हिंदी फिल्मों के शुक्ल और कृष्ण पक्ष

गौरव सोलंकी चार निर्देशकों के बहाने हिंदी फिल्मों की उस नई धारा के बारे में बता रहे हैं जो मनोरंजक भी है और सार्थक भी. उसका एक हिस्सा परेशान करता है, दूसरा उम्मीदें जगाता है और तीसरा दोनों काम करता है, लेकिन अच्छी बात यह है कि तीनों तरह की फिल्में आखिर तक अपनी ईमानदारी नहीं छोड़तीं 

फिल्में चांद नहीं होतीं कि पंद्रह दिन उजाले की ओर बढ़ें और बाकी पंद्रह दिन अंधेरे की और उनमें से ज्यादातर फिल्में, जिनकी हम बात कर रहे हैं, यह सोचकर भी नहीं बनाई जातीं कि अबकी बार हंसी के पांच जबरदस्त सीन डालने हैं और अबकी बार रुला-रुला कर मार डालना है. यह अपने आप ही होता है कि उनमें से कुछ दिल में गुबार भर देती हैं और कुछ उसे गुब्बारे की तरह हल्का कर देती हैं. दिल हल्का कर देने वाली फीलगुड फिल्मों का एक बड़ा दर्शक-वर्ग है इसलिए वे बनती भी ज्यादा हैं. परेशान करने वाली फिल्मों का छोटा दर्शक-वर्ग है लेकिन वह वफादार है और उन्हें देखने के लिए प्रतिबद्ध, इसलिए वे चाहे कम हों, बनती जरूर हैं.

सिनेमा को मनोरंजन ही करना चाहिए या कुछ सार्थक कहने की कोशिश भी करनी चाहिए, इस पर लंबी बहसें होती रही हैं, लेकिन बहसों में पड़े बिना अस्सी और नब्बे के दशक के सतही दौर से हिंदी सिनेमा को उबारने के लिए पिछले कुछ सालों में कई हाथ खामोशी से उठते गए हैं. किसी क्रांति के दावे किए बिना उन्होंने वह बनाया है जिसे बनाने के लिए वे नागपुर, जमशेदपुर या बनारस की अपनी बेचैन रातें छोड़कर मुंबई आए थे. उसका हिस्सा पटकथा लेखक भी हैं, सिनेमेटोग्राफर, एडिटर और गीतकार, संगीतकार भी. उन सबके हिस्सों को पर्याप्त सम्मान देते हुए हम उन निर्देशकों की बात कर रहे हैं जिन्होंने बिना नारे लगाए परंपरा बदली है. जिन्होंने हिंदी फिल्मों की एक नई धारा विकसित की है जो मनोरंजन करने के लिए अपनी गहराई नहीं छोड़ती.

फिल्में चांद नहीं हैं लेकिन हम प्रतीकों में बात करने का मोह नहीं छोड़ पाए और हमने उन निर्देशकों को दो खांचों में बांटने की कोशिश की, परेशान करने वाला डार्क सिनेमा उसका कृष्ण पक्ष है और उम्मीदों पर खत्म होने वाला उजला सिनेमा उसका शुक्ल पक्ष. अगले पन्नों पर दो शुक्ल पक्ष के निर्देशक शिमित अमीन और दिबाकर बनर्जी हैं और दो कृष्ण पक्ष के निर्देशक अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज हैं. जाहिर-सी बात है कि ये चार निर्देशक मिलकर पूरा परिदृश्य नहीं रचते और वे अपने-अपने पक्ष में सर्वश्रेष्ठ हैं, ऐसा भी दावा यहां नहीं है और न ही ऐसी टॉप चार सूचियों का कोई औचित्य है. जैसे अगले पन्नों पर ‘मुन्नाभाई’, ‘सोचा ना था’ या ‘रंग दे बसंती’ के संदर्भ और राजकुमार हीरानी, इम्तियाज अली या राकेश ओमप्रकाश मेहरा नहीं हैं और यही सिद्ध करता है कि यह किसी तरह की रैंकिंग वाली सूची नहीं है. लेकिन यह जरूर है कि इन चारों निर्देशकों के काम में ऐसी निरंतरता रही है जिसने हिंदी फिल्मों में स्थायी रूप से कुछ न कुछ नया जोड़ा है. यह बस इस बहाने से इन चार महत्वपूर्ण निर्देशकों के अब तक के काम को एक साथ देखने की कोशिश है. ये चार नाम इसलिए भी यहां हैं कि इनके काम के महत्व की तुलना में मुख्यधारा के मीडिया में इनका जिक्र थोड़ा कम ही हुआ है.

