसकी कोई प्रामाणिक रिपोर्ट वन विभाग के पास उपलब्ध नहीं है. बाघों की गणना का काम करने वाली संस्था वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया ( डब्ल्यूटीआई ) ने तो कुछ समय पहले यह माना था कि बारनवापारा अभयारण्य में बाघों की मौजूदगी के कोई निशान नहीं मिला है. तहलका से चर्चा में रायपुर के वनमंडलाधिकारी एसडी बडगैय्या भी यह स्वीकार करते हैं कि बाघों का अस्तित्व मिट चुका है. जब अभयारण्य में बाघों की मौजूदगी ही नहीं है तो फिर ऐसा क्या है जिसकी वजह से गांववालों को उजाड़ा जा रहा है. इस सवाल पर विभाग के अधिकारी कहते हैं कि इलाके में नक्सलवादियों की हलचल बढ़ गई है. सरकार को लगता है कि यदि अभयारण्य से गांव खाली करा लिए जाएंगे तो ग्रामीणों की तरफ से नक्सलियों को दी जाने वाली पनाह पर रोक लग जाएगी. हालांकि नक्सलियों को पनाह देने के मामले में वन अफसरों की शंका को ग्रामीण पूरी तरह से निर्मूल मानते हैं. ग्रामीण बताते हैं कि उनके इलाके में कभी नक्सली उन्होंने देखे ही नहीं. तो फिर उन्हें पनाह देने का सवाल  बेमानी है. वैसे बारनवापारा में नक्सलियों की मौजूदगी है या नहीं इसे लेकर कई तरह के दावे-प्रतिदावे सामने आते रहे हैं. लगभग दो साल पहले प्रदेश की पुलिस को नवागांव, सोनाखान, राजादेवरी, अचानकपुर और अमरूआ (इसी इलाके के गांव) में नक्सलियों के सक्रिय होने की सूचना मिली थी. नक्सलियों की दस्तक को आधार मानकर एसटीएफ ने 2010 में पड़कीपाली जंगल में एक कथित मुठभेड़ में आठ अज्ञात लोगों को मौत के घाट उतारा था. बाद में सभी ‘अज्ञात’ नक्सली करार दिए गए. इन मृत व्यक्तियों के कभी नक्सली होने की पुष्टि नहीं हो पाई. रामपुर, लाटादादर और नवापारा गांव के रहवासियों से चर्चा करने पर पता चलता है कि विस्थापन के मसले पर वे ढेर सारे किंतु- परंतु से घिरे हुए हैं. तहलका से चर्चा में ग्रामीण बताते हैं कि जब गांवों को उजाड़ने की योजना बनाई गई थी तब वन विभाग के अफसरों ने यह कहकर डराया-धमकाया था कि यदि सीधे तरीके से गांव खाली नहीं किया जाएगा तो केंद्र सरकार किसी भी दिन जमीन पर कब्जा जमा लेगी. 

इन गांवों के विस्थापितों को जिन दूसरे इलाकों में बसाने की बात हो रही है वहां भी बिना किसी योजना के काम चल रहा है. इस सिलसिले में विरोध होने पर प्रशासन कई ग्रामीणों को कानून तोड़ने की धमकी देकर चुप रहने की सलाह दे चुका है. कुछ दिनों पहले ही इलाके के पिथौरा ब्लॉक के भतकुंदा में रहने वाले ग्रामीण बेनूलाल पटेल पर शासकीय कार्य में बाधा डालने के आरोप में जुर्म दर्ज किया गया है. वे बताते हैं, ‘जब बारनवापारा के 22 गांवों के विस्थापन की तैयारियों से पिथौरा ब्लाक के अन्य 35 गांवों में गौचर और निस्तारी योग्य जमीन के प्रभावित हो जाने का खतरा मंडराने लगा तब हमने लामबंद होकर विरोध जताया, लेकिन इस विरोध का नतीजा यह हुआ कि उन्हें सरकारी काम में बाधा पहुंचाने का आरोपी ठहरा दिया गया.’ रामपुर इलाके के एक ग्रामीण उत्तम साहू बताते हैं कि वन विभाग ने गांव को खाली करने के लिए प्रत्येक परिवार को मकान के साथ-साथ खेती योग्य जमीन और राजस्व पट्टा देने का आश्वासन दिया था लेकिन फिलहाल गांववालों को वनग्राम की कच्ची झोपड़ियों से पक्के वनग्राम में ही स्थानांतरित करने पर जोर दिया जा रहा है. इसी ग्राम के गजाधर, सपनो, भीम और मयाराम का भी कहना था कि वन महकमे ने उन्हें वन अधिकार अधिनियम के तहत दिए जाने वाले पट्टे का झुनझुना ही थमाया है. इस अस्थायी पट्टे से न तो वे लोन ले सकते हैं और न ही जरूरत के खास मौकों पर जमीन बेची जा सकती है. लाटादादर गांव के श्याम, सत्यानंद और विद्याधर भी स्थायी पट्टा मिलने के बाद ही गांव छोड़ने की बात करते हैं जबकि इस गांव के लोगों को जिस चैनडीपा गांव के सामने बसाया जा रहा है वह इलाका न केवल 45 किलोमीटर दूर हैं बल्कि एक तरह से बंजर ही है. कुछ अरसा पहले यहां वन विभाग ने सागौन के पेड़ों के साथ-साथ बांस की रोपणी लगाई थी, लेकिन वहां न तो पेड़ पनपे और न ही रोपणी विकसित हो पाई. अलबत्ता इस बंजर जमीन से कुछ दूरी पर एक चरागाह जरूर था जहां घास उगती थी. इस घास को भी अब जेसीबी मशीनों ने रौंद डाला है. चरागाह के खत्म होने से इन ग्रामीणों के सामने एक और नया संकट पैदा हो गया है. ज्यादातर लोग अब अपने पशु बेच रहे हैं. चैनडीपा में रहने वाली एक महिला रामबती कहती है, ‘चारा खत्म हो गया तो जानवरों को क्या खिलाएंगे? अब तो उन्हें बेचना ही पड़ेगा.’ इसी गांव के अभिमन्यु पटेल भी बताते हैं, ‘ कभी हमारे गांव की एक हजार की आबादी के पीछे तीन सौ से ज्यादा पालतू मवेशी थे लेकिन अब ग्रामीणों के पास महज 70 जानवर मौजूद हैं. नया रामपुर के बिजेमाल गांव में रहने वाले ग्रामीणों का दर्द भी कुछ इसी तरह का है. यहां के रहवासी भी मानते हैं कि उनका पशुधन एक तरह से खत्म हो गया है. जंगल और जानवरों के सहअस्तित्व पर जीवन बिता रहे लोगों के लिए फिलहाल भयाक्रांत होने की कई वजहें है और दुर्भाग्य से उनके सच होने की पूरी आशंकाएं भी.

भ्रष्टाचार अपरंपार

सालों तक भारतीय सेना में नौकरी करने के बाद तारा चंद यादव ने साल 2000 में सेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी. यादव का पेंशन पेमेंट ऑर्डर बताता है कि वे जब सेवानिवृत्त हुए थे उस वक्त उन्हें केवल 5,000 रुपये मासिक पेंशन मिलती थी. आज वे स्काईलार्क समूह की 12 कंपनियों के मालिक हैं और उनकी वेबसाइट के मुताबिक इनका टर्नओवर 250 करोड़ रुपये है.

तहलका के पास मौजूद विभिन्न दस्तावेजों और तमाम जानकार लोगों से बातचीत के बाद पता चलता है कि सेवानिवृत्ति के बाद यादव ने सेवानिवृत्त सैनिकों के कल्याण के लिए काम करने वाले और रक्षा मंत्रालय के अधीन काम करने वाले पुनर्वास महानिदेशालय (डीजीआर) में आवेदन किया. इसके बाद उन्हें 2004 में गाजियाबाद के डासना में एक टोल प्लाजा चलाने का काम मिल गया. बस यहीं से यादव के करियर की दूसरी मगर बेहद चमत्कारी पारी शुरू हो गई. इसे यदि केवल बाहर या ऊपर से देखा जाए तो यह किसी के लिए भी प्रेरणा की वजह मानी जा सकती है. लेकिन इस कहानी की ऊपरी सफेदी के नीचे कई स्याह पहलू और लूटे गए औरों के अवसर भी हैं. उनके बारे में ठीक से तभी जान सकते हैं जब थोड़ा-सा डीजीआर और उसके कायदे-कानूनों के बारे में जाना जाए. भारत सरकार के मुताबिक सेना से हर साल तकरीबन 60,000 लोग अपेक्षाकृत कम उम्र में सेवानिवृत्त होते हैं. इसे देखते हुए सरकार ने 1992 में रक्षा मंत्रालय के तहत पुनर्वास डीजीआर की शुरुआत की थी. इसका मकसद था सेवानिवृत्त अधिकारी और जवानों को रोजगार के वैकल्पिक अवसर मुहैया कराना. इस काम के लिए डीजीआर के तहत कई विभाग बने हुए हैं जिनके तहत तमाम योजनाएं चल रही हैं.

डीजीआर की सुविधाएं हासिल करने के लिए कुछ शर्तों को पूरा किया जाना जरूरी है. सबसे पहली शर्त यह कि इन सुविधाओं का लाभ उसी सेवानिवृत्त कर्मचारी को मिल सकता है जिसने पहले ऐसी कोई सुविधा नहीं ली हो. दूसरा, सुविधाएं लेने वाला सरकारी, अर्धसरकारी या निजी क्षेत्र में कहीं नौकरी नहीं कर रहा हो. तीसरी शर्त यह है कि डीजीआर अपनी सुविधाओं का लाभ उठाने का अवसर उन्हें ही देगी जिन्होंने भारतीय प्रबंध संस्थान या किसी अन्य बिजनेस कॉलेज में सैन्य अधिकारियों के लिए चलने वाले किसी पाठ्यक्रम में हिस्सा नहीं लिया हो. तारा चंद यादव के मामले में डीजीआर की सुविधाएं पाने के लिए जरूरी पहले नियम को चिंदी-चिंदी करके कूड़े की टोकरी में एक नहीं बल्कि कई-कई बार डाला गया. कैप्टन के पद से रिटायर होने वाले तारा चंद यादव ने एक बार फिर से टोल प्लाजा हासिल करने के लिए आवेदन किया. हालांकि यादव रिटायर तो कैप्टन के पद से हुए थे, लेकिन इस बार उन्होंने खुद को कर्नल दिखाया. कमाल की बात यह है कि इन दो बड़े घालमेलों के बावजूद तारा चंद यादव को गुजरात के वापी में सरकारी टोल प्लाजा के प्रबंधन का काम मिल लिया. हालांकि बाद में इनके प्रबंधन में कई तरह की अनियमितताएं पाए जाने के बाद उनसे ये दोनों टोल प्लाजा वापस ले लिए गए. इस दौरान और इसके बाद एक के बाद एक यादव ने डीजीआर से कई सुरक्षा एजेंसियों के लिए भी मान्यता हासिल कर ली. इसके अलावा एक प्रशिक्षण संस्थान स्काईलार्क स्कूल ऑफ बिजनेस ऐंड टेक्नोलॉजी के लिए भी उन्हें डीजीआर से मान्यता मिल गई.

यादव के मामले में डीजीआर की सुविधाएं पाने के लिए जरूरी पहले नियम को चिंदी-चिंदी कर कूड़े की टोकरी में एक नहीं बल्कि कई-कई बार डाला गया

डीजीआर के अधिकारी किस कदर तारा चंद यादव पर मेहरबान रहे, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यादव अलग-अलग सुविधाओं के लिए आवेदन करते समय सेना के अपने पद में बदलाव करते रहे. तहलका के पास ऐसे कई दस्तावेज हैं जो तारा चंद यादव की अनियमितताओं की गवाही देते हैं. कुछ शिकायतों के आधार पर 28-29 मार्च, 2012 को टीसी यादव की कंपनी के कार्यालयों पर डायरेक्टरेट जनरल ऑफ सेंट्रल एक्साइज इंटेलीजेंस (डीजीसीईआई) ने छापेमारी की थी. इस छापेमारी से संबंधित पीआईबी की एक प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक डीजीसीईआई को स्काईलार्क समूह के दफ्तरों पर छापेमारी में प्रथम -दृष्टया तकरीबन 10 करोड़ रुपये की सर्विस टैक्स की चोरी के सबूत मिले थे. विज्ञप्ति में यह भी था कि इस समूह की कंपनियों की तरफ से की जा रही गड़बडि़यों का मास्टरमाइंट सेवानिवृत्त कैप्टन टीसी यादव है जिसने फर्जी पहचान के आधार पर कई कंपनियां बनाई हैं. डीजीसीईआई ने अपनी जो रिपोर्ट रक्षा मंत्रालय को दी है उससे वाकिफ रक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी  तहलका को बताते हैं कि तारा चंद यादव के कार्यालय पर हुई छापेमारी के दौरान मिले दस्तावेजों से पता चलता है कि वहां कम से कम 175 कंपनियां चल रही थीं. 

ऐसा ही मामला सेवानिवृत्त विंग कमांडर वीएस तोमर का है. वीएस कोल कैरियर्स प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के जरिए वे कोल लोडिंग और ट्रांसपोर्टेशन का काम कर रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ वे पूर्णा सिक्यूरिटी सर्विस के नाम से सुरक्षा एजेंसी भी चला रहे हैं. डीजीआर से तोमर को मिलने वाली सुविधाओं का सिलसिला यहीं नहीं थमता बल्कि उन्हें डीजीआर की कृपा से टोल प्लाजा के प्रबंधन का काम भी मिल गया. वीएस तोमर यह काम विस्टो एंटरप्राइजेज नाम की कंपनी के जरिए कर रहे हैं. तारा चंद यादव और तोमर के उदाहरण यह साबित करते हैं कि अगर डीजीआर के अधिकारियों की कृपा बनी रहे तो कायदे-कानून को ठेंगा दिखाकर किस तरह से केवल कुछ हजार रुपये की मामूली पेंशन पाने वाले व्यक्ति भी भ्रष्ट तरीकों से करोड़ों रुपये के मालिक बन सकते हैं. आज जो कुछ डीजीआर में चल रहा है, अगर उसे कोई सही ढंग से समझे तो पता चलेगा कि डीजीआर के माध्यम से सुविधाएं हासिल करने के लिए जरूरी और ऊपर लिखी तीनों शर्तें किस तरह से केवल कागजी बनकर रह गई हैं. तहलका के पास ऐसे दर्जनों सबूत हैं जो बताते हैं कि जिन लोगों को एक भी सुविधा नहीं दी जानी चाहिए उन्हें डीजीआर नियमों को ताक पर रखकर कई-कई सुविधाएं मुहैया करा रहा है.

जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है डीजीआर के नियमों में इस बात का स्पष्ट प्रावधान है कि उसके जरिए सुविधाएं लेने वाला सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी कहीं और नौकरी नहीं कर सकता. लेकिन इन प्रावधानों की अनदेखी के दर्जनों दस्तावेजी सबूत तहलका के पास हैं. मेजर वीके तिवारी सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद 2002 में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में जिला सैनिक कल्याण अधिकारी बन गए. 2007 में उनका स्थानांतरण बिलासपुर हो गया. इस लिहाज से अगर देखा जाए तो उन्हें डीजीआर से कोई सुविधा नहीं मिलनी चाहिए. लेकिन वे न केवल छत्तीसगढ़ सिक्यूरिटी एजेंसी के नाम से डीजीआर से मान्यता प्राप्त एक सुरक्षा एजेंसी चला रहे हैं बल्कि कोल लोडिंग और ट्रांसपोर्टेशन का काम भी कर रहे हैं. तिवारी यह काम ओम साईं ट्रांसपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी बनाकर कर रहे हैं. यानी तिवारी के मामले में एक नहीं बल्कि डीजीआर के दो-दो नियमों का सरेआम उल्लंघन हो रहा है. वे एक सरकारी नौकरी करते हुए डीजीआर की दो-दो सुविधाओं का आनंद उठा रहे हैं.

ऐसा ही एक और उदाहरण सेवानिवृत्त मेजर पुनित जैन का है. सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद वे एरिक्सन इंडिया ग्लोबल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी में काम कर रहे हैं. लेकिन यह पुनित जैन के प्रति डीजीआर अधिकारियों की दरियादिली ही है कि उन्हें गाजियाबाद में टोल प्लाजा चलाने का काम भी दे दिया गया. पुनित जैन को सुविधाएं देने के मामले में डीजीआर यहीं नहीं रुका बल्कि उनकी सुरक्षा एजेंसी एएए दीप सिक्यूरिटी सर्विसेज को भी मान्यता दे दी गई. कुछ ऐसा ही मामला सेना से सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल मानवंत सिंह जोहर का है. वे एशिया मोटरवर्क्स लिमिटेड में काम करते हैं और उनका आयकर रिटर्न बताता है कि वे हर महीने वहां से 2.05 लाख रुपये पगार के रूप में पा रहे हैं. इसके बावजूद वे डीजीआर से मान्यता प्राप्त दो सुरक्षा एजेंसियां – गरु ऐंड सिक्यूरिटीज और कीर्ति ऐंड टू ऐंड सॉल्यूशंस – चला रहे हैं. डीजीआर की पूरी व्यवस्था के मुट्ठी भर लोगों के हाथ का खिलौना बन जाने से कुछ लोगों के लिए सेना की नौकरी से कई गुना अच्छा इनका दूसरा करियर बन गया है. डीजीआर की जिन सुविधाओं पर लोगों का सबसे अधिक जोर होता है उनमें सिक्यूरिटी एजेंसी, पेट्रोल पंप, सीएनजी स्टेशन और कोल लोडिंग व ट्रांसपोर्टेशन प्रमुख हैं. केंद्र सरकार ने खुद कई बार सर्कुलर जारी करके सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों (पीएसयू) को कहा है कि वे उन सिक्यूरिटी एजेंसियों की सेवाएं लें जो सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों द्वारा चलाई जा रही हैं. आज ज्यादातर पीएसयू ऐसी ही सुरक्षा एजेंसियों की सेवाएं ले रही हैं.

सबसे अधिक कमाई होने की वजह से ‘कोल लोडिंग ऐंड ट्रांसपोर्टेशन स्कीम’ में लोगों की दिलचस्पी सबसे अधिक रहती है. यही वजह है कि इस स्कीम का फायदा लेने के लिए इंतजार का समय (वेटिंग पीरियड) सात साल है. यह योजना आमदनी के लिहाज से कितनी आकर्षक है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि डीजीआर के पिछले चारों महानिदेशकों ने इसके लिए आवेदन किया था – मेजर जनरल वीएस बुधवार, मेजर जनरल केएस सिंधू, मेजर जनरल हरवंत कृष्ण और मेजर जनरल एसजी चटर्जी. इस योजना के बाद सबसे ज्यादा होड़ टोल प्लाजा के परिचालन का काम हासिल करने के लिए रहती थी. मगर इसमें भ्रष्टाचार के आरोप लगातार लग रहे थे जिस वजह से 2010 में राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने यह काम डीजीआर के हाथों से ले लिया. डीजीआर में हो रही गड़बड़ियों की कहानी अनंत है. सेना से जो भी अधिकारी या जवान सेवानिवृत्त होता है वह डीजीआर की सुविधाएं चाहे तो उसे वहां अपना पंजीकरण कराना होता है. इसी पंजीयन संख्या के आधार पर डीजीआर संबंधित व्यक्ति को केवल एक सुविधा देता है. लेकिन दस्तावेज बताते हैं कि जहां एक ही पंजीयन संख्या पर टीसी यादव जैसे लोग अन्य लोगों का हक मार कर कई-कई सुविधाएं ले रहे हैं वहीं कुछ मामलों में एक ही पंजीयन संख्या पर एक से ज्यादा लोगों को भी सुविधाएं दी जा रही हैं. उदाहरण के तौर पर, पंजीयन संख्या-1435 पर दो लोगों सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल राजिंदर सिंह यादव और सेवानिवृत्त कर्नल पीएस यादव को अलग-अलग टोल प्लाजा चलाने का काम मिला हुआ है. इसी तरह पंजीयन संख्या-1521 पर सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर केएस वर्मा को सिक्यूरिटी एजेंसी, सेवानिवृत्त कैप्टन सुरेश गुलाटी को टोल प्लाजा और सेवानिवृत्त मेजर प्रताप सिंह को भी टोल प्लाजा चलाने का काम डीजीआर ने दे रखा है. ये तथ्य डीजीआर के काम-काज में बरती जा रही घोर लापरवाही की ओर इशारा करते हैं.

