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फरारी की होशियारी

नटवरलाल या शोभराज जैसे शातिर ठगों के किस्से बताते हैं कि जेल से भागने वाले कैदी डुप्लीकेट चाबी से ताला खोलते हैं, सुरंग बनाते हैं या फिर प्रहरियों को नशे में धुत्त कर देते हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ में कैदी इसके इतर भी कई देसी और हैरान करने वाले तरीकों से रफूचक्कर होते हैं. राजकुमार सोनी की रिपोर्ट.

ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम

नेकी पर चले और बदी से टले ताकि हंसते हुए निकले दम……

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 95 किलोमीटर दूर मौजूद गरियाबंद जिले की जेल में कैदी जब हर सुबह व्ही शांताराम की फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ का यह गीत लय और ताल के साथ गाते थे तो वहां तैनात महिला जेलर डी बारा और उनके सहयोगियों को यह लगता था कि उनकी जेल में अनुशासन कायम है. लेकिन एक रोज उनका भ्रम तब टूट गया जब लूट, हत्या तथा अन्य कई गंभीर आरोपों में सजा काट रहे छह कैदी लोहे की सलाखें काटकर भाग निकले. जांच में पता चला कि बैरक की छड़ों को काटने के लिए कैदियों ने जिस ब्लेड का इस्तेमाल किया था उसकी पहुंच एक टूथपेस्ट के जरिए हुई थी.  कैदियों को उनके मुलाकाती समय-समय पर ऐसा टूथपेस्ट पहुंचा देते थे जिसकी ट्यूब के भीतर तेजधार ब्लेडों को पनाह देने की पूरी गुंजाइश बनी रहती थी. ब्लेडों को ट्यूब के पिछले भाग से घुसाया जाता था जिसकी भनक बारीक से बारीक जांच-पड़ताल के बाद भी नहीं लग पाती थी. पहले एक चिकित्सक रहीं और थोड़े समय के लिए जेल प्रभारी बनाई गईं डी बारा कहती हैं, ‘मैं सोचती थी कि कैदी नेकी के रास्ते पर चलने और बदी से दूर रहने का संकल्प ले रहे हैं. पर मुझे क्या मालूम था कि प्रार्थना के साथ जो लय और ताल सुनाई दे रही है वह छड़ों पर ब्लेड चलाकर पैदा की जा रही है.’ 

तो इस तरह 26 मार्च 2007 को रविकिशन, घनश्याम, श्यामसुंदर, चोमेश्वर, सौरभ दिनमणी, धर्मेंद्र जैसे खूंखार कैदी जेल से भागने में सफल हो गए. कैदियों की फरारी के बाद डी बारा की सेवाएं अस्पताल को लौटा दी गईं. लापरवाही बरतने के आरोप में जेल प्रहरी मोहनलाल और रविप्रकाश की वेतनवृद्धि रोक दी गई और एक अन्य प्रहरी मन्नू सिंह को नौकरी से हाथ धोना पड़ा. फरार कैदियों में चार फिर गिरफ्त में आ चुके हैं. दो कैदी रविकिशन और श्यामसुंदर अब तक पुलिस की पकड़ से बाहर हैं.

छत्तीसगढ़ में कैदियों के जेल तोड़कर भागने की यह कोई अकेली घटना नहीं है. 2005 से लेकर 20 जून 2012 तक जेल ब्रेक की 21 एवं विभिन्न न्यायालयों में पेशी के लिए लाने- ले जाने के दौरान कैदियों के फरार होने की 116 घटनाएं हो चुकी हैं. जेल महकमे के रिकार्ड के मुताबिक इस अवधि में कुल पांच सौ एक कैदी फरार हो चुके हैं. फरार होने के लिए ये कैदी जिन तरकीबों का सहारा लेते हैं वे काफी दिलचस्प हैं. 20 अगस्त 2012 को रायगढ़ जेल से एक कैदी हारून नमाज पढ़ने के दौरान फरार हो गया था. हारून ने जेल प्रबंधन से मांग की थी उसे नमाज पढ़ने के लिए एकांत चाहिए. प्रबंधन ने उसकी मांग मानते हुए उसे जेल के स्कूल में ठहरा दिया था. हारून ने यहां मौका देखकर नए-पुराने गमछों की मदद से स्कूल के चैनल गेट की छड़ों को खींचकर उनके बीच कामचलाऊ जगह बना ली. फिर वह गेट से बाहर निकला और शौचालय के पाइप से चढ़कर 20 फीट ऊंची दीवार लांघते हुए रफूचक्कर हो गया. 

छत्तीसगढ़ को देश की सबसे बड़ी जेल ब्रेक ( दंतेवाड़ा ) की घटना का गवाह भी माना जाता है. इस घटना का मास्टर माइंड कैदी सुजीत कुमार था जिसने अपने अच्छे व्यवहार की वजह से जेल प्रभारी बीएस मानेकार और कैदियों का दिल जीत रखा था.16 दिसंबर 2007 की शाम जब कैदियों को भोजन परोसा जा रहा था तब सुजीत ने जेल के प्रशासनिक कक्ष, जहां उसकी आवाजाही सामान्य ढंग से बनी हुई थी, में दवाई लेने के बहाने प्रवेश किया और सबसे पहले उन तमाम चाबियों पर कब्जा जमाया जिसके जरिए कैदियों के बाहर निकलने का मार्ग प्रशस्त हो सकता था. इसके बाद सुजीत के इशारे पर कैदियों ने जेल की चादरों और कंबलों को चीरकर रस्सियां बनाई और फिर प्रहरियों को बंधक बना लिया. इस घटना में एक ही दिन में 299 कैदी फरार हुए थे. फिलहाल सुजीत आंध्र की एक जेल में बंद है, घटना के पांच सालों के बाद भी पुलिस 195 कैदियों का पता नहीं लगा पाई है. 

वैसे छत्तीसगढ़ में जेल ब्रेक की यही एक घटना ऐसी थी जिसमें इंसास और थ्री नाट थ्री जैसे हथियारों से कैदियों ने गोलियां भी दागी थी. नहीं तो ज्यादातर मौकों पर कैदी सीमित और देसी संसाधनों को ही अपना काम चलाते रहे हैं. कभी कुम्हड़े और लौक के भीतर रखकर जेल में पहुंचाई गई आरी से लोहे की छड़ें काटी गई हैं तो कभी चादरों और कंबलों को चीरकर रस्सी बनाने के बाद कैदियों ने दीवार फांदी है. 

आंखों में धूल झोंकने वाली कहावत को छत्तीसगढ़ में कैदियों ने लगभग शब्दश: चरितार्थ कर दिखाया है. लगभग इसलिए कहा जा रहा है कि क्योंकि यहां आंखों में धूल की जगह मिर्ची झोंककर पुलिस को चकमा दिया गया. 19 जुलाई 2007 की सुबह कोरबा जिले की कटघोरा जेल में जब कैदियों के बीच हाथापाई होने लगी तो प्रहरियों को हथियार लेकर बैरक का दरवाजा खोलना पड़ा. लेकिन इससे पहले कि प्रहरी आपस में भिड़े कैदियों को अलग-थलग करते, कैदियों ने अचानक एक साथ मिलकर प्रहरियों पर ही धावा बोल दिया. हथियारों के साथ बंधक बना लिए गए प्रहरियों की आंखों में अदरक नींबू- मिर्ची का घोल फेंका गया और उनसे मेनगेट की चाबियां छीन ली गई. घटना के बाद आंखों में मिर्ची की चुभन झेल रहे कर्मियों ने जैसे-तैसे सायरन बजाया लेकिन तब तक दिलीप, राजू, बोधराम, चिंटू, दीपक, गणेशू पटेल, कमेंद्र पुरी, हीरा पटेल और परमेश्वर नाम के खूंखार कैदी रफूचक्कर हो चुके थे. हालांकि जल्द ही ये सभी पुलिस के हत्थे चढ़ गए. बाद में उन्होंने बताया कि उन्होंने जेल के रसोइए को विश्वास में लेकर नींबू- मिर्च अदरक की अच्छी- खासी मात्रा हासिल की थी. इसके चार साल बाद जांजगीर जिले की जेल में भी कुछ यही हुआ. लूट और हत्या के आरोप में बंद पुष्पेंद्र, वीरेंद्र, विजयकुमार और चंद्रशेखर चंद्रा नाम के कैदी 27 मई 2011 को प्रहरी तुलसीराम नेताम और मोहनराम भगत की आंखों में हरी मिर्ची का घोल फेंककर भाग खड़े हुए.

आंखों में धूल झोंकने वाली पुरानी कहावत को छत्तीसगढ़ में कैदियों ने कई मौकों पर लगभग शब्दश: चरितार्थ कर दिखाया है

राजधानी रायपुर से 456 किलोमीटर आदिवासी बहुल जिले जशपुर में भी जेल ब्रेक की दो घटनाएं हो चुकी है. दोनों ही घटनाओं में कैदियों की ओर देसी नुस्खे आजमाए गए थे. बताते हैं कि जेल के कैदी प्रहरियों के सामने अक्सर बच्चों की एक कविता दोहराते. यह कविता थी–अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो. अस्सी नब्बे पूरे सौ, सौ से निकला धागा, चोर निकलकर भागा. पहले-पहल तो प्रहरियों को यह समझ में नहीं आया कि कैदी इस कविता का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं, लेकिन जब कैदियों ने जेल में प्रशिक्षण के दौरान चरखे में काते गए सूत से बनाई गई रस्सियों से प्रहरियों को बंधक बनाया तब इस रहस्य से पर्दा उठा कि कविता में धागे का इस्तेमाल कौन सा लक्ष्य हासिल करने के लिए किया जा रहा था.

15 मई 2008 को हुई इस घटना में लूट और हत्या के आरोप में सजा काट रहे अशोक कुमार, धनेश्वर, दीपक कुजूर, निर्मल केरकेट्टा, कमलेश टोप्पो, सविमल तिग्गा, नरेंद्र सिंह, दशरथ, बाबूलाल, नान्हू महली और रतन लकड़ा फरार हो गए थे. इसके बाद जेल प्रशासन ने जेलर अलौइश कुजूर, जेल प्रहरी सुधीर एक्का और धनमोहन भगत को निलंबित कर दिया था. इसी जेल से 18 जून 2012 को कैदी निर्मल खेपइ, नरेश यादव, तुलेश्वर, रंजीत जेना और आस्कर तिर्की भी फरार हो चुके हैं. इन कैदियों ने भी सलाखें काटने के लिए छोटी-छोटी आरियों का इस्तेमाल किया था. उन्हीं दिनों जेल में रंगाई-पुताई भी चल रही थी. बैरक की ऊपरी और निचली सतह पर आरी चलाने के दौरान इस बात का ध्यान रखा जाता था कि किसी भी सूरत में कोई चमक किसी को नजर न आए. इसके लिए कैदी ऊपरी छड़ों पर आरी चलाने के बाद चमक को ढकने के लिए शरीर की मैल उपयोग में लाते थे जबकि निचले हिस्से में अलसुबह चूना पोत दिया जाता था.

