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‘बिग बॉस’ यानी ‘मनोरंजन से मौत’

एक बार फिर ‘बिग बॉस’ का घर सज गया है.  हमेशा की तरह ‘बिग बॉस’ के इस नए संस्करण ने भी पर्याप्त विवादों को जन्म दिया है. शो में विवादास्पद यहां तक कि आपराधिक मामलों में आरोपित कथित सेलिब्रिटियों की मौजूदगी पर सवाल उठ रहे हैं. कहा जा रहा है कि इससे अच्छा होता कि ‘बिग बॉस’ का सेट तिहाड़ जेल में लगाया जाता और वहीं की शूटिंग दिखाई जाती.

दूसरी ओर, शिव सेना और एमएनएस ने ‘बिग बॉस’ के घर में दो पाकिस्तानी कलाकारों- वीना मलिक और बेगम नवाजिश अली को शो से तुरंत निकालने की मांग की है. इस मांग को न मानने पर सेना ने इस शो को बंद करने की धमकी भी दी है. लोनावाला जहां बिग बॉस की शूटिंग चल रही है, वहां सेना के आह्वान पर एक दिन का बंद हो चुका है.

मतलब यह कि ‘बिग बॉस’ सुर्खियों में है. चैनल को और क्या चाहिए?  कुछ मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, ‘बिग बॉस’ की जिस दिन शुरुआत हुई, उस दिन उसने टीआरपी की दौड़ में कॉमनवेल्थ खेलों के भव्य उद्घाटन समारोह को भी पीछे छोड़ दिया. असल में, सारा खेल ही टीआरपी के लिए है. टीआरपी के लिए जरूरी है कि विवाद और हंगामे हों. इससे सुर्खियां मिलती हंै. सुर्खियों से दर्शक आकर्षित होते हैं और उससे टीआरपी बढ़ती है. 

रियलिटी शो की ‘रियलिटी’ हमेशा से सवालों के घेरे में रही है, वैसे ही उनसे जुड़े विवादों की ‘वास्तविकता’ भी किसी से छिपी नहीं है

इस तरह, किसी शो की सफलता का फॉर्मूला यह बन गया है कि जितना बड़ा विवाद, उतनी अधिक टीआरपी. और उसी अनुपात में बढ़ता चैनल का मुनाफा. इसलिए, हर चैनल और उसके रियलिटी शो विवादों को न सिर्फ पसंद करते हैं बल्कि विवाद पैदा करने के लिए हर जुगत भिड़ाते हैं. सच पूछिए तो जैसे रियलिटी शो की ‘रियलिटी’ हमेशा से सवालों के घेरे में रही है, उसी तरह से उनसे जुड़े विवादों की ‘वास्तविकता’ भी किसी से छिपी नहीं है.

यही नहीं, चैनल और उनके शो खासकर बिग बॉस जैसे रियलिटी शो अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए लगातार विवादों को हवा देते रहते हैं, नए-नए विवाद पैदा करते हैं और ‘विवाद’ रचने में भी पीछे नहीं रहते हैं. आश्चर्य नहीं कि ‘बिग बॉस’ सीजन-4 के लिए ऐसे लोगों को चुना गया है जो पहले से ही किसी न किसी विवाद में रहे हैं और जिनका ‘सेलिब्रिटी’ स्टेटस विवादों पर ही टिका है. जैसे चैनल विवादों के बिना नहीं रह सकते हैं, उसी तरह से ये सभी देवियां और सज्जन बिना विवादों के नहीं रह सकते हैं. दोनों एक-दूसरे की जरूरत हैं. एक-दूसरे की मदद से ही इनका शो बिजनेस चलता है.

ऐसा लगता है कि इनका मंत्र है- ‘मनोरंजन के लिए कुछ भी करेगा’ लेकिन बिग बॉस-4 में तो हद ही हो गई है. ऐसे-ऐसे लोगों को चुना गया जिन्हें शामिल करने का तर्क शायद शो के निर्माताओं के पास भी नहीं होगा. सवाल है कि उनके जरिए ‘बिग बॉस’ क्या संदेश देना चाहते हैं क्या यह अपराध और अनैतिक कार्यों को महिमा मंडित (ग्लैमराइज) करने की कोशिश नहीं है? माफ कीजिएगा, बिग बॉस का घर कोई सुधार गृह नहीं है और न ही वहां कोई सुधरने के लिए लाया गया है. सच तो यह है कि वे सुधरना भी चाहें या अपने को एक बेहतर व्यक्तित्व के रूप में पेश करना चाहें तो चैनल उन्हें ऐसा करने नहीं देगा.

असल में, यह इस शो की अलिखित स्क्रिप्ट का हिस्सा है. इस शो के प्रतिभागियों से अनैतिक, अभद्र, अश्लील, आक्रामक और अटपटे व्यवहार की अपेक्षा की जा रही है. इसके शुरुआती एपिसोडों से यह दिखने भी लगा है. प्रतिभागियों के बीच धड़ल्ले से द्विअर्थी संवाद बोले जा रहे हैं, कृत्रिम प्रेम संबंध रचे जा रहे हैं, एक-दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र चल रहे हैं, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश की जा रही है, झगड़े हो रहे हैं, रोना-गाना चल रहा है और अश्लीलता के नए मानदंड रचे जा रहे हैं. इससे साफ है कि इस शो का मकसद दर्शकों का मनोरंजन करने से अधिक उनकी बुद्धि के सबसे निम्नतम स्तर (लोएस्ट कॉमन डिनोमिनेटर) को सहलाना है.

असल में, ‘बिग बॉस’ जैसे रियलिटी शो दर्शकों को इन कथित सेलिब्रिटियों के आपसी झगड़ों, षड्यंत्रों, अश्लीलताओं, रोने-गाने, प्रेम-नफरत और घर से विदाई में एक परपीड़क आनंद देते हैं. इससे भी बढ़कर वे दर्शकों को चौबीसों घंटे इन सेलिब्रिटीज के घर में ताक-झांक का मौका देते हैं जिससे उन्हें एक खास तरह का रतिसुख मिलता है. यह कहना गलत नहीं होगा कि बिग बॉस जैसे कार्यक्रम दर्शकों को परपीड़क और रतिसुख के आदी बना रहे हैं.

इस तरह, बिग बॉस जैसे कार्यक्रम एक ऐसा मध्यवर्गीय दर्शक वर्ग पैदा कर रहे हैं जो उदात्त मानवीय भावनाओं को आगे बढ़ाने कीे बजाय दूसरों के दुख और कष्ट में लुत्फ लेता है, जो दूसरों के घरों में अनुचित ताक-झांक करने में संकोच नहीं करता, जो दूसरों के झगड़ों में मजा लेता है और जो पीठ पीछे निंदा, चुगली, चापलूसी और षड्यंत्र करने को सफलता के लिए जरूरी मानता है. 

इसे ही मनोरंजन कहते हैं? अगर यह मनोरंजन है तो यह ‘मनोरंजन से मौत’ (डेथ बाई इंटरटेनमेंट) का उदाहरण भी है.

कामयाबी के फसाने में छिप न जाए हकीकत

झारखंड के रातूचट्टी गांव की ज्योति महतो आज कॉमनवेल्थ खेलों की स्वर्ण पदक विजेता है. उसने यह पदक तीरंदाजी में हासिल किया है. कम लोगों को मालूम होगा कि उसका तीर कितनी दूर से चला है, कितने झंझावातों को पार करता हुआ निशाने पर लगा है. उसके पिता शिवचरण महतो ऑटो चलाते हैं. उन्होंने बेटी की प्रतिभा देख उसे आगे बढ़ाने का फैसला किया. ज्योति शारीरिक तौर पर इतनी कमजोर थी कि उससे किसी को उम्मीद नहीं थी. लेकिन आज ज्योति ने सबको गलत साबित किया है.

कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान दूरदराज के कस्बों, गांवों और छोटे शहरों से आईं ऐसी कई ज्योतियां दूसरों को गलत साबित कर रही हैं. शूटिंग में सोना जीतने वाली अनीसा सैयद की कहानी ज्योति से बहुत अलग नहीं है. उनका खेल देखकर रेलवे ने नौकरी दी. उन्होंने तबादला चाहा, नहीं मिला, डेढ़ साल से उन्हें वेतन भी नहीं मिला. शूटिंग चूंकि महंगा खेल है, इसलिए सीमित साधनों में इसका खर्च उठाना आसान नहीं था. पिस्टल की पिन खराब हुई तो उसकी मरम्मत कराने के लिए पैसे जुटाना मुश्किल हो गया. दूसरों की पिस्टल से प्रैक्टिस करनी पड़ी. आज उनके पास दो स्वर्ण हैं और रेलवे के अफसर अपनी भूल सुधारने की कोशिश कर रहे हैं.

कॉमनवेल्थ के आईने में देखें तो गरीब भारत इस देश की नाक ऊंची कर रहा है और अमीर भारत इसकी पगड़ी उछाल रहा है

ऐसी कहानियां और हैं. जिस हरियाणा पर यह तोहमत लगती है कि वहां जनमते ही लड़कियों को मार दिया जाता है वहां के भिवानी जिले के बलाली गांव की दो बहनों, गीता और बबीता ने कुश्ती में स्वर्ण और रजत पदक हासिल किए. गुवाहाटी की रेणु बालाचानू पदक जीतने के बाद ऑटो पर घूमती देखी गईं और सफलता और उपलब्धियों को अमीरों की बपौती और टैक्सियों का सफर मानने वाली दिल्ली ने इस पर भी हायतौबा मचाई.

सिर्फ लड़कियों के नहीं, लड़कों के उदाहरण भी सामने हैं. जो पहलवान और मुक्केबाज कॉमनवेल्थ में पदकों का ढेर लगा रहे हैं वे ज्यादातर बिलकुल सामान्य- बल्कि निम्नमध्यवर्गीय घरों के हैं और बेहद सीमित साधनों के बीच उन्होंने अपनी जगह बनाई है.

ये सारी कहानियां नए सिरे से दुहराने का मकसद सिर्फ यह याद दिलाना है कि यह गरीबों का- गांवों, कस्बों और छोटे शहरों का भारत है  जो कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान इस देश की इज्जत बचा रहा है. अगर अभिनव बिंद्रा, गगन नारंग या ऐसे ही कुछ और उदाहरणों को छोड़ दें तो पदक के मंच पर खड़े होने वाले ज्यादातर भारतीय खिलाड़ी वे हैं जो अपने पीछे एक लंबे और संघर्षपूर्ण सफर की थकान छोड़कर आए हैं.

लेकिन यह गरीब भारत कॉमनवेल्थ के कंगूरे ही नहीं बना रहा, उसकी बुनियाद भी उसी ने तैयार की है. इसकी तैयारी और साज-सज्जा में गरीब भारत की मेहनत लगी है, उसका खून-पसीना लगा है. अफसरों, नेताओं और दलालों का जो अमीर भारत है वह 70,000 करोड़ रुपए में सिर्फ हिस्सा बंटाता रहा, तरह-तरह की कंपनियां और कमेटियां बनाकर सारे ठेके और करार अपने सगे-संबंधियों और दोस्तों को बांटता रहा, और गरीब कई स्तरों पर इस खेल की कीमत चुकाते रहे. जिस दिल्ली को समय रहते तैयार करने का सेहरा अब सारे लोग अपने ऊपर ले रहे हैं उसे संवारने में मजदूरों ने दिन-रात की मेहनत की. कहीं सड़क टूटी, कहीं पुल गिरा और हर जगह मरने और घायल होने वालों की सूची बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश या बंगाल से आए किन्हीं लाचार-अनजान मजदूरों के नाम बताती रही.

इस तैयारी का अगला पड़ाव कहीं ज्यादा मार्मिक और हतप्रभ करने वाला साबित हुआ, जब इन्हीं मजदूरों और इनके साथ आए इनके विस्थापित परिवारों ने पाया कि खेलों के दौरान दिल्ली को सुंदर और साफ-सुथरा दिखाने के लिए उन्हें भेड़-बकरियों की तरह बाहर फेंका जा रहा है. दिन भर की मेहनत के बाद शाम को अपने बच्चों के साथ खाना खा रही मजदूरिनें फुटपाथ से जबरन उठाकर भिखारियों के लिए बने तथाकथित आश्रमों में पहुंचा दी गईं. जिन मजदूरों के पास वापसी के पैसे नहीं थे, उनके हाथ पर दिल्ली पुलिस ने मोहर मारकर उन्हें बेटिकट यात्रा का अधिकारी बना डाला.

इन सबके बीच कॉमनवेल्थ के घपलों-घोटालों की खबर आती रही, इसके ठेकों में दिख रहे भाई-भतीजावाद के आरोप साबित होते रहे, समापन समारोह और महत्वपूर्ण मुकाबलों के टिकट की कालाबाजारी की खबरें चलती रहीं, लेकिन किसी जिम्मेदार आदमी को इस सिलसिले में गिरफ्तार किया गया हो, इसकी खबर नहीं आई.

मीडिया में हो रही बहस में इस पूरे खर्च के औचित्य पर कोई बात नहीं दिखती, इस खर्च में हो रहे घोटाले पर सवाल भर उठते हैं

खबरों की दुनिया में फिर गरीब छाए हुए थे- इस बार वे खिलाड़ी जो अपने अफसरों की धौंसपट्टी और अपने कोच की मनमर्जी झेलते हुए इस मोड़ तक पहुंचे और अपने-अपने खेलों मे कॉमनवेल्थ के नए रिकार्ड बनाते रहे. मेलबॉर्न और मैनचेस्टर के अपने रिकॉर्ड को भारत अगर दिल्ली में दुरुस्त कर सका और अपने दावे के मुताबिक सौ से ज्यादा पदक ला सका तो इसका श्रेय इसी कमजोर, मध्यवर्गीय भारत को देना होगा. कुछ अफसोस के साथ बस यह कल्पना की जा सकती है कि अगर इस भारत को कायदे से प्रशिक्षण की सुविधाएं मिलतीं, जरूरी साजो-सामान और उपकरण मिलते, और वक्त पर मैदान मिलता तो शायद उसका प्रदर्शन कहीं बेहतर होता. अगर कोई ध्यान से सुनना चाहे तो अब भी कॉमनवेल्थ खेलों की कामयाबी के शोर में दबी हुई वे शिकायतें सुन सकता है जो अपने कोच और प्रबंधकों से इन खिलाड़ियों को हैं.

यानी कॉमनवेल्थ के आईने में देखें तो गरीब भारत इस देश की नाक ऊंची कर रहा है और अमीर भारत इसकी पगड़ी उछाल रहा है. अमीर भारत ने तैयारी के नाम पर इतने प्रपंच किए कि एक बार लगने लगा कि ऐसे आयोजन रद्द हों तो देश का भला हो, और गरीब भारत ने खेल के नाम पर इतने पराक्रम दिखाए कि तैयारियों के दौरान हुई गड़बड़ी को भूल जाने की इच्छा होती है.

