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‘स्त्रीवाद मानव मुक्ति का आंदोलन है’

अनामिका हिंदी की चर्चित कवयित्री हैं. उन्होंने उपन्यास भी लिखे हैं और स्त्रीवादी आलोचना की पुस्तकें भी. वे नियमित तौर पर समसामयिक लेखन भी करती हैं. अनामिका स्त्रीवाद की मुखर पैरोकार हैं. स्त्रीवाद को वे किसी भी ‘अतिवाद’ से अलग करती हैं और स्त्री-पुरुष साहचर्य, सहज संबंध की वकालत करती हैं. उनका कहना है कि पुरुष को ‘महबूब पुरुष’ बनाने का काम स्त्रियों का है. स्त्रीवाद का है. अनामिका की किताब ‘स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष’ भारतीय परिवेश में स्त्रीवादी सैद्धांतिकी की किताब है. इसमें वे स्त्री-पुरुष के सहज संबंध का लक्ष्य स्त्रीवाद के सामने रखती हैं और साथ ही स्त्रियों के बीच ‘वैश्विक सखियापे’ का आदर्श भी.  स्वतंत्र मिश्र से उनकी बातचीत.

आपकी किताब  ‘स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष’  भारतीय परिवेश में स्त्री विमर्श की सैद्धांतिकी को समझने-समझाने की एक पहल है. लेकिन क्या आपको नहीं लगता  कि यहां स्त्रीवाद अंतिम औरत से कट गया है और यह घोर अकादमिकता का शिकार हो गया है?

मध्य वर्ग को मैं एक हाइफन की तरह देखती हूं. वह एक पुल की तरह है. मध्य वर्ग को निम्न वर्ग की दिक्कतें मालूम हैं और उच्च वर्ग का विलसित बिखराव भी. यह सही है कि मध्य वर्ग के पास शिक्षा पहले आई. यह भी सही है कि उसे यह समझने में बहुत समय लग गया कि उसकी तात्विक परेशानियां क्या हैं. अपने ही वर्ग चरित्र से बाहर आने में उसे बहुत समय लग गया. किसी भी सोए हुए को जगने के बाद उठकर बैठने में और फिर दूसरों को जगाने में थोड़ा समय तो लगता ही है. गहरी नींद में सोए व्यक्ति को यह लगता है कि पहले मैं जग जाऊं फिर दूसरे को जगाऊं. यह प्रक्रिया स्वाधीनता आंदोलन के समय से ही शुरू हो गई थी.1920-30 के दौरान पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों में स्त्रियों को चौकस करने वाली बातें लिखी गई हैं. महादेवी वर्मा ने चांद पत्रिका के अपने संपादकीय में यही सब तो लिखा है. मेरा मानना है कि गरीबी का चेहरा स्त्री का चेहरा है. इसे रूपक की तरह देखना चाहिए कि जो भी वंचित है वह स्त्री है. इसलिए गरीबी से स्त्री कभी कटी नहीं है. पूरी दुनिया में सिर्फ 2.2 फीसदी संपत्ति स्त्रियों के नाम पर है. जो स्त्रियां कमाती हैं, उसे भी वे अपने तरीके से खर्च नहीं कर सकतीं. औरतें साइनिंग अथॉरिटी बनकर रह जाती हैं. इसलिए यह कहना ठीक नहीं होगा कि वे अपनी वंचित सखियों के सुख-दुख से अलग हैं. अकादमिक स्त्रियों के लेखन में यह अलगाव कहीं नहीं दिखेगा. गांधी जी के समकालीन लेखकों और लेखिकाओं का लेखन वंचितों को ही समर्पित है. महादेवी वर्मा का पूरा गद्य वंचितों को ही समर्पित है. आज की महिला साहित्यकारों के लेखन में भी वंचित तबके की औरतों का दर्द दिखाई पड़ता है.
स्त्रियों में आपस में खुलकर बतियाने की एक प्रवृत्ति होती है, इसलिए वे किसी से कटकर रह ही नहीं सकतीं. किसान, दलित, आदिवासी स्त्रियों की कथाएं रिकॉर्ड की जा रही हैं. उनकी कहानियों को आर्काइव का हिस्सा बनाया जा रहा है. डॉ. मीता तिवारी जस्सल की पुस्तक अभी-अभी आई है जिसमें लोक गीतों के स्त्रीवादी रंग का अद्भुत विश्लेषण और अंग्रेजी अनुवाद हुआ है. इसलिए स्त्रीवाद के अंतिम औरत से कटने की जो बात फैलाई जा रही है वह ठीक नहीं है.

कई लेखिकाएं खुद को स्त्रीवादी न कहलवाने का आग्रह करती हैं. क्या यह स्त्रीवाद को अलगाववाद के फ्रेम में देखने का आग्रह तो नहीं है?

शेक्सपियर के किंग लीयर में बूढ़ा पिता अपनी तीनों बेटियों से पूछता है कि तुम लोग मुझे कितना प्यार करती हो. बड़ी दो बेटियां बारी-बारी से खूब ठकुरसुहाती बतियाती हैं. बूढ़े पिता अपनी बेटियों की बात से खुश हो जाते हैं. इन खोखली बातों की असलियत समझ कर छोटी बेटी बड़े-बड़े बोल नहीं बोलती और सपाट ढंग से कहती है, ‘पिता जी मैं आपसे उतना ही प्यार करती हूं जितना मुझे आपसे करना चाहिए. न कम, न ज्यादा.’  कार्डेलीया के इस कथन की त्वरा (टोन) में ही कुछ लेखिकाओं ने ऐसा कहा है कि मैं अब स्त्रीवादी नहीं रही. कृष्णा सोबती, मधु किश्वर और मृदुला गर्ग आदि ने ऐसा कहा है. लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्हें स्त्रीवादी दृष्टिकोण से अलग रखकर देखा जा सकता है. वे पुरुषों के बारे में भी लिखेंगी तो उसमें स्त्री दृष्टि परिलक्षित होगी. जैसे अपनी चमड़ी से छुटकारा नहीं मिल सकता है वैसे ही लेखिकाओं को स्त्रीवादी दृष्टिकोण से अलग करके नहीं देखा जा सकता है. स्त्रीवाद को संकीर्णता के साथ देखा जा रहा है, जबकि यह तो मानव मुक्ति का आंदोलन है. जो स्त्रियां अपने को स्त्रीवादी नहीं कहलवाना चाहती हैं, उन सबकी भाषा भी स्त्रियों की ही भाषा है. स्त्रीवाद को छोटे फ्रेम में नहीं बल्कि बड़े फ्रेम में देखा जाना चाहिए.

आपने अपनी यह किताब युवा पीढ़ी को समर्पित की है.

जी. मेरी सारी उम्मीद ही युवा पीढ़ी से है क्योंकि पके घड़े पर मिट्टी नहीं चढ़ती. मेरा सारा समय छात्र-छात्राओं, अपने और मोहल्ले के युवा बच्चों के साथ ही गुजरता है. मैंने बीजों की पोटली उन्हीं के लिए ली है. मैं युवाओं की ओर देखती हूं कि उनकी दृष्टि में परिष्कार आया है या नहीं. हमदर्द का भाव पैदा हुआ है या नहीं. मैं हमेशा कहती हूं कि पूर्वाग्रह एक किस्म का मोतियाबिंद है. मोतियाबिंद में जैसे साफ-साफ नहीं दिखाई देता है वैसे ही पूर्वाग्रह से ग्रस्त नजरें चीजों को ठीक से नहीं देख सकती हैं. जो व्यक्ति अभी देखने को उत्सुक हैं और जो नई भाषा बोलने को उत्सुक हैं, हम तो उनसे ही संवाद करना चाहेंगे. साहित्य पूर्वाग्रहों के मोतियाबिंद की सर्जरी तो करता है फिर भी आंखें होते-होते ही ठीक होती हैं. 
जिस ’सखियापे’  की चर्चा आप इस किताब में और अपने तमाम लेखन में करती हैं, क्या वह विभिन्न जाति, वर्ग और नस्ल की स्त्रियों के शोषण, समस्याओं, चुनौतियों, संघर्षों के एकरूपीकरण का प्रयास नहीं है?
 मैं स्त्रीवाद को मोनोलिथ कतई नहीं मानती हूं. अलग-अलग समस्याएं हैं और उन्हें एक ही लाठी से हांका नहीं जा सकता. वर्ग सापेक्ष  समस्याएं हैं. जाति सापेक्ष समस्याएं हैं. लेकिन स्त्री शरीर स्त्री शोषण की आधारभूमि है– मारपीट, अनचाहा गर्भ, अनिच्छा संभोग, गाली-गलौच, ट्रैफिकिंग, पोर्नोग्राफी, डायन दहन, सती दहन, बलात्कार, भ्रूण हत्या आदि-आदि. स्त्री का पूरा शरीर एक टपकता हुआ घाव हो जाता है जिसे बहुत मान और ध्यान से छूना चाहिए. शारीरिक हिंसा के इन संदर्भों में दलित, गैरदलित स्त्रियों में भेद नहीं है. उनके दुखों की आधारभूमि एक ही है. 

आपने इस किताब में लोक चरित्रों, कहावतों और कथाओं से स्त्रीवाद समझाया है. लेकिन उस लोक से स्त्रीवादी आंदोलन व्यापक स्तर पर कट रहा है. दोनों का एक-दूसरे के प्रति लगाव नहीं रहा. यह शहरों तक ही सीमित रह गया है.

यह अभियोग भी गलत है. कैनॉनिकल (शिष्ट साहित्य) और कोलोनियल (औपनिवेशिक साहित्य) दोनों पर पहला प्रहार  स्त्री-विमर्श ने ही किया. मौखिक साहित्य को सबसे पहले महिलाओं ने तवज्जो दी. लोक गीत, चिट्ठियां, घरेलू बातचीत के सहज मुहावरे सचेतन रूप में स्त्री साहित्य ने दर्ज किए. भाषा का वितान बड़ा किया. अगर स्त्रीवाद इतना संभ्रांतवादी होता तब फिर वह इतने सारे स्रोतों से शब्द नहीं ले पाता. मौखिक साहित्य की तो पूरी बुनियाद ही औरतें हैं.
ऋतु मेनन और उर्वशी बुटालिया ने विभाजन का इतिहास लिखा. बंटवारे के बाद स्त्रियों के दर्द का इतिहास तो पूरा का पूरा मौखिक साहित्य ही है. साक्षात्कार लेना, दादी, नानी की चिट्ठियां उजागर करना, मोहल्ले की स्त्रियों तक जाना- ये पूरी शोध प्रवृत्ति ही विकेंद्रित करने वाली है. ये वर्ग चरित्र से बाहर जाने वाली शोध प्रवृत्ति है.

सुर कल्पना

मूल रूप से असमिया और असम में ही पली-बढ़ी कल्पना पटवारी पर भोजपुरी का रंग कुछ ऐसा चढ़ा कि आज वे भोजपुरीभाषी इलाके के घर-घर में जाना जाने वाला नाम हैं. अनुपमा की रिपोर्ट.

‘लोग मुझे कल्पना नाम से जानते हैं. पूरा नाम है कल्पना पटवारी. असमिया नौटंकी और जतरा के प्रतिष्ठित कलाकार विपिन पटवारी की बेटी हूं. असमी मूल की हूं. पढ़ाई वहीं हुई. शुरू में असमिया में गाया, लेकिन न असमिया फिल्म इंडस्ट्री को मेरी आवाज रास आई और न मैं ही उससे तारतम्य बिठा पाई इसलिए संघर्ष करने मुंबई चली गई. गाने का मौका मिला. कई भाषाओं में गाया, लेकिन भोजपुरी से चोली-दामन वाला रिश्ता बन गया. अब तो वही मेरी पहचान की सबसे बड़ी रेखा है.’ सामने खड़े एक शख्स की ओर इशारा करते हुए कल्पना कहती हैं, ‘ये मेरे पति परवेज हैं. ये भी असम के ही हैं. प्रेम विवाह है हमारा. हाल के दिनों में जिंदगी के सबसे सुखद पल देखने को मिले जब दो जुड़वां बच्चे हमारे घर आए. एक का नाम है अरस्तू,  दूसरे का आर्कमिडीज. अब यह न पूछिएगा कि इतने बड़े दार्शनिक और वैज्ञानिक का नाम रखने की वजह क्या है. कुछ बातें अपरिभाषित भी रहने दीजिए.’ बिना औपचारिक मुलाकात और परिचय के ही कल्पना इतना सब कह जाती हैं. फिर बताती हैं, ‘जानती हैं मैंने इतनी बातें क्यों बता दीं, क्योंकि ये सवाल तो आप करती हीं इसलिए इनसे पहले निपट लिए. अब सिर्फ अच्छी-अच्छी बातें करेंगे हम.’ 

मैं कहती हूं, ‘अच्छी बातों से पहले एक और झंझटी सवाल इसी समय निपटा लेते हैं. जिंदगी का कोई बुरा अनुभव?’ गहरी सांस लेते हुए वे कहती हैं, ‘उन बुरे दिनों को याद नहीं करना चाहती. चार बहनों में मैं सबसे बड़ी थी. घर में चारों लड़कियां ही थीं. दिन भर घर के बाहर मनचलों का जमावड़ा लगा रहता था. कभी-कभी तो मवाली घर में पत्थर भी फेंकते थे. घुटन भरे दिन थे वे. बाहर निकलना दूभर रहता था.’ फिर बात बदलते हुए कल्पना कहती हैं, ‘छोडि़ए उन बातों को, मैं आपको दूसरी मजेदार बात बताती हूं. आज मुझे लोकसंगीत गायिका के तौर पर सब जानते हैं, लेकिन जब मैं छोटी थी और घर में दोतारा बजना शुरू होता था तो मैं भाग जाती थी इधर-उधर, छुपती रहती थी कि फिर दोतारे को पकड़कर बैठना पड़ेगा. मैं पॉप, रॉक, वेस्टर्न म्यूजिक की दीवानी थी और मेरे पिता जी दोतारा बजाने को कहते थे. मुझे ग्लैमरस संगीत भाता था और पिता जी लोकसंगीत के पीछे पड़े हुए थे.’ इसके बाद कल्पना के चेहरे पर थोड़ी उदासी पसर  जाती है. वे कहती हैं, ‘पिता अपनी संतानों के बारे में सब जानते हैं. मेरे पिता जी को मालूम रहा होगा कि मेरी मंजिल लोकसंगीत में ही है, इसलिए वे बचपन से ही पीछे पड़े रहते थे. काश! मैं तब ही इस बात को समझ गई होती तो और भी बहुत कुछ सीखती उनसे.’ 

