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तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए

झारखंड की कई समस्याएं उसकी अपनी और विशिष्ट समस्याएं हैं तो कई एक साझा और अखिल भारतीय संकट की भी देन हैं

झारखंड का होने के नाते अकसर मुझे अपने साथी पत्रकारों का यह उलाहना सुनना पड़ता है कि मेरे राज्य में क्या हो रहा है. राजनीतिक और आर्थिक भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी दिल्ली का यह उलाहना मुझे शर्मिंदा कम, हैरान ज्यादा करता है. हालांकि इसके साथ यह अफसोस जुड़ा रहता है कि झारखंड इन दिनों या तो उस भ्रष्टाचार की स्मृति जगाता है जिसके आरोपों की जद में शिबू सोरेन से लेकर मधु कोड़ा तक हैं या फिर उन अवसरवादी बनते-टूटते गठजोड़ों की, जिनकी वजह से इस छोटे-से राज्य में दस साल में आठ सरकारें बन चुकी हैं. दिल्ली की निगाह में झारखंड राजनीतिक अवसरवाद और भ्रष्टाचार का नया प्रतीक है जिससे यह साबित होता है कि छोटे राज्य छोटे स्वार्थों के आगे आसानी से बिछ जाते हैं या आदिवासियों के दमन और शोषण की बात उठाने वाले नेता खुद शोषकों के साथ खड़े हो जाते हैं और लगभग लुटेरों की तरह राज्य के संसाधनों का दोहन करते हैं.

झारखंड का आंदोलन सिर्फ इसके लिए नहीं चला था कि लूट का तंत्र पटना से उठकर रांची चला आए. वह सिर्फ एक राजनीतिक आंदोलन भी नहीं था. वह एक समग्र सांस्कृतिक और सामाजिक आंदोलन था जिसकी बुनियाद में अगर शोषण और दमन की सदियों पुरानी टीस थी तो एक नया और समतामूलक समाज बनाने का सपना भी था और विकास की वैकल्पिक धारा बन सकने का आत्मविश्वास भी. यानी यह बस एक अलग राज्य का ही नहीं, विकास के नए प्रारूप का भी आंदोलन था. सच्चे अर्थों में एक जनांदोलन जो आधी सदी से ज्यादा समय तक इस बात के बावजूद पूरी ताकत से चलता रहा कि इसके नेता वक्त-वक्त पर आंदोलन के साथ दगाबाजी करते रहे.

पहले ही दिन से झारखंड उन दिक्कुओं के हवाले हो गया था जिनके विरुद्ध संघर्ष के आह्वान के साथ कभी इसकी मांग अस्तित्व में आई थी

लेकिन शोषण और दमन की जिस राजनीति के विरोध में यह आंदोलन खड़ा हुआ और चलता रहा उसी ने बाद में चुपके से इसे अगवा कर लिया. यह शायद 80 का दशक था जब झारखंड के सभी राजनीतिक दल एक ही सुर में बोलने लगे. बिहार से अलग झारखंड की राजनीतिक मांग दिल्ली तक पहुंचने लगी और यह नई बनी एकजुटता बताने लगी कि झारखंड तो बनके रहेगा. यह आंदोलन अचानक सिर्फ स्थानीय राजनीतिक दलों और आकांक्षाओं का नहीं रह गया, वह कांग्रेस, भाजपा और जनता दल जैसी पार्टियों का भी आंदोलन हो गया. दरअसल पुराने सांस्कृतिक और राजनीतिक संघर्ष की बुनियाद पर खड़ा यह नया अवसरवादी आंदोलन था जिसका प्रत्युत्तर देना दिल्ली और पटना को आसान लगा और साल 2000 में झारखंड अस्तित्व में आ गया.

कायदे से यह नया राज्य झारखंड के मूल आदिवासी संघर्ष को नहीं, इस नई राजनीतिक मांग को दिया गया. झारखंड के नाम पर एक कपटी आम सहमति तैयार की गई और अलग राज्य की एक उचित और वास्तविक दावेदारी अवसरवाद की नई राजनीतिक अपसंस्कृति के हवाले हो गई. झारखंड की मांग सबको लुभाने लगी तो इसलिए नहीं कि इससे आदिवासियों और गरीबों का शोषण रुकेगा, बल्कि इसलिए कि सत्ता के प्रपंच कुछ और करीब आ जाएंगे, साधनों की लूट-खसोट से पटना में काबिज एक तंत्र को बाहर किया जा सकेगा. इसीलिए साल 2000 में जो कटा-छंटा झारखंड बना, वह पहले ही दिन से उन दिक्कुओं के हवाले हो गया जिनके विरुद्ध संघर्ष के आह्वान के साथ कभी इसकी मांग अस्तित्व में आई थी. यह अनायास नहीं था कि राज्य में पहली सरकार उस भारतीय जनता पार्टी की बनी जो झारखंड की नहीं, वनांचल की मांग करती थी.
इस लिहाज से दुष्यंत कुमार का एक शेर झारखंड के हालात पर सटीक बैठता है, ‘ दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो / जो तमाशबीन थे, दुकानें लगा के बैठ गए.’ झारखंड आंदोलन के नाम पर जिन नेताओं की दुकान चलती थी, उन्हें वाकई मेले ने लूट लिया और जो बाहर से तमाशा देखते थे, वे उनकी दुकानों पर काबिज हो गए. इन नए दुकानदारों को इस बात की परवाह क्यों होती कि जो झारखंड मिला है, वह आधा-अधूरा है या फिर उसमें आदिवासी हितों की उपेक्षा हो रही है, उनके लिए इतना ही पर्याप्त था कि अपनी राजनीतिक हसरतों के लिए उन्हें एक नए राज्य की जमीन हासिल हो गई है.

दरअसल जो दिल्ली आज झारखंड को उलाहना देती है, उसी ने उसे सत्ता की सौदेबाजियां भी सिखाई हैं. झारखंड आंदोलन की विश्वसनीयता को जो सबसे तीखी चोट लगी, वह कई भाषाओं के जानकार और विद्वान माने जाने वाले प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के समय लगी जब उनकी सरकार को बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों ने रिश्वत ली. इस रिश्वत कांड की कालिख कांग्रेस नहीं, झारखंड मुक्ति मोर्चा के चेहरे पर पोती गई. पिछले दिनों भी झारखंड का जो संकट पैदा हुआ, वह दिल्ली की सरकार बचाने की कशमकश के दौरान ही हुआ. ईमानदार माने जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पार्टी ने अपनी राजनीतिक मजबूरियों और जरूरतों के हिसाब से इन नेताओं का इस्तेमाल किया और फिर इन्हें किनारे कर दिया. रांची में कांग्रेस और भाजपा अपने-अपने ढंग से झारखंडी दलों को नचाते रहे.

लेकिन क्या यह इतना इकतरफा खेल है? क्या झारखंड के आदिवासी हितों के प्रवक्ता नेता वाकई इतने मासूम और भोले-भाले हैं जिन्हें दिल्ली ने ठग लिया या फिर उन्हें भी दिल्ली का खेल रास आने लगा था? तौर-तरीके दिल्ली ने भले सिखाए हों, लेकिन अपने ही लोगों को लूटने का, उनकी उम्मीदों को तोड़ने का, एक पूरे और वास्तविक आंदोलन को अविश्वसनीय बनाने का जो अक्षम्य अपराध है, वह तो इन्होंने ही किया है और इसका दंड भी इन्हें भुगतना होगा. शायद वह इन्हें मिल भी रहा है. झामुमो हो या आजसू, सब कांग्रेस और भाजपा के हाशिए के मददगार के तौर पर बचे हुए हैं और उनके लूटतंत्र में अपना एक हिस्सा हासिल कर संतुष्ट हैं.

इस लिहाज से देखें तो झारखंड एक बहुत बड़ी संभावना की अकाल मृत्यु का भी प्रतीक है. अपनी विशिष्ट पठारी बनावट, अपने प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता और अपनी बहुसांस्कृतिक आबादी के साथ झारखंड सिर्फ विकास का ही नहीं, नए और आधुनिक समाज का भी ऐसा मॉडल हो सकता था जो बाकी भारत के लिए नजीर होता. 50 साल से ज्यादा लंबे समय तक चले सांस्कृतिक-राजनीतिक आंदोलन ने वहां एक ऐसा बुद्धिजीवी समाज भी बनाया जो इस वैकल्पिक मॉडल की रूपरेखा बनाता रहा था और बना सकता था. रांची विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय भाषा विभाग ने अलग-अलग क्षेत्रीय भाषाओं में जो काम किया और करवाया, उसकी वजह से अलग-अलग समुदायों में जागरूक युवाओं और विचारकों की एक बड़ी टीम तैयार भी थी. लेकिन सत्ता का बुलडोजर इन सबको बड़ी बेरहमी से कुचलता चला गया. झारखंड अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता से रीता हुआ बस एक राजनीतिक झारखंड होकर रह गया जिसे राजनीतिक दल अपनी-अपनी सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल और बदनाम करते रहे. इस झारखंड में गरीब और आदिवासी पहले की ही तरह विस्थापित होते रहे और दिल्ली-पटना और रांची के बीच तार बिछाकर बैठे बिचौलियों की ताकत और हैसियत बढ़ती चली गई. दुर्भाग्य से इस दुरभिसंधि में सिर्फ नेता ही नहीं, दूसरी जमातें भी शामिल रहीं.

सवाल है, झारखंड की यह नियति क्यों हुई? बीती सदी में जो सांस्कृतिक आंदोलन इस समाज में दिख रहा था, वह अचानक तिरोहित क्यों हो गया? इसका एक जवाब वीर भारत तलवार की झारखंड पर केंद्रित किताब झारखंड के आदिवासियों के बीच: एक ऐक्टिविस्ट के नोट देने की कोशिश करती है. तलवार लिखते हैं कि झारखंड को बिरसा मुंडा के रूप में राजा राममोहन राय तो मिले, वह विवेकानंद नहीं मिला जो इस आंदोलन को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाता, वैज्ञानिक समाजवाद की जो अवधारणा इस सांस्कृतिक आंदोलन के साथ विकसित होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई. वे समाजवादी विचारधारा और आदिवासी महासंघ को एक साथ लेकर चलने के हामी हैं.

कोई समाज अगर शोषणमुक्त होना चाहता है, तो उसके पास उसका एक समाजवादी एजेंडा होना चाहिए

यह जवाब भले मुकम्मिल न हो, लेकिन एक सूत्र छोड़ता है. यह जवाब याद दिलाता है कि कोई समाज अगर शोषणमुक्त होना चाहता है, अगर वह समतामूलक लक्ष्यों की तरफ बढ़ना चाहता है तो उसके पास उसका एक समाजवादी एजेंडा होना चाहिए- ऐसा एजेंडा जिसमें आर्थिक विकास एक अनिवार्य पहलू हो, लेकिन इकलौता नहीं, ऐसा एजेंडा जिसमें समाज की सांस्कृतिक और वैचारिक आकांक्षाओं के लिए भी पूरा स्थान और सम्मान हो.

लेकिन झारखंड इस लड़ाई में पीछे रह गया और बिचौलियों के हाथ लग गया तो यह सिर्फ झारखंड की नाकामी नहीं है. दरअसल पूरा भारत जिस औपनिवेशिक लूट का बेलिहाज मैदान बना हुआ है, जिस बेरहमी से देश के अलग-अलग हिस्सों में दलितों, आदिवासियों और सदियों से रह रहे निवासियों को उजाड़ा जा रहा है, जिस बेशर्मी से उनके घर, जमीन और जंगल हथियाए जा रहे हैं, उन सबसे झारखंड अलग कैसे रह सकता है. झारखंड भी उस लूट का ही मैदान भर है- इस लिहाज से कुछ ज्यादा त्रासद कि यहां यह खेल वे अपने लोग चला रहे हैं जिन्होंने इस आंदोलन से सांस ली है और ताकत ली है. पर फिर यह कहां नहीं हो रहा? हर तरफ साम्राज्यवादी ताकतों के अपने एजेंट हैं जो झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा जैसे पिछड़े इलाकों में ही नहीं, मुंबई और दिल्ली जैसे संपन्न कहलाने वाले इलाकों में भी छीनाझपटी और लूटखसोट का वही जाल फैलाए हुए हैं. दिल्ली में इन दिनों चल रहे कॉमनवेल्थ खेल इस लूट का एक और आईना हैं.

दरअसल समझने की बात यही है कि झारखंड की कई समस्याएं उसकी अपनी और विशिष्ट समस्याएं हैं तो कई एक साझा और अखिल भारतीय संकट की भी देन हैं. झारखंड को दोनों लड़ाइयां लड़नी पड़ेंगी. उसका सांस्कृतिक और समतामूलक आंदोलन तभी सार्थक और संपूर्ण हो पाएगा जब वह रांची-पटना और दिल्ली के साझा लूटतंत्र को समझेगा और इनके विरुद्ध एक पूरी लड़ाई छेड़ेगा. इसमें शक नहीं कि इस लड़ाई के लायक ईंधन और आयुध झारखंड के बौद्धिक शस्त्रागार में काफी हैं और लड़ाई का अभ्यास भी.

अपेक्षाओं और उपेक्षाओं की मायानगरी- ‘झॉलीवुड’

अब न तो चिल्ला-चिल्लाकर भालू का खेल दिखाने वाले मदारी रहे, न ही भोंपू पर सिनेमा का प्रचार करते बाइस्कोप लिए गांवों और मेलों में घूमने वाले. तकनीक ने सब-कुछ बदल डाला है. लेकिन झॉलीवुड (हॉलीवुड और बॉलीवुड की तर्ज पर झारखंड के फिल्म उद्योग का प्रचलित नाम) की फिल्मों को अंतिम आदमी तक पहुंचाने के लिए कुछ-कुछ वही पुराने तरीके ही इस्तेमाल में लाए जाते हैं. यहां सिनेमा तैयार होने के बाद कुछ लोग भाड़े पर प्रोजेक्टर लेकर गाड़ी से घूमते रहते हैं – हाट, कस्बे, मेलों और गांवों में. लाउडस्पीकर और माइक के जरिए सिनेमा का प्रचार होता है और खुली जगह पर लोगों की भीड़ जुटाकर, उजले पर्दे या दीवार पर सिनेमा दिखाया जाता है. गांव-गुरबे के लोगों के लिए अपनी बोली और अपने ही इलाके में मिल रहा यह मनोरंजन का सबसे सुलभ साधन है.

मोरहाबादी मैदान के पास हम ऐक्शन, कैमरा, कट और शॉट जैसे शब्द सुनकर रुक जाते हैं. किसी गाने की शूटिंग चल रही है बिना किसी मेकअप रूम के. कोई एयरकंडीशनर नहीं, न ही कोई और ताम-झाम. मौजूद लोगों में से एक चिल्लाता है- जल्दी करो, ट्रैफिक का टाइम हो रहा है. तकनीक के नाम पर इनके पास सामान्य वीडियो कैमरे हैं और एडिटिंग के लिए भाड़े पर ली गई बुनियादी-सी मशीनें. स्टूडियो के नाम पर मुफ्त की पहाड़ियां, मैदान, नदियां और सड़कें.

आम-से वीडियो कैमरे से ‘बुद्धा वीप्स इन जादूगोड़ा’ सरीखी डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाकर राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुके निर्माता-निर्देशक श्रीप्रकाश ने पहली बार झॉलीवुड के लिए फीचर फिल्म बनाई थी. नागपुरी और सादरी भाषा में बनी इस फिल्म का नाम था ‘बाहा’. झॉलीवुड की मायानगरी में संघर्ष कर रहे कलाकारों पर आधारित इस फिल्म ने झारखंड में बहुत नाम कमाया, लेकिन कमाई के नाम पर बस लाख-सवा लाख रुपए ही जुटा पाई जो  इसकी लागत का एक मामूली-सा हिस्सा भर था. गौरतलब है कि यहां एक फिल्म करीब 6 से 7 लाख रुपए में बनती है, जो हिंदी फिल्मों के चरित्र कलाकार के मेहनताने से भी काफी कम है.

फिल्म निर्माता कमाई न कर पाने की दो मुख्य वजहें बताते हैं. एक- झारखंड के सारे सिनेमाहॉल बहुत बुरी हालत में हैं जहां कुछ गिने-चुने दर्शक ही जुटते हैं (कुछ हॉलवाले डिजिटल फिल्मों को दिखाने में आनाकानी भी करते हैं). टिकटों की कीमत छोटे शहरों में 8 से 14 रुपए और रांची जैसे शहरों में 20 से 60 रुपए तक है. रांची जैसे शहरों में इन फिल्मों को बस मॉर्निंग शो में ही दिखाते हैं, इसलिए व्यवसाय की ज्यादा गुंजाइश नहीं रह जाती. इसके अलावा ज्यादातर घरों में इन फिल्मों की पायरेटेड डीवीडी पहले-दूसरे दिन ही पहुंच जाती हैं.