यह सब लिखना जरूरी भी है और यह सब लिखने का खतरा भी है- खतरा अपने-आप को दुहराने का. इस बात का कि इससे बहस फिर दो अलग-अलग बनते भारतों की जानी-पहचानी सरणियों में घूमने लगती है और एक तरह से एक नया सरलीकरण बनता दिख पड़ता है. क्योंकि ऐसे कई स्तर हैं जिनमें ये दोनों भारत एक-दूसरे में घुसपैठ करते हैं- कॉमनवेल्थ खेलों में भी और बाकी दूसरे कार्यक्रमों में या सार्वजनिक गतिविधियों में भी.

लेकिन जितना सरलीकरण और जितने दुहराव इस तरह के लेखन में है, उससे कहीं ज्यादा सरलीकरण और दुहरावों के साथ अमीर भारत इस गरीब भारत को अपने उपनिवेश की तरह इस्तेमाल करने में जुटा है. कॉमनवेल्थ खेलों के शानदार उदघाटन समारोह की तारीफ से भरे चैनलों और अखबारों के सरलीकृत बखानों की मार्फत यह अमीर भारत गरीब भारत के हिस्से का श्रेय ले लेना चाहता है, वह इस बात को भूलने-भुलाने पर मजबूर करता है कि इस सांस्कृतिक कार्यक्रम की कितनी कीमत इस देश ने चुकाई- वह इस बहस को एक बेमानी बहस में बदल डालना चाहता है कि 14 दिन के खेल के लिए 70,000 करोड़ रुपए के खर्च या एक शाम के लिए 40 करोड़ की लागत वाले हीलियम के गुब्बारे का औचित्य क्या है.

अगर इस देश के समाजवादी आंदोलन में थोड़ी-सी आग और थोड़ी-सी ऊष्मा बची होती तो कॉमनवेल्थ के आयोजकों को, इससे जुड़े मंत्रियों और संतरियों को कई असुविधाजनक सवालों के जवाब देने होते. लेकिन ऐसा कोई आंदोलन फिलहाल इस देश में नहीं है और जिन चैनलों और अखबारों ने कॉमनवेल्थ खेलों की आलोचना की कमान संभाल रखी है उनका वास्ता मूलभूत सवालों से नहीं, उन गड़बड़ियों, घपलों और घोटालों भर से है जो इनकी तैयारियों के सिलसिले में दिखती रही हैं. इस लिहाज से देखें तो फिलहाल जो मीडिया कसम खा रहा है कि कॉमनवेल्थ के दौरान हुआ घोटाला वह भूलने नहीं देगा, वह भी इसी सरलीकरण का मारा है और किसी कलमाड़ी या गिल की बलि से संतुष्ट हो जाएगा. क्योंकि उनकी बहस में इस पूरे खर्च के औचित्य पर कोई बात नहीं दिखती, इस खर्च में हो रहे घोटाले पर सवाल भर उठते हैं.

दरअसल, अमीर भारत इस तरह के घोटाले करने और इससे उबरने की कलाएं भी खूब सीख चुका है. हाल के अतीत के सारे घोटाले-घपले याद कर जाएं तो यह डराने वाला तथ्य सामने आता है कि किसी भी एक मामले में किसी भी ताकतवर आदमी को सजा नहीं हुई. ज्यादा से ज्यादा किसी एक को बलि का बकरा बनाकर पूरे घपले से छुट्टी पा ली गई. आईपीएल के घपले में कुछ ऐसा ही दिख रहा है जहां बीसीसीआई अब सारे गुनाहों के लिए ललित मोदी को जिम्मेदार ठहरा रही है और उनके खिलाफ चेन्नई में एफआईआर से लेकर इंटरपोल का ब्लू कॉर्नर नोटिस तक हैं. खतरा यही है कि कॉमनवेल्थ में यही नाटक दुहराया न जाए और भव्य कॉमनवेल्थ खेलों का परचम उठाकर वे सारी नाइंसाफियां और बेईमानियां भुला न दी जाएं जो इन खेलों की तैयारी के दौरान हुईं. यह बहुत संभव है कि बहुत सारी आंखों को खटक रहे, चुटकुलों का विषय बन चुके सुरेश कलमाड़ी को कांग्रेस और सरकार ठिकाने लगा दे और फिर से कॉमनवेल्थ के बाद ओलंपिक की दावेदारी में जुट जाए जिसके लिए शीला दीक्षित अपनी राजधानी को तैयार बता चुकी हैं. अगर ऐसा हुआ तो इस बार 70,000 नहीं, कई लाख करोड़ का खेल होगा, गरीब नए सिरे से रात-दिन काम करने को मजबूर किए जाएंगे और फिर एक दिन अपनी झोपड़पट्टियों से उठाकर बाहर फेंक दिए जाएंगे. ऐसे कॉमनवेल्थ के खिलाफ कम से कम गरीब भारत को आवाज उठानी होगी. काश कि हमारे राजनीतिक दलों में कोई एक होता जो इन खेलों के खिलाफ, इस संस्कृति के खिलाफ तनकर खड़ा होता और दिल्ली को घेरता, जो इन गरीब लोगों की आवाज बन पाता.

दिग्गजों के दाएं-बाएं

श्याम हुए बेगाने, अब राम का रंग है छाया

रामकृपाल यादव

लालू प्रसाद यादव की राजनीति की एक खासियत है. सब जानते हैं कि उनकी पार्टी में आदि और अंत वे ही हैं फिर भी वे चेहरों का एक ऐसा मायावी चक्रव्यूह रचते हैं जिसमें योद्धाओं के चेहरे समय-समय पर बदलते रहते हैं. इस बार के विधानसभा चुनाव में बादशाह के विजिबल योद्धा हैं- रामकृपाल यादव. अनुशासित सिपाही की तरह जयप्रकाश नारायण यादव भी कभी-कभार लालू के बाएं-दाएं दिख जाते हैं, लेकिन चुनाव की घोषणा के बाद से ही रामकृपाल की हर फ्रंट पर मौजूदगी अनिवार्य-सी हो गई है. टीवी पर, अखबारों में, पार्टी कार्यालय में इलेक्शन के पहले चले सेलेक्शन गेम में बायोडाटा थामते वक्त. राजद की राजनीति में हालांकि वे कभी शिवानंद तिवारी की तरह लालू प्रसाद के चाणक्य नहीं बन सकें और न श्याम रजक की तरह उनका साया. लेकिन आज वे लालू के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं यह पार्टी में सबको पता है. कुछ समय पहले तक जब श्याम रजक लालू प्रसाद के दाएं हुआ करते थे तब रामकृपाल उनके बाएं खडे़ दिखते थे. तब राम-श्याम की जोड़ी जमती थी. अब श्याम दुश्मन खेमे में चले गए तो अब अकेले राम ही हैं.

रामकृपाल का मूल राजनीतिक आधार पटना ही रहा. एक जमाने में वे यहां के डिप्टी मेयर हुआ करते थे, 1996 और 2004 में लोकसभा सांसद  भी रहे. अब राज्यसभा के रास्ते संसदीय राजनीति में हैं. पटना ही राजनीतिक आधार रहा, बावजूद इसके वे पिछले लोकसभा चुनाव में अपने राजनीतिक आका लालू प्रसाद यादव को पाटलिपुत्र सीट से लोकसभा में विजयश्री नहीं दिलवा सके थे. यह अलग बात है िक इस बार विधानसभा चुनाव में रामकृपाल यादव की बातों को सुनने, उनके हावभाव देखने और बार-बार लालू प्रसाद के पास दिखते रहने से ऐसा लगता है कि राज्य में राजद की नैया पार लगाने का दारोमदार इन्हीं के कंधे पर है. कभी लालू प्रसाद के अनुशासित बगलगीर सैनिक रहे श्याम रजक कहते हैं, ‘राजद में रामकृपाल हों या कोई और, सब दिखावे के लिए होते हैं. सीजनल चेहरे की तरह, आते हैं, चले जाते हैं.’

ऐसा नहीं है कि रामकृपाल ही सबसे ताकतवर योद्धा हैं, इसलिए बाएं-दाएं दिखते हैं. अब्दुल बारी सिद्दिकी, जगतानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, जयप्रकाश नारायण यादव भी लालू यादव के निकटवर्ती माने जाते हैं, लेकिन लालू इन्हें क्षेत्रवार क्षत्रप की तरह रखते हैं. अब्दुल बारी को मिथिलांचल में प्रभाव जमाने की जिम्मेदारी है, जयप्रकाश अंग प्रदेश में रंग जमाने की जिम्मेदारी के साथ हैं, जगतानंद सिंह भोजपुर पट्टी में तो रघुवंश प्रसाद वैशाली के गढ़ में. लेकिन इनमें जयप्रकाश को छोड़ अन्य नेपथ्य से दस्तक देते हैं, जगतानंद सिंह के बेटे दुश्मन खेमे में जा चुके हैं, रघुवंश प्रसाद कांग्रेस से नाता तोड़ने के बहाने लालू की राजनीतिक आलोचना कर चुके हैं, सिद्दिकी मुसलिम होते हुए भी शहाबुद्दीन या तसलीमुद्दीन की तरह, जो कभी लालू के खास सिपहसालार थे, आक्रामक राजनीति नहीं करते. लालू के एक करीबी बताते हैं कि इस चुनाव में लालू प्रसाद के दाएं-बाएं उनकी ही जाति का बार-बार दिखने वाला फैक्टर कुछ-कुछ विडंबना की तरह भी है. कभी लालू प्रसाद के साथ सटकर राजनीति करने वाले शमशेर आलम कहते हैं, ‘लालू प्रसाद की राजनीति में दाएं-बाएं मत देखिए, वे अपनी पार्टी के अकेले नेता हैं. रामकृपाल हों या कोई और, सब उनकी मेहरबानी…’

नीतीश के छुपे हुए रुस्तम

रामचंद्र प्रसाद सिंह

राजनीति में कुछ लोग धमक के साथ बुलंदियां चढ़ते हैं तो कुछ खामोशी के साथ. रामचंद्र प्रसाद सिंह बिहार की राजनीति में एक ऐसा नाम हैं जिन्होंने खामोशी के साथ सियासी बिसात पर अपने मोहरे बिछाए, सटीक चालें चलीं और आज आलम यह है कि वे सत्ताधारी जनता दल (यू) के लिए अपरिहार्य से बन चुके हैं.

जानने वालों के बीच इन्हें आरसीपी के नाम से  जाना जाता है और गुजरे बीस साल से ये मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दाएं-बाएं, साए की तरह रहते आए हैं. 1984 बैच के आईएएस कैडर के अधिकारी रहे आरसीपी चार महीने पहले तक पर्दे के पीछे से महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसलों में अहम भूमिका निभाया करते थे – 2005 से ही वे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मुख्य सचिव थे. हालांकि अब उन्हें खुले मंच पर बुला लिया गया है और इसके लिए इसी साल जून में उन्होंने आईएएस की नौकरी छोड़ दी. नौकरी छोड़ते ही वे राज्यसभा के सदस्य बना दिए गए. यानी सब कुछ पूरी तरह से पहले से ही तय था. इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि नीतीश कुमार के लिए आरसीपी कितना महत्व रखते हैं. आलम यह है कि रामचंद्र प्रसाद नीतीश मंत्रिमंडल में मौजूद कई सशक्त मंत्रियों से भी अधिक शक्तिशाली माने जाते हैं.

नीतीश के बारे में अमूमन यह कहा जाता है कि वे किसी एक नेता को विशेष महत्व नहीं देते. लेकिन सच्चाई यह है कि अलग-अलग दौर में कई लोग उनके खास रहे हैं. कभी राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह उनके काफी करीब माने जाते थे. उन्हें लंगोटिया यार तक की संज्ञा दी जाती थी. लेकिन ललन ने चुनाव के ऐन मौके पर नीतीश को अंगूठा दिखा दिया. उन दिनों न सिर्फ वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हुआ करते थे बल्कि कई महत्वपूर्ण मामलोंे में प्रभावी भूमिका भी निभाते थे. ललन ने कई बार यह दावा भी किया था कि उनसे बेहतर नीतीश को कोई नहीं जानता. हालांकि पार्टी कार्यकर्ताओं की मानें तो ललन सिंह के रहते हुए आरसीपी भले ही बाहर न आते हों लेकिन मुख्यमंत्री सचिवालय से ही नीतीश की कई रणनीतियों का सफल संचालन वे ही किया करते थे.

नीतीश जब पहली बार वीपी सिंह सरकार में उपमंत्री बने थे तो आरसीपी को उन्होंने अपने साथ केंद्र में रखा था. जब वे रेलमंत्री बने तब आरसीपी उनके विशेष सचिव रहे और इसी दरमियान उन्होंने नीतीश का विश्वास जीता.

पार्टी और नीतीश के लिए आरसीपी कितने महत्वपूर्ण हैं इसका अंदाजा बिहार जद(यू) के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी के उस बयान से लगाया जा सकता है जो पिछले दिनों रामचंद्र के राज्यसभा प्रत्याशी घोषित किए जाने पर उन्होंने दिया था. चौधरी ने उस समय कहा था, ‘आरसीपी पार्टी की महत्वपूर्ण धरोहर साबित हुए हैं, अब वे एक अधिकारी नहीं रहे बल्कि हमारे नेता हो गए हैं. इसलिए उनके पास अब खुलकर पार्टी के लिए काम करने के विकल्प खुल गए हैं.’

जद(यू) की महिला सेल की एक प्रमुख नेता आभा सिंह कहती हैं, ‘वैसे तो पिछले पांच वर्षों से आरसीपी नीतीश जी के विश्वास पात्रों में सबसे महत्वपूर्ण रहे हैं लेकिन जब से वे आईएएस की नौकरी से त्यागपत्र देकर राज्यसभा के सदस्य बने हैं, पार्टी के महत्वपूर्ण फैसलों में अहम भूमिका निभाने लगे हैं.’ आभा आगे कहती हैं, ‘हमारी पार्टी में नंबर एक या दो जैसी कोई बात नहीं है, हां यह जरूर है कि पार्टी आपकी योग्यता का ध्यान रखती है और हमारी पार्टी आरसीपी जी की योग्यता का फायदा उठा रही है.’

कभी लालू के खेमे में चाणक्य की भूमिका निभा चुके शिवानंद तिवारी भले ही आज अकसर नीतीश के साथ हर जगह खड़े दिखते हों लेकिन सुशासन सरकार को चाणक्य से ज्यादा आज आरसीपी की जरूरत है. भरोसे की वजहें भी हैं. एक तो बीस साल का साथ है, दूसरा- वे मुख्यमंत्री के स्वजातीय हैं और तीसरा- दोनों ही नालंदा जिले के हैं.

