राजनीति के आसमान पर जमीन

बंद्योपाध्याय भूमि सुधार आयोग बनाने के बाद नीतीश सरकार उस रिपोर्ट से किनारा तो कर चुकी है लेकिन इसने बिहार में चंपारण से लेकर बोधगया तक भूमि के सवाल पर खामोश लेकिन एक बेहद धारदार आंदोलन की शुरुआत कर दी है, निराला की रिपोर्ट

फुलकली देवी बहुत विनम्रता से ठेठ-गंवई अंदाज में परनाम बोलती हैं. फिर तुरंत घर की बात बताने लगती हैं कि उनके कितने बबुआ हैं और कितनी बबी यानी बेटी. ठेठ भोजपुरी में ही यह भी बताती हैं कि वे घास काटने गई थीं इसलिए आने में थोड़ा विलंब हो गया. कुछ पल के लिए तो लगता है कि शायद सही फुलकली से बात नहीं हो रही!

पिछले कुछ वर्षों में यहां नये भूपतियों का तेजी से उदय हुआ है, जो जमींदारों के वंशज नहीं बल्कि नवधनाढ्य राजनीति की उपज हैं और हर दल में हैंबात बदलते हुए पूछता हूं कि जमीन के कब्जे का क्या हुआ, क्या लड़ाई जीतने की कोई गुंजाइश है? इस एक सवाल के बाद उनका स्वर बदलता है. फिर जो जवाब मिलते हैं उनसे सारी शंका-आशंका मिट जाती है. फुलकली लगभग दहाड़ने के से अंदाज में बोलती हैं, ‘बबुआन लोगों का पसेना (पसीना) छोड़ा देंगे. हमको धमकी देते हैं कि मार देंगे-मुआ देंगे. मार दें-मुआ दें लेकिन जमीन पर कब्जा तो देना ही होगा. कइसे नहीं देंगे. कोई खैराती थोड़े न मांग रहे हैं! परचा है हमारे पास तो कब्जा भी हमारा ही होगा.’

फुलकली का बबुआन से इशारा चंपारण के भूस्वामियों की ओर होता है और परचे से उनका मतलब बिहार भूमि सुधार (अधिकतम सीमा निर्धारण तथा अधिशेष भूमि अर्जन) कानून (लैंड सीलिंग ऐक्ट या हदबंदी कानून) के तहत भूमिहीनों को दी गई भूमि के परवाने से है. फुलकली चंपारण के मंगलपुर गांव की रहने वाली हैं. जाति से मुसहर. उम्र यही करीब 50 साल. परचाधारी संघर्षवाहिनी की अध्यक्ष हैं. रतवल, रायबरी, महुअवा, चिड़िहरवा, बनकटवा, तुरहापट्टी, मंगलपुर जैसे कई गांवों के भूमिहीनों को गोलबंद करने वाली नेता. जब वह तिरंगा लेकर परचाधारी भूमिहीनों का नेतृत्व करते हुए जमीन पर कब्जे के लिए निकलती हैं तो सच में ही बडे़-बड़े जमींदारों के पसीने छूटने लगते हैं. इसी साल 26 जनवरी को रतवल गांव में फुलकली के नेतृत्व में जब सैकड़ों भूमिहीन मुसहर व अन्य पिछड़ी जाति के लोगों ने तिरंगा लेकर भूमि के कब्जे के लिए चढ़ाई की तो दशकों से चंपारण का बना-बनाया समीकरण देखते ही देखतेे भरभरा कर गिरने लगा था. यहां लगभग 400 एकड़ सरकारी जमीन पर बबुआनों का कब्जा था. ये जमींदार कसमसा कर रह गए. मजबूरी में ही सही, स्थानीय प्रशासन को करीब 300 परचाधारी परिवारों के बीच एक-एक एकड़ जमीन वितरित करनी पड़ी. चंपारण बिहार का वह इलाका है जहां गांधी जी ने 1917 में अपने आंदोलन की नींव रखी थी. चंपारण वह इलाका भी है जहां बिहार के बड़े-बड़े भूस्वामी वास करते रहे हैं. और अब चंपारण ही बिहार का वह इलाका भी है जहां समाज एक नई लड़ाई की अंगड़ाई ले रहा है. जमीन पर कब्जे की यह लड़ाई माओवादियों की तर्ज पर हरवे-हथियारों से लैस होकर लाल झंडा गाड़ने की नहीं है. 1974 के जेपी आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले और 1978 के बोधगया भूमि मुक्ति आंदोलन के अगुवा रहे पंकज जैसे समाजवादी कार्यकर्ता बहुत ही खामोशी से सत्याग्रह, उपवास और तिरंगे को हथियार बनाने की प्रेरणा देकर जमीन के लिए दलविहीन जमीनी नेता तैयार कर रहे हैं. असर यह है कि अब यहां फुलकली के साथ जब जिनिया, बियफी, जितेंद्र, संजय, गिरधारी, विनोद आदि अनपढ़, भूमिहीन और परंपरागत रूप से बंधुआ-सी जिंदगी गुजारने वाले किसानों की फौज तिरंगा लेकर निकलती है तो इलाके के बुजुर्ग बाशिंदों को गांधी जी का आंदोलन याद आ जाता है. अकेले पश्चिमी चंपारण में 35 हजार परचाधारी किसान गोलबंद हो गए हैं. 26 हजार एकड़ जमीन पर कब्जे की तैयारी है.

