सेना बिन सेनापति

जब पार्टी का नाम शिवसेना रखा गया शायद तभी स्पष्ट हो गया था कि आने वाले समय में उसका चाल-चरित्र और चेहरा कैसा होगा, और यह भी कि इसे कौन तय करने वाला है. हर साल की तरह इस बार भी दशहरे के मौके पर शिवसैनिक शिवाजी पार्क में होने वाले उस कार्यक्रम का इंतजार कर रहे थे जिसमें अपने सेनापति की दहाड़ सुनने के बाद उनके सारे संशय मिट जाते थे, यह स्पष्ट हो जाता था कि उन्हें आगे क्या करना है. शिवसैनिक, जिनके लिए बाल ठाकरे के मुंह से निकली एक-एक बात देश के संविधान और कानून से भी ऊपर थी, जिनके लिए ठाकरे ही सत्ता और सम्मान के एकमात्र केंद्र थे, उन्हें उस वक्त घोर आश्चर्य और निराशा हुई जब इस बार दशहरे की रैली में ठाकरे नहीं आए.

कारण बताया गया कि बाला साहब की तबीयत ठीक नहीं है. मगर उन्होंने शिवसैनिकों के लिए वहां अपना संदेश भिजवाया था. पार्क में एक बड़ी स्क्रीन पर ठाकरे का वह वीडियो संदेश प्रसारित किया गया. उस संदेश में जो बाल ठाकरे शिवसैनिकों के सामने मौजूद थे वे उस व्यक्ति से बिल्कुल अलग थे जिसे शिवसैनिक पिछले कई दशकों से देखते और सुनते आए थे. वीडियो में ठाकरे न सिर्फ बेहद कमजोर और थके हुए दिखाई दे रहे थे बल्कि अपने संदेश में शिवसैनिकों को संबोधित करते हुए उन्होंने जो बातें कहीं उनका मोटा अर्थ यह था कि वे अब अपनी जीवन यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके हैं और आगे उनका साथ नहीं रहेगा. अपने वीडियो संदेश में ठाकरे ने अपने बेटे और पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव तथा अपने पोते आदित्य का साथ देने की अपील नहीं बल्कि याचना की. आदेश देने वाले बालासाहब ठाकरे को हाथ जोड़े देखना शिवसैनिकों के लिए चौंकाने वाला था.

आज बाल ठाकरे दुनिया में नहीं हैं. 17 नवंबर को हुए उनके निधन के बाद जैसे-जैसे समय गुजर रहा है, मुंबई, महाराष्ट्र और कुछ हद तक देश के सामाजिक-राजनीतिक गलियारों में ठाकरे के निधन के बाद बनने वाले शून्य एवं प्रभावों की चर्चा गर्म होती जा रही है.

सेनापति बिना सेना का भविष्य
बालासाहब ठाकरे की मृत्यु के बाद जो सबसे बड़ा सवाल चर्चा में है वह यह कि शिवसेना का भविष्य क्या रहने वाला है. पिछले चार दशक से सेना की कमान पूरी तरह से उसे जन्म देने वाले बाल ठाकरे के हाथों में ही रही है. उन्होंने पूरी पार्टी को अपनी व्यक्तिगत सेना के तौर पर चलाया जहां वे आदेश देते और शिवसैनिक उसका किसी भी हद तक जाकर पालन करते. खुद को सत्ता का रिमोट कंट्रोल मानने वाले ठाकरे शिवसेना के पर्याय थे. पार्टी में न कोई चर्चा होती न कोई बहस. पार्टी के अंदर न कोई चुनाव होता और न ही किसी को असहमति जताने का अधिकार था. जो असहमति जताता, पार्टी में नहीं रहता.

बिना किसी संविधान, घोषित कार्यक्रम या नीति वाली उस पार्टी को बाल ठाकरे ने अपने जुबानी आदेशों से चलाया. शिवसेना शायद भारत की एकमात्र ऐसी पार्टी थी जो लंबे समय तक चुनावों में बिना किसी मेनिफेस्टो के जाती थी क्योंकि ठाकरे को घोषणापत्र झूठ के पुलंदे से अधिक कुछ नहीं लगते थे.

