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एक गांव, मजहबी मेल की छांव तले

इमारतें जब रिश्तों की मजबूती को दिखाने लगें तो वे मिसाल बन जाती हैं . कौमी एकता की एक ऐसी ही मिसाल मध्य प्रदेश में सीहोर जिले के बडोदिया गडारी गांव में मौजूद है. यहां पिछली मई की दोपहरों में हिंदुओं ने फर्शियां ढोकर एक मस्जिद बनवाई. धार्मिक सौहार्द्र की यह अनूठी मिसाल भारत की रोशन तस्वीर सामने रखती है.

भोपाल से लगभग 90 किलोमीटर के फासले पर  1,500 की आबादी वाले इस गांव में कुल 150 परिवार रहते हैं. इनमें 35 घर मुसलमानों के हैं. गांव में हिंदुओं की धार्मिक गतिविधियों के लिए एक मंदिर तो था पर मुसलमानों के लिए कोई इबादतगाह नहीं थी. इस वजह से उन्हें नमाज पढ़ने दूसरे गांव जाना पड़ता था. फिर यहां एक अस्थायी मस्जिद बनी पर उसमें भी लोगों को खुले में नमाज पढनी पड़ती थी. मंदिर के अध्यक्ष रमेश चन्द्र आचार्य बताते हैं कि तलैया के पास मौजूद खाली जमीन में कुछ और जमीन मिलाकर मस्जिद बनाने का फैसला लिया गया. वे कहते हैं, ‘ हम चाहते थे कि हमारे मुसलमान भाइयों के पास भी अपनी इबादतगाह हो और वे भी चैन से रोज अपनी नमाज़ अदा कर सकें.’  2005 के बीच में काम शुरू हुआ और अगले ही साल तक मस्जिद तैयार हो गई.

मस्जिद कमेटी के अध्यक्ष बशीर भाई बताते हैं कि मस्जिद बनने के बाद मुसलमानों को बड़ी सहूलियत हो गई है. वे कहते हैं, ‘अब हमें नमाज पड़ने के लिए बहुत दूर नहीं जाना पड़ता. उल्टा पास के भोपोड़ , हरराजखेडी  तथा राम खेडा गांव के मुसलमान हमारे गांव की मस्जिद में नमाज पड़ने आते हैं. ईद को तो यहां मेला लग जाता है.

‘मस्जिद बनवाना या मंदिर निर्माण में सहयोग तो सिर्फ एक घटना है. गांव की हवा में भी भाईचारा बहता है’

बशीर आगे कहते हैं, ‘मस्जिद के निर्माण में गांव के हिंदुओं ने बड़ी अहम भूमिका निभाई. हिंदू परिवारों ने आसपास के इलाकों में जाकर हमारी मस्जिद के लिए चंदा इकठ्ठा किया. कुछ हिंदू भाई मई की गर्मियों में आष्टा से पत्थर की फर्शियां और सिल्लियां लेकर आए ताकि मस्जिद का काम तेजी से हो सके. मस्जिद तलैया के पास बन रही थी इसलिए जमीन को समतल बनाने के लिए लगभग 3०० ट्राली मिट्टी भी हिंदू भाइयों ने ही डलवाई. इनके सहयोग  के बिना हमारी मस्जिद कभी पूरी नहीं हो पाती.’

गांव के पूर्व सरपंच माखनलाल वर्मा के कार्यकाल में ही मस्जिद निर्माण का कार्य संपन्न हुआ था. वे बताते हैं कि गांव में हमेशा से ही सांप्रदायिक सौहार्द्र का माहौल रहा है. वर्मा बताते हैं, ‘जब हिंदुओं के घर भागवत होती है तो मुसलमान भी उसमंे भाग लेते हैं. हिंदू  भी रमजान तथा ईद के मौकों पर अपने मुसलमान भाइयों के घर आते जाते हैं. मस्जिद निर्माण हम सभी की जिम्मेदारी थी. मस्जिद की इमारत के बगल में मदन लाल वर्मा जी का घर है. मस्जिद की सिंचाई के लिए पूरा पानी उन्होंने ही अपने घर से दिया था. ‘ हालांकि उस साल बहुत गर्मी पड़ी थी पर हमने मस्जिद का काम किसी संसाधन की कमी से रुकने नहीं दिया.’ मदनलाल कहते हैं, ‘भाईचारा धर्म से ऊपर होता है. जैसे उनके लिए अल्लाह वैसे हमारे लिए राम. हमारे घर पानी था तो हमने मस्जिद की सिंचाई के लिए दे दिया. अगर मंदिर की सिंचाई में हम पानी दे सकते हैं तो मस्जिद की सिंचाई के लिए क्यों नहीं?’ 

बशीर  भाई यह भी बताते हैं कि मस्जिद बनते वक्त ही मंदिर विस्तारीकरण का भी काम चल रहा था जिसके लिए हिंदुओं ने चंदा इकट्ठा किया था. मंदिर के चंदे में से 90,000 रुपए मस्जिद निर्माण के लिए दे दिए गए. उधर, मंदिर निर्माण में भी मुसलमानों ने खूब मदद की.

रमेश चंद्र बताते हैं कि बडोदिया गडारी गांव में कभी धर्मांधता नहीं देखी गई. वे कहते हैं, ‘गणेश चतुर्थी हो या मोहर्रम, नवरात्र हो या ईद , हम सारे त्योहार एक साथ मिल जुल कर मानते हैं. मुसलमान भी नवरात्र की आरती में भाग लेते हैं और हम भी ईद की सिवैयां खाने उनके घर जाते हैं. कई बार जब गणेश चतुर्थी और रमज़ान एक साथ पड़ जाता है तब तो पूरा गांव उत्सव में डूब जाता है. मस्जिद बनवाना या मंदिर निर्माण में सहयोग करना तो सिर्फ एक घटना है . हमारे गांव की तो हवा में ही सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारा बहता है. सब एक साथ एक-दूसरे के त्योहारोंमें भाग लेते हैं और एक दूसरे की मदद करते हैं.’ बशीर बताते हैं िक इन दिनों गांव में भागवतकथा चल रही है और पिछले चार दिन से वे वहीं खाना खा रहे हैं. उनकी दुआ है कि इस गांव को किसी की नजर न लगे.

गांव से रवाना होने के बाद पीछे मुड़कर देखने पर लोग एक साथ खड़े मुस्कराते नजर आते हैं. उनकी यह एकजुटता और मुस्कराहट आने वाले कल के लिए आश्वस्त करती है.

प्रियंका दुबे

सौहार्द्र सिखाती देवभूमि

उत्तराखंड में सर्व-धर्म सद्भाव  की कई मिसालें हैं. पहली और सबसे अहम तो यही कि चार धामों में से एक बदरीनाथ की सर्व-स्वीकार्य स्तुति, एक मुस्लिम संत ने लिखी थी.

बदरीनाथ मंदिर के धर्माधिकारी जगदम्बा प्रसाद सती बदरीनारायण की स्तुति- ‘पवन मंद, सुगंध शीतल..’ चमोली जिले में नंदप्रयाग कस्बे के सिद्दीकी परिवार के किसी मुसलिम व्यक्ति द्वारा लिखे जाने की पुष्टि करते हैं. वे बताते हैं, ‘बदरीनारायण की सर्वमान्य स्तुति करोड़ों हिंदू गाते हैं. इस रचना में शब्दों का शानदार निरूपण है. क्लिष्ट शब्दों को स्तुति के संयोजन में इस तरह स्थानबद्ध किया गया है कि स्तुति को आम श्रद्वालु भी आसानी से गा सकता है.’श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के मुख्य कार्याधिकारी रहे जगत सिंह बिष्ट के मुताबिक उनके बुजुर्गों ने भी उन्हें यही बताया कि इस ‘बदरी स्तुति’ का रचनाकार नंदप्रयाग के सिद्दीकी  परिवार का ही कोई व्यक्ति था.’

इस स्तुति की रचना का समय 100 साल पहले का बताया जाता है. इसे लोकप्रिय बनाने का श्रेय जाता है वीणा महाराज को. वरिष्ठ पत्रकार जगजीत मेहता बताते हैं, ‘प्रसिद्ध संत वीणा महाराज ने 1964 से लेकर 1985 तक बदरीनाथ मंदिर परिसर में नित्य कीर्तन-भजन किया. हर दिन होने वाले कीर्तन की समाप्ति में वीणा महाराज भाव-विह्वल होकर पवन मंद, सुंगध शीतल…आरती ही गाते थे.’ दो दशक तक हुए इस नित्य गायन का परिणाम यह हुआ कि यह स्तुति आम जन की जुबान पर रच-बस गई. बदरीनाथ के आरती गायक पं. पवन गोदियाल बताते हैं कि इसे कई मशहूर गायकों ने भी अपनी-अपनी तरह से गाया है और  इसके लाखों कैसेट और सीडी बिक चुके हैं.