विपक्षी लालू प्रसाद, रामविलास पासवान हों या सत्ताधारी नीतीश कुमार और सुशील मोदी, भूमि के सवाल पर कोई भी खुलकर बोलने को तैयार नहीं

पश्चिम चंपारण के एक बड़े हिस्से में जिस तरह से भूमिहीनों का सत्याग्रही आंदोलन पिछले दो साल से चल रहा है, उसका असर तेजी से और साफ-साफ दिखने लगा है. सरकारी तंत्रों की मिलीभगत और खामोशी ने चंपारण में जिस आंदोलन की जमीन तैयार की उसकी धमक अब पूरे बिहार में सुनाई पड़ने लगी है. बिहार के अलग-अलग हिस्सों में फूलकलियों की फौज तैयार हो रही है. वर्षों से शांत पड़े और नासूर की तरह अंदर ही अंदर पक रहे जख्म को भूलवश या भविष्य की ठोस रणनीति के तहत, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भूमि सुधार आयोग बनाकर फिर से हरा कर दिया है.

बिहार में विधानसभा चुनाव सामने है. चुनावी मसला क्या होगा, तय नहीं है. विपक्षी लालू प्रसाद, रामविलास पासवान हों या सत्ताधारी नीतीश कुमार और सुशील मोदी, भूमि के सवाल पर कोई भी खुलकर बोलने को तैयार नहीं. संभव है राजधानी पटना में घूमते हुए जमीन का यह सवाल बेमानी-सा लगे, लेकिन मेटल रोड से उतरकर गांव-देहात में पहुंचते ही इसकी तपिश साफ महसूस होती है. लोगों के जेहन में अलग-अलग रूपों में भूमि का सवाल शामिल हो चुका है.

दरअसल, ठंडे बस्ते में पड़े मसले को बडे़ भूचाल का रूप बिहार में भूमि सुधार को सफल बनाने वाले देबब्रत बंद्योपाध्याय की अध्यक्षता में गठित भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट ने दिया है. डी बंद्योपाध्याय ने दो साल के अध्ययन, 15 जनसुनवाइयों और तमाम तकनीकी पेंचों के विस्तृत अध्ययन के बाद कुछ ऐसे सवाल उछाल दिए हैं, ऐसे निष्कर्ष दिए हैं जिन्होंने भूचाल ला दिया है. आयोग ने कहा है कि बिहार में भूदान और सीलिंग ऐक्ट वाली जमीन के अलावा जो गैरमजरुआ जमीन है उसका वितरण सरकार तुरंत करवाए. बिहार में भूमि विवाद की गहरी समझ रखने वाले और जनशक्ति पत्रिका के संपादक यूएन मिश्र, बंद्योपाध्याय  की रिपोर्ट और अन्य आंकड़ों का हवाला देते हुए बिहार में ऐसी करीब 21 लाख एकड़ जमीन के होने की बात कहते हैं. वे बताते हैं कि बिहार में जमीन का खेल कैसे-कैसे चलता रहा है. लाखों एकड़ जमीन को किस तरह और किस-किस किस्म के लोगों ने पीढ़ी दर पीढ़ी या तो अपने कब्जे में कर रखा है या चिरईं-चिरगुन से लेकर देवी-देवताओं के नाम कागजों में करवा रखा है.

