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गर्व के पर्व का पासा

बिहार में शताब्दी वर्ष समारोह के आयोजन के जरिये प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर से अपने विरोधियों को पटखनी देने और खुद को मजबूत करने की एक नायाब कोशिश की है. निराला की रिपोर्ट

पहली बार बिहार का अपना राज्यगान. अलग से एक प्रार्थना गीत भी. दो सौ से अधिक किताबों के जरिये बिहार के इतिहास, भूगोल, संस्कृति आदि के नये सिरे से दस्तावेजीकरण की कोशिश. पटना के गोलघर, बिहार के पर्यटन स्थल, कई अहम व्यक्तित्वों पर वृत्तचित्रों का निर्माण. नामचीनों के साथ कई अनाम-गुमनाम रचनाधर्मियों को सम्मान. नीली रोशनी से सराबोर राजधानी पटना के अलग-अलग इलाकों में स्थित सरकारी भवन. कुछ निजी प्रतिष्ठान-मकान भी. और इन सबको मिलाकर पटना के गांधी मैदान में तीन दिन तक बिहारी जोश-जुनून, उमंग-उत्साह का यादगार मेला. कई मेलों के राज्य में अपने किस्म का पहला मेला. छठ, उर्स, बौद्ध उत्सव, सोनपुर आदि से अलग छवि का.

गैलरियों में सजी बिहार की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक झलक को देखने, सांस्कृतिक आयोजनों का मजा लेने हर रोज हजारों लोग धूल-धक्कड़ में धक्का-मुक्की कर यहां पहुंचते रहे. कुछ उदित नारायण, कैलाश खेर जैसों का आकर्षण भी था. कुछेक के लिए व्यंजन मेले में तरह-तरह के बिहारी खान-पान का भी. शास्त्रीय और हिंदुस्तानी संगीत के रसिकों के लिए गांधी मैदान से सटे श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में दो दिनों तक देश के नामचीन कलाकारों का जुटान हुआ. आम तौर पर बड़े आयोजनों में भी खाली रहनेवाले इस सभागार में सीट न मिल पाने की चिंता में शाम से ही लोगों की भीड़ उमड़ती रही. मशहूर शास्त्रीय गायक पंडित जसराज, बांसुरीवादक हरिप्रसाद चैरसिया, गीतकार जावेद अख्तर जैसे लोगों की जुगलबंदी का नायाब रूप दिखा. राजधानी पटना तीन दिनों तक ऐसे ही जश्न की खुमारी में रहा. जश्न-ए-बिहार का यह दौर सिर्फ राजधानी तक सीमित नहीं रहा. प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में भी ऐसे ही आयोजन, उत्सव चले. बिहारी उपराष्ट्रीयता की एक नयी लहर के साथ. इन नायाब आयोजनों के जरिये बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लाखों बिहारियों को कायल करने के साथ ही अपने राजनीतिक विरोधियों से भी अपनी कलाबाजी का लोहा मनवाते रहे.

22 मार्च के बिहार शताब्दी वर्ष समारोह के प्रारंभिक दिन के विशाल उत्सव की चर्चा से पहले कुछ फुटकर बातों पर गौर करते हैं. उस रोज सुबह-सुबह मोबाइल पर दो मैसेज आये. पहला राज्य के सीमावर्ती फारबिसगंज इलाके से राष्ट्रीय जनता दल के एक नेता का था. कुछ शेरो-शायरी के बाद एक वाक्य- ‘बी प्राउड टू बी ए बिहारीः हैप्पी बिहार दिवस.’ दूसरा बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी से जुड़े एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता का -‘बिहार स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने पर अपने गौरवशाली इतिहास को याद करें बिहारी. बधाई.’ इसी रोज शताब्दी समारोह शुरू होने के पहले गांधी मैदान से कुछ दूर एक और खास आयोजन भी हुआ. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-माले के छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन और इंकलाबी नौजवान सभा द्वारा यहां आयोजित सेमिनार का विषय था- शताब्दी वर्ष में बिहारः संघर्ष की विरासत, बदलाव की चाहत. भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य समेत कई अहम वक्ताओं की इसमें उपस्थिति रही. बिहार सरकार को किसी न किसी बहाने, मौके-बेमौके निशाने पर लेने वाले अर्थशास्त्री प्रो. नवलकिशोर चौधरी भी थे इसमें. इस सेमिनार में सरकार की जमकर आलोचना हुई.यह तय-सा भी था.

नीतीश जानते हैं कि जाति की राजनीति के विस्तारीकरण से एक पारी तो खेली जा सकती है लेकिन आगे विकास के साथ कुछ और ताने-बाने भी बुनने होंगे

प्रशासनिक आयोजन का तमगा देकर, सरकारी शताब्दी वर्ष समारोह कहकर इसकी आलोचना किए जाने के बावजूद मोबाइल में पड़े दो मैसेज और माले के सेमिनार का आयोजन, शताब्दी वर्ष और बिहारी अस्मिता के अभियान पर एक प्रकार की मुहर लगा देते हैं. संभव है कि नीतीश कुमार को टुकड़े-टुकड़े में आते इस तरह की असहमति के स्वरों की जानकारी न हो लेकिन यह अहसास अच्छे से है कि ‘बिहारीपन’ का गौरवबोध अथवा ‘बिहारी होने’ के भाव को उभारना राजनीति में उन्हें और मजबूत कर सकता है.

करीब डेढ़ साल पहले बिहार में दूसरी पारी शुरू करने वाले नीतीश जब 22 मार्च की शाम पांच बजे मुख्य समारोह में पहुंचे तो उन्होंने अपने संबोधन में ‘बिहारीपन’ को परवान चढ़ाने की हरसंभव कोशिश की. इस कोशिश में उन्होंने बिहार के सौ साल की यात्रा को अपनी छह साल की परिधि में भी बांधा. अपने पूर्ववर्ती लालू प्रसाद की राजनीति के ताबूत में एक और गहरी कील ठोंकने की कोशिश की. परंपरागत तौर पर केंद्र पर निशाना साधा और मौका देख कर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भी सांकेतिक तौर पर लपेटे में लिया.

नीतीश ने अपने संबोधन में बिहारी होने का मतलब ‘पहले अपमान- अब शान’ की बात को अलग-अलग लहजे में, अलग-अलग वाक्यों के साथ कई बार कहा. दो दिन पहले उन्होंने जिस अंदाज में देश की राजधानी दिल्ली में जाकर हुंकार भरी थी कि ‘यदि बिहारी काम ठप कर दें तो दिल्ली ठहर जाए’, कुछ-कुछ उसी लहजे में जनसमुदाय को भावनात्मक तौर पर नीतीश ने फिर से ललकारा कि अब बिहारियों को हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठना होगा बल्कि अपना हक लेना होगा. केंद्र को जवाब देना होगा. सांकेतिक तौर पर आगामी लोकसभा चुनाव में केंद्र सरकार को बेदखल करने का आग्रह भी किया नीतीश ने और मौका पाकर यह भी कहा कि बिहार की जो छवि हाल में बनी है, उसके लिए हमने पैसा देकर या किराये पर कोई ब्रांड अंबेसडर नहीं रखा है. यह बिहारियों ने मुंहामुंही किया है. यह कहते हुए नीतीश साफ तौर पर अमिताभ बच्चन को गुजरात का ब्रांड अंबेसडर बनाए जाने की ओर इशारा कर रहे थे.
उस रोज हजारों की भीड़ में नीतीश कुमार जब बिहारीपन जगाने और बिहारी उपराष्ट्रीयता को पिछले छह-सात सालों में स्थापित कर देने का असल सूत्रधार खुद को घोषित कर रहे थे, तब वहां मौजूद कुछेक लोग उनके इस राजनीतिक हुनर के कायल हुए जा रहे थे. यह याद करते हुए कि कैसे लालू प्रसाद की बिछाई जातीय राजनीति की बिसात पर ही दलित-महादलित, पिछड़ा-अतिपिछड़ा आदि समीकरणों के जरिये पटखनी देने के बाद अब नीतीश बहुत ही चतुराई से लालू के ही बिहारीपन को व्यवस्थित और सुंदरतम रूप देकर आगे उसकी फसल काटने की तैयारी में लग गए हैं.

बहुत से लोग अब भी यह मानते हैं कि अरसे बाद राष्ट्रीय स्तर पर बिहारीपन की ठेठ शैली को एक अलग पहचान के साथ चर्चा में लाने और जाने-अनजाने स्थापित करने की शुरुआत लालू प्रसाद यादव ने ही की थी. संसद भवन से लेकर बड़े से बड़े सार्वजनिक आयोजनों में ठेठ गंवई अंदाज में बोलना, मीडिया के जरिये बिहार की एक बोली को बिहारी भाषा के रूप में स्थापित करवाना, कुरताफाड़ होली खेलना, बिहारी लोकगीतों के गायकों को स्थापित करवाना, बिहारी मूल पहचान की नृत्यशैली लौंडा नाच, बिरहा-चैता गान आदि को प्रतिष्ठित करवाना, खानपान में मट्ठा, लिट्टी-चोखा, सत्तू आदि के साथ नशे में खैनी की ब्रांडिंग करना. यह सब लालू ने ही एक जमाने में मजबूती से किया था. बिहारीपन और लालू एक-दूजे के पर्याय भी बने. अब उसे सुंदर और सुव्यवस्थित रूप देकर नीतीश दो दशक बाद की नयी पीढ़ी में मजबूती से स्थापित होने की प्रक्रिया में लगे हैं.

बिहारी अस्मिता की बिसात पर लालू को दूर ठेल देने की इस कवायद का असर नीतीश को अच्छे से पता है. वे जानते हैं कि बिहार की आबादी में करीब 58 प्रतिशत युवा हैं. वे यह भी जानते हैं कि जाति की राजनीति के विस्तारीकरण से एक पारी तो खेली जा सकती है लेकिन आगे की राजनीति के लिए विकास के साथ इसके इर्द-गिर्द ही कुछ और ताने-बाने भी बुनने होंगे. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं कि बिहारी अस्मिता एक ऐसा मसला है, जो कई वर्गों को एक साथ रोमांचित कर सकता है. देश के कोने-कोने में फैले कामगारों के साथ ही संभ्रांतमिजाजियों को भी. जाति की राजनीति से नाराज और भूमि सुधार आदि के आरंभिक एलान से खफा सवर्णों के खेमे को भी.

उपराष्ट्रीयता के उभार का इस्तेमाल गरीबों के उत्थान में भी किया जा सकता है बशर्ते आयोजन के बहाने अतीत में ही नहीं भविष्य में भी झांका जाए

नीतीश कुमार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने की मांग कर एक ऐसी ही सधी हुई राजनीतिक चाल और भी चल चुके हैं जो विरोधी दलों को न तो उगलते बन रही है और न ही निगलते. आलोचना के अलग-अलग बिंदु और असहमति के भिन्न-भिन्न स्वरों के बाद भी उस अभियान पर अमूमन सभी दलों को मुहर लगानी पड़ी. विशेष राज्य के दर्जे पर तो एक बड़ा सवाल यह भी उठ सकता है कि नीतीश जब खुद केंद्र में मंत्री थे तो क्यों इस पर कोई ईमानदार पहल नहीं कर सके? लेकिन बिहारी अस्मिता वाले राजनीतिक पत्ते में तो ऐसा कोई सवाल भी नहीं है. एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के निदेशक डॉ डीएम दिवाकर कहते हैं कि उपराष्ट्रीयता का उभार अच्छी चीज है और इसका इस्तेमाल गरीबों के उत्थान में भी किया जा सकता है बशर्ते 100 साला आयोजन को अतीत का आकलन करने के साथ भविष्य की रूपरेखा तैयार करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाए. दिवाकर की तरह कई लोग अलग-अलग बात कहते हैं लेकिन बिहार के सौ साल के आयोजन और बिहारी उपराष्ट्रीयता के अभियान पर ज्यादा सवाल खड़े नहीं कर पाते. और यही बात नीतीश को एक नई मजबूती देती नजर आती है.

अंत में बात आयोजन से जुड़े कुछ ऐसे बिंदुओं पर जिन पर इस आयोजन के वक्त यदि थोड़ा ध्यान दिया जाता तो यह कुछ और यादगार हो सकता था. मसलन सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक, भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में प्रदेश के दस्तावेजीकरण का काम काफी महत्वपूर्ण है लेकिन इसकी कुछ संभावनाएं यदि बिहार सरकार के ही संस्थानों – बिहार राष्ट्र भाषा परिषद और बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी – के जरिये भी निकाली गई होतीं तो यह इन मृतप्राय संस्थानों के लिए संजीवनी की तरह होता. परिषद और अकादमी का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है और यहां से एक से बढ़कर एक दस्तावेजों का प्रकाशन होता रहा है. लेकिन पिछले करीब दो दशक से ये बेहद बेहाली वाले दौर में है.

बिहार के शताब्दी मेले में व्यंजन मेले का खासा आकर्षण था लेकिन उद्घाटन वाले दिन यानी 22 मार्च को व्यंजन मेले के कई स्टॉल खाली पड़े रहे. जबकि बिहार में इतने किस्म के खास व्यंजन अलग-अलग क्षेत्र में प्रसिद्ध हैं कि सबका एक-एक स्टॉल लगने पर भी व्यंजन मेला छोटा पड़ सकता था. औरंगाबाद के अंबा की गुड़ही मिठाई, खरांटी-नालंदा का पेड़ा, छेनामुरगी आदि को परे भी कर दें तो ब्रांड बिहार के तौर पर स्थापित गया के तिलकुट, अनरसा और रामदाना लाई की कमी यहां खलती रही.

मुख्य समारोह स्थल पर जैसे नजारे दिखे और जिस तरह की प्रस्तुतियां हुईं, वे समग्रता में बिहार की यात्रा का उतना प्रतिनिधित्व नहीं कर सकीं. बिहार की यात्रा को दिखाने के लिए जो लेजर शो रोजाना के आकर्षण का केंद्र था. इसमें मौर्यकाल, चाणक्य, बिंबिसार, बुद्ध आदि के गौरवगान के बाद आजादी के बाद की यात्रा में डॉ राजेंद्र प्रसाद, जेपी के बाद सीधे वर्तमान सरकार के नायकत्व पर पहुंचना थोड़ा अखरता रहा. कम से कम समाजवादी धारा के ही कर्पूरी ठाकुर जैसे महानायक को तो प्रमुखता से रेखांकित किया जाता. या इस शो में पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की एक झलक तो दिखती!.

अंत में एक बात झारखंड और आदिवासियों के संदर्भ में. अव्वल तो यह कि 11 साल पहले अलग हुए झारखंड को परे कर बिहार को देखना संभव ही नहीं. ऊपर से बिहार के सौ-साला जश्न में आदिवासियों को एकदम से महत्व नहीं देना, आयोजकों की समझ पर सवाल ही खड़ा करता है. बिहार सरकार विशेष राज्य दर्जा अभियान में खुद बता रही है कि यहां आदिवासी अच्छी संख्या में हैं. राज्य में उनके लिए दो विधानसभा सीटें भी आरक्षित हैं. तो समारोह स्थल पर आदिवासियों के नायक बिरसा मुंडा, सिद्धो-कान्हो आदि दिखने चाहिए थे. इन आदिवासी महानायकों को अगर झारखंड का मानकर नजरअंदाज भी किया गया होगा तो तिलका मांझी की झलक तो दिखनी ही चाहिए थी, जिनके नाम पर भागलपुर में विश्वविद्यालय है. झारखंड बंटवारे के बाद जो आदिवासी बिहार में रह गये हैं, उनके नायकत्व, उनकी सांस्कृतिक पहचान को हाशिये पर तो नहीं ठेला जा सकता. कम से कम एक छोटा आयोजन ही सही, उनके लिए, उनके द्वारा, उनके नाम पर तो हो जाता…!

कौन-सा मंतर भजे भाजपा

भाजपाई पिरामिड में समस्या जड़ की बजाय शीर्ष से शुरू होती है. देश में प्रधानमंत्री का एक पद है और इस पद के इर्द-गिर्द ही भाजपा का मर्ज और इलाज दोनों घूम रहे हैं. इसी पद की अदम्य लालसा ने लालकृष्ण आडवाणी को 85 बसंत बाद भी गतिवान बनाए रखा है. लेकिन उनकी इस गतिशीलता ने उस पार्टी की गति बिगाड़ रखी है जिसे खड़ा करने का श्रेय भी काफी हद तक उन्हें ही जाता है. कांग्रेस नीत केंद्र सरकार की विश्वसनीयता निम्नतम धरातल को छू रही है. सीडब्ल्यूजी, 2जी, आदर्श घोटाला और अब कोयले में हाथ काला. हाल के पांच में से चार विधानसभा चुनावों में इसकी दुर्गति हो चुकी है. कम-से-कम तीन सहयोगी (टीएमसी, एनसीपी, डीएमके) किसी भी समय सरकार की बांह मरोड़ने को तैयार बैठे हैं. ये स्थितियां किसी भी विपक्ष के लिए आदर्श कही जाएंगी, सत्ता में वापसी के नजरिये से भी और सरकार को नीचा दिखाने के लिहाज से भी. लेकिन हमारी मुख्य विपक्षी पार्टी इस अस्थिर दौर में भी क्या एक विश्वसनीय विकल्प है? वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी इसका जवाब देती  हैं, ‘आज की स्थिति तो ऐसी नहीं है. आज भाजपा से जनता के बीच जो सिग्नल जा रहा है वह कलह का सिग्नल है. झारखंड में अंशुमन मिश्रा का मसला हो या कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा का. हर तरफ से एक ही सिग्नल मिल रहा है कि पार्टी में घमासान मचा हुआ है. गुटबाजी चरम पर है.’

