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स्वदेशी सुपरहीरो इसलिए शुद्ध अत्याचार : रा. वन

फिल्म  रा.वन
निर्देशक अनुभव सिन्हा               
कलाकार
  शाहरुख खान, करीना कपूर, शाहना गोस्वामी, अर्जुन रामपाल 

देखिए, इसमें अनुभव सिन्हा की कोई गलती नहीं है. आपको पता है कि उन्होंने ‘कैश’ नाम की एक फिल्म बनाई है और तब भी आप उनसे ज्यादा की उम्मीद करते हैं तो इसके लिए आप खुद जिम्मेदार हैं. गलती शाहरुख खान की भी नहीं है. कुछ दिन पहले ही उन्होंने कहा है कि वे देश भर में महिलाओं के लिए पर्याप्त टॉयलेट बनवाना चाहते हैं और अपने इस ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए उन्हें अपनी आत्मा भी बेचनी पड़े तो बेचेंगे. तो बात बेचने की है, जिसका एक हिस्सा यह फिल्म भी है – वीडियोगेम की फिल्म, जिसका खलनायक उससे निकलकर बाहर आ जाता है.

आपको उठापटक वाले वीडियोगेम खेलना और फिर बस उसी की फिल्म देखना पसंद हो तो रा.वन आपको पसंद आ सकती है. लेकिन तब नहीं, जब आप कोई नयापन, तर्क और आत्मा ढूंढ़ते हों. साइंस फिक्शन इसलिए साइंस फिक्शन नहीं होती कि उसमें बड़ी-सी लैबोरेटरी, तारों का जंजाल, रोबोट और जलती-बुझती लाइटें होती हैं. वह भी बाकी कहानियों की तरह एक कहानी है और उसका सारा बोझ आप बेचारे स्पेशल इफेक्ट्स पर नहीं डाल सकते. स्पेशल इफेक्ट्स और थ्रीडी पर मेहनत की गई है और फिल्म में इन सबकी इतनी भीड़ है कि कई बार आपके सिर पर ये सीन ओलों की तरह गिरते हैं. एकाध जगह वे आपको रोमांचित भी करते हैं लेकिन हॉलीवुड की इससे कहीं ज्यादा कंटेंट और तकनीकी गुणवत्ता की फिल्में आपकी गली के नुक्कड़ की दुकान पर हैं तो आप रा.वन क्यों देखेंगे?  इन मसाला फिल्मों में शाहरुख खान अक्सर एक ही तरह के हाव-भाव लाते हैं लेकिन वे फिर भी एंटरटेनर हैं. करीना सुंदर लगी हैं और वे सिर्फ वही लगना भी चाहती हैं. वे शायद ऐसे ही रोल करना चाहती हैं जिनमें वे पति या प्रेमी के जीवन का हिस्सा बनकर ही मोक्ष-प्राप्ति जैसा अनुभव करें और उनका आईक्यू इतना कम हो कि जो कहानी दर्शकों को आधा घंटा पहले समझ आ गई है, वे उस पर हैरान होती रहें.

फिल्म की शुरुआत के एक सपने के सीन में कहीं-कहीं फिल्म अपने आप पर और सुपरहीरो की अवधारणा पर हंसती है. फिल्म उसी लाइन पर चलती तो एक कामचलाऊ व्यंग्य बन सकती थी, सुपरहीरो फिल्म होते हुए भी, जैसी दबंग कहीं-कहीं होती है- मसाला फिल्म जो कहीं-कहीं मसाला फिल्मों पर हंस देती है. बाकी तो क्या है कि सड़क है, कारें हैं जिन्हें तोड़ा जाना है, ऊंची इमारतें हैं जिन पर हमारा सुपरहीरो अपने सुपरविलेन के साथ कूदता-फांदता है और कहीं-कहीं पारिवारिक आंसूड्रामा है.

रा.वन एक विज्ञान गल्प है और यह देर तक विज्ञान की बातें भी करती है लेकिन सब खोखली. इसके विचार को इसके स्पेशल इफैक्ट्स कच्चा चबा गए हैं. कहानी के स्तर पर यह बच्चों की किसी भी साधारण ऐक्शन कॉमिक से कमतर है. आपकी मानसिक आयु दस साल से अधिक हो तो रा.वन देखने तभी जाएं जब हवा में लड़ रहे शाहरुख खान को देखकर आपको कुछ-कुछ होने की संभावना हो.

– गौरव सोलंकी

जब वह अंधा युग अवतरित हुआ

‘उस भविष्य में /  धर्म-अर्थ ह्रासोन्मुख होंगे / क्षय होगा धीरे-धीरे सारी धरती का /  सत्ता होगी उनकी / जिनकी पूंजी होगी / जिनके नकली चेहरे होंगे / केवल उन्हें महत्त्व मिलेगा / राज्यशक्तियां लोलुप होंगी /  जनता उनसे पीड़ित होकर / गहन गुफ़ाओं में छिप-छिप कर दिन काटेगी.’

धर्मवीर भारती का काव्य नाटक ‘अंधा युग’ न जाने कब रचे गए विष्णु पुराण की इन्हीं पंक्तियों से शुरू होता है. इस डरावनी भविष्यवाणी को धर्मवीर भारती जैसे हमारे समय पर बिल्कुल प्रत्यारोपित कर डालते हैं. देशकाल और परंपरा की अचूक और विलक्षण पहचान के साथ वे महाभारत का पूरा महाकाव्य फलांग कर उसके बिल्कुल आखिरी सिरे तक पहुंचते हैं जहां युद्ध खत्म हो चुका है, थकी-हारी, घायल और आर्तनाद करती लुंज-पुंज, बची-खुची सेनाएं नगर लौट रही हैं, दुर्योधन एक सरोवर के तल में दम साधे बैठा है, धृतराष्ट्र को पहली बार आशंका व्याप रही है और गांधारी पहली बार क्रोध और अनास्था की विह्वलता में जल रही है.

युद्ध से अठारहवें और आखिरी दिन से लेकर कृष्ण की मृत्यु तक की यह कथा धर्मवीर भारती के काव्य नाटक में इतनी सारी द्वंद्वात्मकताओं के साथ खुलती है कि उसमें एक पूरा सभ्यता विमर्श पढ़ा जा सकता है. नाटक में युधिष्ठिर के अर्धसत्य को प्रतिशोध के अपने सत्य में बदलने को उद्धत पशुवत अश्वत्थामा है, अपनी दिव्य दृष्टि खोने से पहले उसकी व्यर्थता समझता संजय है, दुर्योधन की जय बोलता याचक की तरह झूठा भविष्य है, सत्य का साथ देने के अपराध में अपनों की भर्त्सना झेलता युयुत्सु है और वे कृष्ण हैं जिनके आगे सितारों की गति झूठी पड़ जाती है. आस्था और अनास्था का, नैतिकता और व्यावहारिकता का, मूल्यों और स्वार्थ का, चरित्रों का जैसा तीखा और नाटकीय टकराव और तनाव इस नाटक में उपस्थित है वह अन्यत्र दुर्लभ है.

जिस कृति के भीतर पाठ की इतनी जटिल और संश्लिष्ट तहें मौजूद हों, उसका मंचन आसान नहीं

जिस कृति के भीतर पाठ की इतनी जटिल और संश्लिष्ट तहें मौजूद हों, उसका मंचन आसान नहीं. इसी कौंधती हुई जटिलता की वजह से यह नाटक अभिनेताओं और निर्देशकों को बार-बार अपनी तरफ खींचता है. वे जैसे इसमें अपने हिस्से का महाभारत खोजने आते हैं, कभी पाते हैं, कभी गंवाते हैं और कभी-कभी नए सिरे से समझते और सिरजते भी हैं.

लेकिन बड़ी कृतियों के तनाव मंच पर नहीं, मन के भीतर घटित होते हैं. जिन गहन गुफाओं के जिक्र से नाटक शुरू होता है, वे हमारे भीतर होती हैं जिनमें हमारी पशुता भी सोती है, हमारी मनुष्यता भी. क्या इन गह्वर गुफाओं को, क्या इस अंदरूनी तनाव को मंच पर प्राप्त और संप्रेषित किया जा सकता है? क्या अपने अंधेपन की सीमाओं के आत्मस्वीकार में लीन कोई धृतराष्ट्र बिल्कुल हाड़-मांस का होकर हमारे भीतर उतर सकता है? क्या अश्वत्थामा की बर्बरता या संजय की बेबसी या गांधारी का द्वंद्व ऐसे अभिनेय हिस्से हैं जिन्हें ज्यों का त्यों उनके तनाव और उनकी विह्वलता के बीच पकड़ा और प्रस्तुत किया जा सके? 

ये सारे सवाल मेरे भीतर इस महीने भानु भारती का अंधा युग देखते हुए उठते रहे. इस नाटक में उत्तरा बावकर और मोहन महर्षि जैसे समर्थ अभिनेताओं ने अभिनय किया है. नाटक के मंचन के लिए भानु भारती ने फिरोजशाह कोटला के किले की भग्न प्राचीरों के बीच की जगह चुनी – वही जगह जहां 1963 में अब्राहिम अल्काजी ने इस नाटक का भव्य मंचन किया था. निश्चय ही यह सब कुछ बहुत उदात्त था. किले के बगल में फिरोजशाह स्टेडियम में लगे टावरों से आ रही, बहुत हल्का व्यवधान डालती रोशनी के बावजूद, दिल्ली के शोर-शराबे से दूर, नाटक देखने के लिए पुरानी दीवारों और पुराने मेहराबों को पार करके बनाए गए मंच तक पहुंचना सुखद था. मुख्य मंच से कुछ ऊपर दाईं तरफ एक कतार में खडे़ गायक वृंद के गायन से नाटक शुरू हुआ, मुख्य मंच पर बैठे धृतराष्ट्र की व्याकुलता और गांधारी की हताशा को छूता हुआ, दाईं तरफ दूर बनी उन गुफ़ाओं तक जा पहुंचा जहां कौरव सेना के आखिरी तीन सैनिक अश्वत्थामा, कृत वर्मा और कृपाचार्य अपने-अपने द्वंद्व और अनिश्चय के बीच उलझे हुए थे. इस दौरान और इसके बाद अंधा युग के वे सारे प्रसंग आते-जाते रहे जो हमारे भीतर अलग-अलग अवसरों पर घुमड़ा करते हैं. अश्वत्थामा के भीतर जो कुछ भी कोमल और शुभ्र था, उसकी भ्रूण हत्या युधिष्ठिर के अर्धसत्य ने कर दी है, और अपना धनुष तोड़कर विक्षिप्त-सा घूमता अश्वत्थामा अपने सत्य और अपनी नियति की तलाश में है. जिधर सत्य होगा, उधर जीत होगी, यह मानने और बताने वाली गांधारी यह देखकर हतप्रभ है कि सत्य किसी भी तरफ नहीं था और जिसे दुनिया प्रभु कहती है वह भी प्रवंचक निकला. युद्ध से ठीक पहले सत्य का पक्ष समझ कर पांडवों के साथ लड़ने वाला गांधारीपुत्र युयुत्सु पा रहा है कि वह नितांत अकेला और अपनों की ही घृणा और डर का पात्र है.

किसी निर्देशक की एक चुनौती यह भी होती है कि वह अपना एक ऐसा पाठ तैयार करे जो देखने वालों के भीतर किसी नव्यता, किसी उपलब्धि का बोध कराए

लेकिन क्या सारा नाटक, इससे पैदा होने वाला सारा तनाव लगभग उसी तरह घटित हो रहा था जैसा वह मेरे भीतर न जाने कितने वर्षों से मौजूद है? क्या वह उस तरह घटित हो सकता था? हम सबके भीतर शब्दों और भावों की अपनी-अपनी छवियां होती हैं जो अपनी तरह की अभिव्यक्ति चाहती हैं. मेरी गांधारी  विक्षोभ और करुणा के ऐसे रसायन से बनती है जिसमें ऊपर भले क्रोध हो, लेकिन जिसके अतल में बहुत गहरा दुख हो, और उससे भी गहरे एक भरोसा कि जो कुछ घटा है, अंततः सत्य को उसी से बनना है.
ऐसी गांधारी मुझे नहीं मिली. जो मिली उससे निराशा नहीं है, क्योंकि भानु भारती और उत्तरा बावकर की गांधारी भी अपनी तरह से एक पाठ बनाती है. बल्कि कृष्ण के शाप स्वीकार कर लेने के बाद तो फूट-फूट कर रोती गांधारी बिल्कुल वही थी जो मेरे भीतर थी. इसी तरह मेरे भीतर मौजूद धृतराष्ट्र की विडंबना कहीं ज्यादा गहरी है- मोहन महर्षि के धृतराष्ट्र का रंग कुछ अलग-सा है .

यह भानु भारती निर्देशित या उत्तरा बावकर और मोहन महर्षि अभिनीत नाट्य प्रस्तुति की समीक्षा या आलोचना नहीं है. यह उस द्वंद्व को समझने की कोशिश है जो लेखन और मंचन के बीच पैदा होता है.धर्मवीर भारती ने यह नाटक मूलतः रेडियो के लिए लिखा था जिसकी नाट्य संभावनाओं ने कई निर्देशकों को लुभाया कि वे इसका मंचन करें. रेडियो पर पता नहीं, आखिरी बार इसका प्रसारण कब हुआ, लेकिन मंच पर न जाने किन-किन शहरों में, किन-किन निर्देशकों ने इसे अपने ढंग से मंचित करने की कोशिश की. इब्राहिम अल्काजी और भानु भारती के बीत सत्यदेव दुबे से लेकर एमके रैना और ढेर सारे दूसरे रंग निर्देशकों के मंचन हैं जिनकी प्रशंसा और आलोचना में न जाने कितना कुछ कहा गया.

लेकिन शिल्प के स्तर पर देखें तो अंधा युग की असली चुनौती क्या है? इस नाटक में जो तनाव है, जो नाटकीयता है, वह अभिनय की नहीं, स्थितियों की है. यही बात इसकी भव्यता या उदात्तता के बारे में कही जा सकती है. नाटक युद्धभूमि या महल या नगर में घटित होता है- लेकिन वे बस उपादान हैं- जो घटित हो रहा है उसकी पृष्ठभूमि मात्र. फिर दुहराना होगा कि इस नाटक का वास्तविक उदात्त तत्व उस युद्ध में है जो चरित्रों के भीतर और हमारे भीतर लगभग साथ-साथ घटित हो रहा होता है.

शायद यह भी वजह है कि इस नाटक की कोई भी प्रस्तुति हमें पूरी तरह संतुष्ट नहीं छोड़ती. दूसरी बात यह कि धर्मवीर भारती ने इस नाटक में जितने तनाव पैदा किए हैं, जितने प्रश्न खड़े किए हैं, उतने उत्तर नहीं खोजे हैं. वे आस्था और अनास्था के द्वंद्व में आखिरकार आस्था का हाथ पकड़ कर खड़े हो गए हैं- कृष्ण की मृत्यु जैसे अश्वत्थामा का भी निर्वाण है- उसकी भी अपने जख्मों से मुक्ति है.लेकिन शायद इसी वजह से अचानक आखिरी सिरे पर आकर यह नाटक हमें कुछ अनिश्चय में छोड़ जाता है. मगर क्या ज्यादातर बड़ी कृतियां यही काम नहीं करतीं? वे प्रश्न खड़े करती है, उनके निर्णायक या अंतिम उत्तर नहीं देतीं. यही वजह है कि हर निर्देशक इस नाटक की अपनी तरह से व्याख्या करने की कोशिश करता है. भानु भारती ने भी इस नाटक का भरपूर संपादन किया है. उन्होंने कई प्रसंग छोड़ दिए हैं जो अंधा युग के किसी प्रतिबद्ध पाठक को खल सकते हैं. फिर ऐसा भी लगता है कि इस संपादन के पीछे नाटक की व्याख्या से ज्यादा दबाव प्रस्तुति की सुविधा और सीमाओं का है.

निश्चय ही रचना और मंचन के बीच- पाठ और प्रस्तुति के बीच- हमेशा एक फांक रह जाती है और हर पाठक या दर्शक का अपना एक पाठ, अपना एक मंचन होता है, लेकिन किसी निर्देशक की एक चुनौती यह भी होती है कि वह अपना एक ऐसा पाठ तैयार करे जो देखने वालों के भीतर किसी नव्यता, किसी उपलब्धि का बोध कराए. भानु भारती इस प्रस्तुति की बहुत सारी विशेषताओं के बावजूद इस स्तर पर हमें कुछ निराश करते हैं. बहरहाल, ऐसा नहीं कि दिल्ली में अंधा युग का नए सिरे से मंचन कोई बड़ी सांस्कृतिक परिघटना हो. दिल्ली एक तरह से संस्कृतिकर्म की भी राजधानी है- वहां लगभग रोजाना संगीत, नृत्य, साहित्य और रंगमंच से जुड़ी गतिविधियां किसी भी दूसरे शहर के मुकाबले कहीं ज्यादा घटित होती हैं. यह अलग बात है कि इन सब पर भी एक तरह की सांस्थानिक जड़ता हावी है, जो इस वजह से कुछ और बड़ी हो जाती है कि बाकी दिल्ली इसे देखने, सुनने, इसका आस्वाद लेने को तैयार नहीं. यह एक तरह से संजय की ही पीड़ा रह जाती है- उन अंधों के सामने सत्य कहने की मजबूरी जो इसे देखने और महसूस करने लायक नहीं. देखें, यह अंधा युग कब तक चलता रहता है. 