अहम सवाल यह है कि क्या बिहार में कोई सरकार यह साहस दिखा पाएगी कि वह चिरईं-चिरगुन वाली जमीन को इनसान के नाम करवा दे या जबरिया कब्जे में फंसी जमीन को उसके वाजिब हकदारों को दिलवा दे. बिहार का इतिहास यही बताता है कि यह दुरूह कार्य है और कुछ हद तक नामुमकिन भी. भविष्य में क्या होगा, कुछ निश्चित नहीं है लेकिन फिलहाल बंद्योपाध्याय आयोग की रिपोर्ट से उपजी शंकाओं-आशंकाओं के साथ जगी उम्मीदों की गरमाहट ने बिहार के सामाजिक और राजनीतिक समीकरणों को पूरी तरह से चरमरा दिया है. सीलिंग ऐक्ट के तहत फाजिल जमीन का परचा-परवाना और उसकी कब्जेदारी, भूदान की जमीन पर हक और बंटाईदार बिल का मसला हर रोज किसी न किसी रूप में ग्रामीण चौपालों का प्रमुख विषय रहता है.

‘हमारे सामने इतनी जमीन परती छोड़ने से संकट तो होगा लेकिन क्या करें, हमारी भी मजबूरी है. फसल न सही, जमीन तो बची रहेगी. क्या पता किस रोज बिहार सरकार का मन बदले और बंटाईदार कानून लागू कर दे.’

औरंगाबाद जिले के महथू गांव में एक शाम गुजारने के बाद इसका एहसास बखूबी हो जाता है. यहां बहसबाज हर जगह अलग-अलग खेमे में बंटे नजर आते हैं, लेकिन ज्यादातर बात सिर्फ जमीन से जुड़े़ मसलों पर ही होती है. इस चौपाली-चर्चे को रोज ही खाद-पानी भी मिल रहा है. बेशक, बड़ी-बड़ी सभाएं नहीं हो रहीं, लेकिन पोस्टर, परचा और बुकलेट-वार पूरे बिहार में शुरू हो चुका है. भाकपा माले भूदान, बंटाईदार और हदबंदी आदि विषयों को केंद्र में रखकर पूरे बिहार में पुस्तिकाएं बांटने का काम कर रही है तो भाकपा की नेशनल काउंसिल के सदस्य एम जब्बार आलम ने एक लघु पुस्तिका भूमि सुधार आयोग का खुलासा शीर्षक से तैयार की है, जिसे गांव-देहात में वितरित किया जा रहा है. एक तीसरा खेमा नीतीश के पुराने संगी-साथियों यानी समाजवादियों का भी है जो चंपारण के आंदोलन को बौद्धिक रूप से खाद-पानी देकर उसे एक मुकम्मल मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश में है. समाजवादियों द्वारा ‘लोहिया आयोग रिपोर्ट-1950’ नाम की एक बुकलेट भी अब बिहार के ज्यादातर हिस्सों में पहुंच चुकी है, जिसमें चंपारण के किसानों की कंगाली से संबंधित व्यथा कथाओं का अध्ययन है.

रही-सही कसर महाराष्ट्र के बुजुर्ग समाजवादी नेता बाबूराव चंदावर ने तब पूरी कर दी जब वे कुछ समय पहले पटना में भूदान की जमीन के पेंच को सुलझाने की मांग के साथ भूख हड़ताल पर बैठ गए. द्वंद्व और दुविधा में फंसी राज्य सरकार को अंततः बाबूराव की हड़ताल खत्म करवाने के लिए झुकना पड़ा. बुजुर्ग बाबूराव बिहार सरकार से भूदान यज्ञ कमिटी को अधिक अधिकार देने, भूदान के तहत बंटी जमीनों का ‘म्यूटेशन’ कराने और संस्थाओं को दी गई भूदान की करीब 20 हजार एकड़ जमीन को जनता के बीच बांटने की मांग कर रहे थे. सरकार ने आश्वासन दिया है कि मार्च, 2011 तक मॉडल के तौर पर सुपौल जिले में इन मांगों को पूरा किया जाएगा. बाद में शेष बिहार में इसे लागू करेंगे. जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और बाबूराव चंदावरकर के अभियान में अहम भूमिका निभाने वाले चक्रवर्ती अशोक प्रियदर्शी कहते हैं, ‘यदि सुपौल में यह मॉडल सफल हो गया तो इससे पूरे बिहार के आंदोलनकारियों को एक आधार मिलेगा.’

