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मेटाबोलिक सिंड्रोमः ये है क्या बला?

आजकल डॉक्टर लोग कई लोगों को जांच-वांच करके यह बताते हैं कि आपको दरअसल ‘मेटाबोलिक सिंड्रोम’ नामक परेशानी है. पर वे प्रायः यह साफ नहीं करते हैं कि यह ‘मेटाबोलिक सिंड्रोम’ आखिर क्या बला है. मरीज के पूछने पर भी डॉक्टर अक्सर यही जवाब देते हैं कि इसके होने से आगे जाकर आपका खतरा दो से पांच गुना ज्यादा बढ़ जाता है. इससे आपको हार्ट अटैक या लकवे का स्ट्रोक पड़ सकता है. बस. इससे ज्यादा बताया भी तो इंसुलिन रेजिसटेंस, बहुत ज्यादा पेरिटोनियल फैट जैसी तकनीकी शब्दावली का वह जंगल खड़ा कर देते हैं जहां आपके हाथ को हाथ नहीं सूझता.

मुझे लगता है कि हर शख्स को ‘मेटाबोलिक सिंड्रोम’ का थोड़ा-बहुत सिर पैर पता तो होना ही चाहिए. ऐसा माना जाता है कि लगभग 24 प्रतिशत वयस्कों में तथा 44 प्रतिशत साठ वर्ष से ऊपर की उम्र वालों में यह विकार मौजूद हो सकता है. संभव है कि उन्हें कोई तकलीफ न हो रही हो तब भी इसके बारे में जानकारी होगी तो इसे कंट्रोल भी कर लेंगे. कंट्रोल कर लेंगे तो हार्ट अटैक और स्ट्रोक का रिस्क भी बहुत हद तक कम कर सकेंगे.

 यह ‘मेटाबोलिक सिंड्रोम’ आखिर है क्या बला?  इस विकार में शरीर के अंदर ही अंदर मानो एक षड्यंत्र-सा चल पड़ता है. आपके लीवर और पेट के अंदर की चर्बी में बेतहाशा वृद्धि हो जाती है. यह बात ऊपर से पता भी नहीं चलती. जरूरी नहीं कि आप मोटे लगें पर अंदर खतरनाक वाली चर्बी बढ़ जाती है. यह खून में घुलकर अंततः दिल और दिमाग की नलियों में जमा होकर उन्हें अवरुद्ध करती रहती है. शरीर में इंसुलिन बनती अवश्य है परंतु शरीर पर उसका वांछित असर ही  नहीं होता. इसी को डॉक्टर लोग ‘इंसुलिन रेजिस्टेंस’ की स्थिति कहते हैं. नतीजा? ऐसे शख्स की ब्लड शुगर बढ़ी रहती है. अंततः उसे डायबिटीज भी हो सकती है. खून की नलियों को तनावमुक्त रखने का गुण भी समाप्त हो जाता है.

‘वजन कम करने और नियमित व्यायाम की सलाह मैं जरूर देता हूं. ये दो बातें आपकी बहुत सारी स्वास्थ्य समस्याओं का शर्तिया हल है

वे अब ‘रिलैक्स’ नहीं हो पातीं. इससे रक्तचाप बढ़ा रह सकता है. रक्त में खराब किस्म के कोलेस्ट्राल बढ़ जाते हैं. खराब कोलेस्ट्राल का खोटा सिक्का चलता है और अच्छे कोलेस्ट्राल के खरे सिक्के की कीमत कम हो जाती है. और यह सारा उत्पात उस आदमी के शरीर में चल रहा होता है जो ऊपर से एकदम स्वस्थ महसूस कर रहा है. जब स्वस्थ हैं तो जांच भी क्यों कराना? फिर एक दिन उसे हार्ट अटैक आ जाता है या डायबिटीज निकल आती है या ऐसा ही कुछ हो जाता है जो उसके हिसाब से एकदम अनपेक्षित था पर डॉक्टर की नजर में इतना अपेक्षित था कि यह तो होना ही था. न होता तो आश्चर्य कहाता. तो मुझे कैसे पता चले कि मुझे ‘मेटाबोलिक सिंड्रोम’ है अथवा नहीं? 

डाक्टर के पास जाएं. रुटीन मेडिकल चेकअप कराएं. डॉक्टर की सलाह पर कुछ ब्लड शुगर तथा कोलेस्ट्रोल की जांच. बस. इस सबसे यदि यह पता चले किः

1. यदि आप औरत हैं तो आपकी कमर 35 इंच से ज्यादा है और यदि आप आदमी हैं तो 40 इंच से ज्यादा है.

2. आपका अच्छा कोलेस्ट्रोल (HDL) कम है (औरतों में 50mg/dl से कम और आदमी में 40mg/dl से कम),

3. आपका खराब कालेस्ट्रोल (ट्राईग्लिसराइड्स) 150mg/dl से ज्यादा है.

4. आपका रक्तचाप 130/80 से ज्यादा है.

5. खाली पेट ब्लड शुगर 100mg/dl से ज्यादा है.

तो जान लें कि आपको ‘मेटाबोलिक सिंड्रोम’ है. आप ऊपर से तो स्वस्थ दिखते हैं परंतु आपकी मे टाबोलिज्म, आपका ऊर्जा पैदा करने का सिस्टम, आपका इंजन खराब चल रहा है तो यह किसी भी दिन जरूर बैठ जाएगा. आप तेजी से डायबिटीज,उच्च रक्तचाप, हार्ट अटैक तथा स्ट्रोक की दिशा में जा रहे हैं. उनसे पहले ही आप सतर्क हो जाएं.

तो मैं अब क्या करूं, डॉक्टर साहब? मैं तो जांच कराके फंस गया, साहब. चिंता में डाल दिया आपने तो. कोई दवाई बताइए ना. कैसे इस ‘मेटाबोलिक सिंड्रोम’ नामक छिपे हुए दुश्मन को कंट्रोल किया जाए? क्या करें यदि जांच में ऐसा निकल आए? और कुछ भी न करूं तो? देखिए, यदि इसका पता चल जाए तो इसे नजरअंदाज मत करें. ऐसा किया तो यह रास्ता अंततः आपको उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, हार्ट अटैक तथा स्ट्रोक की तरफ ले जाएगा. इसे कंट्रोल करने के लिए यह सब करें जो मैं बता रहा हूं:

1. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि ज्यादा न खाएं. आवश्यकता से अधिक कैलोरी ही इसकी जड़ है. अपनी भूख से एकाध रोटी कम ही खाएं.

2. हाई कैलोरी बम टाइप के भोज्य पदार्थ विशेष तौर पर शक्कर, घी और तेल में बने हुऐ खाने-पीने के पदार्थ बहुत कम कर दें.

3. शक्कर बंद करके शुगर फ्री सेकरीन टाइप कुछ खा लूं क्या? स्वाद के स्तर पर पूरी संतुष्टि. नहीं, बनावटी मीठापन पैदा करने वाली चीजें अंततः वजन तथा कैलोरी बढ़ाती ही हैं. नहीं. कैसे बढ़ाती हैं, यह फिर कभी बताऊंगा.

4. खाना खाने के बाद फल खाएं और साथ में सलाद भी.फलों को भोजन के तुरंत बाद खाने से एंटी ऑक्सीडेंट वाला लाभदायक प्रभाव पड़ता है जो खाली पेट खाए गए फल से अधिक नहीं मिलता.

5. वैज्ञानिक अध्ययन बताता है कि खाने से ठीक पूर्व यदि 300ml बीयर या 150ml वाइन या 45ml शराब ली जाए तो यह ‘मेटाबोलिक सिंड्रोम’ को ठीक करने में बेहद मददगार है. परंतु याद रहे कि बस इसी मात्रा में. यदि इससे ज्यादा ली तो बेहद खराब असर भी होता है. यदि आप इस मात्रा में रुकने की इच्छाशक्ति रखते हैं तो यह सलाह आपके लिए है. यदि आप मेरी सलाह के बहाने दारू पीना चाहते हैं तो क्षमा करें.

6. कॉफी पीने से भी इसमें फायदा होगा. कॉफी, चाय, मछली और मछली का तेल आदि भी फायदा करते हैं.

7. वजन कम करें.

8. नियमित व्यायाम करें. आप कहेंगे कि मैं जब चाहे जिस बहाने से वजन कम करने और व्यायाम करने की सलाह को बीच में घसीट ही लाता हूं. क्या करूं? ये दो बातें आपकी बहुत सारी स्वास्थ्य समस्याओं का शर्तिया समाधान हैं. कभी करके देखें.

