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का प्रधानमंत्री इंदिरा मर गइली?

indira2014 लोकसभा चुनाव के दौरान पत्रकारों की एक टीम बनारस जिले के एक गांव में पहुंची. ये टीम बनारस संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आनेवाले गांवों में घूमकर चुनावी सर्वेक्षण का काम कर रही थी. उस टीम के पास प्रश्नों की एक पूरी सूची थी जिसके आधार पर वो गांव-गांव घूमकर लोगों से सवाल पूछते और फिर उनके जवाब नोट करते जाते.

उस गांव में पहुंचने के बाद टीम के लोगों ने बाकी जगहों की तरह ही गांववालों से सवाल पूछने का काम शुरू किया. इसी प्रक्रिया में टीम गांव की 80 साल की एक बुजुर्ग महिला से मिली. महिला से उन्होंने पहला सवाल पूछा- ‘क्या वो नरेंद्र मोदी को वोट देंगी?’ सवाल सुनकर 80 वर्षीय महिला चौंक गईं? उसने पलटकर सवाल दागा- ‘क्या मोदी?’ पत्रकार ने फिर अपना सवाल दुहराया- ‘हां मोदी. वो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. बनारस से लड़ रहे हैं. क्या आप मोदी को वोट देंगी?’ महिला इस बार पहले से ज्यादा चौंकते हुए बोली, ‘का कहत बाड़ बचवा. का प्रधानमंत्री इंदिरा मर गइली?’ महिला के इस सवाल के बाद पत्रकारों का सिर घूम गया. सिर घूमकर जब दोबारा अपनी जगह वापस आया तब उन्हें माजरा समझ आया. 80 वर्षीय उस बुजुर्ग महिला के लिए भारतीय राजनीति इंदिरा गांधी के टाइम मशीन में ही अटकी हुई थी. तब तक वह इसी भरोसे में थी कि देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ही हैं. यह घटना इंदिरा गांधी के राजनीतिक कद को स्थापित करने के साथ इस बात को भी रेखांकित करती है कि कैसे इंदिरा गांधी के बाद देश के राजनीतिक व्यक्तित्व के क्षेत्र में एक शून्य पैदा हुआ है. इससे यह भी पता चलता है कि कैसे सरकारें इतने सालों तक आम आदमी के जीवन से बिल्कुल दूर रही हैं. इस कहानी का एक राजनीतिक संदेश यह भी है कि इंदिरा गांधी के बाद कोई भी प्रधानमंत्री ऐसा नहीं हुआ जो लोगों के जेहन में अपनी जगह बना सके.

ये कहानी बस उस महिला की नहीं है. एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम ‘जायका इंडिया का’ के सिलसिले में विनोद दुआ असम गए हुए थे. वहां ब्रह्मपुत्र नदी के कछार में बसे कुछ गांवों में जाकर उन्होंने लोगों से बात की. दुआ ने वहां लोगों से देश के प्रधानमंत्री का नाम पूछा? कई लोगों ने ना में अपना सिर हिलाया. यानी लोगों को नहीं पता था कि जिस देश के वो नागरिक हैं उसका प्रधानमंत्री कौन है. लोगों ने दुआ को बताया कि उन तक सरकार की कोई योजना आज तक नहीं पहुंची है. ये घटना भी बताती है कि सरकार एक समाज या क्षेत्र के बीच से कैसे गायब है. लोगों तक न सरकार पहुंची है न उसकी योजनाएं. कहीं समय इंदिरा गांधी पर अटका हुआ है तो कहीं वो शुरु ही नहीं हुआ है.