सरकार और चैनलों की नूराकुश्ती

हर सरकार पालतू मीडिया पसंद करती है. अगर पालतू न भी हो तो भौंकने वाला नहीं होना चाहिए. भौंकने वाले न्यूज मीडिया को कोई सरकार बर्दाश्त नहीं कर पाती. यूपीए सरकार भी अपवाद नहीं है. वह न्यूज चैनलों खासकर अंग्रेजी और हिंदी के कुछ चैनलों की भ्रष्टाचार विरोधी अति उत्साही रिपोर्टिंग से खासी नाराज है. उसे लगता है कि भ्रष्टाचार खासकर 2जी से लेकर कॉमनवेल्थ घोटाले जैसे मामलों में न्यूज चैनलों की वजह से न सिर्फ उसकी काफी फजीहत हुई है बल्कि सरकार की साख को झटका लगने से गवर्नेंस पर भी बुरा असर पड़ा है. नतीजा, नाराज सरकार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर नियंत्रण की कोशिश में है. यह भी कोई नयी बात नहीं. ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब मीडिया के खुलासों से नाराज सरकारों ने उसे नियंत्रित करने की कोशिश की है. इस रणनीति के तहत सरकार ने चैनलों की लगाम अपने हाथ में रखने के लिए उनके लाइसेंस की शर्तें कड़ी करने के साथ-साथ उनके लाइसेंस का दस साल में पुनर्नवीनीकरण जरूरी कर दिया है. इस पुनर्नवीनीकरण के लिए यह शर्त होगी कि उन पर केबल टीवी नेटवर्क्स रेगुलेशन कानून के प्रोग्राम और विज्ञापन कोड में उल्लिखित प्रावधानों का पांच या उससे अधिक बार उल्लंघन करने के मामलों में कार्रवाई नहीं हुई हो.

आश्चर्य नहीं कि सरकार के ताजा फैसलों का विरोध करने वाले न्यूज चैनल स्वतंत्र नियामक की मांग नहीं कर रहेकहने की जरूरत नहीं है कि न्यूज चैनलों ने प्रोग्राम और विज्ञापन कोड के किस प्रावधान का और कब उल्लंघन किया और उन पर क्या कार्रवाई होनी चाहिए, इसका फैसला पूरी तरह से सरकार का होगा. मतलब यह कि मीडिया पर ‘आरोपकर्ता, अभियोगकर्ता और जज’ तीनों की भूमिका खुद निभाने का आरोप लगाने वाली सरकार न्यूज चैनलों के साथ जैसे को तैसा की तर्ज पर वही करने जा रही है. इस कारण स्वाभाविक तौर पर सरकार की असली मंशा को लेकर आशंका पैदा होती है. यह आशंका इस तथ्य से और बढ़ जाती है कि जिस प्रोग्राम और विज्ञापन कोड को चैनलों की लक्ष्मण रेखा बताया जा रहा है उसमें बहुत कुछ ऐसा है जिसकी मनमानी व्याख्या की जा सकती है. उसका दायरा बहुत व्यापक है और अगर मंत्रालयों में बैठे बाबुओं ने चैनलों को काबू में करने के इरादे से उसकी उदार व्याख्या शुरू कर दी तो न्यूज चैनलों के दफ्तरों में नोटिसों की भरमार लग जाएगी.

संदेश साफ है. सरकार को भौंकने वाले न्यूज चैनल पसंद नहीं हैं. लेकिन मुश्किल यह है कि जनतंत्र भौंकने वाले न्यूज मीडिया और चैनलों के बिना चल नहीं सकता. असल में, जनतंत्र को जीवंत, गतिशील और भागीदारीपूर्ण बनाने के लिए जरूरी है कि न्यूज मीडिया और चैनल सक्रिय पहरेदार की भूमिका निभाएं. लेकिन अगर पहरेदार चोर को देखकर शोर न मचाए तो ऐसे पहरेदार का क्या फायदा? उससे चोर भले खुश हो लेकिन पहरेदार के मालिकों का नुकसान तय है. लेकिन मुश्किल सिर्फ यह नहीं है कि सरकार भौंकने वाले चैनलों से नाराज है और उन्हें काबू में करने के बहाने और तरीके खोज रही है बल्कि यह भी है कि आजादी के नाम पर अधिकांश चैनल असली चोरों के खिलाफ कम और ज्यादातर समय बेमतलब भौंकते रहते हैं.

इस अहर्निश नौटंकी से दर्शकों का ध्यान बंट रहा है जिसका फायदा चोर उठा रहे हैं. इससे दर्शकों में भी खासी नाराजगी है. सरकार को यह पता है. वह इस नाराजगी का फायदा उठाकर चैनलों का मुंह बंद करना चाहती है. लेकिन सच यह है कि खुद सरकार को न्यूज चैनलों की इस नौटंकी से कोई शिकायत नहीं रही है. इसका सबूत यह है कि गाहे-बगाहे चैनलों के रेगुलेशन की बात करने के बावजूद सरकार ने कभी भी गंभीरता से यह प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ाया. असल में, वह चैनलों को नियंत्रित करने का अधिकार छोड़ना नहीं चाहती. दूसरे, वह नहीं चाहती है कि पांच ‘सी’ (सिनेमा, क्रिकेट, क्राइम, कॉमेडी और सेलेब्रिटी) में उलझे न्यूज चैनल वास्तविक खबरों और सरकार की खबर लेने की ओर लौटें और उसकी नींद हराम करें. सरकार और चैनलों के बीच एक अलिखित-सी सहमति रही है कि दोनों एक-दूसरे को एक सीमा से अधिक परेशान नहीं करेंगे.

लेकिन ऐसा लगता है कि पिछले कुछ महीनों में कुछ चैनलों के आक्रामक भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के कारण यह सहमति टूट गई है. इससे सरकार को एक बार फिर न्यूज चैनलों के रेगुलेशन की जरूरत महसूस होने लगी है. लेकिन रेगुलेशन को लेकर वह कतई गंभीर नहीं है. अगर होती तो एक स्वतंत्र, स्वायत्त और प्रभावी प्रसारण नियामक के गठन के लिए ईमानदारी से प्रयास करती. ऐसे नियामक की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है जो सरकार और मीडिया उद्योग दोनों से स्वतंत्र और स्वायत्त हो और जिसमें आम दर्शकों की भी निश्चित और महत्वपूर्ण भूमिका हो. लेकिन सरकार सिर्फ रेगुलेशन के डंडे का भय दिखाकर चैनलों को साधना चाहती है. इसीलिए वह रेगुलेशन का अधिकार अपने पास रखना चाहती है. न्यूज चैनल भी स्वतंत्र और स्वायत्त नियामक के पक्ष में नहीं हैं. उन्हें मालूम है कि ऐसे नियामक से निपटना मुश्किल होगा. उन्हें पता है कि सरकार से लेन-देन और डील संभव है लेकिन स्वतंत्र नियामक को झांसा देना आसान नहीं होगा.  

'अन्ना हमारे नेता हैं. मैं तो बस उन्हें दफ्तरी मदद उपलब्ध करवाता हूं'

अरब दुनिया में आई क्रांति की लहर की तरह शुरू हुआ अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अब एक अलग दिशा में जाता दिख रहा है. यह दिशा बिखराव और साख में गिरावट की है. गिरावट कई मोर्चों पर देखने को मिल रही है. पहला मोर्चा तो एकजुटता का ही है. कश्मीर पर प्रशांत भूषण के बयान के बाद उनके साथ कुछ लोगों द्वारा हुई मारपीट के बाद बाकी टीम ने इस कृत्य की भर्त्सना तो की मगर साथ ही यह भी जोड़ा कि भूषण को कोई भी बयान देने से पहले भली-भांति सोच लेना चाहिए. फिर टीम अन्ना के एक और चर्चित सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र कुमार यह कहते हुए इससे अलग हो गए कि अरविंद केजरीवाल इसमें अपनी तानाशाही चला रहे हैं. अभी हाल ही में टीम के एक और सदस्य कुमार विश्वास ने अन्ना को पत्र लिखकर लोकपाल पर बनी कोर कमेटी को भंग करने की मांग कर डाली. यह बता रहा है कि टीम अन्ना की सीवन उधड़ रही है.
टीम के सदस्यों की नैतिकता पर भी सवाल उठ रहे हैं. आंदोलन के एक और जाने-माने चेहरे किरण बेदी के बारे में ढाई दर्जन ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें आरोप लगा है कि उन्होंने अपने आयोजकों से हवाई टिकट के असल खर्चे से ज्यादा रकम वसूली. उन्होंने इकोनॉमी क्लास में सफर किया और बिजनेस क्लास का भाड़ा वसूल किया. उधर अरविंद केजरीवाल पर आरोप लग रहे हैं कि वे चंदे की राशि का हिसाब नहीं दे रहे. दूसरी तरफ, हिसार उपचुनाव में टीम अन्ना द्वारा कांग्रेस के विरोध के बाद इस आंदोलन से जुड़े वे लोग भी पसोपेश में हैं जो अब तक आंदोलन को पूरी तरह से अराजनीतिक मानकर इसमें निष्ठा से हिस्सा ले रहे थे. 
भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए इस आंदोलन के बारे में अब यह भी कहा जा  रहा है  कि लोकपाल के लिए शुरू हुआ आंदोलन अपनी दिशा से भटकने लगा है. आंदोलन को एकजुट रखने की चुनौतियों, इसकी आगे की दिशा और इसे चला रही टीम पर लग रहे तमाम आरोपों पर  अरविंद केजरीवाल से तहलका संवाददाता अतुल चौरसिया और  रेवती लाल की बातचीत के अंश :

इंडिया अगेन्स्ट करप्शन (आईएसी) ने हिसार चुनाव में लोकपाल को मुद्दा क्यों बनाया?

हिसार के कुछ लोग चुनाव से पहले मुझसे आकर मिले थे. उन्होंने मुझसे कहा कि हिसार चुनाव में लोकपाल को मुद्दा बनाना चाहिए.

लेकिन आपने इसे क्यों स्वीकार किया? यह तो आपके अपने विचारों का विरोधाभास ही दिखाता है. आप लोग हमेशा इसे अराजनीतिक आंदोलन कहते आ रहे थे.

हमने कभी नहीं कहा कि हम राजनीतिक नहीं हैं. हमने हमेशा कहा कि यह आंदोलन राजनीतिक है लेकिन पार्टी पॉलिटिक्स से परे है. यह चुनावी राजनीति नहीं है, यह जनता की राजनीति है.

आखिर यह चुनावी राजनीति कैसे नहीं है?

आप इसे चुनावी राजनीति कह सकते हैं, लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता. मैं इसे तब चुनावी राजनीति मानता जब मैं खुद चुनाव लड़ता.

अब यह मान लिया जाए कि आईएसी मौजूदा सरकार और कांग्रेस के खिलाफ है क्योंकि आंदोलन की शुरुआत में जब संयुक्त मसौदा समिति बनी थी तब आप बार-बार कहते थे कि यह आंदोलन सरकार और कांग्रेस के खिलाफ नहीं है.  हम अभी भी कांग्रेस और सरकार के खिलाफ नहीं हैं.

हम अभी भी कांग्रेस और सरकार के खिलाफ नहीं हैं

लेकिन आपने हिसार उपचुनाव से लेकर बांदा और लखनऊ की रैलियों में कांग्रेस को हराने की अपील की.

हम कांग्रेस के खिलाफ नहीं हैं. यह संयोग है कि कांग्रेस इस समय केंद्र में सरकार में है. बिल पास करना उनकी जिम्मेदारी है. हिसार चुनाव के बाद प्रधानमंत्री ने अन्ना को पत्र लिखकर बताया कि वे सशक्त लोकपाल बिल लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और संसद के शीतकालीन सत्र में इसे पेश किया जाएगा. अगर यह पत्र 10 दिन पहले आ जाता तो हम हिसार में अभियान नहीं चलाते. जब कांग्रेस ने हमें शीतकालीन सत्र में बिल लाने का पत्र देने से इनकार कर दिया तब हमारे मन में संदेह पैदा हुआ.

लेकिन रामलीला मैदान में आपने आंदोलन यह कहते हुए समाप्त किया था कि आपकी जीत हुई है और सरकार शीतकालीन सत्र में बिल पास करेगी. करोड़ों लोग इस बात के गवाह हैं.

यह कहां से पता चला आपको? जब अन्ना ने रामलीला मैदान में अनशन तोड़ा और संसद ने हमें पत्र दिया उसमें ‘शीतकालीन सत्र’ शब्द का कोई जिक्र नहीं था.

आपके मुताबिक जब अन्ना ने अपना अनशन तोड़ा तब भी आपकी जीत नहीं हुई थी?

यह आंशिक जीत थी.

तो आपने उसी वक्त लोगों को क्यों नहीं बताया कि यह आंशिक जीत है? अगर आपको लगता था कि सरकार के वादे में कुछ खोट है तो आपने उसी वक्त लोगों को जानकारी क्यों नहीं दी?

अन्ना ने अपना अनशन यह कहकर शुरू किया था कि जन लोकपाल बिल को मानसून सत्र में पेश किया जाना चाहिए. जब हमारी सरकार से बातचीत शुरू हुई उस वक्त तक लाखों लोगों के सड़क पर उतरने के बावजूद सरकार हमें तवज्जो नहीं दे रही थी. हम जिसे 10 दिन का मान रहे थे वह आंदोलन सरकार के अड़ियल रवैये के कारण लंबा खिंचता गया. अंत में जब सरकार के साथ सहमति बनी तो स्वाभाविक रूप से सबने मान लिया कि शीतकालीन सत्र में ही बिल आएगा. यह एक गलतफहमी है.

गलतफहमी क्यों है? 

क्योंकि जब हमने हिसार उपचुनाव से पहले सभी पार्टियों से यह स्वीकृति मांगी कि वे शीतकालीन सत्र में जन लोकपाल बिल लाएंगे तब कांग्रेस ने इससे इनकार कर दिया. तब हमारे मन में यह आशंका जन्मी कि क्या ये लोग वास्तव में बिल लाने के इच्छुक हैं क्योंकि पहले भी ये लोग कई बार अपने बयानों से मुकर चुके हैं. हिसार उपचुनाव के बाद जब प्रधानमंत्री ने अन्ना को पत्र लिखा तो अन्ना ने उत्तर प्रदेश अभियान स्थगित करने का फैसला किया. पहले उनका उत्तर प्रदेश में 15 अक्टूबर से यात्रा का कार्यक्रम था.

तो फिर आप बार-बार उत्तर प्रदेश में यात्राएं क्यों कर रहे हैं?

हम लोगों को बता रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने अन्ना को पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने आश्वासन दिया है कि सरकार शीतकालीन सत्र में मजबूत लोकपाल बिल लाएगी. अगर सरकार अपने वादे से मुकरती है तो अन्ना जी फिर से कांग्रेस को वोट न देने की अपील जारी करेंगे.

आप कुलदीप बिश्नोई की जीत का श्रेय अपने अभियान को देंगे?

नहीं. हम किसी एक उम्मीदवार को समर्थन नहीं दे रहे थे. जब सुषमा स्वराज ने वहां लोगों से कहा कि अन्ना की टीम बिश्नोई के समर्थन में अभियान चला रही है तब हमने हर सभा में लोगों को बताया कि हमारा उनसे कोई लेना-देना नहीं है.

जब भाजपा इंडिया अगेन्स्ट करप्शन और जन लोकपाल बिल का समर्थन कर रही है तो फिर आप भाजपा के खिलाफ क्यों हैं?

हम किसी के खिलाफ नहीं है. मुद्दा यह है कि सत्ताधारी पार्टी को बिल पास करना है, इसलिए हमारा ध्यान उस पर है.

लोकपाल को संवैधानिक संस्था बनाए जाने के राहुल गांधी के विचार को आप किस रूप में देखते हैं? क्या इसे जन लोकपाल के पक्ष में मानते हैं?

देखते हैं. अगर सरकार लोकपाल को संवैधानिक संस्था बनाना चाहती है तो हमें कोई आपत्ति नहीं है. सबसे महत्वपूर्ण है एक मजबूत कानून.

रामलीला मैदान से लेकर हिसार चुनाव के दरमियान आईएसी के सदस्य जाने-माने चेहरे बन चुके हैं. साथ ही आप लोगों के खिलाफ कड़ी प्रतिक्रियाएं भी देखने को मिली हैं. आपके ऊपर जूता, प्रशांत के ऊपर हमला. आपको लगता है कि जनता में आपके खिलाफ गुस्सा है?

इसका जवाब आपके सवाल में ही छिपा है. हम लोग जो कुछ भी कहते हैं उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है.

कश्मीर पर प्रशांत भूषण के बयान के बाद आईएसी कोर कमेटी के सदस्यों के बीच मतभेद उभर आए हैं?

हां, उन्होंने खुद ही कहा है कि ये उनके निजी विचार हैं. ज्यादातर कोर कमेटी के सदस्यों के विचार उनसे भिन्न हैं और उन्होंने इसका सम्मान भी किया है.

ठीक बात है, लेकिन किसी सार्वजनिक स्थान पर अपना व्यक्तिगत विचार भी सार्वजनिक ही माना जाता है. क्या इन मतभेदों के चलते भूषण कोर कमेटी से अलग होने के लिए तैयार थे?

कभी नहीं.

लखनऊ में आपके ऊपर जूता फेंकने वाले को आईएसी के सदस्यों ने जमकर पीटा. यह क्या कहानी थी?

जब उसे पीटा गया तब मैं मंच पर नहीं था. लेकिन मैंने न सिर्फ अपनी टीम से कहा बल्कि मैं खुद उसे पिटाई से बचाने के लिए गया.

आपका आंदोलन जिस ऊंची नैतिकता का हवाला दे रहा था अब उस पर भी सवाल उठ रहे हैं. आपकी सबसे अहम सहयोगी किरण बेदी पर हवाई यात्रा के टिकटों की कीमत से ज्यादा किराया वसूलने के आरोप लग रहे हैं. इकोनॉमी दर्जे में सफर करके बिजनेस दर्जे का किराया वसूलने के आरोप लग रहे हैं.

हमारा आंदोलन बेहद अहम पड़ाव पर है. हमारे ऊपर हर तरफ से आरोपों की बौछार हो रही है. चरित्र हनन से लेकर मारपीट तक हो रही है. पर हम फिर भी मजबूती से खड़े हैं.