उजाले के लिए अंधेरगर्दी

कुछ समय से झारखंड के गढ़वा जिले की पहचान माओवादियों के गढ़ के रूप में बन गई है. इस नई पहचान के खेल में एक पुरानी समस्या इस कदर हाशिये पर चली गई है कि उसकी वजह से हजारों लोगों की घुटन भरी जिंदगी पर कभी बात ही नहीं हुई. अब, जब इतने वर्षों बाद सरकार को उस मसले की याद भी आई है तो यह किसी पुराने घाव को कुरेदने जैसा ही है. वर्षों पहले की यह समस्या गढ़वा जिले के घोर नक्सल प्रभावित इलाके भंडरिया की है. यहां कोयल नदी पर 1969 में मंडल बांध बनाने की घोषणा हुई थी. कहा गया कि सिंचाई के लिए तरस रहे किसानों को पानी मिलेगा और बिजली भी. लोग मान गए. जमीन अधिग्रहण का काम शुरू हुआ. लेकिन 1974-75 में जब मुआवजे की बात आई तो कुछ को मुआवजा देने के बाद बाकी लोगों को आश्वासन का झुनझुना थमाकर बांध निर्माण का काम शुरू कर दिया गया. काम शुरू होते ही यह भी कह दिया गया कि आस-पास के 32 गांवों के लोग अपने अपने घर-बार को छोड़ दें वरना वे कभी भी डूब के प्रभाव में आ सकते हैं. 

हुआ भी ऐसा ही. 1986 में बांध लगभग बनकर तैयार हो गया था. अब इसमें पानी को रोकने वाले दरवाजे लगना बाकी था. लेकिन मामला लंबे समय तक लटका ही रहा. इसके एक दशक बाद अगस्त, 1997 को भीषण बाढ़ आ गई. आसपास के कई गांवों के लोग, घर-बार, माल-मवेशी बाढ़ में बह गए. इसके बाद माओवादियों ने पुल निर्माण में लगे अधीक्षण अभियंता बैजनाथ मिश्र की हत्या कर दी. फिर 15 साल से अधिक समय तक बांध निर्माण का काम बंद रहा. इस दौरान जो 32 गांव डूब क्षेत्र में आए थे, वहां जिंदगी बद से बदतर होती गई. आज भी वहां जाने के लिए 16-17 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है. 1,100 से अधिक परिवार इस तबाही के दायरे में आते हैं, लेकिन इतने परिवारों के लिए एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय की सुविधा छोड़ दें तो आज तक कुछ भी मयस्सर नहीं हो सका है. यहां तक कि इन गांवों को बगैर मुआवजे के राजस्व गांव की सूची से भी हटा दिया गया. इनमें चेमोसन्या भी है, जो झारखंड के महान शहीद नीलांबर पितांबर का गांव है. 

इलाके के रामनाथ बताते हैं कि पुनर्वास न होने से सभी लोग फिर से वहीं बस गए जहां से बाढ़ ने उजाड़ा था. एक और स्थानीय निवासी उमेश कहते हैं कि 2003 में सरकार ने कहा था कि पूरी सुरक्षा के साथ जमीन व मकान मिलेगा. इस पर भरोसा करके वे अपने गांव कुटकू से भंडरिया आ गए. मेहनत करके सिर छिपाने के लिए एक छप्पर खड़ा किया. मगर स्थानीय उपद्रवी तत्वों ने उसे आग के हवाले कर दिया. उमेश कहते हैं, ‘जब हमने कहा कि जमीन सरकार ने हमें दी है,  हमसे जमीन के पट्टों के कागजात दिखाने को कहा गया. पर हमें तो सरकार ने ये दिए ही नहीं थे. फिर हम कैसे दिखाते. थक-हार कर हम वापस अपनी जगह पर आ गए.’ 

मंडल बांध की ऊंचाई 64.82 मीटर तय है. इससे 12 मेगावाट बिजली का उत्पादन होना है. अब एक बार फिर से सरकार इस बांध को पूरा करके बिजली उत्पादन का काम शीघ्र शुरू करने की तैयारी में है. लेकिन पहले से ही उजड़े लोगों की जिंदगी का मसला हाशिये पर है. सरकार की ओर से यह कहा जाता है कि यहां 5,000 से अधिक लोग अवैध तरीके से बस गए हैं, उनका कुछ नहीं किया जा सकता और ग्रामीणों का जो आंदोलन चल रहा है वह माओवादियों द्वारा संचालित है. 

कुटकू जन संघर्ष समिति से जुड़े जगत सिंह बताते हैं कि 23 जुलाई को गांववालों की बैठक हो चुकी है और उसमें तय हुआ है कि न तो मुआवजा लिया जाएगा और न ही बांध बनने दिया जाएगा. वे कहते हैं, ‘पहले हम बाढ़ से हुई क्षतिपूर्ति के लिए संघर्ष करेंगे.’ हालांकि ग्रामीणों को इस बात का डर है कि संघर्ष की धार को कुंद करने के लिए लोगों को जबरदस्ती किसी न किसी बहानेसे माओेवादी या मुखबिर न करार दे दिया जाए.  इस मसले पर एसडीओ एम मुत्थुरमन कहते हैं कि सरकार को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है. वे हकीकत का पता लगाने की कोशिश करने की बात कहते हैं और यह भी कि जो लोग बेमतलब का आंदोलन करेंगे उनके खिलाफ कार्रवाई होगी.

ग्रामीण बताते हैं कि 1986 में सरकार ने बाढ़ प्रभावितों को मुआवजा देने की शुरुआत भी की लेकिन जो चेक मिले उनमें सरकारी नाजिर के दस्तखत ही नहीं थे. अब सरकार बैंक खाता होने पर ही मुआवजा देने की बात कर रही है. कुटकू बचाओ संघर्ष समिति की पुष्पा कुजूर कहती हैं, ‘हमारी जमीन उपजाऊ है. सरकार हमें खेती करने दे और बाजार तक पहुंचने का साधन उपलब्ध कराए तो हम अभिशप्त पलामू के लिए वरदान साबित होंगे.’ जगत सिंह कहते हैं, ‘कानून कहता है कि जिस उद्देश्य के लिए जमीन अधिगृहीत होती है वह अगर 25 वर्षों तक पूरा न हो तो जमीन मूल मालिकों को लौटा देनी चाहिए और गांवों को फिर से राजस्व गांव घोषित करना चाहिए. यहां तो यह काम 40 साल बाद भी अधूरा है. फिर भी न तो हमें जमीन मिली है, न उचित मुआवजा और न ही हमारे गांव राजस्व ग्राम घोषित हुए हैं.

कहां है वह भारत?

 

असम से मानेसर तक का भारत न्यूज मीडिया में कहां है? एक अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से बातें करता हो. कोई 50 साल पहले दी गई अमेरिकी लेखक आर्थर मिलर की इस कसौटी पर अपने राष्ट्रीय अखबारों और चैनलों को कसा जाए तो कितनों में देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई या सुनाई देता है? जो देश उसमें दिखाई या सुनाई देता है, वह ‘भारत’ है या ‘इंडिया’? कहने को दर्जनों राष्ट्रीय चैनल और अखबार हैं, लेकिन क्या उनमें देश और उसके असली नुमाइंदे दिखाई और सुनाई देते हैं? 

असम में पिछले एक महीने से सांप्रदायिक हिंसा जारी है. इसमें अब तक 80 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है. चार लाख से अधिक लोग घर बार छोड़कर राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं. लेकिन इसकी जैसी व्यापक लेकिन संवेदनशील रिपोर्टिंग होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई. वरिष्ठ टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने यह कमी तो मानी है लेकिन उनका यह तर्क समझ से परे है कि असम की हिंसा को पर्याप्त और इन-डेप्थ कवरेज न मिलने के पीछे बड़ी वजह उसका दिल्ली से दूर होना है.

 

वहां देश से अलग होने का कोई आंदोलन हो जाए या चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा करने लगे तो मीडिया का तीसरा नेत्र खुल जाता है

 

इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो असम और पूरा पूर्वोत्तर भारत कथित राष्ट्रीय न्यूज मीडिया के राडार पर कहीं नहीं दिखता. जैसे वह भारत का हिस्सा ही नहीं हो. अलबत्ता वहां देश से अलग होने का कोई आंदोलन शुरू हो जाए या चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा करने लगे तो मीडिया का तीसरा नेत्र खुल जाता है. लेकिन बाकी समय में पूर्वोत्तर के लोग कैसे रह रहे हैं, वहां क्या हो रहा है, उनकी समस्याएं, सवाल और मुद्दे क्या हैं आदि को रिपोर्ट या चर्चा के लायक नहीं समझा जाता है. 

हैरानी की बात नहीं है कि अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों या अखबारों के पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में रिपोर्टर नहीं हैं. खुद राजदीप सरदेसाई के मुताबिक, किसी भी राष्ट्रीय चैनल के पास पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में तो छोड़िए, असम की राजधानी गुवाहाटी में भी ओबी वैन नहीं है. क्या इसकी वजह सिर्फ पूर्वोत्तर भारत का दिल्ली से दूर होना या उसका दुर्गम होना है? या इसकी वजह न्यूजरूम में वहां के प्रति गहरे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रह हैं? कहीं इसका एक बड़ा कारण यह तो नहीं है कि पूर्वोत्तर भारत में टीआरपी का एक भी पीपुलमीटर नहीं लगा है और बाकी देश में भी पूर्वोत्तर के दर्शकों की संख्या नाममात्र की है?

