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सूचना अराजकता का ‘राज’स्थान

मुख्यमंत्री कार्यालय सहित ज्यादातर विभागों में देरी से जवाब, गोलमोल जवाब या जवाब ही न देने का रवैया सूचना के अधिकार को सबसे पहले लागू करने वाले राजस्थान में इस अधिकार को बेमानी बना रहा है. शिरीष खरे की रिपोर्ट 

बीते 11 अक्टूबर यानी सूचना के अधिकार कानून के छह साल पूरे होने से ठीक एक दिन पहले एक नये स्थान और अवसर पर वही पुराना वाकया. हरियाणा के हिसार लोकसभा उपचुनाव की रैली में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक ऐसी सूचना दी जो लोगों के लिए नयी नहीं थी. मगर आदत से मजबूर गहलोत द्वारा यह सूचना अमूमन हर कार्यक्रम में दी जाती है, लिहाजा पड़ोसी राज्य में भी उन्होंने बताया कि राजस्थान देश का पहला राज्य है जिसने सूचना का अधिकार कानून सबसे पहले लागू किया. मुख्यमंत्री गहलोत के लिए अपने प्रशासन की पारदर्शिता तथा जवाबदेही पर लंबा-चौड़ा बखान करना यों तो कोई नयी बात नहीं है लेकिन राज्य की मौजूदा स्थितियों में अगर सूचना के अधिकार का आकलन किया जाए तो मुख्यमंत्री का यह बखान ठीक उनके विरुद्ध जाता है. सच तो यह है कि सालों पहले व्यवस्था की नीयत और कार्यशैली में बदलाव की जो उम्मीद बंधी थी वह अब हवा हो चुकी है.

पारदर्शिता के मामले में खुद मुख्यमंत्री कार्यालय ही जवाबदेह नहीं दिखता. तीन साल पहले सूचना के अधिकार के तहत दस्तावेजों के आधार पर प्रशासनिक लॉबीइंग के जरिए अनियमितता और उस पर हुई कार्रवाई के संबंध में हाल ही में कार्यालय से जानकारी मांगी गई थी. कार्यालय ने पांच नोटिस मिलने के बाद भी जब कोई जवाब नहीं दिया तो मामला सूचना आयोग तक पहुंचा. आखिरकार आयोग के सामने मुख्यमंत्री के जवाबदेह कार्यालय का जवाब था, ‘यह सवाल पिछली सरकार से जुड़ा है, जबकि सामान्य परंपरा के अनुसार सरकार बदलने पर मुख्यमंत्री कार्यालय के पुराने दस्तावेज नष्ट कर दिए जाते हैं. हमारा कार्यालय प्रशासनिक कार्यालय नहीं है इसलिए हमारा कोई दायित्व नहीं है.’ आरटीआई कार्यकर्ता संजय शर्मा दस्तावेजों को यूं ही नष्ट करने पर कहते हैं, ‘इस कानून को सबसे पहले लागू करने वाली सरकार का मुख्यमंत्री कार्यालय ही जब कहता है कि हमारा कोई दायित्व नहीं है तो बाकी कार्यालयों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है.’

राजमंदिर सिनेमा के सामने की जमीन भूमाफियाओं को दिए जाने के मसले पर जानकारी नहीं दी गई

केंद्र के मुकाबले राज्य सूचना आयोग सूचना देने के मामले में फिसड्डी साबित हुआ है. प्रणव मुखर्जी प्रकरण में गोपनीय नोट उजागर होने जैसी घटना राजस्थान में नितांत असंभव लगती है. यहां तो कई मामूली सूचनाएं पाने के लिए ही जबर्दस्त मशक्कत करनी पड़ रही है. जैसे कि दो साल पहले आरटीआई कार्यकर्ता विष्णुदत्त ने राज्य के सभी विभागों से एक सूचना मांगी कि आपके यहां कुल कितने सेवानिवृत्त अधिकारियों को फिर से काम पर रखा गया है. इस मामूली सूचना को भी तकरीबन सभी विभागों ने अपने-अपने ढंग से छिपाया और ऐसे अधिकारियों की संख्या हजारों में होने के बावजूद सभी विभागों से कुल पचास लोगों के बारे में भी सूचना नहीं आ पाई.

केंद्र के मुकाबले राज्य सूचना आयोग बहुत सुस्त भी है. आयोग की सुस्ती का आलम यह है कि जब बीते अप्रैल राज्य मुख्य सूचना आयुक्त सेवानिवृत्त हुए तो पांच महीने तक आयोग में ताला पड़ा रहा. इस दौरान एक भी अपील की सुनवाई नहीं हुई. जबकि आयोग को एक-एक अपील की सुनवाई में ही एक साल से ज्यादा समय लग जाता है. फिलहाल आयोग में अपीलों का अंबार लगा हुआ है.
राजस्थान में आरटीआई कार्यकर्ताओं का एक तबका राज्य सूचना आयोग को थानेदार बताता है. आम आदमी को गृह विभाग से सूचना मांगने में सबसे ज्यादा डर लगता है और राज्य सरकार ने गृह विभाग को ही नोडल एजेंसी बनाया है. आयोग पर आरोप है कि उसमें जनता का नहीं पुलिस का राज है. सूचना आयुक्त के निर्णयों पर भी सरसरी नजर डाली जाए तो कहना मुश्किल होगा कि यह सूचना आयुक्त का रवैया है या किसी पुलिसवाले का. जैसे कि दो साल पहले पर्यावरण विभाग से सूचनाएं न मिलने पर जब मामला आयोग तक पहुंचा तो आयोग ने अपीलार्थी (आवेदक) को प्रत्यार्थी (लोक सूचना अधिकारी ) और प्रत्यार्थी को अपीलार्थी बनाते हुए उल्टा अपीलार्थी के विरुद्ध ही प्रकरण दर्ज कर लिया. यही नहीं आयोग ने अपीलार्थी को 15 दिनों के भीतर सूचनाएं देने का आदेश भी दे दिया. इस तरह, राजस्थान में सूचना के अधिकार के पालन में चोर को कोतवाल और कोतवाल को चोर बनाने का नया तमाशा देखने को मिला.

निजी सूचना आसानी से मिल जाती है लेकिन नीतिगत सूचना पर विभाग आनाकानी करते हैं

विष्णुदत्त बताते हैं, ‘राज्य में आयोग की नौकरशाही ने अधिकारी-वर्ग के भीतर का भय गायब कर दिया क्योंकि इस कानून के तहत आज तक किसी अधिकारी को दंडित नहीं किया गया.’ शुरुआती दो सालों में तो राज्य में कोई जुर्माना भी नहीं लगाया गया और जब इसकी शुरुआत हुई तो  सरपंच जैसी मामूली मछलियों से.

तहलका को मिले राज्य सूचना आयोग के दस्तावेजों मुताबिक 30 अप्रैल, 2011 तक कुल 15,452 अपीलों में से 4,510 को अभी भी किसी निर्णय तक पहुंचने की प्रतीक्षा है. इसके पहले के सालों (2008 से 2010) में कुल 117 मुकदमों के दौरान कुल जुर्माना 11 लाख 71 हजार रु में से सिर्फ 4 लाख 21 हजार रु ही वसूल हुए हैं. राज्य के कई विभागों में आवेदनों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है. जयपुर विकास प्राधिकरण में सबसे ज्यादा आवेदन लगाए जाते हैं. प्राधिकरण में अब तक जितना भी जुर्माना लगाया गया है उसे कायदे से लोक सूचना अधिकारियों से वसूला जाना चाहिए था. मगर प्राधिकरण का एक दस्तावेज बताता है कि तकरीबन दर्जन भर अधिकारियों का यह जुर्माना प्राधिकरण से ही भरवा दिया गया.

राज्य के कई कार्यकर्ताओं ने आरटीआई के खस्ताहाल के पीछे आयोग की उस शह को जवाबदार माना है जो अधिकारी-वर्ग को संरक्षण देती है. सामाजिक कार्यकर्ता प्रभात मिश्रा का तजुर्बा कहता है कि आयोग एक अधिकारी को ज्यादा नहीं तो 10 बार शिकायत निवारण का मौका देता है. यहां तक की निर्णय होने के बावजूद वह परिवाद के लिए लंबा समय देता है. प्रभात ने बताते हैं कि जयपुर के राजमंदिर सिनेमा के सामने पार्किंग की जमीन को नगर निगम के अधिकारियों ने भूमाफियाओं को बांट दी. उन्हें दो साल पहले जब इसका पता चला तो निगम में सूचना के लिए आवेदन भेजा. मगर लोक सूचना अधिकारी ने एक साल तक चुप्पी साधे रखी. उसके बाद आयोग ने अधिकारी को तुरंत सूचना देने का आदेश दिया. प्रभात आगे कहते हैं, ‘आखिरकार अधिकारी ने सूचना नहीं ही दी. वजह यह कि घोटाला ही करोड़ों का था, जबकि आयोग ने अधिकारी पर 25,000 रु का जुर्माना लगाया था.’ हालांकि अधिकारी ने 25,000 रु का जुर्माना भी नहीं भरा. उल्टा निगम के खर्चे पर हाईकोर्ट पहुंच गया.’

व्यावसायिक गोपनीयता. यह राजस्थान की नौकरशाही द्वारा कानून के भीतर बनाया गया एक नया सुराख है. इस सुराख को चर्चित फर्जी डायरी मामला से समझा जा सकता है. राज्य सरकार द्वारा सेवानिवृत्त शासकीय कर्मचारियों को चिकित्सीय सुविधाएं नि:शुल्क मुहैया कराने के लिए डायरियां वितरित की जाती हैं. मगर बीते साल एक गिरोह द्वारा कई कर्मचारियों के नाम पर फर्जी डायरियां बनवाने का मामला उजागर हुआ. जांच के नाम पर जब साल भर सिर्फ लीपापोती चलती रही तो विष्णुदत्त ने चिकित्सा विभाग से संबंधित सूचनाएं मांगीं. मगर लोक सूचना अधिकारी की दलील थी कि यह तो हमारी व्यावसायिक गोपनीयता से जुड़ा मामला है. इसी के साथ उसने राज्य में खुलेआम भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने के लिए उसे व्यावसायिक गोपनीयता से जोड़ने की एक नयी पद्धति ईजाद कर दी.

कई आरटीआई कार्यकर्ताओं का मत है कि राजस्थान में सूचना देने की प्रक्रिया को कुछ ज्यादा ही लंबा खींचा जाने लगा है. कई बार तो इतना कि संबंधित सूचना का कोई महत्व ही नहीं बचता. जैसे कि संजय शर्मा को बीते तीन सालों से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से जुड़ी सूचना नहीं दी जा रही है. यह प्रकरण इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आयोग ने संजय के पक्ष में निर्णय देते हुए लोक सूचना अधिकारी को तुरंत सूचना देने का आदेश दिया है. बावजूद इसके अधिकारी सूचना देने को तैयार नहीं. संजय के मुताबिक, ‘अधिकारियों के दिमाग में आज भी यह सामंतवादी मानसिकता बैठी हुई है कि हम सूचना नहीं देंगे.’ सामाजिक कार्यकर्ता पीएन मौंदोला का तजुर्बा बताता है कि जब कोई निजी सूचना मांगी जाती है तो आसानी से मिल जाती है लेकिन नीतिगत सूचना मांगने पर सीधा जवाब आता है-यह सूचना हमारे पास उपलब्ध नहीं है. मौंदोला कहते हैं, ‘किसी भी प्राधिकरण का जो मूलभूत कर्तव्य है उससे जुड़ी सूचना तो उसके पास होनी ही चाहिए. जैसे जयपुर नगर निगम का मूलभूत कर्तव्य जयपुर को साफ-सुथरा रखना है. ऐसे में निगम यह नहीं कह सकता कि सफाई से जुड़ी सूचना उसके पास उपलब्ध नहीं है.’ मौंदोला ने जयपुर विकास प्राधिकरण से यह जानना चाहा था कि उसने किस तारीख में अमुक कॉलोनी को स्वीकृति दी. मगर प्राधिकरण ने सूचना उपलब्ध न होने की बात कही. मौंदोला के मुताबिक प्राधिकरण ने कॉलोनी का सर्वे किया, एक-एक इंच को नापा, लोगों को पट्टे भी दिए और पट्टे देने के बावजूद प्राधिकरण ने कह दिया कि उसे तारीख मालूम नहीं है.

भले ही राजस्थान का मुखिया आरटीआई को अपनी देन बताते हुए न थकते हों लेकिन सरकार ने न तो अधिकारियों को प्रशिक्षित किया और न कभी कठोर आदेश दिया. राज्य की नौकरशाही ने भी संवेदनशील बनने की बजाय आरटीआई से बचने के कुछ खास नुस्खे ढूढ़ लिए. मसलन- देरी से जवाब देना, गोलमोल जवाब देना, अस्पष्ट जवाब देना या जवाब ही न देना. यह हाल तब है जब एक ही विभाग में बड़ी संख्या में लोक सूचना अधिकारी हैं. जैसे कि जयपुर विकास प्राधिकरण में 40 तो विद्युत-विभाग में 110 सूचना अधिकारी तैनात हैं. हर सेक्शन का अलग-अलग सूचना अधिकारी होने के बावजूद सूचनाएं उपलब्ध न कराना उनके बीच की मजबूत लामबंदी को दर्शाता है.

पंचायतों द्वारा भी सूचना छिपाने की यूं तो कई मामले हैं, मगर बाड़मेर के दो मामले ग्रामीण राजस्थान में व्याप्त सूचना अराजकता से दो-चार कराते हैं. पहला मामला कोई तीन साल पहले बाड़मेर के सांजीयाली पंचायत के अंबेश मेघवाल का है. अंबेश ने जब अपनी पंचायत से विकास कार्यों के संबंधित सूचना मांगी तो पंचायत ने उन्हें ऐसी सूचनाएं दीं जिन्हें सूचनाएं नहीं कहा जा सकता. पंचायत ने उन्हें अखबार की कतरने, निमंत्रण कार्ड और पत्र-व्यवहार इत्यादि की साढ़े 17 हजार छाया प्रतियां भेज दीं और बदले में उनसे 35 हजार रुपये मांग लिए. दूसरा मामला कोई एक साल पहले बामणौर पंचायत के मंगलाराम मेघवाल का है. मंगलाराम ने जब ग्रामसभा में पंचायत के अनियमितताओं से संबंधित सूचनाएं न देने का सवाल उठाया तो सरपंच गुलाम शाह ने उनके हाथ-पैर तुड़वा दिए. राज्य सरकार ने जांच के लिए एक उच्च स्तरीय दल बामणौर भेजा. दल ने पंचायत में बीते दो साल के दौरान 10 लाख का भ्रष्टाचार भी पाया. मगर गहलोत सरकार ने दोषियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की, उल्टा उनकी पार्टी ने बीते दिनों सरपंच शाह को कांग्रेस के धोरीमन्ना ब्लॉक का अध्यक्ष बना दिया.

भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद की शोधार्थी डॉ रूपा मंगलानी ने आरटीआई पर किए शोध के दौरान पाया है कि राज्य के नोडल विभाग द्वारा आरटीआई के लिए अलग सेल बनाने के निर्देशों के बावजूद ज्यादातर विभागों में जरूरी स्टाफ और मूलभूत संसाधनों जैसे फोटोकॉपी मशीनों का अभाव है. हालांकि जयपुर पुलिस विभाग में आरटीआई के आवेदनों पर कार्रवाई करने वाले कई अधीनस्थ विभागों के पास फोटोकॉपी मशीन है, मगर अधिकारियों की मानें तो उन्हें मशीन चलानी नहीं आती. आम तौर पर कार्यालयों के बाहर लगे बोर्ड और भीतर रखे कागजातों की स्थिति को देखकर किसी विभाग की मनोदशा का संकेत लिया जा सकता है. मगर मंगलानी ने बताया कि राज्य में बोर्ड और रिकार्ड प्रबंधन की स्थिति ठीक-ठाक भी नहीं कही जा सकती.

राजस्थान क्षेत्रफल के नजरिए से भारत का सबसे बड़ा राज्य है और इस हिसाब से सूचना पाने में सबसे ज्यादा परेशानी भी दूर-दराज के आवेदकों को ही उठानी पड़ती है. आरटीआई मंच के कमल टांक के मुताबिक, ‘एक लंबे-चौड़े राज्य में जबकि आवेदनों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है, ऐसे में सिर्फ एक सूचना आयुक्त से अच्छे और शीघ्रातिशीघ्र नतीजों की अपेक्षा नहीं की जा सकती.’ खासतौर से तब जब मुख्यमंत्री द्वारा बारंबार प्रशासनिक पारदर्शिता और जवाबदेही का दावा किया जाता है.  

घोटाला छिपाने का गड़बड़झाला

हाल में बिहार के मोतिहारी में करोड़ों रुपये के सरकारी अनाज का घोटाला उजागर हुआ. अब गरीबों का निवाला छीनने वाले घोटालेबाजों को बचाने के लिए नेताओं, अधिकारियों और माफिया का गठजोड़ कोई कसर नहीं छोड़ रहा. इर्शादुल हक की पड़ताल

उस दिन बीवी अमरुन निशा चौथी बार खाली हाथ वापस आ गई थीं. जनवितरण प्रणाली के डीलर जुबैर अहमद ने उस दिन भी उन्हें टका-सा जवाब दिया था कि अभी तक सरकार ने अनाज भेजा ही नहीं है तो वह उन्हें कैसे दे. पूर्वी चंपारण में मोतिहारी के छौड़ादानो प्रखंड में सेमरहिया गांव की अमरुन गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में आती हैं और हर महीने 10 किलो गेहूं और 15 किलो चावल सस्ती दर (क्रमश: 6.60 रुपये और 6.78 रुपये) पर प्राप्त करने की हकदार हैं. अमरुन राज्य के उन लाखों लोगों में से एक हैं जिन्हें सरकार ने उनकी गरीबी को आधार बनाकर लाल कार्ड दिया है. इसी आधार पर सरकारी दुकान से उन्हें सस्ते में अनाज मिलता है ताकि वे और उनके बच्चे भूखे पेट न रहें.

पर अमरुन को कौन बताए कि उनके हिस्से का निवाला कागजों में दर्ज आंकड़ों के मुताबिक तो उनके पेट में जा चुका है. उधर, हकीकत में यह अनाज माफिया, सरकारी अधिकारी और अनाज वितरण करने वाली एजेंसियों के दलाल खा-खा कर लाल हुए जा रहे हैं. यह तो समय का फेर कहिए कि किसी कारण जनवितरण प्रणाली का दुकानदार जुबैर अहमद 28 महीने के अनाज के गबन के आरोप में पकड़ा गया और उसका लाइसेंस रद्द कर दिया गया. पर छह महीने पहले पकड़ा गया जुबैर अनाज घोटाले के समंदर की सबसे छोटी मछली है. घोटाले के इस समंदर की बड़ी मछलियां अब भी आजाद हैं.

गरीबों के निवालों को डकारने वाले बड़े माफियाओं के पकड़े जाने की घटना आम तौर पर सामने नहीं आती. लेकिन इस तरह के घोटालों में से एक का भंडाफोड़  करीब डेढ़ महीने पहले मोतिहारी में हुआ तो इसकी गूंज पूरे राज्य में सुनाई पड़ी, लेकिन घोटाले का उजागर हो जाना यहां उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि इसे दबाने, छिपाने और पचाने की अब भी हर स्तर से हो रही कोशिशें. वैसे भी इस घोटाले का भंडाफोड़ किया नहीं गया बल्कि अधिकारियों  और अनाज माफियाओं द्वारा ‘मिल-बांट कर खाने’ के लिए निर्धारित तालमेल के अभाव के चलते यह मामला छलक कर सतह पर आ गया. फिर स्थिति ऐसी बनी कि इसे छिपाने की न तो अनाज माफियाओं और न ही सरकारी अमले की कोशिश कामयाब हो सकी.

