वह इंद्रधनुष टूट गया

क्या किसी कलाकार से हमें यह अपेक्षा रखनी चाहिए कि वह अपनी पसंद-नापसंद, अपने संबंधों को छोड़कर वैसा जीवन जिए जैसा उसकी कला प्रस्तावित करती है या जैसा उसके प्रशंसक चाहते हैं? इतिहास में बहुत सारे ऐसे महान लेखक और कलाकार हुए हैं जिनका अपना जीवन कई तरह के ओछेपन से घिरा रहा. हम उनके जीवन को अनदेखा करके उनकी कला में निहित मूल्य या सौंदर्य को ग्रहण करते हैं और उसका आस्वाद लेते हैं. बहुत सारे लेखकों-कलाकारों के जीवन का सच तो हमें मालूम भी नहीं हो पाता, इसलिए अंततः उनकी कला ही वह इकलौती कसौटी बचती है जिसके आधार पर हम उनका मूल्यांकन करते हैं. अंततः हम यह पाते हैं कि कला अपने कलाकार से स्वायत्त होती जाती है जिसका हम अपने ढंग से पाठ-पुनर्पाठ, सृजन या पुनर्सृजन करते हैं. लेकिन क्या इसीलिए हमें किसी कलाकार के जीवन और उसकी कला में दिखने वाली फांक की चर्चा नहीं करनी चाहिए, उस पर उदास नहीं होना चाहिए?

पिछले दिनों बाल ठाकरे के देहांत पर लता मंगेशकर की श्रद्धांजलि देखते हुए मेरे भीतर यह सवाल उठता रहा. अपनी आवाज से करोड़ों लोगों के दिल जीतने वाली महान गायिका लता मंगेशकर ने कहा कि बाल ठाकरे की मृत्यु ने उन्हें अनाथ कर दिया है. शायद मराठी मानुष और मानस में बाल ठाकरे की छवि बाकी भारत से कुछ अलग है और शायद लता मंगेशकर का भी मराठी प्रेम दूसरों के मुक़ाबले कुछ प्रखर है, लेकिन इसके बावजूद यह श्रद्धांजलि उनके बहुत सारे चाहने वालों को कुछ उदास कर गई. वैसे बाल ठाकरे के इस सार्वजनिक वंदन में सिर्फ लता मंगेशकर ही नहीं, अमिताभ बच्चन भी शामिल हुए और दूसरे कलाकार भी. निस्संदेह इसमें कुछ भी गलत नहीं है और न किसी को चुभना चाहिए.  किसी की मृत्यु पर शोक जताना एक सहज मानवीय अपेक्षा है- चाहे मरने वाला हमारी अपेक्षाओं के जितने भी विरुद्ध जीवन जीता रहा हो.

लेकिन बाल ठाकरे की श्रद्धांजलि के लिए जिस तरह पूरा बॉलीवुड उमड़ पड़ा, उससे व्यावसायिक सिनेमा के चरित्र पर भी कुछ रोशनी पड़ती है. वैसे भी सिनेमा एकांतिक नहीं, सामूहिक विधा है. अमिताभ बच्चन जो अभिनय करते हैं, जो संवाद बोलते हैं, जिस कहानी को आगे बढ़ाते हैं, वे सब दूसरों के द्वारा लिखित, निर्देशित या परिकल्पित होते हैं, बहुत दूर तक व्यावसायिक तकाजों से संचालित भी. इसी तरह लता मंगेशकर जो गीत गाती हैं जिस धुन पर गाती हैं, वे दूसरों के लिखे और रचे हुए होते हैं. हो सकता है, इसलिए ये लोग अपनी कला की अखंडता या ईमानदारी के प्रति ऐसे संवेदनशील न हों जैसे लेखक, चित्रकार या गंभीर फिल्मकार भी होते हैं. शायद इसलिए किसी बाल ठाकरे की राजनीति उनके और उनकी कला के सामने कोई वैचारिक दुविधा या चुनौती पैदा नहीं करती.