सरगुजा जिले के अंबिकापुर में जेल ब्रेक की तीन घटनाएं हो चुकी हैं.  23 नवम्बर 2007 को हुई पहली घटना में कैदी विनोद प्रजापति, मोहम्मद शमीम और जमुना सिंह ने भोजन करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली थाली को चीरकर धारदार ब्लेड बना लिया था. उधर, एक अगस्त 2010 को हुई दूसरी घटना में कैदी भोट वशिष्ठ और छोटू ने फरार होने के लिए पहले तो चादर, गमछे और शाल को जोड़कर रस्सी बनाई. इसके बाद उन्होंने रस्सी के एक सिरे पर वह पत्थर बांधा जो जेल में फूलों की क्यारियों के बीच बेतरतीब ढंग से पड़ा रहता था. फिर एक दिन मौका देखकर उन्होंने इस जुगाड़ का इस्तेमाल वैसे ही किया जैसे पुराने जमाने में सिपाही चोरी छिपे दुश्मन के किले पर चढ़ने में करते थे. रस्सी इस तरह से फेंकी गई कि इसके सिरे पर बंधा पत्थर जेल की दीवारों के एक जोड़ पर बनी दरारनुमा जगह पर फंस जाए. इसके बाद वे रस्सी के सहारे दीवार फांदकर भाग निकले.  

केंद्रीय जेल रायपुर की एक महिला बंदी अमरीका बाई ने तो सबको पीछे छोड़ दिया. हत्या के जुर्म में सजा काट रही अमरीका बाई जिस बैरक में बंद थी उसके पास केले के झाड़ थे. बताते है कि अमरीका बाई प्रायः केले तोड़ने के बहाने झाड़ पर चढ़कर दीवार पर नुकीले पत्थरों के जरिए ग्रिप बनाया करती थी. 25 अक्टूबर 2008 की रात प्रहरियों ने देखा कि दीवार पर कोई छिपकली की तरह रेंग रहा है. इससे पहले कि वे कुछ समझ पाते अमरीका बाई दीवाल फांदकर जेल के बाहर हो चुकी थी. हालांकि परिवार से मिलने की भावुक कमजोरी की वजह से वह उसी दिन पकड़ भी ली गई थी. जेल में दोबारा आने के बाद जब अमरीका बाई ने अफसरों के सामने अपनी फरारी के तौर-तरीके का प्रदर्शन किया तो सभी भौचक्के रह गए थे. अमरीका बाई लंबे समय तक रायपुर जेल में रही और अफसर, प्रहरी व जेल कर्मचारी उसे स्पाइडरलेडी ही कहते रहे.

केंद्रीय जेल रायपुर में जेल उपमहानिरीक्षक केके गुप्ता ‘यहां कैदी बेकार से बेकार चीज काम में ले आते हैं’

केंद्रीय जेल रायपुर में जेल उपमहानिरीक्षक केके गुप्ता ने देश के नामचीन पाकेटमारों के साथ रहकर और कई बार तो उनके चक्कर में लात-घूंसे खाकर भी पाकेटमारी पर पीएचडी हासिल की है. वे इन दिनों कैदियों की फरारी के तौर-तरीकों को लेकर शोधकार्य में जुटे हुए हैं. उनसे हुई बातचीत के अंश.

छत्तीसगढ़ में जेल ब्रेक की बढ़ती घटनाओं पर क्या कहेंगे.

जेल में पहुंचने वाले हर बंदी का एक रूटीन तय हो जाता है. कई बार रूटीन से निराश हो चुके कैदियों को लगता है कि बाहरी दुनिया में चाहे जितनी आपाधापी हो वह मजेदार तो है. यदि कैदी ठान लेता है कि वह भागेगा तो फिर चाहे जितनी चौकसी कर दी जाए, वह अपने सपने को हकीकत में बदलने की कोशिश करता ही है. लेकिन यदि प्रहरी भी यह ठान ले कि कैदियों को फरार नहीं होने देना है तो फिर कैदी भाग ही नहीं सकता.

क्या कैदियों के फरार होने की और कोई वजह नहीं है?

एक वजह सुरक्षाबलों की कमी भी है. छत्तीसगढ़ की 25 जेलों में फिलहाल 14 हजार 225 लोग विभिन्न मामलों में सजा काट रहे हैं. राष्ट्रीय मानक के तहत छह कैदियों की देखरेख के लिए एक सिपाही का होना अनिवार्य है. लेकिन छत्तीसगढ़ में महज 18 सौ सुरक्षाकर्मियों से काम चलाया जा रहा है. अब भी 571 कर्मचारियों की कमी है.

आपकी जानकारी में क्या कोई इसलिए भी जेल से भागा क्योंकि उसे किसी से बदला लेना था?

ऐसा मैंने केवल फिल्मों में ही देखा है.

कैदियों के फरार होने के तौर-तरीकों को लेकर चल रहे अपने शोध के बारे में कुछ बताएं.

अभी काम चल रहा है, लेकिन मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि छत्तीसगढ़ के कैदियों की फरारी का तरीका अनूठा है. यहां के कैदी बेकार से बेकार चीज से काम निकाल लेते हैं. कोई कंबल के एक-एक रेशे से मोटी रस्सी तैयार करते हुए पकड़ा गया है तो कोई जेल की मल निकासी व्यवस्था से भी भागा है. कुछ समय पहले एक जेल की पूरी पाइप लाइन का इस्तेमाल ही सीढ़ी बनाने के लिए किया गया था.

बिहार: गलत गुरुदीक्षा, चौपट शिक्षा

सरकार की जेब ढीली हुई, बच्चों की पढ़ाई का नुकसान हुआ और यह सब जिस मकसद के लिए हुआ वह आखिर में अधूरा ही रहा. प्राथमिक स्कूलों में तैनात अप्रशिक्षित शिक्षकों को प्रशिक्षित बनाने के लिए बिहार सरकार की कवायद का हाल फिलहाल कुछ ऐसा ही नजर आ रहा है. निराला की रिपोर्ट.

सितंबर की पहली तारीख को बिहार में शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव की तरफ से राज्य के सभी जिला शिक्षा पदाधिकारियों के नाम एक चिट्ठी जारी हुई. इसमें कहा गया था,  ‘22/06/2006 को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय एवं बिहार सरकार के शिक्षा विभाग के बीच एमओयू के बाद राज्य के नियोजित शिक्षकों को दो वर्षीय डीपीई कार्यक्रम में नामांकित करवाया गया. चार वर्षों के अंदर इसमें उत्तीर्ण होना अनिवार्य है. कतिपय शिक्षक चार वर्षों तक उत्तीर्ण नहीं हो सके हैं. ऐसे अनुत्तीर्ण शिक्षकों को सेवा में बनाए रखने के लिए विभाग जिम्मेवार नहीं है. ऐसे शिक्षकों को एक मौका और देते हुए अगली परीक्षा में उत्तीर्ण होना अनिवार्य है. उसमें भी जो पास नहीं होंगे, उन्हें सेवा से हटाने हेतु संबंधित नियोजन इकाई को निर्देश दिया जाएगा.’  इस पत्र से शिक्षकों के एक बड़े खेमे में हड़कंप का माहौल बन गया. दरअसल पिछले दो दशक के दौरान बिहार के प्राथमिक शिक्षा तंत्र में अप्रशिक्षित शिक्षकों की एक बड़ी फौज दाखिल हो चुकी है. नियमों के अनुसार इन शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के दबाव में कुछ साल पहले बिहार सरकार ने एक कवायद शुरू की थी. लेकिन यही कवायद अब इसके गले की हड्डी बन गई है. उधर, मसले से जुड़ा हर पक्ष जवाबदेही के सवाल पर गेंद दूसरे के पाले में फेंक रहा है.  

शिक्षक, सूचनाधिकार कार्यकर्ता और आंदोलनकारी रंजन कुमार बताते हैं, ‘बिहार में एक शिक्षक के जिम्मे 57 विद्यार्थी हैं जबकि शिक्षा का अधिकार कानून कहता है कि 30 बच्चों पर एक होना चाहिए. देश में इस कदर नाजुक हाल शायद ही कहीं मिले.’ प्रधान सचिव के पत्र की बाबत बात करने पर बेगूसराय निवासी कुमार का जवाब आता है, ‘जिस डिप्लोमा इन प्राइमरी एजुकेशन यानी डीपीई कोर्स का हवाला देते हुए और इसे पास नहीं करने पर नौकरी गंवाने का फरमान जारी किया गया है, वह कोर्स ही पिछले कई सालों से अंधेरे में रखकर संचालित हो रहा है.’ रंजन की मानें तो इग्नू का यह कोर्स नेशनल काउंसिल फॉर टीचर्स एजुकेशन यानी एनसीटीई के मानदंडों के अनुसार बिहार के लिए मान्य है ही नहीं.  इस मुद्दे पर न तो इग्नू जवाब दे पा रहा है और न ही एनसीटीई खुलकर कुछ बताने को तैयार है. उधर, साल 2007 से शिक्षकों को इस प्रशिक्षण कोर्स में जोते जाने की कवायद के चलते स्कूलों में शिक्षण कार्य भी बाधित हुआ है. रंजन हमें कुछ कागजात देते हैं. ये सूचनाधिकार से मिली जानकारी के होते हैं. इनमें पहला इग्नू के पटना सेंटर से मिली सूचना से संबंधित है. इस सेंटर से इसी साल 18 जून को यह सूचना मांगी गई थी कि बिहार के नियोजित शिक्षकों को इग्नू द्वारा जो डीपीई का कोर्स कराया जा रहा है, क्या उसकी मान्यता बिहार के लिए एनसीटीई से है और अब इस कोर्स के बाद भी इग्नू के सहयोग से जो छह माह के लिए एक और क्षमतावर्धक प्रशिक्षण कोर्स की तैयारी है, उसका प्रारूप क्या है? सवाल यह भी था कि 2007 से अब तक कितने शिक्षकों को डीपीई में प्रशिक्षित किया जा चुका है?

07 जुलाई 2012 को इग्नू के पटना सेंटर से डीपीई कार्यक्रम की समन्वयक विभा जोशी का जवाबी पत्र मिलता है कि ‘बिहार में डीपीई कार्यक्रम 2007 में बिहार सरकार के साथ इग्नू के द्वारा एक एमओयू के अंतर्गत चलाया गया था और इस कार्यक्रम को एनसीटीई से मान्यता प्राप्त करने की जिम्मेदारी बिहार सरकार की थी. अतः एनसीटीई से मान्यता के संबंध में कोई सवाल मानव संसाधन विकास मंत्रालय, बिहार सरकार अथवा बिहार शिक्षा परियोजना के निदेशक से करें. जहां तक आगामी क्षमतावर्द्धक प्रशिक्षण कोर्स की बात है तो वह भी बिहार सरकार के अनुरोध पर हो रहा है, उसके बारे में भी वही जानकारी देगी.’ यह जवाब अजीब किस्म का होता है. जिस इग्नू द्वारा 2007 से बिहार में यह कोर्स हजारों शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए चल रहा है, वही इग्नू इस कोर्स की मान्यता के बारे में भी खुलकर नहीं बता पाता और जिम्मेदारी बिहार सरकार के मत्थे मढ़ देता है. हमारी बात पटना में इग्नू सेंटर के प्रमुख क्यू. हैदर से होती है. वे कहते हैं, ‘मैं अभी नया हूं और बिहार सरकार से यह करार पहले का है. इसका क्या आधार था, अभी नहीं बता सकता.’ वे आगे बताते हैं कि डीपीई मान्य हो, इसीलिए इग्नू और एनसीटीई के संयुक्त तत्वावधान में छह माह का अतिरिक्त कोर्स डिजाइन किया गया है, जो क्षमतावर्धक कोर्स होगा. इसे कर लेने से डीपीई मान्य हो जाएगा.