तहलका के पास ऐसे दस्तावेज हैं जो साबित करते हैं कि एक ही पते पर एक ही या एक से ज्यादा व्यक्तियों द्वारा गलत ढंग से कई प्रशिक्षण केंद्र चलाए जा रहे हैं

मगर अब जिन गड़बड़ियों की बातें हम करने जा रहे हैं वे केवल प्रशासनिक गड़बड़ियां नहीं है. सेना से सेवानिवृत्त होने वाले अधिकारियों और जवानों के प्रशिक्षण के लिए डीजीआर प्रशिक्षण संस्थान खोलने की सुविधा भी देता है. तहलका के पास ऐसे दस्तावेज हैं जो साबित करते हैं कि एक ही पते पर एक ही या एक से ज्यादा व्यक्तियों द्वारा गलत ढंग से कई प्रशिक्षण केंद्र चलाए जा रहे हैं. ऐसे ही एक मामले की ओर ध्यान खींचने के लिए सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल आनंद प्रकाश सिंह ने 10 अप्रैल, 2012 को रक्षा मंत्री एके एंटोनी को एक पत्र लिखा था. लेकिन अब तक उनकी शिकायत पर कुछ नहीं हो सका. आनंद प्रकाश सिंह ने इस पत्र में लिखा था, ‘पिछले तीन महीने में दिल्ली के नांगल राय के डब्ल्यूजेड-289 के पते पर सात प्रशिक्षण केंद्रों को डीजीआर ने मान्यता दी. इनमें से दो कंपनियों में निदेशक के तौर पर गुरिंदर कौर का नाम है. वहीं तीन कंपनियों में निदेशक के तौर पर नवदीप सिंह का नाम है.’ इस पत्र में यह भी बताया गया है कि कई डीजीआर द्वारा मान्यता प्राप्त कई प्रशिक्षण केंद्र रिहाइशी पतों से चल रहे हैं और इनमें बेडरूम और ड्राइंग रूम को क्लास रूम के तौर पर दिखाया जा रहा है. 

डीजीआर में चल रही गड़बड़ियों की पड़ताल के दौरान ऐसे और भी कई प्रशिक्षण संस्थानों के मामले सामने आए. इनमें से एक है किंग मैनपावर सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड. डीजीआर के दस्तावेजों में इसका पता हैः 7डी/1369, सेक्टर-9, सीडीए कॉलोनी, मार्केट नगर, कटक, ओडिशा, पिन- 753014, टेलीफोन नंबर- 0671-2309522. जबकि बीएसएनएल की टेलीफोन डायरेक्टरी बताती है कि यह फोन नंबर और पता न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड का है. सेना से सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर अजय कोहली के नाम पर एस्कलेड सिक्यूरिटी सर्विसेज के नाम से ओडिशा में एक प्रशिक्षण संस्थान पंजीकृत है. लेकिन कंपनी ने प्रोविडेंट फंड कार्यालय में दिल्ली के जनकपुरी का पता दर्ज कराया है. आश्चर्य की बात यह है कि जनकपुरी के इसी पते पर एक और प्रशिक्षण संस्थान – एस्कलेड एंटरप्राइजेज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड – को भी डीजीआर ने मान्यता दे रखी है. नियमों को ताक पर रखने की कहानी यहीं नहीं खत्म होती. जिन अजय कोहली के नाम पर ये दोनों प्रशिक्षण संस्थान चल रहे हैं वे खुद तेजस नेटवर्क नाम की कंपनी में बतौर निदेशक काम कर रहे हैं. डीजीआर में फैली अराजकता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि सेना से सेवानिवृत्त कुछ अधिकारियों को डीजीआर ने अपनी सुविधाएं उनके पंजीयन से पहले ही मुहैया करा दीं. सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल सी मेधी का पंजीयन डीजीआर कार्यालय में 23 जून, 2007 को हुआ. लेकिन इसके पहले 26 अक्टूबर, 2006 को ही मेधी की कंपनी ईगल्स आई सिक्यूरिटीज को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में टोल प्लाजा चलाने का काम मिल गया. ऐसे ही सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल एसके मेहता का पंजीयन डीजीआर में 29 दिसंबर, 2006 को हुआ लेकिन यह डीजीआर की ही माया है कि उन्हें टोल प्लाजा चलाने का काम 7 नवंबर, 2006 को ही मिल गया. 

जिन लोगों को डीजीआर ने टोल प्लाजा आवंटित कर रखे हैं उनमें से कई के बारे में यह शिकायत है कि वे आवंटित तो सेना के किसी रिटायर्ड अधिकारी के नाम पर हुए हैं लेकिन उन्हें चला कोई और रहा है. इस बारे में सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल नवीन कुमार आनंद ने बाकायदा हलफनामा देकर शिकायत दर्ज कराई थी जिसके बाद रक्षा मंत्रालय ने जांच के लिए एक तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था. इस समिति की रिपोर्ट रिपोर्ट बताती है, ‘टोल प्लाजा के मामले में किसी के नाम पर आवंटन और किसी और द्वारा इन्हें चलाए जाने (सबलेटिंग) के कई उदाहरण हैं. यह बात सिक्यूरिटी एजेंसी के मामलों में भी सही है. सबलेटिंग के इस खेल में संबंधित एजेंसी या कंपनी के अलावा डीजीआर के अधिकारी और सेना से सेवानिवृत्त लोग व दूसरे आम लोग भी शामिल हैं.’ रक्षा मंत्रालय की इस समिति ने सिक्यूरिटी एजेंसियों की सबलेटिंग के खतरों से आगाह करते हुए यह भी कहा है, ‘अगर समाज के किसी गलत तत्व को कोई सुरक्षा एजेंसी सबलेट की जाती है तो इसके खतरों का अंदाजा लगाया जा सकता है. सबलेटिंग की वजह से अगर पीएसयू और परमाणु केंद्रों और रिफाइनरियों की सहयोगी इकाइयों की सुरक्षा की जिम्मेदारी किसी राष्ट्र विरोधी तत्व के हाथों में चली जाती है तो इसके परिणाम देश के लिए काफी भयावह हो सकते हैं.’ 

डीजीआर से मान्यता प्राप्त सुरक्षा एजेंसियों के मामले में सबलेटिंग के अलावा और भी कई समस्याएं हैं.  ऐसी सुरक्षा एजेंसियों की संख्या अभी 2,719 है. इन एजेंसियों के जरिए देश भर में दो लाख से अधिक सुरक्षाकर्मी अलग-अलग जगहों पर नियुक्त हैं. डीजीआर के नियमों के तहत एक एजेंसी को 300 से अधिक सुरक्षाकर्मी रखने का अधिकार नहीं है. यानी एक तरह से देखा जाए तो डीजीआर ने अधिक से अधिक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों को लाभ पहुंचाने के मकसद से 300 सुरक्षाकर्मियों का कोटा तय किया है. लेकिन हकीकत यह है कि यह नियम भी सिर्फ कहने के लिए है. कई ऐसी एजेंसियां हैं जिनके सुरक्षाकर्मियों की संख्या इस कोटे से कई गुना अधिक है. टीसी यादव की स्काईलार्क सिक्यूरिटी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. आज इस एजेंसी के पास हजारों की संख्या में सुरक्षाकर्मी हैं. डीजीआर से मान्यता प्राप्त एजेंसियों पर एक आरोप यह भी है कि ज्यादातर एजेंसियां उस नियम का उल्लंघन कर रही हैं जिसके मुताबिक अनिवार्य तौर पर हर एजेंसी के 90 फीसदी सुरक्षाकर्मी सेवानिवृत्त जवान ही होंगे. रक्षा मंत्रालय के ही अधिकारी बताते हैं कि अगर सिर्फ इसी नियम को आधार बनाकर सभी एजेंसियों की जांच कराई जाए तो ज्यादातर एजेंसियों की मान्यता रद्द करनी पड़ेगी.

बड़ी संख्या में जरूरतमंद सेवानिवृत्त सैनिक अपने वाजिब अधिकारों से भी वंचित रखे जा रहे हैं और उनके गुजर-बसर का सहारा सिर्फ पेंशन संस्था है

डीजीआर से सुरक्षा एजेंसियों के लिए मान्यता लेने  के लिए उम्र की अधिकतम सीमा 63 साल निर्धारित की गई है. लेकिन कोई भी सेवानिवृत्त अधिकारी 65 साल से अधिक उम्र तक एजेंसी का संचालन नहीं कर सकता. लेकिन इस नियम को भी डीजीआर के अधिकारी और सुरक्षा एजेंसियों के संचालक आपस में सांठ-गांठ करके खुलेआम ठेंगा दिखा रहे हैं. इसका एक उदाहरण है दीक्षा सिक्यूरिटी सर्विसेज. इस एजेंसी को चलाते हैं सेवानिवृत्त अधिकारी केसी चड्ढा. सेना के दस्तावेजों में इनकी जन्म की तारीख दर्ज है 17 दिसंबर, 1944. इस लिहाज से देखा जाए तो 2009 में चड्डा 65 साल के हो गए थे. लेकिन अब तक ये अपनी सुरक्षा एजेंसी चला रहे हैं. दिल्ली के कई प्रमुख सरकारी कार्यालयों में इनकी एजेंसी सुरक्षा का जिम्मा संभाले हुए हैं. इस तरह के कई उदाहरण हैं. ऐसा नहीं है कि डीजीआर में चल रही धांधली की शिकायत सक्षम अधिकारियों और संस्थाओं के पास नहीं पहुंची है. सच तो यह है कि डीजीआर के अधिकारियों की मिलीभगत से चल रहे भ्रष्टाचार के इस पूरे खेल को समय-समय पर हर सक्षम संस्थाओं के सामने उठाया गया है, लेकिन अब तक उन पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई. तहलका के पास ऐसी दर्जनों शिकायतों की प्रतियां हैं. सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी विजय शर्मा कहते हैं, ‘मैंने डीजीआर के महानिदेशक, रक्षा मंत्री, केंद्रीय सतर्कता आयोग, प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी के यहां भी इसकी शिकायत की. लेकिन इन पर कार्रवाई की बात तो दूर ठीक से जांच तक नहीं कराई गई.’

सेना से सेवानिवृत्त कुछ अधिकारियों का आरोप है कि डीजीआर से मान्यता प्राप्त सुरक्षा एजेंसियों में काम करने वालों के वेतन का ढांचा कुछ इस तरह तैयार किया गया है कि पीएसयू को अधिक पैसे खर्च करने पड़ें. इनमें से एक मोटा हिस्सा सर्विस चार्ज के नाम पर एजेंसियों के मालिक ले लेते हैं. दोषपूर्ण वेतन ढांचे की शिकायत सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल एसके वोहरा ने रक्षा मंत्री एके एंटोनी को एक पत्र लिखकर की थी. इसमें उन्होंने लिखा, ‘केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने वेतन का जो ढांचा बनाया है उसके मुताबिक पगार के बेसिक में ही रहने और खाने का भत्ता शामिल होता है. लेकिन डीजीआर ये दोनों भत्ते अलग से दे रहा है. देश भर में तकरीबन डेढ़ लाख सुरक्षाकर्मी डीजीआर के जरिए तैनात हैं. इस तरह से देखें तो हर साल देश के पीएसयू को 610 करोड़ रुपये अतिरिक्त चुकाने पड़ रहे हैं.’ वोहरा आगे लिखते हैं, ‘कायदे से तो सर्विस चार्ज 1,973 रुपये प्रति गार्ड होना चाहिए लेकिन कई एजेंसियां प्रति गार्ड 4,600 रुपये तक बचा रही हैं.’

वोहरा की शिकायत के बाद रक्षा मंत्रालय ने डीजीआर के लिए नए वेतन ढांचे का प्रस्ताव तैयार किया है. इसमें सिफारिश की गई है कि सर्विस चार्ज को मौजूदा 14-20 फीसदी से घटाकर 8-10 फीसदी किया जाए. डीजीआर की योजनाओं से अच्छी तरह वाकिफ सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘कर्नल वोहरा ने जिन बातों का उल्लेख अपनी शिकायत में किया है और रक्षा मंत्रालय के प्रस्तावित दिशानिर्देशों को मिलाकर देखा जाए तो प्रति गार्ड पीएसयू को करीब 6,482 रुपये अधिक चुकाने पड़ रहे हैं. पिछले 20 साल से डीजीआर चल रहा है और मोटा अनुमान लगाएं तो अब तक सिर्फ इस गड़बड़ी की वजह से सरकारी खजाने को तकरीबन 30,000 करोड़ रुपये का चूना लग चुका है. अन्य गड़बड़ियों को भी जोड़ दें तो डीजीआर के जरिए पिछले 20 साल में सरकारी खजाने को तकरीबन एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है.’ डीजीआर से संबंधित अनियमितता और भ्रष्टाचार के ये मामले बताते हैं कि सेवानिवृत्त सैनिकों को जीवन यापन का आधार देने के मकसद से विकसित की गई व्यवस्था किस तरह से मुट्ठी भर लोगों की कमाई का औजार बनकर रह गई है. नतीजा यह हो रहा है कि बड़ी संख्या में जरूरतमंद सेवानिवृत्त सैनिक अपने वाजिब अधिकारों से भी वंचित हो रहे हैं और उन्हें अपने और अपने परिवार की गुजर-बसर सिर्फ पेंशन के सहारे करने को मजबूर होना पड़ रहा है. l

प्रश्नोत्तर: ‘शिकायतों पर कार्रवाई की प्रक्रिया चल रही है’

डीजीआर के महानिदेशक मेजर जनरल प्रमोद बहल से हिमांशु शेखर की बातचीत के प्रमुख अंश

नियमों के मुताबिक उस व्यक्ति को कोई सुविधा नहीं मिल सकती जिसे पहले ही डीजीआर से कोई सुविधा मिली हुई हो. लेकिन कई ऐसे मामले हैं जिनमें सेवानिवृत्त सैनिक एक से अधिक सुविधाएं ले रहे हैं. इस बारे में आपका क्या कहना है?

बात सही है कि कुछ लोग डीजीआर से एक से अधिक सुविधाएं ले रहे हैं. लेकिन इसकी वजह जानने के लिए पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है. इस तरह के जो भी मामले सामने आए हैं उनमें से ज्यादातर 2005 से 2009 के बीच के हैं. यह वह समय था जब हमारे पास न तो रिकॉर्ड रखने के लिए कोई कंप्यूटरीकृत व्यवस्था थी और न ही निगरानी के लिए कोई प्रभावी तंत्र था. इसके अलावा एक बात यह भी है कि जो भी सेवानिवृत्त सैनिक डीजीआर से सुविधाएं हासिल करने के लिए आता है उसे एक हलफनामा देकर बताना होता है कि उसने डीजीआर से पहले कोई सुविधा नहीं ली और वह कहीं और नौकरी तो नहीं कर रहा. लेकिन इन हलफनामों में भी गलत जानकारी दे दी जाती है. व्यापक निगरानी तंत्र के अभाव में ये गड़बड़ियां चल रही थीं. लेकिन 2010 से ऐसे मामलों में काफी कमी आई है. हमने रिकॉर्ड रखने के लिए कंप्यूटरीकृत व्यवस्था विकसित की है और इसका असर दिख रहा है.

क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि अब डीजीआर में सब कुछ ठीक हो गया है?

अभी भी एक से अधिक सुविधाएं लेने या नौकरी करते हुए डीजीआर से सुविधाएं हासिल करने के मामले सामने आते हैं लेकिन हम उन पर तुरंत कार्रवाई करते हैं.

सिक्यूरिटी एजेंसियों और टोल प्लाजा की सबलेटिंग के भी कई मामले हैं. रक्षा मंत्रालय द्वारा गठित त्यागी समिति की रिपोर्ट में भी कई ऐसे मामलों का उल्लेख है. इसके बावजूद कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई?

सबलेटिंग की शिकायतें तो आती हैं लेकिन इन्हें प्रमाणित करना आसान नहीं है क्योंकि जब तक मालिकाना हक किसी और व्यक्ति को देने के कागजात नहीं मिल जाएं तब तक यह साबित नहीं होता कि सबलेटिंग हुई है. जहां तक त्यागी समिति की रिपोर्ट का मामला है तो इस समिति का गठन रक्षा मंत्रालय ने किया था और रिपोर्ट भी रक्षा मंत्रालय को ही सौंपी गई थी. इस पर कार्रवाई भी रक्षा मंत्रालय को ही करनी है.

सिक्यूरिटी एजेंसियों के लिए तैयार किए गए वेतन ढांचे पर भी सवाल उठ रहे हैं. कहा जा रहा है कि एजेंसियों को अधिक मुनाफा देने के लिए दोषपूर्ण वेतन ढांचा तैयार किया गया. आखिर क्यों नया वेतन ढांचा तैयार होने के बाद भी लागू नहीं हो पा रहा?

वेतन ढांचे को लेकर कुछ आपत्तियां कई लोगों को थीं. डीजीआर ने भी इन आपत्तियों को समझने के बाद यह पाया कि कुछ सुधार की जरूरत है. इसके बाद हमने नया वेतन ढांचा तैयार करके रक्षा मंत्रालय के पास भेजा है. जैसे ही मंजूरी मिलेगी नया वेतन ढांचा लागू हो जाएगा.

सेना से सेवानिवृत्त कैप्टन टीसी यादव ने अपने दस्तावेजों में हेरफेर करके डीजीआर से कई सुविधाएं हासिल कीं और 5,000 रुपये मासिक पेंशन से सैकड़ों करोड़ रुपये का साम्राज्य खड़ा कर लिया. इस आरोप पर आप क्या कहेंगे कि यादव ने यह काम डीजीआर अधिकारियों की मिलीभगत से किया?

आज की तारीख में टीसी यादव को डीजीआर से कोई सुविधा नहीं मिल रही. हां, यह जांच का विषय जरूर है कि आखिर 5,000 रुपये मासिक पेंशन हासिल करने वाला व्यक्ति 250 करोड़ रुपये की कंपनियों का मालिक कैसे बन बैठा. लेकिन यह जांच डीजीआर के अधिकार क्षेत्र में नहीं है.

कन्नौज : कामयाबी या कलाबाजी

चौदहवीं लोकसभा में पहुंचने का उनका सपना एक बार टूटकर भी पूरा हो गया. हालांकि उनकी जीत तय मानी जा रही थी, मगर यह इतनी नाटकीय होगी, इसकी कतई उम्मीद नहीं थी. यह उस बात की स्वीकृति भी है कि सपा का विजय मार्च अभी जारी है. प्रदेश के इतिहास में यह दुर्लभ मौका सिर्फ तीसरी बार आया है. उनसे पहले कांग्रेस के पीडी टंडन 1952 के उपचुनाव में इलाहाबाद पश्चिम से और टिहरी रियासत के राजा मानवेंद्र शाह 1962 में टिहरी गढ़वाल लोकसभा सीट से निर्विरोध चुने गए थे. सपा गर्व और संतोष के आलम में मस्त है.

राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता. डिंपल के चुनाव ने इस बात को साबित किया. 2009 के फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस ने डिंपल के खिलाफ राज बब्बर को मैदान में उतारा था और उन्हें मात भी दी थी. राज बब्बर 85 हजार वोटों से जीते थे. इसीलिए इस बार जब कन्नौज से अखिलेश की सीट पर डिंपल को उतारने की तैयारी हुई तो सपा ने जीत के लिए जरूरी सारे समीकरण पहले ही बिठा लिए थे. इसके तहत 2012 विधानसभा चुनाव में कन्नौज की छिबरामऊ विधानसभा सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी रहे छोटे सिंह यादव और तिर्वा विधानसभा सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार रहे दिगंबर सिंह यादव की सपा में वापसी कराई गई. फिर कन्नौज के विकास के लिए अनेक कदम उठाए गए और लोगों तक यह संदेश पहुंचाया गया कि सरकार पूरी तरह से उनके साथ खड़ी है.