कल्पना को रुआंसा देख इस बार बात मैं बदल देती हूं, ‘परवेज कब से हैं आपके साथ?’ कल्पना परवेज की ओर देखकर कहती हैं, ‘आठवीं क्लास में थी, तब के साथी हैं परवेज. तब से वैसे ही चट्टान की तरह मेरे साथ खड़े रहते हैं. लेकिन तब प्रेम-फ्रेम जैसा कुछ नहीं था. एक लगाव शुरू से रहा. अधिकार भाव भी. जब भी मनचले परेशान करते, परवेज ही दिखते थे, जिनसे कुछ कह सकती थी. जब असमिया संगीत में मुझे खासा सफलता नहीं मिली और मैं मुंबई संघर्ष के लिए निकल पड़ी, तब भी मेरे साथ परवेज ही थे, लेकिन सच कह रही हूं, तब भी प्रेम जैसी कोई फीलिंग नहीं थी. हमारी मित्रता थी. मुंबई आए तो परवेज ही मेरे लिए काम की तलाश में भटकते रहे.’ यह बताते हुए कल्पना एक बार फिर परवेज की ओर देखती हैं और कहती हैं, ‘लेकिन अब तो जनाब मेरा प्यार भी हैं, मेरे पति भी और अरस्तू-आर्कमिडीज के पिता भी.’ यह कहकर वे हंस देती हैं. परवेज भी मुस्कुरा देते हैं. 

कई बार कल्पना पर भोजपुरी की अश्लील गायिका होने का ठप्पा भी लगा और ऐसा कहकर उन्हें खारिज करने वालों की एक जमात भी सामने आई

मुंबई में कुछ माह भटकने के बाद कल्पना को कहीं-कहीं कुछ काम मिला और इसी दरमियान एक भोजपुरी गीत भी गाने को मिला. पहली बार भोजपुरी में गाया- हमसे भंगिया ना पिसाई हो गणेश के पापा, हम नईहर जात बानीं…. .’  यह अलबम आया और कल्पना भोजपुरी की हो गईं.  उसके बाद वे कब, कैसे और किस-किस तरह से भोजपुरी मिट्टी में रमती गईं, यह खुद उन्हें भी नहीं पता. कल्पना कहती हैं, ‘अब तो उसी समाज की बेटी हूं, बहू हूं, वे मुझे वैसा ही प्यार और स्नेह देते हैं और मुझे भी यही अच्छा लगता है. संगीत जीवन में भोजपुरी एक आविष्कार की तरह आई थी और इसने मुझे इस कदर अपना लिया, यह बहुत तसल्ली देने वाली बात है.’

कल्पना जब खुद को भोजपुरी की बेटी कहती हैं तो यह अतिरेक जैसा भी नहीं लगता. भोजपुरी गीतों में पुरबी की जो खास विधा है, कल्पना ने उस विधा में इतने लोकप्रिय गीत गाए हैं कि वे वर्षों पहले गाए जाने के बावजूद आज भी पब्लिक डिमांड में उसी तरह बने रहते हैं. हालांकि इस बीच कल्पना पर  भोजपुरी की अश्लील गायिका होने का ठप्पा भी जोरदार तरीके से लगा और ऐसा कहकर उन्हें खारिज करने वालों की एक जमात भी सामने आई. लेकिन हालिया दिनों में कल्पना ने भोजपुरी में एक ऐसा बड़ा काम कर दिया है कि विरोधी भी पानी मांग रहे हैं और जो कल्पना के खिलाफ बोलते चलते थे उनके पास भी जवाब नहीं बचा है. भोजपुरी के लोकप्रिय गायन से परवान चढ़ी कल्पना ने बिहार के सबसे बड़े लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के गीतों को लेकर हाल ही में एक एलबम तैयार किया है. इसका नाम है द लेगेसी ऑफ भिखारी ठाकुर. 

इस एलबम के गीत सुनते हुए साफ अहसास होता है कि उसे तैयार करते हुए उन गीतों को गाते हुए कल्पना के मन में एक जुनून-सा रहा होगा. भोजपुरी के ठेठ अंदाज में कल्पना ने भिखारी के गीतों को सजीव बना दिया है. फिलहाल यह एलबम भारत के साथ दुनिया के उन तमाम मुल्कों में काफी चर्चा में है जहां भोजपुरी बोलने वाले मौजूद हैं. अश्लील गायिका होने की बात छिड़ते ही कल्पना मुस्कुराहट के साथ कहती हैं, ‘यह तो समझ-समझ का फेर है लेकिन सच पूछिए तो शुरू में तो मैंने कुछ गीत सिर्फ वर्डिंग समझकर गा दिए थे, उनका भाव तक मुझे अच्छे से नहीं पता था, लेकिन बाद में मुझे ऐसे गीतों को लेकर दूसरी अनुभूति भी हुई. मैं सोचती हूं कि अगर मैं अपने गांव-समाज से बाहर रहने वाले मजदूरों के लिए गीत गाती हूं, दिन भर की थकान के बाद जब वे शाम को अपने घर पहुंचते हैं और उनकी बीवी साथ में नहीं होती और कुछ गीतों से उनकी यौन कुंठा शांत होती है तो यह गायन की सार्थकता ही है. हालांकि कल्पना इस विषय पर ज्यादा बात करने से बचती हैं. वे अपनी पसंद बताती हैं कि त्रिलोक गुर्टू और शोभा गुर्टू को डूबकर सुनती हैं. दीपेन राव उनके गुरु रहे हैं. लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय से भी उन्होंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली है. गायन में रोल मॉडल के बारे में वे  बताती हैं कि भूपेन हजारिका जैसी गहराई और ऊंचाई वाला कोई गायक उन्हें नहीं दिखता. 

कल्पना फिलहाल असम के भक्ति आंदोलन के दो महान प्रणेताओं श्रीमंत शंकर देवा और उनके शिष्य माधव देवा के गीतों को लेकर काम कर रही हैं. ठेठ असमिया वाद्य यंत्र कालिया वादन के प्रयोग के साथ. भोजपुरी में भिखारी के बाद अब क्या, इस सवाल पर कल्पना कहती हैं, ‘महेंदर मिसिर पर काम शुरू हो चुका है. इंतजार कीजिए. मिसिर जी पूरबी के बेताज बादशाह थे, मैं ठेठ अंदाज में निभाऊंगी उनके गीतों को.’ असम और हिंदी समाज का रिश्ता हाल के समय में गड़बड़ाया हुआ है. वहां मुसलिम समुदाय और दूसरे समुदाय के लोग भी आपस में टकरा रहे हैं. ऐसे में असमिया कल्पना का हिंदी इलाके में राज करना और उनका परवेज को अपना हमसफर बनाना एक मायने में सुकून भी देता है.

शाख-शाख पर कालिदास

देश का राजनीतिक वर्ग तात्कालिक फायदों के लिए संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं से बार-बार टकराकर न सिर्फ लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है बल्कि खुद अपनी जड़ें भी खोद रहा है.  हिमांशु शेखर की रिपोर्ट.

‘सीएजी सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं है. उसे अपनी रिपोर्ट में सरकार की आलोचना करने का अधिकार मिला हुआ है. संसद में अगर कोई सीएजी की आलोचना करता है तो इसका अर्थ यह माना जाएगा कि वह बगैर किसी भय और पक्षपात के साथ उसके कार्य करने के संवैधानिक अधिकार को चुनौती दे रहा है.’

 जवाहरलाल नेहरू, भारत के पहले प्रधानमंत्री

‘मैं देश को आश्वस्त करना चाहता हूं कि हमारा पक्ष काफी मजबूत और विश्वसनीय है. सीएजी की बातें विवादास्पद हैं और जब यह मामला संसद की लोक लेखा समिति के सामने आएगा तो इन्हें चुनौती दी जाएगी.’

मनमोहन सिंह, प्रधानमंत्री

भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) को लेकर ये दो बातें दो कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों ने अपने-अपने समय में कही हैं. जब 1952 में भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में सीएजी पर हमले होते देखा तो वे उसके बचाव में उठ खड़े हुए थे. हालांकि उस वक्त भी सीएजी पर हमले करने वाले नेता कांग्रेसी थे, लेकिन पंडित नेहरू को चिंता एक ऐसी संवैधानिक संस्था को लेकर थी जिसका गठन संविधान निर्माताओं ने देश में लोकतंत्र की खूबसूरती को बनाए रखने के मकसद से किया था. इसके 60 साल बाद जब सीएजी रिपोर्ट से कांग्रेस के नेताओं और खुद प्रधानमंत्री को परेशानी होती है तो पहले पार्टी अपने दूसरे नेताओं को आगे करती है और फिर खुद प्रधानमंत्री सामने आ जाते हैं. 

कोयला ब्लॉक आवंटन में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है. कोयले ने अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग लोगों का साम्राज्य विस्तार किया है. लेकिन जब सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 2006 से 2010 के बीच कोयला ब्लॉकों के आवंटन से देश को 1.86 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है तो बवाल मच गया. ये आवंटन उसी दौरान हुए जब कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास था. इसलिए विपक्ष उनके इस्तीफे की मांग पर अड़ा रहा और संसद के मॉनसून सत्र की बलि ले ली. अपने दफ्तर में पंडित नेहरू की तस्वीर टांगने वाले और गाहे-बगाहे अपने भाषणों में उन्हें याद करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अन्य कांग्रेसी नेताओं ने सीएजी को लेकर नेहरू की राय को खारिज करने में देर नहीं लगाई और सीएजी विनोद राय पर तरह-तरह के आरोप मढ़ डाले.

क्या बदल गई सियासी संस्कृति?

सवाल यह है कि 60 साल में एक ही पार्टी के प्रधानमंत्री की राय बदलने का मतलब सिर्फ पार्टी के चरित्र का बदलना है. या फिर देश की सियासी संस्कृति इस कदर बदल गई है कि वह हर संवैधानिक संस्था को ही कठघरे में खड़ा कर देना चाहती है? यहां मामला सिर्फ सीएजी पर हमले का नहीं है. जब चुनाव आयोग चुनाव आचार संहिता के कड़ाई से पालन की कोशिश करता है तो सत्ता में रहने वाले उस पर हमले करने से भी बाज नहीं आते. अगर देश की सर्वोच्च अदालत जनविरोधी नीतियों के खिलाफ कोई राय रखती है तो उसे सरकार की तरफ से हद में रहने की चेतावनीनुमा हिदायत दी जाती है तो उसके निर्णयों को संविधान संशोधन और नए कानूनों के रास्ते चुनौती दी जाती है. और तो और, देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद को ही अपने ढंग से चलाने के हठ के आगे सरकार जनभावनाओं और दूसरे दलों की बातों की अनदेखी करने से बाज नहीं आती. संसदीय समितियों का भी हाल बुरा है. लोक लेखा समिति (पीएसी) और संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) में झगड़ा इसलिए हो जाता है कि कहीं अपनी पार्टी पर आंच न आ जाए. तो स्थायी समितियों में किसी विधेयक को सिर्फ इसलिए लटकाए रखा जाता है कि कहीं दूसरा दल इसका चुनावी फायदा न उठा ले.

तो क्या यह माना जाए कि पंडित नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह के बीच सिर्फ वक्त का नहीं बल्कि राजनीतिक संस्कृति का फर्क कुछ इस तरह से पैदा हो गया है कि लोगों के प्रति जवाबदेही और सहनशीलता की जगह असहनशीलता और किसी भी कीमत पर तात्कालिक जीत हासिल करने की प्रवृत्ति राजनीति पर हावी हो गई है? इसे जानने के लिए कुछ संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थिति और पिछले कुछ साल में इनके प्रति राजनीतिक वर्ग के बदले रवैये को समझना होगा.

जब बोफोर्स मामले पर सीएजी ने रिपोर्ट जारी की थी तो कांग्रेसी नेताओं ने सीएजी पर खूब हमले किए. लेकिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सीधे कभी कुछ नहीं कहा

सीएजीः  चौतरफा हमलों का लक्ष्य…

जब आजाद भारत का संविधान बन रहा था तो ड्राफ्टिंग समिति के प्रमुख भीमराव आंबेडकर ने संविधान सभा की बैठक में कहा कि भारत के संविधान के तहत सीएजी सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी होगा. 30 मई, 1949 को सभा की बैठक में उनका कहना था, ‘मेरा मानना है कि सीएजी का कार्य न्यायपालिका के कार्य से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.’ इसके बाद संविधान के अनुच्छेद-148 से 151 के तहत सीएजी का गठन किया गया. तय किया गया कि सीएजी की नियुक्ति छह साल के लिए होगी और किसी वजह से उसे हटाने के लिए वही प्रक्रिया अपनाई जाएगी जो उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के लिए अपनाई जाती है. यानी महाभियोग की. माना गया कि इससे सीएजी के कार्य पर कोई दबाव नहीं रहेगा.

सीएजी को केंद्र और राज्य सरकारों के खर्चों का लेखा-जोखा रखने का अधिकार दिया गया. सीएजी के कर्तव्यों, अधिकारों और सेवा की शर्तों को निर्धारित करने के लिए 1971 में संसद ने एक खास कानून भी बनाया. सीएजी हर साल 64,000 ऑडिट करती है. रॉ, आईबी और एनटीआरओ के खर्च की जांच सीएजी के दायरे में नहीं है. लेकिन फिर भी सरकार जरूरत पड़ने पर इनकी ऑडिट सीएजी से करा सकती है. ऐसी रिपोर्टें सार्वजनिक नहीं की जातीं बल्कि अतिगोपनीय रखी जाती हैं. सैन्य बलों की रणनीतिक परियोजनाओं की ऑडिट के लिए भी विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है.

