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कौन करेगा, कहां से होगी क्रांति?

क्या भारत में क्रांति संभव है? अपने अनशन और आंदोलन से देश भर का ध्यान खींचने वाले अण्णा हजारे और उनके साथी अपनी लड़ाई के दौरान अण्णा को इंडिया बताते रहे, अपने आंदोलन को दूसरी आजादी की लड़ाई घोषित करते रहे, लेकिन शायद ही इनमें से कभी किसी ने कहा हो कि वे क्रांति कर रहे हैं. क्या सिर्फ इसलिए कि क्रांति शब्द से जिस हिंसक और रक्तपाती किस्म के सत्ता-परिवर्तन या व्यवस्था-परिवर्तन की बू आती है वह इन आंदोलनकारियों का अभीष्ट नहीं था?  सच तो यह है कि सत्ता या व्यवस्था परिवर्तन इस आंदोलन के लक्ष्य में कभी शामिल नहीं दिखा, और शायद इसलिए आंदोलन की तमाम गर्मी और इस दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले ढेर सारे शब्दाडंबरों (रेटरिक) के बावजूद क्रांति का शब्दाडंबर सबसे कम सुनने को मिला. जब अण्णा के आंदोलन जैसे तथाकथित बड़े और गतिशील सामाजिक आंदोलन से क्रांति नहीं सध रही तो दूसरा कौन-सा आंदोलन होगा जो क्रांति कर सके या इसका दम भर सके?

हिंसक क्रांतियों और मुक्तिसेनाओं के सहारे सत्ता में आई विचारधाराएं शासन के स्तर पर कहीं ज्यादा निरंकुश, सर्वसत्तावादी और जनविरोधी साबित हुई हैं

अण्णा के आंदोलन को छोड़ दें. इस देश में और भी जमातें हैं जो खुद को क्रांतिकारी मानती हैं. पिछले कुछ वर्षों में आंध्र प्रदेश से लेकर झारखंड और छत्तीसगढ़ तक करीब नौ-दस राज्यों में फैला हिंसक माओवादी आंदोलन मूलतः क्रांति के सपने और लक्ष्य को ही समर्पित है. सरकारें इसे लाल गलियारा बताती हैं और देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी चिदंबरम इस क्रांतिकारी उभार को देश के सामने खड़ा सबसे बड़ा खतरा मानते हैं. निश्चय ही यह माओवादी आंदोलन की- उनके लक्ष्यों के हिसाब से- एक बड़ी सफलता है.

लेकिन क्या माओवादी इस देश में वाकई कोई क्रांति कर पाएंगे? इसकी संभावना कम लगती है. इसकी कई वजहें हैं. सबसे बड़ी वजह यही है कि जो हिंसक लड़ाई वे लड़ रहे हैं उसमें राज्य के आगे वे टिक नहीं पाएंगे. उल्टे, माओवादियों की हिंसा राज्य की पहले से चली आ रही हिंसा को ही तर्क देगी. राज्य के पास जो सैन्य शक्ति और मशीनरी है वह माओवादियों के मुकाबले इतनी ज्यादा विराट है कि दोनों के बीच किसी वास्तविक युद्ध की स्थिति में माओवादियों को हर हाल में परास्त होना होगा. अगर वे क्रांति के पुराने नियमों और खयालों के हिसाब से सोचते हैं कि एक दिन सेना और न्यायालय सहित देश की बहुसंख्यक आबादी उनके साथ आ खड़ी होगी और वे राज्य की मशीनरी को भी अपने पक्ष में मोड़कर सत्ता पर कब्जा कर लेंगे और पूरी व्यवस्था बदल डालेंगे, तो यह भी एक खामखयाली है. क्योंकि अपनी सारी दुर्बलताओं और अपने सारे दुर्गुणों के बावजूद भारत के संसदीय लोकतंत्र की घुसपैठ बहुत गहरी है जिसे सारे मोहभंग के बावजूद खत्म और खारिज करना आसान नहीं है.

दूसरी वजह यह है कि जिस हिंसक क्रांति का रास्ता माओवादी अपना रहे हैं, विचारधारात्मक स्तर पर उसकी कई विसंगतियां अब कहीं ज्यादा उजागर हैं. दुनिया भर का अनुभव बताता है कि हिंसक क्रांतियों और मुक्तिसेनाओं के सहारे सत्ता में आई विचारधाराएं शासन के स्तर पर कहीं ज्यादा निरंकुश, सर्वसत्तावादी और एक हद तक जनविरोधी भी साबित हुई हैं. ऐसी विचारधाराएं बाजारवाद से भी सांठ-गांठ करने से हिचकती नहीं रही हैं. पूर्वी यूरोप से लेकर चीन तक का यह अनुभव इतना तीखा और ताजा है कि माओवादी आंदोलन को सहानुभूति के साथ देखने वाले लोग भी उसकी परिणतियों को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं हैं. वे ऐसी जनक्रांति के मुकाबले संसदीय लोकतंत्र को ही तरजीह देंगे, इसमें शक नहीं.

फिलहाल माओवाद हमारे देश में प्रतिरोध का एक आंदोलन भर है. वह दलितों, आदिवासियों और गांव-देहात में रहने वाले लोगों के क्रूर शोषण और दमन का, उनके साथ हो रहे औपनिवेशिक व्यवहार का- कई लोगों की निगाह में- एक जायज प्रतिरोध है जिसमें हिंसा भी स्वाभाविक है क्योंकि वह राज्य की हिंसा के प्रत्युत्तर से उपजी है. दूसरी बात यह कि माओवादी आंदोलन की वजह से अचानक दूरदराज के गांवों और देहातों के शोषण पर, उनके संसाधनों की लूट पर सबकी नजर पड़ी है. यह आंदोलन न होता तो वाकई इस देश की मुख्यधारा की राजनीति ने सारे जंगलों, पहाड़ों, बेशकीमती खनिजों और सारी नदियों को बाजार के हाथ औने-पौने में बेच दिया होता. इस अर्थ में माओवादी जंगल के दावेदार ही नहीं, पहरेदार भी हैं.

