‘यह कानून होता तो राष्ट्रमंडल खेलों में घोटाला नहीं होता’

नया कानून खेलों के विकास को गति देने के लिए कितना जरूरी है?

खेलों के विकास के लिए तीन प्रमुख समस्याओं का समाधान करना पड़ेगा. पहला देश में खेलों का दायरा बढ़ाया जाए और खेल की संस्कृति विकसित की जाए. इसके लिए खेलों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए. दूसरी बात प्रशिक्षण से जुड़ी हुई है. इसके लिए हमें अपना ढांचा और दुरुस्त करना होगा. तीसरी समस्या है पारदर्शिता की जिस वजह से कॉरपोरेट क्षेत्र खेलों में पैसा लगाने से कतरा रहा है. कई खेल संगठनों में लोग दशकों से कब्जा जमाकर जमींदारी की तरह खेलों को चला रहे हैं. इससे कई अनैतिक चीजें खेल में आ गई हैं जैसे यौन उत्पीड़न, डोपिंग और उम्र को लेकर गड़बड़ी. इन्हें दूर करने के लिए हम नया कानून लाने की कोशिश कर रहे हैं. यह विधेयक देश के खेलों की तसवीर बदल देगा.

सुधारों का काम शुरू करने में इतना वक्त लगने की वजह क्या है?

मुझसे पहले जो लोग खेल मंत्रालय में थे उन्होंने भी समय-समय पर सरकारी आदेशों के जरिए सुधार की कोशिश की और मैं उनके ही काम को आगे बढ़ा रहा हूं. हमें यह लगा कि जब तक इन बदलावों को बाकायदा एक कानून के जरिए नहीं लाया जाएगा तब तक सफलता मिलना आसान नहीं है. 1989 में एक संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश किया गया था जिसमें कहा गया था कि खेलों को राज्य से निकालकर समवर्ती सूची में लाना चाहिए ताकि इन्हें सही ढंग से चलाने का काम केंद्र सरकार कर सके. इसलिए यह कहना गलत होगा कि सुधार की कोशिश पहले नहीं की गई. 2007 में अटॉर्नी जनरल ने यह राय दी है कि हम खेलों को समवर्ती सूची में लाए बगैर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रतिनिधित्व को आधार बनाकर राष्ट्रीय खेल संघों के लिए कानून बना सकते हैं. इसके बाद 1989 के प्रस्ताव को 2007 में वापस लिया गया और उस समय से खेल मंत्रालय लगातार सुधारों को लेकर काम कर रहा है जिसका नतीजा अब आपको इस कानून के रूप में दिख रहा है.

आपने कॉरपोरेट फंडिंग की बात की लेकिन बीसीसीआई ने तो निजी क्षेत्र को काफी आकर्षित किया है.

ऐसा इसलिए है कि उनके वहां उम्र और कार्यकाल को लेकर अपने स्तर पर ही अच्छे नियम हैं. लेकिन वहां कार्यक्षमता तो है पारदर्शिता नहीं है. यही वजह है कि आईपीएल या क्रिकेट से संबंधित घोटालों की बातें सामने आती रहती हैं.

इस विधेयक को कई ओर से विरोध झेलना पड़ रहा है. ऐसे में इसका क्या भविष्य है?

हम जब पहली बार इसे कैबिनेट में लेकर गए थे तो कुछ बातों पर आपत्ति थी. नए मसौदे में कुछ संशोधन किए गए हैं. हमने वे प्रावधान हटा दिए हैं जिससे लोगों को जरा भी संदेह हो कि इसके जरिए सरकार खेल संघों पर कब्जा करना चाहती है. खेल संघों को मंत्रालय के प्रति जवाबदेह न बनाकर उन्हें स्पोर्ट्स ट्राइब्यूनल के प्रति जवाबदेह बनाया गया है. इसका गठन वह समिति करेगी जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश करेंगे. आरटीआई और एंटी डोपिंग के मामले में भी हमने खेल संघों को कुछ छूट दी है. खिलाडि़यों के फिटनेस और चयन के आधार को आरटीआई से छूट देने का प्रावधान किया है. जब पहले इसे भी आरटीआई के दायरे में रखने का प्रावधान था तो खिलाडि़यों ने ही कहा कि इन सूचनाओं से हमारी विरोधी टीमों को फायदा मिल सकता है.

