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संथानम समिति

लाल बहादुर शास्त्री द्वारा गठित समिति जिसकी सिफारिशों के आधार पर केंद्रीय सतर्कता आयोग का गठन हुआ

भारत में आजादी के तुरंत बाद 1948 में भ्रष्टाचार के मामलों की शुरुआत सेना के जीप खरीद घोटाले से हुई तो सरकारी स्तर पर इसे रोकने की कोशिशें भी शुरू हुईं. इस कड़ी में भ्रष्टाचार निरोधक कानून-1947 की समीक्षा के लिए बख्शी टेकचंद समिति के गठन को पहली कोशिश माना जा सकता है. इसके बाद 1950 में गोरवाला समिति का गठन हुआ जिसने पाया कि भारत में मंत्री और सांसद-विधायक भारी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं.

हालांकि ऐसी समितियों और उनकी सिफारिशों के बावजूद भारत में भ्रष्टाचार की गति कभी थमी नहीं. 1957 का मूंदड़ा घोटाला भ्रष्टाचार का ऐसा बड़ा मामला था जिसमें केंद्रीय मंत्री शामिल पाए गए थे. इस मामले में तत्कालीन वित्तमंत्री टीटी कृष्णमचारी को इस्तीफा तक देना पड़ा. इन परिस्थितियों में तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भ्रष्टाचार रोकने के तात्कालिक तंत्र की समीक्षा और सुझाव के लिए तमिलनाडु के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के संथानम (ऊपर तस्वीर में) की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया. 1962 में गठित इस समिति की सिफारिशों के आधार पर ही प्रथम और द्वितीय श्रेणी के सरकारी अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए 1964 में केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) की स्थापना हुई.

पहली बार लोकपाल नामक संस्था का विचार भी संथानम की रिपोर्ट से  ही निकला हुआ माना जाता है. अपनी सिफारिशों में संथानम समिति ने कहा था कि भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए जो सर्वोच्च संस्था बनाई जाए वहां तक आम आदमी की पहुंच होनी चाहिए ताकि वह उसके समक्ष अपनी शिकायतें दर्ज करवा सके. संसद ने उस वक्त यह माना था कि इस शक्ति के आते ही संबंधित संस्था काम के बोझ से दब जाएगी और अप्रभावी होने लगेगी,  इसलिए आम नागरिकों के लिए अलग से संस्था गठित करने की आवश्यकता महसूस की गई. यह मूल रूप से लोकपाल के गठन का बीज विचार था.

-पवन वर्मा

अगर हो ही गया होता तो क्या होता

रविवार की दोपहर थी. मैं रसोई में थी. पति ने खबर दी कि संगीतकार खय्याम नहीं रहे. वे नब्बे वर्ष के होकर चल बसे. सुनकर मैं उदास हो गई. कुछ साल पहले वे एक कार्यक्रम में जोधपुर आए थे. तब मैं उनके कार्यक्रम में थी. उनसे साक्षात्कार किया था. कई फोटो लिए थे. 

शाम को मैं शहर में हुए एक साहित्यिक आयोजन में चली गई. लौटी तो पति ने फिर याद दिलाया कि तुमने खय्याम जी से बात की थी, क्यों नहीं वह बातचीत  किसी पत्रिका को भेज देती. मैंने पत्रिका में काम कर रहे अपने पत्रकार मित्र को फोन किया और बाद में खय्याम से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश और दो फोटो मेल कर दिए. थोड़ी देर बाद ही पत्रिका से फोन आया कि आपने कैसे और कहां से जाना कि  खय्याम नहीं रहे.  हमारे अखबार में तो कहीं से भी खय्याम की ऐसी कोई खबर नहीं आई है. मैंने कहा मुझे मेरे पति ने बताया है. आप उनसे बात करिए. मैंने फोन उन्हें पकड़ा दिया. वे कहते रहे कि उन्होंने यह खबर टीवी पर देखी है.

‘सुबह खबर आती खय्याम नहीं रहे. उनके साथ मेरा फोटो होता. लोग मुझ पर हंसते और कहते बहुत चाव है छपने का’

मैं समझ गई कि जरूर कहीं कुछ गड़बड़ हो गई है. मैंने टीवी ऑन किया. लगातार एक घंटे तक देखती रही पर खय्याम से जुड़ी कोई भी खबर नजर नहीं आई. मुंबई में रह रहे अपने भतीजे को फोन किया. उसे भी इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी. बात साफ हो चुकी थी कि खबर सच नहीं थी. पति ने शायद खय्याम पर कोई कार्यक्रम देखा था और आइडिया लगा लिया कि खय्याम नहीं रहे. वे बता रहे थे कि कार्यक्रम में बार बार उनके लिए ‘थे’ बोला जा रहा था. तो जो बीत गया उसकी बात तो ‘थे’  से ही की जाएगी न. भूतकाल में ही होगी. उनके तर्कों से अब हालत मेरी खराब थी. मैंने अखबार के दफ्तर फोन करके कहा कि लगता है खबर गलत है. वहां से जवाब था कि हां गलत ही है. हम कब से टीवी न्यूज देख रहे हैं. न कोई खबर न कोई पट्टी न कुछ और. अगर ऐसा कुछ होता तो चैनलों पर न्यूज बार-बार दिखाई जाती. यह बड़ी खबर है उनके लिए.

बाद में पत्रकार मित्र ने कहा जब तक आंखों से देख न लो कानों से सुन न लो तब तक खबर पर भरोसा मत करो. उसने सवाल किया, ’अगर यह खबर छप जाती तो?’ पत्रिका के संपादक की समझदारी की वजह से यह खबर नहीं छपी. छप  जाती तो… सुबह खबर आती खय्याम नहीं रहे. उनके साथ मेरा फोटो होता. लोग मुझ पर हंसते और कहते बहुत चाव है छपने का. छपने के लिए किसी को मरने के पहले ही मार दिया आपने. पत्रिका की साख पर बट्टा लगता सो अलग. बेटी कह रही है आपको ऐसी खबरें कन्फर्म करनी चाहिए. ऐसी गलती कैसे हो गई आपसे. 

सुनी-सुनाई बातों पर भरोसा करने का नतीजा भुगत रही हूं. रात भर नींद नहीं आई. करवटें बदल रही हूं. जो होते-होते रह गया, उसको लेकर बेचैन हूं कि अगर हो ही गया होता तो क्या होता. मैं अपनी बेवकूफी और मूर्खता को यह सोचकर भुलाने की कोशिश कर रही हूं कि अब खय्याम जी की उम्र लंबी ही होगी. मां कहा करती हैं कि किसी की मृत्यु की झूठी खबर उड़े तो समझो कि उसकी उम्र बढ़ गई है.

हमारा बनाम उनका आंदोलन

मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में आंदोलनों को लेकर पक्षपाती रवैया हावी है

ऐसे समय में जब देश आजीविका, हक-हुकूक और राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक बदलाव के छोटे-बड़े हजारों जन आंदोलनों (मिलियन म्यूटनीज) के बीच से गुजर रहा है, मुख्यधारा के न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की इस बात के लिए बहुत आलोचना हो रही है कि वे शहरी और मध्यवर्गीय सरोकारों से जुड़े मुद्दों और उन पर आधारित आंदोलनों (उदाहरण के लिए हालिया भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन) को बहुत ज्यादा कवरेज देते हैं. वहीं दूसरी ओर, ग्रामीण गरीबों, आदिवासियों, श्रमिकों, किसानों, विकास योजनाओं के विस्थापितों के मुद्दों और आंदोलनों खासकर रैडिकल जन आंदोलनों को अक्सर अनदेखा करते हैं या कई बार जब अनदेखा करना मुश्किल हो जाए तो मजबूरी में आधे-अधूरे मन से चलते-चलाते थोड़ा-मोड़ा कवरेज दे देते हैं.  यही नहीं, कई मामलों में मुख्यधारा का न्यूज मीडिया इन आंदोलनों को हिंसक, अलोकतांत्रिक, विकास विरोधी या नक्सली/माओवादी संगठनों द्वारा संचालित या विदेशी एजेंसियों की साजिश बताकर उनके खलनायकीकरण में भी जुट जाते हैं.

निश्चय ही, इससे सत्ता के लिए इन्हें कुचलना आसान हो जाता है. यहां तक कि इन आंदोलनों को दबाने की कोशिश में होने वाले मानवाधिकार हनन के मामलों को भी न्यूज मीडिया अनदेखा करता है. हालांकि रैडिकल खासकर अति वाम नेतृत्व वाले जन आंदोलनों के प्रति उसका यह रवैया नया नहीं है. बड़ी पूंजी से संचालित कॉरपोरेट न्यूज मीडिया का इन जन आंदोलनों के प्रति यह रवैया स्वाभाविक तौर पर उनके वर्गीय हितों और विचारों से प्रेरित है. लेकिन ऐसा लगता है कि जन आंदोलनों के प्रति उसकी इस वैचारिक चिढ़ और उपेक्षा भाव का शिकार वे शांतिपूर्ण-लोकतांत्रिक और गैरपार्टी आंदोलन भी होने लगे हैं जो मौजूदा नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और उस पर आधारित विकास के मौजूदा मॉडल को चुनौती दे रहे हैं. 

अन्यथा क्या कारण है कि भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन को 24×7 और लगातार दसियों दिनों तक व्यापक कवरेज और एक तरह का खुला नैतिक समर्थन देने वाले न्यूज मीडिया ने मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में ओंकारेश्वर बांध की ऊंचाई कम करने जैसी कई मांगों को लेकर नर्मदा नदी में गर्दन तक पानी में खड़े होकर जल सत्याग्रह कर रहे पचासों महिलाओं और पुरुषों की तब तक कोई सुध नहीं ली, जब तक उनके हाथ-पैर गलने नहीं लगे और सोशल मीडिया से लेकर दूसरे मंचों पर विरोध के सुर तेज होने लगे? अगर मध्य प्रदेश और केंद्र सरकार 16 दिन तक सोई रही तो राष्ट्रीय न्यूज मीडिया भी शुरुआती 12-14 दिन तक सोया रहा. अगर उसने इस आंदोलन को शुरू से कवरेज दी होती तो उन महिलाओं को शायद 17 दिन तक पानी में खड़ा नहीं रहना पड़ता.   