चारों धामों में से एक बदरीनाथ की सर्व-स्वीकार्य स्तुति, एक मुस्लिम संत नसरुद्दीन ने लिखी थी

यह स्तुति किसने लिखी इस बारे में तहलका ने और गहराई से पड़ताल की तो पता चला कि इसके रचनाकार का नाम ‘नसरुद्दीन सिद्दीकी ’ था. नसरुद्दीन  के भाई फकरुद्दीन सिद्दीकी  उस समय (वर्ष 1886-1950)  नंदप्रयाग के प्रतिष्ठित सामाजिक व्यक्ति और व्यापारी थे. वे संयुक्त प्रांत की एसेंबली के सदस्य भी रहे थे. सड़क मार्ग न होने के कारण नंदप्रयाग तब यात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव था. फकरुद्दीन के पोते अयाजुद्दीन बताते हैं कि उनके दादा फकरुद्दीन की भी बदरीनारायण पर अगाध आस्था थी. दादा के भाई नसरुद्दीन संत प्रवृत्ति के थे और आजीवन अविवाहित ही रहे  अयाजुदीन के शब्दों में ‘सभी लोगों ने यही बताया है कि बदरीनाथ की आरती हमारे पूर्वज नसरुद्दीन ने ही लिखी थी, जिसका मुझे गर्व है.’ वे यह भी बताते हैं कि जब कई साल तक उनके दादा को संतान सुख नहीं मिला तो उन्होंने बदरीनाथ में एक धर्मशाला बनाकर दान की. साथ ही नंदप्रयाग में एक खेत भी दान किया जो बदरीनाथ मंदिर में फूल चढ़ाने के लिए फुलवारी के रुप में इस्तेमाल होता था. बदरीनाथ जाने वाले यात्री इस खेत में उगे फूलों को बदरीनाथ को अर्पित करने के लिए ले जाते थे. अयाजुद्दीन के मुताबिक श्रृद्धापूर्वक किए गए इस दान के बाद ही उनके पिता अलाउद्दीन और चाचा कमरुदीन का जन्म हुआ था. 74 साल के कमरुद्दीन सिद्दीकी मुंबई उच्च-न्यायालय में एडवोकेट हैं. वे बताते हैं कि उनके पूर्वज कोटद्वार के पास फलदा-कुमोली के सारस्वत गौड़ ब्राहमण थे. एक अफगानी युवती से शादी के बाद उनके दादा ने इस्लाम अपना लिया. कमरुद्दीन जिस सहजता से नमाज पढ़ते हैं उसी सहजता से गायत्री मंत्र भी जपते हैं. कुछ समय पहले अपने पांच माह के पोते को बदरीनाथ ले गए और बदरीनाथ के ही नाम पर उसका नाम बदरुद्दीन सिद्दीकी रखा.

सद्भाव के ऐसे उदाहरण समूचे उत्तराखंड में देखने को मिलते हैं. नेहरु युवा केंद्र के जिला युवा समन्वयक, योगेश धस्माना बताते हैं कि पौड़ी के बड़े याकूब, साठ के दशक में उत्तराखंड भर में खड़ी होली(गायी जाने वाली होली) के माने हुए गायक थे और हुसैन बख्श की सारंगी हर धार्मिक आयोजन का हिस्सा होती थी. इतिहासकार यशवंत कटोच बताते हैं कि बादशाह अकबर द्वारा अपने किसी कर्मचारी द्वारा पांडुकेश्वर स्थित योग-ध्यान बदरी मंदिर में घंटा चढ़ाए जाने के प्रमाण मौजूद हैं. चंपावत जिले के खूना मलक गांव में 14 वीं शताब्दी में चंद राजाओं ने सौन्दर्य प्रसाधन के सामानों के लिए मुस्लिम परिवारों को इस गांव में बसाया था. इसी शताब्दी में चंद राजाओं  द्वारा अद्भुत स्लेट वाली एक मस्जिद भी बनवाई गई थी. आज भी इस गांव में मुस्लिम परिवार रहते हैं. नैनीताल में चर्च, मस्जिद, मंदिर तथा गुरूद्वारा साथ-साथ खड़े दिखते हैं. शहर में हर साल होली महोत्सव का आयोजन रंगकर्मी जहूर आलम करते हैं. जहूर के नेतृत्व वाली संस्था युग मंच रामलीला में श्रवण कुमार सहित कई नाटकों का मंचन करती है. कुमाऊं मंडल के पहाड़ी क्षेत्रों की रामलीलाओं में मेकअप, तबला वादन, हारमोनियम के अलावा पात्रों के अभिनय में मुसलमानों का योगदान दोनों धर्मों की एकता का ताना-बाना बुनते हैं.

जगत मर्तोलिया के साथ मनोज रावत

अजान, भजन और प्रार्थना का अनोखा संगम

बेहद खूबसूरत लेकिन कुछ-कुछ अकल्पनीय जैसा है यह. ईश्वर, अल्लाह एक है. हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई सब आपस में भाई-भाई, सबका मालिक एक… होश संभालने के बाद से ही मिलने वाली ऐसी घुट्टियों के बावजूद बचरा के बीच दिखने वाला वह नजारा आश्चर्यचकित करता है. एकबारगी विश्वास नहीं होता लेकिन सच यही है कि झारखंड में माओवादियों का गढ़ माने जाने वाले चतरा जिले के बचरा में सद्भावना, एकता के लिए इंसानी कोशिश का बेमिसाल नमूना मौजूद है. यहां लगभग 500 मीटर के दायरे में  मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरिजाघर बने हैं. 

सांप्रदायिक सौहार्द्र के इस मॉडल की बुनियाद  4-5 दशक पहले सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड (सीसीएल) के अधिकारी केके पिल्लई ने रखी. पिल्लई ने बुनियाद रखी थी, पर लोगों ने उसे एक अभियान की शक्ल दी. वही अभियान अब मजबूत परंपरा के रूप में स्थापित हो गया है.
पिपरवार की आबादी लगभग 62,000 है. इनमें 21, 000 मुसलिम, 30,000 हिंदू, 10,000 ईसाई व 1,000 सिख हैं. लेकिन इन समुदायों के बीच न तो कभी कोई मनमुटाव हुआ और न ही कोई विवाद. जिस गेट से मंदिर में प्रवेश किया जाता है उसी गेट से सिख भी गुरुद्वारे में जाते हैं. गुरुद्वारे से लगभग 100 मीटर की दूरी पर चर्च है. इससे थोड़ी ही दूर पर उलटे भाग में मस्जिद. पहले इन सब धर्मस्थलों में प्रवेश का एक ही स्थान था पर अब चर्च और मसजिद के लिए रोड की तरफ अलग से भी गेट बना दिया गया है.

लोगों में इतनी समझदारी है कि जब किसी एक की प्रार्थना का समय होता है तो दूसरा शांत रहता है

मंदिर के पुजारी सिद्धेश्वर पांडे कहते हैं, ‘हमें कभी भी किसी समुदाय के लोगों से कोई परेशानी नहीं होती. हम भाईचारे के साथ रहते हैं. जब तक मस्जिद से अजान होती है तब तक हम मंदिर बंद रखते हैं. उसके बाद ही हम लाउडस्पीकर बजाते हैं. हममें आपसी सामंजस्य है और किसी की किसी के साथ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है.’ मौलवी मोहम्मद मुमताज के शब्दों में, ‘कभी किसी वजह से कोई परेशानी नहीं हुई. सबलोग त्योहारों में एक-दूसरे की मदद करते हैं, जिससे त्योहारों का मजा दोगुना हो जाता है. ईद, होली, दीवाली, गुरुपर्व, क्रिसमस आदि में सभी लोगों का बढ़-चढ़कर सहयोग होता है.’

अजान कराने वाले मो. शमसुद्दीन अंसारी, सीसीएल के रिटायर्ड अधिकारी रहे हैं. वे बताते हैं कि वे 30-40 वर्षों से यहां हैं पर उन्होंने कभी भी किसी का किसी के साथ मनमुटाव होते नहीं देखा. वे कहते हैं, ‘वैसे भी सुविधा के लिए हमने लाउडस्पीकर का मुंह सड़क की तरफ कर दिया है.’ चर्च के पादरी रूमानुस केरकेट्टा भी इसी बात से इत्तेफाक रखते हैं. वे कहते हैं, ‘एक जगह सब धर्मस्थल का होना गौरव की बात है. इससे परेशानी क्यों होगी. हमें तो यह बहुत ही अच्छा लगता है.’

लोगों में इतनी समझदारी है कि जब किसी एक की प्रार्थना का समय होता है तो दूसरा शांत रहता है. इसकी पुष्टि गुरुद्वारा प्रमुख कुलदीप सिंह भी करते हैं. यहां के निवासी व शिक्षक अर्पण चक्रवर्ती के अनुसार यहां के लोगों का आपसी सहयोग देश के लिए उदाहरण की तरह है. वे बताते हैं, ‘देश में कहीं से दंगा भड़कने की खबर आए तो यहां के लोगों का रुख और भी ज्यादा सहयोगात्मक हो जाता है. ‘

ये सभी धर्मस्थल एक जगह कैसे बने, इसके पीछे की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. दरअसल, सीसीएल कर्मियों ने जब यहां काम करना शुरू किया तो सीसीएल के अधिकारियों से धर्मस्थल बनाने की मांग की. उस वक्त केके पिल्लई ने अनेकता में  एकता के साथ काम करने वाले कर्मचारियों के रवैए को और भी अधिक पुख्ता और मजबूत करने की दृष्टि से एक ही चारदीवारी के अंदर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरिजाघर बनाने की पेशकश की. नतीजा यह है कि आज यह स्थल अमन, भाईचारे, सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल बन गया है.