रंजन से मिला दूसरा कागज इसी संदर्भ में एनसीटीई से मिले जवाब का होता है. 23 सितंबर, 2011 को एनसीटीई के दिल्ली स्थित मुख्यालय से पूछा गया था कि बिहार में इग्नू द्वारा जिस डीपीई कोर्स का संचालन करके बिहार में नियोजित शिक्षकों को द्विवर्षीय प्रशिक्षण दिया जा रहा है, क्या उसको एनसीटीई द्वारा बिहार के लिए मान्यता दी गई है. बकौल रंजन, दिल्ली एनसीटीई से यह पत्र भुवनेश्वर कार्यालय भेजा गया, फिर भुवनेश्वर से जयपुर. दो माह पहले एनसीटीई के जयपुर कार्यालय ने जवाब में वर्ष 2000 में जारी एक नोटिफिकेशन की कॉपी भेजी, जिसमें उक्त कोर्स के पूर्वोत्तर भारत में संचालित होने से संबंधित सूचना दर्ज है. यानी एनसीटीई भी गोलमोल जवाब में उलझा देता है.  सूचना के अधिकार से मिले इन दो कागजों से यह साफ हो जाता है कि बिहार में 2007 से ही इग्नू के सौजन्य से डीपीई नाम से जो शिक्षकों को दीक्षित करने का कोर्स चल रहा है, वह रहस्यमयी है. इसी बाबत हमारी बात राज्य के शिक्षा मंत्री पीके शाही से होती है. वे कहते हैं,  ‘यह इग्नू की करनी है कि वह अब तक इसकी मान्यता नहीं ले सका है. हम तो इसके लिए 15 दफा केंद्रीय शिक्षा मंत्री सिब्बल से मिल चुके हैं. जब इग्नू से इस प्रशिक्षण के लिए करार हुआ था, तब मैं शिक्षा मंत्री नहीं था, लेकिन इग्नू यह कागज पर दिखाए कि बिहार सरकार ने उसे किस रूप में और कब आश्वासन दिया था कि डीपीई की मान्यता वह ले लेगा.’ 

शाही के जवाब से साफ होता है कि बिहार में शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए पिछले पांच वर्षों से संचालित डीपीई कोर्स मान्य नहीं है. हमारा सवाल होता है कि बिना मान्यता वाले कोर्स के साथ भला क्योंकर राज्य सरकार ने हजारों शिक्षकों को प्रशिक्षण के लिए जोड़ दिया था. शाही कहते हैं कि विद्यार्थी का काम मान्यता लेना नहीं होता और यह तो इग्नू को चाहिए था कि वह इतने दिनों में मान्यता ले लेता. डीपीई को मान्य बनाने के लिए अब छह माह का एक क्षमतावर्धक प्रोग्राम तैयार हुआ है. शाही कहते हैं , ‘देखिए, वह भी तो इतने दिनों से एनसीटीई और इग्नू द्वारा सिर्फ कहा जा रहा है. ठोस रूप में तो उसका स्वरूप अभी मिला नहीं है.’ 

यह किसी से छिपा नहीं कि बिहार में प्राथमिक शिक्षा फिलहाल सबसे बुरे दौर में है. इस स्थिति से पार पाने के लिए यहां वर्षों से जैसे-तैसे और भारी अनियमितता से शिक्षकों को बहाल करने की पंरपरा बनी है. जब बहाल गुरुओं को दीक्षित यानी प्रशिक्षित करने की मजबूरी सामने आई तो उसके नाम पर एक किस्म का भद्दा मजाक किया गया. अब तर्क-वितर्क और कुतर्क से इग्नू, बिहार सरकार आदि अपनी बातों को सही ठहराने में लगे हुए हैं. इससे प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के प्रति बिहार में शासन का नजरिया सामने आता है. साथ ही यह सवाल भी उठता है कि कैसे सरकारी खजाने से एक अमान्य कोर्स के लिए पैसे जारी कर दिए गए थे.

शिक्षा विभाग के संयुक्त निदेशक आरएस सिंह से हम जानना चाहते हैं कि राज्य सरकार ने कितना शुल्क अदा किया. वे कहते हैं, ‘यह मामला मेरे अंतर्गत तो नहीं आता, लेकिन लगभग पांच हजार रुपये प्रति शिक्षक लगा है.’  बताया जा रहा है कि लगभग 1,20,000 शिक्षकों को इसी कोर्स के जरिए दीक्षित करने का जिम्मा दिया गया है. सीधा गणित लगाया जाए तो 60 करोड़ रु का हिसाब है.

 प्राथमिक शिक्षा पर काम कर रहे और बिहार लोक अधिकार मंच से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता उदय कहते हैं, ‘बिहार में न तो शिक्षा की कोई ठोस नीति है, न शिक्षकों की बहाली की और न ही उनके प्रशिक्षण की. ऐसे में यही सब होगा. जैसे-तैसे शिक्षकों को भर्ती करके शिक्षा का बंटाधार पहले ही किया जा चुका है, अब गुणवत्ता साबित करने के लिए सर्टिफिकेट बांटने पर ही सरकार का सारा जोर है.’ 

बिहार के अपने शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों की स्थिति बात करें तो पहले ये संस्थान ही बिहार में शिक्षकों की बहाली का प्रमुख जरिया हुआ करते थे. इन ट्रेनिंग कॉलेजों में दाखिला लेने वाले प्रतिभागियों को दो साल का प्रशिक्षण दिया जाता था. फिर सफल प्रतिभागियों को शिक्षक बनने का मौका मिलता था. लालू प्रसाद यादव के जमाने में यह प्रक्रिया बदली. बिहार राज्य प्रारंभिक विद्यालय शिक्षक नियुक्ति अधिनियम 1991 बना और बिहार लोक सेवा आयोग से सीधे शिक्षकों की नियुक्ति हुई. इससे भारी संख्या में अप्रशिक्षित शिक्षक आ गए. इसी बीच केंद्र सरकार ने 1995 में एनसीटीई का गठन किया. बिहार सरकार को अप्रशिक्षित शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का आदेश मिला.

जैसे-तैसे प्रशिक्षण की प्रक्रिया पूरी हुई. बाद में एक-एक कर बिहार के ट्रेनिंग कॉलेजों की स्थिति खस्ता होती चली गई. इस दरमियान शिक्षकों की बहाली जारी रही. 2003 में पंचायत शिक्षा मित्रों की एक व्यवस्था बनी. 100 रुपये के नॉन ज्यूडिशियल स्टांप पेपर  पर 11 माह का इकरारनामा करके 1,500 रुपये महीना पगार में शिक्षा मित्र बहाल हो गए. तीन बार इकरारनामे की अवधि बढ़ी. सत्ता में नीतीश कुमार आए तो 2006 में नियोजन की नई नियमावली बनी जिसे बिहार प्रारंभिक पंचायत, प्रखंड, नगर शिक्षक नियोजन नियमावली 2006 कहा गया. इसके तहत अंकों के आधार पर 35 से 40 हजार शिक्षक बहाल हुए. 2008 और 2010 में भारी संख्या में नियोजन पर शिक्षक बहाल हुए. इस तरह आए शिक्षकों में 80 प्रतिशत से अधिक अप्रशिक्षित ही थे. 2010 से पूरे देश में शिक्षा का अधिकार कानून भी लागू हो गया. एनसीटीई ने बिहार सरकार पर शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का दबाव बनाया. सरकार ने इसके लिए इग्नू से करार किया. एक-एक प्रखंड में तीन-तीन स्टडी सेंटर तक तैयार किए गए. साल में औसतन 200 दिन तक स्कूल चलता है. इस दौरान प्रशिक्षण में उलझे शिक्षक स्कूल छोड़कर मान्यतारहित कोर्स के जरिए प्रति माह दस-दस दिन दीक्षित होने में लगे रहे. नतीजा यह हुआ कि बच्चों की पढ़ाई चौपट होती रही.

अब एक बार फिर नियोजित होने के लिए शिक्षकों की बड़ी फौज लिखा-पढ़ी की परीक्षा पास करके जिला-जिला, प्रखंड-प्रखंड घूमकर आवेदन जमा करने में लगी हुई है. दूसरी ओर डीपीई के बाद गुरुजी लोगों की क्षमता और गुणवत्ता बढ़ाने के लिए सरकार एक और प्रशिक्षण की दस्तक दे चुकी है. दिखावे के लिए यह क्षमतावर्धन न का छह माह वाला प्रशिक्षण होगा, हकीकत में यह डीपीई के सर्टिफिकेट को मान्य कराने की प्रक्रिया होगी. इसके लिए भी राज्य सरकार इग्नू की शरण में ही पहुंची है. कहा जा रहा है कि यह कोर्स अगले माह शुरू हो जाएगा लेकिन अभी इसके स्वरूप की ही स्थिति अस्पष्ट है. क्या दाल में फिर कुछ काला है या पूरी दाल ही काली है?

फैसले की फांस

प्रोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर उत्तराखंड सरकार इधर कुआं-उधर खाई वाली स्थिति में फंसी नजर आ रही है. मनोज रावत की रिपोर्ट.

प्रोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर उत्तराखंड में चल रहा सरकारी कर्मचारियों का आंदोलन शांत होने की बजाय राजनीतिक रंग लेता जा रहा है. 10 अक्टूबर को होने वाले टिहरी लोकसभा उपचुनाव पर भी इस आंदोलन की छाया पड़ती दिख रही है. आरोप लग रहे हैं कि इस मामले में कहीं पर भी राजनीतिक स्तर पर निर्णय नहीं लिया गया.  दोनों वर्गों को खुश करने के लिए बनाए गए नौकरशाही के फॉर्मूले को प्रोन्नति में आरक्षण चाहने और उसका विरोध करने वाले दोनों ही नकार रहे हैं. दरअसल 10 जुलाई, 2012 को नैनीताल उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि राज्य सेवाओं में प्रोन्नति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण समाप्त कर दिया जाए. सामान्य वर्ग के कर्मचारी इस निर्णय के बाद वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नतियों की उम्मीद लगाए बैठे थे. लेकिन 19 जुलाई को राज्य सरकार ने प्रोन्नतियों को अंजाम देने वाली सभी विभागीय प्रोन्नति समितियों पर रोक लगा दी. सरकार के निर्णय से सामान्य वर्ग के कर्मचारी भड़क गए. उन्होंने पहले इसके विरोध में अलग-अलग जगहों पर प्रदर्शन और क्रमिक अनशन किया जो सरकार द्वारा ध्यान न दिए जाने के बाद हड़ताल में बदल गया.           

दूसरी ओर उत्तराखंड अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति कर्मचारी फेडरेशन प्रोन्नति में आरक्षण खत्म करने के किसी भी संभावित निर्णय का विरोध करने की रणनीति बना रहा था. इससे सरकार के लिए इधर कुआं- उधर खाई वाली स्थिति हो गई. इससे बचने की कोशिश में तीन अगस्त को राज्य कैबिनेट ने विभागीय प्रोन्नति समितियों पर लगी रोक हटाने का निर्णय लिया. सरकार ने तय किया कि उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार प्रोन्नतियों को बिना आरक्षण के और वरिष्ठता व योग्यता के आधार पर भरा जाएगा. लेकिन एससी और एसटी वर्ग के कर्मचारियों की नाराजगी से बचने के लिए साथ ही उसने यह फैसला भी किया कि प्रोन्नति में मिलने वाले आरक्षण से उन्हें जितने पद मिलने थे उसके बराबर अतिरिक्त पद एक्स कैडर में सृजित किए जाएंगे और उन पर इस वर्ग के कर्मचारियों को प्रोन्नत किया जाएगा.