दर्शकों की अपेक्षाओं और सरकारी उपेक्षाओं के बीच फंसे झॉलीवुड की भिड़ंत उच्च तकनीक और तामझाम से लैस हिंदी फिल्मों से है

चूंकि झॉलीवुड कमाई के मामले में बहुत पीछे है लिहाजा इसके सितारे भी ज्यादा पैसा नहीं कमा पाते. झॉलीवुड के एंग्री यंग मैन दीपक लोहार के अलावा यहां कोई अन्य हीरो या हीरोइन आर्थिक दृष्टि से बहुत मजबूत नहीं हैं. ‘बाहा’ की 29 वर्षीया हीरोइन शीतल सुगंधिनी मुंडा समुदाय से हैं. एक इतनी नामी फिल्म में काम भी उनकी जिंदगी में कोई बड़ा बदलाव नहीं ला पाया है. वे एक एनजीओ में नौकरी करती हैं. ‘झारखंड का छैला’ के निर्देशक अनिल सिकदर के लाइटिंग इंजीनियर ऋषिकेश के मुताबिक इन फिल्मों में हीरो को तकरीबन 20 और हीरोइन को 15 हजार रुपए मिलते हैं. कुछ तो अपने घर का भी पैसा लगा देते हैं, इस उम्मीद में कि एक बार जम गए तो आगे उनकी पूछ बढ़ेगी. सपनों के बनने और बिखरने का खेल बॉलीवुड की तर्ज पर यहां भी कम नहीं होता.

एनएफडीसी (राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम) की जिम्मेदारी भले ही भारत की क्षेत्रीय बोलियों में बनने वाली फिल्मों को बढ़ावा देना है पर शायद झॉलीवुड उनकी नजरों के दायरे से बाहर की चीज है. यह बात और है कि इन फिल्मों को भी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के उन्हीं मानकों पर परखा जाता है जिन पर अन्य स्थापित भारतीय फिल्म उद्योगों की फिल्मों का परीक्षण होता है. पर क्या सरकारी तंत्र इनके प्रति जरा भी जवाबदेह नहीं है?

फिल्म निर्माताओं का मानना है कि यदि सरकार उन्हें थोड़ी-सी टैक्स में सब्सिडी दे, सिनेमाहॉलों के लिए साल में छह सप्ताह इन क्षेत्रीय फिल्मों को दिखाना अनिवार्य कर दे और गांव-गुरबों के छोटे-छोटे सिनेमाहॉलों को बढ़ावा दे तो झॉलीवुड की भी किस्मत बदल जाएगी. 2008 में गठित अखिल भारतीय संथाली फिल्म समिति (एआईएसएफए) के अध्यक्ष रमेश हांसदा कहते हैं, ‘बिना किसी सरकारी सहयोग के हमने झारखंड में स्थानीय बोली और लोगों को लेकर फिल्में बनाई और दिखाई हैं. लोगों ने इन्हें खूब सराहा लेकिन सरकार हमें नजरअंदाज करती है, अगर वह हमारी ओर ध्यान दे तो कोई कारण नहीं कि हम अच्छा नहीं कर पाएं.’

हालांकि झॉलीवुड में बनने वाली ज्यादातर फिल्में डिजिटल कैमरों की सहायता से बनाई जाती हैं, मगर यहां अब तक 9 सेल्यूलाइड फिल्में भी बन चुकी हैं. समुदाय की आवाज को सेल्यूलाइड का माध्यम देने वाले ऐसे लोगोंं में करनडीह के रहने वाले दशरथ हांसदा (रमेश हांसदा के भाई) और प्रेम मार्डी का नाम पहले आता है. इन दो कलाकारों ने ही सबसे पहले ‘चांदो लिखोन’ (झारखंड की पहली जनजातीय फिल्म) बनाकर संथाली (आदिवासी) चलचित्र के सपने को साकार किया था. युगल किशोर मिश्र और रवि चौधरी ने भी कुछ सेल्यूलाइड फिल्में बनाई हैं. हालांकि महंगी होने की वजह से इन्हें वापस डिजिटल तकनीक का सहारा लेना पड़ रहा है.

‘अमू’ फिल्म को संगीत देने वाले और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पैठ बना चुके नंदलाल नायक भी अमेरिका छोड़-छाड़कर एक साल पहले झारखंड आ बसे हैं. वे एक महत्वाकांक्षी फिल्म बनाने में लगे हैं. यह फिल्म झारखंड से लड़कियों के पलायन और माओवाद के इर्द-गिर्द घूमती है. इसी तरह पत्रकार और संस्कृतिकर्मी मनोज चंचल भी पलायन को केंद्र में रखकर ‘बीरची’ नामक फिल्म बना रहे हैं. बिरसा मुंडा और आदिवासी आंदोलनों को केंद्र में रखकर भी कई फिल्में बनी हैं.

इसका यह मतलब कतई नहीं है कि यहां की फिल्में डॉक्यूमेंट्री फिल्मों कजैसी होती हैं. झॉलीवुड अपने दर्शकों की जरूरतों का पूरा खयाल रखता है. यहां की लगभग सभी फिल्मों में गाने, रोमांस, ऐक्शन और मार-धाड़ वाले दृश्यों का अच्छा तालमेल होता है.

अनिल सिकदर के मुताबिक झॉलीवुड का सालाना कारोबार दो से ढाई करोड़ रुपए का है और यह अब झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और बिहार तक फैलने लगा है. यहां की इकलौती इंफोटेनमेंट पत्रिका ‘जोहार सहिया’ के संपादक अश्विनी कुमार पंकज के मुताबिक आने वाले समय में झॉलीवुड में काफी संभावनाएं हैं.

त्रासदी यह है कि दर्शकों की अपेक्षाओं और सरकारी उपेक्षाओं के बीच फंसे झॉलीवुड की भिड़ंत उच्च तकनीक और तामझाम से लैस हिंदी फिल्मों से है, लेकिन झारखंड की मायानगरी अपने स्तर पर अपने अस्तित्व को बनाए रखने के संघर्ष में जुटी है और यह एक शुभ संकेत है.

अयोध्याः एक फैसला, एक हल, एक अवसर

अयोध्या पर उच्च न्यायालय के फैसले के बाद क्या होगा, इसपर पूरी दुनिया माथापच्ची करने में लगी है. मगर बड़े-बड़े लेख पढ़ने के बाद भी बस इतना ही समझ आ पा रहा है कि हम सबको न्यायपालिका का आदर करना चाहिए, हारने वाले पक्ष के लिए 24 तारीख के बाद भी सारे रास्ते बंद नहीं होने वाले, वह सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है आदि-आदि…

यह मसला न्याय से ज्यादा अहम की लडाई का है. और इसे अहम की लड़ाई हमारे यहां की सांप्रदायिक राजनीति ने बनाया है. हिंदू समुदाय के कुछ लोगों के दिमाग में यह डाल दिया गया है कि हमारे देश में आकर, हमारी इतनी संख्या होने के बावजूद कोई हमारे सबसे बड़े आराध्य के जन्म स्थान को हमसे कैसे छीन सकता है(भले इसके कोई प्रमाण हों या न हों). मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों के दिमाग में यह घर करा दिया गया है कि अगर हम इस तरह से हार मान लेंगे तो पता नहीं किन-किन बातों पर हमें बहुसंख्यक समुदाय के साथ समझौते करने पड़ेंगे.

अब मामला ऐसा फंस गया है कि इस मामले पर सामने वाले समुदाय की भावनाओं की ज़रा भी इज्जत करना दोनों समुदायों को अपनी कमजोरी का प्रमाण लगने लग गया है.

अब तक जो हो चुका उस पर बहस बेमानी है मगर अभी भी शायद एक हल ऐसा है जो आने वाले अदालती फैसले को दोनों समुदायों और देश के लिए एक अवसर बना सकता है.

माना फैसला मुस्लिम समुदाय के पक्ष में आता है – कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनाई गई थी और वहां मस्जिद ही थी कोई राम का मंदिर नहीं. तो ऐसे में यदि मुस्लिम समुदाय यह घोषणा कर दे कि वह अपनी मस्जिद की आधी जमीन मंदिर के लिए देना चाहता है और वहां मंदिर और मस्जिद साथ-साथ बनवाना चाहता है तो यह उसकी कमजोरी या किसी तरह के समझौते की नहीं बल्कि बड़प्पन की बात होगी. यह न केवल देश में सुलगती आ रही सांप्रदायिकता की चिन्गारी की चटकन को कम करके खत्म करने की क्षमता रखता है बल्कि देश की राजनीति के सांप्रदायिक औजारों को हमेशा के लिए भोंथरा करने की भी कुव्वत रखता है.

ऐसा ही हिंदू भी कर सकते हैं. यदि फैसला उनके पक्ष में आता है तो वे विवादित स्थान पर मंदिर के साथ एक मस्जिद के निर्माण की घोषणा कर सकते हैं. ऐसा करने से न वे छोटे होंगे न ही उनका धर्म. बल्कि दोनों ही हिमालयी ऊंचाइयों पर पहुंच जाएंगे. और यह उनकी राष्ट्रवादिता का भी सबसे बड़ा प्रमाण होगा.

यह हल दोनों पक्षों के अहम को तो संतुष्ट करता ही है, कि कोई हमसे जबरन हमारी चीज नहीं छीन रहा है, दोनों की ही इच्छाएं भी पूरी कर देता है. एक समुदाय द्वारा अपने बडप्पन को दर्शाने वाली ऐसी घोषणा दूसरे समुदाय को न जाने और कितने दूसरे इसी प्रकार के छोटे-बड़े मसलों पर बड़प्पन दिखाने के अवसर मुहैया करा देगी. अगर एक स्थान से जुड़ी आस्था देश की राजनीति को बुरे के लिए बदल सकती है तो उसका एक सर्वमान्य हल उसी राजनीति को एक नई और बेहतर दिशा भी दिखा सकता है.

इसके उलट, यदि ऐसा कुछ नहीं होता है तो यह मुकदमेबाजी सर्वोच्च न्यायालय तक जाने और उसका फैसला आने के बाद देश के भविष्य को न जाने कौन-कौन से तरीकों से प्रभावित करने वाली है!

संजय दुबे, वरिष्ठ संपादक

चिपको, छीनो-झपटो और…

राष्ट्रीय पार्क बनने के बाद अपने पुश्तैनी हक-हुकूकों को गंवा चुके नंदादेवी बायोस्फेयर रिजर्व में पड़ने वाले गांवों के निवासी अब फिर से प्रस्तावित ‘क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट’ योजना से असमंजस में हैं. कई बदलावों की गवाह रही उत्तराखंड के इन गांवों की एक पीढ़ी हर दशक में हो रहे नए नीतिगत निर्णयों को पचा नहीं पा रही. ग्रामीणों और परियोजनाओं के लिए अलग-अलग मापदंडों की वजह से चिपको की इस भूमि में फिर एक और आंदोलन का माहौल बन रहा है.

7,817 मीटर ऊंचा नंदादेवी शिखर पहाड़ वासियों के लिए एक प्राकृतिक मंदिर है. नंदादेवी यहां की आराध्य देवी हैं. राष्ट्रीय पार्क क्षेत्र के हर गांव में नंदादेवी के मंदिर हैं, जिन पर स्थानीय ग्रामीणों की अगाध आस्था है. नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क देश ही नहीं, दुनिया में सर्वश्रेष्ठ वन्यता वाले उन इलाकों में से एक है, जिन्हें आज भी प्राकृतिक रूप से संरक्षित माना जा सकता है. कटोरे के आकार के इस राष्ट्रीय पार्क को दो दर्जन से अधिक हिमाच्छादित चोटियां घेरे खड़ी हैं जिनमें आधा दर्जन 7,000 मीटर से अधिक ऊंची हैं.

इन गांवों के लोगों को आशंका है कि उनके ऊंचाई के खेतों व बसाहटों को भी जानवरों की उपस्थिति दिखाकर कहीं क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ में शामिल न कर लिया जाए

बाहरी जिज्ञासुओं द्वारा पहली बार 1883 में ऋषि गंगा के खतरनाक गॉर्ज (खड्ड) के सहारे नंदादेवी के बेस कैंप तक जाने के प्रयास किए गए. मगर पार्क क्षेत्र से निकलने वाली ऋषि गंगा के खतरनाक बहाव के चलते ये प्रयास सफल नहीं हो सके. इसके बाद 1934 में एरिक सिप्टन व एच डब्ल्यू टिलमैन ने ऋषि बेसिन के भीतरी भाग तक जाने का रास्ता खोजा. तब से नंदादेवी चोटी पर्वतारोहियों को व उसका अभयारण्य साहसिक यात्रा के शौकीनों को रोमांच व चुनौती देता रहा है.  अनूठी भौगोलिक परिस्थितियां और दुर्लभ वनस्पतियां व जीव नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क को पूरे हिमालयी क्षेत्र ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण वन्यतायुक्त क्षेत्रों से अलग और बेमिसाल बनाते हैं. हिमालय में इतने नजदीक से दृष्टिगोचर खूबसूरती और ऊंची व खूबसूरत चोटियों का इतनी बड़ी संख्या में जमावड़ा और कहीं नहीं है.

1939 में सबसे पहले नंदा देवी बेसिन को सैंक्चुरी घोषित किया गया. 1982 में इसके 632 वर्ग किमी क्षेत्र को पार्क क्षेत्र बना दिया गया जो 1988 में नंदादेवी बायोस्फेयर क्षेत्र का कोर क्षेत्र घोषित किया गया. नंदादेवी बायोस्फेयर रिजर्व चमोली, बागेश्वर व पिथौरागढ़ जिलों के 5,860 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला है. 1992 में यूनेस्को ने यहां की प्राकृतिक जैव विविधता  को देखते हुए इसे ‘विश्व धरोहर स्थल’ घोषित कर दिया था. चमोली के जोशीमठ कस्बे से लगभग 25 किमी आगे नीति घाटी में ऋषि गंगा और धौली के संगम से राष्ट्रीय पार्क के कोर जोन की सीमा शुरू हो जाती है.

‘क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट’ योजना के विषय में बताते हुए राज्य के मुख्य वन्य जीव प्रतिपालक श्रीकांत चंदोला बताते हैं, ‘2006 में संसद से पारित आदिवासी वनाधिकार कानून की शर्तों के अनुसार राष्ट्रीय पार्क व अभयारण्य क्षेत्रों में वन्य जीवों के लिए ये हैबिटैट बनाए जाने प्रस्तावित हैं. ये क्षेत्र संकटग्रस्त वन्य जीवों के लिए आरक्षित रहेंगे, इसलिए इन क्षेत्रों में वनाधिकार कानून लागू नहीं होगा.’

वनाधिकार कानून से मिले अधिकारों से वर्षों से वन्य क्षेत्रों में रह रहे वनवासियों, आदिवासियों और  ग्रामीणों को उन वनभूमियों का स्वामित्व मिलना है जिन पर वे 75 वर्षों से रह रहे थे. हैबिटैट घोषित होने के बाद ये भूमिधरी अधिकार ग्रामीणों को नहीं मिलेंगे. केंद्र के समाज कल्याण व आदिवासी मंत्रालय द्वारा पारित कराए गए इस अधिनियम का संसद में पारित होने तक केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने जमकर विरोध किया था. अधिनियम को पारित होने से रोकने में असफल ‘पर्यावरण लॉबी’ उस समय इस अधिनियम में क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट जैसे नियमों को शामिल करवाने में सफल रही थी जबकि देश भर में घोषित राष्ट्रीय पार्क क्षेत्रों व आरक्षित वनों में पहले से ही ये वनवासी या ग्रामीण रहते आए हैं.

अभी तक वन विभाग के अधिकारी भी हैबिटैट के स्वरूप और उद्देश्यों को नहीं समझ पाए हैं.  देश  के अन्य पार्कों व बायोस्फेयर क्षेत्रों की तरह नंदादेवी बायोस्फेयर क्षेत्र में क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट की अधिसूचना जारी होने से यहां के गांवों के लोग भी आशंकित हैं.  पूरे बायोस्फेयर क्षेत्र के भीतर 55 गांव आते हैं. चमोली जिले की जोशीमठ तहसील के गांव लाता के ग्रामीणों ने राज्यपाल को ज्ञापन भेजकर प्रस्तावित वाइल्ड लाइफ हैबिटैट के गठन पर आपत्तियों की सुनवाई के लिए गठित समिति के स्वरूप का विरोध किया है. ज्ञापन में ग्रामीणों ने कहा है कि इस समिति में एक को छोड़कर सभी सदस्य या तो वन विभाग के अधिकारी हैं या वन विभाग से सेवानिवृत्त,  इसलिए इस समिति से न्याय व निष्पक्षता की उम्मीद ना के बराबर है.

ग्रामीणों ने वर्ष 1983 में पार्क के गठन के समय हुए पार्क के सीमा निर्धारण पर भी आपत्ति जताई हैं.  उनके मुताबिक पार्क बनने से पहले लाता गांव से दो दिन दूर स्थित पड़ाव धरासी तक गांववालों की 36 छानियां (ग्रीष्मकालीन बसेरे) थीं जिनमें रहकर गांववालों के मवेशी अप्रैल से लेकर अक्टूबर तक अलग-अलग स्थानों पर चरते थे. इन छानियों का उल्लेख 1934 में नंदादेवी अभयारण्य में गए सिप्टन व टिलमैन ने भी किया है. 1982 में पार्क बनने के बाद गांव की सीमा से लगे सारे क्षेत्र ही गांववालों के लिए प्रतिबंधित कर दिए गए. लाता के पूर्व प्रधान धन सिंह राणा कहते हैं, ‘पूर्व की छानियों के क्षेत्र पहले ही विवादित हैं, इसलिए उन्हें पार्क का हिस्सा मानकर क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट में सम्मिलित करना गांववालों के पुश्तैनी हक-हुकूकों का गला घोंटना है.’ राणा बताते हैं कि पार्क बनते समय उनके धार्मिक स्थल और ग्रीष्मकालीन आवास भी कोर जोन में डाल दिए गए थे. ग्रामीणों ने राज्यपाल को भेजे ज्ञापन में यह शिकायत भी की है कि राष्ट्रीय पार्क के गठन के साथ 1983 में उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव, वन ने स्थानीय जनजातियों पर पार्क बनने के संभावित प्रभावों के अध्ययन के लिए भी एक समिति बनाने का आदेश दिया था परंतु इस तरह का कोई अध्ययन नहीं किया गया.  तब युवक मंगल दल के अध्यक्ष रहे राणा बताते हैं, ‘1983 में पार्क की सीमा निर्धारण के लिए हुई बैठक में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार के तत्कालीन संयुक्त सचिव एनडी जयाल ने भी धरासू से एक पड़ाव और आगे डिब्रूगेठा तक के क्षेत्र को स्थानीय समुदाय को सौंपने की सिफारिश के साथ-साथ कोर क्षेत्र को डिब्रूगेठा से आगे ले जाने का सुझाव भी दिया था. परंतु जयाल का सुझाव भी नहीं माना नहीं गया. घुमंतु और स्थानीय छोटी दूरी के पलायन करने वाले यहां के ग्रामीणों को पार्क बनते समय तत्कालीन उप वन संरक्षक ने वैकल्पिक चरागाह की व्यवस्था करने व एक गांव से दस युवकों को रोजगार देने का वादा भी किया था. मगर यह वादा भी खोखला निकला. इन युवकों को उस समय केवल एक माह के लिए दैनिक वेतन पर रखा गया और चरागाह की भी कोई व्यवस्था नहीं की गई.