बहरहाल, यदि नए और सार्थक हिंदी सिनेमा के पूरे फलक की बात करनी हो तो वह सुधीर मिश्रा की ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ के आदर्शों और उनसे मोहभंग के बिना पूरी नहीं हो सकती और न ही जोया अख्तर की ‘लक बाय चांस’ की नायिका के आखिरी फैसले के बिना. उच्च वर्ग के आत्मकेंद्रित लड़के-लड़कियों की फिल्मों का जॉनर शुरू करने वाली फरहान अख्तर की ‘दिल चाहता है’ का जिक्र भी जरूरी है और तिग्मांशु धूलिया की इलाहाबाद की कॉलेज राजनीति पर बनी ‘हासिल’ का उससे भी ज्यादा जरूरी. ‘इकबाल’ और ‘डोर’ के नागेश कुकुनूर, ‘एक हसीना थी’ और ‘जॉनी गद्दार’ के श्रीराम राघवन, ‘पिंजर’ के चंद्रप्रकाश द्विवेदी, ‘आमिर’ के राजकुमार गुप्ता, ‘उड़ान’ के विक्रमादित्य मोटवानी, ‘तेरे बिन लादेन’ के अभिषेक शर्मा और ‘पीपली लाइव’ की अनुषा रिजवी भी हमारी फिल्मों को उस तरफ ले जाते हैं जहां गर्व और ढेर सारी उम्मीदें हैं. 

जहां जिंदगी प्रेमगीत नहीं रह पाती…

(अनुराग कश्यप)

कमाल अचानक नहीं होता, लेकिन लगता अचानक ही है. वह पहाड़गंज के एक बेंच जैसे बिस्तर पर होता है जहां चंदा देव को बताती है कि कैसे उसके प्रेमी ने उसका एमएमएस बनाया था, जो देश भर के लोगों ने डाउनलोड करके देखा. उन देखने वालों में उसके पिता भी थे जिन्होंने आत्महत्या कर ली, यह कहने की बजाय कि कोई बात नहीं बेटा, जो हो गया सो हो गया, अब सब भूल जाओ. देव, जो देवदास है, इससे पहले तक लोकप्रिय संस्कृति का सबसे कायर और निष्ठुर नायक, उसे गले लगाता है और कहता है- कोई बात नहीं बेटा, जो हो गया सो हो गया, अब सब भूल जाओ.

अनुराग दुनिया की हर तरह की फिल्म लिख सकता है. जरूरी नहीं कि वह अनुराग तरह की फिल्म ही लिखे. उसकी बैंडविड्थ बहुत ज्यादा है. वह हर जॉनर के साथ न्याय कर सकता है – जयदीप साहनी

क्या आपने ध्यान दिया कि ‘देव डी’ की सहानुभूति उस पिता के साथ बिलकुल नहीं है जिसे आप बेचारा समझते हैं, तथाकथित रूप से जिसे अपनी इज्जत इतनी प्यारी है कि उसके बिना वह जी भी नहीं पाया. ‘देव डी’ उसे गाली देती है. वह और भी बहुत-से नए काम करती है. मसलन पारो अपने पति के साथ खुश है और शादी के बाद अंधेरे कमरों में फूट-फूटकर नहीं रोती. और यह भी नियम नहीं है कि जिसे हीरो छोड़ दे उसे ऐसा तलाकशुदा या विधुर ही मिले जो सिर्फ बच्चों का खयाल रखने के लिए शादी करना चाहता हो. उसकी चंदा किसी मजबूरी में वेश्या नहीं बनी. यह उसके लिए करियर है, साथ में पढ़ाई और दोस्त भी हैं. वह भी छिप-छिपकर नहीं रोती. उसके सुखांत में अपने ऊपर थोपी गई सारी महानता ठुकराकर देव स्वीकार करता है कि उसने कभी पारो से प्यार किया ही नहीं. इससे पहले देवदास तो क्या, कौन-सा हीरो था जिसने यह कुबूला था?