इस आंदोलन ने जातियों को लगभग भुला चुके कर्मचारियों को उनकी जातियां याद दिला दीं.  इस विवाद से उपजी खटास मिटने में बहुत वक्त लगेगा

इसके साथ सरकार ने राज्य सेवाओं में आरक्षित वर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व और उनकी सामाजिक स्थिति जांचने के लिए एक सदस्यीय जस्टिस इरशाद हुसैन आयोग का गठन कर दिया. आयोग को तीन महीने में अपनी रिपोर्ट देनी है. सरकार को लगा कि इन निर्णयों से दोनों वर्गों के अधिकारी और कर्मचारी शांत हो जाएंगे. पर हुआ उल्टा. एक्स कैडर के निर्णय से सामान्य और एससी-एसटी, दोनों ही कर्मचारी संगठन भड़क गए. इसी दौरान राजधानी दिल्ली में कैबिनेट ने प्रोन्नति में कोटे पर मुहर लगाकर संविधान संशोधन विधेयक को संसद में लाने वाले प्रस्ताव पर मुहर लगा दी. केंद्र सरकार के निर्णय से सामान्य वर्ग और उत्तराखंड में सरकार के अधकचरे निर्णय से दोनों वर्ग के कर्मचारी असंतुष्ट थे.

मुश्किल से निकलने के लिए सरकार ने पांच सितंबर को आरक्षण रोस्टर बगैर प्रोन्नति के शासनादेश के एक्स कैडर के पदों वाला शासनादेश भी जारी कर दिया. इन शासनादेशों से नाराज होने के बावजूद अगले दिन एससी और एसटी कर्मचारी काम पर लौट गए, लेकिन वे एक्स कैडर के बजाय पहले की ही तरह रोस्टर से प्रमोशन में आरक्षण की अपनी मांग पर कायम थे. 10 सितंबर को राज्य भर से आए इस वर्ग के कर्मचारियों ने सचिवालय का घेराव किया. इस आंदोलन को बसपा के विधायक हरि दास, रक्षा मोर्चा के नेता और पूर्व नौकरशाह एसएस पांग्ती सहित एससी-एसटी समाज के कई राजनेताओं ने समर्थन दिया. इन शासनादेशों से सामान्य वर्ग के कर्मचारी भी खुश नहीं थे.

पांच सितंबर को ही मुख्यमंत्री द्वारा खाली की गई टिहरी लोकसभा की सीट पर उपचुनाव की अधिसूचना जारी हो गई. सामान्य वर्ग के कर्मचारियों के नेता चुनाव आचार संहिता के कारण सरकार को समय देते हुए हड़ताल समाप्त करना चाहते थे पर इस निर्णय को ज्यादातर कर्मियों ने नहीं माना और इन नेताओं को अलग-थलग करके आंदोलन जारी रखा. इस पर सरकार ने कड़ा रुख अपनाते हुए 11 सितंबर की रात सचिवालय सुरक्षा से जुड़े 18 कर्मियों को नौकरी से बर्खास्त कर दिया. प्रमुख सचिव (सचिवालय प्रशासन) ओमप्रकाश के अनुसार प्रोबेशन अवधि में चल रहे नव नियुक्त कर्मियों को नोटिस दिया जाना शुरू हो चुका है. लेकिन सरकार का यह दांव और भी उल्टा पड़ता नजर आ रहा है. बर्खास्त हुए 18 कर्मियों में से 13 टिहरी लोकसभा के निवासी हैं जहां एक महीने बाद उपचुनाव होना है. इस उपचुनाव में मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा दांव पर है. इस इलाके में सरकार के इस निर्णय पर तीखी प्रतिक्रिया हुई है.   

अब सामान्य वर्ग के कर्मचारियों की बनी संघर्ष समिति का कहना है कि एक्स कैडर के पदों वाला निर्णय जब तक वापस नहीं लिया जाता तब तक उनकी हड़ताल जारी रहेगी. इस समिति के संयोजक एसएस वाल्दिया कहते हैं, ‘सामान्य वर्ग के कर्मचारी इस बार आर-पार की लड़ाई लड़ने के मूड में हैं. वे सरकार की बर्खास्तगी की गीदड़ भभकी से डरने वाले नहीं हैं. बर्खास्तगी के जवाब में हम सामूहिक इस्तीफा देंगे.’ संयोजक मंडल के संतोष बडोनी का मानना है कि सरकार को 2006 के उच्चतम न्यायालय में एम नागराज  केस (जिसमें अदालत ने कहा था कि जहां प्रोन्नति में आरक्षण दिया जाना है वहां पहले इस बात का समुचित आकलन हो कि एससी और एसटी का प्रतिनिधित्व बहुत कम है) का फैसला आने के बाद ही उत्तराखंड में प्रोन्नति में आरक्षण समाप्त कर लेना चाहिए था. पर उसने ऐसा नहीं किया. वे बताते हैं कि इससे राज्य में हर स्तर पर सामान्य वर्ग के अधिकारियों और कर्मचारियों को नुकसान पहुंचा है. राज्य में प्रमोशन में रोस्टर की व्यवस्था के अनुसार प्रमोशन में पहला पद एससी वर्ग के लिए आरक्षित था जिस कारण अधिकांश वरिष्ठ पदों पर सामान्य वर्ग की तुलना में कनिष्ठ एससी व एसटी वर्ग के विभागाध्यक्ष पहुंच गए हैं. बडोनी बताते हैं कि इन विभागाध्यक्षों से पहले नौकरी में आए सामान्य वर्ग के लोग उनसे पांच स्तर नीचे के पदों पर हैं. उनके अनुसार इससे सामान्य वर्ग के कर्मियों के भीतर सालों से कुंठा पनप रही है.

                                         

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि एससी-एसटी वर्ग की उत्तराखंड की जनसंख्या में करीब 20 फीसदी भागीदारी है. अनु-सचिव एनएस डुंगरियाल के मुताबिक उत्तराखंड सचिवालय में सेक्शन ऑफिसरों से लेकर अपर सचिव तक के स्तर के लगभग 180 पदों में से 52 पर एससी या एसटी वर्ग के अधिकारी हैं. यह संख्या कुल अधिकारियों के 28 फीसदी के करीब है. अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के प्रतिनिधित्व के लिए बनी इंदु कुमार पांडे कमेटी के अनुसार राज्य की अन्य सेवाओं में क, ख और ग, तीनों श्रेणियों के पदों पर इन दोनों वर्गों के कर्मियों की संख्या कुल कर्मचारियों के 15 प्रतिशत के लगभग है.

उत्तराखंड सचिवालय अनुसूचित जाति जनजाति अधिकारी/ कर्मचारी संगठन के अध्यक्ष करम राम कहते हैं कि सरकार को इंदु कुमार कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर प्रोन्नति में आरक्षण का निर्णय लेते हुए उच्च न्यायालय को अवगत कराना चाहिए था, लेकिन सरकार ने इस रिपोर्ट को बिना अपने निर्णय के उच्च न्यायालय भेज दिया जिससे मामला कमजोर हो गया. वे कहते हैं, ‘निर्णय में साफ है कि राज्य सरकार चाहे तो जरूरत पड़ने पर प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था कर सकती है.’ उनके अनुसार एससी-एसटी वर्ग के कर्मचारी अपने हक पर डाका नहीं पड़ने देंगे. करम राम अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के राज्य सेवाओं में प्रतिनिधित्व और उनकी सामाजिक स्थिति जानने के लिए इरशाद हुसैन कमेटी गठित करने के निर्णय को भी बेतुका बताते हैं. वे कहते हैं, ‘इन सारे मामलों में  तीन सदस्यीय इंदु कुमार पांडे कमेटी पहले ही अपनी रिपोर्ट दे चुकी है. यदि राज्य सरकार सकारात्मक रूप से सोचती तो राज्य में पहले से ही काम कर रहे अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग से संख्यात्मक प्रतिनिधित्व के आंकड़े मंगा सकती थी.’

करम राम का मानना है कि इस पूरे प्रकरण में सरकार ने दोहरी नीति अपना कर कर्मचारियों को बांटने की जो कोशिश की वह गलत है. वे कहते हैं, ‘सरकार के गलत निर्णय से कर्मचारियों में दरार पैदा हो गई है जिसे पाटने में बहुत समय लग जाएगा.’ उनका आरोप है कि अभी सरकार ने  एससी-एसटी वर्ग के बैकलॉग के हजारों पद ही नहीं भरे हैं. इस विवाद में सत्ता दल कांग्रेस से दोनों ही पक्षों का भरोसा टूटा है. उधर, भाजपा केंद्र की तरह ही वेट एंड वॉच की राजनीति कर रही है. समाजवादी पार्टी ने इस आंदोलन में सबसे पहले शिरकत करके प्रोन्नति में आरक्षण का विरोध करने वाले पक्ष को खुला समर्थन दिया. राज्य निर्माण आंदोलन और मुजफ्फरनगर कांड के बाद से राज्य की राजनीति में शून्य पर पहुंच गई सपा को इस आंदोलन से ऊर्जा और समर्थन मिलता देख क्षेत्रीय दल उक्राद का पंवार धड़ा भी आंदोलन के समर्थन में कूद गया है. आने वाले टिहरी लोकसभा चुनाव पर इस आंदोलन का क्या प्रभाव पड़ेगा, पूछने पर एसएस वाल्दिया बताते हैं, ‘यदि सरकार 80 प्रतिशत जनसंख्या वाली सामान्य जातियों की भावनाओं को अपने राष्ट्रीय एजेंडे के कारण नकारेगी तो चुनाव पर उसका प्रभाव दिखेंगा ही.’ इस आंदोलन ने जातियों को लगभग भुला चुके कर्मचारियों को उनकी जातियां याद दिला दीं. जातिहित के नाम पर हो रहे इस संघर्ष की खटास मिटने में कितना समय लगेगा, यह कोई नहीं जानता.

गले तक गुटबाजी

 

हरियाणा कांग्रेस में गुटबाजी और वर्चस्व की लड़ाई अगर ऐसे ही चलती रही तो वह जमीन ही नहीं रह जाएगी जिसपर राज्य के कांग्रेसी नेता अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं. अतुल चौरसिया की रिपोर्ट.

परिवारवाद और व्यक्तिवाद की जो परंपरा कांग्रेस में शीर्ष पर काबिज है उसका असर निचले स्तर पर भी दिखता है. दिल्ली से सटे हरियाणा को ही लें. राज्य में भूपेंद्र सिंह हुड्डा की यह दूसरी पारी है. अपने हर बयान में मुख्यमंत्री पार्टी के तीसरी बार सत्ता में आने का आत्मविश्वास दिखाते हैं. लेकिन राज्य में कांग्रेस की जो स्थिति है उसे देखते हुए पार्टी की राह मुश्किल लगती है. 

