मौलाना की लिखी नई इबारत

तब भी दुनिया में पहली बार ही ऐसा हुआ होगा और अब भी संभवतः ऐसी मिसाल कहीं कायम नहीं हो सकी है कि एक मस्जिद में तकरीर सुनने के लिए हिंदुओं के बैठने के वास्ते विशेष कमरों का निर्माण कराया गया हो, ताकि हर जुम्मे को जब मुसलमानों का कारवां मस्जिद तक नमाज अदा करने पहुंचे तो उनसे पहले हिंदू वहां पहुंचकर अपनी जगह लिए रहें. करीब नौ दशक पहले रांची की जामा मस्जिद में इस कल्पना को हकीकत में बदला था मौलाना अबुल कलाम आजाद ने. बंगाल से निकाले जाने और नजरबंदी के दौरान मौलाना ने अपने जीवन के स्वर्णिम तीन साल (सन 1916-1919 तक) रांची में ही गुजारे थे. नजरबंदी के दौरान ही मौलाना ने हिंदू-मुसलिम एकता की दिशा में जो कवायद की और फिर जो मिसालें पेश हुईं,  उसका जोर अब भी कहीं नहीं मिलता.

‘अल्लाह के पैगंबर ने तो अपने घर में ही हिंदुओं को रखा था. फिर तकरीर में उनके शामिल होने से मस्जिद नापाक कैसे हो सकती है?’ झारखंड अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष गुलफाम मुजिबी बताते हैं कि बंगाल से निकाले जाने के बाद मौलाना रांची में आकर रहने लगे. यहां आने पर प्रतिष्ठित स्वतंत्रता सेनानी नागरमल मोदी (जिनके नाम पर नागरमल मोदी अस्पताल है) ने ही उनके रहने का इंतजाम किया था. रांची के अपर बाजार में स्थित जामा मस्जिद में जुम्मे के नमाज से पहले उन्होंने तकरीर करना शुरू किया. यह दौर आजादी की लड़ाई का था. रांची में भी इसका प्रभाव था. मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद कोई नाम सामने नहीं था. नागरमल मोदी, डॉ जद्दूमल, देवकीनंदन प्रसाद, प्रतुलचंद मित्रा… आदि उसकी अगुआई कर रहे थे. मौलाना ने मसजिद में सबसे पहले यही अपील शुरू की कि अंग्रेजों की गुलामी से आजादी मुसलमानों का सिर्फ सियासी फलिजा (फर्ज) ही नहीं बल्कि मजहबी फलिजा भी है…  इसका व्यापक प्रभाव पड़ा और मुसलमानों ने जंग-ए-आजादी में सक्रियता दिखानी शुरू कर दी. कल तक जो दूर थे उन्होंने सक्रियता दिखानी शुरू कर दी तो लोगों को आश्चर्य हुआ. कई हिंदुओं ने उनसे कहा कि आपने तो जादू कर दिया है. हमें भी आपका भाषण सुनना है. चूंकि मौलाना नजरबंद थे और सार्वजनिक स्थलों पर कुछ बोल नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने मस्जिद में ही लोगों को तकरीर देनी शुरू की और उनके बैठने के लिए कमरों का निर्माण करवा दिया. उनकी तकरीर का ही असर था कि जब अंजुमन इसलामिया की स्थापना 1917 में हुई तो मुसलमानों के साथ-साथ हिंदुओं ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और अपनी भागीदारी की. इस बात का प्रमाण मदरसे के शिलापट्ट से भी मिलता है जिस पर राय साहब ठक्कर दास राय, बाबू जगतपाल सहाय आदि के नाम दर्ज हैं. मदरसे की नींव का पत्थर रातू के महाराज शाहदेव ने रखा था. इसी कड़ी में कुछ और शानदार तथ्यों को जोड़ते हुए अल्पसंख्यक मामलों के जानकार हुसैन कच्छी कहते हैं, ‘जब दिल्ली के जामा मस्जिद में एक एजुकेशनल कांफ्रेस में स्वामी श्रद्धानंद को तकरीर करने के लिए बुलाया गया तो देश भर से उलेमाओं के एक तबके ने विरोध करना शुरू किया कि इससे मस्जिद नापाक हो गई है. किसी माध्यम से यह खबर मौलाना तक भी पहुंची, वे तड़प उठे और नजरबंदी के दौरान रांची के इसी जामा मस्जिद में बैठकर उन्होंने एक दिन में ही किताब लिख डाली. जो बाद में पूरे देश और दुनिया के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गयी. किताब का नाम था -जामे-उस-सवाहिद (कलेक्शन ऑफ प्रूफ). गैरमुसलिमों के मस्जिद में दाखिल होने के संबंध में इस किताब में उन्होंने लिखा है कि अगर मुसलमानों की किसी जमात ने इंसानी भलाई के लिए कोई बेहतर से बेहतर काम किया है तो वो एक यही काम है कि मस्जिद में मजलिसें मुन अकिद कीं  और अपने गैर मजहब हमसायों और हलीफों यानी हिंदुओं को भी इस मकसद से उनको अच्छे काम के लिए शरीक किया, जिस मकसद से रसूल अल्लाह (स.व) गैर मजहब के सुलह पसंदों और दोस्तों को मस्जिद में बुलाते और ठहराते थे. और इससे बढ़कर और क्या मिसाल हो सकती है कि जो अच्छा काम है वो रसूल के काम से जुड़ा हुआ है.’ मौलाना मुफ्ती सलमान कासमी कहते हैं, ‘मुसलमानों के लिए रसूल की जिंदगी सबसे बेहतर नमूना है और उनके रास्ते पर चलने वाले लोग ही सबसे बेहतर मुसलमान. अल्लाह के पैगंबर ने तो अपने घर में ही हिंदुओं को रखा था. फिर तकरीर में उनके शामिल होने से मस्जिद नापाक कैसे हो सकती है?’

रांची से दिल्ली जाकर एक भाषण में मौलाना ने कहा, ‘अगर आज आसमान की बुलंदियों से कोई फरिश्ता उतरकर कुतुबमीनार की छत पर आ जाए और वहां से एलान करे कि मैं तुम्हें 24 घंटों के अंदर स्वराज दे दूंगा, लेकिन तुम्हें हिंदू-मुसलिम की एकता से दस्तबरदार होना पड़ेगा, तो मैं आजादी से दस्तबरदार होना बरदाश्त कर लूंगा पर हिंदू-मुसलिम एकता से नहीं. इसलिए कि आजादी तो हमें मिलकर रहेगी और यदि थोड़ी देर हुई तो इससे हिंदुस्तान का थोड़ा नुकसान होगा मगर यदि हमारी एकता जाती रही तो इससे आलम-ए-इंसानियत का नुकसान होगा.’ ऐसी मिसाल देश में और शायद ही कहीं मिलती हो, पर मौलाना ने जो किया वह एकता कायम करने के क्षेत्र में बेहतरीन नमूना है.

अनुपमा