हमारे समय की एक डार्क फिल्म में इतनी सकारात्मक चीजें हैं. भंसाली के भव्य संस्करण के बावजूद (जिसके सेट अपनी फिल्म की थीम का उदास असर काटने के लिए बेशर्मी से महंगे हैं) उसी मूल कथा पर बनी ‘देव डी’ सिनेमा की परिभाषा में डार्क इसलिए है कि उसकी आखिरी तह में गहरा अवसाद है, उसके रंगों और संगीत में वह बुखार है जिसमें अपना सिर आपको फूले हुए गुब्बारे जैसा लगने लगता है. अच्छी बात यह होती है कि एक अखबार अपनी समीक्षा में उसे पांच सितारे देता है और अखबार देखकर फिल्म देखने निकलने वाली जनता हाउसफुल कर देती है. वे अनुराग कश्यप को जानने लगते हैं. हालांकि वे ‘ब्लैक फ्राइडे’ और ‘नो स्मोकिंग’ के बारे में नहीं जानते और न ही अगले महीने रिलीज होने वाली कहीं ज्यादा अंधेरी ‘गुलाल’ के लिए उतना उत्साह दिखाते हैं. उन्हें प्रेम कहानियां चाहिए जो अनुराग के पास ज्यादा नहीं हैं और हों भी तो शायद वे बनाना नहीं चाहते. वे शायद ‘सत्या’ और ‘शूल’ भी नहीं बनाना चाहते जो उनकी लिखी सबसे सराही गई फिल्मों में से हैं.

अनुराग का नायक ही है जो अपने पास बैठी शरीफ समझी जाने वाली औरत का बस-टिकट इस बात पर खा जाता है कि वह उसे शराब न पीने की बिन मांगी सलाह दे रही होती है. वह अपने चेहरे और नाम बदलता है लेकिन गुस्सा नहीं छूटता. ‘पांच’ के केके में वह चरम पर है, ऊपरी सतह पर लगभग बेवजह लगता हुआ, जो नैतिकतावादियों को अपनी सीट पर आराम से नहीं बैठना देता. ‘गुलाल’ में उस गुस्से के पीछे विश्वासघात और मोहभंग है. ‘ब्लैक फ्राइडे’ में वह गुस्सा सामूहिक है इसलिए सबसे ज्यादा तार्किक लगता है. ‘नो स्मोकिंग’ में वही गुस्सा खूबसूरत है. उसका जादुई यथार्थ उसे कोमल बनाता है. सायास-अनायास जब साहित्य में भी कविता हाशिए पर जा रही है तब ‘नो स्मोकिंग’ अनुराग की सबसे काव्यात्मक फिल्म है. उसके बनने के बाद भी वैसी किसी फिल्म का बॉलीवुड में बनना असंभव-सा लगता है. वही है जिसे देखकर आप अनुराग की हदें जान सकते हैं. वही है जिसे देखकर आप बेहतर समझ सकते हैं कि क्यों अनुराग कश्यप अचानक फिल्म-निर्देशक बनने की चाह रखने वाले युवाओं के आदर्श हो गए हैं. यदि नई तरह का सिनेमा वह है, जो अपने दर्शकों से इतनी मोहब्बत करता है कि उनकी परवाह ही नहीं करता, जो हर घटना की वजह बताने को वक्त को जाया करना समझता है, जो इशारों में बात करने से पहले या बाद उनके मतलब नहीं समझाता तो हां, ‘नो स्मोकिंग’ उस नए सिनेमा की अगुआ फिल्मों में से एक है. वह जिंदगी की तरह है, जो आपको नहीं बताती कि कलम पकड़ने वाली आपकी उंगलियां और सच बोलने वाली जुबान क्यों काटी जा रही हैं?