प्रियदर्शी इन दिनों बिहार की भूमि समस्या पर अनुसंधान भी कर रहे हैं. वे कहते हैं कि नीतीश कुमार जितना ही द्वंद्व-दुविधा में रहेंगे, उसका उतना ही प्रतिकूल असर पड़ेगा. उनके पास तो एक बड़ा मौका है कि वह माहौल को अपने पक्ष में कर सकते हैं. बकौल प्रियदर्शी बिहार में करीब 20 लाख परिवार ऐसे हैं जिनके पास अपना घर तक नहीं. सरकार के पास साफ तौर पर सीलिंग और भूदान की इतनी चिह्नित जमीन है, जिसका बंटवारा कर देने से करीब 7 लाख भूमिहीन परिवारों को रोजगार का नया साधन मिल जाएगा. इन चिह्नित जमीनों में कोई ज्यादा पेंच भी नहीं है. प्रियदर्शी कहते हैं, ‘सात लाख परिवार का मतलब होता है औसतन 49 लाख आबादी को लाभान्वित करना. अगर वोट बैंक के हिसाब से इसे देखें तो 28 लाख मतदाताओं को अपने पक्ष में करना. आखिर महादलित की राजनीति जब नीतीश कर रहे हैं तो इस बंटवारे से अधिकतर महादलितों को ही लाभ होगा.’

प्रियदर्शी जितनी आसानी से बातों को कहते हैं, व्यावहारिक तौर पर बिहार में वह इतना आसान है नहीं. पिछले कुछ वर्षों में यहां नये भूपतियों का तेजी से उदय हुआ है, जो जमींदारों के वंशज नहीं बल्कि नवधनाढ्य राजनीति की उपज हैं. नए भूपति राजनीतिबाज हर दल में हैं, इसीलिए गरीबों के मसीहा लालू प्रसाद हों, दलित राजनीति करने वाले रामविलास पासवान या फिर सामाजिक न्याय की वकालत करने वाले नीतीश कुमार, कोई भी भूमि के सवाल पर खुलकर बोलने को तैयार नहीं क्योंकि इस पेंच में फंसने का मतलब होगा सबसे पहले अपने ही दल में बगावत का सामना करना. लेकिन दूसरी ओर पूरे बिहार में न सही, अपने प्रभाव वाले क्षेत्र में ही वामपंथी दल इस मसले को सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं. भाकपा माले के वरिष्ठ नेता रामजतन शर्मा कहते हैं, ‘नीतीश कुमार से भूमि सुधार आयोग बनवाने की मांग किसी ने नहीं की थी, उन्होंने खुद ही उसे बनवाया. अब जब रिपोर्ट आ गई है तो उसे लागू करने में वे पीछे हट रहे हैं, लेकिन अब उनके पीछे हटने से कुछ नहीं होगा. अब उन्हें जमीन का बंटवारा करना ही होगा, बंटाईदार कानून को जमीनी स्तर पर लागू करना ही होगा.’

बंटइया ने बांट डाला

पूर्णिया जिले के अकबरपुर के रहने वाले राघव मध्यम वर्ग किसान के बेटे हैं. राघव झारखंड की राजधानी रांची में निजी नौकरी करते हैं. उनके किसान पिता अस्वस्थता के कारण इस बार ज्यादा खेती-बाड़ी करने में असमर्थ थे. राघव ने पिता को समझा-बुझाकर करीब छह एकड़ जमीन को इस बार परती छोड़ दिया है. तीन पीढ़ी से उनकी जमीन पर खेती करने वाले रामायण कहते रहे कि आप निश्चिंत होकर खेत दीजिए, हम या हमारे परिवार को बंटाई-सटाई कानून से कोई लेना-देना नहीं. लेकिन ईमान, धरम, पीढि़यों के रिश्तों की दुहाई का कोई असर नहीं हुआ. राघव खेत को परती छोड़ निश्चिंत भाव से रांची नौकरी करने चले आए हैं. वे कहते हैं, ‘हमारे सामने इतनी जमीन परती छोड़ने से संकट तो होगा लेकिन क्या करें, हमारी भी मजबूरी है. फसल न सही, जमीन तो बची रहेगी. क्या पता किस रोज बिहार सरकार का मन बदले और बंटाईदार कानून लागू कर दे.’ राघव पढ़े-लिखे किसान हैं. उन्हें पता है कि बिहार में बंटाई कानून को लागू करना इतना आसान नहीं. सार्वजनिक तौर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वयं भी किसानों को बार-बार आश्वासन दे चुके हैं कि फिलहाल कोई नया बंटाईदार कानून नहीं बनने जा रहा, लेकिन बंद्योपाध्याय आयोग की रिपोर्ट के बाद यहां ऐसा कोरा भ्रमजाल बना है कि राघव की तरह बिहार के कई किसानों ने अपनी जमीन परती छोड़ दी है. पूर्णिया यूं भी बंटाई के बवाल का सबसे चर्चित इलाका रहा है. 1971 में इसी जिले में रुपसपुर-चंदवा नरसंहार कांड हुआ था जिसमें 14 बंटाईदार आदिवासी खेत मजूदर-किसान मार दिए गए थे. एक तरीके से रुपसपुर-चंदवा कांड ने बिहार में भूमि संघर्ष के नाम पर होने वाले नरसंहारों की बुनियाद रखी थी, जिसका विस्तार बाद में बेलछी कांड से लेकर लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के रूप में देखने को मिला. भूमि सेना, ब्रह्मर्षि सेना, लोरिक सेना, कुंवर सेना, रणबीर सेना, सनलाइट सेना आदि भूमि विवाद के गर्भ से ही निकले.