नीरजा का इशारा भाजपा की दुखती रग की ओर है. आडवाणी की अदम्य इच्छा से जो समस्या शुरू होती है वह नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह और पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की महत्वाकांक्षाओं से टकरा कर इतनी जटिल हो जाती है कि नेतृत्व के मसले पर हर नाम के साथ तीन-चार किंतु-परंतु जुड़ जाते हैं. जनता के बीच भाजपा की दशा उस सेना की बन गई है जिसके सेनापति का पता नहीं और सारे सिपहसालार एक-दूसरे का सर काट लेने पर आमादा हैं.

2004 में एनडीए की अविश्वसनीय हार के बाद ही आडवाणी के सामने सक्रिय राजनीति से अलग एक वैकल्पिक भूमिका चुनने का विकल्प था. लेकिन उन्होंने अपने लिए कुछ अलग ही योजना बना रखी थी. 2004 के बाद वाले आडवाणी पहले से अलग थे. उनके सपने प्रधानमंत्री के पद तक जाते थे और उस पद तक जाने का रास्ता बताने वाले विश्वस्तों का एक गुट था. उसकी राय ही उनके लिए सर्वोपरि थी. यह समूह ही उन्हें पाकिस्तान यात्रा, जिन्ना की मजार पर बयान से लेकर समय-समय पर रथ यात्रा तक के सुझाव देता रहा. जिन्ना पर बयान की कीमत उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद गंवा कर चुकानी पड़ी.

दूसरी पीढ़ी (जेटली, सुषमा) और सत्तर पार वाली पीढ़ी (सिन्हा, जोशी) के बीच का द्वंद्व भाजपा के लिए एक बड़ा सिरदर्द है. दोनों एक-दूसरे की राह काटते हैं

2009 के लोकसभा चुनावों में किसी अन्य चेहरे के अभाव और आम सहमति के आधार पर आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके भाजपा और एनडीए चुनाव में उतरे. लेकिन जनता ने उनके प्रेरणाविहीन और बुजुर्ग नेतृत्व को नकार दिया. एनडीए का यह सबसे बुरा प्रदर्शन था. बावजूद इसके आडवाणी ने हथियार नहीं डाले, जबकि उम्र भी अब उनके हाथ से निकल चुकी थी. पिछले साल केंद्र सरकार के व्यापक भ्रष्टाचार के खिलाफ वे एक और रथयात्रा पर निकल पड़े. इस बार उन्हें कार्यकर्ताओं और पार्टी का समर्थन हासिल करने के लिए नागपुर में माथा टेकना पड़ा. इतनी हील-हुज्जत के बावजूद आडवाणी ने खुद को उस परम पद की दौड़ से बाहर नहीं किया. उन्होंने हमेशा उस सीधे से सवाल का टेढ़ा जवाब दिया कि वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में हैं या नहीं. उनके इस रुख से न सिर्फ पार्टी बल्कि मीडिया, संघ और निचले स्तर के कार्यकर्ताओं के बीच भी यह संदेश गया कि उन्होंने अपनी इच्छा को तिलांजलि नहीं दी है. वरिष्ठ पत्रकार अशोक मलिक बताते हैं, ‘आज की स्थिति में न तो संघ उन्हें चाहता है न ही भाजपा में कोई उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ना चाहता है. ले-देकर आडवाणी की उम्मीद साठोत्तरी पीढ़ी के नेताओं से है (जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा) जो अपने से जूनियर नेताओं के नेतृत्व में काम करने की बजाय आडवाणी को आगे कर सकते हैं. और बदले में उन्हें महत्वपूर्ण पद मिलने की पूरी गारंटी है.’

आडवाणी का सबसे बड़ा विरोध उन्हीं के गृहराज्य से हो रहा है. मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को अब और ज्यादा दबाने के मूड में नहीं हैं. कॉरपोरेट मीटिंग हो, सद्भावना सभाएं हों या फिर टाइम और कुछ भारतीय पत्रिकाओं में पीएम पद का सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार जैसी पीआर कसरतें, मोदी अपनी उपस्थिति और स्वीकार्यता बढ़ाने का कोई मौका छोड़ नहीं रहे हैं. मोदी को लेकर पार्टी में दो तरह की धाराएं हैं. उनकी समर्थक धारा का मानना है कि पार्टी के सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार को कब तक पीछे रखा जाएगा. लेकिन दूसरी विचारधारा का मत कहीं ज्यादा वास्तविक और व्यावहारिक है. इसके मुताबिक मोदी ने अभी तक गुजरात के बाहर कहीं भी खुद को साबित नहीं किया है. और गुजरात में भी उनकी सफलता के पीछे 2002 के बाद उत्पन्न खतरनाक ध्रुवीकरण की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. चौधरी कहती हैं, ‘दिसंबर में होने वाले गुजरात विधानसभा के चुनावों के बाद राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का पदार्पण हो सकता है. हालांकि यह इस पर निर्भर करेगा कि वे इस बार गुजरात में कैसा प्रदर्शन करते हैं.’ मोदी के लिए परेशानी यह है कि अब उनका विरोध संघ के भी एक हिस्से से होने लगा है. उसकी चिंता यह है कि उनकी मनमानी शैली न तो पार्टी के हित में है न ही संघ की विचारधारा के हित में.

पार्टी के सबसे बुजुर्ग नेता और सबसे लोकप्रिय नेता की स्थिति के मद्देनजर पार्टी में दो सबसे स्वाभाविक चेहरे सामने आते हैं- सुषमा स्वराज और अरुण जेटली. इन दोनों ने संसद में अपने पूर्ववर्तियों (आडवाणी और जसवंत सिंह) की तुलना में कहीं बेहतर प्रदर्शन किया है. सरकार को अलग-अलग मुद्दों पर घेरने से लेकर कई मुद्दों पर विरोधी पार्टियों को अपने साथ खड़ा करने में भी दोनों सफल रहे हैं. हालांकि दोनों की अपनी-अपनी सीमाएं हैं. सुषमा स्वराज ने 2004 में अपने मुंडन के एलान के बाद से एक लंबा सफर तय किया है. इस दौरान उन्होंने अपनी एक उदारवादी छवि का निर्माण भी किया है. लेकिन उनकी समस्या यह है कि संघ में उन्हें आज भी बाहरी के तौर पर ही देखा जाता है. उनका समाजवादी अतीत संघ के जेहन से मिट नहीं पा रहा है. अन्यथा एक कुशल वक्ता और भीड़ को अपनी तरफ खींच लाने वाली नेताओं की जमात में वे सबसे आगे हैं. इसके अलावा नीतिगत मसलों पर भी कई जगह उनके हाथ तंग हैं, विशेषकर आर्थिक मोर्चे पर.

अरुण जेटली दूसरी समस्या के शिकार हैं. उनकी छवि हमेशा से ही उदारवादी रही है. दूसरी पार्टियों के बीच भी वे काफी स्वीकार्य माने जाते हैं. उनकी यह छवि एनडीए को साधे रखने में सहायक साबित हो सकती है. लेकिन वे कभी भी मास लीडर बन कर नहीं उभरे हैं. यह बात उनके खिलाफ जाती है. हालांकि पार्टी की नीतियों और रणनीतियों को बनाने में उनकी भूमिका हमेशा अग्रणी रही है, इसलिए उन्हें दरकिनार कर पाना बहुत मुश्किल है. जेटली के पक्ष में एक बात और जाती है. यदि किन्हीं वजहों से मोदी अपने प्रयासों में सफल नहीं हो पाते हैं तो वे जेटली को अपना समर्थन दे सकते है. यह बात जगजाहिर है कि जेटली-मोदी की आपसी समझदारी बहुत अच्छी है.

भाजपा की समस्या यह है कि चुनाव से पहले वह अपने झगड़े निपटा नहीं सकती और बिना झगड़ा निपटाए जनता उसपर विश्वास नहीं कर सकती

दूसरी पीढ़ी के इन नेताओं की राह में अड़चन सत्तर पार वाली पीढ़ी से है. सरकार बनने की सूरत में यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह या फिर मुरली मनोहर जोशी इनके नाम पर अड़ंगा लगा सकते हैं.ऐसी स्थिति में आडवाणी एक बार फिर से प्रासंगिक हो जाएंगे.

यह तो तब की स्थिति है जब भाजपा और संघ को अपना नेता चुनने की आजादी हो. लेकिन वर्तमान इसकी इजाजत नहीं दे रहा. आज इन दोनों से इतर एक तीसरा पक्ष भी उतना ही मजबूत हो चुका है, उसका नाम है एनडीए. अशोक मलिक बताते हैं, ‘आज सरकार बनने की स्थिति में पीएम पद तय करने वाला तीसरा पक्ष एनडीए भी है. अब अकेले संघ और भाजपा नेता का चुनाव नहीं कर सकते हैं. बिना उसकी सहमति के किसी नाम पर मुहर नहीं लग सकती.’ एनडीए के नजरिये से एक और बात काफी महत्वपूर्ण है. ज्यादातर राज्यों के चुनावों में जहां भी भाजपा अपने सहयोगियों के साथ चुनाव लड़ी है वहां सहयोगी मजबूत हुए हैं और भाजपा की हालत कमजोर हुई है. पंजाब में अकाली मजबूत हुए, बिहार में नीतीश कुमार को कोई नजरअंदाज कर नहीं सकता. ऐसे में अगर भाजपा अपनी मौजूदा सौ-सवा सौ सीटों तक ही अटकी रही तो संभव है कि एनडीए के किसी अन्य घटक दल के नेता के नाम पर भी सहमति बन जाए. अशोक मलिक के शब्दों में, ‘जिन भी जगहों पर चुनाव हो रहे हैं, वहां कांग्रेस के खिलाफ क्षेत्रीय पार्टियां ही मजबूत होकर उभरी हैं. सिर्फ उन्हीं जगहों पर भाजपा बढ़त में है जहां उसका कांग्रेस से सीधा मुकाबला है. भाजपा को हर हालत में एनडीए का दायरा फैलाना होगा और अपनी सीटों को कम- से-कम 180 तक ले जाना होगा. तभी वह अपने नेता को पीएम पद पर बिठा सकती है.’

मगर एनडीए को लेकर एक बड़ी दिक्कत और है. आज उसका कुनबा जदयू, अकाली और शिवसेना तक सिमट कर रह गया है. एक जदयू को छोड़ दें तो बाकी दोनों कमोबेश कट्टरपंथी विचारधारा वाली पार्टियां हैं. 90 के दशक में भी, जब एनडीए अस्तित्व में आया था, अगर दक्षिण भारत की दो पार्टियों को छोड़ दिया जाए (एआईएडीएमके और डीएमके   जिनके लिए मुसलिम वोट बैंक मजबूरी नहीं है) तो अन्य किसी क्षेत्रीय पार्टी ने भाजपा के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं किया था. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रभाव वाले दौर में 24 पार्टियों का जो उस पर गठबंधन तैयार हुआ था उसके ज्यादातर सहयोगी चुनाव के बाद इसमें शामिल हुए थे. इसकी सीधी-सी वजह है उनका मुसलिम वोट बैंक. नायडू हों, पटनायक हों, पासवान हों या ममता बनर्जी हों. मुसलिम वोटों की मजबूरी चुनाव से पहले इन्हें भाजपा के पाले में आने नहीं देगी. चौधरी बताती हैं, ‘चुनावों से पहले किसी भी सहयोगी का एनडीए के साथ आना मुश्किल है. उनके मुस्लिम वोट की मजबूरी इसमें बाधा बनेगी. इसलिए भाजपा को अकेले दम पर 200 सीटों के आस-पास पहुंचना होगा. और इसके लिए अपनी लड़ाई को खत्म करना उनकी पहली जरूरत होगी.’

तो क्या ऐसा कोई जादुई फाॅर्मूला हो सकता है जिससे शीर्ष पर मचा घमासान थम जाए? किसी भी फाॅर्मूले की सबसे पहली मांग होगी अपनी आकांक्षाओं का त्याग, पूरा नहीं तो कुछ हद तक ही सही. जानकार मानते हैं कि कुछ भी करके अगर संघ, गडकरी और भाजपा नेतृत्व का एक हिस्सा आडवाणी को समझाने में कामयाब हो जाएं तो पार्टी की आधी से ज्यादा समस्याओं का निराकरण हो सकता है. क्योंकि अभी जो आडवाणी अपनी सारी ऊर्जा जोड़-तोड़ और उठापटक की राजनीति में लगाते हैं उसका उपयोग फिर पार्टी के हित में किया जा सकेगा. मगर इसके लिए पार्टी और संघ को उन्हें भी एनडीए की सरकार बनने की स्थिति में कुछ-कुछ सोनिया गांधी की वर्तमान स्थिति जैसे पद का वादा करना होगा. इसके बाद बारी आती है मोदी की. स्वीकार्यता के स्तर पर मोदी को अभी साबित करना है. सीधे परम पद की रेस में जाना उनके राजनीतिक भविष्य के लिए दुखदायी सिद्ध हो सकता है. अगर वे पहले ही प्रयास में असफल रहते हैं तो उनका राजनीतिक भविष्य हमेशा के लिए अधर में लटक सकता है. मोदी की तमाम प्रशासनिक खूबियों के बावजूद एनडीए के सहयोगियों आदि के बीच उनकी स्वीकार्यता एक बड़ी समस्या है. अगर वे पहले से ही इस बात को समझ जाते हैं तो यह उनकी पार्टी के लिए संजीवनी साबित हो सकता है. तो उन्हें सरकार बनने की स्थिति में किसी ऐसे पद का वादा करके समझाया जा सकता है जो केंद्रीय राजनीति में उनकी स्वीकार्यता को बढ़ाकर उनके लिए आगे का रास्ता तैयार करे. यह पद उपप्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक कुछ भी हो सकता है. यहां से भाजपा के सामने उस चेहरे की लड़ाई शुरू होती है जिसे आगे रखकर 2014 के समर में उतरना है. गडकरी ने खुद को तो इस दौड़ से बाहर रखने का पहले ही एलान कर रखा है. इसलिए वे आडवाणी और संघ के सहयोग से इस शीर्ष पद के लिए मची धींगामुश्ती को विराम देने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं. लेकिन सबसे पहला और बड़ा सवाल आडवाणी के समझने का ही है.

हालांकि यह न तो कोई जादुई फॉर्मूला है और न ही राजनीति में इतनी सरलता से झगड़े निपटाए जाते हैं. ऊपर से इन सबके साथ एक विकट प्रश्न है सबका एक ही पीढ़ी से आना. ऐसे में इनके बीच एक-दूसरे के प्रति आदर भाव का अभाव भी इन्हें एक मंच पर लाने में बाधा उत्पन्न करता है और आगे भी करेगा. नीरजा चौधरी इसे इस तरह समझाती हैं, ‘राजनेता जनता की नब्ज को बहुत जल्दी समझ लेते हैं. सरकार बनने की स्थिति में वे किसी-न-किसी समझौते पर पहुंच ही जाएंगे. लेकिन सरकार बनने से पहले ऐसा कोई समझौता शायद ही हो सके.’ यही भाजपा की समस्या है. पहले वे अपने झगड़े निपटा नहीं सकते और बिना झगड़ा निपटाए जनता उस पर विश्वास नहीं कर सकती.

मोहन प्यारे!

यह नितिन गडकरी कौन है? 2009 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन बहुत खराब रहा था. इसके बाद राजनाथ सिंह की जगह पार्टी अध्यक्ष के रूप में जब महाराष्ट्र के इस नेता का नाम चला तो हर तरफ यही सवाल पूछा जा रहा था. उस वक्त महाराष्ट्र के बाहर न तो भाजपा के कार्यकर्ता गडकरी को जानते थे और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक. ऐसे में देश के मुख्य विपक्षी दल के अध्यक्ष के तौर पर गडकरी का नाम हर किसी को चौंका रहा था.

दिल्ली में बैठे पार्टी के वरिष्ठ और दूसरी पांत के नेता गडकरी को जानते तो थे लेकिन वे इस सवाल को घुमा-फिराकर जरा दूसरे ही लहजे में कह रहे थे. इस लहजे में जानने से ज्यादा यह बताने का भाव था कि उनके सामने एक सीमित क्षेत्रीय पहचान और अनुभव वाले नेता की कोई हैसियत ही नहीं है. महाराष्ट्र में गडकरी की पहचान एक ऐसे लोक निर्माण विभाग मंत्री की रही है जिसने कई फ्लाईओवर बनवाए और जो एक बार भी सीधे तौर पर जनता द्वारा नहीं चुना गया. वे विधान परिषद के सदस्य रहे थे. ऐसे में दिल्ली के तथाकथित राष्ट्रीय नेता पार्टी के अंदर और बाहर इस बात को जमकर उठा रहे थे कि इस तरह के व्यक्ति को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का मतलब है पार्टी को और पीछे ले जाना. इनके मुताबिक गडकरी जैसे ‘बाहरी’ व्यक्ति को तो तीन साल पार्टी को समझने में ही लग जाएंगे.