नए दौर के फिल्मकारों में अनुराग और विशाल सबसे ज्यादा असहज करते हैं. उनकी फिल्में हिंसा और जटिलताओं के बीच मासूम और निरीह हैं. अपनी गालियों के बीच वे सबसे साफ और निर्दोष जुबान हैं.  

जग जा री गुड़िया…

(विशाल भारद्वाज)

विशाल भारद्वाज के भीतर दो तरह के विशाल भारद्वाज हैं. कमीने के गुड्डू और चार्ली की तरह, लेकिन दोनों हकलाते या तुतलाते नहीं हैं. एक के पास अपार दुख, विश्वासघात और क्रोध की कहानियां हैं और दूसरे के पास बच्चों की कहानियां. आप ‘ब्लू अम्ब्रेला’ देखते हुए शायद नहीं कह सकते कि ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ से उसका इतना करीबी रिश्ता है. लेकिन आप संवादों पर ध्यान दें तो यह इतना मुश्किल भी नहीं है.

उनकी फिल्मों की अभूतपूर्व क्षेत्रीय बोली, स्थानीय गालियां और मुहावरे जिसके जरूरी हिस्से हैं, उन्हें विश्वसनीय बनाती है. यही बात है जो ‘ब्लू अम्ब्रेला’ को ‘ओमकारा’ से जोड़ती है. दूसरी बात सिनेमेटोग्राफी और लगातार गहराता हुआ दुख और अकेलापन है. अपनी कमजोर कहानी के बावजूद ‘कमीने’ भी यही खूबियां साझा करती है. ‘कमीने’ और ‘ब्लू अम्ब्रेला’ के बेचैन हैंडहेल्ड शॉट दिबाकर की ‘एल एस डी’ की तरह ही असहज करते हैं और आपकी आराम की आदतों को तोड़ते हैं.

विशाल के अंदर मेरठ उसी तरह बसा हुआ है जैसे दिबाकर के अंदर दिल्ली. मुझे उन लोगों की फिल्में देखना अच्छा लगता है जिनके काम में दिखता है कि वे कहां से हैं –    अनुराग कश्यप

नए दौर के कई और फिल्मकारों के साथ विशाल का असली विद्रोह हिंदी फिल्मों के अवास्तविक लगते डायलॉग से ही है. वे अपनी और इसीलिए हमारी भाषा बोलते हैं. बच्चों के मासूम सवाल और बड़ों के अश्लील मजाक, उतनी ही सच्चाई से. उनके अपराधी तमीज से बात नहीं करते और शायरी की उपमाएं नहीं देते. उनकी नायिकाएं अपने नायकों को प्यार से हरामखोर, भेडि़या या संपोला कहती हैं. भाषा की वास्तविकता के प्रति उनका यह आग्रह इतना पुख्ता है कि ‘कमीने’ में बंगाली भाई कई मिनट बंगाली में ही बात करते हैं. इससे बिलकुल बेफिक्र कि दर्शक उसे समझते हैं या नहीं. इसी तरह वे ‘ओमकारा’ की भाषा में लगातार एक खेल खेलते हैं. अपनी कहानी और किरदारों के प्रति ईमानदार रहना उनके लिए दर्शकों की सहूलियत का खयाल रखने से ज्यादा जरूरी है.

उदासी उनकी फिल्मों का स्थायी भाव है. ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ के अंत से काफी पहले शुरू होकर, खत्म होने के बहुत बाद तक वह उदासी आपके भीतर पैठ जाती है. इसमें शायद शेक्सपियर के उन नाटकों का भी काफी असर है जिनसे ये फिल्में प्रेरित हैं. लेकिन एक बड़ा हिस्सा विशाल का भी है. आत्मा से आत्मा तक पहुंचता उनका संगीत उनकी फिल्मों को और बड़ा कर देता है.        

