आंचल की ओट में नोबेल

मन तो कर रहा था कि एक अंतर्देशीय पत्र पर मुबारकबाद का संदेश लिख कर इस साल की तीन नोबेल विजेता महिलाओं के नाम भेज देता, लेकिन अंतर्देशीय पत्र पर साफ-साफ शब्दों में चेतावनी छपी हुई है– इस पत्र के भीतर कुछ भी न रखें. इसलिए यह मुबारकबाद इस लेख में. इस साल की पहली दो नोबेल विजेता तो एक ही अफ्रीकी देश लाइबेरिया की रहने वाली हैं. एक हैं एलेन सरलीफ और दूसरी लेमाह बोवी.

सरलीफ लाइबेरिया की पहली महिला राष्ट्रपति भी हैं, जिन्होंने इस देश में बरसों से चली आ रही सत्ता-जनित जातीय हिंसा को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. राष्ट्रपति बनने से पहले वे कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों में उच्च पदों पर भी रह चुकी थीं. चुनावों के दौरान उन्हें यह सुनने को मिलता था कि जिस हिंसा को पुरुष राजनेता भी रोक पाने में सक्षम नहीं हैं उस पर एक महिला कैसे काबू पाएगी. सरलीफ का एक ही जवाब होता था कि एक मां ही अपने बेटों को घर लौटने पर राजी कर सकती है, और मैं एक मां हूं. लाइबेरिया के समाज ने पहली बार एक मां को राष्ट्रपति बना दिया. अपने दृढ़ विश्वास के चलते वे हिंसा को काबू करने में सक्षम रहीं. उन्होंने दंड की जगह क्षमा का प्रावधान रखा जो कारगर साबित हुआ. अपने देश में ही नहीं बल्कि दूसरे अफ्रीकी देशों जैसे सिएरा लेओन और घाना में भी सामाजिक शांति बहाल करने में उन्होंने सराहनीय कदम उठाए. सरलीफ को अपने इन प्रयत्नों के लिए नोबेल शांति पुरस्कार मिलने पर बधाई.

दूसरी नोबेल पुरस्कार विजेता भी लाइबेरिया की ही रहने वाली 39 साल की लेमाह बोवी नाम की महिला हैं. इनका काम भी कुछ-कुछ सरलीफ जैसा ही रहा, लेकिन उन्होंने राजनीति को नहीं अपनाया. लेमाह ने भी हिंसा को खत्म करने में महिलाओं की भूमिका को सर्वोपरि माना. उनका इस नतीजे पर पहुंचना और इस रास्ते को अपनाना एक घटना से जुड़ा है जो उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है-

1991 के जून महीने में दोपहर के समय ककाता नाम के शहर में 12-13 साल का एक बालक सैनिक जो लाइबेरिया गृहयुद्ध में किसी गुरिल्ला दस्ते का हिस्सा था. दो साल से उसकी मां उसे ढंूढ़ते हुए इस शहर पहुंची तो उसकी नजर अपने बेटे पर पड़ी और उस मां ने पुकारा – ओलुची! ओलुची नाम के इस सैनिक बालक ने जब अपनी मां को देखा तो वह मां से मिलने दौड़ पड़ा – मगर बंदूक का भार मां से मिलने में बाधा डाल रहा था. आखिरकार उसने बंदूक अपने कंधे से हटा कर जमीन पर रख दी और बन गया सैनिक से एक मां का बेटा. लोगों ने इस दृश्य को देखा, कुछ भावुक भी हुए लेकिन 19 बरस की लेमाह इस अद्भुत दृश्य को देखकर हैरान थी कि कैसे एक सैनिक एक बेटे में बदल गया. लेमाह को अपने संघर्ष के लिए जैसे ब्रह्मसूत्र मिल गया था. यह मंत्र एक शब्द का था – मां! इसके बाद लेमाह ने पूरे लाइबेरिया में घूम-घूम कर महिलाओं को हिंसा के खिलाफ संगठित किया और उस पर काबू पाने में सफलता भी हासिल की और नोबेल भी. ओलुची की मां से प्रेरणा पाने वाली इस मां को बधाई.