विडंबना थी कि वनों के संरक्षण के लिए चिपको जैसा ऐतिहासिक आंदोलन करने वाले ग्रामीण अब वन विभाग की अकर्मण्यता और बदइंतजामी के कारण छीनो-झपटो जैसे आंदोलन पर उतर गए थे

स्थानीय ग्रामीणों को लगता है कि जिन वन भूमियों पर वे पीढ़ियों से रह रहे हैं उन पर अधिकार मिलना तो दूर उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन से भी हाथ धोना पड़ सकता है. लाता से पहले सड़क किनारे बसे रैणी गांव से 4 किमी ऊपर स्थित पूरा का पूरा पैंग गांव नंदादेवी पार्क क्षेत्र के भीतर है. हैबिटैट बनने के बाद इस गांव का क्या होगा  यह प्रश्न भी हैबिटैट के गठन में गांववालों की आपत्तियां जानने के लिए जोशीमठ में हुई जन सुनवाई में उठा. वन विभाग ने हाल ही में जोशीमठ ब्लॉक के आठ गांवों को नोटिस देकर हैबिटैट के गठन में संभावित आपत्तियां दर्ज करने को कहा था.  अगस्त में हुई इस जनसुनवाई में स्थानीय ग्रामीणों ने बड़ी संख्या में भाग लिया और क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट के गठन का विरोध करते हुए चेतावनी दी कि पहले से ही पार्क के कारण बंदिशें झेल रहे ग्रामीण अब और अन्याय सहन नहीं करेंगे. जोशीमठ की ही नीति घाटी के फाक्ती जैसे कई गांवों के लोग पहले गर्मियों में ऊंचाई के क्षेत्रों में रहते थे. वहां गांववालों की अपनी भूमिधरी जमीनें भी हैं परंतु अब जंगली जानवरों के प्रकोप से कुछ सालों से ये ग्रामीण उन स्थानों पर न जाकर साल भर निचले स्थानों में स्थित शीतकालीन गांवों में ही रह रहे हैं. इसी तरह की समस्याएं फूलों की घाटी के रास्ते में स्थित पुलना और भ्योंडार गांवों में भी हैं. इन गांवों के लोगों को आशंका है कि उनके ऊंचाई के खेतों व बसाहटों को भी जानवरों की उपस्थिति दिखाकर कहीं क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ में शामिल न कर लिया जाए. ग्रामीण तो सरकार द्वारा चुपचाप ही  घोषित करने की आशंका भी व्यक्त कर रहे हैं. हालांकि नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क के निदेशक वीके गांगटे वादा करते हैं कि ऐसा नहीं होगा. वे कहते हैं, ‘इस बार स्थानीय निवासियों की सहमति के बिना कोई निर्णय नहीं लिया जाएगा.’

वैसे देखें तो इन सीमांत गांववासियों पर सुसभ्य समाज द्वारा जबरन थोपी गई वन-नीतिजन्य परेशानियां कोई पहली बार नहीं आई हैं. चार दशक पहले नीति घाटी के ही रैणी गांव के जंगलों से लकड़ी काटने का ठेका एक बड़ी ‘भल्ला टिंबर कंपनी’ को दे दिया गया था. उस समय स्थानीय ग्रामीणों को पहले से ही अपने जंगलों की नीलामी का अंदेशा था, इसलिए कामरेड गोविंद सिंह ने अपने साथियों के साथ तपोवन-लाता-रैणी इलाके के गांवों में चिपको का नारा बुलंद कर दिया था. वनों की एकाधिकारवादी नीलामी के खिलाफ इससे पहले अप्रैल, 1973 में गोपेश्वर के पास मंडल व गुप्तकाशी नामक जगहों पर चिपको आंदोलन के प्रयोग सफल हो चुके थे. ग्रामीणों के विरोध व धरना प्रदर्शन के बाद भी रैणी में भल्ला कंपनी के सैकड़ांे मजदूर आ गए.फरवरी, 1974 में इस घाटी में चिपको आंदोलन में सक्रिय कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट और उनके साथियों के भ्रमण से ग्रामीणों में और भी जोश भर गया था.

तब वन विभाग की प्राथमिकताओं में वन संवर्धन नहीं था, बल्कि उसका लक्ष्य होता था जंगलों से अधिक से अधिक राजस्व कमाना. स्थानीय जनता के विरोध के बाद भी अधिक राजस्व कमाने के लक्ष्य के साथ काम कर रहे वन विभाग के अधिकारी और सरकार किसी भी तरह भल्ला के ठेके को चलवाने के लिए आतुर थे. अधिकारियों ने रणनीति के तहत स्थानीय लोगों को बैठक के बहाने जोशीमठ व गोपेश्वर बुलाकर जंगलों में मजदूरों का प्रवेश करा दिया. रैणी गांव में उस दिन महिलाएं ही मौजूद थीं. मजदूरों को अपने जंगल का विनाश करते जाता देख उन्होंने पहली बार गौरा देवी के नेतृत्व में चिपको आंदोलन का वास्तविक प्रयोग किया. इस घटना से पहले चिपको संकल्पना के रूप में आमजन के बीच प्रसिद्ध हो चुका था परंतु इसके प्रयोग की जरूरत नहीं पड़ी थी. इस अहिंसक ऐतिहासिक प्रतिरोध ने गांव के जंगलों से भल्ला के कुल्हाड़ों और आरों को वापस बैरंग लौटा दिया और भोले-भाले गांववासियों की जीत हुई.

16 नवंबर, 1982 को अचानक इस क्षेत्र को नंदादेवी नेशनल पार्क में बदल दिया गया. इससे यहां के लोगों से पशु चराने के चरागाह और परंपरागत हक-हुकूक छिन गए. धन सिंह राणा बताते हैं , ‘वर्ष 1974 में जो विभाग पुलिस के बल पर अधिक राजस्व के लिए हमारे जंगलों को काटना चाहता था, जिसकी नजर में जंगल का मतलब सिर्फ टिंबर था, वह अब जैव विविधता और संरक्षण की बात करने लगा.’

पार्क बनाते समय सरकार ने इन ग्रामीणों से कई वादे भी किए थे पर वे अभी तक पूरे नहीं हुए. पार्क बनाकर ‘चिपको के इन सिपाहियों’ से ‘प्रकृति के नैसर्गिक संरक्षक’ की भूमिका छीन ली गई और इस खूबसूरत इलाके की रक्षा का जिम्मा वन विभाग को दे दिया गया. पार्क के कारण लगे प्रतिबंधों का सबसे अधिक असर अनुसूचित जाति के लोगों पर पड़ा, जिनके पास भूमि न के बराबर थी. वे वन आधारित काष्ठ कला के हुनर से स्थानीय लोगों की जरूरत की चीजें बनाकर रोजी-रोटी कमाते थे.

दूसरी तरफ पार्क बनने से बिचौलियों और शिकारियों की मौज आ गई क्योंकि अब इस दुर्गम, विशाल व वीरान हिमालयी क्षेत्र में कोई भी कानूनन प्रवेश नहीं कर सकता था. 632 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैले पार्क की सुरक्षा का जिम्मा केवल आधा दर्जन वन कर्मचारियों पर था. पहले इन दुर्गम स्थानों में स्थित चरागाहों में गर्मियों के दौरान स्थानीय लोग रहते थे जिनकी वहां नजर रहती थी. प्रतिबंधों के बाद अब वहां कोई नहीं था. इसका फायदा उठाकर तस्करों और अवैध शिकारियों ने इस संरक्षित पार्क को आखेट क्षेत्र में बदल डाला. इन सालों में पार्क क्षेत्र के आसपास कई शिकारी गिरोह भी पकड़े गए.

पार्क के अंदर हो रहे अवैध शिकार और चरान-चुगान व परंपरागत अधिकारों से वंचित होने की वजह से गांव के लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा था.  असंतोष को देखकर 1987 में तब जोशीमठ के ब्लॉक प्रमुख कामरेड गोविंद सिंह ने रैणी में एक बैठक बुलाई और स्थानीय जन जीवन पर नेशनल पार्क बनने के प्रभावों पर चर्चा कर सरकार को ज्ञापन भेजकर आगाह किया.

गांववालों को यह समझ में नहीं आ रहा कि सड़क के ऊपर जहां उनके लिए अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र घोषित है वहीं सड़क के नीचे बन रही परियोजना में करोड़ों टन मिट्टी का कटान हो रहा है

कई वर्षों तक आम जन की आवाजाही पर रोक के बाद वर्ष 1993 में तीन सरकारी टीमें नंदादेवी के कोर जोन में गईं. इनमें से एक टीम में लातूर के तत्कालीन जिलाधिकारी प्रवीण परदेशी भी थे. इन टीमों के साथ स्थानीय लोग पोर्टर के रूप में गए थे. लाता के विजयपाल याद करते हैं, ‘पार्क में जगह-जगह जानवरों को मारने के लिए फांसी के फंदे व चूल्हे लगे थे.’ स्थानीय निवासी यह देखकर स्तब्ध थे कि एक ओर व्यापक जैव संरक्षण के हितों की दुहाई देकर उनके हक-हुकूकों को मारा जा रहा है और दूसरी ओर उनकी बहुमूल्य संपदा की लूट मची हैै. वे इससे भी नाराज थे कि तस्कर और बिचौलिए नंदादेवी के भीतर प्राकृतिक संपदा की लूट मचा रहे थे और देहरादून और जोशीमठ में विभागीय अधिकारियों द्वारा पाई गई सूचना के आधार पर कुछ राष्ट्रीय पत्रों के पत्रकार जनविरोधी संरक्षण नीति का विरोध करने वाले लाता, रैणी व तोलमा आदि गांवों को तस्करों का ठिकाना बता रहे थे.

लाता की सरस्वती देवी बताती हैं कि 1998 में मई महीने के दौरान ही भालू तथा बाघ ने गांवों की गौशालाएं तोड़कर उनके अनेक पालतू जानवरों को मार डाला. यहां वन विभाग द्वारा बहुप्रचारित सिद्धांत ने भी दम तोड़ दिया कि आसपास के वनों के कटने से ही जंगली जानवर गांवों या बस्तियों की तरफ बढ़ते हैं और वनों में भोजन कम होने के कारण ही वे पालतू जानवरों को मारते हैं. यहां तो सैकड़ों वर्ग किमी के संरक्षित क्षेत्र के भीतर से निकलकर जंगली जानवर अंधाधुंध नुकसान कर रहे थे.  गांववालों का कहना है संरक्षित पार्क क्षेत्र में शिकारियों के जमावड़े के कारण ही ये जंगली जानवर डरकर गांवों की तरफ बढ़ रहे थे. उस समय भालू द्वारा मारे गए जानवरों का मुआवजा वन विभाग नहीं देता था.

मई, 1998 में हुए इन घटनाक्रमों ने सालों से ग्रामीणों के मन में घुट रहे असंतोष को विस्फोट का रूप दे दिया. कामरेड गोविंद सिंह के नेतृत्व में ग्रामीणों ने एकतरफा घोषणा कर दी कि यदि सरकार ग्रामीणों के परंपरागत हक-हुकूकों को बहाल नहीं करती तो वे 15 जुलाई, 1998 को प्रतिबंधित कोर जोन में प्रवेश कर अपने हक- हुकूकों को बहाल करेंगे.  31 मई, 1998 को लाता ग्राम सभा में हुई आम बैठक में परंपरागत हक-हुकूकों की बहाली के लिए ‘छीनो-झपटो आंदोलन शुरू करने’ जैसी बात स्वतः ही सामने आई.

पर सरकार कहां मानने वाली थी. उसने ग्रामीणों को कुचलने के लिए पुलिस और पीएसी की टुकड़ियों को लाता खर्क भेज दिया. वर्षों से सरकारी नीतियों से खार खाए ग्रामीण भी कहां डरने वाले थे. 15 जुलाई की सुबह गांवो में वे ही बूढ़े रह गए जो चल नहीं सकते थे. बाकी सारे ग्रामीण मवेशियों के कोर जोन की ओर बढ़ चले. पहली रात जब ग्रामीण भेल्टा के पड़ाव में विश्राम के लिए पहुंचे तो उन्होंने देखा कि पुलिस और पीएसी के जो जवान उन्हें खदेड़ने के लिए लाता खर्क गए थे वे उल्टियां करते हुए नीचे आ रहे हैं. दरअसल, ऊंचाई की परिस्थितियों से नावाकिफ ये जवान हाई एल्टिटयूड सिकनेस के शिकार हो गए थे. दूसरे दिन सैकड़ों ग्रामीणों ने प्रतिबंधित कोर जोन में प्रवेश किया.वनों के संरक्षण के लिए चिपको आंदोलन करने वाले ग्रामीण अब वन विभाग की अकर्मण्यता और बदइंतजामी के कारण छीनो-झपटो जैसे आंदोलन पर उतर गए थे.  राणा बताते हैं कि छीनो-झपटो आंदोलन वास्तव में चिपको का ही व्यावहारिक पक्ष था. वे कहते हैं, ‘इन दोनों ही आंदोलनों को समाज के सभी वर्गों और राजनीतिक धाराओं का समर्थन था, इसीलिए ये सफल भी रहे.’

इसी के साथ ग्रामीणों को प्रतिबंध का पाठ पढ़ाने वाली सरकार व बड़ी पर्यटक कंपनियों की नजर नंदादेवी क्षेत्र में संभावित पर्यटन पर थी. 2001 में भारतीय पर्वतारोहण फांउडेशन द्वारा प्रसिद्व पर्वतारोही हरीश कपाड़िया के नेतृत्व में एक दल नंदादेवी पार्क क्षेत्र में भेजा गया. अध्ययन दल अभी नंदादेवी पार्क क्षेत्र में ही था कि अमेरिका व इंग्लैंड स्थित एक बड़ी ट्रेवल कंपनी केई एडवेंचर ने इंटरनेट पर विज्ञापन प्रकाशित कर दिया कि सरकार ने उसे नंदादेवी पार्क क्षेत्र मंे पर्यटन करवाने के लिए अधिकृत किया है. कंपनी ने यह भी दावा किया कि चिवांग मोटुप उनके भारतीय प्रतिनिधि हैं.  मोटुप भी इस अध्ययन दल में शामिल थे. यानी अध्ययन दल के सदस्यों ने अध्ययन के बहाने नंदादेवी नेशनल पार्क से व्यापारिक फायदे उठाए. लाता निवासियों को आशंका थी कि पहले सरकार ने उन्हें हक-हुकूकों से भी महरूम रखा और अब पर्यटन खोलने के नाम पर इस बेमिसाल क्षेत्र के पर्यटन का काम किसी बड़ी कंपनी को दिया जा सकता है.

छीनो-झपटो और लोगों के लगातार विरोधों के बाद जानवरों के चरान के अधिकार भले ही बहाल न हुए हों पर 2001 में नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क को सीमित मात्रा में पर्यटकों के लिए खोल दिया गया है. वनाधिकारियों के अनुसार पर्यटक अब डेब्रूगेठा तक जाकर लाता खर्क में कैंप कर सकते हैं. परंतु ग्रामीण सीमित दायरे में पार्क के कोर जोन को भी पर्यटन के लिए खोलने की मांग करते आए हैं. इस क्षेत्र में पर्यटन का व्यवसाय शुरू करने वाली संभावित बड़ी कंपनियों को टक्कर देने के लिए इन गांवों के ग्रामीण युवकों ने भी पर्यटन संबंधी प्रशिक्षण लिए हैं. ग्रामीण युवकों को वैश्विक पर्यटन से जोड़ने में लगे सुनील कैंथोला बताते हैं, ‘पहले से बेहतरीन गाइड माने जाने वाले इन गांवों के सभी तरह से प्रशिक्षित युवक अब पर्यटकों को बाहरी कंपनियों से अच्छी सेवाएं दे सकते हैं.’