कॉरपोरेट न्यूज मीडिया का यह रवैया पिछले कई महीनों से तमिलनाडु के कुडनकुलम में परमाणु बिजलीघर लगाने के विरोध में चल रहे शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक जन आंदोलन के प्रति भी देखा जा सकता है. सरकार के साथ-साथ न्यूज मीडिया का बड़ा हिस्सा भी इस आंदोलन को विकास विरोधी और विदेशी ताकतों की साजिश साबित करने में जुटा है. लेकिन मुद्दा सिर्फ नर्मदा बचाओ और कुडनकुलम आंदोलन नहीं हैं. सच यह है कि देश भर में विकास के मौजूदा मॉडल के खिलाफ जल-जंगल-जमीन और अपनी आजीविका बचाने के लिए जारी सैकड़ों आंदोलनों के प्रति कॉरपोरेट न्यूज मीडिया का कमोबेश यही रवैया है. सवाल यह है कि जन आंदोलनों के प्रति कॉरपोरेट न्यूज मीडिया का यह रवैया भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बना रहा है या कमजोर?

बेबसी और क्षोभ की नर्मदा

अगर नर्मदा के किनारे बसे लोग नहीं उजड़ेंगे तो दिल्ली और मुंबई की इमारतें बनाने वाले सस्ते मजदूर कहां से आएंगे?

दिल्ली के जंतर-मंतर पर सिविल सोसाइटी का आंदोलन देखकर द्रवित हो जाने वाले लोगों को खंडवा में गले भर पानी में डूब कर आंदोलन कर रहे कार्यकर्ताओं को देखना चाहिए था. पूरे 17 दिन यह आंदोलन चलता रहा और इसके लिए कई गांवों से जुटे आंदोलनकारी अपने अंग गलाते रहे. 17 दिन बाद सरकार ने घुटने टेके और आंदोलनकारियों को भरोसा दिलाया कि उनकी मांगें सुनी जाएंगी. हालांकि जिस मोटी भाषा में यह आश्वासन दिया गया है, उसमें आगे अगर-मगर का अंदेशा बना हुआ है, पर फिलहाल इतनी भर आश्वस्ति जरूर है कि सरकार तत्काल इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर जलाशयों का जल स्तर बढ़ाने से बचेगी. अब तक कई गांवों को डुबो चुके और हजारों लोगों को पहले ही विस्थापित कर चुके इन जलाशयों से कई और गांवों के डूबने का खतरा बताया जा रहा था. 

लेकिन यह इस आंदोलन का एक पहलू है, दूसरा और ज्यादा अहम पहलू पुनर्वास के उस मुद्दे से जुड़ा है जिसकी सरकार उपेक्षा करती रही है. सुप्रीम कोर्ट के बहुत सख्त निर्देशों के बावजूद पहले से विस्थापित लोगों के पुनर्वास का दायित्व, उन्हें कायदे की जमीन देने का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है. सच तो यह है कि अब इस आंदोलन की कहानी लिखते हुए तकलीफ भी होती है और भारतीय राष्ट्र राज्य की अन्यमनस्कता से डर भी लगता है. 80 के दशक में जब यह आंदोलन शुरू हुआ था तब लगता था कि इसके दबाव में नर्मदा को बांधने और काटने-छांटने चली सरकारों के पांव कुछ कांपेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. तब कम लोगों को मालूम था कि अमरकंटक से निकल कर सतपुड़ा और विंध्य से जंगलों से गुजरती हुई, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र पार कर गुजरात के अरब सागर में गिरने वाली करीब 1,300 किलोमीटर लंबी इस नदी पर छोटे-बड़े 3,000 बांध बनेंगे. अगर यह पूरी हो पाई तो दुनिया की सबसे विराट नदी-घाटी परियोजना होगी जो पता नहीं कितनी बिजली पैदा करेगी और कितने कंठों की प्यास बुझा पाएगी, क्योंकि हमारी नदी घाटी परियोजनाओं के लक्ष्य आम तौर पर अधूरे नहीं, चौथाई भी पूरे नहीं होते रहे हैं. ताजा मिसाल टिहरी बांध परियोजना है जहां 2,500 मेगावाट बिजली पैदा करने का दावा 600 मेगावाट बिजली उत्पादन से आगे नहीं बढ़ पाया है, जबकि पुरानी टिहरी डुबो कर एक नई टिहरी खड़ी कर दी गई है. 

                   

बहरहाल, नर्मदा घाटी जैसी विराट परियोजना से विस्थापित होने वाले लोगों की तादाद कम से कम एक करोड़ होगी जिसका मार्मिक और दारुण सिलसिला कई साल पहले से शुरू हो चुका है. इतनी विराट परियोजना हमारे पर्यावरण को जिस तरह तहस-नहस करेगी, इसकी कल्पना और मुश्किल है. ये सारे तर्क आज के नहीं, बहुत पुराने हैं. इससे जुड़ी लड़ाई भी बहुत पुरानी है. लेकिन सरकारें जैसे कुछ भी देखने-सुनने को तैयार नहीं हैं. आंदोलन चलता रहा, थकता रहा, फिर खड़ा होता रहा, सरकारों के दमन और उत्पीड़न झेलता रहा, हताश भी हुआ, मेधा पाटकर मणिबेली में जलसमाधि के लिए भी उतरीं, गुजरात ने उनके बाल खींचे, दिल्ली ने उन्हें 20 दिन भूखा रखा- इस सिलसिले को न जाने कितने साल हो गए. दूसरी तरफ बांध बनते रहे, बड़े होते रहे, गांव डूबते रहे, लोग बेदखल होते रहे. डूबने वाले गांवों और कस्बों की कहानी कुछ दिन खबरों में डूबती-उतराती रही और फिर नर्मदा की धारा के साथ बह गई. विस्थापितों को उचित मुआवजा और पुनर्वास के लिए जगह देने का अदालती फैसला और सरकारी वादा झूठ और फरेब की फाइलों में गुमा हुआ है और सारी सरकारें देसी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों के लिए सेज बना-सजा रही हैं. 

इतनी चोटों के बावजूद नर्मदा आंदोलन इसलिए बचा हुआ है कि वह बहुत सारे लोगों के लिए बिल्कुल जीने और मरने का मामला है. खंडवा के घोगलगांव में जो लोग गंदे पानी में गले भर डूब कर इस अंधी-बहरी व्यवस्था को आवाज देने की कोशिश करते रहे, उन्हें पता था कि उनके सामने और कोई रास्ता नहीं बचा है. इस आंदोलन को मीडिया में जो आवाज मिली, शायद उसका कुछ असर रहा कि फिलहाल मध्य प्रदेश सरकार ने इनकी मांगें मान लीं, क्योंकि वह किसी भी सूरत में यह संदेश जाने नहीं दे सकती थी कि वह एक हत्यारी सरकार है जिसने अपने लोगों को गले भर पानी में डुबो कर मार डाला, लेकिन सच्चाई यही है कि इन उजड़े हुए, बेदखल हो रहे लोगों के सामने ऐसी विकल्पहीनता बढ़ती जा रही है. सिर्फ नर्मदा की घाटी नहीं, जैसे पूरा देश करोड़ों बेदखल और बेसहारा लोगों के लिए ऐसी अंधी गली में बदलता जा रहा है जहां आत्मघाती रास्ते अंतिम रास्तों की तरह बचे हुए हैं. 

क्या दिल्ली को इस बेबस और बेदखल आबादी के बारे में कुछ मालूम नहीं है? क्या यह सिर्फ केंद्र और हाशियों के बीच की दूरी का मामला है जिसकी वजह से इस आंदोलन की आवाज सत्ता के कंगूरों तक नहीं पहुंचती या देर से पहुंचती है?  दरअसल नर्मदा घाटी ही नहीं, दूसरी तमाम ऐसी बड़ी योजनाओं में बेदखल और विस्थापित होने वाली 90 फीसदी आबादी उन आदिवासियों और दलितों से बनती है जो बाकी हिंदुस्तान के लिए- नए बनते इक्कीसवीं सदी के सुपरपावर इंडिया के लिए- औपनिवेशिक प्रजा का काम करते हैं. अगर नर्मदा के किनारे बसे लोग नहीं उजड़ेंगे तो दिल्ली और मुंबई की इमारतें बनाने वाले सस्ते मजदूर कहां से आएंगे, कौन यहां की सड़कों पर रिक्शा खींचेगा या महानगरों का कूड़ा उठाएगा? यानी यह नादानी नहीं चालाकी है जो इतनी बड़ी आबादी के विस्थापन को लेकर बरती जा रही खामोशी में निहित है. कभी-कभी गले तक पानी में डूबे लोग इस चालाक व्यवस्था को कुछ देर के लिए डरा देते हैं, लेकिन वादों का खेल खेलने में सरकारें कहीं ज्यादा माहिर हैं. इसके बावजूद खंडवा की कामयाबी नर्मदा बचाओ आंदोलन के बचे-खुचे वजूद के लिए उम्मीद और ताकत दोनों जुटाती है.

एक आंदोलन का पुनरुद्धार!

क्या जल सत्याग्रह की सफलता पिछले 26 साल से चल रहे नर्मदा बचाओ आंदोलन में नई जान फूंक पाएगी? शिरीष खरे की रिपोर्ट.