अब बारी है इन तीनो में सबसे कम उम्र 34 साल की महिला तवक्कुल करमान की जो अरब देश यमन की रहने वाली हैं. करमान अरब देश की पहली महिला हैं जिसे नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है. करमान कानूनविद हैं, सामजिक कार्यकर्ता और पत्रकार भी. कुछ बरस पहले जब उन्होंने एक लेख में यह छापा कि राष्ट्रपति अली अब्दुल्लाह सालेह एक भ्रष्ट नेता हैं और उन्हें अपने पद पर रहने का कोई अधिकार नहीं है तो वहां की सरकार ने उन पर कई जुल्म ढाए, लेकिन वह डरने की बजाय और ज्यादा प्रखर होकर आगे आईं और महिलाओं को जागृत करने में लग गईं.  यमन के समाज में यह पहली बार देखा गया कि महिलाएं किसी राजनीतिक आंदोलन की अगुआई करें, लेकिन इन महिलाओं के तेवर ऐसे थे कि वहां का शासन भी अचंभित था. अरब देशों में क्रांति की आग भड़की तो उसमें यमन भी शामिल हो गया. तवक्कुल करमान और कुछ अन्य महिलाओं ने यमन की राजधानी साना में तहरीर नाम के मैदान में एक तंबू ताना और तानाशाह सरकार के खिलाफ आंदोलन का हिस्सा बन गईं. इस तंबू में महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर और नेल्सन मंडेला की तस्वीर के साथ कुरान की यह आयत भी लिखी है ‘वे लोग जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं वे निर्भीक होकर सत्य के मार्ग पर अडिग रहंे, भले ही यह उनके निजी हितों के विरुद्ध क्यों न हो.’ करमान का नोबेल पुरस्कार जीतना कई मायनो में महत्वपूर्ण है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है उनका एक अरब मुसलमान महिला होना जिसका यह मानना है कि यह वही कुरान का सिद्धांत है जो जुल्म के खिलाफ आवाज न उठाने को जुल्म में हिस्सेदारी मानता है.

तीन बच्चों की मां करमान को बधाई देने से पहले उन्हें एक चेतावनी दिए देता हूं कि जब वे नोबेल पुरस्कार समारोह में भाग लेने नार्वे जा रही हों तो यूरोप के फ्रांस नाम के देश से होकर न गुजरें. वहां उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है या उन पर जुर्माना हो सकता है. इसलिए नहीं कि उन्होंने इस देश के खिलाफ कोई जुर्म किया है लेकिन इसलिए कि इनके सर का दुपट्टा फ्रांसीसी सरकार की धर्मनिरपेक्षता को चुनौती देता है.

अगर मुसलिम आतंकवादी होते तो खाली हाथ तानाशाहों के टैंकों के सामने नहीं जाते. बारूद के ढेर में बहार नहीं आती, यह तो बाग-बगीचों में फूलों के न्योते को स्वीकार करती हुई आती है

करमान को नोबेल पुरस्कार मिलना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस बहाने ही सही इस्लाम पर बहस तो होगी. इस्लाम पर बहस होगी तो पश्चिमी सभ्यता पर भी बहस होनी निश्चित है. एक ओर जहां यह मत स्थापित किया जा रहा है कि इस्लाम में लोकतंत्र का कोई स्थान नहीं है, लेकिन दुनिया के नक्शे को देखने पर पाते हैं कि सबसे ज्यादा मुसलिम जनसंख्या वाले देश इंडोनेशिया में लोकतंत्र ही है, मलेशिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान भी तो लोकतांत्रिक देश ही हैं. इंडोनेशिया और बांग्लादेश में तो राष्ट्राध्यक्ष भी महिला ही हैं. ईरान की वर्तमान सरकार में तीन उपराष्ट्रपति महिलाएं ही हैं. अमेरिका में तो स्त्रियों का राष्ट्रपति बनना अब तक तो संभव नहीं हुआ है. उन्हें तो मताधिकार भी बीसवीं शताब्दी में ही मिल पाया. इस तथ्य की ओर भी इशारा किया जाना चाहिए कि इस्लामी देश ईरान में महिला विवाह के पश्चात भी अपने कुलनाम का ही इस्तेमाल करती है.  उदाहरण के लिए अयातुल्लाह खुमैनी की पत्नी खादिजा सगफी को अपने नाम को खादिजा खुमैनी में बदलने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ा. पश्चिमी देशों में भी महिलाएं अब कुछ सकुचाते हुए विवाहोपरांत अपने कुलनाम को पति के कुलनाम के साथ इस्तेमाल करने लगी हैं, जैसे हिलेरी ‘रॉडहेम’ क्लिंटन.