इंदिरा गांधी के पुत्र हैं अमिताभ बच्चन

amitabhनेहरू-गांधी परिवार के साथ जुड़ी अनगिनत गल्प कथाओं में एक किस्सा यह भी है कि अमिताभ बच्चन इंदिरा गांधी के पुत्र थे. अब जबकि इंदिरा की मौत के तीन दशक बीत चुके हैं और खुद महानायक अमिताभ बच्चन भी उम्र के सातवें दशक में हैं, लोग चटखारे लेकर इस किस्से को बयान करते हैं. अमिताभ को इंदिरा का पुत्र बताने के लिए कई तर्क दिए जाते हैं. अक्सर सुनाई जानेवाली एक कहानी तो यही है कि अमिताभ को फिल्मों में काम देने के लिए इंदिरा ने सिफारिशी चिट्ठी लिखी थी. दूसरा कि कुली के सेट पर घायल होने के बाद इंदिरा ने ब्रीच कैंडी अस्पताल के डॉक्टरों और प्रशासन को खास हिदायत दी थी. साथ ही अगले दिन विदेश से आए कुछ डॉक्टरों की टीम ने अमिताभ का इलाज किया था. इतना ही नहीं इंदिरा की आखिरी यात्रा के दौरान अमिताभ फूट-फूटकर रो रहे थे और लगातार उनके शव के पास ऐसे खड़े रहे जैसे कोई पुत्र अपनी मां को आखिरी विदाई दे रहा हो. इन सभी बातों में सच्चाई है, लेकिन ये बातें कहीं से अमिताभ को इंदिरा का पुत्र साबित नहीं कर सकती.


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हकीकत यह है कि अमिताभ के पिता हरिवंशराय बच्चन के अच्छे संबंध जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी से थे. इंदिरा की दोस्ती अमिताभ की मां तेजी बच्चन से भी थी. इन दोनों परिवारों का संबंध इलाहाबाद से जुड़ा हुआ था. परिवारों का एक दूसरे के घर आना-जाना था. इस पारिवारिक दोस्ती के नाते इंदिरा गांधी, अमिताभ बच्चन से बेटे की तरह स्नेह करती थीं. खुद राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन के बीच गहरी दोस्ती थी. दोनों की पढ़ाई तक एक ही स्कूल में हुई थी. प्रियंका गांधी की शादी में अमिताभ बच्चन मेहमानों का स्वागत करने के लिए खड़े थे. लंबे समय की इसी पारिवारिक दोस्ती को ध्यान में रखकर इंदिरा ने सुनील दत्त को अमिताभ के लिए सिफारिशी चिट्ठी लिखी थी और उन्होंने रेशमा और शेरा में अमिताभ को रोल दिया.

पारिवारिक दोस्त के बेटे के लिए सिफारिशी चिट्ठी लिखना या बीमार होने पर ध्यान रखने की ताकीद करना एक सामान्य बात है. यह लंबे समय की दोस्ती से उपजे स्नेह और सामान्य शिष्टाचार का सबब है कि मुश्किल वक्त में एक-दूसरे के साथ खड़े हों. फिलहाल गांधी-बच्चन परिवार के बीच रिश्तों की वह गहराई खत्म हो चुकी है.

काबा में शिवलिंग

dfgकाबा में शिवलिंग! यह कहानी भी गांव-गुरबे में इतने भरोसे के साथ कही-सुनी जाती है मानो किस्सागो खुद काबा में गंगाजल और बेलपत्र चढ़ाकर आया हो. अगर आपके सामने कोई किस्सागो यह कहानी लेकर न आया हो तो एक बार फिर से पीएन ओक साहब की किताबों को पढ़े. वहां भी यही बात साबित करने की कोशिश है. मुसलमानों के पवित्र स्थल काबा की मस्जिद में मौजूद विशाल काला पत्थर शिवलिंग है. यह कहानी कहनेवाले ये बातें इतने पुरयकीन अंदाज में बताते हैं मानो उनके पुरखे पूरा जीवन काबा में ही बिताकर लौटे हों. इस कहानी में यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि पुराने समय में जब यूनान और पश्चिम एशिया में हिंदू रहते थे और वहां मूर्ति पूजा का प्रचलन था तभी काबा में शिवलिंग की स्थापना की गई थी. काबा के पूर्वी कोने में जड़ा गया शिवलिंग और उसकी पूजा का सिलसिला दोनों इस्लाम की पैदाइश से बहुत पुराने हैं. इन कहानीकारों की मानें तो पैगंबर मोहम्मद साहब ने जिन लोगों को परास्तकर इस्लाम की स्थापना की वे और कोई नहीं बल्कि हिंदू ही थे. पैगंबर ने उनको पराजित करके मूर्ति पूजा तो बंद करवा दी लेकिन भगवान शिव की ताकत से वह भी बखूबी परिचित थे इसलिए बकायदा शिवलिंग की पूजा खुद भी की और बाकी मुसलमानों से भी करवाई. अपनी बात के समर्थन में कहानीकार यह तर्क भी देता है कि जिस तरह हिंदू समाज के लोग पूजा के दौरान केवल धोती पहनते हैं उसी तरह हज के दौरान मक्का जानेवाले भी बिना सिला हुआ सफेद वस्त्र पहनते हैं. यानी शिवलिंग की पूजा मुसलमान भी करते हैं.