पासवान के साहस, छोटके भाई पारस

पशुपति कुमार पारस

लोक जनशक्ति पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच ये छोटे साहब के नाम से जाने जाते हैं. बड़े साहब यानी रामविलास पासवान और छोटे साहब हैं छोटके भाई- पशुपति कुमार पारस. छोटे साहब को खुश रखने का मतलब हुआ बडे़ साहब को खुश करना, ऐसा पार्टी के ज्यादातर कार्यकर्ता मानते हैं. वैसे पशुपति को जीहुजूरी करवाने का बड़ा शौक है भी. उन्हीं की पार्टी के एक कार्यकर्ता राकेश कुमार बताते हैं, ‘जब छोटे साहब कार्यालय में होते हैं तो आम कार्यकर्ता उनके सामने कुर्सी पर बैठने की जुर्रत नहीं कर सकता.’

पारस घोषित रूप से पासवान के नंबर दो हैं, तभी तो राजद से चुनावी गठबंधन होने के तुरंत बाद उन्होंने (पासवान) खुद ही यह घोषणा की कि उनके गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार लालू यादव होंगे और गठबंधन की जीत की स्थिति में उपमुख्यमंत्री पद के हकदार पशुपति कुमार पारस होंगे. पासवान की बदौलत ही पारस पिछले पचीस साल से अलौली के विधायक बनते आए हैं. साथ ही वे लोजपा की प्रदेश इकाई के अध्यक्ष भी हैं.

रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान, जो फिलहाल मुंबई में एक फिल्म की शूटिंग में व्यस्त हैं,  पार्टी में नंबर 1 या 2 के प्रचलन को गलत ठहराते हुए कहते हैं, ‘हमारी पार्टी में फैसले बंद कमरे में नहीं लिए जाते. सभी लोग महत्वपूर्ण हैं और यह कहना कि पासवान जी के बाद पारस जी ही सब कुछ हैं, सही नहीं है, क्योंकि हमारी पार्टी में रमा सिंह व सूरजभान सिंह का भी काफी महत्व है. किसी को नंबर एक या दो के तौर पर आंकने का काम हम नहीं कर सकते.’

बहरहाल, चिराग चाहे जो भी कहें पर हर चुनावी रैली, प्रेसवार्ता और पार्टी ऑफिस की मीटिंगों में पशुपति पारस साए की तरह अपने बड़े भाई के साथ दिखते हैं. उनके करीबियों का भी मानना है कि छोटे साहब प्रबंधन में निपुण हैं, और हर मुश्किल घड़ी में बड़े भाई के संपर्क में रहते हैं, उनसे मिलने वाले दिशानिर्देश को पूरी तन्मयता से लागू करने की कोशिश करते हैं. पासवान जब कभी बिहार से बाहर होते हैं तो राज्य की राजनीति पर कब क्या प्रतिक्रिया देनी है, किस मुद्दे पर कौन-सी रणनीति अख्तियार करनी है, सब पारस के जिम्मे होता है.

इसी निष्ठा और समर्पण की वजह से तो रामविलास भी खुलकर भाई के पक्ष में बोलते हैं. पिछले दिनों पासवान ने परिवारवाद को बढ़ावा देने के आरोपों का खंडन करते हुए कहा था, ‘मेरे भाई पारस और रामचंद्र पासवान अपनी योग्यता के बल पर नेता बनने वालों में से हैं. ये दोनों जनता द्वारा चुनकर विधानसभा या लोकसभा में पहुंचते हैं, इन्हें मैं नहीं चुनता.’

चुनावी मंचों पर भाषण के दौरान छोटे साहब भले ही असहज हों लेकिन पासवान की सारी चुनावी चालों को सटीक बनाने में उनका किरदार अहम है. देखना दिलचस्प होगा कि पिछली बार चुनाव में चोट खाए लोजपा को वापस ढर्रे पर लाने में पारस ‘बड़े साहब’ की कितनी मदद कर पाते हैं.

अ से अमिताभ

सिक्के खनकते हैं, लेकिन जब उनकी कीमत बढ़कर उन्हें नोटों में बदल देती है तब वे आवाज नहीं करते. करते भी हों, उन्हें आवाज करनी तो नहीं चाहिए.

अमिताभ बेशकीमती हैं. वे अपनी लोकप्रिय विनम्र शैली में इसे कहेंगे कि वे कुछ नहीं हैं और उन्हें बेशकीमती बना दिया गया है. मगर किसी खामखयाली में मत रहिए. वे हमेशा इतने विनम्र नहीं रहते. वे भूलते नहीं और न ही माफ करते हैं. चटपटी खबरों की तलाश में रहने वाले मुंबई मिरर के एक पत्रकार ने एक हड़बड़ी वाली दोपहर में जब ऐश्वर्या को टीबी होने की खबर लिखी तो उसे इसका अंदाजा नहीं था. किसी गलतफहमी में वह अमिताभ के गुस्से को भूल गया होगा या उन्हें बूढ़ा मानकर बेफिक्र रहा होगा.

मगर यह 1996 नहीं है, जब उदास और हारे हुए से एक इंटरव्यू के बीच में एक पत्रकार ने अमिताभ से अचानक पूछा कि वे कितना काम और करेंगे. उनका उत्तर था, ‘दो साल और. मैं बूढ़ा हो रहा हूं और हमेशा इस गति से काम नहीं कर सकता.’
तब वे 54 साल के थे और उन्हें लग रहा था कि अपनी निरंतर कम होती क्षमताओं के साथ वे ज्यादा दिन तक लोगों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाएंगे.

इस बात को चौदह साल बीत चुके हैं और आज भी उन्हें बूढ़ा कहना, बुढ़ापे को असीम ऊर्जा, रफ्तार और अटूट इच्छा-शक्ति का पर्याय बनाने जैसा है. यह अदम्य उत्साह शायद इलाहाबाद में बीते बचपन की उन गर्मियों से निकला है, जब वे दोपहर की लू में साइकिल पर घर लौटते थे और सुराही का ठंडा पानी, एक टेबल फैन या खस की चटाई ही सबसे आरामदेह चीजें हुआ करती थीं. आज ‘प्रतीक्षा’ में अपनी उपलब्धियों पर गर्व करते हुए जब वे अपने मैक पर टाइप कर रहे होते हैं तब उन्हें जुबान पर डाक टिकट फिराकर उसे चिट्ठी पर चिपकाने वाले दिन भी उसी शिद्दत से याद आते हैं.

यही बात है जो उन्हें उस विशालता से अलग करती है जो हमारे महानायकों को हमसे कई हाथ ऊंचे सिंहासन पर बिठा देती है और हम उन्हें बिलकुल सामने से कभी नहीं देख पाते. वे हमारे पिताओं और बच्चों दोनों को अपने दोस्त-से लगते हैं. हम जादुई सचिन या प्रतिभावान शाहरुख से चाहकर भी वह स्नेहिल पारिवारिक रिश्ता नहीं जोड़ पाते, जो अमिताभ से अपने आप जुड़ जाता है. लेकिन क्या इस रिश्ते का भ्रम जान-बूझकर रचा गया है और हम एक बड़े खेल का बेवकूफ-सा हिस्सा भर हैं?

कुछ लोगों का मानना है कि वे हमेशा से इतने अपने नहीं लगते थे और अपनी सबसे नई पारी में उन्होंने यह नया व्यक्तित्व जान-बूझकर रचा है. मतलब यह कि बहुत सारी असफलताओं के बाद दिखा उनका यह सार्वजनिक चेहरा भी शहंशाह या ऑरो की तरह एक किरदार है, जिसे वे पूरी लगन के साथ निभा रहे हैं.

जो भी हो, हम सब उस अपनेपन को नहीं खोना चाहते. इसलिए हमें वह रास्ता खोजना था जिससे हम उनके मन की कुछ और तहों तक पहुंच सकें. अमिताभ ने कहीं लिखा है कि उनका लिखना, उनके अस्तित्व को अर्थ देता है. सो हमने भी उनके ब्लॉग पर लिखे हुए की उंगली थामी और उसमें छिपे अर्थों के जरिए उन्हें एक व्यक्ति के रूप में जानने की कोशिश की.

अमिताभ को जानना सिर्फ उन्हें जानना नहीं है. वे हमारे पूरे दौर की परिभाषा से कहीं न कहीं जुड़े हुए हैं. उन्हें जानना चूर-चूर होकर बिखर जाने के बाद फिर से पहाड़ पर चढ़ने के ख्वाब को देखने जैसा है. उन्हें जानना एक चोटिल अभिनेता के लिए एक धार्मिक देश की असंख्य दुआओं को महसूस करना है और इस तरह घोर मसाला फिल्मों के प्रति एक रूढ़िवादी समाज की रोचक आस्थाओं को जानना है. उन्हें जानना भारत की राजनीति के उलझे काले रहस्यों को जानना भी है. उन्हें जानना भारत की संकल्पना के उस जिद्दी स्वप्न को देखने जैसा भी है जो तमाम विषमताओं के बावज़ूद अपनी राह पर बढ़ते रहने का हौसला देता है. उन्हें जानना उस मध्यवर्गीय भारत को जानने जैसा है जो एक लॉटरी के टिकट या एक घंटे के टीवी शो के माध्यम से अपनी तकदीर बदल देना चाहता है.

उनके काम को छोड़ दिया जाए तो वे किसी रिटायर्ड कस्बाई अध्यापक की तरह ही लगते हैं. ब्लॉग पर आम बातों के बीच में वे अचानक दार्शनिक हो जाते हैं, गुस्से में बहुत डांटते हैं और कभी-कभी बहुत दुलारते भी हैं. इस उम्र में उन्हें अपने पिता बहुत याद आने लगे हैं और अपनी सीमाओं में वे हम सबके लिए बहुत फिक्रमंद हैं. कम से कम ऐसा कहते तो हैं ही.

घर-परिवार

पारिवारिक सदस्य के रूप में यदि अमिताभ की तुलना किसी फिल्मी चरित्र से करनी हो तो नब्बे के दशक की सुपरहिट फिल्मों में आलोकनाथ और अनुपम खेर द्वारा निभाए गए किरदार याद आते हैं. वे एक समृद्ध परिवार के मुखिया हैं. ऐसा परिवार जिसके पास पांच पद्म सम्मान हैं. वे किसी सामान्य भारतीय से ज्यादा आस्तिक हैं. ‘मोहब्बतें’ के सख्त पिता के उलट वे प्यार के बीच में नहीं खड़े होते. उनका सबसे पहले नजर में आने वाला गुण विनम्रता है (कभी-कभी गुस्सा भी), विनम्रता इतनी ज्यादा कि कभी-कभी बनावटी भी लगती है. वे उत्सवप्रिय हैं. वे अपनी समधिन का जन्मदिन मनाने पूरे परिवार के साथ डिनर पर जाते हैं. वे अपने बच्चों के दोस्त और आदर्श हैं. वे अपनी बहू को बेटी जैसा मानते हैं और इस तरह बेटे जैसा भी, क्योंकि भारत में बेटियों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ का यह राजदूत बार-बार स्त्री-पुरुष समानता के पक्ष में खड़ा होता है (मुंबई मिरर और दूसरे अखबारों की उन खबरों के बावजूद जिनमें बार-बार कहा जाता है कि अमिताभ पोता पाने के लिए बेताब हैं). बहुत-से पुरुषों की तरह वे मानते हैं कि अपनी पत्नी में वे मां का अक्स भी तलाशते और पाते रहते हैं.

‘आप परिवार के पुरुषों के बारे में कुछ कहेंगे तो मैं सहन भी कर लूंगा, लेकिन अपने परिवार की औरतों के बारे में एक शब्द भी नहीं’

उन फिल्मी किरदारों से समानताएं यहीं खत्म नहीं होतीं. यदि आप परिवार के किसी भी सदस्य को कुछ गलत कहते हैं तो अमिताभ दुर्भेद्य सुरक्षा-कवच की तरह सामने आ खड़े होते हैं. उन्हें इतना गुस्सा आता है कि अकसर वे फिर से पारंपरिक भारतीय मर्द का चोला पहन लेते हैं और कहते हैं, ‘आप परिवार के पुरुषों के बारे में कुछ कहेंगे तो मैं सहन भी कर लूंगा, लेकिन अपने परिवार की औरतों के बारे में एक शब्द भी नहीं.’

परिवार की दो औरतों, जया और श्वेता के बारे में आम तौर पर कोई उल्टा-सीधा नहीं कहता, लेकिन उनकी विश्व-सुंदरी को (वे स्नेह और क्रोध, दोनों के अतिरेक में ये ही शब्द इस्तेमाल करते हैं- ‘मेरी विश्व सुंदरी’) अफवाहों से बचाकर रखना इतना आसान नहीं. कभी उन्हें मांगलिक बताया जाता है और यह भी कि उनकी ग्रह-दशा शांत करवाने के लिए पूरा बच्चन परिवार मंदिरों में घूम रहा है और कभी यह कहा जाता है कि उन्हें पेट की टीबी है और इस कारण वे गर्भवती नहीं हो पा रहीं.

वे बार-बार सफाई देते हैं, क्रोध में दहाड़ते हैं और कभी-कभी अंधविश्वास के पैरोकार बड़े अखबारों के दफ्तरों में जाकर उनके पचासों संपादकों को समझाते भी हैं कि उन्होंने ऐश्वर्या की शादी कभी किसी पेड़ से नहीं करवाई. लेकिन कोई फायदा नहीं होता. वह बहू, कान्स में उन्हें जिसके नाम से जाना जाता है, हिंदी फिल्मों की एक अभिनेत्री है और उसे मसाला खबरों की खुराक बनना ही पड़ता है.

परिवार के सदस्यों में अभिषेक और ऐश्वर्या के नाम उनके ब्लॉग पर सबसे ज्यादा दिखते हैं. हां, पिता हरिवंशराय बच्चन से थोड़ा कम. मां का जिक्र सबसे कम होता है. यह बात और है कि आजकल उनकी आस्थाएं मां के सिख धर्म की ओर मुड़ने लगी हैं. मां को कम याद करने की बात इस फिल्मी संदर्भ में मजेदार है कि अपनी जवानी में उन्होंने हिन्दी फिल्मों को ऐसे कई हीरो दिए हैं जो अपनी मां को बहुत प्यार करते थे और पिता के बारे में कम जानते थे. मगर यह याद इतनी कम भी नहीं क्योंकि उदयपुर के भीड़ भरे बाजारों से गुजरते हुए अचानक मां का आईसीयू में जिंदगी और मौत से चला संघर्ष आंखों के आगे घूम जाना इतना अनायास भी नहीं हो सकता.