हरियाणा में कांग्रेस की खिसकती जमीन का अंदाजा 2004  से लेकर अब तक उसके प्रदर्शन के ग्राफ को देखने पर लगता है. 2004 में पार्टी ने लोकसभा की 10 में से नौ सीटों पर कब्जा जमाया था. इसके अगले साल 2005 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला. 90 सदस्यों वाली विधानसभा में 69 सदस्य पार्टी के थे. साल 2009 में हुए विधानसभा चुनाव पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि पार्टी सिर्फ 40 सीटों पर सिमट गई. मौजूदा सरकार निर्दलीय विधायकों की बैसाखियों के सहारे चल रही है जिनमें से एक विधायक गोपाल गोयल कांडा भी हैं जिनकी वजह से सरकार की खासी किरकिरी हो चुकी है. देखा जाए तो स्थितियां 2009 से अब तक और भी खराब हुई हैं. इस बीच तीन विधानसभा के उपचुनाव हुए हैं और एक लोकसभा का. इनमें से पार्टी दो विधानसभा चुनाव हार चुकी है और हिसार लोकसभा के उपचुनाव में तो पार्टी के उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई. फिर भी मुख्यमंत्री आशान्वित हैं क्योंकि राजनीति उम्मीदों का ही खेल है. 

लेकिन जमीनी सच्चाइयां पार्टी की उम्मीदों के पंख काटती दिखती हैं. हरियाणा में पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष का पद ही पिछले दो साल से खाली पड़ा है. फूलचंद्र मुलाना कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में बने हुए हैं पर सक्रिय कामकाज में उनकी कोई भूमिका नहीं रहती. दो साल पहले उन्हें लकवा मार गया था. तब से उन्होंने संगठन के कामकाज में सक्रिय हिस्सेदारी कम कर दी थी. हिसार चुनाव में हार के बाद उन्होंने कार्यकारी अध्यक्ष के पद से भी इस्तीफा देकर पूरी तरह से किनारा कर लिया. बावजूद इसके पार्टी आज तक कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं खोज सकी है. हरियाणा के वरिष्ठ कांग्रेस नेता और सांसद चौधरी बिरेंदर सिंह इस समस्या की वजह पर रोशनी डालते हुए कहते हैं, ‘इसमें मुख्यमंत्री सबसे बड़ा फैक्टर है. वे नहीं चाहते कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बने जो उनके लिए सिरदर्द बन जाए. बाकी पार्टी के लोग नहीं चाहते कि कोई ऐसा व्यक्ति पार्टी अध्यक्ष बने जो मुख्यमंत्री की जेब में हो. दो साल पहले पार्टी ने प्रस्ताव पास किया था कि नया अध्यक्ष नियुक्त किया जाए, लेकिन आज तक कुछ नहीं हुआ.’ 

चौधरी बिरेंदर सिंह जो बात कहते है उससे एक संकेत साफ मिलता है कि पार्टी में गुटबाजी चरम पर है. तमाम गुट हैं और इनके हित आपस में टकराते रहते हैं. इस गुटबाजी पर लगाम लगाने की नीयत से ही 2009 में आलाकमान के इशारे पर एक समन्वय समिति  बनी थी. कहने को यह समिति संगठन और सरकार के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए बनी थी लेकिन इसका असली मकसद था राज्य कांग्रेस में मौजूद चार-पांच गुटों को किसी भी तरह के टकराव से दूर रखना. मुख्यमंत्री के अलावा कुमारी शैलजा, राव इंद्रजीत सिंह, कैप्टन अजय यादव और चौधरी बिरेंदर सिंह जैसे नेता राज्य में कांग्रेस के दिग्गज हैं और इनका टकराव किस तरह से संगठन को नुकसान पहुंचा रहा है उसका नमूना दो साल से खाली पड़ा अध्यक्ष का पद भी है. समन्वय समिति कितनी कारगर रही इसका एक नमूना हाल ही में यमुनानगर में केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा ने पेश किया. एक प्रेस वार्ता में उनका कहना था, ‘मुझे आज तक पता ही नहीं चल पाया है कि समन्वय समिति की बैठक कब होती है और इसमें कौन लोग हिस्सा लेते हैं.’ गौरतलब है कि कुमारी शैलजा भी इसी समन्वय समिति का एक हिस्सा हैं. 

दो साल से संगठन का अध्यक्ष न होने की कीमत पार्टी चुका रही है. एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता नाम न छापने की शर्त पर वह बात बताते हैं जिसे कहने से हरियाणा का हर कांग्रेसी नेता बचता है क्योंकि ऐसा होने पर उसकी पार्टी से विदाई तय है. वे कहते हैं, ‘हुड्डा ने पूरी पार्टी और सरकार को अपने कब्जे में कर रखा है. वे नहीं चाहते कि संगठन में कोई मजबूत नेता आए. पिछले आठ साल का रिकॉर्ड देख लीजिए. संगठन के स्तर पर एक भी कार्यक्रम नहीं हुआ है. हर आयोजन सरकार करती है, सारा श्रेय भी वही लेती है. मुख्यमंत्री की मनमानी देखिए कि 2004 में जो कुलदीप शर्मा करनाल सीट से पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ जाकर निर्दलीय चुनाव लड़े और हार गए थे और इसके चलते उन्हें छह साल के लिए पार्टी से निकाल दिया गया था, उन्हें 2005  में मुख्यमंत्री ने न सिर्फ पार्टी में लिया बल्कि कार्यकारी अध्यक्ष भी बना दिया. हुड्डा अपने रिश्तेदारों और परिजनों को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं.

हाल ही में संपन्न हुए यूथ कांग्रेस के सदस्यता अभियान में यह साफ दिखा. बताया जाता है कि मुख्यमंत्री के गृह जिले रोहतक में यूथ कांग्रेस की लोकसभा सीट की दौड़ में उनके ही एक रिश्तेदार हैं. आरोप लग रहे हैं कि इसलिए सदस्यता अभियान में गड़बड़ियां देखने को मिल रही हैं.’  इस बारे में पार्टी के हरियाणा प्रभारी बीके हरिप्रसाद से बात करने की कोशिश की गई मगर वे उपलब्ध नहीं हो सके. यूथ कांग्रेस राहुल गांधी का प्रिय विषय रहा है. इसे लेकर वे हमेशा गंभीर रहे हैं. इन चुनावों की निष्पक्षता को लेकर वे इतने गंभीर थे कि उन्होंने इसके लिए पूर्व चुनाव अधिकारी केजे राव की सेवाएं ले रखी हैं. इसके बावजूद हरियाणा में यूथ कांग्रेस के लिए वोट डालने वाले सदस्यों के सदस्यता अभियान में गंभीर गड़बड़ियां सामने आ रही हैं. पानीपत, रोहतक और झज्जर में गड़बड़ी सबसे ज्यादा है. 

इस गड़बड़ी की तह में जाने से पहले यूथ कांग्रेस की चयन प्रक्रिया समझना जरूरी है. पूरे हरियाणा में पार्टी ने 15,451 बूथ बना रखे हैं. इन बूथों के लिए पांच सदस्यीय बूथ कमेटी का चुनाव होता है. इस कमेटी के चुनाव में वोट डालने का अधिकार 18-35 वर्ष तक की आयु वाले यूथ कांग्रेस के सदस्यों को होता है. इन्हीं सदस्यों का सदस्यता अभियान 17 मई से 13 जून तक हरियाणा में चला. पूरे प्रदेश से लगभग साढ़े पांच लाख सदस्यों ने सदस्यता के लिए फॉर्म भरा था. चुनाव समिति फॉर्म भरने वाले सदस्य को तत्काल ही एक बारकोड स्लिप देती है. इसी बारकोड के आधार पर सदस्य की पहचान होती है और वह वोट डालने का अधिकार पाता है.

गुटबाजी पर लगाम लगाने की नीयत से ही 2009 में आलाकमान के इशारे पर एक समन्वय समिति बनी थी, लेकिन वह समन्वय अब तक दूर की कौड़ी रहा है

यूथ कांग्रेस फॉर्म की जांच के बाद दो सूचियां जारी करती है- चयनित सदस्यों की और खारिज सदस्यों की. गड़बड़ी तब सामने आई जब अपने बारकोड के साथ कुछ सदस्यों ने अपना नाम ढूंढ़ना शुरू किया, लेकिन उनके नाम दोनों सूचियों से नदारद थे. सबसे ज्यादा गड़बड़ी रोहतक जिले में सामने आई है. यहां लगभग 55,000 फॉर्म भरे गए थे. यूथ कांग्रेस के एक नेता के मुताबिक लगभग पांच हजार लोगों के नाम सूची से गायब हैं. बताया जा रहा है कि यहां से लोकसभा कमेटी के संभावित उम्मीदवार मुख्यमंत्री के ही एक रिश्तेदार हैं. 

गड़बड़ी की जड़ में प्रभावशाली और ताकतवर नेताओं की मनमानी के संकेत मिल रहे हैं. आरोप लग रहे हैं कि चुनाव लड़ने के इच्छुक उम्मीदवार अपने समर्थकों से ज्यादा से ज्यादा सदस्यता फॉर्म भरवाते हैं ताकि बाद में वे वोट देकर उन्हें चुनाव जितवा सकें. गड़बड़ी की संभावना ऊपर के स्तर पर दिख रही है जहां विपक्षी उम्मीदवारों के गृहजिलों से आए सदस्यता फॉर्म या तो गायब कर दिए गए या फिर उनके नाम ही सदस्यता सूची से हटा दिए गए. गड़बड़ी उजागर होने के बाद मीडिया में खुसर-फुसर शुरू हो गई. जवाब में पार्टी ने तुरंत ही सभी कार्यकर्ताओं को इंटरनल नोटिस जारी कर दिया कि मीडिया में इस विषय पर बोलने वाले को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा. पानीपत के एक युवा नेता कहते हैं, ‘ऐसी स्थिति हो गई है कि तगड़ा मारे और रोने भी न दे. हम लोगों ने इतनी मेहनत से लोगों का फॉर्म भरवाया था. अब उन लोगों के नाम सूची से ही गायब हैं जबकि सबके पास बारकोड है.’ 

झज्जर में भी ऐसे ही आरोप लग रहे हैं कि जिले के एक पूरे बूथ की सूची ही गायब कर दिया गया. इस बारे में जब पार्टी की तरफ से नियुक्त चुनाव आयुक्त  दीपक राठौर से बात की गई तो उनका जवाब था, ‘कोई बड़ी गड़बड़ी नहीं है. थोड़ी बहुत गड़बड़ हुई है. उसकी वजह यह है कि आखिरी समय में एक साथ इतने सारे फॉर्म आ जाते हैं कि सबको संभालना मुश्किल हो जाता है. इस चक्कर में कुछ फॉर्म खराब हो जाते हैं. हम सिर्फ बारकोड जानते हैं. हमारे स्तर पर जो गड़बड़ी होती है उसमें ऐसा होता है कि किसी सदस्य ने जिस बूथ के लिए फॉर्म भरे थे उसकी बजाय उसका नाम दूसरे बूथ में चला जाता है. इस तरह की गड़बड़ियों को दूर करने के लिए हमने एक स्क्रूटनी सेशन रखा था जो दो सितंबर तक चला.