गडकरी को लेकर उठ रहे इन तमाम सवालों के बावजूद भाजपा की कमान उन्हीं के हाथों में सौंप दी गई. इस तरह नागपुर और आस-पास के इलाकों में कारोबार के साथ-साथ महाराष्ट्र में भाजपा की राजनीति करने वाले गडकरी दिल्ली आ गए. इस बात पर किसी को जरा भी संदेह नहीं था कि गडकरी को यह कुर्सी संघ की कृपा से ही मिली है और संघ ने इस मामले में दिल्ली केंद्रित पार्टी नेताओं की राय को बहुत तवज्जो नहीं दी थी. गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद भी उनकी पहचान और हैसियत को लेकर सवाल उठाने वाले नेता संतुष्ट नहीं हुए. अब वे यह कहने लगे कि संघ के आशीर्वाद से गडकरी अध्यक्ष तो बन गए हैं लेकिन देखते हैं कि वे कैसे सफल होते हैं.

इसके बाद से लगातार गडकरी और दिल्ली की राजनीति के धुरंधर माने जाने वाले भाजपा के तथाकथित राष्ट्रीय नेताओं के बीच शह और मात का खेल चलता रहा है. इसमें कभी गडकरी को मात मिली तो कभी उनके खाते में सफलता भी आई. हाल-फिलहाल की घटनाओं पर नजर डालें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ पार्टी के व्यापक अभियान के बावजूद उत्तर प्रदेश में एनआरएचएम घोटाले में आरोपित बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल करने, कर्नाटक में येदियुरप्पा की चुनौती से पार न पा सकने और कथित तौर पर पैसे लेकर राज्यसभा का टिकट अंशुमान मिश्रा को देने के मामले में गडकरी की काफी किरकिरी हुई है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश में भाजपा के खराब प्रदर्शन का ठीकरा भी उनके सर ही फोड़ा जा रहा है.

गडकरी अपने पहले कार्यकाल का अधिकांश हिस्सा गुजारने के बावजूद पार्टी की आंतरिक कलह और गुटबाजी दूर नहीं कर पाए हैं

तो ऐसे में अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या गडकरी को बतौर भाजपा अध्यक्ष दूसरा कार्यकाल मिलेगा. हर कोई इस तथ्य से वाकिफ है कि गडकरी को कार्यकाल विस्तार तब ही मिल सकता है जब एक बार फिर संघ उन पर भरोसा करे. लेकिन क्या इन गंभीर आरोपों के बावजूद संघ का भरोसा अब भी गडकरी पर कायम है? या यों कहें कि क्या संघ एक बार फिर गडकरी पर भरोसा करने का जोखिम उठाने को तैयार है?

अगर गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद से अब तक की घटनाओं और मौजूदा परिस्थिति में भाजपा व संघ के अंदर से आ रही सूचनाओं को जोड़कर देखा जाए तो एक तस्वीर उभरती दिखती है. यह तस्वीर बताती है कि संघ फिर से वैसी स्थिति नहीं पैदा होने देना चाहता है जैसी अटल बिहारी वाजपेयी के समय में हो गई थी. जब वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने पार्टी को कई मामलों में संघ के प्रभाव से मुक्त कराने का काम किया था. लेकिन उनके बाद चुनावी राजनीति में लगातार पिटती भाजपा ने एक बार फिर से संघ को खुद पर पकड़ मजबूत करने का अवसर दे दिया. संघ ने इसकी शुरुआत 2009 में गडकरी को अध्यक्ष बनाकर कर दी थी. उस समय से लेकर अब तक संघ ने पार्टी पर लगातार अपनी पकड़ मजबूत की है. उमा भारती से लेकर संजय जोशी को पार्टी में वापस लाने से लेकर स्वदेशी की बात करने वाले मुरलीधर राव को पार्टी में अधिक सक्रिय करवाकर संघ ने अपनी उसी रणनीति को आगे बढ़ाने का काम किया है.

संघ की यही रणनीति गडकरी के राजनीतिक भविष्य से अनिश्चय की मात्रा को कम कर देती है. यही वजह है कि पार्टी के एक मजबूत धड़े द्वारा नापसंद किए जाने के बावजूद पार्टी में गडकरी लगातार मजबूत होते गए. पार्टी में एक ऐसा माहौल बना कि गडकरी के खिलाफ बोलने को संघ के खिलाफ बोलना समझा जाने लगा. इसलिए खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानने वाले भाजपा नेताओं ने गडकरी के खिलाफ बोलने वालों का समर्थन जरूर किया लेकिन खुद कभी उनके खिलाफ मुंह नहीं खोला.

मगर हाल ही में अंशुमान मिश्रा को झारखंड से राज्यसभा भेजने के गडकरी के निर्णय पर वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा ने खुलेआम हल्ला बोल दिया. गडकरी पर आरोप लगा कि उन्होंने पैसे लेकर राज्यसभा में विपक्ष के उपनेता एसएस अहलूवालिया का टिकट काटा और पार्टी के लिए पैसे जुटाने का काम करने वाले एनआरआई व्यवसायी अंशुमान मिश्रा की उम्मीदवारी का समर्थन कर दिया. पिछले कुछ सालों में सिन्हा ने अपनी पहचान आर-पार की राजनीति करने वाले एक ऐसे नेता की बनाई है जिसने अपने करीबी पत्रकारों के जरिए खुद को प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में शामिल करवाने का खेल नहीं खेला.

संघ का साथ और कार्यकर्ताओं के बीच गडकरी का कद बढ़ने से भाजपा की तीसरी पंक्ति के नेता उनके साथ आ गए हैं

जब सिन्हा ने गडकरी के खिलाफ बोलना शुरू किया तो उन्हें तुरंत पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उन सभी दावेदारों का समर्थन मिल गया जो दिल्ली की राजनीति करते हैं. प्रधानमंत्री बनने को लेकर लालकृष्ण आडवाणी की व्यग्रता से तो हर कोई वाकिफ है लेकिन प्रधानमंत्री पद को लेकर लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज और राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने भी अपनी इच्छाओं को उभार देने का काम अपने करीबी नेताओं और पत्रकारों के जरिए खूब कराया है. पार्टी के लोग ही बताते हैं कि इन तीन वरिष्ठ नेताओं के समर्थन के साथ जब अंशुमान मिश्रा के मामले को यशवंत सिन्हा ने उठाया तो उनकी बात सुनना और उस पर अमल करना गडकरी की मजबूरी बन गया. इनके मुताबिक पहली वजह यह है कि गडकरी पर हल्ला बोलने वालों ने मुद्दा ही ऐसा चुना था जिस पर संघ किसी भी हालत में गडकरी का बचाव नहीं करता. और दूसरी वजह यह है कि सब कुछ जानने के बावजूद अब भी संघ में आर-पार की लड़ाई को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है. संघ को पता है कि गडकरी अपने पहले कार्यकाल का अधिकांश हिस्सा गुजारने के बावजूद पार्टी के आंतरिक कलह और गुटबाजी दूर नहीं कर पाए हैं. जानकार चुनावों में भाजपा की हार के लिए आंतरिक कलह को ही सबसे बड़ी वजह बताते हैं.

तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाना चाहिए कि गडकरी कमजोर हो चले हैं? इस सवाल का जवाब समझने के लिए गडकरी के अब तक के कार्यकाल में उनके प्रदर्शन को देखना होगा. भाजपा के ही एक नेता कहते हैं, ‘कम समय में ही गडकरी ने अपनी पहचान स्थापित की. उन्होंने जमकर राज्यों का दौरा किया और कार्यकर्ताओं से काफी मिले-जुले. गडकरी ने कार्यकर्ताओं के बीच एक ऐसे अध्यक्ष की छवि बनाई जो उनकी बातों को सुनता हो. संघ का साथ और कार्यकर्ताओं के बीच गडकरी के बढ़ते कद की वजह से भाजपा की तीसरी पंक्ति के रविशंकर प्रसाद, शाहनवाज हुसैन, राजीव प्रताप रूडी, मुख्तार अब्बास नकवी, प्रकाश जावड़ेकर और अनंत कुमार जैसे नेता आडवाणी-जेटली-सुषमा से ठीक-ठाक संबंध रखते हुए गडकरी के साथ आ गए हैं. राजनाथ सिंह और वैंकैया नायडू भी गडकरी के करीबियों में शामिल हैं.’

अगर चुनावी नतीजों को पैमाना माना जाए तो गडकरी का अब तक का कार्यकाल औसत रहा है. उनके अध्यक्ष बनने से लेकर अब तक जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं उनमें से बिहार ही इकलौता ऐसा बड़ा राज्य है जहां भाजपा की सीटें बढ़ी हैं. बाकी सभी राज्यों में भाजपा की सीटें घटी हैं और उसके सहयोगियों या विरोधियों की सीटें बढ़ी हैं. बिहार में भी भाजपा की सीटों में बढ़ोतरी का श्रेय न तो नितिन गडकरी को मिला और न ही पार्टी के अन्य नेताओं को बल्कि इसका श्रेय तो बिहार के मुख्यमंत्री और भाजपा की सहयोगी जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार को दिया गया. हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में पार्टी के मत प्रतिशत में तीन फीसदी कमी आई और सीटें चार कम हो गईं. पंजाब में पार्टी को सात सीटों का नुकसान हुआ. गोवा में भाजपा ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया तो उत्तराखंड में कांग्रेस ने भाजपा को. मणिपुर में इस बार भी पार्टी अपनी कोई छाप नहीं छोड़ पाई. कर्नाटक और गुजरात के उपचुनावों में भाजपा ने अपनी वे सीटें गंवाईं जो लंबे समय से पार्टी के पास थीं. कर्नाटक की लोकसभा सीट उडुपी चिकमंगलूर पर भाजपा 1998 के बाद से हारी नहीं थी और गुजरात की मानसा विधानसभा सीट 1995 से भाजपा के पास थी.

जिस दिन विधानसभा चुनावों के नतीजे आ रहे थे उसी दिन शाम को गडकरी ने प्रेस वार्ता बुलाकर भाजपा के अच्छे प्रदर्शन के कसीदे पढ़े. लेकिन सच्चाई यह है कि इन चुनावों में कांग्रेस की तुलना में भाजपा का प्रदर्शन कतई अच्छा नहीं था. गडकरी के आसपास जो टीम है उसमें कई वैसे लोग भी हैं जो उसी तरह काम करते हैं जैसे राहुल गांधी की टीम काम करती है. इनका जोर जमीनी काम करने की बजाय ब्रांडिंग पर ज्यादा होता है. पूरा नतीजा आए बगैर नतीजों को अपनी जीत कहकर प्रचारित करना उसी रणनीति का एक हिस्सा था. एक तरफ 40 विधानसभा सीटों वाले गोवा में जीत हासिल करने पर गडकरी इतरा रहे थे तो दूसरी तरफ 60 विधानसभा सीटों वाले मणिपुर को उन्होंने यह कहकर खारिज किया कि मणिपुर का राष्ट्रीय राजनीति में कोई खास महत्व नहीं है. पार्टी के ही कुछ नेताओं को इस बात पर आश्चर्य हुआ कि किसी राष्ट्रीय पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष ऐसा गैरजिम्मेदाराना बयान कैसे दे सकता है. लेकिन गडकरी के लिए अच्छा यह  हुआ कि मीडिया ने इसे मुद्दा नहीं बनाया. नहीं तो उनके लिए जवाब देना मुश्किल हो सकता था.

उत्तर प्रदेश के नेताओं ने अपने  लोगों को टिकट तो दिलाया पर हार का ठीकरा गडकरी, उमा और संजय जोशी पर फोड़ा

दरअसल, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बीच सबसे ज्यादा सवाल उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रदर्शन को लेकर उठ रहे हैं. हालांकि, जो नेता सवाल उठा रहे हैं वे भी इस बात को जानते हैं कि उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य बन गया है जहां भाजपा के लिए अपनी खोयी जमीन को वापस हासिल करना किसी भी नेतृत्व के लिए आसान नहीं है. पार्टी के एक नेता बताते हैं, ‘उमा भारती से लेकर संजय जोशी को उत्तर प्रदेश में लगाने के बावजूद भाजपा का प्रदर्शन नहीं सुधरने को भले ही मीडिया इन नेताओं की नाकामी मान रहा हो लेकिन भाजपा के अंदर इस बात को लेकर मोटे तौर पर सहमति है कि अगर भाजपा की इतनी सीटें भी बच पाईं तो उसका श्रेय गडकरी, उमा भारती और संजय जोशी को ही जाता है.’

उत्तर प्रदेश में पार्टी का प्रदर्शन सुधारने में नाकाम रहे गडकरी को इस प्रदेश में और भी कई मोर्चों पर मात मिली. उन्होंने प्रदेश में कई सार्वजनिक मंचों पर यह कहा कि कोई भी नेता किसी कार्यकर्ता को यह आश्वासन नहीं दे कि वह उन्हें टिकट दिला देगा क्योंकि इस बार टिकट सर्वेक्षण के आधार पर मिलेगा. इससे कार्यकर्ताओं को लगा कि यह अध्यक्ष ईमानदार है. लेकिन गडकरी अपनी इस बात पर कायम नहीं रह  सके. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता बातचीत में यह स्वीकार करते हैं कि सर्वे के आधार पर तो सिर्फ 88 टिकट बांटे गए और बाकी अलग-अलग नेताओं के दबाव में दिए गए. यानी गडकरी ने जो बात सार्वजनिक मंच पर कही, उसके उलट फैसला उन्होंने बंद कमरे में टिकटों पर अंतिम निर्णय लेते हुए किया. पार्टी के एक नेता बताते हैं, ‘पार्टी के प्रदेश नेताओं ने अपनी पसंद के लोगों को टिकट तो दिलवाया लेकिन हार का पूरा ठीकरा पहले गडकरी और बाद में उमा भारती और संजय जोशी के सर पर फोड़ा गया. यानी बड़ी चतुराई से हार की बिसात बिछाने का काम पार्टी के प्रदेश स्तर के नेताओं ने किया और गडकरी उनके जाल में फंस गए. यही खेल अंशुमान मिश्रा प्रकरण में भी दोहराया गया. अंशुमान की सबसे अधिक वकालत राजनाथ सिंह ने की थी लेकिन सारा ठीकरा फूटा गडकरी के सर. गडकरी को मात देने की कोशिश पार्टी कार्यकारिणी के गठन से लेकर पार्टी के लिए पैसे जुटाने तक के मामले में की गई.’ उत्तर प्रदेश में तो गडकरी के सर्वेक्षण पर भी सवाल उठ रहे हैं. पार्टी के लोग ही कह रहे हैं कि सर्वेक्षण में आगे-पीछे करने का काम भी पैसे लेकर किया गया.

उत्तर प्रदेश में गडकरी जात-जमात का संतुलन साधने में भी नाकामयाब रहे. भले ही ऊपरी तौर पर यह दिख रहा हो कि उमा भारती और बाबू सिंह कुशवाहा को लाकर वे अन्य पिछड़ा वर्ग को भाजपा के पक्ष में लाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अगर पश्चिम उत्तर प्रदेश में टिकटों के बंटवारे को देखें तो यह पता चलता है कि जात-जमात के मोर्चे पर गडकरी का प्रबंधन कितना कमजोर था. बागपत जिले में जाटों की संख्या 40 फीसदी है लेकिन भाजपा ने जिले के किसी भी सीट पर जाट उम्मीदवार नहीं उतारा. यह कहानी सिर्फ बागपत जिले की नहीं है बल्कि इस क्षेत्र की अधिकांश सीटों पर भाजपा ने यही कहानी दोहराई. भले ही आज अजित सिंह की पहचान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों के नेता के तौर पर है लेकिन 1999 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने इलाके की सभी 15 सीटों पर जीत दर्ज की थी. उत्तर प्रदेश राज्य पिछड़ा आयोग के सदस्य रहे जयप्रकाश तोमर कहते हैं, ‘उस चुनाव में इलाके के जाटों और गुर्जरों ने पूरी तरह से भाजपा का समर्थन किया था. इसलिए भाजपा इधर की सभी सीटें जीत गई थी. लोग अजित सिंह के ढुलमुल रवैये से तंग आ चुके हैं लेकिन उन्हें कोई मजबूत विकल्प नहीं मिल रहा.’ वे कहते हैं, ‘अगर भाजपा जाति का संतुलन साध ले तो उत्तर प्रदेश के ज्यादातर इलाकों में पार्टी अच्छा कर सकती है और उत्तर प्रदेश के जरिए दिल्ली पहुंच सकती है.’

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद भले ही भाजपा को जातीय समीकरण दुरुस्त करने की बात समझ में नहीं आई हो लेकिन संघ में इस पर चर्चा चल रही है. यही वजह है कि बीते दिनों आयोजित संघ की प्रतिनिधि सभा में कल्याण सिंह को वापस भाजपा में लाने की कोशिशों को गति देने पर भी बात हुई.