सीएजी ने जब-जब ऐसी रिपोर्ट दी जिससे सरकार को दिक्कत हुई तब-तब इस पर हमले किए गए. लंबे समय के बाद सीएजी अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में तब चर्चा में आई जब बोफोर्स मामले में इसकी रिपोर्ट आई. उस वक्त देश के महालेखा परीक्षक टीएन चतुर्वेदी थे. सरकार को परेशान करने वाली रिपोर्ट जब सीएजी ने जारी की तो उस पर खूब हमले हुए. लेकिन प्रधानमंत्री ने सीधे तौर पर हल्ला नहीं बोला. हालांकि, कांग्रेसी नेता लगातार हमले कर रहे थे. माहौल कुछ इस तरह का बना कि खुद चतुर्वेदी ने लोकसभा और राज्यसभा के स्पीकर को पत्र लिखकर यह कहा कि अगर सरकार को उनसे इतनी दिक्कत हो रही है तो महाभियोग लाकर उन्हें हटा दे. यह जानकारी तहलका को देते हुए चतुर्वेदी कहते हैं, ‘अभी की तुलना में उस वक्त अच्छी बात यह थी कि खुद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कभी हमला नहीं किया.’ मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ अपने राज्यसभा के दिनों को याद करते हुए चतुर्वेदी कहते हैं, ‘हम दोनों राज्यसभा में साथ रहे हैं. मुझे वे एक सज्जन व्यक्ति लगे लेकिन अब जब मैं उन्हें सीएजी पर हमला करते हुए देखता हूं तो मुझे हैरानी होती है. मुझे हैरानी होती है कि कैसे कोई प्रधानमंत्री संसद में यह कह सकता है कि सीएजी की रिपोर्ट को पीएसी में चुनौती दी जाएगी. पीएसी सरकार की नहीं होती बल्कि संसद की होती है और इसके कामकाज का निर्धारण सरकार का मुखिया नहीं कर सकता.’

प्रधानमंत्री ने भले ही पिछले दिनों संसद में सीएजी पर सीधा हमला किया हो लेकिन परोक्ष रूप से उन्होंने पहले भी सीएजी को हद में रहने की सलाह दी थी. जब पिछले साल वे समाचार चैनलों के संपादकों से मिले थे तो एक सवाल के जवाब में कहा था, ‘ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि सीएजी ने प्रेस वार्ता की हो. जबकि मौजूदा सीएजी ऐसा कर रहे हैं. इसके पहले कभी भी सीएजी ने नीतिगत मसलों पर टिप्पणी नहीं की. सीएजी को संविधान के तहत परिभाषित भूमिका में ही रहना चाहिए.’ इसके पहले 16 नवंबर, 2010 को भी प्रधानमंत्री ने सीएजी के 150 साल पूरा होने पर आयोजित कार्यक्रम में हिस्सा लेते हुए कहा था कि गड़बडि़यों और गलतियों के फर्क को समझते हुए रिपोर्ट तैयार करनी चाहिए क्योंकि सीएजी की रिपोर्ट को न सिर्फ मीडिया बहुत गंभीरता से लेता है बल्कि जनता, सरकार और संसद भी.

दरअसल, मौजूदा सरकार में सीएजी पर हल्ला बोलने वालों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पहले या आखिरी व्यक्ति नहीं हैं. हां, उनके सामने आने से इतना जरूर हुआ कि कांग्रेस में जिस नेता की कोई हैसियत भी नहीं है, वह भी सीएजी के खिलाफ बोलने लगा है. 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन पर आई सीएजी की रिपोर्ट के बाद तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए राजा को इस्तीफा देना पड़ा था. राजा के बाद दूरसंचार मंत्रालय संभालने वाले कपिल सिब्बल ने न सिर्फ सीएजी पर हल्ला बोला बल्कि यह तक कह डाला कि आवंटन से तो कोई नुकसान ही नहीं हुआ है. कुछ ऐसी ही बात कोयला ब्लॉक आवंटन को लेकर चिदंबरम ने भी कही थीं, लेकिन बाद में उन्हें अपने बयान को बदलना पड़ा. सिब्बल की ‘जीरो लॉस’ की थ्योरी भी नहीं चल पाई और सर्वोच्च न्यायालय ने 122 लाइसेंस रद्द करके सीएजी की बातों को मजबूती दी. अब सरकार इनकी नए सिरे से नीलामी करने वाली है और इससे एक लाख करोड़ रुपये से अधिक की आमदनी होगी.

सीएजी पर हमला करते-करते कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह उस स्तर तक चले गए जो लोकतंत्र और इसकी संस्थाओं के लिए बिलकुल ठीक नहीं है. मनीष तिवारी ने विनोद राय पर भाजपा के एक नेता के इशारे पर काम करने का आरोप लगाया. वहीं दिग्विजय सिंह ने कहा कि सीएजी राय जिस तरह से काम कर रहे हैं उससे लगता है कि उनका अपना एक राजनीतिक एजेंडा है. उन्होंने टीएन चतुर्वेदी का उदाहरण देते हुए बताया कि वे सेवानिवृत्त होने के बाद भाजपा के टिकट पर राज्यसभा चले गए और बाद में राज्यपाल भी बने. दिग्विजय सिंह की मानें तो विनोद राय भी किसी ऐसे ही एजेंडे पर काम कर रहे हैं. लोकसभा के महासचिव रहे और कानून विशेषज्ञ सीके जैन कहते हैं, ‘अगर राजनीतिक दलों को ऐसा लगता है तो वे संविधान में संशोधन करके संवैधानिक पदों पर रहने वाले लोगों के लिए इस बारे में प्रतिबंध लगा सकते हैं. संवैधानिक पदों पर रहने वालों के लिए यह नियम पहले से है कि वे सेवानिवृत्ति के बाद केंद्र या राज्य सरकार में कोई पद नहीं ले सकते हैं और न ही कोई संवैधानिक पद. लेकिन राजनीतिक पद को लेकर उन पर कोई प्रतिबंध नहीं है.’ अगर संवैधानिक पदों से हटने के बाद किसी दल से जुड़ने की दिग्विजय सिंह की बात को ही आधार माना जाए तो कांग्रेस भी आरोपों के घेरे में होगी. मुख्य चुनाव आयुक्त रहे मनोहर सिंह गिल को इस पद से हटने के बाद कांग्रेस ने केंद्र में मंत्री बनाया.

1962 में लोक सभा के स्पीकर ने कहा था कि सीएजी के खिलाफ टिप्पणी नहीं की जा सकती. इसके बाद रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को माफी मांगनी पड़ी थी

संवैधानिक प्रक्रियाओं की जानकारी रखने वाले लोग सरकार की इस बात पर भी आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं कि वह सीएजी की रिपोर्ट पर संसद में चर्चा कराना चाहती है. क्योंकि सीएजी की रिपोर्ट में संसद में नहीं बल्कि पीएसी में चर्चा हो सकती है. विपक्ष की तरफ से इस संवैधानिक गड़बड़ी के बारे में कुछ नहीं बोला जा रहा है. मशहूर सांसद और सातवें दशक में लोक लेखा समिति के अध्यक्ष रहे एरा सेझियन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान पर इन शब्दों में हैरानी जताते हैं, ‘मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की प्रतिक्रिया से सहम गया हूं.’ चतुर्वेदी कहते हैं, ‘प्रक्रिया यह है कि सीएजी अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजता है. इसके बाद रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश की जाती है. फिर इसे पीएसी के पास भेजा जाता है. वहां इस पर चर्चा होती है और कार्रवाई रिपोर्ट तैयार होती है.’

अगर मनमोहन सिंह अपनी ही सरकार के सहयोगी मंत्री वीरप्पा मोइली से विचार-विमर्श कर लेते तो शायद वे सीएजी पर हमले नहीं करते. वीरप्पा मोइली हाल तक कानून मंत्री रहे हैं और उन्हीं की अगुवाई में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन हुआ था. 2007 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में उन्होंने सिफारिश की थी कि सीएजी अपनी जांच में जैसे ही घोटाले को पाए वैसे ही वह ऐसी व्यवस्था करे कि सरकार को उसका पता चल जाए. इससे पहले मोइली ने ही 2006 में एक गोष्ठी में कहा था, ‘सीएजी की रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के लिए समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. व्यवहार में सरकार कार्रवाई करने के लिए अनिच्छुक रहती है.’ 

केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने तो सीएजी पर हमला करने के क्रम में यह भी कह डाला कि कुछ संवैधानिक संस्थाएं और बड़ी हस्तियां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि खराब करने का षड्यंत्र कर रही हैं. जब पत्रकारों ने उनसे नाम जानना चाहा तो उनका जवाब था कि आप सब अच्छी तरह से उनके बारे में जानते हैं. यहां 50 साल पहले की एक घटना का उल्लेख जरूरी हो जाता है. 1962 में जब उस समय के रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने सेना जीप खरीद पर सीएजी की रिपोर्ट पर सीएजी के खिलाफ टिप्पणी की थी तो उनके खिलाफ अवमानना का नोटिस दिया गया था और उस वक्त लोक सभा के स्पीकर ने कहा था कि सीएजी के खिलाफ टिप्पणी नहीं की जा सकती. इसके बाद कृष्ण मेनन को माफी मांगनी पड़ी थी. सीएजी पर हो रहे हमलों पर लोकसभा के महासचिव रहे और कानून विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. अगर इस तरह से संवैधानिक संस्थाओं पर हमले होंगे तो देश का लोकतांत्रिक ढांचा कमजोर होगा.’ 

विपक्ष भी नहीं पाक साफ

ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस संवैधानिक संस्थाओं को अपमानित करने का काम कर रही है. पिछले कुछ समय से यह देखा जा रहा है कि जो भी दल सत्ता में रहता है, वह इन संस्थाओं पर अपनी सुविधानुसार हमले करता है. भाजपा की अगुवाई वाली सरकार जब केंद्र में थी तो उस वक्त भी इसकी तरफ से सीएजी पर कई बार हमले हुए. एक बार तो यहां तक कहा गया कि इस संस्था को अंग्रेजों ने स्थापित किया था इसलिए यह बेवकूफी वाली संस्था है. यह बात 2001 में उस समय के विनिवेश मंत्री अरुण शौरी ने मुंबई के सेंटूर होटल को 145 करोड़ रुपये में बेचने के मामले में आई सीएजी रिपोर्ट पर जवाब देते हुए कही थी. करगिल की लड़ाई के बाद सामने आए ताबूत घोटाले पर चर्चा करते हुए अरुण जेटली ने एक टेलीविजन चैनल पर यह कहा था कि ऑडिट करने वाले अधिकारी जंग लड़ने नहीं जाते लेकिन सेना के जनरल जाते हैं.

सीएजी कार्यालय की नींव रखते हुए नई दिल्ली में देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने जुलाई, 1954 में कहा था, ‘एक ऐसे समय में जब सरकार कल्याणकारी योजनाओं पर काफी पैसे खर्च कर रही है तब यह जरूरी हो जाता है कि हर रुपये का हिसाब रखा जाए. यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सीएजी पर है.’ जिस वक्त राजेंद्र प्रसाद काफी खर्च की बात कर रहे थे, उस वक्त सरकार का कुल बजट खर्च 1,354 करोड़ रुपये था. आर्थिक समीक्षा के मुताबिक यह 2011-12 में बढ़कर 22.92 लाख करोड़ रुपये हो गया है. जाहिर है कि सीएजी की भूमिका और जिम्मेदारी बड़ी हो गई है. अगर वह यह जिम्मेदारी सही से न निभाए तो देश के लाखों करोड़ रुपये कहां और कैसे खर्च हो रहे हैं इसका कोई निष्पक्ष हिसाब-किताब देश के पास होगा ही नहीं.  

सुधार की मांग 

बढ़ी जिम्मेदारियों को देखते हुए सीएजी ने तीन सुधारों का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा है. हालांकि, दो साल पहले भेजे गए इन प्रस्तावों पर सरकार ने अब तक अपनी तरफ से स्थिति साफ नहीं की है. इनमें सबसे पहला यह है कि सरकारी संस्थाओं के लिए सूचना के अधिकार की तर्ज पर सीएजी द्वारा मांगे गए दस्तावेज मुहैया कराने के लिए 30 दिन की समयसीमा निर्धारित की जाए. अक्सर जब सीएजी रिपोर्ट तैयार कर रही होती है तो उसे दस्तावेज मिलने में काफी दिक्कतें आती हैं. 

दूसरी बात यह है कि जब सीएजी की रिपोर्ट सरकार को मिले तो वह इसे जल्द से जल्द संसद में पेश करे. अभी होता यह है कि सरकार महीनों तक सीएजी की रिपोर्ट दबाकर बैठी रहती है. कोयला ब्लॉक आवंटन की रिपोर्ट भी सरकार को पिछले संसद सत्र में ही मिल गई थी लेकिन इसे पेश किया गया मॉनसून सत्र में. दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन की रिपोर्ट भी साल भर बाद पेश की गई थी.

पीएसी में कांग्रेसी सांसदों ने हल्ला मचाया तो 2जी पर बनी जेपीसी की बैठक में भाजपा सांसदों ने यही काम किया और बैठक से बाहर निकल गए

सीएजी की तीसरी मांग यह है कि पिछले बीस साल में जिस तरह से सरकार की आर्थिक गतिविधियों में बदलाव आया है इसके आधार पर उसके ऑडिट के दायरे के बारे में स्थिति और साफ की जाए. दरअसल, सीएजी इसके जरिए सार्वजनिक निजी भागीदारी यानी पीपीपी मॉडल के तहत चल रही परियोजनाओं और संयुक्त उपक्रमों के ऑडिट का अधिकार भी चाहती है. एक अनुमान के मुताबिक 80,000 करोड़ रुपये से अधिक का सालाना खर्च सीएजी के ऑडिट दायरे से बाहर है. इस वजह से संसद को भी यह पता नहीं चल पाता कि यह पैसा कैसे खर्च हो रहा है. चतुर्वेदी कहते हैं, ‘जो लोग यह कह रहे हैं कि सीएजी को नीतिगत मसलों पर टिप्पणी का अधिकार नहीं है, उन्हें यह पता होना चाहिए कि सीएजी ऐसे मामलों में अपनी बात रख सकती है जिससे सरकारी खजाने को नुकसान उठाना पड़ रहा हो.’

दलीय राजनीति की शिकार संसदीय समितियां

सीएजी अपनी रिपोर्ट संसद की जिस पीएसी के पास भेजती है उसकी हालत भी खराब है. इस समिति का मुख्य कार्य है सीएजी की रिपोर्ट का परीक्षण करना. आम तौर पर 22 संसद सदस्यों वाली इस समिति का अध्यक्ष विपक्ष का कोई वरिष्ठ नेता होता है. 1967 से यही परंपरा चली आ रही है. बात पिछले साल की है जब 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन पर आई सीएजी की रिपोर्ट पर पीएसी में विचार-विमर्श हो रहा था. विचार-विमर्श के बाद भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली इस समिति ने जब अपनी रिपोर्ट का मसौदा तैयार किया तो इसे कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के सदस्यों ने खारिज कर दिया. इस रिपोर्ट में 2जी मामले को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उस समय के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की भूमिका की आलोचना की गई थी. जब समिति में तनातनी काफी बढ़ गई तो समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी बैठक से निकल गए. इसके बाद विरोध कर रहे सदस्यों ने कांग्रेस नेता सैफुद्दीन सोज को अध्यक्ष चुन लिया और जोशी की अनुपस्थिति में रिपोर्ट के मसौदे को खारिज कर दिया. इसके बाद संवैधानिक जानकारों ने रिपोर्ट खारिज किए जाने को यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया कि राज्यसभा का सदस्य पीएसी की बैठक की अध्यक्षता नहीं कर सकता. सोज राज्यसभा के सांसद हैं.