संसदीय राजनीति ने अपनी सारी सीमाओं के बावजूद पिछड़े तबकों के लिए जगह और गुंजाइश बनाई है

लेकिन माओवाद की उस उपयोगी भूमिका के आगे का सफर कोई वैचारिक रोशनी या भरोसा नहीं दिलाता. वह एक असंभव क्रांति का आक्रोश भरा आह्वान भर लगता है जिसकी उम्र सीमित है, या जो समय-समय पर फूटता रहेगा और राज्य जिसे अपनी ताकत से पचाता रहेगा.  फिर क्या क्रांति का कोई तीसरा रास्ता है? ऐसा रास्ता जो इस पूरी सड़ी-गली व्यवस्था को बदल डाले और समता और न्याय का एक अंतिम राज्य स्थापित करे? अतीत में देखें तो ऐसी उम्मीद आखिरी बार जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के आह्वान ने जगाई थी. तब आजाद भारत ने केंद्रीय स्तर पर अपना पहला सत्ता परिवर्तन देखा था. लेकिन वह संपूर्ण क्रांति भी संसदीय राजनीति के दलदल में धंस कर ढाई साल में दम तोड़ गई. जाहिर है, इसलिए कि उस क्रांति ने सत्ता बदलने की ऊर्जा तो पैदा की, व्यवस्था बदलने की कोई दृष्टि नहीं दी.

यानी क्रांति के नाम पर शुरू होने वाली किसी भी लड़ाई का पहला फर्ज और लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह आने वाले दिनों के लिए व्यवस्था बदलने का खाका तैयार करे. लेकिन फिर यह सवाल पैदा होता है कि क्या वाकई इस देश की जनता अपनी संसदीय राजनीति से इस कदर ऊबी हुई या आक्रांत है कि वह इसे बदल डालने के किसी प्रस्ताव के पक्ष में खड़ी हो जाएगी. फिलहाल ऐसा लगता नहीं क्योंकि इस राजनीति को इसकी दुर्बलताओं के लिए पानी पी-पीकर कोसने वाला लगातार मोटा होता मध्यवर्ग ऐसी ही व्यवस्था में खुद को बचाए रख सकता है. सच तो यह है कि वह इसे बदलना नहीं चाहता, बस इसके कुछ दुर्गुण दूर करना चाहता है- बिना यह समझे कि इसके ज्यादातर दुर्गुणों का जिम्मेदार वही है.

दूसरी बात यह कि इस संसदीय राजनीति ने अपनी सारी सीमाओं के बावजूद पिछड़े तबकों के लिए जगह और गुंजाइश बनाई है. इस लिहाज से भारतीय लोकतंत्र कहीं ज्यादा क्रांतिकारी साबित हुआ है कि उसने सदियों से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था को एक स्तर पर उलट-पुलट डाला है और सत्ता उन लोगों के हाथ में सौंपी है जो अब तक निचले पायदान पर रहे हैं. बराबरी और इंसाफ की लड़ाइयां निश्चय ही बाकी हैं, लेकिन वे लड़ी जा रही हैं. तो क्या यह मान लें कि इस देश को किसी बदलाव की, किसी क्रांति की जरूरत नहीं है? जो जैसा है, वैसा ही चलता रहेगा और इसी से हम संतुष्ट हो लें? जाहिर है, यह भी विकल्प नहीं हो सकता. फिर रास्ता कहां से निकलता है?

इस रास्ते के लिए हमें किसी वैचारिक क्रांति के विराट राजमार्ग की जगह उन छोटी-छोटी पगडंडियों की तरफ देखना होगा जहां बदलाव की बहुत सारी कोशिशें चल रही हैं. अपने-अपने ढंग से प्रतिरोध की बहुत सारी आवाजें हैं जो मौजूदा व्यवस्था को आईना और अंगूठा दिखा रही हैं और क्रांति की अपनी तहरीर लिख रही हैं. कहीं नर्मदा के लिए लड़ती मेधा पाटकर है, कहीं फौजी दमन के विरुद्ध उपवास कर रही शर्मिला इरोम है, कहीं बड़े बांधों और बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ खड़े आदिवासी हैं और कहीं अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का विरोध करते दलित हैं. कहीं बिल्डरों को जमीन न देने को तैयार किसान हैं तो कहीं सेज, यानी विशेष आर्थिक क्षेत्रों के खिलाफ वोट कर रही पंचायतें हैं. निश्चय ही इनमें से बहुत सारी आवाजें अनसुनी रह जा रही हैं, बहुत सारे प्रतिरोधों को राज्य निर्ममता से कुचल रहा है, बहुत सारे लोग अकेले पड़ जा रहे हैं. लेकिन प्रतिरोध की ये साझा आवाज़े अंततः बहरे कानों को सुनाई पड़ रही हैं. धीरे-धीरे बदलाव हो रहे हैं.

कोई चाहे तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को उद्धृत करते हुए याद दिला सकता है कि ‘धीरे-धीरे/ कुछ नहीं होता/ सिर्फ मौत होती है’, लेकिन जो तेजी से होता है वह भी मानवीय नहीं होता, इसके सबूत अब बहुतेरे हैं. दरअसल एक मानवीय लड़ाई बहुत धीरज की मांग करती है. ऐसी लड़ाई में भारी-भरकम शब्द भारी-भरकम हथियारों जितने ही खतरनाक होते हैं, उतनी ही हिंसा पैदा करते हैं. यह अंधेरे समय में अलग-अलग कोनों में सुलगने वाली फुसफुसाहटों की तीलियां हैं जो बदलाव की इच्छा भी कायम रखती हैं और उसके प्रति भरोसा भी. ऐसी मद्धिम आवाजें डराती नहीं, उनसे चौंक कर बचने की इच्छा नहीं होती, बल्कि उनके करीब जाने का, उन्हें ध्यान से सुनने का मन होता है.

निश्चय ही राज्य इन फुसफुसाहटों के मुकाबले एक अट्टाहास जैसा होता है जो लगभग अभेद्य और अजेय लगता है. लेकिन जनक्रांतियों का आंदोलन यह भी बताता है कि खामोश प्रतिरोधों के आगे कई बार ऐसे अट्टाहासी अहंकार धूल में मिल गए हैं.
मार्क्सवाद बताता है कि क्रांति के लिए क्रांति लायक परिस्थितियां चाहिए. भारत में निश्चय ही एक स्तर पर वे परिस्थितियां हैं- भूख, बेरोजगारी, खुदकुशी, असुरक्षा, सामाजिक टूटन- यह सब-कुछ जैसे बड़े होते जा रहे हैं. लेकिन इसी के साथ-साथ तरह-तरह के प्रतिरोध भी बड़े होते जा रहे हैं. हमें प्रतिरोध की इन कातर और कमजोर आवाजों को ध्यान से सुनना चाहिए. वे किसी फ्लडलाइट की तरह एक जगमग और सुनहरे अक्षरों में लिखी जाने वाली क्रांति भले न करें, लेकिन बेहतर जिंदगी और व्यवस्था के कहीं ज्यादा वैध संघर्ष के छोटे-छोटे दीयों के रूप में हमारा-आपका जीवन बदल सकती हैं. दरअसल ऐसी ही आवाजें उस क्रांति का भरोसा जगाती हैं जो भारतीय परिस्थितियों में फिलहाल बिल्कुल असंभव जान पड़ती है.   