अंशुमान मिश्रा प्रकरण से पहले बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल कराने को लेकर भी गडकरी विवादों के केंद्र में आ गए थे. भाजपा के पुराने नेता रहे रामाशीष राय ने आरोप लगाया कि कुशवाहा को पार्टी में शामिल कराने के लिए भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने पैसे खाए. भाजपा ने भले ही रामाशीष राय को बाहर का रास्ता दिखा दिया लेकिन आडवाणी, सुषमा और जेटली समेत गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ के विरोध ने गडकरी को इस बात पर मजबूर कर दिया कि वे कुशवाहा को पार्टी में शामिल करने का फैसला कुछ समय के लिए टाल दें. आडवाणी की नाराजगी इस बात को लेकर थी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी देशव्यापी जनचेतना यात्रा के बावजूद 5700 करोड़ रुपये के घोटाले के केंद्र में रहे कुशवाहा को पार्टी में शामिल कर लिया गया. उनका मानना था कि इससे यह संकेत जाएगा कि आडवाणी के अभियान को पार्टी ने महत्व नहीं दिया और वे कमजोर हो रहे हैं. यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि बादशाह सिंह जैसे आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों को पार्टी में शामिल करने को लेकर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी. क्योंकि इनकी चर्चा मीडिया में बार-बार नहीं हो रही थी.

गडकरी की फजीहत कराने का काम कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने भी कम नहीं किया. जब येदियुरप्पा मुख्यमंत्री थे तो उनके खिलाफ लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों पर पहले तो भाजपा ने उनका बचाव किया. फिर जब कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले को लेकर आक्रामक भाजपा का अभियान कमजोर पड़ने लगा तो येदियुरप्पा को इस्तीफा देने के लिए मनाने का काम शुरू हुआ. येदियुरप्पा की वजह से पहली बार किसी दक्षिण भारतीय राज्य में कमल खिला था इसलिए उनके जनाधार को देखते हुए पार्टी उन्हें नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकती है. येदियुरप्पा इस्तीफा देने को तैयार नहीं हुए तो गडकरी को काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी. पार्टी के नेता ही बताते हैं कि दो मौके तो ऐसे भी आए जब दिल्ली में येदियुरप्पा ने कहा कि बेंगलुरु जाकर वे इस्तीफा दे देंगे. लेकिन वहां पहुंचते ही उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया. बड़ी मुश्किल से उनकी पसंद के सदानंद गौड़ा को मुख्यमंत्री बनाने और आरोपों से बरी होने पर वापस उन्हें मुख्यमंत्री पद लौटाने की शर्त पर येदियुरप्पा ने इस्तीफा दिया. उच्च न्यायालय द्वारा येदियुरप्पा के खिलाफ जमीन घोटाले की याचिका खारिज किए जाने के बाद येदियुरप्पा ने गडकरी पर इस बात के लिए दबाव बढ़ा दिया है कि वे उन्हें वापस कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाएं. लेकिन पार्टी सूत्रों के मुताबिक अब सदानंद गौड़ा कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं हैं. कर्नाटक में अगले साल चुनाव होने हैं और ऐसे में गडकरी के लिए राज्य के सत्ता संघर्ष को सुलझाना टेढ़ी खीर बन गया है.

पार्टी के कई बड़े नेताओं की आपत्ति के बावजूद उमा भारती की वापसी करवाकर गडकरी ने एक साथ कई निशाने साधे

ऐसे में अहम सवाल यह है कि राजनीतिक प्रबंधन के मामले में कई मोर्चों पर मात खाने के बावजूद क्या नितिन गडकरी को बतौर अध्यक्ष एक और कार्यकाल मिलेगा? दिल्ली में काम कर रहे संघ के एक प्रचारक कहते हैं, ‘सर संघचालक मोहन भागवत और नितिन गडकरी में बाॅस और कर्मचारी जैसा कोई रिश्ता नहीं है. दोनों इस तरह बात करते हैं जैसे परिवार के एक बड़े सदस्य और छोटे सदस्य के बीच बातचीत होती है. पैसे लेकर टिकट बेचने के आरोप को अगर छोड़ दें तो संघ की नजर में गडकरी ने अब तक ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिससे वे खलनायक बन जाएं.’ अगर ऐसा है तो फिर गडकरी के दोबारा अध्यक्ष बनने में कोई रुकावट नहीं पैदा होनी चाहिए? इस सवाल के जवाब में संघ के ये अधिकारी कहते हैं, ‘अंशुमान मिश्रा प्रकरण के बाद नागपुर के संघ के कुछ अधिकारियों ने मोहन भागवत से नितिन गडकरी की शिकायत की है. लेकिन संघ के ज्यादातर लोगों के पास गडकरी के विकल्प के तौर पर कोई नाम नहीं है. अगर जेतली और सुषमा को ही अध्यक्ष बनाना था तो यह काम तो 2009 में भी किया जा सकता था. फिर गडकरी को लाने की जरूरत ही क्या थी.’ वे आगे बताते हैं, ‘संघ की रणनीति में गडकरी पूरी तरह फिट बैठते हैं. संघ भाजपा में जो भी करना चाहता है वह गडकरी के जरिए कर रहा है.’

वे उमा भारती की वापसी का उदाहरण देते हैं. उमा भारती को पार्टी में वापस लाने पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की आपत्ति किसी से छिपी नहीं है लेकिन असली खेल शिवराज को आगे करके दिल्ली में पार्टी के वरिष्ठ नेता कर रहे थे. एक बार तो उमा भारती की वापसी के बारे में सब तय हो गया था लेकिन घोषणा के ठीक पहले दिल्ली के नेताओं ने शिवराज से इस्तीफा लिखवाकर गडकरी को दे दिया. तकरीबन साल भर के प्रयास के बाद भी जब दिल्ली के नेता नहीं माने तो फिर मोहन भागवत ने ही गडकरी को वह मंत्र दिया जिससे उमा भारती की वापसी कुछ ही दिनों के अंदर हो गई. मोहन भागवत ने गडकरी को यह कहा था कि सहमति तो आपको अध्यक्ष बनाने को लेकर भी नहीं थी लेकिन आपको बनाया गया. इसी तर्ज पर नरेंद्र मोदी की नाराजगी के बावजूद गडकरी ने संघ के कहने पर संजय जोशी की वापसी कराई. संघ के इस अधिकारी ने कहा, ‘अब तक संघ ने जो भी कहा है, वह गडकरी ने किया है. इसलिए संघ के नाराज होने की कोई वजह नहीं है. अगर संघ के अंदर यही भाव अगले कुछ महीनों तक बना रहा तो गडकरी को भाजपा के संविधान में संशोधन करके दूसरा कार्यकाल मिलने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.’
गडकरी को जानने वाले लोग बताते हैं कि छात्र राजनीति से उन्होंने अपनी पहचान एक उदार नेता की बनाने की कोशिश की है. गडकरी को वैचारिक आधार देने में सबसे प्रमुख भूमिका भाजपा के सहयोगी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को खड़ा करने में अहम भूमिका निभाने वाले यशवंत राव केलकर की रही हैैै. संघ गडकरी की इसी छवि के जरिए भाजपा में एक नई लीडरशीप विकसित करने की रणनीति पर काम कर रहा है. पार्टी में मुरलीधर राव से लेकर धर्मेंद्र प्रधान और जगत प्रकाश नद्दा जैसे नेताओं का बढ़ता कद इसी रणनीति का हिस्सा है. इसलिए संघ गडकरी को हटाकर किसी ऐसे व्यक्ति को पार्टी अध्यक्ष नहीं बनाना चाहेगा जो पार्टी में नई लीडरशीप विकसित ही नहीं होने देना चाहता हो. संघ को पता है कि दिशा भ्रम की स्थिति प्राप्त कर चुकी भाजपा की सेहत सुधारने के लिए उसे ही आगे की सियासी रणनीति तैयार करनी है.

संघ के सांगठनिक ढांचे में आपातकाल और राम मंदिर आंदोलन के दौरान राजनीतिक तौर पर सक्रिय रहे कृष्णा गोपाल, सुरेश चंद्रा और केसी कन्नन जैसे लोगों को शामिल किए जाने को भी जानकार उसी रणनीति से जोड़कर देख रहे हैं जिसे गडकरी के जरिए संघ आगे बढ़ाना चाहता है.

फील गुड के दौर में गरीबी

अखबारों और चैनलों पर देश में गरीबी घटने और गरीबों की संख्या में कमी आने की खबरें एक बार फिर सुर्खियों में हैं. गरीबी घटने के योजना आयोग के दावे पर न्यूज मीडिया के बड़े हिस्से खासकर गुलाबी अखबारों/चैनलों में स्वाभाविक तौर पर जश्न का माहौल है. नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की भोंपू बन चुकी फील गुड पत्रकारिता के दौर में इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है. आखिर इन आर्थिक नीतियों की सफलता को साबित करने के लिए देश में गरीबी घटने और गरीबों की संख्या में कमी आने से बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है? फील गुड पत्रकारिता को ऐसी खबरों और रिपोर्टों का बेसब्री से इंतजार रहता है. इनसे माहौल खुशनुमा बनता है. खुशनुमा माहौल बनाना अखबारों/चैनलों की मजबूरी है. क्योंकि नई अर्थव्यवस्था की जान अधिक-से-अधिक उपभोग में है. माना जाता है कि उपभोक्ता अपनी जेब से पैसा तभी निकालता है जब उसे माहौल खुशनुमा दिखाई देता है.

जाहिर है कि उपभोग बढ़ने से  कंपनियों का मुनाफा बढ़ता है. कंपनियों का मुनाफा बढ़ता है तो कॉरपोरेट अखबारों/चैनलों को विज्ञापन मिलता है. इससे उनका भी मुनाफा बढ़ता है. इस तरह फील गुड पत्रकारिता में अधिक-से-अधिक निवेश कारपोरेट मीडिया की मजबूरी और जरूरत दोनों है. आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों में देश में फील गुड पत्रकारिता का न सिर्फ तेजी से विस्तार हुआ है बल्कि वह भारतीय पत्रकारिता की मुख्यधारा बन गई है.  अखबारों/चैनलों में क्रिकेट, सिनेमा, फैशन, सेलिब्रिटी से लेकर पांच सितारा खान-पान, घूमना-फिरना, सजना-संवरना, फिटनेस, शॉपिंग और गैजेट को मिलने वाली जगह बढ़ती जा रही है. अखबारों/चैनलों में इन्हें कवर करने वाले रिपोर्टरों की मांग खासी बढ़ गई है. वहीं कृषि, श्रम, गरीबी-भूख, कुपोषण, माइग्रेशन जैसी बीट या तो खत्म कर दी गई हैं या उन्हें इकट्ठा करके आर्थिक बीट देखने वाले रिपोर्टर को ‘इन्हें भी देख लेना’ के चलताऊ निर्देश के साथ थमा दिया गया है. ऐसे में, हैरानी की बात नहीं कि अखबारों, पत्रिकाओं और चैनलों की सेक्स, फैशन, ट्रैवल, शॉपिंग, प्रॉपर्टी आदि पर सर्वे रिपोर्ट छापने में जितनी दिलचस्पी होती है, उसकी पांच फीसदी भी कृषि, श्रम, गरीबी-भूख पर छापने में नहीं होती है. क्या आपने किसी अखबार, चैनल, पत्रिका में कृषि, गरीबी, भूख, श्रम या माइग्रेशन पर कोई सर्वे या सप्लीमेंट या कवर स्टोरी देखी है? सीएसडीएस के एक सर्वे में यह पाया गया कि अंग्रेजी और हिंदी के छह बड़े अखबारों में ग्रामीण क्षेत्र से जुड़ी खबरों को दो से तीन फीसदी जगह मिलती है. चैनलों का हाल और बुरा है.

एक सर्वे बताता है कि अंग्रेजी और हिंदी के छह बड़े अखबारों में ग्रामीण क्षेत्र की खबरों को दो तीन फीसदी जगह मिलती है. चैनलों का हाल और बुरा है

फील गुड पत्रकारिता के दौर में गरीबी कोई खबर नहीं है. गरीबों और उनके मुद्दों को मीडिया के हाशिये पर भी जगह नहीं मिलती क्योंकि माना जाता है कि उनका जिक्र भी उनके पाठकों या श्रोताओं यानी उपभोक्ताओं के ‘बाईंग मूड’ को डिस्टर्ब या डिप्रेस कर सकता है. विज्ञापनदाता इसे पसंद नहीं करते. कहा जाता है कि गरीबी-भूख, कुपोषण जैसे मुद्दे अप-मार्केट नहीं हैं या वे उनके टीजी (टारगेट ग्रुप) को लक्षित नहीं हैं. लेकिन यह फैसला संपादक नहीं विज्ञापनदाता करते हैं. यही वजह है कि कॉरपोरेट मीडिया में जिस खबर/फीचर/रिपोर्ट का कोई प्रायोजक नहीं है, वह कॉरपोरेट मीडिया के लिए खबर नहीं है.

लेकिन गरीबी और गरीबों के नाम से दूर भागने वाला न्यूज मीडिया गरीबी में कमी की खबर को लेकर बावला हुआ जा रहा है. हालांकि इस विवादास्पद रिपोर्ट पर न्यूज मीडिया में जश्न के बीच कुछ सवाल भी उठे लेकिन उन सवालों को जिस तरह से उठाया गया है उसमें सनसनी ज्यादा है और गंभीरता कम. सनसनी हमेशा बड़े और गंभीर सवालों और मुद्दों को पीछे ढकेल देती है. आश्चर्य नहीं कि गरीबी के आकलन और उससे जुड़े व्यापक मुद्दों को न्यूज मीडिया में 22 और 28 रुपये प्रतिदिन की ग्रामीण और शहरी गरीबी रेखा तक सीमित कर दिया गया है. इससे सारा हंगामा गरीबों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति और उनकी वास्तविक समस्याओं की बजाय गरीबी रेखा पर केंद्रित हो गया है. गरीबी के बारे में योजना आयोग की ताजा रिपोर्ट से पहले पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में उसके हलफनामे पर ऐसी ही सनसनी मची थी. लेकिन वास्तविक मुद्दे और सवाल ज्यों के त्यों बने रहे. अब एक बार फिर गरीबी में कमी की घोषणा को लेकर न्यूज मीडिया में एक ओर जश्न और दूसरी ओर हंगामा मचा हुआ है. उसके शोर के बीच इस मुद्दे पर स्पष्टता कम और भ्रम ज्यादा बढ़ा है.

सच पूछिए तो देश में गरीबी के आकलन के मुद्दे पर न्यूज मीडिया की रिपोर्टिंग की गरीबी साफ़ दिख रही है. अधिकांश अखबारों और चैनलों में ऐसे रिपोर्टर या विश्लेषक नहीं हैं जो गरीबी के मुद्दे को राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संदर्भों में स्पष्ट कर सकें. यह दरिद्रता उनकी रिपोर्टिंग और उनके विश्लेषणों में भी झलकती है. हालांकि इक्का-दुक्का अखबारों या पत्रिकाओं में योजना आयोग के इन दावों पर गंभीर सवाल भी उठे और गरीबी रेखा की राजनीति को बेपर्दा करने की कोशिश हुई. लेकिन मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में फील गुड पत्रकारिता के दबदबे के आगे यह कोशिश नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई है.

सचिन का महाशतक और बाजारवाद का भक्तिकाल

16 मार्च को जब वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी बजट पेश कर चुके थे और टीवी चैनलों पर इस बात की मायूसी दिख रही थी कि उन्होंने आयकर की मानक रियायतें उतनी नहीं बढ़ाईं जितनी बढ़ानी चाहिए थीं या फिर दो फीसदी सर्विस टैक्स जोड़ दिया जिसकी वजह से लोगों के रेस्टोरेंट से लेकर हवाई जहाज के टिकट तक का खर्च कुछ बढ़ जाएगा, तभी दिल्ली से सैकड़ों मील दूर मीरपुर में बांग्लादेश के खिलाफ खेल रहे सचिन तेंदुलकर अपने उस शतक या महाशतक की तरफ बढ़ते नजर आए जिसका बाजार को काफी बेसब्री से इंतजार था. सचिन के 80 रन तक पहुंचते-पहुंचते टीवी चैनलों का मिजाज बदलने लगा था और नीचे पट्टियां चल पड़ी थीं- सचिन अपने सौवें शतक के करीब. पसीना शायद सचिन के माथे पर भी आ रहा होगा क्योंकि उन्हें बाजार की उस अपेक्षा पर खरा उतरना था जिसके करीब पहुंच-पहुंच कर पिछले कई मौकों पर वे आउट हो चुके थे.

आखिरकार यह शतक पूरा हुआ और टीवी चैनल बजट भूल गए- वह लम्हा आ चुका था जिसकी वे साल भर से राह देख रहे थे और जिसके लिए उन्होंने काफी तैयारी कर रखी थी. इन दिनों सचिन जो भी टेस्ट या वनडे खेलते, उसके पहले अखबारों और चैनलों पर यह चर्चा जरूर होती कि सचिन तेंदुलकर अपना सौवां शतक पूरा कर पाएंगे या नहीं. क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया ने ऐसे मौके पर सचिन को भेंट करने के लिए बाकायदा एक ट्रॉफी तैयार करवाई थी जो हर मैच के साथ शहर-दर-शहर घूमती रही- यह अलग बात है कि सचिन वहां शतक नहीं पूरा कर पाए.