पीएसी में कांग्रेस और उनके समर्थक सांसदों ने हल्ला मचाया तो 2जी पर बनी संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की बैठक में भाजपा सांसदों ने यही काम किया और बैठक से बाहर निकल गए. इतना ही नहीं भाजपा सांसदों ने समिति से बाहर निकलने की धमकी भी दी. दरअसल, जेपीसी में विवाद तब पैदा हुआ जब भाजपा सांसद लगातार यह मांग करते रहे कि 2जी मामले में पूछताछ के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम को बुलाया जाए. इस पर कांग्रेस सांसद तैयार नहीं हुए. बाद में इस जेपीसी के अध्यक्ष और कांग्रेस के नेता पीसी चाको ने यह बयान दिया कि बैठक से वाकआउट करने की स्थिति पैदा नहीं हुई थी बल्कि भाजपा सांसद ऐसा करने की तैयारी के साथ आए थे. वहीं भाजपा सांसदों का आरोप था कि उनके साथ बैठक में अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया गया. जैन कहते हैं, ‘आज यह हालत सिर्फ पीएसी और जेपीसी की नहीं है बल्कि संसद की ज्यादातर समितियों की है. जिन समितियों का गठन दलीय दायरे से ऊपर उठकर लोकतंत्र की रक्षा के लिए किया गया था, वे भी आज दलीय राजनीति की शिकार हो गई हैं.’

स्थायी संसदीय समितियां इसकी उदाहरण हैं. इसमें सबसे दिलचस्प मामला है ग्रामीण विकास पर संसद की स्थायी समिति का है. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों से पहले पिछले साल जब राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में लगातार दौरे करके किसानों के मसलों को उठा रहे थे तो उन्होंने कई जगह पर कहा था कि संप्रग सरकार जल्द से जल्द किसानपरस्त जमीन अधिग्रहण कानून लाएगी. इसके बाद सात सितंबर, 2011 को सालों से लटक रहे जमीन अधिग्रहण कानून के नए मसौदे को संसद में पेश कर दिया गया.  13 सितंबर को इसे स्थायी संसदीय समिति में भेज दिया गया. समिति में दलीय राजनीति इसके बाद शुरू हुई. भाजपा और बसपा को लगा कि अगर जमीन अधिग्रहण कानून संसद के शीतकालीन सत्र में पारित हो गया तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है. इसलिए समिति में इन दोनों दलों के सदस्यों ने यह सुनिश्चित किया कि किसी भी तरीके से विधेयक का मसौदा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले संसद को नहीं लौटाया जाए. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव निपटने के तकरीबन दो महीने बाद ही इस विधेयक को स्थायी संसदीय समिति ने संसद को भेज दिया. यह घटना बताती है कि किस तरह से सियासी दल अपने चुनावी नफा-नुकसान को देखते हुए स्थायी संसदीय समितियों का इस्तेमाल कर रही हैं.

 संकट संसदीय मर्यादा का

जैन कहते हैं कि पीएसी, जेपीसी और स्थायी संसदीय समितियां ही क्यों, आज तो पूरी संसद ही अपनी जिम्मेदारियों से अनजान दिखती है. मौजूदा सरकार पर यह आरोप लग रहा है कि इसने संसद की गरिमा को भी ठेस पहुंचाई है. संसदीय व्यवस्था को ठीक ढंग से समझने वाले लोग इस संदर्भ में कुछ मामले गिनाते हैं. इनमें सबसे प्रमुख है लोकपाल का विषय. लोकपाल का मसौदा लोकसभा में कई संशोधनों के साथ पारित होने के बाद राज्यसभा में पहुंचा. 31 दिसंबर, 2011 की रात 12 बजे राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने अचानक ही लोकपाल के मसले पर चल रही संसद की कार्यवाही अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी. इसके लिए सफाई यह दी गई कि राष्ट्रपति से उन्हें इससे अधिक समय तक राज्यसभा चलाने की अनुमति नहीं मिली थी. लेकिन विपक्ष और कई जानकार यह मानते हैं कि अंसारी ने ऐसा सत्ता पक्ष की मुश्किलों को कम करने के लिए किया था. कई लोग तो बतौर उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की दोबारा हुई नियुक्ति को भी सत्ता पक्ष के प्रति उनके समर्पण से जोड़कर देखते हैं.

इसके बाद एक घटना हाल की है. जब कोयला ब्लॉक आवंटन पर संसद लगातार विपक्ष के हो-हल्ले का शिकार होकर नहीं चल पा रही थी तो एक दिन संसदीय कार्य राज्य मंत्री राज्यसभा के उपसभापति पीजी कूरियन को यह सलाह देते हुए सुने गए कि हंगामा होने वाला है इसलिए पूरे दिन के लिए सदन की कार्यवाही स्थगित कर दीजिए. इस घटना पर जैन कहते हैं, ‘राजीव शुक्ला को बतौर संसदीय कार्य राज्य मंत्री ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है. राजीव शुक्ला ने जो किया वह सिर्फ सभापति का अपमान नहीं है बल्कि यह तो सदन का अपमान है. क्योंकि सभापति को सदन चुनता है और उसे डिक्टेट करने का मतलब यह है कि आप पूरे सदन को डिक्टेट कर रहे हैं.’

आज संसद की हालत यह है कि अगर सत्ता पक्ष से बाहर का कोई सांसद सरकार की स्वस्थ आलोचना भी करे तो सत्ता पक्ष के सांसद उस पर टूट पड़ते हैं. यह बात खास तौर पर तीन लोगों के बारे में दिखती है. सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मनमोहन सिंह. जब पिछले साल अगस्त में अन्ना हजारे रामलीला मैदान में अनशन कर रहे थे उसी दौरान राहुल गांधी ने संसद में इस मसले पर बोलते हुए लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने की बात की थी. जब राहुल गांधी अपना लिखा हुआ भाषण पढ़ रहे थे उसी वक्त विपक्ष के कुछ सदस्यों ने टोका-टाकी की तो कांग्रेस के युवा नेताओं की फौज विपक्षी सदस्यों पर बुरी तरह टूट पड़ी थी.

 

स्थायी समिति में भाजपा और बसपा के सदस्यों ने यह सुनिश्चित किया कि किसी भी तरीके से विधेयक का मसौदा विधानसभा चुनाव के पहले संसद को नहीं लौटाया जाए

 

 अब एक बार फिर से यहां पंडित नेहरू का उल्लेख जरूरी हो जाता है. बात 1963 की है. संसद में योजना आयोग के उस दावे पर बहस हो रही थी जिसमें कहा गया था कि देश में गरीब आदमी की आमदनी पंद्रह आने है. यानी एक रुपये से भी कम. उस बहस में हिस्सा लेते हुए राममनोहर लोहिया ने यह साबित किया कि देश के 27 करोड़ लोगों की आमदनी तीन आने से भी कम है. इसका नतीजा यह हुआ कि सरकार ने अपने अनुमान को खिसका कर आठ आने कर दिया. इसी बहस के दौरान लोहिया ने पंडित नेहरू की तरफ इशारा करते हुए कहा था, ‘इन हजरत को देखिए. इनके कुत्ते का रोज का खर्च 25 रुपये है और देश के आम आदमी की रोजाना आमदनी 25 पैसे से भी कम है.’ उस वक्त नेहरू अपने बाएं हाथ पर अपनी ठोड़ी टेके हुए यह वार चुपचाप झेल गए थे. किसी कांग्रेसी सांसद ने नेहरू की नजर में अपना नंबर बढ़ाने के लिए लोहिया पर हल्ला बोलने का साहस नहीं जुटाया था. क्या अब ऐसा दृश्य संभव है?

पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा संसद के अवमूल्यन के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं, ‘देश के प्रधानमंत्री को जब भी समय मिलता है तो वह संसद के सदन में आकर बैठता है. चाहे वह लोकसभा में बैठे या राज्यसभा में. जब संसद में प्रश्नकाल चल रहा होता है तब मनमोहन सिंह सदन में आते हैं. इसके बाद शून्य काल शुरू होता है और सांसद कहते रह जाते हैं कि मैं प्रधानमंत्री जी को यह बताना चाहूंगा, वह बताना चाहूंगा लेकिन मनमोहन सिंह इन बातों की अनदेखी करते हुए सदन से उठकर चले जाते हैं. संसद की इतनी अवज्ञा और किसी शासन में नहीं हुई जितनी मनमोहन सिंह सरकार के दौरान हुई है.’

यशवंत सिन्हा जो कह रहे हैं, वह एक तथ्य है लेकिन क्या संसद की साख को कम करने आरोप सिर्फ मनमोहन सिंह या कांग्रेस पर लगाया जा सकता है? मुख्य विपक्षी दल भाजपा समेत दूसरे दलों की इसमें कोई भूमिका नहीं है? यह भी एक तथ्य है कि कई मौके ऐसे आए हैं जब भाजपा पर भी संसद के अवमूल्यन का आरोप लगा. 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लॉक आवंटन के मामले में भाजपा द्वारा संसद को पूरी तरह से ठप कर देने की भी आलोचना न सिर्फ कांग्रेस ने बल्कि संसदीय परंपरा के कई जानकारों ने की. भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जब देश की जनता द्वारा चुनी गई संप्रग सरकार को अवैध बताया तो उनके इस बयान की आलोचना भी संसद की परंपरा को जानने-समझने वालों ने की. हालांकि, तुरंत ही आडवाणी ने इस मामले पर माफी मांग कर इसे रफा-दफा किया. अभी हाल में जब प्रोन्नति में आरक्षण देने को लेकर राज्यसभा में संविधान संशोधन विधेयक सरकार ने पेश किया तो समाजवादी पार्टी के नरेश अग्रवाल और बहुजन समाज पार्टी के अवतार सिंह करीमपुरी के बीच हाथापाई तक हो गई. सबने टेलीविजन पर देखा कि इसे रोकने के बजाय दोनों दलों के कुछ और सदस्य इस झगड़े में शामिल हो गए. बाद में मार्शलों को बुलाना पड़ गया. जानकारों का मत है कि ऐसे मामलों में संसद को कठोर कार्रवाई करके नजीर पेश करना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं किया गया. पहले भी कई मौके ऐसे आए हैं जब विपक्षी दलों ने संसद की मर्यादा को ठेस पहुंचाई है. इस आधार पर नतीजा यह निकलता है कि संसद के अवमूल्यन के लिए सीधे तौर पर देश का पूरा राजनीतिक वर्ग जिम्मेदार है. 

आज संसदीय बहस का स्तर गिरते हुए इस कदर दलीय दायरों में सिमटकर रह गया है कि सत्ताधारी दल का कोई भी सांसद ऐसे सवाल नहीं पूछता या ऐसी कोई भी बात नहीं बोलता जिससे उसके दल के किसी मंत्री को कोई परेशानी हो. जबकि एक वक्त वह था जब अपने ही दल के लोग जनहित के मसलों पर प्रधानमंत्री पर हमला करने से भी नहीं परहेज करते थे. बात 1965 की है. उस वक्त लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे. अनाज के संकट की वजह से महंगाई बढ़ रही थी. सरकार नाकाम और जनता परेशान दिख रही थी. 24 मार्च को कांग्रेसी सांसद विजय लक्ष्मी पंडित ने लोकसभा में सरकार पर जमकर हल्ला बोला. शास्त्री की ओर देखते हुए उन्होंने कहा, ‘लोग कहीं भी ठोस निर्णय नहीं ले रहे हैं. ऐसे में आगे की राह में रोड़े ही रोड़े दिखते हैं. केरल से कश्मीर ओर शेख अब्दुल्ला से लेकर वियतनाम तक कोई फैसला नहीं किया जा रहा है. हम अनिर्णय के शिकार हो रहे हैं.’ हमला होता रहा, पक्ष-विपक्ष के सांसद प्रधानमंत्री की ओर देखते रहे लेकिन शास्त्री चुपचाप इस हमले को झेल गए. लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के कार्यकाल में जब तेलंगाना ओर विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक के मसले पर पार्टी के सांसद केशव राव ने पार्टी लाइन से अलग लाइन ली तो उनके पर कतरने में देर नहीं की गई.

चुनाव आयोग पर चोट

मौजूदा सरकार में शामिल लोगों ने चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था पर भी हमले करने से परहेज नहीं किया. इसी साल हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान चुनाव आचार संहिता की खुलेआम धज्जी उड़ाने वालों में दो केंद्रीय मंत्री भी शामिल हो लिए. विवाद तब शुरू हुआ जब आचार संहिता लगने के बाद केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो मुसलमानों को सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में नौ फीसदी आरक्षण दिया जाएगा. चुनाव आयोग ने इसे आचार संहिता का उल्लंघन माना. इसके बावजूद खुर्शीद ने फर्रुखाबाद में एक चुनावी सभा में कहा कि अगर उन्हें चुनाव आयोग सूली पर भी लटका दे तो वे यह सुनिश्चित करेंगे कि पसमांदा मुसलमानों को उनका हक मिले.

इसके बाद विवाद गहरा गया और चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद की औपचारिक शिकायत की और तत्काल हस्तक्षेप की मांग की. हर तरफ से जब सरकार पर दबाव बढ़ा तो सलमान खुर्शीद को इसके लिए औपचारिक तौर पर माफी मांगनी पड़ी. इसके ठीक दो दिन बाद केंद्रीय इस्पात मंत्री और उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी नेता बेनी प्रसाद वर्मा ने भी मुसलमानों को आरक्षण देने संबंधी बयान देकर चुनाव आचार संहिता या यों कहें कि चुनाव आयोग को अपमानित करने का काम किया. उन्होंने आयोग को चुनौती के लहजे में कहा कि अगर वह उनके खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकता है तो करके दिखाए. वर्मा फर्रुखाबाद के जिस चुनावी मंच से आयोग को चुनौती दे रहे थे उस पर उनके साथ सलमान खुर्शीद और दिग्विजय सिंह भी मौजूद थे. 

