मनरेगा की महाभारत

मनरेगा को लेकर इन दिनों केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार के बीच तकरार हो रही है. हाल ही में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने प्रदेश में इस योजना में हो रही गड़बड़ियों की शिकायत करते हुए मुख्यमंत्री मायावती को चिट्ठी लिखी तो मायावती ने आरोप लगाया कि चुनावों से ठीक पहले उन्हें सिर्फ उत्तर प्रदेश का मनरेगा दिखाई दे रहा है. आरोप-प्रत्यारोप के इस खेल में किसी को इससे कोई मतलब नहीं कि भ्रष्टाचार का पर्याय बनती जा रही मनरेगा की खामियां कैसे दूर की जाएं. जयप्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट

भ्रष्ट अधिकारियों, कर्मचारियों, बाहुबलियों और नेताओं का गठजोड़ मनरेगा को किस कदर खोखला कर रहा है, इसकी बानगी तहलका को उन जिलों में देखने को मिली जो इस महत्वाकांक्षी योजना में चल रही अनियमितताओं की वजह से पिछले कुछ समय से लगातार सुर्खियों में रहे हैं.  

संतकबीर नगर

उत्तर प्रदेश के ग्राम विकास विभाग की ओर से मई, 2011 में कराई गई जांच में संतकबीरनगर में करोड़ों का घोटाला उजागर हुआ था. घोटाले का ताना-बाना बुनने में सत्तापक्ष के विधायक व करीबियों से लेकर अधिकारी व कर्मचारी तक शामिल हैं जिन्होंने सरकारी धन की लूट के लिए नियम-कानूनों को जैसे चाहा तोड़-मरोड़ लिया.

संतकबीर नगर का एक गांव है खजुरी. यह बसपा विधायक ताबिश खां का गांव भी है. यहां की प्रधान खुद विधायक की पत्नी शायदा खातून हैं. गांव में एक नाली के निर्माण के लिए 3,37,374 रुपये का एस्टीमेट तैयार किया गया. नियम के अनुसार दो लाख से चार लाख तक के काम का प्रारूप ब्लाॅक के अवर अभियंता द्वारा बनाए जाने का नियम है. इसके बावजूद तकनीकी सहायक शिवापति त्रिपाठी ने पूरे कार्य का प्रारूप तैयार कर दिया. जांच अधिकारी जब गांव में नाली के निर्माण के सत्यापन के लिए पहुंचे तो प्रधान मौके पर नहीं पहुंचीं बल्कि विधायक के भाई व उनके कुछ लोगों ने अधिकारियों को स्कूल के पास बनी एक नाली को मनरेगा के तहत बना हुआ दिखाया. लेकिन विधायक के भाई की बातों की पोल गांव के ही कुछ लोगों ने खोल दी. गांव के निवासी व पूर्व सूबेदार अब्दुल गनी ने जांच दल के अधिकारियों को बताया कि यह नाली तो 2007-08 में बनी थी जो कई जगहों से टूट गई थी. गनी का कहना था कि उसकी बस मरम्मत कर दी गई और उसे ही नया बना हुआ बता दिया गया. उक्त नाली के निर्माण के लिए कागजों में 10 राजमिस्त्री तथा 35 श्रमिकों को आठ दिन तक काम पर दिखाया गया. काम के लिए 2,83,149 रुपये की सामग्री की खरीद दिखाई गई. इसमें भी नियमों का पालन नहीं हुआ. यानी न तो कोई टेंडर प्रक्रिया हुई न ही कोटेशन मांगे गए.

ऐसा क्यों हुआ इसका जवाब खुद जांच दल के कर्मचारियों ने लिखित बयान व शपथपत्र देकर दिया जो काफी चौंकाने वाला है. कनिष्ठ लेखा लिपिक विजय कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि काम के लिए ईंट की सप्लाई जिस भट्टे से हुई वह विधायक ताबिश खां का है जो उनके पिता शाकिर अली के नाम पर है. विधायक के भट्टे मेसर्स जनता ब्रिक फील्ड से 1,80,100 रुपये की ईंट उक्त निर्माण के लिए खरीदी गई. लिपिक ही नहीं आरईएस (ग्रामीण अभियंत्रण सेवा) के अवर अभियंता गंगा प्रसाद श्रीवास्तव ने भी जांच अधिकारियों को शपथ पर बयान दिया कि नाली निर्माण में उन्होंने न तो एस्टीमेट बनाया और न ही तकनीकी मंजूरी दी. कार्य के भुगतान के लिए जो मांग पत्र है उनकी संस्तुति विधायक के भाई ने दबाव डालकर करवाई.