लेकिन आपको नहीं लगता कि इस तरह की धोखाधड़ी के आरोपों से घिरे किसी व्यक्ति को भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करने का अधिकार नहीं है?

120 करोड़ लोगों से पूछ लीजिए जो इस आंदोलन का हिस्सा हैं. क्या वे सभी पूरी तरह से पाक-साफ हैं? और क्या इतने भर से उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार नहीं रह जाता? क्या यही लोकतंत्र है?

आपके मुताबिक किरण बेदी के खिलाफ हवाई टिकटों में घालमेल के जो आरोप लगे हैं, क्या वे गलत हैं?

जांच कर लीजिए. मैं इस चक्कर में नहीं पड़ना  चाहता क्योंकि सरकार की शायद यही मंशा है. आप देखिए, इसका क्या असर हो रहा है. हमारी प्रेस वार्ताओं और सभाओं में आने वाले लोग अब जन लोकपाल की बात नहीं करते, वे किरण बेदी की बात करते हैं, प्रशांत और कश्मीर की बात करते हैं, अरविंद केजरीवाल के इन्कम टैक्स नोटिस की बात करते हैं. सबका ध्यान ही भटका दिया गया है. अगर किरण या अरविंद ने कोई गलत काम किया है तो उनकी जांच कीजिए, उन्हें सजा दीजिए.

इन दिनों आंदोलन में फूट की खबरें भी आ रही हैं. राजेंद्र सिंह ने यह आरोप लगाते हुए कोर ग्रुप छोड़ दिया कि हिसार चुनाव में हिस्सा लेने के फैसले से वे सहमत नहीं थे. कौन आ रहा है, कौन जा रहा है इसका पता कैसे चलेगा?

जिस समय संयुक्त मसौदा समिति बनी थी उस समय इसमें पांच लोग थे- अन्ना, मैं, प्रशांत, शशि भूषण और संतोष हेगड़े. इसके अलावा किरण बेदी और स्वामी अग्निवेश बाहर से समर्थन दे रहे थे. वह दौर खत्म होने के बाद संगठन को व्यापक और संगठित करने की जरूरत थी. इसी के मद्देनजर कोर कमेटी का निर्माण हुआ. लेकिन राजेंद्र सिंह और पीबी राजगोपाल ने कोर कमेटी की एक भी बैठक में हिस्सा नहीं लिया. मुझे विश्वास है कि अगर उन लोगों ने एक भी बैठक में हिस्सा लिया होता तो उनके जाने की नौबत नहीं आती.

रामलीला मैदान में अन्ना के अनशन के दौरान स्वामी अग्निवेश और संतोष हेगड़े से आप लोगों का क्या विरोध हुआ था?

टीम के सदस्यों के बीच हमेशा से विचारों का मतभेद था और यह होना भी चाहिए.

हिसार चुनाव में उतरने को लेकर टीम के बीच मतभेद थे? अंतिम फैसला किसका था?

कोर कमेटी के ज्यादातर लोग हिसार में विरोध करने के पक्ष में थे. एक बात मैं साफ कर दूं. कोर कमेटी के अलावा एक वर्किंग कमेटी भी है. कोर कमेटी तो 24 लोगों की है और इसके सदस्य देश भर में फैले हैं. इसलिए हमें एक वर्किंग कमेटी की जरूरत पड़ी जिसके सभी सदस्य दिल्ली के निवासी हों ताकि किसी आपात स्थिति में तत्काल कोई पैसला लिया जा सके. इसमें छह लोग हैं- मैं, प्रशांत भूषण, मनीष सिसोदिया, किरण बेदी, अरविंद गौर और गोपाल राय.

ऐसा लगता है कि वर्किंग कमेटी से उन लोगों को बाहर रखा गया है जिनके विचार अलग हो सकते हैं?

ऐसा नहीं है. इसका निर्माण तत्काल निर्णय लेने के लिए किया गया है. इसका गठन अन्ना के गांव रालेगन सिद्धी में हुआ था.

स्वामी अग्निवेश के साथ क्या मतभेद थे?

मेरे खयाल से उनकी सीडी इसकी वजह रही. वे खुद छोड़कर गए. हमने उन्हें नहीं निकाला. मैं इस चक्कर में नहीं पड़ना चाहता कि सीडी सही थी या गलत.

आप मानेंगे कि जो टीम इस समय आईएसी के लिए काम कर रही है वह कमोबेश आपके अपने एनजीओ का ही विस्तारित रूप है. और इस समय आंदोलन की जो रूपरेखा है उसमें आपकी भूमिका ही सबसे अधिक है.

इसे समझने की जरूरत है. यह कोई दिल्ली आधारित आंदोलन नहीं है. यह राष्ट्रव्यापी है. इसमें मीडिया, एसएमएस, सोशल नेटवर्किंग की भी अपनी भूमिका है. हमारा दायित्व सिर्फ कार्यालयी सहयोग मुहैया करवाना है. हम निर्णायक नहीं है. फैसले लेने का अधिकार इससे अलग है.

तो इसे एकजुट रखने का काम अन्ना करते हैं या आप?

मेरे खयाल से अन्ना. अन्ना हमारे नेता है. मैं उन्हें सिर्फ दफ्तरी मदद उपलब्ध करवाता हूं.

आरोप है कि आप आंदोलन को मनमाने तरीके से चला रहे हैं, आप खुद से असहमति रखने वालों को बर्दाश्त नहीं करते.

मुझे नहीं पता कि इस तरह की बातें कौन फैला रहा है. ऐसा कुछ भी नहीं है.

तो आप कहना चाहते हैं कि आंदोलन पर आपके नियंत्रण की बातें गलत हैं?

बिल्कुल. ये बिल्कुल बेबुनियाद आरोप हैं. अगर किसी आंदोलन का नेतृत्व समावेशी नहीं होगा तो वह आगे नहीं बढ़ पाएगा. इस आंदोलन की ताकत 120 करोड़ लोग हैं. इनके सामने कोर कमेटी और वर्किंग कमेटी की कोई हैसियत नहीं है.

ये 120 करोड़ का आंकड़ा कहां से मिला?

यह जनता का आंदोलन कहने का एक तरीका है.

(सोनाली घोषाल और जननी गणेशन के सहयोग के साथ) 

'क्या देश अब भी मारुति में घर लौटना चाहता है?'

‘मैं चाहती हूं कि यह कार भारत के आम लोगों के काम आए… मैं उम्मीद करती हूं कि राष्ट्र निर्माण में इससे हर तरह से मदद मिलेगी और भारत के लोगों को इससे सुविधा होगी.’ पहली मारुति 800 कार की चाबी सेना में काम करने वाले हरपाल सिंह को सौंपते हुए यह बात भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कही थी. इंदिरा गांधी के लिए यह एक भावुक लम्हा था. आम आदमी के लिए कार बनाने का सपना उनके बेटे संजय गांधी ने देखा था. एक हवाई दुर्घटना में संजय की मृत्यु के बाद यह लगभग टूट ही गया था. लेकिन 14 दिसंबर, 1983 को संजय के जन्मदिन के मौके पर जब यह हकीकत में तब्दील हुआ तो उनकी मां का भावुक होना स्वाभाविक ही था. उस दिन से शुरू हुआ मारुति का सफर किस कदर आगे बढ़ा, यह एक इतिहास है. मारुति ने भारत में कारों को लेकर क्रांतिकारी परिवर्तन लाए. इस कंपनी ने भारत में कार की सवारी करने वाली जमात को इसकी कई ऐसी खूबियों से वाकिफ कराया जिनसे वे तब तक अनजान थे. देश में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो मारुति से भावनात्मक तौर पर जुड़े हुए हैं. हालांकि, पिछले कुछ सालों में उद्योग जगत और खास तौर पर वाहन क्षेत्र में ऐसी स्थितियां बनी हैं जिसका ताप मारुति को भी सहना पड़ा है. दुनिया की कई बड़ी कंपनियों ने भारतीय बाजार में आक्रामक तरीके से दस्तक दी है. वहीं कुछ देसी कंपनियों ने भी बाजार में कदम रखा है. इससे मारुति के लिए अपने दबदबे को बनाए रखना पहले की तरह आसान नहीं रहा. लेकिन पिछले छह महीने में मारुति को सबसे बड़ी चुनौती कंपनी के अंदर से ही मिल रही है. पिछले छह महीने में कंपनी में हो रही लगातार हड़ताल ने न सिर्फ उत्पादन पर प्रतिकूल असर डाला है बल्कि ब्रांड मारुति पर नकारात्मक असर पड़ने की बात भी जानकार कर रहे हैं.

पिछले छह महीनों में ही मारुति में चार बार हड़ताल हुई है. जबकि इसके 30 साल के इतिहास में ऐसा केवल सात मर्तबा ही हुआ है

इन छह महीनों के दौरान ही मारुति की मानेसर इकाई में चार बार हड़ताल हुई है. जबकि इसके 30 साल के इतिहास में ऐसा केवल सात मर्तबा ही हुआ है. आखिर वे कौन-सी परिस्थितियां हैं जिनकी वजह से ऐसा हुआ और लगा कि कभी भारतीय उद्योग जगत में सितारे की तरह चमकने वाली कंपनी की चमक अब फीकी पड़ती जा रही है. मारुति में काम करने वालों ने इस साल पहली बार हड़ताल की शुरुआत चार जून को की और जब 21 अक्टूबर को हालिया और साल की चौथी हड़ताल खत्म हुई तब तक कंपनी के 61 कामकाजी दिन हड़ताल की भेंट चढ़ गए थे. बाजार के जानकारों और खुद मारुति कंपनी ने इतने कामकाजी दिनों के बर्बाद होने की वजह से कंपनी को होने वाले नुकसान को तकरीबन दो हजार करोड़ रुपये आंका. ब्रांडिंग के लिहाज से मारुति को हुए नुकसान, अन्य आर्थिक नुकसान और इससे किन कंपनियों को फायदा मिल रहा है, यह जानने से पहले हड़ताल की मूल वजहों को जानना जरूरी है.

उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के अंतराम शर्मा पिछले चार साल से मारुति में काम कर रहे हैं. मारुति की मानेसर इकाई के गेट नंबर तीन के बाहर टेंट लगाकर विरोध-प्रदर्शन करने वाले सैकड़ों मजदूरों में वे भी शामिल थे. हड़ताल के दौरान वे कहते हैं, ‘मानेसर इकाई में तकरीबन 3,500 लोग काम करते हैं. इनमें से हर कोई यही कहेगा कि वह शोषण से त्रस्त है. नौ घंटे की शिफ्ट में हमें आधे घंटे का लंच ब्रेक दिया जाता है. कैंटीन ऐसी जगह पर है कि वहां पहुंचने में ही सात-आठ मिनट लग जाते हैं. आने में भी इतना ही वक्त लगता है. ऐसे में हम ठीक से खाना भी नहीं खा पाते.’ मूलतः दिल्ली के रहने वाले और पिछले पांच साल से मारुति की मानेसर इकाई में काम कर रहे गजेंद्र सिंह कहते हैं, ‘नौ घंटे की शिफ्ट में साढ़े सात मिनट के दो ब्रेक मिलते हैं. इसी में आपको पेशाब भी करनी है और चाय-बिस्कुट भी खाने हैं. ज्यादातर मौकों पर तो एक हाथ में चाय और एक में बिस्कुट लिए हम शौचालय में खड़े होते हैं.’ पास ही खड़े राजस्थान के अलवर से आकर मारुति में पिछले छह साल से काम करने वाले राजेंद्र सिंह बोल पड़ते हैं, ‘कई बार तो ऐसा होता है कि घंटी बजने के बाद वर्क स्टेशन से हटने में एक मिनट लग जाता है. क्योंकि अगर कन्वेयर मशीन पर कोई कार आ गई हो तो आपको उसका काम करना ही पड़ेगा. वहीं काम दोबारा शुरू करने के लिए मशीन के पास एक मिनट पहले पहुंचना पड़ता है. इस तरह से हमारे पास चाय-बिस्कुट और पेशाब के लिए सिर्फ पांच मिनट का वक्त होता है.’

मजदूरों के आरोपों पर कंपनी की राय लेने के लिए ‘तहलका’ ने मारुति के चेयरमैन आरसी भार्गव से संपर्क साधने की कई बार कोशिशें कीं. लेकिन हर बार उनके कार्यालय से यह कहा गया कि वे अभी उपलब्ध नहीं हो पाएंगे. कुछ दिन पहले एनडीटीवी से बातचीत में उन्होंने साढ़े सात मिनट के ब्रेक को सही ठहराते हुए कहा था कि यह जापानी कार्यपद्धति का हिस्सा है और इसे 1983 में ही अपनाया गया था इसलिए मजदूरों को अब इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. उन्होंने मजदूरों पर आरोप लगाया कि वे आठ घंटे की शिफ्ट में पांच घंटे से ज्यादा काम ही नहीं करना चाहते. ये वही भार्गव हैं जिन्होंने अगस्त के आखिरी दिनों में वित्त वर्ष 2010-11 की सालाना रिपोर्ट पेश करते हुए कंपनी के कर्मचारियों को इसका सबसे बड़ा संसाधन और धरोहर बताया था. उनका कहना था, ‘हमारे सबसे बड़े संसाधन और धरोहर हमारे कर्मचारी हैं. हम हमेशा से इस संसाधन की संभावनाओं को विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध रहे हैं क्योंकि ये न सिर्फ अपने और कंपनी के लिए फायदे की स्थिति बनाते हैं बल्कि निवेशकों को भी लाभ पहुंचाते हैं. जून, 2011 में मानेसर में दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियां पैदा हो गई थीं, लेकिन हम इससे सबक लेकर अपने श्रमिकों के साथ उत्पादक और लाभकारी रिश्ते विकसित करने के अपने प्रयासों को दोगुना करेंगे.’

आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले एक साल में कार बाजार में मारुति की हिस्सेदारी में करीब 12 फीसदी की कमी आई है

छुट्टियों और मेडिकल सुविधाओं को लेकर भी मारुति की मानेसर इकाई में काम करने वाले मजदूरों में असंतोष है. प्रबंधन के खिलाफ चले अभियान में मजदूरों के बीच समन्वय बैठाने का काम कर रहे सुनील कुमार कहते हैं, ‘एक कैजुअल लीव लेने पर कंपनी प्रबंधन 1,750 रुपये तक हमारी पगार में से काट लेता है. महीने में आठ हजार रुपये तक छुट्टी करने पर काट लिए जाते हैं. अगर आपने चार दिन की छुट्टी ली और यह इस महीने की 29 तारीख से लेकर अगले महीने की दो तारीख तक की है तो आपके दो महीने के पैसे यानी 16,000 रुपये तक कट जाएंगे. आखिर यह कहां का न्याय है?’ दरअसल, कंपनी ने एचआर पॉलिसी इस तरह बनाई है कि पगार का एक बड़ा हिस्सा ‘अटेंडेंस रिवॉर्ड’ में डाल दिया गया है और अगर कोई एक दिन भी गैरहाजिर होता है तो इसमें 25 फीसदी तक की कटौती हो जाती है. गजेंद्र कहते हैं, ‘अगर कार बनाते समय किसी को चोट लग गई तो कंपनी वहां उसकी फर्स्ट-एड कर देती है. उसके बाद जो भी इलाज होगा वह खुद ही कराना पड़ेगा और इस वजह से कोई छुट्टी ली तो उसके पैसे कटेंगे.’

कंपनी की मानेसर इकाई में नियमित और ठेके पर काम करने वाले मजदूरों के बीच कई स्तरों पर होने वाला भेदभाव भी विवाद की एक वजह है. इस इकाई में तकरीबन 3,500 मजदूर काम करते हैं जिनमें से करीब 2,000 ठेके पर काम करने वाले हैं. उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के मनोज कुमार वर्मा ऐसे ही मजदूरों में से हैं. वे तीन साल से यहां काम कर रहे हैं. वे बताते हैं, ‘नियमित मजदूरों की मासिक पगार 16,000 रुपये है. जबकि ठेके पर काम करने वाले हम जैसे लोगों को हर महीने सिर्फ 6,500 रुपये मिलते हैं. वहीं अप्रेंटिस के तौर पर काम करने वालों को मात्र 4,200 रुपये मासिक मिलते हैं. इसके अलावा मेडिकल और बस की सुविधा भी हमें नहीं मिलती.’ एक अन्य ठेका मजदूर हरेंद्र कहते हैं, ‘प्रबंधन को लगता है कि इन्हें तो कभी भी निकाला जा सकता है. इसलिए वे लोग हमसे काफी गाली-गलौज भी करते हैं.’

इन्हीं सब वजहों से धीरे-धीरे मारुति के मानेसर संयंत्र में मजदूरों के बीच असंतोष बढ़ता गया. उन्हें लगा कि अगर वे अपनी मजदूर यूनियन बना लेंगे तो उनकी  समस्याओं का हल हो जाएगा. मजदूरों के इस अभियान को आगे बढ़ाने के लिए गठित समिति के सदस्य सुनील दत्त कहते हैं, ‘हमने तीन जून, 2011 को हरियाणा सरकार के श्रम विभाग में यूनियन बनाने के लिए आवेदन किया. इसके तुरंत बाद कंपनी प्रबंधन ने मजदूरों को नौकरी से निकालने की धमकी देने की शुरुआत कर दी. प्रबंधन ने हरियाणा सरकार के नाम एक पत्र तैयार किया कि मानेसर इकाई के मजदूर कोई यूनियन नहीं चाहते हैं और गुड़गांव की यूनियन से ही खुश हैं. जब मजदूरों ने इस पर दस्तखत करने से मना किया तो धमकियां और बढ़ गईं. मजबूरन हमें चार जून से हड़ताल पर जाना पड़ा.’ हड़ताल 13 दिन तक चली और मानेसर इकाई में उत्पादन पूरी तरह से बंद हो गया.