सरकार की नीतियों का दोगलापन यहीं समाप्त नहीं होता.  रैणी गांव में ही एक बड़ी जलविद्युत परियोजना निर्माणाधीन है. यह बात गांववालों की समझ के परे है कि सड़क के ऊपर जहां उनके लिए अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र घोषित है वहीं सड़क के नीचे बन रही परियोजना में न केवल सुरंगें बन रही हैं बल्कि करोड़ों टन मिट्टी का कटान भी हो रहा है. तोलमा के गोविंद सिंह कहते हैं, ‘इन परियोजनाओं को स्वीकृति देते समय पर्यावरण का रोना रोने वाली यह लॉबी कहां मुंह छिपाकर बैठ जाती है?’ लाता के ग्रामीणों ने क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट समिति के सदस्यों को भेजी गई आपत्ति में दावे के साथ कहा है कि उनकी अधिसूचना के अनुसार पार्क की सीमा को धौली गंगा और ऋषि गंगा के संगम तक बताया गया है जबकि इसी सीमा के भीतर जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण किया जा रहा है. ग्रामीणों का आरोप है कि इन परियोजनाओं की डीपीआर व ईआरआर में जलविद्युत परियोजनाओं के स्थल नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क से बाहर बताए गए हैं.

दोगली व्यवस्था से इन गांवों के लोगों का सरकार, अधिकारियों और विशेषज्ञों पर से भरोसा उठ गया है.  लाता के ग्रामीणों का दावा है कि पिछले 30 सालों में दूसरे पड़ाव पर स्थित धरासी से आगे नंदादेवी पार्क क्षेत्र के भीतर वन अधिकारियों में से केवल एक अधिकारी विनीत पांग्ती ही बेस कैंप तक गए हैं. यही हाल वैज्ञानिकों का भी है. स्थानीय लोगों का सवाल है कि बिना व्यावहारिक ज्ञान के किस आधार पर ये वैज्ञानिक व अधिकारी इस क्षेत्र और यहां की वनस्पतियों व जीवों के बारे में यहां के निवासियों से अधिक जानने का दावा करते हैं. ग्रामीण बिना स्थानिक चर्चा के संसद में बने अधिनियम के औचित्य पर भी सवाल उठाते हैं.

ग्रामीणों के हिसाब से स्थानीय निवासी ही जंगलों और पर्यावरण को ज्यादा अच्छी तरह समझ पाएगा. उनकी हर मामले में स्पष्ट सोच है. स्थानीय ग्रामीणों ने सरकार को वैकल्पिक नीतियां तक दी हैं.  लाता ग्राम सभा ने जन व वन संपदा की सुरक्षा के लिए ग्राम नीति बनाई है. इसी तरह नीति घाटी की सभी ग्राम सभाओं ने ‘पर्यटन के सामाजिक प्रभावों पर मनीला घोषणा पत्र-1997’ की तर्ज पर 2001 में ‘नंदादेवी जैव विविधता संरक्षण एवं ईको घोषणा पत्र’ बनाया है. स्थानीय लोग बड़ी कंपनियों को प्रोत्साहित करने की बजाय पर्यटन के संवर्धन के लिए ‘नीति घाटी पर्यटन विकास प्राधिकरण’ की मांग कर रहे हैं जिसमें 80 प्रतिशत स्थानीय जन प्रतिनिधियों का नेतृत्व हो और 10 प्रतिशत सरकार व विभिन्न स्रोतों के विशेषज्ञ हों. यहां के निवासी बड़े होटलों की बजाय स्थानीय घरों को ठीक करके पर्यटन को बढ़ावा देना चाहते हैं.

शिक्षा के मंदिर, शोषण की पूजा

पीलीभीत जिले के धर्मपाल ने जब इस साल लखनऊ के एसआर इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिले के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया तो उन्हें अंदाजा नहीं था कि आगे उनका पाला किस मुसीबत से पड़ने वाला है. रजिस्ट्रेशन के वक्त उन्होंने 2,000 रु एडवांस जमा करवाए. अनुसूचित जाति का होने की वजह से धर्मपाल की फीस नाम मात्र की होनी चाहिए थी लेकिन कॉलेज ने उनसे 87,000 रु मांगे. आर्थिक स्थिति कमजोर होने  के चलते इतना रुपया दे पाना धर्मपाल के लिए संभव नहीं था.  उन्होंने फैसला किया कि वे अब उस कॉलेज में दाखिला नहीं लेंगे. उन्होंने ऐसे दूसरे कॉलेजों में एडमिशन के बारे में पता करना शुरू किया जहां अनुसूचित जाति के छात्रों को छूट मिल रही थी. लेकिन जब उन्होंने एसआर इंजीनियरिंग कॉलेज में जमा अपने मूल प्रमाणपत्र मांगे तो कॉलेज ने इन्हें देने से साफ इनकार कर दिया. धर्मपाल बताते हैं, ‘कॉलेजवालों ने कहा कि मुझे वहीं पढ़ना होगा वरना अपने कागजात भूल जाओ. कॉलेज ने फीस कुछ कम करने की पेशकश भी की.’ लेकिन धर्मपाल ने मना कर दिया तो कॉलेज वालों ने उन्हें दौड़ाना शुरू कर दिया. अब मूल कागजात के बिना दाखिला दूसरी जगह भी नहीं हो सकता था, इसलिए अपने पिता के साथ भागदौड़ में लगे धर्मपाल ने इस चक्कर में बहुत पैसा और वक्त बर्बाद किया.

यह अकेला उदाहरण नहीं है. कुछ ही सालों पहले लखनऊ के आजाद इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़ाई पूरी कर दिल्ली में एक सॉफ्टवेयर फर्म में काम कर रहे अभिषेक कसैले सुर में कहते हैं, ‘बचपन में पढ़ते थे कि गुरु भगवान से और विद्यालय मंदिर से बड़ा होता है, लेकिन मेरी तरह जिन्होंने भी यूपीटीयू (उत्तर  प्रदेश  प्राविधिक  विश्वविद्यालय) के किसी भी निजी कॉलेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की होगी उनकी सोच अब जरूर बदल गई होगी.’

अभिषेक की बात उत्तर प्रदेश के निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों को कटघरे में खड़ा करती है. उनका कहना गलत नहीं है. अगर आप उत्तर प्रदेश प्राविधिक विश्वविद्यालय से संबद्ध निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों की पड़ताल करें तो पाएंगे कि ये कॉलेज शिक्षण की महान परंपरा के साथ जुड़े रहे मूल्यों और प्रतिष्ठा को तार-तार कर रहे हैं. पूरे उत्तर प्रदेश में सैकड़ों की तादाद में फैले ये इंजीनियरिंग कॉलेज मुनाफे की चाह में कुछ भी करने से नहीं कतराते. फिर चाहे वह विद्यार्थियों का शोषण हो या नियमों की अनदेखी.

जब एक विद्यार्थी से ही करीब बीस हजार रुपए अतिरिक्त फीस वसूली जा रही है तो सभी छात्रों को मिलाकर कॉलेज कुल कितनी अतिरिक्त फीस वसूल रहे होंगे इसका अंदाजा लगाया जा सकता है

लखनऊ स्थित श्री राम स्वरूप मेमोरियल कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग ऐंड मैनेजमेंट को ही लें. इस कॉलेज को कुछ समय पहले तक एक ऐसे निजी इंजीनियरिंग कॉलेज के रूप में जाना जाता था जहां पढ़ाई और प्लेसमेंट दोनों बेहतर होता है. लेकिन इस साल जुलाई में यहां तकरीबन एक करोड़ रुपए के फीस प्रतिपूर्ति घोटाले का पता चला. इसके बाद सूबे में निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों को लेकर हड़कंप मच गया. हालांकि उत्तर प्रदेश में  निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों के बारे में जुबानी तौर पर यह बात सभी जानते हैं कि अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों की फीस को लेकर उनकी नीयत खराब रहती है. अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों की फीस की प्रतिपूर्ति सरकार करती है, लेकिन इसके बावजूद ये कॉलेज इन विद्यार्थियों से भी फीस वसूल लेते हैं. राम स्वरूप मेमोरियल कॉलेज के खिलाफ सरकार को इसी धोखाधड़ी की शिकायत मिली थी. जांच कराए जाने पर शिकायत सही निकली. इसके बाद समाज कल्याण के प्रमुख सचिव बलविंदर कुमार ने निदेशक (समाज कल्याण) राम बहादुर को सभी कॉलेजों में फीस प्रतिपूर्ति की व्यापक जांच करने के आदेश दिए. बलविंदर कुमार के मुताबिक रामस्वरूप मेमोरियल कॉलेज ने पिछले सत्र में शासन से अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों की फीस प्रतिपूर्ति भी हासिल की और साथ ही विद्यार्थियों से मोटी फीस भी वसूल कर ली जबकि ऐसे विद्यार्थियों से फीस नहीं ली जा सकती. घोटाले के बाद कॉलेज प्रबंधन के खिलाफ लखनऊ की चिनहट कोतवाली में समाज कल्याण विभाग की तरफ से मुकदमा दर्ज कराया गया है. इस कॉलेज की मान्यता समाप्त करने की प्रक्रिया भी चल रही है. कॉलेज से संपर्क करने पर कोई भी इस बारे में बात करने को तैयार नहीं होता.

भले ही इस घोटाले में अभी तक सिर्फ एक कॉलेज का नाम उजागर हुआ हो लेकिन छात्रों की मानें तो फीस में घोटाले का गोरखधंधा पूरे प्रदेश के कॉलेजों में चल रहा है. मेरठ के एक निजी कॉलेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे गौरव बताते हैं, ’आपकी प्रतिपूर्ति फीस आ गई है या नहीं यह आपको तभी पता लग सकता है जब आप अकाउंट्स में बैठे बाबू को चाय-पानी दे दें. अगर आप यह मामूली खर्च नहीं उठाना चाहते तो आपको आपके हिस्से की फीस शायद ही मिल पाए. साथ ही अगर कोई फर्जी आय प्रमाण पत्र बनवा ले तो वह भी फीस प्रतिपूर्ति पा सकता है क्योंकि शायद हमारे यहां इनकी जांच नहीं होती.’ हालांकि घोटाले के सामने आने के बाद सरकार ने सामान्य वर्ग के सभी विद्यार्थियों के आय प्रमाण पत्रों की जांच शुरू की. इस दौरान हजारों की संख्या में प्रमाण पत्र फर्जी पाए गए. इसके बाद सामान्य वर्ग को मिलने वाली तकरीबन दो सौ करोड़ रुपए की प्रतिपूर्ति रोक दी गई.

दरअसल अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों के अलावा सरकार की तरफ से सामान्य वर्ग के उन विद्यार्थियों की फीस की प्रतिपूर्ति भी की जाती है जिनके अभिभावकों की सालाना आय एक लाख से कम है. इसी प्रतिपूर्ति को हासिल करने के लिए फर्जी प्रमाण पत्र बनवाए जाते हैं. समाज कल्याण विभाग प्रदेश के इंजीनियरिंग कॉलेजों में तकरीबन 600 करोड़ रु की भारी-भरकम फीस प्रतिपूर्ति देता है. इस व्यवस्था में इतनी गंभीर अनियमितताएं सामने आने के बाद अब प्रतिपूर्ति की प्रक्रिया बदलने पर विचार हो रहा है.

निजी इंजीनियरिंग कॉलेज सिर्फ फीस प्रतिपूर्ति में ही धांधली नहीं कर रहे बल्कि शासन की तरफ से  निर्धारित फीस से भी बहुत ज्यादा बढ़ाकर फीस वसूल कर रहे हैं. मसलन अगर राम स्वरूप मेमोरियल कॉलेज को ही लें तो इस कॉलेज में निर्धारित फीस तकरीबन 82,000 रुपए है जबकि इसमें पहले वर्ष के विद्यार्थियों से 94,450 रुपए वसूले जाने की बात खुद सरकार की जांच में सामने आई है. बढ़ी हुई फीस लगभग हर निजी इंजीनियरिंग कॉलेज में वसूली जा रही है. जब एक विद्यार्थी से ही तकरीबन बीस हजार रुपए अतिरिक्त फीस वसूली जा रही है तो सभी छात्रों को मिलाकर कॉलेज कुल कितनी अतिरिक्त फीस वसूल रहे होंगे इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. उत्तर प्रदेश प्राविधिक विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार प्रोफेसर यूएस तोमर भी इस बात को मानते हैं (देखें बॉक्स). प्रवेश के समय ही नहीं बल्कि अगले तीन सालों में भी छात्रों से निर्धारित फीस से बढ़ी हुई फीस ही वसूली जाती है. चूंकि विद्यार्थी बीच में कॉलेज नहीं छोड़ सकता, इसलिए उसे मजबूरी में यह बढ़ी हुई फीस देनी पड़ती है. तोमर शिकायत मिलने पर कार्रवाई की बात करते हैं लेकिन हकीकत यह है कि भविष्य के डर से कोई विद्यार्थी कॉलेज के खिलाफ मुंह खोल ही नहीं सकता. बरेली के श्री राममूर्ति स्मारक कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग ऐंड टेक्नोलॉजी के छात्र रह चुके शुभम तो निर्धारित फीस पर ही सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं, ‘जब फीस इतनी ज्यादा ही रखनी थी तो निर्धारण की क्या जरूरत थी? मध्य प्रदेश जैसे दूसरे राज्यों में निजी कॉलेजों की फीस भी तीस-चालीस हजार से ज्यादा नहीं है जबकि उनका प्लेसमेंट भी ज्यादा अच्छा है.’

भारी-भरकम फीस अभिभावकों के सीने पर भी बोझ की तरह होती है. उनके मुताबिक बच्चों के भविष्य के लिए वे उनका एडमिशन तो करा देते हैं लेकिन हर साल फीस का इंतजाम करने में कमर टूट जाती है. चार साल की केवल ट्यूशन फीस तकरीबन चार लाख रु, इसके अलावा दूसरे खर्चे अलग. तब भी आपको नौकरी किस्मत का धनी और पढ़ाई में बहुत अच्छे होने की शर्त पर ही मिलेगा.

नए खुलने वाले कॉलेजों में तो बुनियादी सुविधाएं तक पूरी नहीं हैं. इन्हें एआईसीटीई की मान्यता कैसे मिल गई यह अपने आप में एक सवाल है

अनियमितताओं की कहानी यहीं खत्म नहीं होती. निजी कॉलेज जब पहले साल के विद्यार्थियों से भारी-भरकम फीस वसूलते हैं तो उसमें दस से पंद्रह हजार रु कॉशन मनी के रूप में लिए जाते हैं जो नियमानुसार पढ़ाई पूरी होने के बाद विद्यार्थी को वापस मिल जाने चाहिए. लेकिन यह कॉशन मनी भी सामान्यतः किसी को वापस नहीं मिलती. यह एक अघोषित नियम है. आपको कॉशन मनी उसी दशा में वापस मिल सकती है जब आप इसके लिए लंबी अदालती लड़ाई लड़ने को तैयार हों. निजी कॉलेज सामान्यतः कॉशन मनी वापस नहीं देते, यह बात उत्तर प्रदेश प्राविधिक विश्वविद्यालय से भी छिपी नहीं है. कोर्ट में और विश्वविद्यालय के पास लगातार आ रही इस तरह की शिकायतों के बाद ही कुछ समय पहले इस विषय में एक सर्कुलर भी जारी किया गया था कि विद्यार्थियों को उनकी कॉशन मनी हर हाल में वापस मिलनी चाहिए और ऐसा न करने वाले कॉलेजों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी.  लेकिन इसके बाद भी निजी कॉलेजों में कॉशन मनी सामान्य तौर पर वापस नहीं मिलती. कॉलेज कॉशन मनी के लिए झूठे फाइन और ड्यूज बनाने से भी नहीं चूकते. दस हजार रु प्रति विद्यार्थी के हिसाब से पूरे कॉलेज की कॉशन मनी एक अच्छी-खासी रकम होती है जिसे कॉलेज हजम कर जाते हैं. अंधी मुनाफाखोरी के चक्कर में इन कॉलेजों को नियमों की भी कोई परवाह नहीं रहती. लखनऊ स्थित सरोज इंस्टिटयूट ऑफ टेक्नोलॉजी ऐंड मैनेजमेंट से कई सालों पहले डिग्री हासिल कर चुकी दिव्या के साथ भी यही हो रहा है. उनकी कॉशन मनी उन्हें डिग्री मिलने के बाद भी वापस नहीं मिली है जबकि इसके लिए वे कई बार कॉलेज को प्रार्थनापत्र दे चुकी हैं. वे कॉशन मनी की मूल रसीद भी दिखाती हैं. दिव्या के मुताबिक वे अकेली नहीं हैं जिनकी कॉशन मनी नहीं लौटाई गई. हालांकि इस कॉलेज के रजिस्ट्रार सैयद हुसैन नासिर सईद इससे इनकार करते हुए कहते हैं कि डिग्री मिलने के वक्त ही हर विद्यार्थी को उसकी कॉशन मनी भी वापस कर दी जाती है.

इन कॉलेजों में एक बड़ा घपला इनमें पढ़ाने वाले शिक्षकों के वेतन और इनकी अर्हता में भी है. एआईसीटीई ने इंजीनियरिंग कॉलेजों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के लिए वेतनमान और अर्हताएं निर्धारित कर रखी हंै, लेकिन निजी इंजीनियरिंग कॉलेज पैसा बचाने के चक्कर में इनका भी पालन नहीं करते. कॉलेज नए और गैरअनुभवी शिक्षकों को निर्धारित वेतनमान से बेहद कम वेतन पर भर्ती कर लेते हैं जबकि छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद नियमानुसार इन्हें इससे कहीं ज्यादा तनख्वाह मिलनी चाहिए. तोमर कहते हैं, ‘छठे वेतन आयोग के आने के बाद लेक्चरर से प्रोफेसर तक सभी की तनख्वाह बढ़ी है. शिक्षकों को उनका निर्धारित वेतन ही मिलना चाहिए. अगर कहीं ऐसा नहीं हो रहा तो शिक्षक उसकी शिकायत कर सकता है.’