पिछले दिनों जल सत्याग्रह के चलते मध्य प्रदेश के खंडवा जिले का घोघलगांव सुर्खियों में आया और उसी के साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन भी. नर्मदा घाटी में जल सत्याग्रह का तरीका नया नहीं है. 1991 में मणिबेली (महाराष्ट्र) का सत्याग्रह जल समाधि की घोषणा के साथ ही चर्चा में आया था. तब से कई जल सत्याग्रह हुए. लेकिन इस बार का जल सत्याग्रह अपनी लंबी समयावधि और मीडिया में मिली चर्चा की वजह से बहुत अलग रहा. इस मायने में भी यह खास था कि राज्य के साथ-साथ केंद्र सरकार तक को तुरंत इस मसले पर हरकत में आना पड़ा. केंद्रीय ऊर्जा मंत्री वीरप्पा मोइली ने जहां ऊर्जा मंत्रालय से एक जांच दल प्रदर्शन स्थल पर भेजा तो वहीं राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के निर्देश पर दो मंत्रियों को भी हेलीकॉप्टर से उड़कर घोघल गांव उतरना पड़ा. इन मंत्रियों ने लोगों से पानी से बाहर निकलने की गुहार लगाई लेकिन बात नहीं बनी. और आखिरकार प्रदेश की भाजपा सरकार को ओंकारेश्वर बांध का जल स्तर कम करने के साथ ही जमीन के बदले जमीन की मांग मानने के लिए राजी होना पड़ा.

पिछले कुछ महीनों के दौरान देश में अन्ना आंदोलन से लेकर परमाणु संयंत्र विरोध और जमीन अधिग्रहण जैसे मसलों पर तमाम आंदोलन हुए लेकिन जैसी कामयाबी जल सत्याग्रह के हिस्से में आई वैसा उदाहरण कोई दूसरा देखने को नहीं मिला. ऐसे में यह सवाल सहज ही उठ रहा है कि क्या इस जल सत्याग्रह ने कई दिनों से सुसुप्त-से दिख रहे अपने मातृआंदोलन- नर्मदा बचाओ आंदोलन में नई जान डाल दी है.  यदि आंदोलन की पृष्ठभूमि में जाएं तो जल सत्याग्रह इसका अहम पड़ाव है. बीते कुछ सालों में ऐसे कई मौके आए जब हाई कोर्ट (2008) और सुप्रीम कोर्ट (2011) ने आंदोलन का पक्ष लेते हुए राज्य सरकार को जमीन के बदले जमीन देने के आदेश जारी किए. पर बीते साल आंदोलन को तब बड़ा झटका लगा जब सुप्रीम कोर्ट ने उसे वे झूठे शपथ-पत्र पेश करने पर कड़ी फटकार लगाई जिनमें आंदोलनकारियों ने राज्य सरकार पर गलत तरीके से विस्थापितों की 284 हेक्टेयर जमीन हथियाने की बात कही थी. कोर्ट के इस रवैये से आंदोलन की साख पर कई सवाल खड़े हुए थे. इसके बाद से आंदोलन ने ऐसा कोई प्रदर्शन नहीं किया जो इसकी प्रासंगिकता साबित करे. ऐसे में इस साल हुई भारी बारिश के बाद सिंचाई तथा बिजली की पर्याप्त व्यवस्था करने के नाम पर जब राज्य सरकार ने ओंकारेश्वर बांध में निर्धारित 189 मीटर से अधिक पानी भरना शुरू कर दिया तो डूब का क्षेत्र बढ़ गया. घोघल सहित कई गांवों में पानी घुस गया. लिहाजा 25 अगस्त को यहां पचास से अधिक लोगों ने जल में खड़े होकर सत्याग्रह का एलान कर दिया. 

दरअसल सरकार पर सत्याग्रह की चोट चुनावी साल शुरू होने के ठीक पहले की गई.

ऐसे समय जल सत्याग्रह में शामिल स्थानीय लोगों के प्रति भाजपा और कांग्रेस के बीच सहानुभूति दिखाने की होड़ ने आंदोलन का रास्ता आसान बना दिया. उल्लेखनीय है कि जिन सुभाष यादव ने सांसद रहते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से बांध की नींव रखवाई और उसकी नहरों से अपनी राजनीतिक फसल तैयार की थी, उन्हीं की विरासत संभाल रहे उनके पुत्र अरुण यादव जब बांध विरोधी आंदोलनकारियों के साथ पानी में खड़े दिखे तो शिवराज सिंह को अपनी संवेदनशील छवि बनाए रखने के लिए आंदोलन के पक्ष में जाना पड़ा. जानकारों का एक बड़ा तबका इस सत्याग्रह की सफलता को विशेष परिस्थितियों से जोड़कर देख रहा है. इस वर्ग का मानना है कि अगर मध्य प्रदेश में नर्मदा बचाओ आंदोलन प्रभावित लोगों की मांगों और बाकी जनता की जरूरतों के बीच संतुलन के साथ आगे नहीं बढ़ता है तो यह कमजोर बना रहेगा. वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई इस बारे में तर्क देते हैं.’ जैसे ही आंदोलन को लेकर यह संदेश जाएगा कि यह बिजली और सिंचाई रोक रहा है तो इसे व्यापक समर्थन मिलना बंद हो जाएगा.’ 

जल सत्याग्रह के आगे सरकार के झुकने की एक और बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में राज्य की व्यावसायिक नगरी इंदौर में ग्लोबल इन्वेस्टर मीट का आयोजन होना है. इस मीट में सरकार को करोड़ों रुपये का निवेश आने की संभावना दिख रही है. इस दौरान उद्योग लगाने के नाम पर कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों को औने-पौने दाम पर लाखों हेक्टेयर जमीन देने का प्रावधान है. मीडिया और आम लोगों के बीच काफी समय से इस बारे में चर्चा चल रही है. ऐसे में यदि प्रदेश के लोगों को अपनी ही जमीन बचाए रखने के लिए जान की बाजी लगानी पड़े तो उनके प्रति लोगों की सहानुभूति उमड़नी ही थी. इसी का लाभ जल सत्याग्रह को मिला. सरकार के सामने इन्वेस्टर्स मीट को विवादों से बाहर रखना एक बड़ी प्राथमिकता थी इसलिए उसने आंदोलनकारियों की मांग मानने में ही अपनी भलाई समझी. आंदोलन की नेता चित्तरूपा पालित कहती भी हैं, ‘यदि सरकार ने प्रभावितों को जमीन देने की बजाय धोखा दिया तो हम कंपनियों को सरकार की असलियत बताएंगे.’ 

हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब सरकार इन्वेस्टर मीट के बाद कंपनियों को जमीन बांटेगी. लेकिन पिछले दिनों ऐसे उदाहरण देखने को नहीं मिले जब आंदोलनकारियों ने कंपनियों को जमीन देने के मसले पर व्यापक प्रदर्शन किए हों और उनकी गूंज राष्ट्रीय स्तर तक सुनाई दी हो. ऐसे में कुछ महीनों बाद राज्य सरकार के रवैये में आए बदलाव और उसके विरोध में आंदोलनकारियों की प्रतिक्रिया का अंदाज लगाना काफी मुश्किल है. फिर भी इस आंदोलन की सफलता एक अहिंसक लोकतांत्रिक हथियार के रूप में साबित हुई है. इससे सहमति जताते हुए समाजवादी जन परिषद नेता सुनील कहते हैं, ‘जब कई आंदोलन हिंसा की तरफ बढ़ रहे हैं तो सरकार के सत्याग्रह के सामने झुकने से इस अहिंसक आंदोलन को ताकत जरूर मिलेगी.’ 

जड़ों से जुड़ने की कसरत

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को अपने पुराने सिपाहियों की याद आने लगी है. छह महीने पहले जाति से लेकर विकास तक तमाम तरकीबें आजमाने के बावजूद राहुल गांधी प्रदेश में पार्टी को पुनर्स्थापित नहीं कर सके. कांग्रेस का जाति और धर्म का टोटका प्रदेश में फ्लॉप रहा. पार्टी 28 सीटों पर सिमट कर रह गई. लगता है पार्टी ने उस हार से कुछ सबक लिए हैं. 2014 से पहले पार्टी की कमान ऐसे लोगों के हाथ में आ गई है जिनका पलड़ा सूबे में जातिगत आधार भले ही भारी न हो लेकिन वे लोग हैं खांटी कांग्रेसी परिवेश के. प्रदेश अध्यक्ष का पद उन कांग्रेसी निर्मल खत्री को सौंपा गया है जिन्हें पार्टी लंबे समय से भुलाए बैठी थी. इसी कड़ी में पार्टी ने विधानमंडल दल के नेता पद से प्रमोद तिवारी की विदाई करते हुए प्रदीप माथुर को जिम्मेदारी सौंपी है. 

विधानसभा चुनाव में सारे बड़े असलहों के फुस्स साबित होने के बाद अब लगता है कि कांग्रेस आलाकमान की उम्मीद पुराने कांग्रेसियों पर आ टिकी है. हार के बाद पार्टी की अंदरूनी समीक्षा रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ कि राज्य में पार्टी का संगठनात्मक ढांचा मृतप्राय हो चुका है. विधानमंडल दल के नेता प्रदीप माथुर भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जमीनी स्तर पर नेताओं की संख्या अधिक है कार्यकर्ताओं की कम. अब जमीन को मजबूत करने का समय है. अब तक कांग्रेस उत्तर प्रदेश में जातिगत आधार पर खेमों में बंटी थी. माथुर कहते हैं, ‘हमारा बैर न तो प्रमोद तिवारी से है, न ही रीता जी से. यही कारण है कि सोनिया व राहुल गांधी सहित पार्टी हाईकमान ने संगठन को लोकसभा चुनाव में मजबूत करने का फैसला लिया है. निर्मल खत्री को अध्यक्ष इसी रणनीति के तहत बनाया गया है.’ माथुर आगे कहते हैं, ‘अब पार्टी में कागजी नेताओं के स्थान पर संगठन से जुड़े लोगों को मौका दिया जाएगा.’ ऐसे ही एक पुराने कांग्रेसी नेता हैं बाराबंकी के शिवशंकर शुक्ला. उन्हें विधानसभा चुनावों से पूर्व बेनी प्रसाद वर्मा के प्रभाव में पार्टी से चलता कर दिया गया था. अब उन्हें फिर से पार्टी में वापस ले लिया गया है. यह बेनी के घटते रुतबे का भी संकेत है.