लेकिन अगर असम में हिंसा की असंतोषजनक कवरेज का कारण उसका दिल्ली से दूर होना मान भी लिया जाए तो दिल्ली से सटे मानेसर में मारुति की कार फैक्टरी में श्रमिक असंतोष के बाद भड़की हिंसा में एक अधिकारी की मौत और उसके बाद श्रमिकों के दमन-उत्पीड़न की लगभग एकतरफा, आधी-अधूरी और कुछ मामलों में फर्जी रिपोर्टिंग का कारण क्या है? क्यों लगभग सभी चैनल/अखबार मारुति के श्रमिकों और यूनियन के खलनायकीकरण में लगे रहे? सबका ध्यान 18 जुलाई की हिंसा की घटना पर था, लेकिन किसी की दिलचस्पी उसके पीछे के कारणों को जानने में नहीं थी. चैनल/अखबार मारुति और जिला प्रशासन के प्रवक्ता ज्यादा लग रहे थे. क्या यह सिर्फ संयोग है या फिर सोची-समझी संपादकीय नीति का नतीजा? 

दिल्ली और चैनलों/अखबारों के दफ्तरों के आस-पास लाखों मजदूर छोटी-बड़ी फैक्टरियों में काम करते हैं लेकिन क्यों किसी चैनल/अखबार में श्रमिक बीट कवर करने वाला रिपोर्टर नहीं है और न श्रमिक मुद्दों की नियमित रिपोर्टिंग होती है? गोया वे इस देश के नागरिक ही न हों. अगर हमारे राष्ट्रीय चैनलों/अख़बारों में पूर्वोत्तर भारत और करोड़ों मजदूर नहीं हैं तो उनमें कौन-सा देश दिखता और बातें करता है? 

 

आंदोलन से आगे

टीम अण्णा के अब तक के आंदोलन में क्या वे वैचारिक तंतु दिखाई पड़ते हैं जिनसे हम उनकी राजनीति का कुछ अनुमान लगा सकें?

जन लोकपाल के लिए शुरू हुआ टीम अण्णा का आंदोलन अब इस देश को एक राजनीतिक विकल्प मुहैया कराने की बात कर रहा है. जंतर-मंतर के नासमझी भरे अनशन की नाकामी के बाद टीम का एलान है कि वह राजनीति में आएगी. हालांकि इस एलान के तत्काल बाद जिस तरह अण्णा हजारे या दूसरे लोगों के बयान आए हैं, उससे अपने राजनीतिक विकल्पों को लेकर उनकी दुविधा और कशमकश छुपी हुई नहीं है, लेकिन फिर भी अगर टीम अण्णा जैसा कोई समूह राजनीति में आना चाहता है तो उसका स्वागत होना चाहिए, क्योंकि कम से कम मेरी तरह बहुत सारे लोग मानते हैं कि यह टीम व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार है और उसमें अपने देश और समाज के प्रति जिम्मेदारी का भाव कम से कम हमारे मौजूदा राजनीतिक प्रतिष्ठान से कहीं ज्यादा गहरा है.

लेकिन व्यक्तिगत ईमानदारी और जिम्मेदारी का एहसास अपनी जगह है, भारत जैसे जटिल लोकतांत्रिक समाज में राजनीति की चुनौतियां अपनी जगह. इन चुनौतियों का वास्ता सिर्फ हमारी चुनावी राजनीति की उन बुराइयों से नहीं है जो सतह पर बड़ी आसानी से दिखती हैं, मसलन राजनीति में पैसे और अपराध का बढ़ता दबदबा या जातिवाद और सांप्रदायिकता का बढ़ता असर. मगर मामला इतना सरल नहीं है.

यह एक बड़ा सवाल है कि भारत के संसदीय लोकतंत्र को ऐसा घुन क्यों लग रही है. टीम अण्णा इस सवाल का जवाब नहीं खोजती, वह बस इन बुराइयों को दूर कर देना चाहती है. दरअसल यह एक सजावटी किस्म का इलाज है जिससे कुछ दिन के लिए सूरत भले बदलती दिखे, लेकिन लोकतंत्र की सेहत तब तक दुरुस्त नहीं हो सकती, जब तक उसकी मूल व्याधियों का उपचार न किया जाए. 

बहरहाल, टीम अण्णा के अब तक के आंदोलन में क्या वे वैचारिक तंतु दिखाई पड़ते हैं जिनसे हम उनकी राजनीति का  कुछ अनुमान लगा सकें? अनशन के आखिरी दिन अरविंद केजरीवाल ने राजनीति में आने की घोषणा करते हुए जो भाषण दिया था उसमें उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि उनके उम्मीदवार जनता के बीच से चुने जाएंगे, उनका कोई आलाकमान नहीं होगा. यह दरअसल एक तरह का शब्दाडंबर भर है, जिससे राजनीति का कोई सूत्र खोजना मुश्किल है. हालांकि इसके पहले अरविंद केजरीवाल ‘स्वराज’ नाम की एक छोटी-सी पुस्तिका लिख चुके हैं जिसमें उनकी राजनीतिक परिकल्पना का कुछ सुराग मिलता है.

अरविंद केजरीवाल मानते हैं कि राजनीतिक सत्ता सरकार के हाथ में इस तरह सिमट गई है कि जनता का उस पर नियंत्रण नहीं रह गया है. यह नियंत्रण रहे, इसके लिए वे ग्राम सभा को सर्वोच्च बनाने की वकालत करते हैं.  एक तरह से यह सत्ता के विकेंद्रीकरण का वही सूत्र है जो अण्णा हजारे के भाषणों में बार-बार दिखता रहा है. स्वराज जैसे नाम या ग्राम सभा जैसी बात के साथ अरविंद केजरीवाल अचानक गांधी की याद दिलाते हैं जिनके राजनीतिक सूत्र भी मूलतः ग्राम स्वराज की अवधारणा पर ही केंद्रित थे. 

व्यक्तिगत ईमानदारी अपनी जगह है, भारत जैसे जटिल समाज में राजनीति की चुनौतियां अपनी जगह

इन वैचारिक आग्रहों या अनशन जैसे मूलतः राजनीतिक कार्यक्रमों से लगता है कि टीम अण्णा गांधीवादी राजनीति करना चाहती है- शुद्धता और सदाचार पर अतिरिक्त जोर शायद राजनीतिक आग्रह का विस्तार है. लेकिन अण्णा हों या उनकी टीम- दोनों को देखकर बार-बार यही लगता है कि वे बस स्थूल गांधी को समझ पाते हैं, उस सूक्ष्म गांधी तक नहीं पहुंचते जिसके लिए स्वराज एक पूरी सभ्यता दृष्टि था.

गांधी जब ग्राम स्वराज की बात करते थे तो वे नितांत स्थानीय अर्थव्यवस्था की बात भी करते थे जो अपनी जरूरतें खुद पूरी कर ले और बाहर की कम से कम चीजें ले. गांधी का ग्राम स्वराज मूलतः सबकी सामाजिक बराबरी के सपने में भी निहित था जिसमें अस्पृश्यता या किसी भी अन्य तरह के भेदभाव की जगह नहीं थी. वे देशज प्रतिभा पर भरोसा करते थे और पश्चिम की वैचारिकता से अनाक्रांत एक स्वाभिमानी भारत बनाना चाहते थे. 

अण्णा और केजरीवाल अगर गांधी का ग्राम स्वराज लाना चाहेंगे तो पहले उन्हें अपनी राजनीति में उस मौजूदा उदारीकरण के खिलाफ ठोस रुख अख्तियार करना होगा जिसकी वजह से भारत की निजी उद्यमिता बिल्कुल ढह-सी गई है, उस भूमंडलीकरण से लड़ना होगा जिसने इस देश की मौलिकता खत्म कर दी है- इस सिलसिले को अंग्रेजी के विशेषाधिकार के खात्मे से भी जोड़ना होगा जो भारत में सामाजिक गैरबराबरी की एक बड़ी वजह है. मामला यहीं खत्म नहीं होगा- टीम अण्णा को आरक्षण के सवाल पर भी अपनी राय साफ करनी होगी और आदिवासियों-दलितों और अल्पसंख्यकों की बराबरी का मसला भी उठाना होगा, क्योंकि आर्थिक खुशहाली की लड़ाई सामाजिक न्याय की लड़ाई से अलग नहीं लड़ी जा सकती. 