इस व्यवस्था के बाद जब डिंपल ने नामांकन से पूर्व कन्नौज में जनसभा की तो उसमें संयत मगर तीखे शब्दों में मायावती के शासन की कलई खोलने से गुरेज नहीं किया. तब तक यही माना जा रहा था कि डिंपल को थोड़ी-बहुत चुनौती अगर मिलेगी तो वह बीएसपी की ओर से ही मिलेगी. लेकिन नामांकन की तारीख बीतते ही यह साफ हो गया कि डिंपल को कहीं से भी चुनौती नहीं मिलने जा रही और फिर संयुक्त समाजवादी दल के दशरथ शंखवार तथा निर्दलीय संजीव कटियार के भी नाम वापस ले लेने के बाद डिंपल का निर्वाचन निर्विरोध हो गया. 

इस निर्विरोध निर्वाचन ने कुछ चर्चाओं को भी हवा दी है. कांग्रेस  द्वारा उम्मीदवार न खड़ा किया जाना तो समझ में आता है. एक तो कन्नौज में कांग्रेस का संगठन लगभग खत्म हो चुका है. वहां शीला दीक्षित के जमाने के बचे-खुचे लोग ही कांग्रेसी झंडा लहरा रहे हैं. दूसरे, जिस तरह सपा की बैसाखी के सहारे केंद्र की सरकार खड़ी है वैसे में कांग्रेस के लिए यह संभव नहीं था कि वह फिरोजाबाद जैसे तेवर कन्नौज में दिखाए. कांग्रेस के सामने एक सच्चाई यह भी थी कि तीन महीने पहले हुए विधानसभा चुनावों में कन्नौज की पांचों सीटों पर उसकी दुर्गति हुई थी. सबसे बड़ा आश्चर्य रहा बसपा का मैदान छोड़ जाना. इसे कन्नौज लोकसभा चुनाव में करीब 2,18,000 वोट मिले थे और वह दूसरे स्थान पर रही थी. 

2012 के विधानसभा चुनाव में हालांकि कन्नौज की पांचों विधानसभा सीटों पर सपा का ही कब्जा हुआ था, मगर बसपा के कुल वोट लोकसभा चुनाव की तुलना में बढ़कर 2,68,090 हो गए थे. यानी बसपा की चुनौती कन्नौज में कायम थी. इसलिए अब बसपा कार्यकर्ताओं में तरह-तरह की कानाफूसियां हो रही हैं. कहा जा रहा है कि उम्मीदवार खड़ा न करने के पीछे भ्रष्टाचार के मामलों में लोकायुक्त जांच में फंसे मायावती सरकार के दो पूर्व मंत्रियों नसीमुद्दीन सिद्दीकी और रामवीर उपाध्याय की सरकार के साथ कोई ‘डील’ हुई है. इसी कारण बसपा ने कन्नौज में उम्मीदवार नहीं उतारा. बसपा द्वारा चुनाव न लड़ने के लिए दी जा रही दलील भी हास्यास्पद है. बसपा के प्रेस नोट में कहा गया- ‘प्रदेश में सपा की सरकार बनते ही अराजकता का माहौल व्याप्त हो गया है. सपा ने परिवारवाद की परंपरा को जारी रखते हुए कन्नौज में अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव को चुनाव मैदान में उतारा है. सपा की इस नीति का पर्दाफाश करने व यूपी सरकार को छह माह का समय देने की मुलायम सिंह यादव की गुहार के मद्देनजर बसपा ने कन्नौज में उम्मीदवार न उतारने का फैसला किया है.’ यह बसपा का दिवालियापन है या अपने दागदार दामन को छिपाने की कोशिश! लोकतंत्र में विपक्षी की असलियत उजागर करने के लिए चुनाव के अलावा कौन-सा तरीका है? 

भाजपा का मामला और छीछालेदर वाला है. यह पार्टी जिस तरह से राष्ट्रीय स्तर पर गुटबाजी और किरकिरी के लिए बदनाम है उसी तरह का असमंजस उसने कन्नौज में भी दिखाया. ब्राह्मण बहुल इस क्षेत्र में भाजपा तीसरे स्थान पर रहती आई है. पार्टी ने लखनऊ में बाकायदा घोषणा की थी कि निकाय चुनाव को महत्व देते हुए वह कन्नौज का उपचुनाव नहीं लड़ेगी. जबकि 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को यहां डेढ़ लाख वोट मिले थे. खैर, एक दिन बाद नामांकन का समय खत्म होने से महज एक घंटे पहले कई दलों में पाला बदल चुके जगदेव सिंह यादव को अचानक ही पार्टी ने टिकट दे दिया. जगदेव नामांकन करने जब तक पहुंचते तब तक समय सीमा खत्म हो चुकी थी. अब पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी ने नामांकन न हो पाने का ठीकरा समाजवादी पार्टी के सिर पर फोड़ते हुए आरोप लगाया कि सपा कार्यकर्ताओं ने उन्हें नामांकन नहीं करने दिया. सच्चाई यह है कि भाजपा को चुनाव लड़ने के लिए कोई योग्य प्रत्याशी मिल ही नहीं रहा था. 

डिंपल की निर्विरोध जीत सपा के लिए नई खुशियां लेकर आई है, मगर उम्मीद यही की जानी चाहिए कि यह निर्विरोध जीत अपवाद ही बनी रहे, परंपरा न बने. लोकतंत्र में जनता की सबसे बड़ी ताकत अपने वोट की होती है. इस तरह का आयोजन एक तरह से जनता के हाथों से ताकत छीनने जैसा है. खुद मुलायम सिंह और अखिलेश यादव को भी अहसास होगा कि इस जीत में जनता की इच्छा अनुपस्थित है. खुद राजनेता भी तो अन्ना जैसों को चुनौती देते रहते हैं चुनाव लड़ने की, तो फिर खुद चुनाव से क्यों भागना?

भत्ते से ज्यादा भर्ती की जरूरत

 

हाल ही में उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने राज्य का बजट पेश किया. हालांकि राज्य में चुनाव अभी बहुत दूर हैं, लेकिन अखिलेश का बजट बिल्कुल लोकलुभावन है. उनके बजट में लोगों की सबसे ज्यादा निगाह उस बेरोजगारी भत्ते की ओर थी जिसकी हाल में सबसे ज्यादा चर्चा रही थी. अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री बनने के बाद 15 मार्च को जो सबसे पहली मीटिंग बुलाई थी उसमें ही युवाओं को बेरोजगारी भत्ता दिए जाने की संस्तुति कर दी गई थी. इसके तहत राज्य के बेरोजगार युवाओं 1,000 रुपये प्रति महीना भत्ता मिलेगा. सपा की इस लोकलुभावन राजनीति का बोझ राज्य के कोष पर पड़ना है. इस योजना के लागू होने की सूरत में प्रतिवर्ष 2,000 रुपये का अतिरिक्त बोझ राजकोष पर बढ़ जाएगा. जबकि 31 मार्च को समाप्त हुए पिछले वित्त वर्ष में राज्य पर कुल दो लाख करोड़ रुपये का कर्ज पहले से ही है. मुख्यमंत्री अपने फैसले का बचाव इस तर्क के आधार पर करते हैं कि अगर पिछली बसपा सरकार हजारो करोड़ रुपये पार्कों, स्मारकों आदि पर बर्बाद कर सकती है तो उनकी सरकार राज्य के बेकाम युवाओं पर कुछ हजार करोड़ रुपये क्यों नहीं खर्च कर सकती. इससे बेरोजगारों को राहत मिलेगी. इसके अलावा वे कहते हैं कि उन्होंने चुनावी अभियान के दौरान ही यह वादा जनता से किया था इसलिए इसे पूरा करना उनकी जिम्मेदारी है. 

इस योजना की घोषणा होते ही रोजगार कार्यालयों के बाहर बेरोजगार युवाओं का हुजूम उमड़ पड़ा. हर युवा खुद को बेरोजगार कार्यालय में दर्ज करवा लेना चाहता था ताकि वह भत्ता पाने का हकदार बन सके. सपा की तरह ही भाजपा ने भी अपने चुनावी घोषणा पत्र में बेरोजगारी भत्ते की घोषणा की थी, हालांकि उसने हर महीने 2,000 रुपये देने का वादा किया था. लेकिन मुख्यमंत्री इस मसले को जितना सीधा बता रहे हैं यह मसला उतना सीधा है नहीं. जानकार बताते हैं कि राजकोष पर इतना भारी अतिरिक्त बोझ डालने से बेहतर होता कि वे पूरे राज्य के विभिन्न विभागों में खाली पड़े लगभग पांच लाख सरकारी पदों को भरने की प्रक्रिया शुरू करते. इससे एक तो बेरोजगारी खत्म होती दूसरे सरकारी विभागों के काम-काज का स्तर सुधरता. सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि राज्य के पुलिस विभाग में 2.18 लाख पद खाली हैं. शिक्षकों के 2.78 लाख पद रिक्त हैं. 6,000 से ज्यादा डॉक्टरों की कमी है, सरकारी अस्पतालों में एक हजार के करीब पैरामेडिक स्टाफ की जरूरत है.  

राज्य के गृह और पुलिस विभाग के अधिकारी बताते हैं कि पुलिस विभाग को नई नियुक्तियों और प्रशिक्षण सुविधाओं की सख्त जरूरत है

 

वित्त विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘खाली पदों पर नियुक्ति से भी कोष पर बोझ तो पड़ेगा पर यह ऐसा बोझ है जिसके बारे में आपको पता है कि यह पड़ना ही है. सबको मालूम है कि कोई व्यक्ति नौकरी पर लगता है तो उसे वेतन और भत्ते दिए जाते हैं. जबकि बेरोजगारी भत्ता निश्चित रूप से राज्य के करदाताओं पर अतिरिक्त बोझ है. पर यह राजनीतिक फैसला है और हमारा काम है इस फैसले को लागू करना.’ ‘राजनीतिक फैसला’ शायद वह शब्द है जिसके बाद तर्क बेमानी हो जाते हैं. नहीं तो पुलिस जैसे महत्वपूर्ण विभाग में स्टाफ की कमी को कैसे अनदेखा किया जा सकता है? मानक कहता है कि प्रति लाख जनसंख्या पर 191 पुलिसकर्मी होने चाहिए. लेकिन हैं सिर्फ 75. यानी 116 पद रिक्त हैं. पूरे प्रदेश में हेड कॉन्सटेबल के 58, 794 पद स्वीकृत हैं जबकि 44,177 पद खाली पड़े हैं. इसी तरह कॉन्सटेबल के 2.5 लाख पद हैं लेकिन 1.65 लाख रिक्त हैं. स्पेशल टास्क फोर्स और एंटी टेररिस्ट स्क्वाड जैसे महत्वपूर्ण दस्ते भी स्टाफ की भयंकर कमी से जूझ रहे हैं. 

 

स्वास्थ्य विभाग की भी यही दशा है. पूरे राज्य में 14,103 डॉक्टरों के पद स्वीकृत हैं पर 5,621 पदों ने आज तक डॉक्टरों का मुंह ही नहीं देखा. इसी तरह मेडिकल स्टाफ की भी तंगी है. 7,000 के करीब नर्स, मिडवाइफ, फार्मासिस्ट, लैब टेक्नीशियन और एक्स-रे टेक्नीशियन की जरूरत है. राज्य के गृह और पुलिस विभाग के अधिकारी बताते हंै कि पुलिस विभाग को नई नियुक्तियों और प्रशिक्षण सुविधाओं की सख्त जरूरत है. गृह विभाग के मुख्य सचिव आरएम श्रीवास्तव कहते हैं, ‘नियुक्ति, सेवानिवृत्ति और मुकदमेबाजी साथ-साथ चलने वाली चीजें हैं. हम एक योजना बना रहे हैं कि नई नियुक्तियों के लिए प्रक्रिया में ज्यादा समय न लगे. प्रशिक्षण सुविधाओं में सुधार एक और चुनौती है. हमारे मौजूदा पांच प्रशिक्षण केंद्रों में फिलहाल हर साल 8,000 पुलिसकर्मी प्रशिक्षित किए जा सकते हैं.’ 

राज्य के कैबिनेट ने पहले ही बेरोजगारों को भत्ता दिए जाने के फैसले पर अपनी सैद्धांतिक सहमति दे दी थी. अब मसला अटका है इसकी बारीकियों का निर्धारण करने में. मसलन इसके लिए अधिकतम और न्यूनतम उम्र क्या होगी, लाभान्वितों की संख्या क्या होगी, लाभार्थियों की अर्हता क्या होगी आदि. श्रम विभाग के मुख्य सचिव शैलेश कृष्ण कहते हैं, ‘फिलहाल तो आयु सीमा 35 वर्ष सोची जा रही है. लेकिन यह इससे ज्यादा भी हो सकती है. आयु सीमा से ही फैसला होगा कि इस योजना से कितने लोगों को फायदा होगा. अभी माना जा रहा है कि यह आंकड़ा करीब दस लाख होगा. ‘ उत्तर प्रदेश के रोजगार कार्यालय जो श्रम मंत्रालय के अधीन आते हंै, उन सभी लोगों का पंजीकरण करते हैं जिनकी उम्र 14 साल से ऊपर हो. हालांकि ऐसे लोग 18 साल की अवस्था के बाद रोजगार के लिए योग्य होते हैं. पंजीकृत लोगों में अशिक्षित, डिग्रीधारी और तकनीकी शिक्षा प्राप्त सभी तरह के लोग होते हैं.

आयु सीमा और पारिवारिक आय जैसे मानकों के अलावा सरकार लाभान्वितों से कुछ स्वैच्छिक काम कराने के बारे में भी सोच रही है. ‘हमारी सोच है कि बेरोजगारों को कुछ कामकाज का अनुभव दिया जाय जिससे सरकार को फायदा हो. लाभान्वितों को जो काम दिया जाएगा वह अस्थायी और व्यक्ति की योग्यता के हिसाब से होगा, ‘गृह विभाग के एक अन्य अधिकारी कहते हैं. इसके तहत आंकड़े इकट्ठा करना, आंकड़ों की एंट्री करना आदि शामिल है. 15 मार्च को कैबिनेट की संस्तुति के बाद यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि बजट के दौरान इस योजना की हवा निकल सकती है. फिलहाल सरकार ने इस मद में 1,100 करोड़ रुपये का प्रावधान करके इस योजना को आगे बढ़ाने का मार्ग खोल दिया है. इस बीच सरकार की इस लोकलुभावन योजना का काफी विरोध भी हुआ है. विपक्ष का आरोप है कि मुख्यमंत्री जनता को लॉलीपॉप थमा कर भरमा रहे हैं. उनका ध्यान सिर्फ 2014 के लोकसभा चुनाव पर टिका है. बेरोजगारी की समस्या की जड़ में जाने की न तो उनकी योजना है और न ही समय. तमाम विरोधों और आलोचनाओं के बावजूद राज्य के युवा मुख्यमंत्री अपने घोषणा पत्र में किए गए वादे को पूरा करने के लिए दृढ़संकल्प हैं. अखिलेश कहते हैं, ‘हमारी सोच स्पष्ट है. बेरोजगारों की सहायता करके हम लोकलुभावन राजनीति नहीं कर रहे. बेरोजगारी की समस्या हमारी कल्पना से कहीं ज्यादा गंभीर बन गई है.’ अपनी बात रखते समय वे यह कहना नहीं भूलते कि बेरोजगारी भत्ता देने का यह अर्थ नहीं है कि वे खाली पड़े पदों को भरने की दिशा में नहीं सोच रहे. वे कहते हैं, ‘राज्य में डॉक्टरों, शिक्षकों और पुलिसकर्मियों की भर्ती शुरू करने की प्रक्रिया पहले से ही शुरू कर दी गई है.’

 

चैनलों का विज्ञापनीय अत्याचार

चैनलों और विज्ञापनों के बीच चोली-दामन का साथ है. हालांकि दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है, लेकिन अधिकांश दर्शकों की विज्ञापनों के प्रति अरुचि और चिढ़ किसी से छिपी नहीं है. विज्ञापनों की भरमार से वे सबसे ज्यादा तंग महसूस करते हैं. खासकर हाल के वर्षों में चैनलों ने दर्शकों पर विज्ञापनों की बमबारी इस हद तक बढ़ दी गई है कि अब कार्यक्रमों के बीच विज्ञापन नहीं बल्कि विज्ञापनों के बीच कार्यक्रम दिखता है. हालांकि दर्शकों के पास रिमोट की ताकत और चैनल बदलने का सीमित विकल्प है, लेकिन दर्शक डाल-डाल हैं तो चैनल पात-पात हैं. 

चैनलों ने दर्शकों के पास यह सीमित विकल्प भी नहीं रहने दिया है. चैनलों ने एक ही समय विज्ञापन दिखाने और विज्ञापनों के दौरान आवाज ऊंची करने से लेकर कार्यक्रमों के दौरान कभी आधी स्क्रीन, कभी पट्टी में और कभी उछलकर आनेवाले विज्ञापनों के रूप में रिमोट की काट खोज ली है. लेकिन इससे दर्शकों की खीज बढ़ती जा रही है. मजे की बात यह है कि केबल नेटवर्क रेगुलेशन कानून के मुताबिक, चैनल एक घंटे में कुल 12 मिनट से अधिक का विज्ञापन नहीं दिखा सकते हैं जिसमें उनके खुद के कार्यक्रमों/चैनल का विज्ञापन शामिल है. लेकिन शायद ही कोई चैनल इसका पालन करता हो. बड़े चैनलों पर तो एक घंटे के कार्यक्रम/समाचार में 20 से 25 मिनट तक का विज्ञापन ब्रेक रहता है और दर्शक खुद को असहाय महसूस करते हैं.   

पिछले चार वर्षों में छह प्रमुख न्यूज चैनलों पर प्राइम टाइम में औसतन 35 फीसदी विज्ञापन दिखाया गया जबकि इसकी सीमा 20 फीसदी है

सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के एक सर्वेक्षण के अनुसार, पिछले चार वर्षों में छह प्रमुख न्यूज चैनलों पर प्राइम टाइम (शाम 7 से 11 बजे) में औसतन 35 फीसदी विज्ञापन दिखाया गया जबकि उनकी निर्धारित सीमा 20 फीसदी है. एक साल तो विज्ञापनों का औसत 47 फीसदी तक पहुंच गया. हैरानी की बात यह है कि केबल कानून के तहत पाबंदी के बावजूद चैनलों की मनमानी पर रोक लगाने वाला कोई नहीं है. नतीजा, दर्शकों पर विज्ञापनों का अत्याचार जारी है. दर्शकों की कीमत पर चैनल कमाई करने में लगे हुए हैं. वे उसमें कोई कटौती करने को तैयार नहीं हैं. 

लेकिन दूरसंचार नियमन प्राधिकरण (ट्राई) ने एक ताजा आदेश में चैनलों पर विज्ञापनों की समयसीमा निश्चित करने और विज्ञापन प्रदर्शित करने के तरीके को लेकर कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं. ट्राई के मुताबिक, चैनल एक घंटे के कार्यक्रम में कुल 12 मिनट से अधिक का विज्ञापन नहीं दिखा सकते और एक विज्ञापन सेशन से दूसरे के बीच कम से कम 15 मिनट (फिल्मों के मामले में 30 मिनट) का अंतराल होना चाहिए.

यही नहीं, चैनल एक घंटे में 12 मिनट के कुल विज्ञापन समय को अगले घंटों में नहीं ले जा सकते और इन 12 मिनटों में चैनलों के खुद के विज्ञापन भी शामिल होंगे. ट्राई ने कार्यक्रमों के बीच कभी आधी स्क्रीन, कभी पॉप-अप, कभी पट्टी में आने वाले विज्ञापनों के अलावा विज्ञापन के दौरान उसकी आवाज तेज करने पर भी रोक लगाने की सिफारिश की है. जैसी कि आशंका थी, ट्राई की इन सिफारिशों के खिलाफ चैनलों ने सिर आसमान पर उठा लिया है. उन्हें यह अपनी आजादी, स्वायत्तता और अधिकारों में हस्तक्षेप लग रहा है. उनका यह भी कहना है कि विज्ञापनों का नियमन ट्राई के अधिकार क्षेत्र से बाहर है क्योंकि यह कंटेंट रेगुलेशन का मामला है. हालांकि ट्राई ने चैनलों के इन सभी तर्कों का स्पष्ट और तार्किक उत्तर दिया है लेकिन चैनलों के तीखे विरोध और सरकार के ढुलमुल रवैये को देखते हुए इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि सरकार इन सिफारिशों को लागू करने की पहल करेगी. मतलब यह कि दर्शकों पर विज्ञापनों का अत्याचार जारी रहेगा. लेकिन सवाल यह है कि क्या दर्शकों का कोई अधिकार नहीं है और यह भी कि वे चैनलों की मनमानी कब तक झेलते रहेंगे.