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में औद्यौगिकीकरण ने दुनिया की कई मायनों में तस्वीर बदली. इंसान की व्यक्तिगत और सामाजिक जिंदगी पर इसका असर तो हुआ ही, सत्ता के स्वरूप में भी आमूलचूल बदलाव आए. द्वितीय विश्वयुद्ध तक आते-आते यह स्पष्ट हो गया कि दूसरी शासन पद्धतियों का दौर अब समाप्त हो गया है. यह वही दौर था जब लोकतंत्र टैंकों की तोपों पर सवार होकर जर्मनी और जापान में लाया गया. पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के इस्लामी देशों में भी बदलाव आए, लेकिन लोकतंत्र का वह स्वरूप जो यूरोप और अमेरिकी लोकतंत्र की परिभाषा में खरा उतरता, वहां नहीं दिखा. इस लोकतंत्र को तो अब आना ही था इसलिए इसके स्वागत के लिए अफगानिस्तान को कालीन से ढक दिया गया – यह दीगर बात है कि यह कालीन बमों की कालीन थी. इसी तरह से इराक में लोकतंत्र रेगिस्तानी आंधी पर सवार होकर आया. अब ये दोनों राष्ट्र भी लोकतांत्रिक देशों में शुमार होने लगे हैं. अरब समाज को यह रास्ता गवारा न था. शायद वह जानता था कि परिवर्तन तब ही सकारात्मक और सार्थक होता है जब वह हिंसा और जबरदस्ती पर आधारित न हो.  इस सोच ने शांतिपूर्ण ढंग से बदलाव लाने के लिए बलिदान और सिविल नाफरमानी का रास्ता अपनाया जिसे दुनिया ‘अरब बहार’ के नाम से पुकारने लगी है. अब तो अमेरिका में चल रहे वॉल स्ट्रीट आंदोलन के क्रांतिकारी इस अमेरिकी आंदोलन को अरब बहार से ही प्रेरित मानते हैं.

अरब बहार के तहत राजसत्ता में किस तरह के बदलाव लाने की क्षमता होगी यह तो बहुत-से समीकरणों पर निर्भर करता है लेकिन इस इंकलाब की सबसे बड़ी उपलब्धि मुसलिम समाज को अतिरेकवादी मानने वाली सोच को बदलने में है जिसने अल-कायदा सरीखी सोच को अलग-थलग और नाकारा बना दिया.

नोबेल पुरस्कार पाने की खबर पर टिप्पणी करते हुए करमान ने कहा कि यह पुरस्कार इस भ्रांति को बदलने में सहायक होगा कि मुसलिम आतंकवादी ही होते हैं – अगर मुसलिम आतंकवादी होते तो खाली हाथ तानाशाहों के टैंकों के सामने नहीं जाते. बारूद के ढेर में बहार नहीं आती, यह तो बाग-बगीचों में फूलों के न्यौते को स्वीकार करती हुई आती है. अरब हमारा बाग है और हम हैं इस बाग के फूल जिनके न्योते पर आई है बहार.

मां के पैरों तले जन्नत है, और अब के बरस तो आंचल की ओट में नोबेल भी! मां को बंदूक नहीं बल्कि गीत भाते हैं. सरलीफ, लेमाह और तवक्कुल करमान नाम की मांओं को शायद यह गीत भाए – अम्मा तुझे सलाम!