इन सैद्धांतिक सवालों की अपनी व्यावहारिक मुश्किलें भी हैं. फिलहाल टीम अण्णा का समर्थन आधार मूलतः उस शहरी मध्यवर्ग से बनता है जो उदारीकरण की धूप में नहा रहा है और आरक्षण के किसी भी रूप से नाक-भौं सिकोड़ रहा है. यह वही मध्यवर्ग है जिसे एक नकली राष्ट्रवाद की अवधारणा बहुत लुभाती है और जो प्रशांत भूषण की इसलिए पिटाई कर डालता है कि वे कश्मीर को लेकर एक जायज और निजी राय रखते हैं.

टीम अण्णा जब तक लोकपाल, भ्रष्टाचार और काले पैसे जैसी मोटी-मोटी बातें कर रही है, तब तक किसी को गुरेज नहीं है, लेकिन जैसे ही वह देश के संसाधनों में बराबरी का सवाल उठाएगी, उसके अपने ही लोग उसके विरुद्ध हो जाएंगे. कह सकते हैं, टीम अण्णा से जो अपेक्षाएं हम रख रहे हैं, उस पर देश का कोई भी राजनीतिक दल खरा नहीं उतरता. बात सही है और इसीलिए लोग विकल्प की तलाश भी कर रहे हैं. टीम अण्णा को विकल्प देना है. अगर गांधी और जेपी का वारिस बनना है, अगर ग्राम स्वराज और संपूर्ण क्रांति के सपने को वास्तविकता की धरती पर उतारना है तो उसे ये अपेक्षाएं पूरी करनी होंगी.

इस निबंध के बंधन खोलिए

हमारी स्कूली शिक्षा में 15वीं कक्षा नहीं होती है, इसलिए हम 12वीं कक्षा से ही काम चला लेंगे. यदि देश भर की 12वीं कक्षा के बच्चों को 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) पर एक निबंध लिखने का काम सौंपा जाए तो उसके जो परिणाम आएंगे, उससे थोड़ा बेहतर ही होता है 15 अगस्त पर हमारे प्रधानमंत्रियों द्वारा दिया जाने वाला भाषण. 

तिरंगा फहराया जाता है और उसके बाद लाल किले की प्राचीर से शुरू हो जाता है एक पचरंगा निबंध. अक्सर इस दिन बादल छा जाते हैं और पानी भी गिरने लगता है. इस पचरंगा भाषण को सड़ने से बचाने के लिए छाते भी ताने जाते हैं. विरोध का रंग काला माना जाता है इसलिए ध्यान रखा जाता है कि छाते काले रंग के न हों. इस भाषण में पांच चीजें होना जरूरी होता है. विकास की बात तो सबसे पहले होनी ही चाहिए. इसके लिए सब अच्छी उपमाएं पहले से  ही खोज ली गई हैं. लंबा रास्ता है. कठिन चढ़ाई है. लेकिन हम सब कदम-से-कदम मिलाकर इस पर बढ़ते चलेंगे और इस देश को विकास के एक ऊंचे शिखर पर ले जाएंगे. इसी के साथ जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद दर) की चर्चा भी होना स्वाभाविक है. खेती को भला कैसे भूल सकते हैं और जब किसान की याद आएगी तो फिर जय जवान को कैसे भूला जा सकता है. थोड़ी-सी चर्चा पड़ोसी देशों और बाहरी ताकतों की भी होनी चाहिए. 

इसके बिना वह अदृश्य बाहरी हाथ या बाहरी शक्ति कैसे समझ में आएगी? इसके षड्यंत्र के कारण हमारे घर में शांति स्थापित नहीं हो पाती और महंगाई भी कम नहीं हो पाती. सरकार तो इन सब मोर्चों पर तेजी से दौड़ना चाहती है. सरकार निशाना लगाना चाहती है. वह गोल करना चाहती है, लेकिन पदकों की तालिका में न स्वर्ण पदक मिलता है, न रजत और न ही कांस्य.

इतना बड़ा देश है. इतने सारे लोग हैं, इसलिए अक्सर प्रधानमंत्री अपने लिखित कागजों से आंख उठाए बिना ही देश के भाइयों एवं बहनों को बार-बार संबोधित करते चले जाते हैं. इन भाइयों एवं बहनों को बार-बार याद दिलाया जाता है कि विविधता में एकता है और यही हमारी सबसे बड़ी पूंजी है. बाकी पूंजियां हमें विश्व बैंक आदि से समय-समय पर मिलती रहती हैं. यदि भाषण से बाहर निकल कर आएं तो इस दिन कोई संन्यासी बाहर जमा काले धन की वापसी से देश का कितना उज्जवल विकास होगा उसकी भी याद दिला देता है. 

एक के बाद एक उपलब्धियां  गिनाई जाती हैं और फिर इस लंबी सूची में कुछ कमियों की गिनती भी की जाती है लेकिन कमी गिनाते समय आवाज जरा भी लड़खड़ाती नहीं. अगले ही क्षण गरीबी हटाने का, भ्रष्टाचार मिटाने का संकल्प भी तुरंत ले लिया जाता है. इसी के आस-पास वह महान क्षण भी आता है जब सबको सब चीजें देने का वायदा फिर से दोहराया जाता है. हर हाथ को मिलेगा रोजगार. हरेक को शिक्षा. हरेक को स्वास्थ्य सेवा. हरेक को न्याय. हरेक को सूचना का अधिकार यानी हरेक को हर चीज. ये बातें इतनी गंभीरता से कही जाती हैं कि किसी को भी यह नहीं लगता कि हरेक को हर चीज उधार पर टिकी सरकारें नहीं दे सकतीं. ये दुनिया के अमीर माने गए देशों में भी अब तक ऐसे सौ-पचास भाषणों के बाद भी नहीं दिया जा सकता है. 

यहां तक आते-आते अक्सर ये सब बातें कह दी जाती हैं जिन्हें पहले के 15 अगस्तों के भाषणों में अनेक प्रधानमंत्री कह ही चुके हैं. यहां पुनरावृत्ति को कभी भी दोष नहीं माना जाता है. यह तो इस दिन के भाषण का सबसे मजबूत अलंकार है. देशवासियों के सामने चल रहा यह संबोधन अब अपनी सबसे ऊंची पायदान पर पहुंच जाता है. अब जो कुछ अमूल्य क्षण बचे हैं उनमें भविष्य की आशा, सुनहरी किरणों का जिक्र और संकट से जूझ रही जनता की पीठ थपथपाने का मौका है. आशा की ये किरणें दूरदर्शन, टेलीविजन चैनल और आकाशवाणी के माध्यम से देश के कोने-कोने में बिखर जाती हैं. अलबत्ता अखबार वाले बेचारे इस पुण्य काम में साथ नहीं दे पाते हैं.  कुछ अपवादों को छोड़ कर अगले दिन अखबार बंट नहीं पाते क्योंकि उस दिन उनकी छुट्टी होती है. इसलिए अक्सर ऐसे बासी भाषण एक दिन और बासी होकर हिंदी के पाठकों तक पहुंचते हैं. इस कमी को टीवी वाले पूरा कर देते हैं. वे सुबह लाइव से लेकर रात तक इसको दुहराते रहते हैं. 

हमारे देश के प्रधानमंत्री के सामने ऐसे मौके साल भर में कम ही आते हैं जब उनको पूरे देश को संबोधित करने का मौका मिलता हो. कितना अच्छा हो कि ऐसे मौकों का उपयोग और ज्यादा आत्मीयता के साथ देश के लोगों की आंखों में आंखें डाल कर उनके मन को छू कर कुछ अच्छी बातें बताई जाएं. कुछ बुरी बातों की तरफ उनका ध्यान खींचा जाए. देश का पालक उनको भरोसे में लेकर एक दोस्त की तरह, एक पिता की तरह, एक भाई की तरह कुछ घरेलू बातें करे. पंद्रह अगस्त के इस शाश्वत निबंध को जिन बंधनों में बांध दिया गया है, उन बंधनों से उसकी मुक्ति हो पाए तो हम सचमुच स्वतंत्रता दिवस मना सकेंगे.

थोथी थ्योरी से बचिए

‘ट्रिकल डाउन थ्योरी से देश के गरीबों की अपेक्षाएं पूरी नहीं होंगी. हमारा राष्ट्रीय उद्देश्य युवाओं के लिए अवसर उत्पन्न करने का हो ताकि वे देश को कुदा कर आगे ले जा सकें.’ हमारे नए राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के इन शब्दों का पुरजोर स्वागत किया जाना चाहिए. 

‘ट्रिकल डाउन’ थ्योरी की सोच है कि आर्थिक विकास से अमीरों की आय बढ़ेगी तो गरीबों के घर में भी उस आय का एक अंश टपकेगा. अमीर की आय तब बढ़ेगी जब उसके द्वारा खरीदे गए शेयर के दाम बढ़ेंगे. शेयर के दाम तब बढ़ेंगे जब उत्पादन बढ़ेगा. उत्पादन बढ़ाने के लिए अधिक संख्या में श्रमिकों की जरूरत होगी. इस प्रकार अमीरों की आय का एक हिस्सा गरीबों तक पहुंचेगा. इस सोच के चलते प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बड़ी कंपनियों को खुली छूट देने को तत्पर हैं. 