इस दौरान जो लोग हमारे पास आए उनकी गड़बड़ी हमने दूर कर दी.’ जब उनसे पूछा गया कि जिन लोगों के पास बारकोड हैं उनके नाम भी दोनों सूचियों से गायब हैं तो राठौर का कहना था, ‘अक्सर ऐसा होता है कि एक आदमी सौ-सौ फॉर्म लेकर आ जाता है. हम उसे बारकोड स्लिप फाड़कर दे देते हैं और फॉर्म रख लेते हैं. ऐसी स्थिति में बारकोड स्लिप पर नाम, उम्र और पता आदि उसी से भर लेने के लिए कहा जाता है. गड़बड़ी क्या होती है कि किसी और का नाम दूसरे की बारकोड स्लिप में भर देता है, उम्र भूलकर दूसरा लिख देता है. इस चक्कर में कई लोगों के नाम नहीं मिल पाते या कई लोगों के नाम रिजेक्ट हो जाते हैं.’ 

इन चुनावों का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि  बूथ कमेटी के लिए चुने गए अधिकारी ही बाद में विधानसभा, लोकसभा व राज्य इकाई के लिए यूथ कांग्रेस के पदाधिकारी का चुनाव करते हैं. पार्टी पर कब्जे की जो लड़ाई राज्य के बड़े नेता लड़ रहे हैं उसी का अक्स यूथ कांग्रेस के चुनावों में नजर आ रहा है.

 

भांति-भांति के भूत

जैसे भांति-भांति के लोग होते है, वैसे ही भांति-भांति के भूत. इसलिए एक भूत गंभीर है तो दूसरा हंसोड़. दोनों का नेचर अलग, मगर समस्या एक ही. टाइम पास नहीं होता था. सो टाइम पास करने के लिए वे खंडहर की खिड़की से आने-जाने वाले राहगीरों को देखा करते थे. गंभीर भूत का इतने से काम चल जाता था. लेकिन हंसोड़ भूत का मन नहीं भरता था इसलिए वह कभी-कभी शहर के चक्कर मार आता. चुपके से बबलगम भी खाता. 

आज बैठे-बैठे हंसोड़ भूत बोर हो गया. मन बहलाने के लिए वह कहीं जाने की सोचने लगा, तभी हवा के तेज झोंके के साथ लहराता हुआ अखबार का एक टुकड़ा उससे टकराया. वह समय काटने के लिए अखबार पढ़ने लगा. पढ़ते-पढ़ते हंसोड़ भूत जोर से हंसा. वह हंसता ही रहा. गंभीर भूत ने मन ही मन सोचा कि ऐसा कौन-सा चुटकला पढ़ लिया है इसने! उसकी हंसी रोके न रुक रही थी. वह अपने स्वभाव से हंसोड़ तो था ही, लेकिन अब ऐसा भी क्या! हंसी का रहस्य जानने के लिए गंभीर भूत ने अखबार उसके हाथों से छीन लिया.

जब उसने वह खबर पढ़ी तो समझ पाया कि क्यों हंसोड़ भूत के सिर पर हंसी का भूत सवार हो गया है. वह बोला, ‘तुम ऐसी गंभीर बात पर हंस कैसे सकते हो? मरे हुए लोगों के नाम से पेंशन जारी हो रही है. यह तो धांधली है.’ हंसोड़ भूत ने किसी तरह से अपनी हंसी रोकी और बोला, ‘नहीं…इसे कहते हैं योजना का फली…भूऽऽऽत होना.’  यह कहकर हसोड़ा भूत खी-खी करके फिर हंसने लगा.

हंसते-हंसते हंसोड़ भूत बोला, ‘लगता है कि आज मैं हंसते-हंसते मर जाऊंगा!’  यह सुनते हुए गंभीर भूत अतिगंभीर हो गया. बोला, ‘मर कर भी चैन कहां मिला? भूत होकर भी हम तो एक अदद आशियाने के लिए भटक रहे हैं.’ हंसोड़ भूत की हंसी यकायक थम गई. बोला, ‘यार, फिर भी हम अच्छे हैं, वहां तो न जाने कितने, जीते जी भटक रहे हैं.’ ‘हां, मगर उनके पास अपनी काया तो है… काश हम भी…’,  गंभीर भूत ने यह कह कर लंबी सांस खींची.

हंसोड़ भूत बोला ‘भूतकाल को भूल जाओ… वैसे देखा जाए तो हम जिस देश के भूत हैं वहां के अधिकांश जन हमारे जैसे ही हैं, कोई खास फर्क नहीं हैं, हम भी बेचैन आत्माएं हैं और वे भी!’ ‘ फर्क  कैसे नहीं है.. माना कि उनकी आत्मा भी बेचैन है, मगर उनके पैर सीधे और हमारे पैर उल्टे हैं, दिखता नहीं…’, गंभीर भूत ने कहा. ‘अगर मैंने सिद्ध कर दिया कि हमारे और उनके बीच कोई मूलभूत अंतर नहीं है तो…’ हंसोड़ भूत किसी दार्शनिक की तरह बोला. ‘तो… जो तू बोल…’ गंभीर भूत उचक कर बोला. ‘फिर मेरे साथ खूब हंसेगा!’  हंसोड़ भूत एक आंख दबाकर बोला. ‘ठीक है पहले तू सिद्ध कर,’ गंभीर भूत ने चुनौती दी.

फिर क्या था! हंसोड़ भूत गंभीर भूत का हाथ पकड़ कर सायं-सायं उड़ने लगा. उड़ने से पहले उसने गंभीर भूत की आंख पर काली पट्टी बांध दी थी. थोड़ी देर उड़ने के बाद एक जगह रुक कर हंसोड़ भूत बोला, ‘शांत हो कर सब कुछ सुनता जा!’ गंभीर भूत सुनने लगा; ‘चले आते हो मुंह उठाएं मेरे पास… मेरे पास और दूसरा काम नहीं है क्या, हूंऽऽऽ’ ‘कल आना.’ ‘कल, कल, कल करके आज महीनों हो गए!’ ‘हैं कि नहीं है!’ ‘बिना चढ़ावा चढ़ाए काम नहीं होगा.’ ‘इतने दिनों से भटक रहा हूं.’ ‘किसी से कहलवाओ न!’ ‘हद है यार, इत्ते से काम के लिए एडि़यां घिस गईं.’ ‘ले लो… ले लो…बडे़ बाबू, भागते भूत की लंगोटी ही सही!’ ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानेंगे!’ 

अब गंभीर भूत से रहा नहीं गया.  झट से उसने अपनी आंखों से पट्टी उतार दी. उसने खुद को विकास भवन में पाया. उसने वहां जो देखा तो सहसा विश्वास नहीं हुआ. वहां से बहुत सारे लोग उल्टे पांव लौट रहे थे. हंसोड़ भूत बिना हंसते हुए बोला, ‘माना हमारे पांव उल्टे हैं, मगर यहां तो रोज न जाने कितने उल्टे पांव लौटाए जाते हैं. तभी तो हम जैसे भूतों को पेंशन मिलती है और अपने जीते जी आम आदमी को अपने हक-हकूक के लिए भूत बन कर भटकना पड़ता है.’

गंभीर भूत अपने भूत बनने पर अभिभूत था. हंसोड़ भूत के कहे की आधारभूत बात उसकी समझ में आ चुकी थी.    

-अनूप मणि त्रिपाठी

खतरा बाकी है

कोकराझार की आग भले ही अब शांत पड़ती दिखती  हो, लेकिन अवैध घुसपैठ के मुद्दे पर पूर्वोत्तर के दूसरे हिस्सों में पारा चढ़ने लगा है. रतनदीप चौधरी की रिपोर्ट.

दो सितंबर को यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के एक धड़े ने असम के तिनसुकिया जिले में एक रैली की. लोगों को संबोधित करते हुए इसके नेता जतिन दत्ता का कहना था, ‘ऊपरी असम में अवैध रूप से आए बांग्लादेशियों के खिलाफ हम आंदोलन करेंगे. हमने तिनसुकिया जिला प्रशासन से निवेदन किया है कि अवैध प्रवासियों को किसी भी हाल में जिले में न घुसने दिया जाए. यदि सरकार इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेती तो यहां के मूल निवासियों का उस पर से भरोसा उठ जाएगा.’ जवाब में तालियों की इतनी तेज गड़गड़ाहट गूंजी जो केंद्र से वार्ता के समर्थक उल्फा के इस धड़े को पहले कभी नसीब नहीं हुई थी.

यह सिर्फ एक उदाहरण है जो बताता है कि असम के कोकराझार और इससे सटे इलाकों में अवैध घुसपैठ के मुद्दे पर भड़की आग भले ही अब शांत हो रही हो मगर राज्य के दूसरे हिस्सों और पूर्वोत्तर के कई दूसरे राज्यों में अब यह मुद्दा गरम होने लगा है. ऊपरी असम के सभी प्रमुख संगठन इस मुद्दे पर एकजुट होते दिख रहे हैं. अवैध घुसपैठ के खिलाफ छात्र संघों और युवाओं के मंचों ने उल्फा के पूर्व कमांडर प्रबल नोग के साथ हाथ मिला लिए हैं. उल्फा के वार्ता समर्थक धड़े की मूल मांगों में अवैध प्रवासियों की पहचान करके उन्हें वापस भेजना हमेशा से ही शामिल रहा है. ऐसे में इस बार मिलने वाला जनसमर्थन उसे मजबूती दे सकता है. पिछले सप्ताह ऊपरी असम के शिवसागर जिले में लगभग 15,000 और जोरहाट जिले में लगभग 12,000 लोग एक प्रदर्शन में हिस्सा लेते हुए अवैध रूप से आए बांग्लादेशियों के तुरंत निर्वासन की मांग उठा चुके हैं. 

असम आंदोलन में सक्रिय रहे बुजुर्ग नृपेन चौधरी कहते हैं कि लोगों के इस विरोध को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. समस्या के कारणों के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ‘यदि असम समझौते को पूरी तरह लागू किया जाता तो आज हालात ऐसे नहीं होते. सभी राजनीतिक दल इसके लिए दोषी हैं जिन्होंने असम समझौते और अवैध प्रवासियों से जुड़े सवालों को राजनीतिक मुद्दा बनाकर इसे अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया है.’ उनका आरोप है कि सत्ताधारी कांग्रेस और असम गण परिषद इसमें अपना राजनीतिक लाभ ढूंढ़ रहे हैं. 

मणिपुर सरकार ने 30 अगस्त से अवैध प्रवासियों की पहचान का अभियान शुरू किया है. इस अभियान के तहत बांग्लादेश और म्यांमार से अवैध रूप से आए 43 लोगों को पूर्वी इम्फाल और थोउबाल जिले से गिरफ्तार भी किया गया है. विरोध का रुख सिर्फ असम तक सीमित नहीं है. मणिपुर के सीमावर्ती शहर जिरिबाम में बीते दिनों लगभग 100 अवैध प्रवासियों को सीमा से ही वापस भेज दिया गया. मणिपुर सरकार ने 30 अगस्त से अवैध प्रवासियों की पहचान का अभियान शुरू किया है. इस अभियान के तहत बांग्लादेश और म्यांमार से अवैध रूप से आए 43 लोगों को पूर्वी इम्फाल और थोउबाल जिले से गिरफ्तार भी किया गया है. मणिपुर पुलिस की स्पेशल ब्रांच के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, ‘असम में हुए दंगे के बाद एक ही दिन में असम-मणिपुर सीमा के पास 60  अवैध प्रवासियों की पहचान हुई है. हमें शक है कि असम से कई लोग भाग कर मणिपुर में घुसने की कोशिश में हैं. हमने असम पुलिस से भी इस बारे में बात की है.’  