विधायक के ही गांव में मिट्टी खडं़जा कार्य तथा पुलिया निर्माण के लिए कागजों में छह लाख 62 हजार रुपये का एस्टीमेट दर्शाया गया है. इसमें सामग्री अंश पांच लाख 33 हजार 717 रुपये, श्रमांश 1,23,757 रुपये तथा फोटोग्राफी व साइनबोर्ड के मद में 5000 रुपये का खर्च दिखाया गया है. काम का एस्टीमेट साथा ब्लॉक के आरईएस अवर अभियंता द्वारा निर्मित दिखाया गया है. लेकिन आरईएस अवर अभियंता गंगा प्रसाद श्रीवास्तव ने जांच टीम को बयान दिया कि एस्टीमेट पर उनके हस्ताक्षर ही नहीं हैं. उन्होंने आगे बताया कि एस्टीमेट पर हस्ताक्षर न होते हुए भी उन्होंने कार्य के भुगतान की संस्तुति विधायक के भाई व उनके लोगों के दबाव में आकर की. कागजों में खड़ंजे के काम के लिए विधायक के ही भट्टे से 70,000 ईंटें मंगाई गई जबकि तकनीकी मूल्यांकन आख्या में उक्त कार्य के लिए महज 44,965 ईंटें ही अंकित की गई हैं. उधर, ग्रामीणों ने जांच दल को बताया कि जो खड़ंजा बनाया गया है वह पांच साल पुराना है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर काम के लिए जो ईंटें कागजों पर मंगाई गईं वे आखिर गईं कहां?

सरकारी धन की लूट के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाए जाते हैं, यह देखकर जांच दल भी हैरान रह गया. जांच दल की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि खडंजे के एक कार्य के लिए दो-दो पत्रावलियां तैयार कर ली गईं. इनमें से एक पत्रावली संख्या 53 के लिए एस्टीमेट 3.14 लाख तो दूसरी पत्रावली संख्या 12 के लिए 6.99 लाख रुपये का एस्टीमेट तैयार किया गया. यह घोटाला उजागर होने पर अवर अभियंता श्रीवास्तव ने अधिकारियों को बताया कि बीडीसी आदि रात 10 बजे घर पर आकर भुगतान की संस्तुति के लिए हस्ताक्षर करने का दबाव बनाते थे. अधिकारियों की लाचारी है या फंसने के बाद का डर कि बयान में श्रीवास्तव ने जांच करने गए अधिकारियों से निवेदन किया कि उन्हें मंडलीय कार्यालय से संबद्ध करा दिया जाए. उनका कहना था कि नेता उन्हें जबरन फील्ड में लगवा देते हैं क्योंकि वे नेताओं और दबंगों का विरोध नहीं कर पाते.

छह माह के बाद अभी तक किसी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करना तो दूर कठोर कार्रवाई तक नहीं हुई है

मनरेगा के एक काम के लिए मस्टर रोल में 1.44 लाख का भुगतान दिखाया गया है. जबकि तकनीकी जांच में उक्त कार्य महज 35 हजार 250 रुपये का ही पाया गया. उक्त काम को कराने की जिम्मेदारी जिस पंचायत सेक्रेटरी राजमन की थी उसका बयान यह बताने के लिए पर्याप्त है कि किस तरह सत्तापक्ष और बाहुबल के दबाव में जिले में करोड़ों की विकास योजनाओं को पलीता लगाने का काम किया गया. अधिकारियों को दिए लिखित बयान में राजमन ने कहा है कि वे ऐसे 10 कार्यों के प्रभारी रहे है जिनकी कार्ययोजना विधायक ताबिश खां के कहने पर बनाई गई और विधायक के आदमियों ने ही सभी काम करवाए. राजमन ने माना कि कानून के हिसाब से उन्हें ही सभी कार्य कराने चाहिए थे लेकिन विधायक ने ही कहा कि उनके आदमी सभी कार्य कराएंगे.

ये उदाहरण तो एक बानगी भर हैं. इनके अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस जिले में जांच दल ने नरेगा के कई कामों में लाखों का घोटाला उजागर किया है.शासन को भेजी गई रिपोर्ट में अधिकारियों ने सरकारी धन की लूट और दुरुपयोग को देखते हुए आपराधिक मामला दर्ज करने और जांच पुलिस विभाग की किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराए जाने की मांग भी की है. लेकिन छह माह का समय बीत जाने के बावजूद अभी तक किसी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करना तो दूर कठोर कार्रवाई तक नहीं हुई है.