आंकड़े बताते हैं कि संगठनात्मक रूप से पार्टी कितनी कमजोर है. पार्टी में शहर व जिला अध्यक्षों की कुल संख्या 110 है. इनमें से 35 ब्राह्मण, 30 मुसलिम, 10 ठाकुर, चार कायस्थ और पांच वैश्य हैं. कुल मिलाकर 84 शहर व जिला अध्यक्ष सवर्ण हैं; मात्र 26 ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग के हैं. जबकि उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों का आंकड़ा 52 प्रतिशत के करीब है और 22 प्रतिशत एससी व एसटी हैं. इससे साफ है कि जातिगत आधार पर पार्टी संगठन में बड़ा ऊंच-नीच है. 74 प्रतिशत हिस्से वाले समाज को महज 15 प्रतिशत हिस्सेदारी दी गई. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘संगठन के स्तर पर इस तरह का खेल सालों से होता आ रहा है, ऐसे में पार्टी 74 प्रतिशत लोगों के बीच अपनी पैठ कैसे बना सकती है?’ इतना ही नहीं, संगठन में कई ऐसे दागी छवि वाले लोगों को भी स्थान दिया गया जिन पर आपराधिक मामले हैं. मसलन पूर्व अध्यक्ष रीता जोशी के समय पेशे से ट्रांसपोर्टर दलजीत सिंह को 51 सदस्यीय प्रदेश कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया जिसका चुनाव हाईकमान की ओर से किया जाता है. सिंह करोड़ों रुपये के खाद्यान्न घोटाले के आरोपित हैं और सीबीआई ने उनके यहां छापा भी मारा था.

सवाल उठता है कि आखिर 62 साल के निर्मल खत्री अचानक ही पार्टी की पहली पसंद कैसे बन गए. कांग्रेसी नेता सुरेंद्र राजपूत बताते हैं, ‘खत्री छात्र राजनीति से ही युवक कांग्रेस से जुड़े हैं.

सवाल उठता है कि आखिर 62 साल के निर्मल खत्री अचानक ही पार्टी की पहली पसंद कैसे बन गए. कांग्रेसी नेता सुरेंद्र राजपूत बताते हैं, ‘खत्री छात्र राजनीति से ही युवक कांग्रेस से जुड़े हैं. उनका किसी गुट या खेमे से भी कोई लेना-देना नहीं है. फैजाबाद संसदीय सीट से सांसद खत्री अपने शालीन व्यवहार के लिए भी आम कार्यकर्ता के बीच पहचाने जाते हैं. पार्टी में राजनीतिक उतार-चढ़ाव भले ही आए हों लेकिन खत्री ने कभी पार्टी नहीं छोड़ी.’ छात्र राजनीति से शुरुआत करने वाले खत्री की छवि अपने इलाके और पार्टी में साफ-सुथरे और शालीन व्यक्ति की रही है. पार्टी में तमाम राजनीतिक उतार-चढ़ाव उन्होंने देखे. किनारे भी कर दिए गए, लेकिन अवसरवादी उदाहरणों से भरी प्रदेश की राजनीति में उन्होंने इस तरह के हथकंडे कभी इस्तेमाल नहीं किए. राजपूत बताते हैं कि संगठन से जुड़े ऐसे तमाम पुराने लोग जो उपेक्षा और गुटबाजी के कारण पार्टी से बाहर हो गए थे, अब एक बार फिर से पार्टी को अपनी सेवाएं दे सकेंगे.

नेतृत्व परिवर्तन के अलावा पार्टी हाईकमान प्रदेश कांग्रेस को संगठनात्मक रूप से मजबूत करने के लिए कई अन्य बड़े बदलाव भी करने जा रही है. सूत्र बताते हैं कि पूरे प्रदेश को आठ जोनों में बांटा जा रहा है. पार्टी के सांसदों व मंत्रियों को एक-एक जोन की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी. एक जोन में 10 लोकसभा सीटों को शामिल किया जाएगा. प्रत्येक जोन के नेता को हाईकमान की ओर से इस बात की पूरी छूट होगी कि प्रदेश अध्यक्ष की सहमति से वह अपने यहां शहर व जिला अध्यक्षों की नियुक्ति कर सकता है. इन संकेतों से साफ है कि आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बड़े पैमाने पर संगठनात्मक फेरबदल करने का मन बना चुकी है. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘पिछले विधानसभा चुनाव के समय पार्टी ने जो गलती की थी उसे फिर से दोहराया नहीं जाएगा.’ साफ है कि उनका इशारा बाहर से आने वाले नेताओं को अधिक तवज्जो व सम्मान देने की तरफ है.

गांधी सदन में गबन!

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम पर महाराष्ट्र के वर्धा में 1997 में शुरू हुए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्रशासन पर कई आर्थिक अनियमितताओं के आरोप हैं. इन अनियमितताओं की बात भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (कैग) ने अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में की है. इस रिपोर्ट के पहले यहां के छात्र भी प्रशासन और खास तौर पर कुलपति विभूति नारायण राय पर आर्थिक और प्रशासनिक अनियमितताओं के आरोप लगाते रहे हैं.

कैग की इस ड्राफ्ट रिपोर्ट में राय के कार्यकाल के शुरुआती दो साल की ऑडिट शामिल है. बाकी के तीन साल की ऑडिट अभी होनी है. ड्राफ्ट रिपोर्ट की एक प्रति तहलका के पास है. इसमें जिन दो साल के खर्चों का लेखा-जोखा है उस अवधि में विश्वविद्यालय को कुल 70.55 करोड़ रुपये मिले थे. जिन बातों को लेकर कैग ने गंभीर आपत्ति जताई है, उनमें प्रमुख है विश्वविद्यालय द्वारा दिए जाने वाले ठेकों में बरती गई अनियमितताएं. राय पर आरोप है कि उन्होंने एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में होने वाले कार्यों को अनुचित तौर पर अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश की संस्थाओं को दे दिया. विभूति नारायण राय उत्तर प्रदेश कैडर के आईपीएस अधिकारी रह चुके हैं. 

भवन निर्माण के ठेके में अनियमितता के बाबत कैग टिप्पणी करता है, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से मिले पैसों में से करोड़ों रुपये निर्माण के मद में खर्च किए गए. निर्माण का ठेका किसी केंद्रीय एजेंसी को देने के बजाय यह काम उत्तर प्रदेश समाज कल्याण निर्माण निगम को दे दिया गया. इसके लिए भवन समिति, वित्त समिति, कार्यपरिषद, अनुदान समिति और विजिटर से कोई अनुमति नहीं ली गई. इससे साफ पता चलता है कि यह काम पक्षपातपूर्ण था और निगम को लाभ पहुंचाने के मकसद से किया गया था. ऑडिट के दौरान ऐसा कोई भी दस्तावेज पेश नहीं किया गया जिससे ऐसे कार्य के लिए निगम की पात्रता या पहले ऐसे काम करने के अनुभव का प्रमाण मिलता हो.’ 

विश्वविद्यालय सूत्रों का दावा है कि विभूति नारायण राय ने निगम को निर्माण कार्य के लिए तकरीबन 21 करोड़ रुपये का ठेका दिया है.

निर्माण कार्य का ठेका हासिल करने के लिए बीएसएनएल जैसी केंद्रीय एजेंसी ने भी आवेदन किया था. जब शुरुआत में सीपीडब्ल्यूडी से काम वापस लेकर निगम को देने की बात उठी तो राय ने यह सफाई दी थी कि खुद सीपीडब्ल्यूडी ने इस कार्य को लेकर अनिच्छा जताई थी. लेकिन जब कैग ने मामले की ऑडिट की तो उसे कोई भी ऐसा दस्तावेज विश्वविद्यालय प्रशासन ने मुहैया नहीं कराया जिससे पता चलता हो कि सीपीडब्ल्यूडी ने निर्माण कार्य को लेकर अनिच्छा जताई थी. 

महात्मा गांधी के नाम पर चल रहे इस विश्वविद्यालय में खुद गांधी की प्रतिमा का निर्माण कार्य भी अनियमितताओं के आरोपों से नहीं बच सका. इस कार्य के लिए जो निविदाएं आमंत्रित की गई थीं उनमें सबसे कम राशि में काम करने का प्रस्ताव देने वाले को ठेका न देकर दूसरी सबसे कम बोली लगाने वाले को ठेका दे दिया गया. राय पर आरोप है कि ठेका पाने की पात्रता रखने वाले को उन्होंने बेवजह दौड़ से बाहर करके धर्मेंद्र कुमार को बापू की प्रतिमा बनाने का काम दे दिया. धर्मेंद्र लखनऊ के कला एवं शिल्प महाविद्यालय से संबद्ध हैं. कुलपति पर यह आरोप भी है कि उन्होंने काम की गुणवत्ता का आखिरी प्रमाण पत्र हासिल किए बगैर धर्मेंद्र कुमार को नौ लाख रुपये भुगतान के आदेश दिए.