क्या जानकार और क्या आम लोग, सभी इस बात को एक सिरे से स्वीकार करते हैं कि शिवसेना के प्रति जो भी आज तक समर्थन रहा है वह पार्टी को नहीं बल्कि बालासाहब ठाकरे के लिए रहा है. ऐसे में सवाल यह है कि ठाकरे के जाने के बाद शिवसेना का भविष्य क्या होगा. पार्टी में कोई ऐसा नेता नहीं है जो बाल ठाकरे के कद के इर्द-गिर्द भी पहुंच सकता हो. न किसी का लोगों पर उस तरह का प्रभाव है और न ही आम जनता बाल ठाकरे की तरह किसी और शिवसैनिक की दीवानी है. राजनीतिक विश्लेषक सुरेंद्र जोंधाले कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे को राजनीति में आए एक लंबा समय हो गया है लेकिन अभी भी वे उस मराठी मानुष से संपर्क स्थापित नहीं कर पाए हैं जिसकी राजनीति उनके पिता ने जीवन भर की.’

ऐसा माना जा रहा है कि सीनियर ठाकरे के नेतृत्व का अभाव शिवसेना के लिए घातक साबित होने जा रहा है. जिस आक्रामक नेतृत्व की आदत शिवसैनिकों को है, उसके अभाव में यह संभव है कि बड़ी संख्या में शिवसैनिक शिवसेना छोड़कर राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण की तरफ रुख कर लें. चूंकि राज अपने पूरे व्यक्तित्व, व्यवहार और हाव-भाव में अपने चाचा बाल ठाकरे के काफी निकट हैं, ऐसे में संभव है कि शिवसैनिक राज के साथ हो लें. जानकारों का ऐसा मानना है कि जब पहले छगन भुजबल, नारायण राणे, संजय निरुपम जैसे शिवसैनिक बाला साहब के नेतृत्व के बावजूद शिवसेना छोड़कर बाहर चले गए तो फिर अब तो बाल ठाकरे भी नहीं हैं. हालांकि पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्य सभा सांसद अनिल देसाई सुरेंद्र की बातों से इत्तिफाक नहीं रखते, ‘उद्धव ठाकरे जी बालासाहब ठाकरे जी के नेतृत्व में सन 95 से काम कर रहे हैं. उनके नेतृत्व में पार्टी ने मुंबई नगरपालिका का चुनाव लगातार चौथी बार जीता है. ऐसे में उनकी क्षमता पर प्रश्न नहीं खड़ा किया जा सकता है.’ वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकर बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद शिवसेना पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में कहते हैं, ‘देखिए जिस पार्टी का जन्म ही लोकप्रियता पर हुआ है वह पार्टी अपने करिश्माई नेता के बिना बहुत लंबे समय तक जिंदा नहीं रह सकती.’

क्या राज और उद्धव एक साथ आएंगे
2006 में शिवसेना से अलग होकर बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाई. लंबे समय तक दोनों दलों ने एक-दूसरे के प्रति अपनी नफरत दिखाने में कोई कमी नहीं की. उद्धव और राज के बीच चलने वाले जुबानी हमलों के साथ ही दोनों सेनाओं के कार्यकर्ता एक-दूसरे से सड़क पर दो-दो हाथ करने से भी नहीं चूके. लेकिन इस पूरे मामले में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राज ने कभी अपने चाचा बाल ठाकरे के बारे में कोई अपशब्द नहीं कहा. हालांकि उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु बाला साहेब तथा चचेरे भाई उद्धव से लंबे समय तक दूरी बनाए रखी. कुछ महीने पहले जब उद्धव ठाकरे की तबीयत खराब हुई और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया उस समय बाल ठाकरे ने एक बहुत लंबे अंतराल के बाद राज को फोन किया था. राज के लिए बाल ठाकरे का वह फोन बेहद चौंकाने वाला था. आनन-फानन में वे लीलावती अस्पताल पहुंचे. जब अस्पताल से उद्धव को छुट्टी दी गई तब एक-दूसरे पर जुबानी तेजाब फेंकने वाले राज-उद्धव को एक साथ देखकर लोगों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. जुलाई में हुई इस घटना के बाद राज  पिछले महीनों में कई बार मातोश्री गए. बाल ठाकरे और उद्धव से कई बार मुलाकात की. बाल ठाकरे ने पूर्व में कई बार यह इच्छा व्यक्त की कि राज को वापस अपने घर अर्थात शिवसेना में आ जाना चाहिए. अब उनके निधन के बाद और पिछले कुछ महीनों में राज-उद्धव के बीच पिघलती बर्फ के कारण यह संभावना जताई जा रही है कि भविष्य में दोनों भाई फिर से एक साथ आ जाएंगे.