इस पूरे मामले पर मुख्य चुनाव आयुक्त के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद एसवाई कुरैशी का कहना था, ‘कुछ नेताओं ने आयोग पर हमले किए और हमने नियम के हिसाब से उनके खिलाफ नोटिस जारी किए और अंततः उन्हें माफी मांगना पड़ा. लेकिन सरकार की नीयत और समय अहम है. जिस तरह से और जिस समय चुनाव आचार संहिता में बदलाव की बात कुछ नेताओं ने उठाई उससे उनकी मंशा को लेकर संदेह पैदा होता है…किसी संस्था में बदलाव की आवश्यकता तब महसूस होती है जब वह ठीक से काम नहीं कर पा रही हो. जबकि चुनाव आयोग का प्रदर्शन शानदार रहा है.’ जो बात कुरैशी बचते-बचाते कह रहे हैं उसे सुभाष कश्यप सीधे तौर पर रखते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि सलमान खुर्शीद को चुनाव के कायदे नहीं पता थे. इसके बावजूद अगर वे आयोग से टकरा रहे हैं तो इसके छिपे अर्थों को समझना होगा. एक ऐसे समय में जब देश की ज्यादातर संवैधानिक संस्थाओं की साख घटती जा रही है, चुनाव आयोग पर जिम्मेदार मंत्रियों द्वारा इस तरह के हमले किया जाना लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है.’

हालांकि, चुनाव आयोग पर हमला करने के मामले में भाजपा भी पीछे नहीं रही है. 2002 में गुजरात में हुए दंगों के बाद जब उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह ने कड़ा रुख अपनाते हुए पहले चुनाव कराने से इनकार कर दिया था तो उस वक्त भाजपा चुनाव आयोग पर जमकर हमले बोल रही थी. खुद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सार्वजनिक सभाओं में बार-बार लिंगदोह का पूरा नाम जेम्स माइकल लिंगदोह दोहराकर यह संदेश देना चाह रहे थे कि चुनाव आयोग उन्हें जान-बूझकर धार्मिक आधार पर निशाना बना रहा है.

हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान चुनावी आचार संहिता की खुलेआम धज्जी उड़ाने वालों में दो केंद्रीय मंत्री भी शामिल थे

सीवीसी का राजनीतिकरण

केंद्रीय सतर्कता आयोग भी एक ऐसी संवैधानिक संस्था है जिसके अवमूल्यन का आरोप कांग्रेस पर है. मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति में कांग्रेस ने नैतिक और कानूनी तकाजों की अनदेखी की और वर्ष 2010 में केरला काडर के प्रशासनिक अधिकारी पीजे थॉमस को यह पद दे दिया. उन पर पामोलिन तेल आयात घोटाले में शामिल होने के आरोप थे.  यह मामला उच्च स्तरीय चयन समिति में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने उठाया भी था लेकिन कांग्रेसी बहुलता वाली समिति ने उनकी अनदेखी करते हुए थॉमस को नियुक्त कर दिया. कांग्रेस ने इस बात की ओर ध्यान देना ही जरूरी नहीं समझा कि जिस व्यक्ति पर खुद भ्रष्टाचार के आरोप हों उसे ऐसे मामलों की जांच की सबसे बड़ी जिम्मेदारी कैसे दी जा सकती है. नियुक्ति का यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा और वहां थॉमस की नियुक्ति को अवैध बता दिया गया. इसके बाद थॉमस को सीवीसी के पद से इस्तीफा देना पड़ा और सरकार की बड़ी फजीहत हुई.

न्यायपालिका को चुनौती

कांग्रेस की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के प्रतिनिधियों ने कई मौकों पर परोक्ष रूप से ही सही न्यायपालिका को भी अपने दायरे में रहने की सलाह दे डाली है. इस सरकार को उच्चतम न्यायालय से सबसे अधिक दिक्कत हो रही है. क्योंकि सरकार को परेशान करने वाले कुछ मामले अदालत ने खुद अपने हाथ में ले लिए हैं और कुछ जनहित याचिका के जरिए उस तक पहुंचे हैं. जिस ढंग से 2जी मामले की जांच की निगरानी सर्वोच्च अदालत ने अपने हाथ में ली है, उससे भी सरकार को दिक्कत हो रही है. हालांकि, न्यायपालिका के भ्रष्टाचार के मामले उठते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ समय से न्यायालयों खास तौर पर उच्चतम न्यायालय ने जिस तरह से काम किया है उससे लोगों का इस तंत्र पर भरोसा बढ़ा है.

सरकार और अदालत का टकराव उस वक्त ज्यादा बढ़ता हुआ दिखता है जब अदालत चुनावी लाभ से चलाई जा रही सरकारी योजनाओं पर चोट करती है. ताजा मामला हज सब्सिडी का है. सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को हाल ही में यह निर्देश दिया है कि हज सब्सिडी कम करते हुए इसे अगले दस साल में खत्म किया जाए. सरकार के स्तर पर दबी जुबान में ही सही उच्चतम न्यायालय के इस फैसले का विरोध हुआ.

पिछड़ी जाति के लोगों को प्रमोशन में आरक्षण के लिए उच्चतम न्यायालय ने कुछ शर्तें रखी थीं. इनका पालन न करने की वजह से हाल ही में अदालत कई राज्यों में इस तरह के आरक्षण को रद्द कर चुकी है. अब सरकार ने इन शर्तों से छुटकारा पाने के लिए संविधान संशोधन विधेयक राज्यसभा में पेश कर दिया है. जानकार बता रहे हैं कि इस संशोधन का उच्चतम न्यायालय द्वारा खारिज किया जाना लगभग तय है. इस बारे में अटॉर्नी जनरल जीई वहानवती ने कानून मंत्रालय को एक पत्र लिखकर पहले ही बता दिया था कि प्रोन्नति में जाति के आधार पर आरक्षण देने के मामले में कई कानूनी अड़चनें हैं और सरकार के ऐसे किसी फैसले को उच्चतम न्यायालय पलट सकता है. इसके बावजूद सरकार ने जरूरी संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश कर दिया. जानकार मानते हैं कि  यह एक ऐसा मामला है जिसमें सरकार तीन-तीन संस्थाओं का अवमूल्यन कर रही है. पहली बात तो यह कि सरकार अटॉर्नी जनरल की राय को कोई महत्व नहीं दे रही. दूसरी तरफ वह न्यायपालिका के निर्णय की काट के तौर पर संविधान संशोधन का रास्ता अपना रही है. और तीसरी बात यह कि यदि सरकार का यह फैसला उच्चतम न्यायालय पलट देता है तो फिर यह संसद के लिए भी अपमानजनक स्थिति होगी.

 भविष्य के संकेत 

टीएन चतुर्वेदी, सीके जैन और सुभाष कश्यप समेत संविधान की जानकारी रखने वाले लोगों का स्पष्ट मत है कि संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं की साख गिराने से अंततः लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होंगी और मौजूदा व्यवस्था पर से लोगों का भरोसा उठने लगेगा. जो लोग बिना सोचे इस प्रकार का काम कर रहे हैं आखिर में इसका भारी नुकसान उन्हें भी उठाना होगा. खतरा यह है कि पहले से ही विश्वसनीयता के संकट से सबसे अधिक जूझ रहे राजनीतिक वर्ग के औचित्य पर ही देश की जनता सवाल न उठाने लगे. अगर हम सभी संस्थाओं को कमजोर करते रहे तो फिर पूरी व्यवस्था में कोई भी केंद्र ऐसा नहीं बचेगा जिस पर लोग भरोसा कर सकें. ऐसे में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर अराजकता का खतरा स्वाभाविक है. ऐसे में न सिर्फ वह सपना कहीं खो जाएगा जिसके सहारे आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी बल्कि उस दृष्टि का भी कोई मोल नहीं रहेगा जिसे आधार बनाकर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की बुनियाद रखी गई थी.  

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नाम के प्रधानमंत्री!

सेना और सरकार

नाम के प्रधानमंत्री!

पिछले साल के आखिरी दिनों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को रूस के दौरे पर जाना था. वहां उन्हें भारत और रूस की प्रमुख कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्सा लेना था. इस कार्यक्रम का आयोजन इंडो-रशिया सीईओज़ काउंसिल के बैनर तले होना था. भारत की तरफ से इस संगठन की अध्यक्षता रिलायंस इंडस्ट्रीज के कर्ताधर्ता मुकेश अंबानी करते हैं. लेकिन आखिरी वक्त पर मुकेश अंबानी ने प्रधानमंत्री के साथ रूस के दौरे पर जाने से मना कर दिया. हालांकि, प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों ने मुकेश अंबानी को मनमोहन सिंह के साथ रूस चलने के लिए मनाने की काफी कोशिश की, लेकिन बड़े अंबानी समय की कमी की बात कहकर रूस दौरे पर नहीं गए.

इस घटना से संकेत मिल जाता है कि प्रधानमंत्री की संस्था आज किस कदर कमजोर हो चुकी है. दरअसल, मनमोहन सिंह पर प्रधानमंत्री की संस्था के अवमूल्यन के आरोप तब से ही लग रहे हैं जब से उन्होंने यह पद संभाला है. तब से ही लोग मानते रहे हैं कि वे सिर्फ एक कठपुतली प्रधानमंत्री हैं और कई फैसले सोनिया गांधी के दबाव में करते हैं. मनमोहन सिंह पार्टी के आदमी तो कभी रहे नहीं हैं. इसलिए संगठन में उनको महत्व न मिलना अस्वाभाविक नहीं लगता. लेकिन किसी ऐसे व्यक्ति को देश का सबसे बड़ा राजनीतिक पद अगर कोई पार्टी देती है तो साफ है कि वह प्रधानमंत्री नाम की संस्था की मर्यादा को लेकर गंभीर नहीं है.

कांग्रेस ने सरकार के ऊपर सोनिया गांधी की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) बना रखी है. इस वजह से सरकार जो भी अच्छा कर रही है उसका श्रेय एनएसी यानी सोनिया गांधी को मिल रहा है और उसकी हर गलती का ठीकरा मनमोहन सिंह के सर फूट रहा है. संप्रग सरकार की कामयाबी के तौर पर रोजगार गारंटी योजना, सूचना के अधिकार और शिक्षा के अधिकार के तौर पर गिना जाता है.

लेकिन इसका श्रेय मनमोहन सिंह को न देकर एनएसी को दिया जाता है. मनमोहन सिंह की इस स्थिति पर पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा कहते हैं, ‘ताकत सोनिया गांधी के पास है लेकिन उनके पास कोई जिम्मेदारी नहीं है. मनमोहन सिंह के पास जिम्मेदारी है लेकिन ताकत नहीं है. मनमोहन सिंह के पास न नैतिक ताकत है, न राजनीतिक ताकत और न सरकारी ताकत. इस वजह से जिस नेतृत्व की आवश्यकता इस देश को अभी है, वह नहीं मिल पा रहा है.’ 

हालांकि, प्रधानमंत्री का बचाव करते हुए मनमोहन सिंह के पहले मंत्रिमंडल में उनके सहयोगी रहे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर कहते हैं, अगर मनमोहन सिंह राय-मशविरा नहीं करें तो उन पर यह इल्जाम लगेगा कि वे विचार-विमर्श नहीं करते, ‘अगर वे विभिन्न मामलों को लेकर राय-सलाह करते हैं तो उन पर विपक्ष के लोग यह आरोप लगाते हैं कि ये तो बलहीन प्रधानमंत्री हैं. तो आखिर मनमोहन सिंह करें क्या?’

सेना और सरकार

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही आजाद भारत ने पहली बार सरकार और सेना के टकराव को इस स्तर पर देखा. हालांकि, इससे पहले भी कुछ मौकों पर सेना और सरकार आमने-सामने दिखे हैं, लेकिन ये टकराव कुछ व्यक्तिगत किस्म के और बहुत छोटे स्तर के थे. पहला मामला 50 के दशक के आखिरी दिनों का है. उस वक्त के सेनाध्यक्ष केएस थिमैया और रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन के बीच 1959 में टकराव इस कदर बढ़ा था कि सेनाध्यक्ष ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को अपना इस्तीफा सौंप दिया था. सरकार और नौ सेना 1998 में उस वक्त आमने-सामने दिखे जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी. नौसेना प्रमुख विष्णु भागवत ने सरकार के उस फैसले के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था जिसमें हरिंदर सिंह को नौ सेना का नंबर दो बनाने का फैसला किया गया था.

लेकिन हाल ही में सेवानिवृत्त हुए सेनाध्यक्ष वीके सिंह के मामले में जो कुछ हुआ वह न केवल सेना और सरकार के बीच का टकराव था बल्कि सरकार के अक्षम और गैरपेशेवराना रवैये से यह सेना के भीतर का भी टकराव बन गया. ऊपर से यह सब एक-दो दिन नहीं चला बल्कि कई महीनों तक इसकी चर्चा मीडिया और आम जनता के बीच होती रही. इस दौरान आज कैबिनेट में नंबर दो की हैसियत रखने वाले केंद्रीय रक्षा मंत्री इस मसले को निपटाने में बिलकुल अक्षम नजर आए.

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सेना बेहद अहम होती है. जब भी कोई मुश्किल परिस्थिति आती है तो सेना को याद किया जाता है. यहां तक कि आपातकाल में भी सेना को विशेष अधिकार मिलता है. ऐसे में सरकार और सेना के बीच टकराव की नौबत क्या लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक नहीं है? सेना और सरकार के बीच टकराव के नतीजे क्या हो सकते हैं, इसे जानने के लिए हमें सिर्फ अपने पड़ोसी मुल्क को देखने भर की जरूरत है.

अखिलेश सरकार के छह माह: चौपट राज

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से ढेरों उम्मीदें तो जनता को थीं, लेकिन जैसे हालात हैं, उनसे लगता है कि अखिलेश दंगाइयों, बलात्कारियों और डकैतों की ही उम्मीदों पर खरा उतर रहे हैं. प्रियंका दुबे की रिपोर्ट.

15 मार्च, 2012 को ‘बदलाव के वाहक’ के तौर पर उत्तर प्रदेश की कमान संभालने वाले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार को छह महीने पूरे हो चुके हैं. एक ओर जहां विपक्षी पार्टियों, राजनीतिक विश्लेषकों और आलोचकों की अखिलेश के कार्यकाल पर कड़ी नजर थी वहीं उत्तर प्रदेश की जनता भी विलायत से पढ़ कर आए अपने नौजवान मुख्यमंत्री से हजारों उम्मीदें लगाए बैठी थी. अब तक के सबसे युवा मुख्यमंत्री से सभी को यह उम्मीद थी कि हमेशा ऊंचे महलों की ऊंची दीवारों के पीछे छिपे रहने वाले लखनवी दरबार तक आखिरकार उनकी आवाज भी पहुंच सकेगी.