राय पर यह आरोप है कि उन्होंने दो विशेष कार्य अधिकारी (ओएसडी) राकेश श्रीवास्तव और नरेंद्र सिंह की नियुक्तियां बगैर कोई विज्ञापन प्रकाशित किए और सारे नियमों को ताक पर रखकर की हैं. इन दोनों नियुक्तियों की शिकायत जब मानव संसाधन विकास मंत्रालय और यूजीसी के पास पहुंची तो दोनों ने क्रमशः 29 सितंबर, 2009 और 13 अक्टूबर, 2009 को विश्वविद्यालय प्रशासन को पत्र लिखकर अपनी गलती सुधारने के लिए कहा . इसके बावजूद राकेश श्रीवास्तव अपने पद पर तीन साल तक रहे और नरेंद्र सिंह अब भी कार्यरत हैं. इन नियुक्तियों के बारे में कैग ने कहा है, ‘इन दोनों की नियुक्ति और इन्हें दिया गया वेतनमान विश्वविद्यालय के नियमों का उल्लंघन है. इन दोनों नियुक्तियों से संबंधित तथ्यों को देखने से यह लगता है कि ये नियुक्तियां कुछ खास लोगों को जगह देने और उन्हें गलत तरीके से लाभ पहुंचाने के मकसद से की गईं.’

कैग ने अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में यह भी कहा है कि इन अधिकारियों समेत अन्य कई अधिकारियों को वेतन देने के लिए राजीव गांधी फेलोशिप के फंड से 11.39 लाख रुपये का इस्तेमाल किया गया. सीएजी ने यह भी बताया है कि यूजीसी के नियमों का उल्लंघन करते हुए 2009-10 में 1.82 करोड़ रुपये गैर योजना व्यय कोष में डाले गए. राय पर आरोप है कि उन्होंने इस रकम का गलत इस्तेमाल किया. कैग ने यह भी कहा है कि ऑडिट में विश्वविद्यालय प्रशासन से उसे अपेक्षित सहयोग नहीं मिला और कई जरूरी दस्तावेज नहीं दिखाए गए. कैग ने यह भी कहा है कि विश्वविद्यालय ने कई आर्थिक निर्णयों में तय प्रक्रिया का पालन नहीं किया. इन आरोपों पर विभूति नारायण राय का पक्ष जानने के लिए जब तहलका ने उनसे संपर्क साधा तो उनका जवाब था, ‘मैंने कोई गड़बड़ी नहीं की. कैग की जिस रिपोर्ट की बात आप कर रहे हैं वह अभी शुरुआती है और उनकी टीम फिर से पांच-सात दिन में विश्वविद्यालय आने वाली है. अंतिम रिपोर्ट में ये आरोप नहीं टिकेंगे.’

बांस पर फांस

केंद्रीय पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के इसी अगस्त में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह को एक पत्र लिखने के बाद राज्य की एक प्रमुख वनोपज बांस के सामुदायिक अधिकार का मुद्दा एक बार फिर गरमा गया है. रमेश ने अपने पत्र में राज्य सरकार से कहा है कि हर सूरत में बांस खरीदने और बेचने का अधिकार ग्रामवासियों को मिलना ही चाहिए. 

दरअसल अनुसूचित जनजाति तथा अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों को मान्यता) अधिनियम-2006 में यह माना गया है कि बांस एक लघु वन उत्पाद है और इसका सामुदायिक अधिकार ग्राम सभा को दिया जाना जरूरी है. लेकिन छत्तीसगढ़ के वन महकमे ने केंद्र के इस कानून को ठेंगे पर ले रखा है. प्रदेश में वनोपज (व्यापार विनियमन) अधिनियम-1969 की धारा 22 ( क) के तहत ही बांस का कारोबार जारी है. यानी ग्रामीण और आदिवासी अपनी मर्जी से इसका कारोबार नहीं कर सकते. इसका नतीजा है कि बांस से दशकों तक रोजी-रोटी कमाने वाला राज्य का एक बड़ा तबका भारी दिक्कतों का सामना कर रहा है.  छत्तीसगढ़ में वनोपज पर जीविका चलाने वाले 12 हजार 123 गांव हैं. लेकिन वन महकमे ने महज 775 गांवों को सामुदायिक अधिकार दिए जाने की श्रेणी में शामिल कर रखा है. राज्य में  सरगुजा, जशपुर, कोरबा, धमतरी, कबीरधाम और महासमुंद ऐसे जिले हैं जहां के गांवों में रहने वाले ग्रामीणों को बांस के परिवहन के लिए छूट मिली हुई है, लेकिन हैरतअंगेज तथ्य यह है कि उक्त जिलों में बांस का बहुत कम उत्पादन होता है. 

छत्तीसगढ़ में वन के कुल क्षेत्रफल 59,772 वर्ग किलोमीटर में से 6,556 वर्ग किलोमीटर में बांस का उत्पादन होता है.

बस्तर क्षेत्र बांस के झुरमुटों की वजह से ही बस्तर कहलाता है. धुर नक्सल प्रभावित इलाकों में बांस के बेशुमार जंगलों से कन्नी काट लेने के बाद भी वन विभाग हर साल लगभग 60 हजार टन बांस की कटाई करता है. बांस उत्पादन का कामकाज देख रहे मुख्य वन संरक्षक आरके टमटा जानकारी देते हैं, ‘पिछले कुछ सालों के दौरान नक्सली गतिविधियों और सही ढंग से रोपण न होने की वजह से बांस का उत्पादन घटा है, फिर भी हम हर साल लगभग 25 हजार टन बांस पेपरमिलों को विक्रय करते हैं. इसके बाद जो कुछ बचता है वह ग्रामीणों को सस्ती दर पर दिया जाता है.’ छत्तीसगढ़ में वन विभाग ने दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली वस्तुओं का निर्माण करने वाले बंसोड़ों (बांस का काम करने वाला एक विशेष समुदाय) को 75 लाख एवं ग्रामीण किसानों को 45 लाख बांस मुहैया कराने का लक्ष्य निर्धारित किया है. इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए विभाग को हर साल  लगभग 120 लाख नग बांस की जरूरत होती ही है, लेकिन महज 60 हजार टन उत्पादन के चलते बांस न तो किसानों को मिल पा रहा है और न ही कारीगरों को. 

कानूनों के दांवपेंच में फंसे बस्तर के नारायणपुर, बीजापुर, भानुप्रतापपुर और सुकमा इलाकों के लोगों के साथ विडंबना यह है कि उनके यहां बांस का बढ़िया उत्पादन होता है लेकिन खुद उन्हें अपने उपयोग के लिए बांस नहीं मिल पा रहा है. ग्रामीणों का आरोप है कि वे दूर-दराज गांवों से बांस लेने के लिए बांस डिपो जाते हैं लेकिन डिपो प्रभारी यह कहकर लौटा देते हैं कि डिपो में बांस है ही नहीं. बलरामपुर जिले के वाड्रफनगर विकास खंड के कुछ गांवों में निवास करने वाले बंसोड़ परिवारों को तो बांस लेने के लिए आंदोलन का रास्ता भी अख्तियार करना पड़ा था. जल-जंगल और जमीन के मुद्दे पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता गौतम बंदोपाध्याय राजनांदगांव जिले से सटे महाराष्ट्र के गढ़चिरौली इलाके का हवाला देकर कहते हैं, ‘गढ़चिरौली इलाके के अधिकांश गांवों की तस्वीर सिर्फ इसलिए बदली क्योंकि वहां के लोगों को अन्य वनोपज के साथ-साथ बांस पर भी सामुदायिक अधिकार मिला. इससे लोगों को रोजगार मिला और उनकी आमदनी बढ़ गई. इसके विपरीत छत्तीसगढ़ के ग्रामीणों को यह अधिकार इसलिए नहीं मिल पा रहा है क्योंकि वन विभाग खुद एक बिचौलिये की भूमिका का निर्वाह कर रहा है.’ 

मुख्य वन संरक्षक आरके टमटा मानते हैं कि अभी गांवों को सामुदायिक अधिकार देने के संबंध में अड़चनें दूर नहीं हुई हैं. वे कहते हैं, ‘वन अधिकारों को मान्यता दिए जाने संबंधी अधिनियम में बांस को लघु वन उत्पाद तो मान लिया गया जबकि वन कानून में बांस अब भी लकड़ी की श्रेणी में ही शामिल है, इसलिए जब तक वन कानून में संशोधन नहीं हो जाता तब तक गांवों को सामुदायिक अधिकार देने की बात बेमानी है.’ हालांकि छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला टमटा की राय पर अपनी प्रतिक्रिया कुछ यूं व्यक्त करते हैं, ‘कानून के मकड़जाल में यह मामला सिर्फ इसलिए उलझाया गया है ताकि बांस की आड़ में जमीन के भीतर से मिलने वाले बहुमूल्य खनिजों के दोहन के लिए रास्ता साफ कर सकें.’ 

‘सरबजीत नहीं, दोषी तो मंजीत सिंह है. उसके खिलाफ सबूत भी हैं’

पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट में सरबजीत सिंह का केस लड़ रहे अवैस शेख न सिर्फ सरबजीत बल्कि पाकिस्तानी जेलों में कैद उन सैकड़ों भारतीय नागरिकों के लिए उम्मीद का दूसरा नाम हैं जो सालों से वहां जेलों में सड़ रहे हैं. इन लोगों का केस लड़ने के लिए वहां कोई वकील सिर्फ इसलिए तैयार नहीं होता क्योंकि वे भारतीय हैं और ऐसे में उनपर यह आरोप लग जाएगा कि वे ‘दुश्मन’ देश के एजेंट हैं. इस तरह ज्यादातर भारतीय कैदियों का केस एक सशक्त बचाव पक्ष के वकील के अभाव में उसी जगह पहुंचता जहां आज सरबजीत का केस पहुंचा है. यानी फांसी की सजा तक. भारत- पाकिस्तान शांति पहल संगठन के अध्यक्ष अवैस पिछले दिनों एक कार्यक्रम के सिलसिले में भारत आए थे. इस मौके पर बृजेश सिंह की उनसे सरबजीत और पाकिस्तान में भारतीय कैदियों समेत अन्य कई विषयों पर विस्तृत बातचीत हुई

सरबजीत के केस का अब क्या भविष्य है? 