लेकिन शिकायत करना इतना आसान नहीं है. नाम न छापने की शर्त पर लखनऊ स्थित बाबू बनारसी दास इंजीनियरिंग कॉलेज के एक शिक्षक बताते हैं कि नए लेक्चरर  की भर्ती सात-आठ हजार रु पर ही की जाती है. अब इसकी शिकायत अगर कहीं करें तो नौकरी तो जाएगी ही साथ ही आगे भी टीचिंग के सारे रास्ते बंद हो जाएंगे. एक दूसरे कॉलेज में पढ़ाने के लिए इंटरव्यू दे चुके आवेदनकर्ता बताते हैं, ‘वहां मुझे टीचिंग के आठ हजार ऑफर किए गए, लेकिन कहा गया कि आपकी पोस्ट लैब असिस्टेंट की रहेगी.’ बेरोजगारी ज्यादा होने और कॉलेजों की संख्या बढ़ने की वजह से इंजीनियरिंग डिग्री धारकों का एक बड़ा समूह निजी कॉलेजों में पढ़ाने का विकल्प चुनता है. कॉलेज भी उनकी मजबूरी को भांपकर उन्हें निर्धारित वेतन न देकर बेहद कम वेतन देते हैं और उनका शोषण करते हैं. शिक्षकों के वेतन के मामले में ही नहीं बल्कि उनकी अर्हता के मामले में भी कॉलेजों का रवैया ढुलमुल है. कायदे से चले तो सिर्फ बीटेक किया हुआ व्यक्ति किसी कॉलेज में विभागाध्यक्ष नहीं हो सकता, लेकिन सही से खोजने पर हमें ऐसा भी दिखाई दे ही जाता है.

उत्तर प्रदेश में निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों में विद्यार्थियों का किस कदर शोषण हो रहा है इसका अंदाजा लगाने के लिए प्रणव की दास्तान ही काफी है. गाजियाबाद स्थित इंस्टिटयूट ऑफ मैनेजमेंट एजुकेशन से कुछ साल पहले पढ़ाई पूरी करने वाले प्रणव के साथ उनके कॉलेज ने जो किया है उससे वे पूरी तरह टूट चुके हैं. प्रणव के मुताबिक जब उन्होंने कॉलेज से अपनी मार्कशीट मांगी तो पहले तो कॉलेज की तरफ से उन्हें यह कहकर गुमराह किया जाता रहा कि उनकी मार्कशीट अभी तक प्राविधिक विश्वविद्यालय से आई ही नहीं है, लेकिन जब विश्वविद्यालय से उन्हें पता चला कि उनकी मार्कशीट कॉलेज में ही है तो उन्होंने फिर से कॉलेज से अपनी मार्कशीट की मांग की. अब प्रणव को पता चला कि उन्हें मार्कशीट क्यों नहीं दी जा रही थी. उनके कॉलेज के तत्कालीन रजिस्ट्रार ने उनसे मार्कशीट देने के बदले में पैसे की मांग की. प्रणव के मुताबिक अपने रजिस्ट्रार के इस तरह के आचरण से वे बहुत आहत हुए लेकिन फिर भी मजबूरी होने की वजह से उन्होंने रजिस्ट्रार को पैसे देकर अपनी मार्कशीट ले ली. मार्कशीट तो उनको मिल गई लेकिन डिग्री पूरी होने के कई सालों बाद भी उन्हें अपनी डिग्री नहीं मिली है. प्रणव को आशंका है कि डिग्री के लिए भी उनसे पैसा मांगा जाएगा. प्रणव से मिलती-जुलती कई कहानियां हैं. संस्थान में ऐसे कई विद्यार्थी और भी हैं. कुछ समय पहले प्रणव ने अन्य साथियों के साथ मिलकर इस भ्रष्टाचार का विरोध करना शुरू किया तो उन्हें पता चला कि वे जिस कंपनी में काम करते हैं उससे कॉलेज ने कहा कि वह प्रणव के कागजात की जांच कर ले.

साफ है कि स्थिति बहुत गंभीर है. ये कॉलेज उत्तर प्रदेश प्राविधिक विश्वविद्यालय से संबद्ध तो हैं लेकिन असल में इनका रवैया किसी तानाशाह जैसा है. इनके अपने अघोषित नियम हैं जो विश्वविद्यालय के नियमों को ठेंगा दिखाते हैं. इन अघोषित नियमों की आड़ में यहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों का गंभीर शोषण किया जा रहा है. लखनऊ के सरोज इंस्टिटयूट ऑफ टेक्नोलॉजी ऐंड मैनेजमेंट में पढ़ने वाले एक विद्यार्थी बताते हैं कि उनके कॉलेज में स्थानीय विद्यार्थियों के लिए बस सेवा और बाहर के विद्यार्थियों के लिए होस्टल लेना अनिवार्य है. इन दोनों सेवाओं की फीस दस से बारह हजार रुपए होती है. हालांकि यह कोई लिखित नियम न होकर अघोषित नियम है. वे बताते हैं, ‘इसी नियम की वजह से लखनऊ निवासी होने के बावजूद और घर में मोटर साइकिल खड़ी होने के बावजूद मुझे कॉलेज की बस से आना-जाना पड़ता है. इसमें पैसे का नुकसान तो है ही साथ ही बस के हिसाब से चलना पड़ता है. भले ही क्लास जल्दी छूट जाए या देर तक चलनी हो.’ उधर, इस मुद्दे पर कॉलेज के रजिस्ट्रार सैयद हुसैन नासिर सईद कहते हैं, ‘कॉलेज विद्यार्थियों को प्रोत्साहित तो जरूर करता है कि वे कॉलेज की बस से आएं एवं होस्टल में रहें ताकि वे सुरक्षित रह सकें लेकिन ऐसा करना अनिवार्य कतई नहीं है.’

रजिस्ट्रार भले ही कुछ भी कहें लेकिन हकीकत उलट ही है. यह सिर्फ एक कॉलेज नहीं बल्कि ज्यादातर की कहानी है. बहुत-से कॉलेजों में बुक बैंक के नाम पर हर साल भारी-भरकम रकम विद्यार्थियों से जमा कराई जाती है. साल खत्म होने पर विद्यार्थियों को ये किताबें तो वापस करनी ही पड़ती हैं लेकिन अकसर उन्हें बुक बैंक का पैसा वापस नहीं मिलता. यहां तक कि फाइन के रूप में भी ये कॉलेज विद्यार्थियों से अंधाधुंध पैसा वसूलते हैं. फाइन सैकड़ों में नहीं हजारों में लगता है और एक नियत तारीख तक जमा न करने पर फाइन पर भी फाइन लगता है और साथ ही आपको परीक्षा देने से भी रोका जा सकता है. चूंकि पढ़ाई बीच में नहीं छोड़ी जा सकती, इसलिए छात्रों को मजबूरी में यह फाइन भरना पड़ता है. ज्यादातर कॉलेजों के शिक्षक अच्छे इंटरनल मार्क्स के बदले में विद्यार्थियों से सीधे-सीधे उनसे ट्यूशन लेने या पैसे देने की मांग करते हैं. चूंकि इंटरनल मार्क्स बहुत अहम होते हैं, इसलिए विद्यार्थियों को सर जी से ट्यूशन लेनी ही पड़ती है और जो ऐसा नहीं करते उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता है. लखनऊ के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र और सीतापुर के निवासी वरुण ने भी अपने कॉलेज के एक टीचर से ट्यूशन पढ़ी है और बदले में उन्हें बहुत अच्छे इंटरनल मार्क्स मिले हैं. लेकिन वरुण इसे एक चौंकाने वाले नजरिए से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘कॉलेज में तो वैसे भी कहीं पढ़ाई नहीं होती. पढ़ना अपने आप ही पड़ता है.  पहले लखनऊ में कमरा लेकर रहता था तो महीने में लगभग पांच हजार खर्च हो जाते थे. सर से पंद्रह सौ की ट्यूशन पढने के बाद इंटरनल मार्क्स की तो गारंटी हो ही गई. अब रेलवे के सीजनल टिकट पर रोज लखनऊ आना-जाना बेहतर विकल्प है. इस तरह कम पैसों में काम हो जाता है.’

अलग-अलग जरियों से पैसे की इतनी भारी-भरकम वसूली के बावजूद भी ऐसा नहीं है कि इन कॉलेजों में पढ़ाई अथवा प्लेसमेंट का स्तर बहुत अच्छा हो. गिने-चुने निजी कॉलेजों को छोड़कर बाकी सब इसमें फिसड्डी ही हैं. अच्छी कंपनियों में ठीक समय पर प्लेसमेंट न मिलने की वजह से कई छात्रों को मजबूरी में इन कॉलेजों में ही औने-पौने वेतन पर शिक्षण का विकल्प चुनना पड़ता है ताकि पढ़ाई के समय लिए गए कर्ज की किश्त अदा की जा सके. हैरत नहीं कि उत्तर प्रदेश की इस बार की बीटीसी प्रशिक्षुओं की लिस्ट में भी कई बीटेक डिग्री वाले हैं. नए खुलने वाले कॉलेजों में तो बुनियादी सुविधाएं तक पूरी नहीं हैं. इन्हें एआईसीटीई की मान्यता कैसे मिल गई यह अपने आप में एक सवाल है. एआईसीटीई का दौरा कॉलेजों में हर साल होता है. कॉलेज भी लगातार खुल रहे हैं. ऐसा कहा जा रहा है कि जिस किसी के पास भी अंधी कमाई है वह कॉलेज खोले दे रहा है. उधर, इस सत्र की काउंसलिंग के बाद बी फार्मा की तो ज्यादातर और बीटेक की भी बहुत सारी सीटें खाली रह गईं. वजह साफ है, नए कॉलेजों में एडमिशन का खतरा कोई भी मोल नहीं लेना चाहता.

इसके अलावा ये कॉलेज इतना पैसा लेने के बाद भी किसी तकनीकी गड़बड़ी की दशा में विद्यार्थी से बिलकुल अलग खड़े रहते हैं और उनका बिलकुल भी सहयोग नहीं करते. चाहे नंबरों में गड़बड़ी हो या परीक्षाफल न आना. हर परेशानी के हल के लिए विद्यार्थियों को खुद ही लखनऊ स्थित विश्वविद्यालय के चक्कर काटने पड़ते हैं और वहां काम करा पाना भी किसी युद्ध को जीतने से कम नहीं है. यह एक ऐसी समस्या है जिसका दंश हर विद्यार्थी कभी न कभी जरूर झेलता है. मुजफ्फरनगर के सनातन धर्म कॉलेज के छात्र रह चुके विपुल सिंह को अपने कॉलेज से सिर्फ यही एक शिकायत है कि मुश्किल के वक्त कॉलेज ने उनका साथ बिलकुल नहीं दिया जबकि गलती कॉलेज की ही थी उनकी नहीं. असल में कॉलेज ने विपुल के पूरे बैच को एक ऐसे विषय का चुनाव करवा दिया था जो उनके लिए निर्धारित था ही नहीं. इसके बाद पूरे बैच का परीक्षाफल रुक गया था. लेकिन कॉलेज ने इस समस्या के हल के लिए रत्ती भर भी कोशिश नहीं की. विद्यार्थी बार-बार लखनऊ दौड़ते रहे. लंबे समय तक भारी विरोध और दौड़-धूप करने के बाद इस समस्या के हल के लिए एक कमेटी बैठाई गई जिसने विद्यार्थियों का परीक्षाफल घोषित किया. कॉलेज के साथ विपुल की बहुत-सी सुनहरी यादें जुड़ी हैं, लेकिन इस एक बात के याद आते ही उनका मन खट्टा हो जाता है.

यूपीटीयू से संबद्ध इन निजी कॉलेजों में जो कुछ हो रहा है वह तालीम की अजीम रिवायत को शर्मसार तो करता ही है, सूबे के शिक्षा तंत्र और निजाम पर भी सवालिया निशान भी लगा देता है.

सियासत में उफान और लामबंद मुसलमान !

उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ चुनाव-उपचुनाव इस बात की तस्दीक करते हैं कि मुसलिम मतदाताओं का रुझान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बजाय नई राजनीति की ओर हो रहा है. यहां पिछले कुछ समय में एक के बाद एक मुसलिम पहचान वाली पार्टियां अस्तित्व में आई हैं और असम की तर्ज पर मोर्चा बनाने की पहल के संकेत भी मिलते हैं. अतुल चौरसिया की रिपोर्ट

देश की आबादी में 15 फीसदी के करीब दखल रखने वाली मुसलिम आबादी उत्तर प्रदेश में 19 फीसदी के आसपास है. आंकड़ों के लिहाज से यह एक बड़ी संख्या है और भाजपा जैसी दक्षिणपंथी राजनीति करने वाली पार्टियों को छोड़कर किसी भी दूसरी सियासी तंजीम के लिए इसे नजरअंदाज कर पाना बेहद मुश्किल है. लेकिन बीते दो साल में अगर मुसलिम समाज के इर्द-गिर्द घूम रही राजनीति पर नजर डालें तो असम और केरल के बाद उत्तर प्रदेश में भी मुसलिम समाज में बेचैनी के संकेत मिल रहे हैं. जिस तेजी से इस इलाके में मुसलिम सियासी पार्टियों का गठन हुआ है उससे मुसलिम समाज के भीतर खदबदा रही कशमकश का संकेत मिलता है. प्रदेश में पीस पार्टी, उलेमा काउंसिल, कौमी एकता दल, मोमिन कांफ्रेंस, परचम पार्टी और नेशनल लोकहिंद पार्टी जैसी मुसलिम पहचान के साथ राजनीति में उतरने वाली पार्टियों की एक पूरी शृंखला तैयार हो गई है. इन पार्टियों के नेताओं, कार्यकर्ताओं और मुसलिम समाज की समझ रखने वाले बुद्धिजीवियों के साथ चर्चा में इस परिघटना के तमाम अनछुए पहलू सामने आते हैं. इसमें कांग्रेस, सपा जैसी पार्टियां खलनायक की परिधि में आती हैं, प्रशासनिक और व्यवस्थागत अनदेखियां कारक के रूप में सामने आती हैं और अपने पृथक वजूद की चाह इनकी प्राणवायु बनती दिख रही है.

सपा, बसपा और कांग्रेस सबके समीकरण मुसलिम पार्टियों के उभार के चलते गड़बड़ाए से दिख रहे हैं. कांग्रेस इनसे समझौते की उम्मीद में है तो मुलायम सिंह माफी मांगकर दाग धुलना चाहते हैंपीस पार्टी ऑफ इंडिया के झंडे तले उत्तर प्रदेश के सीमाई कस्बे डुमरियागंज के उपचुनाव में गरमी पैदा कर देने वाले गोरखपुर जिले के बड़हलगंज निवासी और पार्टी अध्यक्ष डॉ मुहम्मद अयूब के मुताबिक, ‘इस देश में आज सबसे बुरी दशा मुसलमानों की है. पिछले पचास सालों के दौरान इस समुदाय को धीरे-धीरे हाशिए पर पहुंचा दिया गया है. नेता सिर्फ बयान और  योजनाओं की घोषणा करते हैं पर होता कुछ नहीं. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आप लोगों के सामने है.’ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान से एमएस की डिग्री पाने वाले डॉ. अयूब देश की सिविल सेवा में सफलता हासिल करकेे और कस्टम विभाग की नौकरी को छह महीने में ही लात मारकर फिर से डॉक्टरी के पेशे में लौट आए थे. उनका कहना है कि वे भ्रष्टाचार, शांति और शोषित तबके के लिए राजनीति में आए हैं.

2008 में देश में हो रहे सिलसिलेवार बम धमाकों के दौरान पूर्वांचल के ही एक अन्य जिले आजमगढ़ का नाम तेजी से उड़ा और देखते ही देखते पूरे देश के परिदृश्य पर छा गया. यहां मुसलमानों ने सरकारी पक्षपात और प्रशासनिक बेरुखी के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किए. इसी विद्रोह के सुर से एक स्थानीय मदरसे के उलेमा मौलाना आमिर रशादी ने उलेमा काउंसिल नाम की सियासी तान छेड़ी. देखते ही देखते आजमगढ़ और आसपास के इलाकों में उलेमा काउंसिल का दबदबा कायम हो गया. कुछ लोग इसकी एक वजह यहां मुसलिम आबादी का ज्यादा होना भी मानते हैं. जिस बात को डॉ अयूब तर्कों और आंकड़ों के सहारे बताते हैं, रशादी साहब उसे एक कदम आगे ले जाते हुए बेहद तल्ख लहजे में बयान करते हैं, ‘आजादी के बाद से ही मुसलमानों के अंदर यह बात भर दी गई है कि मुसलमान लीडरशिप नहीं दे सकता. जब भी इस देश में मुसलमानों की बात की जाती है तब फैसले लेने का अधिकार हिंदू लीडर के हाथ में दे दिया जाता है. ऐसा क्यों? हमने पूरे कौम को मुसलिम लीडरशिप की नई सोच दी है.’ वे साफ करते हैं कि हिंदू नेतृत्व से उनका आशय मुलायम, मायावती और उससे भी कहीं ज्यादा कांग्रेस से है.