उनमें दुखांतों के प्रति गहरा मोह भी है. एक न खत्म होने वाला गुस्सा और दुख, जिसका इसके अलावा कोई प्रायश्चित नहीं कि वह अपने साथ सबको खत्म कर ले. उनके यहां यथार्थ इतना नंगा है कि झूठ बोलकर उसे छिपाया भी नहीं जा सकता. उनके किरदारों के प्रेम में इतना जुनून है कि उसके लिए वे अपनी और दूसरों की सब सल्तनतें जलाकर राख कर सकते हैं. सबसे दुखद यह है कि सामान्य दुखांतों की तरह मरकर भी उनके नायक शांति नहीं पाते. खुद को गोली मारने से पहले ओमी जानता है कि उसे न यहां चैन मिलेगा न मरने के बाद. यही मकबूल भी जानता है. बस गुड्डू और चार्ली के पास वे गलतियां और विश्वासघात नहीं हैं, इसलिए न वैसी अशांति है और न ही इतना दुख. इसलिए उसका मृत्यु से पगा हुआ अंत बाद में महीनों तक दुखी नहीं करता, लेकिन शायद विशाल के लिए हर कथा में वह जरूरी है.

विशाल के सिनेमा को जानने के लिए उनके संगीत को जानना भी उतना ही जरूरी है. वे मूलत: कवि ही हैं जो हिंसा दिखाते हुए भी अपनी कोमलता नहीं छोड़ता. ‘माचिस’ के ‘छोड़ आए हम वो गलियां’ की तरह उनके संगीत और फिल्मों में बार-बार वही नॉस्टेल्जिया है जो उनकी फिल्मों को बॉलीवुड की अब तक की मुख्यधारा से अलग दुनिया देता है. ऐसा लगता है कि उनका कुछ ‘ओमकारा’ में मरती डॉली के साथ या ‘ब्लू अम्ब्रेला’ में गाना गाकर चंदा मांगते बच्चों के साथ छूट गया है. वे देर तक ‘जग जा री गुडि़या’ गाना चाहते हैं और समय बार-बार उनकी गुड़िया के मुंह पर तकिया रखकर उसका दम घोट देता है. उनका सारा सिनेमाई संघर्ष इसी गलती के कभी न हो सकने वाले प्रायश्चित से है. वे इस मजबूरी पर फिल्में खत्म करते हैं कि काश! पीछे लौटकर कुछ बदला जा सकता. एक नीली छतरी की चोरी (यह सब तब है जब मूल कहानियां उनकी नहीं हैं) पंकज कपूर को हत्यारे जितने अवसाद से भर देती है. वह मकबूल जितना ही अकेला है. अंधेरा और बाहर की दुनिया उसे उतना ही डराती है. वही बाहर जिसके उत्सवों से उसे बेदखल कर दिया गया है क्योंकि उसने शिद्दत से कुछ चाहा है और इस चक्कर में दुनिया और दुनियादारी को बिलकुल भूल गया है. विशाल उसका पक्ष भी नहीं लेते और इसीलिए आपको एक लंबी उदासी में डुबो देते हैं. वे हिंसा का सौंदर्यशास्त्र गढ़ते हैं, जिसमें दुख कुछ ज्यादा हो गया है. यही उन्हें हिंदी सिनेमा में जरूरी भी बनाता है.

खोसला, लकी और धोखा

(दिबाकर बनर्जी)

दिबाकर को इतनी आसानी से नहीं समझा जा सकता. बड़ी वजह यह है कि आप उनकी फिल्मों को बाकी निर्देशकों की तरह खास जॉनर या खांचों में नहीं बांट सकते. वे एक फिल्म बनाते हैं और उसे चाहने वाले दर्शकों का एक बड़ा वर्ग और फिर उसे भूलकर बिलकुल अलग किस्म की दूसरी फिल्म बनाते हैं, जिससे दूसरा वर्ग जुड़ता है और दिबाकर अगली बार उसके भी वफादार नहीं रहते. इसीलिए उनके काम में हर बार स्थायी रहे तत्वों को पहचानना भी मुश्किल है. यही चुनौती दिबाकर को सबसे खास बनाती है. आप न कॉमन चीजें ढूंढ़कर दूसरों को चमत्कृत कर सकते हैं और न ही उनके अगले काम के बारे में ज्यादा अनुमान लगा सकते हैं. आप ज्यादा से ज्यादा यह खोज कर सकते हैं कि उनकी फिल्मों में कॉमेडी कॉमन है (इस पर शायद आप बहस करना चाहें) और दिल्ली अपनी पूरी असलियत के साथ हर बार है. वे दर्शकों की आदत का खयाल रखते हुए उसे उस तरह नहीं दिखाते कि सब महत्वपूर्ण दृश्य कुतुब मीनार या पुराने किले में ही घटित हों. ‘ओए लकी लकी ओए’ में कुतुब मीनार या इंडिया गेट बस लकी के बड़े होने की तस्वीरों में है और वहां भी वह इसे मजाकिया अंदाज में पेश करती है.