वहीं दूसरी तरफ जानकारों का एक वर्ग मानता है कि राज को लेकर बालासाहब के मन में एकाएक  ‘उमड़ा प्रेम’ स्वाभाविक नहीं वरन विकल्पहीनता की उपज था. ठाकरे पिछले कुछ समय से उद्धव की खराब तबीयत के कारण काफी चिंतित रहे. उद्धव की सेहत के कारण उन्हें धीरे-धीरे यह महसूस होने लगा कि शायद भविष्य में उद्धव की स्थिति ऐसी न रहे कि वे पार्टी को नेतृत्व दे पाएं. ऐसे में दूसरा उत्तराधिकारी ढूंढ़ना जरूरी है. उद्धव नहीं तो फिर कौन? इस सवाल के साथ जब बाल ठाकरे ने अपनी नजर दौड़ाई तो ठाकरे परिवार के जिस दूसरे व्यक्ति की तरफ उनकी नजर गई उसकी उम्र केवल 23 साल की थी – रिश्ते में उनका पोता आदित्य ठाकरे. आदित्य ठाकरे जिसे कविता और कहानियों का शौक है और जिसे उद्धव इस हिसाब से तैयार कर रहे थे कि वे आगे जाकर राज ठाकरे की काट बनने के साथ ही युवाओं को पार्टी से जोड़ सकेंगे. लेकिन 23 वर्षीय आदित्य की उम्र इतनी नहीं थी कि उसके ऊपर पार्टी की जिम्मेदारी डाली जा सके. ऐसे में बाल ठाकरे को शायद इस बात का अहसास था कि शिवसेना और अपनी पारिवारिक विरासत को अगर आगे बढ़ाना है तो आखिरी विकल्प राज ठाकरे ही हैं.

शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे अपने बेटे उद्धव ठाकरे और भतीजे राज ठाकरे के साथ

स्वास्थ्य खराब होने के अलावा एक और बड़ा कारण था जिसकी वजह से बाल ठाकरे उद्धव को लेकर चिंतित थे. 2004 में बाल ठाकरे ने सभी को चौंकाते हुए अपने छोटे भाई श्रीकांत ठाकरे के बेटे राज ठाकरे की जगह उद्धव को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया. उस वक्त उन्हें उम्मीद थी कि उद्धव न सिर्फ पार्टी की पूरी जिम्मेदारी अच्छी तरह संभाल लेंगे बल्कि उनके अंदर धीरे-धीरे वह स्टाइल और करिश्मा भी आ जाएगा जो उनके अंदर है और जिसे लोगों ने खूब सराहा है. उन्हें उम्मीद थी कि लोग उद्धव को भी उसी गंभीरता से लेने लगेंगे जैसे उन्हें लेते रहे हैं. उन्हें उम्मीद थी कि वे उद्धव को दूसरा बाल ठाकरे बना देंगे. इसके बाद राज ने शिवसेना छोड़ दी. उस वक्त चौतरफा हुई अपनी आलोचना पर सामना में छपे एक साक्षात्कार में बाल ठाकरे का कहना था, ‘मैं काला चश्मा जरूर पहनता हूं लेकिन मैं धृतराष्ट्र नहीं हूं. मैंने और उद्धव ने उसकी हर बात मानी है. वो फिर भी क्यों चला गया मैं नहीं जानता.’