 

जीत नहीं जकड़न की शुरुआत

सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश के बाद जिसमें शीर्ष अदालत ने गुजरात दंगों के एक मामले में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुकदमा चलाने या न चलाने का जिम्मा अहमदाबाद की निचली अदालत पर डाल दिया है, यह राजनीतिक बहस हो रही है कि इस आदेश का मतलब मोदी को क्लीन चिट है या नहीं. शीर्ष अदालत ने यह आदेश उस याचिका पर सुनाया था जिसमें मोदी और 62 अन्य अधिकारियों पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने 2002 में हुए गुलबर्ग सोसाइटी दंगों को रोकने के लिए जान-बूझ पर कोई कदम नहीं उठाया और हिंसा को बढ़ावा दिया.

नौ पृष्ठों के इस आदेश को गौर से पढ़ा जाए तो ऐसा कहीं से भी नहीं लगता कि मोदी को क्लीन चिट दी गई है. इस मामले में एमिकस क्यूरी राजू रामचंद्रन ने भी कहा है कि इस आदेश की व्याख्या मोदी को क्लीन चिट के रूप में करना पूरी तरह से गलत निष्कर्ष है (देखें साक्षात्कार). इसके बावजूद भाजपा नेता इसे मोदी की बेगुनाही और उनकी जीत के तौर पर प्रचारित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे.

एसआईटी ने जो जांच रिपोर्ट सौंपी थी उसमें दर्जनों उदाहरण थे कि दंगों के दौरान मोदी का रवैया पक्षपातपूर्ण थान्यायपालिका के सामने अभी सबसे बड़ा सवाल यह नहीं है कि मोदी दोषी हैं या बेगुनाह. विशेष जांच दल या एसआईटी ने पिछले साल नवंबर में शीर्ष अदालत को 600 पन्नों की जो जांच रिपोर्ट सौंपी थी उसमें यह साबित करते दर्जनों उदाहरण थे कि दंगों के दौरान और बाद में मोदी का रवैया पक्षपातपूर्ण और सांप्रदायिक था और यह उनके राजनीतिक एजेंडे के हिसाब से निर्देशित हो रहा था. मसला अब यह है कि क्या मोदी की यह लापरवाही अदालत में साबित की जा सकती है. एसआईटी के सामने चुनौती है कि वह अपने पास मौजूद सबूतों की सही व्याख्या करे और उसके बाद आगे की कार्रवाई का फैसला करे. मोदी के खिलाफ यह मामला जैसे-जैसे आगे बढ़ेगा, यह एक तरह से भारतीय न्याय व्यवस्था की परीक्षा भी होगी.

तर्कों के हिसाब से देखा जाए तो अब दो ही संभावनाएं हैं. या तो एसआईटी मोदी और अन्य के खिलाफ एक बड़ी साजिश का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ आरोपपत्र दाखिल करेगी या फिर वह यह कहते हुए एक क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करेगी कि उसे गुजरात के मुख्यमंत्री के खिलाफ ऐसे सबूत नहीं मिले कि उनके खिलाफ मामला चलाया जा सके.

लेकिन दूसरी संभावना में भी सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया है कि दंगा पीड़ितों को निचली अदालत के सामने अपना पक्ष रखने का मौका मिले और इसके बाद यह तय करने का अधिकार न्यायाधीश के पास होगा कि मुकदमा चले या नहीं. और यदि पीड़ितों का पक्ष सुनने के बाद भी न्यायाधीश यह फैसला करता है कि मोदी के खिलाफ मुकदमा न चले तो भी उनके पास उससे ऊपर की अदालतों में गुहार लगाने के विकल्प मौजूद हैं. इसलिए थोड़ी भी समझ वाला व्यक्ति यह समझ सकता है कि इस मामले में मोदी का सफर अभी शुरू ही हुआ है. 12 सितंबर को मोदी ने एक खुला पत्र लिखा. इसमें उनका कहना था कि 2002 के बाद व्यक्तिगत रूप से उन पर एवं गुजरात सरकार पर लगने वाले झूठे आरोपों के कारण जो कलुषित वातावरण बन गया था उसका अंत हो गया है. लेकिन मोदी का यह दावा सच्चाई से कोसों दूर है. उनकी मुश्किलों का अंत तब होता जब सर्वोच्च न्यायालय उन दंगों में मारे गए पूर्व कांग्रेस विधायक अहसान जाफरी की विधवा जाकिया जाफरी की याचिका खारिज कर देता और कहता कि इसके बाद आगे किसी तरह की न्यायिक कार्रवाई की जरूरत नहीं है. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है.

मोदी को बेगुनाह बताने की बजाय शीर्ष अदालत ने एसआईटी से कहा है कि इस मामले में अपनी आखिरी रिपोर्ट वह अहमदाबाद की निचली अदालत को सौंपे और मामले की सुनवाई वहीं हो. शीर्ष अदालत ने यह भी सुनिश्चित किया है कि एसआईटी की पहली रिपोर्ट में जो विसंगतियां रह गई हैं उन्हें वह अपनी आखिरी रिपोर्ट तैयार करने से पहले सुधार ले.

गौरतलब है कि एसआईटी ने मोदी को पुलिस कंट्रोल रूम में अवैध रूप से अपने दो विवादास्पद मंत्रियों को भेजने, दंगों के दौरान भड़काऊ भाषण देने, दंगों के दौरान लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों को पुरस्कृत करने और सख्ती बरतने वाले अधिकारियों को दंडित करने, दंगों के संवेदनशील मामलों में विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले लोगों को सरकारी वकील बनाने, पुलिस कंट्रोल रूम के अहम रिकॉर्ड नष्ट करने और इसके अलावा अन्य दर्जन भर मोर्चों पर दोषी पाया है जो पूरी तरह से उनके सांप्रदायिक और पक्षपाती रवैये को दर्शाता है. इसके बावजूद एसआईटी का निष्कर्ष था कि मोदी के खिलाफ मामला चलाने का आधार नहीं बनता.