खूबी और खामी: अग्निम् समर्पयामि

उत्तराखंड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग जंगल की अनमोल खूबियां लील जाती है और जंगल बचाने के लिए जिम्मेदार लोगों की खामी छिपा लेती है. यह सिलसिला आखिर कब थमेगा? मनोज रावत की रिपोर्ट.

आग की चपेट में आकर बाघ के चार बच्चों की मौत के बाद उत्तराखंड में जंगलों में हर साल लगने वाली आग एक बार फिर सुर्खियों में है. यह दर्दनाक घटना नैनीताल और उधमसिंहनगर जिले की सीमा पर सेना के गौशाला क्षेत्र में हुई थी. इतिहास टटोलें तो पता चलता है कि हर साल गर्मियों में उत्तराखंड के जंगल धू-धू कर जलते रहे हैं. लोग इस आग की चपेट में आकर जान गंवाते हैं और वन्य संपदा के लिए भी यह भयानक नुकसान का सबब बनती है. इतिहास से सबक लेने की बात कही जाती है, लेकिन आज भी स्थिति यह है कि यहां मार्च से लेकर जून के आखिरी हफ्ते तक का समय, जिसे वनाग्नि काल भी कहा जाता है, आग लगने के कारणों, बुझाने के उपायों और जिम्मेदारी तय करने के आरोप-प्रत्यारोपों में बीत जाता है. राज्य की राजधानी देहरादून में देश का वन अनुसंधान संस्थान है. इसके बावजूद वन विभाग के पास वनों में लगने वाली आग से संबंधित सवालों के न तो तर्कसम्मत जवाब हैं और न ही वनाग्नि की रोकथाम की कोई ठोस कार्ययोजना. पेशेवर तरीकों से आग से निपटना तो दूर की बात है, विभाग उपलब्ध सूचनाओं का भी फायदा नहीं ले पा रहा. नतीजा यह होता है कि हर साल जंगलों की आग तभी शांत होती है जब उत्तराखंड में मानसून पूर्व बरसात की फुहार पड़ती है. उत्तराखंड के 65 फीसदी हिस्से में वन हैं. हर साल राज्य में हजारों हेक्टेयर जंगल राख होता है. कुछ समय पहले विधानसभा में एक सवाल के जवाब में वन विभाग ने बताया कि इस साल छह जून तक वनाग्नि की 1,086 घटनाएं दर्ज की गई हैं जिनमें 2,542 हेक्टेयर वन क्षेत्र जल कर खाक हो गया है. 

इस पूरे मसले की विस्तार से पड़ताल की जाए तो इसकी जड़ में उपेक्षा नजर आती है. अपनी जिम्मेदारी की उपेक्षा और अपने समाज को समझने की जरूरत की उपेक्षा भी. गौशाला क्षेत्र की घटना के बारे में तराई-पश्चिमी वन प्रभाग में तैनात वनाधिकारी निशांत वर्मा बताते हैं, ‘पांच जून की शाम सेना के चरागाह और वन क्षेत्र में आग लगी थी जिसकी सूचना सेना ने वन-विभाग को छह जून की सुबह दी.’ लेकिन तथ्यों को टटोला जाए तो सूचना सही समय पर न मिलने की बात सच नहीं लगती. देहरादून में ही स्थित फारेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने देश भर में लगने वाली आग की सूचना पहुंचाने के लिए सैटेलाइट आधारित सूचना देने की एक प्रणाली विकसित की है. इसकी मदद से जंगल में कहीं भी आग लगने के चार घंटे के भीतर अपने आप ही उस इलाके में तैनात डीएफओ के मोबाइल पर इसकी सूचना आ जाती है. यानी उस क्षेत्र में आग लगने की खबर वन विभाग को निश्चित रूप से रात में ही मिल गई होगी. लेकिन उस सूचना को भी आम आग लगने की सूचना मान कर वन विभाग ने भी बचाव कार्रवाही करना उचित नहीं समझा होगा. नतीजा बाघ के चार शावकों की मौत के रूप में सामने आया. अब तक आधा दर्जन इंसानी जिंदगियां भी इस आग की भेंट चढ़ गई हैं. आग लगने की सूचना पाने और उसके बचाव के लिए नवीनतम तकनीकों को अपनाने में मध्य प्रदेश अन्य राज्यों की तुलना में अभी बहुत पीछे है. राज्य के ही एक वनाधिकारी बताते हैं कि मध्यप्रदेश के वन विभाग ने अपनी स्वतः सूचना प्रणाली विकसित की है. इस प्रणाली से सैटेलाइट के जरिए आग की सूचना फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के साथ-साथ वन विभाग के पास पहुंचती है. जिससे फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया में जानकारी के विश्लेषण में लगने वाला चार घंटे का समय बर्बाद नहीं होता.

उत्तराखंड में वन क्षेत्र के 30 फीसदी हिस्से में आग बुझाने की कोई व्यवस्था नहीं है. इन्हीं क्षेत्रों से आग शुरू होती है और बिना अंकुश के विकराल हो जाती है

वन विभाग पर यह भी आरोप लगता है कि वह आग में झुलस गए वन का क्षेत्रफल और उससे होने वाली हानि भी कम करके दिखाता है. विभाग के अनुसार पिछले दस साल में हर साल औसतन 3,000 हेक्टेयर वन जले हैं. सामाजिक कार्यकर्ता मनोज जग्गी कहते हैं, ‘कई बार इससे अधिक क्षेत्रफल तो एक वन रेंज में ही जल जाता है. इस साल रुद्रप्रयाग वन प्रभाग के अधिकांश वन क्षेत्र में आग लगी है. विभाग खुद ही कहता है कि एक लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले इस वन प्रभाग के 14000 हैक्टेयर में अकेले चीड़ के जंगल हैं. जो पूरे जल गए हैं. फिर वह किस आधार पर कह रहा है कि यहां सिर्फ 94 हेक्टेयर जंगल जला है?’ ‘तहलका’ से बातचीत में वन विभाग के लगभग सभी अधिकारियों ने माना कि ज्यादातर मामलों में आग  का लेना-देना कुदरत के बजाय इंसानों से होता है. उनके मुताबिक ग्रामीण लोग विभिन्न कारणों से अपने खेतों या पास के वनों में आग लगाते हैं. उधर, ग्रामीण वन विभाग पर आरोप लगाते हैं कि हर साल होने वाले फर्जी वृक्षारोपणों की असफलता को छिपाने के लिए वनकर्मी खुद भी जंगलों में आग लगाते हैं.

उत्तराखंड में कुल वन क्षेत्र का 70 फीसदी रिजर्व वन क्षेत्र ही वन विभाग के अधिकार और नियंत्रण में है. बाकी बचे 30 फीसदी वन सिविल फॉरेस्ट के रूप में  हैं. ये राजस्व विभाग या वन पंचायतों के रूप में ग्राम-पंचायत के अधिकार में हैं या फिर सेना की तरह विभागों या व्यक्तिगत नियंत्रण में. वन विभाग के पास तो आग लगने की सूचना के आदान-प्रदान और फिर उसे बुझाने के लिए फिर भी एक व्यवस्था है लेकिन 30 फीसदी हिस्से के वनों में आग बुझाने का कोई प्रबंधन नहीं है. आग की शुरुआत खेतों या गांव के पास के सिविल या वन पंचायत वन क्षेत्रों से होती है. यदि शुरुआत ही में आग पर नियंत्रण हो जाए तो वह अधिक नहीं फैलेगी. लेकिन वन विभाग के उलट राजस्व विभाग और वन पंचायतों के पास आग लगने की सूचनाओं और उसे बुझाने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है. इसके अलावा वन विभाग, राजस्व विभाग और वन पंचायतों के बीच शासन से लेकर ग्राम स्तर तक आग पर काबू पाने के लिए समन्वय की कोई व्यवस्था नहीं है. एक वनाधिकारी कहते हैं, ‘यह तो ऐसा ही है जैसे शरीर के एक अंग को दूसरे के जलने की खबर ही न हो.’

उत्तराखंड में 40,000 हेक्टेयर भूमि पर अकेले चीड़ के जंगल हैं. मार्च से लेकर जून तक चीड़ के पेड़ से उसकी नुकीली गुच्छेदार पत्तियां (पिरुल) गिरती हैं. भारतीय वन संस्थान के अध्ययन के अनुसार एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले चीड़ के जंगल से साल भर में छह टन तक पिरुल गिरता है. उत्तराखंड में अधिकांश सड़कें जंगलों से गुजरती हैं. 5,000 फुट से कम ऊंचाई के अधिकांश क्षेत्रों में ये जंगल चीड़ प्रजाति के पेड़ों के हैं. कुमायूं के वन संरक्षक  रहे रसायली बताते हैं, ‘सड़कों पर गिरे पिरुल पर गाड़ियों के चलने से सड़क के किनारे पिरुल का बुरादा जमा हो जाता है. चीड़ जैसे पेड़ों की पत्तियों में काफी मात्रा में ज्वलनशील तेल होना. चिनगारी पड़ने पर सड़क किनारे जमा हुआ चीड़ का यह बुरादा आग को बारूद की तरह भड़काता है. चिनगारी का कारण बीड़ी -सिगरेट का अनजाने में फेंके गए टुकड़े की हल्की तपिश या गाड़ियों के  बैक-फायर की चिंगारी हो सकता है. चीड़ के शंक्वाकार फल तो आग फैलाने में सबसे अधिक मददगार होते हैं. ऊंचाई से जलता हुआ चीड़ का फल कई किलोमीटर नीचे तक जलती स्थिति में आकर जंगल में आग फैला सकता है. ‘गढ़वाल विश्वविद्यालय के औद्यानिकी विभाग के वैज्ञानिक डा. जगमोहन सिंह बताते हैं कि चीड़ के जंगलों में मिश्रित वनों की तुलना में बहुत कम नमी होती है इसलिए भी इन जंगलों में आग जल्दी लगती व तेजी से फैलती है. 

हालांकि सरकार अब इस मोर्चे पर कुछ चुस्त दिख रही है. मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कहते हैं, ‘हमने पिरुल से ईंधन या बिजली बनाने के लिए प्रस्ताव मंगाए हैं और छह कंपनियों ने इस काम में दिलचस्पी दिखाई है. इस योजना के तहत ग्रामीण जो पिरुल इकट्ठा करेंगे उन्हें प्रति किलो एक रुपये के हिसाब से भुगतान किया जाएगा. सरकार भी एक पैसा प्रति किलो के हिसाब से रॉयल्टी लेगी.’ यानी लोगों को भी फायदा होगा, सरकार को भी और जंगल को भी. लेकिन एक हद तक यह भी असल बीमारी की जगह उसके लक्षणों के इलाज वाली बात लगती है. दरअसल चीड़ उत्तराखंड का मूल वृक्ष नहीं है. तेजी से बढ़ने वाली इस प्रजाति को अंग्रेजों ने बढ़ावा दिया था. मकसद यह था कि ब्रितानी सल्तनत के फायदे के लिए किए जा रहे औद्योगीकरण,  रेल लाइनों और भवन निर्माण की जरूरतें पूरी हों. जाने-माने पर्यावरणविद अनुपम मिश्र बताते हैं, ‘ एक बार विकसित होने के बाद चीड़ का जंगल कुदरती रूप से जल्दी फैलने की क्षमता भी रखता है इसलिए वन विभाग भी वन विकास के नाम पर कई दशक तक चीड़ पर ही ध्यान देता रहा. इसका नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे यह उत्तराखंड के बड़े इलाके में पसर गया.’ लेकिन इस पेड़ का यहां के स्थानीय समाज से कोई खास रिश्ता नहीं बन पाया. बांज, बुरांस जैसे दूसरे पेड़ों की पत्तियां जानवरों के खाने के काम आती हैं. उनकी जड़ों में पानी को रोकने और नतीजतन स्थानीय जलस्रोतों में जीवन बनाए रखने का गुण होता है. चीड़ में ऐसा कुछ तो था नहीं. ऊपर से जमीन पर गिरी इसकी पत्तियां घास तक को पनपने नहीं देती थीं. इसलिए हैरानी की बात नहीं कि लोगों में यह सोच पैदा होने लगी कि इनमें आग ही लगा दी जाए. पत्तियां जल जाएंगी और इसके तुरंत बाद शुरू होने वाले बरसात के मौसम में थोड़े समय के लिए ही सही, घास के लिए जगह खाली हो जाएगी जिससे लोग अपने जानवरों के लिए चारे का इंतजाम कर सकेंगे. मिश्र कहते हैं, ‘जब तक आप उत्तराखंड के लोगों को उनका वही जंगल वापस नहीं लौटाएंगे तब तक आग को भी नहीं रोक पाएंगे.’ 

‘इंदिरा गांधी वृक्ष मित्र पुरस्कार विजेता  जगत सिंह ‘जंगली’ भी बताते हैं कि हर साल उनके गांव के आस-पास और ऊपर-नीचे रिजर्व फॉरेस्ट में पड़ने वाले चीड़ के जंगल जल जाते हैं लेकिन उनके द्वारा पांच हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगाया मिश्रित वन (बांज, बुरांस और काफल जैसी प्रजातियों के मेल से बना वन) आग के दौरान थोड़ी-सी सावधानी बरतने पर भी बच जाता है. 1993 में रुद्रप्रयाग जिले के कोट मल्ला गांव स्थित जगत सिंह ‘जंगली’ के मिश्रित वन को देखने उ.प्र के तत्कालीन प्रमुख सचिव आरएस टोलिया (बाद में उत्तराखंड के मुख्य सचिव) आए थे. उन्होंने तब वन विभाग को गढ़वाल और कुमाऊं में मिश्रित वनों को तैयार करने की कार्ययोजना बनाने के लिए आदेश दिया था. वह योजना आज तक जमीन पर नहीं उतरी है. वह भी तब जब राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्री, एक पूर्व राज्यपाल और कई दिग्गज मिश्रित वनों के इस मॉडल की सराहना कर चुके हैं. 

वन विभाग के पास भी पैसे और संसाधनों की कमी है. आग बुझाने की व्यवस्था करने के लिए जो धन गर्मियों में पहुंचना चाहिए वह कई बार सर्दियों में पहुंचता है

अब वनों की आग पर नियंत्रण के उपायों पर आएं. वन विभाग से वर्षों पहले सेवानिवृत हुए एक रेंजर बताते हैं,‘पहले गर्मियों के चार महीनों के लिए हर गांव में एक अस्थायी आग-पतरोल रखा जाता था. वह आग लगने पर गांव वालों को आवाज देकर इकट्टा करता था. तब बाकायदा आग को  बुझाने के लिए आने वाले ग्रामीणों की हाजिरी लगती था और बाद में उन लोगों को जंगलों से मिलने वाले हक-हकूकों में प्राथमिकता मिलती थी. पर अब ये परंपराएं बंद हो गई हैं.’ पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ता सुरेन्द्र भंडारी भी बताते हैं कि पिछले 15-16 सालों से उन्होंने आग पतरोल नहीं देखे. जंगलों की आग को बुझाने में पर्याप्त सामुदायिक सहयोग न मिलने की बात राज्य के वनाधिकारी भी स्वीकारते हैं. इनमें से ज्यादातर मानते हैं कि उत्तराखंड में वन विभाग को सभी ने खलनायक मान लिया है. राज्य का 65 फीसदी हिस्सा वन क्षेत्र है. इसलिए निर्माणाधीन सड़क हो या पानी की योजना, कड़े वन कानूनों के कारण वन विभाग व्यवहार में हर योजना में बाधा बनता है. उसकी इस नकारात्मक छवि  के चलते उसे लोगों का सहयोग नहीं मिलता. सवाल वित्तीय और मानव संसाधनों की कमी का भी है. अपर प्रमुख वन संरक्षक एस. टीएस लेप्चा बताते हैं, ‘इस वित्तीय वर्ष के लिए वनाग्नि बुझाने के मद में बजट  में वन विभाग को केवल 1 करोड़ 79 लाख रुपये मिले हैं.’ इस धन को यदि राज्य के 40 फॉरेस्ट डिविजनों में बांटा जाए तो हर डिविजन के हिस्से लगभग 45 हजार रुपये आते हैं. गौरतलब है कि वन विभाग ने जंगलों को आग से बचाने के लिए 15 करोड़ रुपये की मांग की थी. एक वन-क्षेत्राधिकारी बताते हैं, ‘पिछले साल अग्नि काल का धन हमारी रेंज में दिसंबर के महीने यानी सर्दियों में पहुंचा था, वह भी छन-छन कर. इस साल अभी तक इस मद में कोई धन नहीं मिला और वनाग्नि काल समाप्त होने पर है.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘वनाग्नि काल के लिए लिए गए किराये के वाहनों को कम से कम डीजल तो देना ही पड़ता है, जिसे हम अपनी जेब से देते हैं. मंझले दर्जे के इन अधिकारियों को पता नहीं होता कि जेब से खर्चा पैसा वापस भी मिलेगा या नहीं. मानवीय संसाधन की दृष्टि से भी देखें तो वन विभाग के एक बीट के प्रभारी फॉरेस्ट गार्ड के पास 50 से लेकर 100 वर्ग किमी के वन क्षेत्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी के अलावा अन्य प्रशासनिक काम भी होते हैं.’   

ग्रामीणों के जंगलों में आग लगने के बाद अच्छी घास आने की परंपरागत थ्योरी को अधिकांश वनाधिकारी नकारते हैं. परंतु दबी जुबान में कुछ वनाधिकारी मानते हैं कि सीमित तरीके से लगाई गई आग वास्तव में अच्छी घास और जैव विविधता लाती है. इसे कंट्रोल्ड फायर कहा जाता है. एक वनाधिकारी बताते हैं, कि एक बार उनके प्रभाग में बांज के जंगलों में आग लग गई थी. अगले साल उन्होंने उस जले हुए क्षेत्र का निरीक्षण किया तो देखा कि उस जले हुए क्षेत्र में काफल (माइरिका) के पौधे उग रखे हैं. वे कहते हैं कि वन विभाग के पुराने वर्किंग प्लानों में भी कंट्रोल्ड फायर की व्यवस्था की जाती थी और अभी भी की जाती है. वनाधिकारी ग्रामीणों के व्यावहारिक अनुभवों को स्वीकारते हुए बताते हैं कि सीमित आग जंगलों में जैव विविधता बढ़ाती है लेकिन हर साल और बार-बार लगने वाली भयंकर आग न केवल जैव विविधता बल्कि वन्य जीवन भी नष्ट करती है. उत्तराखंड में भी पहले जनवरी के महीने जंगलों में कंट्रोल फायर लाइनें काट दी जातीं थीं. इसमें एक निश्चित क्षेत्र को आग से जला दिया जाता था, ताकि वनाग्नि काल में लगने वाली आग इस इलाके में ही थम जाए. मुख्यमंत्री विजय बहगुणा कहते हैं, ‘उत्तराखंड में 9,000 किमी फायर लाइन की जरूरत है. अभी यह आंकड़ा 2,000 है.’ निष्कर्ष यह कि आग के कारण और उससे होने वाली लाभ-हानि की बहस तब तक नहीं रुक सकती जब तक वनाग्नि पर ठोस शोधपरक कार्य न हो और वनाग्नि को रोकने के समन्वयित प्रयास. बताया जाता है कि शावकों को आग में जलता देख उनकी असहाय मां दहाड़ती रही. लेकिन समय रहते कुछ नहीं हो पाया. जिस इलाके में आग लगी वह कार्बेट रिजर्व पार्क के भी बेहद नजदीक है. बाघ शावकों के अलावा भी उस आग में कई ऐसी प्रजातियों के निरीह जानवर और उनके बच्चे भी भस्म हुए होंगे जिनकी कातर पुकार, दहाड़ बन कर मनुष्य के कानों तक नहीं पहुंच सकती. आग में जलने वाले पेड़ों, घोंसलों में खाक हो गए पक्षियों के अंडों और अजगर जैसे सुस्त सरीसृपों की तो जुबान ही नहीं होती.