आपने चयन के आधार को आरटीआई के दायरे से बाहर निकाल दिया लेकिन चयन प्रक्रिया पर कई बार सवाल उठते रहे हैं…

अब तक ये बातें राष्ट्रीय स्तर पर बहुत कम आई हैं. ऐसी बातें राज्य के स्तर पर अधिक आती हैं. हम राष्ट्रीय खेल संघों के लिए तो कानून बना सकते हैं लेकिन राज्य खेल संघों के लिए नहीं. मेरा मकसद इस विधेयक को कैबिनेट से पारित करवाना है, इसलिए जो भी हल्के-फुल्के बदलाव हुए हैं उन्हें इससे जोड़कर देखा जाना चाहिए.

खेल संघों पर काबिज केंद्रीय नेता विधेयक का पुरजोर विरोध कर रहे हैं. ऐसे में क्या संसद के शीतकालीन सत्र में यह विधेयक पारित हो सकेगा?

हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सुधारों का विरोध किया है. इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि सिर्फ कैबिनेट के अंदर इसका विरोध हो रहा है. हम कैबिनेट से मंजूरी लेने की कोशिश करेंगे और अगर मंजूरी मिल जाती है तो हम इसे शीतकालीन सत्र में संसद में जरूर लेकर आना चाहेंगे.

इन बदलावों के बावजूद बीसीसीआई को अब भी इस विधेयक को लेकर आपत्ति है.

बीसीसीआई ने हमारे पत्र के जवाब में बताया है कि वे हमारी बात नहीं मानेंगे. उन्होंने तो कार्यकारिणी में खिलाडि़यों की 25 फीसदी हिस्सेदारी के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया. ये  बेहद चौंकाने वाली बात है. अगर किसी खेल पर लिए फैसले में एक चौथाई खिलाड़ी भी शामिल नहीं होंगे तो आखिर कैसे सही निर्णय लिया जाएगा. ऐसे ही आरटीआई का विरोध करने का भी कोई मतलब नहीं है. अगर किसी के पास कुछ छिपाने के लिए नहीं है तो फिर आरटीआई का विरोध नहीं होना चाहिए.

नए विधेयक में स्पोर्ट्स ट्राइब्यूनल के गठन की बात की गई है. क्या इसके पास यह अधिकार होगा कि यह स्वतः संज्ञान लेकर किसी मामले की जांच शुरू कर सके?

बिल्कुल, उसे ऐसा अधिकार होगा. हमने यह प्रावधान भी किया है कि खिलाड़ी या खेल से प्रेम करने वाला कोई भी व्यक्ति अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है और उसकी जांच की जाएगी. खिलाडि़यों की समस्याओं और खेल संघों के आपसी झगड़ों का निपटारा भी ट्राइब्यूनल करेगा.

अगर इस तरह का कानून पहले से होता तो क्या आईपीएल और राष्ट्रमंडल खेलों से संबंधित घोटाला टल सकता था?

अगर इस तरह का कानून पहले से होता तो कम से कम राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में जो घोटाला हुआ वह नहीं होता. क्योंकि इन खेलों के आयोजन समिति के अध्यक्ष और खजांची जो जेल में हैं, वे दोनों आईओए के पदाधिकारी नहीं बन पाते. इसलिए इस कानून की बहुत ज्यादा जरूरत है.

जब जनप्रतिनिधियों के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है तो फिर खेल से जुड़े पदाधिकारियों के लिए ऐसा क्यों?

जनप्रतिनिधियों के चुनाव में 18 से अधिक उम्र के हर व्यक्ति की भागीदारी होती है. लेकिन इन खेल संगठनों में वोट देने वाले पहले से चुने हुए होते हैं. यहां हर कोई वोट नहीं दे सकता. ज्यादातर खेल संघों के आंतरिक चुनाव तो हाथ खड़े करके हो जा रहे हैं. वे तो बैलेट का भी इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.