अब समस्या यह है कि उत्पादन बढ़ाने के लिए रोजगार सृजन आवश्यक नहीं है. उद्यमियों के लिए फायदे की स्थिति यह है कि ऑटोमेटिक मशीनों से उत्पादन बढ़ाया जाए. ऐसे में कंपनियों का लाभ और उत्पादन बढ़ता है, लेकिन रोजगार घटते हैं. आर्थिक विकास की प्रक्रिया में अमीर लोग समृद्ध होते हैं. पूंजी की अधिकता के कारण ब्याज दर में गिरावट आती है. ब्याज दर में कमी आने से मशीनों में निवेश लाभप्रद हो जाता है. दूसरी तरफ आर्थिक विकास के कारण ही श्रमिकों का जीवन स्तर उठता है. उनके वेतन बढ़ते हैं. पूंजी के सस्ते होने एवं श्रम के महंगे होने से उद्यमी के लिए श्रमिक को रोजगार देना हानिप्रद हो जाता है. 

अर्थशास्त्रियों को नए ढंग से सोचना पड़ेगा. ऑटोमेटिक मशीनों एवं इंटरनेट के कारण श्रम ही अप्रासंगिक होता जा रहा है. वैसे एक प्रकार से यह एक सुखद उपलब्धि है. जीवित रहने के लिए मनुष्य का श्रम करना अनिवार्य नहीं रह गया है. समय का सदुपयोग वह अपने आत्म विकास के लिए कर सकता है जैसे क्रिकेट खेलने, चित्रकारी करने, संगीत का रियाज करने में. लेकिन श्रम के साथ-साथ उसका जीवन भी व्यर्थ होता जा रहा है. उसके पास रोजगार नहीं है.  

ऐसी अर्थव्यवस्था बनानी होगी कि श्रम की मांग बढ़े. पूंजी सघन के स्थान पर श्रम सघन आर्थिक विकास करना होगा. मशीनों पर टैक्स और श्रम पर सब्सिडी देनी होगी. इससे आर्थिक विकास धीमा पड़ेगा जिसे स्वीकार करना होगा. जाड़े में सिगड़ी रख कर सोने से आराम मिलता है लेकिन मृत्यु भी हो जाती है. उसी प्रकार पूंजी-सघन आर्थिक विकास से कुल उत्पादन बढ़ रहा है परंतु संपूर्ण मानवता मृतप्राय होती जा रही है. आर्थिक विकास पर लगाम लगाकर मानव विकास को लक्ष्य बनाना होगा. समस्या का हल सरकारी नौकरियों में वृद्धि से हासिल नहीं होगा. जब अधिकाधिक श्रमिक सरकारी कर्मचारी होंगे तब इन्हें वेतन देने के लिए टैक्स किससे वसूल किया जाएगा? कम्युनिस्ट देशों का अनुभव बताता है कि सरकार का असीमित विस्तार संभव नहीं है. सोवियत रूस के पतन का एक प्रमुख कारण सरकारी फौज में अतिशय वृद्धि था. 

कांग्रेस एवं भाजपा की नीति है कि अमीर को और अमीर बनाकर बाद में उस पर टैक्स लगाया जाए. इसके स्थान पर ऐसी आर्थिक नीतियां बनानी चाहिए कि पूंजी के लाभ कम हो जाएं और श्रम के अवसर बढ़ जाएं. मसलन किन्हीं गांधीवादी ने सुझाव दिया था कि घरेलू बाजार में बिक्री के लिए बनने वाले कपडे़ को पूर्णतया हथकरघों के लिए आरक्षित कर दिया जाए. इससे टेक्सटाइल मिलों के लाभ घटेंगे और जुलाहों के बढ़ेंगे. बाजार में कपड़ों का दाम भी कुछ बढ़ेगा. योजना आयोग को चाहिए कि वह कोई ऐसा अध्ययन करे जिससे यह पता चले कि श्रम की वांछित मात्रा में मांग बढ़ाने के लिए किन उद्योगों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए. 

दूसरा विषय सरकारी सेवाओं की डिलीवरी का है. खाद्य पदार्थ, फर्टीलाइजर एवं पेट्रोल सब्सिडी तथा सरकारी स्वास्थ्य एवं शिक्षा सेवाएं सभी इस समस्या से पीडि़त हैं. इन योजनाओं का लाभ गरीब तक कम ही पहुंचता है. राजीव गांधी ने 15 प्रतिशत पहुंच का आकलन किया था. इस मुद्दे पर कांग्रेस एवं भाजपा प्रशासनिक सुधारों से डिलीवरी में सुधार करना चाहते हैं. जैसे छठे वेतन आयोग ने इंसेंटिव का सुझाव दिया है. साथ-साथ इन सुविधाओं को निर्धनतम लाभार्थियों पर लिए केंद्रित करने का प्रयास किया गया है. जैसे खाद्य सब्सिडी में बीपीएल का हिस्सा बढ़ा दिया गया है. लेकिन सरकारी कर्मचारियों का चरित्र चुंबक जैसा होता है. उनसे कुछ लेने के लिये जनता को विशेष ताकत लगानी पड़ती है जैसे चुंबक में चिपके लोहे को छुड़ाने में. 

हमें नई सोच बनानी चाहिए. रिजर्व बैंक को चाहिए कि वह सारी सब्सिडी को इकट्ठा करके इस राशि के चेक  प्रत्येक वोटर को सीधे भेज दे. साथ-साथ खाद्य, फर्टीलाइजर एवं पेट्रोल पर सब्सिडी बिल्कुल समाप्त कर देनी चाहिए. केंद्रीय सरकार के निम्नलिखित मदों पर खर्चों का एकत्रीकरण किया जा सकता हैः खाद्य सब्सिडी, शिक्षा, स्वास्थ्य, हाउसिंग, कृषि, ग्राम विकास, फर्टीलाइजर एवं बिजली व पेट्रोल सब्सिडी. लगभग 3,50,000 करोड़ रु. उपलब्ध हैं. राज्य सरकारों द्वारा शिक्षा तथा स्वास्थ्य पर दिए जा रहे खर्च को जोड़ दिया जाए तो जन कल्याण के नाम पर खर्च की जा रही कुल रकम लगभग 700 करोड़ रु. हो जाएगी. इस विशाल रकम को 55 करोड़ वोटरों में वितरित किया जाए तो 13,000 रु. प्रति वोटर अथवा 26,000 रु. प्रति परिवार प्रतिवर्ष दिए जा सकते हैं. यह रकम सीधे वोटरों को देकर सब्सिडियों के तमाम मायाजाल से देश को मुक्त कर देना चाहिए. लेकिन मनमोहन सिंह को यह पसंद नहीं क्योंकि वे जनता को भ्रमित करके गरीब के नाम पर अपने जाति भाई सरकारी कर्मियों को अधिकाधिक सुविधाएं देने को तैयार हैं.

प्रणब दा को साधुवाद कि उन्होंने मनमोहन सिंह की ट्रिकल डाउन की गलत सोच पर सवाल उठाया. देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रपति पद का उपयोग करते हुए वे सरकार पर इस दिशा में दबाव बना पाते हैं कि नहीं?

‘छह महीने के लिए नेताजी को मुख्यमंत्री बनना चाहिए था’

अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बने पांच महीने हो चुके हैं. इस दौरान वे जनता या सरकार पर अपनी छाप छोड़ पाने में असफल रहे हैं. सरकार में कई समानांतर सत्ता केंद्रों की आहट है. इन मुद्दों पर तहलका संवाददाता वीरेंद्रनाथ भट्ट ने सरकार के सबसे ताकतवर मंत्री और अखिलेश के चाचा शिवपाल सिंह यादव से बातचीत की.

अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बने पांच महीने हो रहे हैं, लेकिन यह आम धारणा है कि अब भी सत्ता की कमान मुलायम सिंह यादव ही संभाल रहे हैं क्योंकि ज्यादातर लोग अखिलेश की सुन ही नहीं रहे?

मुझे ऐसा नहीं लगता. नेताजी ने तो अखिलेश को पूरा अधिकार दे रखा है और वे कभी भी सरकार के कामकाज में दखल नहीं देते हैं. जब नेताजी खुद मुख्यमंत्री थे तब भी उन्होंने अपने सभी मंत्रियों को काम करने की पूरी छूट दे रखी थी. क्या आपने किसी सरकारी कार्यक्रम में नेताजी को अखिलेश के साथ देखा है? लेकिन नेताजी परिवार के और पार्टी के मुखिया हैं और सरकार के कामकाज पर नजर रखने और समय-समय पर निर्देश देने का उनको पूरा अधिकार है. 

आपके बारे में कहा जाता है कि आप अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में नहीं थे.