इसलिए जब सचिन का शतक पूरा हुआ तो बजट बिल्कुल पीछे छूट गया. खुद को बहुत संजीदा मानने वाले चैनलों ने भी शाम के पहले से निर्धारित बजट कार्यक्रम आधे कर दिए. अगली सुबह अखबारों में भी सचिन तेंदुलकर का शतक बजट पर हावी दिखा- कम से कम हिंदी अखबारों में. कुछ अखबारों ने सचिन और बजट को मिलाने की कोशिश की- ‘बजट सो सो, सचिन के सौ सौ’ या फिर ‘दिल लिया दर्द दिया’ जैसे शीर्षक चिपकाए और उनके साथ तरफ प्रणब मुखर्जी और सचिन तेंदुलकर की तस्वीर लगाई. असली कमाल ‘राजस्थान पत्रिका’ ने किया जिसका पहला पेज उस दिन ताश के पत्तों की तरह दोनों तरफ से छपा. ऊपर सचिन के शतक की खबर छापी गई और फिर उलटी तरफ से बजट की खबर लगाई गई- यानी उसे पढ़ने के लिए पेज को उलटना पड़ता. कुछ अखबारों- जिनमें झारखंड का सबसे संजीदा माना जाने वाला और खुद को सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध बताने वाला ‘प्रभात खबर’ जैसा अखबार भी शामिल है- पहले पन्ने पर सिर्फ सचिन दिखे.

क्या महज डेढ़-दो दशक पहले तक बजट और क्रिकेट को लेकर अखबारों के इस रवैये की कल्पना की जा सकती थी? उस दौर में शायद किसी आम दिन भी सचिन का तथाकथित महाशतक ज्यादा से ज्यादा पहले पेज के निचले हिस्से या फिर किनारे की खबर बनता और अगर वह बजट का दिन होता, तो बेशक, खेल के पन्ने पर धकेल दिया जाता.

यह शून्य उसे खलता नहीं क्योंकि इस पर उस तथाकथित सफलता का मुलम्मा चढ़ा होता है जो उसने पैसेवाला बनकर पाई है

तो इन दशकों में ऐसा क्या बदला है कि बजट जैसी संजीदा चीज पीछे चली गई और सचिन का महाशतक आगे आ गया? क्या हमारा मीडिया ज्यादा व्यावहारिक और सयाना हो गया है जिसने पुरानी बौद्धिकता का लबादा फेंककर व्यावसायिकता की नई जरूरतों का निर्वाह करना शुरू कर दिया है? या फिर आज का समाज कुछ ऐसा हो गया है जिसे बजट से ज्यादा महत्वपूर्ण सचिन तेंदुलकर का शतक लगने लगा है?

असल में यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि इन पंद्रह-बीस वर्षों में भारत में एक ऐसा खाता-पीता और संपन्न समाज पैदा हुआ है जिसे लगातार जश्न मनाने के अवसर चाहिए. आम तौर पर हम उसके आय वर्ग के हिसाब से इस समाज को उच्च मध्यवर्गीय समाज मान लेते हैं, जबकि मध्यवर्ग की जो पारंपरिक पहचान थी उससे यह नितांत भिन्न है. दरअसल वह अपने चरित्र में मध्यवर्गीय नहीं बचा है, उपभोक्तावादी हो चुका है. वह खूब पैसे कमाना चाहता है चाहे जिन माध्यमों से आए और खूब जश्न मनाना चाहता है, चाहे जैसे मनाए. मुश्किल यह है कि अच्छे पैसे कमाने लायक रोजगार या उद्यम को समर्पित और उसे ही अंतिम लक्ष्य मानकर चलने वाली उसकी यह जीवन शैली अपनी निर्मितियों में इतनी थकी और अपने आप से ऊबी हुई होती है कि चाहे शाम की फुरसत हो या शनिवारों-इतवारों की छुट्टी, उसे किसी रोमांच की तलाश होती है जिसमें तत्काल उसका दिल लग जाए. यहां मद्धिम संगीत उसकी मदद नहीं करता, संयत सांस्कृतिक नृत्य उसे तृप्त नहीं करते, क्रिकेट का शास्त्रीय रूप- यानी टेस्ट क्रिकेट उसे नहीं भाता, कोई धीरे-धीरे पढ़ी जा सकने वाली किताब उसे अच्छी नहीं लगती, और इतने लंबे लेख देखकर भी वह डर जाता है, जो इस कॉलम में छपा करते हैं.

यह सांस्कृतिक शून्य उसे खलता नहीं क्योंकि इस पर उस तथाकथित सफलता का मुलम्मा चढ़ा होता है जो उसने पैसेवाला बनकर अर्जित की है. अब इस पैसे से वह अपने जीवन और सांस्कृतिक पर्यावरण की शर्तें तय करने लगता है. यहां अचानक हम पाते हैं कि बाजार भी उसकी मदद के लिए खड़ा है और बाजार में घुसा मीडिया भी. वह नए-नए ‘इवेंट’ बनाता है और उसे उसके नए ‘सोशल स्टेटस’- सामाजिक रुतबे या हैसियत के लिए जरूरी बताता है. यहीं क्रिकेट का आईपीएल संस्करण आता है और अपने साथ भारत बंद का एलान करता हुआ आता है. यहीं अण्णा हजारे का आंदोलन भी उसके लिए एक ‘इवेंट’ हो उठता है जिसे ऑनलाइन सपोर्ट करके वह अपनी खोई हुई सामाजिकता का फिर से आविष्कार करना चाहता है. यहीं उसे अपने लिए ऐसे नायक चाहिए होते हैं जो उसे जीत का भरोसा दिलाएं.

इस वर्ग की बजट में बस इतनी ही दिलचस्पी होती है कि इससे उसका अपना खर्च कितना घटेगा या उसके अपने बिल कितने बढ़ेंगे. ध्यान से देखें तो अगर सचिन की सेंचुरी नहीं होती तब भी मीडिया में जो बजट आता, वह इसी आधार पर अच्छा या बुरा करार दिया जाता कि उसमें इस बनते हुए नौदौलतिया तबके के लिए पैसा बचाने या कमाने की कितनी गुंजाइश है. दरअसल टीवी चैनलों पर दोपहर तक बजट की जो खबर चली वह भी प्रणब मुखर्जी के भाषण के लाइव प्रसारण के बाद लगभग इन्हीं आशयों के आस-पास घूमती रही. दादा का बजट लोगों को रास नहीं आया तो इसलिए कि उनके मुताबिक दादा ने छूट कम दी, टैक्स बढ़ा दिए. कुछ ज्यादा समझदार समीक्षकों का निष्कर्ष था कि प्रणब मुखर्जी अगले बजट के लिए पैसा बचा रहे हैं- 2014 के चुनावों से पहले वे 2013 में ऐसा गुलाबी बजट पेश करेंगे जिसमें राहतें ही राहतें होंगी. दरअसल यह निष्कर्ष भी भारतीय मीडिया और विशेषज्ञता को लगे उस नए रोग की तरफ इशारा करता है जिसका इलाज सिर्फ आशावाद में खोजने का प्रयास होता है- यानी यह बजट गया तो गया, अगला बजट अपना ही होगा.

मुरलीधरन या शेन वॉर्न के विकेट टेस्ट मैचों और वनडे के अलग-अलग गिने जाते हैं. यह सिर्फ सचिन के रिकॉर्ड हैं जिन्हें बाजार जोड़कर दिखाने पर तुला है

सचिन के अरसे तक प्रतीक्षित महाशतक को रूपक की तरह देखें तो इस प्रवृत्ति को ठीक से समझने में मदद मिलती है. सचिन तेंदुलकर निश्चय ही एक महान खिलाड़ी हैं. क्रिकेट के गंभीर जानकार मानते हैं कि डॉन ब्रैडमैन के बाद दुनिया के जो सबसे बड़े बल्लेबाज हुए उनमें सचिन सबसे आगे होने का दावा कर सकते हैं और इस दावे को गिनती के दो-एक खिलाड़ी ही चुनौती दे सकते हैं. लेकिन जो बाजार क्रिकेट को भारत के नौदौलतिया तबके का इवेंट बनाने में जुटा है वह सीधे ब्रैडमैन और तेंदुलकर की तुलना करता है और इस तुलना के लिए तरह-तरह के आंकड़े खोजता और बनाता है. क्रिकेट और कई दूसरे विषयों के जानकार मुकुल केसवन ने हाल ही में बाजार की इस प्रवृत्ति की खिल्ली उड़ाते और कलई खोलते हुए एक दिलचस्प लेख लिखा और याद दिलाया कि टेस्ट मैचों और वनडे के रिकॉर्ड बिल्कुल अलग-अलग होते हैं और किसी दूसरे खिलाड़ी के संदर्भ में उनको मिलाकर याद नहीं किया जाता. यानी मुरलीधरन या शेन वॉर्न के विकेट टेस्ट मैचों और वनडे के अलग-अलग गिने जाते हैं. यह सिर्फ सचिन के रिकॉर्ड हैं जिन्हें बाजार जोड़कर दिखाने पर तुला है ताकि उसे एक नंबर मिले और महाशतक लगाने वाले सचिन को आत्मतुष्ट-आत्ममुग्ध नए भारतीय मानस के महानायक के तौर पर बेचा जा सके.

लेकिन इस नायकत्व में सिर्फ जीत का तत्व होना चाहिए, हार का नहीं. इसलिए बाजार के ही मानकों पर बांग्लादेश के खिलाफ जिस वनडे में सचिन ने सौ शतकों का चरम हासिल किया, उसमें भारत की हार की खबर पीछे चली गई. सचिन के शतक का जश्न इतना बड़ा हो गया कि हार का जख्म भुला दिया गया.

जाहिर है, मीडिया ने न बजट के साथ न्याय किया, न क्रिकेट के साथ. सचिन के साथ भी नहीं, क्योंकि अगर यह मीडिया का दबाव नहीं होता तो सचिन तेंदुलकर शायद यह तथाकथित महाशतक पहले पूरा कर लेते. सचिन ने माना ही कि अचानक यह शतक उनके लिए बहुत भारी पड़ने लगा था और इसी के फौरन बाद उन्होंने भारतीय मीडिया में जीत के नए नायक के तौर पर उछाले जा रहे विराट कोहली को सलाह दी कि वे इनके दबाव में न आएं. इत्तिफाक से इन दिनों मीडिया यह रिकॉर्ड खोजने में जुटा है कि इस छोटी-सी उम्र में विराट कोहली किन-किनको पीछे छोड़कर वाकई विराट हो गए हैं.

बजट की अनदेखी और सचिन के जश्न में फिर एक रूपक खोजने की इच्छा हो रही है. व्यक्तिगत उपलब्धियों का स्तुतिगान, नए देवताओं का निर्माण और उनके लिए रची जा रही प्रार्थनाएं दरअसल अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से भागने और सामूहिक विफलता को ढकने की एक खोखली कोशिश भर हैं. यह बाजारवादी उत्तर आधुनिकता का भक्तिकाल है जिसमें बाजार के भाट और चारण वास्तविक युद्धों में परास्त नायकों की विरुदावलियां रच रहे हैं- वरना जो अवसर भारत की हार पर शोकगीत रचने का होना चाहिए था, उसमें सचिन का जयगान कैसे लिखा जा सकता था? 

नायक, जिसे आप और देखना चाहते हैं : एजेंट विनोद

फिल्म एजेंट विनोद

निर्देशक श्रीराम राघवन

कलाकार सैफ अली खान, करीना कपूर, आदिल हुसैन, जाकिर हुसैन, प्रेम चोपड़ा

एजेंट विनोद कई जगह शिखर पर पहुंचती है. तब, जब एक होटल में चल रही गोलियों के साथ देर तक प्यारा मीठा गाना ‘राब्ता’ चलता है. तब, जब फिल्म आपको बिना बताए, बिना पूछे एक ही सीन में मोरक्को में भी रहती है और श्रीलंका में भी जाती है और आपको बेवकूफ समझने वाली हमारी आम फिल्मों की तरह कोई स्पष्टीकरण नहीं देती. तब, जब विनोद अपने बचपन की उस मसूरी ट्रिप को याद करता है जिसमें वह आठ मिनट तक जिन्दगी और मौत के बीच झूलता रहा था और वे आठ मिनट ऐसे थे कि वह बार-बार जिन्दगी और मौत के बीच की उस जगह लौटना चाहता है. यही उसके पूरे किरदार की परिभाषा है. आपने उसकी ओर बन्दूक तान रखी होगी, तब भी वह आपसे सवाल पूछने की जुर्रत करता है. आप उसे हरा भले ही दें लेकिन डरा नहीं सकते. वह ईमानदार है लेकिन ईमानदारी का ढोल नहीं पीटता. वह सुपरहीरो नहीं है और यहीं वह बहुत सारे महानायकों से अलग है कि वह दुनिया बचाने के किसी मिशन के लिए अपनी जान जोखिम में नहीं डालता. उसे ऊंची इमारतों से कभी फूलों पर और कभी चट्टानों पर कूदना है और मौत की संभावनाओं से कुछ मिनट पहले बीयर पीनी है, मजाक करना है और इन सबसे अगर दुनिया भी बचती है तो और अच्छा है.

यह श्रीराम राघवन की शैली की ही फिल्म है और डायलॉग इसकी जान हैं. सब कुछ मालूम होने के हताश समय में वे एक निडर नायक में भरोसा पैदा कर सकते हैं, यह बहुत बड़ी बात है. यूं तो यह देश और दुनिया को बचाने की परंपरागत फिल्म है, जिसमें जासूसी कम है और एक्शन ज्यादा, लेकिन फिर भी यह कुछ इक्का दुक्का जगहों को छोड़कर राष्ट्रवादी होने से बचती है और मानवता का रक्षक होने का भ्रम रचने से भी. यह करीना कपूर के साथ दो-चार मिनट के लिए उस तरह से भावुक होती है, जैसे राजश्री की या करन जौहर की फिल्में हुआ करती हैं और यहीं फिसलती भी है. लेकिन एजेंट विनोद उसे गिरने से बचा लेते हैं. सैफ का अतीत चाहे जैसा भी रहा हो (और कुछ लोग उनकी ‘आशिक आवारा’ आदि फिल्मों की बात कर उन पर आज भी हंसना चाहते हैं) लेकिन उन्होंने बहुत खूब एक्टिंग की है.

आप एजेंट विनोद की कहानी को तर्क और दुनियादारी की कसौटी पर कसेंगे तो ढेरों गलतियां निकल आ सकती हैं लेकिन यह उस रोमांच की फिल्म है – किसी खतरनाक झूले के रोमांच की – जिसमें आप बहुत अच्छे से जानते हैं कि आप सकुशल उतर जाएंगे. हालांकि फिर भी फिल्म और रोचक, और मनोरंजक, और रहस्यमयी हो सकती थी. स्टाइल में यह अव्वल है लेकिन इसके पीछे.मजबूत कहानी होती तो आप ज्यादा दूर तक इसके साथ रहते. यह आपके सोचने और अनुमान लगाने के लिए कुछ नहीं रखती. लेकिन जब दिल्ली की सड़कों पर और हवा में एजेंट विनोद हम सबको बचाने के लिए अपनी जान को किसी मैले कपड़े की तरह उतारने पर आमादा होता है तो उस पर गर्व होता है. वैसा ही गर्व, जैसा अब सिर्फ कहानियों में ही बचा है या क्रिकेट मैचों में.

– गौरव सोलंकी

 

  

 

 

 

 

 

 

 

 


उम्मीदों का विराट रूप

28 फरवरी को ऑस्ट्रेलिया के होबार्ट में खेला गया एकदिवसीय मैच क्रिकेट इतिहास के उन चुनिंदा मैचों में शामिल हो चुका है जिनकी स्मृति क्रिकेट प्रेमियों के मन में हमेशा रहेगी. खासकर श्रीलंकाई गेंदबाज लसिथ मलिंगा का वह ओवर तो शायद ही कोई भूल पाए  जिसमें उन्होंने एक छक्के और चार चौकों समेत 24 रन लुटवा दिए थे. रनों की यह बरसात इस मैच के महानायक और टीम के नए नायब कप्तान विराट कोहली के बल्ले से हुई. होबार्ट में उनके विराट रूप ने क्रिकेट के अगले कालखंड का महानायक बनने की सारी संभावनाएं दिखाई हैं. श्ृंखला में बने रहने के विकट दबाव के बीच भीमकाय लक्ष्य का पीछा करते हुए उस दिन कोहली को बल्लेबाजी करते देखना एक अद्भुत अनुभव था. विशेषकर डेथ ओवर्स के सबसे खतरनाक गेंदबाजों में शुमार लसिथ मलिंगा पर उनका आक्रमण हैरतखेज था. उस बुरे दिन में मलिंगा ने सिर्फ 7.4 ओवरों में 96 रन लुटाए जो वन-डे में उनका सबसे बुरा प्रदर्शन है. कोहली के 86 गेंदों में जुटाए गए अजेय 133 रन भारतीय क्रिकेट की निधि बन गए.