हाल ही में मऊ जिले में भी इसी तर्ज की एक पार्टी का उदय हुआ है- ‘कौमी एकता दल’. इसकी नींव इलाके के चर्चित बाहुबली मुख्तार अंसारी और उनके भाई अफजल अंसारी ने रखी है. हालांकि दोनो भाइयों ने पार्टी में कोई पद लेने से परहेज करते हुए खुद को मार्गदर्शक की भूमिका में रखा है. पार्टी की कमान मुख्तार अंसारी के नजदीकी सहयोगी मुजाहिद और उनके चचेरे भाई और मुहम्मदाबाद से विधायक शिब्तैनुल्लाह अंसारी के हाथों में है. पीस पार्टी और उलेमा काउंसिल के बाद यह पूर्वांचल की एक और सियासी पार्टी है जो आने वाले समय में प्रदेश की मुख्य राजनीतिक पार्टियों के समीकरणों को उलट-पुलट कर सकती है. मऊ जिले में अच्छी-खासी मुसलिम आबादी को देखते हुए इसकी भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा के टिकट पर अपनी किस्मत आजमा चुके अफजाल अंसारी पार्टियों के उभार को स्वाभाविक घटना मानते हुए स्वीकार करते हैं, ‘हमारी लड़ाई समाज के दलितों और पिछड़ों के साथ ही मुसलमानों के लिए भी है. मुसलमान इस बात को समझता है कि उनके अपने समाज के नेता उनकी समस्याओं, उनकी चिंताओं को ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकते हैं. आज मुसलिम समाज के भीतर बेचैनी है. आतंकवाद के नाम पर आज भी 600 से ज्यादा निर्दोष मुसलिम युवाओं को जेलों में ठूंस दिया गया है. इससे जो कुंठा पैदा हो रही है उसी का परिणाम है इस इलाके की राजनीतिक उठापटक.’

पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ अयूब भी व्यवस्था की अनदेखी और उसके दोमुंहे रवैए को एक बड़ी वजह मानते हैं, ‘आज की परिस्थितियों में जरूरी हो गया है कि मुसलमान अपने लिए एक मजबूत राजनीतिक विकल्प ढूंढे़. अगर वह इसी तरह से अलग-अलग पार्टियों के बीच झूलता रहेगा तो अस्थिरता जन्म लेगी और इस अस्थिरता का परिणाम हिंसा के रूप में सामने आता है.’ यहां इस चलन से जुड़े कुछ स्वाभाविक से सवाल पैदा होते हैं, मसलन इन पार्टियों के आने से वास्तव में मुसलमानों को कोई फायदा मिल रहा है? क्या ऐसा होने से उनकी भागीदारी और पूछ बढ़ी है? आजमगढ़ के लोकसभा चुनाव में पहली बार भाजपा को लगभग 22,000 वोटों से जीत हासिल हुई है. जबकि उलेमा काउंसिल के प्रत्याशी डॉ जावेद ने यहां 60,000 मुसलिम वोट हासिल किए थे. इसी वोट के सहारे दशकों से सपा और बसपा यहां अपना झंडा गाड़ती आई थीं. इसी तरह हाल ही में हुए डुमरियागंज उपचुनाव पर एक निगाह डालें तो वहां पीपीआई तीसरे स्थान पर रही थी और पूर्व में इस पर कब्जा रखने वाली सपा लुढ़ककर चौथे स्थान पर जा गिरी थी. मजे की बात है कि प्रदेश में अपने अस्तित्व के लिए ऑक्सीजन तलाश रही भाजपा यहां भी दूसरे पायदान पर जा पहुंची. ये नतीजे इस बात की गवाही देते हैं कि भले ये पार्टियां अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हों पर ये मुसलमानों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव भी डाल रही हैं क्योंकि इसका फायदा सिर्फ भाजपा को ही होता दिख रहा है जिसे इन वोटों से बहुत ज्यादा सरोकार नहीं है. तो क्या इनके ऊपर वोटकटवा का ठप्पा लगाना उचित होगा? 

डॉ अयूब इसे सिरे से खारिज कर देते हैं, ‘वोटकटवा पार्टी कौन है, अब इसका कोई पैमाना निर्धारित करना होगा. जो तीसरे स्थान पर रही वह वोटकटवा है या जो लोग चौथे स्थान पर जमानत जब्त करवा चुके हैं वे? सिर्फ बड़ी पार्टी होने या अतीत में जीत हासिल कर लेने से चुनाव आपकी जागीर तो नहीं बन जाते.’

सवाल यह पैदा होता है कि किसी धर्म, जाति या समुदाय विशेष की पार्टी का भविष्य क्या है. अतीत में इसी तर्ज पर बसपा से अलग होकर नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी की नींव रखने वाले डॉ मसूद अहमद को बाद में अपनी पार्टी का विलय सपा में करना पड़ा. क्या यह घटना इन पार्टियों के धुंधले भविष्य का इशारा करती है? मौलाना रशादी इसका पुरजोर खंडन करते हुए कुछ ऐसी बात कह जाते हैं जिससे उनका अतिशय आत्मविश्वास और शायद अनुभवहीनता झलकती है- ‘हम कभी किसी पार्टी का दामन नहीं थामेंगे. मैं अकेला शख्स हूं जिसने मुसलिम नाम से पार्टी बनाई और उसे समाज के सभी तबकों के बीच पहुंचाया है. मुझे पीस पार्टी या कौमी एकता जैसे नाम की जरूरत नहीं पड़ी. मैं चैलेंज करता हूं कि बाकी लोग मुसलिम नाम रखकर समाज के दूसरे हिस्सों को जोड़कर दिखाएं.’

धर्म विशेष या समुदाय के नाम पर सियासी जमात खड़ी करने की इजाजत तो हमारा संविधान भी नहीं देता है. वरिष्ठ राजनेता और मुसलिम मामलों के जानकार पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान इस पहलू पर रोशनी डालते हैं, ‘हमारा संविधान किसी धर्म या समुदाय आधारित पार्टी की इजाजत नहीं देता है. इसके अलावा अतीत में इस तरह के ज्यादातर प्रयास असफल सिद्ध हुए हैं. मुसलिमों की बात करना कोई अपराध नहीं है. आखिर बाकी राजनीतिक पार्टियां भी तो यही करती हैं. अगर कोई अपनी बात संविधान के दायरे में रहकर करता है तो कोई दिक्कत नहीं. अगर कोई मुसलिम नेता उनकी बात करता है तो इसमें कोई बुराई नहीं. समस्या तब पैदा होती है जब इन चीजों को राजनीतिक चश्मे से देखा जाने लगता है. हमारा संविधान कुछ और मूल्य-मानकों की स्थापना करता है और हमारी राजनीतिक व्यवस्था उसके बिलकुल उलट व्यवहार करती है.’

लोगों से बातचीत और पार्टियों के नेताओं की सोच से एक और नई बात सामने आती है. इन पार्टियों के उभार के पीछे कुछ हद तक क्रिया-प्रतिक्रिया वाले सिद्धांत की भी भूमिका रही है, इसे अंसारी एक गंवई कहावत के जरिए बताते हैं, ‘खटिया एक तरफ से बुनी जाती है और दूसरी तरफ से खुद ही बुन जाती है. योगी आदित्यनाथ जैसे लोग जब पूरे पूर्वांचल में घूम-घूमकर गुजरात का प्रयोग आजमगढ़ में करने के नारे लगाते हैं तो स्वाभाविक रूप से मुसलिमों के अंदर भय पैदा हो जाता है. आतंकवाद के नाम पर 600 से ज्यादा को जेलों में डाल दिया जाता है तो फिर मुसलमान क्या करेगा.’ इन स्थितियों और कुछ दिनों बाद आने वाले अयोध्या के फैसले के मद्देनजर इन पार्टियों की भूमिका किस हद तक घट-बढ़ सकती है, इसका जवाब आरिफ मुहम्मद खान देते हैं, ‘सभी हिंदुओं का वोट सिर्फ भाजपा या हिंदूवादी पार्टियों को नहीं मिलता, उसी तरह सभी मुसलमान किसी एक पार्टी को वोट नहीं देते. चाहे आजमगढ़ में देख लें या मऊ में. बिना सभी समुदायों का दिल जीते कोई सियासत में आगे नहीं जा सकता. इस बात का सबूत है मुख्तार अंसारी की पार्टी. इन लोगों को भी आखिर कौमी एकता जैसा नाम ही रखना पड़ा है. महत्वपूर्ण बात यह है कि इस देश के लोगों में न्यायपालिका के प्रति बहुत आस्था और सम्मान है. उसके किसी फैसले से देश में सांप्रदायिक बंटवारा नहीं होने वाला है. बस जरूरत है देश के पोलिटिकल सिस्टम को आपनी भूमिका ईमानदारी से निभाने की.’

राष्ट्रीय पार्टी का रुतबा रखने वाली सपा, बसपा और कांग्रेस के सभी समीकरण इन नई पार्टियों के चलते गड़बड़ाए-से दिख रहे हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में मुसलिम वोटों को फिर से अपने पास लाने में कामयाब रही कांग्रेस पूर्वी उत्तर प्रदेश की इस राजनीतिक करवट पर ‘वेट ऐंड वाच’ की मुद्रा में है तो दूसरी तरफ ‘एमवाई’ समीकरण का अभेद्य किला खड़ा करने वाले मुलायम सिंह का किला इस नई बयार से दरकता जा रहा है. नेता जी मुसलमानों से माफी और कल्याण सिंह से दूरी की बात कर रहे हैं. लेकिन इन पार्टियों का ऊंट चुनाव आते-आते किस करवट बैठेगा उस पर नजर रखना भी दिलचस्प होगा. फिलहाल अफजाल अंसारी और आमिर रशादी तो किसी के साथ जाने से साफ इनकार करते हैं. अंसारी तो आगामी पंचायत चुनावों को अपनी पार्टी का क्वार्टर फाइनल तक घोषित कर चुके हैं. लेकिन डॉ. अयूब का नजरिया थोड़ा व्यावहारिक है, ‘हमारे विकल्प कांग्रेस, सपा सभी के साथ खुले हुए हैं. बस कोई भी समझौता हमारी शर्तों और एजेंडे पर होगा.’ 

फसाना जिसे बिसरा गया जमाना

पहले आरा फोन मिलाया, फिर पटना, रांची और अंत में दिल्ली. कुंवर सिंह के नाम से फाउंडेशन चलाने वाले विशेषज्ञों से भी तसदीक करनी चाही. जानना था कि यह धरमन कौन थीं, बाबू कुंवर सिंह से उनका क्या रिश्ता था. भोजपुर के इलाके में कई संभ्रांतों से पूछा, लेकिन वे धरमन के बारे में बात करने से हिचकते दिखे.हालांकि भोजपुर का गंवई इलाका और लोकमानस डंके की चोट पर एलान करता है कि धरमन अपने जमाने की मशहूर नचनिया (तवायफ) थीं और बाबू कुंवर सिंह उनसे बेपनाह मोहब्बत करते थे. लोकमानस में रचे-बसे किस्से के अनुसार एक बार जब अंग्रेजों ने सार्वजनिक रूप से आयोजित मुजरे में कुंवर सिंह की खिल्ली उड़ाने की कोशिश की, तभी से धरमन का स्नेह कुंवर सिंह से बढ़ा. कुंवर सिंह को प्रेम हुआ. बाद में धरमन उनकी सहयोगी और जीवनसंगिनी भी बनीं. अखिल विश्व भोजपुरी विकास मंच के प्रमुख और भोजपुरी जमात में भाईजी भोजपुरिया के नाम से मशहूर बीएन तिवारी कहते हैं कि मुजरे वाला वाकया पटना में हुआ था और अब उस जगह का नाम बांकीपुर क्लब है.

धरमन ने जिंदगी भर की अपनी सारी कमाई बाबू कुंवर सिंह को लड़ाई लड़ने के लिए दे दी थी. बाद में जीवनसंगिनी के तौर पर कुंवर सिंह को नैतिक सहारा भी दिया. लेकिन यह सच किताबी इतिहास के किसी भी अध्याय में दर्ज नहीं हो सका. 1857 के गदर पर, बाबू कुंवर सिंह पर, अनाम-गुमनाम नायकों पर, राष्ट्रप्रेमी तवायफों पर न जाने कितनी किताबें आईं, अनुसंधान हुए, लोकगीत रचे गए, उनसे जुड़े लोक आख्यान हैं, किंवदंतियां हैं, लेकिन धरमन शायद ही कहीं दिखती हों! ऐसा क्यों, यह एक यक्ष प्रश्न है.

भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा 1857 के अमर सेनानी नामक शृंखला के तहत आई पुस्तक ‘वीर कुंवर सिंह’ में अब जाकर स्वीकारा गया है कि धरमन, कुंवर सिंह की दूसरी पत्नी थीं. पहली पत्नी राजपूत परिवार की थी. यह किताब रश्मि चौधरी ने लिखी है. इतिहास संग्रह में गहरी रुचि रखने वाले मशहूर कलेक्टर (संग्रहकर्ता) कर्नल सुरेंद्र सिंह बख्शी कहते हैं, ‘हम जब कुंवर सिंह की बात करते हैं तो यह क्यों भूल जाते हैं कि भारत में महान प्रतापी सिख राजा रंजीत सिंह भी हुए थे जो मोरां नामक तवायफ से प्यार करते थे और उससे ब्याह करने के लिए उन्होंने अपनी पूरी शानो-शौकत ताक पर रख दी थी. क्या महाराजा रंजीत सिंह को इतिहास ने इसलिए खारिज कर दिया कि वे मोरां से प्रेम कर बैठे!’

आरा में उनके नाम पर दरमन चौक तो है ही साथ में धरमन मस्जिद भी है. मस्जिद के मौलाना शमशूल हक जिनकी उमर तकरीबन 50 साल है, बताते हैं, ‘बाबू कुंवर सिंह ने धरमन से ज्यादा लगाव होने की वजह से उनके नाम पर यह मस्जिद बनवाई थी. यहां धरमन और करमन दो बहनें रहती थीं. दूसरी बहन के नाम पर भी उन्होंने एक टोला बसाया था- करमन टोला. एक हिंदू राजा के हाथों बनी होने के कारण इस मस्जिद पर पहले नमाज नहीं पढ़ी जाती थी पर अब सारे मुसलिम यहां नमाज अदा करते हैं.’ कुंवर सिंह और धरमन की शादी के सवाल पर शमशूल हक चुप्पी साध लेते है. वे कहते हैं कि इस बारे में कोई उनके पास ंकोई पुख्ता जानकारी नहीं है. धरमन के नाम से आज तक जो दुराव-बचाव-अलगाव रखा जा रहा है उसने एक महान प्रेम कथा को ही नहीं बल्कि अकबर-जोधा की तरह दो धर्मों के मिलाप की एक अनूठी कहानी को भी निगल रखा है. 

फिर सरकेगी सरकार

राजनीतिक विडंबनाओं से घिरे झारखंड में दस साल में आठवीं बार मुख्यमंत्री का बदलाव हुआ है. जिन मसलों पर तीन माह पहले भाजपा ने शिबू की सरकार गिरा दी थी, वह मसला अपनी जगह है लेकिन उसी कॉकटेल के सहारे फिर सत्ता का जश्न मना लिया गया. अजब कारनामों के लिए मशहूर गजब प्रदेश में बनी सरकार के भूत, वर्तमान और भविष्य पर अनुपमा की रिपोर्ट

और अंततः अजब कारनामों से भरे गजब प्रदेश झारखंड में फिर से सरकार बन ही गई. फिर वही गठबंधन, वही कुनबा, जो इसके पहले भी सरकार चला रहा था. भारतीय जनता पार्टी, आजसू और झारखंड मुक्ति मोर्चा. फर्क सिर्फ इतना रहा कि इस बार मुखिया बदला है, पहले शिबू सोरेन मुख्यमंत्री थे, अब अर्जुन मुंडा. सरकार कितने दिन चलेगी यह कोई नहीं बता सकता.

झारखंड में सरकारों के भविष्य को लेकर कोई कुछ बता भी नहीं सकता. इस मामले में यह अनोखा प्रदेश है. राज्य गठन के दसवें साल में है, आठवीं बार मुख्यमंत्री के पद पर शासक का बदलाव हो रहा है. किसी और की बात क्या की जाए, खुद झारखंड के सबसे बड़े नेता और इस सरकार की स्टीयरिंग अपने हाथ में रखने वाले पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘यहां कोई सरकार कभी अपना कार्यकाल पूरा नहींे कर सकती.’ अब शिबू की बात मान लें तो इस सरकार का भी हश्र वैसा ही होने वाला है, जैसा कि पहले एक-एक कर सभी सरकारों का होता रहा है. शिबू की बात छोड़ भी दंे तो आजसू के दूसरे नंबर के नेता और फिर से मंत्री पद पर विराजमान होने की कतार में लगे चंद्रप्रकाश चौधरी भी सरकार के भविष्य पर बहुत विश्वास के साथ कुछ नहीं कहते. हंसते हुए कहते हैं, ‘देखिए, पूरा होइए जाएगा कार्यकाल…!’

लगभग तीन माह पहले तक इसी गठबंधन के सहारे शिबू की सरकार चल रही थी. कथित मान-सम्मान और विश्वास को झटका लगने की दुहाई देते हुए भाजपा ने शिबू को दगाबाज, धोखेबाज नेता करार दिया जिसके बाद सरकार गिर गई. लेकिन अब अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाने अथवा बनवाने के लिए ‘पार्टी विद ए डिफरेंस’ यानी भाजपा ने सारे नियम, आदर्श, सिद्धांत ताक पर रख दिए. भाजपा के कई दिग्गज दिल्ली में छटपटाते रहे लेकिन अध्यक्ष नितिन गडकरी ने विदेश से ही सरकार बनाने के लिए हरी झंडी दे दी. भाजपा संसदीय बोर्ड ने जिस शिबू के पाला बदलने के बाद उनकी सरकार को हटाने का निर्णय लिया था, उस संसदीय बोर्ड का फैसला धरा का धरा रह गया.