खैर, राज की जगह उद्धव को तरजीह देने का निर्णय सही साबित नहीं हुआ. बाल ठाकरे की लाख कोशिशों के बाद भी उद्धव अपने पिता जैसे नहीं बन पाए. उद्धव का व्यवहार, उनका व्यक्तित्व अपने आक्रामक पिता से बिल्कुल अलग रहा है. धीरे-धीरे बाल ठाकरे को भी यह समझ में आने लगा कि जिस तरह की उनकी पार्टी है, उसके जो वोटर और समर्थक और उनकी अपेक्षाएं हैं उनके मुताबिक बन पाना उद्धव के लिए संभव नहीं है.
अब बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद शिवसेना के तमाम खैरख्वाहों और राजनीतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि यदि उसे महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी जगह बना कर रखनी है तो उसके पास फिलहाल एक ही विकल्प है – राज और उद्धव के बीच सुलह और जुड़ाव. भाजपा के वरिष्ठ नेता गोपीनाथ मुंडे कहते हैं, ‘मैं चाहता हूं कि राज और उद्धव एक साथ आएं. बालासाहब के सपने को पूरा करना उन दोनों ही की जिम्मेदारी है. महाराष्ट्र को संभालना दोनों की जिम्मेदारी है. स्वेता पारुलेकर, जो कभी राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना में थीं और आज शिवसेना के मुखर नेताओं में से एक हैं, मुंडे की बात का समर्थन करते हुए कहती हैं कि व्यापक हित में दोनों भाइयों को साथ आ जाना चाहिए.

इस दिशा में पारिवारिक स्तर पर शुरुआत भी हो चुकी है. शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के साले और राज-उद्धव के मामा चंद्रकांत वैद्य ने दोनों को फिर से मिलाने की कोशिश शुरू कर दी है. बाल ठाकरे के अंतिम संस्कार के बाद मिड डे अखबार से बातचीत में 66 वर्षीय चंद्रकांत वैद्य का कहना था, ‘मैं दोनों भाइयों को फिर से मिलाने की पूरी कोशिश करूंगा. मराठी मानुष की खातिर दोनों भाइयों को फिर से एक साथ आना ही होगा. मैंने साहेब से वादा किया है.’

चंद्रकांत वैद्य भले ही साहेब से किए गए अपने वादे के तहत दोनों भाइयों को साथ लाने में जुटे हुए हैं लेकिन सूत्रों की मानें तो निकट भविष्य में दोनों भाइयों के पूरी तरह से एक होने की संभावनाएं लगभग नहीं के बराबर हैं.
शिवसेना की जीवनी ‘द सेना स्टोरी’ लिखने वाले वैभव पुरंदरे, राज और शिव-सेना के बीच मेल-मिलाप के तीन तरह के स्वरूपों की बात करते हैं. पहला- राज और उद्धव में चुनाव पूर्व गठबंधन. दूसरा- चुनाव के बाद होने वाला गठबंधन, जहां कई सीटों पर फ्रेंडली फाइट होगी और एक दल उस जगह पर अपना उम्मीदवार नहीं उतारेगा जहां दूसरे का प्रत्याशी मजबूत है. तीसरा- दोनों भाई एक हो जाएं. मगर वैभव यह भी मानते हैं कि तीसरे की संभावना सबसे कम है. सांसद और शिवसेना के वरिष्ठ नेता अनंत कहते हैं, ‘अभी इस विषय पर बात करने का वक्त नहीं आया है. हमने इस बारे में अभी कुछ नहीं सोचा है.’ हालांकि वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि राज और उद्धव के बीच अब पहले जैसी कड़वाहट नहीं रही.