31 अगस्त यानी ईद का दिन. प्रशासन के लिए ईद जैसे पर्व का महत्व कानून और व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त रखने की चुनौती के रूप में होता है. इसलिए उस दिन प्रशासन ने पूरी एकाग्रता इसी ओर केंद्रित कर रखी थी. कानून-व्यवस्था से जुड़े अधिकारी शहर के नगर थाने में बैठ कर शांति व्यवस्था बनाए रखने पर माथापच्ची में लगे थे. इतने में किसी मुखबिर ने यह खबर दी कि कुंआरी देवी चौक के निकट भारतीय खाद्य निगम के अनाज की बोरियों को निजी बोरियों में भरा जा रहा है. भारतीय खाद्य निगम की मुहर वाली ये बोरियां जनवितरण प्रणाली के दुकानदारों द्वारा जरूरतमंदों तक पहुंचाई जाती हैं. सूत्रों के मुताबिक चूंकि मुखबिर ने यह बात अनजाने में सभी के सामने बता दी थी इसलिए टाउन एसडीपीओ सुशांत सरोज को तुरंत छापामारी करनी पड़ी. तब एक-एक कर छह गोदामों का पता चलता गया और छापामारी होती रही. इस दौरान भारतीय खाद्य निगम के करीब 14 हजार बोरे निजी गोदामों से जब्त किए गए. जिले के पुलिस अधीक्षक गणेश कुमार के अनुसार इस कालाबाजारी में एक धनाढ़्य व्यवसायी शंभु प्रसाद का नाम भी शामिल है. एक बड़ी छापेमारी विशाल मिनी राइस मिल के गोदाम में हुई जिसके मालिक अजय कुमार बताये जाते हैं. इसी तरह मोहन सिंह के गोदाम पर हुई छापेमारी में करीब एक हजार बोरे जब्त किए गए.

प्रशासन के आंकड़ों पर ही जाएं तो हर महीने 50-80 हजार क्विंटल अनाज की हेराफेरी तो होती ही है

मोतिहारी सदर के अनुमंडल पदाधिकारी राधाकांत इसे डेढ़ करोड़ का घोटाला बताते हैं. स्थानीय पत्रकारों के अनुसार यह घोटाला इससे कई गुना बड़ा हो सकता है. अगर इस घोटाले के गणित को मामूली जोड़-घटाव से समझें और राधाकांत के अनुसार ही गुनाभाग करें तो हर महीने डेढ़ करोड़ का घोटाला तो होता ही है. चूंकि यह घोटाला साल दर साल होता आया है इसलिए इसकी व्यापकता का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. खुद सदर अनुमंडल पदाधिकारी कहते हैं, ‘एक-डेढ़ साल पहले जनवितरण के दुकानदारों द्वारा मात्र 20-25 प्रतिशत अनाज का वितरण नियमपूर्वक हुआ करता था, जिसे हमने ठीक करने की कोशिश की है, लेकिन अब भी यह 60-75 प्रतिशत की सीमा तक ही पहुंच सका है.’ ध्यान देने की बात है कि पूर्वी चंपारण के लिए हर महीने औसतन लगभग दो लाख क्विंटल अनाज वितरण का कोटा है. यानी खुद जिला प्रशासन के आंकड़ों को अगर कम करके भी आंका जाए तो प्रति माह 50-80 हजार क्विंटल अनाज की हेराफेरी तो होती ही है.
यूं तो घोटाला 31 अगस्त को उजागर हुआ था, लेकिन अगले चार दिन तक पुलिस और खाद्यान्न आपूर्ति से जुड़े अधिकारी यह नहीं समझ पाए कि इस संबंध में किसके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की जाए. चौथे दिन यानी तीन सितंबर को अनिल कुमार, कन्हैया साह, मुंशी राय और अजय कुमार नामक व्यवसायियों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया. हालांकि पहले ही दिन अधिकारियों को यह सूचना मिली थी कि शंभु प्रसाद, उमेश गुप्ता, गौरी शंकर और ट्रांस्पोर्टर राधेश्याम जैसे अमीरों और सत्ता के गलियारों में काफी प्रभाव रखने वाले व्यवसायियों की भी इस मामले में संलिप्तता है. लेकिन जब प्राथमिकी दर्ज की गई तो इन चार बड़े नामों के अलावा इस घोटाले में शामिल कुछ दूसरे व्यवसायियों के नाम पुलिस या प्रशासनिक कार्रवाई की सूची से गायब थे. इतना ही नहीं, छापामारी के दौरान हिरासत में लिए गए उस एक व्यवसायी पर भी प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई जिसे एसडीपीओ सुशांत कुमार सरोज ने हिरासत में लिया था. तहलका को एक साक्ष्य हाथ लगा है जिसमें सुशांत मुन्ना शाह नामक एक व्यवसायी को हिरासत में लेने के बाद कह रहे हैं कि ‘अब आपको अपने पक्ष में जो भी कहना है अदालत में कहिएगा.’ पुलिस ने विशाल राइस मिल के बगल वाले गोदाम में भी छापामारी की थी जिसके बारे में मुन्ना साह ने स्वीकार किया था कि वह उसी का है. हालांकि इस संबंध में जब सुशांत कुमार सरोज से बात करने की कोशिश की गई तो उन्होंने टालू रवैया अपनाते हुए कहा कि किसी को भी हिरासत में लेकर नहीं छोड़ा गया है. लेकिन जब उन्हें याद दिलाया गया कि मुन्ना साह का नाम तो एफआईआर में शामिल ही नहीं है जिन्हें उन्होंने हिरासत में लिया था. इस पर सुशांत ने यह कह कर बात समाप्त कर दी कि आप इस मामले में अधिक जानकारी जिले के पुलिस अधीक्षक से मांगें. लेकिन पुलिस अधीक्षक गणेश कुमार ने छापामारी वाले दिन मीडिया के समक्ष यह स्पष्ट किया था कि घोटाले में शंभु प्रसाद का नाम भी शामिल है. अब महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वह कौन-सी स्थितियां थीं जिनके कारण न तो व्यवसायी शंभु प्रसाद और न ही मुन्ना साह के खिलाफ मामला दर्ज हुआ.इस सवाल के जवाब में गणेश कुमार कहते हैं, ‘हम इस मामले में सबूत इकट्ठा कर रहे हैं और जल्द ही कार्रवाई होगी.’

क्या पुलिस अधीक्षक की यह बात गले उतरने वाली है? मोतिहारी जिला प्रशासन से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी की बात से कम से कम तो यही लगता है कि शंभु प्रसाद के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने वाली. ये अधिकारी नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर बताते हैं कि शंभु प्रसाद के गिरेबान पर हाथ डालना जिला प्रशासन के बूते से बाहर की बात है क्योंकि उसकी पैठ न सिर्फ तिरहुत प्रमंडल के मुख्यालय बल्कि पटना के सचिवालय तक है.

निर्धारित एक हफ्ते की जगह कई हफ्ते बीत गए हैं, मगर घोटाले की जांच रिपोर्ट का अब तक कोई पता नहीं है

हर दामन में दाग उजागर होने के तीन सप्ताह बाद 24 सितंबर को खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री श्याम रजक अचानक मोतिहारी आ धमके. उन्होंने जिले के वरिष्ठ प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के साथ बंद कमरे में घंटों बैठक की. विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि श्याम रजक ने सीधे तौर पर मोतिहारी के सदर एसडीओ राधाकांत, राज्य खाद्य निगम के जिला प्रबंधक सोमेश्वर पांडे और सहायक प्रबंधक राजेंद्र पांडे को घोटाले का जिम्मेदार ठहराया. बैठक में ही उन्होंने राधाकांत को तगड़ी फटकार लगाई और उनके खिलाफ कार्रवाई करने की बात कही. लेकिन थोड़ी देर बाद उन्होंने प्रेस वार्ता की तो  राधाकांत और दूसरे अधिकारियों के प्रति उनका लहजा नर्म हो चुका था. श्याम रजक का कहना था, ‘प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है कि एसडीओ का आचरण इस मामले में संदेहास्पद है. इसलिए इनके खिलाफ जांच की जाएगी और उसी आधार पर कार्रवाई होगी.’ फिर उन्होंने तिरहुत प्रमंडल के कमिश्नर एसएम राजू को जांच की जिम्मेदारी सौंप कर एक हफ्ते में रिपोर्ट देने के लिए कहा. 
लेकिन एक हफ्ता कौन कहे कई हफ्ते बीत गए और रिपोर्ट का कोई पता नहीं है. नाम न छापने की शर्त पर एक अधिकारी बताते हैं कि कुछ अनाज माफिया, आला अधिकारियों के दलाल और नेताओं की जमात मामले को रफा-दफा करने के लिए मेलजोल में लगी है.
12 अक्टूबर को अचानक मामले में एक नया मोड़ आ जाता है. श्याम रजक तहलका को बताते हैं कि एसडीओ राधाकांत का तबादला नहीं किया जा रहा है और वे इस मामले को निगरानी ब्यूरो के हवाले कर रहे हैं. अचानक सरकार का यह बदला रुख हैरान करने वाला है क्योंकि जिन श्याम रजक ने प्रथम दृष्टि में एसडीओ राधाकांत समेत तीन अधिकारियों को दोषी पाया था और उनके खिलाफ कार्रवाई करने की बात की थी, वे उन्हें उनके पदों से हटाने की बात से ही मुकर गए. हद तो यह कि इसकी खबर एसएम राजू को भी नहीं है. जैसा कि राजू कहते हैं, ‘मुझे पता नहीं सरकार क्या चाहती है, पर मुझे यह जिम्मेदारी मिली है तो मैं इस पर काम कर रहा हूं.’

पर यहां लाख टके का सवाल यह है कि आखिर सरकार के इस रुख में बदलाव आया कैसे? क्या सरकार अनाज माफिया या किसी और की तरफ से आने वाले किसी दबाव में आ गई? इस सवाल के जवाब में श्याम रजक कहते हैं, ‘नहीं, सरकार किसी दबाव में नहीं आ सकती. हम इस जांच को और प्रभावी बनाने के लिए निगरानी विभाग को सौंप रहे हैं. तो फिर श्याम रजक को अपने ही अधिकारियों पर से अचानक कैसे विश्वास उठ गया कि उनसे जांच कराने की बजाय अब निगरानी विभाग से जांच कराने की बात कह रहे हैं? इस सवाल के जवाब में श्याम रजक कहते हैं, ‘निगरानी विभाग की जांच से दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा.’

इस मामले में अचानक सरकार के बदले रुख से कई सवाल खड़े होने लगे हैं. सबसे अहम सवाल तो यही कि इस मामले को निगरानी विभाग को सौंप कर कहीं इसे ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश तो नहीं हो रही है. इस प्रकरण का एक सिरा स्थानीय नेताओं और अनाज माफिया की आपसी गुत्थमगुत्थी से भी जुड़ा है. मोतिहारी से भाजपा विधायक प्रमोद कुमार इस पूरे मामले में जहां सरकार के रुख से खफा हैं वहीं एसडीओ राधाकांत पर भी सीधा निशाना लगा रहे हैं. इस घोटाले को लेकर प्रमोद कुमार ने मुख्यमंत्री को पत्र लिख कर राधाकांत के खिलाफ कार्रवाई करने की बात कही है. साथ ही प्रमोद अनाज माफिया के सिंडीकेट पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि सरकार माफिया गिरोह और स्थानीय अधिकारियों के गठजोड़ के खिलाफ कार्रवाई करे. वहीं इस पूरे मामले में जदयू के स्थानीय नेता और विधान पार्षद सतीश कुमार खुल कर अनाज माफिया शंभु प्रसाद के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं. सतीश साफ कहते हैं कि सरकार को शंभु प्रसाद के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए क्योंकि वे इस घोटाले के केंद्र में हैं.

इस प्रकरण का एक सिरा स्थानीय नेताओं और अनाज माफिया की आपसी गुत्थमगुत्थी से भी जुड़ा है.

उधर खाद्य एवं आपूर्ति विभाग और जिला व पुलिस प्रशासन अनाज माफिया के सिंडीकेट से जुड़े लोगों के खिलाफ कुछ भी खुल कर बोलने को तैयार नहीं है. गिरोह की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिला प्रशासन से जुड़े एक बड़े अधिकारी अपनी जान मुसीबत में डालना नहीं चाहते. नाम न छापने की शर्त पर वे बताते हैं कि इन कालाबाजारियों की पहुंच और पैठ इतनी है कि उनके खिलाफ कार्रवाई की कोई संभावना ही नहीं है.

अनाज घोटाले के साथ मोतिहारी में गोदाम घोटाला भी अपने आप में काफी निराला है. 31 अगस्त को जब पुलिस ने यहां छह गोदामों में छापामारी की तो यह रहस्य सामने आया. दरअसल राज्य खाद्य निगम के अधिकारी और निजी व्यवसायी साठ-गांठ से कालाबाजारी का खेल खेलने के लिए एक ही गोदाम को कभी सरकारी तो कभी निजी गोदाम बताते रहे हैं. जमाखोरी की सूचना पर जब निजी व्यवसायियों के गोदामों पर छापामारी होती है तो वे उन गोदामों को सरकारी बता कर बच जाते हैं.

गरीबों के निवाले छीनने वाले अनाज माफिया और उन्हें बढ़ावा देने वाले सरकार के अधिकारियों के खिलाफ क्या कोई कार्रवाई हो सकेगी?  कार्रवाई के नाम पर जो कवायद अब तक चली है और जिस अंदाज में चली है उसे देखते हुए उम्मीद कम ही लगती है.                   

' भाषा की सुंदरता, प्रांजलता, माटी की महक जो राजस्थानी में है वह हिंदी में मुमकिन ही नहीं '

राजस्थानी के चर्चित साहित्यकार विजयदान देथा उर्फ बिज्जी को इस बार के नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था. खांटी किस्सागोई के बीच तना बिज्जी का कथा-संसार लोक राग, लोक आग, लोक रंग तथा लोक गंध का आधुनिक अजायबघर है. पेश हैं  शिरीष खरे से उनकी बातचीत के अंश:   

इस बार आपको नोबेल पुरस्कार की संभावित सूची में शामिल किया गया था. यूरोप के कई सर्वे भी आपको पुरस्कार का प्रबल दावेदार मान रहे थे. मगर जो नतीजा आया उस पर आप क्या कहेंगे?

मुझे नोबेल न मिलने का दुख नहीं है. हां, खुशी तो है ही कि मैंने अपने जीवन में अच्छी किताबें लिखीं और साहित्य जगत में अहम जगह बनाई. नोबेल की संभावित सूची में आने को भी मैंने सामान्य तरीके से ही लिया. मैंने तो कभी किसी पुरस्कार के लिए कोई प्रविष्टि नहीं भेजी. नोबेल के लिए भी नहीं. दुनिया भर की कहानियां पढ़ने के बाद मैं अपनी कहानियों को लेकर आश्वस्त हूं. मुझे मेरी कहानियों की कमजोरियां भी पता हैं और मजबूत पक्ष भी मैं जानता हूं. मैंने अपने बुजुर्गों से सुनी कहानियों को सामाजिक मुद्दों से जोड़कर पेश किया है. यह मेरी खुशकिस्मती है कि राजस्थानी में लिखी मेरी किताबों को एक बड़े फलक पर सराहा गया है.

जब साहित्य आधुनिकता की ओर बढ़ा जा रहा था, आप लोक की तरफ क्यों लौट आए?

कई बार लोक चेतना सामंती और जनविरोधी होती है. इसलिए मैं केवल कथानक के स्तर पर लोक में गया हूं, जबकि दृष्टिकोण या मूल्यबोध के स्तर पर आधुनिकता, प्रगतिशीलता और बहुजन हिताय की चेतना को ही अपनाया है. मैंने कथानक के बुनियादी ढांचे को ज्यों का त्यों रखा है मगर मूल्यबोध बदल दिया है. इसलिए मेरी कहानियां लोक साहित्य का पुनर्लेखन भी नहीं हंै. इसलिए आपको मेरी कहानियों में फैंटेसी और आधुनिक यथार्थ का ऐसा ताना-बाना मिलेगा जो एक नया रूप संसार सामने लाता है.

आपने लोक चेतना में किन पक्षों का विरोध किया है?

मैंने सबसे ज्यादा ईश्वर और उसकी सत्ता का विरोध किया है. मैं मानता हूं कि मनुष्य ने ईश्वर को गढ़ा है, इसलिए मेरे लिए मानवीय गरिमा ही सबसे ऊपर है और इसीलिए मैंने सभी कहानियों के अलौकिक, चमत्कारी और दैवी प्रसंगों में मानवीय गरिमा को ही सर्वोपरि रखा है. मेरी कहानियों में पुरोहितवादी, बनियावादी और सामंतवादी ताकतों का भी विरोध किया गया है.

राजस्थान की लोककथाओं पर लिखने के बारे में कैसे सोचा?

पच्चीस-छब्बीस साल में रूसी साहित्य का अनुवाद पढ़ने का बड़ा उत्साह था. फ्रेंच साहित्य भी पढ़ा था. उसी से जाना कि रूस का संभ्रांत तबका फ्रेंच पढ़ता था और गंवार माना जाने वाला तबका रूसी बोलता था. शुरू में रूसी लोगों ने अनुवाद किए और जब उन्होंने मातृभाषा रूसी में लिखना शुरू किया तो पचास-साठ साल में ऐसे रूसी लेखक पैदा हुए जो फ्रेंच लेखकों का मुकाबला कर सकते थे. रूसी लेखकों से प्रेरणा लेकर सोचा कि मुझे अब राजस्थानी में ही लिखना चाहिए. राजस्थानी में लिखे बिना मेरे सृजन का विस्तार नहीं हो सकता. मैं अपने आसपास के लोगों से लोकगीत और पारंपरिक कथाएं सुना करता था. मुझे लगा कि लोकसाहित्य अगर लोगों की जुबान पर जिंदा है तो उसमें जरूर कोई ताकत है. इसके पहले कई प्रेसों में काम करके हिंदी में तेरह सौ कविताएं और तीन सौ कहानियां लिख चुका था. एक दिन बड़े उद्योगपति और राजस्थान संगीत अकादमी के प्रथम अध्यक्ष शाह गोवर्धनलाल जी काबरा के सामने मैंने अपनी इच्छा प्रकट की. कहा, बाबा-सा म्हें तौ अबै राजस्थानी में लिखण रो मतो करयो. उन्होंने बहुत समझाया मगर मैं जिद पर अड़ा रहा तो बोले जोधपुर छोड़कर अपने गांव बोरूंदा क्यों नहीं चले जाते, वहां कई पीढि़यों से चली आ रही लोककथाओं को सुनो और उन्हें अपनी कहानी कला का बाना पहनाओ.

लोककथाओं को कहानी कला का बाना पहनाना कितना मुश्किल था?

बहुत मुश्किल था. बोरूंदा में प्रेस लगा लिया. बाबा-सा और जयपुर में उद्योग विभाग के निदेशक त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी जी ने बड़ी मदद की थी. तब गांव में बिजली नहीं थी. एक बड़ा-सा व्हील कबाड़ा लगाकर प्रेस चलाया. 1962 की दिवाली पर ‘बातां री फुलवाड़ी’ का पहला भाग निकाला. उस समय मेरे लिखने की गति थी- 17 कंपोजिटर और मैं अकेला लेखक. सबेर तीन बजे उठता और कंपोजिटरों के नौ बजे आने तक बीस-पच्चीस पेज लिख लेता. इस गति से 1981 तक फुलवाड़ी के पांच-छह सौ पृष्ठों के तेरह भाग तैयार हो गए. आर्थिक तंगी की वजह से प्रेस न बेचना पड़ता तो अब तक पच्चीस-तीस भाग तैयार हो जाते.

आपने हिंदी में भी लिखा. इन दोनों भाषाओं के लेखन में क्या अंतर पाया?

मुझे लगता है वैसी भाषा की सुंदरता, प्रांजलता, माटी की महक जो राजस्थानी में है वह हिंदी में मुमकिन ही नहीं. उसका जायका ही कुछ और है. ऐसा जायका हर मातृभाषा में मिलता है.

कहा जाता है कि अगर आपकी लोककथाओं का हिंदी अनुवाद नहीं किया जाता तो आपको उतनी लोकप्रियता नहीं मिलती जितनी है?