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इस्लामी मान्यता के मुताबिक इस पत्थर को काबा की पूर्वी दीवार में पैगंबर हजरत मोहम्मद ने 605 ईस्वी में जड़ा था. बीते सालों के दौरान यह कई टुकड़ों में विभाजित हो गया है और उनको एक साथ रखने के लिए बाहर से चांदी का आवरण लगाया गया है. इतिहासकारों के मुताबिक इस्लाम के आगमन से पूर्व काबा में करीब 360 ऐसी चीजें थीं जिनकी इबादत की जाती थी. ये वस्तुएं साल के प्रत्येक दिन का उदाहरण थीं. इन्हीं में से एक काले पत्थर को पैगंबर हजरत मोहम्मद ने काबा में स्थापित किया था और उसे इस तरह की ख्याति हासिल हो गई.

‘गांधी चाहते तो भगत सिंह को फांसी नहीं होती’

bhagat_singhदेश की बहुत बड़ी आबादी खासकर नौजवानों के मन में गांधी बनाम भगत सिंह के शीर्षक से कई काल्पनिक कहानियां रची-बसी हैं. इनसे उपजनेवाला अंतिम सवाल अक्सर ये होता है कि आखिर गांधी ने भगत सिंह और उनके साथियों की रिहाई के लिए कुछ क्यों नहीं किया? इसके बाद तर्कों और तथ्यों की तरफ पीठ करके गांधी के व्यक्तित्व के तमाम पहलुओं का पोस्टमार्टम शुरू हो जाता है, कोई कहता है कि गांधी स्वार्थी थे और अपनी शोहरत चाहते थे? कोई कहता है कि गांधी की वजह से भारत का विभाजन हुआ. लोक में गांधी की तमाम स्वीकार्यता के बावजूद लंबे समय तक देश के वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों उनसे समान रूप से दूर रहे. यह जुमला भगत सिंह की मौत के बाद से आज तक उछाला जा रहा है कि महात्मा गांधी, भगत सिंह की लोकप्रियता से बहुत जलते थे. उनको लगता था कि भगत सिंह का क्रांति दर्शन लोगों को उनकी अहिंसा के मुकाबले अधिक भाता है और यही वजह है कि गांधी ने भगत सिंह की रिहाई में कोई रुचि नहीं ली. यह भी कि गांधी के साथ वैचारिक टकराव की कीमत भगत सिंह और उनके साथियों को अपनी जान देकर गंवानी पड़ी. विडंबना तो यह है कि ऐसी बातें केवल गांव की चौपालों का हिस्सा नहीं हैं बल्कि कई प्रतिष्ठित विद्वानों ने भी इस विषय पर तमाम कागज काले किए हैं.