लेकिन विधानसभा चुनावों के नतीजों की शुरुआती लहर समाजवादी पार्टी (सपा) के पक्ष में जाते ही सपाइयों द्वारा हुड़दंग मचाए जाने की खबरें भी सामने आने लगी थीं. उसी वक्त साफ हो गया था कि सूबे के अगले सदर के सामने सबसे बड़ी चुनौती ‘गुंडाराज को बढ़ावा देने वाली पार्टी’ की अपनी छवि को बदलने की होगी. लेकिन बीते छह महीने  के दौरान हुए घटनाक्रमों ने न सिर्फ प्रदेश में गुंडाराज की वापसी को और पुख्ता किया है बल्कि अखिलेश के ‘बहुप्रतीक्षित सुशासन’ के सारे चुनावी वादों को भी धता बता दिया है. पिछले छह महीने में यूपी पांच सांप्रदायिक दंगे देख चुका है. यहां अलग-अलग हिस्सों में हुए दंगों में कुल सात लोगों की मृत्यु हुई और सैकड़ों जख्मी हुए. आम लोगों को जबर्दस्त नुकसान हुआ और बाजार महीनों बंद रहे.

सपा की सरकार आते ही राज्य के बुंदेलखंड क्षेत्र में डकैतों के पुराने गिरोहों ने भी फिर से सर उठाना शुरू कर दिया है. आठ अगस्त को चित्रकूट से बांदा जिला जेल की ओर जाते वक्त 13 डकैत पुलिस की गिरफ्त से भाग निकले. पुलिस कस्टडी में पेशी से लौटते वक्त फरार हुए इन कैदियों में दुर्दांत डकैत ठोकिया के बहनोई चुन्नी लाल पटेल के साथ-साथ शिवमूरत कोल, रम्मू कोल, हरी कोल और दिनेश नाई जैसे ददुआ गैंग के पुराने सदस्य भी शामिल थे. वहीं सुदेश पटेल उर्फ बालखड़िया के गैंग ने अगली ही रात यानी नौ अगस्त को चित्रकूट के डोडा गांव में सामूहिक नरसंहार को अंजाम दिया. बांदा रेंज के महापुलिस निरीक्षक पीके श्रीवास्तव ने तहलका से बातचीत में स्वीकार किया कि डकैतों के फरार होने में वहां मौजूद छह पुलिसकर्मियों का हाथ था. सूत्रों के अनुसार अब सभी फरार डकैत बालखड़िया गैंग के साथ मिलकर तराई में कुछ बड़ी वारदातों को अंजाम देने की फिराक में हैं.

पिछले छह महीने में प्रदेश पांच सांप्रदायिक दंगे देख चुका है. पुलिस थानों में छह बलात्कार हुए हैं और पिछले महीने ही 13 डकैत पुलिस हिरासत से फरार हुए हैं

डकैतों और दंगों के अलावा आए दिन पुलिस कस्टडी में हो रहे बलात्कारों या शारीरिक उत्पीड़न की खबरों से भी सरकार की खासी किरकिरी हुई है. इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने ऐसे बढ़ते मामलों पर स्वतः संज्ञान लेते हुए सरकार को महत्वपूर्ण पुलिस स्टेशनों पर सबसे बेहतर रिकॉर्ड वाले ‘सभ्य’ पुलिस अफसरों को तैनात करने के निर्देश भी दिए हैं. राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह दिन-प्रतिदिन बिगड़ती कानून-व्यवस्था के पीछे प्रभावहीन नेतृत्व को जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘कानून-व्यवस्था ठीक बनाए रखने के लिए सबसे जरूरी है ऊपर के नेतृत्व से उर्जा और प्रेरणा का नीचे की तरफ बहना. अखिलेश से सभी को बहुत उम्मीदें थीं. उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद मैं खुद उनसे मिलने गया था, हमने कानू-व्यवस्था सुधारने से संबंधित कई बातें की थीं. उन्होंने आश्वासन भी दिया था कि प्रदेश की सूरत बदलेगी. लेकिन हुआ कुछ नही’. राज्य में हो रहे सांप्रदायिक दंगों और डकैतों की बढ़ती समस्या को गंभीर बताते हुए वे आगे जोड़ते हैं, ‘बांदा क्षेत्र में बहुत मुश्किल से डकैती की समस्या पर काबू पाया गया था. राज्य में डकैतों का फिर से उभरना और आए दिन सांप्रदायिक दंगे होना साफ तौर पर यह बताता है कि कानून-प्रशासन पहले से कई कदम पीछे जा चुके हैं.’

राज्य सरकार द्वारा सदन में पेश किए गए हालिया आंकड़ों पर नजर डालें तो मालूम पड़ता है कि प्रदेश में प्रतिदिन 15 हत्याओं, छह बलात्कारों और कम से कम पांच लूट की घटनाएं दर्ज हो रही हैं. राज्य के प्रमुख राजनीतिक विश्लेषक प्रमोद कुमार बताते हैं कि प्रदेश की ठप नौकरशाही और अनियंत्रित पुलिसिया खेमा मुसीबत की असली जड़ हैं. ‘यूं तो हमेशा से ही इस पार्टी को गुंडाराज को पालने-पोसने वाली पार्टी के तौर पर जाना जाता रहा है लेकिन इस बार फर्क सिर्फ इतना था कि मुलायम की जगह मुख्यमंत्री नौजवान अखिलेश थे. जाहिर है, लोग युवाओं से परिवर्तन की कुछ ज्यादा उम्मीदें बांध भी लेते हैं. लेकिन आज छह महीने बाद, इस सरकार से लगभग हर कोई असंतुष्ट है और इसके नतीजे लोकसभा चुनावों में साफ नजर भी आ जाएंगे.’ ‘आज सब यही सोच रहे हैं कि अगर चीजें मायावती के समय से बेहतर नहीं हो सकतीं तो कम से कम बुरी तो न हों. लेकिन कानून-व्यवस्था का आलम देखकर तो यही लगता है कि अखिलेश का प्रशासनिक अमला उनके नियंत्रण से बाहर है’,  प्रमोद कुमार कहते हैं. राज्य में कानून-व्यवस्था की वास्तविक स्थिति का जायजा लेने के लिए तहलका ने राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों का दौरा किया. आगे के पन्नों पर लिखी रिपोर्ट उत्तर प्रदेश की लचर कानून-व्यवस्था की कलई खोलने के साथ ही अखिलेश के बहुप्रतीक्षित सुशासन की अनवरत प्रतीक्षा में डूबे उत्तर प्रदेश की आम जनता की नाउम्मीदी को भी रेखांकित करती है.

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दंगे 

बलात्कार

डकैती

दंगे…

पिछले साढे़ तीन महीने में उत्तर प्रदेश पांच दंगे झेल चुका है. मूक प्रशासन और सरकार के ढुलमुल रवैये  के बीच मथुरा, बरेली, प्रतापगढ़, इलाहाबाद के साथ-साथ राजधानी लखनऊ भी कई दिनों तक सांप्रदायिकता की आग में झुलसती रही. एक ओर जहां बरेली और कोसीकलां जैसे शहरों के बाजारों के कई दिन बंद रहने से यहां के रहवासियों को भारी नुकसान झेलना पड़ा, वहीं इन दंगों में कुल सात लोगों ने अपनी जान गंवाई और सैकड़ों जख्मी भी हुए.

राज्य के दंगा प्रभावित क्षेत्रों के जमीनी दौरे और स्थानीय लोगों से बातचीत से इन दंगों के कई अनछुए पहलू हमारे सामने आते हैं.  लाखों के माली नुकसान से उबरने की कोशिश कर रहे दुकानदार और बेवजह गुस्साई भीड़ की भेंट चढ़ गए परिजनों का शोक मनाते पीड़ितों के परिवारों की मानें तो उत्तर प्रदेश में हुए इन दंगों की जड़ें दो समुदायों के बीच पनपे किसी फसाद में नहीं छिपी हैं. असल में ये सभी दंगे राजनीतिक कारणों से प्रेरित दो समूहों के चंद फसादियों की लड़ाई भर थे. प्रतापगढ़ को छोड़कर अन्य सभी जिलों में राजनीतिक कारणों से प्रेरित मुट्ठी भर दंगाइओं ने मामूली फसाद को बढ़ाकर सांप्रदायिक दंगे की शक्ल दे दी. ज्यादातर मामलों में मसला धार्मिक वैमनस्य से ज्यादा अफवाहों से उपजी भ्रामक परिस्थितियों की वजह से बिगड़ा. उस पर प्रशासन की आपराधिक अनुपस्थिति ने स्थानीय रहवासियों में भय और असुरक्षा की भावना को और बढ़ा दिया. इस भगदड़ और दहशत के बीच देखते ही देखते कई निर्दोष लोगों की हत्याएं हो गईं और  व्यापारिक प्रतिष्ठानों को आग के हवाले कर दिया गया. 

उत्तर प्रदेश में दंगों की शुरुआत ठीक साढ़े-तीन महीने पहले मथुरा से लगभग 45 किलोमीटर की दूरी पर बसे छोटे-से कस्बे कोसीकलां से हुई. एक जून की दोपहर को शहर की मुख्य मस्जिद के सामने शरबत पिलाने का कार्यक्रम था. पास के ही एक दुकानदार देवंेद्र उर्फ देबू ने शरबत के पानी से हाथ धो लिए. स्थानीय निवासी और दंगों के प्रत्यक्षदर्शी सुभाष गोयल बताते हैं कि इस बात पर दोनों समुदाय के कुछ लोगों में हल्की कहासुनी हो गई. गोयल आगे जोड़ते हुए कहते हैं, ‘दरोगा जमादार सिंह घटनास्थल पर आए तो थे लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया. अगर तभी कुछ किया जाता तो फसाद आगे ही न बढ़ता. लेकिन उनके जाते ही भीड़ भड़क उठी और आधे घंटे में ही पूरा शहर दंगों की चपेट में आ गया. ऐसा लग रहा था मानो प्रशासन नाम की कोई चीज ही नहीं है.’

पीड़ित परिवारों की मानें तो ये दंगे दो समुदाय के वैमनस्य की वजह से नहीं भड़के बल्कि इनके पीछे राजनीतिक स्वार्थों की भूमिका थी

शाम होते-होते कोसीकलां के आस-पास मौजूद जाट बहुल गांवों से हजारों की तादाद में लोग शहर पहुंचने लगे. घटनाक्रम बताते हुए गोयल जोड़ते हैं, ‘असल में मोबाइल की वजह से कई अफवाहें फैलीं. लोगों को बताया गया कि दूसरे समुदाय वालों ने उनकी महिलाओं के साथ छेड़खानी की है. पुलिस प्रशासन पूरी तरह मूकदर्शक बना हुआ था. न ही रबर की गोलियां छोड़ी गईं, न आंसू गैस और न ही दंगाइयों पर पानी मारा गया. लाठी चार्ज भी नहीं हुआ. सब लोग एक दूसरे को मारते रहे, जलाते रहे. इस बीच 4 लोगों की हत्याएं हो गईं और करोड़ों का सामान स्वाहा हो गया.’ 

दंगे रात के लगभग 12 बजे तक चलते रहे और 16 दिनों तक शहर में कर्फ्यू  लगा रहा. तहलका की टीम जब हताहतों के परिजनों से मिलने पहुंची तो दोनों ही समुदायों के लोगों ने एक सुर में प्रशासन की आपराधिक निष्क्रियता को दोष देते हुए दंगों को राजनीति से प्रेरित बताया. कोसीकलां के दंगों में मारे गए 22 वर्षीय भूरा और कलुआ के बड़े भाई सलीम अपने जुड़वां भाइयों की तस्वीर दिखाते हुए बताते हैं, ‘भूरा को गोली लग गई थी और कलुआ उसे रिक्शे पर लाद कर अस्पताल ले जा रहा था. तभी उसे दंगाइयों ने पकड़ लिया और मारकर जलती हुई दुकान में फेंक दिया. लेकिन पुलिस- प्रशासन हमारी मदद को नहीं आए.’दंगों के तुरंत बाद मथुरा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक धर्मवीर यादव और कलेक्टर संजय यादव का ट्रांसफर कर दिया गया और 54 एफआईआर दर्ज की गईं. इनमें कुल 54 लोग नामजद थे और 1,200 अज्ञात. अलग-अलग धाराओं के अंतर्गत मामले दर्ज किए गए.

कोसीकलां दंगों में क्षेत्र के पूर्व बसपा विधायक चौधरी लक्ष्मी नारायण और उनके दो भाइयों लेखराज और नरदेव चौधरी पर भी मामले दर्ज किए गए हैं. तहलका से बातचीत के दौरान वे सारी जिम्मेदारी मौजूदा सपा सरकार और सुस्त पुलिसिया कार्यवाई पर डालते हुए कहते हैं, ‘प्रशासन और पुलिस ने लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया था. किसी ने लाठी चार्ज करके या आंसू गैस के गोले छोड़कर भीड़ को तितर-बितर करने की कोशिश नहीं की. मामले को चार महीने होने को हैं पर अभी तक कोइ चार्जशीट तक फाइल नहीं हुई है.’ थोड़ी और पड़ताल करने पर दंगों के पीछे छिपा राजनीतिक तानाबाना और साफ होने लगता है. नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर एक स्थानीय पत्रकार बताते हैं, ‘असल में कोसीकलां में हमेशा राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का ही बोलबाला रहा है. इस विधानसभा चुनाव में भी यहां आरएलडी के ठाकुर तेजपाल सिंह ही जीते. दंगों के समय निकाय चुनाव सर पर थे और एक खास समुदाय के लोगों को मार कर जनता को उकसाने और जनमत अपने पक्ष में करने की कोशिश की जा रही थी.’  मगर सभी इस बात पर सहमत हैं कि अगर प्रशासन थोड़ा-सा सतर्क होता तो कोसीकलां में इतने बड़े पैमाने पर मारकाट और लूटपाट न हुई होती.

कभी राज्य के सबसे शांतिपूर्ण शहरों में शुमार बरेली भी पिछले तीन महीने में  दो बार सांप्रदायिक दंगों का शिकार हुआ. इन दंगों में एक ही समुदाय के तीन लोगों की हत्याएं हुईं, बाजार 35 दिन तक बंद रहे और करोड़ों की संपत्ति आग के हवाले कर दी गई. उत्तर प्रदेश में दंगों के एक खास पैटर्न के अनुसार ही बरेली के तुरंत बाद जिले के प्रमुख अफसरों के तबादले हुए, 38 एफआईआर दर्ज की गईं और 293 लोग गिरफ्तार किए गए. मठ की चौकी और शहामतगंज पर दंगाइयों से पिट चुके अपने पुलिसिया अमले की साख बचाने की कोशिश में जिले के नए कलेक्टर अभिषेक प्रकाश बस इतना कहते हैं, ‘सभी मामलों में जांच चल रही है. शुरुआती तहकीकात के खत्म होते ही आरोप पत्र दाखिल कर लिए जाएंगे.’