अनुपमा

मौलाना की लिखी नई इबारत

तब भी दुनिया में पहली बार ही ऐसा हुआ होगा और अब भी संभवतः ऐसी मिसाल कहीं कायम नहीं हो सकी है कि एक मस्जिद में तकरीर सुनने के लिए हिंदुओं के बैठने के वास्ते विशेष कमरों का निर्माण कराया गया हो, ताकि हर जुम्मे को जब मुसलमानों का कारवां मस्जिद तक नमाज अदा करने पहुंचे तो उनसे पहले हिंदू वहां पहुंचकर अपनी जगह लिए रहें. करीब नौ दशक पहले रांची की जामा मस्जिद में इस कल्पना को हकीकत में बदला था मौलाना अबुल कलाम आजाद ने. बंगाल से निकाले जाने और नजरबंदी के दौरान मौलाना ने अपने जीवन के स्वर्णिम तीन साल (सन 1916-1919 तक) रांची में ही गुजारे थे. नजरबंदी के दौरान ही मौलाना ने हिंदू-मुसलिम एकता की दिशा में जो कवायद की और फिर जो मिसालें पेश हुईं,  उसका जोर अब भी कहीं नहीं मिलता.

‘अल्लाह के पैगंबर ने तो अपने घर में ही हिंदुओं को रखा था. फिर तकरीर में उनके शामिल होने से मस्जिद नापाक कैसे हो सकती है?’ झारखंड अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष गुलफाम मुजिबी बताते हैं कि बंगाल से निकाले जाने के बाद मौलाना रांची में आकर रहने लगे. यहां आने पर प्रतिष्ठित स्वतंत्रता सेनानी नागरमल मोदी (जिनके नाम पर नागरमल मोदी अस्पताल है) ने ही उनके रहने का इंतजाम किया था. रांची के अपर बाजार में स्थित जामा मस्जिद में जुम्मे के नमाज से पहले उन्होंने तकरीर करना शुरू किया. यह दौर आजादी की लड़ाई का था. रांची में भी इसका प्रभाव था. मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद कोई नाम सामने नहीं था. नागरमल मोदी, डॉ जद्दूमल, देवकीनंदन प्रसाद, प्रतुलचंद मित्रा… आदि उसकी अगुआई कर रहे थे. मौलाना ने मसजिद में सबसे पहले यही अपील शुरू की कि अंग्रेजों की गुलामी से आजादी मुसलमानों का सिर्फ सियासी फलिजा (फर्ज) ही नहीं बल्कि मजहबी फलिजा भी है…  इसका व्यापक प्रभाव पड़ा और मुसलमानों ने जंग-ए-आजादी में सक्रियता दिखानी शुरू कर दी. कल तक जो दूर थे उन्होंने सक्रियता दिखानी शुरू कर दी तो लोगों को आश्चर्य हुआ. कई हिंदुओं ने उनसे कहा कि आपने तो जादू कर दिया है. हमें भी आपका भाषण सुनना है. चूंकि मौलाना नजरबंद थे और सार्वजनिक स्थलों पर कुछ बोल नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने मस्जिद में ही लोगों को तकरीर देनी शुरू की और उनके बैठने के लिए कमरों का निर्माण करवा दिया. उनकी तकरीर का ही असर था कि जब अंजुमन इसलामिया की स्थापना 1917 में हुई तो मुसलमानों के साथ-साथ हिंदुओं ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और अपनी भागीदारी की. इस बात का प्रमाण मदरसे के शिलापट्ट से भी मिलता है जिस पर राय साहब ठक्कर दास राय, बाबू जगतपाल सहाय आदि के नाम दर्ज हैं. मदरसे की नींव का पत्थर रातू के महाराज शाहदेव ने रखा था. इसी कड़ी में कुछ और शानदार तथ्यों को जोड़ते हुए अल्पसंख्यक मामलों के जानकार हुसैन कच्छी कहते हैं, ‘जब दिल्ली के जामा मस्जिद में एक एजुकेशनल कांफ्रेस में स्वामी श्रद्धानंद को तकरीर करने के लिए बुलाया गया तो देश भर से उलेमाओं के एक तबके ने विरोध करना शुरू किया कि इससे मस्जिद नापाक हो गई है. किसी माध्यम से यह खबर मौलाना तक भी पहुंची, वे तड़प उठे और नजरबंदी के दौरान रांची के इसी जामा मस्जिद में बैठकर उन्होंने एक दिन में ही किताब लिख डाली. जो बाद में पूरे देश और दुनिया के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गयी. किताब का नाम था -जामे-उस-सवाहिद (कलेक्शन ऑफ प्रूफ). गैरमुसलिमों के मस्जिद में दाखिल होने के संबंध में इस किताब में उन्होंने लिखा है कि अगर मुसलमानों की किसी जमात ने इंसानी भलाई के लिए कोई बेहतर से बेहतर काम किया है तो वो एक यही काम है कि मस्जिद में मजलिसें मुन अकिद कीं  और अपने गैर मजहब हमसायों और हलीफों यानी हिंदुओं को भी इस मकसद से उनको अच्छे काम के लिए शरीक किया, जिस मकसद से रसूल अल्लाह (स.व) गैर मजहब के सुलह पसंदों और दोस्तों को मस्जिद में बुलाते और ठहराते थे. और इससे बढ़कर और क्या मिसाल हो सकती है कि जो अच्छा काम है वो रसूल के काम से जुड़ा हुआ है.’ मौलाना मुफ्ती सलमान कासमी कहते हैं, ‘मुसलमानों के लिए रसूल की जिंदगी सबसे बेहतर नमूना है और उनके रास्ते पर चलने वाले लोग ही सबसे बेहतर मुसलमान. अल्लाह के पैगंबर ने तो अपने घर में ही हिंदुओं को रखा था. फिर तकरीर में उनके शामिल होने से मस्जिद नापाक कैसे हो सकती है?’

रांची से दिल्ली जाकर एक भाषण में मौलाना ने कहा, ‘अगर आज आसमान की बुलंदियों से कोई फरिश्ता उतरकर कुतुबमीनार की छत पर आ जाए और वहां से एलान करे कि मैं तुम्हें 24 घंटों के अंदर स्वराज दे दूंगा, लेकिन तुम्हें हिंदू-मुसलिम की एकता से दस्तबरदार होना पड़ेगा, तो मैं आजादी से दस्तबरदार होना बरदाश्त कर लूंगा पर हिंदू-मुसलिम एकता से नहीं. इसलिए कि आजादी तो हमें मिलकर रहेगी और यदि थोड़ी देर हुई तो इससे हिंदुस्तान का थोड़ा नुकसान होगा मगर यदि हमारी एकता जाती रही तो इससे आलम-ए-इंसानियत का नुकसान होगा.’ ऐसी मिसाल देश में और शायद ही कहीं मिलती हो, पर मौलाना ने जो किया वह एकता कायम करने के क्षेत्र में बेहतरीन नमूना है.

अनुपमा

गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या

सदियों से जेठ के महीने में लखनऊ शहर बजरंग बली को समर्पित एक भव्य त्योहार मनाता रहा है. इसका नाम है बड़ा मंगल.  लखनऊ को जानने-समझने वाला कोई भी व्यक्ति इससे इनकार नहीं कर सकता कि बड़ा मंगल इस शहर के सबसे बड़े त्योहारों में से एक है. इस त्योहार को भी बड़ा उसी सिफत ने बनाया जिसने लखनऊ के मुहर्रम को आसमान की बुलंदियों पर पहुंचाया- शहर की मिली-जुली अकीदत और आस्थाएं.

कहा जाता है नवाब सादत अली खान की मां जनाबे आलिया को एक रात ख्वाब में हनुमान जी दिखाई दिए थे. उसके बाद कुछ महंत उनके पास आए और उनसे एक हनुमान मंदिर बनवाने में सहयोग मांगा. इस पर जनाबे आलिया ने लखनऊ में हजरत अली के नाम आबाद इलाके अलीगंज में एक भव्य हनुमान मंदिर बनवाया और उस पर जेठ के मंगलवार को मेले की परंपरा डाली. इस तरह लखनऊ में बड़े मंगल की शुरुआत हुई. अलीगंज हनुमान मंदिर के शिखर पर मौजूद चांद का प्रतीक आज भी मौजूद है.

वैसे अवध के नवाब भी हनुमान जी पर श्रद्धा रखते थे और उनके यहां बंदरों की हत्या पर भी प्रतिबंध था. वाजिद अली शाह ने तो कई हनुमान स्तुतियां भी लिखीं. वे कहते थे, ‘हम इश्क के बंदे हैं, मजहब से नहीं वाकिफ, गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या.’

वैसे तो जेठ महीने के पहले मंगल को बड़ा मंगल माना जाता है लेकिन इस महीने हर मंगलवार को लखनऊ के चौराहों पर शरबत, हलुवा, बूंदी, लड्डू और पूरियां बंटते देखी जा सकती हैं. बंटवाने वाले हिंदू भी होते हैं और मुसलमान भी. मंदिरों पर जुटने वाली भीड़ में भी दोनों होते हैं. जिस तरह मुहर्रम में लखनऊ के हिंदू इमाम हुसैन को अकीदत का नजराना पेश करते हैं उसी तरह यहां के मुसलमान जेठ के महीने में मंगलवार को हनुमान जी के प्रति श्रद्धावान रहते हैं. मुहर्रम और बड़े मंगल में एक और साम्य इनमें लगने वाली सबीलों (प्याऊ) का भी है. मुहर्रम में भी सबीलें खूब लगती हैं और बड़े मंगल में भी. अंग्रेजों के जमाने से ही लखनऊ में इस दिन स्थानीय अवकाश होता है.