मारुति ने शुरुआत से ही भारत में कार चलाने वालों के सामने ऐसी चीजों को रखा जिनसे वे तब तक पूरी तरह से अनजान थे

बीच-बचाव के बाद यह हड़ताल खत्म हुई. इसके बाद एक दिन अचानक ही प्रबंधन ने मजदूरों से ‘गुड कंडक्ट बॉन्ड’  पर दस्तखत कराना शुरू कर दिया. कहा गया कि मजदूर जान-बूझकर धीरे-धीरे काम करते हैं और बात-बात पर हड़ताल पर जाने की धमकी देते हैं इसलिए इस शपथ पत्र को लाया गया है. इन आरोपों को खारिज करते हुए अंतराम शर्मा कहते हैं, ‘वाहन कंपनियों के काम-काज से वाकिफ कोई भी व्यक्ति ऐसे आरोपों पर हंसेगा. यहां जिस मशीन पर मजदूर काम करते हैं उसे कन्वेयर कहा जाता है जो हर मजदूर के प्लेटफॉर्म के सामने एक निश्चित समय तक रुकती है. कार के ढांचे में जिस मजदूर का जो काम होता है वह उसे इसी समय में पूरा करना पड़ता है. इस मशीन की गति हमेशा प्रबंधन का अधिकारी ही, इस आधार पर कि आज कितनी कारें बननी हैं, तय करता है.’

कंपनी के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक मानेसर इकाई की उत्पादन क्षमता सालाना पांच लाख कार बनाने की है, लेकिन यहां हर साल छह लाख कार तैयार की जा रही हैं. 2008-09 की तुलना में 2010-11 में मानेसर इकाई की उत्पादन क्षमता में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इससे भी यही बात साबित होती है कि धीमे काम करने का आरोप गलत है. मजदूरों का आरोप है कि यह शपथ पत्र एकतरफा था और इस पर दस्तखत करने के बाद मजदूरों के पास प्रबंधन के किसी भी गलत फैसले के विरोध का कोई अधिकार नहीं बचता. इसलिए 29 अगस्त, 2011 से मानेसर में एक बार फिर हड़ताल शुरू हो गई जो 33 दिन तक चली. इस दौरान पास के सुजूकी पावर ट्रेन, सुजूकी कास्टिक और सुजूकी मोटरसाइकिल के मजदूरों ने भी इन मजदूरों के समर्थन में दो दिन की हड़ताल की.

सुनील दत्त कहते हैं, ‘जब पहली अक्टूबर को हड़ताल खत्म होने के बाद हम काम पर गए तो कंपनी ने 94 निलंबित मजदूरों को काम पर वापस लेने से इनकार कर दिया. ठेके पर काम करने वाले 1,200 मजदूरों को भी काम पर वापस नहीं लिया गया.’ सुनील कुमार बताते हैं, ‘हमसे कंपनी ने हड़ताल खत्म कराते वक्त कहा कुछ और किया कुछ. कंपनी की तरफ से धोखा दिए जाने के बाद हमने सात अक्टूबर से एक बार फिर हड़ताल पर जाने का फैसला किया.’ यह हड़ताल 15 दिन तक चली. इस हड़ताल ने मारुति की गुड़गांव इकाई में भी उत्पादन ठप कर दिया. ऐसा इसलिए हुआ कि मानेसर में सुजूकी की अन्य तीन कंपनियां सुजूकी पावर ट्रेन, सुजूकी कास्टिक और सुजूकी मोटरसाइकिल के मजदूर भी अपने साथियों के समर्थन में हड़ताल पर चले गए. इनमें मारुति के उत्पादन के लिहाज से सबसे ज्यादा अहमियत रखती है सुजूकी पावर ट्रेन. इस कंपनी में कारों में इस्तेमाल होने वाला इंजन बनता है. इसलिए यहां की हड़ताल के बाद मारुति की गुड़गांव इकाई भी बंद हो गई.

हड़ताल के वक्त सुजूकी कास्टिक के गेट के सामने सैकड़ों मजदूरों के साथ प्रदर्शन कर रहे सुजूकी पावर ट्रेन मजदूर यूनियन के अध्यक्ष सुबेर सिंह यादव कहते हैं, ‘आपके यहां पहुंचने के कुछ देर पहले पास के खोगांव के सरपंच को गुंडों के साथ कंपनी के प्रबंधन ने हमें भगाने के लिए भेजा था. उन्होंने धमकी दी कि जल्दी हड़ताल खत्म करो नहीं तो ठीक नहीं होगा. कंपनी अपने ही मजदूरों के खिलाफ असामाजिक तत्वों का इस्तेमाल कर रही है.’ वे कहते हैं, ‘कंपनी ऐसा कोई पहली दफा नहीं कर रही है. सुजूकी मोटरसाइकिल के बाहर प्रदर्शन कर रहे मजदूरों पर वह असामाजिक तत्वों द्वारा नौ अक्टूबर को हमले करवा चुकी है. वहां तो गुंडों ने चार गोलियां भी चलाई थीं.’

मारुति प्रबंधन की इन्हीं गलतियों की वजह से मजदूरों को मिल रहे समर्थन का दायरा बढ़ता गया. आॅल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक), सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) और हिंद मजदूर सभा जैसे मजदूर संगठन भी इनके समर्थन में आ गए. सुजूकी के गृह-देश जापान में भी मजदूरों ने सुजूकी के मुख्यालय के सामने प्रदर्शन किया.’ अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में इंटरनेशनल डिस्कशन फोरम और लेबर वीडियो प्रोजेक्ट के साथ काम करने वाले राजेंद्र सहाय इन मजदूरों की कहानी दुनिया भर में पहुंचाने के मकसद से मानेसर पहुंचे. ‘तहलका’ से बातचीत में वे कहते हैं, ‘मानेसर के प्रदर्शन की अमेरिका में काफी चर्चा है. वहां के विभिन्न श्रम संगठन
अपने-अपने ढंग से मारुति मजदूरों के संघर्ष का समर्थन कर रहे हैं.’

कई दौर की वार्ता के बाद हरियाणा सरकार के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में प्रबंधन और मजदूर नेताओं के बीच जो समझौता हुआ उसकी जानकारी देते हुए मजदूरों के अभियान का नेतृत्व कर रहे सोनू गुर्जर कहते हैं, ‘कंपनी ने 64 निलंबित मजदूरों को बहाल करने का फैसला किया. 30 मजदूरों के बारे में अभी फैसला नहीं किया गया है. लेकिन इनका फैसला प्रबंधन और मजदूरों के प्रतिनिधि मिलकर दस दिन के भीतर करेंगे. ठेके पर काम करने वाले 1,200 मजदूरों को भी कंपनी काम पर वापस रखेगी.’ मजदूर यूनियन की मांग के बारे में वे कहते हैं, ‘इस पर अभी कोई अंतिम फैसला नहीं हुआ लेकिन एक शिकायत निवारण समिति बनाने पर सहमति बनी है.’ तो क्या अब मारुति में आने वाले दिनों में हड़ताल की आशंका खत्म हो गई, इस पर गुर्जर कहते हैं, ‘सब कुछ प्रबंधन के रवैये पर निर्भर करता है.’

इस समझौते के बाद मारुति की मानेसर इकाई में एक बार फिर से उत्पादन शुरू हो गया है, लेकिन बार-बार हुई हड़ताल से कंपनी को आर्थिक तौर पर नुकसान उठाना पड़ा है. वहीं विज्ञापन और ब्रांड की दुनिया से जुड़े लोगों का कहना है कि अगर कंपनी में आगे भी हड़तालें होती रहीं तो ब्रांड मारुति पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा. लेकिन पहले बात हड़ताल की वजह से मारुति की बिक्री पर पड़े नकारात्मक प्रभाव की. कंपनी के चेयरमैन आरसी भार्गव ने हड़ताल खत्म होने के बाद अपने बयान में कहा कि कंपनी को इसकी वजह से 2,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले एक साल में कार बाजार में मारुति की हिस्सेदारी में करीब 12 फीसदी की कमी आई है. पिछले सितंबर में जहां मारुति की हिस्सेदारी 52 फीसदी थी वहीं इस साल घटकर 40 फीसदी रह गई. जनवरी से अब तक कंपनी के शेयरों में भी तकरीबन 27 फीसदी की गिरावट आई है.

कंपनी को इस दौरान निर्यात के मोर्चे पर भी काफी नुकसान उठाना पड़ा. पिछले साल सितंबर में जहां कंपनी ने 12,858 गाडि़यां देश के बाहर भेजी थीं वहीं इस साल यह संख्या घटकर 6,749 ही रह गई. गौरतलब है कि कंपनी का एक बेहद लोकप्रिय मॉडल है एसएक्स-4. यह गाड़ी मानेसर इकाई में ही बनती है. वहां हड़ताल की वजह से सितंबर महीने में इस गाड़ी की बिक्री में 90 फीसदी की कमी आई. पिछले साल सितंबर में जहां 1,965 एसएक्स-4 गाडि़यों की बिक्री हुई थी वहीं इस साल यह संख्या घटकर 196 ही रह गई. इसी साल अगस्त में इस मॉडल की कुल 1,893 गाडि़यां बिकी थीं. मारुति की गाड़ियों की बिक्री में आई कमी पर एंजल ब्रोकिंग के ऑटो विश्लेषक यारेश कोठारी कहते हैं, ‘मानेसर में मजदूरों की हड़ताल की वजह से उत्पादन में आई कमी को मारुति की गाड़ियों की बिक्री में आई कमी की मुख्य वजह माना जा सकता है, क्योंकि इस महीने में दूसरी कंपनियों की बिक्री के आंकड़ों में बढ़त दर्ज की गई.’

मारुति के लिहाज से ये दोनों हड़तालें इसलिए अधिक नुकसानदेह साबित हुईं क्योंकि यह त्योहारों का मौसम था और इस दौरान कारों की बिक्री सबसे अधिक होती है. हर कंपनी आकर्षक प्रस्तावों के साथ तैयार होती है और अपनी ओर अधिक से अधिक ग्राहकों को आकर्षित करना चाहती है. इस दौरान दूसरी कार कंपनियों को फायदा हुआ और उनकी बिक्री बढ़ी. मारुति को अगर थोड़ी-बहुत चुनौती किसी कंपनी से मिल रही है तो वह ह्युंदई है. कंपनी ने हाल ही में अपना इयॉन मॉडल लॉन्च किया है और जानकारों का मानना है कि मारुति की हड़ताल ने इसे परोक्ष रूप से फायदा पहुंचाया. अब तक इस मॉडल की 8000 कारें बिक गई हैं. सितंबर में कार बाजार में ह्युंदई की हिस्सेदारी तीन फीसदी बढ़कर 21.7 फीसदी हो गई. मारुति की हड़ताल का फायदा फॉक्सवैगन को भी मिला. इस साल सितंबर में पिछले साल के मुकाबले इसकी गाडि़यों की बिक्री में 39 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की गई. सितंबर में टोयटा की गाडि़यों की बिक्री भी लगभग दोगुनी यानी 12,807 हो गई. वहीं जनरल मोटर्स की शेवरले बीट और स्पार्क की बिक्री में भी सितंबर में तेजी दर्ज की गई.

हड़ताल की वजह से उत्पादन में आई कमी का नतीजा यह हुआ कि मारुति के कई मॉडलों की बुकिंग के बाद इनकी डिलीवरी का समय बढ़ गया. कंपनी की बेहद लोकप्रिय कार स्विफ्ट के लिए इंतजार करने का समय छह महीने से बढ़कर आठ महीने और कुछ जगहों पर तो दस महीने तक हो गया. इस गाड़ी के लिए बुकिंग कराने के बाद इंतजार करने वाले लोगों की संख्या एक लाख के पार पहुंच गई. कुछ कार डीलरों के हवाले से यह खबर भी आई कि लोग लंबे इंतजार से बचने के लिए स्विफ्ट और एसएक्स-4 की बुकिंग रद्द करा रहे हैं. बताया गया कि स्विफ्ट की दो से चार फीसदी बुकिंग रद्द हुई और इसका फायदा टोयटा के लीवा और फॉक्सवैगन के पोलो को मिला.

इंतजार का वक्त बढ़ते जाने से होने वाले नुकसान का अंदेशा शायद कंपनी को भी था. यही वजह है कि कंपनी के मैन्युफैक्चरिंग विभाग के प्रमुख एमएम सिंह ने इस साल अप्रैल में ‘फोर्ब्स इंडिया’ को दिए एक साक्षात्कार में कहा था, ‘क्षमता में कमी की वजह से बाजार हिस्सेदारी को खोना किसी भी वाहन बनाने वाली कंपनी के लिए खतरे की घंटी है.’ यह खतरे की घंटी किसी भी कंपनी को उस वक्त अधिक खौफनाक लगने लगती है जब इंतजार के लंबे वक्त की वजह से बुकिंग रद्द होने लगे और बिक्री घटने लगे. इससे ब्रांड पर भी नकारात्मक असर पड़ता है. एक ब्रांड के तौर पर मारुति भारत में कितनी मजबूत है इसकी गवाही कार बाजार में मारुति की हिस्सेदारी दे देती है. लेकिन आंकड़ों से अधिक मारुति को एक चहेता ब्रांड बनाने का काम इसकी सेवाओं ने किया है. कोठारी के मुताबिक मारुति ने सिर्फ अपनी कारें नहीं बेचीं बल्कि इतने सर्विस सेंटर खोले कि उसके ग्राहकों को कोई परेशानी न हो. इस मोर्चे पर दूसरी कार कंपनियां मारुति से अभी काफी पीछे हैं.

कुछ साल पहले तक भारत में कार और मारुति एक-दूसरे के पर्याय थे. कुछ उसी तरह जैसे स्कूटर और बजाज. मारुति 800 ने अपनी सवारी करने वालों से भावनात्मक रिश्ता जोड़ा. यही वजह है कि जब कंपनी इस बेहद सफल मॉडल को बंद करने की योजना बना रही थी तो ग्राहकों की ओर से कई स्तरोंं पर आवाज उठी थी. उसी दौरान इंटरनेट पर मारुति 800 के नाम से बनाए गए एक फोरम पर टीचए विपुल ने इस कार को कुछ इस तरह याद किया, ‘मेरे गैराज में 1994 मॉडल सफेद मारुति 800 अब भी खड़ी है. यह कार मेरी मां चलाती थीं. उन्होंने आखिरी बार इसे जहां खड़ा किया था आज भी यह वहीं खड़ी है. इसकी चाबी मेरे पिता के पास है, लेकिन किसी को भी इसे चलाने की अनुमति नहीं है. जब भी मुझे मेरी मां की याद आती है तो मैं इसमें जाकर थोड़ी देर बैठ जाता हूं. मैं इस गाड़ी से भावनात्मक तौर पर इस कदर जुड़ा हुआ हूं कि इसी मॉडल की एक नई कार खरीदने जा रहा हूं ताकि गर्व से कह सकूं कि मेरे पास भी मारुति 800 है.’

मारुति 800 को याद करते हुए अंजान ने लिखा, ‘इस कार के साथ मेरा रिश्ता कुछ उसी तरह का है जैसे कोई बहुत पुराना प्रेम संबंध जिसकी खुशबू आप हर वक्त महसूस करते हैं. 1987 मॉडल की मारुति 800 ने हर कदम पर मेरा साथ दिया. इस कार से मैंने रेस भी लगाई और इसी में मेरा प्रेम संबंध भी परवान चढ़ा. कुछ मौकों पर मैं अपनी प्रेमिका के साथ इस कार में पकड़ा भी गया. शादी के बाद मैंने 1997 में नई मारुति 800 खरीदी. शुरुआत में पत्नी और अब बच्चों के साथ इस कार से मैं कई बार छुट्टियां मनाने गया. यह कार हमारे परिवार के एक सदस्य की तरह है.’

हालांकि, अब मारुति और कार एक-दूसरे के पर्याय नहीं रहे. इसकी वजह कोठारी बताते हैं, ‘तेजी से बढ़ते भारत के कार बाजार में पिछले कुछ सालों में कई वैश्विक कंपनियों ने दस्तक दी है. पहले ये सिर्फ बड़ी गाड़ियां बनाते थे. जबकि मारुति के लोकप्रिय ब्रांड छोटी कारों की श्रेणी में थे. लेकिन पिछले कुछ साल में इन कंपनियों ने कई छोटी कारें भारतीय बाजार में उतारी हैं. इसका नतीजा यह हुआ है कि मारुति की बाजार हिस्सेदारी घटी है. इस वजह से अब कार और मारुति एक-दूसरे के पर्याय नहीं रहे हैं.’ ब्रांड और विज्ञापन की दुनिया के जानकारों का मानना है कि पिछले कुछ महीनों से लगातार हो रही हड़तालों से अब तक तो मारुति को बहुत ज्यादा नुकसान नहीं हुआ लेकिन अगर आने वाले दिनों में हड़ताल और इस वजह से उत्पादन में कमी आती है तो निश्चित तौर पर इससे ब्रांड मारुति को काफी नुकसान उठाना पड़ेगा. ब्रांड गुरु और हरीश बिजूर कंसल्ट्स इंक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हरीश बिजूर बताते हैं, ‘अगर आने वाले दिनों में फिर से मारुति में इसी तरह से मजदूरों का असंतोष पनपता है तो निश्चित तौर पर हालिया घटना को ब्रांड मारुति के लिए एक अशुभ शुरुआत के तौर पर गिना जाएगा.’ ऐसी ही राय प्रमुख विज्ञापन कंपनी क्रायोन्स के अध्यक्ष रंजन बरगोत्रा की है. वे कहते हैं, ‘अगर हड़ताल मारुति की कार्यशैली का हिस्सा बन जाए तो फिर भारत के बेहद प्रतिस्पर्धी कार बाजार में ब्रांड मारुति के लिए अपनी जगह को बचाए रखना बेहद कठिन साबित होगा.’