सिख धर्म की ओर झुकाव होने, गले में गुरु नानक देव जी के लॉकेट पहनने और सच्चे बादशाह से ऊर्जा पाने की बात 1984 में सिख-विरोधी दंगे भड़काने के ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन के आरोपों को धीमे जहर की तरह खत्म करती है. वैसे अमिताभ कहते हैं कि वे आम खूबियों वाले आम आदमी हैं और उनकी बातों के गहरे अर्थ न तलाशे जाएं.

उन्हें आंगन बहुत प्यारा है और उसमें नीम का पेड़ भी हो तो उन्हें उसमें खो जाने से रोकना और भी मुश्किल हो जाता है. जया का जिक्र वे दिल्ली के अपने घर ‘सोपान’, आंगन और नीम से बस थोड़ा ही ज्यादा करते होंगे.

सच्चाई, स्वतंत्रता, पारदर्शिता और प्रतिभा के सम्मान की बातें वे बार-बार करते हैं, मगर बॉलीवुड में बढ़ते वंशवाद की कभी नहीं करते. शायद उन्हें इकतीसवें दिन की अपनी पोस्ट पर अभिषेक का वह कमेंट याद आ जाता होगाे जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘मैं आपसे प्यार करता हूं. वैसा होने के लिए जो आप हैं- दुनिया के सबसे अच्छे पिता..’

कभी-कभी अच्छा पिता होने के लिए बाकी बातों को भूल जाना पड़ता है. और आप हैं कि हर बात में नुक्स तलाशते हैं.

मीडिया

1997 के पहले अंक में आउटलुक की आवरण कथा थी. पिछले वर्ष के खलनायक. उसमें अमिताभ बच्चन छठे स्थान पर थे. ये वे साल थे जब उनकी कंपनी एबीसीएल उन्हें कर्ज में डुबाकर डूब गई थी. उस कर्ज में एक बड़ा हिस्सा दूरदर्शन का भी था और देश के हर चौराहे पर कहा जा रहा था कि अमिताभ का सुनहरा दौर अब खत्म हो गया है. मीडिया शत्रुघ्न सिन्हा के उन बयानों को गर्व से छाप रहा था जिनमें कहा गया था कि वे सिर्फ कट-आउट में ही अच्छे लगते हैं, असल में नहीं. हर दौर में उन्होंने गलत कहानियां और निर्देशक ज्यादा चुने हैं और यह वे तब भी कर रहे थे और असफल हो रहे थे. अपने करियर को उठाने के लिए उन्हें गोविंदा की फूहड़ कॉमेडी का सहारा लेना पड़ रहा था. नसीरुद्दीन शाह के मुताबिक वे दुनिया के इकलौते ऐसे एक्टर हैं जो हमेशा अपनी फिल्मों से ज्यादा स्तरीय थे. अमिताभ हताश दिखते थे और टीवी पर साजिद खान उन्हें राष्ट्रीय मजाक बनाकर मशहूर होने की कोशिश में लगे हुए थे. इस हाल से बाहर आने के लिए वे मिरिंडा का विज्ञापन करते थे तो देश भर को वे अपने गरिमामयी शिखर से गिरते हुए नजर आते थे. अखबार और पत्रिकाएं ईश्वर के अंदाज में यह घोषणा कर रहे थे कि अमिताभ नाम का सितारा मिस वर्ल्ड के तंबुओं की तरह टूटकर गिर गया है. मिस इंडिया करवाने वाला अखबार मिस वर्ल्ड के आयोजन के उनके इरादों को देखकर कुछ अधिक भारतीय हो गया था और उन्हें संस्कृति के पाठ पढ़ाने लगा था. उन्हीं दिनों में एक बार बहुत धीमे स्वर में उन्होंने कहा था, ‘मुझे उम्मीद है कि अगले दस साल में भारतीय कुछ अधिक उदार हो जाएंगे.’ लेकिन वे कभी उदार नहीं हुए बल्कि हमेशा या तो सनकी भक्त रहे या कटु आलोचक.

तब मीडिया ईश्वर के अंदाज में यह घोषणा कर रहा था कि अमिताभ नाम का सितारा मिस वर्ल्ड के तंबुओं की तरह टूटकर गिर गया है

क्या विडंबना थी कि हिंदी फिल्मों के इतिहास में सबसे लंबे समय तक परदे पर लोगों के सपनों को सच करता और उनकी लड़ाइयां लड़ता यह महानायक मुंबई के एक अखबार के सर्वे में तीसरे स्थान पर था, जिसका सवाल था कि आप किस मशहूर शख्सियत से सबसे ज्यादा नफरत करते हैं.

उन्होंने यह दौर बार-बार देखा है और अपने ब्लॉग के माध्यम से मीडिया पर उनके बार-बार बरसने को यदि आप बिलकुल गैरजरूरी मानते हैं तो क्या आपको अस्सी के दशक का ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ का वह पहला पन्ना याद नहीं जो अमिताभ के बारे में था और जिसका शीर्षक था- देश का गद्दार.

एक समय में उन पर आरोप था कि वे इंदिरा गांधी के नजदीकी हैं और आपातकाल में प्रेस पर सेंसरशिप के लिए वे ही उत्तरदायी थे. पहले मीडिया ने उन पर घोषित प्रतिबंध लगाया और बाद में उन्होंने मीडिया पर. मीडिया से अमिताभ का रिश्ता इसी पंक्ति के इर्द-गिर्द घूमता रहा है. सब सेलिब्रिटियों की तरह मीडिया उनकी जिंदगी के भी बिलकुल अंदर तक बेरोकटोक घुसना चाहता है और जब वे अपने बेटे की शादी में बिना बुलाए घुस आए पत्रकारों पर थोड़े सख्त हो जाते हैं तो वह फिर से उनका पूरा बायकॉट कर देता है. इस रिश्ते में बीच का कोई रास्ता नहीं है, इसीलिए वे ब्लॉग लिखते हैं, जो कई मायनों में उनकी व्यक्तिगत न्यूज एजेंसी की तरह भी है.

उनकी और भी शिकायतें हैं. उन फोटोग्राफरों से जो उन्हें तब मुस्कुराकर फोटो खिंचवाने को कहते हैं जब वे किसी अस्पताल में मौत से जूझते बेसहारा बच्चों से मिल रहे होते हैं. उन पत्रकारों से जो हर इंटरव्यू में वही सवाल पूछते हैं और उनकी आधी शक्ति उनका अलग-अलग तरह से जवाब देने में खर्च हो जाती है.

मगर क्या उन एक जैसे सवालों के लिए अमिताभ ही कहीं न कहीं उत्तरदायी नहीं हैं? बहुत-से सवालों को वे व्यक्तिगत सवालों की लिस्ट में डाल देते हैं और कुछ पर उनकी प्रतिक्रिया इतनी ‘पोलिटिकली करेक्ट’ होती है कि इंटरव्यू को नीरस बनने से बचाने के लिए उसे काटना पड़ता है. अब सिर्फ एक जैसे कुछ सवाल ही सुरक्षित बचते हैं, मसलन इस फिल्म में आपका क्या रोल है और भविष्य की क्या योजनाएं हैं. आप कितने भी वाकपटु हों, उनसे ऐसे किसी सामाजिक या राजनीतिक मुद्दे पर राय नहीं ले सकते जिस पर किसी के नाराज हो जाने का खतरा हो.
गलती चाहे किसी की भी रही हो, उनका ब्लॉग मीडिया को कोसने का एक मंच बन गया है. उनका साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार उनका कोई एक्सक्लूसिव इंटरव्यू आसानी से अपने अखबार में नहीं छाप सकते, क्योंकि उसे अकसर अमिताभ अपने ब्लॉग पर छाप चुके होते हैं (कभी-कभी अखबार से पहले ही) और वे नहीं चाहते कि उनकी एक भी पंक्ति से कोई छेड़छाड़ की जाए. नतीजा होता है, एक जैसे सपाट उत्तरों की एक लिस्ट, जिससे आप किसी भी मुद्दे पर उनका स्टैंड नहीं जान सकते.

वे अपनी प्राइवेसी के बारे में बहुत सतर्क रहते हैं, लेकिन इस चक्कर में वे कई बार उन पत्रकारों की प्राइवेसी का सम्मान करना भूल जाते हैं जिनकी ईमेल आईडी और एसएमएस वे अपने ब्लॉग पर जनता के सामने रख देते हैं. ये वे संदेश और संवाद होते हैं जो यह समझकर लिखे गए होते हैं कि इन्हें वे अपने तक ही सीमित रखेंगे. दूसरों की निजता का हनन करने वाली इस हंसी में कभी-कभी अहंकारी अट्टहास दिखता है, जो उनके जायज गुस्से के बावजूद उतना ही नाजायज है.

दोस्त और कुछ कम अच्छे दोस्त

अमिताभ के नजदीकी मित्रों की संख्या ज्यादा नहीं है और यदि है भी तो वे उनके बारे में उतनी ही कम बातें करते हैं. दोस्ती के दिनों में भी अमर सिंह को वे अमर सिंह जी लिखते थे, जो सुनने में दोस्ती का संबोधन तो नहीं लगता. पुराने दोस्त राजीव गांधी का वे उतना ही कम जिक्र करते हैं जितना अपने भाई अजिताभ का. छुट्टी के दिन उन्हें परिवार के साथ फिल्म देखना और फिर शाम को कहीं बाहर खाने पर जाना पसंद है. परिवार के लोग व्यस्त हों (और ऐसा तो अक्सर होता होगा) तो वे अकेले रहना पसंद करते हैं. उनकी जिंदगी में ऐसा कोई वीरू नहीं दिखाई पड़ता जिसके लिए जान देने को भी तैयार हुआ जा सके. चाहे-अनचाहे उनके इर्द-गिर्द ऐसा आभामंडल बन गया है जो उन्हें जय की तरह मुंहफट और बेपरवाह नहीं होने देता और दुर्भाग्यवश, वीरू जैसा कोई दोस्त आपके पास होने के लिए यही पहली शर्त है.

फिल्मी दुनिया की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखें तो पहले दर्जे के अधिकांश सक्रिय लोग उम्र में उनसे काफी छोटे हैं और बीच में आया सम्मान का परदा उन्हें अनौपचारिक नहीं होने देता. यह गांव के सबसे बूढ़े बचे व्यक्ति के अकेलेपन जैसा है, जो अपने दोस्तों को एक-एक कर जाते हुए देख चुका है. इस फिल्मफेयर में व्हीलचेयर पर लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार लेने आए शशि कपूर को देखने के बाद से वे उन्हें कई बार याद कर चुके हैं. शशि ही थे जिन्होंने ‘शेक्सपीयरवाला’ की शूटिंग के दौरान उन्हें अंतिम-संस्कार की भीड़ में एक्स्ट्रा बनकर खड़े देखा था और खींचकर यह कहते हुए बाहर ले आए थे कि तुम्हें बहुत बड़े काम करने हैं.

वे अपने पुराने दोस्त राजीव गांधी का उतना ही कम जिक्र करते हैं जितना अपने भाई अजिताभ का

उनके सबसे नए फिल्मी दोस्त शायद रामगोपाल वर्मा हैं और दोनों एक-दूसरे को ‘सरकार’ कहकर पुकारते हैं.

कुछ कम अच्छे दोस्तों की फेहरिस्त थोड़ी लंबी है. उसमें सलीम खान भी हैं, जो आम आदमी की अभागी याददाश्त के कारण ‘शोले’ और ‘दीवार’ के लेखक के रूप में कम और सलमान के पिता के रूप में ज्यादा जाने जाते हैं. जब भी अमिताभ की आलोचना होती है, उनके बयान सबसे पहले आते हैं. अमिताभ की नाराजगी का बड़ा कारण वह बयान है जिसमें उन्होंने कहा था कि अमिताभ पैसे लेकर यूपी सरकार के लिए विज्ञापन कर रहे हैं. पुराने साथी कलाकार और पड़ोसी शत्रुघ्न सिन्हा भी साल में एक बार तो उनके विरुद्ध बोल ही देते हैं. शत्रुघ्न ही थे जिन्होंने अभिषेक की शादी की शगुन की  मिठाई लौटा दी थी और आईफा पुरस्कारों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था, ‘सब किसी का बेटा है या किसी की बहू या किसी की बीवी.’ मगर उसकी प्रतिक्रिया में जब अमिताभ आपा खोते हैं तो उसकी चपेट में उनकी पत्नी पूनम, शोले के सांभा मैकमोहन, रवीना टंडन और राष्ट्रीय पुरस्कार तक आ जाते हैं. यह उनके गुस्से का खास शालीन स्टाइल है.

कभी दोस्त रहे खालिद मोहम्मद जब भूतनाथ की कुछ अधिक व्यक्तिगत होती समीक्षा में यह लिखते हैं कि अमिताभ ऐक्टिंग भूल गए हैं तो अमिताभ भी किसी तार्किक आधार पर उन्हें गलत नहीं ठहराते. वे खालिद को वह महंगी शराब याद दिलाते हैं जो उन्हें अमिताभ की डाइनिंग टेबल पर ही नसीब हुआ करती थी.

आप उनकी मुलाकातों और मुस्कुराहटों से उनके नए दोस्तों का अनुमान लगाएंगे तो शायद नरेंद्र मोदी का नाम भी लेंगे, मगर अमिताभ कहते हैं कि वे अपने काम और रुतबे के सिलसिले में इतने लोगों से मिलते हैं कि तब तो सीएनएन आईबीएन के राजदीप सरदेसाई, एनडीटीवी के प्रणय रॉय, इंफोसिस के नारायणमूर्ति से भी उनकी दोस्ती की चर्चा होनी चाहिए और लेबर पार्टी से लेकर डीएमके, भाजपा, कांग्रेस और बाल ठाकरे से भी. हां, याद आया, जिस विवाद में ‘ठाकरे’ जुड़ जाए उसमें वे चुप्पी साध लेते हैं. तब वे वैसी तल्ख प्रतिक्रियाएं नहीं देते जैसी खालिद मोहम्मद या शत्रुघ्न सिन्हा को देते हैं. यह शायद मुंबई में रहने का नया नियम है, जिसे ‘सरकार’ तोड़ना नहीं चाहते.

पिता

अमिताभ अपने पिता के पिता के पुनर्जन्म जैसे हैं. ऐसा उनके पिता कहते थे. हरिवंशराय बच्चन भी ऐश्वर्या की तरह, जितना अमिताभ को सिर ऊंचा करने के कारण देते हैं, उतना ही लोग उन्हें अमिताभ को परेशानी देने वाले माध्यम की तरह इस्तेमाल करते हैं.

मैं छुपाना जानता तो जग मुझे
साधु समझता
शत्रु मेरा बन गया है छलरहित व्यवहार मेरा.