यह सच है कि हिंदी ने मुझे अपनी भाषा के पाठकों से कहीं ज्यादा तवज्जो दी है. मैं सबसे ज्यादा बिहार में लोकप्रिय हुआ और उसके बाद मध्य प्रदेश में. मेरे चिरंजीव कैलाश कबीर ने ‘दुविधा’ और ‘उलझन’ का अनुवाद करके मुझे हिंदी जन मानस में प्रतिष्ठापित किया. अगर कैलाश ने अपनी जिद पर अड़कर अनुवाद नहीं किया होता तो मैं हिंदी पाठकों के सामने कभी नहीं आ पाता. मुझे राजस्थानी भाषा के लिए सबसे पहले साहित्य अकादेमी का पुरस्कार भी मिला. यहां मैं एक बात और जोड़ दूं कि हमने हिंदी में अनुवाद तो किया मगर राजस्थानी की महक का भी ध्यान रखा. लोककथा के मोटिफ से कभी कोई छेड़खानी नहीं की.

आप राजस्थानी भाषा की मान्यता के पक्षधर हैं? 

हां. हिंदी हिंदुस्तान के किसी भूखंड की भाषा नहीं है. जो भी भूखंड है उसकी अपनी मातृभाषा है- अवधी, मैिथली, भोजपुरी, मालवी वगैरह. हिंदी किसी परिवार की भाषा हो सकती है, लेकिन एक बड़े समुदाय की भाषा बिल्कुल नहीं. यह जन्म के साथ नहीं सीखी जाती बल्कि इसकी शिक्षा दी जाती है. हम चाहते हैं कि राजस्थानी भाषियों को भी रोजगार मिले. जो कहते हैं मान्यता के फेर में न पड़ो बस लिखते जाओ या राजस्थानी भी हिंदी ही है तो हमारा सवाल है कि राजस्थानी को हिंदी की किताबों में शामिल क्यों नहीं कर लिया जाता. तब वे कहते हैं भाई यह समझ में नहीं आती. समझ इसलिए नहीं आती कि शब्द-भंडार से लेकर क्रियापद तक राजस्थानी हिंदी से अलग है.

आपको किन साहित्यकारों ने प्रभावित किया है?

चेखव, रवींद्र बाबू और शरत बाबू ने. चेखव से अकिंचन घटनाओं की अकूत सामर्थ्य और लीक से हटकर चलने का अदम्य हौसला सीखा है. रवींद्र बाबू से सामान्य दृष्टांत और उनकी अद्भुत दार्शनिक सूझ-बूझ को आत्मसात किया है. शरत बाबू से सहज संवाद और घटनाओं का संयोजन समझा है.

नयी कहानी के लिए कौन-सा तत्व होना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है?

चेखव की एक कहानी है ‘डेथ ऑफ ए क्लर्क.’ यह मनुष्य की एक सहज प्रक्रिया छींक पर है. मात्र एक छींक से दुनिया भर के सबोर्डिनेट का चित्रण कर दिया. मेरी दृष्टि से जो घटनाएं अभी तक नहीं आई हैं उनको लाना ही नयी कहानी की जरूरत है. दूसरा, जब कहानी के भीतर पात्रों की दुनिया बदलती है तो उसमें नयापन आता है. पहले सामंतों का दबदबा था, उच्च-मध्यम वर्ग तक कहानी सीमित थी मगर बाद में महाश्वेता जैसी रचनाकार ने कहानी में आदिवासियों के दुख और संघर्षों को जगह दी. ऐसे रचनाकार पुरानी जमीन पर जुताई नहीं करते बल्कि नई जमीन तोड़ते हैं, तब कहीं नयापन पैदा होता है.

एक कलात्मक रचना किन परिस्थितियों में बनती है?

मेरी धारणा है कि कलात्मक रचना अवचेतन मन से बनती है. जो खुद को भी पता न हो और जब पता चले तो चकित कर दे कि अरे यह क्या तुम्हारे ही भीतर था. इसलिए न मैं लिखने से पहले सोचता हूं, न लिखे हुए को काटता हूं और न ही उसे फिर से पढ़ता हूं. जब मेरा प्रेस था तो आधा वाक्य लिखा छोड़कर प्रूफ करने बैठ जाता, और फिर छूटे हुए वाक्य को आगे लिखने लग जाता. प्रेस के शोर-शराबे के बीच ही लिखता रहा हूं, इसलिए कह सकता हूं कि लिखने के लिए कोई मूड नहीं होता.

बीते कई सालों से लोक संस्कृति में आए बदलावों को किस तरह देखते हैं?

यह समय विज्ञान और प्रौद्योगिकी का है. इसने लोक संस्कृति को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है. अगर प्रौद्योगिकी लोक कथाओं को बच्चों की चेतना में डालकर रख पाती तो अच्छा था. ऐसा होता तो हमारे बच्चे परंपरागत खेलों को भूल नहीं पाते और कई कलाएं मर नहीं जातीं. आज अंग्रेजी के वर्चस्व ने लोक भाषाओं के अस्तित्व पर खतरा पैदा कर दिया है. हर देशज चीज को नकारने की साजिश चल रही है. इसका सीधा असर नयी पीढ़ी में देखने को मिल रहा है. उसकी चेतना में लोक जीवन के लिए कोई स्थान नहीं बचा है. सवाल है कि इस विश्व-ग्राम में हमारी लोक संस्कृति का क्या स्थान होगा. स्त्रास ने बहुत बढि़या कहा था, ‘पिकासो आज नहीं तो हजारों साल बाद पैदा हो जाएगा, मगर जाने-अनजाने परंपरागत सांस्कृतिक विरासत को छोड़ दिया तो उसे कभी प्राप्त नहीं कर सकेंगे.’

क्या विकास का मौजूदा मॉडल हमारी विरासत बचा पाएगा?

नहीं. मानवीयता की कीमत पर पशुता के धुआंधार विस्तार का कोई तुक नहीं बनता. आज से चार शताब्दी पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को लील लिया था, आज वही कंपनी विश्व व्यापार संगठन का रूप धरकर फिर से लीलने को आतुर है और वह भी मानवता की आड़ में. वे भौगोलिक कब्जा किए बिना ही हमें गुलाम बना रहे हैं, जो राजनीतिक गुलामी से कहीं शर्मनाक है. मैंने पहले भी कहा था कि इतिहास अपनी क्रूरतम मंशाओं को दोहरा रहा है और हम इस अधःपतन के जश्न में डूबे जा रहे हैं.

इन दिनों क्या चल रहा है?

लिखना-पढ़ना और क्या! यही मेरा धर्म, भगवान, जीवन और अस्तित्व है. जिस दिन यह निश्चित हो जाएगा कि अब मुझसे पढ़ा-लिखा नहीं जाएगा उस दिन जीने का कोई मूल्य नहीं रह जाएगा. उस दिन  डायबिटीज की दर्जन भर गोलियां एक साथ खाकर सो जाऊंगा.

गांधी-वेवेल वार्ता, स्वर्ग लोक में

देशभक्त, लेखक को माफ करें कि वेवेल (1943 से 1947 तक भारत का वायसरॉय) को भी स्वर्ग में दिखाया गया है, मगर मैं क्या करता अपने यहां परंपरा है कि घोर से घोर पापी भी स्वर्गवासी ही होता है

वेवेल: मिस्टर गैंडी, अब आप क्या कहेंगे? हमको तो आप सब बहुत ही जालिम कहता था. अब! आप क्या ये बताएगा कि जब आपका देश कभी हमारा गुलाम था, तब लाठी चार्ज अधिक हुआ था, कि अब जब आपका देश आजाद है? टेल मी, मिस्टर गैंडी, अब तो आपकी सरकार है, कोई अंग्रेज नहीं है फिर ऐसा क्यों… वाई डू सो? आप ने हमारे अगेंस्ट नान कोऑपरेशन मूवमेंट (असहयोग आंदोलन) किया, आपको याद होगा. मगर अब आपके आजाद हिंदुस्तान में क्या हो रहा है? देखिए, गवर्नमेंट ऑफिसेज में कैसा नान कोऑपरेशन चल रहा है! बिना रिश्वत, सिफारिश, चापलूसी के कोई काम ही नहीं होता. आपको याद होगा, आपने डिसओबीडियेंट मूवमेंट (सविनय अवज्ञा आंदोलन) चलाया था. बट आज उसकी क्या जरूरत है? जिधर देखो कानून को ब्रेक करता है. आपने एक और नारा दिया था, करो या मरो …डू और डाई वाला… इस स्लोगन ने हमारी नींद उड़ा दी थी. अब क्या हो रहा है? मैं पूछता हूं, जो सूचना मांगता है, तो उसे गोली से उड़ा दिया जाता है. आप तो देख ही रहा होगा, कितने आरटीआई एक्टिविस्ट्स मार दिया गया है. यह कैसा सिस्टम है? कुछ तो बोलिए, आप बोलते क्यों नहीं? मिस्टर गैंडी! प्लीज से समथिंग!

गांधी: हे राम!

वेवेल: आप लोगों का सेंस ऑफ ह्यूमर कमाल का है. आई मस्ट से. अरबन में थर्टी टू और रूलर एरिया में ट्वेंटी सिक्स, अगर रोज कमाता है, तो वह बिलो पॉवर्टी लाइन में नहीं माना जाएगा. हाऊ फनी! मैं जानना चाहता हूं, जब आप लोग हर चीज के लिए वेस्ट (पश्चिम) में देखता है, तो क्यों पॉवर्टी के लिए इंटरनेशनल नॉर्म्स नहीं अपनाता? मिस्टर गैंडी टेल मी वन थिंग… आप लोग कहता था कि हम अंग्रेज डिवाइड ऐंड रूल करता था. राइट है एप्सल्यूटली राइट. बट आप ये कहो कि हमारे टाइम दंगा अधिक हुआ कि अब? अब आपको यूनाइट होने से किसने रोका है? आप ही कहो कि इलेक्शन के टाइम पोलिटिकल पार्टीज कास्ट को देखकर कैंडिडेट को टिकट क्यों देता है? मिस्टर गैंडी, कुछ तो कहिए!

गांधी: हे राम!

वेवेल: हम तो विदेशी था, इसलिए आपके कंट्री को लूटा, ऐसे-वैसे लॉ बनाया जिससे ओनली हमें प्राफिट हो और हम अच्छी तरह से आप सबके ऊपर रूल कर सकें. बट मिस्टर गैंडी, अब भी आप सब हमारे बनाए हुए कानून, पॉलिसी पर क्यों चलता है? आज जगह-जगह लोग धरना कर रहा है, मगर पहले परमिशन लेकर. हमारे रूल में मार्च निकालने के लिए कोई परमिशन नहीं लेता था आप लोग. मगर आज इतना  वॉयलेंस, एनार्की (अराजकता) क्यों दिखता है? आज किसी भी पब्लिक से पूछो वह कहेगा कि नेता नहीं सुनता, अफसर नहीं सुनता, इवेन सरकार नहीं सुनती. यही तो हमारे टाइम भी था. वेन (जब) आज भी सेम कम्प्लेन (वही शिकायतें), प्राब्लम सेम (समस्या वही), मूवमेंट भी ऑलमोस्ट (लगभग) वही, और आप सब खुद को आजाद कहता है. राजसत्ता के रूप में तो हम निकल ही गए हैं, लेकिन क्या आपके देशवालों ने हमें ‘प्रवृत्ति’ के रूप में नहीं पाल रखा है? अब तो आपको कुछ कहना ही पड़ेगा….

गांधी: हे राम!

                                                                                                                                          – अनूपम‌णि त्रिपाठी

जहां जुर्म है उनका होना

आखिरकार दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा की मदद से छत्तीसगढ़ पुलिस ने सोनी सोरी को गिरफ्तार कर ही लिया. चार जुलाई को दक्षिणी दिल्ली से गिरफ्तारी के बाद सोनी ने दिल्ली की सत्र अदालत से दरख्वास्त की थी कि उन्हें छत्तीसगढ़ वापस न भेजा जाए. सोनी का कहना था कि वे सर्वोच्च न्यायालय को सारी सच्चाई बताने के लिए ही दिल्ली आई हैं और अगर उन्हें वापस छत्तीसगढ़ भेजा गया तो वहां की पुलिस उनके खिलाफ कोई झूठा मामला बना कर उन्हें मार देगी. मगर सात अक्टूबर को अदालत ने उनकी अपील खारिज करके उन्हें छत्तीसगढ़ पुलिस के हवाले कर दिया.

चौंकाने वाली बात यह थी कि मांकड़ ने न सिर्फ सारी बातें मान लीं बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि पैसा लाला के घर से बरामद किया गया था

10 अक्टूबर को 48 घंटों की पूछताछ के बाद 35 वर्षीया सोनी अपने पैरों पर खड़े होकर दंतेवाड़ा की अदालत में जाने के लायक भी नहीं थीं. पुलिस का दावा था कि वे बाथरूम में फिसल कर गिर गई थीं जिससे उनकी रीढ़ की हड्डी और सिर में चोटें आई हैं. इसके बाद उनके वकील के मुताबिक अस्पताल में उन्हें पैरों में बेड़ियां डालकर रखा गया. मगर यह तो जो सोरी के साथ हो रहा है उसका एक अंश मात्र है.

सोनी सोरी और उनके 25 साल के भतीजे लिंगा कोडोपी की कहानी उनमें से एक है जिन्हें जितना जल्दी हो सके देश को जानना चाहिए. यह बताती है कि जहां देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताई गई समस्या – नक्सलवाद – और उससे निपटने की लड़ाई फैली है वहां कुछ ऐसी आवाजें भी हैं जो हमें एक अलग ही तस्वीर दिखाती हैं. ऐसी आजाद आवाजें जिन्हें  सरकार और माओवादी दोनों ही कुचलना चाहते हैं.

करीब दो हफ्ते पहले कई अखबारों में खबर छपी थी कि नौ सितंबर को एस्सार का ठेकेदार बीके लाला दंतेवाड़ा के एक बाजार में माओवादी लिंगा कोडोपी को 15 लाख रुपये रंगदारी देते रंगे हाथों पकड़ा गया. लाला और लिंगा तो गिरफ्तार कर लिए गए जबकि नक्सलियों की एक सहयोगी सोनी सोरी फरार हो गई. इसके कुछ दिनों बाद सोनी सोरी तहलका के दफ्तर पहुंचीं. वे निराश थीं, लेकिन टूटी हुई नहीं थीं. उनका कहना था, ‘आपको हमारी मदद करनी होगी ताकि मैं दुनिया को सच बता सकूं. दिल्ली में हमारे शुभचिंतक कह रहे हैं कि मुझे पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देना चाहिए और अदालत में लड़ना चाहिए, लेकिन मैं बेगुनाह हूं. मैं गिरफ्तार क्यों हो जाऊं? मैं पढ़ी-लिखी हूं और अपने अधिकारों के बारे में जानती हूं. अगर मैंने कुछ भी गलत किया है तो मैं जेल में जाने के लिए तैयार हूं. लेकिन मुझ पर आरोप लगाने से पहले पुलिस कोई सबूत भी तो दिखाए.’

सोनी के मुताबिक लाला और लिंगा को कथित तौर पर जिस दिन पालनार बाजार से पैसे का लेन-देन करते हुए हिरासत में लिया गया उसके एक दिन पहले यानी आठ सितंबर को किरंदुल पुलिस स्टेशन में पदस्थ कांस्टेबल मांकड़ ने सोनी से बात की थी. उन्होंने सोनी से कहा था कि वे लिंगा को पुलिस का ‘सहयोग’ करने के लिए मनाएं. सोनी के अनुसार पुलिस चाहती थी कि लिंगा माओवादी बनकर जाए और लाला से पैसा ले कर पुलिस को दे दे. मांकड़ ने सोनी को भरोसा दिलाया था कि यदि वह ऐसा करवा पाई तो उसका नाम पुलिस में दर्ज सभी फर्जी केसों से हटा दिया जाएगा.

माओवादियों ने लिंगा को प्रस्ताव दिया था कि वे उनके कैडर में शामिल हो जाए लेकिन उसने इससे साफ मना कर दिया

सोनी के मुताबिक उन्होंने नाराजगी जताते हुए ऐसा करने से मना कर दिया. इसके बाद जब तक वे कुछ समझतीं मांकड़ ने उनका फोन लिया और खुद को स्थानीय माओवादी बताते हुए लाला को फोन कर दिया. सोनी को समझ में नहीं आया कि यह कांस्टेबल की अपनी तरफ से कुछ पैसा वसूलने की चाल थी या पुलिस लाला को फंसाने के लिए एक जाल बिछा रही थी. सोनी बताती हैं कि अगले दिन नौ सितंबर को शाम के चार बजे एक कार में सवार कुछ लोग उसके पिता के घर पालनार आए और लिंगा को जबर्दस्ती उठाकर ले गए. उन्होंने सादे कपड़ों में आए इन लोगों से अपनी पहचान दिखाने को कहा, लेकिन उन लोगों ने ऐसा नहीं किया. इस घटना से डरी सोनी ने तुरंत सीआरपीएफ- 51 बटालियन के डिप्टी कमांडर मोहन प्रकाश को फोन किया और उनसे पूछा कि क्या वे उनके लोग थे. मोहन प्रकाश ने इस घटना से अनभिज्ञता जताई. सोनी और उनके भाई रामदेव तब किरांदुल पुलिस स्टेशन पहुंचे. उन्होंने थाना प्रभारी उमेश साहू से उन लोगों के बारे में जानने की कोशिश की तो साहू ने भी उन लोगों के बारे में कुछ भी जानकारी न होने की बात कही. साहू ने साथ में इस बात की संभावना जताई कि हो सकता है लिंगा को नक्सली उठाकर ले गए हों.
यहां चौंकाने वाली बात यह है कि साहू इस मामले में साफ-साफ झूठ बोल रहे थे क्योंकि खुद उन्होंने नौ सितंबर को लाला और लिंगा के खिलाफ एफआईआर क्रमांक 26/2011 दर्ज की थी. इस बारे में साहू का कहना है कि उन्हें एक सूचना मिली थी जिसको आधार बनाकर लिंगा और लाला को बाजार से गिरफ्तार किया गया.

सोनी का परिवार पूरी रात लिंगा की चिंता में सो नहीं पाया. अगले दिन उन्होंने अखबार में पढ़ा कि लाला से पैसा लेते हुए लिंगा को गिरफ्तार किया गया है और सोनी सोरी इस मामले में फरार है. यह जानकर कि अब पुलिस उनकी तलाश कर रही होगी सोनी ने वहां से निकल जाने का फैसला किया. कई मुश्किलों से जूझते हुए सोनी आखिरकार दिल्ली पहुंच गईं और यहां मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से मदद की गुहार लगाई. तहलका के ऑफिस में अपने बयान की सच्चाई साबित करने के लिए सोनी ने मांकड़ से फोन पर बात की. सुबकते-सुबकते उन्होंने मांकड़ से पूछा कि उन्होंने लिंगा और उसको इस मामले में क्यों फंसा दिया. सोनी ने लगातार उससे सच्चाई जानने की कोशिश की; ‘क्या तुमने मेरे फोन से लाला से बात नहीं की थी?’ ‘ तुम्हें पता है कि लिंगा को पुलिस ने बाजार से नहीं बल्कि हमारे घर से गिरफ्तार किया था.’ ‘वे पैसों का लेन-देन नहीं कर रहे थे. हमें तुमने फंसाया है क्या यह सही नहीं है?’ सोनी ने मांकड़ से ऐसे ही कई सवाल किए.

चौंकाने वाली बात यह थी कि मांकड़ ने न सिर्फ सारी बातें मान लीं बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि पैसा लाला के घर से बरामद किया गया था. उन्होंने सोनी को यह सलाह भी दी कि उसे अभी दिल्ली में ही रुकना चाहिए. मांकड़ ने सोनी को यह भरोसा भी दिलाया कि पुलिस के पास सबूतों के नाम पर कुछ नहीं है इसलिए मामला अदालत में नहीं टिक पाएगा और उसके बाद वे आराम से छत्तीसगढ़ लौट सकती हंै. तब तक उन्हें चुप रहना चाहिए. तहलका के पास इस बातचीत की रिकॉर्डिंग है जो न सिर्फ सोनी के बयानों की सच्चाई बताती है बल्कि एस्सार से जुड़े मामले में उनके और लिंगा के निर्दोष होने की बात भी साबित करती है. बातचीत यह भी साबित करती है कि छत्तीसगढ़ पुलिस किस तरह रणभूमि में तब्दील हुए इस राज्य में दुराग्रहों के आधार पर काम कर रही है.