लेकिन इस साल मार्च में जब एमिकस क्यूरी ने एसआईटी रिपोर्ट की समीक्षा की तो उन्होंने अदालत को बताया कि एसआईटी की पड़ताल के तथ्य उसके निष्कर्षों से मेल नहीं खाते. इसके बाद न्यायालय ने एमिकस क्यूरी से कहा कि वे गुजरात जाएं और स्वतंत्र रूप से गवाहों से मिलकर एसआईटी द्वारा जुटाए गए तथ्यों का व्यापक आकलन करें.

इसी साल जुलाई में एमिकस क्यूरी ने अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंपी. माना जाता है कि इसमें उन्होंने एसआईटी से असहमति जताई है. उनका मतभेद इस बिंदु को लेकर है कि किसे मुकदमा चलाने लायक सबूत माना जा सकता है और किसे नहीं. अपने आदेश में शीर्ष अदालत ने कहा है कि अपनी रिपोर्ट सौंपने से पहले एसआईटी चाहे तो एमिकस क्यूरी की रिपोर्ट की प्रतियां हासिल कर सकती है. कानूनी जानकारों का मानना है कि इसका अर्थ यह है कि एसआईटी को न सिर्फ रामचंद्रन द्वारा उठाए गए बिंदुओं पर ध्यान देना होगा बल्कि अपने और एमिकस के निष्कर्षों में एक तालमेल भी बैठाना होगा.

आने वाले दिनों में एसआईटी और एमिकस क्यूरी दोनों के निष्कर्षों पर निचली अदालत में जोरदार कानूनी बहस होगी. बड़े नामों को कटघरे में खड़ा करती कई जानकारियां सार्वजनिक होकर सुर्खियां बनेंगी जो इस बड़े मुद्दे पर जोरदार कानूनी और संवैधानिक बहस को जन्म देंगी कि जान-बूझकर अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने वाले बड़ी कुर्सियों पर बैठे व्यक्तियों को दंडित कैसे किया जाए.
क्या यह सब कहीं से भी मोदी के लिए गुजरात दंगों के मामले का अंत और सात रेसकोर्स रोड की यात्रा की शुरुआत जैसा लगता है?

डाल से आगे पात की दौड़

ईश्वर विशाल ताकतवर सेना का साथ नहीं देता, वह सही समय पर सटीक वार करने वाले का साथ देता है : वॉल्तेयर

सोलहवीं सदी के मशहूर फ्रांसीसी दार्शनिक फ्रैंकस्वे मेरी ऑरवे उर्फ वॉल्तेयर ने ये शब्द इंग्लैंड और फ्रांस के बीच जारी सनातन संघर्ष पर कहे थे. ताकतवर भारतीय लोकतंत्र के विशाल शोरूम (लुटियन जोन) में पिछले दिनों अन्ना हजारे के समर्थन में जगह-जगह और समय-समय पर उमड़ा जनसमूह जाने-अनजाने ही वॉल्तेयर के एक-एक शब्द की बानगी बन गया. अक्टूबर, 2010 में फेसबुक के एक पन्ने से शुरू हुआ इंडिया अगेन्स्ट करप्शन (आईएसी) का जन लोकपाल आंदोलन अगस्त, 2011 में यदि सरकार के गले में हड्डी बनकर अटक गया तो इसके पीछे की वजहें वही थीं जिन्हें वॉल्तेयर ने जरूरी माना था यानी सही समय पर सटीक वार और एक बार नहीं बल्कि बार-बार.

एक तरफ आईएसी या टीम अन्ना थी जिसने शुरुआत से ही एक-एक कदम नाप-तौल कर आगे बढ़ाया तो दूसरी तरफ ताकतवर सरकार थी जो अपने लचर, टालू, और घमंडी रवैये के कारण कदम-कदम पर धूल फांकने को मजबूर हुई. पहले तो सरकार ने इस आंदोलन को तवज्जो देना ही उचित नहीं समझा, बाद में जब जनता पूरे देश में सड़कों पर उतर गई तब दबाव में आकर ‘ठीक है, चलो बात कर लेते हैं’ वाले अंदाज में बातचीत के लिए तैयार हुई. नतीजा, अप्रैल में सिविल सोसाइटी और केंद्र सरकार के नुमाइंदों को जोड़कर बनी लोकपाल की मसौदा समिति बेनतीजा रही. अन्ना हजारे ने एक बार फिर से 16 अगस्त से अनशन पर बैठने की घोषणा कर दी. वे अनशन पर बैठे और सरकार को उसके घुटनों पर लाने और काफी हद तक अपनी बात मनवाने में सफल भी रहे. इस बीच जनता के बीच लगातार यह संदेश गया कि सरकार किसी भी कीमत पर आंदोलन को खत्म करने का काम कर रही है और मजबूत लोकपाल विधेयक से मुंह चुरा रही है. टीम अन्ना द्वारा कदम-कदम पर उठाए गए कदमों ने सरकार को बगलें झांकने पर मजबूर किया.

अप्रैल में अन्ना के जंतर-मंतर पर अनशन पर बैठने के बाद से ही इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की रणनीति बेहद आक्रामक, प्रोएक्टिव और नवीनता से लैस थी. मीडिया को कैसे संभालना है, सोशल मीडिया की ताकत का इस्तेमाल कैसे हो, देश भर में एक साथ धरना, गिरफ्तारी जलूस कैसे निकले, विरोध के नए-अनोखे तरीके कैसे अपनाए जाएं, जैसी तमाम बारीकियों पर बेहद गंभीरता के साथ काम करने वाली एक समर्पित टीम इस अभियान के पीछे खड़ी रही. इस टीम के सदस्य बेहद पेशेवर लोग थे. किसी ने अपनी मोटी कमाई वाली आईटी की नौकरी छोड़ी, तो कोई पत्रकारिता का अच्छा-खासा करियर दांव पर लगाकर अन्ना के साथ जा खड़ा हुआ. कांग्रेस पार्टी और सरकार के नुमाइंदे जब इस आंदोलन के पीछे विदेशी शक्तियों का हाथ होने के आरोप लगा रहे थे तब हमने अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण और किरण बेदी जैसे चर्चित नामों से इतर इस आंदोलन के पीछे की असली ताकत यानी टीम अन्ना और उसके काम काज के बारे में जानने की कोशिश की.