उधर, एक और राज्य मेघालय में भी इस मुद्दे पर विरोध शुरू हो चुका है. प्रदेश के 10 प्रभावशाली संगठनों ने विदेशी प्रवासियों के खिलाफ आवाज बुलंद कर दी है. वे राज्य सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि वह राज्य में इनर लाइन परमिट की व्यवस्था लागू करे. गौरतलब है कि इससे राज्य से बाहर का कोई व्यक्ति बिना यह परमिट लिए राज्य में दाखिल नहीं हो सकता. फेडेरेशन ऑफ खासी-जैंतिया एंड गारो पीपल के कार्यकारी अध्यक्ष जो मार्वेन तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘हमें चाहिए कि आने वाले विधान सभा सत्र में राज्य के सभी 60 जनप्रतिनिधि इनर लाइन परमिट के मुद्दे को सदन में उठाएं और उसे लागू किए जाने पर चर्चा हो.’ वर्तमान में उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों में ही इनर लाइन परमिट लागू किया गया है. ये राज्य हैं अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड. उधर, मेघालय के मुख्यमंत्री मुकुल संगमा ने शिलांग में पत्रकारों से वार्ता करते हुए कहा, ‘हमारी सरकार इनर लाइन परमिट के खिलाफ नहीं है बल्कि हम एक मजबूत कानून बनाना चाहते हैं जो इनर लाइन परमिट से भी ज्यादा प्रभावशाली होगा.’

पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में सामाजिक संगठनों ने स्थानीय व्यापारियों, ठेकेदारों और होटल मालिकों से अनुरोध किया है कि वे अवैध रूप से आए प्रवासियों को काम न दें. नागालैंड में नागा काउंसिल नामक एक सामाजिक संगठन ने तो बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों के सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार की भी मांग उठाई है. गुवाहाटी के एक दैनिक अंग्रेजी समाचारपत्र के प्रबंध संपादक राजीव भट्टाचार्य कहते हैं, ‘स्थानीय और बाहरी लोगों के बीच जमीन और अधिकारों की लड़ाई का यहां पुराना इतिहास रहा है. समस्या यह है कि अगर मणिपुर या मेघालय में कोई हादसा होता है तो प्रवासी यहां असम में आ जाएंगे और अगर यहां उनको रोका गया तो वो देश के किसी और राज्य की तरफ कूच कर जाएंगे.’

बांग्लादेश सीमा से लगते त्रिपुरा में राज्य पुलिस की एक इकाई द्वारा करीब दो लाख लोगों की पहचान की गई है जो बांग्लादेश से अवैध रूप से आए हैं. गौरतलब है कि त्रिपुरा और बांग्लादेश के बीच 856 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा है. वैसे बाकी राज्यों में भी अवैध घुसपैठियों की संख्या कम नहीं है. 

कोकराझार के हालात तो देश कुछ दिनों पहले तक देख ही चुका है. अब मूल निवासी बनाम प्रवासी की यह लड़ाई फैलती जा रही है. समय रहते इसका स्थायी समाधान नहीं किया गया तो देश में कई इलाके कोकराझार की राह जाते दिख रहे हैं.

सही है जो, क्यों न हो

जीवित रहने के लिए हर समाज को खुश रहने और भूलते रहने की आवश्यकता होती है. हल्की-फुल्की बेवकूफियां और स्मृतिलोप न हों तो जीवन एक बोझ बनकर बस काटने भर का रह जाएगा जीने लायक नहीं.

मगर याद रखना और दुखों से दो-चार होना भी कम जरूरी नहीं. कुछ दुख ऐसे होते हैं जिन्हें भूलना उचित नहीं और कुछ घाव ऐसे होते हैं जिन्हें खुला रखने की हिम्मत करनी ही चाहिए, ताकि उनके पीछे की कहानियों से जरूरी सबक लिए जा सकें. अगर ये दुख और घाव अन्याय होने और न्याय पाने के संघर्ष का हिस्सा हों तब ऐसा किया जाना और भी जरूरी है. जब कोई व्यक्ति सभ्यता के मान्य सिद्धांतों के बाहर जाकर कुछ भी अमानवीय करता है तो फिर उसे अपने ऐसे किए का दंश भुगतना ही चाहिए. जब कोई अपनी पाश्विक वृत्तियों के चलते दूसरों के साथ गलत करता है तो उसे शर्म और पछतावे के ताप को अनुभव करना ही चाहिए.

जो सामाजिक सौहार्द को बढ़ाने या बिगड़ने से रोकने के नाम पर हमें 2002 के गुजरात या 1984 की दिल्ली को भूल जाने को कहते हैं, वे गलत हैं. हम अपनी गलतियों को दुरुस्त नहीं करते हैं, इसलिए उन्हें दोहराते रहते हैं. गलतियों का यह दोहराव हमें कभी सुधरने नहीं देता.

यहूदी अपने भीषण दुखों को बड़े जतन से सहेजते हैं और उन्हें ऐसे हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं जो उनकी सुरक्षा करता है और कुछ करने के लिए उकसाता है. हमें अपनी विविधताओं-जटिलताओं के चलते और वैसे भी ऐसे किसी उकसावे की जरूरत नहीं, लेकिन जो कुछ नरौदा-पाटिया मामले में हुआ वैसा तो किया ही जाना चाहिए. मायाबेन कोडनानी (तस्वीर में) और बाबू बजरंगी को उनके अपराधों की सजा अदालत ने दी है न कि किन्हीं ऐसों ने जो संविधान के दायरे के बाहर जाकर काम कर रहे थे. हमें अपने दुखों को याद करने, उन्हें दूर करने और खुद को सुधारने के लिए ऐसे ही रास्तों को अपनाना होगा. थका देने वाले कानून के ऐसे रास्ते जिन पर गवाहियों और सबूतों के पहाड़ों को काटकर हमें बिना थके आगे बढ़ना होता है.

वर्ष 2002 में तीन दिन तक गुजरात पर मानो कहर बरपा. 10 साल में ही सही न्याय की किताब के कुछ पन्नों को बंद करने का काम शुरू हो गया है. हम सभी को इस पर गर्व होना चाहिए. 2002 में तीन दिन तक हजारों हिंदू अपने बारे में एक बाहरी और खतरनाक विचार के बहकावे में रहे. मगर पिछले 10 साल में सैकड़ों हिंदू – वकील, सामाजिक कार्यकर्ता पत्रकार, राजनेता – पीड़ित और मारे गए मुसलमानों के न्याय और अधिकार की लड़ाई भी लड़ते रहे. हम सभी को इस पर भी अभिमान होना चाहिए.

भले ही गुजरात, संघ परिवार की अतियों का परिणाम हो, राजधर्म के बोध का खत्म होना एक बड़ी समस्या है और इससे कोई भी दल या सरकार अछूती नहीं है. हमारे चारों ओर कानून के मुताबिक चलने वाले ऐसे शासन का वायदा, जो आंखों और दिल दोनों को ठीक लगे, तार-तार पड़ा नजर आता है. हद दर्जे की धूर्तता और लालच के दो पैरों पर खड़ा शासन हमें हर बीते दिन के साथ कुछ और भी छोटा किए जा रहा है. यहां भी हमें गुजरात के अभियान से ही अपने पाठ सीखने होंगे. हमें असंवैधानिक तरीकों की बजाय कानून के दायरे में रहकर, जरूरी तर्कों और संयमित भाषा में, सिद्धांतों न कि छुद्र पहचान के आधार पर जुटाए लोगों के बल पर अपनी लड़ाई लड़नी होगी.

‘दारु-विमर्श तथा अन्य स्वास्थ्यवर्धक बातें’

क्या दारू स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हो सकती है? क्या शुगर फ्री टाइप की चीजें या जीरो कैलोरी ड्रिंक्स वगैरह लेने से वजन नहीं घटता? आपका लेख पढ़कर तो ऐसा ही लगा. कभी एंटीऑक्सीडेंट्स क्या होते हैं, यह भी तो बतला दें. कहते हैं कि स्वस्थ रहने में इनका भी बड़ा रोल होता है, साहब.

मेरे पिछले कॉलम (मेटाबॉलिक सिंड्रोम) के छपने के बाद बहुतों ने मुझे फोन करके ये बातें कीं. विशेष तौर पर अल्कोहल को लेकर तो कई पाठक आश्चर्य प्रकट करने लगे कि दारू भी क्या स्वास्थ्यप्रद हो सकती है? एक-दो ने तो इसे मेरे व्यंग्यकार पक्ष से जोड़ने की कोशिश की और माना कि बात मजाक में लिखी गई होगी. कॉलम की अपनी सीमा होती है. मेटाबॉलिक सिंड्रोम में कदाचित ये बातें इस विस्तार से नहीं बता पाया तभी इतने भ्रम तथा प्रश्न उठे हैं. आज मैं दारू, बनावटी मिठास वाले प्रॉडक्ट्स और एंटीऑक्सीडेंट नाम की बला के बारे में कुछ ऐसी बातें बताता हूं कि आप भी कहेंगे कि वाह, क्या बात है.

दारू लाभदायक भी हो सकती है.

दारू से हमारा तात्पर्य है- बीयर, वाइन और व्हिस्की जैसी अन्य कोई भी दारू. सुना तो यही था कि दारू पीना बुरी बात है. इससे अल्सर, लीवर सिरोसिस और न जाने क्या बीमारियां हो जाती हैं. यह भी पता था. पी के नाली में घुस जाते हैं, यह तो स्वयं देखा भी था, बल्कि एकाध बार तो स्वयं ही घुस गए थे. फिर? फिर कोई कैसे कह सकता है कि यह स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है, मेटाबॉलिक सिंड्रोम कंट्रोल करती है, डायबिटीज, हार्ट अटैक आदि खतरे भी कम कर सकती है?

हां, यह सत्य है.

दारू यदि कंट्रोल डोज में ली जाए तो ये सारे फायदे हो सकते हैं, ऐसा कई अध्ययनों से सिद्ध हो चुका है. पर यह कंट्रोल डोज क्या है? फिर कब लेना ठीक कहाएगा? यह माना गया है कि रात के खाने से ठीक पहले यदि दो (पुरुषों के लिए) या डेढ़ (महिलाओं के लिए) ड्रिंक्स लिए जाएं तो यह फायदा पहुंचाएगी. अब आप पूछोगे कि एक ड्रिंक का क्या मतलब? तो सुनिए, एक ड्रिंक्स का मतलब है 360ml बीयर, 150ml वाइन या फिर 45ml की तथाकथित हार्ड ड्रिंक्स. अब इसे डेढ़ से दो ड्रिंक्स के हिसाब से लगा लें. बस इतना लें. वाइन में भी रेड वाइन.

हां! इस डोज को पार किया कि दारू के उल्टे असर शुरू. वहां फिर वे सारी बीमारियां शुरू जिनके कारण दारू बदनाम है. यदि दारू को नशे या किक प्राप्त करने के लिए न पीकर स्वास्थ्यवर्धक दवाई के तौर पर पीना चाहते हैं तो पी सकते हैं. नशे के लिए पीने वाला कुछ समय बाद ही इस सुरक्षित डोज को पार कर जाता है और कहीं का नहीं रह जाता. गड़बड़ बस इतनी है. वर्ना इस सुरक्षित डोज में दारू क्या-क्या लाभ पहुंचा सकती है, इसकी लिस्ट लंबी है. बताता हूं:

क्या आप जानते हैं कि इस मात्रा में दारू एक बेहतरीन इंसुलिन सेसीटाइजर है?