दरअसल गौर से देखा जाए तो माओवादी भी उस पूरी गड़बड़ी का हिस्सा बन गए हैं जिसे ठीक करने का वे दावा करते हैं

कानून की हदों से बाहर जाकर लिंगा और सोनी को शिकंजे में कसने के पुलिस के खेल का संकेत ओडीशा की सीमा में पड़ने वाले बडापदर गांव के सरपंच जयराम खोडा के एक वीडियो टेप से भी मिलता है जो सार्वजनिक रूप से जारी हुआ है. इसमें उन्होंने कहा है कि उन्हें ओडीशा पुलिस ने 14 सितंबर को पकड़ा था और पूछताछ के लिए छत्तीसगढ़ पुलिस को सौंप दिया था. छत्तीसगढ़ पुलिस ने उन्हें आठ दिन तक गैरकानूनी रूप से हिरासत में रखा और इस दौरान बुरी तरह प्रताड़ित किया. खोड़ा अपने बयान में कहते हैं, ‘उन्होंने मेरे दोनों हाथ बांध दिए थे. फिर उन्होंने मुझे उल्टा लटका दिया और दो पुलिसवालों ने डंडों से मेरी जमकर पिटाई की…फिर वे मुझे दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक के पास ले गए और जबर्दस्ती मुझे उनके हिसाब से बयान देने के  लिए मजबूर किया…’ खोड़ा को 19 तारीख तक इसी तरह हिरासत में रखा गया. उसके बाद उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया. 21 सितंबर को वे रिहा हो गए.

खोड़ा जिस जबर्दस्ती में लिए बयान की बात कर रहे हैं उसमें कहा गया था कि वे लाला के साथ एक नक्सल कमांडर से मिलने गए थे और उन्होंने उसे पैसा दिया था. हालांकि खोड़ा के मुताबिक यह सच नहीं है. वे बताते हैं कि उनका लाला से संपर्क अपनी पंचायत में हो रहे निर्माणकार्य के संबध में हुआ था. वे अपनी पंचायत में 15-20 ट्यूबवेल खुदवाना चाहते थे, एक स्कूल भवन की मरम्मत करवाना चाहते थे और वहीं एक स्कूल भवन का निर्माण भी होना था. अब सवाल यह है कि आखिर क्या वजह है कि पुलिस सोनी और लिंगा को एस्सार प्रकरण में फंसा रही है.  इस सवाल का जवाब पाने और इस मामले को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा.

आम तौर पर आदिवासियों के बारे में बात करते ही उनके गरीब और बेचारे होने की छवि जेहन में बनती है. लेकिन इस धारणा के विपरीत सोनी राजनीतिक रूप से सक्रिय और संपन्न आदिवासी परिवार से ताल्लुक रखती हैं. उनके पिता मदरू राम सोरी 15 साल तक सरपंच रहे हैं. उनके चाचा सीपीआई के पूर्व विधायक हैं. उनके बड़े भाई कांग्रेस में हैं और भतीजा लिंगा एक होनहार युवा रहा है. लिंगा ने दिल्ली से सटे नोएडा के एक संस्थान से पत्रकारिता का डिप्लोमा लिया है और वह वापस अपने समुदाय में जाकर वहां की सच्चाई को दुनिया के सामने लाना चाहता था.

खुद सोनी को यहां काफी इज्जत की नजर से देखा जाता है. सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के मार्गदर्शन में पढ़ी-लिखी यह आदिवासी महिला पहले जबेली स्थित आदिवासियों के एक स्कूल में सरकारी शिक्षक थीं. अपनी गिरफ्तारी से कुछ दिन पहले तहलका के ऑफिस में सोनी बेहद गर्व के साथ बता रही थीं, ‘ मैं वापस जाकर अपने लोगों की मदद करना चाहती हूं. अपनी पढ़ाई-लिखाई का इस्तेमाल मैं उन लोगों को आत्मनिर्भर बनाने में करना चाहती हूं. यदि हम लोगों ने अपने लिए आवाज उठाने की कोशिश नहीं की तो आदिवासियों का सफाया कर दिया जाएगा.’ उनका आगे कहना था, ‘लिंगा भी ऐसा ही सोचता है. उसके भीतर एक आग है. वह न तो पुलिस के साथ काम करना चाहता है न  ही नक्सलियों के. वह सिर्फ अपने लोगों के लिए लड़ना चाहता है.’

एक सक्षम और जीवंत लोकतंत्र में इस तरह की भावना को सम्मान मिलना चाहिए. लेकिन इन बातों को रणभूमि में बदल चुके नक्सल प्रभावित इलाके के संदर्भ में देखें तो इस तरह की सोच रखने वालों का मुश्किलों में फंस जाना कोई विचित्र घटना नहीं है. बिनायक सेन, हिमांशु कुमार, कोपा कुंजम और कुछ ऐसे ही दर्जनों लेकिन कम जाने-पहचाने सामाजिक कार्यकर्ता इन इलाकों में ‘खतरे’ से कम नहीं समझे जाते. यहां आपके तटस्थ रहने को असंभव बना दिया गया है. सोनी और लिंगा या उनके जैसे कई दूसरे लोगों के खिलाफ चल रही कार्रवाइयों के केंद्र में यही मानसिकता अहम भूमिका निभा रही है.

‘ पुलिस लगातार धमकी दे रही थी कि अगर तुम मुखबिर नहीं बनी तो हम तुम्हें जेल में डाल देंगे, जैसे तुम्हारे पति को डाला है ‘

नाम न बताने की शर्त पर दंतेवाड़ा में पदस्थ एक वरिष्ठ सीआरपीएफ कमांडर इस बात की पुष्टि करते हैं, ‘आपको यहां किसी न किसी पक्ष में रहना ही होगा. आप बीच में नहीं रह सकते. आप या तो पुलिस और अर्धसैन्य बलों के साथ हैं या फिर नक्सलवादियों के.’ दंतेवाड़ा जिले में खासकर जहां सोनी और लिंगा रहते हैं- पालनार, समेली, जबेली और गीदम माओवादियों के गढ़ माने जाते हैं. घने जंगलों वाले इस इलाके में नक्सलवादियों और सीआरपीएफ दोनों के ठिकाने हैं. यही वह जगह है जहां हत्याएं और प्रतिहत्याएं संक्रामक रोग की तरह फैली हैं. हिमांशु कुमार बताते हैं, ‘इन जगहों पर रहना ही अपने आप में अपराध है.’ यहां यदि आप पुलिस के पक्ष में हैं तो नक्सलवादी आपकी हत्या कर देंगे और यदि आपके नक्सल समर्थक होने की जानकारी पुलिस के पास है तब आप उनके निशाने पर होंगे.

सोनी और लिंगा इन दोनों ही पक्षों के समर्थक नहीं थे. वे अपने संवैधानिक अधिकार चाहते थे : तमाम नागरिकों की तरह बराबरी का हक और कानून का शासन. वे अपने घर को ठेकेदारों, राजनीतिज्ञों, पुलिस और माओवादियों के शोषक हाथों से मुक्त करवाना चाहते थे. उन्होंने आदिवासियों के लिए न्यूनतम मजदूरी की सीमा 60 रुपये से बढ़ाकर 120 रुपये करवाने के लिए संघर्ष भी किया था, वे खदान मजदूरों के हकों के लिए भी आगे आए थे, उन्होंने जंगल में माओवादियों के खिलाफ विभिन्न अभियानों की आड़ में पुलिस के जरिए चलने वाली सागौन की अवैध तस्करी के खिलाफ आवाज उठाई थी.

अपने समुदाय के लिए आवाज बुलंद करने की इन कोशिशों के चलते वे जल्दी ही माओवादियों और पुलिस दोनों की नजरों में आ गए. माओवादियों ने लिंगा को प्रस्ताव दिया कि वह उनके कैडर में शामिल हो जाए लेकिन उसने इससे साफ मना कर दिया. यहां तक कि उसने एक बार इलाके के प्रभावशाली माओवादी कमांडर गणेश उइके को कड़ा पत्र लिखकर कैडर के तौर-तरीकों पर नाराजगी जताई थी और बताया था कि कैसे माओवादियों के हमलों की वजह से निर्दोष आदिवासियों को मुसीबत झेलनी पड़ रही है. सोनी और लिंगा दोनों का एक स्थानीय माओवादी नेता से तब काफी झगड़ा भी हुआ था जब वह सोनी के आश्रम से तिरंगा झंडा उतारकर वहां अपना लाल झंडा फहराना चाहता था.

लेकिन यह तो मुसीबत का एक मोर्चा था. अपने समुदाय के अधिकारों के लिए सोनी और लिंगा की बेबाकी ने उन्हें एक प्रभावशाली स्थानीय ठेकेदार अवधेश गौतम के साथ संघर्ष की स्थिति में ला दिया. कांग्रेसी कार्यकर्ता गौतम पहले कांस्टेबल हुआ करता था, इसलिए पुलिस में उसकी अच्छी पहचान है. इसके अलावा गौतम की सोरी परिवार से पुरानी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता भी है. इन दो आदिवासी युवाओं के बढ़ते प्रभाव ने जल्दी ही गौतम को असहज कर दिया. सोनी को जब कलेक्टर से अपना स्कूल बनाने की अनुमति मिल गई तो कथित तौर पर गौतम को लगने लगा कि यह उसके व्यवसाय में घुसपैठ करने की कोशिश है.

आदिवासी समुदाय पर सोनी और लिंगा के असर को देखते हुए पुलिस को भी एहसास हो रहा था कि वे इस इलाके में उनके लिए मुखबिरी का काम कर सकते हैं. पुलिस ने इसके लिए उन दोनों पर दबाव भी डाला. 30 अगस्त, 2009 को लिंगा को उसके घर से उठा लिया गया. उसे 40 दिन तक पुलिस स्टेशन के शौचालय में रखा गया. हालांकि पुलिस शुरू से ही इस बात को नकारती रही कि लिंगा उसकी हिरासत में है. इस घटना के बाद जब लिंगा के बड़े भाई मसाराम और हिमांशु कुमार ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दाखिल की तब जाकर 10 अक्टूबर को लिंगा को रिहा किया गया.

चौंकाने वाली बात है कि ठीक अगले दिन पुलिस ने मसाराम को एक ‘नक्सलवादी’ की मदद करने के आरोप में हिरासत में ले लिया. हिमांशु कुमार ने फिर अदालत का दरवाजा खटखटाया और पुलिस को उसे छोड़ना पड़ा. इस तरह की घटनाएं तब तक चलती रहीं जब तक हिमांशु कुमार ने लिंगा को दंतेवाड़ा छोड़कर दिल्ली जाने के लिए राजी नहीं कर लिया. लिंगा अब दंतेवाड़ा से बाहर था और दिल्ली में राष्ट्रीय मीडिया के सामने पुलिस के अत्याचारों और राज्य में प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ आवाज उठा रहा था. अब पुलिस ने सोनी को अपने निशाने पर लिया. सोनी पर लगातार दबाव डाला जाने लगा कि वह लिंगा से दंतेवाड़ा लौटने को कहे. सोनी के मुताबिक यह साफ होने के बाद कि लिंगा को मुखबिर बनाना मुमकिन नहीं है, पुलिस लिंगा को कैसे भी माओवादी साबित करना चाहती थी.

सीआरपीएफ के एक कमांडर इस बात की पुष्टि करते हैं, ‘ सोनी और लिंगा को इसलिए निशाना बनाया गया ताकि अल्पसंख्यक आदिवासियों के हितों से ज्यादा बहुमत वाले गैरआदिवासियों के हितों की सुरक्षा की जा सके. पहले आदिवासियों की तरफ से बोलने वाला कोई नहीं होता था, लेकिन इन लोगों के सामने आने के बाद हालात बदलने लगे. लिंगाराम का पत्रकार बनना उनके लिए गंभीर खतरा था क्योंकि अब वह उनकी कारगुजारियां उजागर करने की स्थिति में था. पुलिस यह बात सुनिश्चित करना चाहती थी कि आदिवासियों की अपनी कोई आवाज न रहे.’ इस बीच जुलाई, 2010 में एक ऐसी घटना हुई जिससे पैदा हुए दुष्चक्र में इन दो युवा आदिवासियों की आवाज हमेशा के लिए दबाई जा सकती थी. 

सात जुलाई, 2010 को गौतम के घर पर माओवादियों ने हमला कर दिया. गणेश उइके के नेतृत्व में तकरीबन 100 नक्सलवादियों और 150 ग्रामीणों ने गौतम के घर को घेर लिया. माओवादियों की कार्रवाई में गौतम के एक रिश्तेदार और नौकर की मौत हो गई. उसका बेटा हमले में बुरी तरह घायल हुआ. इस घटना की वजह क्या थी इस बारे में कई चर्चाएं चलीं. कहा जाता है कि माओवादियों ने गौतम से दो करोड़ रुपये बतौर ‘प्रोटेक्शन मनी’ मांगे थे और वह माओवादियों को यह रकम नहीं दे पाया जिसकी प्रतिक्रिया में यह हमला किया गया था. इसके अलावा यह भी कहा गया कि गौतम माओवादियों का भय दिखाकर इलाके में बंटने वाला सरकारी राशन (पीडीएस) अपने घर से बंटवाना चाहता था और इसीलिए माओवादियों ने उस पर हमला किया. उसका कहना था कि सरकारी राशन का एक बड़ा हिस्सा माओवादी ले लेते हैं. यदि राशन का वितरण उसके घर से हो तो वह सही लोगों तक पहुंचेगा. हालांकि तहलका से बातचीत में यह बात खारिज करते हुए गौतम का कहना था, ‘ राशन या पीडीएस में मैंने कभी दखल देने की कोशिश नहीं की.’
लेकिन इस घटना ने गौतम को यह मौका जरूर दे दिया कि वह अपने विरोधियों से हिसाब बराबर कर सके. उसने माओवादी हमले वाली घटना की एफआईआर में 60 लोगों के नाम दर्ज करवाए. इनमें उन लोगों के नाम होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता जो वास्तव में इस घटना में शामिल थे. लेकिन इनमें सोनी सोरी और उनके पति अनिल पुताने का नाम भी शामिल था. गौतम के मुताबिक जब उनके घर पर हमला हुआ तब पुताने (जो गीदम में एक ढाबा चलाते हैं) उनके घर के आसपास महिंद्रा बोलेरो से घूम रहे थे.  (यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मुंबई के एक स्वतंत्र फोटोग्राफर जावेद, जो छत्तीसगढ़ में चल रहे इस संघर्ष को लगातार अपने कैमरे से रिकॉर्ड कर रहे हैं, का नाम भी हमलावरों में शामिल है. दूसरे शब्दों में कहें तो यह एक और तटस्थ आवाज को दबाने की कोशिश है.)

सोनी और पुताने के पास इस घटना में शामिल न होने के पर्याप्त तर्क हैं. उस रात पुताने और उनकी बोलेरो जगदलपुर में थी जहां वे एक अस्पताल में भर्ती सोनी की मां को देखने गए थे. सोनी उस समय जबेली स्थित अपने आश्रम में थीं. तहलका ने जब उससे यह जानने की कोशिश की कि इतने लोगों की भीड़ और अफरातफरी में वह इन दोनों को कैसे पहचान पाया तो टालमटोल करते हुए उसने बताया कि कुछ लोगों के नाम पुलिस जांच के बाद शामिल किए गए. वह इस बात पर भी जोर देता है कि उसने पुताने की बोलेरो देखी थी. हालांकि सोनी के नाम पर वह स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं बता पाता. इस सतर्कता की वजह भी है क्योंकि पुलिस ने 10 जुलाई को पुताने को हिरासत में लिया और इसी दिन उनकी बोलेरो को भी जब्त किया लेकिन सोनी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई.

तीन दिन के बाद, 13, जुलाई को दंतेवाड़ा के विवादास्पद एसएसपी एसआरपी कल्लूरी ने एक अजीबोगरीब प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की. यह बताया गया कि लिंगाराम कोडोपी गौतम के घर पर हमले का ‘मास्टरमाइंड’ है. पुलिस ने यह भी दावा किया कि पिछले कुछ महीने ‘कोडोपी ने दिल्ली और गुजरात में आतंकवादी गतिविधियां चलाने का प्रशिक्षण लिया है और लिंगा लेखिका अरुंधती रॉय, सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर और दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर से लगातार संपर्क में था.
इस घटना के वक्त लिंगा दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था. इसीलिए कल्लूरी की इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में लिंगा पर लगाए गए इन बेकार के आरोपों के बाद इतना हल्ला मचा कि छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन को खुद इनका खंडन करना पड़ा.
लेकिन सोनी सोरी और लिंगा की मुश्किलें यहां खत्म नहीं हुईं.

केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने हाल ही में कहा था कि नक्सल हमलों में आतंकवादी हमलों की अपेक्षा अधिक लोगों की जान जा रही है. लेकिन जिन लोगों की जान इसमें नहीं जा रही है उनका जीवन देश में चल रहे धीमी तीव्रता के युद्ध की विभीषिका की जीती-जागती तस्वीर बन चुका है. इन इलाकों में न्याय, विश्वास, स्वतंत्रता, नैतिकता, सबूत, सही और गलत की साधारण समझदारी जैसी चीजें भी धीरे-धीरे समाप्त होती गई हैं. अस्पताल में पड़े सोनी के पिता निराशा के साथ कहते हैं, ‘नक्सली हम पर सामने से हमला कर रहे हैं और पुलिस पीछे से. हम तो कहते हैं कि हम पर इतना रहम करो कि हम सबको मार डालो. इस पूरे झंझट से मुुक्ति मिल जाएगी.’

वे आगे कहते हैं, ‘जब भी माओवादी सम्मन भेजते हैं, हमें जाना पड़ता है. जिंदा रहना है तो जाइए. मरना है तो मत जाइए. लेकिन अगर आप चले गए तो पुलिस आपके पीछे पड़ जाती है. मैं पुलिस से पूछता हूं कि क्या तुम्हारा सबसे बड़ा अफसर भी इन इलाकों में बिना बंदूक के रह सकता है. क्या उसमें माओवादियों की बात न मानने की हिम्मत होगी?’

सीआरपीएफ के एक कमांडर भी इस बात की पुष्टि करते हैं, ‘दंतेवाड़ा पहुंचने पर मुझे एक घातक त्रिकोण समझ में आया. सुरक्षाबलों और नक्सलियों के बीच ग्रामीण और आदिवासी फंसे हुए हैं. इन इलाकों के 90 फीसदी आदिवासी माओवादियों के संपर्क में हैं. वे उन्हें राशन देते हैं और उनकी बैठकों में जाते हैं. वे मजबूरन ऐसा करते हैं, अन्यथा वे इन इलाकों में जिंदा ही नहीं बचेंगे. लेकिन सुरक्षाबल इस बात में अंतर नहीं कर पाते कि कौन मजबूरन गया है और कौन माओवादियों के पक्ष में सक्रिय है. ऐसे हालात में किसी से भी बदला लेने के लिए उसे माओवादी बता देना बहुत आसान है.’

उधर, हकीकत में माओवादी भी उस पूरी गड़बड़ी का हिस्सा बन गए हैं जिसे ठीक करने का वे दावा करते हैं. अगर उनकी हिंसावादी विचारधारा आदि के बारे में बात न भी करें तो भी लुटेरी और दमनकारी व्यवस्था से आदिवासियों की रक्षा करने या बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा जमीन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट का प्रतिरोध करने के लिए आदिवासियों को प्रशिक्षित करने के अपने एजेंडे से वे भटक चुके हैं. इलाके के कई लोग ठीक ही सवाल कर रहे हैं कि अगर माओवादी भारी पैसे के बदले इजाजत न दे रहे होते तो इलाके में ठेकेदार कैसे काम कर पाते और खनन कैसे हो पाता.

सुरक्षा बलों के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि सोनी और लिंगा को फंसाने के पीछे माओवादियों और एस्सार के बीच पैसे का लेन-देन नहीं है. असल में पुलिस ने लाला को इसलिए गिरफ्तार किया है कि उसे अपना हिस्सा नहीं मिल रहा था. वे बताते हैं, ‘माओवादी नेता आजाद ने एस्सार के चित्रकोंडा पंपिंग स्टेशन की पाइप उड़ा दी थी क्योंकि वह प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन के खिलाफ था. लेकिन दूसरे माओवादी नेता अभय के खयाल जरा अलग किस्म के हैं. लाला ने घने जंगलों के बीच से उस पाइप का फिर से निर्माण कराया. यह सोचना भी असंभव है कि कोई प्राइवेट ठेकेदार बिना माओवादियों की इजाजत के यह काम करवा सकता है. यह ऐसी जगह है, जहां अर्धसैनिक बल भी जाने से घबराते हैं. पुलिस को यह पता था और चूंकि उन्होंने पुलिस के लिए हिस्सा नहीं निकाला, इसलिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.’