बलरामपुर व गोंडा

बलरामपुर व गोंडा में मनरेगा की लुटिया डुबाने का काम नेताओं व बाहुबलियों की जगह आईएएस व पीसीएस अधिकारियों ने किया. अधिकारियों ने खरीद-फरोख्त में न तो मानकों का ध्यान रखा न ही मूल्य का. इसका खुलासा संयुक्त विकास आयुक्त, देवीपाटन मंडल बलिराम की रिपोर्ट में होता है. मनरेगा के तहत ग्राम पंचायतों में रोजगार सेवकों के बैठने के लिए कुर्सी-मेजों की आपूर्ति करने हेतु परियोजना निदेशक ने अप्रैल, 2008 को यूपी उपभोक्ता सहकारी संघ लिमिटेड को आदेश दिया था. रिपोर्ट में कहा गया है कि यह काम बिना किसी टेंडर प्रक्रिया के किया गया. फर्म से 1352 कुर्सियां व 338 मेजें ली गईं. सप्लाई करने वाली फर्म ने अपने कोटेशन में कहीं भी सामान का मानक एवं विशिष्टियां नहीं लिखी थीं. संयुक्त विकास आयुक्त ने लिखा है, ‘मेरे द्वारा स्वयं फर्म की जांच करने पर यह तथ्य भी संज्ञान में आया है कि फर्म द्वारा फर्नीचर स्वयं नहीं बनाया जाता. इससे स्पष्ट है कि फर्म किसी और फर्म से फर्नीचर की खरीद करती है और अपना कमीशन जोड़ कर फिर आपूर्ति करती है. अतः ऐसी फर्म से क्रय किया जाना उचित एवं नियमानुसार नहीं है. कुर्सी-मेज की आपूर्ति के लिए नोटशीट पर मुख्य विकास अधिकारी की संस्तुति पर जिलाधिकारी ने 15 जनवरी, 2008 को स्वीकृति प्रदान की थी.’

स्वीकृति के बाद फर्म ने प्रतिकुर्सी 2500 तथा प्रतिमेज 6900 रुपये के हिसाब से आपूर्ति की. मूल्यांकन टीम ने जांच में पाया कि एक कुर्सी का बाजार मूल्य मात्र 1500 रु तथा मेज का 2928 रुपये है. मतलब साफ है कि एक कुर्सी पर अधिकारियों ने एक हजार रुपये तथा एक मेज पर 3972 रुपये अधिक भुगतान किया है. इस प्रकार 1352 कुर्सियों पर 13 लाख 52 हजार रुपये तथा 338 मेजों पर 13 लाख 42 हजार 536 रुपये अधिक व्यय किया गया है. जांच अधिकारी ने लिखा है कि ऐसे में आपूर्ति आदेश निर्गत करने व अनुमोदन देने वाले तत्कालीन जिलाधिकारी सच्चिदानंद दुबे, सीडीओ हरि प्रसाद तिवारी व प्रकरण से जुड़े सभी कर्मचारी दोषी हैं. गौरतलब है कि सीडीओ तिवारी की मृत्यु हो चुकी है जबकि तत्कालीन जिलाधिकारी दुबे को दोषी पाए जाने के बाद भी सरकार ने दंडित करने की बजाय जिलाधिकारी बना कर दूसरे जिले में स्थानांतरित कर दिया.

कुर्सी-मेज ही नहीं, कैनवॉस मूवेवल वर्कशेड में भी जमकर लूट की गई. साइज अंकित किए बगैर 24,900 रुपये प्रति वर्कशेड के हिसाब से 667 ग्राम पंचायतों को फर्म ने सामान सप्लाई किया. इसमें तीन प्रतिशत भाड़ा व व्यापार कर अलग से जोड़ा गया. जांच अधिकारी ने वर्कशेड में प्रयुक्त सामानों का मदवार विवरण तैयार करके सत्यापन कानपुर के बाजार से कराया जिसके हिसाब से एक वर्कशेड की लागत 12,348 रुपये आती है. इस आकलन के हिसाब से प्रतिवर्क शेड 15,664 रुपये या कहें तो कुल 667 वर्कशेडों पर अधिकारियों ने एक करोड़ से भी ज्यादा रुपये बिना सोचे-समझे फर्म पर दरियादिली दिखाते हुए न्योछावर कर दिए.