ये पंक्तियां अमिताभ अकसर अपने आप को निष्कपट बताने के लिए ब्लॉग पर लिखते हैं, लेकिन उसी तरह लोग उनके पिता की पंक्तियां लिखते हैं- मैं हूं उनके साथ, जो सीधी रखते अपनी रीढ़, और उन्हें याद दिलाते हैं कि वे तटस्थ दिखने की बजाय सच का रास्ता चुनें और अपने पिता की राह पर चलें. गुस्से में अमिताभ कहते हैं कि कोई ऐसा कॉपीराइट होना चाहिए जिससे कोई भी उनके पिता की पंक्तियों को यूं ही मनचाहे संदर्भ में इस्तेमाल न कर सके. वे ब्लॉग पर अपने पिता की विरासत को बार-बार महान और संग्रहणीय भी कहते हैं और कोशिश करते रहते हैं कि उसे और अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए उनका नाम काम आ सके. हिंदी के किसी और लेखक के पास अपने प्रचार-प्रसार के लिए इतना सफल बेटा नहीं है.

पिता ही हैं जिनके लिखे ‘सिलसिला’ और ‘बागबान’ के होली वाले गीत होली के दिन सड़कों पर सुनकर अमिताभ का सीना चौड़ा हो जाता है

जया के शब्दों में अमिताभ भोले-भाले स्कूली लड़के की तरह हैं जो होमवर्क समय पर और अच्छी तरह पूरा करने के अलावा और कुछ नहीं जानता. वह स्कूली लड़का अपने पिता के सर्वाधिक निकट है और उसे वे दिन अच्छी तरह याद हैं जब आर्थिक तंगी के बीच कैंब्रिज में अपनी थीसिस पूरी करके लौटे उनके पिता बच्चों के लिए उपहार के रूप में उस थीसिस के रफ ड्राफ्ट लेकर आए थे (वैसे यह अलग बहस का विषय है कि आज भी आर्थिक तंगी में कितने प्रतिशत भारतीय कैंब्रिज पढ़ने जा सकते हैं). अमिताभ ने उस उपहार को आज भी संभालकर रखा है, ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने अपनी मां और पिता के कमरे आज भी उसी स्थिति में रखे हैं जिसमें वे उन्हें छोड़ गए थे.

यदि आपको लगता है कि ‘सात हिंदुस्तानी’ उनकी पहली फिल्म थी तो मैं आपको टोकना चाहूंगा. उनकी आंखों ने चमक, प्रसिद्धि और तालियों की जिस दुनिया में पहली बार अपने आपको पाया वह उन कवि सम्मेलनों की थी जिनमें वे अपने पिता की उंगली पकड़कर जाते थे और फिर मंत्रमुग्ध-से उन्हें हजारों की भीड़ के सामने मधुशाला गाते हुए देखते थे. वही फिल्म है जिसकी रील सब मुश्किल घड़ियों में आंखें बंद करते ही उनके सामने घूमने लगती है और उन्हें पिता की एक और बात याद आती है- मन का हो तो अच्छा, मन का न हो तो और भी अच्छा.

पिता ही हैं जिनके लिखे ‘सिलसिला’ और ‘बागबान’ के होली वाले गीत होली के दिन सड़कों पर सुनकर अमिताभ का सीना चौड़ा हो जाता है. शायद पिता की दी हुई शक्ति ही है कि आप अमिताभ को कितना भी तोड़ें, वे दुगुनी हिम्मत के साथ हर बार फिर से जुड़कर खड़े हो जाते हैं. नैनीताल के शेरवुड कॉलेज के दिनों में अपने अध्यापकों के लाख रोकने के बावजूद वे हर बार बॉक्सिंग रिंग में कूदते थे. चूंकि अपने लंबे कद के कारण हमेशा वे अपनी सामर्थ्य से अधिक भारवर्ग में होते थे और इसलिए हारते भी थे, लेकिन उन्होंने लड़ना नहीं छोड़ा. इसी तरह वे तब भी लड़ना नहीं छोड़ते जब सवा अरब लोगों की आंखें उनकी निजी जिंदगी को और उम्मीदें उनके प्रयोगों को अपने बोझ तले कुचल डालना चाहती हैं. आज भी पिता की कविताएं पढ़ने से उनकी बेचैन रातें कुछ आसान हो जाती हैं, कुछ मुश्किल फैसले उतने मुश्किल नहीं रह जाते, जीवन उतना रंगीन और मृत्यु उतनी भयावह नहीं लगती.

सरकार और उनके दीवाने

अमिताभ की छवि ऐसी है कि कोई भी उत्तरभारतीय मध्यवर्गीय परिवार उन्हें अपने घर के बुजुर्ग जैसा मान सकता है. बीस साल पहले तक वह उन्हें अपने लिए लड़ने वाला जवान बेटा मानता था. आप कस्बों और गांवों की ओर बढ़ेंगे तो वह छवि कई मिथक अपने साथ जोड़ती जाएगी. मसलन अपने बचपन में हम सबके लिए वही दुनिया के सबसे लंबे आदमी थे. मेरे पिता के लिए वे ऐसे आदमी हैं जिन्होंने अदभुत सफलता को अपने सिर नहीं चढ़ने दिया और सब संस्कार बचाकर रखे. यह सब सितारों के साथ होता है, इसीलिए ‘अमिताभ बच्चन’ एक व्यक्ति न होकर एक संस्कृति हो गए हैं. अमिताभ शराब-सिगरेट नहीं पीते, मांस नहीं खाते, झूठ नहीं बोलते वाली यह छवि पौराणिक नायकों जैसी है और अमिताभ खुद महसूस करते हैं कि कई बार वह उन पर अतिरिक्त बोझ डाल देती है.

अमिताभ जब देर रात में पोस्ट लिखते हैं तो उस पर आधी प्रतिक्रियाएं तो यही होती हैं कि उन्हें जल्दी सोना चाहिए

लेकिन आप उनका ब्लॉग पढ़ेंगे तो लगेगा कि यह बोझ थोड़ा तो जान-बूझकर भी डाला गया है. जब आप उन्हें घर के बाहर जमा भीड़ के लिए हाथ हिलाते देखेंगे तो उनके चेहरे पर उपलब्धि का भाव होगा, कुछ-कुछ ‘सरकार’ जैसा. उन्हें किसी भी दूसरे सितारे से थोड़ा ज्यादा अपने प्रशंसकों को अपना बनाए रखने का खयाल है. ब्लॉग के पाठक उनकी एक्सटेंडेड फैमिली हैं और कभी-कभी वे उनमें से कुछ को जन्मदिन की बधाई भी दे देते हैं और कुछ के लिए उनके किसी अपने की मृत्यु पर शोक व्यक्त करते हैं. अब अमिताभ बच्चन एक बार भी ऐसा कर दें तो हजार लोग इस उम्मीद में महीनों उनके ब्लॉग पर अपनी टिप्पणियां देते रहेंगे कि उनका नंबर भी आएगा. वैसे उन टिप्पणियों को पढ़ना भी एक रोचक अनुभव है और तब आप जान पाते हैं कि उस दीवानगी की हदें कितनी दूर तक हैं.

जैसे बनारस में जन्मी एक बंगाली लड़की तीन साल की उम्र से उनकी दीवानी है. और बहुत-से प्रशंसकों की तरह वह दावा करती है कि उसने उनकी सभी फिल्में कम से कम पच्चीस बार देखी हैं. उसे एक लड़के से सिर्फ इसलिए प्यार हुआ क्योंकि वह हर बात में अमिताभ के डायलॉग बोलता था और शादी के बाद वे जब भी घूमने जाते थे, रास्ते भर ‘सिलसिला’ के गाने गुनगुनाते थे. एक जनाब दावा करते हैं कि अमिताभ उन्हें अकसर सपने में दिखते हैं – घर के सदस्य की तरह –  और उन्होंने चार साल पहले खरीदी एक किताब अब तक इसलिए नहीं खोली कि उसे उस पर अमिताभ के साइन चाहिए. अखबार के समस्या-समाधान वाले कॉलम की तरह लोग अपनी घरेलू समस्याएं तक लिखते हैं और अमिताभ से मार्गदर्शन मांगते हैं, जैसे वे जादू की छड़ी घुमाएंगे और सब ठीक हो जाएगा. अमिताभ जब देर रात में पोस्ट लिखते हैं तो उस पर आधी प्रतिक्रियाएं तो यही होती हैं कि उन्हें जल्दी सोना चाहिए और अपनी सेहत का खयाल रखना चाहिए. कुछ उनके लिए लंबी कविताएं लिखते है तो कुछ उन्हें तीस साल पहले की कोई मुलाकात याद दिलाने की भी कोशिश करते हैं, जब भीड़ में अमिताभ ने हाथ मिलाने के बाद उनका नाम भी पूछा था.  

लेकिन यह अपनापन इतना अनायास नहीं है. मुंबई की बारिश में वे कुछ लड़कियों को अपनी कार में लिफ्ट देते हैं, बारिश इतनी है कि उनके घर में भी पानी घुस आया है जिसे बाल्टियों से निकालना पड़ रहा है, सड़क पर मिलने वाले भूखे लोगों और अनाथ बच्चों से उनकी सहानुभूति है और कभी-कभी वे उन्हें खाना या कपड़े भी दे देते हैं, औरतों के अधिकारों के वे प्रबल समर्थक हैं, एक नौकर की पत्नी के बीमार होने पर वे उसकी आर्थिक मदद करते हैं और हर सुख-दुख में साथ रहे घर के नौकर ही बेटे की शादी में उनके लिए सर्वाधिक अपने और महत्वपूर्ण मेहमान हैं, उस दिन अमिताभ उन्हें कुर्सी पर बिठाकर अपने हाथों से खाना परोसते हैं.

अब ऐसा इंसान किसे अपना नहीं लगेगा? आप उनके काम के भी प्रशंसक हों तब तो इतने दीवाने हो ही जाएंगे. अमिताभ को गुस्सा आता है कि मीडिया उनका यह पहलू कभी नहीं दिखाता. लेकिन एक बात और गौर करने लायक है कि ये सब चीजें तो कम या ज्यादा, हम सभी करते हैं. फिर अमिताभ इन्हें बार-बार खूबियों की तरह क्यों लिखते हैं? वह भी तब जब वे उस मुकाम पर हैं जहां अपनी अच्छाइयां अपने आप बताना न तो जरूरी है और न ही ठीक.

मुख्य 'अ'न्यायाधीश! एक ऐतिहासिक हलफनामे के अंश

बुनियादी बात है कि बड़ी कुर्सियों के पाए भी मजबूत होने चाहिए, इसलिए न्याय की कुर्सी पर बैठे लोगों के लिए नितांत जरूरी है कि उनका अपना नैतिक चरित्र बेदाग हो. मगर भारत में ऐसा नहीं है. यहां जजों की ताकत उनकी प्रतिष्ठा से नहीं बल्कि एक रहस्यमयी कानून से बनती है- अदालत की अवमानना का कानून, जो कहता है कि आप जजों या उनके निर्णयों पर कोई सवाल नहीं उठा सकते. इसका नतीजा यह हुआ है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जहां लोकतांत्रिक रूप से जोरदार बहस होनी चाहिए थी वहां कानाफूसी से ज्यादा कुछ नहीं हो रहा.

सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता प्रशांत भूषण इसके खिलाफ पिछले बीस साल से लड़ रहे हैं. यह कुछ हद तक उनके इस निरंतर संघर्ष का ही परिणाम था कि सितंबर, 2009 में न्यायाधीश अपनी संपत्ति का ब्योरा देने के लिए तैयार हो गए. लेकिन इसके बाद भी बहुत कुछ किया जाना बाकी था. हाल ही में तहलका के साथ एक बातचीत में भूषण ने उन बाकी उपायों पर चर्चा की जिनसे जज और भी जवाबदेह बनें. उन्होंने न्यायिक भ्रष्टाचार के कई स्वरूपों पर भी चर्चा की. दूसरी कई बातों के अलावा उन्होंने यह भी कहा कि ‘पिछले 16 चीफ जस्टिसों में से आधे भ्रष्ट रहे हैं.’

इस इंटरव्यू के आधार पर अधिवक्ता हरीश साल्वे ने भूषण और तहलका के संपादक तरुण तेजपाल के खिलाफ अदालत की अवमानना का मामला दाखिल कर दिया. पहले पहल भूषण ने तर्क दिया कि भारत का नागरिक होने के नाते उन्हें अपनी सोच सामने रखने का अधिकार है. मगर अदालत सुप्रीम कोर्ट की साख का हवाला देते हुए मामले को जारी रखने पर अड़ी रही. भूषण पर यह साबित करने के लिए जोर डाला गया कि वे अपनी बात की गंभीरता साबित करें. ऐसे में अब उन्होंने उन सबूतों के साथ एक पूरक हलफनामा दायर किया है जो भ्रष्ट जजों के बारे में उनके कथन को वजन देते हैं. हलफनामे में भूषण ने एक बार फिर दोहराया है कि न्यायपालिका में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार के दस्तावेजी सबूत जुटाना कितना मुश्किल है क्योंकि एक तो जजों के खिलाफ किसी कार्रवाई की इजाजत नहीं है, दूसरे, ऐसी कोई अनुशासनात्मक संस्था नहीं है जिसकी तरफ देखा जा सके और उनके खिलाफ एफआईआर लिखवाने तक के लिए भी पहले चीफ जस्टिस की इजाजत लेनी पड़ती है.

इसके बावजूद यह हलफनामा कई जजों के आचरण पर गंभीर सवाल खड़े करता है. दो हफ्ते पहले एक ऐतिहासिक कदम के तहत संविधान विशेषज्ञ और पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने भी एक हलफनामा दायर किया और मांग की कि इस मामले में उन पर भी मुकदमा चलाया जाए. अपने बेटे की तरह उन्होंने भी कहा कि पिछले 16 चीफ जस्टिसों में से 8 भ्रष्ट रहे हैं. शांति भूषण ने एक मोहरबंद लिफाफे में इन जजों के नाम अदालत को सौंपे. उन्होंने कहा, ‘मैं इसे महान सम्मान समझूंगा अगर भारत के लोगों के लिए एक ईमानदार और पारदर्शी न्यायपालिका बनाने की कोशिश में मुझे जेल जाना पड़े.’

अगर अदालत इन साहसिक हलफनामों पर आगे बढ़े और प्रशांत भूषण व शांति भूषण को सबूतों के साथ अपने आरोपों को साबित करने का काम दे तो यह इतिहास में एक अनूठा अवसर बन सकता है. सेवानिवृत्त जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर पहले ही कह चुके हैं कि इस तरह के शुद्धिकरण के लिए यह एक ऐतिहासिक मौका है. पहला कदम तो यही है कि जनहित में जानकारी साझा की जाए. इसलिए यहां पेश हैं प्रशांत भूषण के हलफनामे से कुछ अंश.