पुलिस को दिए गए लाला के कथित बयान के आधार पर पुलिस ने छत्तीसगढ़ में एस्सार के जनरल मैनेजर डीवीईएस वर्मा को भी गिरफ्तार कर लिया. तहलका से बात करने वाले अधिकारी ने तो यह भी कहा कि लिंगा और सोनी की गिरफ्तारी तो सिर्फ ध्यान बंटाने के लिए की गई है. वे कहते हैं, ‘पुलिस को पता था कि जैसे ही वे लिंगा और सोनी को गिरफ्तार करेंगे, सिविल सोसाइटी के लोग हंगामा करेंगे. चूंकि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है, इसलिए वे जल्दी ही छूट जाएंगे. वे लाला के खिलाफ कोई पुख्ता मामला नहीं बनाना चाहते. वे तो बस अपना हिस्सा चाहते हैं.’ उधर, एस्सार समूह अपनी तरफ से माओवादियों को किसी भी तरह का पैसा दिए जाने के आरोपों को सिरे से खारिज करता है.

सोनी के लिए यह सब झूठी तसल्ली जैसा है. लाला और गौतम के अलावा दूसरे मामलों में भी उन्हें फंसाया गया है. दरअसल छत्तीसगढ़ में कुछ दुश्मनियों की जड़ें पैसे और ठेकों से ज्यादा आगे जाती हैं. यहां अपनी स्वतंत्र आवाज उठाने या सच्चाई का गवाह बनने पर अघोषित पाबंदी है. सात जुलाई, 2010 को गौतम पर घातक हमले के अलावा नक्सलियों के 150 लोगों के वर्दीधारी समूह ने कुआकोंडा पुलिस स्टेशन और सीआरपीएफ कैंप पर मोर्टार और राइफल से हमला किया था. अगले दिन दर्ज की गई एफआईआर की प्रति अभी तक सोनी के वकील को उपलब्ध नहीं हुई है.

15 अगस्त, 2010 को कुआकोंडा का नया तहसील ऑफिस एक बम धमाके से पूरी तरह ध्वस्त कर दिया गया. इस मामले में ‘अज्ञात नक्सलियों’ के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई. एक महीने बाद 16 सितंबर, 2010 को नक्सलियों ने नरली में कुछ ट्रकों में आग लगा दी. इस मामले में दर्ज की गई एफआईआर भी उपलब्ध नहीं है.

खैर, इन हमलों के करीब तीन महीने बाद 30 अक्टूबर, 2010 और 11 दिसंबर,  2010 को पुलिस ने इन मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए. इन सभी में सोनी को आरोपित बताया गया है और उसे ‘फरार’ दिखाया गया है. उन दोनों गवाहों के बयान हास्यास्पद हैं जिनके आधार पर सोनी पर फरार होने का आरोप लगाया गया है. पिछले साल 2010 में इन हमलों के समय से लेकर इस साल 11 सितंबर को दिल्ली के लिए चल देने के पहले तक सोनी लगातार जबेली में अपने स्कूल जाती रही हैं. रजिस्टर पर उनके दस्तखत हैं.  जब तहलका ने दंतेवाड़ा के एसपी अंकित गर्ग से पूछा कि उन्होंने इन मामलों में नामजद होने के बाद भी अब तक सोनी को गिरफ्तार क्यों नहीं किया तो उनका जवाब था, ‘हमने उसे गिरफ्तार करने का लगातार प्रयास किया. लेकिन यह इलाका बहुत दुर्गम है और वह लगातार फरार थी.’

सोनी का कथित दुश्मन और उनके खिलाफ शिकायत करने वाला गौतम ही गर्ग के इस झूठ का पर्दाफाश कर देता है. तहलका को वह विश्वास दिलाना चाहता था कि वास्तव में उसकी सोनी से कोई दुश्मनी नहीं है. उसने बताया कि लाला कांड होने के पहले तक सोनी पिछले पूरे साल अपनी सामान्य दिनचर्या चला रही थीं. गौतम का कहना था, ‘मेरे घर पर हमला होने के बाद चार-पांच बार तो मैं खुद ही उससे मिला हूं. अगर मैं उसका दुश्मन होता तो उसे पकड़ने के लिए पुलिस को साथ लेकर जाता.’  हकीकत यह है कि हाल-फिलहाल तक पुलिस सोनी को गिरफ्तार नहीं करना चाहती थी. वह सिर्फ फर्जी मामले में फंसाकर उन्हें कमजोर करना चाहती थी. सोनी का कहना था, ‘पुलिस लगातार धमकी दे रही थी कि अगर तुम मुखबिर नहीं बनी, अगर तुमने लिंगा को दिल्ली से वापस आने के लिए नहीं कहा, अगर तुम हमारे हिसाब से नहीं चली तो हम तुम्हें जेल में डाल देंगे, जैसे तुम्हारे पति को डाला है.’
बावजूद इसके सोनी ने दबाव के आगे हथियार डालने से इनकार कर दिया. तहलका से बातचीत में उनका कहना था, ‘कई बार मैंने पुलिस और माओवादी दोनों पक्षों से बात की है, लेकिन इसलिए नहीं कि मैं इनमें से किसी एक की तरफ हूं. बल्कि इसलिए कि मैं अपने इलाके में खून-खराबा नहीं चाहती. जब भी माओवादी पुलिस पर हमला करते हैं, पुलिस निर्दोष गांववालों को उठा ले जाती है और जब पुलिस माओवादियों पर हमला करती है तो वे मुखबिर की खोज में गांव में आते हैं. हर तरफ से मारे तो हम आदिवासी ही जाते हैं.’

चारों तरफ से परेशानियों में घिरी सोनी को इसी बीच एक और भयानक झटका लगा. इसी साल 14 जून को माओवादियों ने उनके परिवार पर बुरी तरह हमला किया और उसके पिता के पैर में गोली मार दी. उन्होंने परिवार के बाकी लोगों के हाथ-पैर बांधकर जंगल में छोड़ दिया, घर को पूरी तरह तबाह कर दिया और सोना, बर्तन, अनाज और गायें तक लूट ले गए. सोनी के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती थी कि उनके पति माओवादी होने के आरोप में जेल में हैं. उनके खिलाफ माओवादी होने के चार मामले चल रहे हैं, फिर भी माओवादियों ने उन पर हमला किया. उनका कहना था, ‘क्या पुलिस को पता नहीं है? अगर मैं और लिंगा माओवादी होते तो वे हमारे पिता, हमारे घर पर ऐसा हमला क्यों करते?’ माओवादियों द्वारा सोनी के परिवार पर हमले का कारण किसी को भी ठीक-ठीक नहीं पता है, लेकिन लोगों का अनुमान है कि चूंकि अपने खिलाफ दर्ज मामलों के चलते सोनी को बार-बार पुलिस स्टेशन जाना पड़ता था, इसलिए माओवादियों को शक हो गया कि वे पुलिस की मुखबिर हैं. माओवादियों ने उन्हें और उनके पिता को दो बार अपनी जन-अदालत में तलब किया था, लेकिन दोनों बार सोनी ने तर्क दिया कि उन्हें और उनके पिता पर मुखबिरी करने का आरोप मढ़ने से पहले इसके सबूत दिखाने चाहिए. यह दुखद है कि पुलिस और माओवादी दोनों के लिए सबूत बेकार की चीज है. उधर, जिस गवाह के बयान के आधार पर सोनी के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल किया गया है वही पुलिस की कहानी के झूठ का पर्दाफाश कर देता है.

एक आरोपपत्र में कहा गया है कि माओवादियों ने कुआंकोंडा पुलिस स्टेशन पर उसी रात हमला किया जब उन्होंने गौतम पर हमला किया था. दूसरे आरोपपत्र में कहा गया है कि कुआंकोंडा तहसील पर पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के दिन हमला हुआ था. पहले आरोपपत्र में गवाह का नाम मुंद्रा मुचाकी दर्ज है. उसके शब्दों में, ‘जिस रात हमला हुआ उसकी अगली सुबह जब वह अपने खेत पर जा रहा था तो उसने छह आदिवासियों के साथ वर्दीधारी नक्सलियों को जंगल से बाहर निकलते देखा.’ फिर वह सभी गांववालों के नाम गिनाता है. वह सोनी का भी नाम लेता है और आगे कहता है कि ‘डर के मारे मैं जंगल में छिप गया और उनकी बातें सुनने लगा.’ उसके मुताबिक नक्सली और गांव वाले हमले के बारे में चर्चा कर रहे थे और इस बात पर अफसोस कर रहे थे कि कुछ पुलिसवाले और गौतम बच गए थे. फिर उन्होंने संकल्प लिया कि आगे करने वाले हमलों में वे एक भी पुलिसवाले को जिंदा नहीं बचने देंगे. बयान में आगे कहा गया है, ‘बाद में मुझे पता चला कि रात में नक्सलियों और इन छह लोगों ने गौतम और कुआंकोंडा पुलिस स्टेशन पर हमला किया था.’ बयान इस बात के साथ खत्म होता है, ‘मैं बहुत डरा हुआ था, इसलिए मैंने किसी से भी इस घटना की चर्चा नहीं की. आज मैं बिना किसी डर के यह बात कह रहा हूं.’ बयान के नीचे 17अक्टूबर, 2010 की तारीख पड़ी है और दस्तखत किए गए हैं.

इस बात को सही मानने के लिए हमें अपनी कल्पना को बहुत बड़े पंख लगाने होंगे कि वर्दीधारी नक्सली और ग्रामीण रात के किसी हमले के बाद सुबह इस तरह टहल रहे होंगे. और अपनी कार्रवाई की ऐसी समीक्षा कर रहे होंगे जिसे उनसे डरकर जंगल में छिपा एक आदमी सुन सके. लेकिन जैसे इतना ही पर्याप्त नहीं था. पुलिस ने दूसरे आरोपपत्र में मुचाकी लासा और सन्नू मुचाकी नाम के दूसरे दो गवाहों के बयान दर्ज किए हैं. इन दोनों गवाहों ने ठीक वही देखा और सुना जैसा पहले गवाह ने देखा था. लेकिन इनके देखने और सुनने का समय पहले गवाह के समय से एक महीने बाद का है. यानी स्वतंत्रता दिवस के दिन कुआंकोंडा पुलिस स्टेशन पर हमले के बाद की सुबह का. इन दोनों का भी दावा है कि ये अपने खेत पर जा रहे थे तभी उन्होंने ‘वर्दीधारी नक्सलियों को जंगल से बाहर आते देखा.’ इनके साथ भी वही छह गांववाले थे. इनमें सोनी का भी नाम है. (दिलचस्प है कि गांव वालों के नाम ठीक उसी क्रम में हैं, जैसे पहले गवाह की लिस्ट में थे.) वे सभी एक रात पहले के हमले के बारे में चर्चा कर रहे थे. ये दोनों गवाह भी डर के मारे जंगल में छिप गए, लेकिन उनकी बातचीत सुनते रहे. इन्हें भी ‘बाद में पता चला’ कि रात में इस तरह का हमला हुआ था. पहले इन दोनों ने भी डर के कारण किसी से भी चर्चा नहीं की लेकिन अब वे उस डर से निकल चुके हैं. इन बयानों पर भी पहले गवाह की ही तरह ठीक 17 अक्टूबर, 2010 की तारीख पड़ी है और दस्तखत हैं.

इस तरह तीनों गवाहों ने वर्दीधारी नक्सलियों और छह ग्रामीणों को अलग-अलग अपराध करने के बाद जंगल से बाहर आते देखा जो ठीक एक तरह से एक रात पहले के अपने हमले की समीक्षा कर रहे थे. फिर इन तीनों गवाहों ने डर के चलते कई महीनों तक अपना मुंह बंद रखा. लेकिन अचानक ही वे अपने डर से उबर गए और एक ही जांच अधिकारी के सामने, एक ही दिन और एक ही भाषा में अपने बयान दर्ज करवा दिए. क्या ऐसा हो सकता है? साफ है कि पुलिस द्वारा सोनी के खिलाफ बनाए गए आरोपपत्रों में न्याय का मखौल उड़ाया गया है.

सोनी की गिरफ्तारी के कुछ ही घंटे पहले दंतेवाड़ा में तैनात सीआरपीएफ के एक कमांडर ने तहलका को बताया था, ‘कभी-कभी कुछ गलत हो सकता है, लेकिन हमारे पास न्याय प्रणाली है, कानून है, हमारी अदालतें निष्पक्ष हैं. कृपया सोनी को समझाइए कि दंतेवाड़ा वापस आए और खुद को पुलिस के हवाले कर दे. उसे गिरफ्तार होने दीजिए. उसे कोई डर नहीं होना चाहिए. अगर वह बेगुनाह है तो वह यह साबित करने में भी सफल होगी.’ सोनी जिंदा रहना चाहती थीं ताकि वे लोगों को अपनी कहानी बता सकें. उन्हें विश्वास था कि सच की जीत होगी. अब जबकि उन्हें वापस छत्तीसगढ़ ले जाया गया है, उनका यह विश्वास कायम रखा जाना चाहिए. तो क्या एस्सार मामले में सोनी और लिंगा को पुलिस ने जान-बूझकर फंसाया ताकि वे उगाही का अपना हिस्सा हासिल कर सकें? या यह भविष्य में किसी भी मामले में गवाह बनाने के लिए उन्हें तोड़ने की कोशिश थी?

इसके जवाब का कुछ संकेत हमें इस साल मार्च में हुई एक घटना में मिल सकता है. पिछले साल सीआरपीएफ के 76 जवानों की हत्या की पहली वर्षगांठ पर मार्च में पुलिस और एसपीओ ने तीन गांवों को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था. 300 झोपड़ियां जला दी गईं, तीन गांववालों की हत्या की गई और तीन महिलाओं से बलात्कार किया गया. पुलिस ने पूरे इलाके की नाकाबंदी कर दी. इस मुद्दे पर जब हर तरफ से दबाव बढ़ा तो राज्य सरकार ने एसपी का तबादला किया और न्यायिक जांच की बात भी कही. अप्रैल की शुरुआत में पुलिस की नाकाबंदी से बचते हुए तहलका एक लंबे रास्ते से इन प्रभावित गांवों तक पहुंचा था. प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि हमलावर सीआरपीएफ, कोबरा कमांडो, कोया कमांडो और पुलिस के वर्दीधारी जवान थे. इस टीम के साथ कुछ वर्दीवाले और कुछ बिना वर्दी के एसपीओ थे.  शायद इस मामले में प्रत्यक्षदर्शी लोगों के बयान उनकी भाषा में दर्ज करने वाला दूसरा एकमात्र पत्रकार लिंगा था. इस वजह से दंतेवाड़ा पुलिस को भविष्य का एक खतरा जरूर दिखाई दिया होगा.

पत्रकारिता का कोर्स पूरा करने के बाद लिंगा ने घर जाकर लोगों की बेहतरी के लिए काम करने के बारे में सोचा था. हिमांशु ने उसे ऐसा न करने की सलाह दी थी. तब लिंगा ने हंसते हुए कहा था, ‘सर, मैं अपने भीतर से पुलिस का डर निकाल देना चाहता हूं. मैंने कुछ भी गलत नहीं किया है. जबकि पुलिस ने गलत किया है. मुझे क्यों डरना चाहिए? क्या सिर्फ इसलिए कि मैं एक आदिवासी हूं और एक आदिवासी को पुलिस से जरूर डरना चाहिए?’ पिछले कुछ महीनों में लिंगा ने कई बार जिलाधिकारी और एसपी से मिलकर स्थानीय विकास और जनजीवन को सामान्य बनाने के लिए दबाव बनाया था.

साफ है कि सोनी की तरह ज्ञान और साहस के हथियार से लैस लिंगा की इच्छा भी यही थी कि अपनी माटी में आत्मविश्वास के बीज बोए जाएं. नक्सलवाद पर हो रहे युद्ध की परस्पर विनाशकारी दुनिया में उसका इससे बड़ा जुर्म और कुछ हो ही नहीं सकता था.   

कारसेवा या चुनावी मेवा!

अयोध्या में कारसेवकपुरम् स्थित राम मंदिर निर्माण कार्यशाला में इन दिनों नजारा बदला-बदला सा है. पिछले कई सालों से धूल खाते पत्थरों की चमक और शांत पड़ी छेनी-हथौड़ी की ठक-ठक एक बार फिर से लौटने लगी है. मंदिर निर्माण के लिए पत्थर तराशे जाने का जो काम वर्ष 2007 के बाद रुक गया था उसे एक अक्टूबर से दोबारा शुरू कर दिया गया है. इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ द्वारा विवादित स्थल का फैसला दिए जाने के बाद अब मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. इधर उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव भी होने वाले हैं. इन हालात में तीन साल से रुका हुआ पत्थर तराशी का काम अचानक शुरू कर देना अयोध्या-फैजाबाद के आम लोगों के साथ ही सियासी गलियारों में भी चर्चा और सवाल खड़े कर रहा है.

पिछले एक दशक के दौरान उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की ताकत लगातार कमजोर पड़ती गई है

उत्तर प्रदेश में पिछले एक दशक के दौरान लगातार हाशिये पर सरकती गई भाजपा विधानसभा चुनाव से पहले केंद्र और राज्य दोनों जगहों पर सरकारों को भ्रष्टाचार के मामले में घेरने का प्रयास कर रही है. भाजपा नेता कभी दिल्ली में केंद्र सरकार तो कभी यूपी में राज्य सरकार के मंत्रियों व अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले उजागर करने के दावे करके मजबूत स्थिति में आने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन कभी भाजपाई राजनीति की धुरी मंदिर मुद्दे पर टिकी होती है. ऐसे में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इस मोर्चे पर हरकत होने से सवाल उठना लाजिमी है.

महंत परमहंस रामचंद्र दास और विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ नेता अशोक सिंघल के नेतृत्व में नौ सितंबर, 1990 को पत्थर तराशने का काम राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण कार्यशाला में प्रारंभ हुआ था. उस वक्त चंद्रकांत भाई सोनपुर द्वारा डिजाइन किए गए मंदिर को बनाने के लिए चार कारीगरों से शुरू हुआ पत्थर तराशने का काम वर्ष 2007 के अंत तक चला. मंदिर के लिए पत्थर राजस्थान के वंशी पहाड़पुर से मंगवाए गए थे. विश्व हिंदू परिषद के मीडिया प्रभारी शरद शर्मा बताते हैं कि 1990 से 2007 तक करीब सवा लाख घन फुट पत्थर तराशा जा चुका है. 268 फुट लंबे, 140 फुट चौड़े और 128 फुट ऊंचे मंदिर के निर्माण में करीब एक लाख 75 हजार घन फुट पत्थर तराशा जाना है. कार्यशाला में काम करने वाले कारीगरों के अनुसार 2007 तक करीब 65 प्रतिशत पत्थर तराशे जा चुके थे. पहली मंजिल पर स्थित अग्रभाग, सिंहद्वार, नृत्य मंडप, रंग मंडप और गर्भ गृह का काम लगभग पूरा हो चुका है. दूसरी मंजिल के लिए 106 स्तंभ बनाए जाने हैं. 14 फुट छह इंच ऊंचे प्रत्येक स्तंभ पर 16-16 मूर्तियां बनाने का काम भी लगभग पूरा हो चुका है.

शर्मा का तर्क है कि 30 सितंबर, 2010 को आए कोर्ट के निर्णय के बाद संत व धर्माचार्यों ने यह महसूस किया कि शेष पत्थर तराशे जाने का जो काम बचा है उसे भी पूरा कर लिया जाए. काम फिर से शुरू करने के लिए संत व धर्माचार्यों तथा श्रीराम जन्मभूमि न्यास के पदाधिकारियों ने अयोध्या के पंडित कमला कांत शास्त्री से मुहूर्त निकलवाया. मुहूर्त के हिसाब से ही शरदीय नवरात्र के एक अक्टूबर की तारीख तय की गई. तय तारीख पर श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास तथा विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय संगठन मंत्री दिनेश चंद्र ने शिलाओं का पूजन करके उन्हें तराशी के लिए एक बार फिर से कारीगरों के हाथों में सौंपा. भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनय कटियार कहते हैं, ‘कोर्ट में जो मामला लंबित है वह थोड़ी जगह का ही है जबकि मंदिर काफी विशाल बनाया जाना है इस लिहाज से काम पूरा कराया जा रहा है.’