मनरेगा मजदूर भी अपनी सुरक्षा में बंदूकधारी लेकर चलते हों, यह जानकर हैरानी होना स्वाभाविक है

बलरामपुर से सटे हुए जिले गोंडा के अधिकारी तो और भी दरियादिल निकले. गोंडा में मनरेगा के अंतर्गत काम करने वाली महिलाओं के बच्चों के लिए 37 लाख 41 हजार 700 रु के खिलौने खरीद लिए गए. बिना टेंडर प्रक्रिया के इस जिले में भी काम उत्तर प्रदेश उपभोक्ता सहकारी संघ लिमिटेड को दिया गया. जब जांच हुई तो यह भी पता चला कि तत्कालीन सीडीओ राजबहादुर ने डीएम मुक्तेशमोहन मिश्र से नियमानुसार स्वीकृति प्राप्त नहीं की और न ही फर्म को भुगतान करते समय चेक पर डीएम के हस्ताक्षर ही कराए. जबकि भुगतान डीएम व सीडीओ दोनों के संयुक्त हस्ताक्षर से होना चाहिए था. जांच में सीडीओ राजबहादुर के दोषी पाए जाने के बाद उन्हें बस इतना दंड मिला कि उन्हें भी दूसरे जिले में स्थानांतरित कर दिया गया. ऐसी स्थिति तब है जब मुख्यमंत्री ने स्वयं प्रेसवार्ता के दौरान 30 मार्च, 2010 को गोंडा के सीडीओ के निलंबन का फरमान सुना दिया था.

कुशीनगर

माननीयों और वीआईपी लोगों की सुरक्षा में बंदूकधारियों को चलते तो आपने देखा होगा लेकिन मनरेगा मजदूर भी अपनी सुरक्षा में बंदूकधारी लेकर चलते हों, यह जानकर हैरानी होना स्वाभाविक है. लेकिन उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में ऐसा हुआ है. मजेदार बात यह है कि मनरेगा मजदूरों की सुरक्षा में जो लोग आए उनका भुगतान भी मनरेगा के धन से ही किया गया. बात जिले के खड्डा ब्लॉक के शाहपुर गांव की है, जहां सात मई, 2008 से 19 मई, 2008 तक 36 मजदूरों का नाम मस्टर रोल में अंकित किया गया है. जिले में मनरेगा के कार्यों में हुई धांधली की शिकायत पर जब राज्य सरकार की ओर से रिटायर्ड आईएएस अधिकारी विनोद शंकर चौबे जिले में गए तो उन्होंने यह हैरतअंगेज कारनामा अपनी रिपोर्ट में अंकित किया.

मस्टर रोल के सत्यापन से इस बात का भी खुलासा हुआ कि जिन 36 मजदूरों के नाम दर्ज हैं उनमें से कोई भी गांव का रहने वाला नहीं है. हरिश्चंद्र नाम के व्यक्ति के साथ तीन-चार अन्य लोगों ने मजदूरी भले ही न की हो लेकिन उन्हें कागजों में शस्त्र के साथ मजदूरों की सुरक्षा में तैनात दिखाते हुए भुगतान भी किया गया.