भूमि के मसले पर सबसे बड़ा पेंच और बवाल बंटाई को लेकर ही हैं. तहलका से बातचीत में बंद्योपाध्याय खुद कहते हैं, ‘बिहार में सबसे बड़ी चुनौती बंटाईदार कानून बनाने या लागू करने की है. यह हो जाए तो देखते ही देखते बिहार बदल जाएगा. बिहार की कई समस्याएं खत्म हो जाएंगी. सामाजिक तनाव में कमी आएगी, गरीबी-बेरोजगारी भी दूर होगी.’ वे यह भी जोड़ते हैं कि इसे यदि नीतीश लागू नहीं कर पाए तो फिर किसी दूसरे से इसकी उम्मीद करना बेमानी होगा.
बंद्योपाध्याय जितनी सहजता से इस कानून से बिहार की समस्याओं का समाधान देखते हैं, असल में वैसा भी नहीं है. अभी सिर्फ बंटाईदार कानून का जिन्न बाहर निकला है तो बिहार में भूचाल आ गया है, कानून बनेगा या लागू होगा तो पता नहीं क्या होगा. यह बंटाईदारी के भूचाल का ही असर है कि सूखे की मार झेल रहे बिहार के जिन खेतों में उपज की संभावना थी, उसका भी एक हिस्सा इस बार परती पड़ा हुआ है. बंटाइदारों को भूमालिक वर्षों से अपने खेत जोतने के लिए दिया करते थे जिससे दोनों के रिश्तों में पारिवारिक संबंध जैसी गरमाहट होती थी जो अब एक झटके में बिखरने लगा है. बटाईदार बदले जा रहे हैं. औरंगाबाद और जहानाबाद जिले की सीमा पर बसे गोह इलाके के गांवों में यह स्थिति साफ तौर पर देखी जा सकती है. इस इलाके के एक बड़े किसान अनिल चौबे कहते हैं, ‘पहले तो सब-कुछ शांत ही चल रहा था. लेकिन अब सब अशांत ही है.’ तीन बार विधान पार्षद रह चुके और अब पटना उच्च न्यायालय में वकालत करने वाले रमेश प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘इस बार बिहार में वैसे ही सूखे से पैदावार कम होनी थी. बंटाई के शोर से और भी ज्यादा कमेगा. इसका असर सामाजिक तनाव के साथ-साथ आने वाले दिनों में हिंसा और अपराध के रूप में भी देखने को मिलेगा.’ वे आगे कहते हैं, ‘पीढ़ी दर पीढ़ी से जो कमाने-जीने की व्यवस्था बनी हुई थी उसे नीतीश कुमार ने एक झटके में ढहा दिया है. उन्होंने भूमि सुधार नहीं, भूमि बिगाड़ आयोग का गठन किया था. छोटे-बड़े सभी किसानों के मन में यह भय घर कर गया है कि यदि बंटाईदारों को कानूनी मान्यता मिल जाएगी तो वह पुश्त दर पुश्त खेत को जोतने लगेगा. बंटाई जोतने वाला जमीन पर कर्ज भी लेने लगेगा और यदि इसे चुकता नहीं किया तो खेत मालिक को ही नुकसान उठाना पड़ेगा.’ वे आगे जोड़ते हैं कि यदि यह कानून लागू करने की कोशिश हुई तो बिहार हिंसा की उस आग में झुलसेगा कि उसे संभाल पाना संभव नहीं होगा. रमेश प्रसाद सिंह की तरह ही सोच रखने वाले बिहार में किसानों की एक बड़ी फौज मिलेगी, लेकिन बंद्योपाध्याय ऐसी हर आशंका को खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ‘ऐसा कुछ नहीं होगा बल्कि बिहार में अराजकता और हिंसा को खत्म करने का सबसे कारगर औजार साबित होगा बंटाईदार कानून का बनना और उसका लागू होना.’