हलुवा, बूंदी और पूरियां बंटवाने वाले हिंदू भी होते हैं और मुसलमान भी. मंदिरों में जुटने वाली भीड़ में भी दोनों होते हैं

बड़े मंगल पर सबीलों और खाना बंटवाने की परंपरा नवाब वाजिद अली शाह ने शुरू की थी. चूंकि सबीलें इमाम हुसैन की शहादत से मंसूब हैं, इसलिए लखनऊ में बड़े मंगल पर मुसलमानों ने इस परंपरा को खूब आगे बढ़ाया. इतिहासकार डॉ रोशन तकी इस परंपरा को एक दूसरे नजरिए से भी देखते हैं. वे कहते हैं, ‘धार्मिक सद्भावना के अलावा इस परंपरा के पीछे एक मुख्य वजह यह भी थी कि सबील को एकता स्थापित करने वाले प्रतीक के रूप में देखा जाता है. अंग्रेजी हुकूमत का मुख्य हथियार सामाजिक फूट के जरिये राज्य हड़पना था. वाजिद अली शाह लखनऊ में एक अटूट समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसको मज़हबी आधार पर तोड़ा न जा सके.’ बड़े मंगल के दौरान पिछले कई सालों से प्याऊ लगाने वाले जावेद अली कहते हैं, ‘जेठ में गर्मी बहुत पड़ती है. ऐसे में अगर आप किसी प्यासे को पानी पिलाते हैं तो इससे बड़ा सबाब नहीं हो सकता. जब मैं सबील नहीं लगाता था तब भी दूसरी सबीलों पर जाकर लोगों को पानी दिया करता था.’ लखनऊ के ही एक दूसरे मुसलमान हनुमान भक्त फहीम सिद्दीकी अपने हनुमान मंदिर जाने के पीछे की कहानी सुनाते हुए कहते हैं, ‘जिस दौर में मैं लखनऊ विश्वविद्यालय का छात्र था, तब साथ के बहुत-से दोस्त विश्वविद्यालय के सामने स्थित प्रसिद्ध हनुमान सेतु मंदिर जाया करते थे, बड़े मंगल पर सबका एक साथ अलीगंज वाले मंदिर जाने का प्रोग्राम बनता था. साथ देने के लिए मैं भी जाता था. इसी से धीरे-धीरे हनुमान जी के प्रति श्रद्धा बढ़ती गई. अब बाकी मंगलों में भले ही न जा पाऊं लेकिन जेठ के कम से कम एक मंगल में हनुमान सेतु जरूर जाता हूं.’

अगर आप लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों या फिर हनुमान सेतु मंदिर के महंतों से बात करें तो फहीम की बात को सही पाएंगे. लखनऊ विश्वविद्यालय के बहुत-से मुसलमान छात्र इस  मंदिर में हर मंगलवार को आते हैं. बड़े मंगल पर तो लखनऊ का शायद ही कोई मंदिर ऐसा हो जहां मुसलमान भक्त न जाते हों. यह भी सुखद संयोग है कि लखनऊ में कई हनुमान मंदिरों के बाहर मुसलमान प्रसाद की दुकान लगाते हैं तो मस्जिदों के बाहर हिंदू हलवाइयों की दुकानें हैं. शहर में हिंदुओं की बनवाई मस्जिदें और इमामबाड़े हैं तो मुसलमानों के बनवाए मंदिर भी हैं.
बड़ा मंगल शायद इसीलिए बड़ा मंगल कहा जाता है क्योंकि इसके बड़े दिल में सभी मजहब के लोगों के लिए जगह है. काश मंदिर और मस्जिद के लिए झगड़ने वाले लोगों ने इस बड़प्पन से कोई सबक सीखा होता.

हिमांशु बाजपेयी

एक स्वादिष्ट प्रेमकहानी : खिचड़ी

फिल्म खिचड़ी

निर्देशक आतिश कपाड़िया

अभिनेता राजीव मेहता, सुप्रिया पाठक, जेडी मजेठिया

भारत में यह पहली बार हुआ है कि किसी धारावाहिक पर फिल्म बनाई जाए, वह भी उन्हीं अभिनेताओं को लेकर. फिल्म सीरियल से कुछ कदम आगे ही है. हां, उसमें ऐसी कोई कहानी नहीं है कि आप बूझते रहें कि आगे क्या होगा. कहीं कहीं उसमें ठहराव वही कायम है जो धारावाहिकों में होता है लेकिन फिर भी उतना नहीं. महत्वपूर्ण यह है कि वह कहीं सीरियल की खूबियां नहीं खोती, उल्टा दो घंटे की एक कहानी में उन्हें दिखाने में कामयाब होती है. आमतौर पर टीवी पर आने वाले सिचुएशनल कॉमेडी वाले धारावाहिक मुख्य रूप से अपने किरदारों के इर्द-गिर्द घूमते हैं. वह जितना स्वाभाविक और विश्वसनीय ढंग से होता है, धारावाहिक उतना अच्छा लगता है. उनमें कहानी केन्द्र नहीं होती लेकिन केन्द्र से इतना बाहर भी नहीं होती कि वह ऊपर से थोपी हुई लगे. खिचड़ी भी ऐसा ही रहा है. उसकी जान उसके मुख्य पात्र हैं और उन्हें जीने वाले कमाल के एक्टर. फिर वे अपनी कहानी अपने आप भी रच सकते हैं. राजीव मेहता और सुप्रिया पाठक बड़े परदे के किसी भी हास्य अभिनेता से कम नहीं लगते.

यह एक ऐसा परिवार है, जिसके अधिकांश बड़े, अविश्वास करने की हद तक भोले (या बेवकूफ) हैं और बाकी बड़े उनसे कुछ कम. दो बच्चे हैं, जो समझदार हैं और फिल्म के सूत्रधार भी. खिचड़ी इस मायने में महत्वपूर्ण धारावाहिक और फिल्म है कि उसके कैरेक्टर बहुत मजबूत हैं. आप उन्हें बिल्कुल अलग अलग पहचान सकते हैं और यह जान सकते हैं कि इनमें से कौन किस बात पर कैसे रिएक्ट करेगा. फिल्म या धारावाहिक लिखने के स्तर पर यह आतिश कपाड़िया का प्रशंसनीय काम है. जैसे परिवार के मुखिया तुलसीदास थोड़े ज्यादा समझदार हैं और इसीलिए अपने परिवार की हरकतों पर नाराज रहते हैं. उनका बेटा प्रफुल्ल (जिसे वे ‘प्रफुल्ल गधा’ कहते हैं) खुद को बहुत होशियार समझता है लेकिन सबसे बेवकूफ है. वह अक्सर अपनी अंग्रेजी न जानने वाली पत्नी हंसा को अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ समझाता है जैसे ऑर्डर का अर्थ ‘और डर’. हंसा आदर्श टीवी सीरियल बहू की तरह सज धज कर रहती है, कुछ काम नहीं करती और बार-बार कहती है कि वह थक गई है. इस तरह यह टीवी धारावाहिकों का भी मजाक है और इसी कड़ी में आतिश फिल्म को ‘डीडीएलजे’ और ‘पापी गुड़िया’ जैसी अमर प्रेम कहानियों की तरह अमर बनाते हुए बॉलीवुड की ज्यादातर प्रेम-कहानियों पर शानदार व्यंग्य करते हैं. फिल्म में हंसा के भाई हिमांशु का किरदार बढ़ाकर उसे नायक बना दिया गया है. वह जब आखिर में अपनी पंजाबी मंगेतर को पाने निकलता है तो सड़क पर लगा मील का पत्थर मास्को की दूरी भी बता रहा है क्योंकि वह बॉलीवुड के नायक की हदें जानता है. इसी तरह स्विट्जरलैंड और समुद्र के किनारों को छोड़कर सब्जी मंडी में फिल्माए गए प्यार के गाने ‘भोंसले मार्केट चल’ का जिक्र किए बिना यह समीक्षा अधूरी है.  

गौरव सोलंकी

सगरी नगरिया शोर आपन हियां न भोर

कल्याण बिगहा का कल्याण

पटना के पहाड़ी बाईपास में पांच घंटे जाम में फंसे रहने के बाद दिन के करीब 12 बजे हम बख्तियारपुर जिले में स्थित नीतीश कुमार के पुश्तैनी गांव कल्याण बिगहा पहुंचने को होते हैं. हमें गांव तक ले जा रही गाड़ी के ड्राइवर सिंहजी कहते हैं, ‘कितना मजा आता अगर आज नीतीश कुमार भी अपने गांव आने वाले होते. जब पांच घंटे तक पहाड़ी जाम में फंसते तब पता चलता कि उनका गांव है तो पटना के पास लेकिन जाम के कारण इतना दूर हो जाता है कि पहुंचने के लिए 10 घंटे भी कम पड़ते हैं.’