मगर राज और उद्धव ठाकरे के एक होने में आखिर इतनी मुश्किलें क्यों हैं? दरअसल राज ठाकरे को पता है कि इस समय उनको शिवसेना की जरूरत नहीं है बल्कि शिवसेना को उनकी जरूरत है. 2006 में शिवसेना से अलग होकर अपनी पार्टी बनाने के बाद राज ने महाराष्ट्र की राजनीति में एक अच्छी शुरुआत की है. बड़ी संख्या में शिवसैनिक शिवसेना से टूटकर उनकी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) से जुड़े. पार्टी ने इतने समय में एक मजबूत ढांचा तैयार कर लिया है. दोनों भाइयों के मिलने में अड़चनें तो हैं ही, दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं के मिलने में भी हैं. सिर्फ दो ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से राज शिवसेना के साथ जुड़ सकते हैं. पहला यह कि उन्हें ऐसा लगे कि शिवसेना से जुड़कर देर-सवेर पार्टी की कमान उनके हाथ में आ सकती है और वे अपने चाचा बाल ठाकरे की तरह मराठी मानुष की राजनीति कर सकते हैं. उन्हें पता है कि जब तक शिवसेना से वे अलग हैं तब तक मराठी मतों का विभाजन दोनों दलों में हमेशा होता रहेगा. शिवसेना ब्रांड का अपना महत्व भी है. ऐसे में संभव है कि देर सवेर उस ब्रांड को हासिल करने और बाल ठाकरे के जाने के बाद ही सही उनका उत्तराधिकारी बनने का शायद एक ही तरीका है कि वे शिवसेना में शामिल हो जाएं और ऐसी परिस्थितियां निर्मित हों जिससे पार्टी की कमान उनके हाथ में आ जाए.
अगर वे चाह लें तो भी शिवसेना में शामिल होना केवल राज ठाकरे के हाथ में नहीं है. जाहिर-सी बात है कि उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और क्षमताओं को लेकर उद्धव को भी कोई संशय नहीं रहा होगा जिसके चलते राज ठाकरे की शिवसेना में सम्मानजनक वापसी की संभावना बेहद क्षीण है. और ऐसा न होने की स्थिति में राज के लिए शिवसेना में कुछ नहीं रखा है. जाहिर-सी बात है कि राज कभी भी उद्धव के नेतृत्व में काम करना पसंद नहीं करेंगे. ऐसे में एक और विकल्प यह भी है कि पार्टी में किसी दूसरे को यह न लगे कि उसका महत्व दूसरे से कम है. मगर ऐसी कोई व्यवस्था पार्टी में बना पाना और बनाए रखना बेहद चुनौतीपूर्ण और काफी हद तक असंभव कार्य है.

खैर, एक और संभावना है जिससे राज शिवसेना में शामिल हो जाएं. वह संभावना यह है कि जब परिवार के प्रति प्रेम की भावना राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर भारी पड़ जाए. हालाकि यह भी असंभव जैसा ही है. ऐसे में राज- उद्धव के साथ आने की संभावना लगभग नहीं के बराबर है. लेकिन किसी कारण से यदि ऐसा हो जाता है तो यह शिवसेना के लिए बेहद फायदेमंद होगा. सुरेंद्र कहते हैं, ‘देखिए, अगर दोनों भाई साथ आते हैं तो कम से कम एक चीज तो होगी ही कि शिवसेना अपना राजनीतिक विस्तार करने की सोच सकती है.’ जानकारों का मानना है कि अगर राज ठाकरे शिवसेना के साथ आ गए तो एक तरफ वे बाल ठाकरे के जाने से बना वैक्यूम भर देंगे, वहीं दूसरी तरफ मराठी मानुष की राजनीति का बंटवारा नहीं होगा और न ही शिवसेना के पारंपरिक वोटों का. 2009 के लोकसभा चुनावों में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन को कई सीटों पर एमएनएस के कारण ही हार का सामना करना पड़ा था. सिर्फ मुंबई, ठाणे और नासिक में ही गठबंधन को नौ लोकसभा सीटों पर हार का सामना करना पड़ा. पिछले विधानसभा चुनाव में मुंबई में जहां मनसे को 24 फीसदी वोट मिले थे वहीं शिवसेना को मात्र 18 फीसदी मिले. मुंबई जो शिवसेना का गढ़ रहा है वहां शिवसेना के चार विधायकों के मुकाबले मनसे के छह विधायक जीत कर आए. ऐसे में एक ही संभावना है जो शायद यथार्थ का रूप ले सकती ह,ै वह यह कि दोनों दल राजनीतिक गठबंधन कर लें. लेकिन यह कब होगा, कैसे होगा, होगा भी कि नहीं, इन प्रश्नों का जवाब शायद राज और उद्धव के पास भी नहीं होगा.

नफे-नुकसान का गणित
अगर राज और उद्धव में किसी तरह का सुलह-समझौता नहीं होता है तब क्या होगा? कुमार केतकर कहते हैं, ‘बाल ठाकरे के जाने के बाद शिवसेना को कमजोर होने से कोई नहीं बचा सकता. हां, कुछ लोग लगातार शिवसेना में बने रहेंगे और बाला साहब की छवि और नाम का प्रयोग करते हुए अपनी राजनीति जिंदा रखने की कोशिश करेंगे. वहीं कुछ राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की तरफ रुख कर लेंगे. बाकी एनसीपी से डील करते हुए नजर आएंगे. और कुछ गिनती के कांग्रेस की ओर भी जाते हुए दिखाई दे सकते हैं.’