बंद्योपाध्याय की बातों से सहमति जताते हुए एम जब्बार आलम कहते हैं, ‘सीलिंग, भूदान और गैरमजरुआ जमीनों पर भूमाफियाओं का कब्जा बना रहे, इसके लिए सारी बहस को बंटाईदार पर समेटा जा रहा है.’ वह सवाल पूछते हैं, ‘जिस बिहार में 30-35 प्रतिशत खेती-किसानी पूरी तरह से बंटाई व्यवस्था पर ही निर्भर है, उसे लेकर कोई कानून, कोई तंत्र नहीं होना चाहिए? अगर बंद्योपाध्याय ने गलत सुझाव दिए हैं तो नीतीश उनमें संशोधन करने के लिए स्वतंत्र हैं. वे संशोधन करने के लिए तैयार हों, सर्वदलीय सहमति से कोई तो नया कानून बने. लेकिन चुप्पी साध लेने से तो समस्या बढ़ेगी ही.’
बिहार के राजस्व एवं भूसुधार मंत्री नरेंद्र नारायण यादव कहते हैं, ‘कहीं कोई भ्रम नहीं है. हम बटाईदारी को लेकर न तो कोई नया कानून बनाने जा रहे हैं न कोई और नई कवायद ही हो रही है तो फिर भ्रम क्यों रहेगा किसी के मन में?’ नारायण यादव कहते हैं, ‘बिहार पूरी तरह से शांत है, यह सब कोरा भ्रम कुछ लोग फालतू में फैला रहे हैं. हम बोलने से तो किसी को रोक नहीं सकते लेकिन मुख्यमंत्री जब खुद बार-बार कह चुके हैं तो किसानों को निश्चिंत रहना चाहिए.’ नारायण यादव सही कहते हैं. चुनाव सामने है. नीतीश ऐसी कोई भी भूल नहीं करना चाहेंगे लेकिन नीतीश विरोधियों ने इस मसले को हर स्तर पर खाद-पानी देकर हरा-भरा बनाने की कोशिश की है.

आगे नतीजा जो भी हो फिलहाल बंटाईदारी का जिन्न बिहार के खेतों से उड़कर राजनीतिबाजों के कंधे पर आ गया है. यह अब खेती किसानी का कम और राजनीति का मसला ज्यादा है. इसी साल मई में पटना के गांधी मैदान में जब बंद्योपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट के खिलाफ राज्य के बड़े भूस्वामियों की ‘किसान महापंचायत’ हो रही थी तो ठीक उसी वक्त पटना जंक्शन गोलंबर पर किसान और खेतमजदूर भी अपनी सभा में आयोग की रिपोर्ट लागू कराने के लिए आर-पार की लड़ाई छेड़ने का एलान कर रहे थे. ऐसा लग रहा था मानो भूस्वामियों और जोतदारों का राजनीतिक बंटवारा हो गया हो. दरअसल, बिहार की राजनीति हमेशा से जमीन के मसले को अटकाकर रखती आई है. इस बार भी वही हो रहा है. बिहार के ‘राजनीतिबाज’ नहीं चाहते कि जमीन का मसला निपट जाए, क्योंकि तब उनके पास आम लोगों को बरगलाने के लिए क्या रह जाएगा. जमीन का असमान वितरण ही इस विवाद की जड़ में है. 10 प्रतिशत बडे़ भूस्वामियों के पास 90 प्रतिशत जमीन है, जाहिर तौर पर बंटाईदारी से ही ये भूस्वामी अपनी फसल ले पाते हैं. राजनीति करने वालों का एक बड़ा वर्ग नया या पुराना जमींदार भी है,  उनके अपने हित हैं जो बंद्योपाध्याय कमिटी की रिपोर्ट के राजनीतिक विरोध के लिए उन्हें मजबूर करते हैं.