खैर! 25 सितंबर को किसी तरह हम कल्याण बिगहा पहुंचते हैं. संयोगवश उसी रोज हमारे पहुंचते ही सतीश कुमार भी वहां पहुंच जाते हैं. पेशे से वैद्य सतीश कुमार नीतीश के बड़े भाई हैं. नीतीश के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी काफी समय तक सतीश अपने पुराने खपरैल वाले घर में ही रहा करते थे. लेकिन पिछले लगभग डेढ़ साल से मां की तबीयत ज्यादा खराब होने की वजह से वे उन्हें लेकर पटना चले गए हैं. वे अब वहां नीतीश के साथ ही रहते हैं.

अपने टूटे-फूटे घर के बाहर ही कुर्सी लगाकर बैठे सतीश कहते हैं, ‘जब मौका मिलता है, आ जाते हैं. मन तो इधर ही बसता है, कल्याण बिगहा में या बख्तियारपुर में. मां की तबीयत के कारण पटना रहते हैं नहीं तो इधर ही रहते हैं.’

सतीश का राजनीति से कभी कोई लेना-देना नहीं रहा. एक अजीब बात सतीश के अपने गांव में होने पर यह देखने में आती है कि उनके घर के अगल-बगल रहने वालों पर उनके वहां आने का कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखाई देता. आम तौर पर होता यह है कि नेता जी या उनके परिजन जब गांव आते हैं तो लोगों की भारी भीड़ जमती है, लेकिन कल्याण बिगहा में वह परंपरा नहीं दिखाई देती. एक मायने में यह अच्छा भी है लेकिन राजनीति से बेरुखी समझ से परे है. गांव के चौपालों पर बैठकें नहीं जमती हों ऐसा नहीं है. बैठकें भी जमती हैं और खूब गरमागरम बहसें भी होती हैं लेकिन नीतीश की राजनीति पर नहीं, न ही लालू के राजनीतिक दांव-पेंचों पर. बल्कि ताश के खेल में कौन कितना चतुर-ज्ञानी हो गया है, इस पर. 25 को हमारे कल्याण बिगहा पहुंचने के वक्त राज्य की चुनावी राजनीति में नीतीश का काव्य-युद्ध चर्चाओं के केंद्र में था. लेकिन कल्याण बिगहा के चौपालों में उसकी आहट तक सुनाई नहीं पड़ी.

गरमागरम बहसें होती हैं. नीतीश की राजनीति पर नहीं, न लालू के दाव-पेंच पर बल्कि ताश के खेल में कौन कितना चतुर-ज्ञानी हो गया है, उस पर

कल्याण बिगहा को राजनीति में ज्यादा रुचि नहीं. हां, कभी नीतीश की रैली हो तो पूरा गांव पहुंच जाता है वहां. नीतीश के नाम पर यहां जो भी वोट मांगेगा उसे एकमुश्त मिलेगा. इसकी गारंटी यहां हर कोई दे सकता है. जैसा कि रजनीश कुमार कहते हैं, ‘यह उनका अपना गांव है तो यहां क्या राजनीति की झलक मिलेगी. एक गांव में एक ही नेता पैदा होता है, यहां दूसरे नेता की गुंजाइश नहीं.’ वे बताते हैं कि यहां नीतीश साल में दो बार जरूर पहुंचते हैं – 14 मई को अपनी पत्नी मंजू देवी की पुण्यतिथि के अवसर पर और 29 नवंबर को अपने पिता स्व. रामलखन सिंह को श्रद्धांजलि देने. दोनों के स्मृति स्थल गांव में प्रवेश करते ही नजर आते हैं.

नीतीश के यहां आने से पहले गांव की साफ-सफाई अच्छे से होती है. नीतीश आते हैं, माल्यार्पण करते हैं, कुछ देर रुकते हैं, चले जाते हैं. ग्रामीणों के पास अपने नेता से पूछने के लिए कोई सवाल नहीं होता, समस्याओं की कोई फेहरिस्त नहीं होती और न ही उम्मीदों की पोटली लिए पहुंचता है कोई वहां.

नीतीश  के मुख्यमंत्री बनने के बाद कल्याण बिगहा में कल्याण की नदियां बही हैं. प्राथमिक विद्यालय के बाद अब इंटर तक की पढ़ाई का इंतजाम हो रहा है. कम्युनिटी हॉल में आईटीआई चालू हो चुका है. लालू के गांव फुलवरिया हम एक दिन पहले पहुंचे थे. वहां और यहां में एक फर्क साफ महसूस होता है. लालू की  तुलना में नीतीश का सबसे ज्यादा जोर शिक्षण संस्थान स्थापित करवाने पर रहा है. इसके अलावा बिजली के लिए विशेष व्यवस्था हो रही है. पानी की टंकी से पानी की सप्लाई होती है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खुल गया है और जिस कल्याण बिगहा में हरनौत के रास्ते पहुंचने के लिए गड्ढों से होकर जाना पड़ता था, वहां मॉडल सड़क बिछी है.

लेकिन इतने के बाद भी नीतीश के गांव में राजनीति से लोगों का कोई लगाव नहीं दिखता. उन्हें तो बस तीर छाप पर वोट डालने से मतलब है. हालांकि वर्षों बाद नीतीश के गांव से एक और युवा ने राजनीति की शुरुआत की है. युवा जदयू के प्रदेश महासचिव बने राजकिशोर कहते हैं, ‘हम राजनीति ही करना चाहते हैं, इसमें साहब का सहयोग मिलेगा, यह उम्मीद है.’

अंत में नीतीश के डेवलपमेंट एजेंडे की पोस्टमार्टम करने वाले एक सज्जन मिलते हैं, ‘नीतीश जब तक अधिकारियों पर सख्ती नहीं करेंगे, उनका विकास-मॉडल खाली हाथी दांत ही रह जाएगा.’

फुलवरिया में नहीं महकती राजनीति

24 सितंबर को बिहार के अखबारों में लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी के राजनीति में लांचिंग की खबर सुर्खियों में थी. समूचे राज्य में तेजस्वी के बहाने लालू और लालू के बहाने तेजस्वी के राजनीतिक भविष्य का आकलन चल रहा था, उसी रोज हम फुलवरिया पहुंचे.

फुलवरिया यानी बिहार के करिश्माई नेता लालू प्रसाद यादव का खानदानी गांव. राजनीति में अदभुत प्रयोग से सीएम बनी राबड़ी का ससुराल. वह गांव, जो 1990 की शुरुआत में बिहार के चप्पे-चप्पे में रातों-रात चर्चित हो गया था. तब फुलवरिया पर रचित एक लोकगीत बड़ा मशहूर हुआ था – धन फुलवरिया, धन माई मरछिया, लालू जिनके ललनवा कि जानेला जहनवा ए रामा…

छपरा, सीवान, मीरगंज के बाद लाइनबाजार की संकरी सड़क पर बेतरतीब निकल आई दुकानों और हर नियम को तोड़ने पर आमादा ट्रकों के जाम से जूझते हुए फुलवरिया पहुंचने पर एक सज्जन से मुलाकात होती है. लालू जी का घर पूछने पर वे हाथों के इशारे से रास्ता बताते हैं. लालू जी के दोमंजिला मकान के सामने पहुंचकर जब जानने की कोशिश करते हैं कि यहां कोई रहता नहीं क्या तो बताया जाता है कि जिस व्यक्ति ने हमें यहां तक पहुंचने का रास्ता बताया वही यहां रहते हैं. उनका नाम है रामानंद यादव और वे लालू प्रसाद के भतीजे हैं. भैंस चरा रहे रामानंद के पास हम वापस पहुंचते हैं. वे थोड़ी देर में मिलने का आश्वासन देकर चले जाते हैं. वह ‘थोड़ी देर’ नहीं आता. 4 घंटों में कई बार उनसे सामना होता है, मगर वे हर बार कभी किसी तो कभी किसी बहाने कन्नी काट लेते हैं.

फुलवरिया में चौपालों की खाक छानने के क्रम में कइयों से दिलचस्प मुलाकातें होती हैं. लालू प्रसाद द्वारा निर्मित ब्रह्मबाबा चबूतरे पर गंवई गीतों की मस्ती के साथ गेहूं फटकती गांव की एक बहुरिया कहती है, ‘नेता जी के बारे में हमको विशेष पता नहीं, सिवाय इसके कि जब भी वोट का टाइम आएगा, हम लालटेन पर पीं बजा आएंगे.’

‘नेता जी के बारे में हमको विशेष पता नहीं, सिवाय इसके कि जब भी वोट का टाइम आएगा, हम लालटेन पर पीं बजा आएंगे’

लालू प्रसाद जब बिहार की सत्ता पर काबिज हुए थे तो फुलवरिया में एकाएक विकास की आंधी चली थी. हेलीपैड, अस्पताल, थाना, बैंक, डाकघर, पानी की टंकी, पावर हाउस, ब्लॉक ऑफिस, अंचल कार्यालय, भव्य दुर्गा मंदिर से लेकर ब्रह्मबाबा स्थान तक सबकी स्थापना हुई. लेकिन पूरे बिहार में राजनीति की नई परिभाषा गढ़ देने वाले लालू प्रसाद के गांव में उनकी चर्चा तो है, किसी भी प्रकार की राजनीति की बिलकुल नहीं. फुलवरिया में न कहीं राजद का कोई झंडा है, न बैनर-पोस्टर और न ही कहीं अपने नेता की कोई तसवीर. पूरे राज्य में छाए रहने वाले नेता के गांव में यह राजनीतिक शून्यता आश्चर्य में डाल देती है.