जानकारों की राय में ठाकरे के निधन का अगर सबसे अधिक राजनीतिक लाभ किसी को मिलने वाला है तो वे राज ठाकरे हैं. उनके अलावा दूसरी पार्टी जिसे सबसे अधिक राजनीतिक लाभ मिलने की संभावना है वह शरद पवार की एनसीपी है जिसे लेकर कहा जा रहा है कि बड़ी संख्या में नेता और कार्यकर्ता एनसीपी से जुड़ सकते हैं. एनसीपी भी पूरे राज्य में अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए काफी आक्रामक तौर पर काम कर रही है. ऐसे में उसकी नजर शिवसेना के उन नेताओं (खासकर विधायक) पर है जो 2014 के लोकसभा और उसके बाद के विधानसभा चुनाव में उसे और मजबूत कर सकते हैं. ठाकरे की मृत्यु के बाद महाराष्ट्र के सारे बड़े अखबारों में बाला साहब को दिए गए पूरे पन्ने के श्रद्धांजलि वाले विज्ञापनों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है. राजनीति के इतिहास में यह पहली बार था जब एक राजनीतिक पार्टी ने दूसरी राजनीतिक पार्टी के किसी व्यक्ति के निधन पर इस तरह से अखबारों में विज्ञापन देकर शोक व्यक्त किया हो. सूत्र बताते हैं कि अखबार में विज्ञापन देने के पीछे मकसद था महाराष्ट्र और खासकर मुंबई के शिवसेना समर्थकों तक अपनी बात पहुंचाना. उन्हें यह अहसास दिलाना कि वे एक बड़े परिवार का हिस्सा हैं जिसमें एनसीपी भी शामिल है.  

भाजपा-शिवसेना संबंध

भाजपा और शिवसेना के संबंधों की बात करें तो भले ही यह बेहद पुराना हो लेकिन संबंधों का संतुलन हमेशा शिवसेना की तरफ ही झुका रहा. एक राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद भाजपा महाराष्ट्र में शिवसेना के जूनियर पार्टनर के तौर पर ही नजर आई. महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन बाल ठाकरे के इच्छानुसार ही चला. यहां तक कि शिवसेना सुप्रीमो ने पिछले दो राष्ट्रपति चुनावों में भाजपा को शर्मिंदा करने में

कोई कसर बाकी नहीं रखी. साथी वे भाजपा के थे लेकिन जब 2007 के राष्ट्रपति चुनावों में भैरोसिंह शेखावत राष्ट्रपति पद के लिए खड़े हुए तो शिवसेना ने उन्हें वोट देने के बजाय मराठी मानुष कार्ड खेलते हुए प्रतिभा पाटिल का साथ दिया. 2012 में जब भाजपा ने पीए संगमा को राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन दिया उस समय शिवसेना प्रणब मुखर्जी की काबिलियत की कायल हो गई.

खैर, ये सब इतिहास की बातें हैं. यहा राजनीतिक हिटलरगर्दी उस शख्स के बूते की बात थी जो शेर कहलाना और दिखना पसंद करता था. जिसे हिटलर पसंद था और जिसे लोकतंत्र के बजाय तानाशाही में राष्ट्र का सुनहरा भविष्य दिखता था. वह कद और तबीयत किसी और शिवसैनिक में नहीं है. ऐसे में यह तो कहा जा सकता है कि शिवसेना के आदेश देने के दिन अब लद गए. दूसरी तरफ ये भी खबरें आ रही हैं कि भाजपा राज ठाकरे को भी लुभाने में जुटी है. पार्टी को पता है कि बाल ठाकरे के जाने के बाद उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में भविष्य में कुछ करिश्मा करने की क्षमता अगर किसी में है तो वह राज ठाकरे ही है. राज ने भी अपनी तरफ से कदम बढ़ा दिया है. गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी की लगातार तारीफ और मोदी की सद्भावना यात्रा पर मोदी की तरफ से राज को मिले विशेष निमंत्रण को राजनीतिक गलियारों में भविष्य में साथ आने के एक मजबूत लक्षण के रूप में देखा जा रहा है.