‘संपादक बिजनेस भी लाएगा तो ऐसा ही होगा’

जी न्यूज और जी बिजनेस के संपादकों की गिरफ्तारी के दो पहलू हैं. एक तो नैतिक गड़बड़ी और दूसरा आपराधिक गड़बड़ी. नैतिकता का तकाजा है कि एक पत्रकार के तौर पर आपका आचरण पत्रकारीय आदर्शों के अनुरूप हो. दूसरा यह कि आपने जो काम किया है वह कानून की नजर में अपराध है या नहीं. जहां तक नैतिकता की बात है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि जी न्यूज और जी बिजनेस के दोनों संपादकों ने जो काम किया है उसे कतई सही नहीं ठहराया जा सकता. एक संस्थान का संपादक है जो किसी कंपनी या किसी व्यक्ति के विरुद्ध खबरें प्रसारित कर रहा है और बाद में उसी व्यक्ति से उसी विषय पर जाकर किसी तरह की बिजनेस डील करता है तो यह निश्चित रूप से गड़बड़ी की ओर इशारा करता है. यह गलत बात है. अगर कोई संपादक ऐसा करता है तो इसे परोक्ष तौर पर ब्लैकमेलिंग माना जाएगा.

दूसरी बात है कि दोनों के खिलाफ कोई आपराधिक मामला बनता है या नहीं. जिंदल ने उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करवाया था. उन्होंने अपने आरोप के समर्थन में कोई सीडी भी दिखाई थी. यह दो अक्टूबर की बात है. फिर 27 नवंबर को पुलिस ने दोनों संपादकों को गिरफ्तार किया. पुलिस ने अपनी जांच के लिए करीब दो महीने का समय लिया. पहली नजर में ऐसा लगता है कि पुलिस ने सीडी और दूसरे तथ्यों की पूरी जांच करवाने के बाद ही गिरफ्तारी का कदम उठाया है. अब पुलिस की कार्रवाई पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं कि उसने धाराएं सही नहीं लगाईं, रात में क्यों गिरफ्तार किया, गिरफ्तार करना भी चाहिए था या नहीं आदि. लेकिन ये सब कानूनी दांव-पेंच के मामले हैं और यह तय करना अदालत का काम है. निष्पक्ष रूप से अगर कहा जाए तो किसी ने किसी के खिलाफ एक आपराधिक आरोप लगाया और पुलिस ने उसकी जांच के बाद गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त जमीन पाई, लिहाजा उसने आरोपितों को गिरफ्तार किया. संयोग से ये दोनों लोग दो राष्ट्रीय चैनलों के संपादक थे. लेकिन इस आधार पर इन्हें कोई विशेषाधिकार नहीं मिल जाता है.

चैनल की तरफ से कहा जा रहा है कि यह पत्रकारिता के लिए काला दिन है क्योंकि पुलिस ने उनके खिलाफ कार्रवाई की है. मेरा मानना है कि यह पत्रकारिता के लिए सचमुच काला दिन है, लेकिन मेरे लिए इसकी परिभाषा दूसरी है. दो राष्ट्रीय चैनलों के संपादकों पर इस तरह के आरोप लगना कि वे उगाही कर रहे थे यह बेहद शर्मनाक बात है. पुलिस की कार्रवाई को न तो मीडिया की आजादी पर हमला कहा जा सकता है न ही यह आपातकाल की पुनरावृत्ति है. यह कोरी बकवास है, इसे मीडिया पर सेंसरशिप के रूप में प्रचारित करना बहुत गलत बात है. मेरी राय है कि आरोपित संपादकों या जी न्यूज को अपने बचाव में यदि कुछ कहना है तो वे अदालत में अपना पक्ष रखें और खुद को अदालत में निर्दोष साबित करें. टेलीविजन पर अभियान चलाने से कोई निष्कर्ष नहीं निकलेगा. यह चैनल की अपनी व्याख्या है कि वे इसे आपातकाल के रूप में प्रचारित करें या मीडिया पर हमले के रूप में. लेकिन किसी संपादक का यह आचरण ही अपने आप में अक्षम्य और शर्मनाक है.

इस मामले में हमने देखा कि कंपनी ने जिस आदमी को संपादक बनाया है उसी को बिजनेस हेड भी बनाया है. यह हितों का घालमेल है. जब आप रोजमर्रा के बिजनेस का जिम्मा संपादक को देते हैं तो हितों का टकराव लाजिमी है. वही आदमी आपके लिए हर दिन राजस्व का भी जुगाड़ करेगा और वही दिन भर खबरें भी लाकर देगा आपको. यह घालमेल बुराई की तरफ ले जा रहा है. इस बात पर विचार करना होगा कि क्या यह कार्रवाई किसी संपादक के ऊपर की गई है जैसा कि चैनल प्रचारित कर रहा है. आप वहां संपादक की हैसियत से गए थे या बिजनेस मांगने गए थे, इन दोनों चीजों में अंतर करना होगा.

हाल के दिनों में हमने देखा कि इंडिया टीवी और एबीपी न्यूज के दो रिपोर्टर भी इसी तरह के मामले में गिरफ्तार हुए हैं. यह स्थिति खतरे का इशारा है. राष्ट्रीय स्तर के मीडिया में इस तरह की प्रवृत्ति और भी चिंतनीय है. जिला-गांव के स्तर पर इस तरह की शिकायतें पहले भी आती रही हैं. लेकिन वे न तो इतने प्रभावी माध्यम थे और न ही उन पर कोई ज्यादा ध्यान देता था. हम उन्हें नजरअंदाज करते आ रहे थे. यह संकट का समय है, कुछ ठोस कदम उठाने का समय है. प्रेस काउंसिल पूरी तरह से निष्प्रभावी संस्थान साबित हुआ है. वह तो खैर प्रिंट पत्रकारिता के लिए जिम्मेदार है. टेलीविजन पर निगरानी के लिए बनी एनबीएसए जैसी संस्थाएं वैसे तो काफी प्रभावशाली हैं लेकिन इनके पास संसाधन और शक्तियों का अभाव है. इसके निर्णय सिर्फ एनबीए के सदस्यों पर लागू होते हैं. सारे चैनल इसे मानने के लिए मजबूर नहीं हैं. अब एक ऐसी संस्था के बारे में विचार करने का समय आ गया है जो पूरी तरह स्वतंत्र, अधिकार संपन्न और आत्मनियंत्रित हो. यह किसी भी तरह के सरकारी या किसी अन्य हस्तक्षेप से मुक्त हो.  

2007 में उमा खुराना प्रकरण हुआ था. उसके बाद कुछ और घटनाएं सामने आईं जिससे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चिंता जगी. इसी चिंता के नतीजे में एनबीएसए का गठन हुआ था. अपने दायरे में रहते हुए एनबीएसए ने बेहतरीन काम भी किया लेकिन सीमित अधिकारों के चलते यह बहुत मुखरता से काम नहीं कर पाता. यह सोचना होगा कि इसे संवैधानिक दर्जा कैसे दिलाया जाए. ऐसा करते समय हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि यह प्रेस काउंसिल जैसी संस्था न बन जाए. ऐसा नहीं है कि हमारे सामने मॉडल नहीं है. बीबीसी को ही लीजिए. यह एक ऑटोनॉमस बॉडी है. लेकिन सारा राजस्व सरकार देती है इसके बावजूद बीबीसी पूरी तरह से स्वायत्त बनी हुई है. तो इस तरह के कुछ मॉडलों पर हमें विचार करना होगा. यह समय की जरूरत है.
(अतुल चौरसिया से बातचीत पर आधारित)