मरछिया देवी रेफरल अस्पताल के सामने एक गुमटी के पास चंद नौजवान बैठे मिलते हैं. उनमें से एक कमलेश कहता है, ‘यह तो साहेब का गांव है जहां हर चुनाव में उनकी पार्टी को एकमुश्त वोट पड़ेगा, इससे ज्यादा राजनीति की गुंजाइश यहां नहीं है.’

यह भी दिलचस्प है कि जब तेजस्वी के राजनीति में प्रवेश की चर्चा पूरे राज्य में थी, उस रोज फुलवरिया में सिर्फ एक आदमी इस पर बात करने को तैयार मिला. दुर्गा मंदिर की देखरेख करने वाले महेंदर दास कहते हैं, ‘तेज बाबू अभी क्रिकेट ही खेलते तो मजा आता. राजनीति में तो कभी भी आ जाते. हम तो उनको बड़ा खिलाड़ी बनते हुए देखना चाहते थे. उसमें ज्यादा नाम है.’ यहां राजनीति पर क्रिकेट का भारी होना भी एक अलग ही एहसास करवाता है.

गांव में ही मिले नौजवान परमहंस यादव बताते हैं, ‘हमारे नेता यहां के लिए भगवान ही हैं. उनके मंत्री बनने से पहले यहां आने के लिए कच्ची सड़क तक नहीं थी, कीचड़ भरे रास्ते को पार करना पड़ता था. लेकिन अब देखिए, कई-कई चार पहिए लगे हैं.’ परमहंस के अनुसार यही बदलाव है. यही विकास है. वहीं बैठा परमहंस का साथी उसकी बातों को काटता है, ‘बदलाव तो यह भी है कि एक समय जब लालू जी यहां आते थे तो हजारों का हुजूम उमड़ पड़ता था. पूरा इलाका फुलवरिया में होता था. अब इलाके की बजाय बस गांव-जवार वाले उमड़ते हैं.’ वह बात को आगे बढ़ाता है, ‘तब हमारे नेता जी ने ब्लॉक, बैंक, डाकघर, अस्पताल, पावर हाउस सब बनवाया लेकिन नई पीढ़ी के सामने सवाल यह है कि यहां एक हाई स्कूल क्यों नहीं है? एक इंटर कॉलेज क्यों नहीं है? कोई तकनीकी शिक्षण संस्थान क्यों नहीं खुला?’

लौटते समय लाइनबाजार में चाय की दुकान पर मिले ओमप्रकाश बताते हैं, ‘लालू जी ने अपने गांव में विकास के कई कार्य किए, पर आसपास के गांवों में कुछ खास नहीं हुआ जिससे उनमें फुलवरिया के प्रति ईर्ष्या का भाव पैदा हुआ और राजद के खिलाफ वोटिंग हुई. उनके खुद के इलाके मीरगंज से जदयू के रामसेवक सिंह विधायक हैं.’ ओमप्रकाश के अनुसार विकास के अन्य कार्यों के साथ राजनीतिक चेतना का भी विकास हुआ होता तो आज फुलवरिया और आसपास के इलाके में कई और लालू यादव पैदा हो गए होते जो राजा का गढ़ कभी नहीं ढहने देते.

शहरबन्नी का सच

खगड़िया से अलौली प्रखंड मुख्यालय जाते वक्त सिंगल लेन सड़क का संकट तो फिर भी कम है लेकिन अलौली के बाद हथवन होते हुए फूलतोरा घाट तक पहुंचने में अगर आप ज्यादा मुश्किल झेले बिना सफल हो जाते हैं तो समझिए कि जंग जीत गए. यहां का रास्ता बेहद घटिया है. चालक बार-बार गाड़ी आगे ले जाने से मना कर देता है. बहुत मान-मनुहार के बाद ही वह फूलतोरा घाट तक जाने को तैयार होता है. फूलतोरा से नाव की सवारी करके ही रामविलास पासवान के गांव शहरबन्नी पहुंचा जा सकता है. वह गांव जहां के एक निर्धन दलित परिवार से आए रामविलास ने पांच दशक पहले राजनीति में न सिर्फ कदम रखा बल्कि बिहार सरकार में मंत्री रहे मिश्री सादा जैसे खुर्राट कांग्रेसी नेता को पटखनी भी दी थी.
इतने बड़े दिग्गज दलित नेता के गांव तक पहुंचने के लिए जिला मुख्यालय से सड़क मार्ग का न होना हैरत भरा है. बिजली के तार के इंतजार में लगे खंभे उपेक्षा की अलग कहानी कहते हैं. राजनीतिक निष्क्रियता यहां भी है, जनता और नेता दोनों की तरफ से. फूलतोरा घाट के रास्ते में मिले गंगेश बताते हैं, ‘बिजली-पानी और रोजी-रोटी जैसी बुनियादी चीजें न मिलें तो राजनीति को लेकर रोमांचित होने की कोई वजह नहीं बचती.’ वहीं रामप्रवेश, शिवनारायण समेत कई ऐसे लोग मिलते हैं जिनकी रुचि रामविलास की राजनीतिक बुलंदी में नहीं है और न ही उनके छोटे भाई व अलौली के विधायक पशुपति कुमार पारस के उपमुख्यमंत्री बनने में.

पूरा अलौली प्रखंड तो दूर, शहरबन्नी ही गांव जैसी बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित है. यहां की बहुसंख्यक आबादी मुसहर है जो महादलित समीकरण का अहम हिस्सा हंै. ऐसे में नीतीश रामविलास की असफलताओं को भुनाने की पूरी कोशिश करेंगे. प्रदेश के दिग्गज राजनेता के गांव के प्रति सरकारी और उसकी राजनीतिक बेरुखी आश्चर्यजनक है.

वेद-कुरान का ज्ञान

संकरी गलियों की भूलभुलैया वाला इलाहाबाद का करेली मोहल्ला. मुसलिम बहुल इसी मोहल्ले की एक गली में तकुआ इस्लामिक स्कूल है जहां हमें वेदों और कुरान की शिक्षा एक साथ देने वाली शिक्षिका  असमा शम्स मिलती हैं. वे कहती हैं, ‘सभी धर्म एक ही मंजिल की ओर इशारा करते हैं. यदि आप भगवद गीता, वेद, उपनिषद या फिर कुरान से सुरे इख्लास, सुरे फातेहा पढ़ें तो आप पाएंगे कि इन सबमें एक समानता है.  ये सभी ईश्वर की एकता की बात कहते हैं. यही बात स्वामी दयानंद द्वारा लिखी गई  किताब सत्यार्थ प्रकाश और ब्रह्मसूत्र में भी कही गई है.’

मदरसे में बच्चों को अच्छी शिक्षा के साथ विभिन्न धर्मों के बीच मौजूद खाई को पाटने की तालीम भी मिलती हैइस इलाके में मदरसों की भरमार है. परंतु इस स्कूल का मिजाज इन मदरसों से बिलकुल जुदा है. नाम भले ही इस्लामिक स्कूल हो लेकिन यहां हर मजहब के बच्चों का स्वागत है.  स्कूल इस्लामिक एजुकेशन एंड रिसर्च संस्थान (ईरो) द्वारा चलाया जाता है. पेशे से कंप्यूटर प्रोग्रामर जिया-उस-शम्स इस संस्थान के संस्थापक अध्यक्ष हैं. अप्रैल 2010 में इस स्कूल की शुरुआत करने वाले जिया कहते हैं कि वे ऐसा संस्थान शुरू करना चाहते थे जहां बच्चों को अच्छी शिक्षा के साथ ही विभिन्न धर्मों के बीच मौजूद खाई को पाटने और भाईचारे को बढ़ावा देने की तालीम दी जाए.

ईरो की स्थापना जनवरी, 2008 में जागरूक नागरिकों के एक समूह ने विभिन्न धर्मों के बीच संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से की थी. इस्लाम के बारे में फैली भ्रांतियां दूर करना भी इसकी स्थापना की एक मुख्य वजह थी. तभी से यह संस्थान शांति और विभिन्न धर्मों में सामंजस्य बैठाने की दिशा में अनथक प्रयास कर रहा है. जिया बताते हैं, ‘यहां एक अनूठी लाइब्रेरी भी है जहां आपको कुरान, हदीस, बाइबिल, गीता और  वेद एक साथ रखे हुए मिल जाएंगे. यहां विभिन्न भाषाओं में धर्म ग्रंथ उपलब्ध हंै ताकि आम जनता उन्हें आसानी से पढ़ और समझ सके. यहां आप बाइबिल और भगवद गीता उर्दू में या फिर कुरान अंग्रेजी में पढ़ सकते हैं. हमारा मकसद लोगों को सिर्फ अपने धर्म के बारे में पढ़ने और समझने के लिए प्रेरित करना नहीं बल्कि दूसरे धर्मों को समझना और उसके बारे में फैली गलतफहमियों को दूर करना भी है. ‘जिया के इस कदम को अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है. वे अब ऐसे और स्कूल खोलने की भी सोच रहे हैं. उनके मुताबिक विभिन्न धर्मों के बीच फैले वैमनस्य की मुख्य वजह गलतफहमी और अविश्वास है. वे कहते हैं, ‘विभिन्न धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने पर कोई भी आसानी से यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि सभी धर्म एक ही बात कहते हैं. शांति, सामंजस्य और इंसानियत ही सभी धर्मों का सार है. हम चाहे उसे जिस नाम से बुलाएं या जिस तरीके से उसकी इबादत करें. परंतु वह एक है.’  स्कूल में पढ़ने वाली अल शिफा कहती हैं ‘शिक्षा ही लोगों को शांति और एकता की राह दिखा सकती है. अगर सब आपस में प्यार से रहें तो धरती ही जन्नत बन जाएगी.’