लेकिन हम अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने के विरोध में भी नहीं थे. हमारी इच्छा थी कि नेताजी छह महीने के लिए मुख्यमंत्री बनें, उसके बाद अखिलेश बनें. लेकिन नेताजी का निर्णय अंतिम है. वे परिवार के और पार्टी के मुखिया हंै. उनका निर्णय सबको स्वीकार है. अब यह कोई मुद्दा नहीं है. 

पांच माह के अखिलेश के कार्यकाल को आप किस तरह देखते हैं? वे खुद को एक सक्षम प्रशासक साबित कर पाने में असफल रहे हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं कि अखिलेश अब सपा के सर्वमान्य नेता हैं और अगला लोकसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा जाएगा. अखिलेश ने अच्छी शुरुआत की है. वे विनम्र हैं और आम जनता को सहजता से उपलब्ध हैं.

ऐसा कहा जा रहा है कि सरकार में सत्ता के कई समानांतर केंद्र बन गए हैं. आप समेत कई मंत्री अपनी-अपनी सरकार चला रहे हैं.

यह सब बकवास है. विरोधियों का दुष्प्रचार है. इसका जमीनी हकीकत से कोई वास्ता नहीं है. मुख्यमंत्री ही सरकार के मुखिया हैं और सभी मंत्री उनको विश्वास में लेकर ही निर्णय लेते हैं. मैं भी कोई अपवाद नहीं हूं. 

कानून-व्यवस्था पर सरकार की पकड़ ढीली हो रही है. सरकार मथुरा, प्रतापगढ़ और बरेली में सांप्रदायिक दंगा रोक पाने में असफल रही. क्या आपको लगता है कि अखिलेश सरकार नौकरशाही और सरकारी तंत्र पर अपनी छाप छोड़ सकी है?

अखिलेश मेहनत से काम कर रहे हैं. अभी सरकार बने चार-पांच महीने ही हुए हैं, इस समय सरकार का मूल्यांकन करना थोड़ी जल्दबाजी होगी. मुझे पूरा विश्वास है कि सरकार जनता की हर आकांक्षा को पूरा करेगी. 

30 जुलाई को मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री के सरकारी आवास पर पार्टी के विधायकों और मंत्रियों को अनुशासन का पाठ पढ़ाया. उसके अगले दिन उन्होंने सपा की राज्य कार्यकारिणी बैठक की अध्यक्षता की जबकि सपा की राज्य इकाई के प्रमुख अखिलेश यादव हैं. बार-बार नेताजी को आगे क्यों आना पड़ रहा है? 

यह कहना सही नहीं है कि नेताजी को अखिलेश की मदद में बार-बार उतरना पड़ रहा है. यह सब तो संगठन का काम है जो पहले भी चलता था. हमारी पार्टी लोकतांत्रिक है. किसी एक व्यक्ति की तानाशाही नहीं है. जनता ने हमको भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए वोट दिया है, इसलिए नेताजी ने मंत्रियों को ईमानदारी से काम करने का आदेश दिया. पार्टी के संविधान के अनुसार राज्य कार्यकारिणी की बैठक हर दो माह में होनी चाहिए और विधानसभा चुनाव के बाद यह पहली बैठक थी. 

चर्चा है कि अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने से आपके परिवार में जबरदस्त सत्ता संघर्ष छिड़ गया है.

­ऐसा कुछ नहीं है. सभी सदस्य अपनी-अपनी जिम्मेदारी के अनुसार कार्य कर रहे हैं.

अभी हाल में हुए नगर निकाय चुनावों में आपके भाई राजपाल सिंह और राम गोपाल यादव ने इटावा नगर पालिका में अपने-अपने उम्मीदवार खड़े किए.

निजी तौर पर किसी को भी समर्थन देने की खुली छूट थी. पार्टी अधिकृत रूप से चुनाव लड़ ही नहीं रही थी. जो हारा वह सपा का और जो जीता वह भी सपा का.

आपके पुत्र आदित्य राजनीति में उतरने की तैयारी कर रहे हैं?  

नहीं, नहीं… आदित्य राजनीति में नहीं उतरेगा. उसको राजनीति में उतरने से मैंने रोका है. मेरी पत्नी भी इसके खिलाफ है. यह दूर से तो बहुत अच्छी लगती है लेकिन यहां संघर्ष बहुत ज्यादा है, जीवन बहुत अनिश्चित है.

टीआरपी के बनाए और सताए

एनडीटीवी ने चैनलों की दर्शक संख्या यानी टीआरपी जारी करने वाली कंपनी टैम की मातृ कंपनियों पर अमेरिका में धोखाधड़ी का मुकदमा दायर कर दिया है. दूरदर्शन भी ऐसा करने का मन बना चुका है.  बात टैम के कम मीटरों की तो है ही लेकिन उनको लगाने और आंकने में जिस तरह की पर्दादारी है, उसकी ज्यादा है. टैम ने सारे देश की टेलीविजन देखने से जुड़ी रुचियों को नापने के लिए केवल कुछ हजार मीटर कुछ विशेष शहरी इलाकों में ही लगाए हैं. इनसे आंकड़े लेने की प्रक्रिया को कोई स्वतंत्र संस्था भी ऑडिट नहीं करती. तो फिर ऐसे में आंकड़ों के अपने आप गलत होने और जानबूझकर गलत किए जाने की आशंकाओं से कैसे इनकार किया जा सकता है?

यह इतना महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि देशभर के विज्ञापनदाता उस चैनल और कार्यक्रम को सबसे ज्यादा विज्ञापन देते हैं जिसकी टीआरपी सबसे ज्यादा होती है. 100-200 करोड़ रुपयों में स्थापित होने वाले समाचार चैनलों का अस्तित्व ही टीआरपी के आधार पर मिलने वाले विज्ञापनों पर टिका होता है. इसलिए कम टीआरपी वाला चैनल ज्यादा वाले जैसा बनना चाहता है और सभी चैनल अपने उन कार्यक्रमों के जैसा ही बनाते रहना चाहते हैं जिन्हें खूब टीआरपी मिलती हो.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारे यहां का एक बहुत बड़ा हिंदी समाचार चैनल है. इस चैनल ने संसाधनों की कमी के चलते बिना मतलब के कुछ ऐसे कार्यक्रम बनाए जिन्हें कुछ समय के लिए बढ़िया टीआरपी मिल गई. बस बाकी चैनल भी थोड़ा सब्र से काम लेने और अपने काम को बढ़िया करने की बजाय उस चैनल जैसा बनने की होड़ में लग गए. नतीजा आज हिंदी चैनलों की घटी हुई साख के रूप में हम सबके सामने है. टीआरपी के इस खेल से उन लोगों-इलाकों से जुड़े मुद्दों-कार्यक्रमों की उपेक्षा हुई जहां टीआरपी के मीटर नहीं लगे हैं. दूसरा अगर टीआरपी की गणना की पूरी प्रक्रिया के ही भ्रष्ट होने की हर गुंजाइश इसमें मौजूद हो तो इसका दुरुपयोग लोगों की रुचियों को बदलने और गलत चीजों को प्रोत्साहित करने आदि के लिए भी तो किया जा सकता है.

सवाल यह है कि बात-बात में चैनलों और अखबारों पर लगाम कसने की धमकी देते रहने वाली सरकार इस मामले में कोई हस्तक्षेप क्यों नहीं करती? भले ही टीआरपी एक विशुद्ध व्यावसायिक प्रतिष्ठान की एक विशुद्ध व्यावसायिक गतिविधि हो मगर यह करोड़ों लोगों के हित-अहित, रुचियों और उनके सुधार आदि से भी तो जुड़ी है. और फिर इससे एक सरकारी प्रतिष्ठान दूरदर्शन के हित भी तो प्रभावित हो रहे हैं.

अगर दूरदर्शन कमाएगा नहीं तो उसे चलाने के लिए सरकार को पैसा खर्चना होगा. पैसा सरकार का न होकर जनता का होगा. तो अंत में जनता के हितों को ही तो नुकसान पहुंचेगा. फिर सरकार ही तो देश की सबसे बड़ी विज्ञापनदाता भी है. तो फिर उसने दूरगामी दुष्प्रभावों वाली इस दोषपूर्ण व्यवस्था को दुरुस्त करने की हरसंभव कोशिश अब तक क्यों नहीं की? मगर जो चैनल आज टीआरपी को पानी पी-पी कर कोस रहे हैं वे भी क्या स्थिति जैसी है उसे वहां तक पहुंचाने के लिए जिम्मेदार नहीं हैं? क्या वे भी एक गलत व्यवस्था का, जब भी वह उनके पक्ष में रही, फायदा नहीं उठाते रहे?