अधिकारियों ने लूट-खसोट करने के लिए नियम-कानूनों को तार-तार किया. 23 नवंबर, 2011 को एक बैठक के सिलसिले में जिले के सीडीओ लखनऊ गए थे. सीडीओ की अनुपस्थिति में डीडीओ वीपी मिश्र ने 234 परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान कर दी. इनकी अनुमानित लागत 1397.57 लाख रु थी. डीडीओ ने हर जगह जहां अपने दस्तखत किए वहां पदनाम सीडीओ ही अंकित कराया. जांच अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ‘यह कोई रुटीन कार्य नहीं है, जो अधिकारी चाहे संपादित कर दे.’ सीडीओ के स्थान पर डीडीओ द्वारा करोड़ों की योजनाओं की स्वीकृति दिए जाने पर जांच दल ने लिखा है कि यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और पूरी प्रशासनिक संस्कृति को कलंकित करता है इसलिए इसे भारी भ्रष्टाचार की संज्ञा दी जाएगी.
योजना के मद को लूट के लिए किस रास्ते निकालना है यह काम बखूबी अधिकारियों ने अंजाम दिया तो उसे लूटने का बेहतर माध्यम बना वहां का एक जनप्रतिनिधि. सरकारी कर्मचारी पंचायत सचिव उमेश चंद्र राय का बयान तो यही बताता है. राय के मुताबिक शाहपुर, भैसहा, नरायणपुर, पकड़ी आदि गांवों में नरेगा का धन जिला पंचायत सदस्य विजय कुमार अग्रवाल उर्फ मिट्ठू द्वारा सीधे जिले की ग्राम पंचायतों के लिए लाया गया. ये सभी गांव अग्रवाल के क्षेत्र के गांव हैं. पूर्व में कभी भी इन गांवों के लिए इतना धन नहीं आया. राय के शब्दों में, ‘जिला पंचायत अध्यक्ष से फोन पर अग्रवाल ही बात कराते थे और अध्यक्ष के माध्यम से प्रधान व सचिवों पर दबाव डलवाते थे.’ जिला पंचायत सदस्य के क्षेत्र के गांवों में होने वाले विकास कार्यों के बाद भुगतान के चेक फर्जी नाम से जारी करने का मामला भी जांच के दौरान उजागर हुआ. नरेगा के काम के जो चेक प्रधान के नाम से कटने चाहिए थे वे राजेश नाम से कटे हैं. पंचायत सचिव ने बयान में कहा है कि राजेश के नाम का चेक जिला पंचायत सदस्य विजय अग्रवाल ही कटवाते थे और अपने साथ ले जाते थे. शाहपुर, पकड़ी, नारायनपुर आदि गांवों में अधिकांश चेक राजेश के नाम से ही कटे हैं क्योंकि अग्रवाल के एक भाई का नाम भी राजेश ही है. हद तो तब हो गई जब राजेश नाम को सही ठहराने के लिए शाहपुर गांव की प्रधान सलहंता के पुत्र संतोष राय को राजेश बना कर खड़ा कर दिया गया. संतोष ने अधिकारियों को बताया कि स्कूल के दस्तावेजों, बैंक की पासबुक और परिवार रजिस्टर आदि में उसका नाम संतोष ही है लेकिन प्यार से सब उसे राजेश कहते हैं.

जांच अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, ‘राजेश नाम से काटे गए चेकों में आपराधिक कृत्य किया गया है और इस अपराध में राजेश नाम से चेक काटने वाले, राजेश हस्ताक्षर प्रमाणित करने वाले, प्रधान तथा पंचायत सचिव तो अपराधी हैं ही साथ-साथ जिला पंचायत सदस्य विजय अग्रवाल उर्फ मिट्ठू भी इसमें शामिल हैं.’

यह फर्म अधिकारियों की अपनी थी जिसके माध्यम से फर्जी बिलिंग के आधार पर टेंट की आपूर्ति दिखाई गई

रुपये की लूट के चक्कर में जिले के अधिकारी ये तक भूल गए कि नरेगा का धन सिर्फ गांव के विकास में ही खर्च किया जा सकता है. अधिकारियों की मिलीभगत से नरेगा के लाखों रुपये का काम नगरपालिका खड्डा में करा दिया गया. जांच दल ने जिले के सिर्फ एक ब्लाॅक का निरीक्षण किया जहां लाखों का घोटाला नजर आया, शायद पूरे जिले की जांच होती तो स्थिति कितनी भयानक निकलती इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. शायद इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए जांच अधिकारियों ने शासन को सौंपी अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि एफआईआर दर्ज करवा कर मामले की जांच सीबीसीआईडी या किसी अन्य एजेंसी से कराई जाए. लेकिन एक साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद न तो अभी तक किसी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हुई है और न ही किसी एजेंसी को जांच सौंपी गई.