 

मुखिया की मौत के मायने

‘बोहनी’ का मिथ बिहार में बहुत गहरा है. पहली जून को बिहार की ‘बोहनी’ एक अच्छी खबर से होनी थी. बिहार ने आर्थिक विकास दर 13.1 प्रतिशत पहुंचा कर गुजरात, तमिलनाडु जैसे राज्यों को पीछे छोड़ दिया था. कायदे से इसी उपलब्धि का गुणगान होना था. लेकिन अल सुबह ही बिहार की बोहनी गड़बड़ा गई. साढ़े चार बजे भोर में ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया की उनके शहर आरा में हत्या कर दी गई. यह खबर जंगल में आग की तरह फैली और बहुतों को झुलसा गई. सरकारी भवन जलाए गए, दलितों के छात्रावास पर हमला हुआ, बाजारों में तोड़फोड़ हुई, गाड़ियों को फूंका गया, रेल सेवाएं रुक गईं. कर्फ्यू लगाने के बाद स्थिति काबू में आई. जिन ब्रह्मेश्वर सिंह उर्फ मुखिया की हत्या के बाद सूबे का तापमान चढ़ा था, वे रणवीर सेना के प्रमुख और संस्थापक थे. सवर्ण और भूपतियों वाले सामंती समाज के सहयोग से उन्होंने नब्बे के दशक में इसे खड़ा किया था. सेना भूमिगत नक्सली संगठनों के जवाब में अस्तित्व में आई थी. नब्बे का पूरा दशक इन दोनों की आपसी लड़ाई के लिए बदनाम रहा. असल में इस हिंसक टकराव की पृष्ठभूमि में जातियों (सवर्णों और दलितों) का टकराव था जो भारतीय समाज का सनातन दुर्गुण रहा है. इस दौर में बिहार ने इसका सबसे वीभत्स चेहरा देश और दुनिया के सामने रखा. नरसंहारों का सिलसिला चला. 1997 में लक्ष्मणपुर बाथे बहुत चर्चित और नृशंस नरसंहार था जिसमें 57 दलित मारे गए. मुखिया इसके मुख्य अभियुक्त थे. इसी तरह बथानीटोला, शंकरबीघा, नारायणपुर, मियांपुर आदि नरसंहारों में भी मुखिया मुख्य सूत्रधार बताए गए. कुल 277 हत्याओं और 22 अलग-अलग नरसंहारों से मिलकर मुखिया का बायोडाटा तैयार होता है. मध्य बिहार में उनकी इतनी दहशत फैल गई थी कि रणवीर सेना को तत्कालीन सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया. मुखिया उस दौर में पांच लाख के इनामी बदमाश घोषित हो गए. 2002 में वे पटना में पुलिस की गिरफ्त में आ गए. अगले करीब नौ साल उन्होंने जेल में बिताए. इस दौरान 22 में से 16 मामलों में वे बरी भी हो गए. पिछले साल आठ जुलाई से वे जमानत पर चल रहे थे.  

संगठन का खूनी इतिहास पुराना पड़ता जा रहा था और मुखिया की राजनीतिक महत्वाकांक्षा गहराती जा रही थी. यह 2004 का साल था. तब मुखिया ने जेल से ही लोकसभा चुनाव लड़कर करीब डेढ़ लाख वोट बटोरे थे और अपनी राजनीतिक ताकत साबित की थी. हत्या से 25 दिन पहले मुखिया ने अखिल भारतीय राष्ट्रवादी किसान संगठन बनाकर किसानों के हित की लड़ाई लड़ने का एलान किया था. मुखिया कहते थे कि वे हमेशा से किसानों की लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन सरकार ने उन्हें बदनाम किया. मुखिया की हत्या वाले दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भागलपुर में ‘सेवा यात्रा’ पर थे. यह उनके लिए परीक्षा की घड़ी थी. उन्हें अंदेशा था कि मुखिया की मौत उनके शासन के लिए संकट की घड़ी है. मुख्यमंत्री ने शांति की अपील की पर बात बनी नहीं. असल में आरा की आग का दायरा बढ़ाया था शासन की चुप्पी ने. वह मूकदर्शक और मूक सहमति वाली भूमिका में था. नतीजतन अगले दिन राजधानी पटना की सड़कों पर भी उसी नजारे की पुनरावृत्ति हुई. ऐसा लगा कि प्रशासन ने उत्पातियों को खुली छूट और एक समुदाय की जान संकट में डालकर कानून व्यवस्था स्थापित करने की रणनीति बना रखी थी. पटना की सड़कों पर ऐसा उन्माद और जंगलराज पहले कभी देखा-सुना नहीं गया था. मुखिया की शवयात्रा में शामिल हजारों लोगों ने सरेआम हथियार लहराए, सरकारी बसों को आग के हवाले किया, मंदिर जलाए, मीडियाकर्मियों को पीटा, दुकानों में लूटपाट की, आम जनों व महिलाओं के साथ बदसलूकी की, सुरक्षा व्यवस्था की दृष्टि से सबसे चुस्त माने जाने वाले मुख्यमंत्री आवास एक अणे मार्ग की तरफ जाने की भी कोशिश की. खून का बदला खून से लेंगे का नारा माहौल में गूंज रहा था.

सवाल है कि मुखिया की लाश को 70 किलोमीटर दूर पटना ले जाने की क्या वजह रही. पटना के घाटों का कोई गया-काशी जैसा महत्व तो है नहीं. जानकार बताते हैं कि यह सिर्फ अपनी राजनीतिक ताकत प्रदर्शित करने, सरकार पर दबाव बनाने और एक तबके को डराने के लिए किया गया. इस स्तर पर सरकार की बहुत बड़ी असफलता रही कि उसने पटना में शवदाह की इजाजत दी. राज्य के पुलिस महानिदेशक अभयानंद तर्क देते हैं, ‘उस रोज हमने कोई कार्रवाई न करके राज्य को जलने से बचा लिया. चार-छह घंटे यह सब इसलिए बर्दाश्त किया गया ताकि पटना में ही सारा गुस्सा निकल जाए, राज्य के दूसरे हिस्से में अशांति ना फैले.’ राज्य सरकार के मंत्री व भाजपा नेता गिरिराज सिंह के मुताबिक यह विपक्षी दलों के गुंडों की कारगुजारी थी. अभयानंद और गिरिराज सिंह के ऐसे तर्क सुशासन, न्याय और विकास के दावों को तार-तार करते हैं.

‘अब हत्या और नरसंहारों का दौर पहले की तरह शुरू नहीं होने वाला क्योंकि भूमि के सवाल पर फिलहाल उस तरह के संघर्ष रुक चुके हैं’

सवाल है कि जब एक जून को ही आरा पूरी तरह अशांत हो चुका था, उसके बाद भी लाश को पटना ले जाने की इजाजत दी गई और उसके बावजूद सुरक्षा के कोई उपाय नहीं किए गए. डीजीपी कहते हैं, ‘मुखिया के परिजनों की इच्छा पटना में लाश जलाने की थी तो हम भला कैसे रोक सकते थे?’ लेकिन सूत्र कुछ और ही कहानी बताते हैं. एक जून को मुखिया की हत्या के बाद डीजीपी मुखिया के परिजनों से मिलने पहुंचे थे. परिजनों ने लाश को गांव में जलाने की इच्छा जताई थी. जानकारी के अनुसार डीजीपी ने ही कहा कि गांव में भीड़ होगी, बक्सर ठीक रहेगा. परिजनों ने बक्सर जाने में साधन की परेशानी बताई. डीजीपी ने एक खुला ट्रक शव के लिए और एक गाड़ी लोगों को ले जाने के लिए देने का आश्वासन दिया. लेकिन यह योजना धरी रह गई और शव को तिरंगे में लपेटकर शवयात्रा बक्सर के बजाय उलटी दिशा में पटना के लिए निकली. इसके बाद जो हुआ, वह सबने देखा-सुना. मुखिया की हत्या के बाद राजनीति का गंदा खेल भी शुरू हो गए. विपक्षी नीतीश को घेरने में लग गये. रामविलास पासवान ने कहा कि सत्ता पक्ष के लोगों ने मुखिया को मरवा दिया. जिन दलितों की पीठ पर सवार होकर पासवान ने अब तक राजनीति की है उन्होंने पिछले कुछ समय से पासवान को दुत्कार दिया है, शायद इसीलिए अपने मूल वोटबैंक के बिखरने का कोई खतरा उन्हें नहीं दिखा.

लालू यादव एक कदम और आगे निकल गए, कहा- ‘मुखिया जैसे भी थे, बड़े आदमी थे. अगर मेरे समय में यह हत्या हुई होती तो कहा जाता कि मेरे इशारे पर मारा गया.’ लालू भूल गए कि ब्रह्मेश्वर मुखिया उन्हीं के राज में भगोड़े अपराधी घोषित थे. इस बीच मंत्री गिरिराज सिंह ने मुखिया को गंभीर गांधीवादी नेता व विचारक घोषित कर दिया. मुखिया के अंतिम दर्शन के लिए प्रतियोगिता-सी चली. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सीपी ठाकुर, जदयू के विधायक सुनील पांडेय, भाजपा विधायक संजय टाईगर को लोगों ने विरोध कर वापस जाने के लिए मजबूर कर दिया. इस बीच मौके की तलाश में लगे नीतीश के पक्के दोस्त से प्रसिद्ध दुश्मन बने पूर्व सांसद ललन सिंह को पटना में मुखिया की लाश के अंतिम दर्शन करने में सफलता मिल गई. नीतीश गहरे दबाव में थे, इसलिए उन्होंने तुरंत सीबीआई जांच की सहमति दे दी. ऐसा कर नीतीश ने सबसे पहले अपने तमाम राजनीतिक विरोधियों राजद, लोजपा और भाजपा का मुंह बंद कराया, जो सीबीआई जांच की रट लगाए हुए थे. भाकपा माले के महासचिव दीपंकर पूछते हैं, ‘एक साल पहले फारबिसगंज कांड की जांच की मांग तो सीएम ने सुनी तक नहीं, मुखिया मामले में तुरंत राजी हो गए!’ 

नीतीश की हड़बड़ी की ठोस वजहें हैं. मुखिया कुख्यात होने के बावजूद मध्य बिहार में प्रभावशाली जाति भूमिहारों में जातीय नेता के तौर पर भी स्थापित थे. हालांकि इसी जाति के एक बड़े समूह ने मुखिया को कभी अपना नेता नहीं माना. नीतीश सत्ता के आरंभिक दिनों से ही इस जाति से तालमेल बिठाकर चलते रहे हैं. उनका सवर्ण, अतिपिछड़ा, महादलित का जो कॉकटेल है उसमें सवर्ण खेमे से भूमिहार अहम हैं. हालांकि 1932 में हुई जातिगत जनगणना में इस जाति की आबादी बिहार में ढाई प्रतिशत थी. अब मोटे तौर पर इसे चार से पांच प्रतिशत माना जाता है. आबादी ज्यादा नहीं है लेकिन बिहार में इस जाति की राजनीतिक सक्रियता, धनबल और मध्यवर्गीय चेतना बहुत प्रभावी है.

एक अधिकारी बताते हैं कि सीबीआई जांच की सहमति देने के बाद सात जून से प्रस्तावित आरा-भोजपुर की ‘सेवायात्रा’ में मुख्यमंत्री हर हाल में जाना चाहते थे ताकि यह संदेश जाए कि कहीं अशांति नहीं है और उनके खिलाफ नाराजगी भी नहीं है. लेकिन सुरक्षा कारणों से सेवा यात्रा स्थगित करनी पड़ी. 

 भोजपुर-आरा क्षेत्र में नीतीश कुमार की प्रस्तावित सेवा यात्रा स्थगित कर देने का फैसला इतना आसान नहीं था. यह दुर्लभ मौका था जब ताकतवर नीतीश सरकार विवश दिखी. इसके पहले 23 मई को बक्सर के चैसा में नीतीश कुमार की सेवा यात्रा के काफिले पर आक्रोशित ग्रामीणों द्वारा हुए पथराव ने विरोधी नेताओं के चेहरे पर मुस्कार बिखेर दी थी. सीएम के पीछे चल रहे आधे दर्जन वाहनों के शीशे चटकाए गए थे. इन दिनों कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर लगातार विफलता मुख्यमंत्री की परेशानी बढ़ाए हुए है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि एक साल में लगभग चार हजार से अधिक हत्याओं के मामले दर्ज हुए हैं. नीतीश कुमार के राज में आने से पहले के पांच साल में संज्ञेय अपराधों की संख्या पांच लाख के करीब थी जो उनके राज के पांच साल में पौने आठ लाख के करीब पहुंच गई. आंकड़ों को परे भी कर दें तो सिर्फ पिछले मई की ही कुछ घटनाएं राज्य की कानून व्यवस्था पर रोशनी डालती हैं. राजधानी पटना में सात मई को डीजी रैंक के एक अधिकारी के भाई साकेत कुमार की हत्या सरेआम कर दी गई. दो दिन बाद पटना में ही साकेत की हत्या के मुख्य आरोपी प्रेम सिंह की भी हत्या हो गई. 

मुखिया की हत्या की जांच सीबीआई के सुपुर्द किये जाने के बाद भी एसआईटी तत्परता से लगी रही. अभी तक हत्या के रहस्य से परदा नहीं उठ सका है. सुकून देने वाली बात यह रही कि इस घटना के पीछे अब तक माओवादियों और रणवीर सेना की पुरानी दुश्मनी की भूमिका सामने नहीं आ रही है. इसके चलते आगे प्रतिक्रिया में हिंसा होने की गुंजाइश पहले दिन से ही कम हो गई. हत्या के तार मुखिया के पड़ोस में रहने वाले बसपा नेता हरेराम पांडेय के भतीजे अभय से जुड़ रहे हैं. अभय की तलाश में बिहार-झारखंड के कई शहरों में छापेमारी हुई है. पटना में सन्नी नामक युवक से भी पूछताछ हुई. इसके अलावा जमशेदपुर से मोनू नामक एक कबाड़ व्यापारी को भी पुलिस ने गिरफ्त में लिया था. मोनू ने यह जानकारी दी कि रणवीर सेना प्रमुख मुखिया का पैसा रियल इस्टेट, स्क्रैप व्यवसाय, ट्रांसपोर्ट आदि के धंधे में लगा है. धनबाद, कोलकाता, जमशेदपुर में मुखिया का कारोबार फैला हुआ है. कही सुनी बातें यह भी हैं कि रणवीर सेना के खाते में तीस करोड़ रुपये जमा हैं. इस संपत्ति को भी जान जाने की एक वजह माना जा रहा है. 

मुखिया की मृत्यु के बाद अधिकांश लोग मानते हैं कि खंड-खंड हो चुकी रणवीर सेना की कहानी अब सदा-सदा के लिए खत्म हो जाएगी. एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, ‘अब हत्या और नरसंहारों का दौर पहले की तरह शुरू नहीं होने वाला. इसके पीछे ठोस वजह यह है कि भूमि के सवाल पर फिलहाल उस तरह के संघर्ष रुक चुके हैं. अब सवर्ण या सामंतों में भी एक बड़ा शहरी मध्यवर्ग तैयार हो गया है जो इस तरह के पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता.’ एक संभावना प्रतिक्रियात्मक हिंसा की भी जताई जा रही है. लेकिन मुखिया के पुत्र और अपने पंचायत के वर्तमान मुखिया इंदूभूषण कहते हैं, ‘मैं बाबूजी के द्वारा छोड़े गए पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन तो करने की कोशिश करूंगा लेकिन किसी संगठन वगैरह का संचालन मेरी प्राथमिकता में नहीं है, न ही यह संभव है.’ मुखिया द्वारा गठित राष्ट्रवादी किसान संगठन के महासचिव राकेश सिंह कहते हैं कि आगे की रणनीति मुखिया के श्राद्धकर्म के बाद तय की जाएगी. यह एक ऐसा तथ्य है जिस पर नीतीश कुमार को नजर रखनी होगी, वरना तीसरी पारी के लाले पड़ सकते हैं. 

 

हीरो या नीरो

पिछले दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ जो हुआ उसमें एक अजीब-सा विरोधाभास भी था. जब अपनी पार्टी में मोदी का कद सबसे ऊपर पहुंचा लग रहा था तब उनका नाम एक ही सांस में उन संजय जोशी के साथ लिया जा रहा था जिन्हें शायद वे जीवन में सबसे ज्यादा नापसंद करते हैं. पिछले कई सालों से भाजपा में सत्ता के लिए कई स्तरों पर खींचतान चल रही है. एक लड़ाई खुद पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच पार्टी पर नियंत्रण की है. दूसरी पार्टी के नए और पुराने नेताओं के बीच चल रही नेतृत्व की लड़ाई है. पार्टी में तीसरी सबसे जबर्दस्त रस्साकशी के केंद्र में देश के प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी की कुर्सी है जिसे अटल बिहारी वाजपेयी के बाद से हर बड़ा भाजपाई नेता ललचाई नजरों से देख रहा है. पिछले पखवाड़े हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में एकबारगी ऐसा लगा मानो नरेंद्र मोदी ने इन लड़ाइयों पर अपनी ताकत का इस्तेमाल करके लगाम लगा दी हो. जब मोदी ने कार्यकारिणी के सभास्थल में प्रवेश किया तो लगा कि जैसे पार्टी में मौजूद नेतृत्व के हर प्रश्न का जवाब मिल गया हो.

मगर इसके कुछ घंटों के बाद ही स्थितियां फिर से बदलने लगीं. नाराज आडवाणी और सुषमा स्वराज समय से पहले ही बैठक छोड़कर दिल्ली चले गए. अगले दिन आडवाणी ने अपना वह मशहूर ब्लॉग लिखा जो कई दिनों तक अखबारों की सुर्खियां बना रहा. इसमें उन्होंने गडकरी की आलोचना करने के साथ-साथ पार्टी में आत्ममंथन की जरूरत पर जोर दिया. इससे पहले कि आडवाणी के इस ब्लॉग से पैदा हुई गर्मी कुछ कम होती, भाजपा के मुखपत्र कमल संदेश और संघ के हिंदी के मुखपत्र पांचजन्य ने अपने संपादकीयों में मोदी पर परोक्ष रूप से हमला बोल दिया. हालांकि इसके बाद संघ के अंग्रेजी के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में लिखे एक संपादकीय में मोदी को ‘अब तक का सबसे ज्यादा लोकप्रिय मुख्यमंत्री’ भी बताया गया. इसके कुछ समय बाद अचानक ही दिल्ली और गुजरात में भाजपा के लिहाज से महत्वपूर्ण जगहों पर कुछ ऐसे पोस्टर नजर आए जिन पर संजय जोशी की तस्वीर लगी थी और अटल बिहारी वाजपेयी की कविता के जरिए मोदी को निशाना बनाया गया था. बस फिर क्या था मोदी और जोशी के बीच की यह आतिशबाजी अखबारों के पहले पन्ने पर छूटती दिखने लगी. अचानक ही देश के कोने-कोने में जोशी भी उतने ही मशहूर हो गए शायद जितना मोदी होंगे.