सरबजीत का केस राजनीति का शिकार हो गया है. पहले उसकी रिहाई की घोषणा की गई फिर ये फैसला बदल दिया गया. सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि एक व्यक्ति को ऐसे जुर्म की सजा दी जा रही है जो उसने किया ही नहीं. जिस सरबजीत को कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई है उसका नाम तक एफआईआर में नहीं है. एफआईआर में मंजीत सिंह का नाम है. यह मिस्टेकेन आइडेंटिटी (गलत पहचान) का केस है. जिस मंजीत सिंह ने सब कुछ किया है, उसे इन्होंने भगा दिया  है. और कहा गया कि यही मंजीत सिंह है. इसी ने धमाके किए हैं. सरबजीत का दोष सिर्फ इतना ही है कि वह शराब के नशे में बॉर्डर क्रॉस कर गया. और उसे हिरासत में ले लिया गया. 

लेकिन गिरफ्तार करने के बाद पाकिस्तान में बम धमाका करने का केस सरबजीत पर कैसे डाल दिया गया?

सरबजीत सिंह की गिरफ्तारी से एक दिन पहले पाकिस्तान में बम धमाके हुए थे. जांच एजेंसियों को कोई न कोई ऐसा आदमी चाहिए था जिस पर वे बम धमाका करने का दोष डाल सकें. जब सरबजीत गिरफ्तार हुआ तब इसी पर उन्होंने केस डाल दिया. इस केस में कोई ‘डायरेक्ट एविडेंस’ नहीं है. केवल एक ही गवाह था जो बाद में पलट गया. कोई ‘सब्सटैंशियल प्रूफ’ भी नहीं है. ना कोई मैटीरियल प्रोड्यूस किया गया. ज्यादातर पुलिस के ही गवाह हैं. 

मंजीत सिंह के बारे में आपके पास क्या जानकारी है?

भारत के पंजाब में जब खालिस्तान आंदोलन चल रहा था उस समय पाकिस्तान अपने यहां कट्टरपंथी सिखों का समर्थन कर रहा था. मंजीत सिंह उसी वक्त कई बार पाकिस्तान आया. वह पत्रकार बनकर वहां जाता था. मेरे पास इस बात के कई सबूत हैं. उसके अलग-अलग नामों वाले पासपोर्ट की कॉपियां मेरे पास हैं. उसने किसी इस्लामी मदरसे से एक सर्टिफिकेट बनवाया था कि वह मुसलमान हो गया है. आखिर में उसने पाकिस्तान आकर यहीं के एक सरकारी अधिकारी की बेटी से शादी की. उस शादी में उस वक्त के मुख्यमंत्री गुलाम हैदर वानी भी मौजूद थे. मेरे पास मंजीत की उनके साथ वाली फोटो है .

मैंने इस मसले पर लाहौर में प्रेस कॉन्फ्रेंस की और उससे जुड़े तमाम सबूत सामने रखे. लेकिन हमारे यहां प्रेस में ये छपता नहीं है. वहां पर मंजीत सिंह के बारे में बस इतना छपता है कि यह असल बंदा है जिसने धमाके किए थे. लेकिन वे कोई डॉक्यूमेंट नहीं दिखाते. इन सारे प्रमाणों के आधार पर सरबजीत को ‘बेनिफिट ऑफ डाउट’ तो दिया ही जा सकता है. 

जब यह पूरा केस ही गलत पहचान का है तो  पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने सरबजीत की फांसी की सजा को बरकरार क्यों रखा?  

इस मसले में हर स्तर पर कानून के साथ खिलवाड़ किया गया. पहली बार सरबजीत को वकील तब मिला जब उसका केस हाई कोर्ट में पहुंचा. जबकि हाई कोर्ट आने से पहले ही उसे फांसी की सजा सुनाई जा चुकी थी. हाई कोर्ट ने फांसी की सजा को बरकरार रखा. फिर केस सुप्रीम कोर्ट में चला गया. सुप्रीम कोर्ट ने भी लाहौर हाई कोर्ट के निर्णय को कायम रखा. जहां तक एफआईआर की बात है तो सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि सरबजीत सिंह ने चूंकि अपना जुर्म कबूल कर लिया है इसीलिए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका नाम एफआईआर में है या नहीं.

क्या सरबजीत ने उस पर लगे आरोपों को स्वीकार किया था ?

बिल्कुल नहीं. सरबजीत ने जो ‘कनफेशनल स्टेटमेंट अंडर 342 सीआरपीसी’ दिया है, उसके मुताबिक  वह किसी मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं हुआ. ना ही उसने कोई स्टेटमेंट दिया. ना ही पाकिस्तान में कोई बम धमाका किया है और ना ही वह रॉ का एजेंट है. 

आपसे पहले सरबजीत का केस कोई और वकील लड़ रहे थे. वे इस केस से अलग क्यों हो गए?

मुझसे पहले राना अब्दुल हमीद यह केस देख रहे थे. जब सुप्रीम कोर्ट में सरबजीत का मामला आया और कोर्ट ने यहां भी सरबजीत की फांसी की सजा बरकरार रखी तो उन्होंने एक रिव्यू पेटिशन फाइल की. कोर्ट ने उस पर नोटिस इश्यू किया. लेकिन हमीद कोर्ट में पेश नहीं हुए. उसके कुछ ही दिन बाद कोर्ट ने दूसरा नोटिस इश्यू किया. इस बार कोर्ट ने कहा कि अगर इस बार भी वकील कोर्ट में नहीं आया तो वह एक्स पार्टी (अनुपस्थित पक्ष को नजरअंदाज करते हुए) फैसला कर देगा. उस वक्त मैं इस मामले को काफी करीब से देख रहा था. मैं राना हमीद के पास गया और उनसे कहा कि इस बार कोर्ट में जरूर हाजिर हो जाना. उन्होंने मुझे इसका भरोसा भी दिलाया. लेकिन  हफ्तेभर बाद एक दिन सुबह अखबार पढ़ते हुए मुझे पता चला कि सरबजीत का वकील अदालत में हाजिर नहीं हुआ और, कोर्ट ने एकतरफा फैसला सुनाते हुए उसकी फांसी को ‘अपहेल्ड’ कर दिया. लेकिन यहां एक बड़ा सवाल कोर्ट को लेकर भी उठता है कि अगर दो नोटिसों पर वकील कोर्ट नहीं आया तो आप और कुछ नोटिस इश्यू करते. अगर फिर भी वकील नहीं आता तो आप सरकार से दूसरा वकील नियुक्त करने को कहते. फांसी के केस में एक्स पार्टी फैसला होता ही नहीं है. ये सबसे बड़ी नाइंसाफी है.

आखिर क्या वजह रही कि राना अब्दुल हमीद कोर्ट में पेश नहीं हुए ? 

दो ही चीजें हो सकती हैं. या तो उन्हें पैसा दिया गया था या उनके ऊपर किसी तरह का दबाव था. जो भी लेकिन उस वकील ने अपने पेश से गद्दारी की. उन्होंने पांच लाख फीस ली थी. यह पैसा कनाडा के सिखों ने सरबजीत का केस लड़ने के लिए उन्हें दिया था. आपके पास सरबजीत का केस कैसे आया. 2008 में मुंबई बम धमाके के बाद मैं अमृतसर आया हुआ था. उस समय दोनों देशों में तनाव चरम पर था. मैं अकेला पाकिस्तानी था जो यहां आया था. यहां अमृतसर में मैंने लोगों के साथ ‘पीस मार्च’ किया. उसी कार्यक्रम में सरबजीत की बहन और उसकी बेटी से पहली बार मेरी मुलाकात हुई. वे दोनों बहुत परेशान थीं. उन्होंने मुझसे सहायता करने के लिए कहा. मैं तो पहले से ही सरबजीत के केस को करीब से देख रहा था इसलिए जब उनकी बातें सुनीं तो मैं काफी तकलीफ से भर गया. फिर मैंने तय किया कि मैं सरबजीत का केस लडूंगा. 

आप सरबजीत के साथ और कई भारतीय कैदियों का केस लड़ रहे हैं. एक पाकिस्तानी, पाकिस्तान में रहते हुए जब भारतीय कैदियों का केस लड़ता है तो उसे किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?   

(हंसते हुए) इसकी तो बात ही मत कीजिए. आप खुद ही कल्पना कर सकते हैं कि मुझे क्या-क्या झेलना पड़ता होगा. लोग मुझे भारतीय एजेंट कहते हैं. जब पहली बार मैं सरबजीत से जेल में मुलाकात करके जैसे ही बाहर आया, गेट के बाहर मीडिया का हुजूम मेरा इंतजार कर रहा था. वे कह रहे थे कि भारत से पाकिस्तानियों की लाशें आ रही हैं और आप सरबजीत का केस लड़ रहे हैं. इन लोगों से मेरा कहना था कि मेरे लिए इस बात का कोई मतलब नहीं है कि सरबजीत भारत का है या पाकिस्तान का. यह मानवाधिकार का मामला है. मुझे उसे उठाने से कोई नहीं रोक सकता. इसके थोड़े समय बाद कुछ लोग मेरे ऑफिस आ गए. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं सरबजीत का केस छोड़ दूं या वे मेरा ऑफिस जला देंगे. जिस किराये के घर में मेरा ऑफिस था, उसके मालिक ने मुझसे तुरंत घर खाली करने के लिए कह दिया. अभी हाल में कुछ महीने पहले जैसे ही सरबजीत की रिहाई की खबर चारों तरफ आई, मेरे खिलाफ पाकिस्तान में प्रदर्शन होने लगा. एक तरफ जहां लोगों की मुबारकबाद मुझे मिल रही थी वहीं दूसरी तरफ मेरे अपने देश में लोग मुझे गालियां दे रहे थे. 