प्रदेश के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बंद पड़े काम को फिर से शुरू करने को लेकर बाबरी मस्जिद एेक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी कहते हैं, ‘इन सब बातों का कोई मतलब ही नहीं है, सब चुनावों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है. ‘कुछ ऐसी ही धारणा कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता सुबोध श्रीवास्तव की भी है. वे कहते हैं, ‘आरएसएस और भाजपा वालों का यह पुराना तरीका है. जैसे ही चुनाव पास आते हैं उन्हें मंदिर का निर्माण याद आने लगता है. आम जनमानस इस बात को अच्छी तरह समझ चुका है लिहाजा इसका कोई बड़ा असर नहीं होने वाला.’

विपक्ष भले ही इसे चुनावी स्टंट करार दे रहा हो लेकिन श्रीराम जन्मभूमि न्यास अध्यक्ष महंत नृत्य गोपाल दास इन बातों को सिरे से खारिज करते हुए कहते हैं, ‘2007 में काम इसलिए बंद किया गया था कि धन की समस्या आ गई थी. अब वह दिक्कत दूर हो गई है लिहाजा काम फिर से शुरू किया गया है. उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव या कोर्ट से इसका कोई लेना देना नहीं है, यह संत-धर्माचार्यों का अपना स्वतंत्र निर्णय है.’

राजनीतिक पार्टियों के लिए विवादित स्थल भले ही चुनावी मुद्दा हो लेकिन अयोध्या व फैजाबाद के आम लोगों में इसे लेकर कोई उत्सुकता नहीं है. चाय का ठेला लगा कर आजीविका चलाने वाले दिनेश विवादित स्थल के बारे में कहते हैं, ‘जो है, जैसा भी, वही ठीक है. कम से कम लोग बिना भय के अयोध्या आ तो रहे हैं. जब भी विवादित स्थल को लेकर कोई सुगबुगाहट होती है सबसे अधिक असर छोटे-बड़े व्यापारियों को ही होता है. कुछ भी गड़बड़ होने पर तीर्थयात्री अयोध्या आना पसंद नहीं करते.’ प्रदेश की राजनीति में कई सर्दी-गर्मी झेल चुके एक भाजपा नेता कहते हैं, ‘चुनाव सिर पर है, सभी पार्टियों ने अपने-अपने उम्मीदवार लगभग घोषित कर दिए हैं जो क्षेत्र में पकड़ मजबूत करने में लग गए हैं. जबकि भाजपा में अभी भी प्रत्याशियों को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है.’ चुटकी लेते हुए उक्त नेता कहते हैं, ‘ऐसे में तो भगवान राम ही चुनाव में पार्टी का बेड़ा पार लगा सकते हैं शायद इसीलिए चुनाव से पूर्व एक बार फिर उनकी सेवा शुरू कर दी गई है.’

फिर से शुरू हुए निर्माण के लिए फिलहाल अभी राजस्थान से नए पत्थर नहीं मंगवाए जा रहे हैं. इसके पीछे कारसेवक तर्क देते हैं कि 2007 में जब काम बंद हुआ तब करीब 40 ट्रक बिना तराशा हुआ पत्थर बच गया था. फिलहाल उसे तराशने का काम ही शुरू हुआ है. इधर पत्थर तराशने का काम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, पुरानी कार्यशाला छोटी पड़ने लगी है लिहाजा एक नई कार्यशाला भी बना दी गई है. 

बापू को भजती भाजपा

मध्य प्रदेश भाजपा का महात्मा गांधी की तरफ अचानक बढ़ा झुकाव पार्टी की राजनीतिक प्राथमिकताओं में आ रहे बदलाव का सबूत है या राष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्वीकार्यता बढ़वाने की एक दिखावटी कवायद? बृजेश सिंह की रिपोर्ट

मध्य प्रदेश भाजपा ने पिछले कुछ समय में जिस तरह महात्मा गांधी के विचारों के प्रति अति रुचि एवं अगाध प्रेम का प्रदर्शन किया है उससे गांधीवादियों के साथ ही दूसरे लोग भी अचंभित हैं. इतिहास में कभी भी भाजपा में इतना गांधी प्रेम नहीं देखा गया. हाल ही में प्रदेश की भाजपा सरकार के स्कूल शिक्षा विभाग ने राजधानी में गांधी जी की पुस्तक हिंद स्वराज का वाचन व विवेचन का कार्यक्रम आयोजित किया था. हफ्ते भर चले इस कार्यक्रम के उद्देश्य पर सरकार का कहना था कि उनका प्रयास है कि भारतीय सभ्यता गांधी को एक बार उसी रूप में देख पाए, गांधी जी की बातों को उन्हीं के शब्दों में सुन पाए और उन्हीं के अनुरूप व्यवहार करना सीख पाए. इसी अवसर पर पार्टी अपने पितृपुरुष पंडित दीनदयाल उपाध्याय और महात्मा गांधी के बीच अकाट्य समानता होने की बात करना भी नहीं भूली. यह कार्यक्रम 25 सितंबर (पं. दीनदयाल जयंती) से लेकर दो अक्टूबर यानी गांधी जयंती तक चला.
इसके अलावा दो अक्टूबर को गांधी जयंती के अवसर पर भाजपा युवा मोर्चा की प्रदेश इकाई ने राज्य भर में गांधी प्रतिमा पर माल्यार्पण के साथ भजन गाया. इसी दिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा समेत प्रदेश भाजपा के अनेक नेता गांधी टोपी में बापू की मूर्ति पर माल्यार्पण करने के साथ ही वहां उपस्थित कार्यकर्ताओं को सत्य, अहिंसा और गांधी का मर्म समझाते नजर आए. आसपास से गुजरते लोगों को भी अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हो रहा था कि हमेशा भगवा धारण करने वाले लोग आज गांधी टोपी में क्या कर रहे हैं. लोग चौंके इस कारण भी थे कि इससे पहले उन्होंने आज तक किसी भी भाजपा नेता को इतना गांधीवादी रंग में रंगा नहीं देखा था.

‘अब धर्मबाजी करके आप सत्ता में नहीं आ सकते, इसलिए पार्टी हर उस नये प्रतीक को ढूंढ़ रही है जो उसकी छवि बदल सके’

पूरे भारत में गांधी के करीब दिखने की शुरुआत तो भाजपा ने बहुत पहले कर दी थी लेकिन मध्य प्रदेश में इसकी शुरुआत भाजपा सरकार के दूसरे कार्यकाल में बड़े पैमाने पर हुई है. उस समय मीडिया और लोगों की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा था जब इसी साल सिंगरौली में हुई भाजपा कार्यसमिति की बैठक में सभी सदस्यों को हिंद स्वराज वितरित की गई. वितरण करते समय प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा द्वारा सदस्यों से यह आग्रह किया गया कि सनातन भारत की महिमा और गरिमा का वर्णन करने वाली इस पुस्तक को सभी सदस्य जरूर पढ़ें.

भाजपा खासकर मध्य प्रदेश भाजपा के मन में गांधी और उनके विचारों को लेकर उपजे इस विलक्षण प्रेम से कांग्रेस तो हैरान-परेशान है ही साथ में लोग भी अभी यह नहीं समझ पा रहे कि आखिर माजरा क्या है. वैसे गांधी जी से खुद को जोड़ने की शुरुआत भाजपा ने बहुत पहले ही कर दी थी. 1985 में उसने पहली बार गांधीवादी समाजवाद को स्वीकार करने की बात कही थी. उसके बाद कई मौकों पर गांधी तस्वीरों के रुप में भाजपा की बैठकों में शामिल हुए. बीच में राम मंदिर आंदोलन के दौरान और उसके बाद काफी वक्त पार्टी गांधी जी से किनारा किए रही.

अब भाजपा में गांधीवाद की ओर मुड़ने की जो मुहिम शुरू हुई है उसमें मध्य प्रदेश भाजपा काफी आक्रामक दिख रही है. इस संबंध में चर्चा करते हुए प्रदेश भाजपा अध्यक्ष प्रभात झा कहते हैं, ‘गांधी कांग्रेस की बपौती नहीं हैं. कांग्रेस ने गांधी को केवल यूज किया है. उसने उनकी विचारधारा को तिलांजलि दे दी. लेकिन भाजपा बापू के विचारों पर चल रही है.’  भाजपा से जुड़े एक दूसरे नेता इस बारे में कहते हैं ‘राजनीतिक विरोधियों ने पूरे देश में यह दुष्प्रचार फैलाया कि भाजपा गांधी विरोधी है. जबकि हम तो बहुत पहले से ही गांधी के आदर्शों पर चल रहे हैं.’

हालांकि जानकार पार्टी के इस तर्क से सहमत नही हैं. द टेलीग्राफ के एसोसिएट एडिटर रशिद किदवई कहते हैं, ‘इन लोगों का कोई इतिहास नहीं है. इनका कोई अपना इतना बड़ा नेता भी नहीं है. यही कारण है कि ये गांधी के सहारे अपनी नैया पार लगा रहे हैं.’ गांधी और पंडित दीनदयाल के बीच समानता स्थापित करने की भाजपाई कोशिश पर वे आगे कहते हैं,  ‘जिसकी जैसी इच्छा होती है वह गांधी को अपने हिसाब से समझने और समझाने की कोशिश करने लगता है. उत्तर प्रदेश सचिवालय में स्थित गांधी प्रतिमा में उनके हाथों की पांचों उंगलियां खुली देखकर अधिकारी मजाक करते हुए कहते हैं कि बापू की ये उंगलियां कह रही हैं कि बिना पांच सौ रुपये लिए कोई काम मत करो. इससे अधिक हो तो ठीक है.’

उधर, कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह सब अन्ना आंदोलन का प्रभाव है. भाजपा को लग रहा है कि अन्ना के कारण गांधी एक बार फिर फैशन में हैं, गांधी टोपी सहित पूरा गांधीवाद फैशन में है तो क्यों न इसे भुनाया जाए. जनता से जुड़ने का शायद यह सही वक्त है. भाजपा के एक नेता प्रदेश में पार्टी की इस नयी रणनीति पर उठ रहे सवालों पर कहते हैं, ‘आप मध्य प्रदेश को ही क्यों देख रहे हैं? उसे भी जरा देखिए जिसके ऊपर हजारों लोगों के कत्लेआम का इल्जाम है और वह गांधी के उपवास नामक अस्त्र का प्रयोग कर अपनी राजनीतिक क्षमता और स्वीकार्यता बढ़ाने की राजनीति कर रहा है.’ 

राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि शायद भाजपा को इस बात का अहसास हो गया है कि इस देश में बिना गांधीवादी छवि के राजनीति लंबे समय तक नहीं की जा सकती है. भाजपा के एक नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘हिंदुत्व के ढोल को पार्टी ने इतना पीटा कि वह कब का फट चुका है. अब पार्टी के सामने विचारधारा का संकट पैदा हो गया है. जिन विचारधाराओं को लेकर पार्टी का जन्म हुआ और जिसे लेकर वह आगे बढ़ रही थी वे सारी एक-एक कर समाप्त होती जा रही हैं. अब हिंदुत्व के नाम पर अपने दम पर केंद्र में सरकार बनाना तो असंभव से भी करोड़ों गुना ज्यादा असंभव है.’

वहीं भाजपा के एक अन्य नेता कहते हैं, ‘अब राजनीति बदल गई है. आप धर्मबाजी करके सत्ता में तो आ ही नहीं सकते. जाति का मामला भी सिकुड़ता जा रहा है. अब विकास की राजनीति का समय चल रहा है. इसलिए पार्टी भी अब नये कॉस्ट्यूम पहनने को तैयार हो गई है. पार्टी अब हर उस प्रतीक को ढूंढ़ रही है जो उसकी छवि बदल सकता है. गांधी के प्रति प्रेम भी उसी कवायद का हिस्सा है.’  मध्य प्रदेश कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता अरविंद मालवीय भी भाजपा में आ रहे इस बदलाव को राजनीति में गांधी दर्शन की बढ़ती प्रासंगिकता की तरह देखते हैं. वे कहते हैं, ‘ बीजेपी ने आखिरकार इतने सालों के बाद यह स्वीकार तो कर लिया कि गांधी के बिना राजनीतिक यात्रा बहुत दूर तक नहीं जा सकती.’  

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की मध्य प्रदेश इकाई के सचिव बादल सरोज भाजपा के गांधी प्रेम को उस निरर्थक प्रयास के रुप में देखते हैं जिसके द्वारा पार्टी अपनी राजनीतिक अछूत की यथािस्थति को तोड़ना चाहती है. वे टिप्पणी करते हैं, ‘भाजपा केंद्र में राजनीतिक अलगाव झेल रही है. यही कारण है कि वह गांधी की छवि का प्रयोग एक ऐसे सेतु के रूप में कर रही है जो उसे बाकी दलों से जोड़ सके नहीं तो जो पार्टी गांधी के हत्यारे का बचाव करने के लिए विचारधारा का तर्क प्रस्तुत करती हो उसे गांधी के विचारों से एकाएक प्रेम हो जाए यह बात पचा पाना बहुत मुश्किल है.’

कांग्रेस के एक अन्य नेता भाजपा के बापू प्रेम के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हैं. वे कहते हैं,  ‘जनमानस में यह बात काफी गहरे तक बैठ गई है कि कांग्रेस गांधी और गांधीवाद को कब का भुला चुकी है. अन्ना आंदोलन के बाद यह और अधिक स्पष्ट हो गया. कांग्रेसी शासित राज्य सरकारों से लेकर केंद्र की कांग्रेस नीत सरकार किस गांधी के आदर्शों पर चल रही है यह सभी को दिख रहा है. गांधीवाद से कांग्रेस के दूर होने के कारण जो वैक्यूम बना है उसे भरने का काम भाजपा बहुत चालाकी से कर रही है. वैसे भी भाजपा को लोगों के बीच भ्रम फैलाने में महारत हासिल है. ये वे लोग हैं जो उसे अपना आदर्श मानते हैं जो कहता था कि 100 बारजोर-जोर से झूठ बोलने पर वह सच हो जाता है.’ 

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता पार्टी के गांधी प्रेम पर एक अलग ही राय देते हैं.  वे कहते हैं, ‘आज पार्टी पूरी तरह से दुविधा में है. वह कब किसका अनुसरण करने लगे कोई भरोसा नहीं. वह तो अंबेडकर को भी अब अपना मान रही है. पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं में भी यह दुविधा है. हो भी क्यों ना. इतने साल हिंदूवाद और भगवा की घुट्टी पीने वाले कार्यकर्ताओं को आप कहेंगे कि गांधी के विचारों का अनुसरण और प्रचार-प्रसार करना है तो भ्रम होना स्वाभाविक है. आज कार्यकर्ता यही नहीं तय कर पा रहा है कि वास्तव में उसे कौन-सी लाइन पकड़नी है. जैसे आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के मद्देनजर पार्टी ने कार्यकर्ताओं से कहा है कि कोई भी मंदिर का मुद्दा नहीं उठाएगा. इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं.’ 

तुम्हारी भी जय, हमारी भी जय

लालकृष्ण आडवाणी के लिए मीडिया के एक खेमे ने ‘पीएम इन वेटिंग’ कहकर उनकी उम्मीदों को परवान चढ़ाया था. उम्मीदें अब तक पूरी नहीं हो सकी हैं. टूटी भी नहीं है. नीतीश कुमार को भी मीडिया यह स्वप्न दिखाता रहता है, नीतीश इनकार करते रहते हैं.
आडवाणी को उनके चहेते लौहपुरूष कहते थे, नीतीश को विकास पुरूष कहते हैं. उम्र के हिसाब से आडवाणी राष्ट्रीय राजनीति में करीब-करीब आखिरी पारी खेल रहे हैं. नीतीश राज्य के जरिये राष्ट्र की राजनीति में मजबूत आधार तलाशने की कोशिश में हैं.
राजनीतिक हथियार की तरह यात्राओं का इस्तेमाल करने में दोनों को महारत हासिल है. आडवाणी अब तक पांच यात्राएं – 1990 में राम रथ यात्रा, 1993 में जनादेश यात्रा, 1997 में स्वर्णजयंती यात्रा, 2004 में भारत उदय यात्रा, 2006 में भारत सुरक्षा यात्रा – कर चुके हैं. नीतीश कुमार भी न्याय यात्रा, विकास यात्रा, धन्यवाद यात्रा, प्रवास यात्रा, विश्वास यात्रा नाम की पांच राजनीतिक यात्रा कर चुके हैं.

नीतीश आडवाणी के और आडवाणी नीतीश के साथ होंगे तो मोदी के रास्ते में स्वाभाविक तौर पर ब्रेक लगेगा

आडवाणी देशव्यापी यात्रा करते हैं, नीतीश प्रदेशव्यापी. 11 अक्तूबर से आडवाणी ने छठी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली सिताबदियारा से की है. नीतीश नवंबर के पहले सप्ताह में अपनी छठी ‘सेवा यात्रा’ महात्मा गांधी के सत्याग्रह की धरती चंपारण से शुरू करने वाले हैं. आडवाणी 40 दिनों की यात्रा पर हैं. नीतीश चार माह में बिहार के सभी 38 जिलों की यात्रा कर अपनी सेवा का अहसास कराने जा रहे हैं.

आडवाणी की यात्रा की ही तरह नीतीश की इस ‘सेवा यात्रा’ की भी पहले कोई चर्चा नहीं थी. नरेंद्र मोदी के सद्भावना उपवास और आडवाणी की जनचेतना यात्रा की घोषणा के तुरंत बाद नीतीश ने सेवा यात्रा की घोषणा की. जब उन्होंने आडवाणी की यात्रा को झंडी दिखाने की हामी भरी तो  लोग आश्चर्यचकित रह गए. नीतीश जानते हैं कि आज जब राज्य में राजद, लोजपा व वामदल नीतीश का विकल्प देने की स्थिति में नहीं हैं तो फिलहाल जो राजनीतिक वैक्यूम है, उसे भरने की ताकत व संभावना सिर्फ भाजपा के पास है. वह पिछले चुनाव में मजबूत भी हो चुकी है. उन्होंने आडवाणी की यात्रा की घोषणा और हरी झंडी की सहमति के बाद से ही अपनी यात्रा की तैयारियां शुरू कर दी हैं तो मतलब साफ हैं. वे जानते हैं कि विपक्ष इस यात्रा में हरी झंडी दिखाने को लेकर दुविधा, भ्रम या अन्य स्थितियों को पैदा करने की कोशिश करेगा. नीतीश किसी भी संभावित नुकसान की भरपाई लगे हाथ नवंबर में अपनी सेवा यात्रा के जरिये करना चाहते हैं. 

 मगर ऐसा था तो आडवाणी के साथ मंच साझा करने का खतरा नीतीश ने क्यों मोल लिया? यह एक हद तक नीतीश की मजबूरी भी है. उन्हें भाजपा के साथ सत्ता-शासन से परहेज नहीं लेकिन उनके और नरेंद्र मोदी के बीच टकराव और एक-दूजे को पछाड़ने की होड़ भी जगजाहिर है. नीतीश और  मोदी के बीच विकास के मॉडल पर भी परोक्ष तौर जंग चलती है. एक बड़ा बौद्धिक खेमा नीतीश को विकास पुरुष के तौर पर देश-दुनिया में स्थापित करने का अभियान चलाता है, तो एक बड़ा कारपोरेट खेमा नरेंद्र मोदी को मॉडल के तौर पर स्थापित करना चाहता है.