रंगनाथ मिश्र

25.09.1990 – 24.11.1991

चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने सुप्रीम कोर्ट के जज रहते हुए 1984 में हुए सिख नरसंहार की जांच करने के लिए बने आयोग की अध्यक्षता की थी. उन्होंने बहुत ही पक्षपातपूर्ण तरीके से मामले की सुनवाई की और कांग्रेस पार्टी को क्लीन चिट दे दी, इसके बावजूद कि ऐसे पर्याप्त सबूत थे जो पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को कटघरे में खड़ा करते थे. बाद में आधिकारिक जांच रिपोर्टों के साथ-साथ सीबीआई जांच में भी कांग्रेस और इसके नेताओं के खिलाफ सबूत सामने आए. वे (जस्टिस मिश्र) सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेस से राज्यसभा सदस्य बनने के लिए भी सहमत हो गए थे. मेरे हिसाब से इस तरह के कामों से साफ तौर पर भ्रष्टाचार की बू आती है. जैसा कि मैंने पहले भी उल्लेख किया है, यहां, भ्रष्टाचार शब्द का प्रयोग सीमित तौर पर सिर्फ रिश्वत लेने जैसे काम के लिए नहीं किया गया है. इसका एक व्यापक अर्थ है जिसमें नैतिक रूप से दोषी होना भी शामिल है.

 

केएन सिंह

25.11.1991 – 12.12.1991

जस्टिस रंगनाथ मिश्र के बाद आए चीफ जस्टिस केएन सिंह ने एक के बाद एक विचित्र और हितकारी फैसले दिए जो जैन एक्सपोर्ट्स और इसी से संबद्ध जैन शुद्ध वनस्पति के पक्ष में जाते थे. इन फैसलों में से कई तो चीफ जस्टिस के तौर पर उनके 18 दिन के कार्यकाल के दौरान हुए और इनमें से भी कई ऐसे थे जिन्हें सिर्फ जबानी उल्लेख द्वारा ही उनकी अदालत में सूचीबद्ध करने का आदेश दिया गया.

अदालत के गलियारों में इस स्कैंडल की इतनी चर्चा हुई कि आखिरकार 9 दिसंबर, 1991 को एक सुनवाई में भारत सरकार के वकील को उस तरीके पर एतराज जताने के लिए मजबूर होना पड़ा जिस तरीके से ये मामले जस्टिस केएन सिंह की खंडपीठ के सामने सुनवाई के लिए सूचीबद्ध हुए थे. जस्टिस सिंह को बताना पड़ा कि कैसे और क्यों उन्होंने इस मामले को अपनी खंडपीठ में भेजने के लिए कहा जब यह दूसरी खंडपीठ के सामने था. 

इन सभी फैसलों की बाद में एक के बाद एक कई खंडपीठों ने समीक्षा की और उन्हें पलट दिया गया. इनमें से कुछ में तो समीक्षा याचिकाओं की सुनवाई सबके सामने हुई जो  सामान्य तौर पर नहीं होता. 1 अप्रैल, 1991 और 9 सितंबर, 1991 को जस्टिस केएन सिंह ने कास्टिक सोडा के आयात से संबंधित जैन एक्सपोर्ट्स की दो अपीलें स्वीकार कर लीं और कंपनी के लिए आयात शुल्क निर्धारित 92 फीसदी से घटाकर 10 फीसदी कर दिया. इन दोनों फैसलों की बाद में समीक्षा हुई और उन्हें निष्प्रभावी कर दिया गया. 28 नवंबर, 1991 को (चीफ जस्टिस के तौर पर अपने 18 दिनों के कार्यकाल में) जस्टिस सिंह ने जैन शुद्ध वनस्पति के खिलाफ भारत सरकार की अपील खारिज कर दी. यह मामला स्टेलनेस स्टील के कंटेनरों में खाद्य तेल के निर्यात (जो प्रतिबंधित है) से संबंधित था. आंखों में धूल झोंकने के लिए इन कंटेनरों को इस तरह से पेंट किया गया था कि ये हल्के स्टील कंटेनर लगें. इस आदेश की समीक्षा हुई और 16 जुलाई, 1993 को जस्टिस जेएस वर्मा और पीबी सावंत की खंडपीठ ने इसे निष्प्रभावी कर दिया. समझा और माना गया कि जैन एक्सपोर्ट्स और जैन शुद्ध वनस्पति मामलों में जस्टिस केएन सिंह द्वारा दिए गए ये सारे निर्णय भ्रष्ट उद्देश्यों के लिए दिए गए थे. उनके चीफ जस्टिस रहने के दौरान ही इस स्कैंडल की अदालती गलियारों में खूब चर्चा हुई थी.

एएम अहमदी

25.10.1994 – 24.03.1997

जस्टिस वेंकटचलैय्या (जिनकी अपनी ईमानदारी के लिए काफी प्रतिष्ठा थी) के बाद आए चीफ जस्टिस एएम अहमदी ने तो भोपाल गैस रिसाव मामले के बाद दर्ज हुए आपराधिक मामले में गैरइरादतन हत्या के आरोप को ही बदल दिया. इस मामले की सुनवाई के दौरान सात खंडपीठें बदलीं. मगर उन सभी में जस्टिस अहमदी मौजूद रहे जो चीफ जस्टिस थे और ये खंडपीठें भी बना रहे थे. सुनवाई से पहले गैरइरादतन हत्या के आरोप में बदलाव करने के आदेश से न सिर्फ सुनवाई में देर हुई बल्कि न्याय के साथ ऐसा मजाक भी हुआ कि इसके 14 साल बाद जब सीबीआई ने उस आदेश पर पुनर्विचार करने के लिए एक याचिका दायर की तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे ठीक मानते हुए अभियुक्तों को फिर से नोटिस जारी किए.

जस्टिस अहमदी ने इस मामले में कई आदेश दिए थे. इनमें से एक यह भी था कि यूनियन कार्बाइड इंडिया लि. के शेयर बेचने से यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन, यूएसए को जो पैसा मिला है उससे वह एक अस्पताल बनाए. बल्कि उन्होंने तो यूनियन कार्बाइड से जुड़े फंड से अस्पताल के निर्माण के लिए 187 करोड़ रु जारी करने के आदेश भी दे दिए. यह भी खासी असाधारण बात थी कि यूनियन कार्बाइड से जुड़े इन मामलों की सुनवाई करने के बाद जस्टिस अहमदी (अपने रिटायरमेंट के बाद जल्दी ही) उसी अस्पताल ट्रस्ट के लाइफटाइम चेयरमैन बन गए जिससे जुड़े केस की सुनवाई उन्होंने चीफ जस्टिस रहते हुए विस्तार से की थी.

जस्टिस कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में बनी सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने 10 मई, 1996 को सुनाए गए अपने एक फैसले में पर्यावरण संबंधी चिंताओं के चलते फरीदाबाद की बड़कल और सूरजकुंड झील के पांच किलोमीटर के दायरे में सभी निर्माणों पर रोक लगा दी थी. यह आदेश कांत इंक्लेव नामक उस योजना के तहत काटे गए प्लॉटों पर किसी भी निर्माण को भी प्रतिबंधित करता था जो सूरजकुंड झील के पास पंजाब लैंड प्रिजर्वेशन ऐक्ट के सेक्शन चार के तहत घोषित वन भूमि पर हो रहा था.

वन भूमि होने के चलते इस जमीन पर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट (गोदावर्मन मामले में अदालत के आदेश के चलते) की इजाजत के बिना कोई भी निर्माण नहीं हो सकता था. लेकिन जस्टिस अहमदी, जो उस समय चीफ जस्टिस थे, ने न सिर्फ इस योजना के तहत प्लॉट खरीदा बल्कि उसके बाद वहां एक मकान (वह भव्य बंगला जहां वे रिटायरमेंट के बाद से रह रहे हैं) भी बनवाया जो वहां बने सबसे पहले मकानों में से एक था. यह अदालत के आदेशों का उल्लंघन था और वन संरक्षण कानून का भी.

जस्टिस कुलदीप सिंह के मूल आदेश के बाद जल्दी ही जस्टिस अहमदी ने चीफ जस्टिस के तौर पर खंडपीठों का फिर से निर्माण किया और कांत इंक्लेव और अन्य पक्षों द्वारा अदालती आदेशों के खिलाफ दायर समीक्षा याचिकाओं को तुरंत सूचीबद्ध करवाया जिसके बाद इन आदेशों में बदलाव किया गया. 11 अक्टूबर, 1996 को दिए गए एक आदेश में निर्माण पर प्रतिबंध का दायरा पांच किलोमीटर से घटाकर एक किलोमीटर कर दिया गया. कांत इंक्लेव और अन्य पक्षों द्वारा दाखिल समीक्षा याचिकाओं पर आगे भी इस आदेश में बदलाव किया गया और 17 मार्च, 1997 को सुनाए गए एक फैसले में निर्माण के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने की अनिवार्यता भी खत्म कर दी गई. इसमें आगे भी बदलाव हुआ और 13 अप्रैल, 1998 को दिए गए एक आदेश में सूरजकुंड झील के एक किलोमीटर के दायरे में भी निर्माण की इजाजत दे दी गई. यह आदेश तत्कालीन चीफ जस्टिस एमएम पंछी की अगुआई वाली एक खंडपीठ ने सुनाया था.
कांत इंक्लेव में जस्टिस अहमदी के घर का निर्माण न सिर्फ पूरी तरह से गैरकानूनी है बल्कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों और वन संरक्षण कानून का भी उल्लंघन है, इस तथ्य को सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही 14 मई 2008 को दिए गए अपने उस आदेश में साफ तौर पर माना है जो कांत इंक्लेव की स्पष्टीकरण याचिका पर दिया गया था.

अदालत की केंद्रीय अधिकार प्राप्त कमेटी ने भी पाया है कि कांत इंक्लेव में घर बनाने वालों द्वारा किए गए उल्लंघन इतने गंभीर हैं कि उसने इन निर्माणों को ध्वस्त करने की सिफारिश की है. इनमें जस्टिस अहमदी का घर भी शामिल है. यह सिफारिश 13 जनवरी, 2009 को कमेटी द्वारा दी गई रिपोर्ट में की गई है. मैं मानता हूं कि इस सबमें जस्टिस अहमदी का आचरण नैतिक रूप से गलत और वास्तव में भ्रष्ट था. उनके ये काम अदालत के गलियारों और उस समय के जजों के बीच काफी चर्चा के विषय बने थे.

एमएम पुंछी

18.01.1998 – 09.10.1998

जस्टिस पुंछी 10 महीने के संक्षिप्त कार्यकाल के लिए देश के चीफ जस्टिस नियुक्त हुए थे. वे, जस्टिस वर्मा, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय के सबसे ईमानदार और जानकार जजों में शुमार किया जाता है, के बाद इस पद पर आसीन हुए थे. न्यायिक उत्तरदायित्व समिति ने उनके खिलाफ एक महाभियोग प्रस्ताव तैयार किया था. इस पर राज्यसभा के 25 से ज्यादा सांसदों के दस्तखत थे. प्रस्ताव के लिए और अधिक सांसदों के दस्तखत की जरूरत थी, लेकिन ये नहीं मिल पाए क्योंकि उससे पहले पुंछी देश के चीफ जस्टिस बन गए. महाभियोग प्रस्ताव में उनके खिलाफ छह गंभीर आरोप लगाए गए थे:

1. पुंछी जब सुप्रीम कोर्ट के जज थे तब उनके समक्ष श्री केएन तपूरिया का मामला आया था. बांबे हाई कोर्ट ने तपूरिया को 10.12.93 के एक फैसले में दो साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई थी और इसके खिलाफ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी. पुंछी ने इस मामले में न सिर्फ अपील स्वीकार की बल्कि सुनवाई करते हुए तपूरिया और मेसर्स टर्नर मॉरिसन के कथित प्रतिनिधि के बीच सुलहनामे के आधार पर तपूरिया की सजा माफ कर दी थी. जबकि तपूरिया के खिलाफ विश्वास भंग (क्रिमिनल ब्रीच ऑफ ट्रस्ट) का आरोप था जिसमें कानून के मुताबिक आरोपित को शिकायतकर्ता से सुलह करने की अनुमति नहीं है. इस मामले में जस्टिस पुंछी द्वारा जारी आदेश असंगत तर्क की जमीन पर था.

2. जस्टिस पुंछी जब पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में जज थे तो उन्होंने रोहतक विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ रामगोपाल की याचिका खारिज कर दी थी. डॉ रामगोपाल ने अपनी याचिका में हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भजन लाल के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए थे. इसी केस के दौरान जस्टिस पुंछी की दो बेटियों मधु और प्रिया, जिन्होंने गुड़गांव में प्लॉट के लिए आवेदन किया था, को मुख्यमंत्री कोटे के तहत दो कीमती  आवासीय प्लॉटों का आवंटन हुआ था. आवंटन 1.5.86 को ठीक उसी दिन हुआ था जिस दिन जस्टिस पुंछी ने रामगोपाल की याचिका खारिज की थी.

3. पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का निरीक्षक जज रहते हुए उन्होंने पंजाब के सब जज / ज्यूडिशियल  मजिस्ट्रेट केएस भुल्लर के बारे में लिखी अपनी निरीक्षण रिपोर्ट में उनकी ईमानदारी पर सवाल उठाए थे क्योंकि भुल्लर ने उनके सामने एक ऐसे मुकदमे का फैसला देने से इनकार कर दिया था जिसमें जस्टिस पुंछी के रिश्तेदार एक पक्ष के तौर पर शामिल थे.

4. सुप्रीम कोर्ट का जज रहते हुए जस्टिस पुंछी ने पंजाब की राजधानी ऐक्ट, 1952 के सेक्शन 8 (अ) की वैधता से जुड़े मुकदमे की सुनवाई खुद करने और इस पर फैसला देने की कोशिश की जबकि उनकी इस मुकदमे के नतीजे में व्यक्तिगत दिलचस्पी थी.

5. जस्टिस पुंछी ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में रजिस्ट्री से जुड़े अधिकारियों को तब धौंस देने की कोशिश की थी जब ये अधिकारी तब हाई कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस वी रामास्वामी के सरकारी आवास में फर्नीचर सामग्री की सूची बनाने आए थे. जस्टिस पुंछी ने उन्हें आदेश दिया था कि सूची रिपोर्ट में लिखा जाए कि सभी सामान ठीक हैं जबकि यह जानकारी सही नहीं थी और सूची के सामान का सत्यापन भी नहीं किया गया था. इसके बाद जब यह मामला महाभियोग की कार्रवाई का हिस्सा बन गया और सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में इस मुद्दे को शामिल किया गया तब जस्टिस पुंछी ने खुद अपने समक्ष इस मुकदमे की सुनवाई करवाने की कोशिश की जबकि देखा जाए तो इस मामले में उनकी भूमिका के कारण उन्हें सुनवाई करने का अधिकार नहीं था.