अगर ऊपर लिखी बातों और इन पर आई विभिन्न प्रतिक्रियाओं का आकलन करें तो कुछ बातें स्पष्ट हो जाती हैं: मोदी के भाजपा में उत्थान और ऐसा जिस तरह हुआ उसने न केवल भाजपा में उथल-पुथल मचाई बल्कि कड़े अनुशासन का दावा करने वाले संघ के भीतरी मतभेदों और इसके अंतर्विरोधों को भी पहली बार सबके सामने लाकर रख दिया. ‘मैं उन पर कुछ नहीं बोलूंगा’ जो कुछ हुआ उसके बारे में पूछने पर संघ के प्रवक्ता राम माधव कहते हैं, ‘जो भी है सबके सामने है.’लेकिन कुछ भाजपा नेता ज्यादा स्पष्ट बात करते हैं. एक वरिष्ठ भाजपा नेता कहते हैं, ‘भाजपा के लिए ये बेहद-पुथल वाला समय है. मैं नितिन गडकरी को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराऊंगा. वे तो केवल सभी को खुश रखने की कोशिश कर रहे हैं. अगर वे जोशी को जाने के लिए नहीं कहते तो पार्टी में इससे भी बड़ा विद्रोह देखने को मिलता. नरेंद्र भाई बहुत बढ़िया प्रशासक हैं लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि भाजपा में उनके जितने योग्य मुख्यमंत्री और भी रहे हैं.’उधर आडवाणी के करीबी रहे एक भाजपा नेता कहते हैं, ‘आडवाणी गडकरी और मोदी की वजह से वहां से नहीं गए बल्कि संघ से नाराज होकर उन्होंने ऐसा किया. अगर वे भ्रष्टाचार की वजह से येदियुरप्पा को नहीं चाहते हैं तो गडकरी के मामले में भी वैसा ही क्यों नहीं करते जो कुशवाहा को भाजपा में लाने और अंशुमन मिश्रा को राज्यसभा में पहुंचाने की कोशिशों के लिए जिम्मेदार थे.’संघ के एक सदस्य जो जोशी के काफी नजदीक भी हैं, कहते हैं, ‘कई नेता जो पहले मोदी का समर्थन करते थे, अब उनकी असलियत पहचान गए हैं. कई प्रचारकों को लगता है कि इस बार उनके अहंकार का सही जवाब उन्हें मिलना ही चाहिए.’

‘पार्टी को उनकी जरूरत है पर वह उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने का खतरा मोल नहीं ले सकती. इससे चुनाव, कांग्रेस के कुशासन के बजाय मोदी केंद्रित हो जाएगा’

नरेद्र मोदी के सबसे बड़े विरोधियों में से एक, गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता इस बात का समर्थन करते हुए कहते हैं, ‘संघ की गुजरात इकाई पूरी तरह से उनके खिलाफ है, प्रांत प्रचारक से लेकर सबसे निचले कार्यकर्ता तक. मोदी ने संघ के टुकड़े कर दिए, पार्टी को तोड़ डाला. वे बदले की भावना से काम करने वाले ऐसे व्यक्ति हैं जो किसी भी हद तक जा सकता है. हर व्यक्ति यह बात खुलकर नहीं कह सकता लेकिन जो हो रहा है वह किसी को पसंद नहीं है.’मगर इस तरह के हमले मोदी की चिंता की सिर्फ एक वजह ही हैं. मोदी को हमेशा से चरम अवस्थाओं में ही देखा-दिखाया जाता रहा है फिर वे चाहे सकारात्मक हों या नकारात्मक. उन्हें हिंदू हृदय सम्राट कहा जाता है तो फासीवादी भी कहा जाता है. उन्हें विकास पुरुष कहा जाता है तो ‘मौत का सौदागर’ भी कह दिया जाता है. मगर इस बार जोशी के साथ उनके मतभेदों ने जो रूप अख्तियार किया उससे उनकी एक छुटभैये, गली-मोहल्लों की राजनीति करने वाले नेता की भी छवि बनने का खतरा आ खड़ा हुआ है.

पिछले कुछ सालों से मध्यवर्ग के एक हिस्से और कई भारतीय उद्योगपतियों द्वारा नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किया जाता रहा है. लेकिन उनका व्यक्तित्व और जो उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में किया है वह देश, भारतीय लोकतंत्र, भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सामने कई अबूझ पहेलियां खड़ी कर देता है. मोदी से सहानुभूति रखने वाले एक राजनीतिक विश्लेषक इन पहेलियों के बारे में कुछ इस तरह बताते हैं, ‘विडंबना यह है कि पार्टी को उनकी जरूरत है लेकिन वह उन्हें 2014 में प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने का खतरा मोल नहीं ले सकती. ऐसा करते ही चुनाव, कांग्रेस के कुशासन के बजाय मोदी केंद्रित हो जाएगा. मगर 2019 तक इंतजार करने से बहुत देर भी हो सकती है.’अपने कार्यकाल के शुरुआती दौर में अगर मोदी सांप्रदायिकता की बयार पर सवार हुए तो जल्द ही उन्होंने यह भी भांप लिया कि इसका फायदा कम होता जा रहा है. जानकार बताते हैं कि इसके बाद उन्होंने खुद को विकास पुरुष के रूप में पेश करना शुरू किया और सत्ता के लिए उनकी भूख के सामने संघ परिवार और इसके सहयोगी संगठन पूरी तरह से हाशिये पर धकेल दिए गए. चर्चित चिंतक आशीष नंदी कहते हैं, ‘हो सकता है कि भारत आखिर में मोदी का उस काम के लिए शुक्रगुजार हो जो उन्होंने न चाहते हुए भी कर दिया. गुजरात में संघ परिवार का विनाश.’ लेकिन एक और अनुभवी नेता आगाह करते हैं कि कोई आसान निष्कर्ष न निकाले जाएं. वे कहते हैं कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद संघ परिवार ने गुजराती समाज की हर परत में समाना शुरू किया. वकीलों, डॉक्टरों, व्यापारियों की एसोसिएशनों, शिक्षा समितियों, सरकारी बोर्डों सहित तमाम जगहों में परिवार के लोग दाखिल हुए. वे कहते हैं, ‘आप कह सकती हैं कि आपसी जुड़ाव पर अब वैचारिक नहीं बल्कि पैसे का नियंत्रण है.’

मोदी के बारे में कहा जाता है कि उन्हें चुनौती देने वालों पर वे जरा भी रहम नहीं करते. दुश्मनों को ठिकाने लगाने और दोस्तों को इस्तेमाल करके किनारे करने की कई कहानियां उनसे जुड़ी हुई हैं. मोदी, केशुभाई पटेल और शंकर सिंह बाघेला ने संघ प्रचारक के रूप में गुजरात में भाजपा को एक-एक ईंट जमाकर खड़ा किया. लेकिन बताया जाता है कि उन्हीं केशुभाई और बाघेला को आपस में लड़वाकर 2001 में वे गुजरात का ताज खुद ले उड़े. अपनी आग उगलती जबान के लिए चर्चित विहिप के अशोक सिंघल और प्रवीण तोगड़िया 2002 के सांप्रदायिक माहौल में मोदी के लिए उपयोगी थे. मगर उसके बाद से वे हाशिये पर हैं. गोवर्धन जड़फिया उन दंगों के दौरान राज्य के गृहमंत्री थे. लेकिन बाद में मोदी ने उन्हें भी किनारे कर दिया. लेकिन इन सब प्रसंगों ने मोदी के खिलाफ उतनी नाराजगी पैदा नहीं की जितनी हालिया जोशी प्रकरण ने. दरअसल मोदी और जोशी के बीच झगड़े का इतिहास बहुत पुराना है. 1980 के दशक में दोनों संघ प्रचारक हुआ करते थे. दोनों को राज्य में पार्टी को पनपाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. 1995 तक पटेल, बाघेला और तोगड़िया की मदद से वे पार्टी को 11 से 121 सीटों तक ले आए. पटेल इन सब नेताओं में सबसे वरिष्ठ थे इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया. बताते हैं कि सत्ता खुद पाने की कोशिश में मोदी ने पटेल और बाघेला के बीच इतना अविश्वास पैदा कर दिया कि पटेल को गद्दी सुरेश मेहता को देनी पड़ी. मेहता का मुख्यमंत्री बनना एक तरह का समझौता था. मोदी को अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात से दिल्ली भेज दिया ताकि राज्य में आगे और कोई उठापटक न हो.

इसी समय जोशी के सितारे बदलने शुरू हुए. जब 1998 में केशुभाई पटेल फिर मुख्यमंत्री बने तो जोशी उनके साथ हो लिए और उन्होंने मोदी की गुजरात वापसी का विरोध किया. मोदी ने इसके लिए उन्हें कभी माफ नहीं किया. 2005 में जोशी से जुड़ी एक सेक्स सीडी चर्चा में आई और इसके बाद उनका राजनीतिक निर्वासन हो गया. गडकरी ने जब पिछले साल उनका पुनर्वास करते हुए उन्हें उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रभार सौंपा तो मोदी का गुस्सा फिर भड़क गया. नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व बहुत जटिल है. किसी गुत्थी जैसा. आपकी उनके बारे में क्या राय बनती है यह इस पर निर्भर करता है कि आप गुत्थी को किस कोने से समझने की कोशिश करते हैं. शुरुआती दिनों के उनके साथी उन्हें एक महत्वाकांक्षी और मेहनती लेकिन हठी व्यक्ति के रूप में याद करते हैं. मोदी का जन्म वडनगर नाम के एक छोटे से कस्बे में हुआ था. वे घंची समुदाय से ताल्लुक रखते हैं जो पिछड़े वर्ग में आता है. उनके पिता दामोदर दास और मां हीराबेन मोदी की छह संतानें थीं. मोदी का नंबर तीसरा था. आय का स्रोत था एक कोल्हू और चाय की दुकान. उनके बचपन के बारे में कोई खास जानकारी नहीं मिलती सिवाय इसके कि आठ साल की उम्र में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाने लगे थे.

वड़नगर से अहमदाबाद आकर मोदी ने कुछ समय के लिए अपने चाचा की कैंटीन में काम किया. इसके बाद अपनी खुद की चाय की दुकान खोल ली. इसी दौरान वे संघ के नियमित सदस्य बने. संघ की विचारधारा के कट्टर अनुयायी होने के बावजूद ऐसा लगता है कि उनका संगठन के सामूहिक अनुशासन से टकराव होता रहा है. हेडगेवार भवन में उनके कक्ष के ठीक पड़ोस में रह चुके एक संघ प्रचारक याद करते हैं कि मोदी छोटी-छोटी बातों से अपना विद्रोह जाहिर करते थे. उदाहरण के लिए अगर नियम कहते कि प्रत्येक सदस्य बटन वाली खाकी हाफपैंट पहनेगा तो वे जिप की जिद करते. जहां सबके पास कम से कम सामान होता वहां उनके कमरे में हमेशा मॉर्डन इलेक्ट्रॉनिक उपकरण रहते थे. मोदी के बारे में लिखने वाले ज्यादातर लोगों को दूसरों की धारणाओं पर निर्भर रहना पड़ता है. असल में वे कभी भी किसी ऐसे शख्स से मिलने के लिए तैयार नहीं होते जिसके बारे में उन्हें लगता है कि वह उनका आलोचक है. हालांकि उनके बारे में जो किस्से सुनने को मिलते हैं उनसे उनकी एक आकर्षक तस्वीर बन सकती है. उम्र के तीसरे और चौथे दशक में उन्होंने संगठन में धीमी मगर लगातार प्रगति की. उस दौर के लोग उन्हें एक सादे व्यक्ति के रूप में याद करते हैं जो सिर्फ अपने काम में डूबा रहता था. एक वरिष्ठ स्थानीय पत्रकार कहते हैं, ‘वे बस पकड़ते और दूर-दूर के इलाकों की यात्रा करते. राज्य में मुश्किल से तीन नेता ही होंगे जो आपको फौरन हर सीट के बारे में बता सकते हैं. वे उनमें से एक हैं.’ पूर्व पुलिस अधिकारी और अब राज्य के वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष आईएच सईद कहते हैं, ‘राज्य में कहां क्या चल रहा है इसके बारे में मोदीजी के पास हमेशा सही और पूरी जानकारी होती है. उनके पास लोगों का अपना नेटवर्क है.’

’विकास के प्रतीक के तौर पर मोदी ने खुद की जो छवि गढ़ी है उसका एक अहम पहलू यह भी है कि वे तमाशे में माहिर हैं. वे प्रचार को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं

राज्य के ब्यूरोक्रेट्स दबी जबान में बताते हैं कि मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी ने अपने व्यक्तित्व में एक बड़े बदलाव की शुरुआत की. उन्होंने अंग्रेजी सीखी. मुख्यमंत्री निवास के एक कमरे में आदमकद शीशे लगवाए गए. आज यहां के राजनीतिक गलियारों में होने वाली चर्चाओं पर यकीन करें तो मोदी इसी कमरे में अपने भाषणों की रिहर्सल करते हैं. उन्होंने ऐसे पेशेवर लोगों की एक टीम रखी है जो हर रैली में दिए गए उनके भाषण पर निगाह रखती है. यह टीम इस पर भी नजर रखती है कि इंटरनेट पर मोदी की छवि कैसी बन रही है. यह सकारात्मक खबरें तैयार करती है और नकारात्मक खबरों का मुकाबला करती है. और यह तो खुला तथ्य ही है कि उनकी पूरी ब्रांडिंग का जिम्मा अमेरिकी फर्म एपको संभालती है. राजनीतिक गलियारों में होने वाली चर्चाओं पर यकीन किया जाए तो अपनी शुरुआती सादगी को छोड़कर मोदी अब भव्यता की राह चल पड़े हैं. उनके एक राजनीतिक विरोधी कहते हैं कि आज उनके विशाल वार्डरोब में 350 से भी ज्यादा कुरते हैं. इनमें से ज्यादातर जेड ब्लू द्वारा सिले गए हैं जिसकी सिलाई का खर्च गुजरात में चुनिंदा लोग ही उठा सकते हैं.

इस आमूल-चूल बदलाव के बीच यह बात भी गौर करने लायक है कि मोदी ने कभी अपने परिवार को फायदा पहुंचाने की कोशिश नहीं की. उनकी मां अब भी एक कमरे के मकान में रहती हैं. उनके एक भाई सचिवालय में क्लर्क हैं. एक दूसरे भाई सस्ते दर की एक दुकान चलाते हैं. मध्य वर्ग को मोदी भाते हैं तो उसका एक कारण यह भी है कि परिवार को उनके पद का फायदा पहुंचता नहीं दिखता. गुत्थी समझने की कोशिश में मोदी की कई और छवियां भी बनती हैं. कॉरपोरेट जगत के खिलाड़ी उनकी सौम्य और सम्मोहक छवि की बात करते हैं. राजनीतिक विरोधी उनके कौशल की और पुलिस अधिकारी उनकी कठोरता की. लगभग सभी कहते हैं कि पहली ही बार में लोगों पर मोदी का असर हो जाता है. एक अधिकारी कहते हैं, ‘जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तभी मुझे लगा था कि वे अपनी बातों को लेकर बहुत गंभीर हैं. वे प्रशासन और कानून-व्यवस्था के बारे में बहुत असरदार तरीके से बात करते थे.’ वहीं निलंबित आईएएस अधिकारी प्रदीप शर्मा कहते हैं, ‘भगवान न करे वे कभी गुजरात से बाहर जाएं. पूरा देश छला जाएगा.’ शर्मा कभी मोदी के करीबी हुआ करते थे. आज स्थिति इसके उलट है.

मोदी के अब तक के राजनीतिक जीवन की जो कहानी रही है उसमें दो बड़ी कड़ियां दिखती हैं. सांप्रदायिकता से मिली शुरुआती मजबूती और विकास व सुशासन का उनका हालिया हाईप्रोफाइल एजेंडा. एक तरह से देखें तो ये दोनों ही चीजें मध्यवर्ग को किसी न किसी रूप में भाई हैं. 2002 के दंगों के मुद्दे पर मोदी को घेरना सिर्फ इसलिए मुश्किल नहीं रहा है कि उनकी सरकार इस राह में अड़ंगे लगाती है. दरअसल मोदी में लोगों की नब्ज पढ़ने का सहज गुण है. उन्होंने तुरंत ही हवा की दिशा पहचान ली और खुद पर हो रहे हर हमले को गुजरात के गर्व पर हमले से जोड़ दिया. तब से उन पर साधा गया हर निशाना गुजराती अस्मिता पर साधा गया निशाना बन गया. इतनी ही चतुराई से मोदी ने एक और दांव खेला है. लोगों का मूड भांपते हुए पिछले कुछ वर्षों के दौरान उन्होंने एक नया हथियार विकसित किया. यह था गुजरात को एक ब्रांड के तौर पर स्थापित करना. एक ऐसा गुजरात जो भारत के विकास की कहानी का सबसे अहम हिस्सा है. एक ऐसा गुजरात जहां विकास दर दहाई में है, जहां भारी मात्रा में विदेशी निवेश हो रहा है, जहां चौड़ी सड़कें हैं, 24 घंटे बिजली है और जहां जाने के लिए कॉरपोरेट कंपनियों में होड़ है.

एक बड़े कॉरपोरेट लॉबीइस्ट संक्षेप में समझाते हैं कि क्यों मोदी उनके लिए अच्छे हैं. वे कहते हैं, ‘आप उन्हें पसंद करें या नहीं, इससे इनकार नहीं कर सकते कि उनके पास एक दूरदृष्टि है. नीतिनिर्माण का एक बुनियादी सिद्धांत है. वह सिद्धांत यह है कि सही हो या गलत, आपमें निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए. मोदी में फैसला लेने की हिम्मत है. वे जानते हैं उन्हें क्या चाहिए और इसके लिए उन्होंने सिंगल विंडो क्लीयरेंस जैसी व्यवस्था बनाई है. आपको यह सुनकर अच्छा नहीं लगेगा मगर अगर-मगर करने से लोकतंत्र में कभी-कभी अराजकता की स्थिति हो जाती है. कभी-कभी आगे बढ़ने के लिए आपको सख्त होना पड़ता है. डंडे का इस्तेमाल करना पड़ता है. ‘कारोबारी और राज्य सभा सांसद राजीव चंद्रशेखर कहते हैं, ‘काम करने वाले नेताओं की कमी है. मोदी उसी खाली जगह का इस्तेमाल कर रहे हैं. पहले लोगों के दिमाग में ज्यादातर जाति और धर्म ही भरा रहता था. मगर पिछले कुछ सालों से अच्छे प्रशासन की बात राजनीतिक लाभ का सूत्र बनने लगी है.’

जिस तरह विकास के प्रतीक पुरुष के तौर पर मोदी ने खुद की छवि गढ़ी है उसका एक अहम पहलू यह भी है कि वे तमाशे में माहिर हैं. उनकी सरकार जो भी करती है उसकी बड़े स्तर पर मार्केटिंग की जाती है और उसे मोदी के साथ जोड़ दिया जाता है. यह उस प्रक्रिया का हिस्सा है जिसके तहत मोदी को मुख्यमंत्री के बजाय एक प्रतीक बनाने का काम हो रहा है. टेलीकॉम क्षेत्र में काम करने वाले एक कंसल्टेंट कहते हैं, ‘मोदी वास्तव में जानते हैं कि सफलता की कहानी कैसे फैलाई जाती है. हर हफ्ते मुझे सरकार की तरफ से दर्जन भर ईमेल आती हैं जिनमें गुजरात के विकास के बारे में ध्यान खींचने वाली खबरें होती हैं.’जब अंतरराष्ट्रीय पत्रिका टाइम ने अपने कवर पर उनकी तस्वीर लगाई तो मोदी ने पूरे गुजरात को उन होर्डिंगों से पाट दिया जिन पर लिखा था—गर्व छे. वे बड़ी-बड़ी घोषणाएं करने में भी माहिर हैं. जैसे निवेश पैकेज जिनके आकार का आंकड़ा अभिभूत करने वाला होता है. लेकिन इन घोषणाओं की गहराई तलाशना असंभव है क्योंकि यह विशाल होर्डिंगों की ताकत को महीन जानकारियों से लड़वाने जैसा होगा. कांग्रेस नेता अर्जुन मोडवाडिया कहते हैं, ‘कोई भी सरकारी संवाद ऐसा लगता है जैसे मुकेश अंबानी के घर की किसी शादी का निमंत्रण पत्र हो.’ यही वह छवि है जो एक गुजराती और भारतीय मध्यवर्ग को भाती है.