दिबाकर हमें दिल्ली को उस तरह दिखाते हैं, जिस तरह हम दिल्लीवाले भी उसे  नहीं देख पाते. उनके किरदार इतने वास्तविक होते हैं कि पहली बार में वे हमें नकली लगते हैं – राजा सेन, फिल्म समीक्षक

उनकी फिल्मों की भाषा और लहजे में इतना अपनापन है कि वह अपने आसपास का होते हुए भी अजीब-से आश्चर्य से भर देता है और बिना कोई अतिरिक्त प्रयास किए हंसाता है. इसीलिए ‘खोसला का घोंसला’ एक त्रासद कहानी होते हुए भी – एक रिटायर हुए आदमी का एक बेटा बेकार है, दूसरा विदेश जा रहा है और उसकी सारी जमा-पूंजी से खरीदा गया गुड़गांव का प्लॉट एक अमीर बिल्डर ने हथिया लिया है – पारिवारिक कॉमेडी फिल्म के रूप में ज्यादा जानी जाती है. ऐसा ही कुछ ‘ओए लकी लकी ओए’ के साथ है, लेकिन थोड़ा कम. वह हंसाती है लेकिन मध्यमवर्ग वाले पारिवारिक मूल्यों को तोड़ती है. लकी के पिता की नई पत्नी की नजर किशोर लकी पर है. शायद हिंदी सिनेमा में ऐसा पहली बार ही होता है कि एक ही चेहरे वाले तीन अलग-अलग किरदार हैं. वे लकी की जिंदगी के तीन अध्यायों की तरह हैं या तीन खलनायकों की, जो सिर्फ पैसे से प्यार करते हैं. लकी चोर है लेकिन वह पैसे से नहीं, चोरी से प्यार करता है इसीलिए हमें उससे प्यार हो जाता है.

‘लव सेक्स और धोखा’ कहानी और फॉर्म, दोनों के स्तर पर उनकी सबसे ज्यादा परंपरा तोड़ने वाली फिल्म है. उसके नाम में सेक्स है लेकिन सेक्स देखने के लिए उसे देखने वाले लोग गालियां देते हुए लौटते हैं. वह ‘चर्चगेट की चुड़ैल’ और ऐसे ही वीडियो की घोषणाओं के साथ फुटपाथी उपन्यासों की शैली में शुरू होती है और आपको किसी भी तरह की बौद्धिक बहस का न्यौता नहीं देती, लेकिन फिर भी आश्चर्यजनक रूप से इस साल की सबसे ज्यादा परेशान करने वाली फिल्मों में से एक बन जाती है.

हां, यही दिबाकर की खासियत है. उनकी फिल्मों में लगातार एक दुख है, एक जिद्दी ईमानदारी जो उसे हंसकर झेलती है और समझ में नहीं आता कि चुटीले डायलॉग से वह तकलीफ कम होती है या गहरी. कभी-कभी उल्टा भी होता है. खोसला साहब की बेचारगी और खुराना का कमीनापन दोनों हंसाते ही हैं, वहीं ‘एलएसडी’ में बॉलीवुड की प्रेम कहानियों का मजाक आगे पड़ने वाली चोट का असर और गहरा करता है. वहां वे आपकी खाल को पहले इतना नर्म करते हैं कि जब उसे काटा जाए तो दर्द बड़ा हो. इसीलिए ‘एलएसडी’ के पहले हिस्से का अंत कम से कम आधे घंटे का ब्रेक मांगता है. वह तो नहीं मिलता क्योंकि फिल्म को आगे बढ़ना है लेकिन आप यह नहीं मान पाते कि वह फिल्म है.