यहां भी शहर के आम लोगों के साथ-साथ पीड़ितों के परिवारों का भी यह स्पष्ट मानना है कि दंगे उन पर सियासी ताकतों ने जबरन थोपे थे. 23 जुलाई और फिर 11 अगस्त को भड़के दंगों के बारे में बताते हुए शहर के प्रमुख राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर एसी त्रिपाठी कहते हैं, ‘इस शहर में  बरेलवी पंथ के आला हजरात साहब, सूफी समुदाय की खान काह-ए-नियाजिया के साथ-साथ हिंदुओं के कई प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर भी मौजूद हैं. और यहां धर्म को सही मायने में जीने वाले लोग रहते हैं. शहर की जनसंख्या भी हिंदू-मुसलमानों के इतने घने मिक्स के तौर पर बसी है कि अगर सच में दोनों संप्रदायों के लोग एक-दूसरे से लड़ जाएं तो जान-माल का भारी नुकसान हो सकता है. इसलिए यह तो साफ हो जाता है कि ये सारे दंगे शहर पर आरोपित थे. असल में शहर के राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व के पूरी तरह समाप्त हो जाने की वजह से राजनीतिक स्पेस में एक रिक्तता आ गई है. इसी रिक्तता का फायदा उठाने के लिए कुछ छोटी-मोटी गुमनाम राजनीतिक ताकतें फसादियों को तैनात करवाकर दंगे भड़का रही थीं. और धर्म इसका सबसे आसान जरिया है. मगर यह सब हो सिर्फ इसीलिए पाया क्योंकि मौजूदा राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था से जवाबदेही पूरी तरह गायब हो चुकी है.’

पिछले तीन दंगों ने बरेली जैसे धार्मिक रूप से सहिष्णु शहर को इस हालत में पहुंचा दिया है कि एक छोटी-सी घटना भी अब यहां भयंकर रक्तपात को जन्म दे सकती है

सूत्रों के अनुसार बरेली के हालिया दंगों की पृष्ठभूमि 2010 में हुए दंगों के दौरान ही बन गई थी. बरेली से छह बार लोकसभा चुनाव जीत चुके भाजपा के वरिष्ठ नेता संतोष गंगवार तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘सपा मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिए यहां फसाद करवा रही है. ये लोग अगले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर अभी से माहौल बना रहे हैं.’  

मोटे तौर पर बरेली भाजपा का पुराना गढ़ रहा है. 2012 के विधानसभा चुनावों में भी बरेली शहर की दोनों सीटें भाजपा की झोली में गईं. लेकिन 15 वें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रवीण सिंह आरोन ने संतोष गंगवार को हरा दिया. फिर हालिया निकाय चुनावों में भी सपा समर्थित प्रत्याशी डॉ आईएस तोमर की ही जीत हुई.  जानकार बताते हैं कि भाजपा के इस गढ़ में लगी राजनीतिक सेंध और शहर के सांप्रदायिक दंगों में गहरा संबंध है. दंगों के पीछे की इन राजनीतिक परतों पर बात करते हुए शहर के एक प्रमुख राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं, ‘इतिहाद-ए-मिलात काउंसिल (आईएमसी)  के अस्तित्व में आने से यहां की राजनीति में बड़े परिवर्तन आए.

इसके मुखिया तौकीर राजा खान शहर के प्रमुख धार्मिक परिवार से आते हैं, इसलिए स्थानीय मुसलमानों में उनका बड़ा सम्मान है. पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने बरेली से एक सीट पर जीत भी हासिल की. आज शहर का हर राजनेता जानता है कि अब यहां का मुसलिम समुदाय आईएमसी की मर्जी पर ही अपना वोट डालेगा. बीच में चंद किराये के फसादियों से दंगा करवा कर लोगों को धार्मिक तौर पर उकसाया गया है. फिर मौजूदा राज्य सरकार में इतनी इच्छा शक्ति नहीं थी कि इन दंगों पर काबू पा पाती.’ 

जमीनी पड़ताल के दौरान बरेली के दंगों के पीछे मौजूद इन तमाम राजनीतिक कारणों से इतर एक और महत्वपूर्ण बात स्पष्ट होती है. पिछले कई दशकों से हर साल 320 शांतिपूर्ण धार्मिक जुलूसों का साक्षी बनने वाला यह शहर अब सांप्रदायिक बारूद के ढेर पर खड़ा है. पिछले तीन राजनीतिक दंगों ने यहां की जनता को उकसा कर उस स्तर तक पहुंचा दिया है जहां गलती की एक जरा सी चिंगारी भी भारी जनहानि में तब्दील हो सकती है.

सांप्रदायिक दंगों ने कोसीकलां और बरेली के साथ-साथ प्रतापगढ़, इलाहाबाद और राजधानी लखनऊ को भी अपनी चपेट में लिया. एक नाबालिग दलित लड़की के सामूहिक बलात्कार और हत्या की घटना के बाद प्रतापगढ़ के अस्थान गांव में भड़के सांप्रदायिक दंगों में बस्ती के 46 मुसलमानों के घर जला दिए गए थे. मामले में बरती गई पुलिस की निष्क्रियता की प्रतिक्रिया के तौर पर भड़के इस दंगे के दौरान दंगाइयों पर काबू पाने में पुलिस को कई घंटे लग गए. हाल ही में असम के मुसलमानों पर हुए अत्याचारों के विरोध में इलाहाबाद और लखनऊ में भी दंगे भड़के. राजधानी लखनऊ में जहां दंगाइयों ने बुद्ध पार्क में तोड़-फोड़ करने के साथ-साथ मीडियाकर्मियों की भी पिटाई की, वहीं इलाहाबाद में दो घंटे चले उत्पात के बाद कर्फ्यू लगाना पड़ा.

बलात्कार…

कुठोंद के सनगढ़ गांव की राम कटोरी के पोते का पुलिस थाने में शारीरिक उत्पीड़न हुआ था.

राज्य के जालौन जिले के कुठौंद थाना क्षेत्र में 8 साल के एक बच्चे के साथ पुलिस चौकी में हुए शारीरिक उत्पीड़न का एक वीभत्स मामला कमोबेश कम चर्चा में रहा. क्षेत्र की शंकरपुर चौकी में हुई इस घटना की पड़ताल के लिए तहलका की टीम पीड़ित परिवार के गांव सनगड़ पहुंची. गांव के हरिजन टोले में मनोज लाल उर्फ पप्प्पू की  छोटी-सी झोपड़ी में हमारी मुलाकात उनकी मां राम कटोरी से होती है.

पूछने पर राम कटोरी बताती हैं कि उनके बहू-बेटे सब मजदूरी करने के लिए औरैया जा चुके हैं. कुछ और इधर-उधर की बातें करने के बाद जब हम उनके आठ वर्षीय पोते ओमू के बारे में उनसे पूछते हैं तो वे चुप हो जाती हैं. कुछ देर की खामोशी और दो-तीन बार पूछने के बाद राम कटोरी धीरे से बताती हैं कि उनका पोता पास ही के सरकारी स्कूल में पढ़ने गया है. हमारे आगे पूछने पर पुलिसिया अत्याचारों से परेशान अपने परिवार के बारे में बताते हुए वे कहती हैं, ‘उस दिन ओमू दो और बच्चों के साथ खेल रहा था. वे दोनों भी मेरे ही बेटे केशवचंद के लड़के हैं. लड़कों ने खेलते हुए पास की दुकान से 10 रुपये उठा लिए. दुकानवाले ने लड़कों को उठाकर शंकरपुर चौकी के सिपाही कृपासिंधु भारती को दे दिया. उसने मेरे बच्चों को दो दिन चौकी में बंद करके रखा. उनसे झाड़ू-पोछा करवाया और फर्श धुलवाया. फिर उनसे मालिश भी करवाई.’

इसके बाद आस-पास खड़ी भीड़ को देखकर वे खामोश हो जाती हैं. गावंवालों को पीछे हटाने के बाद वे धीरे से आगे जोड़ती हैं, ‘मैडम, उन्होंने हमारे पोते के साथ बहुत गलत काम किया. घर वापस आने के बाद उसके पूरे गाल सूज गए थे. जब उसने आठ दिन तक खाना नहीं खाया तो हम लोग परेशान हो गए. हमेशा घबराया-घबराया सा रहता था. बहुत पूछने पर उसने बताया कि सिपाही ने उसके साथ गलत काम किया है. उसकी तबीयत ज्यादा खराब होने लगी तो उसके मां-बापू उसे औरैया ले गए इलाज करवाने.’ पिछले 6 महीने में जुलाई के मध्य में हुई इस घटना के कुछ दिन बाद राम कटोरी के परिवार को अपने बच्चे के साथ हुए शारीरिक उत्पीड़न का पता चला तो वे इसकी शिकायत करने पुलिस के पास गए.

राज्य में पुलिसिया हिरासत में हुए शारीरिक उत्पीड़न के चर्चित मामले :-

  • मई 2012- बदायूं जिले की लालपुर चौकी में 17 वर्षीया लड़की के साथ बलात्कार
  • जून 2012 – लखनऊ जिले के मॉल पुलिस स्टेशन में एक सब इंस्पेक्टर द्वारा एक महिला के साथ बलात्कार का प्रयास
  • जुलाई 2012- कुशीनगर जिले के खड्डा पुलिस थाने में 35 वर्षीया महिला के साथ सामूहिक बलात्कार 
  • सितंबर 2012- महोबा जिले की बजरिया पुलिस चौकी में तैनात एक दरोगा ने अपने थाना क्षेत्र की एक दलित महिला के साथ बलात्कार किया
  • सितंबर 2012- 5 सितंबर की सुबह गोंडा जिले में एक पुलिस कांस्टेबल ने 14 वर्षीया नाबालिग लड़की का बलात्कार किया

मामले के सामने आते ही पीड़ित परिवार पर राजीनामा के लिए दबाव बढ़ने लगा. राम कटोरी कहती हैं, ‘पिछले महीने सिपाही रात को शराब पीकर हमारे घर आया था. वह हमें राजीनामा करने की धमकी देने लगा. हम गरीब हरिजन लोग हैं,  इसलिए हमारी कहीं कोई सुनवाई नहीं है. लेकिन हमने राजीनामा नहीं किया. हमारे बच्चों के साथ इतना बुरा हुआ है. हमारे अंदर जितनी हिम्मत है उसमें हम पूरी तरह लड़ेंगे.’

घटना के सामने आने के बाद गांव के लोग सिपाही के खिलाफ शिकायत दर्ज करवाने जालौन पुलिस अधीक्षक के दफ्तर भी गए थे. इसके बाद कार्रवाई के नाम पर भारती का तबादला करके उसे सिर्फ लाइन-अटैच कर दिया गया. यहां यह रेखांकित करना जरूरी है कि बाल न्याय अधिनियम के तहत किसी भी नाबालिग बच्चे को सामान्य पुलिस अपनी हिरासत में नहीं रख सकती. तहलका से बातचीत में जिले के वर्तमान पुलिस अधीक्षक आरपी चतुर्वेदी सिर्फ इतना कहते हैं कि मामले की तहकीकात जारी है. सिपाही को निलंबित करके उसके खिलाफ मामला दायर करने के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘देखिए मैं अभी यहां नया आया हूं और मेरे सभी साथी भी नए हैं. लेकिन मैं मामले की जांच करवा रहा हूं. आगे मामला दायर किया जाएगा.’

राज्य में पुलिस कर्मचारियों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों का यह अकेला मामला नहीं है. बीते छह महीने के दौरान उत्तर प्रदेश में पुलिस हिरासत में होने वाले बलात्कारों और शारीरिक उत्पीड़न के कम से कम छह शर्मनाक मामले सामने आ चुके हैं (बॉक्स देखें). पुलिसिया हिरासत में होने वाले इन बलात्कारों से इतर राज्य में होने वाले सामान्य बलात्कारों के सरकारी आंकड़ों पर नजर डालें तो मालूम पड़ता है कि यहां रोजाना करीब 6 बलात्कार दर्ज हो रहे हैं. यौन उत्पीड़न की इन बढ़ती घटनाओं  की वजह से एक ओर जहां राज्य के पुलिसिया महकमे की किरकिरी हो रही है वहीं समाजवादी पार्टी की सरकार की भी कड़ी आलोचना हो रही है.

 (पहचान छुपाने के लिए पीड़ित का नाम बदल दिया गया है)

डकैती…

  

8 अगस्त, 2012 को चित्रकूट की एक अदालत से लौटते हुए 13 खूंखार डकैत उत्तर प्रदेश पुलिस की हिरासत से फरार हो गए. अभी राज्य सरकार का पुलिसिया महकमा इस घटना से इलाके में बढ़ने वाले डकैतों के आतंक का आकलन भी नहीं कर पाया था कि 9 अगस्त, 2012 को चित्रकूट के एक गांव में सुदेश पटेल उर्फ बालखड़िया के गैंग ने पांच लोगों की निर्मम हत्या कर दी. मारकुंडी पुलिस थाना क्षेत्र में हुई इस घटना में जिन लोगों की हत्या हुई उनमें दो महिलाएं सहित एक आठ वर्षीया बच्ची भी शामिल थी.

फरार कैदियों में ठोकिया का बहनोई और 75 हजार का इनामी डकैत चुन्नी लाल पटेल प्रमुख है. साथ ही शिवमूरत कोल, रम्मो कोल, सिनेश नाई, हरी कोल और काली कोल जैसे ददुआ गैंग के पुराने सदस्य भी शामिल हैं. पिछले पांच साल में अंबिका प्रसाद पटेल उर्फ ठोकिया और सुंदर पटेल उर्फ रागिया जैसे दुर्दांत डकैतों के एनकाउंटर के बाद से माना जाने लगा था कि बुंदेलखंड क्षेत्र की डकैती समस्या पर काफी हद तक काबू पा लिया गया है. चूंकि फरार हुए सभी डकैत और तराई में सक्रिय बालखड़िया गैंग की जड़ें ददुआ की पुरानी गैंग से जुड़ती हैं,  इसलिए जानकारों का कहना है कि कैद से फरार डकैतों का समूह अब बालखड़िया गैंग के साथ मिलकर तराई में बड़ी वारदातों को अंजाम देने की योजना बना रहा है.