महो­बा

जिले में करोड़ों रुपये के टेंट घोटाले में अधिकारियों पर सरकार की ही मेहरबानी ऐसी रही कि जांच में दोषी पाए जाने के बाद उन्हें निलंबित तो किया गया लेकिन जल्द ही बहाल भी कर दिया गया. केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य संजय दीक्षित ने 2009 में महोबा का भ्रमण करके सभी 247 पंचायतों में टेंट खरीद में हुए घोटाले की शिकायत शासन से की थी. दीक्षित की शिकायत के बाद जब एसडीएम महोबा जय शंकर त्रिपाठी ने मामले की जांच शुरू की तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. त्रिपाठी ने जैतपुर, पनवाड़ी और करबई ब्लाॅकों में प्रधान सहित कई लोगों के बयान लिए. इसके अतिरिक्त करबई, चरखारी एवं जैतपुरा ब्लाॅक मुख्यालय के बीडीओ और अन्य कर्मचारियों से संपर्क किया गया तो पता चला कि सभी स्थानों पर अमन इंटरप्राइजेज लखनऊ द्वारा ही नरेगा के अंतर्गत टेंट की आपूर्ति की गई है. उक्त संस्था से समस्त 247 ग्राम पंचायतों में नरेगा के तहत करीब 19 हजार रुपये प्रतिटेंट की आपूर्ति प्राप्त की गई और धनराशि के भुगतान के लिए जब-जब ब्लाॅक पर मीटिंग हुआ करती थी तब-तब संबंधित बीडीओ ग्राम पंचायत अधिकारी आदि को टेंट के भुगतान के लिए दबाव डाला करते थे. टेंट सप्लाई करने वाली संस्था के प्रतिनिधि का बयान भी कम मजेदार नहीं है. उसने जांच अधिकारी को बताया, ‘लिखित तौर पर टेंट की आपूर्ति के लिए 29 मार्च, 2008 को आदेश दिया गया लेकिन समय से आपूर्ति न हो पाने के कारण 19 मई, 2008 को आपूर्ति का आदेश निरस्त कर दिया गया. उसकी फर्म को किसी सक्षम अधिकारी द्वारा न तो टेलीफोन पर न मौखिक रूप से ही अवगत कराया गया. इस दशा में फर्म ने पूर्व में पारित आदेश के तहत ही 247 टेंट की आपूर्ति ब्लाॅक मुख्यालय पर कर दी. किसी भी बीडीओ, परियोजना निदेशक अथवा सीडीओ ने आपूर्ति न करने के संबंध में कुछ भी नहीं कहा. ऐसे में यह प्रतीत होता है कि टेंट की आपूर्ति को लेकर सहमति सबकी थी कागजों में आदेश चाहे जो भी हो.’

टेंट आपूर्ति करने वाली फर्म की जांच परियोजना निदेशक लखनऊ ने की. कागजों में फर्म का लखनऊ में जो पता बताया गया उस पर कोई फर्म मिली ही नहीं. जांच के बाद बीडीओ राजेश कुरील, डीडीओ जय राम लाल वर्मा और परियोजना निदेशक हरनारायण को निलंबित किया गया. लेकिन कुछ दिनों बाद ही ग्राम विकास मंत्री दद्दू प्रसाद की ओर से पत्र जारी किया गया कि अधिकारियों द्वारा किसी भी फर्म को कोई लिखित या मौखिक आदेश क्रय के लिए जारी नहीं किया गया है. इतना ही नहीं पत्र में लिखा गया कि अधिकारियों पर कोई भी आरोप आंशिक रूप से भी प्रमाणित नहीं हो पाया है. सवाल यह है कि जब एसडीएम, महोबा ने जांच में साफ लिखा है कि टेंट की खरीद में बीडीओ डीडीओ और परियोजना निदेशक की संलिप्तता प्रकाश में आई है क्योंकि इनकी मदद से टेंट की आपूर्ति होती रही, लिहाजा उक्त अधिकारी दोषी हैं तो सरकार तक पहुंचते-पहुंचते एडीएम की जांच रिपोर्ट में एकत्र किए गए सभी सबूत कमजोर कैसे पड़ गए.

केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य दीक्षित आरोप लगाते हैं, ‘अमन इंटरप्राइजेज नाम की जिस फर्म से टेंट की खरीद दिखाई गई है, वास्तव में वह फर्जी है जिसका खुलासा जांच में भी हो गया है.’ यह फर्म अधिकारियों की अपनी थी जिसके माध्यम से फर्जी बिलिंग के आधार पर टेंट की आपूर्ति दिखाई गई. दीक्षित का दावा है कि कई ऐसी ग्राम सभाएं भी हैं जहां टेंट की सप्लाई हुई ही नहीं. टेंट की खरीद पंचायत स्तर पर होने का नियम है. लिहाजा खरीद को लेकर कहीं अधिकारियों पर अंगुलि न उठे इसके लिए अधिकारियों ने ग्राम सभाओं से ही फर्म को चेक जारी करवाए. लेकिन पंचायतों से चेक जारी करवाने के लिए बैठकों में अधिकारियों का दबाव बनाया जाना यह साबित करता है कि जिस फर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं है उसके भुगतान को लेकर वे चिंतित क्यों थे.