अगर उनकी पहली दोनों फिल्मों को देखा जाए तो उनके पास एक अच्छी दुनिया है, बहुत सारी मुश्किलें, लेकिन इतनी नहीं कि जिसके साथ आपकी सहानुभूति है, वह थोड़ा ज्यादा रो दे. एकाध आंसू तो चलता ही है. खासकर ‘खोसला का घोंसला’ अच्छाई की जीत की ऐसी फिल्म है जो नए सिनेमा के अच्छे हिस्से में से खत्म होती जा रही हैं. वह नई जुबान के साथ, सब अच्छे अर्थों में पुरानी तरह की फिल्म है. दिबाकर नए दौर के अकेले ऐसे फिल्मकार हैं जिनका कोई करीबी विकल्प हिंदी सिनेमा के पास नहीं है. इसी तरह उनकी फिल्मों का भी.

सत्तर मिनट का धुनी

(शिमित अमीन)

शिमित अमीन लॉस एंजिल्स में रहते थे. वहीं से ‘भूत’ की एडिटिंग करते हुए रामगोपाल वर्मा ने उन्हें ‘अब तक छप्पन’ का निर्देशक बनने को कहा. अपने निर्देशक बनने को शिमित महज एक संयोग मानते हैं, लेकिन यदि ऐसा है तो यह दशक के सबसे खूबसूरत संयोगों में से एक है. ’अब तक छप्पन’ पुलिसवालों की ‘सत्या’ ही है, जो आपको चौंकाती है लेकिन उसके लिए उसे लंबे एक्शन दृश्यों की जरूरत नहीं है. उसके किरदार आम हैं, उनकी मजबूरियां, इच्छाएं और बातें भी आम. फिल्म की शुरुआत के एनकाउंटर में गोली इस तरह मारी जाती है, हंसकर बातें करते हुए, जैसे आप बातें करते हुए अपने दफ्तर की कोई फाइल निपटा रहे हों. यह सपाट और आम होना ही एक खास ठंडक आपकी रगों में दौड़ा देता है. यूं तो ‘अब तक छप्पन’ पर रामगोपाल वर्मा का कुछ असर है लेकिन उसकी कई खूबियां आप शिमित के आगे के काम ‘चक दे इंडिया’ और ‘रॉकेट सिंह’ में हर बार देख सकते हैं, मसलन बहुत सारे किरदारों की फिल्म और उसमें कई छोटे किरदारों पर भी उतना ही ध्यान. उनकी फिल्मों के दो मिनट के रोल वाले किरदार भी बेवजह और मामूली नहीं होते. उनकी फिल्में प्रेम कहानियों को ज्यादा से ज्यादा पांच फीसदी रील देती हैं और संगीत पर भी उतनी निर्भर नहीं हैं जितनी अनुराग या विशाल की फिल्में हैं. इसलिए फिल्म का सारा दारोमदार उसकी कहानी पर होता है और वह आपको निराश नहीं करती. अपनी गंभीर कहानियों के बावजूद – गौर कीजिए कि उनकी तीनों फिल्में तीन बिलकुल अलग प्रोफेशनों की फिल्में हैं. उनकी फिल्में माहौल को बोझिल होने से बचाने की हर संभव कोशिश करती हैं, उनकी एडिटिंग इतनी सहज होती है कि नजर नहीं आती और उनका मुख्य किरदार अपने सफर में बहुत-कुछ खोता है, लेकिन हार नहीं मानता और आखिर में जीतता है. हां, रास्ते में एक-दो नाटकीय चीजें (जिन्हें फिल्मी टाइप की घटनाएं कहा जाता है) जरूर होती हैं लेकिन वे फिल्म को नकली नहीं बनातीं और न ही उन घटनाओं का असर कम करती हैं. उनकी फिल्में राजकुमार हीरानी या इम्तियाज अली जितनी फीलगुड नहीं हैं और न ही अनुराग या विशाल की फिल्मों जितनी उदास. हां, वे अपनी सादगी और ईमानदारी नहीं छोड़तीं. वे अपने अच्छे लोगों के साथ इतनी मजबूती से खड़ी होती हैं कि नियति को भी बदल देती हैं. वे अच्छाई की जीत की फिल्में हैं, इस तरह हिंदी फिल्मों की परंपरा के सबसे नजदीक और फिर भी अपनी वास्तविकता नहीं खोतीं.