ईरो द्वारा समय-समय पर भाईचारे और आपसी विश्वास को बढ़ावा देने के लिए बैठकें, परिचर्चा और गोष्ठियां भी आयोजित की जाती हैं.  इन आयोजनों में सभी समुदायों के बुद्धिजीवी और धार्मिक नेता भाग लेते हैं और एक मंच से शांति के प्रसार और विभिन्न धर्मों के बारे में फैली भ्रांतियों को दूर करने का प्रयास करते हैं.
आधुनिक विज्ञान के साथ संस्कृत और अरबी पढ़ते  तकुआ इस्लामिक स्कूल के बच्चे आश्वस्त करते लगते हैं कि वे आगे जाकर सभी धर्मों को समझने वाले और उनका आदर करने वाले जिम्मेदार नागरिक जरूर बनेंगे. 

सैफ उल्लाह खान                                

अमन सिखाती अयोध्या

‘सरयू नदी में पंडे धर्म-कर्म कराते थे और मुसलिम समुदाय के लोग फूल चढ़वाने का काम करते थे. जहूर मियां बाबरी मस्जिद का केस भी लड़ते थे और संत-महंत सामने से गुजर जाएं तो दुआ-सलाम व आदर देने में कहीं भी कोताही नहीं करते  थे. हाशिम मियां के क्या कहने, उनका महंत परमहंस जी से तो याराना जैसा था. हाशिम मियां आज भी हैं वे बाबरी मस्जिद के एक पक्षकार भी हैं और इसी मामले में हिंदू पक्ष की ओर से पक्षकार रहे रामचंद्र परमहंस के साथ एक ही गाड़ी में बैठकर रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का मुकदमा लड़ने के लिए जाते थे.’

फूलबंगले की सजावट से लेकर विभिन्न त्योहारों तक तमाम मौकों पर शहर के हिंदू-मुसलिम साथ खड़े दिखते हैंभाजपा के सांसद रहे ब्रह्मचारी विश्वनाथ दास शास्त्री की यह बात उस अयोध्या की झलक देती है जिसकी हर ईंट में गंगा-जमुनी तहजीब और सद्भाव की मिट्टी बसी है. फूलबंगले की सजावट से लेकर विभिन्न मेले-त्योहारों तक तमाम मौकों पर शहर के हिन्दू-मुसलिम साथ-साथ दिखाई देते हैं.  पूजा के लिए दिए जाने वाले फूलों से लेकर मंदिरों में चढ़ने वाली माला को पिरोने के काम में लगे मुसलिम समुदाय के लोग शहर के ताने-बाने में ऐसे रचे बसे हैं कि यदि ये न हों तो शायद अयोध्या की जिंदगी ही ठहर जाए.

कनकभवन के बगल में स्थित सुंदरभवन में रामजानकी का मंदिर है. अन्सार हुसैन उर्फ चुन्ने मियां 1945 से लेकर जीवन के अंतिम क्षणों तक इस मंदिर के मैनेजर रहे. मेले में तो वे पुजारी के काम में मंदिर में हाथ भी बंटाते थे. वे पंचवक्ती नमाजी थे लेकिन क्या मजाल इसे लेकर अयोध्या में कोई विवाद हुआ हो.
अयोध्या के साधु-संतों के लिए विशेष तौर पर अयोध्या के मुसलिम कारीगरों द्वारा जो खड़ाऊं बनायी जाती है उसे ‘चुन्नी-मुन्नी’ कहते हैं. इसका वजन 50 से लेकर 100 ग्राम तक होता है. इसे बनाने वाले एक मोहम्मद इकबाल बताते हैं कि यह एक खास हुनर है . इनके पिता भी यही काम करते थे और खानदान के लगभग एक दर्जन लोग इसे अपना व्यवसाय और सेवा बनाए हुए हैं. 6 दिसम्बर, 1992 को बाहरी उपद्रवी लोगों ने इनका घर जलाकर खाक कर दिया फिर भी इन्होंने न तो अयोध्या छोड़ी और न खड़ाऊं बनाना. हनुमानगढ़ी सहित तमाम मंदिरों में ये खड़ाऊं चढ़ाई जाती है. जब विश्व हिंदू परिषद के अयोध्या आंदोलन के कारण स्थितियां खराब होने के अंदेशे में खड़ाऊं के कारोबार में लगे मुसलिम कारीगर थोड़े दिनों के लिए अयोध्या छोड़कर दूसरी जगहों पर चले गए तो विश्व हिंदू परिषद को भरतकुंड के खड़ाऊ पूजन का कार्यक्रम पूरा करने के लिए जरूरी खड़ाऊं उपलब्ध नहीं हो सकी.

इतिहास पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि अयोध्या में कई मंदिर और अखाड़े हैं जिन्हें मुसलिम शासकों ने समय-समय पर जमीन और वित्तीय संरक्षण दिया. फैजाबाद के सेटिलमेंट कमिश्नर रहे पी कारनेगी ने भी 1870 में लिखी अपनी रिपोर्ट में इस आशय के कई उल्लेख किए हैं. रामकोट क्षेत्र, जहां अयोध्या विवाद का मुख्य केंद्र बिंदु विवादित परिसर है, उसी के उत्तर में स्थित जन्मस्थान मंदिर 300 वर्ष पुराना है. यह वैष्णवों के तड़गूदड़ संप्रदाय का मंदिर है और कार्नेगी ने लिखा है कि इसके लिए जमीन अवध के नवाब मंसूर अली खान ने दी थी. रामकोट में प्रवेश द्वार पर ही एक टीलेनुमा किले के रूप में दिखती है हनुमानगढ़ी. सीढ़ियां देख लीजिए तो लगता है जैसे पहाड़ी पर चढ़ना है. हनुमानगढ़ी को नवाबों के समय में दी गई भूमि पर बनाया गया था और आसफुदौला के नायब वजीर राजा टिकैतराय ने इसे राजकोष के धन से बनवाया. आज भी यहां फारसी में लिपिबद्ध पंचायती व्यवस्था चल रही है. जिसका मुखिया गद्दीनशीन कहलाता है. इस समय रमेशदास जी इसके गद्दीनशीन हैं. हनुमानगढ़ी के महंत ज्ञानदास ने 2003 में अयोध्या के इतिहास में हनुमानगढ़ी परिसर में रोजा इफ्तार का आयोजन करके हिन्दू-मुसलिम के बीच अयोध्या आंदोलन के फलस्वरूप आई कुछ दूरियों को समाप्त करने के लिए एक नया अध्याय खोला और इसके बाद सादिक खां उर्फ बाबू टेलर ने मस्जिद परिसर में हनुमान चालीसा का पाठ कराकर अवध की उसी गंगा-जमुनी तहजीब का परिचय दिया जिसका अयोध्या भी एक हिस्सा है.

हनुमानगढ़ी के महंत, षटदर्शन अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास कहते हैं कि नागापनी संस्कार में उनके गुरू द्वारा बताया गया था कि अवध के नवाब आसफुदौला और सूबेदार मंसूर अली खान के समय में मंदिर को दान मिला था. महन्त ज्ञानदास फारसी में लिखे उस फरमान को दिखाते हैं जिसके अनुसार मंदिर को दान मिला. वे कहते हैं, ‘जहां तक मुझे ज्ञात है कि नवाब के नायब नवल राय द्वारा अयोध्या के कई मंदिरों का जीर्णोद्धार हुआ. बाबा अभयराम दास को भी नवाबों के काल में भूमि दी गई थी.’

इसी अयोध्या में बाबर के समकालीन मुसलिम शासकों ने दंतधावन कुंड से लगे अचारी मंदिर जिसे दंतधावनकुण्ड मंदिर के रूप में भी जाना जाता है, को पांच सौ बीघे जमीन ठाकुर के भोग, राग, आरती के लिए दान में दी थी. महंत नारायणाचारी बताते हैं कि अंग्रेजों ने भी इस जमीन पर मंदिर का मालिकाना हक बरकरार रखा और जमीन को राजस्व कर से भी मुक्त रखा, इस शर्त पर कि मंदिर द्वारा ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कोई कार्य नहीं किया जाएगा.