इंतजार का समय बढ़ने से ब्रांड पर पड़ने वाले असर की बाबत बरगोत्रा कहते हैं, ‘कुछ हफ्तों के इंतजार को कार बाजार के लिए अच्छा संकेत माना जाता है.  असल दिक्कत तब होती है जब कहा जाए कि चार महीने बाद आपको आपके सपनों की कार मिल जाएगी लेकिन समय पूरा होने पर पता लगता है कि अभी आपको दो महीने और इंतजार करना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में उस ब्रांड को कोई नहीं बचा सकता.’ बरगोत्रा जिस स्थिति की ओर इशारा कर रहे हैं, उस स्थिति का आना काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि मारुति की इकाइयों में उत्पादन की गति क्या रहती है. अगर मजदूरों का असंतोष बढ़ा और उत्पादन ठप हुआ तो फिर इंतजार का समय बढ़ना और पहले से तय समय पर कार की डिलीवरी नहीं देने जैसी स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं. कोठारी कहते हैं, ‘अगर ऐसी स्थिति बनती है तो मारुति को चाहने वालों के बीच इसकी छवि खराब होगी और इसका फायदा दूसरी कंपनियों को मिलेगा.’

आखिर क्या किया जाए कि ऐसी स्थिति नहीं पैदा हो? जवाब बिजूर देते हैं, ‘यदि आप किसी रेस्टोरेंट में खाना खाने जाते हैं और वहां का वेटर अपने चेहरे पर मुस्कान के साथ आपको खाना परोसता है तो ऐसा खाना अधिक तृप्ति देता है. वेटर के चेहरे पर मुस्कान तब ही रहेगी जब उसका पेट भरा हुआ हो. ऐसे ही अगर कार खरीदने वालों के मन में यह बात घर कर गई कि वह जिस कार को खरीदने जा रहा है उसे बनाने वाले मजदूर बेहद दुखी मन से इस कार को बनाकर बाजार में भेज रहे हैं तो यकीन मानिए ग्राहक उस कार को नहीं खरीदेगा. इसलिए मारुति प्रबंधन को हर हाल में मजदूरों को संतुष्ट करना होगा.’ बकौल बरगोत्रा, ‘आज मारुति अगर कार की सवारी करने वालों का चहेता ब्रांड है तो इसके लिए कंपनी की सालों की मेहनत और सर्विस जिम्मेदार है. मारुति ने शुरुआत से ही भारत में कार चलाने वालों के सामने ऐसी चीजों को रखा जिनसे वे तब तक अनजान थे. कारों में रंग मारुति ने भरा. पावर स्टियरिंग, पावर विंडो और अन्य एक्सेसरीज से लोगों को वाकिफ उसी ने कराया. वैश्विक मानकों के हिसाब से हमेशा अपनी गाड़ियों में जरूरी बदलाव किया. अपने कारों के मॉडलों को अपग्रेड किया. यही रुख मारुति को अब अपने यहां काम करने वाले लोगों के साथ भी अपनाना चाहिए. क्योंकि आज मारुति जिस ऊंचाई पर है वहां तक पहुंचाने में इसके मजदूरों का अहम योगदान रहा है.’

इस स्टोरी को लिखे जाते वक्त 29 अक्टूबर को खबर आई कि मारुति ने गुजरात के मेहसाना में  अपनी एक और कार बनाने की इकाई लगाने का फैसला किया है. मारुति प्रबंधन इसे अपनी क्षमता और निर्यात बढ़ाने के लिए उठाया कदम बता रहा है. मगर जानकारों का मानना है कि इस निर्णय के पीछे उसके हरियाणा के संयंत्रों में पिछले दिनों एक के बाद एक हुई हड़तालों की बड़ी भूमिका है. उनका यह भी मानना है कि यदि सब कुछ सही रहा तो भी इसे चालू होने में कम से कम चार-पांच साल लगने वाले हैं.
इतना समय जनता की नजरों में चढ़ने के लिए काफी हो न हो मगर उतरने के लिए कम नहीं होता.

‘दादी ने चांदी की थाली बेचकर हमारे लिए प्लास्टिक का एक कबूतर खरीदा था’

इस मुलाकात से पहले संजय लीला भंसाली पिछले 14 घंटों से बतौर निर्माता अपनी फिल्म माई फ्रैंड पिंटो के के प्रोमोशन में व्यस्त रहे हैं और इस वजह से उनके मिजाज में थोड़ा चिड़चिड़ापन स्वाभाविक हैै. लेकिन जो चीज स्वाभाविक नहीं वह यह है कि इस व्यस्तता के बावजूद वे बिल्कुल तरोताजा दिखते हैं. भंसाली बिना गंभीरता ओढ़े बात करते हैं और अपने डगमगाते हुए करियर ग्राफ का खुद मजाक बनाते हैं. बात करने के साथ-साथ उनके हाथ इस तरह चलते हैं जैसे बातों के धागों से कोई तस्वीर बुन रहे हों. निशा सूजन से बातचीत में यह जादुई फिल्मकार अपने बचपन, जीवन के उतार-चढ़ाव, अपनी फिल्मों में शामिल विशिष्ट मगर आलोचना की शिकार कलात्मकता के प्रेरणास्त्रोत और असफलता के बावजूद वापसी करने की अपनी हठ को साझा कर रहा है.

सुंदरता को लेकर आपकी पहली यादें क्या हैं?

शायद मैं चार साल का था. मेरे पिता मुझे लेकर अपने एक दोस्त से मिलने स्टूडियो गए थे. मुझे सेट पर चुपचाप कोने में बैठने की समझाइश देकर वह अपने दोस्त से मिलने चले गए. मगर उनका ध्यान इस बात पर नहीं गया कि वहां एक कैबरे का शूट चल रहा था. सफेद रंग की ड्रेस पहने एक लड़की, जो मुख्य डांसर थी, को बिस्तर पर लेटे एक आदमी के पास जाना था और उसकी तरफ एक सेब फेंकना था. उन्होंने उस सीन को एक बार किया, दो बार किया और कई बार किया. मैं पूरी तरह सम्मोहित था. उस लड़की ने नकली सींग पहन रखे थे. वह पूरा दृश्य पूरी तरह से विचित्र और असाधारण था. तभी मेरे पिता आए और मुझे बाहर ले गए लेकिन तब तक मैं सम्मोहित हो चुका था.

क्या आपको सपने भी टेक्नीकलर में आते थे?

ईस्टमैन कलर में कहिए. मैं नल बाजार और भूलेश्वर के कोने में रहता था. यह एक लोअर मिडिल-क्लास इलाका था जहां पर ढ़ेर सारी साड़ियां खिड़कियों से लटका करती थीं, लोग एक बालकनी से दूसरी बालकनी में खड़े होकर बातचीत करते थे, किसी की आंटी किसी और की आंटी से लड़ रही होती थी और लोग फिसलन भरी छतों पर पतंगे उड़ाया करते थे. आर डी बर्मन के गाने ऊंची आवाज में सुने जाते थे.’पन्ना की तमन्ना’ हमेशा से मेरा पतंग उड़ाते वक्त का पसंदीदा गाना रहा है. मैं रेड लाइट इलाके से होकर स्कूल जाता था. मेरी शुरू की सभी यादें उन्ही वेश्याओं, उनके ग्राहकों और भड़कदार रंगों की रही हैं. मैं ऐसी ही दुनिया से आया हूं जहां के रंग बहुत चटक होते थ और इसीलिए मेरी फिल्मों में भी वे इतनी प्रबलता से दिखते हैं. स्कूल जाते वक्त रास्ते में आठ थियेटर एक लाइन में पड़ते थे. वहां में अजीब-अजीब फिल्में और उन फिल्मों के पोस्टर देखा करता. वेश्याएं उन थियेटरों में अपने ग्राहकों को लाती थी और हम आगे की सीटों पर बैठ कर फिल्म देखते हुए सोचते थे कि वे लोग पीछे की सीटों पर क्या करते होंगे.

हमने सुना है कि संगीत आपके बचपन का एक अहम हिस्सा रहा है.

मेरे बचपन का पसंदीदा खिलौना मेरा रेडियो था. मैं स्कूल से आता, अपना बैग फेंकता और रेडियो चालू कर देता. कभी-कभी अपने पसंदीदा गाने को रेडियो पर सुनने के लिए छह महीने तक इंतजार करना पड़ता था. आखिर में घरवाले कहते कि जाओ नीचे जाकर दुकान से फोन कर लो और विविध भारती को अपनी फरमाइश दे दो. गाना सुनते वक्त मैं कल्पना करता कि मैं इसको किस तरह शूट करूंगा.अगर मैं यह गाना कर रहा होता तो हेलन कैसे डांस करती? यही मेरा होमवर्क होता था. मेरी पढ़ाई मंे दिलचस्पी नहीं थी मगर मैं एक समझदार छात्र था.मुझे गणित में कोई दिलचस्पी नहीं थी मगर मैं गाना, उसके मायने और उसके खुद पर पड़ते असर को समझ सकता था. घर के पास ही मेरे एक अंकल रहा करते थे जिन्हें रिकॉर्ड इकट्ठा करने का शौक था. मुझे याद है जब मैंने पहली बार ‘आंधी’ के गाने सुने थे. मैं स्कूल से लौट रहा था और उस वक्त उन्होंने आंधी का रिकार्ड लगाया हुआ था जिसपर ‘तेरे बिना जिंदगी से’ बज रहा था, मैंने पहली बार लता जी की आवाज सुनी. मैं शायद छठी क्लास में था. मैंने झोपड़पट्टी (chawl) की सीढ़ियों पर बैठ कर पूरा गाना सुना. वह झोपड़पट्टी प्लास्टिक की शीटों से ढ़की थी, बरसाती पानी टपक रहा था और गंदगी के बीच चूहे और काकरोच दौड़ रहे थे. मगर गाने के दौरान वह जगह भी सुंदर हो गई थी. मेरे पिताजी को शास्त्रीय संगीत काफी पसंद था इसलिए उनके पास अब्दुल करीम खान और रोशनआरा बैगम के रिकार्ड थे. ‘खामोशी’ में जो रिकार्ड तोड़ने वाला सीन है वैसा मेरे साथ तब होता था जब मेरे पिता नाराज होते थे और मेरे सारे रिकॉर्ड तोड़ देते थे.

अपने पिता के बारे में कुछ बताएं?

मेरे पिता मुंबई में पैदा हुए और यहीं पले-बढ़े भी. वे फिल्में बनाया करते थे, जो कि जाहिर तौर पर नहीं चली होंगी. मैंने उनकी एक भी फिल्म नहीं देखी है. वे मुझे फिल्म दिखाने ले जाते और कहते, ’देखो वह किस तरह कैमरे को मूव कर रहा है.’ उन्हें शायद फिल्मों के प्रति मेरी दीवानगी का अंदाजा था. मुझे याद है कि वह मुझे बबीता और संजय खान की फिल्म ‘सोने के हाथ’ की शूटिंग पर ले गए थे. मुझे नहीं लगता कि बबीता ने वह फिल्म देखी भी होगी! उस फिल्म में एक सीन था जिसमें बबीता संजय खान को पूछती हैं,’वो चाबी किधर है?’ मैं घर जाकर उस सीन की नकल करने लगा. पहले बबीता बनकर, फिर संजय खान बनकर. यह काम इतना लंबा चला कि आखिर में झुंझलाकर मेरे पिताजी ने मुझे एक चांटा जड़ा और कहा, ’जाकर अपना होमवर्क करो और भगवान के लिए बबीता और संजय की नकल करना छोड़ दो.’ मेरी मां डांसर थीं. वे और जाने-माने नृत्य-निर्देशक पीएल राज ने मिलकर काफी सारे स्टेज शो किए थे.मगर मेरी बहन और मेरे जन्म के बाद उन्होंने काम करना काफी कम कर दिया था. लेकिन जब भी भी रेडियो पर गाना आता था तो मां डांस किया करतीं. बिस्तर, कुर्सी-टेबल से घिरे 200 वर्ग फीट के छोटे से घर में मां डांस करती और चीजों से टकराती, उन्हें गिराती. शायद इसलिए मेरे सेट इतने विशालकाय होते हैं ताकि मेरी हीरोइन को डांस करने के लिए जगह की कमी न हो.

आपका सौंदर्यबोध फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट, पुणे (एफटीआईआई)में उस दौर में कैसे बचा रहा जब हिंदी सिनेमा को हीन भावना से देखा जाता था?

जो भी मेरे दिमाग में था उसे कभी सौंदर्यबोध नहीं माना गया था. वह एक भड़कीली और घटिया कला थी. मैंने एफटीआईआई में उन महान फिल्मकारों की फिल्में देखी जिनको देखने की मैंने कभी जहमत नहीं उठाई थी. मगर मैं कभी भी गानों को शूट करने और नृत्य निर्देशन से दूर नहीं जाना चाहता था. एफटीआईआई में ही मैंने गुरूदत्त को समझा-पाया. मुझे लगा कि गुरूदत्त एक महान निर्देशक थे क्योंकि उन्होंने जो कुछ भी किया उसमें संगीत का अहम स्थान था.

एफटीआईआई में उन दिनों हंगेरियन सिनेमा जैसी चीजों का जोर था. इस माहौल में आपने अपनी मौलिकता कैसे बचाए रखी?

मैंने ऐसी कोशिश ही नहीं की. बल्कि मैंने तो इसका स्वागत किया. खासकर हंगेरियन सिनेमा का. इसीलिए मैंने ‘हम दिल दे चुके सनम’ हंगरी में शूट की थी क्योंकि मैं वहां के कई फिल्मकारों से बहुत प्रभावित था. मैं मानता हूं कि हम दिल दे चुके सनम दो अलग-अलग दुनियाओं का मेल था. फिल्म का पहला हाफ उस चमकीली दुनिया का था जहां मैं पला-बढ़ा और दूसरा हाफ पूर्वी यूरोपियन सिनेमा की दुनिया का जहां हर चीज सोच-विचार और सावधानी लिए होती है. हम दिल…. दो फिल्में थी जिन्हें एक धागे में गूंथा गया था. आपका सवाल बहुत अनूठा है. किसी ने आज तक इस पर ध्यान ही नहीं दिया था.

अपनी मां का नाम अपने नाम में जोड़ने के पीछे क्या वजह थी?

विधु विनोद चोपड़ा की 1942: ए लव स्टोरी के बाद मैंने ऐसा किया. उसमें मैंने एक गाना निर्देशित किया था जिसका विधु मुझे क्रेडिट देना चाहते थे. मैंने कहा मेरा नाम संजय लीला भंसाली लिखना. विधु को आश्चर्य हुआ मगर वे मान गए. मैंने अपनी मां को जिंदगी में काफी संघर्ष करते देखा है. इस तरह मैं उन्हें श्रृद्धांजलि देना चाहता था.

आपकी फिल्म में सभी नायिकाएं  ‘लार्जर देन लाइफ’ होती हैं. क्या यह महिलाओं के साथ आपके रिश्तों का ही आईना हैं?

इसका श्रेय मेरी मां और दादी को जाता है.मेरी दादी एक हिम्मत वाली महिला थी. 22 साल की उम्र में विधवा होने के बावजूद उन्होंने तीन बच्चों की अच्छे से परवरिश की. 60 से ज्यादा की उम्र में भी वे रात के दो बजे तक काम करतीं ताकि हम लोगों को वक्त पर खाना मिले. कभी-कभी जब घर में खाने को कुछ नहीं होता था तो वह पैसे के लिए मटका खेला करती थी. क्या आपको खामोशी में हेलेन का प्यानो बेचने वाला सीन याद है? मुझे याद है एक बार दादी भूलेश्वर के बाजार में जाकर अपनी आखिरी चांदी की प्लेट बेच दी थी और लौटते वक्त हमारे खेलने के लिए वे एक प्लास्टिक का कबूतर लेकर आई थीं. एक चांदी की प्लेट प्लास्टिक का कबूतर बन गई थी. यह किसी जादू जैसा था. घर में मां हमेशा नाचती-गाती रहतीं. वे लोगों की साड़ी में फाल लगाया करतीं जिसके उन्हें 25 पैसे मिलते थे. एक साड़ी में फाल लगाने में एक से दो घंटे लगते और मिलते सिर्फ 25 पैसे. साथ ही वे घर-घर जाकर साबुन भी बेचा करतीं. मगर मैंने देखा है कि मुस्कान कभी गायब नहीं हुई. जीवन के प्रति आस्था कभी नहीं खत्म हुई. यह उम्मीद कि बच्चे जिंदगी में कुछ बड़ा जरूर करेंगे, कभी खत्म नहीं हुई.

और फिर जब उन्होंने आपको सफल होते देखा तो क्या उनकी प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी आपको उम्मीद थी?

सफलता धीरे-धीरे मिलना शुरू हुई थी. पहली फिल्म ने अच्छा बिजनेस नहीं किया था. दूसरी सफल रही थी. देवदास काफी ज्यादा सफल रही. मगर सफलता की बातें नहीं होती थीं. मैंने देवदास दो कमरों के घर में रहते हुए बनाई थी जहां मां बेडरूम में सोती थीं और मैं बाहर वाले कमरे में. शायद इसलिए तब सफलता महसूस नहीं हुई. अभी मैं वर्सोवा में रह रहा हूं मगर मेरी आत्मा अभी भी भूलेश्वर में ही है. मेरा हर सपना जो सच हुआ वह वहीं देखा हुआ था. मैं अभी भी हर दो महीने में वहां जाता हूं. उसी छत पर खड़ा होता हूं. इससे मुझे नई ऊर्जा मिलती है. संघर्षों का सामना करने की हिम्मत मिलती है. जब कोई पूछता है, ’अरे, कितने दिनों बाद आए हो, कैसे हो?’ और मैं जब वापस चिल्लाता हूं,’अच्छा हूं. आप कैसे हैं?’, तो बहुत अच्छा लगता है.

बालीवुड और उससे आज के शहरकेंद्रित यथार्थवादी सिनेमा के चलन पर क्या कहेंगे? क्या आपको लगता है कि आपको खुद में कुछ बदलाव लाना चाहिए?