मोदी इतने क्यों सराहे जाते हैं उसकी एक और अहम वजह यह भी है कि सरकार और निर्णय लेने की प्रक्रिया उनकी या फिर उनके द्वारा चुने गए कुछ चुनिंदा लोगों की मुट्ठी में है. इस तरह से उन्होंने छोटे और मध्यम स्तर के उस भ्रष्टाचार को खत्म कर दिया है जो भारत में सर्वव्याप्त है. अगर हम उन दो घटनाओं को देखें जिन्होंने ब्रांड गुजरात के निर्माण में सबसे प्रतीकात्मक भूमिका निभाई तो उनमें से एक है टाटा नैनो परियोजना को गुजरात लाने में मोदी की कामयाबी. बताते हैं कि रतन टाटा को कई महीनों तक प. बंगाल में लड़खड़ाते हुए देखने के बाद मोदी ने उन्हें एक संदेश भेजा. इसमें लिखा था-सुस्वागतम गुजरात. मोदी के करीबी एक पत्रकार बताते हैं कि इसके बाद उन्होंने आठ सरकारी विभागों और 16 अफसरों की एक विशेष टास्क फोर्स बनाई. बस जमीन तैयार थी और छह दिन में ही सौदा पक्का हो गया. एक टेलीकॉम कंसल्टेंट कहते हैं, ‘हो सकता है कि उन्होंने टाटा को जरूरत से ज्यादा ही रियायतें दे दी हों. लेकिन यह तो देखिए ब्रांड गुजरात पर इस घटना का क्या असर हुआ.’ टाटा की यह परियोजना साणंद आने के बाद पियाजियो, फोर्ड, मित्सुबिशी और सुजुकी ने भी वहां प्लांट लगाने का फैसला कर लिया है.

गुजरात भारतीय उद्योग परिसंघ के पूर्व निदेशक और एडवाइजरी बोर्ड फॉर वाइब्रेंट गुजरात 2011 के सदस्य सुनील पारेख कहते हैं, ‘आज साणंद इंडस्ट्रियल एस्टेट में 20 दूसरी बहुराष्ट्रीय कंपनियां आ रही हैं.’

मोदी का दूसरा अहम हथियार रहा है साल में दो बार होने वाली उनकी वाइब्रेंट गुजरात मीट. ऐसी हर मीट के बाद उन्होंने गुजरात में हजारों करोड़ के निवेश संबंधी सहमति पत्रों की घोषणाएं की हैं. लगभग सभी मानते हैं कि ये आंकड़े ज्यादा ही बढ़ाचढ़ाकर बताए जाते हैं. पाठक भी इस पर थोड़ा सा हंसते हुए कहते हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं कि जब से मोदी ने सत्ता संभाली है गुजरात के विकास और यहां होने वाले निवेश के आंकड़े ऊपर गए हैं. समस्या यह है कि कभी-कभी घोषणाएं इतनी बड़ी-बड़ी होती हैं कि उन पर यकीन नहीं किया जा सकता. उदाहरण के लिए पिछली से पिछली वाइब्रेंट गुजरात मीट के बाद बताए गए आंकड़ों को देखें तो ये आजादी के बाद अब तक देश में हुए कुल निवेश के आंकड़ों के बराबर थे !’खुद मोदी सरकार की सामाजिक और आर्थिक समीक्षा कहती है कि 2003 में वाइब्रेंट गुजरात मीट की शुरुआत से अब तक गुजरात सरकार 17262 सहमति पत्रों की घोषणा कर चुकी है, लेकिन इनमें से 6.13 फीसदी का ही क्रियान्वयन हो रहा है. मोदी की उपलब्धियों के शोर के बावजूद सच यह है कि 2011 के दौरान गुजरात विदेशी निवेश आकर्षित करने के मामले में दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से पीछे रहा.

खुद को गुजरात की पहचान के साथ जोड़ने से मोदी को यह फायदा हुआ है कि जैसा तीखा विरोध गुजरात दंगों के मुद्दे पर उन्हें घेरने वालों का होता है वैसा ही अब गुजरात के विकास पर बहस करने वालों का भी होता है. लेकिन चमकदार सुर्खियों से इतर जाकर गुजरात के विकास की कहानी टटोली जाए तो एक दूसरी और स्याह तस्वीर दिखती है. हाल ही में आईआईएम अहमदाबाद, इरमा आदि जैसे गुजरात के दस से भी ज्यादा प्रतिष्ठित संस्थानों ने एक राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया. इसका मकसद था पिछले दस साल के दौरान गुजरात की प्रगति की कहानी को समझना. इसमें 50 से भी ज्यादा अर्थशास्त्रियों, विश्लेषकों और नौकरशाहों ने अपने-अपने पत्र प्रस्तुत किए. इसकी एक संक्षित रिपोर्ट बनाकर योजना आयोग को सौंप दी गई है. हालांकि यह रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं हुई है लेकिन तहलका के पास इसकी एक प्रति है. इससे जो निष्कर्ष निकलते हैं वे एक जटिल कहानी कहते हैं. आयोजन का उद्घाटन करने वाले प्रख्यात अर्थशास्त्री वाईके अलघ का कहना था कि आर्थिक तरक्की के मोर्चे पर भले ही पिछले एक दशक में गुजरात का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा है, लेकिन इस तरक्की से राज्य में क्षेत्रीय असंतुलन बढ़े हैं. साथ ही यह भी दिखा है कि इस विकास का गरीबी, कुपोषण जैसी समस्याओं पर सकारात्मक असर लगातार कम होता गया है. प्रोफेसर इंदिरा हिर्वे ने जो पत्र प्रस्तुत किया उसने भी इस बात की पुष्टि की.

मोदी लगातार कहते रहे हैं कि गुजरात में कृषि की विकास दर 11 फीसदी है. प्रो अलघ का कहना है कि ये आंकड़ा वास्तव में पांच फीसदी के आसपास है. हालांकि यह भी उनके मुताबिक अंतरराष्ट्रीय मानकों को देखते हुए सकारात्मक आंकड़ा है. लेकिन इस पूरे आयोजन में जो कागज पेश किए गए उन्हें अगर समग्रता में देखा जाए तो पता चलता है कि गुजरात में पिछले दस साल के दौरान रोजगार उत्पादन बहुत कम रहा है. साथ ही यह देश के उन राज्यों में शामिल है जहां मजदूरी की दर सबसे कम है. प्रो. हिर्वे के मुताबिक बुरी तरह से एनीमिया यानी खून की कमी की शिकार महिला आबादी के मामले में 20 मुख्य राज्यों में यह 20वें स्थान पर है. बाल कुपोषण के लिए यह आंकड़ा 15 है. मानव विकास सूचकांक में 1990 में इसका स्थान छठा था. 2008 आते-आते यह फिसलकर आठवें स्थान पर आ चुका था. सुनील पारेख भी इस आयोजन का हिस्सा थे. उन्होंने इसमें गुजरात की औद्योगिक नीति से पैदा हुई चिंताएं सबके सामने रखीं. बड़े उद्योगों की सहायता के लिए छोटे उद्योग भी पनपते हैं. मगर पारेख के मुताबिक गुजरात में ऐसा बड़े स्तर पर नहीं हुआ. दूसरा, सरकार ने विकास के लिए पूंजी और तकनीक प्रधान रास्ता चुना जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था में पर्याप्त संख्या में रोजगार पैदा नहीं हुए. महत्वपूर्ण यह भी है कि उद्योगों से मिलने वाला राजस्व दूसरे राज्यों की तुलना में बहुत कम था. मोदी अक्सर शेखी बघारते रहे हैं कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद में गुजरात का योगदान किसी भी दूसरे राज्य से ज्यादा है. लेकिन पारेख द्वारा आयोजन में जो पत्र प्रस्तुत किया गया उसके मुताबिक ऐसा नहीं है. प्रोफेसर घनश्याम शाह के मुताबिक प्रशासन का जो असंतुलित पक्ष है वह बाहर वाले लोगों को दिखाई नहीं देता क्योंकि गुजरात के बारे में उनकी जानकारी के स्रोत सिर्फ सरकारी प्रचार और मीडिया में पूरे पेज के विज्ञापन होते हैं. 

इस आयोजन में कई और हस्तियों ने भी गुजरात की अर्थव्यवस्था के अलग-अलग पहलुओं पर अपने पत्र प्रस्तुत किए. सभी लोग इस पर सहमत थे कि आयोजन से एक बड़ा निष्कर्ष यह निकला है कि पिछले एक दशक में भले ही गुजरात में तेज आर्थिक विकास हुआ हो मगर विकास से जुड़े जो मुख्य मकसद होते हैं उन्हें हासिल करने को लेकर इसकी स्थिति संतोषजनक नहीं है. हिर्वे के शब्दों में, ‘गुजरात के विकास के मॉडल को देश में सबसे अच्छे मॉडल के तौर पर पेश किया जा रहा है और कई राज्य इसे अपनाना चाह रहे हैं. लेकिन हमें खुद से गंभीरता से पूछना चाहिए कि हमारे जो निष्कर्ष हैं उसके बाद क्या भारत वास्तव में इस मॉडल को अपनाना चाहता है. और क्या गुजरात को खुद भी इस मॉडल पर चलना चाहिए? ‘ कुछ समय पहले एक पत्रिका में मोदी की अब तक की सबसे महत्वाकांक्षी निर्माण परियोजना पर एक लेख छपा था. इसके मुताबिक गुजरात इंटरनेशनल फाइनैंस टेक सिटी यानी गिफ्ट नाम की यह परियोजना जब पूरी  होगी तो इसमें 7.5 करोड़ वर्ग फुट ऑफिस स्पेस होगा. यह आंकड़ा उससे भी ज्यादा है जो शंघाई, टोक्यो और लंदन के फाइनैंशियल डिस्ट्रिक्स को मिलाकर बनता है. बताया जाता है कि मोदी चीन से बहुत प्रभावित हैं और अपने इस सपने को पूरा करने के लिए वे वहीं के ईस्ट चाइना आर्किटेक्चरल डिजाइन एेंड रिसर्च इंस्टीट्यूट से आर्किटेक्टों की सेवाएं ले रहे हैं. गुजरात में अपनी परियोजनाएं चला रहे एक कारोबारी कहते हैं, ‘उद्यमियों के रूप में हम चीजों को अलग नजरिये से देखते हैं. हां, मोदी ने क्षुद्र नौकरशाही पर अंकुश लगाया है. उन्होंने गुजरात को अपेक्षाकृत भ्रष्टाचारमुक्त बना दिया है. यहां पारदर्शिता है और काम जल्दी होता है. अच्छी सड़कें और सुविधाएं हैं. लेकिन क्या यही सब कुछ है. यह सब तो चीन में भी है. मगर क्या मैं चीन में रहना चाहूंगा?’

‘नीतिनिर्माण का एक बुनियादी सिद्धांत है. वह सिद्धांत यह है कि सही हो या गलत, आपमें निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए. मोदी में फैसला लेने की हिम्मत है’

यह जानना जरूरी है कि पिछले दस साल के दौरान जिसने भी गुजरात में नरेंद्र मोदी को चुनौती दी या उन पर सवाल खड़े किए उसके साथ क्या हुआ. मल्लिका साराभाई ने जब दंगा पीड़ितों के पक्ष में बोलना शुरू किया तो उन पर 2003 में मानव तस्करी का केस लाद दिया गया. उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया गया. उन्हें छुप-छुपकर दिन काटने पड़े. आईपीएस अधिकारी राहुल शर्मा ने दंगों के दौरान 300 से अधिक मुसलिम बच्चों की जान बचाई थी. शर्मा ने नानावती आयोग को वे फोन रिकॉर्ड भी सौंप दिए थे जिसमें नरोदा-पाटिया नरसंहार से संबंधित बातें हैं. इसके चलते एक भाजपा मंत्री और विश्व हिंदू परिषद के नेता की गिरफ्तारी हुई. लेकिन इस आईपीएस अधिकारी पर 2011 में सरकारी गोपनीयता अधिनियम के तहत मुकदमा ठोंक दिया गया. सोहराबुद्दीन शेख, उनकी पत्नी और एक और व्यक्ति तुलसी प्रजापति के एनकाउंटर की तहकीकात आईपीएस अधिकारी रजनीश राय ने की थी. राय ने मोदी के तीन करीबी पुलिस अधिकारियों और गुजरात के गृह मंत्री अमित शाह को गिरफ्तार किया. उनसे तुरंत यह केस वापस ले लिया गया और उनकी परफॉर्मेंस रिपोर्ट खराब कर दी गई.

मोदी सरकार का यह रवैया पुलिस अधिकारियों तक ही सीमित नहीं रहा. जाने-माने चिंतक आशीष नंदी ने 2008 में नरेंद्र मोदी और गुजरात के बारे में एक लेख लिखा था. इसके बाद नंदी के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करा दिया गया. मोदी सरकार पर एक खबर छापने की वजह से अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया पर 2008 में देशद्रोह का मुकदमा लाद दिया गया. गुजरात में दमन के शिकार लोगों की व्यथा कहने की कोशिश करना किसी साउंडप्रूफ कमरे में चिल्लाने जैसा है. बाहर के लोग कुछ सुन नहीं सकते. गुजरात के  मध्य वर्ग और कॉरपोरेट प्रोफेशनलों में से ज्यादातर ने तो शायद इन घटनाओं के बारे में सुना ही नहीं होगा. जांच के दौरान अपने बुरे अनुभवों को बताते हुए एक आईपीएस अधिकारी पूछते हैं, ‘आपकी इस स्टोरी से क्या हो जाएगा?’ मैं जवाब देती हूं, ‘कुछ नहीं. लेकिन फिर भी ये बातें बाहर लाना जरूरी है.’ दरअसल ब्रांड गुजरात नाम का जो चमकदार आवरण है उसके नीचे की तहों में एक स्थायी भय भरा हुआ है.

मोदी के दस साल के शासनकाल ने गुजरात का कई मायनों में कायाकल्प किया है. लेकिन इस राज्य में कुछ ऐसी स्वाभाविक खासियतें भी हैं जिनके चलते मोदी भारतीय लोकतंत्र में एक चीनी नेता की तरह विकसित हुए हैं. समाजशास्त्री अच्युत याग्निक कहते हैं, ‘गुजरात भारत में सबसे अधिक शहरीकरण वाला राज्य है. राज्य में तकरीबन 30 शहर हैं और हर 25 किलोमीटर पर आपको एक कस्बा मिल जाएगा. इस वजह से भारत के दूसरे हिस्से में मौजूद शहरी और ग्रामीण की खाई यहां खत्म हो गई है. यही वजह है कि गुजरात में एक ही तरह की प्रतिक्रिया पैदा करना सरल है.’ इसके अलावा और भी बातंे हैं. संघ परिवार की यहां स्थानीय स्तर पर बहुत सशक्त मौजूदगी है. गुजराती समाज में संपन्नता बहुत है मगर सोच के मामले में यह अब भी काफी हद तक आधुनिक नहीं हो पाया है. इसके अलावा पिछली डेढ़ सदी से यह एक औद्योगिक समाज रहा है.

गुजरात की कुल आबादी में दस फीसदी मुसलमान हैं. इनमें भी ज्यादातर बोहरा और मेमन हैं. ये कारोबारी वर्ग हैं. इस वर्ग को भाजपा के साथ खड़े होने में कोई दिक्कत नहीं है. इसके अलावा कुछ और नए धार्मिक पंथों का उदय गुजरात में हुआ है. इनमें स्वामीनारायण, स्वाध्याय और मोरारी बापू के अनुयायी शामिल हैं. ये सभी हिंदुत्व की माला जपते हैं. गुजरात में पुराना गांधीवादी आंदोलन और स्वयंसेवा का विचार अब बचा नहीं है. विश्वविद्यालयों और लेखकों ने सरकार के साथ चलना तय कर लिया है और आंकड़ों से बनी मोदी की नई भाषा यहां वास्तव में लोगों को भाती है. 

कांग्रेस की शक्ति के ह्रास को सुहृद और याग्निक दोनों ही गुजरात में मोदी के निर्बाध शासन का आखिरी कारण मानते हैं. सुहरुद कहते हैं, ‘वे एक विज्ञापन तो ठीक से बना नहीं पाते और मोदी जैसी प्रचार की मशीनगन से मुकाबला करना चाहते हैं.’ उनका इशारा इस साल गणतंत्र दिवस पर राज्य के अखबारों में छपे कांग्रेस के विज्ञापन की तरफ है जिसमें मोदी के शासन की तारीफ थी. लेकिन अब कांग्रेस खुद को फिर से ऐसे विपक्ष के रूप में जिंदा करने की कोशिश कर रही है जो मोदी जैसे चतुर प्रतिद्वंद्वी की टक्कर का दिखे. जून, 2011 में, पार्टी ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को 1000 पन्नों का एक ज्ञापन दिया है जिसके साथ मोदी के 17 कथित घोटालों से जुड़े सबूत भी हैं. इनमें से अधिकांश का संबंध अदानी, टाटा, भारत होटल्स, एलएंडटी, एस्सार और कई दूसरी कंपनियों को अनुचित रियायतें और कौड़ियों के दाम जमीन देने से है. इस साल चार जून को इन आरोपों की जांच के लिए बिठाए गए न्यायाधीश एमबी शाह आयोग ने सुनवाई शुरू की है. अगर ये आरोप साबित होते हैं तो चोट उस बुनियाद पर होगी जिस पर मोदी के ब्रांड गुजरात का महल खड़ा हुआ है. यह उनकी ईमानदारी समेत हर उस खासियत पर प्रहार होगा जिसके लिए उन्होंने अब तक तारीफ बटोरी है. नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ बाकी देश में आमतौर पर जैसा माहौल है उसे देखते हुए मोदी को जल्द ही कुछ कड़े सवालों का जवाब देने की तैयारी करनी पड़ सकती है.

इससे पहले, इस साल 12 जनवरी को  गुजरात उच्च न्यायालय के जस्टिस वी एम सहाय ने मोदी सरकार की कड़ी आलोचना की थी. हुआ यह था कि मोदी सरकार ने राज्यपाल द्वारा राज्य के नए लोकायुक्त के रूप में न्यायमूर्ति आरए मेहता की नियुक्ति को अदालत में चुनौती दी थी. याचिका खारिज करते हुए मोदी के लिए जस्टिस सहाय के शब्द थे, ‘उनके इस कृत्य से ऐसा लगता है कि उन्हें अजेय होने का वहम हो गया है.’ मोदी सरकार इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में चली गई है. शीर्ष अदालत का फैसला जुलाई में आना है. अगर ईमानदार छवि वाले मेहता की नियुक्ति हो जाती है तो इसका मतलब मोदी के लिए एक नई चुनौती हो सकता है जो सीईओ-सीएम रहते हुए अपने फैसलों पर कोई सवाल न होने के आदी हो चुके हैं. इसी साल आठ और 15 फरवरी को दो अदालती आदेशों में मोदी सरकार की न सिर्फ आलोचना की गई है बल्कि उसे उन 500 धार्मिक इमारतों के लिए मुआवजा देने का निर्देश दिया गया है जिन्हें दंगों के दौरान नुकसान पहुंचाया गया. उन 65 मुसलिम याचिकाकर्ताओं को भी हर्जाना देने का निर्देश दिया गया है जिनकी दुकानें बर्बाद कर दी गई थीं.

पिछले डेढ़ साल में गुजराती मीडिया जो अब तक मोदी के सामने नतमस्तक रहा था, अचानक उन पर थोड़ी मजबूती के साथ रिपोर्टिंग करने लगा है. एक बड़े स्थानीय अखबार के पत्रकार कहते हैं, ‘पहले-पहल लोग उनसे बहुत अभिभूत थे. लेकिन अब हर किसी को उनका नाटक समझ में आने लगा है.’ सुजाभाई रूप सिंह राठौड़ बनासकांठा के वाव ब्लॉक में रहते हैं. वे भाजपा के स्थानीय मीडिया समन्वयक भी हैं. अपने गांव में पानी की स्थिति पर उनकी नाराजगी खुलकर सामने आती है. वे कहते हैं, ‘पहले हम ट्यूबवेल से जो पानी पीते थे वह साफ होता था. अब उस नर्मदा नहर का पानी हमारे घरों में पेयजल के रूप में पहुंचाया जा रहा है जो मूल रूप से सिंचाई के लिए बनी थी. इससे हम बीमार पड़ रहे हैं.’ कच्छ में रापड़ ब्लॉक के फतेहगढ़ गांव के सरपंच रामदीन कनोर कहते हैं, ‘मोदी गुजरात के गर्व गुजरात के गौरव के बारे में बात करते रहते हैं. लेकिन गरीबों के लिए न कोई गर्व है न गौरव. गरीबों के लिए कोई मदद नहीं है. हमारे पास पानी नहीं है.’ 2007 के विधानसभा चुनावों के दौरान मोदी ने लोगों को एक एमएमएस भेजा था—’मैं सीएम था. सीएम हूं और सीएम रहूंगा. यहां सीएम मतलब था कॉमन मैन!’ यह चतुराई भरी पंक्ति एक मायने में नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षा की दुविधा भी दिखाती है. सवाल उठता है कि वे कौन से सीएम हैं. अगर वे वास्तव में राष्ट्रीय राजनीति में जाना चाहते हैं तो उन्हें खुद ही अपने भीतर इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना होगा.