अयोध्या में ही उदासीन संप्रदाय का नानकशाही रानोपाली मंदिर भी है. यह वही मंदिर है जिसकी चौखट पर ऐतिहासिक ‘धनदेव’ शिलालेख जड़ा है जिसमें पुष्यमित्र के वंशजों द्वारा यहां एक ऐतिहासिक यज्ञ करने का वर्णन है. इस मंदिर का क्षेत्र ही इतना बड़ा है कि मंदिर परिसर के अंदर खेती भी होती है. तहलका ने कुछ साल पहले जब यहां महंत दामोदरदास से मुलाकात की थी तो उन्होंने नवाब आसफुद्दौला का एक दस्तावेज दिखाया था जो फारसी में लिखा था. उन्होंने बताया था, ‘नवाब ने मंदिर के लिए एक हजार बीघे जमीन दान में दी थी लेकिन इसकी जानकारी हमें नहीं थी. 1950 में इसका पता चला जब महंत केशवदास से मार्तंड नैयर और शकुंतला नैयर ने मंदिर की जमीन का बैनामा करा लिया. मामला आगे बढ़ा तो पता चला कि यह तो हो ही नहीं सकता क्योंकि जमीन दान की थी उसी दौरान हमें आसफुद्दौला की ग्राण्ट का यह प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ था जिसे कोर्ट में लगाया गया और बैनामा खारिज हुआ. कोर्ट ने कहा कि दान की भूमि को बेचा नहीं जा सकता.’ गौरतलब है कि शकुंतला नैयर तत्कालीन जिलाधिकारी केकेके नैयर की पत्नी तथा मार्तंड नैयर उनके बेटे थे. केकेके नैयर के समय ही 22/23 दिसंबर 1949 को मूर्तियां बाबरी मस्जिद के अंदर रखी गई थीं. बाद में ये पति-पत्नी जनसंघ के टिकट पर सांसद भी निर्वाचित हुए थे.  

सरयू किनारे स्थित लक्ष्मण किले के बारे में उल्लेख मिलता है कि यह मुबारक अली खान नाम के एक प्रभावशाली व्यक्ति ने बनवाया था. यह अब रसिक संप्रदाय का मंदिर है जिसके अनुयायी  रासलीलानुकरण को अपनी उपासना के अंग के रूप में मान्यता देते हैं. अयोध्या-फैजाबाद दो जुड़वां शहर हैं. फैजाबाद नवाबों की पहली राजधानी रही है. गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रभाव फैजाबाद की दुर्गापूजा पर भी दिखता है जब चौक घंटाघर की मस्जिद से दुर्गा प्रतिमाओं के जुलूस पर फूलों की वर्षा की जाती है. यह परंपरा कब शुरू हुई यह कहना मुश्किल है, लेकिन यह उसी रूप में आज भी जारी है.

सुमन गुप्ता

राजनीतिक पत्रकारिता की छीजन

आखिर इसकी कीमत आम लोगों को ही तो चुकानी पड़ेगी

क्या चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टिंग का मर्सिया पढ़ने का समय आ गया है? संभव है कि सवाल आपको बेतुका लगे. लेकिन अगर आपने हाल में  ‘स्टार न्यूज’ के नेशनल एडिटर और ठेठ राजनीतिक रिपोर्टर दीपक चौरसिया को राखी सावंत से या ‘आज तक’ के ब्यूरो चीफ और राजनीतिक रिपोर्टर रहे अशोक सिंहल को राहुल महाजन की पत्नी डिंपी महाजन से एक्सक्लूसिव इंटरव्यू करते देखा हो तो यह सवाल उतना बेतुका नहीं लगेगा. असल में, यह सवाल उठाने की जरूरत इसलिए पड़ रही है कि चैनलों पर राजनीतिक खबरों की रिपोर्टिंग न सिर्फ लगातार घट रही है बल्कि उसे न्यूज एजेंडा से हाशिए पर धकेल दिया गया है. अधिकांश चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टिंग फैशन से बाहर हो गई है. एक समय था जब राजनीतिक रिपोर्टर स्टार माने जाते थे लेकिन अब हालत यह है कि उनकी खबरों की चैनलों में पूछ नहीं रह गई है. सभी व्यावहारिक अर्थों में वे बेकार हो गए हैं. ऐसे ज्यादातर रिपोर्टरों के लिए मक्खियां मारने की नौबत आ गई है.

ऐसा नहीं है कि इस बीच देश में राजनीतिक सरगर्मियां या हलचलें बंद हो गई हैं. राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति में वह सभी कुछ चल रहा है जो अखबारों और चैनलों को हमेशा ही कवरेज के लिए खींचता रहा है. एक दौर था जब राजनीतिक खबरों के बिना किसी चैनल या उसके बुलेटिन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. बुलेटिनों में 30 से 40 फीसदी खबरें राजनीतिक हुआ करती थीं और राजकाज को लेकर लगभग 50 फीसदी. राष्ट्रीय जीवन में राजनीति की भूमिका और आम लोगों के जीवन को प्रभावित करने की उसकी क्षमता को देखते हुए उसे यह महत्व मिलना गलत नहीं था. लोकतंत्र के चौथे खंभे के बतौर भी मीडिया से यह अपेक्षा की जाती है कि वह नागरिकों को देशकाल और राजकाज के बारे में पर्याप्त रूप से सूचित और सचेत रखे. बिना सूचित और सचेत नागरिकों के कोई लोकतंत्र नहीं चल सकता है. राजनीतिक खबरों को अन्य खबरों की तुलना में इसलिए भी अधिक महत्व मिलता रहा है क्योंकि इनके जरिए ही राजनीतिक तंत्र, राजनीतिक वर्गों और सत्ता तंत्र को जनता के प्रति जवाबदेह और जिम्मेदार बनाया जा सकता है. यही कारण है कि राजनीतिक रिपोर्टिंग पत्रकारिता का प्राण रही है. पत्रकारिता का विकास इसी रिपोर्टिंग के जरिए हुआ है.

मुद्दा केवल राजनीतिक कवरेज में मात्रात्मक गिरावट का ही नहीं बल्कि राजनीतिक रिपोर्टिंग की गुणवत्ता का भी है

लेकिन लगता है कि हिंदी समाचार चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टिंग को पांच ‘सी’ (क्रिकेट,सिनेमा,सेलेब्रिटी,क्राइम,कामेडी) की नजर लग गई है. स्वतंत्र मीडिया शोध संस्था- सेंटर फार मीडिया स्टडीज के एक सर्वेक्षण के मुताबिक 2005 से 2007 के बीच हिंदी और अंग्रेजी के छह समाचार चैनलों के प्राइम टाइम (रात 8 बजे से 10 बजे) पर राजनीतिक कवरेज में 50 प्रतिशत से अधिक की गिरावट दर्ज की गई. हालांकि आम चुनावों के साथ-साथ कई विधानसभा चुनावों के कारण 2009 में राजनीतिक कवरेज में सुधार आया, लेकिन फिर भी वह 2005 की तुलना में कुछ प्रतिशत कम ही था. दूसरी ओर, पांच ‘सी’ का कवरेज ढाई गुना से ज्यादा बढ़ गया है.

मुद्दा केवल राजनीतिक कवरेज में मात्रात्मक गिरावट का ही नहीं बल्कि राजनीतिक रिपोर्टिंग की गुणवत्ता का भी है. इस आकलन से असहमत होना मुश्किल है कि हाल के वर्षों में राजनीतिक रिपोर्टिंग की न सिर्फ धार कुंद हुई है बल्कि वह उथली भी हुई है. चैनलों की राजनीतिक रिपोर्टिंग राजनेताओं की बयानबाजियों, आरोप-प्रत्यारोपों और मिलने-टूटने तक सिमटकर रह गई है. यही नहीं, ज्यादातर राजनीतिक रिपोर्टर अपनी राजनीतिक बीट कवर करते हुए इस कदर ‘स्टाकहोम सिंड्रोम’ के शिकार हो गए हैं कि वे उन पार्टियों और उनके बड़े नेताओं के माउथपीस-से बन गए हैं. सबसे खतरनाक बात तो यह हुई है कि कई बड़े राजनीतिक रिपोर्टर, संपादक और टीवी पत्रकार नेताओं की किचेन कैबिनेट के हिस्सा बन गए हैं. वे नेताओं, उनके गुटों/धड़ों और दूसरे नेताओं और उनके गुटों/धड़ों के बीच, पार्टियों और पार्टियों के बीच और मंत्रियों-नेताओं और कॉरपोरेट समूहों के बीच लॉबीइंग भी करने लगे हैं. मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, अफसरों की नियुक्ति में भूमिका निभाने लगे हैं. राजनीतिक रिपोर्टिंग के नाम पर एक तरह की एम्बेडेड पत्रकारिता हो रही है. इससे राजनीतिक पत्रकारिता की साख को धक्का लगा है. ऐसे राजनीतिक रिपोर्टर और संपादक स्वतंत्र और तथ्यपूर्ण राजनीतिक रिपोर्टिंग करने में सक्षम नहीं रह गए हैं. दूसरी ओर, चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टरों की एक बड़ी तादाद ऐसी भी है जिन्हें भारतीय राजनीति का क-ख-ग भी नहीं मालूम है और न उनमें जानने की इच्छा है. वे राजनीतिक रिपोर्टिंग के नाम पर बाइट पत्रकारिता करते हैं और उनसे इससे अधिक की अपेक्षा करना उनके साथ अन्याय है.

इस तरह, इस तितरफा प्रक्रिया के बीच राजनीतिक रिपोर्टिंग का लगातार क्षय और क्षरण हो रहा है. इसके कारण लोकतंत्र का भी क्षरण और छीजन हो रहा है. कमजोर पड़ती राजनीतिक रिपोर्टिंग के कारण राजनीतिक दल, राजनेता और पूरा राजनीतिक तंत्र निरंकुश और अनुत्तरदायी होता जा रहा है. यह सबके लिए चिंता की बात है. आखिर इसकी कीमत आमलोगों को ही तो चुकानी पड़ेगी.