असल में 23 साल के विराट कोहली खुद पिछले कुछ समय से भारतीय क्रिकेट का सबसे ज्यादा चमकदार हीरा हैं. उनके अंतरराष्ट्रीय करियर का आगाज 2008 में हुआ था, लेकिन क्रिकेट पंडितों की चर्चा उन्हें दो साल बाद मिली जब उन्होंने कर्नाटक के खिलाफ दिल्ली की तरफ से एक रणजी मैच में बकौल तत्कालीन कोच चेतन चौहान ‘सचमुच की विराट जुझारू पारी’ खेली थी. कोटला मैदान में खेले गए इस मैच के दौरान ही जिस दिन कोहली को अपनी पारी 40 रन से आगे बढ़ाने के लिए मैदान पर उतरना था, तड़के तीन बजे उनके पिता प्रेम कोहली का देहांत हो गया. तब सिर्फ 18 साल के कोहली इस खबर से दो पल के लिए एकदम बिखर-से गए थे. चूंकि वे दिल्ली में ही थे, इसलिए साथी खिलाड़ियों ने उन्हें सहारा देते हुए मैदान पर घर को तरजीह देने की सलाह दी. लेकिन कोहली ने जार-जार रोते हुए मैदान का चुनाव किया क्योंकि उनकी टीम पर हार का खतरा मंडरा रहा था. इसके बाद अपने निजी दुख को एकतरफ करते हुए कोहली एकदम नियत समय पर बल्लेबाजी करने उतरे और अपने जुझारू 90 रनों की बदौलत दिल्ली को हार के खतरे से उबार ले गए. दिल्ली टीम के तत्कालीन कप्तान मिथुन मिन्हास ने कोहली की इस पारी के बारे में कहा था, ‘हमने कोहली से कहा कि इस वक्त उसे घर पर होना चाहिए, ऐसा करने पर पूरी टीम उसके साथ है, लेकिन उसने खेलने का फैसला किया. यह प्रतिबद्धता का चरम था. अंतत: उसकी पारी हमारे लिए बेहद अहम साबित हुई.’

यही वह पारी थी जिसके बाद पहली बार कोहली के टेंपरामेंट को लेकर चर्चा हुई. लेकिन इससे भी ज्यादा गौरतलब बात यह है कि इसी पारी के बाद कोहली की तुलना पहली बार सचिन तेंदुलकर से की गई. सचिन ने भी 1999 के वर्ल्ड कप में पिता की मौत के चंद दिन बाद ही मैदान पर वापसी करते हुए शतक बना कर भारत को जीत दिलाई थी. यहां एक दीगर तथ्य यह भी है कि कोहली की उम्र सिर्फ 18 साल थी और उनके पिता की मौत चंद घंटे पहले ही हुई थी.

कोहली अपनी कप्तानी में अंडर-19 वर्ल्ड-कप पहले ही जितवा चुके हैं, इसलिए कप्तानी का जिक्र आने पर उन्हें सिरे से खारिज किया भी नहीं जा सकता

जल्द ही कोहली एक बार फिर चर्चा में थे जब उन्होंने अपनी उम्दा कप्तानी और बल्लेबाजी की बदौलत भारत की अंडर-19 टीम को विश्वविजेता बनाया और उसके बाद राष्ट्रीय टीम में जगह पक्की की. अंतरराष्ट्रीय करियर की शुरुआत के बाद उपलब्धियां और सचिन से तुलना दोनों कोहली के खाते में सिलसिलेवार आती रहीं. हाल में खत्म हुई सीबी सीरीज के बाद भी उन्हें सचिन के सामने रखकर देखा गया. गौरतलब है कि ऑस्ट्रेलिया दौरे पर कोहली भारत की तरफ से सबसे ज्यादा रन बनाने वाले और टीम के इकलौते शतकवीर खिलाड़ी थे.

सचिन तेंदुलकर से कोहली की तुलना के बारे में कोई भी निष्कर्ष निकालने से पहले इसके धरातल को जान लेना जरूरी है. असल में कोहली ने अपने चार साल के छोटे-से करियर में रिकार्ड्स का जो अकूत सरमाया जमा किया है,  तुलना की धारा वहां से निकलती है. करियर की शुरूआती पारियों को पैमाना बनाने पर कोहली रिकाॅर्डों के सबसे बड़े सरमायादार नज़र आते हैं. सीधे तौर पर सचिन से भी बड़े. सीबी सीरीज के खत्म होने तक कोहली ने भारत की तरफ से 82 मैचों की 79 पारियों में 47.54 की उम्दा औसत और 84.88 के धमाकेदार स्ट्राइक रेट के साथ 3233 रन बनाए हैं जिनमें नौ शतक और 20 अर्धशतक शामिल हैं. वहीं सचिन तेंदुलकर ने भी अपने करियर के शुरुआती 82 मैचों में 79 पारियां खेली थीं जिनमें उन्होंने 32.41 के साधारण औसत और 78.48 के कमतर स्ट्राइक रेट की मदद से सिर्फ 2236 रन बनाए थे. इसमें सिर्फ एक शतक और 17 अर्धशतक शामिल थे. सचिन को अपना पहला शतक बनाने में 79 एकदिवसीय मैच खेलने पड़े थे, जबकि इतने ही मैचों में कोहली के पास आठ वन-डे शतक हो चुके थे.

तो क्या यह मान लिया जाए कि कोहली सचिन से बेहतर हैं. एक धुर रिकॉर्डपूजक व्यक्ति भी कम से कम सचिन को लेकर कोहली के संदर्भ में ऐसी सपाट राय व्यक्त करने से बचेगा क्योंकि क्रिकेट को जानने-समझने वाले ज्यादातर लोग इस बात पर एक राय होंगे कि मौजूदा दौर में रिकॉर्डों का अगर कोई बादशाह है तो वह सचिन तेंदुलकर ही हैं. सचिन ने 23 साल मैदान पर गुजारे हैं जितनी कोहली की कुल उम्र है. 460 वनडे और 188 टेस्ट मैच खेले हैं और इसके बाद भी दोनो प्रारूपों में बेहद उम्दा माने जाने वाले औसत से कुल 99 शतक, 150 से ज्यादा अर्धशतक  और 33 हजार से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय रन बनाए हैं. ये भीमकाय रिकॉर्ड क्रिकेट प्रेमी जन-मानस में इस तरह रचे-बसे हैं कि इनका जिक्र करना जरूरी नहीं. लेकिन यह बात समझना जरूरी है कि कोहली को अभी बहुत क्रिकेट खेलना है, जिसमें उन पर अपनी शुरुआती चमक कायम रखने का दबाव होगा. इसके साथ ही उन्हें टेस्ट मैच यानी क्रिकेट के असल संस्करण में भी खुद को साबित करना बाकी है. यहां एक बात समझना जरूरी है कि सचिन जितने बड़े अपने रिकॉर्डों में नजर आते हैं रिकॉर्डों से बाहर उससे कहीं ज्यादा बड़े हैं. अगर तर्कों के आधार पर वे भगवान न भी हों फिर भी सालों तक वे टीम इंडिया की वन मैन आर्मी रहे हैं और करोड़ों उम्मीदों का बोझ अकेले अपने कंधे पर ढोते रहे हैं. सचिन युवा क्रिकेटरों की उस पूरी पीढ़ी की प्रेरणा हैं जिससे कोहली जैसे प्रतिभावान खिलाड़ी निकले हैं. उनसे क्रिकेट तो सीखा जा ही सकता है, शालीनता का सबक भी लिया जा सकता है ताकि भविष्य में युवा खिलाड़ियों को मिडल फिंगर दिखाने का अभद्र कारनामा न करना पड़े. खेल-पत्रकार हेमंत सिंह विराट कोहली की सचिन से तुलना को सिरे से खारिज करते हुए कहते हैं, ‘वास्तव में करियर के अंतिम दौर में खड़े सचिन की किसी भी युवा खिलाड़ी से तुलना करना ही बेमानी है. ये कोहली के साथ भी होगा. उनके सामने पूरा आसमान है. उन्हें फिलहाल बेफिक्री से उड़ने दिया जाना चाहिए.’

एक दूसरी बहस कोहली को उपकप्तान बनाए जाने को लेकर भी शुरू हो गई है. क्रिकेट पंडित इसे लेकर भी दो खेमों में बंटे नजर आ रहे हैं. वसीम अकरम के मुताबिक इससे गंभीर और सहवाग खुश नहीं होंगे और टीम में तनाव उत्पन्न हो सकता है वहीं सौरव गांगुली का मानना है कि टेस्ट कप्तानी में कोहली निश्चित तौर पर धोनी का सही विकल्प हो सकते हैं. असल में यहां कुछ बातें समझ लेना जरूरी है. उपकप्तानी कोहली को ऑस्ट्रेलिया में उनके अच्छे प्रदर्शन के इनाम के बतौर मिली है, जो कोहली सहित अन्य युवा खिलाड़ियों को अच्छे प्रदर्शन के लिए प्रेरित कर सकती है. दूसरी अहम बात यह है कि उपकप्तान बनने का ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि आपका कप्तान बनना तय है. रैना का उदाहरण हमारे सामने है जो कि उपकप्तान, कप्तान जैसी जिम्मेदारियां पाने के बाद आज इन सबकी दौड़ में तो पिछड़ ही चुके हैं टीम में जगह पक्की रखने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं. वनडे में और टी-ट्वेंटी में धोनी आज भी उम्दा प्रदर्शनकारी और बेहतरीन कप्तान हैं, इसलिए उपकप्तान के कप्तान बनने की हाल-फिलहाल संभावना नजर नहीं आती. हालांकि कोहली को उपकप्तान बनाए जाने से वे अपनी भविष्य की भूमिका के लिए अंडर ट्रेनिंग तो हो ही गए. 2015 वर्ल्ड-कप में और इसके बाद में अनुभवी युवा टीम तैयार करने की रणनीति के लिहाज से यह सही कदम ही है, कोहली अपनी कप्तानी में अन्डर-19 वर्ल्ड कप पहले ही जितवा चुके हैं, इसलिए कप्तानी का जिक्र आने पर उन्हें सिरे से खारिज किया भी नहीं जा सकता.

फिलहाल देश विराट कोहली की कप्तानी देखने से ज्यादा लालायित उनकी अच्छी बल्लेबाजी देखने को लेकर है.

सोच के सांचे बदलने का सबक

पिछले कुछ सालों में देश की राजनीति जिस तेजी से बदली है उसने नेताओं से लेकर तमाम राजनीतिक विश्लेषकों तक को चौंका दिया है. जाहिर सी बात है, जनता की रग-रग से वाकिफ होने का दावा करने वाले नेता, समाजशास्त्री और विश्लेषक इस बदलाव को भांपने में पीछे रह गए. सतह के नीचे बहुत कुछ बहुत तेजी से बदल रहा था, लेकिन लोग इसे पकड़ पाने, महसूस कर पाने में असफल रहे. यही कारण है कि आजकल आने वाले चुनाव परिणाम सभी को चौंका देते हैं. जिस पार्टी को बहुमत मिलता है वह भी हैरान रह जाती है क्योंकि उसने भी इस प्रचंड बहुमत की कल्पना नहीं की होती और जिसकी जमानत जब्त हो जाती है वह भी अवाक और हैरान रह जाता है.

हाल के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को ही देखें तो 224 सीटों के साथ भले ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने खुद को सबसे बड़े दल के रूप में स्थापित किया है लेकिन पार्टी के किसी नेता को इतने बड़े बहुमत की उम्मीद नहीं थी. उसी प्रकार कांग्रेस को भी इस बात का जरा भी इल्म नहीं था कि इतना बेआबरू होकर कूचे से निकलना पड़ेगा.

पंजाब में तो 46 साल से चला आ रहा इतिहास ही बदल गया. यहां राज्य बनने के बाद से लेकर अब तक कोई भी सरकार दोबारा सत्ता में नहीं आई थी. यानी जो पार्टी सत्ता में होती थी उसे अगले चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ता था. लेकिन इस बार एक नया इतिहास रचा गया. शिरोमनि अकाली दल (बादल)-भाजपा गठबंधन न सिर्फ दोबारा सत्ता में आने में सफल रहा बल्कि शिरोमनि अकाली दल तो पिछले चुनाव के मुकाबले अपनी सीटें बढ़ाने में भी कामयाब रहा. उसे पिछले चुनाव के मुकाबले सात सीटें अधिक मिलीं. इससे पहले राज्य में आलम यह था कि सत्तासीन पार्टी इस बात के लिए तैयार रहती थी कि अगली बार उसे विपक्ष में बैठना है. खैर, इस ऐतिहासिक क्षण ने सत्ता विरोधी लहर यानी एंटी इनकमबेंसी को इतिहास की बात बना दिया. अब का समय प्रो इनकमबेंसी का है. यानी जो जनता की उम्मीदों पर खरा उतरेगा वह दोबारा सत्ता में आएगा.

एंटी इनकमबेंसी युग के सबसे बड़े उदाहरण रहे पंजाब ने भले ही 46 साल से यहां की राजनीति का स्थायी भाव रही एंटी इनकमबेंसी को प्रो इनकमबेंसी में बदला है लेकिन अन्य राज्यों में एंटी इनकमबेंसी नामक कारक के अप्रभावी होने की शुरुआत बहुत पहले हो चुकी थी. पिछले कुछ समय के चुनाव परिणामों को अगर हम देखें तो देश की बदली राजनीति और जनता के बदले मानस को समझना आसान हो जाएगा. बिहार, हरियाणा, दिल्ली तथा गुजरात जैसे राज्यों से एक नई राजनीति की शुरुआत हुई है. इन राज्यों में सरकारें एंटी इनकमबेंसी को प्रो इनकमबेंसी में बदलते हुए दोबारा चुनकर सत्ता में आईं. अलग-अलग कारणों से यहां की सरकारें भले ही विवादों में रही हों लेकिन लोगों ने उस पर ध्यान न देकर उन सरकारों के विकास और गवर्नेंस पर अपनी मोहर लगाई. अब पूरे देश में उसी विकास और गवर्नेंस की बयार है. चारों तरफ विकास और सुशासन की चर्चा है. जनता के मन में विकास और सुशासन के प्रति इसी आग्रह ने वर्तमान राजनीतिक दलों को अपने चाल, चरित्र, चेहरे, नारे और रणनीति में बदलाव करने पर मजबूर किया. जो बदल गए हैं या बदल रहे हैं वे रेस जीत रहे हैं या रेस में बने हैं. जो नहीं बदला वह अखाड़े में चित पड़ा हुआ है.

बदलाव की इस बयार में सबसे अधिक परिवर्तन उन क्षेत्रीय दलों में आया है जो पिछले कुछ समय तक संकीर्णता के दायरे में जी रहे थे. किसी खास धर्म, पंथ, जाति, मुद्दे या पहचान के आधार पर राजनीति करने वाले इन दलों के राजनीतिक दृष्टिकोण में सबसे अधिक विस्तार आया है. बहुत तेजी से इन क्षेत्रीय दलों ने अपनी राजनीति से समाज के बाकी तबकों को जोड़ने की कोशिश की है या फिर यह कह सकते हैं कि अपनी राजनीति को उन्होंने कुछ इस ढंग से विस्तार दिया है कि उसमें अब अपने परंपरागत आधार के अलावा बाकी के लिए भी स्थान है. इन दलों ने अपने आप को सर्वग्राही बनाते हुए समाज के सभी वर्गों में अपनी स्वीकार्यता बनाने की कोशिश की है. बीते कुछ समय में इन क्षेत्रीय दलों ने जहां अपनी राजनीति करने के तौर-तरीकों में बदलाव लाया है वहीं अपनी क्षेत्रीय पहचान और दृष्टि को राष्ट्रीय तथा सर्वसमावेशी बनाने की कोशिश की है. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जिस तेजी से इन क्षेत्रीय दलों ने खुद को राष्ट्रीय बनाने की शुरुआत की है शायद उस गति से राष्ट्रीय दल अपना क्षेत्रीयकरण नहीं कर पाए हैं.
विभिन्न राज्यों के चुनाव परिणामों ने साबित किया है कि जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत हैं वहां जनता की नब्ज पर जिस तरह की पकड़ उनकी है उससे राष्ट्रीय दल बहुत दूर हैं. यही कारण है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में राष्ट्रीय दलों की स्थिति इतनी दयनीय है. इन राज्यों में जनता ने पिछले सालों में क्षेत्रीय दलों पर अपना विश्वास दिखाते हुए राष्ट्रीय दलों को लगातार नकारा है. उत्तर प्रदेश का चुनाव परिणाम इसका ताजा उदाहरण है.

क्षेत्रीय दलों में खुद को समाज के सभी वर्गों से जोड़ने की जो बेचैनी दिखाई दे रही है उसके पीछे बड़ा कारण उनके भीतर अपने जनाधार का विस्तार करने की इच्छा है. चाहे उत्तर प्रदेश हो या बिहार या फिर पंजाब. अभी तक स्थिति यह थी कि पार्टियां अपने सीमित वोट बैंक को ही लेकर आगे चलती थीं. उनके सीमित लेकिन समर्पित वोटर थे. इससे बड़ी समस्या इन दलों को यह हुई कि ये कभी भी अपने दम पर सरकार बनाने में सफल नहीं हो पाए, इन्हें हमेशा दूसरे दलों या अधिकांश परिस्थितियों में राष्ट्रीय दलों का सहयोग लेना पड़ता था.