­टीम अन्ना दो कदम आगे

अन्ना की कोर टीम के एक महत्वपूर्ण सदस्य हैं पूर्व पत्रकार मनीष सिसोदिया. इन्हीं की देखरेख में जन लोकपाल आंदोलन से जुड़ी मीडिया टीम ने काम किया. टीम के ही एक सदस्य के मुताबिक सोलह तारीख को अनशन शुरू होने से पहले प्रेस ब्रीफिंग से लेकर सभी लाइव कार्यक्रमों के लिए समय और दिन का बारीकी से ख्याल रखा गया. मसलन, समाचार चैनलों पर आने वाले दोपहर के सास-बहू कार्यक्रम के दौरान कोई भी कार्यक्रम आयोजित करने से परहेज किया गया. शाम को जब चैनलों का टीआरपी मीटर क्रिकेट को समर्पित होता है उस दौरान भी कोई लाइव कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जाता था. रविवार और छुट्टियों के दिन आयोजन से बचने की कोशिश रहती थी. इंडिया अगेन्स्ट करप्शन वेबसाइट के सूत्रधार रहे नवभारत टाइम्स के पूर्व पत्रकार शिवेंद्र सिंह चौहान अभियान की एक रणनीति के बारे में बताते हैं, ‘अप्रैल में जंतर-मंतर पर अन्ना का अनशन खत्म होने के बाद मसौदे पर विचार के लिए संयुक्त समिति का गठन हो गया, मीटिंग का सिलसिला शुरू हो गया. इन तीन महीनों के दौरान हमारा अभियान काफी ढीला रहा. तब हमारी रणनीति थी कि हर दिन कुछ न कुछ करते रहा जाए ताकि जनता के दिमाग से आंदोलन की बात निकलने न पाए. शहर-शहर में लोगों के साथ संवाद, उनके सुझाव, मीडिया के साथ लगातार बातचीत से आंदोलन हमेशा जीवंत बना रहा.’

इंटरनेट का जितना सफल इस्तेमाल इस बार हुआ है वह भविष्य के आंदोलनों के लिए मार्गदर्शक हो सकता हैमीडिया प्रबंधन टीम की एक और महत्वपूर्ण योजना भाषाई मीडिया को लेकर रही है. टीम अन्ना के सदस्यों ने हरसंभव कोशिश करके हिंदी मीडिया को सबसे ज्यादा समय दिया. मीडिया से बातचीत के दौरान हिंदी में ही बातचीत को तवज्जो दी गई. टीम की स्पष्ट राय रही कि आम जनता की भाषा हिंदी है और टीवी चैनलों के माध्यम से जुड़े उनके अधिकतर समर्थक हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में ही खबरें देखते हैं. यह रणनीति बेहद कारगर भी रही. इसके उलट सरकार का रवैया बेहद ढुलमुल और थकाऊ था. मीडिया को सफलता से साधने की रणनीति के बारे में पूछने पर मनीष सिसोदिया का बहुत विनम्रता से कहना था, ‘हमारी रणनीति सिर्फ अन्ना और हमारी टीम की ईमानदारी पर टिकी है. यह अभियान ईमानदारी की बुनियाद पर खड़ा हुआ है और सच्चाई इसकी ताकत है.’ मीडिया को सफलतापूर्वक साधने की रणनीति टीम अन्ना की प्रेसवार्ताओं में भी दिखाई पड़ती है जहां ज्यादातर सदस्य हिंदी में ही बातचीत को तवज्जो देते हैं और स्वयं अन्ना भी समय-समय पर मीडिया के लोगों को उनके सहयोग के लिए मंच से बधाई देना नहीं भूलते.

मनीष सिसोदिया, अस्वथी मुरलीधरन, विभव कुमार जैसे पत्रकार अपने अनुभवों का पूरा इस्तेमाल मीडिया प्रबंधन में करते हैं. एसएमएस और ईमेल के जरिए देश भर के मीडिया समूहों को हर दिन की खबर पहुंचाना इसी टीम की जिम्मेदारी है. देश भर के किसी हिस्से में अगर आप विरोध करना चाहते हैं तो वहां किससे संपर्क करें, विरोध का स्वरूप कैसा होगा आदि सभी जानकारियां इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की वेबसाइट और प्रेस रिलीज के जरिए लोगों तक पहुंचा दी जाती हैं. सरकारी प्रेस रिलीज की अनुवादित और क्लिष्ट भाषा के विपरीत यदि आईएसी की कोई प्रेस रिलीज देखें तो इसमें स्पष्टता, सफाई, सरलता और पेशेवर नजरिया साफ दिखाई पड़ता है. आईएसी के नेशनल कोऑर्डिनेटर का काम संभाल रहे नीरज कुमार बताते हैं,’जैसे ही यहां किसी जलूस, प्रदर्शन या तरीके पर फैसला होता है हम पूरे देश में लोगों को इसकी जानकारी पहुंचा देते हैं ताकि एक साथ सही समन्वय के साथ  देश भर में यह अभियान संपन्न हो. इससे आंदोलन की विशालता और एकजुटता का अहसास होता है.’  

अन्ना हजारे का आंदोलन जिस विकराल रूप में दिखा उसकी जड़ें इंटरनेट के जमाने में ताकतवर हथियार बनकर उभरे सोशल मीडिया से भी जुड़ी हैं. अक्टूबर, 2010 में शिवेंद्र सिंह चौहान ने इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के नाम से फेसबुक पर एक पेज बनाया था और उसी समय अरविंद केजरीवाल प्रस्तावित सरकारी लोकपाल बिल का विरोध करने की योजना बना रहे थे. संयोग से हुआ यह मिलन आज जिस मुकाम पर खड़ा है उसे बताने की जरूरत नहीं है. शिवंेद्र बताते हैं, ‘मैंने साइट के अस्तित्व में आने के बाद से हर दिन इस पर 16 से 18 घंटे तक काम किया. हर दिन देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाले हर छोटे-बड़े आंदोलन को इंडिया अगेन्स्ट करप्शन से जोड़ने के लिए यह जरूरी था. लोगों को पल-पल की खबर इसके जरिए आसानी से मिल रही थी, जिसके चलते इंडिया अगेन्स्ट करप्शन का दायरा बहुत तेजी से देशव्यापी हो गया. आज आईएसी के 60 देशी और चार विदेशी चैप्टर हैं.’