शिमित खुदा का बंदा है. उसे पुरस्कारों और शोहरत से कोई मतलब नहीं है. उसके लिए यही सबसे बड़ी सफलता है कि आपको अपने कमरे में डीवीडी पर उसकी फिल्म देखकर अच्छा लगे –            जयदीप साहनी

इन लगातार दिखती खूबियों के बावजूद उनकी तीनों फिल्में एक-दूसरे से इतनी अलग हैं कि शिमित के काम के बारे में एक आम राय देना मुश्किल हो जाता है. दिबाकर की तीनों फिल्में अलग होने के बावजूद अपनी भाषा और दिल्ली की कड़ी से बंधी तो हैं, शिमित के यहां वैसी कोई कड़ी भी नहीं दिखती. इसकी एक वजह यह भी है कि यहां जिन चार निर्देशकों का जिक्र हुआ है उनमें से शिमित ही ऐसे हैं जो अपनी फिल्में खुद नहीं लिखते. इसलिए यदि उनकी तीन फिल्मों को थोड़ी समानताओं के आधार पर (हालांकि वे समानताएं भी दो-चार फीसदी होंगी) दो हिस्सों में बांटा जाए तो संदीप श्रीवास्तव की लिखी ‘अब तक छप्पन’ एक तरफ होगी और जयदीप साहनी की ‘चक दे इंडिया’ और ‘रॉकेट सिंह’ दूसरी तरफ. उनकी फिल्मों का यदि कोई आसानी से नजर आने वाला सिग्नेचर है तो वह शायद उनके लेखकों का है. लेकिन शिमित के काम में उन कहानियों की हर डीटेल के प्रति उतनी ही आस्था है और यह उनकी खासियत है कि उनका निर्देशक ‘चक दे इंडिया’ के हॉकी मैचों को एक जैसा होते हुए भी एक जैसा नहीं दिखने देता. वे ‘रॉकेट सिंह’ की उबाऊ दफ्तरी जिंदगी में से भी एकरसता निकाल फेंकते हैं और कहानी को भी समझौता नहीं करने देते. आप ‘चक दे इंडिया’ के हर राज्य की लड़की में क्षेत्रीय स्टीरियोटाइप भले ही तलाश लें, लेकिन आप उन जुनूनी लड़कियों की लड़ाई में उनके साथ ही खड़े होते हैं (वैसे ‘चक दे इंडिया’ अपनी मूल कहानी में ही कई स्टीरियोटाइप तोड़ती है- हॉकी पर फिल्म और वह भी लड़कियों की हॉकी).

शिमित की एक बड़ी सफलता यह भी है कि वे पहली बार शाहरुख खान को शाहरुख खान बने रहने की सीमा से बाहर खींचकर लाते हैं. ‘रॉकेट सिंह’ का हरप्रीत इतना विश्वसनीय है कि आपको रणबीर कपूर नामक व्यक्ति का अस्तित्व याद नहीं आता. इसी तरह वे नाना पाटेकर को उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में से एक थमाते हैं.

शिमित सत्तर मिनट वाली उस बेफिक्र, और साथ ही जिद्दी लड़ाई से हमें जोड़ते हैं और किसी भी पारंपरिक ढंग से स्त्रीवादी हुए बिना हिंदी फिल्मों के परदे पर औरत को उसके हिस्से का सम्मान देते हैं. वह ‘रॉकेट सिंह’ ही है, जिसमें आइटम गर्ल होने की तमाम खूबियों के बावजूद गौहर खान के किरदार का विद्रोह आइटम गर्ल होने से ही है.