महाकुंभ का महाफल

2012 ने देश को खेलों से जुड़ी ऐसी कहानी दी है जो हमेशा सबके जहन में बसी रहेगी. लंदन में भारत ने अब तक का सबसे अच्छा ओलंपिक प्रदर्शन किया. यह ओलंपिक भारतीय खेलों के नवोदय का वाहक हो सकता है. इन खेलों में मिले कुल छह पदकों की चमक ने उस रोशनी को तेजतर कर दिया जो पिछले तीन-चार साल से हमें भारतीय खेलों की तरफ से आती दिख रही थी. पिछले ओलंपिक में भारत ने पहली बार तीन पदक जीते थे. इससे पहले के ओलंपिक खेलों में भारत को कभी-कभार एक पदक और अधिकतर बिना पदक के ही संतोष करना पड़ता था. 2008 के खेलों में तस्वीर पहली बार बदलती हुई दिखी. सिर्फ पदकों के आधार पर नहीं, भारतीय खिलाड़ियों के तेवर और आत्मविश्वास के आधार पर भी. उसके बाद साल 2010 ने भारतीय कामयाबी को एक नया आयाम दिया. इस साल भारत ने कॉमनवेल्थ खेलों में कुल 101 और एशियाई खेलों में कुल 65 पदक जीते जिनमें क्रमश: 38 और 14 स्वर्ण पदक थे. ये किसी जादू जैसा था जो पूरे देश के सर चढ़कर बोल रहा था, और 2012 ओलंपिक में जब भारतीय खिलाड़ी लगातार पदकों की तरफ बढ़ रहे थे तब यह जादू अपने पूरे शबाब पर पहुंच गया. पहली बार खेलों के जादू का मतलब क्रिकेट का जादू नहीं था.

बीजिंग ओलंपिक की सफलता के आत्मविश्वास के चलते इस साल भारत से उम्मीदें पहले से बढ़ी हुई थीं. भारत ने कुल तिरासी खिलाड़ियों के साथ तेरह खेलों में शिरकत की जिनमें कुश्ती, बॉक्सिंग, निशानेबाजी, बैडमिंटन और तीरंदाजी में संभावनाएं प्रबल थीं. भारत के पदक जीतने वाले सभी खिलाड़ी- गगन नारंग, विजय कुमार, साइना नेहवाल, मैरीकॉम, योगेश्वर दत्त और सुशील कुमार अपने साथ पहले ही पदकों की उम्मीद का भारी बोझ लेकर लंदन गए थे. सुखद है कि उन्होने यह कर दिखाया. पहली बार भारत की तरफ से दो महिलाओं ने पदक जीते. सुशील कुमार ने भी कमाल किया. लगातार दो ओलंपिक में मेडल जीतने वाले वे देश के पहले खिलाड़ी बने. सेमीफाइनल में उन्हें पूर्व विश्व चैंपियन कजाक पहलवान के खिलाफ आखिरी राउंड में तीन अंकों से पिछड़ने के बाद जीतते देखना एक अद्भुत अनुभव था. इस वक्त कुश्ती ने क्रिकेट के रोमांच को मीलों पीछे छोड़ दिया था. याद रखना होगा कि इसी खेल में भारत की तरफ से पचपन किलोग्राम वर्ग में सिर्फ 18 साल की उम्र के बिल्कुल नए पहलवान अमित कुमार ने अद्भुत खेल दिखाते हुए प्री. क्वार्टर फाइनल में ईरान के विश्ववरीय पहलवान को हरा दिया था. वे क्वार्टर फाइनल भी जीत ही जाते अगर रेफरी और टाइमिंग ने उनका साथ दिया होता. इसके बाद योगेश्वर दत्त ने भी रेपचेस राउंड में सिर्फ पचास मिनट के अंदर लगातार तीन बाउट जीतकर कांस्य पदक हासिल कर लिया. सुखद यह भी था कि कुश्ती जिससे अभिजात्य शहरी वर्ग में गांव और मिट्टी का देसी खेल मानकर किनाराकशी की जाती है, उसी खेल में सुशील कुमार की फाइनल बाउट देखते हुए शहरी वर्ग की सांसंे अटकी हुई थीं. बदलाव की ये शुरुआत ही ओलंपिक 2012 का हासिल है. जरूरत इस बात की है कि यह जारी रहे.

[box]हालांकि कई उम्मीदें ऐसी भी रहीं जिनका अंत निराशा के अंधेरों में हुआ. पिछली बार सोना जीतने वाले अभिनव बिंद्रा इस साल खाली हाथ रहे.[/box]

इसी तरह तीरंदाजी में विश्व नंबर एक दीपिका से बहुत सी उम्मीदें थीं जो पूरी नहीं हो सकीं. विजेंदर समेत पुरुष मुक्केबाजों से भी निराशा ही हाथ लगी. टेनिस में ओलंपिक से ठीक पहले खिलाड़ियों और एसोसिएशन के बीच जो नाटक हुआ उसने पदक की उम्मीदों पर कुठाराघात कर डाला लेकिन इन सबके बीच जो निराशा सबसे गहरी और कभी न मिटाई जा सकने वाली रही वह हमें राष्ट्रीय खेल हॉकी में मिली. जिस खेल में कभी हमने 1928 से लेकर 1956 तक लगातार स्वर्ण पदक जीते थे, उस खेल में इस बार सारे मैच हारकर आखिरी स्थान पर रहे. पूर्व ओलंपियन अशोक ध्यानचंद निराश स्वर में कहते हैं, ‘बीजिंग ओलंपिक के लिए क्वालीफाई ही न कर पाने के बाद इस बार सबको उम्मीद थी कि टीम बेहतर करेगी, पिछले कुछ समय में टीम के अच्छे प्रदर्शन से उम्मीद भी थी लेकिन टीम शुरू से ही कमजोर खेली और आक्रामकता की इसी कमी के चलते हॉकी से हमें लंदन ओलंपिक का सबसे कड़वा अनुभव मिला.’ हॉकी टीम के बुरे प्रदर्शन पर टीम के कप्तान भरत क्षेत्री अपनी निराशा को छिपा नहीं पाए और उन्होंने कहा, ‘हम यहां खेलने लायक ही नहीं थे!’  भविष्य में भारतीय टीम फिर से ओलंपिक में खेलने और जीतने लायक बन सके इसके लिए बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है.

हॉकी से मिली गहरी निराशा को ओलंपिक में मिले छह पदक तो कुछ कम करते ही हैं साथ ही पदकों तक न पहुंच पाने के बावजूद कुछ बातें आगे के लिए सुनहरी उम्मीदें जगाती हैं. कुश्ती, निशानेबाजी, और बॉक्सिंग के खेल में हमारे पास दुनिया के सबसे कद्दावर खिलाड़ी हैं. ऐसा ही तीरंदाजी में भी है भले ही ओलंपिक में चूक हो गई हो. इन सारे खेलों में हमारे पास कई-कई खिलाड़ी हैं जो अपने खेल में विश्व रैंकिंग में सर्वश्रेष्ठ पांच में शुमार हैं. इसके अलावा एथलेटिक्स जिसमें कि सबसे ज्यादा पदक होते हैं, उसमें भी भारतीयों ने अपना प्रदर्शन सुधारा है. कॉमनवेल्थ और एशियाड में भारत ने एथलेटिक्स के बूते ही ऐतिहासिक कामयाबी हासिल की थी और इस ओलंपिक में भी डिस्कस थ्रो में फाइनल खेलने वाले विकास गौड़ा, कृष्णा पूनिया, शॉटपुट में ओम प्रकाश करहाना, पैदल चाल में के. इरफान, बसंत बहादुर राणा, हर्डल्स में सिद्धार्थ थिंगालय, हाई जंप में साहना कुमारी, स्टेपल चेज में सुधा सिंह आदि ने राष्ट्रीय रिकार्ड बेहतर करते हुए आगे के लिए उम्मीदों को नए पंख दिए.

कहने वाले कह सकते हैं कि एक सौ बीस करोड़ के देश में सिर्फ छह पदक पर इतराने से पहले हमें चीन के पदकों की संख्या देख लेनी चाहिए. दरअसल ऐसा करने वाले चीन और भारत के बीच के बुनियादी अंतर को नहीं समझ पाते. खेल पत्रकार हेमंत सिंह तहलका से बातचीत में इसे रेखांकित करते हैं, ‘चीन में जिस अमानवीय, अत्याचारी और तानाशाही तरीकों से छोटे-छोटे बच्चों को पदक लाने की तैयारियों में झोक दिया जाता है, भारत जैसे लोकतांत्रिक और रिवायती देश में उस कीमत पर पदक का पक्षधर शायद ही कोई हो. चीन में जो खेल-संस्कृति आज से लगभग तीस साल पहले विकसित हो गई भारत में उसका बीजवपन सिर्फ तीन-चार साल पहले हुआ है, जिसको पुष्पित-पल्लवित होते देखने के लिए हमें अभी थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा. लंदन ओलंपिक में इसका अंकुर फूटता दिखाई दिया है.’ बिल्कुल सही है कि जिस देश में ‘खेलोगे, कूदोगे, बनोगे खराब’ जैसी कहावत होश संभालते ही दिमाग में बिठा दी जाती है वहां खेल संस्कृति जैसे शब्द की बात करना भी बेमानी कही जाएगी. पिछले तीस साल में अगर कोई खेल संस्कृति विकसित भी हुई है तो उसका बेशतर हिस्सा एक ही खेल, क्रिकेट के हिस्से गया है. भारत में क्रिकेट और बाकी खेलों के बीच भेदभाव को लेकर अंतहीन बहस की जा सकती है, जिसमें न पड़ते हुए यहां सिर्फ इतना लिख देना ठीक रहेगा कि विश्व के 200 से ज्यादा देशों के बीच होने वाले भीषण मुकाबले में पहले क्वालीफाई करने और फिर पदक लाने वाले खिलाड़ियों और विश्व के मात्र दस-बारह देशों के बीच होने वाले मुकाबले में स्वत: क्वालीफाई होकर विश्वकप लाने वाले खिलाड़ियों में स्वाभाविक वरीयता किसे मिलनी चाहिए.