बांदा रेंज के पुलिस उप-महानिरीक्षक  पीके श्रीवास्तव तहलका से बातचीत में यह स्वीकार करते हैं कि बांदा जेल से फरार हुए कैदी और बालखड़िया गैंग के सदस्य चित्रकूट के जंगलों में एक नया गैंग बना सकते हैं. इससे उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर बसे दस्यु-प्रभावित क्षेत्र के लगभग 80 गांवों पर डकैती की बड़ी वारदातों का खतरा बढ़ गया है. वे विवरण देते हुए कहते हैं, ‘हमारे सूत्र बता रहे हैं कि उन लोगों ने जंगल में मिलकर एक नई गैंग बना ली है, पर अभी उसकी आधिकारिक पुष्टि होना बाकी है. अभी हम डकैतों की गतिविधियों के बारे में जानकारी इकट्ठा कर रहे हैं और हमने बालखड़िया गैंग के तीन सदस्यों को गिरफ्तार भी कर लिया है. पर फिलहाल मैं अपनी फोर्स को ठीक करने पर ध्यान दे रहा हूं. हमारी टीम में ऐसे लोग हैं जो डकैतों को हमारी सूचनाएं पहुंचा रहे हैं. इसलिए हम बार-बार उन्हें पकड़ने से चूक जाते हैं. सबसे पहले मैं इन लोगों को ढूंढ़ कर अपनी रेंज से बाहर करना चाहता हूं.’

एक फरार डकैत की गिरफ्तारी के बाद हुई पुलिस पूछताछ में पता चला कि बांदा में डकैतों के पुलिस हिरासत से फरार होने की पूरी योजना में खुद पुलिसवाले ही शामिल थे.

बांदा जेल से 13 डकैतों के फरार होते ही घटना को समाजवादी पार्टी (सपा) की नई सरकार और लचर कानून-व्यवस्था के प्रभाव के तौर पर भी देखा जाने लगा. सपा पर डकैतों को संरक्षण देकर उनका राजनीतिक इस्तेमाल करने के आरोप लगते रहे हैं. दुर्दांत डकैत ददुआ के बेटे वीर सिंह आज चित्रकूट जिले से समाजवादी पार्टी के विधायक हैं. ददुआ के भाई बाल कुमार पटेल मिजपुर से सपा के सांसद हैं और उनके बेटे रामसिंह प्रतापगड़ से सपा के विधायक. उत्तर प्रदेश पुलिस की दस्यु-विरोधी सेल से जुड़े एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताते हैं कि राज्य में सरकार के बदलते ही डकैतों का मनोबल बढ़ गया है. वे आगे जोड़ते हैं, ‘नई सरकार आने के बाद से हमारे लिए चुनौतियां काफी बढ़ गई हैं. जंगल में घूम रहे डकैतों के बढ़ते आतंक के साथ-साथ पुलिसिया अमले में भी अपराध और डकैतों से सहानुभूति रखने वाला वर्ग सामने आ रहा है.’  

तमाम अटकलों के बीच फरार कैदियों में से एक का सुराग मिलते ही इस घटना में उत्तर प्रदेश पुलिस की भूमिका साफ होने लगी. 16 अगस्त को बांदा पुलिस ने काली कोल नामक एक फरार डकैत को गिरफ्तार कर लिया और पूछताछ के दौरान पता चला कि डकैतों को भगाने की इस पूरी योजना में उत्तर प्रदेश पुलिस बराबर की भागीदार थी. इसलिए स्थानीय पुलिस ने भागने की इस योजना में उसका शुरू से साथ दिया. यहां तक कि जिन चार डकैतों की पेशी घटना वाले दिन नहीं थी उन्हें फरार करवाने के लिए पुलिस ने उनके फर्जी कागजात भी बनवाए. श्रीवास्तव बताते हैं, ‘यह पुलिस के लिए बहुत ही शर्म की बात है. यह पूरी घटना हमारे सिपाहियों की मूक सहमति से हुई. पुलिस वैन की खिडकियों के शीशे तोड़ने और जालियों को काटने का नाटक भी सिर्फ हमें गुमराह करने के लिए किया गया था और डकैतों को फरार करने की योजना एक महीने पहले ही बंद जेल में बनाई जा चुकी थी. मैंने सभी आरोपी पुलिस अफसरों को निलंबित करके उन्हें जेल भेज दिया है. अब उन पर भी दस्यु अधिनियम के तहत धाराएं लगाई जाएंगी.’  

रहनुमाई या खुदनुमाई?

समाजवादी पार्टी में कभी नंबर दो की हैसियत रखने वाले आजम खान को हाशिए पर धकेलने की प्रक्रिया चल रही है और जामा मसजिद के इमाम अहमद बुखारी इस काम के लिए सबसे बड़े हथियार बन गए हैं. हिमांशु बाजपेयी की रिपोर्ट.

उत्तर प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी को इन दिनों एक रस्साकशी से दो-चार होना पड़ रहा है. इसमें एक तरफ पार्टी के मुसलिम चेहरे आजम खान हैं और दूसरी तरफ दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी.  खींचतान जिस तरह से हो रही है उससे साफ लगता है कि लड़ाई मुसलमानों के अधिकारों के लिए कम और निजी अधिकारों के लिए ज्यादा है. 

 आजम और बुखारी के बीच तकरार यूं तो बहुत पुरानी है लेकिन इस साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले यह नए सिरे से शुरू हो गई थी. जनवरी में इमाम बुखारी ने मुलायम सिंह के साथ मिलकर एक प्रेस कांफ्रेंस की और मुसलमानों से मुलायम का साथ देने की अपील की. बदले में सपा सुप्रीमो ने कहा कि सरकार बनी तो मुसलमानों को हर जगह समुचित प्रतिनिधित्व दिया जाएगा और इमाम साहब का मान रखा जाएगा. लेकिन इसके तुरंत बाद आजम खां ने रामपुर में बयान दे दिया कि बेहतर होगा बुखारी इमामत ही करें और सियासत हमें करने दें. 

इसके बाद ऐन चुनावी माहौल में बुखारी ने आजम पर यह कहकर निशाना साधा कि आजम की खुद रामपुर की एक सीट के बाहर कोई हैसियत नहीं है. वार आजम भी कर रहे थे, यह कहकर कि बुखारी के दामाद की हार तय है क्योंकि एक भी मुसलमान बुखारी की अपील पर वोट नहीं करता. बात सच निकली. तकरीबन सत्तर फीसदी मुसलमान वोटरों वाली सहारनपुर की बेहट सीट पर उमर बुखारी बुरी तरह से चुनाव हार गए. इसके फौरन बाद आजम ने बुखारी को दोबारा ललकारा कि इमाम साहब में दम है तो अपनी ससुराल मुरादाबाद से मेयर का चुनाव लड़ें और जीत कर दिखाएं. 

अप्रैल में राज्यसभा चुनाव के नामांकन शुरू हुए जिसमें सपा ने आजम खेमे के मुनव्वर सलीम को भेजा जबकि यह जगह इमाम बुखारी अपने भाई यहिया बुखारी के लिए चाहते थे. बुखारी इससे बेहद नाराज हुए, लेकिन मुलायम ने उनको सहयोग का आश्वासन देकर शांत कर दिया. आजम के सख्त एतराज के बावजूद बाद में विधानसभा चुनाव हारे हुए उनके दामाद को विधान परिषद भेज दिया गया. आजम उमर को एमएलसी बनाने के खिलाफ थे उन्होंने कहा कि इमाम साहब के मुताबिक मुसलमानों की सारी समस्याएं उनके रिश्तेदारों के पद पा जाने से ही सुलझ जाएंगी. इसके बाद बुखारी ने मुलायम सिंह को एक चिट्ठी लिखी जिसका मजमून यह था कि आजम खान मुसलमानों के दुश्मन हैं और अल्पसंख्यक मंत्रालय उनसे छीन लेना चाहिए. सूत्रों के मुताबिक बुखारी यह मंत्रालय आजम की जगह अपने दामाद उमर को दिलवाना चाहते हैं. 

पूरे मामले पर मुलायम सिंह और सपा के किसी भी नेता ने कोई और प्रतिक्रिया नहीं दी. आजम इस बात से नाराज थे कि पार्टी के बाहर का आदमी उन्हे गालियां दे रहा था और उनके बचाव में पार्टी का कोई भी व्यक्ति आगे नहीं आया. साफ था कि पार्टी में न होते हुए भी बुखारी का कद आजम से बड़ा होने लगा था. इसीलिए आजम का चिर-परिचित बेबाक स्वर धीमा पड़ रहा था. यह इशारा था कि अब उनकी हैसियत पिछले दौर वाली नहीं रही.  मई में बुखारी जब दोबारा लखनऊ आए तो एक बार फिर अपने करीबी वसीम खां को उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का अध्यक्ष बनवा कर लौटे. मीडिया ने खूब लिखा कि बुखारी अपनों को सरकार में एडजस्ट करवा रहे हैं. लेकिन इस मामले पर आजम ने कोई बयान नहीं दिया क्योंकि पार्टी के रवैये से नाखुश होने के बावजूद वे अब कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहते थे जिससे आगे उनके लिए मुश्किल खड़ी हो. आज भी स्थिति वैसी ही है. बुखारी के बारे मे सवाल पूछे जाने पर उन्होंने साफ कहा, ‘माफ कीजिए लेकिन बुखारी के न हक में कुछ कहूंगा न मुखालफत में.’ 

जगजाहिर है कि आजम खान सपा में बुखारी की हैसियत बढ़ने से नाखुश हैं. दरअसल आजम-बुखारी की लड़ाई शुरू होने के बाद सपा ने आजम को न सिर्फ अकेला छोड़ दिया है बल्कि उनकी नाज-बरदारी भी कम कर दी है. वहीं बुखारी की हर मांग पर  पार्टी अमल करती गई, इस तरह से पार्टी ने आजम को साफ संदेश दिया गया कि अखिलेश के निजाम में चीजें वैसी नहीं हैं जैसी नेताजी के समय हुआ करती थीं. 

वैसे आजम की उपेक्षा की शुरुआत विधानसभा चुनाव से पहले डीपी यादव  प्रकरण से ही हो गई थी जब आजम की घोषणा को खारिज करते हुए अखिलेश ने डीपी को पार्टी में दाखिला नहीं दिया. इसके बाद मंत्रालय बांटे जाते वक्त भी आजम खुश नहीं थे क्योंकि सपा नेतृत्व उन्हें स्पीकर बनाने पर आमादा था. इसके बाद मेरठ के प्रभारी पद से भी आजम को हटा दिया गया. हालांकि बाद में यह उन्हें वापस मिल गया. यही नहीं उनकी वह चिट्ठी भी पार्टी के लोगों ने लीक करवा दी जिसमें उन्होने इस्तीफे की पेशकश की थी. इसके अलावा आजम मुख्यमंत्री की तरफ से आयोजित इफ्तार पार्टी में भी शरीक नहीं हुए जबकि वे उस दिन लखनऊ में ही थे. इसके अलावा आजम ने पिछले दिनों नगर विकास विभाग की जो समीक्षा बैठक बुलाई उसमें अधिकारी पहुंचे ही नहीं. आजम ने गुस्से में यहां तक बयान दे डाला कि अनुशासनहीनता उन्हे बर्दाश्त नहीं लेकिन अफसोस कि वे कुछ कर नहीं सकते. साफ है कि आजम का कद पार्टी में पहले जैसा नहीं रहा. पर वे  इस मुद्दे पर खुल कर बोलने की स्थिति में भी नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘मेरी नाराजगी मीडिया की बनाई हुई है. मै इफ्तार पार्टी में क्यों नहीं गया इसकी निजी वजहें हो सकती हैं, इनका जिक्र मीडिया में करने के लिए मै बाध्य नहीं हूं. मीडिया को सिर्फ अपनी स्टोरी से मतलब होता है, वह सियासी मामलों की नजाकत और अपनी जिम्मेदारी नहीं समझती.’

हालांकि बुखारी आजम पर वार का कोई मौका नहीं चूक रहे. वे कहते हैं, ‘आजम खान का दिमाग खराब हो गया है. मै मान रहा हूं कि मैने कई पार्टियों का साथ दिया.  तब मुझे उनसे कौम की बेहतरी की उम्मीद थी. मै किसी पार्टी का सदस्य तो हूं नहीं जो पार्टी का पाबंद रहूं. उमर बुखारी के अलावा मेरा कोई रिश्तेदार पार्टी में नहीं है. इस बार सपा के साथ था इसलिए सरकार बनने के बाद लोग मेरे पास उम्मीद लेकर आते हैं.’

आजम खां सपा के संस्थापक सदस्य रहे हैं, आठ बार के विधायक हैं. पार्टी की हर सरकार में उनकी नंबर दो की हैसियत रही है. पार्टी के मुस्लिम चेहरे रहे हैं. उधर, इमाम बुखारी को अवसरवादिता का प्रतीक कहा जाता रहा है. अतीत में बसपा, कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा जैसी पार्टियों से  भी जुड़ चुके हैं. यह बात भी साबित हो चुकी है कि उनके धार्मिक अनुयायी चाहें जितने हों लेकिन राजनैतिक जनाधार बिल्कुल नहीं है. तो फिर क्या वजह है कि सपा को वे आजम खान से ज्यादा मुफीद लग रहे हैं? इसका जवाब वरिष्ठ उर्दू पत्रकार हसन कमाल देते हैं, ‘बुखारी राजनैतिक रूप से आजम खान के सामने कहीं नहीं ठहरते. लेकिन एक राजनीति पार्टी के अंदर भी चल रही है.

उसके लिए अपने आजम की बजाय बाहरी बुखारी एकदम मुफीद हैं. मुलायम सिंह, अखिलेश के भविष्य की राह अपने सक्रिय रहते ही एकदम साफ कर देना चाहते हैं, जिसमें प्रभुत्व की राजनीति करने वाले आजम सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो सकते हैं. साथ ही मुलायम मुसलमान वोटों के लिए लंबे समय तक आजम पर निर्भर नहीं रहना चाहते. इसलिए वे आजम पर नकेल रखना चाहते हैं. वे जानते हैं कि बुखारी को साथ लाने से उनकी मुस्लिम छवि भी बनी रहेगी और आजम को भी एक असुरक्षा बनी रहेगी.’ इसके बाद हसन कमाल व्एक और बेहद अहम बात कहते हैं, ‘उलेमा को साथ लाना पार्टी की अंदरूनी राजनीति में तो फायदेमंद साबित हो सकता है लेकिन चुनाव में इसका कोई फायदा पार्टी को नहीं मिलता. और जिस मुसलिम समुदाय की बेहतरी के नाम पर यह सब किया जाता है उसे तो इससे फकत नुकसान ही हासिल होता है.’