मेरी पहली फिल्म खामोशी के वक्त हिंदी सिनेमा साजन जैसी फिल्में बना रहा था. उस दौर में खामोशी नई तरह की फिल्म थी.किसी को समझ नहीं आ रहा था कि उसका क्या करना है. कुछ लोगों को वह बहुत ही शानदार लगी और कुछ लोगों को बहुत ही बकवास. मगर मुझे लगा कि मैंने अपना खुद का एक मानक स्थापित किया था. उसके बाद हम दिल चुके सनम बनाई. फिर ब्लैक बनाई जो बिना गानों के थी. सांवरिया उन दुर्लभ फिल्मों में से एक थी जो लोगों को समझ में नहीं आई. यह एक संवेदनशील फिल्म थी जिसमें दोस्तोवस्की की कहानी को एक ऐसी दुनिया के जरिये कहा गया था था जैसी दुनिया मैं अपने किरदारों के लिए बुनना चाहता था. इसके बाद थी गुजारिश जोकि मेरा बहुत, बहुत आत्मघातक फैसला था (हंसते हुए). मैं मानता हूं कि लोग ऐसी फिल्म बनाना चाहते हैं जिसमें जिंदगी से पलायन हो, तनाव हो और फिल्म खतरनाक दिखे. यह एक तरह का सिनेमा है. मगर आपकी फिल्मों से गाने, डांस, ड्रामा, ट्रैजिक हीरो, मीना कुमारी, अमिताभ बच्च्न, दिलीप कुमार जैसी भारतीय पहचान नहीं जानी चाहिए. यही वह सिनेमा है जो हमारा है. मुझे नहीं लगता कि मुझे अपने काम पर फिर से गौर करने की जरूरत है.आप उन चीजों को फिर से ईजाद क्यों करेंगे जो आप पूरे विश्वास के साथ करते आए हैं और जिन्हें देखते हुए पूरा देश बड़ा हुआ है.

आप प्यार-मोहब्बत पर इतनी भव्य कहानियां कहते हैं मगर अपने खुद के रिश्तों के बारे में कभी बात नहीं करते?

बाकी लोगों की तरह मैं भी प्यार की गिरफ्त में रहा हूं. रिश्ते का टूट जाना या लोगों के अलग हो जाने का मतलब यह नहीं हैं कि आप प्यार में विश्वास करना छोड़ दे. वैसे भी मेरे साथ रहना आसान बात नहीं है. काम ही मेरी प्राथमिकता है और कोई भी इस बात से नाराज हो सकता है कि वह मेरी प्राथमिकता में नंबर चार पर है, मेरे काम के काफी नीचे! मैंने जिंदगी में काफी अच्छे-बुरे दिन देखे हैं. और मैं जानता हूं कि किसी रिश्ते मे रहने का क्या मतलब होता है या करियर का क्या मतलब होता है या असफलता का सामना करना कैसा होता है. सांवरिया के बाद, मैं एक ओपेरा का निर्देशन करने पेरिस चला गया था. वहां मैं तीन महीने तक अकेले रहा. सीन नदी के किनारों पर चलते हुए मैं मदन मोहन और लता मंगेशकर के गीत सुना करता था.  वहां मुझे एक बार फिर यह अहसास हुआ कि मैं फिल्मों के बगैर जिंदा नहीं रह सकता.

विकास की छांव को तरसता मुंडा का गांव

सरायकेला-खरसावां. झारखंड और देश के बाहर इस इलाके की पहचान प्रसिद्ध छउ नृत्य कला के लिए है. यहां के छउ नृत्य गुरु पद्मश्री केदार साहू की ख्याति दुनिया भर में हुई. लेकिन अब सरायकेला-खरसांवा की एक और पहचान भी है. यह राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा का विधानसभा क्षेत्र है. यह मुंडा का गृहक्षेत्र भी है. जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर की दूरी पर बसा है उनका गांव. गांव का नाम है खिजूरदा.

जब मुख्यमंत्री का ही गांव है तो सियासत से गहरा जुड़ाव होगा, यह सहज धारणा बनती है. लेकिन यहां पहुंचने पर यह धारणा बदल जाती है. न तो यह सियासी गांव है, न ही पूरे प्रदेश के लिए विकास का नया मॉडल तैयार करने में लगे अर्जुन मुंडा के खाके में फिट बैठता विकसित गांव. जंगलों-पहाड़ों के बीच मुफलिसी, गरीबी, लाचारी, अंधकारमय भविष्य और अंधेरगर्दी… सब कुछ वैसा ही है जैसा झारखंड के ज्यादातर गांवों में. विकास के नाम पर बिजली है, सड़क है लेकिन एक बड़ी आबादी की आंखें निराशा के गहरे गर्त में समाई हुई दिखती हैं.

दुर्दशा खिजूरदा में लगभग सभी घर कच्चे हैं. इनमें से कई तो पिछले या इस साल हुई बरसात में ढह गए

खिजूरदा गांव में करीब 60-65 घरों की बसाहट है. आबादी लगभग पांच सौ. खेती-किसानी और मजदूरी लोगों की आजीविका का साधन है.  दुर्दशा लोगों को इसलिए भी चुभती है कि सूबे का मुखिया इसी गांव का है. खिजूरदा के एक बुजुर्ग कहते हैं, ‘इस गांव के अर्जुन न होते तो यह दुख इस कदर पहाड़ की तरह नहीं लगता. कम से कम संतोष रहता कि अन्य गांवों की तरह ही हमारी भी दुर्दशा है लेकिन अर्जुन का गांव है और कुछ भी नहीं हुआ. यहां तो उम्मीदें बंधती रहती हैं और टूटती रहती हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘इस गांव में जब अर्जुन पैदा हुए थे तो हममें से किसी को यह अंदाजा नहीं था कि गुदड़ी के लाल साबित करेंगे खुद को. इस गांव की गलियों से निकलकर एक दिन सूबे के मुखिया बन जाएंगे. जिस दिन उन्हें मुख्यमंत्री का पद मिला था, लोगों की आंखों में सपने जगे थे. उस रोज से ही कायाकल्प का इंतजार अब भी है.’

अब जरा गांव की स्थिति की बानगी सुनिए. खिजूरदा में एक भी मकान पक्का नहीं है. सारे के सारे मकान कच्चे और मिट्टी के हैं. एकाध घरों के छप्पर को खपड़ा नसीब है. बाकी सब के सब फूस के ही हैं. गांव की लगभग 90 फीसदी आबादी बीपीएल के दायरे में है, लेकिन हकदार होने के बावजूद उसे आज भी एक अदद लाल कार्ड के लिए इंतजार करना पड़ता है. मुश्किलों का पहाड़ यहीं खत्म नहीं होता. गरमी के दिनों में जब गांव के चारों चापाकल जवाब दे देते हैं तो पीने के पानी का संकट हो जाता है. यहां राशन की दुकान नहीं है, लिहाजा लोग पांच किलोमीटर का सफर तय करके रामपुर नाम के गांव से राशन, मिट्टी का तेल आदि लाते हैं. उस पर भी गांववाले कहते हैं कि जितना अनाज मिलना चाहिए उतना डीलर नहीं देते हंै. गांव के ही शंकर नायक कहते हैं, ‘अर्जुन मुंडा कहते हैं कि अब राज्य में ऐसी ई-व्यवस्था बनेगी जिससे लोगों के फिंगर प्रिंट से मुख्यमंत्री को पता चल जाएगा कि कितना अनाज किस उपभोक्ता को मिला. यह मुंह चिढ़ाने वाला एलान लगता है. उनके अपने गांव के लोग लाल कार्ड, वृद्धा पेंशन, इंदिरा आवास आदि के लिए तरस रहे हैं और वे इससे बेपरवाह ई-व्यवस्था लागू करवाने में लगे हुए हैं.’

यह अपने लोगों का दर्द है. अपने लोग ज्यादा अधिकार रखते हैं तो उनका दर्द भी गहरा है. उस गांव के लोगों को यह बताने की जहमत हम नहीं उठाते कि बिहार में जब लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने थे तो उनके गांव फुलवरिया में स्वास्थ्य केंद्र, डाकघर, बैंक, प्रखंड कार्यालय, हेलीपैड आदि सब देखते ही देखते बन गया था. बिहार के ही वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गांव कल्याण बिगहा में चमचमाती काली सड़कें राजधानी पटना की सड़कों को भी मुंह चिढ़ाती हैं. नीतीश के गांव कल्याण बिगहा में बैंक, आईटीआई, इंटर काॅलेज, हाई स्कूल, मिडिल स्कूल, आधुनिक इंडोर स्टेडियम जैसी कई सुविधाएं आ गई हैं. यह सब बताने पर उनका दर्द और बढ़ जाता क्योंकि अर्जुन मुंडा के गांव के लोग आईटीआई और इंटर काॅलेज क्या, एक मध्य विद्यालय तक के लिए अब तक तरस रहे हैं. शिक्षा केंद्र के नाम पर गांव में केवल एक प्राथमिक विद्यालय है, जिसमें चार शिक्षक जैसे-तैसे शिक्षण-प्रशिक्षण का दायित्व निभाते हैं या गांववालों की ही भाषा में कहें तो खानापूरी करते हैं. अर्जुन मुंडा तो ग्रैजुएट हो गए लेकिन उनके बाद इस गांव में अब तक कोई भी ग्रैजुएट नहीं हो सका है. हां, दो युवा मिलते हैं, जो अभी ग्रैजुएशन की पढ़ाई कर रहे हैं.

विडंबना गांव में ही खत्म नहीं होती. खरसावां जिले की भी बात करें तो उच्च शिक्षा के लिए यहां एक ही कॉलेज है. अर्जुन मुंडा के गांव से लगभग 22 किलोमीटर दूर. गांव के युवा लखन टूडू का मानना है कि गांव से यातायात का सुगम साधन होता तो गांव के कई लोग ग्रैजुएट हो जाते. लखन कहते हैं, ‘अर्जुन थोड़ा भी ध्यान रखते तो आज हम भी थोड़े स्वाभिमान से भरे होते लेकिन खोखले आधार पर मुख्यमंत्री के गांव का वासी होने का स्वाभिमान नहीं जग पाता.’ लखन आगे कहते हैं, ‘हम लोगों ने बड़े सपने देखना छोड़ दिया है. कम से कम हमारे यहां के प्राथमिक विद्यालय में जितने शिक्षकों की जरूरत  है, अगर वही पूरी हो जाती तो गांव की आने वाली पीढि़यों को मुकम्मल बुनियादी शिक्षा तो मिलती लेकिन वह भी नहीं है.’

राशन की दुकान नहीं है. लोग पांच किमी का सफर तय करके रामपुर गांव से राशन और मिट्टी का तेल लाते हैं

खिजूरदा में हमने और भी कई लोगों से बातचीत की. लोगों ने जो बताया उसका लब्बोलुआब यही था कि उनके अर्जुन राज्य का भविष्य गढ़ रहे हैं जबकि उनके अपने गांव में भविष्य पीछे जा रहा है. गांव में सबकी अपनी-अपनी पीड़ा है. अपनी-अपनी आकांक्षाएं हैं, अपने अर्जुन से शिकायतें हैं. रमेश हजाम कहते हैं,  ‘इस साल बारिश में गांव के कई लोगों के घर गिर गए. ये लोग बेघर हो गए हैं.’ रमेश एक-एक कर घर गिरे लोगों का नाम उंगलियों पर गिनवाते हैं. गिरे हुए घरों को दिखाते हुए कहते हैं, ‘यह चिमटु का घर है, जो पिछले साल बारिश में गिर गया था. इस घर के लिए सरकारी अधिकारियों के यहां कई बार आवेदन दे चुके हंै चिमटु लेकिन एक साल बीत जाने के बाद भी किसी पदाधिकारी ने कोई सुध नहीं ली. आज भी चिमटु का घर नहीं बन पाया है. मुख्यमंत्री के गांव के मामले का भी अधिकारी क्यों नोटिस नहीं लेते…!’  अपनी रौ में रमेश उन लोगों के नाम गिनाते रहते हैं जिनका घर ढह गया है. शुुकरा मंाझी, उपेंद्र मांझी, मंदरा प्रमाणिक, गौरी शंकर आदि. बात करते-करते वे लगभग याचना की स्थिति में आ जाते हैं. रुआंसे होकर कहते हैं, ‘आप लोग आए हैं तो उम्मीद है हमारी बात वहां तक पहुंचेगी. आप लोग ही उन्हें बताइए कि अपने गांव पर जरा ध्यान दे दें. हमारा भी हक है उन पर.’

खिजूरदा में लोगों की यह भी शिकायत है कि अर्जुन मुंडा यहां केवल वोट के वक्त आते हैं. और आश्वासन देते हैं. कुछ आक्रोशित स्वर में कहते हैं कि आने वाले चुनाव में उनको वोट नहीं देंगे क्योंकि चुनाव के बाद वे एक बार भी न गांव की सुध लेने आए और न ही चुनाव जीतने के बाद उन्होंने गांव के लिए कुछ किया. लोगों का कहना है कि जब माटी का बेटा ही अपनी मातृभूमि का दर्द  समझने की कोशिश नहीं कर रहा तो वे कब तक एक हाथ से ताली बजाते रहें.

खरसावां जिले के कलेक्टर रविंद्र अग्रवाल इस बारे मंे बात करने पर कहते हैं कि उनकी नियुक्ति हाल ही में हुई और इस बारे में उनके पास कोई जानकारी नहीं है. वे यह भी कहते हैं कि वे इस मुद्दे की पड़ताल करेंगे और जो भी जरूरी होगा किया जाएगा.
उधर, इस इलाके से पहले विधायक रह चुके और मुंडा के लिए सीट खाली करने वाले मंगल सिंह सोय कहते हैं कि जितनी सुविधा दी जाए लोगों की इच्छाएं उतनी ही बढ़ती चली जाती हैं. वे आगे यह भी कहते हैं कि खिजूरदा के लोग हर बार यह नाटक करते हैं और वोट भी उन्हीं को देते हैं.

हम अर्जुन मुंडा के गांव से यह कहकर निकलते हैं कि कोशिश करेंगे आपकी बात अर्जुन मुंडा तक पहुंचे. लोग उम्मीद भरी आंखों के साथ हमें विदा देते हैं. वैसे भी उम्मीद पर दुनिया कायम है.

तकरार से होता बंटाधार

बिहार में उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के प्रयास के तहत केंद्र सरकार ने राज्य को राष्ट्रीय स्तर के दो विश्वविद्यालय देने की घोषणा की थी. लेकिन राज्य और केंद्र सरकार में नाक की लड़ाई के कारण मामला लटका पड़ा है. इसका खामियाजा राज्य के छात्रों को भुगतना पड़ रहा है. इर्शादुल हक की रिपोर्ट

किशनगंज के रुईधासा मैदान में 12 अक्टूबर को आयोजित रैली सीमाचंल इलाके में अपनी तरह की सबसे बड़ी रैलियों में से एक थी. इस रैली के बाद आंदोलनकारी सीमांचल को जोड़ने वाले सड़क और रेल मार्ग रोककर राज्य सरकार को चेतावनी दे रहे थे कि अगर किशनगंज में अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय की शाखा शुरू नहीं हुई तो आंदोलन राजधानी तक पहुंच जाएगा. आंदोलन शिक्षा के सवाल पर राज्य सरकार के खिलाफ था जिस मामले में नीतीश सरकार अपनी उपलब्धियों का डंका अकसर पीटती है. सरकार यह दावा करती रही है कि वह बदहाल शिक्षा व्यवस्था ठीक करते हुए शिक्षा के क्षेत्र में बिहार की खोई हुई गरिमा को फिर से वापस लाने के प्रयास में जुटी है. इस दावे के पक्ष में उसके पास नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरुद्धार के अभियान, चाणक्य विधि विश्वविद्यालय की स्थापना जैसी ठोस दलीलें भी हैं.

एक तरफ राज्य सरकार अपने प्रयासों से नये-नये शिक्षण संस्थान खोलने में लगी है वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार के अरबों रुपये के सहयोग से राज्य में स्थापित किए जाने वाले शिक्षा केंद्रों के प्रति उसका रवैया ऐसा है कि कभी केंद्र सरकार तो कभी राज्य की जनता उसके खिलाफ आवाज उठाने लगती है. सवाल सिर्फ बिहार में अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय की शाखा खोले जाने को लेकर ही नहीं है. कुछ इसी तरह का विवाद केंद्रीय विश्वविद्यालय को लेकर भी है जो केंद्र और राज्य के बीच तकरार का ऐसा नमूना बना हुआ है जिसे साधारण शब्दों में नाक और मूंछ की लड़ाई कह सकते हैं. केंद्रीय विश्वविद्यालय के विवाद की गंभीरता का अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दो साल से यह विश्वविद्यालय अपने लिए एक अदद छत के लिए जद्दोजहद कर रहा है. हद तो तब हो गई जब पिछले महीने पटना के जिस बीआईटी परिसर में केंद्रीय विश्वविद्यालय चल रहा है, वहां से उसे हटाने का नोटिस विश्वविद्यालय प्रबंधन को थमा दिया गया. इस नोटिस के बाद बीआईटी प्रबंधन और केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रशासन सार्वजनिक तौर पर पक्ष और विपक्ष में बयानबाजियों की तलवार लेकर कूद पड़े. जो भी हो, केंद्रीय विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय-दोनों से जुड़े विवादों में किरकिरी राज्य सरकार की ही हो रही है.

केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के मकसद से केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम  2009 के तहत अन्य राज्यों के साथ-साथ बिहार की राजधानी पटना में भी केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना का फैसला लिया था. विश्वविद्यालय की शुरुआत पटना में कर भी दी गई. पठन-पाठन भी शुरू हो गया. लेकिन जब इस विश्वविद्यालय की स्थापना की बात चल रही थी, तभी से नीतीश कुमार यह कहते रहे हैं कि यह विश्वविद्यालय पटना की बजाय मोतिहारी में खोला जाएगा. इसके लिए राज्य सरकार ने मोतिहारी में जमीन भी उपलब्ध करा दी. लेकिन केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थल चयन समिति ने मोतिहारी में मुहैया कराई जाने वाली भूमि को अस्वीकार करते हुए कहा कि इसके लिए पटना में जमीन उपलब्ध कराई जाए. समिति ने इस संबंध में तर्क दिया कि मोतिहारी में विश्वविद्यालय के अनुकूल बुनियादी सुविधायें नहीं हैं. चयन समिति के इस तर्क के बाद से ही राज्य और केंद्र सरकार के बीच विश्वविद्यालय के लिए स्थान चयन के विवाद की शुरुआत हो गई. बीते अप्रैल में तो नीतीश ने साफ कह दिया कि विश्वविद्यालय मोतिहारी में ही खुलेगा.

नीतीश कई बार कह चुके हैं कि कुछ लोग अपने हितों के लिए मामले को राजनीतिक रंग देने पर तुले हैं

जब नीतीश ने यह बयान दिया उन्हीं दिनों केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल आईआईटी के नये परिसर का शिलान्यास करने पटना आने वाले थे. सिब्बल पटना आए और उन्होंने नीतीश के बयान पर पलटवार करते हुए कहा कि केंद्रीय विश्वविद्यालय और उससे जुड़े शिक्षकों के लिए जिन बुनियादी सुविधाओं की जरूरत है वे मोतिहारी में संभव नहीं हंै. ऐसी स्थिति में राज्य सरकार को मोतिहारी का नाम रटने की बजाए पटना में भूमि की व्यवस्था करनी पड़ेगी.

नीतीश और सिब्बल की बयानबाजी केंद्र और राज्य सरकार के बीच मंूछ की लड़ाई बनती चली गई, जिसका सीधा असर इस विश्वविद्यालय के अस्तित्व पर ही पड़ता दिखने लगा है. यह मामला आपसी बयानबाजियों तक ही नहीं रुका. स्थितियां तब और विकट हो गईं जब इसी क्रम में बीआईटी प्रबंधन ने केंद्रीय विश्वविद्यालय को अपने परिसर से हटने का नोटिस भेज दिया. इस नोटिस के बाद केंद्रीय विश्वविद्यालय का विवाद राज्य और केंद्र सरकारों के बाद अब बीआईटी और केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रशासन तक पहुंच गया. स्थितियां इतनी दयनीय हो गईं कि केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्रों का शैक्षिक भविष्य ही सवालों के घेरे में आ गया. इतना ही नहीं, केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति जनक पांडे इन विवादों से इतना खिन्न हुए कि उन्होंने बीआईटी प्रबंधन को यहां तक चुनौती दे डाली कि वह विश्वविद्यालय को अपने परिसर से हटा कर देखे. पांडेय के इस तेवर के बाद बीआईटी प्रबंधन ठंडा तो पड़ गया पर यह विवाद खत्म नहीं हुआ. पांडेय कहते हैं, ‘विश्वविद्यालय कोई सब्जी मंडी नहीं है कि उसे जब चाहा जाए एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठा कर पहुंचा दिया जाए.’

केंद्रीय विश्वविद्यालय को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के बीच छिड़ी मूंछ की लड़ाई अभी शांत तो जरूर है पर दोनों सरकारें अपने-अपने तर्क पर अब भी अड़ी हैं. राज्य सरकार अपनी इस जिद पर अड़ी है कि वह इस विश्वविद्यालय को हर हाल में मोतिहारी में ही शिफ्ट कराकर दम लेगी. जबकि केंद्र सरकार अपने इरादे से टस से मस नहीं होते हुए बार-बार स्पष्ट करती रही है कि राज्य सरकार पटना या उसके आसपास ही विश्वविद्यालय के लिए जमीन उपलब्ध कराए.  राज्य और केंद्र सरकार की आपसी तकरार से राज्य को ही नुकसान उठाना पड़ रहा है.

ठीक इसी तरह का दूसरा मामला अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय की शाखा को लेकर भी है. 2008 में केंद्र सरकार ने फातमी कमेटी की सिफारिश के मद्देनजर देश भर में  पांच अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय की शाखा खोलने का फैसला लिया था. इसके तहत केंद्र सरकार ने बिहार के किशनगंज में राज्य सरकार से 250 एकड़ जमीन उपलब्ध कराने को कहा. लेकिन पिछले तीन साल में इस विश्वविद्यालय का अस्तित्व अभी तक सामने नहीं आ सका है. जबकि इसी फैसले के तहत पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में अलीगढ़ विश्वविद्यालय की शाखाओं ने काम भी करना शुरू कर दिया है. बिहार सरकार ने कोई दो साल की हीलाहवाली के बाद किशनगंज के अलग-अलग स्थानों पर 250 एकड़ जमीन देने की घोषणा तो की पर अलीगढ़ विश्वविद्यालय प्रशासन टुकड़ों में जमीन आवंटन को अस्वीकार करते हुए इसे एक जगह उपलब्ध कराने की बात पर अड़ गया. तभी से विश्वविद्यालय की शाखा खोलने का मामला राजनीतिक रंग लेने लगा. जहां सत्ताधारी जेडीयू की सहयोगी पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने खुद पर्दे के पीछे से अपने छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा विश्वविद्यालय की शाखा स्थापना का ही मुखर विरोध करवाने लगी वहीं राजद और कांग्रेस जैसी विरोधी पार्टियां इस मामले में ढिलाई बरतने का आरोप लगाते हुए राज्य सरकार के खिलाफ आंदोलन करने लगीं. किशनगंज शिक्षा आंदोलन के बैनर तले किशनगंज से लेकर दिल्ली तक धरने-प्रदर्शन होने लगे. इस आंदोलन में किशनगंज के कांग्रेसी सांसद इसरारुल हक कासमी और राजद विधायक अख्तरुल ईमान ने राज्य सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. ईमान कहते हैं, ‘राज्य सरकार की नीतियों के कारण पूरे बिहार की शिक्षा व्यवस्था चौपट हो गई है. और जब केंद्र शैक्षिक रूप से सबसे पिछड़े किशनगंज में अलीगढ़ विश्वविद्यालय के जरिए शिक्षा का विकास करना चाहता है तो राज्य सरकार अडंगा डाल रही है.’

उधर, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कई बार कह चुके हैं कि कुछ लोग इस मामले पर राजनीति कर रहे हैं. 10 अक्टूबर को इस प्रकरण में अचानक एक नया मोड़ तब आया जब राज्य के मानव संसाधन विभाग के मंत्री पीके शाही ने कहा कि अभी तक इस विश्वविद्यालय को खोलने के लिए राष्ट्रपति की तरफ से मंजूरी नहीं मिली है. इसके बाद विरोधी राजनीतिक दलों ने राज्य सरकार की मंशा पर ही सवाल खड़ा कर दिया. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महासचिव तारिक अनवर नियमों का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘राज्य सरकार को इस तरह का बयान देने से पहले समझना चाहिए कि विश्वविद्यालय को जमीन उपलब्ध करा देने के बाद ही राष्ट्रपति की तरफ से मंजूरी की व्यवस्था है.’

राज्य में दो बड़े शिक्षा केंद्र स्थापित किए जाने के मामले में राज्य और केंद्र सरकार की जो भी राजनीतिक मंशा हो पर यह तो साफ दिखता है कि केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए स्थान चयन और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के भूमि आवंटन का विवाद केंद्र और राज्य सरकारों के बीच मूंछ की लड़ाई बन गया है जिसका खामयाजा बिहार के छात्रों को ही भुगतना पड़ रहा है. नतीजा यह है कि राज्य राष्ट्रीय स्तर के दो विश्वविद्यालय पाने से वंचित हो रहा है.

आंचल की ओट में नोबेल

मन तो कर रहा था कि एक अंतर्देशीय पत्र पर मुबारकबाद का संदेश लिख कर इस साल की तीन नोबेल विजेता महिलाओं के नाम भेज देता, लेकिन अंतर्देशीय पत्र पर साफ-साफ शब्दों में चेतावनी छपी हुई है– इस पत्र के भीतर कुछ भी न रखें. इसलिए यह मुबारकबाद इस लेख में. इस साल की पहली दो नोबेल विजेता तो एक ही अफ्रीकी देश लाइबेरिया की रहने वाली हैं. एक हैं एलेन सरलीफ और दूसरी लेमाह बोवी.

सरलीफ लाइबेरिया की पहली महिला राष्ट्रपति भी हैं, जिन्होंने इस देश में बरसों से चली आ रही सत्ता-जनित जातीय हिंसा को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. राष्ट्रपति बनने से पहले वे कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों में उच्च पदों पर भी रह चुकी थीं. चुनावों के दौरान उन्हें यह सुनने को मिलता था कि जिस हिंसा को पुरुष राजनेता भी रोक पाने में सक्षम नहीं हैं उस पर एक महिला कैसे काबू पाएगी. सरलीफ का एक ही जवाब होता था कि एक मां ही अपने बेटों को घर लौटने पर राजी कर सकती है, और मैं एक मां हूं. लाइबेरिया के समाज ने पहली बार एक मां को राष्ट्रपति बना दिया. अपने दृढ़ विश्वास के चलते वे हिंसा को काबू करने में सक्षम रहीं. उन्होंने दंड की जगह क्षमा का प्रावधान रखा जो कारगर साबित हुआ. अपने देश में ही नहीं बल्कि दूसरे अफ्रीकी देशों जैसे सिएरा लेओन और घाना में भी सामाजिक शांति बहाल करने में उन्होंने सराहनीय कदम उठाए. सरलीफ को अपने इन प्रयत्नों के लिए नोबेल शांति पुरस्कार मिलने पर बधाई.

दूसरी नोबेल पुरस्कार विजेता भी लाइबेरिया की ही रहने वाली 39 साल की लेमाह बोवी नाम की महिला हैं. इनका काम भी कुछ-कुछ सरलीफ जैसा ही रहा, लेकिन उन्होंने राजनीति को नहीं अपनाया. लेमाह ने भी हिंसा को खत्म करने में महिलाओं की भूमिका को सर्वोपरि माना. उनका इस नतीजे पर पहुंचना और इस रास्ते को अपनाना एक घटना से जुड़ा है जो उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है-

1991 के जून महीने में दोपहर के समय ककाता नाम के शहर में 12-13 साल का एक बालक सैनिक जो लाइबेरिया गृहयुद्ध में किसी गुरिल्ला दस्ते का हिस्सा था. दो साल से उसकी मां उसे ढंूढ़ते हुए इस शहर पहुंची तो उसकी नजर अपने बेटे पर पड़ी और उस मां ने पुकारा – ओलुची! ओलुची नाम के इस सैनिक बालक ने जब अपनी मां को देखा तो वह मां से मिलने दौड़ पड़ा – मगर बंदूक का भार मां से मिलने में बाधा डाल रहा था. आखिरकार उसने बंदूक अपने कंधे से हटा कर जमीन पर रख दी और बन गया सैनिक से एक मां का बेटा. लोगों ने इस दृश्य को देखा, कुछ भावुक भी हुए लेकिन 19 बरस की लेमाह इस अद्भुत दृश्य को देखकर हैरान थी कि कैसे एक सैनिक एक बेटे में बदल गया. लेमाह को अपने संघर्ष के लिए जैसे ब्रह्मसूत्र मिल गया था. यह मंत्र एक शब्द का था – मां! इसके बाद लेमाह ने पूरे लाइबेरिया में घूम-घूम कर महिलाओं को हिंसा के खिलाफ संगठित किया और उस पर काबू पाने में सफलता भी हासिल की और नोबेल भी. ओलुची की मां से प्रेरणा पाने वाली इस मां को बधाई.

अब बारी है इन तीनो में सबसे कम उम्र 34 साल की महिला तवक्कुल करमान की जो अरब देश यमन की रहने वाली हैं. करमान अरब देश की पहली महिला हैं जिसे नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है. करमान कानूनविद हैं, सामजिक कार्यकर्ता और पत्रकार भी. कुछ बरस पहले जब उन्होंने एक लेख में यह छापा कि राष्ट्रपति अली अब्दुल्लाह सालेह एक भ्रष्ट नेता हैं और उन्हें अपने पद पर रहने का कोई अधिकार नहीं है तो वहां की सरकार ने उन पर कई जुल्म ढाए, लेकिन वह डरने की बजाय और ज्यादा प्रखर होकर आगे आईं और महिलाओं को जागृत करने में लग गईं.  यमन के समाज में यह पहली बार देखा गया कि महिलाएं किसी राजनीतिक आंदोलन की अगुआई करें, लेकिन इन महिलाओं के तेवर ऐसे थे कि वहां का शासन भी अचंभित था. अरब देशों में क्रांति की आग भड़की तो उसमें यमन भी शामिल हो गया. तवक्कुल करमान और कुछ अन्य महिलाओं ने यमन की राजधानी साना में तहरीर नाम के मैदान में एक तंबू ताना और तानाशाह सरकार के खिलाफ आंदोलन का हिस्सा बन गईं. इस तंबू में महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर और नेल्सन मंडेला की तस्वीर के साथ कुरान की यह आयत भी लिखी है ‘वे लोग जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं वे निर्भीक होकर सत्य के मार्ग पर अडिग रहंे, भले ही यह उनके निजी हितों के विरुद्ध क्यों न हो.’ करमान का नोबेल पुरस्कार जीतना कई मायनो में महत्वपूर्ण है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है उनका एक अरब मुसलमान महिला होना जिसका यह मानना है कि यह वही कुरान का सिद्धांत है जो जुल्म के खिलाफ आवाज न उठाने को जुल्म में हिस्सेदारी मानता है.

तीन बच्चों की मां करमान को बधाई देने से पहले उन्हें एक चेतावनी दिए देता हूं कि जब वे नोबेल पुरस्कार समारोह में भाग लेने नार्वे जा रही हों तो यूरोप के फ्रांस नाम के देश से होकर न गुजरें. वहां उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है या उन पर जुर्माना हो सकता है. इसलिए नहीं कि उन्होंने इस देश के खिलाफ कोई जुर्म किया है लेकिन इसलिए कि इनके सर का दुपट्टा फ्रांसीसी सरकार की धर्मनिरपेक्षता को चुनौती देता है.

अगर मुसलिम आतंकवादी होते तो खाली हाथ तानाशाहों के टैंकों के सामने नहीं जाते. बारूद के ढेर में बहार नहीं आती, यह तो बाग-बगीचों में फूलों के न्योते को स्वीकार करती हुई आती है

करमान को नोबेल पुरस्कार मिलना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस बहाने ही सही इस्लाम पर बहस तो होगी. इस्लाम पर बहस होगी तो पश्चिमी सभ्यता पर भी बहस होनी निश्चित है. एक ओर जहां यह मत स्थापित किया जा रहा है कि इस्लाम में लोकतंत्र का कोई स्थान नहीं है, लेकिन दुनिया के नक्शे को देखने पर पाते हैं कि सबसे ज्यादा मुसलिम जनसंख्या वाले देश इंडोनेशिया में लोकतंत्र ही है, मलेशिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान भी तो लोकतांत्रिक देश ही हैं. इंडोनेशिया और बांग्लादेश में तो राष्ट्राध्यक्ष भी महिला ही हैं. ईरान की वर्तमान सरकार में तीन उपराष्ट्रपति महिलाएं ही हैं. अमेरिका में तो स्त्रियों का राष्ट्रपति बनना अब तक तो संभव नहीं हुआ है. उन्हें तो मताधिकार भी बीसवीं शताब्दी में ही मिल पाया. इस तथ्य की ओर भी इशारा किया जाना चाहिए कि इस्लामी देश ईरान में महिला विवाह के पश्चात भी अपने कुलनाम का ही इस्तेमाल करती है.  उदाहरण के लिए अयातुल्लाह खुमैनी की पत्नी खादिजा सगफी को अपने नाम को खादिजा खुमैनी में बदलने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ा. पश्चिमी देशों में भी महिलाएं अब कुछ सकुचाते हुए विवाहोपरांत अपने कुलनाम को पति के कुलनाम के साथ इस्तेमाल करने लगी हैं, जैसे हिलेरी ‘रॉडहेम’ क्लिंटन.

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में औद्यौगिकीकरण ने दुनिया की कई मायनों में तस्वीर बदली. इंसान की व्यक्तिगत और सामाजिक जिंदगी पर इसका असर तो हुआ ही, सत्ता के स्वरूप में भी आमूलचूल बदलाव आए. द्वितीय विश्वयुद्ध तक आते-आते यह स्पष्ट हो गया कि दूसरी शासन पद्धतियों का दौर अब समाप्त हो गया है. यह वही दौर था जब लोकतंत्र टैंकों की तोपों पर सवार होकर जर्मनी और जापान में लाया गया. पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के इस्लामी देशों में भी बदलाव आए, लेकिन लोकतंत्र का वह स्वरूप जो यूरोप और अमेरिकी लोकतंत्र की परिभाषा में खरा उतरता, वहां नहीं दिखा. इस लोकतंत्र को तो अब आना ही था इसलिए इसके स्वागत के लिए अफगानिस्तान को कालीन से ढक दिया गया – यह दीगर बात है कि यह कालीन बमों की कालीन थी. इसी तरह से इराक में लोकतंत्र रेगिस्तानी आंधी पर सवार होकर आया. अब ये दोनों राष्ट्र भी लोकतांत्रिक देशों में शुमार होने लगे हैं. अरब समाज को यह रास्ता गवारा न था. शायद वह जानता था कि परिवर्तन तब ही सकारात्मक और सार्थक होता है जब वह हिंसा और जबरदस्ती पर आधारित न हो.  इस सोच ने शांतिपूर्ण ढंग से बदलाव लाने के लिए बलिदान और सिविल नाफरमानी का रास्ता अपनाया जिसे दुनिया ‘अरब बहार’ के नाम से पुकारने लगी है. अब तो अमेरिका में चल रहे वॉल स्ट्रीट आंदोलन के क्रांतिकारी इस अमेरिकी आंदोलन को अरब बहार से ही प्रेरित मानते हैं.