लेकिन सवाल इसके आगे से शुरू होते हैं. क्या यह सच्चाई इस ज़्यादा बड़ी सच्चाई को नज़रअंदाज़ कर सकती है कि अमिताभ या लता जैसे कलाकार जो व्यापक अपील पैदा करते हैं, उसका भी एक मोल होता है, उससे भी एक आचार संहिता बनती है?  यह सच है कि चाहे असली हो या नकली हो, मौलिक हो या किसी और से लिए हुए हों, अमिताभ ने अपने किरदारों और अभिनय के ज़रिए एक दौर में हमारे समय के गुस्से को, हमारे जज़्बात को, अपनी लरजती आंखों और तड़कती आवाज़ से अभिव्यक्ति दी, लता मंगेशकर तो जैसे हमें जीना, गाना, हंसना-बोलना, रूठना-मनाना, मोहब्बत करना और उदास होना सिखाती रहीं. जिन छोटे शहरों में बड़ी और उदात्त कलाओं की पहुंच नहीं थी, वहां अमिताभ का सिनेमा और लता के गीत थे- हमारी बहुत सारी टूटनों के बीच ये हमें जोड़ते रहे, नफ़रत और सियासत, मज़हब और सरहद के पार जाकर इंसान होने का मोल भी सिखाते रहे, हमारे बहुत सारे ज़ख़्मों पर मलहम का काम करते रहे, यकीन दिलाते रहे कि दुनिया उतनी बुरी नहीं है जितनी कुछ लोगों के फितूर और जुनून की वजह से दिखती है.

बेशक, यह सब कल्पना के उस रोमानी परदे से छनकर आता था जो ज़माने की हक़ीक़त के आगे हम टांग दिया करते थे. लेकिन यह कल्पना न होती तो दुनिया शायद अपने सारे साधनों के बावजूद जीने लायक न होती. किसी कला का मोल यही है कि वह यथार्थ के समांतर भी एक प्रतियथार्थ, संसार के समांतर एक प्रतिसंसार रचती है और किसी कलाकार का भी मोल यही है कि वह अपनी उपस्थिति से बहुत सारी अरुचिकर उपस्थितियों को बेमानी और शायद सहनीय बनाता है. बाल ठाकरे की सारी कोशिशों के बावजूद मुंबई अगर दुराग्रह के टापू में नहीं बदली और हम सब के सपनों का शहर बनी रही तो इसलिए भी कि वहां अमिताभ बच्चन और लता मंगेशकर और बहुत सारे दूसरे कलाकार रहे.

लेकिन बाल ठाकरे की शान में कसीदे कढ़कर अमिताभ बच्चन ने उस सपने को जैसे एक झन्नाटे से तोड़ दिया है, वह जादुई शीशा चकनाचूर है जो लता मंगेशकर की आवाज़ बनाती रही और जिसमें हम सब अपना-अपना चेहरा, अपनी-अपनी खुशियों और उदासियों के साथ देखते रहे. हालांकि फिर दुहराने की ज़रूरत है कि व्यक्ति और कलाकार के बीच का जो विडंबनामूलक फासला है, ये शोक प्रस्ताव उसी की देन हैं. हम लता और अमिताभ की आलोचना नहीं कर सकते, आखिर उन्हें अपने ढंग से अपने मित्र चुनने का, उनके सुख में शामिल होने का, उनके दुख में अफसोस जताने का हक़ है. लेकिन हम कामना तो कर ही सकते हैं कि काश लता मंगेशकर ने ऐसे मौके पर अपने अनाथ होने के भाव को ऐसी सार्वजनिक अभिव्यक्ति न दी होती. उनके बहुत सारे प्रशंसक आज टूटे हुए हैं- वे अपनी दुनिया को कुछ मायूसी और अफ़सोस के साथ देख रहे हैं. वे समझ नहीं पा रहे कि हमारे लिए बहुलता और उल्लास के इंद्रधनुष बनाने वाली लता उस शख्स के लिए क्यों शोकाकुल हुईं जिसकी सारी राजनीति इस बहुलता के विरुद्ध थी.  उनका इंद्रधनुष आज टूटा हुआ है.