तात्पर्य यह कि दारू का डोज इंसुलिन के प्रभाव को बढ़ाता है जिसके कारण ब्लड शुगर बेहतर कंट्रोल होता है. देखा गया है कि रात में खाने से ठीक पहले यदि ‘रेड  वाइन’ का एक ग्लास पी लें तो एक स्वस्थ व्यक्ति में भोजन के बाद का  ’ब्लड शुगर लेवल’ 30% तक कम हो सकता है. यही प्रभाव डायबिटीज और मेटालॉजिक सिंड्रोम में भी देखा गया है. बीयर और अन्य दारूओं से भी यह 20 % तक कम हो सकता है. 

खाना खाने के बाद की ’ब्लड शुगर’ कम होने से क्या फायदा है? फायदा है न. फायदा समझने के लिए पहले यह वैज्ञानिक तथ्य समझें कि जब हम भोजन करते हैं तो खाना खाने के बाद का ’ब्लड शुगर’ लेवल बढ़ सकता है जो शरीर चलाने के लिए जरूरी भी है. पर यह बढ़ा लेवल शरीर में ’फ्री रेडिकल्स’ नामक हानिकारक पदार्थ भी पैदा करता है. अचानक बढ़ी शुगर से पूरे शरीर में ऊतकों में ‘इन्फ्लेमेशन’ (एक किस्म की सूजन कह लें) भी हो जाता है. यह होता बहुत कम समय के लिए है पर होता तो है. ये फ्री रेडिकल्स और यह ‘सिस्टेमिक इन्फ्लेमेशन’ हार्ट अटैक, स्ट्रोक, डायबिटीज, हार्ट फेल्योर और डेमेंशिया आदि खतरनाक बीमारियों की जड़ में माने जाते हैं. कई स्टडीज से यह सिद्ध हुआ है कि यदि रात के खाने से ठीक पूर्व, बताए गए डोज में दारू ली जाए तो डायबिटीज होने का खतरा 30% से 40% तक कम किया जा सकता है. कहा तो यहां तक जाता है कि इससे हार्ट अटैक का खतरा भी लगभग 30% और ‘ओवर ऑल’ मृत्यु को लगभग 20% तक कम किया जा सकता है. अब और क्या चाहिए, यार? 

परंतु मैं पुन: कहूंगा कि दारू के साथ दिक्कत यही है कि आदमी तय डोज पर रुकने को राजी नहीं होता. यही वह खतरा है जिसकी वजह से डॉक्टर लोग इस इलाज का जिक्र ही नहीं करते जिसकी चर्चा मैंने ऊपर विस्तार से की. 

‘आर्टिफिशियल स्वीटनर्स’ वजन बढ़ा सकते हैं.

हम या तो मिठाइयां  भकोसते हैं या एकदम से सैकरीन-एस्पार्टेम आदि कृत्रिम मिठास वाली चीजों पर उतर आते हैं. याद रखें कि हमारी जीभ को मीठा स्वाद पता तब चलता है जब 200 में से 1 पार्ट भी शक्कर का हो. जबकि कृत्रिम स्वीटनर्स मिठास का इतना ‘स्ट्रोग सेंसेशन’ पैदा कर सकते हैं कि हमारी जीभ को 1,000 में से एक पार्ट भी पता चल जाएगा. नतीजा? नतीजे दो हैं. विशेष तौर पर ऐसी ’जीरो कैलोरी’ ड्रिंक्स जो मीठी तो हैं पर कैलोरीज से खाली हैं. लोग इन्हें पीते हैं. सोचते हैं, कितना भी पिओ इनमें कैलोरीज तो हैं नहीं! पर इन्हें पीने, पीते रहने से हमारे शरीर में एक अनोखा बदलाव हुआ जाता है. अब हमारा शरीर मिठास और कैलोरी भक्षण के संबंध को समझना बंद कर देता है. यह महाखतरनाक है. इससे हार्मोंस तथा दिमाग के ‘न्यूरोबिहेवियर’ कनेक्शनों में गड़बड़ पैदा हो जाती है. ज्यादा खाते हैं और दिमाग के सेटइटी (तृप्ति) सेंटर को पता ही नहीं चलता. तृप्ति का भाव दब जाता है. आदमी पतले के बजाए मोटा हो सकता है. स्टडीज से पता चला है कि ये ’कृत्रिम मिठास’ वाले पदार्थ कोकीन के नशे से भी ज्यादा आदी बनाने वाले पदार्थ हैं. इनकी जीरो कैलोरी ड्रिंक्स के आप आदी भी हो सकते हैं. 

देखिए कि फिर भी एंटीऑक्सीडेंट्स आदि के बारे में इस बार भी बताने को रह ही गए. क्या करें? कॉलम की सीमा पर खड़े होकर वायदा ही कर सकते हैं कि फिर कभी!

कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी

asheem

क्या है असीम त्रिवेदी से जुड़ा विवाद?
वर्तमान राजनीति पर तीखा कटाक्ष करते कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी के कार्टून अन्ना हजारे के आंदोलन से लोकप्रिय होना शुरू हुए. बढ़ती लोकप्रियता के साथ ही असीम के कार्टून विवादों से भी घिरते गए. दिसंबर 2011 में मुंबई के एक स्थानीय अधिवक्ता द्वारा असीम पर राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने और आईपीसी की धारा 124ए के तहत देशद्रोह का आरोप लगाया गया. 10 सितम्बर 2012 को उन्हें देशद्रोह के आरोप में हिरासत में ले लिया गया जिसका चौतरफा विरोध शुरू हो गया. उनके ऊपर से धारा 124ए को हटाने की मांग की गई. असीम ने अपने मामले की पैरवी के लिए न तो कोई वकील रखा और न ही उन्होंने जमानत की अर्जी दी. बाद में हाईकोर्ट ने खुद ही उन्हें जमानत दी.

क्या है आईपीसी. की धारा 124 ए?
धारा 124ए के तहत देशद्रोह की परिभाषा में वर्णित है कि यदि कोई भी व्यक्ति सरकार विरोधी सामग्री लिखता है, प्रसारित करता है या उसका समर्थन करता है तो उसे आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है. यह कानून 1857 के विद्रोह के बाद आंदोलनकारियों को दबाने के लिए अंग्रेजों ने बनाया था. बाद में इसे भारतीय दंड संहिता में शामिल कर लिया गया. आज़ादी के बाद से ही इस क़ानून को हटाए जाने की मांग उठती रही है.

क्यों है 124 ए को खत्म करने की जरूरत?
आईपीसी की यह धारा संविधान में वर्णित ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ का अतिक्रमण करती है. इसके जरिए वर्षों से आंदोलनकारियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और कार्टूनिस्टों का दमन करने की कोशिश होती रही हैं. आज़ादी से पहले महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक पर भी इस धारा के अंतर्गत मुकदमा चल चुका है. 124ए के जरिए सरकार को निरंकुश होकर अपने खिलाफ बोलने/लिखने वाले को जेल में डालने का मौका मिलता है. आशीष नंदी, विनायक सेन, अरुंधती रॉय के साथ ही कई राज्यों में आन्दोलनकारियों के खिलाफ इस धारा का इस्तेमाल होता रहा है. इस धारा को शुरू करने वाले आंग्रेजों के देश इंग्लैंड में भी इस धरा को समाप्त कर दिया गया है.

-राहुल कोटियाल

बिहार का बहुचर्चित चारा घोटाला

जब चारा घोटाला उजागर हुआ तो इसकी आंच बिहार के कुछ मुख्यमंत्रियों से होते हुए उस समय के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव तक पहुंची थी. इसके बाद उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था. दरअसल, बिहार के पशुपालन विभाग में कुछ गड़बड़ चल रही है, इसे उस वक्त के सीएजी टीएन चतुर्वेदी ने पकड़ा था. चतुर्वेदी ने जब 1985 में यह देखा कि विभाग अपने खर्चे का हिसाब सही ढंग से नहीं दे रहा तो उन्होंने बिहार के उस समय के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह को पत्र लिखा. लेकिन बिहार सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. बाद में सीएजी और राज्य के ऑडिटर की तरफ से सरकार को कई बार चेतावनी दी गई लेकिन इन्हें नजरअंदाज किया गया. इससे यह संदेह गहराया कि इस गड़बड़ी में बिहार के आला नेताओं और अधिकारियों की मिलीभगत है.

1992 में राज्य विजिलेंस के सब इंस्पेक्टर बिधू भूषण द्विवेदी ने इस मामले में एक रिपोर्ट सौंपी जिसमें बताया गया कि इसमें अन्य नेताओं और अधिकारियों समेत मुख्यमंत्री स्तर तक पर गड़बड़ी है. इसके बाद पहले तो द्विवेदी का स्थानांतरण हुआ और बाद में निलंबन. मामले ने तूल तब पकड़ा जब पश्चिमी सिंहभूम के उपायुक्त अमित खरे ने जनवरी, 1996 को चाईंबासा में पशुपालन विभाग के कार्यालय पर छापेमारी की. इससे पता चला कि खेल बड़े स्तर पर चल रहा है. लालू यादव ने मामले की जांच के लिए एक समिति बनाई. लेकिन विपक्ष ने निष्पक्षता को आधार बनाते हुए सीबीआई जांच की मांग की. इस मांग को लेकर उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका दायर की गई.

  • 1985 में पहली बार यह मामला सीएजी की निगाह में आया
  • 1997 में मुख्यमंत्री लालू यादव के इस्तीफे की वजह यह घोटाला बना
  • बिहार के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों पर सजा की तलवार लटक रही है

सर्वोच्च अदालत के निर्देश पर उच्च न्यायालय ने मार्च में जांच का काम सीबीआई को सौंप दिया. 23 जून, 1997 को सीबीआई ने लालू यादव और अन्य 55 लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल कर दिए. इनमें राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र, पूर्व केंद्रीय मंत्री चंद्रदेव प्रसाद वर्मा समेत कई विधायक, अधिकारी और कारोबारी शामिल थे. हर ओर से खुद को घिरा देख लालू यादव को 25 जुलाई को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. 30 जुलाई को उन्हें सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया. 

900 करोड़ रुपये से अधिक के चारा घोटाले में कुल 61 मामले दर्ज किए गए. 42 में निर्णय सुनाए जा चुके हैं. इन्हीं मे से एक मामले में बीते मई में 34 लोगों के खिलाफ सजा सुनाई गई. लालू यादव और जगन्नाथ मिश्र चारा घोटाले से संबंधित पांच मामलों में अभियुक्त हैं. विशेष अदालत ने इनके खिलाफ आरोप तय कर लिए हैं. माना जा रहा है कि दोनों को सजा हो सकती है. पिछले दिनों सामाजिक कार्यकर्ता मिथिलेश सिंह ने विशेष अदालत में याचिका दायर करके इस मामले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जनता दल यूनाइटेड के नेता शिवानंद तिवारी को भी अभियुक्त बनाने की मांग की है. उनका आरोप है कि इन दोनों को पशुपालन विभाग के उस समय के निदेशक एसबी सिन्हा ने क्रमशः एक करोड़ रुपये और 60 लाख रुपये दिए थे. याचिका पर फैसला होना बाकी है.

-हिमांशु शेखर