आंदोलन से सहमति रखने वाले हर व्यक्ति ने अपनी दक्षता का लाभ टीम अन्ना को पहुंचायाइंटरनेट पर उपलब्ध लगभग सभी हथियारों का जितना सफल इस्तेमाल इस आंदोलन में हुआ है वह भविष्य के आंदोलनों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है. ट्विटर इसका एक नमूना है जहां इंडिया अगेन्स्ट करप्शन से सहानुभूति रखने वाले सभी लोग पल-पल की खबरंे प्रसारित करते रहे. इनमें फिल्मी सितारों से लेकर किरण बेदी और श्री श्री रविशंकर जैसे लोग शामिल रहे. यह कहना गलत नहीं होगा कि अन्ना का आंदोलन जितना जंतर-मंतर, इंडिया गेट और रामलीला मैदान पर लड़ा जा रहा था उतना ही इंटरनेट की  दुनिया में भी लड़ा जाता रहा. 16 अगस्त को जब अन्ना के साथ पुलिस ने बाबा रामदेव वाली चाल चलने की कोशिश की तब इसकी ताकत का अंदाजा सभी को हुआ. तिहाड़ जेल में श्री श्री रविशंकर की अन्ना से मुलाकात की फोटो देखते ही देखते पूरे देश में फैल गई और भीड़ एक साथ तिहाड़ से लेकर इंडिया गेट तक सड़कों पर आ गई. किरण बेदी ने भी अपने मोबाइल फोन पर अन्ना का संदेश रिकॉर्ड करके उसे यूट्यूब पर डाल दिया, जिसे टीवी चैनलों ने घर-घर पहुंचा दिया.   

करेक्शन यानी सुधार टीम का एक और मंत्र है. अन्ना के सहयोगी ऐसे हर मौके पर तुरंत ही सुधार की पहल करते हैं जहां किसी तरह की चूक या आलोचना की गुंजाइश हो. मोदी की तारीफ पर जब विरोधियों ने अन्ना को आड़े हाथों लिया तब तुरंत ही टीम की तरफ से सफाई आई कि वे किसी भी सांप्रदायिक व्यक्ति का समर्थन नहीं करते. अन्ना ने सिर्फ मोदी के विकास कार्यों की तारीफ की है और वे मोदी के प्रशंसक कतई नहीं है. इसी प्रकार जंतर-मंतर पर अन्ना के अनशन के दौरान जब भारत माता की तस्वीर को लेकर आरोप लगे कि अन्ना आरएसएस का मुखौटा मात्र हैं तो हमेशा एक कदम आगे रहने वाली टीम अन्ना ने रामलीला मैदान में विरोधियों के इस बाउंसर पर छक्का दे मारा. यहां अन्ना के पीछे महात्मा गांधी चित्र में मौजूद थे. जब विरोधी आरोप से बाज नहीं आए तब इंडिया अगेन्स्ट करप्शन ने अन्ना के नैतिक बल का सहारा लिया. वही नैतिक बल जिसके जोर पर अन्ना रामलीला मैदान से आह्वान करते हैं, ‘मेरे पीछे आरएसएस का हाथ होने का आरोप लगाने वालों को मेंटल हॉस्पिटल भेजने की जरूरत है.’ सावधानी का आलम यह है कि राजू श्रीवास्तव, रघुवीर यादव, कैलाश खेर जैसे लोग मंच पर नजर आते हैं और वरुण गांधी जैसे लोग मंच के सामने दरी पर बैठते हैं.

नएपन ने इस पूरे आंदोलन को न सिर्फ जीवंत बनाया बल्कि सरकार को कदम दर कदम मुंह की खाने पर भी मजबूर किया. विरोध के नए तरीके ईजाद करने के लिए कोई अलग टीम नहीं है. लगभग 22 सदस्यों के कोर ग्रुप वाली टीम की हर सुबह होने वाली मीटिंग में ही उस दिन की योजनाओं की चर्चा होती है. मीडिया प्रबंधन कर रही अस्वथी मुरलीधरन के मुताबिक, ‘हर सदस्य विरोध के नए-नए विचार रखता है. जो आइडिया पसंद आ जाता है उस पर अमल करने की रणनीति बनती है. इसके बाद मीडिया, सोशल मीडिया और मंच से उसकी जानकारी सभी को दे दी जाती है. ‘जब सरकार इनकार की मुद्रा में थी तब अन्ना ने लोगों से थाली- चम्मच पीटते हुए इंडिया गेट तक मार्च करने के लिए कहा. यह मार्च की बात थी.   इसके बाद तीन महीनों तक आंदोलन को जीवंत बनाए रखने के लिए देश भर में पदयात्रा का निर्णय लिया गया. 15 अगस्त आते-आते टीम ने एक के बाद एक इतने सरप्राइज दिए कि सरकार भी सकते में आ गई. अन्ना हजारे चुपचाप राजघाट पर जा बैठे. पूरा फोकस प्रधानमंत्री के लालकिले से संबोधन की बजाय अन्ना के राजघाट अभियान पर आ गया. शाम आठ बजे से नौ बजे तक ब्लैक आउट का आह्वान कर दिया गया. शहर के कुछ इलाके पीक ऑवर में अंधेरे में डूब गए. मानो इतना ही काफी नहीं था. टीम ने विरोध का एक नया रास्ता खोज निकाला. लोग दिन में कारों और मोटरसाइकिलों की हेडलाइट जलाकर चलने लगे.

अब सरकार के लिए सहना मुश्किल हो गया था. अगली सुबह अन्ना को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया गया. सरकार के फिसलने और फिर लुढ़कते चले जाने की यह शुरुआत थी. टीम के सदस्यों को अन्ना की गिरफ्तारी का अंदेशा पहले से था, इसलिए उन्होंने पहले से ही अन्ना का एक बयान रिकॉर्ड करके रख लिया था. गिरफ्तारी के बाद इस रिकॉर्डिंग ने टीवी चैनलों के माध्यम से गजब ढा दिया. जनता ने सड़क पर उतर कर सरकार की नाक में दम कर दिया. अब सरकार ने फिर उल्टी चाल चली और अन्ना को रिहा करने का आदेश दे दिया. यहां एक बार फिर से टीम अन्ना ने तुरुप की चाल चली और सरकार चारों खाने ढेर हो गई. अन्ना ने तब तक तिहाड़ से बाहर नहीं आने की घोषणा कर दी जब तक उन्हें सार्वजनिक रूप से अनशन करने की इजाजत नहीं दी जाती.