समय की मांग है कि राजनीतिक दल चाल, चरित्र, चेहरे, नारे और रणनीति बदलें. जो बदल गए हैं वे रेस जीत रहे हैं या रेस में बने हैं. जो नहीं बदला वह चित पड़ा है

उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने सिर्फ दलितों की राजनीति की. दलित आंदोलन से उपजी इस पार्टी ने न सिर्फ दलित हितों की बात की वरन दलितों के मन में इस बात को अच्छी तरह बैठा दिया कि वही उनकी एकमात्र हितैषी पार्टी है. अगर वे सुखी, सुरक्षित तथा सवर्णों के अत्याचार से मुक्त रहते हुए एक सम्मानजनक जीवन जीना चाहते हैं तो उन्हें उसका साथ देना होगा.

सदियों से सवर्णों के हाथों प्रताड़ित दलित बड़ी संख्या में बसपा के साथ जुड़े. सवर्णों को ललकारने एवं गरियाने की बसपा की रणनीति ने उसे दलितों के हृदय में स्थापित कर दिया. लेकिन दलितों के इस अपार और स्थायी समर्थन के बावजूद भी पार्टी कभी अपने दम पर सत्ता में आने में सफल नहीं हो पाई. हर बार उसे किसी न किसी दल से गठबंधन करना पड़ता. यही कारण है कि पार्टी ने अपनी रणनीति बदली. उसने सोचा कि अगर अपने दम पर यूपी में सत्ता में आना है तो उसे दलितों के साथ ही अन्य वर्गों का समर्थन भी प्राप्त करना होगा. इसी के तहत पार्टी ने दूसरी जातियों को लुभाना शुरू किया. उसने बहुजन की जगह सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का नारा दिया. जो पार्टी ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ सरीखे नारे दिया करती थी उसका नारा बदल गया. अब वह ‘पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा’ सरीखे जुमलों का सहारा लेती दिखने लगी. पार्टी ने चुनावों में न सिर्फ बड़ी संख्या में सवर्णों को टिकट दिया बल्कि बड़ी संख्या में उन्हें मंत्री भी बनाया. पार्टी ने दूसरे वर्गों को अपनी राजनीतिक मजबूरी के चलते खुद से जोड़ने को सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया.

उत्तर प्रदेश में बहुमत से दूर रहने की जिस समस्या के कारण बसपा ने दूसरे वर्गों को खुद से जोड़ने की शुरुआत की, ठीक उसी प्रकार की समस्या से पीड़ित रहने के कारण पंजाब में भी शिरोमनि अकाली दल (बादल) ने हिंदुओं और शहरी मतदाताओं की तरफ अपना हाथ बढ़ाया. भारत की दूसरी सबसे पुरानी पार्टी (1920 में स्थापना) होने का गौरव होने के बावजूद  सिख पार्टी (विशेष रुप से जाट सिख) तथा किसानों की पार्टी के रूप में ही उसकी पहचान रही. यही कारण है कि आंदोलन से उपजी इस पार्टी के लिए अपने दम पर राज्य में सरकार बनाना हमेशा मुश्किल रहा है. इसी को देखते हुए उसने भाजपा से हाथ मिलाया. भाजपा को हिंदुओं और शहरी मतदाताओं का वोट मिल जाता और शिरोमनि अकाली दल के पास अपना एक वोट बैंक था ही. दोनों मिलकर सरकार बना लेते. लेकिन पिछले सालों में पार्टी की कमान धीरे-धीरे जूनियर बादल अर्थात सुखबीर बादल के हाथों में आ गई है. अब सुखबीर की तैयारी शिरोमणी अकाली दल को अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में लाने की थी. यही कारण है कि इस बार पार्टी ने 11 हिंदुओं को टिकट दिया. पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्रों, घोषणाओं तथा बयानों से बार-बार शहरी मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की. शहरी मतदाताओं को ध्यान में रखकर उसने चुनाव में तमाम वादे किए. इस तरह हिंदू और शहरी मतदाताओं को पार्टी से जोड़ने के लिए पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग जारी है. वैसे इसके नतीजे भी दिखाई देने लगे हैं. जिन 11 हिंदुओं को पार्टी ने टिकट दिया था उसमें से 10 जीत कर आ गए हैं साथ में ही शहरी क्षेत्र में पार्टी को पूर्व के चुनावों की तुलना में बहुत अधिक समर्थन मिला है. इसी सोशल इंजीनियरिंग का कमाल है कि पार्टी पिछले चुनावों से सात सीटें अधिक जीतने में सफल रही है और अपने दम पर सरकार बनाने से केवल तीन सीट दूर है. यह संभव है कि अगले चुनाव में पार्टी इस कमी को भी पूरा कर ले और उसे बीजेपी की बैसाखी की जरूरत पड़े ही नहीं.

चुनावी वैतरणी अपने दम पर पार करने के लिए वोट बैंक में इजाफा करने की रणनीति पर काम करने के साथ ही हम देखते हैं कि यूपी में समाजवादी पार्टी हो, बिहार में जेडीयू या फिर पंजाब में शिरोमनि अकाली दल, इन दलों ने पिछले कुछ सालों में अपनी राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं.

शिरोमनि अकाली दल सिख आंदोलन की उपज है. इसके लिए सिख पंथ की रक्षा हमेशा से चुनावी मुद्दा रहा है. इतिहास में पार्टी ने इसी पहचान के आधार पर चुनाव लड़ा. लगभग एक धार्मिक दल के रूप में राजनीति करने वाले इस दल की राजनीति में पिछले कुछ सालों में बहुत तेजी से बदलाव आया. जानकार मानते हैं कि पहले यह पार्टी हर चुनाव में धार्मिक एवं भावनात्मक मुद्दों को उठाने के लिए जानी जाती थी लेकिन अब ऐसा नहीं है. पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर आशुतोष कुमार कहते हैं, ‘अकाली दल जो पिछले सालों में लगभग हर चुनाव में पंथिक मामलों को उठाता था, लोगों के बीच 1984 में सिखों के कत्लेआम का मुद्दा जोर-शोर से उठाकर कांग्रेस को घेरता था, उसने अब इन मुद्दों से काफी हद तक दूरी बना ली है.’ 2012 के विधानसभा चुनाव ने अकाली दल की राजनीति में आए क्रांतिकारी बदलाव से लोगों को परिचित कराया.

इस बार पार्टी ने किसी प्रकार की भावनात्मक या पंथ से जुड़ी राजनीति करने की कोशिश नहीं की, जबकि पहले चुनावों में भावनात्मक मुद्दों के आधार पर ही वह चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश करती थी. यहां तक कि कई बार 84 के दंगों में मारे गए लोगों के परिवार वालों को सामने लाकर यह कहते हुए कि इन लोगों को आज तक न्याय नहीं मिला, पार्टी पुराने जख्मों के सहारे राजनीतिक युद्ध में अपना कद बढ़ाने की कोशिश करती थी. अभी तक सिखों में भी जाट सिखों की ही पार्टी समझे जाने वाले शिरोमनि अकाली दल ने राज्य में अन्य तबकों से खुद से जुड़ने की शुरुआत की है.
वोट बेस में इजाफा करने और अन्य वर्गों को पार्टी से जोड़ने के साथ ही पार्टी ने बदलती राजनीति के तौर-तरीकों से भी खुद को अपडेट कर लिया. पार्टी ने विकास और सुशासन को अपना नारा बनाया. इस बार का चुनाव पार्टी ने विकास और सुशासन के इसी मुद्दे पर लड़ा. यहां तक अपनी सरकार के दौरान भी पार्टी ने ऐसी तमाम योजनाएं शुरु कीं जिन्होंने राज्य के हाशिये पर खड़े अंतिम व्यक्ति को न सिर्फ प्रभावित किया बल्कि उसे पार्टी से जोड़ा भी. आटा-दाल जैसी स्कीम ने राज्य के लगभग 17 लाख गरीबों को दो जून की रोटी दिलाई.

इसी तरह साइकिल बांटने से लेकर शगुन (शादी के लिए दिए जाने वाले पैसे) तथा बाकी तमाम कल्याणकारी स्कीमों ने पार्टी को दुबारा सत्ता दिलाने में अहम भूमिका निभाई है. चुनाव अभियान में विकास और सुशासन के अलावा पार्टी ने चुनाव घोषणापत्र में भी तमाम तरह की कल्याणकारी योजनाएं शुरू करने या फिर उनका विस्तार करने की बात की. पूरे चुनाव में पार्टी ने पहचान की राजनीति को हाशिये पर रखते हुए विकास की राजनीति को अपना नया नारा बनाया. जानकारों का कहना है कि इस बार शिरोमनि अकाली दल का चुनावी घोषणापत्र जितना लोकलुभावन था उतना शायद ही कभी रहा हो. लैपटॉप बांटने, किसानों को फ्री में बिजली देने, पेंशन देने, बेरोजगारी भत्ता देने, विभिन्न चीजों पर मिलने वाली रियायतों को और बढ़ाने के अलावा पार्टी ने इस बार राज्य का सर्वांगीण विकास करने जैसे वादों को तरजीह दी.

ऐसा ही उदाहरण हमें यूपी के चुनाव में देखने को मिलता है. समाजवादी पार्टी जो पिछले चुनाव में कंप्यूटर और अंग्रेजी का विरोध कर रही थी वह इस चुनाव में जीतने पर 12वीं पास छात्रों को लैपटॉप बांटने का वादा करती नजर आई. यही नहीं जिस पार्टी की छवि पिछले कुछ समय में गुंडों और बदमाशों की शरणस्थली के रूप में बन गई थी वही पार्टी प्रदेश को साफ-सुथरा, भयमुक्त और गुंडागर्दी मुक्त शासन देने का वादा कर रही थी. पूरे चुनाव अभियान में सपा विकास और सुशासन की बात करती नजर आई.

इस चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में सपा की तरफ से एक और बड़ा बदलाव टिकट बंटवारे में देखने को मिला. अखिलेश यादव के नेतृत्व में पार्टी ने कई ऐसे लोगों को टिकट दिया जो पारंपरिक रूप से न तो किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि से थे और न उनका धनबल या बाहुबल से कोई लेना-देना था.

कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो विभिन्न क्षेत्रीय दलों ने अपने संगठन, कार्यक्रम और विचारधारा के स्तर पर कई क्रांतिकारी बदलाव किए हैं. वे न सिर्फ अपनी सोच तथा राजनीतिक कार्यक्रमों को समावेशी बनाने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि उसमें कामयाब भी हो रहे हैं. संदेश साफ है कि जब तक आप खुद को समाज के हर तबके से नहीं जोड़ते और बदलते समय के साथ जनता के बदलते मानस के हिसाब से तैयारी नहीं करते, तब तक आपकी नैय्या पार लगना मुश्किल है.

रपटीली राह

कांग्रेस नतीजों से सबक नहीं लेती, यह उत्तराखंड में नए मुख्यमंत्री के मनोनयन और  शपथ ग्रहण समारोह ने दिखा दिया. यही वजह रही कि मुख्यमंत्री के रूप में विजय बहुगुणा के नाम की घोषणा से लेकर उनके शपथ ग्रहण तक परिदृश्य पल-पल बदलता रहा. दिल्ली में आलाकमान के आशीर्वाद के बाद बहुगुणा को 13 मार्च को11 बजे देहरादून के जौली-ग्राउंड हवाई अड्डे पर उतरना था. इसके बाद शाम को उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेनी थी. लेकिन तब तक दिल्ली से केंद्रीय मंत्री  हरीश रावत और उनके साथी विधायकों के विरोध की खबरें उड़ने लगीं. विजय बहुगुणा के देहरादून उतरने के बाद आने वाली हर खबर पहली खबर से जुदा होती. कभी खबर आती कि शपथ ग्रहण समारोह टलने जा रहा है तो कभी यह कि पद के लिए अपनी दावेदारी ठुकराए जाने से नाराज हरीश रावत अपनी अलग पार्टी बना सकते हैं. काफी उथल-पुथल के बीच आखिरकार टिहरी से सांसद बहुगुणा ने 13 मार्च की शाम पांच बजे  मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली. शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस के 32 विधायकों और उसे समर्थन देने वाले सात यानी कुल 39 विधायकों में से केवल 10-11 विधायक ही शामिल थे. राज्य के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले बहुगुणा उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के पुत्र हैं. उत्तर प्रदेश की कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी उनकी बहन हैं और सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी उनके ममेरे भाई.

इससे पहले सबसे बड़ा दल होने के बाद भी उत्तराखंड के कांग्रेसियों की होली भागदौड़ और आपसी खींचतान में गुजरी. चुनावी नतीजे  के छह दिन बाद 12 मार्च की शाम को कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व सांसद विजय बहुगुणा को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में मनोनीत कर पाया. लेकिन इतनी लंबी जद्दोजहद के बाद भी कांग्रेस हाईकमान संभवतया दूसरे खेमों को संतुष्ट नहीं कर पाया. नतीजा यह था कि एक तरफ मनोनीत मुख्यमंत्री शपथ लेने के लिए दिल्ली से देहरादून उड़ने वाले थे और दूसरी ओर  दिल्ली में केंद्रीय  राज्य मंत्री और मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदार  हरीश रावत अपना इस्तीफा प्रधानमंत्री को भेज रहे थे. उनका आरोप था कि पार्टी कार्यकर्ताओं की भावनाओं का निरादर हुआ है. शपथ ग्रहण समारोह तक  रावत के साथ 32 में से 18 विधायक बताए जा रहे थे. इन परिस्थितियों में शपथ ग्रहण के बाद भी बहुगुणा सदन में बहुमत साबित कर पाएंगे, कहना मुश्किल है.

राज्य बनने के बाद अब तक हुए तीन विधानसभा चुनावों में पहली बार इतना खंडित जनादेश आया था. कांग्रेस और भाजपा के बीच महज एक सीट का फर्क था. दोनों ही राष्ट्रीय दल साधारण बहुमत के पास पहुंच कर भी बहुत दूर थे और बहुमत के लिए उन्हें निर्दलीयों और बसपा के समर्थन की दरकार थी. जानकारों के मुताबिक इस छितरे जनादेश के लिए कांग्रेस और भाजपा में मुख्यमंत्री के दावेदार स्थानीय क्षत्रप जिम्मेदार रहे जिनकी महत्वाकांक्षाओं ने उत्तराखंड को अजीब-सी राजनीतिक अनिश्चितता में धकेल दिया है.

वैसे विधानसभा की 70 सीटों में से 63 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवारों को जिता कर उत्तराखंड के मतदाताओं ने स्पष्ट किया है कि कई मुद्दों पर मोहभंग के बावजूद अब तक उनकी पहली पसंद राष्ट्रीय दल ही हैं. लेकिन दोनों ही बड़े दलों में से एक भी चुनाव तक अनिश्चित-से दिख रहे मतदाताओं के मूड को सरकार बनाने लायक सामान्य बहुमत में नहीं बदल पाए. ‘खंडूड़ी हैं जरूरी’ नारे के नायक भुवन चन्द्र खंडूड़ी भले ही अपना चुनाव हार गए, लेकिन कुछ महीने पहले पतली हालत में दिख रही भाजपा उनके नेतृत्व में कयासों से काफी अधिक 31 विधानसभा सीटें जीतने में कामयाब रही. उधर, 70 सदस्यीय विधानसभा में 32 सीटें जीतकर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में तो उभरी, लेकिन यह संख्या भी सामान्य बहुमत की जादुई संख्या से चार कम थी. पिछली विधानसभा में आठ सीटों वाली बसपा भी अब केवल हरिद्वार जिले में जीती तीन सीटों पर सिमट गई है. मतदान तक ताकतवर लग रहे एक दर्जन निर्दलीयों में से भी तीन ही जीतकर विधानसभा पहुंचे. एक सीट क्षेत्रीय पार्टी उक्रांद के पंवार धड़े के खाते में गई थी.

लेकिन कुल सात की संख्या वाले बसपाई, निर्दलीय और उक्रांद विधायकों ने कांग्रेस के स्थानीय क्षत्रपों से लेकर केंद्रीय नेतृत्व तक को घुटनों के बल खड़ा कर दिया. तीनों निर्दलीय विधायक हल्की ना-नुकर के बाद कांग्रेस को समर्थन देने को तो राजी थे लेकिन कुछ शर्तों के साथ. ये तीनों विधायक पहले कभी न कभी कांग्रेसी ही थे. कांग्रेस के बागी और निर्दलीय लड़कर जीते मंत्री प्रसाद नैथानी की मुख्यमंत्री पद पर पहली पसंद सतपाल महाराज  या उनकी पत्नी अमृता रावत थीं तो बुजुर्ग विधायक हरीश दुर्गापाल, पूर्व मंत्री इंदिरा हृदयेश को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते थे. तीसरे निर्दलीय विधायक दिनेश धनै, सांसद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री के रुप में देखना चाहते थे. उक्रांद विधायक प्रीतम पंवार की पहली पसंद  हरीश रावत थे. ये सभी विधायक मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी पसंद बताने के अलावा किसी न किसी बड़े नेता को मुख्यमंत्री के रूप में नहीं देखने की शर्त भी थोप रहे थे.