मेरे साथी वकील मुझसे बहुत नाराज रहते हैं. वे मुझसे कहते हैं कि उसे (सरबजीत) फांसी लग रही है तो लगने दो तुम्हें क्यों इतनी चिंता है. कुछ लोग मेरे काम की तारीफ भी करते हैं  लेकिन सबके सामने नहीं. यह सब कुछ होता रहता है लेकिन मुझे तो बस ऐसा लगता है कि मानो भारतीय कैदियों का केस लड़ने के लिए मुझे खुदा की तरफ से ‘अपॉइंट’ किया गया है. भारतीय कैदियों का केस लड़ने के कारण मुझे अपने देश में केस मिलना बंद हो गया है. 

आपके परिवारवाले आपके काम को किस तरह से देखते हैं?

घर में मेरी पत्नी, दो बेटे और एक बेटी हैं. वे सभी मेरे काम के सख्त खिलाफ हैं. मेरे बच्चे मुझे अपने फोन से फोन नहीं करने देते. मैं इंडिया में हूं तो वे वहां से इधर फोन नहीं करते. कहते हैं कि मेरा फोन तो सीआईडी वाले हर वक्त चेक करते रहते हैं. 

क्या कभी पाकिस्तान सरकार ने आपके ऊपर किसी तरह का दबाव बनाने की कोशिश की है?

सरकारों का सामने वाले तक अपनी बात पहुंचाने का बहुत ही अलग तरीका होता है. आपको अलग-अलग सोर्स से मैसेज मिलते रहते हैं. एक बार मेरे घर पर एक जीप आई. उसमें से दो लोग उतरे. उनके साथ उनके गनमैन भी थे. गाड़ी पर बत्ती लगी हुई थी. मैं दरवाजा खोलकर बाहर निकला. उन्होंने कहा कि हम आपको एक मैसेज देने आए हैं. आप इसे गौर से सुन लें नहीं तो आपका बड़ा नुकसान होगा. उनका कहना था कि मुझे इंडियन हाई कमीशन में आना-जाना बंद कर देना चाहिए. मैंने जवाब दिया कि मैं कुछ भारतीयों का केस लड़ रहा हूं ऐसे में उनसे बातचीत तो करनी होगी. इस पर वे भड़क गए और कहने लगे कि वहां आना-जाना बंद नहीं कर सकता तो कम कर दूं और यदि ऐसा नहीं किया तो मुझे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. 

‘मैंने पाकिस्तान में महेश भट्ट (फिल्मकार) और कुलदीप नैयर (पत्रकार) से कहा कि वे अपने भाषण में सरबजीत का जिक्र करें लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा’

हाल ही में पाकिस्तान से बड़ी संख्या में हिंदुओं पर वहां हो रहे अत्याचारों की खबरें सामने आईं. बड़ी तादाद में पाकिस्तानी हिंदू नागरिक शरण की तलाश में भारत आ रहे हैं. क्या पाकिस्तान की सिविल सोसाइटी ने अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ हो रहे इस बर्ताव को लेकर अपनी आवाज उठाई है?

सिविल सोसाइटी अमन तो चाहती है लेकिन वे लोग कट्टरपंथियों से डरते हैं. हालांकि ये मसला इतना आसान नहीं है. जो बड़े हिंदू व्यापारी हैं, उनसे गुंडा टैक्स लिया जाता है. कई बार ऐसे केस भी सामने आए हैं जहां किसी हिंदू लड़की ने अगर किसी मुसलमान लड़के से प्रेम कर लिया तो उसके घरवाले कहते हैं, पहले मुसलमान बनो. हिंदुओं के साथ जो भी पाकिस्तान में हो रहा है, मुझे उम्मीद है सरकार इस दिशा में कड़े कदम उठाएगी. सिविल सोसाइटी को मुखर और आक्रामक होने की जरूरत है. 

भारत की सिविल सोसाइटी के बारे में आपका क्या आकलन है? 

इस सवाल पर मुझे तकरीबन छह महीने पहले की एक घटना याद आ गई. तब कुलदीप नैयर और फिल्मकार महेश भट्ट पाकिस्तान आए थे. उन्हें एक सेमिनार में बोलना था. मैंने इन लोगों को भारत और पाकिस्तान के बीच अच्छे संबंधों और दोस्ती की पैरोकारी करते हुए पहले कई बार सुना था. इस बार जब वे यहां आए मैंने उनसे कहा कि आप जब सेमिनार में बोलें तो सरबजीत और पाकिस्तानी जेलों में बंद दूसरे कैदियों का जिक्र जरूर करें. लेकिन जब दोनों ने अपना भाषण दिया तो उसमें इन्होंने एक लफ्ज़ भी इस बारे में नहीं कहा. कार्यक्रम खत्म होने पर जब मैंने उनसे इस बारे में पूछा तो उन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया.  मैं पाकिस्तानी होकर पाकिस्तान में रहते हुए भारतीय कैदियों के लिए लड़ रहा हूं, लेकिन ये लोग भारतीय होकर एक शब्द नहीं बोल सके. आप बताइए क्या हमारे यहां लोग नहीं सोचते होंगे कि सरबजीत या दूसरे भारतीयों के लिए मुझे ही बेचैनी है जबकि भारत से आए लोग इनके बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते. नैयर और भट्ट साहब ने यही सोचा होगा कि ऐसा न हो कि कहीं सरबजीत का नाम लेने से पाकिस्तान की हुकूमत नाराज हो जाए और फिर उन्हें पाकिस्तान आने का वीजा ही ना मिले. लेकिन इन्हें समझना चाहिए कि भारत-पाक दोस्ती की बातें करना, भाषण देना और मौके पर स्टैंड लेने में बहुत अंतर है. खैर इसके अलावा दोनों मुल्कों की सिविल सोसाइटी दोनों देशों के कैदियों को लेकर खामोश है. इतना तो वे कर ही सकते हैं कि जिन कैदियों को रिहा करने का ऑर्डर कोर्ट कर चुकी है उन्हें तो कम से कम रिहा कराने के लिए मैदान में आएं. जब तक आप दबाव नहीं बनाएंगे, हुकूमतें इन लोगों को नहीं छोड़ेंगी.

क्या पाकिस्तान की जेलों में युद्धबंदी भारतीय हैं?

दोनों देश एक-दूसरे के बारे में कहते हैं कि वहां उनके सैनिकों को बंदी बनाकर रखा गया है. भारत कहता है कि पाकिस्तान में उसके 54 युद्धबंदी हैं. वहीं पाकिस्तान सरकार कहती है कि भारत में उसके 25 युद्धबंदी कैद हैं. दोनों के पास अपने-अपने तर्क हैं लेकिन दिक्कत यह है कि दोनों देश अपने यहां युद्धबंदी होने की बात नकारते हैं.

लूट है और छूट भी

कोयला ब्लॉक आवंटन पर आई कैग की रिपोर्ट इस समय कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के गले की फांस बन गई है. लेकिन उत्तर प्रदेश में कैग का ही राज्यस्तरीय संस्करण निधि लेखा परीक्षा विभाग इस मामले में उतना भाग्यशाली नहीं है. इसकी जांच रिपोर्टें न तो उस तरह का हंगामा खड़ा कर पाती हैं न ही सरकारें इसे गंभीरता से लेती हैं. नतीजतन निधि लेखा परीक्षा विभाग (निलेप) की अनगिनत ऑडिट रिपोर्टें धूल फांकती सरकारी फाइलों का हिस्सा बनकर रह जाती हैं. तहलका के पास निलेप की कुछ जांच रिपोर्टें हैं जिनमें पिछली बसपा सरकार के दौरान नोएडा डेवलपमेंट अथॉरिटी में हुई आर्थिक अनियमितताओं के कई सनसनीखेज मामले हैं. निलेप ने सरकार को अपनी जांच रिपोर्ट में इनके खिलाफ कार्रवाई की संस्तुतियां भी की हैं लेकिन न तो तब की बसपा सरकार ने इस पर कोई कार्रवाई की न ही मौजूदा सपा सरकार इसे तवज्जो देने के लिए तैयार है. ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार के मामलों को दबाने की राज्य की सत्ताधारी और मुख्य विपक्षी पार्टी के बीच मौन सहमति है. इसका एक नमूना हमें पिछले विधानसभा सत्र के दौरान भी देखने को मिला. मुख्यमंत्री ने बसपा शासनकाल में औने-पौने दामों में बेची गई चीनों मिलों और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के सैकड़ों करोड़ रुपये के आशियाने की कोई जांच करवाने से इनकार कर दिया. जिस निलेप ने फार्म हाउस के घोटालों की जांच की थी, उसी ने कई अन्य घपलों की ओर भी सरकार का ध्यान खींचा था. फॉर्म हाउस घोटाले की जांच अब लोकायुक्त के पास लंबित है, जबकि बाकी सभी मामले ठंडे बस्ते में ही पड़े हैं. उन घपलों को अंजाम देने वाले आज भी चैन की बंसी बजा रहे हैं. सरकार के रवैये से लगता नहीं कि वह इन घोटालों के प्रति गंभीर है. आगे कुछ ऐसे ही मामलों का जिक्र है जिनमें निलेप ने गड़बड़ियां पाई थीं. 

1 नोएडा स्थापना दिवस पर प्राधिकरण के अधिकारियों व कर्मचारियों में लाखों के उपहार बंटे. नोएडा के 33 वें स्थापना दिवस पर 17 अप्रैल, 2008 को नियमित अधिकारियों व कर्मचारियों को उपहार के रूप में एक पैडस्टल फैन तथा एक सीएफएल 18 वाट दिया गया. उपहार का लाभ प्राधिकरण के करीब 1,789 अधिकारियों व कर्मचारियों को मिला. निलेप अपनी रिपोर्ट में लिखता है, ‘नोएडा स्थापना दिवस पर प्राधिकरण ने अपने अधिकारियों और कर्मचारियों पर 34,97,280 रुपये का गैरजरूरी व्यय किया.’ प्राधिकरण की यह गड़बड़ी 16 जून, 1999 के उस शासनादेश का खुला उल्लंघन है जिसके मुताबिक इस प्रकार के किसी अनावश्यक उपहार वितरण पर रोक लगाई गई है. प्रदेश सरकार का यह शासनादेश प्रदेश के सभी विकास प्राधिकरणों पर लागू है. निलेप ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उक्त धनराशि का व्यय किया जाना प्राधिकरण निधि पर अनावश्यक भार था इसलिए सरकार को उत्तरदायी अधिकारियों पर कार्रवाई करते हुए उनसे वसूली की व्यवस्था करनी चाहिए. इसके बावजूद सरकार ने न तो किसी पर कार्रवाई की न ही किसी अधिकारी या कर्मचारी से वसूली ही हो पाई है. 