अन्ना ने रामलीला मैदान में अनशन शुरू कर दिया. टीम की मीटिंग में फिर से एक विचार जन्मा. विचार था दिल्ली समेत देश भर में सांसदों के निवास स्थानों पर जाकर लोग धरना दें. यह विचार टीम को आमिर खान ने दिया. सांसदों को घेरने की रणनीति कामयाब रही. कुछ लोगों को अपनी जमीन दरकती नजर आई. महाराष्ट्र जहां से अन्ना आते हैं वहां उनके समर्थकों की संख्या विशाल है लिहाजा कोई आश्चर्य नहीं कि प्रिया दत्त, मिलिंद देवड़ा, दत्ता मेघे और संजय निरूपम जैसे कांग्रेसियों ने अन्ना की लुकाठी उठा ली. निरूपम तो तीन दिन पहले ही अन्ना को संसद भवन में पानी पीकर कोस रहे थे लिहाजा उनके राजनीतिक उत्परिवर्तन पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल है.

आंदोलन से सहमति रखने वाले हर व्यक्ति ने अपनी दक्षता का लाभ टीम अन्ना को पहुंचाया. सटीक चुनावी विश्लेषणों के लिए पहचाने जाने वाले योगेंद्र यादव ने टीम को जनमत संग्रह का विचार दिया. योजना काम कर गई. कपिल सिब्बल के चुनाव क्षेत्र में 85 फीसदी लोग जन लोकपाल के पक्ष में थे तो राहुल गांधी के अमेठी में जनता पांच कदम आगे यानी 90 फीसदी समर्थन कर रही थी.

पारदर्शिता एक और हथियार है. टीम अन्ना ने हर मौके और हालात की जानकारी लोगों के सामने रखी. इससे कभी भी उनके ऊपर भीतरखाने में लेन-देन या गुपचुप समझौता करने के आरोप नहीं लग सके. गौरतलब है कि बाबा रामदेव के आंदोलन में यह एक बड़ी समस्या रही थी. टीम ने कदम-कदम पर इस हथियार से सरकार को मात दी. 24 अगस्त की रात जब प्रणब मुखर्जी के साथ टीम अन्ना की बात टूट गई थी और रामलीला मैदान में पुलिस की गतिविधियां बढ़ गई थीं तब पारदर्शिता की इस रणनीति ने ही सरकार को बैकफुट पर ढकेला. अन्ना को रात साढ़े ग्यारह बजे उठाकर मंच पर लाया गया. इसके बाद वित्तमंत्री को रात के बारह बजे प्रेस से बात करके अपनी स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी. जब-जब सरकार ने अन्ना के खराब स्वास्थ्य के चलते अपनी स्थिति कठोर करनी चाही तब-तब टीम पूरी योजना के साथ अन्ना को मंच पर लेकर आती रही. इस काम में डॉक्टरों का भी बड़ी चतुराई से इस्तेमाल किया गया. अनशन के सातवें दिन जाहिर है अन्ना की तबीयत पर डॉक्टर चिंता जाहिर करते, इससे सरकार पर दबाव बढ़ा. मगर जैसे ही सरकार ने इसका फायदा उठाने का प्रयास किया अन्ना ने स्वयं मंच पर आकर घोषणा कर दी कि उनकी तबीयत ठीक है और उन्हें नौ दिन और कुछ नहीं होगा.       

उधर सरकार के संकट प्रबंधक और सरकार से सहानुभूति रखने वाले अंग्रेजीदां लोग टीवी चैनलों पर इसे मध्यवर्ग का आंदोलन बताकर नकारते फिर रहे थे. एक लिहाज से ऐसा था भी. आंदोलन में उमड़ रही भीड़ का मोटा हिस्सा ऐसा था जिसे सरकार की उन नीतियों से कोई कष्ट नहीं है जिनसे दांतेवाड़ा के आदिवासियों की जमीन कॉरपोरेट कंपनियों के नाम हो जाती है, बैठे बिठाए लोग भूमिहीन मजदूर बन जाते हैं, अंधाधुंध दस्तखत होने वाले एमओयू से उसे कोई दिक्कत नहीं है, दिक्कत है सिर्फ इस बात से कि उसे अपने काम के लिए जेब से रुपया ढीला करना पड़ता है. इस लिहाज से आंदोलन का दायरा बेहद सीमित रहा. अन्ना ने इसे आगे बढ़ाते हुए अब चुनाव सुधार से लेकर भूमि सुधार तक फैलाने का संकेत दिया है. लेकिन सिर्फ इसी वजह से उन लोगों को इतने बड़े आंदोलन को नकारने की छूट नहीं मिल सकती जिन्हें हजार-पांच सौ की भीड़ इकट्ठा करने के लिए भी मुर्गा-दारू बंटवाने की जरूरत पड़ती है. एक बात और, भारत में मध्यवर्ग भी बीस करोड़ हैं, क्या वोट के लिए किसी भी समय शीर्षासन करने को तैयार बैठे लोगों में इतनी बड़ी संख्या को नजरअंदाज करने का साहस है?

‘मजहब के नाम पर बने देश में इंसानों की जिंदगी दर्दनाक अंत की ओर बढ़ने लगती है’

किसी ने सच कहा है कि किसी भी शहर के पुराने हिस्सों में आपको वे इमारतें और वे लोग मिलेंगे जो उस शहर के इतिहास को अपनी आंखों के सामने से सिर्फ गुजरते हुए नहीं देखते बल्कि उसे अपने वजूद में घटता हुआ भी महसूस करते हैं. पुराने भोपाल की एक बेनूर-सी सड़क के किनारे बनी एक इमारत में मध्य प्रदेश के एक ऐसे ही मशहूर लेखक रहते हैं. पद्मश्री से सम्मानित इस लेखक ने मुसलिम समुदाय की मनोदशा पर विभाजन के प्रभाव और आजाद हिंदुस्तान में मुसलमानों की जिंदगी में हो रहे बदलावों को अपने उपन्यासों में बारीकी से उतारा है. ‘सूखा बरगद’ और ‘बशारत मंजिल’ जैसे पांच प्रसिद्ध उपन्यासों, कई कहानी संग्रहों और नाटकों के लेखक मंजूर एहतेशाम ने प्रियंका दुबे से अपनी रचनाओं के साथ-साथ अपनी जिंदगी और लेखन को गहरे तक प्रभावित करने वाले सभी आयामों पर बात की

जिस दौर में भोपाल में आपका जन्म हुआ था उस वक्त यहां उपन्यास लिखने की कोई मजबूत रवायत नहीं थी. ऐसे में आपका साहित्य से परिचय कैसे हुआ?  आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई?