धन्न नर्मदा माई, बेटे हुए कसाई

नर्मदा यानी मध्य प्रदेश की जीवनरेखा महाराष्ट्र और गुजरात से गुजरते हुए करोड़ों जन का भाग्य भी तय करती है. नर्मदा का अर्थ है आनंद देने वाली और सदियों से यह सबकी भूख-प्यास मिटाती भी आई है. मगर आज इसी का जल इतना रीत चुका है कि यह अपने उद्गम अमरकंटक पर ही जल रही है. सदियों से समाए काले पत्थर अपना पूरा पत्थरपन लिए उभर आए हैं. हालत इस कदर पतली है कि बीते छह साल में इस बारहमासी का जल आधा हो चुका है. केंद्रीय जल आयोग कहता है कि नर्मदा में उसकी क्षमता का आधा ही जलभराव हो पाता है और वह भी लगातार घटता जाता है. नर्मदा बहेगी तभी तो रहेगी, लेकिन पांच बड़े बांधों से इसका जल बहना बंद हो गया है. फिर भी यह जिंदा है, लेकिन इसके किनारे-किनारे झुंड के झुंड कोयले वाले बिजलीघर बनाए गए तो इसकी मौत तय हो जाएगी. बिजलीघर नदी को तो चूसेंगे ही, बदले में छोड़ी जाने वाली राख से उसे खाक भी कर देंगे. शिरीष खरे की रिपोर्ट

नर्मदा कोई ग्लेशियर से निकली गंगा नहीं कि बर्फ पिघली और पानी आ गया. इसलिए नर्मदापट्टी पर जंगल की उच्च पैदावार लकड़ी नहीं बल्कि नर्मदा के जल को माना गया है. यहां हर एक पेड़ दोहरी ड्यूटी करता है. एक तो वह पानी को बरसने पर मजबूर करता है और दूसरा जो पानी बरस गया उसे चौतरफा फैली अपनी जड़ों से रोकता है. जब पानी जड़ों में रुक जाता है तो यही रुका हुआ पानी आहिस्ता-आहिस्ता नर्मदा में पहुंचता रहता है.

मगर आज बादलों को जो ठंडक चाहिए वह जंगल कटने से कम हो रही है. वहीं जंगल कटने के साथ ही उनकी जड़ें भी खोदी जा रही हैं. इससे जड़ों से जल को जमीन में ले जाने वाली लाइन टूट रही है और नर्मदा की लय-ताल भी. नर्मदा को जंगल से काटने का पहला बड़ा दृश्य डिंडौरी जिले से शुरू होने वाली बैगाचक (बैगा आदिवासी बहुल इलाका) पहाड़ियों में दिखाई देता है. यहीं कुछ घने जंगल बचे हंै, इसलिए अंधाधंुध कटाई जारी है. स्थानीय पत्रकार लक्ष्मीनारायण अवधिया बताते हैं कि अधिकसे अधिक राजस्व वसूलने के लिए वन विभाग के अधिकारी जंगलों की नीलामी करके उन्हें जबलपुर और बिलासपुर के ठेकेदारों को बेच रहे हैं. जंगल में कोई विशेष निवेश नहीं होने से ठेकेदारों के लिए जंगल एक बड़ी कमाई का स्त्रोत बने हुए हैं. यहां दर्जन भर गांवों में हजारों हेक्टेयर जंगल देखते ही देखते टहनियों से जड़ों तक काटे जा चुके हैं.

बैगाचक में कोई ढाई दशक तक मिश्रित जंगल हुआ करता था. मगर साल बहुल जंगल घोषित करने के बाद यहां कूप (विभाग की योजनाबद्ध कटाई) ने कई वृक्षों (साजा, धावड़ा, हलदू, तेंदू, गराड़ी आदि) को उजाड़ दिया. अब यहां 80 प्रतिशत साल के वृक्ष हैं. नर्मदा में जंगलों के मुख्य प्रकारों में से एक साल जो कभी अपनी सदाबहार प्रकृति के लिए जाना जाता था अब तनाछेदक नाम के कीड़े लगने से बड़े स्तर पर फैली महामारी के लिए जाना जाने लगा है. पंकज श्रीवास्तव की किताब ‘जंगल रहे, ताकि नर्मदा बहे’ से मालूम पड़ता है कि इस महामारी का पहला आक्रमण 1983 में हुआ था. तब वृक्षों की बाकी प्रजातियां भी बड़ी संख्या में होने से असर कम हुआ. 1995 में जब दूसरा आक्रमण हुआ तो साल के 80 प्रतिशत वृक्ष प्रभावित हुए. समनापुर निवासी प्रहलाद परस्ते कहते हैं कि अगर दूसरे वृक्षों को नहीं काटा जाता तो यह पहाडि़यां हरी-भरी रहतीं. विभाग के लिए भी महामारी का डर दिखाकर साल के सभी जंगलों को नेस्तनाबूद करना आसान नहीं रह जाता. साल की लकड़ियों की मांग सबसे अधिक होती है. इसलिए विभाग साल से सबसे अधिक राजस्व पाता है. प्रहलाद कहते हैं, ‘क्या गारंटी है कि काटे जा रहे सभी वृक्षों में कीड़ा लगा ही है. कीड़ों के नाम पर कहीं करोड़ों रुपये बनाने के लिए जंगल तो नहीं काटा जा रहा?’ स्थानीय रहवासी बताते हैं कि वृक्षों को सुखाने के लिए उनके तनों को गोलाकार छील लिया जाता है. इससे कुछ ही दिनों में वृक्ष खड़े-खड़े सूख जाते हैं. सेराझन के धनसिंह कुशराम कहते हैं कि एक दशक पहले तक जंगल के भीतर सूरज दिखाई नहीं देता था. अब डिंडौरी के भानपुर से मंडला जाने पर कई नंगी पहाड़ियां दिखाई देती हैं. 

राख से खाक न हो जाए

बिजली के लिए कामधेनु मान ली गई नर्मदा पर जिस तरह से विकास का खाका खींचा गया है उससे लगता है कि जल्दी ही यह नदी सिर से पैर तक निचोड़ ली जाएगी. इसकी कोख में पल रहे थर्मल पावर प्लांटों की राख जब पहाड़ों की लंबी श्रृंखलाएं बनाएगी तो यह ऐतिहासिक नदी इतिहास बन जाएगी. नर्मदा पर यह अभी तक का सबसे बड़ा हमला बताया जा रहा है. उद्गम से दूसरे छोर तक अगर डेढ़ दर्जन प्लांटों को उनकी पूरी क्षमता के साथ स्थापित किया गया तो कई विशेषज्ञों का दावा है कि यह नदी हद से हद दस साल में जहरीली और बीस साल में राख के ढेर पर सवार हो जाएगी. जबलपुर से नरसिंहपुर तक चार थर्मल पावर प्लांटों का काम शुरू होने के साथ ही नर्मदा की उल्टी गिनती शुरू भी हो चुकी है. घंसौर, शाहपुरा भिटोनी और झांसीघाट में 600 से 3,200 मेगावाट क्षमता वाले प्लांटों के लिए नर्मदा के पानी का बड़ा बहाव सुरक्षित रखा गया है. घंसौर में झाबुआ पावर प्लांट निर्माण एजेंसी का मानना है कि प्रति घंटा 600 टन कोयला उपयोग में लेने वाला यह प्लांट प्रति घंटा 150 टन राख निकालेगा. मगर एजेंसी खतरे को बहुत कम आंक रही है; क्योंकि कोयले से बिजली बनाने में 40 प्रतिशत राख निकलती है. इस हिसाब से यह प्लांट प्रतिघंटा 250 टन राख निकालेगा, जिसके निपटान का एकमात्र उपाय नर्मदा का किनारा ही है.

थर्मल पावर कितना खतरनाक होता है, यह जानने के लिए नर्मदा की सहायक नदी तवा के तट पर बसे सारणी कस्बे का तजुर्बा काफी है. सारणी में पावर प्लांट से निकलने वाली राख ने तवा के पूरा पानी प्रदूषित कर दिया है. थर्मल पावर प्लांट के साथ एक समस्या यह भी बताई जाती है कि उससे निकलने वाली राख के सही निपटान का तरीका अब तक नहीं खोजा गया है. इस प्लांट से राख बहाने पर पानी दूधिया होता है और मछलियां मर जाती हैं. सारणी पावर प्लांट अपनी शुरुआत से ही पर्यावरण कानूनों की अनदेखी के लिए चर्चा में रहा है. मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी अपने निरीक्षण में यहां भयंकर प्रदूषण पाया है. बोर्ड ने कंपनी को अब तक कई नोटिस दिए हैं. इसके बावजूद प्रदूषण नियंत्रण की दशा और दिशा में कोई सुधार होता नहीं दिखता. 

नरसिंहपुर जिले के गोटेगांव में थर्मल पावर प्लांट को मंजूरी देने से पहले आयोजित जन सुनवाई में विशेषज्ञों ने कई आपत्तियां जताईं. उनके मुताबिक इसी एक प्लांट को नर्मदा से प्रतिदिन 3,000 क्यूबिक यानी बीस हजार से अधिक टैंकर पानी की जरूरत पड़ेगी. इस तरह, सभी प्लांटों की नर्मदा से पानी की कुल जरूरत को जोड़ने पर एक भयावह तस्वीर बनती है. विशेषज्ञ बताते हैं कि कोयला जलने से राख के साथ कार्बन, सल्फर और नाइट्रोजन के ऑक्साइड भारी मात्रा में निकलेंगे और ये हवा के साथ पानी को भी प्रदूषित करेंगे. जन सुनवाई में हवाई और सूखी राख प्लांट के 200 वर्ग किलोमीटर तक फैलने और बरसात में मिट्टी के साथ घुलने वाली राख के दलदल बनने पर भी चिंता जताई गई. परियोजना प्रभावित यह तो मानते हैं कि बिजली विकास के लिए जरूरी है लेकिन उस विकास की परिभाषा से वे सहमत नहीं. करकबेल निवासी और कृषि विस्तार अधिकारी रजनीश दुबे कहते हैं, ‘बांधों की बिजली उद्योगों के लिए बनाई जाती है. बरगी से बिजली बनी लेकिन किसानों को नहीं मिली.’ सतपुड़ा के बाशिंदे  किताब के लेखक बाबा मायाराम पूछते हैं ‘सरदार सरोवर और इंदिरा सागर की बिजली कहां गई? गांवों में आने से पहले शहरों में लुट गई. बिजली बनाने के लिए नर्मदा को पूरी तरह से निचोड़ने की तो कई योजनाएं हैं लेकिन बिजली के उपयोग की एक भी योजना क्यों नहीं बनी है?’

दम तोड़ती जीवनधाराएं

नर्मदा की कुल 41 सहायक नदियां हैं. उत्तरी तट से 19 और दक्षिणी तट से 22. नर्मदा बेसिन का जलग्रहण क्षेत्र एक लाख वर्ग किलोमीटर है. यह देश के भौगोलिक क्षेत्रफल का तीन और मध्य प्रदेश के क्षेत्रफल का 28 प्रतिशत है. नर्मदा की आठ सहायक नदियां 125 किलोमीटर से लंबी हैं. मसलन- हिरन 188, बंजर 183 और बुढ़नेर 177 किलोमीटर. मगर लंबी सहित डेब, गोई, कारम, चोरल, बेदा जैसी कई मध्यम नदियों का हाल भी गंभीर है. सहायक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में जंगलों की बेतहाशा कटाई से ये नर्मदा में मिलने के पहले ही धार खो रही हैं.

जल क्षेत्र के शोधकर्ता रहमत बताते हैं, ‘सहायक नदियां बरसात के कुछ महीनों में ही भरती हैं. मानसून में तो सभी खूब उफनती हैं लेकिन उसके बाद उनकी सांसें टूट जाती हैं.’ अमरकंटक से डिंडौरी के कटे हुए जंगलों के रास्ते में खरमैल, चकरार और सिवनी, जबलपुर से डिंडौरी में सिलगी और महानदी और डिंडौरी के बैगाचक क्षेत्र में बुढ़नेर, खरमेर, संजारी, हाफिन, धमना, कनई-वनई, डंडला, छिपनी और मझरार जैसी नर्मदा को रिचार्ज करने वाली डेढ़ दर्जन से अधिक नदियों को देखकर लगता है कि ये कुपोषण की शिकार हो चुकी हैं. इनमें से सबसे बड़ी बुढ़नेर यानी बूढ़ी मैया है. कोई ढाई दशक पहले नर्मदा समर्पित चित्रकार और लेखक अमृतलाल वेगड़ ने नर्मदा की परिक्रमा करते हुए बुढ़नेर को ‘युवनेर’ कहा था. आज यही अपना रूप खो चुकी है. बुढ़नेर बैगाचक के केंद्रीय बिंदु तांतर और ठाड़पतरा नामक दो पहाडि़यों के बीच एक छोटे झरने के रुप में निकलती है. यह मंडला जिले के देवगांव में नर्मदा से मिलने के लिए 150 किलोमीटर की यात्रा करके 40 गांवों से गुजरती है. सक्का निवासी संतोष कुढ़ापी बताते हैं कि बारह महीने तेज धार के साथ बहने वाली बुढ़नेर की छाती 15 अप्रैल के बाद बैठ जाती है. सहायक नदियों के मौत का एक उदाहरण सतपुड़ा पहाड़ी के पातालकोट से निकलने वाली दुधी है. इस बारहमासी नदी का हाल यह है कि नर्मदा से मिलने के लिए अब इसका खैरघाट तक पहुंच पाना मुश्किल है. नहीं के बराबर दिखाई देने वाला पानी भी बरसात के चार महीने रहता है. आठ महीने दुधी केवल यादों में बसती है. अब इसके किनारे न कोसम के वृक्ष हैं और न उससे निकलने वाली लाख को धोने के लिए पानी. 

सहायक नदियों की प्रवाह में लगातार आती कमी को लेकर सरकारी स्तर पर भी चिंता जताई जाने लगी है. प्रवाह में कमी की एक बड़ी वजह सहायक नदियों पर बड़े बांध बनाना भी बताई जा रही है. इसमें नदियों का जल नर्मदा तक पहुंचने से पहले ही जमा कर लिया जाता है. तवा, बारना, मान, वेदा, कोलार, मटियारी और सुक्ता जैसी नदियों पर भी भारी बांध बनाकर उनके प्रवाह को रोक दिया गया है. विशेषज्ञों की राय में इससे नदियों के आपसी जुड़ावों और उनके पर्यावरण के बीच का संतुलन गड़बड़ा गया है.

दूसरी ओर जंगलों के लगातार कटने से बरसात का पानी बिना धरती में समाए सीधे सहायक नदियों में मिल जाता है और भारी मात्रा में गाद बहाते हुए बाढ़ लाता है. यहां के जंगल को नदियों का पिता कहा जाता है. यह बरसात के पानी के रिसाव को नियंत्रित करके अपनी बेटियों को कुछ यूं मर्यादा में रखता है कि वे विनाशकारी तांडव नहीं कर पातीं. अगर जंगलों ने पानी थामना बंद कर दिया तो कई अध्ययन बताते हैं कि नर्मदा घाटी को कल अचानक आने वाली बाढ़ और सूखे के लिए जाना जाएगा. इन नदियों में प्रवाह बने रहने की अवधि और मात्रा में भी तेजी से कमी आएगी.

यह प्यास नहीं बुझेगी

एक ओर केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक नर्मदा की आवक आधी रह गई है. दूसरी ओर नर्मदा के समीपवर्ती इलाकों के साथ खंडवा, इटारसी, बुदनी और बैतूल के अलावा 40 बड़े शहरों की मांग भी नर्मदा के पानी पर आकर टिक गई है. तेजी से बढ़ते भोपाल, इंदौर और जबलपुर सहित मध्य प्रदेश के 20 बड़े शहरों की प्यास बुझाने के लिए नर्मदा का पानी दिया ही जा रहा है. इसी के साथ बिजली बनाने के लिए महेश्वर और ओंकारेश्वर जैसी बड़ी परियोजनाओं को प्राथमिकता की सूची में रखा गया है. नर्मदा के अधिकतम दोहन के लिए महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों की भी नजर है. जाहिर है शहरीकरण और आबादी का बढ़ता विस्तार नर्मदा के पानी की खपत में भी बढ़ोतरी करेगा. भारतीय जनगणना महानिदेशक के मुताबिक नर्मदापट्टी की आबादी 1901 में 65.69 लाख और 2001 में 3.31 करोड़ थी, जो 2026 में 4.81 करोड़ हो जाएगी. 2026 में यहां जनसंख्या घनत्व बढ़ते-बढ़ते 277 प्रति वर्ग किलोमीटर तक पहुंच जाएगा. आबादी की बढ़ती गति के समानांतर नर्मदा के जल को बचा पाना बहुत मुश्किल होगा. अमृतलाल वेगड़ नर्मदा के संकट की जड़ को आबादी से जोड़ते हुए कहते हैं, ‘आबादी विस्फोट से जंगल कटते और खेत, घर, कारखाने फैलते जा रहे हैं. ये सारे कारक मिलकर एक नदी पर इतना दबाव बना रहे हैं कि वह दम तोड़ रही है.’ वहीं दूसरा तबका नर्मदा के संकट को सरकार की मौजूदा नीतियों से जोड़ता है. यह मानता है कि नीतियां बनाने वालों का नजरिया शहरी है. इसलिए सरकार कोई भी आए अंततः पकड़ेगी उसी नजरिये वाली नीति को जो विशुद्ध तकनीकी है और नर्मदा को महज एक संसाधन तक सीमित रखती है.

समाजवादी जन परिषद के नेता सुनील का मत है कि नर्मदा पर पहला बड़ा हमला जो बांधों के साथ शुरू हुआ उसने नदी का कुदरती प्रवाह रोक दिया. अब जो दूसरे हमले हुए हैं उनसे पानी का रुख कारखानों की ओर हो जाएगा. विडंबना यह भी है कि नीतियों में नर्मदा को बचाने के लिए जनता का कोई अधिकार नहीं. जैसे नर्मदा को मरते हुए देखना ही उनकी नियति है. वरिष्ठ अधिवक्ता जयंत वर्मा का मानना है कि नर्मदा में जारी विकास को जनहित में बताया जा रहा है लेकिन बांधों को सिंचाई के नाम पर बनाने के बाद उसे कंपनियों को सौंपना कैसा जनहित है. एक हाथ से सरकार संसाधनों का दोहन करके संरचनाएं खड़ी करती है और दूसरे हाथ से संरचनाओं को कंपनी के हाथों सौंपती है. उनके मुताबिक संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा के घोषणापत्र में स्वनिर्धारण का जन अधिकार, सार्वजनिक भागीदारिता और प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व को विकास का सूचक माना गया है. लेकिन नर्मदा अंचल में जारी विकास तो तीनों सूचकों में से एक का भी संकेत नहीं करता. नर्मदा के कई रूपों को अपने कैमरे में संजोकर रखने वाले छायाकार रजनीकांत यादव बताते हैं कि अब नर्मदा को देखकर रोया, हंसा या गाया नहीं जा सकता. सबको पता चल चुका है कि इसे काबू में रखा जा सकता है. तकनीक के आने से जब नजरिया ही ऐसा हो रहा है तो यह मैया कैसे रही, यह तो मालगाड़ी बन गई. इधर सरकार की नीति है कि आइए हम आपको परोसने को तैयार हैं और ये लीजिए नर्मदा, ये लीजिए उसके जंगल, पहाडि़यां और उधर कंपनियों के पास सारी खोदाखादी, काटने और छांटने की मशीनें हैं. वे आएंगी और देखते ही देखते एक नदी को मैदान बना जाएंगी. l