बकौल शिबू वे आज भी केंद्र में यूपीए के साथ हैं. केंद्र मंे यूपीए के साथ होने की बात कहने वाली पार्टी के साथ मिलकर राज्य में भाजपा द्वारा सरकार बनाने की हड़बड़ी ही वह अकेली चीज है जो इस बार की सरकार के लिए नई है. ऐसा क्यों, यह सवाल आजकल प्रदेश में अहम बना हुआ है. हर जगह एक ही चर्चा है कि यदि सरकार के लिए इन्हीं दलों का कॉकटेल बनना था तो फिर उस वक्त नौटंकी की जरूरत ही क्या थी! और फिर इस दरम्यान ऐसा क्या हो गया कि जिससे शिकायत थी, उसी से मोहब्बत हो गई.

अब शिबू की बात मान लें तो इस सरकार का भी हश्र वैसा ही होने वाला है, जैसा कि पहले एक-एक कर सभी सरकारों का होता रहा है

राज्य के पहले मुख्यमंत्री और झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) के  अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी कहते हैं, ‘छह माह पहले भी इसी गठबंधन की सरकार बनी थी, चार माह तक ही चल सकी. ढाई माह से राष्ट्रपति शासन है. अब फिर वही गठजोड़ सत्ता में है. वह सरकार क्यों गिरी थी और ढाई माह में कैसे सारे मनमुटाव दूर हो गए, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.’ मरांडी आगे कहते हैं कि औद्योगिक घरानों ने सरकार बनवाने में कीमत लगाई है, खरीद-फरोख्त की भी राजनीति हुई है. मैं खरीद-फरोख्त की राजनीति नहीं कर सकता था, इसलिए मौका आने पर भी 25 विधायकों के होते हुए भी मैंने सरकार बनाने की पहल नहीं की.

लेकिन राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के विधायक दल की नेता अन्नपूर्णा देवी इस सरकार के गठन के लिए मरांडी को ही कटघरे में खड़ा करती हैं. वे कहती हैं, ‘कांग्रेस और झाविमो चाहते तो सरकार पहले ही बन सकती थी. यदि कांग्रेस के नेतृत्व में ही सरकार बन जाती तो क्या हो जाता? वे बाबूलाल पर परोक्ष तरीके से निशाना साधते हुए कहती हैं, ‘ कहने को तो यहां कुछ साफ-सुथरी छवि वाले नेता भी हैं लेकिन मौका मिलने पर सबका स्वार्थ नजर आने लगता है.’

जाहिर-सी बात है कि इस नए ढांचे को सरकार की बजाय अपने-अपने स्वार्थों और मजबूरियों में जुटी एक भीड़ कह सकते हैं. झारखंड सरकार के एक बड़े अधिकारी कहते हैं, ‘चूंकि राष्ट्रपति शासन में काम तेजी से हो रहा था, भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसने का सिलसिला शुरू हो चुका था और कई चीजें पटरी पर आने लगी थीं, इसलिए गैरकांग्रेसी दलों में छटपटाहट होना स्वाभाविक था. पूर्व मुख्यमंत्रियों की सुविधा का छिन जाना और विधायकों के फंड के उपयोग पर रोक लग जाना सभी को परेशान कर रहा था. ऐसे में दलगत भावनाओं से परे जाकर हर छटपटाता हुआ विधायक बस किसी तरह, किसी भी सरकार के बनने की बाट जोह रहा था. इसलिए इस बार अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में सरकार बनने में न कोई हंगामा हुआ, न विरोधी गुटों के नेताओं की ओर से ही रटे-रटाए वाक्य दुहराए गए. वरना तीन माह पहले तक झामुमो के नेता भाजपाइयों के खिलाफ आग उगल रहे थे तो भाजपा के नेता झामुमोवालों को पानी पी-पीकर कोस रहे थे.’

झामुमो से राजनीतिक जीवन की शुरुआत करके भाजपा में कद्दावर नेता बनने वाले अर्जुन मुंडा को चालाक नेता और शासक माना जाता है. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास को किनारे लगाकर जब से अर्जुन मुंडा ने सरकार बनाने की कमान अपने हाथों में ली थी, तभी से यह तय माना जा रहा था कि सरकार बनेगी. अब यह भी माना जा रहा है कि अर्जुन मुंडा हैं तो वे इस भानुमति के कुनबे को चला भी लेंगे. लेकिन चुनौतियां इतनी हैं कि उनके लिए भी ऐसा करना आसान नहीं होने वाला है. इस अजीबोगरीब गठबंधन के पेंच उन्हें हर समय परेशान करते रहेंगे.

फिलहाल यह सरकार भाजपा के 18, जदयू के दो, झामुमो के 18, आजसू के पांच और दो निर्दलीय विधायकों के गणित से चलने को तैयार है. दूसरी ओर शासन की चुनौतियां सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी हैं. पूरा राज्य सूखे की चपेट में है. केंद्र से पैसा लेकर राहत कार्य सही ढंग से पहुंचवाना बड़ा काम माना जाएगा. राज्य में विकास योजनाओं पर ब्रेक लगा हुआ है. सालाना बजट की चौथाई राशि भी अब तक खर्च नहीं की जा सकी है जबकि वित्तीय वर्ष के छह माह गुजर चुके हैं. पेसा कानून के तहत पंचायत चुनाव करा लेना मुंडा के सामने बड़ी चुनौती है.  इन सबके साथ नक्सलवाद शाश्वत समस्या के तौर पर रहेगा ही.

झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन के पुत्र और राज्य के नए उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन कहते हैं कि हमारी प्राथमिकता पंचायत चुनाव कराने की ही है, हम इसे अच्छे से कराएंगे. इस सरकार के गठन पर हेमंत कहते हैं कि जनता नहीं चाहती कि एक बार फिर चुनाव का बोझ उसके माथे पर पड़े, इसके लिए सरकार का बनना बहुत जरूरी था. ‘हम भाजपा के साथ फिर से सरकार बना रहे हैं तो इस पर बहुत सवाल उठाने की जरूरत नहीं क्योंकि हमारे लिए दोनों राष्ट्रीय दल यानी भाजपा और कांग्रेस एक ही तरह की पार्टी हैं’ भाजपा के साथ मिलकर फिर से  सरकार बनाने पर सोरेन कहते हैं.

चुनौतियों से निपटना और विकास को गति देना अलग मसला है. झारखंड में फिर से वही बड़ा सवाल सामने है कि बकरे की मां आखिर कब तक खैर मनाएगी. यानी कि सरकार कितने दिन और चलेगी?

सदन में विपक्षी नेता कांग्रेस के विधायक राजेंद्र सिंह कहते हैं कि अभी हम छह माह तक अविश्वास प्रस्ताव पेश नहीं कर सकते लेकिन इन दलों के गठबंधन में ही इतने कलह हैं कि इसका भविष्य बेहतर नहीं कहा जा सकता.

क्या होगा, यह आने वाला समय बताएगा, फिलहाल राज्य अपने स्थापना के दशक वर्ष में आठवें मुख्यमंत्री का आश्वासन सुनने को तैयार है, काम को परखने को तैयार है और बदलाव को देखने के लिए बेताब है.

पस्त हौसले, बेहाल पुलिस

‘आपने मेरे लिए कुछ नहीं किया. पुलिस और सरकार ने मुझे बचाने के लिए कुछ नहीं किया. मेरी रिहाई के लिए मेरे परिवार ने नक्सलियों से बातचीत की. मैं आपसे हाथ जोड़ के विनती कर रहा हूं कि मुझे घर जाने दें. मैं आपके साथ पुलिस स्टेशन नहीं जाऊंगा. मैं पुलिस की नौकरी नहीं करना चाहता.’

6 सितंबर, 2010 को सब इंस्पेक्टर अभय यादव ने यह बात तब कही थी जब नक्सलियों द्वारा छोड़े जाने के बाद वे घर जा रहे थे और लखीसराय के पुलिस अधीक्षक रंजीत कुमार मिश्रा ने बीच रास्ते में ही उन्हें रोककर उनसे पुलिस स्टेशन चलने को कहा था. विरोध के बावजूद मिश्रा, यादव और उनके साथ छोड़े गए दो अन्य पुलिसकर्मियों रुपेश सिन्हा और मोहम्मद एहसान खान को जबर्दस्ती पुलिस स्टेशन ले गए. इससे पहले ये तीनों आठ दिन तक सीपीआई (माओवादी) की सशस्त्र इकाई पीपल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) के पास बंधक रहे थे.

अभय ने जो कहा उससे बिहार पुलिस के मनोबल का संकेत मिलता है. अभय भले ही पुलिस में नहीं रहना चाहते हों मगर इसका मतलब यह नहीं है कि वे अपनी नौकरी छोड़ देंगे. बिहार में सरकारी नौकरी मिल जाए तो बड़ी बात मानी जाती है. और पुलिस की नौकरी तो लॉटरी लगने से कम नहीं क्योंकि आम धारणा है कि इसमें ऊपरी आमदनी की कोई कमी नहीं होती. अभय कहते हैं, ‘हम नौकरी छोड़ना चाहते हैं. मगर फैसला हमारा परिवार करेगा. धीरज रखिए.’

धीरज रखिए…पिछले दिनों जब भी कोई पुलिस अधिकारी अपने से छोटे रैंक के अधिकारियों से बात करता तो हमेशा यही कहता. मगर इससे लखीसराय, जमुई, मुंगेर और बांका के पुलिसकर्मियों में आश्वस्ति की जगह निराशा और बेबसी के भाव पैदा होते.  वजह यह है कि इसी दौरान बंधकों को खोजने के लिए इन जिलों को जोड़ने वाले घने जंगलों और पहाड़ियों में बिहार पुलिस और सीआरपीएफ की कई टीमों ने सघन तलाशी अभियान तो चलाए थे मगर उनका कोई फायदा नहीं हुआ था.

बिहार में पुलिसकर्मी नक्सलियों से नहीं लड़ना चाहते क्योंकि उनके पास एके-47 और इंसास राइफलें तो हैं मगर जंगल में लड़ाई की ट्रेनिंग नहीं है चार बंधकों में से एक लुकास टेटे की हत्या से निराश कई पुलिसकर्मी मानते हैं कि लखीसराय के एक बड़े हिस्से में सरकार का कोई कायदा-कानून नहीं चलता. गौरतलब है कि टेटे की हत्या तब की गई थी जब सरकार ने जेल में बंद आठ नक्सली कमांडरों को छोड़ने से इनकार कर दिया था. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में तैनात पुलिसकर्मियों का मनोबल बुरी तरह टूटा हुआ है. कजरा थाने के सब इंस्पेक्टर राजेंद्र प्रसाद कहते हैं, ‘मैं यहां क्या कर रहा हूं? मैं अकसर खुद से यह सवाल करता हूं. मेरा नौकरी छोड़ने का मन करता है. मगर फिर करूंगा क्या? कमाई कैसे होगी? मेरा परिवार चाहता है कि मैं यह काम छोड़ दूं, मगर जब नौकरी नहीं होगी और मैं उनका पेट नहीं पाल सकूंगा तो क्या वे मेरे साथ ठीक बर्ताव करेंगे?’ यह थाना उस जगह से सिर्फ 15 किलोमीटर दूर है जहां 29 अगस्त को पुलिस के साथ मुठभेड़ के बाद नक्सलियों ने चार लोगों को बंधक बना लिया था. इस मुठभेड़ में सात पुलिसकर्मी मारे गए थे और दस घायल हुए थे.

राज्य सरकार द्वारा बंधकों की रिहाई के लिए सार्थक प्रयास न होते देख अभय के पिता इंदु प्रसाद यादव ने अपनी बिरादरी के उन लोगों से संपर्क किया था जो पीएलजीए कमांडर और पूर्वी बिहार के स्वयंभू नक्सली प्रवक्ता अविनाश उर्फ अर्जुन यादव के संपर्क में थे. अभय के मामा शंभू यादव बताते हैं, ‘राजनीतिक पार्टियों की अपील और पीएलजीए नेतृत्व में मौजूद जाति के नेताओं पर समुदाय के दबाव के चलते ही अभय, रूपेश और एहसान की रिहाई हुई. सरकार ने कुछ नहीं किया.’ लखीसराय के सिमरा रारी इलाके में जब बंधकों को छोड़ा गया तो शंभू वहीं मौजूद थे.

बिहार में पुलिसकर्मी नक्सलियों से नहीं लड़ना चाहते क्योंकि उनके पास एके-47 और इंसास राइफलें तो हैं मगर जंगल में लड़ाई की ट्रेनिंग नहीं है. न ही उनके पास ऐसे अधिकारी हैं जो आगे बढ़कर उनका नेतृत्व करने की काबिलियत रखते हों. वे मानते हैं कि नक्सलियों की रणनीतियां उनसे बेहतर हैं. छानन थाने के एसएचओ अतुल कुमार मिश्रा कहते हैं, ‘कोई पुलिसकर्मी अपनी नौकरी करते हुए भला मरना क्यों चाहेगा? मैं पुलिस की नौकरी में कानून-व्यवस्था की रक्षा के लिए आया था न कि नक्सलियों से लड़ने के लिए.’ अपने आसपास स्पेशल ऑक्सिलरी फोर्स (सैप) के 25 सशस्त्र जवानों की मौजूदगी के बावजूद मिश्रा को डर लगता है. वे कहते हैं, ‘भारत कारगिल की लड़ाई जीत सकता है मगर यह लड़ाई नहीं. कम से कम इस तरह तो नहीं.’

नक्सल प्रभावित इलाकों में पुलिसकर्मियों के लिए काम करने का एक तय तरीका है जिसे स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी) कहा जाता है. इसका लक्ष्य जवाबी कार्रवाई करना नहीं बल्कि यह सुनिश्चित करना होता है कि वे अपना जीवन सुरक्षित रखें. एक पुलिसकर्मी कहता है, ‘मैंने 30 आवारा कुत्तों को प्रशिक्षित कर लिया है. वे शाम ढलने के बाद किसी को अंदर नहीं घुसने देते.’ यानी शाम के छह बजे के बाद अगर उनके क्षेत्र में कोई वारदात हो जाती है तो सुबह होने तक कुछ नहीं हो सकता.

इस बीच 29 अगस्त की घटना के बाद से राजेंद्र प्रसाद और भी ज्यादा व्यथित हैं. वे कहते हैं, ‘हमारे पास कोई सुविधा नही है. रहने के लिए कोई ठिकाना नहीं है. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में कई पुलिस स्टेशन किराए पर लिए गए जर्जर भवनों में चल रहे हैं. हमारा थाना कांग्रेस पार्टी का दफ्तर हुआ करता था. हमने स्थानीय लोगों से फंड जमा करके अपनी बैरकें बनवाईं. लड़ाई के लिए हम मानसिक रूप से तैयार हों इसके लिए हमारे कल्याण पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए.’

इसके अलावा यह बात भी अपनी जगह है कि इन पुलिसकर्मियों को उनके सामान्य कार्य के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है, नक्सल विरोधी अभियानों के लिए नहीं. प्रसाद कहते भी हैं, ‘मुझे 25 साल पहले पुलिस ट्रेनिंग मिली थी. उसके बाद से कोई ट्रेनिंग नहीं हुई. मैं निशाना लगा सकता हूं, गोली चला सकता हूं मगर मुझे यह मालूम नहीं कि लड़ाई जैसे हालात में क्या करना है. मैं जंगल में होने वाली लड़ाई के लिए प्रशिक्षित नहीं हूं. ऐसे में अगर जंगल में नक्सलियों से सामना हो जाए तो मैं अपनी जान कैसे बचाऊंगा?’

पुलिसकर्मियों में रोष है. एक पुलिसकर्मी कहता है, ‘बिना किसी योजना के हमें मोर्चे पर भेज दिया जाए तो क्या होगा? मौत तय है.’ अपने सहकर्मियों की लाशें देखकर बिहार सैन्य पुलिस (बीएमपी) के कई जवान इतना भड़क गए कि उन्होंने लखीसराय के एसपी अशोक सिंह के साथ हाथापाई कर डाली. हालांकि आईजी (ऑपरेशन) केएस द्विवेदी और एडीजी (मुख्यालय) पीके ठाकुर इससे इनकार करते हैं कि सिंह के साथ हाथापाई हुई. लेकिन यह तथ्य तो अपनी जगह है ही कि घटना के तीन दिन बाद उनका लखीसराय से ट्रांसफर कर दिया गया था.