इन दिनों आडवाणी भी नरेंद्र मोदी से अंदरूनी तौर पर परेशान-से चल रहे हैं. आडवाणी की यात्रा शुरू होने के पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी ने यह घोषणा की कि यह यात्रा पीएम पद के लिए नहीं है. तो यात्रा किसी के पीएम बनने के ख्वाब को तोड़ने की भी तो हो सकती है. तो भला नीतीश आडवाणी का साथ क्यों न देते? राज्य की राजनीति में मजबूत होने के बाद नीतीश कांग्रेस के साथ जाने की गलती नहीं करेंगे. वहां शीर्ष पर पहुंचने की संभावनाओं के सारे द्वार बंद है. भाजपा और आरएसएस को भी पता है कि फिलहाल देश में गठबंधन के जरिये ही सत्ता प्राप्ति संभव है. एनडीए के पास मजबूत साथी के तौर पर फिलहाल जदयू ही है और जदयू का मतलब नीतीश  हैं. नीतीश आडवाणी के और आडवाणी नीतीश के साथ होंगे तो मोदी के रास्ते में स्वाभाविक तौर पर ब्रेक लगेगा. और अगर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को झटका लगा और भाजपा आडवाणी बनाम मोदी बनाम वगैरह-वगैरह की चख-चख में पड़ी तो नीतीश एक मजबूत दावेदार होंगे.  तब आडवाणी उनके काम आ सकते हैं.

उधर आडवाणी बिहार से यात्रा शुरू कर संकेत देना चाहते हैं कि वह पहलेवाले नहीं हैं. वक्त के साथ बदल गये हैं. जब लालू प्रसाद ने 1991 में उन्हें गिरफ्तार किया था तब के उनके सहयोगी रहे नीतीश आज उनकी यात्रा को झंडी दिखा रहे हैं. बिहार में नीतीश मजबूत स्थिति में हैं, राजग के सबसे महत्वपूर्ण घटक हैं, इसलिए आडवाणी की यात्रा का संदेश संघ मुख्यालय तक भी पहुंचेगा. यात्रा 23 प्रांतों से होकर गुजरेगी तो बिखरे एनडीए के संभावित कुनबों तक भी बात पहुंचेगी. आडवाणी बिहार से यात्रा की शुरुआत कर एक साथ कई राजनीतिक मकसद साधने की कोशिश में हैं. 

आडवाणी और अन्य

बिना किसी से मशविरा किए अपनी तरफ से ही छठी रथ यात्रा पर जाने की लालकृष्ण आडवाणी ने घोषणा क्या की भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष स्तर पर उथल-पुथल का माहौल बन गया. आतंकवाद के खिलाफ 2006 में की गई उनकी भारत सुरक्षा यात्रा का निर्णय भी अचानक ही उनकी पार्टी और तब के पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह पर थोपा गया था. वर्तमान यात्रा की तरह तब भी आडवाणी की यात्रा को हताशा की सीमा तक जाती उनकी महत्वाकांक्षा के परिणाम के तौर पर देखा गया था. भारत सुरक्षा यात्रा असफल रही और प्रमोद महाजन की असमय मृत्यु के चलते आडवाणी और राजनाथ सिंह दोनों को ही अपनी यात्रा बीच में ही रोकने का एक बड़ा बहाना मिल गया.

जब उनके ऊपर पार्टी में दूसरी पीढ़ी को दिशा दिखाने और उनके बीच की प्रतिस्पर्धा को निपटाने की जिम्मेदारी थी तो वे खुद ही इस पीढ़ी के प्रतिस्पर्धी बने हुए हैं

इसके बावजूद आडवाणी को 2009 के आम चुनाव में भाजपा का उम्मीदवार बना दिया गया. इसे मजबूरी में लिया गया निर्णय कहना गलत नहीं होगा. 2004 के चुनाव के बाद भाजपा में नई पीढ़ी को लाने के लिए जो प्रयास किए जाने चाहिए थे, वे कभी किए ही नहीं गए. तो पार्टी के सामने आडवाणी के अलावा कोई और विकल्प ही नहीं बचता था. 2004 के बाद जिन आडवाणी से भीष्म पितामह सरीखी एक सम्मानित भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती थी वे आडवाणी अपनी बनाई महाभारत में खुद ही अर्जुन की भूमिका निभाने को बेताब थे. अपनी इस कई मायनों में असामयिक महत्वाकांक्षा के चलते उन्होंने पार्टी के बारे में सोचने, सभी के साथ विचारने और पार्टी को दिशा देने का प्रयास करना छोड़ दिया. इसकी बजाय वे अपने इर्द-गिर्द मौजूद एक छोटे-से गुट के संरक्षक और उसकी सलाहों पर चलने वाले नेता बन गए. इसने भाजपा में भ्रम की स्थिति को बढ़ावा देकर इसे निहायत ही अनुपयोगी मुद्दों में उलझी रहने वाली पार्टी बना दिया.

आडवाणी की इस भूमिका और बर्ताव की कीमत पार्टी को चुकानी पड़ी. साल 2004 में जब भाजपा सत्ता से बाहर हुई थी तब वह इतनी खराब स्थिति में नहीं थी. पार्टी ने केंद्र सरकार को काफी बढ़िया तरीके से चलाया था और इतनी पार्टियों की किसी गठबंधन सरकार ने केंद्र में पहली बार अपना कार्यकाल पूरा किया था. अगर आडवाणी सही तरह से मार्गदर्शक की भूमिका निभाते तो भाजपा खुद को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छाया से कुछ और दूर कर पाने और एक आधुनिक दक्षिणपंथी राजनीतिक दल में परिवर्तित होने में सफल साबित हो सकती थी. मगर जब उन्होंने अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पार्टी से आगे रखा तो यह प्रक्रिया न केवल थम गई बल्कि उसने उल्टी दिशा भी पकड़ ली. इससे संघ को भाजपा पर अपनी पकड़ मजबूत करने का मौका मिल गया और पार्टी में ‘राजनीतिज्ञों’ और संघ द्वारा स्थापित पदाधिकारियों के बीच एक नई रस्साकशी शुरू हो गई.

वर्ष 2009 में विकल्पहीनता और एक सीमा तक पार्टी को करीब आधी शताब्दी तक अपनी सेवाएं देने के लिए उनके प्रति सम्मान के चलते आडवाणी को बिना ज्यादा ना-नुकुर किए भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया था. 2009 के चुनाव में भाजपा के उन नेताओं ने जिन्हें आडवाणी ने खुद तैयार किया था, उनका साथ देकर एक प्रकार की गुरु दक्षिणा की रस्म अदा की थी. हालांकि यह चुनाव भाजपा के लिए कभी आसान नहीं था, मगर जिस तरह के नतीजे आए उसने भाजपा को भी आश्चर्यचकित कर दिया. इसके बाद आडवाणी को चुपचाप से नेपथ्य में चले जाना था.

मगर आडवाणी इस बात को नहीं समझे. लोकसभा चुनाव के बाद ऐसे संकेत जरूर मिले कि वे 2014 का चुनाव नहीं लड़ेंगे लेकिन ये केवल संकेत ही थे. उनके इस बर्ताव के चलते उन्हें लोकसभा में विपक्ष के नेता के पद से हटाने के लिए पार्टी और संघ को थोड़ी कसरत तक करनी पड़ गई. इसके बाद पार्टी के संविधान में संशोधन करके आडवाणी के लिए पार्टी में एक नए ही पद का सृजन किया गया. उन्हें भाजपा संसदीय दल का अध्यक्ष बना दिया गया. मगर अभी भी आडवाणी ने मैदान नहीं छोड़ा था. उस मौके पर उनका कहना था, ‘मेरी यात्रा अभी खत्म नहीं हुई है. मैं अभी रिटायर नहीं हुआ हूं.’ वर्तमान संदर्भ में संघ के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘उन्हें लगता है कि 2014 से पहले चुनाव हो सकते हैं या किसी अन्य किस्म की कोई व्यवस्था बन सकती है. वे ऐसी हालत में खुद को दौड़ से बाहर नहीं करना चाहते. राजनीति के गलियारों में भी आजकल यह चर्चा जोर पकड़ रही है कि अगले चुनाव 2012 में भी हो सकते हैं. अगर कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं करती तो संप्रग बिखर सकता है. साफ है कि आडवाणी इस विचार में यकीन रखते हैं. ऐसा उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान कहा भी है.

अपनी यात्रा के दूसरे ही दिन एक टीवी चैनल के साथ साक्षात्कार में प्रधानमंत्री बनने के सवाल पर आडवाणी के जवाब से भी यात्रा के पीछे की उनकी मंशा का अंदाजा लग जाता है. उनका गोल-मोल जवाब था, ‘मैं प्रधानमंत्री की रेस में नहीं हूं, मगर इसका फैसला पार्टी तय करेगी.’ यात्रा का मकसद पूछने पर उनका कहना था कि इसके पीछे पिछले डेढ़ साल की घटनाएं हैं जिनमें मूल्य वृद्धि से निपटने में सरकार की अक्षमता से लेकर केंद्र सरकार के घटकों द्वारा किया भ्रष्टाचार तक शामिल है. किंतु जानकार मानते हैं कि इसका संबंध डेढ़ साल से नहीं बल्कि पिछले कई दशकों की आडवाणी की देश के सबसे शीर्ष पद पर पहुंचने की इच्छा से है.
तो ऐसे में जब उनके ऊपर पार्टी में दूसरी पीढ़ी को दिशा दिखाने और उनके बीच की प्रतिस्पर्धा को निपटाने की जिम्मेदारी थी तो वे खुद ही इस पीढ़ी के प्रतिस्पर्धी बने हुए हैं. मगर इस दूसरी पीढ़ी के उम्मीदवारों से पहले भाजपा की पहली और दूसरी के बीच की पीढ़ी यानी यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और मुरली मनोहर जोशी की बात करते हैं. इस पीढ़ी को दरकिनार करके ही सुषमा स्वराज और अरुण जेतली के हाथों में संसद के सदनों में विपक्ष के नेता की कमान दी गई है. भले ही मुरली मनोहर जोशी को पार्टी में आडवाणी का विरोधी माना जाता हो मगर आज की परिस्थितियों में इन नेताओं में से शायद ही किसी को आडवाणी का आगे आना बुरा लगे. उन्हें अपने से छोटे और कम अनुभवी सहयोगियों के मंत्रिमंडल का सदस्य बनने की बजाय आडवाणी के नीचे काम करना निश्चित ही ज्यादा अच्छा लगेगा.

भाजपा की दूसरी पीढ़ी के नेताओं को भी अब युवा कहना थोड़ा अजीब ही होगा. इनमें से कई तकरीबन 60 साल के हैं, दादा बन चुके हैं. वे कितना और इंतजार करेंगे? पिछले दो साल और प्रधानमंत्री पद के भाजपा के दो सबसे अग्रणी उम्मीदवारों की बात करें तो सुषमा स्वराज और जेतली ने संसद में सत्ता पक्ष को घेरने का काम अपने पूर्ववर्तियों – 2004 से 2009 के बीच आडवाणी और जसवंत – से बेहतर तरीके से किया है. उन्होंने एक हद तक विभिन्न मुद्दों पर अन्य राजनीतिक दलों के साथ बेहतर तालमेल स्थापित करने में भी सफलता हासिल की है. इनमें बीजू जनता दल के अलावा सीपीएम और राष्ट्रीय जनता दल भी शामिल हैं जो भाजपा के साथ शायद ही कभी किसी तरह का चुनावी संबंध रखना चाहेंगे. लेकिन इन दोनों की अपनी कमियां भी हैं. सुषमा स्वराज जमीन से जुड़ी नेता हैं. लोगों से संवाद स्थापित करने में उन्हें महारत है, लेकिन उनके ऊपर नीतिगत मसलों पर उतनी समझ नहीं रखने के आरोप लगते रहते हैं. उधर जेतली हर मसले पर बेबाक और स्पष्ट राय तो रख सकते हैं. संसद के भीतर सरकार को बुरी तरह घेर भी सकते हैं. मगर उनका जनाधार नहीं है. दूसरी पीढ़ी के एक और नेता हैं भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह. सिंह को पार्टी में एक धड़े का समर्थन है. संघ का भी एक धड़ा उनके साथ है. यदि उत्तर प्रदेश में 2012 में पार्टी अनुमान से कुछ अच्छा प्रदर्शन करती है तो वे भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों की पांत में शामिल हो सकते हैं. मगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में उनकी कितनी स्वीकार्यता होगी यह एक बड़ा सवाल है.

एक विकल्प भाजपा से बाहर के किसी नेता को राजग का नेता बनाने का भी है. इस विकल्प के तौर पर फिलहाल केवल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का ही नाम लिया जा सकता है. अगर लोकसभा चुनावों के बाद वे थोड़ा और मजबूत होकर उभरते हैं या अपनी स्थिति बरकरार रखते हैं और चुनावों के बाद राजग का दायरा बढ़ाने के लिए कुछ और घटकों की आवश्यकता पड़ती है तो ऐसी हालत में उनके बारे में बड़ी संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता.

इन सबके अलावा नरेंद्र मोदी भी हैं. मोदी शायद पार्टी के आम कार्यकर्ताओं के सबसे चहेते और अगली पीढ़ी के सबसे करिश्माई नेता हैं. ऐसा करना बेहद मुश्किल है मगर यदि 2002 के गुजरात दंगों को किनारे किया जा सके तो कई लोग मानते हैं कि वे एक बढ़िया प्रशासक हैं जो गुजरात को प्रगति के रास्ते पर बहुत तेजी से दौड़ा रहे हैं. भाजपा में मोदी एक ऐसे नेता हैं जिससे कांग्रेस को सबसे ज्यादा डर है. पार्टी में तमाम लोग मानते हैं कि कोई एक व्यक्ति जो भाजपा को नब्बे के दशक वाले दिनों में ले जा सकता है तो वह नरेंद्र मोदी ही हैं.

मगर मोदी के लिए गुजरात के दंगों को पीछे छोड़ना आसान नहीं है और इसके चलते वे भाजपा के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा कारण बन जाते हैं. उनकी समस्त क्षमताओं और सामर्थ्य के बीच पार्टी में ऐसा मानने वालों की कमी नहीं कि वे एक दुधारी तलवार हैं. उन्होंने उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय को अपने पक्ष में मानकर इससे फायदा उठाने और अपने राजनीतिक कायाकल्प के उद्देश्य से तीन दिन का सद्भावना उपवास रखा था. मगर यह कायाकल्प क्या 2014 से पहले पूरा हो सकता है? क्या पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर यह खतरा उठाने के लिए तैयार है या फिर उसे मोदी की स्वीकार्यता बढ़ने तक इंतजार करना चाहिए?
पार्टी में कुछ लोग यह सवाल उठाते हैं कि अपने सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार को आगे लाने के लिए आखिर पार्टी कब तक इंतजार करेगी. उनका मानना है कि राजग के कुछ घटकों को तो वे कभी भी स्वीकार्य नहीं होने वाले. मगर मोदी पार्टी के लिए एक ऐसी दवा भी साबित हो सकते हैं जो या तो मर्ज का इलाज कर देती है या फिर प्राणघातक भी साबित हो सकती है. तो  ऐसे वक्त में जब कांग्रेस कमजोर दिखाई दे रही है और कई पार्टियों से बना एक गठबंधन उसे हराने में सक्षम लग रहा हो क्या पार्टी ऐसा जोखिम उठा सकती है?

‘राजनीति में इसके बाद कौन ?’ जैसे सवाल हमेशा चलन में रहे हैं मसलन नेहरू के बाद कौन? वाजपेयी के बाद कौन? मगर भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि हिंदुत्व के बाद क्या. 1990 के हिंदुत्ववादी खुमार के छटने के बाद आज भाजपा का प्रेरक सूत्र क्या है? यह एक ऐसा सवाल है जो भाजपा का आने वाला नेता कौन होगा इसका फैसला करने वाला है. उदाहरण के तौर पर, राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा एक विशेष वर्ग को आकर्षित करने वाली भाजपा होगी जबकि जेतली, स्वराज या मोदी के नेतृत्व में उसका चरित्र कुछ अलग होगा. जाहिर-सी बात है कि गडकरी के सामूहिक नेतृत्व के गोल-मोल सिद्धांत की बात की आड़ में नेतृत्व के मसले को हल न करना पार्टी में बड़े और जरूरी बदलावों को आने से रोक रहा है.

एक विचित्र बात यह है कि उदारीकरण के 20 साल बाद आज भारत में एक बड़ा तबका ऐसा है जो दक्षिणपंथी विचारों को ज्यादा सहजता से स्वीकार करता है. तो फिर भाजपा इस स्थिति का फायदा क्यों नहीं उठा पा रही? इस सवाल का जवाब भी भाजपा के भीतर नेतृत्व को लेकर चल रही उलझन में ही कहीं छिपा है. 

बुजुर्ग का बाल हठ

  •  मैं छठी यात्रा पर निकला हूं. रामरथ यात्रा मेरी पहली यात्रा थी. उसका मेरे राजनीतिक जीवन में सबसे अहम स्थान है. इस हिन्दुस्थान में रामरथ यात्रा का आध्यात्मिक महत्व था. 
  •  जयप्रकाश नारायण जी से हमारे बेहद आत्मीय संबंध थे. वे जनसंघ के अधिवेशन में गए थे. तब कई लोगों ने कहा था कि जनसंघ फासीवादी पार्टी है, उसके सम्मेलन में नहीं जाइए. जयप्रकाश जी ने कहा कि जिन्हें यह लगता है कि ‘जनसंघ फासीवादी पार्टी है उन्हें यह भी मानना चाहिए कि जयप्रकाश फासीवादी है.’
  • यह एक विशुद्ध राजनीतिक यात्रा है, जिसमें मैं भ्रष्टाचार की बात करूंगा. सभी जगह एक ही बात कहूंगा कि भ्रष्टाचार को हर स्तर पर देखिए. सिर्फ राजनीति का भ्रष्टाचार नहीं दिखे. सबको अपना काम ईमानदारी से करना चाहिए.
  • डॉ राममनोहर लोहिया ने जनसंघ के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अखंड भारत की कल्पना का जोरदार समर्थन किया था. डॉ लोहिया और जयप्रकाश, दो ही नेता हुए जिन्होंने जनसंघ को पहचाना.
  •  1990 में इसी बिहार में मेरी रामरथ यात्रा रोकी गई थी. 21 साल बाद अब 2011 का समय है, जब उसी बिहार में एक मुख्यमंत्री मेरी यात्रा को हरी झंडी दिखा रहे हैं. यह बड़ा बदलाव है.
  •  दो साल पहले मैंने काले धन के मामले पर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी. भ्रष्टाचार का मसला उठाया था. आज साफ दिख रहा है. यूपीए-2 का भ्रष्टाचार सामने आ रहा है.
  • हम केंद्र सरकार से मांग करते हैं कि वह काले धन के मामले पर आगामी शीतकालीन सत्र में श्वेतपत्र जारी करे और मजबूत लोकपाल बिल लाए.
  •  प्रधानमंत्री कौन होगा, यह पार्टी तय करेगी. मैंने 2009 में भी अपना नाम खुद से तय नहीं किया था. नीतीश कुमार पीएम बनेंगे या नहीं, यह एनडीए के साथी आपस में तय करेंगे. नरेंद्र मोदी ने बिहार से यात्रा शुरू करने पर बधाई दी है और अपने ब्लॉग पर मोदी ने लिखा है कि वे गुजरात में यात्रा का स्वागत करेंगे. वैसे नरेंद्र मोदी का कुछ कहना या लिखना इतना जरूरी क्यों है?

11 अक्तूबर को बिहार के सिताबदियारा से चलकर उसी शाम पटना पहुंचने और 12 अक्तूबर को पटना से रवाना होने के पहले करीबन 24 घंटे के अंदर लालकृष्ण आडवाणी द्वारा अलग-अलग सभाओं व सम्मेलनों में दिए गए बयान कुछ ऐसे ही थे. आडवाणी अपनी तरह से अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग बातें कहने की कोशिश करते रहे. कभी अभिभावक की भूमिका में भ्रष्टाचार पर पाठ पढ़ाते दिखे तो कभी रामदेव और अन्ना के आंदोलन में उठे मसलों को मिलाकर कॉकटेल बनाते. लेकिन भ्रष्टाचार पर भाषण देते हुए गलती से भी अन्ना हजारे का नाम लेने की गलती उन्होंने नहीं की. न ही काला धन वापसी के प्रसंग में रामदेव के आंदोलन की चर्चा की. हां, इस एक बात पर बार-बार जोर देते रहे कि दो साल पहले हमने काला धन और भ्रष्टाचार के सवाल पर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी. शायद यह बताने की जुगत में कि रामदेव और अन्ना के आंदोलन के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ बने माहौल का फायदा उठाने की कोशिश में मैं नहीं हूं बल्कि पहले मैंने ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोला था. भ्रष्टाचार की मुखालफत का नायक मैं ही हूं, कोई और नहीं.