2 वाहन भत्तों का अनियमित दर से भुगतान. प्राधिकरण के सक्षम अधिकारियों ने सारे नियम -कानून अपने तरीके से बनाए. कर्मचारियों को वाहन भत्ता देने में भी तय सरकारी मानकों का पालन नहीं किया गया. अधिकारियों ने अपने ही बनाए नियम चलाए जिससे सरकारी खजाने को साल 2008-09 में 1,31,65,800 रुपये का नुकसान हुआ. ऑडिट रिपोर्ट में पाया गया कि प्रतिमाह कार के भत्ते के रूप में 1,650 रुपये, मोटर साइकिल व स्कूटर के लिए 1,220 रुपये, मोपेड के लिए 780 रुपये तथा साइकिल भत्ते के रूप में 610 रुपये की दर से भुगतान किया गया. जबकि वित्त विभाग के अनुभाग चार में 10 मार्च, 2000 को जो सरकारी आदेश पारित हुआ है उसके अनुसार अधिकारियों एवं कर्मचारियों को कार के लिए प्रतिमाह 800 रुपये, मोटर साइकिल के लिए 350 मोपेड के लिए 150 रुपये एवं साइकिल के लिए 50 रुपये का भत्ता ही दिया जा सकता है. इस तरह प्राधिकरण के अधिकारियों ने सरकारी आदेशों की अवहेलना करते हुए मनमाना पैसा भत्ते के रूप में भुगतान कर कर्मचारियों और अधिकारियों को अनुचित लाभ पहुंचाया. इस मामले में भी न तब की सरकार ने कोई कार्रवाई की न अब की सरकार की कोई मंशा दिखती है. 

3 चिकित्सा भत्तों का अनियमित भुगतान. सरकारी आदेशों को दरकिनार करते हुए अथॉरिटी के अधिकारियों ने चिकित्सा भत्ते में भी मनमाना रुख अख्तियार किया. जांच के दौरान पाया गया कि चिकित्सा भत्ते के रूप में प्रतिमाह अधिकारियों एवं कर्मचारियों को 850 रुपये की दर से भुगतान किया गया. जबकि शासनादेश के अनुसार कार्मिक उद्यान विभाग की ओर से 30 रुपये प्रतिमाह चिकित्सा भत्ता स्वीकृत किया गया था. अधिक दर से भुगतान करने के लिए शासन की पूर्व स्वीकृति प्राप्त करने के बजाय सार्वजनिक उद्यम के प्रमुख सचिव से अनुमति प्राप्त की गई थी. ऑडिट टीम ने जांच में लिखा है कि सार्वजनिक उद्यम के प्रमुख सचिव की ओर से प्राप्त अनुमति पर्याप्त नहीं है. प्राधिकरण द्वारा शासन से पूर्व अनुमति प्राप्त किए बिना ही 850 रुपये प्रतिमाह की दर से चिकित्सा भत्ते का भुगतान करने के कारण हर कर्मचारी को 820 रुपये का अधिक भुगतान किया गया. इससे सरकारी खजाने को कुल 1,67,47,680 रुपये का अधिक एवं अनियमित भुगतान एक साल में किया गया.

4 दीपावली पर बंटे लाखों के उपहार प्राधिकरण ने अपने कर्मचारियों को साल 2008-09 में दीपावली पर दिल खोलकर उपहार बांटे. इस दिलखोल बंटाई में सरकारी खजाने को 45,46,047 रुपये की चपत लगी. शासन के मितव्ययिता संबंधी शासनादेश – 1999 के मुताबिक इस प्रकार के उपहार पर रोक लगी हुई थी. यह आदेश नोएडा पर ही नहीं बल्कि सभी प्राधिकरणों पर लागू था. इससे स्पष्ट है कि शासनादेश का उल्लंघन करके प्राधिकरण द्वारा दीपावली के उपहार पर लाखों का वारा-न्यारा किया गया. मजेदार बात यह है कि प्राधिकरण की ओर से दीपावली का उपहार अपने अधिकारियों व कर्मचारियों को चेक द्वारा दिया गया था. इस पर भी अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है. 

5 अपात्र अधिकारियों व कर्मचारियों को वाहन भत्ता प्राधिकरण की ओर से सेवा में कार्यरत लेखाकार, लेखाधिकारी, सहायक लेखाकार, सहायक महाप्रबंधक, लाइब्रेरियन, लैब सहायक, निजी सचिव, प्रबंधक, डाटा एंट्रीे ऑपरेटर, उपमहाप्रबंधक, कार्यालय अधीक्षक, व्यक्तिगत सहायक आदि ऐसे कर्मचारियों को वाहन भत्तों का भुगतान किया गया था जिनका कार्य सिर्फ कार्यालयों तक सीमित है. जबकि नियमानुसार वाहन भत्ते सिर्फ फील्ड ड्यूटी वाले कर्मचारियों को दिए जाने का प्रावधान है. ऑडिट रिपोर्ट कहती है कि अपात्र कर्मियों को वाहन भत्ते का भुगतान किया जाना गलत है. प्राधिकरण की दरियादिली यहीं तक सीमित नहीं थी. अधिकारियों ने चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों जैसे चौकीदार, पंप ऑपरेटर मशीन ऑपरेटर आदि को भी वाहन व साइकिल भत्ते का भुगतान कर दिया था. जबकि उनका भी कार्य भ्रमण करने का न होकर कार्यालय तक सीमित था. इस अनियमित भुगतान से प्राधिकरण को 47,14, 800 रुपये का नुकसान हुआ.

6 सुरक्षा व्यवस्था पर अनियमित व्यय. ऑडिट रिपोर्ट में निलेप ने इस बात पर आपत्ति जताई है कि तीन-चार साल के दौरान प्राधिकरण अपनी सुरक्षा के लिए निजी सुरक्षा एजेंसियों का सहारा ले रहा था. इस कार्य पर उन्होंने अकेले साल 2008-09 में 1,89,53,340 रुपये बर्बाद किए. निलेप अपनी रिपोर्ट में कहती है कि शासन द्वारा राजकीय पुलिस व्यवस्था उपलब्ध करवाए जाने के बावजूद निजी सुरक्षा एजेंसियों से सुरक्षा सेवाएं लेना सिर्फ राजकोष की बर्बादी थी. सरकार ने इस पर भी कोई कार्रवाई नहीं की. और तो और, आज भी सुरक्षा के लिए बाहरी एजेंसियों का ही सहारा लिया जा रहा है.  

7 बिल्डरों पर प्राधिकरण की मेहरबानी. ऑडिट अधिकारियों ने ग्रुप हाउसिंग के भूखंडों की निविदा प्रक्रिया के विभिन्न सालों के ब्रोशरों का तुलनात्मक अध्ययन किया. उन्हें पता चला कि साल 2006-07 की योजना में भूखंडों कीे कीमत की 40 प्रतिशत धनराशि जमा किए जाने के बाद ही भूखंडों का पजेशन दिया जाता था. जबकि 2008 की स्कीम में निविदा के आधार पर भूखंड की कीमत की सिर्फ 20 प्रतिशत धनराशि लेकर उन्हें भूमि का पजेशन दे दिया गया था. इतना ही नहीं, साल 2009 में इसमें और भी छूट देते हुए निविदा दर के आधार पर भूखंड की कीमत की मात्र दस फीसदी लेकर ही बिल्डरों को भूमि का पजेशन दे दिया गया. योजनाओं में आवंटन धनराशि लगातार कम करके बिल्डरों को भूखंड का पजेशन दिया गया. निलेप के मुताबिक आवंटन धनराशि साल दर साल कम करके प्राधिकरण ने प्रत्यक्ष रूप से बिल्डरों को लाभ पहुंचाया. इसके फलस्वरूप प्राधिकरण को हर साल करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ. 

8 प्राधिकरण द्वारा ग्राम विकास पर खर्च. निलेप की जांच रिपोर्ट बताती है कि कहीं-कहीं तो प्राधिकरण के अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम करते रहे  और सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचाते रहे. प्राधिकरण के सिविल निर्माण खंड, विद्युत यांत्रिकी खंड, जन स्वास्थ्य तथा अनुरक्षण विभाग आदि ने अनेक गांवों में विकास एवं रखरखाव जैसे कार्य किए, मसलन विद्यालय, सड़क एवं अन्य सामुदायिक निर्माण आदि. कानूनी रूप से इस तरह के कार्य करवाने का दायित्व जिला पंचायत और ग्राम पंचायतों के हाथ में होता है. ऑडिट रिपोर्ट सवाल उठाती है कि किस अधिकार से प्राधिकरण ने गांवों में व्यय किया, इसका औचित्य स्पष्ट नहीं है. सामान्यतः इन कार्यों के लिए शासन से अनुदान प्राप्त करके जिला पंचायत, मुख्य विकास अधिकारी, बेसिक शिक्षा विभाग अथवा ग्राम प्रधानों द्वारा इस तरह के कार्य करवाए जाते हैं. ऑडिट रिपोर्ट कहती है कि अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य करवाए जाने से इस बात की संभावना प्रबल हो जाती है कि इन कार्यों के लिए दोहरा भुगतान हुआ होगा. इस मद में प्राधिकरण ने 21,38,99,949 रुपये का व्यय किया.