‘अगर वरिष्ठ अधिकारी संघर्ष में आगे बढ़कर हमारा नेतृत्व नहीं कर सकते तो हम अपनी जान खतरे में क्यों डालें?’ कजरा पुलिस थाने के सब इंस्पेक्टर राजेंद्र प्रसाद कहते हैं, ‘29 अगस्त की मुठभेड़ से पहले दस दिन तक रोज हमें खुफिया सूचनाओं के जरिए सावधान किया जा रहा था कि लखीसराय में जहानाबाद जैसा हमला होगा. लखीसराय जेल में कई नक्सली बंद हैं. हमें बताया गया था कि नक्सली जेल तोड़ने और डीएम ऑफिस व कजरा स्थित सीआरपीएफ कैंप पर हमले की कोशिश करेंगे.’ सीआरपीएफ की 131वीं बटालियन के कमांडेंट बिधान चंद्र पात्रा इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं, ‘एसपी अशोक सिंह ने मुझे बताया था कि उन्हें एक खुफिया सूचना मिली है कि लखीसराय के जंगल में 30 नक्सली मौजूद हैं. उन्होंने कहा था कि वे एक टीम भेज रहे हैं जो इलाके में प्रभुत्व जमाकर वापस आ जाएगी. ऐसी कोई संभावना नहीं जताई गई थी कि खूनी जंग हो सकती है. इसलिए मैंने 34 सीआरपीएफ जवानों की टीम बनाने के निर्देश दिए.’ सिंह ने 43 लोगों की टीम बनाई. इसमें 20 लोग सैप से थे और 23 बिहार मिलिट्री पुलिस से. प्रसाद कहते हैं, ‘हमारे इंटेलीजेंस इनपुट के मुताबिक वहां पहाड़ियों में कम से कम 500 नक्सली थे. लेकिन एक बड़ा अजीब फैसला करते हुए एसपी ने लड़ाई के लिए छोटा दल बनाया.’ मुठभेड़ में मारे गए एसआई भूलन यादव को इस तरह के अभियानों का अनुभव नहीं था. इसके बावजूद उन्हें इस यूनिट का नेतृत्व सौंपा गया. प्रसाद बताते हैं, ‘भूलन ने मुझे फोन किया और कहा कि मैं एसपी को फोन करूं कि और लोग भेजे जाएं. फिर अचानक उनका फोन कट गया. मैं लगातार उन्हें फोन करता रहा मगर फोन नहीं लगा.’ मिश्रा और प्रसाद बताते हैं कि सिंह ने उस एसओपी का पालन नहीं किया जो दंतेवाड़ा नरसंहार के बाद बनाया गया था. मिश्रा कहते हैं, ‘एक विस्तृत योजना बनाई जाती है. इससे पहले कि टुकड़ी चलना शुरू करे जीपीएस कोऑर्डिनेट्स सेट किए जाते हैं. मगर अशोक सिंह ने योजना नहीं बनाई. उन्हें पता था कि यह पहाड़ियों और जंगलों वाला इलाका है. उन्हें पूरा भूगोल मालूम था. उन्हें पता होना चाहिए था कि छत्तीसगढ़ में हुए हालिया छापामार हमलों से सबक लेते हुए नक्सल ऊंची जगह पर घात लगाए बैठे होंगे और वे पुलिसकर्मियों को जाल में फंसा लेंगे.’ पात्रा कहते हैं, ‘एसओपी का पालन नहीं किया गया. पहले टुकड़ी जमा होती है और कमांडर इलाके, इसके भूगोल और इंटेलीजेंस के बारे में चर्चा करते हैं. फिर रेत के मॉडल और सर्वे ऑफ इंडिया के नक्शों द्वारा यह पूरे दल को समझाया जाता है.’

इस तरह के अभियानों के लिए भूलन की नातजुर्बेकारी का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने टीम को दो टुकड़ों में बांटकर अलग-अलग दिशाओं में भेज दिया. उन्होंने सीआरपीएफ की टुकड़ी से दाईं दिशा में जाकर घाघर घाटी और मोरवे बांध इलाके में गश्त लगाने को कहा जबकि वे खुद अपने आदमियों के साथ कानीमाई गांव की तरफ निकले.

मगर जैसे ही पुलिस पार्टी गांव में पहुंची उन पर दोनों तरफ से भारी गोलीबारी होने लगी. बिहार पुलिस के अधिकारी दावा करते हैं कि जब उनके लोगों पर घात लगाकर हमला किया गया तो जवाबी हमला करने और फंसे लोगों को बचाने के लिए कवर फायर देने की बजाय सीआरपीएफ की टुकड़ी पीछे हट गई. उधर पात्रा कहते हैं, ‘कवर फायर देने के लिए हमारे लोग ऊंची जगहों तक पहुंच गए थे जिससे 36 लोग जान बचाने में सफल हुए.’ बिहार पुलिस ने आत्मसमर्पण कर दिया था इस तथ्य का कम ही जिक्र हुआ है. इस पर अभय कहते हैं, ‘जब हम पर भारी गोलीबारी होने लगी तो इस दौरान नक्सली बार-बार घोषणा कर रहे थे कि आत्मसमर्पण कर दो वरना हर कोई मारा जाएगा. हमने इसलिए आत्मसमर्पण किया क्योंकि सीआरपीएफ पीछे हट गई थी.’

अभय यह भी बताते हैं कि बंधक बनाने के बाद नक्सलियों का बर्ताव उनके साथ अच्छा रहा. वे कहते हैं, ‘उन्होंने घायल लोगों का इलाज किया. जिनके चोट लगी थी उनके घावों पर पट्टियां बांधीं. जिन्होंने पानी मांगा उन्हें पानी दिया और उनसे वहां से चले जाने के लिए कहा. उन्होंने फिर सारे हथियार इकट्ठा किए और हम चारों से कहा कि हम उनके साथ जंगल में चलें.’ बाद में नक्सलियों ने स्थानीय पत्रकारों को बताया कि उन्होंने 35 इंसास और एके-47 राइफलें कब्जे में ली हैं.

बिहार पुलिस आत्मविश्वास की जबर्दस्त कमी का सामना कर रही है. प्रोटोकॉल के मुताबिक सीआरपीएफ का एक डिप्टी कमांडेंट रैंक के लिहाज से एक एसपी के बराबर होता है. इसके बावजूद ऐसा बहुत मुश्किल से ही होता है कि कोई एसपी जंगल में अभियान पर जाए. यादव कहते हैं, ‘अधिकारी आगे बढ़कर नेतृत्व नहीं करते. वे बस आदेश देते हैं. अगर वरिष्ठ अधिकारी संघर्ष में हमारा नेतृत्व नहीं कर सकते तो हम अपनी जान खतरे में क्यों डालें?’

पेशे से शिक्षक नरेश कुमार कहते हैं कि उनकी प्राथमिक पहचान एक किसान की है. अलीनगर में दोस्तों और गांववालों से घिरे नरेश बिहार के नेताओं को खूब गालियां देते हैं. उनकी शिकायतों की सूची खासी लंबी है. वे कहते हैं, ‘अलीनगर में गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे लोगों को राशन कार्ड जारी नहीं किए जाते, विधवा पेंशन योजना कागजों पर ही है. इंदिरा आवास योजना में उन्हीं लोगों को घर बनाने के लिए ऋण मिल सकता है जो ग्राम सभा को 60 प्रतिशत कमीशन दे सकें. मुफ्त दवाएं न तो सरकारी अस्पतालों में हैं और न प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में. अगर बैंक मैनेजर को 5,000 रुपए दे दो तो वह फौरन जमीन का मालिकाना प्रमाण पत्र और किसान क्रेडिट कार्ड बनवाकर दे देगा. नवजात व जननी मृत्यु दर रोकने की खातिर गर्भवती महिलाओं के लिए बनी आशा योजना भी लागू नहीं हो रही.’

लखीसराय का अलीनगर इलाका एक तरह से ग्रामीण बिहार की भावनाओं का दर्पण है. बिहार के गांवों में नक्सलियों के प्रति सहानुभूति है. लोग सरकार पर भरोसा नहीं करते. वे बताते हैं कि क्यों बिहार में नक्सलियों का प्रभावक्षेत्र बढ़ रहा है. नरेश कहते हैं कि अलीनगर में किसी को ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से फायदा नहीं हुआ. नरेश कहते हैं, ‘सारे नेता उनके लिए काम करते हैं जिनके पास पैसा है. नौकरशाही तो हमेशा हम लोगों को लूटने के लिए तैयार रहती है. बराबरी कहीं नहीं है. तो हर किसी को नक्सलियों के बढ़ने पर हैरत क्यों हो रही है?’

शायद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी लोगों के इस मूड को भांप गए हैं. 29 अगस्त की मुठभेड़ में घायल पुलिसकर्मियों से पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में मुलाकात करने के बाद उनका कहना था, ‘ नक्सलवाद को उखाड़ फेंकने के लिए विकास की रफ्तार में तेजी लाने और विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने की जरूरत है.’

नीतीश को बानु बगीचा गांव का भी दौरा करना चाहिए. यह वही जगह है जहां से बमुश्किल पांच किलोमीटर दूर स्थित एक जगह पर बंधक पुलिसकर्मियों को छोड़ा गया. इस गांव के लोग पिछले आठ साल से ब्लॉक ऑफिस के शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं. जिला प्रशासन ने ऑफिस की बिल्डिंग तो बना दी थी मगर फिर सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए उस पर ताला डाल दिया. 29 अगस्त की मुठभेड़ से चार दिन पहले लखीसराय के डीएम मनीष कुमार बानु बगीचा आए थे और उन्होंने गांववालों से कहा था, ‘मुझे पांच नक्सली दे दो तो ब्लॉक ऑफिस चलने लगेगा.’ इस गांव के लोगों को भूमि पंजीकरण जैसी कई कागजी कार्रवाइयों के लिए 15 किलोमीटर दूर मननपुर ब्लॉक जाना पड़ता है.

बानु बगीचा के निवासी फकीरा यादव कहते हैं, ‘डीएम हमसे कह रहा है कि पांच नक्सलियों को उनके हवाले कर दो. इससे बेहतर क्या यह नहीं कि हम नक्सलियों के साथ ही मिल जाएं? हम पुलिस को नक्सली कैसे दें? हमारे लिए तो इधर भी बंदूक है और उधर भी.’

(वीके शशिकुमार की रिपोर्ट, सभी फोटो शैलेन्द्र पाण्डेय)

भाषाई गुलामी और पराजित हमारी हिन्दी

आजादी के तिरसठ साल बाद भी इस देश में अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है निकट भविष्य में यह वर्चस्व टूटता दिख नहीं रहा है. अगर आजादी से लेकर अब तक की स्थिति का आकलन करें तो हम पाएंगे कि यह वर्चस्व उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है. आज तो स्थिति यह हो गई है कि देश का बहुसंख्यक  तबका अंग्रेजी के वर्चस्व को भाषाई गुलामी के रुप में न देखकर उसे मुक्ति के साधन के रुप में देख रहा है. आज गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने बच्चे  को अंग्रेजी पढ़ाना चाहता है. कई राज्य सरकारें भी अंग्रेजी को पहली कक्षा से ही अनिवार्य घोषित करने में लगी हुई हैं. यह इसके बावजूद हो रहा है कि सभी शिक्षाशास्त्री इस बात को एक मत से स्वीकार करते हैं कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही होनी चाहिए कुल मिलाकर, यह कि समाज को बदलने के लिए जो भाषा की लड़ाई लड़ी जा रही थी वह समाप्त हो चुकी है और इस लड़ाई में हिन्दी की हार हो चुकी है.

यहां गांधी की याद अनायास ही आ जाती है,  ‌जिन्होंने आजादी के दिन बीबीसी के प्रतिनिधि से कहा था कि तुम्हें भूल जाना चाहिए कि मुझे अंग्रेजी आती है

अब यह एक महत्वपूर्ण सवाल है कि इस लड़ाई में अंग्रेजी क्यों जीती और हिन्दी क्यों हारी ? इसका ठीक से विश्लेषण करना जरूरी है. आजादी के समय यह सोचा गया कि धीरे धीरे अंग्रेजी का वर्चस्व क्षीण होता जाएगा और उसका स्थान हिन्दी क्रमश: ले लेगी. इसी सोच के तहत संविधान के अनुच्छेद 343 में देवनागरी लिपि में हिन्दी को राजभाषा तो घोषित किया गया किन्तु इसके साथ यह प्रावधान भी कर दिया गया कि शुरुआत के 15 वर्षों तक भारत सरकार का सारा कामकाज अंग्रेजी में ही होता रहेगा. इस दौरान यह उम्मीद की गई कि हिन्दी के लिए तब तक अनुकूल माहौल बन जाएगा.

लेकिन यह नीति से अधिक नीयत का सवाल था हिन्दी की भ्रूण हत्या तो उसी दिन हो गई जिस नेहरु ने आजाद भारत का पहला भाषण (नियति से साक्षात्कार) अंग्रेजी में दिया. इतना सुंदर और काव्यात्मक भाषण शायद ही किसी राजनीतिज्ञ ने दिया हो, लेकिन दुर्भाग्य यह कि उस भाषण को देश की जनता नहीं समझ सकती थी. हिन्दी की पहली और निर्णायक पराजय उसी दिन हो गई थीआगे तो बस इसकी पटकथा लिखी जानी थी. यहां गांधी की याद अनायास ही आ जाती है,  ‌जिन्होंने उस दिन बीबीसी के प्रतिनिधि से कहा था कि तुम्हें भूल जाना चाहिए कि मुझे अंग्रेजी आती है.

स्वातंत्रयोत्तर भारत में हिन्दी के नाम पर एक पाखंड की शुरुआत हुई जिसकी बुनियाद नेहरु के उस प्रभम भाषण ने रख दी थी. अंग्रेजी को शासन की भाषा बनाए रखा गया और हिन्दी को दिखावे के लिए राष्ट्रभाषा और राजभाषा घोषित किया गया. यह पाखंड 26 जनवरी1950 से हिन्दी को राजभाषा के रुप  में औपचारिक रुप से स्थान मिलने के बाद भी जारी रहा, क्योंकि उसी दिन से लागू राजभाषा अधिनियम1963 में किए गए उपबंधों के अनुसार अब भी कुछ काम केवल हिन्दी में, कुछ केवल अंग्रेजी में और कुछ अंग्रेजी तथा हिन्दी दोनों भाषाओं में किया जाता है.

अंग्रेजी के वर्चस्व को तोड़ने और उसकी जगह हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को स्थापित करने के लिए देश में एक सशक्त आंदोलन भी चला. लेकिन यह असफल हो गया. इसका एक बड़ा कारण यह था कि इस आंदोलन के साथ जुड़े तमाम नेताओं और बुद्धिजीवियों ने अंग्रेजी को प्रश्रय देने वाली सामाजिक स्थितियों और संरचनाओं को बदलने की जगह भाषा के क्षेत्र में ही उग्र और क्रांतिकारी कदम उठाने की वकालत की. इससे अंग्रेजी हटाओ का नारा तो लोकप्रिय हुआ लेकिन इसका कोई दूरगामी असर नहीं हुआ. इस आंदोलन के प्रभाव में जिन लोगों ने अंग्रेजी से नाता तोड़ा वे पूरी तरह पिछड़ गए क्योंकि संस्थाओं के चरित्र में कोई बदलाव नहीं हुआ और वहां कमोबेश अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहा. अंग्रेजी न जानने वाले अनफिट घोषित होते गए और आंदोलन दम तोड़ता गया. आंदोलन की असफलता ने इस बात को स्पष्ट किया कि अंग्रेजी हटाने का सर्वप्रथम प्रयास सार्वजनिक जीवन की उन संस्थाओं से करनी होगा जो अंग्रेजी को योग्यता के रुप में स्वीकार करती हैं, इसके बिना अंग्रेजी विरोध आम जनता के लिए छलावा ही होगा.

दरअसल, भारत में अंग्रेजी का प्रश्न केवल भाषा का प्रश्‍न नहीं है. इसे समूची व्यवस्था के संदर्भ में देखा और समझा जाना चाहिए. भारत में अंग्रेजी लेखकों की संख्या काफी कम है और उनके साहित्य की गुणवत्ता भी भारतीय भाषाओं के साहित्य के अपेक्षा कम है. बावजूद इसके भारत में अंग्रेजी की स्थिति मजबूत है तो इसके दूसरे अन्य कारण हैं. अंग्रेजी का वर्चस्व भारत में मुट्ठी भर लोगों के बहुसंख्यक जनता पर वर्चस्व को संभव बनाता है. इस तरह भाषा का वर्चस्व समाज में कुछ लोगों के वर्चस्व के रुप में तब्दील हो गया है. भाषा और वर्चस्व का यह संबंध कोई नया नहीं है.

यह बात निर्विवाद रुप से सत्य है कि भारत में अंग्रेजी की प्रधानता इसलिए कायम हुई क्योंकि यह अंग्रेजों का उपनिवेश था. शासन या सत्ता उस भाषा को अपनाती है जो जनता से दूर हो अर्थात जनता की भाषा न हो. यह बात वर्तमान के लिए जितनी सच है उतनी ही अतीत के लिए भी उदाहरण के लिए हमारे देश में तुर्क, अफगान, मुगल आए तो इनमें से किसी ने भी अपनी भाषा में शासन नहीं चलाया यह अपने आप में कम दिलचस्प नहीं है कि इनमें से कोई भी ईरान का नहीं था लेकिन यहां शासन की भाषा फारसी बनी रही. बाबर और जहांगीर ने खुद अपनी आत्मकथाएं तुर्की में लिखी थी. अकबर तो पढ़ा लिखा भी नहीं था बावजूद इसके उसके शासन काल में राजस्व का विभाग संभालने वाले टोडरमल ने हिन्दू होने के बावजूद यह कहा कि राजभवन की भाषा फारसी होनी चाहिए.

इस संदर्भ में देखें तो यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि भारत में अंग्रेजी का वर्चस्व इसलिए है कि उसे जानने वाले लोग मुश्किल से पांच फीसदी हैं और न जानने वाले 95 फीसदी. और 95 फीसदी लोगों पर राज करना है तो ऐसी भाषा में किया जाए जिसे वे पढ़ न सकें, समझ न सकें, लिख न सकें. शासन का एक बहुत बड़ा हथियार है अंग्रेजी. इस हथियार के जरिए इस देश का प्रभु वर्ग अपनी विशिष्टता को बरकरार रखता है. इसलिए हमारे यहां का शासक वर्ग, मध्यमवर्ग, पढ़ा लिखा वर्ग, हर हाल में इसे कायम रखना चाहता है.