आडवाणी यह सब बताकर यह समझाने की कोशिश करते हैं कि वक्त के प्रवाह में सब बदल रहा है. मैं बदल गया हूं

आडवाणी अपने भाषणों में कभी सत्ता परिवर्तन, कभी व्यवस्था परिवर्तन तो कभी-कभी सत्ता परिवर्तन के जरिए व्यवस्था परिवर्तन का पाठ पढ़ाते हैं लेकिन कर्नाटक और उत्तराखंड में भाजपाई मुख्यमंत्री बदल दिए जाने के सवाल पर कुछ नहीं कहते. वे नीतीश कुमार के विकास की जमकर तारीफ करते हैं, उनके साथी अनंत कुमार मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के विकास मॉडल को भी रखते हैं. मगर नरेंद्र मोदी का नाम गलती से एक बार भी नहीं लिया जाता. नीतीश की प्रशंसा करने के साथ ही वे यह भी जरूर बताते हैं कि दो दशक पहले इसी बिहार में सांप्रदायिक कहकर मुझे जेपी के ही एक शिष्य ने गिरफ्तार किया था. आज उसी बिहार में जेपी के ही दूसरे शिष्य मुझे गले लगा रहे हैं. आडवाणी यह सब बताकर यह समझाने की कोशिश करते हैं कि वक्त के प्रवाह में सब बदल रहा है. मैं बदल गया हूं. मेरी छवि ग्राह्य हो गई है. कुछ-कुछ धर्मनिरपेक्ष जैसी.

वे अलग-अलग सभाओं में अलग-अलग बातें बोलते हैं. कभी भटकाव, द्वंद्व और दुविधा जैसी स्थिति के साथ तो कई बार सामान्य भारतीय बुजुर्ग की तरह एकरागी हो जाते हैं. जैसे कि 11 अक्टूबर की शाम पटना की सभा में हुए. बचपन से फिल्म देखने का जो उनका शौक रहा है, उसे साझा करते रहे और फिर एक फिल्म और एक गीत पर ही आधा घंटा बोल गए. आडवाणी उस समय भी एकरागी बुजुर्ग से हो जाते हैं जब पहले संवाददाता सम्मेलन में ग्लोबल फाइनैंशियल इंटेग्रिटी रिपोर्ट व एक किताब को हाथ में लेकर अपनी धुन में बोलते जाते हैं. वे और बोलते लेकिन बीच में ही रविशंकर प्रसाद इशारे में रोकते हैं कि बस, हो गया, अब बात बदलिए. लेकिन तमाम भटकाव-द्वंद्व-दुविधा और एकरागी होने के बावजूद सभी सभाओं में आडवाणी 90 के दशक की अपनी रामरथ यात्रा का स्मरण जरूर करते हैं. गर्व के साथ.

कांग्रेस, लोजपा, राजद जैसी पार्टियां भी आडवाणी की इस यात्रा में अपने लिए संभावना के सूत्र तलाशने में लगी हुई हैं

आडवाणी के बोलने से पहले इस जनचेतना यात्रा की कमान संभाल रहे यात्रा संयोजक व भाजपा के महामंत्री अनंत कुमार सभी जगह विस्तार से बताते हैं कि यह यात्रा 38 दिनों की है. 23 प्रांतों से गुजरेगी. 7600 किलोमीटर का सफर होगा. आडवाणी सभी जगह जनचेतना फैलाएंगे और फिर दिल्ली में संसद के शीतकालीन सत्र से पहले विराट सभा करेंगे. अनंत कुमार साफ-साफ कहते हैं कि दिल्ली में सत्ता बदलना जरूरी है. अलग-अलग सभाओं में पहुंच रहे दूसरे भाजपा नेता भी खुलकर इस यात्रा का मकसद सत्ता परिवर्तन बताते हैं, लेकिन आडवाणी खुद ऐसा नहीं कहते. आडवाणी खुद स्पष्ट नहीं कर रहे कि 84 साल की उम्र में 7600 किलोमीटर की यात्रा पर वे क्यों निकले हैं. अपनी पत्नी कमला आडवाणी, बेटी प्रतिभा आडवाणी के साथ इस यात्रा में ही आठ नवंबर को वे अपना जन्मदिन मनाएंगे, उम्र के 85वें साल में प्रवेश करेंगे. परिवार के सभी सदस्यों को साथ लेकर बुजुर्ग आडवाणी किससे लड़ने निकले हैं, यह भी नहीं बता रहे. क्या खुद की उम्र को चुनौती देने और उसके जरिए यह दिखाने-बताने कि अभी वे अपनी पारी जारी रखने में सक्षम हैं! पहले पार्टी के अध्यक्ष पद से हटाए जाने, फिर प्रतिपक्ष के नेता का पद भी ले लिए जाने के बाद वे भाजपा के अंतर्द्वंद्व से निपटने, संघ की छाया से बाहर निकलकर आखिरी पारी में अपनी ताकत दिखाने के अभियान में निकले हैं. या फिर सीधे-सरल शब्दों में वही एक बात कि वे अपनी चिरप्रतीक्षित मुराद को पूरा करने यानी एक बार किसी तरह से प्रधानमंत्री बनने के लिए माहौल तैयार करने निकले हैं.

‘लौह पुरुष’ का दुविधाग्रस्त मौन

सिताबदियारा हो, छपरा या बिहार की राजधानी पटना, आम जनों के बीच संदेश स्पष्ट है कि यह अभियान भ्रष्टाचार के खिलाफ जनचेतना तो नहीं ही है क्योंकि अगर ऐसा होता तो यह बिहार की बजाय कहीं और से शुरू होना चाहिए था. बिहार में तो आडवाणी खुद बता रहे हैं कि यहां सुशासन है, भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने की कोशिश एनडीए की सरकार कर रही है. तो फिर यहां अलग से जनचेतना की क्या जरूरत थी? यह यात्रा कर्नाटक से शुरू होती तो भ्रष्टाचार के मसले पर जनचेतना जैसी बात हजम होती. पड़ोस के झारखंड से शुरू होती तो भी बात हजम होती. उत्तर प्रदेश से भी शुरू होती तो बात हजम होती.

कभी अपने दम पर पार्टी को खड़ा कर चुके आडवाणी में यह साहस नहीं कि वे अपनी खुली मंशा भी खुलकर बता सकें

सिताबदियारा, जहां से यह यात्रा शुरू हुई, वहां जनता दल यूनाइटेड के उपाध्यक्ष विकल जैसे कुछ नेताओं ने मंच से गला फाड़-फाड़कर कहा कि आडवाणी जी के नेतृत्व में केंद्र सरकार को बदलने की जरूरत है, लेकिन सिताबदियारा में विकल जैसे नेताओं की बात दबकर रह गई. सिताबदियारा से हवाई मार्ग से छपरा पहुंचने पर आडवाणी के सामने ही भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव प्रताप रूढ़ी जैसे नेता खुलकर बोलते रहे कि केंद्र की सरकार बदलने के लिए यह यात्रा है. पटना की सभा में शत्रुघ्न सिन्हा भी आडवाणी के सामने ही हुंकार भरने वाली आवाज में सबको सुनाते रहे कि उम्र पर मत जाइए, जेपी भी बुजुर्ग ही थे, जब उन्होंने युवाओं के आंदोलन की अगुवाई की और बाबू कुंवर सिंह भी 80 पार के ही थे, जब अंग्रेजों से लड़ने निकल पड़े थे. शत्रुघ्न सिन्हा आरएसएस के नागपुर मुख्यालय तक अपनी बात पहुंचाना चाह रहे थे या पटना के गांधी मैदान में उपस्थित जनता को सुनाना चाहते थे, लेकिन वे खुलकर कह रहे थे कि आडवाणी के नेतृत्व में ही सत्ता परिवर्तन होगा और फिर व्यवस्था परिवर्तन. और फिर इतने के बाद जब आडवाणी से भी पूछा जाता है तो वे साफ-साफ कहने की बजाय बात घुमाते हैं. यह पूछने पर कि आप पीएम बनना चाहते हैं- आडवाणी साफ-साफ ना या हां कहने की बजाय यह कहते हैं कि यह पार्टी तय करेगी. आडवाणी पीएम पद के लिए ना नहीं कह रहे इससे यह साफ है कि उनकी उम्मीदें अभी टूटी नहीं हैं, लेकिन यह जनचेतना यात्रा उन्हीं उम्मीदों को पंख लगाने के लिए है यह बताने का साहस भी नहीं जुटा पा रहे. कभी अपने दम पर पार्टी को खड़ा करने और सत्ता तक पहुंचाने वाले आडवाणी में यह साहस नहीं है कि वे अपनी एक खुली मंशा को भी खुलकर बता सकें. या ये एक बुजुर्ग नेता के पारंपरिक मूल्य हैं, उस नेता के जो खुद के बारे में खुद कहने की बजाय दूसरों से कहलवाना-सुनना चाहता है.

किसके आडवाणी

पटना के मौर्य होटल में प्रेसवार्ता के दौरान एक दृश्य देखने लायक था. आडवाणी के पास एक सवाल गया कि आपके दायें-बायें प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवार बैठे हुए हैं…अभी सवाल पूरा होता कि बायीं ओर बैठी लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज किसी शरमाती हुई गंवई महिला की तरह मुंह पर हाथ रखकर इशारे में कहती रहीं, क्या कह रहे हैं, मैं नहीं हूं उम्मीदवार. उस समय आडवाणी की दायीं ओर बैठे राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता अरुण जेतली मौन साधकर मंद-मंद मुस्कुराते रहे. उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. जेतली के मौन और सुषमा के दबे हुए इनकार के अपने-अपने मायने हैं.

आडवाणी की यात्रा के आरंभ में, आडवाणी के बाद इन्हीं दोनों वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति थी. रविशंकर प्रसाद भी थे, शाहनवाज हुसैन भी थे, राजीव प्रताप रूढ़ी भी थे लेकिन ये तीनों बिहार के ही हैं, इसलिए इनका होना कोई बहुत अहम नहीं है. अनंत कुमार यात्रा के संयोजक हैं, इसलिए उनका रहना स्वाभाविक माना गया. सिताबदियारा में, जहां से आडवाणी की यात्रा की शुरुआत हुई, वह बिहार और उत्तर प्रदेश की सीमा पर है. वहां बिहार के भाजपाइयों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के कुछ नेता ही दिखे जिनमें मिर्जापुर के पूर्व सांसद बिरेंद्र सिंह मस्त, उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री भरत सिंह और प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही ही थे. राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के हैं, उनका नहीं रहना सवाल बना रहा. कलराज मिश्र सिताबदियारा में नहीं थे, यह भी सवाल बना रहा. भाजपा के मुख्यमंत्री कई प्रदेशों में है. पास के झारखंड में, मध्य प्रदेश में, छत्तीसगढ़ में, कर्नाटक में, उत्तराखंड में. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नहीं आने का कारण तो साफ है कि तब नीतीश कुमार यात्रा का स्वागत करने और हरी झंडी दिखाने को नहीं रहते और शायद यह यात्रा भी बिहार से शुरू नहीं हो पाती. छोटे मोदी यानी बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी सांकेतिक तौर पर यह कहकर नरेंद्र मोदी को चुनौती देते हैं कि विकसित प्रदेश की कमान संभालकर उसे विकसित बनाने का दावा करना कोई उपलब्धि नहीं होती, बिहार जैसे राज्य में कोई कुछ करके दिखाए, उसका महत्व ज्यादा है. लेकिन मोदी के अलावा दूसरे भाजपाई मुख्यमंत्री क्यों आडवाणी की इस संभावित आखिरी राजनीतिक यात्रा में नहीं पहुंच सके? जबकि नरेंद्र मोदी ने सिर्फ उपवास किया तो वहां हाजिरी लगाने पहुंचे नेताओं की फौज थी. और तो और, पड़ोसी राज्य झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा तक इसमें शामिल हुए थे. मगर वे आडवाणी की यात्रा के शुरुआती उत्सव में शामिल नहीं हुए. इन सबके बीच सवालों का सवाल यह रहा कि इस यात्रा के आरंभ में ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी उपस्थिति से लेकर औपचारिक चर्चा तक में क्यों गायब किए जा रहे हैं. यदि यह भाजपा के पवित्र उद्देश्यों को लेकर की जा रही राष्ट्रव्यापी यात्रा है तो इस आयोजन के आरंभ में पार्टी अध्यक्ष गडकरी आखिर कुछ देर के लिए भी क्यों नहीं आ सके? उत्तर प्रदेश की सीमा से भी यात्रा की शुरुआत होने के बावजूद राजनाथ सिंह क्यों नहीं दिखे? दिखने के लिए भी दिखते तो ये सवाल नहीं उठते. एक भाजपा नेता कहते हैं, ‘राजनाथ सिंह कभी नहीं चाहते कि आडवाणी का कद बढ़े और गडकरी पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि यह यात्रा प्रधानमंत्री पद के लिए नहीं है.’

उत्तराधिकार अभियान वाया प्रतिभा की प्रतिभा

मंच पर बैठे-बैठे आडवाणी जब पसीने से तर-ब-तर हो जाते हैं तो बगैर मांगे ही पीछे से उन्हें नैपकिन पकड़ाया जाता है. आडवाणी चेहरे को पोंछते हैं और फिर पीछे हाथ बढ़ा देते हैं. उनके हाथ से नैपकिन ले लिया जाता है. आडवाणी सिर्फ पीछे मुड़कर देखते भर हैं, बगैर उनके कुछ बोले ही समझ लिया जाता है कि उन्हें पानी चाहिए. उनके हाथों में पानी का ग्लास दे दिया जाता है. आडवाणी की दैहिक भाषा से ही उनकी जरूरतों को समझने की समझ कोई अर्दली नहीं बल्कि उनकी 33 वर्षीया बेटी प्रतिभा आडवाणी रखती हैं. प्रतिभा इस यात्रा में अपने पिता के साथ परछाईं की तरह दिख रही हैं. यात्रा के पहले दिन से ही. खुद कहीं कुछ नहीं बोलतीं लेकिन उनके बारे में हर सभा में बोला जाता है. सिताबदियारा के मंच पर आडवाणी के आगमन के पहले मंच से उद्घोषक बार-बार बताते रहे कि आज लालकृष्ण आडवाणी की धर्मपत्नी कमला आडवाणी और पुत्री प्रतिभा आडवाणी भी यहां आ रही हैं. कमला आडवाणी नहीं आ सकीं, 33 वर्षीय प्रतिभा जरूर दिखीं. सिताबदियारा में प्रतिभा सिर्फ दिखीं, थोड़ी देर बार छपरा पहुंची तो जनचेतना यात्रा के लिए तैयार थीम साॅन्ग ‘अब बस…’ को सुनाने-बजाने के पहले प्रतिभा को दिखाया गया. छपरा में मंच का संचालन कर रहे भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव प्रताप रूढ़ी ने प्रतिभा से आग्रह किया कि वे खड़ी होकर सबका अभिवादन स्वीकार करें. और फिर छपरा से पटना आते-आते यात्रा के पहले दिन की आखिरी सभा में आडवाणी ने खुद अपनी बेटी के बारे में बोला-बताया. उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने अपनी बेटी प्रतिभा के साथ मिलकर अपनी यात्रा का यह थीम सॉन्ग तैयार किया है.

प्रतिभा अपने पिता की सभाओं और यात्राओं में पहले भी जाती रही हैं लेकिन टीवी एेंकरिंग से अपनी पहचान बनाने के बावजूद इनमें मौन गुड़िया की तरह ही दिखती रही हैं. इस बार भी मौन ही साधे हुए हैं लेकिन हर सभा में उनके नाम की चर्चा जरूर हो रही है. सभा-सम्मेलन क्या, संवाददाता सम्मेलन में भी एक बार वे जरूर दिखती हैं. कुछ बोलती नहीं, कभी-कभी तसवीर लेती हैं, वीडियो रिकाॅर्डिंग करती हैं और फिर आडवाणी की कुरसी के पीछे बैठी रहती हैं. कहा जा रहा है कि आडवाणी संभवतः अपनी आखिरी राजनीतिक यात्रा में निकले हैं तो उनके साथ उनकी पत्नी और बेटी का होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं क्योंकि वे लगभग 40 दिन तक यात्रा में रहेंगे. यात्रा के दौरान ही आडवाणी का जन्मदिन भी आएगा. उम्र के हिसाब से यात्रा में आडवाणी का खयाल रखने वाला कोई अपना उनके साथ जरूर चाहिए. लेकिन जिस तरह से प्रतिभा मंचों पर दिख रही हैं, उनकी उपस्थिति दर्ज करवाई जा रही है, उससे यह सुगबुगाहट भी हो रही है कि कहीं आडवाणी आखिरी जोर लगाकर अपनी बेटी को राजनीति का पाठ तो नहीं पढ़ा रहे. भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन कहते हैं, ‘प्रतिभा पहले भी कई यात्राओं में हमेशा साथ रही हैं इसलिए इसके राजनीतिक मायने नहीं निकाले जाने चाहिए.’ लेकिन भाजपा के ही एक दूसरे नेता कहते हैं, ‘हो सकता है, आडवाणी जी की यह कामना भी हो. ‘

और अंत में, संभावनाओं के सूत्र की तलाश

आडवाणी की यह यात्रा अखिल भारतीय राजनीतिक पार्टी भाजपा की है या आडवाणी में आस्था रखने वाले और आडवाणी से राजनीतिक ककहरा सीखने वाले चंद भाजपाइयों की, यह देखा जाना अभी बाकी है. इस यात्रा के परोक्ष और प्रत्यक्ष एजेंडे का आकलन शुरू हो गया है और बाद में भी होगा. लेकिन इस यात्रा के आरंभ से ही इसमें संभावनाओं के सूत्र भी तलाशे जाने लगे हैं. पहली संभावना राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के मजबूत होने की देखी जा रही है. आडवाणी की इस यात्रा के आरंभ में सिताबदियारा में नीतीश कुमार मौजूद रहे. वे छपरा में भी थे. उन्होंने ही हरी झंडी भी दिखाई. पटना की सभा में जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव भी मौजूद रहे. नीतीश की मौजूदगी और सहयोग का आडवाणी ने जमकर बखान किया. सहयोग के लिए तहेदिल से धन्यवाद दिया. शरद यादव पटना की सभा में बोलकर जब निकल गए तो मंच से सफाई भी दी गई कि शरद जी को कहीं जाना था इसलिए चले गए.

कांग्रेस, लोजपा, राजद जैसी पार्टियां भी आडवाणी की इस यात्रा में अपने लिए संभावना के सूत्र तलाशने में लगी हुई हैं. राजद के लालू प्रसाद यादव अचानक से अपनी ताकत बढ़ी हुई महसूस कर रहे हैं. लालू आडवाणी की यात्रा को 21 साल पुरानी यात्रा से जोड़कर खुद को फिर से सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति का केंद्र बताने-बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं. रामविलास पासवान भी अपना राग अलाप रहे हैं. आडवाणी की यात्रा का विरोध कर रहे ये दोनों नेता आडवाणी के खिलाफ बोलकर तुरंत केंद्र की ओर टकटकी लगा देते हैं. किसी बच्चे की तरह कि देखो हमने आज यह कोशिश की है, अब तो एक चॉकलेट का हक बनता है. हिंदी प्रदेशों में संभावनाओं की तलाश में लगी कांग्रेस भी अपनी संभावना तलाशने में लगी हुई है. पटना में यात्रा के पहले ही कांग्रेस के तेजतर्रार नेता संजय निरूपम यहां पहुंचे और काला झंडा वगैरह दिखाने की बात मीडिया में कहते रहे. आडवाणी की यात्रा से किस-किसको फायदा होगा, यह देखा जाना अभी बाकी है. आडवाणी को, भाजपा को, विरोधियों को या सब कुछ टांय-टांय फिस्स हो जाएगा.