अरब बहार के तहत राजसत्ता में किस तरह के बदलाव लाने की क्षमता होगी यह तो बहुत-से समीकरणों पर निर्भर करता है लेकिन इस इंकलाब की सबसे बड़ी उपलब्धि मुसलिम समाज को अतिरेकवादी मानने वाली सोच को बदलने में है जिसने अल-कायदा सरीखी सोच को अलग-थलग और नाकारा बना दिया.

नोबेल पुरस्कार पाने की खबर पर टिप्पणी करते हुए करमान ने कहा कि यह पुरस्कार इस भ्रांति को बदलने में सहायक होगा कि मुसलिम आतंकवादी ही होते हैं – अगर मुसलिम आतंकवादी होते तो खाली हाथ तानाशाहों के टैंकों के सामने नहीं जाते. बारूद के ढेर में बहार नहीं आती, यह तो बाग-बगीचों में फूलों के न्यौते को स्वीकार करती हुई आती है. अरब हमारा बाग है और हम हैं इस बाग के फूल जिनके न्योते पर आई है बहार.

मां के पैरों तले जन्नत है, और अब के बरस तो आंचल की ओट में नोबेल भी! मां को बंदूक नहीं बल्कि गीत भाते हैं. सरलीफ, लेमाह और तवक्कुल करमान नाम की मांओं को शायद यह गीत भाए – अम्मा तुझे सलाम!

एक जेपी हजार फसाने

 

अक्टूबर का पहला पखवाड़ा राजनीतिक कार्यकर्ताओं, राजनेताओं और राजनीतिबाजों के लिए आयोजनों व उत्सवों का पखवाड़ा होता है. दो अक्टूबर को महात्मा गांधी व लाल बहादुर शास्त्री की जयंती. आठ अक्टूबर को जयप्रकाश नारायण की पुण्यतिथि. 11 अक्टूबर को जयप्रकाश नारायण की जयंती. 12 अक्टूबर को डॉ राममनोहर लोहिया की पुण्यतिथि. यह भी संयोग ही है कि गांधी, जेपी और लोहिया के जीवन-मरण से जुड़े अहम आयोजन इस एक पखवाड़े में ही पड़ते हैं. एक समय में समाजवादियों के बीच इन्हीं तीनों नेताओं को लेकर नारा भी लगाया जाता था- ‘अंधेरे में तीन प्रकाश, गांधी, लोहिया, जयप्रकाश’.

लेकिन इस बार सब कुछ हर साल की तरह नहीं गुजरा. इस बार यह पखवाड़ा राजनीतिक गहमागहमी और दंगलबाजी का पखवाड़ा बन गया. गांधी हर साल की तरह याद किए गए. लोहिया को लोहियावादियों-समाजवादियों ने अपने तरीके से एक छोटे दायरे में याद किया. सबको पछाड़ जेपी छाए रहे. लेकिन वे सिर्फ अपनी जयंती पर ही छाए. उस दिन भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी जनचेतना यात्रा की शुरुआत जेपी की जन्मस्थली सिताबदियारा से की. उससे ठीक तीन रोज पहले जेपी की पुण्यतिथि भी थी, मगर उस दिन सिताबदियारा किसी भी आयोजन से वंचित रहा.

सिताबदियारा पर नया सितम

एक जमाने के जमींदार सिताब राय के नाम पर बसे 27 टोलों का समूह है सिताबदियारा. गंगा और सरयू की धार इलाके को हर साल काटती है. लेकिन लगातार कटते रहने, बर्बाद होने के बावजूद आपसी जुड़ाव का भी अद्भुत इलाका है यह. एक मिसाल की तरह. सिताबदियारा गांवों के समूह का हिस्सा उत्तर प्रदेश में भी है, बिहार में भी. स्थानीय लोगों और जानकारी के अनुसार सिताबदियारा के 16 टोले बिहार में हैं और 11 उत्तर प्रदेश में. अब टोले बढ़ गए हैं. 40 के करीब. उत्तर प्रदेश में बलिया जिले में सिताबदियारा पड़ता है. बिहार में छपरा जिले में. पास में ही आरा जिला भी छूता है. आरा-बलिया-छपरा, लोकमानस में बसे मशहूर तीनों जिलों का मेल. इसी सिताबदियारा में जन्मे थे जेपी. जेपी का यहां जन्म लेना ही इस इलाके को देश-दुनिया के मानचित्र पर ले गया. जेपी की राजनीति ने 27 टोलों को जोड़ दिया था, अब उन्हीं के नाम पर हो रही राजनीति पीढि़यों से साथ रह रहे हजारों ग्रामीणों की बसाहट को बांट रही है. उनका सिताबदियारा उनकी जयंती पर बंटता हुआ देखा जा सकता था.

सिताबदियारा के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से में ही जयप्रकाशनगर टोला पड़ता है. इसका पुराना नाम बबूरबानी था. जेपी का जन्मस्थान यहीं माना जाता रहा है. बलिया के सांसद और बाद में देश के प्रधानमंत्री बने समाजवादी नेता चंद्रशेखर ने बबूरबानी को जयप्रकाशनगर बनाया. सिर्फ नाम बदलकर नहीं, काम के जरिए. सिताबदियारा के जयप्रकाशनगर में जेपी की स्मृति में बना संग्रहालय, आश्रम, शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान, अतिथिशाला आदि एक मॉडल हैं. देश में ऐसे स्मारक शायद ही कहीं देखने को मिलंे. जेपी के नाम पर और चंद्रशेखर के प्रयास से यहां दिग्गजों का जुटान हर साल होता था. जेपी जयंती के मौके पर. सर्वोदय मेले के मौके पर. लेकिन चंद्रशेखर के दुनिया से विदा होते ही ये सब अतीत की बातें बनती गयीं.

जेपी की राजनीति बिहार के हिस्से वाला सिताबदियारा (एकदम बाएं) और उत्तर प्रदेश के हिस्से में पड़ने वाला जयप्रकाशनगर अलग पहचान रखते हैं

जेपी का एक और जन्मस्थान भी बताया जाता है, जो पास के ही लालाटोला में है. लालाटोला जयप्रकाशनगर से सटा हुआ गांव है जो बिहार के हिस्से वाले सिताबदियारा में पड़ता है. पिछले साल से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जेपी की इस जन्मस्थली पर जाना शुरू किया. नीतीश पिछले साल गए तो कई घोषणाएं हुईं. नीतीश के प्रयास से ही इस बार यहां आजादी के बाद पहली बार बिजली भी पहुंच गई. बेशक आडवाणी की जनचेतना यात्रा के बहाने ही सही नीतीश ने अपने शासन के छठे साल में उत्तर प्रदेश से किराये पर खरीद कर यहां बिजली पहुंचा दी. पर जेपी के एक और चेले लालू प्रसाद यादव के 15 साल के राज-पाट के दौरान यह इलाका हर सुविधा से महरूम रहा. आज यहां पानी की टंकी भी लगभग बनकर तैयार हो गई है. अस्पताल का निर्माण भी चल रहा है. सड़कों का शिलान्यास भी 11 अक्टूबर को किया गया.

नीतीश कुमार, लालकृष्ण आडवाणी और भाजपा के अन्य कई बड़े नेता बिहार के हिस्से में पड़ने वाले जेपी की जन्मस्थली पर ही इस बार जुटे थे. मगर जयप्रकाशनगर इनमें से कोई नहीं गया. वहां चंद्रशेखर के सपाई सांसद बेटे नीरज शेखर, बसपाई विधानपार्षद रविशंकर सिंह और ग्रामीणों की आबादी जुटी. अब नीतीश कुमार बिहार में पड़ने वाले सिताबदियारा में जेपी जन्मस्थान को मॉडल के तौर पर विकसित करने के अभियान में लगे हुए हैं. इसका राजनीतिक अभिप्राय चाहे जो हो लेकिन बिहार के सिताबदियारा इलाके में पड़ने वाले अब सीधे-सीधे कहने लगे हैं कि जेपी जन्मे बिहार के लालाटोला में ही थे, बाद में अपनी जमीन पर घर बनाकर उत्तर प्रदेश वाले हिस्से में चले गए. उत्तर प्रदेश के सिताबदियारा वाले कहते हैं, ‘दुनिया जानती है कि जेपी उत्तर प्रदेश के सिताबदियारा वाले हिस्से में जन्मे थे.’ छपरा के भाजपा विधायक और बिहार सरकार के श्रम मंत्री जनार्दन सिग्रीवाल यह पूछने पर कि जन्मस्थान को लेकर यह विवाद क्यों, साफ-साफ कहते हैं कि वे तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर ही बिहार में उनके जन्मस्थान पर जयंती मना रहे हैं. सिग्रीवाल कहते हैं, ‘हमारे पास पासपोर्ट है जेपी का, उसमें लालाटोला ही लिखा हुआ है.’ सिताबदियारा इलाके के ही दलजीत सिंह टोला के रहने वाले प्रसिद्ध पत्रकार हरिवंश कहते हैं, ‘जयप्रकाश जी उत्तर प्रदेश में जन्मे कि बिहार में, यह कोई मुद्दा ही नहीं है. जेपी पूरे देश के थे. लोकनायक थे.’ प्रसिद्ध राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं कि महापुरुषों के नाम पर ऐसी ओछी राजनीति होती रहती है. बलिया के सपा सांसद और चंद्रशेखर के पुत्र नीरज शेखर कहते हैं, ‘बाबू जी जयप्रकाशनगर के बाद बिहार के हिस्से वाले सिताबदियारा में ही काम करने वाले थे. वे कभी दोनों इलाकों में फर्क नहीं करते थे.’
यह सही है कि राजनीति कोे चमकाने के फेर में ऐसी राजनीति होती रहती है. होगी भी लेकिन सिताबदियारा में 11 अक्टूबर को जेपी जयंती के अवसर पर जब आडवाणी देश भर की बातें कर रहे थे, जेपी से अपने रिश्ते की दुहाई दे रहे थे, उस वक्त कई सिताबदियारावासी यह टोह लगाने में लगे हुए थे कि जयप्रकाशनगर में कितना आदमी आया रे…! एक-दूसरे की क्षमता आंक रहे थे. नीतीश की मंशा चाहे जो हो, उनकी कोशिश से संभव है कि अगले कुछ वर्षों में बिहार का सिताबदियारा चमक जाए लेकिन जिन्हें राज्यों की सीमा नहीं बांट सकी थी, वे बंट जाएंगे, इसके संकेत इस बार जेपी जयंती पर मिल रहे थे.

एक जेपी के नाम पर तरह-तरह के
खेल-तमाशे


जेपी भारतीय राजनीति में गैरकांग्रेसी राजनीतिक पार्टियों व राजनेताओं के लिए सबसे बड़े आईकॉन हैं. गांधी के बाद राजनीति करने के लिए सबसे बड़े अवलंबन. खंड-खंड में और तरह-तरह के मुखौटों के साथ राज की राजनीति करने वाले समाजवादी जेपी पर अपना सबसे मजबूत दावा ठोंकते हैं. भाजपा भी उन्हें अपना आधार बनाने की कोशिश में लगी रहती है. जनसंघ के जमाने से ही. इस बार आडवाणी अपनी जनचेतना यात्रा के आरंभ में सिताबदियारा से लेकर पटना तक जेपी के नाम पर ज्यादा ही जोर देते रहे. आडवाणी बार-बार दुहराते रहे कि जेपी जनसंघ को फासीवादी कहने पर कहते थे कि जो जनसंघ को फासीवादी कहता है वह जेपी को भी कहे. आडवाणी ने दूसरे समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया का रिश्ता भी जनसंघ के जमाने से जोड़ा. आडवाणी ने कहा कि डॉ लोहिया जनसंघ के अखंड राष्ट्रवादी मॉडल का समर्थन करते थे. आडवाणी ने सिताबदियारा से दिल्ली तक की यात्रा शुरू की है, तिथि के तौर पर जेपी की जयंती को चुना है, स्थान के तौर पर जेपी की जन्मस्थली को चुना है तो जेपी का नाम लेंगे ही लेकिन आडवाणी के ये बयान हजम नहीं हो रहे. राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं कि यह सच है कि थोड़े समय के लिए जेपी के साथ जनसंघी जुड़ गए थे, लेकिन जेपी ने कभी जनसंघियों को गैरसांप्रदायिक होने का फतवा नहीं दिया था बल्कि वे इसे लेकर कहते थे कि जनसंघी सांप्रदायिकता को नहीं छोड़ सकते. मुंबई में रहने वाले जेपी के मानसपुत्र माने जाने वाले प्रसिद्ध विचारक कुमार प्रशांत कहते हैं- ‘दरअसल जिन्होंने जेपी को 1974 से 1977 के बीच पहचाना, उनको जेपी की पहचान नहीं हो सकती. 1974 के आंदोलन के बाद जेपी को जानने वाले अवलंबन के रूप में उनका इस्तेमाल कर रहे हैं. कुमार प्रशांत कहते हैं, ‘जेपी ने कभी गैर कांग्रेसवाद का नारा नहीं दिया था, बल्कि वे कहते थे कि नदी के प्रवाह में बीच में लाश की तरह कांग्रेस आ गयी है तो प्रवाह उसे किनारे कर देगा.’ जेपी के आंदोलन में जो लोग आ रहे थे, जेपी ने सबको अपनी राजनीतिक पार्टी से नाता तोड़ने को कहा था. उन्होंने खुद के संगठन तरुण भारत संघ का भी विघटन कर दिया था. कई समूह जेपी के साथ जुड़ गये, जेपी और परेशान रहने लगे. वे कहा करते थे- लोगों के बीच जाता हूं तो जनसैलाब देखकर नाचने का मन करता है, लेकिन मेरी स्थिति मोर जैसी हो जाती है. मोर भी नाचना चाहता है लेकिन जैसे ही वह अपने पांव की ओर देखता है, नाच नहीं पाता. उसके गंदे-भद्दे पांव उसे नाचने से रोक देते हैं. वैसे ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद वगैरह के जुड़ जाने से अपने को महसूस करते थे जेपी. कुमार प्रशांत कहते हैं कि जेपी को तभी अपने शिष्यों से निराशा हो गयी थी. उन्होंने छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का गठन किया था और सबसे पूछा था कि अब दो धारा है. एक संसदीय व विधायी राजनीति में जाने का, दूसरा वाहिनी से जुड़ने का. उनके लोगों ने अपनी-अपनी राह पकड़ ली. जो संसदीय-विधायी राजनीति में गए, उन्होंने जेपी को सिंबल बना लिया. जो दूसरे रास्ते चले, आज भी संघर्ष के साथ रचना की कोशिश में लगे हुए हैं. यह सच है कि जेपी के आंदोलन से जुड़े कई आंदोलनकारी आज भी पूरी ईमानदारी से संघर्ष और सृजन की चेष्टा में लगे हुए हैं. देश के अलग-अलग हिस्से में. लेकिन मुख्यधारा की राजनीति करने वाले 1974 के आंदोलन के इस बेजोड़ नायक का वर्षों से अपनी तरह से इस्तेमाल कर रहे हैं. जेपी ने कभी कांग्रेस को धूल चटा दी थी. अब भी कई कांग्रेसियों को जेपी फूटी आंख नहीं सुहाते. लेकिन जेपी के एक प्रमुख राजनीतिक शिष्य लालू प्रसाद यादव कांग्रेस की छत्रछाया पाने के लिए बेताब-से रहते हैं. कांग्रेस के साथ सत्ता-शासन भोग चुके हैं. जेपी जनसंघियों से दूरी बनाकर रखना चाहते थे. जेपी के ही दूसरे राजनीतिक शिष्य नीतीश कुमार जनसंघ के नये संस्करण भाजपा के साथ केंद्र में सत्ता सुख भोग चुके हैं, राज्य में शासन कर रहे हैं. राजनीति के मॉडल में जेपी घड़ी की पेंडुलम की तरह बना दिए गए हैं. वक्त को आगे बढ़ाने, भगाने या गुजारने के लिए इधर करो, उधर करो. वक्त निकलता जाएगा.

नीतीश ने सिताबदियारा में बिजली पहुंचा दी है. लालू प्रसाद यादव के 15 साल के राज-पाट के दौरान यह इलाका हर सुविधा से महरूम रहा

तो क्या यह जेपी की आइडियोलॉजी की चूक है या उनकी आइडियोलॉजी में फ्लेक्सिबिलिटी इतनी थी कि हर कोई अपनी सुविधा से इस्तेमाल कर सकता है? जनसंघी भी. बिहार के लेखक व विचारक प्रसन्न चाैधरी कहते हैं कि ऐसा नहीं है. वे पूछते हैं कि यह हक कैसे नीतीश कुमार या किसी और को मिल गया कि वे आडवाणी को जेपी की विरासत को अपने तरीके से राजनीतिक इस्तेमाल के लिए दे दिए. दिल्ली में रहनेवाले प्रसिद्ध लेखक गिरीश मिश्र कहते हैं, ‘जेपी ने 1948 में गांधी की हत्या के बाद दिल्ली के रामलीला मैदान की एक सभा में हुंकार भरते हुए सरदार वल्लभभाई पटेल से पूछा था- आरएसएस पर अब तक प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया आपने?

कुमार प्रशांत, प्रसन्न चौधरी, गिरीश मिश्र, योगेंद्र यादव जैसे लोगों की चिंता वाजिब हो सकती है, लेकिन जेपी के कथित राजनीतिक शिष्यों के लिए ऐसे सवाल बेमानी हैं. उनके लिए क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, दोनों कुछ-कुछ बराबर हंै. और भाजपा से पूछें तो उसके पास एक जवाब है. 1980 में जब भाजपा बनी थी, तभी उसके संविधान में लिखा गया था- इस पार्टी की स्थापना का उद्देश्य है- गांधीवादी समाजवाद की स्थापना. इसका जवाब क्या है?