इस बार भी 2002 वाला इतिहास दोहराया गया जब विजय बहुगुणा और सतपाल महाराज खेमों के विरोध के बाद हरीश रावत मुख्यमंत्री नहीं बन पाए थे

नौ मार्च को कांग्रेसी नेताओं ने  राज्यपाल के सामने अपने विधायकों, तीन निर्दलीयों और एक उक्रांद विधायक की परेड करवाते हुए सामान्य बहुमत का प्रदर्शन किया. अब झगड़ा मुख्यमंत्री पद के लिए था. 10 मार्च को कांग्रेस के महामंत्री गुलाम नबी आजाद विधायकों की राय जानने के लिए देहरादून आए. विधायक अपने बीच में से मुख्यमंत्री चुने जाने के लिए एकमत थे. विधायकों के अनुसार उन्हें भी यह समझाया गया कि पार्टी सांसदों में से मुख्यमंत्री चुनने की हालत में नहीं है. लेकिन सांसद  हरीश रावत, विजय बहुगुणा और सतपाल महाराज मुख्यमंत्री पद पर अपनी दावेदारी आसानी से छोड़ने को राजी नहीं थे. उसी दिन सभी खेमों के विधायक और नेता दिल्ली उड़ चले.

विधायकों के दिल्ली पहुंचने पर यह मान लिया गया था कि राज्य की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में कांग्रेस उपचुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठाएगी. इसलिए दो दिन तक चले नाटकीय घटनाक्रमों में मुख्यमंत्री पद के लिए कभी प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य का नाम उछलता तो कभी इंदिरा हृदयेश, प्रीतम सिंह चौहान, सुरेंद्र सिंह नेगी या हरक सिंह का. सूत्रों के मुताबिक हरीश रावत समर्थक युवा प्रीतम सिंह एक बार सर्वमान्य तो हो रहे थे लेकिन उन पर बात नहीं बनी. 11 मार्च को  हरीश रावत हरिद्वार आए और अपने साथ बसपा के तीन विधायकों को दिल्ली ले उड़े. बसपा ने भी कांग्रेस को समर्थन देना स्वीकार लिया. अब कांग्रेस के पास सामान्य बहुमत के लिए जरूरी संख्या यानी 36 से तीन अधिक विधायक जुट गए थे. बसपा के तीन विधायकों का समर्थन पाने के साथ  हरीश रावत ने मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी तेज कर दी. लेकिन बाकी खेमे उनके विरोध में थे. 12 मार्च को सुबह से 10 जनपथ पर कई दौर की वार्ता चली. सूत्र बताते हैं कि आलाकमान हरीश रावत खेमे का विद्रोही रुख बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था. ऐसे में उसी दिन हमेशा एक-दूसरे के विरोधी रहे सतपाल महाराज और विजय बहुगुणा खेमे ने आपस में हाथ मिला लिए और कांग्रेस महासचिव गुलाम नबी आजाद ने मुख्यमंत्री के रूप में बहुगुणा के नाम की घोषणा कर दी.

इस बार कांग्रेस के टिकट पर जीते विधायकों में से ज्यादातर मुख्यमंत्री पद के लिए  हरीश रावत या उनकी पसंद के साथ थे.  लेकिन इस बार भी वर्ष 2002 का इतिहास दोहराया गया. तब भी विजय बहुगुणा और सतपाल महाराज खेमों के विरोध के बाद रावत मुख्यमंत्री पद पाने मंे नाकामयाब रहे थे.

2009 के लोकसभा चुनावों में राज्य की पांचों सीटें कांग्रेेस को जिताने वाले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य ने विधानसभा चुनावों में प्रदेश कांग्रेस का नेतृत्व किया था. जानकारों के मुताबिक दिल्ली की लॉबिंग में यह कमजोर दलित नेता आलाकमान के पैमानों पर फिट नहीं बैठा. हरक सिंह रावत पांच साल तक नेता प्रतिपक्ष के रूप में सड़क से लेकर विधानसभा में संघर्ष करते रहे, लेकिन उनकी आक्रामकता भी मुख्यमंत्री बनने की उनकी कामना को पूरा नहीं कर पाई. गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज खुद या अपनी पत्नी अमृता रावत को मुख्यमंत्री देखना चाहते थे, लेकिन उन्हें भी किसी और खेमे का समर्थन नहीं मिल पाया. सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री बनने और बनाने के खेल में दो मौकों पर महाराज और  हरीश रावत की तीखी नोक-झोंक हुई. इन सारी स्थितियों का फायदा बहुगुणा ने उठाया जिनके पास अपेक्षाकृत कम संख्या में विधायक थे. उन्हें कांग्रेस के पर्यवेक्षकों की सिफारिश का फायदा मिला.

अब देखना दिलचस्प होगा कि अपने जमाने में राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले एचएन बहुगुणा के पुत्र विजय बहुगुणा किस हुनर से बहुमत साबित करते हैं. 10-11 विधायकों के समर्थन के साथ फिलहाल तो उनकी राह मुश्किल दिखती है.

लाचार सरकार

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी के रवैये से परेशान कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश के चुनावों से काफी उम्मीदें लगा रखी थीं. लेकिन देश के सबसे बड़े प्रदेश के चुनावी नतीजों ने देश की सबसे पुरानी पार्टी और केंद्र सरकार के लिए सबसे मुश्किल वाले दिनों की शुरुआत कर दी है. जब नतीजे आए तो देश की राजनीति को जानने-समझने वाले कई लोगों की पहली प्रतिक्रिया थी कि अब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन वाली केंद्र सरकार महीनों और सालों की बजाय हफ्तों के हिसाब से चलने वाली बन गई है. हर तरफ मनमोहन सिंह की सरकार की उम्र को लेकर सवाल उठाए जाने लगे. हालत यह हो गई कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को बाहर आकर यह कहना पड़ा कि संप्रग को कोई खतरा नहीं है. इसके बाद कांग्रेस नेता जयंती नटराजन ने भी सोनिया की हां में हां मिलाते हुए यही बात दोहराई.

हालांकि, कांग्रेस प्रमुख और अन्य कांग्रेसी नेता जो कह रहे हैं उसे सच्चाई से मुंह छिपाने के तौर पर देखा जा रहा है क्योंकि अगर सब कुछ ठीक होता तो सोनिया गांधी के बयान के अगले ही दिन केंद्रीय रेल मंत्री और तृणमूल के प्रमुख नेता दिनेश त्रिवेदी इंडियन एक्सप्रेस को यह नहीं कहते कि वे चाहते हैं कि लोकसभा चुनाव जल्दी हो जाएं क्योंकि ऐसा होने पर तृणमूल की सीटों में बढ़ोतरी होगी. बाद में जब कांग्रेस की तरफ से हो-हल्ला मचा तो त्रिवेदी ने यह कहकर सुलगती चिंगारी पर थोड़ी-सी राख डालने की कोशिश की कि यह उनकी निजी राय है. मगर उनके मंत्रालय के अधिकारियों का मानना है कि त्रिवेदी ऐसे नेता नहीं हैं जो सोचे-समझे बिना ऐसा बयान दे दें. कुछ ही दिन पहले राहुल गांधी से मिलने उनके घर चले जाने की वजह से त्रिवेदी को ममता के गुस्से का शिकार होना पड़ा था. रेल मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि इस घटना के बाद तो इस बात की संभावना और भी कम हो जाती है कि त्रिवेदी इतना बड़ा बयान बगैर ममता की हरी झंडी के दे दें. इनका कहना है कि मंत्रालय में त्रिवेदी की पहचान ‘दस्तखत मंत्री’ की है और यह इसलिए बनी है कि उन्हें फैसले की मंजूरी कोलकाता से लेनी होती है.

इसका मतलब यह निकलता है कि आने वाले दिनों में तृणमूल का रवैया आक्रामक रहेगा और ऐसे में केंद्र सरकार के लिए कोई भी बड़ा फैसला लेना आसान नहीं होगा. तृणमूल के अलावा और भी क्षेत्रीय पार्टियां हैं जो लोकसभा चुनावों के लिए 2014 तक का इंतजार नहीं करना चाहती हैं. इनमें जयललिता की एआईएडीएमके, प्रकाश सिंह बादल की शिरोमणि अकाली दल और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी शामिल हैं. ये सभी अपने-अपने राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिली सफलता से उत्साहित हैं और इन्हें उम्मीद है कि यदि लोकसभा चुनाव जल्दी होते हैं तो इनकी सीटें बढ़ेंगी.

भाजपा की ओर से लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने चुनाव परिणाम के दिन ही यह संकेत दिया था कि देश में आम चुनाव हो सकते हैं. लेकिन पार्टी सूत्रों की मानें तो जल्दी चुनाव के मसले पर भाजपा दो धड़ों में बंटी है. एक धड़ा वह है जो लालकृष्ण आडवाणी के साथ है. ये लोग और खुद आडवाणी भी चाहते हैं कि जल्दी चुनाव हो जाएं. अगर चुनाव जल्दी होते हैं तो आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने का अपना सपना पूरा करने का एक मौका और मिल सकता है. वहीं एक दूसरा धड़ा ऐसा नहीं चाहता है. इसे लगता है कि संप्रग की सरकार जितने दिन और चलेगी उतनी ही ज्यादा इसकी फजीहत होने वाली है. इसके बाद जो चुनाव होंगे उनमें भाजपा और उसके घटक दलों को कहीं अधिक फायदा मिलेगा.

अब मनमोहन सिंह सरकार का भविष्य पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस का राजनीतिक प्रबंधन कैसा रहता है

कांग्रेस और संप्रग सरकार की मुश्किलें कम होती इसलिए भी नहीं लग रही हैं कि तमाम क्षेत्रीय पार्टियां एक नया राजनीतिक विकल्प खड़ा करने की कोशिश में जुट गई हैं. इसके केंद्र में उड़ीसा के मुख्यमंत्री और बीजू जनता दल के प्रमुख नवीन पटनायक हैं. वे अभी न संप्रग में हैं और न ही भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में. उनका साथ आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और तेलगूदेशम पार्टी के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू दे रहे हैं. इस कोशिश को ममता बनर्जी और जयललिता का साथ तो मिल ही रहा है, खबर यह भी है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख व केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार भी इस नए विकल्प को खड़ा करने में गुपचुप सहयोग दे रहे हैं. उत्तर प्रदेश के चुनावों में बेहद मजबूती के साथ उभरे मुलायम सिंह यादव और पंजाब में दोबारा जीतकर वापस सत्ता में लौटे प्रकाश सिंह बादल को भी इससे जोड़ने की कोशिश चल रही है. ममता को शपथ ग्रहण समारोह के लिए बादल और मुलायम द्वारा भेजे गए निमंत्रण को नए राजनीतिक समीकरणों से जोड़कर देखा जा रहा है.

हालांकि, कहा जा रहा है कि नीतीश, बादल और पवार जैसे लोग चुनाव से पहले ऐसे किसी विकल्प में खुले तौर पर शामिल होने से बचेंगे लेकिन चुनाव बाद ये पास आ सकते हैं. इस विकल्प की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें प्रधानमंत्री पद के कई दावेदार हैं और कांग्रेस यह सोचकर संतुष्ट हो सकती है कि यही टकराव नए विकल्प के बिखराव की वजह बन सकता है.

नीतियों के स्तर पर बड़े फेरबदल की तैयारी मनमोहन सिंह यह सोचकर कर रहे थे कि उत्तर प्रदेश चुनावों के बाद राज्य में कांग्रेस के समर्थन से समाजवादी पार्टी की सरकार बनेगी जो केंद्र में उन्हें तृणमूल की धमकियों से मुक्ति दिलाएगी. इसी आत्मविश्वास में प्रधानमंत्री ने यह भी कहा था कि चुनावों के बाद वे फिर खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को मंजूरी दिलाने की कोशिश करेंगे. लेकिन नतीजों ने प्रधानमंत्री के मंसूबे पर पानी फेर दिया.

अब केंद्र सरकार को दिए जा रहे मुलायम सिंह के समर्थन को हल्के में नहीं लिया जा सकता है, इसलिए तृणमूल पर केंद्र सरकार की निर्भरता और बढ़ गई है.  हालांकि, लालू प्रसाद यादव की बेटी की शादी के मौके पर सोनिया और मुलायम की मौजूदगी को कई जानकार कांग्रेस द्वारा सपा को और करीब लाने की कोशिश के तौर पर देख रहे हैं.

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘नीतियों के स्तर पर जो ठहराव इस सरकार में आ गया है उसे तोड़ना अब मनमोहन सिंह के लिए बहुत मुश्किल है क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियों को मिली मजबूती से साफ है कि वे राष्ट्रीय पार्टियों के साथ अपनी शर्तों पर काम करेंगी.’ वरिष्ठ पत्रकार और गठबंधन राजनीति पर चर्चित किताब ‘डिवाइडेड वी स्टैंड’ लिखने वाले परंजय गुहा ठाकुरता कहते हैं, ‘अब कई उन नीतियों पर भी क्षेत्रीय दल अड़ंगा लगाएंगे जिनको लेकर ऊपरी तौर पर एक सहमति दिख रही थी. इन दलों को यह पता है कि केंद्र सरकार की जितनी अधिक फजीहत होगी चुनावों में उन्हें उतना अधिक फायदा होगा. लोकसभा और राज्यसभा में कांग्रेस की कमजोर स्थिति का फायदा ये दल हर मोड़ पर उठाने की कोशिश करेंगे.’

क्षेत्रीय पार्टियों के आक्रामक रवैये के बीच जब भी मनमोहन सिंह सरकार किसी महत्वपूर्ण विधेयक को संसद से पारित करवाना चाहेगी तो उसे विपक्ष का साथ अनिवार्य तौर पर चाहिए होगा. जिस दिन चुनावी नतीजे आ रहे थे उसी दिन राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने कह दिया था कि अब संप्रग सरकार विपक्ष के सहयोग के बिना न तो राष्ट्रपति का चुनाव करा सकती है और न ही कोई बड़ा नीतिगत फैसला ले सकती है. संसद के बजट सत्र में ही महत्वपूर्ण 30 विधेयक आने हैं. अभी के सियासी समीकरण में अब विपक्ष के पास यह ताकत आ गई है कि वह किस विधेयक को आगे बढ़ने दे और किसे रोक दे. खाद्य सुरक्षा, लोकपाल और जमीन अधिग्रहण समेत कई ऐसे विधेयक हैं जिन्हें पारित करवाकर कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव की अपनी तैयारियों को मजबूती देना चाहती है. लेकिन इन चुनावी नतीजों के बाद के समीकरण ने देश की सबसे पुरानी पार्टी को इतना लाचार बना दिया है कि उसे अब हर कदम पर विपक्ष की बैसाखी का भी आसरा चाहिए. भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन राजग ने 2जी मामले पर केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम का संसद के अंदर का बहिष्कार खत्म करके कांग्रेस को एक तात्कालिक राहत तो दी है लेकिन जो सियासी समीकरण अभी उभरते दिख रहे हैं उनमें यह कहना मुश्किल है कि विपक्ष द्वारा संप्रग सरकार का सहयोग कितने दिनों तक जारी रहने वाला है.

इन सबके बीच ॔निरजा चौधरी यह मानती हैं कि अगर कांग्रेस अब भी अच्छे राजनीतिक प्रबंधन का परिचय दे तो यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर सकती है. ‘मायावती राज्य की सत्ता से बाहर हो गई हैं. वैसे वे पहले से भी केंद्र सरकार का समर्थन कर रही हैं लेकिन अगर कांग्रेस के लोग चाहें तो उनके साथ ऐसा संबंध विकसित कर सकते हैं कि नीतिगत मसलों पर वे कांग्रेस का साथ दें. मायावती के लिए भी यह जरूरी है कि अगर वे राज्य की सत्ता से बाहर हो गई हैं तो केंद्र की सत्ता से थोड़ी नजदीकी बढ़ाएं’ चौधरी कहती हैं, ‘अब मनमोहन सिंह सरकार का भविष्य पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस का राजनीतिक प्रबंधन कैसा रहता है.’

कांग्रेस के राजनीतिक प्रबंधन का सबसे बड़ा इम्तहान होने जा रहा है राष्ट्रपति चुनाव में. विधायकों और सांसदों के वोटों के आधार पर होने वाले इन चुनावों में जीत के लिए जरूरी वोट कांग्रेस और संप्रग के पास नहीं हैं. मार्च के आखिरी दिनों में राज्यसभा की जिन 58 सीटों के लिए चुनाव होना है उनमें कांग्रेस की सीटें घट रही हैं तो केंद्र सरकार के लिए खतरा बने तृणमूल और सपा की सीटें बढ़ रही हैं. ऐसे में प्रतिभा पाटिल की तरह अपनी पसंद का राष्ट्रपति नियुक्त करना कांग्रेस के लिए असंभव सरीखा है. इस चुनाव के कुल 10.98 लाख वोटों में से कांग्रेस के पास महज 30.7 फीसदी वोट हैं. इनमें संप्रग के सहयोगी दलों को जोड़ें तो यह आंकड़ा 40 फीसदी के पास पहुंचता है. यानी कांग्रेस को कोई ऐसा उम्मीदवार तलाशना होगा जिस पर आम सहमति बने या फिर जिसका विरोध करना राजनीतिक तौर पर आसान नहीं हो. इसके तुरंत बाद उपराष्ट्रपति चुनाव होना है जिसमें लोकसभा और राज्यसभा के सांसद भाग लेते हैं. इसमें एक बार फिर कांग्रेस को अपने सारे दांव आजमाने पड़ सकते हैं.