शुरुआत तो घर में आने वाली उर्दू पत्रिकाओं को पढ़ने से हुई. फिर स्कूल में चार्ल्स डिकेंस की ‘ओलिवर ट्विस्ट’ और ‘डेविड कापरफिल्ड’ से परिचय हुआ. पढ़ने में रुचि तो थी पर साहित्य से मेरा असली परियच मेरे एक दूर के रिश्तेदार नफीस भाई ने कराया. जब मैं छोटा था तब एक दफे वो कराची से भोपाल आए और उन्होंने मुझे दोस्तोवस्की की ‘ब्रदर्स कारमाजोव’ तोहफे में दी. बस वहीं से पढ़ने-लिखने का सिलसिला शुरू हो गया. मैंने क्लासिकल के साथ-साथ पॉप्यूलर फिक्शन भी खूब पढ़ा. तभी इंजीनियरिंग में दाखिला हो गया पर मैं कालेज में भी एक पत्रिका निकालने लगा. फिर मन नहीं लगा तो अंतिम वर्ष में मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी और एक दोस्त की दवाइयों की दुकान में बैठने लगा. वहां भी लिखता रहता. फिर मेरे प्रिय दोस्त सत्येन मुझे मिले. उनके जरिए और भी कई लेखकों से मेरा परिचय हुआ. तभी मेरी पहली कहानी ‘रमजान में मौत’  भी प्रकाशित हुई. इस तरह जो लिखने-पढ़ने का सफर शुरू हुआ..वो आज तक जारी है.

आपके सबसे प्रसिद्ध उपन्यास ‘सूखा बरगद’ का प्रोटोगोनिस्ट सोहेल क्या आपका ही प्रतिबिंब है?

जी हां, सोहेल काफी हद तक मेरे ही जैसा है. हालांकि ‘सूखा बरगद’ को लिखते दौरान मैंने खुद को अपने दो प्रमुख पात्रों – रशीदा और सोहेल में बांट दिया था. ये दोनों ही पात्र मेरे जैसे हैं और मेरे दिल के बहुत करीब हैं.

आपके ज्यादातर उपन्यासों और कहानियों के मुख्य पात्र किसी बड़ी सियासी घटना और उसके नतीजों का हिस्सा बन कर रह जाते हैं. आपके पात्र बड़े राजनीतिक परिवर्तनों का आम जिंदगी पर पड़े असर को लगातार सहते हैं. क्या आपको लगता है कि इंसान की जिंदगी उसके देश या शहर में हो रहे राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों से पूरी तरह बदल जाती है?

हां, वाकई चीजें बिलकुल बदल जाती हैं. जिस वक्त मैं ‘सूखा बरगद’ लिख रहा था उस वक्त मुझे लगा कि बदलते राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में सोहेल का कायांतरण होना ही चाहिए. इसके सिवा कोई विकल्प नहीं था. आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि राजनीतिक पतन शायद हमें ऐसा करने पर मजबूर करता है. पर हां, सुहेल के चरित्र में आया परिवर्तन अंतिम नहीं था. वो शायद सिर्फ एक भटकाव था.

‘सूखा बरगद’ की रचना के पीछे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर चढ़ाया जाना भी एक प्रेरणा रही है. आखिर भुट्टो की मौत में ऐसा क्या था जिसने आपको भीतर तक झकझोर दिया?

मेरी नजर में जुल्फिकार अली भुट्टो एक सोशलिस्ट थे और उन्हें मैंने हमेशा एक नायक की तरह देखा. पाकिस्तानी तानाशाहों से मैं हमेशा नफरत करता रहा पर भुट्टो की मौत ने सारी सीमाएं तोड़ दीं. पहली बार मैं निजी तौर पर इस व्यावहारिक निर्णय पर पहुंचा कि मजहब के नाम पर बने एक देश में इंसान की जिंदगी का यही दर्दनाक अंत है. मुझे लगा कि पाकिस्तान में इंसानों का भविष्य यही है. इसलिए ‘सूखा बरगद’ की पात्र रशीदा अंत तक पकिस्तान नहीं जाती बल्कि अपने लोगों के बीच हिंदुस्तान में रहना चाहती है. 

आप शुरुआत से ही अंग्रेजी लेखकों से काफी प्रभावित रहे हैं, फिर आपने हिंदी भाषा को ही अपने लेखन के माध्यम के तौर पर क्यों चुना? आज आप हिंदी लेखन के सामने किन बड़ी चुनौतियों को देखते हैं?

मैं हमेशा आम आदमी की भाषा में लिखकर ‘मास’ तक पहुंचना चाहता था, इसीलिए मैंने हिंदी को चुना. जहां तक हिंदी लेखन की चुनौतियों की बात है तो पैसे के हिसाब से आज भी हिंदी के लेखक के पास कुछ नहीं है. इसके पीछे मुख्य वजह प्रकाशक की बेईमानी है. आज भी हिंदी के लेखकों को रायल्टी नहीं मिलती और न ही उनकी किताबें पाठकों तक पहुंच पाती हैं.

आपके उपन्यासों में भोपाल हमेशा एक पात्र के तौर पर मौजूद रहा है. ऐसे में पिछले कई सालों में भोपाल में हुए बदलावों को आप कैसे देखते हैं?

भोपाल का विकास तो हुआ पर वो विकास कई मायनों में नकारात्मक भी रहा. पुरानी विरासत को तोड़कर नयी इमारतें बनाना कहीं से भी विकास नहीं. विरासत को सहेजना भी ज़रूरी है. इन मायनों में आज इस शहर को लेकर मेरे अंदर एक गहरा ‘सेंस ऑफ लॉस’ है.

आपके प्रिय लेखक कौन हैं ? जब आपने लिखना शुरू किया था, तब से आज के हिंदी लेखन परिदृश्य में आप क्या प्रमुख बदलाव महसूस करते हैं?

­­समकालीन लेखकों में मुझे ओरहान पामुक, कोएत्जे और अरुंधती राय खासा पसंद हैं. हिंदी में कृष्णा सोबती और निर्मल वर्मा मुझे बहुत भाते हैं. आज हिंदी लेखन में भाषा के स्तर पर सतर्कता बढ़ी है. किताबों का उत्पादन भी बेहतर हो गया है. पहचान भी धीरे-धीरे मिलने लगी है पर हां, आज भी हिंदी के लेखक को ठीक से पैसे नहीं मिलते. इस मामले में अभी हमें काफी लंबा सफर तय करना है.

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