1952 में जब ओलंपिक में शिरकत करने के लिए हेलसिंकी जाने को पहलवान केडी जाधव ने बंबई के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरार जी देसाई से सिर्फ चार हजार रूपये मांगे थे तब उन्होंने कुश्ती के लिए पैसा देने से मना कर दिया था. इसके बाद जाधव अपने निजी प्रयासों से हेलसिंकी गए और ओलंपिक में देश को पहला व्यक्तिगत पदक दिलाया. अपनी पूरी जिंदगी जाधव को कुश्ती पहलवानों की उपेक्षा का दर्द रहा. लंदन ओलंपिक में कुश्ती में लगातार दूसरी बार ओलंपिक पदक जीतकर जब सुशील कुमार देश के सबसे कामयाब खिलाड़ी बने और सरकार सहित पूरे देश ने उन्हें पलकों पर रख लिया, तब सुशील दरअसल केडी जाधव को भी उनके हिस्से का सम्मान दिला रहे थे. इसी तरह देश के लिए मेरीकॉम का ओलंपिक पदक दिल्ली के उन सभी शोहदों के मुंह पर एक तमाचा था जिनकी तंगनजरी पूर्वोत्तर की लड़कियों को सिर्फ ‘चिंकी’ के बतौर देखती है. लंदन ओलंपिक भारतीय खेलों के लिए एक युग की शुरुआत हो सकते हैं बशर्ते सिर्फ दो चीज़ों का ध्यान रखा जाए- खेल को ‘खेल’ न समझा जाए और सिर्फ क्रिकेट को खेल न समझा जाए!

इतिहास के दो आख्यान

priyamvadपुस्तक: इतिहास के दो आख्यान

लेखक: प्रियंवद

मूल्य: 600 रुपये

पृष्ठ: 511

प्रकाशन: वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर

मेरे प्रिय कथाकार प्रियंवद प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के विद्यार्थी भी रहे हैं.  इतिहास पर उनकी एक पुस्तक ‘भारत विभाजन की अंतःकथा’ (1707 से 1947 तक ) कुछ साल पहले प्रकाशित हुई थी. हाल ही में इतिहास पर उनकी दूसरी पुस्तक ‘भारतीय राजनीति के दो आख्यान’ (1920 से 1950 तक) प्रकाशित हुई है. प्रियवंद जिन दो आख्यानों की पुनर्प्रस्तुति कर रहे हैं, पाठकों के समक्ष वे दो शीर्षकों से उपलब्ध हैं – ‘गांधी, नेहरू, सुभाष और वामपंथ’ तथा ‘स्वतंत्र हिन्दू भारत और सरदार पटेल.’

इस पुस्तक के लेखन के उद्देश्य और प्रासंगिकता के संदर्भ में लेखक की टिप्पणी गौरतलब है, ‘भारतीय राजनीति के इस सर्वाधिक संघर्षपूर्ण समय में जब स्वतंत्रता का युद्ध लड़ा गया, दो अत्यंत महत्वपूर्ण विचारधाराओं, ‘वामपंथ’ और ‘हिन्दू भारत’ तथा इन विचारधाराओं को अपने वाहक, योद्धा, उनकी प्रतिबद्धताएं, संघर्ष, घटनाक्रम व उनके अपने-अपने ‘महामानवों’ के जटिल व अंतर्गुम्फित मनोवेगों, अंतर्विरोधों, महत्वाकांक्षाओं, स्वप्नों के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास है.’ इस प्रस्तुति को लेकर भी वे स्पष्ट राय रखते हैं और कहते हैं, ‘इस पुस्तक में इतिहास लिखा नहीं बताया जा रहा है.’

हालांकि प्रियंवद इस किताब की भूमिका में यह भी जोड़ते हैं कि ‘अब यह निष्पक्ष, तार्किक और पूर्वग्रह मुक्त विश्लेषण के साथ इतिहास और उसके महानायकों के पक्षों पर कुछ अलग तरह से रोशनी डालने की कोशिश है अथवा यह भी कि यह प्रयास इतिहास लेखन की आवश्यक प्रामाणिकता, वैज्ञानिकता, निर्मम तटस्थता और अनुशासन के साथ होते हुए भी, अपने स्वरूप और प्रस्तुति में आख्यान के अधिक निकट है.’ अपनी इस निर्मम तटस्थता के कारण ही महात्मा गांधी के ‘नैतिक आग्रह’ के साथ पक्षधर दिखता हुआ लेखक पुस्तक में यथास्थान उनके राजनीतिक निर्णयों, चुप्पियों, संतुलनों पर निर्मम दृष्टि भी डालता है. परंतु पाठकों को  ऐसी किसी तटस्थता के भ्रम में भी नहीं होना चाहिए क्योंकि लेखक इतिहास की पुनर्प्रस्तुति कर रहा है जिसे इतिहासकारों से शिकायत है कि उन्होंने तथ्यों को ‘कतिपय पूर्वग्रहों’ से प्रस्तुत किया था अथवा तथ्य योजनाबद्ध तरीके से ‘विखंडित या विकृत’ किए गए थे. पुनर्प्रस्तुति की एक योजना है, जिसके कारण लेखक की अपनी दृष्टि कहीं मुखरता से तो कहीं प्रक्रिया में संबद्ध प्रतीत होती है. अन्यथा कोई कारण नहीं बनता है कि नाथूराम गोडसे और भगत सिंह की तुलना महज कुछ संयोगों के आधार पर कर दी जाए.

लेखक तात्कालिक घटनाओं की पुनर्व्याख्या कर रहे हैं. वे भाषणों, संवादों, पत्रों, और आत्मकथाओं के अंश से तत्कालीन घटनाक्रमों और उसके सूत्रधारों के  आपसी संबंधों की विस्तार से व्याख्या कर रहे हैं. वाम-दक्षिण राजनीति के संदर्भों और उनके विरोधाभासों पर भी अच्छी चर्चा कर रहे हैं. वे सांप्रदायिकता की राजनीति की व्याख्या कर रहे हैं, लेकिन तत्कालीन राजनीति के महत्वपूर्ण केंद्र रहे डाॅ. आंबेडकर को अधिक महत्व नहीं देते हैं. कम्युनल अवार्ड की चर्चा तो हुई है, उससे दुखी नेताओं की भी, लेकिन पुणे पैक्ट की चर्चा के बहाने भी डा. आंबेडकर की राजनीति की कोई चर्चा नहीं है. हो सकता है कि विषय की सीमा का तर्क लेखक के सामने हो, लेकिन पाकिस्तान बनने और ‘हिन्दू भारत’ के संदर्भ में ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ के लेखक की सक्रियता की चर्चा उन्हें क्यों न्यायसंगत नहीं लगती है! लेखक अपने उद्देश्यों के साथ इस तरह संबद्ध होते चले गए हैं कि वल्लभ भाई पटेल को गैर-सांप्रदायिक और योग्य प्रशासक के रूप में  प्रस्तुत करते हुए जवाहरलाल नेहरू की व्यक्तिगत आस्थाओं, धर्म के प्रति बदलती आस्थाओं,  को  पटेल के द्वैध (बाइनरी) में प्रस्तुत कर पाठकों को कुछ संकेत-सा देने लगते हैं. यह सच हो सकता है कि पटेल की छवि उनके यथार्थ से अलग बनती चली गई हो जिसे फिर से समझने की जरूरत है, लेकिन उसे नेहरू के बाइनरी में फिर से देखने का क्या तात्पर्य !

पुस्तक अपनी समग्रता में महत्वपूर्ण है और तत्कालीन भारत को नए सिरे से समझने का आधार भी प्रदान करती है. बशर्ते पाठक अपनी दृष्टि के साथ प्रस्तुत सामग्रियों और विचारों का अध्ययन करे. प्रियंवद की मीमांसा एक अलहदा दृष्टि के साथ उसकी मदद करेगी. यहां ऐसे कई प्रसंग हैं जो तत्कालीन भारत के सूत्रधारों के आपसी संबंधों की अनकही कथाएं प्रस्तुत करते हैं.

-संजीव चन्दन