6. जस्टिस पुंछी ने गुजरात के अशोक और रूपा हुर्रा की शादी से जुड़े एक मामले को जबर्दस्ती लटकाकर रखा. इस मामले के बीच में ही उन्होंने आदेश दे दिया कि पति दोबारा याचिका दायर करे और मामला फिर से उनके सामने आए. इन कार्रवाइयों पर आखिरी फैसला जस्टिस पुंछी ने मुकदमे से जुड़े पहलुओं के इतर वजहों से लिया जो कानून के खिलाफ था.

एएस आनंद

10.10.1998- 01.11.2001

जस्टिस आनंद की नियुक्ति जस्टिस पुंछी के बाद हुई थी. बतौर चीफ जस्टिस उनका कार्यकाल भी काफी विवादास्पद रहा. न्यायिक उत्तरदायित्व समिति को उनके खिलाफ गंभीर कदाचार के कई सबूत मिले थे. समिति ने इस आधार पर उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव भी तैयार किया था. इसमें जस्टिस आनंद के खिलाफ चार गंभीर आरोप लगाए गए थे:

1. एएस आनंद जब जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस थे तब उन्होंने कृष्ण कुमार आमला के मामले की सुनवाई करते हुए उनके पक्ष में अंतरिम आदेश दिए थे. ये आदेश आमला से उन्हें गंदरबल, श्रीनगर में दो कनाल (एक कनाल, एकड़ के आठवें हिस्से के बराबर होता है) प्लॉट भेंट में मिलने के थोड़े ही समय बाद आ गए थे. आमला और उनके पिता तीरथ राम आमला के स्वामित्व वाली कंपनियों से जुड़े मामलों की सुनवाई के दौरान ही आनंद ने कृष्ण आमला और उनके पिता से यह भेंट स्वीकार कर ली थी. ऐसे काम एक जज के लिए गंभीर कदाचार की श्रेणी में आते हंै.

2. आनंद ने एक जज एवं जम्मू-कश्मीर के चीफ जस्टिस रहते हुए व्यक्तिगत हित के लिए पद का दुरुपयोग किया. जम्मू-कश्मीर कृषि सुधार कानून- 1976 के मुताबिक जिस जमीन पर सरकार का अधिकार होना चाहिए था उस पर उन्होंने अपना स्वामित्व रखा.

3. आनंद जब सुप्रीम कोर्ट के जज थे तब उन्होंने झूठी बातों के आधार पर मध्य प्रदेश के एक सिविल कोर्ट में एक मामला दायर करने के लिए अपनी पत्नी और सास की मदद की थी. सिविल कोर्ट में मामले की सुनवाई के दौरान उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके राजस्व अधिकारियों पर दबाव डाला था ताकि ट्रायल कोर्ट में कार्रवाई के कागजात राजस्व अदालत में प्रस्तुत न किए जाएं. इसके बाद उन्होंने मध्य प्रदेश सरकार पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए राज्य द्वारा उनकी पत्नी के खिलाफ दायर विशेष अवकाश याचिका वापस लेने के लिए दबाव डाला था.

4. जस्टिस आनंद ने राज्य का चीफ जस्टिस रहते हुए अपने पद और प्रभाव का दुरुपयोग किया और जम्मू और कश्मीर राज्य सरकार से जम्मू के गांधीनगर में दो कनाल का एक प्लॉट बाजार भाव की तुलना में नाममात्र की कीमत पर लिया. इसके लिए उन्होंने एक झूठा हलफनामा दिया जिसमें उन्होंने कहा कि उनके पास जम्मू में किसी तरह की अचल संपत्ति या जमीन नहीं है. जस्टिस आनंद के खिलाफ गंभीर आरोपों के पुख्ता सबूत थे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस निवर्तमान चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर पर्याप्त संख्या में जरूरी सांसदों के दस्तखत संभव नहीं हो सके. सबूत होने के बावजूद सांसद हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के किसी वर्तमान जज के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर दस्तखत करने में इसलिए हिचकते हैं कि ज्यादातर सांसदों के मामले न्यायालय में चल रहे होते हैं और उन्हें डर होता है कि इसका परिणाम उन्हें या उनकी पार्टी को न भुगतना पड़े.

वाईके सभरवाल

01.11.2005 – 14.01.2007

3 अगस्त, 2007 को कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी. इसमें चीफ जस्टिस वाईके सभरवाल के खिलाफ कई गंभीर आरोपों का ब्योरा था. इनमें सबसे गंभीर आरोप यह था कि उन्होंने दिल्ली में आवासीय इलाकों से संचालित व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की सीलिंग के कई आदेश जारी किए थे. इसका तात्कालिक असर यह हुआ कि लोगों को दुकानों और ऑफिसों को तुरंत ही शॉपिंग मॉलों और बिल्डरों व डेवलपरों द्वारा बनाए गए व्यावसायिक कॉम्प्लेक्सों में शिफ्ट करना पड़ा. नतीजतन इनका किराया रातों-रात आसमान छूने लगा. जिस समय सभरवाल ने ये आदेश जारी किए, उसी दौरान उनके बेटों ने दिल्ली के कुछ शॉपिंग मॉल्स और व्यावसायिक कॉम्प्लेक्सों में साझेदारी हासिल कर ली और आदेश के बाद मोटा मुनाफा कमाया. साथ ही उसी दौरान उनके बेटों की कंपनियों के पंजीकृत कार्यालय जस्टिस सभरवाल के सरकारी निवास से चल रहे थे. इसके अलावा अमर सिंह टेप मामले की सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार द्वारा नोएडा में उनके बेटों को काफी सस्ते दामों पर विशाल व्यावसायिक प्लॉट आवंटित किए गए थे. सभरवाल ने इन टेपों के प्रसारण और प्रकाशन पर रोक का आदेश दिया था. 

जस्टिस सभरवाल जब सीलिंग मामले की सुनवाई कर रहे थे तब उनके बेटों का सालाना कारोबार दो करोड़ रुपए था. लेकिन मार्च, 2007 में उन्होंने महारानी बाग में 15.43 करोड़ की संपत्ति खरीद ली. उसके बाद हाल ही में अप्रैल, 2010 में उन्होंने दिल्ली के 7, सिकंदरा रोड के पास 122 करोड़ रुपए (अपने बिल्डर दोस्तों के साथ साझीदारी में) में एक संपत्ति खरीदी है. इस संपत्ति की कीमत 150 करोड़ रुपए से ज्यादा की थी, लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट के एक जज द्वारा दिए गए कई अनैतिक आदेशों की मदद से सभरवाल के बेटों को यह संपत्ति 122 करोड़ रुपए में मिल गई. सीबीआई और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) में इसकी शिकायतें दर्ज करने के बाद भी ऐसा बिलकुल नहीं लगता कि इस मामले में कोई एफआईआर दर्ज हुई है या सीबीआई ने किसी भी तरह की जांच की है.

 

' सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली किताबों में रैपिडेक्स या उसकी नकल और प्रेमचंद हैं '

आपकी पसंदीदा विधा कौन-सी है?

छंद की कविता और गद्य. इसके अलावा समाजशास्त्र और सिद्धांतों की, खासकर साहित्यिक सिद्धांतों की किताबें पसंद हैं.

इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं?

रीतिकाल के बारे में पढ़ रहा हूं. 19वीं शताब्दी में दरबारों में नाचने वाली स्त्रियों पर कुछ शोध अंगरेजी में हुए हैं उन्हें पढ़ रहा हूं. चारू गुप्ता और ओल्डेनबर्ग वीना तलवार की किताबें तथा फूको की हिस्ट्री ऑफ सेक्सुअलिटी पढ़ रहा हूं.

आपके पसंदीदा रचनाकार कौन हैं?

जिसके बिना काम न चले वही प्रिय हुआ. मैं किसी को ऐसा खुदा नहीं मानता. हिंदी में मनोहरश्याम जोशी और निर्मल वर्मा को प्रतिभाशाली मानता हूं. मुक्तिबोध मेरे मन के नजदीक बैठते हैं. मेरी रेंज थोड़ी अलग ढंग की है. मैं किसी धार्मिक व्यक्ति की तरह गीता, कुरान को प्रिय मानकर उस पर रुकता नहीं हूं. मुझे जयशंकर प्रसाद की कामायनी बहुत पसंद है. उसे मैं कई बार पढ़ सकता हूं.

जिन लेखकों या रचनाओं का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया?

मूल्यांकन एक सब्जेक्टिव चीज है. पढ़नेवाला अपनी नजर से विचार करता है. साहित्य में ’सही’ शब्द धोखा देता है. किसी व्यक्ति के मानक को सब लोग सही नहीं मान सकते. हिंदी समाज जैसा है लोग उसके हिसाब से पढ़ते हैं और उस पर विचार करते हैं. जैसे मुझे इब्ने शफी बहुत पसंद हैं. अफसोस है कि हिंदी में जासूसी उपन्यास नहीं हैं.

बेवजह मशहूर हो गई कोई रचना या लेखक?

राजेंद्र यादव को कोई नहीं पढ़ता. सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली किताबों में रैपिडेक्स या उसकी नकल और प्रेमचंद हैं. चाहे कोई भी लेखक हो, अगर उन्हें कोर्स से निकाल दिया जाए तो उन्हें उनके बच्चे तक नहीं पढ़ेंगे.

पढ़ने की रवायत कायम रहे इसके लिए क्या किया जाए?

मन की लगन. अगर आप ज्ञान का अर्जन करना चाहते हैं तो आपको पढ़ना ही पढ़ना है.

रेयाज उल हक

साझा मुल्क साझी विरासत

असल धर्म का पालन लोगों के दिलों के बीच पुल बनाने और जख्मों पर मरहम लगाने का काम करता रहा है. असली धर्म यानी अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण. यहां बिना किसी हानि-लाभ के, अंतरात्मा की आवाज पर, अपने होने के उद्देश्य की पूर्ति करने वालों की कुछ मिसालें दी जा रही हैं जिनसे छोटे-छोटे झगड़ों में बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी करने वाले सबक ले सकते हैं

मेल कराती पाठशाला

किसी स्कूल में मुसलमान बच्चे गायत्री मंत्र का पाठ करते मिल जाएं और हिंदू बच्चे मुसलमानों के साथ मिलकर रोजा रखते दिखें तो किसी का भी चौंकना लाजिमी है. भोपाल शहर के महाराणा प्रताप नगर इलाके में 19 साल से चल रहे ‘आचार्य श्रीराम हाई स्कूल’ में धार्मिक सहिष्णुता का एक ऐसा ही नजारा देखने को मिलता है जो फसादों की कड़वी सच्चाईमें डूबी इस फिज़ा के बीच जेहन में उम्मीद की एक मासूम झलक छोड़ जाता है. 

भोपाल के इस अनूठे स्कूल में आपको मुसलिम बच्चे गायत्री पाठ करते मिल सकते हैं और हिंदू बच्चे रोजा रखते. आज जहां चारों तरफ धर्म के नाम पर अलगाव के उदाहरण देखने को मिल जाते हैं वहीं गायत्री शक्ति पीठ परिसर के एक हिस्से में लगने वाले इस अनोखे स्कूल में सभी धर्मों के 256 गरीब बच्चे कक्षा एक से 10 तक की शिक्षा हासिल करते हैं. इस स्कूल की प्रिंसिपल दुर्गावती गर्ग के मुताबिक उनके स्कूल का मुख्य उद्देश्य गरीब एवं वंचित बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान करना और उनमें धार्मिक सहिष्णुता विकसित करना है. वे कहती हैं, ‘कई बार नवरात्रि और रमजान जैसे त्योहार एक साथ पड़ जाते हैं. ऐसे में हमारे बच्चे सभी धर्मो के त्योहार एक साथ मनाते हैं. मुसलमान बच्चे रोजा रखते हैं और यहीं स्कूल के परिसर में ही नमाज पढ़ते हैं. हिंदू बच्चे व्रत रखते हैं और पूजा करते हैं. कई हिंदू बच्चों ने भी रोजा रखना शुरू कर दिया है. साथ ही , कुछ मुसलमान बच्चे हिन्दुओं के साथ पूजा करने लगे हैं. हमारा मानना है कि इस तरह से बच्चों की एक दूसरे के धर्म और मान्यताओं के बारे में समझ बढ़ती है और वे ज्यादा सहिष्णु बनते हैं.’भोपाल के इस अनूठे स्कूल में आपको मुसलिम बच्चे गायत्री पाठ करते मिल सकते हैं और हिंदू बच्चे रोजा रखते.

उनका कहना गलत नहीं है यह हमें स्कूल के बच्चों के साथ बात करने पर महसूस हो जाता है. पांचवीं में पढ़ने वाले शैलेंद्र को अपने मुस्लिम दोस्तों के साथ रोजा रखना बहुत अच्छा लगता है. वह कहता है, ‘हम हर शाम साथ में रोजा खोलते थे और खूब मजे करते थे’. उधर, कक्षा 10 में पढ़ने वाली अमरीन को गायत्री मंत्र का पाठ करना अच्छा लगता है. अमरीन बताती है, ‘मैं अपनी बहन के साथ हमेशा गायत्री मंत्र का पाठ करती हूं. इससे मुझे सुकून मिलता है और साथ ही पढ़ाई में ध्यान लगाने में मदद मिलती है.’

आठवीं कक्षा में पढने वालीं गायत्री और प्रिया भी हर साल अपने मुसलमान सहपाठियों के साथ रोजा रखती हैं. वह कहती हैं, ‘हम गायत्री मंत्र भी पढ़ते हैं, यज्ञ भी करते हैं और रोजा भी रखते हैं. इससे हमारी एकाग्रता बढ़ती है और हम कई नई चीजें सीखते हैं’. प्रिया के मुताबिक हिन्दू -मुसलमान का ख्याल ही उनके जेहन में नहीं आया. वह कहती है, ‘हम सब साथ पढ़ते हैं और साथ ही सारे त्योहार मानते हैं. रोजा रखने में सबके साथ नमाज पढ़ने में हमें मजा आता है’.   

कक्षा छह में पढने वाले मुनव्वर और ज़ेबा को भी अपने हिंदू दोस्तों के साथ यज्ञ और पूजा में भाग लेना पसंद है. जेबा कहती हैं, ‘हम यज्ञ में भी बैठते हैं और तिलक भी लगवाते हैं. इससे हमें अच्छा लगता है और संकल्प शक्ति बढ़ती है.’ स्कूल में पढ़ने वाले दूसरे कई बच्चे भी इसी तरह की बात कहते हैं. लेकिन मेल-मिलाप की यह अनूठी राह ऐसा नहीं है कि आसान रही हो. शुरुआत में कुछ बच्चों के माता पिता ने दूसरे धर्म के त्यौहार मनाने पर आपत्ति जताई थी पर स्कूल ने विशेष प्रयास करके उन्हें समझाया. दुर्गावती गर्ग बताती हैं, ‘हमने एक अभिवावक सम्मेलन आयोजित करके सभी अभिभावकों को समझाया कि गायत्री मंत्र किसी धर्म विशेष का नहीं है. यह तो मानवता की भलाई के लिए बनाया गया मंत्र है जो मन को शांत करता है. हमने यह भी समझाया कि मुसलमान बच्चे यदि यहीं मंदिर में नमाज पढ़ेंगे तो स्कूल का अनुशासन भी बना रहेगा और बच्चों में धार्मिक सहिष्णुता का विकास भी होगा. उस सम्मलेन के बाद से सभी अभिभावकों ने हमारा साथ दिया और तब से सारे बच्चे एक साथ सभी त्योहार मनाते हैं.’ 

आज यह स्कूल जितना चर्चा का विषय है उतनी ही प्रेरणा का भी. यहां पढ़ने वाले सभी बच्चों को किताबें, कापियां और यूनिफार्म मुफ्त उपलब्ध करायी जाती हैं. मानस पुत्र योजना के तहत हर बच्चे से 50 रु. महीना फीस ली जाती है और स्कूल का बाकी खर्च समाज के विभिन्न वर्गों से मिलने वाली दानराशि से चलता है.
स्कूल श्रीमती गर्ग कहती हैं, ‘हम किताबों से ज्यादा संस्कार पर ज़ोर देते हैं. बच्चों को अच्छा इंसान और व्यापक सोच वाला सहिष्णु भारतीय  नागरिक बनाना हमारी पहली प्राथमिकता है.’ इन बच्चों के आपसी प्रेम में भारत की एक नई और उजली तसवीर दिखाई देती है. लगता है जैसे ये बच्चे अपनी मासूम किलकारियों में हमसे कह रहे हैं कि हिंदुस्तान साझी विरासत का देश है. यहां अनेक मजहब के लोग रहते हैं और हमें ऐसे ही साथ रहना है जैसे किसी बगीचे में अलग-अलग किस्म के फूल लहलहाते हैं. 

प्रियंका दुबे

मिलाप का मजार

भागलपुर से कहलगांव जाने के रास्ते में रोड किनारे एक गांव है अम्मापुर. इस छोटे-से गांव में एक छोटा-सा मजार है. चर्चा में न कभी अम्मापुर रहा है और न वह मजार जबकि ठोस वजह दोनों के चर्चित होने की है. भटकाव के दौर से गुजर रहे देश, जरा-जरा सी बात पर संप्रदाय के खोली में समा जाने को आतुर समाज, धर्म के उन्मादी होते स्वरूप के कारण पीढ़ियों से बने रिश्ते को तोड़ने की सनक वाले दौर में अम्मापुर गांव और वह छोटा-सा मजार प्रेरणा का स्रोत है.  इस मायने में कि यहां वर्षों से मजार की देखरेख एक हिंदू परिवार कर रहा है.

1989 के चर्चित भागलपुर दंगे मंे इस मजार का भी ध्वस्त होना लगभग उसी तरह तय हो चुका था, जैसे अम्मापुर से मुसलमानों का गांव छोड़कर भाग जाना. हुआ यह था कि भागलपुर दंगे की लपटें जब शहर के बाहरी हिस्से में पहुंचनी शुरू हुईं तो अम्मापुर में रहने वाले करीबन 12-15 घरों के मुसलमान वहां से गांव छोड़कर चले गए. बकौल घनश्याम मंडल तब आक्रोश और उन्माद इस तरह छाया हुआ था कि गांव के कुछेक लोग मजार को भी उखाड़ फेंकने पर आमादा थे, लेकिन तब गांव के लोगों ने एकजुटता दिखाई. मजार को उखड़ने से बचा लिया. फिर तुरंत यह भी निर्णय लिया गया कि मजार की देखरेख जिस तरह पहले से मुसलमान करते थे, उसी तरह नियमित तौर पर जारी रहेगी. इसके लिए सामने आए सुरेश भगत और उनकी पत्नी गिरिजा देवी. यह कोई मामूली साहस भरा फैसला नहीं था क्योंकि तब भागलपुर दंगे की आग मे झुलसकर बर्बादी की नई दास्तां लिख रहा था. सुरेश कहते हैं, ‘ हमने जन्म से इस मजार को देखा था. जाति-धर्म से परे जाकर हर किसी को इमाम शाह अली बाजीर खां के मजार पर मन्नत मानते हुए देखा था. इसे खत्म कैसे होने देते?’

तब से लेकर आज तक सुरेश मजार की देखरेख और वहां पहुंचने वाले भक्तों की सेवा में लगे हुए हैं. दंगे में भय से भागे मुसलमान आज तक उस गांव में वापस नहीं आ सके लेकिन मजार पर हर शुक्रवार को मन्नत पूरा होने पर चढ़ावा चढ़ाने वालों की भीड़ जुटती है.

निराला

जहां सबके हैं हुसैन

लखनऊ के बशीरतगंज में रहने वाले हरीशचंद्र धानुक इस बार मुहर्रम में ईराक, ईरान और सीरिया जा रहे हैं, ताकि वे हजरत इमाम हुसैन से मंसूब मुकद्दस जगहों की जियारत कर सकें. उनके घर में पिछली पांच पीढ़ियों से मुहर्रम के दौरान आजादारी और ताजियेदारी की रिवायत पूरी अकीदत के साथ निभाई जा रही है. घर में इमामबाड़े की कहानी कहते हुए धानुक बताते हैं कि उनके परदादा के पिता की लंबे समय तक कोई संतान नहीं हुई. उन दिनों लखनऊ में मुहर्रम का बड़ा जोर था. किसी ने उन्हें अज़ादारी करने की तजवीज की.  1880 में घर में यह इमामबाड़ा बना. धानुक के मुताबिक इमाम हुसैन के करम से बाद में घर में संतान भी हुई.

कर्बला के शहीदों के प्रति गहरी आस्था रखने वाले शिव के भी भक्त हैं. उनकी छत पर लहराते भगवे और इमामबाड़े में कर्बला के शहीदों को समर्पित काले झंडों को देखकर बाहर वाले भरमा जाते हैं लेकिन पुराने लोग जानते हैं कि धानुक लखनऊ की उस अजीम रिवायत की एक कड़ी हैं जिसमें सैकड़ों साल से गैरमुसलमानों का कर्बला के शहीदों से आत्मीय सम्बन्ध रहा है. धानुक ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं. लखनऊ में इमाम हुसैन के गैरमुसलिम हजारों शैदाई हैं जो मुहर्रम में मातम, अजादारी और ताजियेदारी करते हैं.

अपने मुहर्रम के लिए लखनऊ पूरी दुनिया में मशहूर रहा है. यहां मुहर्रम सिर्फ शिया मुसलमानों तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि मजहब की हदों से आगे निकल गया. हिंदू और मुसलमानों के साथ साथ अजादारी करने की रिवायत लखनऊ में नवाब आसिफुद्दौला के दौर से होती हुई आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के दौर में परवाज पर पहुंची. उस दौर में छन्नूलाल दिलगीर, राम प्रसाद बशीर, कुंवर सेन मुज्तर, उल्फत राय उल्फत, नानक चांद नानक, बशेश्वर प्रसाद मुनव्वर प्यारे साहब रशीद, लालता प्रसाद शाद, ब्रिजनाथ मखमूर जैसे मशहूर हिंदू शायरों ने न सिर्फ ढेरों शानदार मर्सिये लिखे बल्कि ये सभी मुहर्रम की मजलिसों में बराबर आते जाते रहे. लखनऊ का पूरा कत्थक घराना बाकायदा काले लिबास में मुहर्रम की मजलिसों में हिस्सा लेता रहा है. संस्कृतियों की सहिष्णुता का यह सफर आज भी जारी है. ‘

हिमांशु बाजपेयी

मजहब जुदा, दिल एक

देखने में अलीगढ़ का राजपुर गांव आपको किसी दूसरे गांव जैसा ही लगेगा. दूर-दूर तक फैले खेत, कच्चे-पक्के रास्ते और मकान और इस सबके बीच शहर की आपाधापी से दूर मंथर चाल से चलती जिंदगी. मगर जब आप इसके बारे में जानने की कोशिश करेंगे तो पता चलेगा कि एक खासियत है जो इसे दूसरे गांवों से जुदा करती है. दरअसल राजपुर हिंदू-मुसलिम एकता की असाधारण मिसाल है. अलीगढ़ शहर से 55 किलोमीटर दूर टप्पल रोड पर बसे इस गांव में एक खानदान ऐसा है जिसमें कई लोग हिंदू हैं और कई मुसलमान. मजहब भले ही अलग हो गए हों मगर इससे खून के रिश्तों की गर्माहट कम होने की बजाय बढ़ी ही है. इतनी कि इस खानदान की एकता की मिसाल सारा इलाका देता है.  
दरअसल, ये सभी लोग हिंदू राजपूत ठाकुरों के नामचीन खानदान जरतौली के राव उदय सिंह के वंशज हैं. खानदान में तकरीबन 700 से ज्यादा लोग हैं. ये सभी अपने-अपने भगवान और अल्लाह के साथ खुश हैं. धर्म को लेकर इनमें आज तक कोई मनमुटाव नहीं हुआ. 

6,000 की आबादी वाला राजपुर खैर तहसील का सबसे बड़ा गांव है. कुछ लोग हिंदू और कुछ मुसलमान कैसे हो गए, इस बारे में एक दिलचस्प कहानी सुनने को मिलती है. बताते हैं कि जरतौली के राव उदय सिंह की कभी यहां 52 हजार बीघा जमीन की जमींदारी हुआ करती थी. यह मुगलों के जमाने की बात है. दिल्ली दरबार से उनके लिए दावतनामा आया तो राव साहब बादशाह के दरबार में हाजिर हुए. वहां दस्तरखान सजा तो शहंशाह की शान में उनके साथ खाना भी खाया. मगर दिल्ली से वापस आए तो इलाके में शोर मच गया कि उन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया है. राव साहब किस-किस को समझाते. उसी दौरान खिली रेवाड़ी के नवाब साहब ने राव साहब की लड़की के लिए अपने लड़के का रिश्ता भेजा. रेवाड़ी के नवाब साहब भी मूल रूप से हिंदू थे इसलिये यह रिश्ता हो गया. इन्हीं हालात में इस खानदान के कुछ लोग हिंदू रह गए तो कुछ धर्म बदलकर मुसलमान हो गये.

मजहब भले ही अलग हो गए हों मगर इससे खून के रिश्तों की गर्माहट कम होने की बजाय बढ़ी ही है

हिंदू कुनबे में राव उदय सिंह की नौ संतानों में से एक कान सिंह हुए. उनके बेटे फतेह सिंह थे जिनके नाम पर पास का गांव फतेहपुर बसा. फतेह सिंह की छह संतानों में बलवंत सिंह और फूल सिंह भी थे. बलवंत सिंह के बेटे शिव सिंह की संतानें आज भी यहां हैं.

शिव सिंह के पोते श्यौदान से हमारी मुलाकात होती है. वे कहते हैं, ‘हम लोगों ने काफी प्रयास किया कि सभी भाई-बंधु एक होकर एक ही धर्म में रहें परंतु ऐसा संभव नहीं हो पाया. लेकिन इसके बावजूद हमारा पूरा खानदान एक होकर रहता है. धर्म को लेकर कोई मतभेद नहीं. सारे भाई एक दूसरे के सुख-दुख में साथ रहते हैं. सारे त्यौहार एक साथ मनाते हैं. ईद पर हम हिंदू भाई मस्जिद की सफाई करते हैं, मिठाइयां बनाते हैं और दीवाली पर मुसलमान भाई मंदिर की सजावट से लेकर पकवान की व्यवस्था तक सारे काम करते हैं.’

इसी गांव में थोड़ा दूर चलने पर मसजिद में हमारी मुलाकात शान मोहम्मद से होती है. शान, श्यौदान सिंह के चचेरे भाई हैं. वे बताते हैं कि उनके वालिद जान मोहम्मद खां थे जिनके वालिद छिपेदार सिंह उर्फ शिव सिंह थे. शान मोहम्मद कहते हैं, ‘इससे पहले हम सभी मूल रूप से हिंदू थे. बलवंत सिंह और फूल सिंह हमारे पूर्वज हैं. हम सभी भाई एक-दूसरे के प्रति आदर सम्मान रखते हैं.  हमारे बीच में धर्म कभी दीवार नहीं बन सका. तारीख गवाह है कि हम लोगों में कोई झगड़ा तक नहीं हुआ. सभी प्यार से रहते हैं और सभी भाई हमेशा एक दूसरे के सुख-दुख में हमेशा साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं.’

भारत में जहां सांप्रदायिकता के नाम पर कुछ चुनिंदा स्वार्थी तत्व लोगों को बांटने का प्रयास कर रहे हैं वहीं इस गांव का यह खानदान हिंदू-मुसलिम सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल है. मुसलमान कुनबे से ताल्लुक रखने वाले हाशिम बताते हैं कि इस खानदान की नींव मजबूत होने की मुख्य वजह यह है कि वे कभी अपने परिवार के मामले में किसी तरह का राजनीतिक दखल नहीं होने देते. इसी खानदान के राजपाल सिंह चौहान कहते हैं कि वे अपने बच्चों को भी एकता का यह सबक देंगे. वे बताते हैं, ‘हम सब एक दूसरे के बच्चों की शादियों में हाथ बंटाते हैं. हम अपने बच्चों को भी प्रेरित करते रहते हैं जिससे वे आगे चल कर हमारी ही तरह इस खानदान में सभी के साथ मिलजुल कर रहें.’

गांव के लोगों को भी इस अनूठे खानदान पर गर्व है. गांव में रहने वाले संजय कहते हैं, ‘गंगा-जमुनी तहजीब के इस खानदान ने हमारे गांव का नाम रोशन किया है. इस युग में जहां भाई भाई का गला काट रहा है वहां ये हिंदू और मुसलमान भाई एक साथ खड़े नजर आते हैं.’  संजय यह भी बताते हैं कि उनके परिवार में जब कोई विवाद हो जाता है तो वे इस खानदान की मिसाल देते हैं.
उनका ऐसा करना वाजिब भी है.

मनीष शर्मा