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सच्चाई यह है कि गांधी ने भगत सिंह और उनके साथियों की रिहाई के लिए अपनी सीमा के भीतर हर संभव प्रयास किया. इस मुद्दे पर गांधी की आलोचना करनेवाले यह भूल जाते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों की जान बचने का सबसे अधिक फायदा उनको ही मिलता. गांधीजी को अच्छी तरह पता था कि भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी होने पर देश के युवा खासतौर पर कांग्रेस के युवा बहुत नाराज होंगे और हुआ भी यही. गांधीजी का अहिंसा में दृढ़ विश्वास था और यह बात किसी से छिपी नहीं है. भगत सिंह के मामले में उनके रुख को भी इसी नजरिये से देखना होगा. वह आजादी की लड़ाई में हिंसा का रास्ता अपनाने वालों को भ्रमित मानते थे. दिल्ली में एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने कहा था कि वह हर तरह की हिंसा के खिलाफ हैं फिर चाहे वह सरकार की हिंसा ही क्यों न हो. उन्होंने इसी आधार पर भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी का भी विरोध किया था. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी के तीन दिन बाद कांग्रेस के कराची सत्र में उन्होंने कहा, ‘आपको जानना चाहिए कि मैं हत्यारों तक को सजा देने के खिलाफ हूं. यह शंका निराधार है कि मैं भगत सिंह को बचाना नहीं चाहता था लेकिन मैं उनकी गलतियों से भी आपको अवगत कराना चाहता हूं. उनका रास्ता गलत था.’

यह बात भी गलत है कि भगत सिंह के मामले में गांधीजी ने फांसी के कुछ दिन पहले ही सक्रियता दिखाई. गांधी ने 4 मई 1930 को ही वायसराय को खत लिखकर इस बात पर नाराजगी जताई थी. इसके बाद लाहौर षडयंत्र मामले की सुनवाई के लिए अलग पंचाट बनाया गया. 31 जनवरी 1931 को उन्होंने इलाहाबाद में कहा कि भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी नहीं दी जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि उन्हें फांसी तो क्या जेल तक में नहीं रखा जाना चाहिए.

गांधी और इर्विन के बीच फरवरी-मार्च 1931 में हुई वार्ता के दौरान गांधीजी पर बहुत दबाव था कि वह बातचीत के लिए भगत सिंह की रिहाई को शर्त बनाएं लेकिन गांधी ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने वायसराय के साथ बातचीत में यह जरूर कहा कि अगर आप माहौल को और अधिक अनुकूल बनाना चाहते हैं तो आपको भगत सिंह की फांसी रोक देनी चाहिए. एक हकीकत यह भी है कि तत्कालीन कानूनों के मुताबिक एक बार प्रिवी काउंसिल का निर्णय आ जाने के बाद खुद वायसराय भी सजा को कम नहीं करवा सकते थे.

ताज महल या तेजोमहालया

tajmahalबहुत हद तक संभव है कि आप सबने यह कहानी सुनी हो. कहानी यह कि ताजमहल दरअसल भगवान शिव का मंदिर है और उसका नाम अतीत में तेजोमहालया था. अगर आप आगरा गए होंगे तो इस बात से इत्तफाक रखेंगे कि आगरे के रिक्शेवालों और तांगेवालों से बड़ा किस्सागो शायद ही कोई हो. आपके बैठने की देर है कि वे आपको मुगलिया हरम और शाही परिवार के किस्से ऐसे सुनाना शुरू करते हैं मानो उनकी पैदाइश उसी दौर की है और वे टाइम मशीन में बैठकर इधर टहलने आए हैं. अक्सर उनकी बातचीत का एक सिरा इस बात पर जाकर खुलता है कि ताजमहल दरअसल मुगल बादशाह शाहजहां और उनकी बेगम मुमताज महल का मकबरा नहीं बल्कि भगवान शिव का मंदिर है और उसका असली नाम तेजोमहालया था.

इस बात को आप कोरी गप्प मानकर खारिज कर सकते हैं लेकिन जिंदगी में हैरानियां इतनी जल्दी खत्म नहीं होती हैं. हिंदूवादी इतिहासकार पीएन ओक ने तो बकायदा इस पर एक किताब ही लिख मारी है. ओक साहब कहते हैं कि मुस्लिम शासक अपने समय में राजघराने के मृतकों को दफनाने के लिए हिंदुओं से हथियाए गए मंदिरों तथा अन्य भवनों का इस्तेमाल करते थे. ताजमहल के तेजोमहालया होने की दलील देते हुए वह कहते हैं कि दुनिया के किसी भी मुस्लिम देश में भवन के लिए महल शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जाता. वह खारिज करते हैं कि यह नाम मुमताज महल के नाम से लिया गया है. क्योंकि अगर शाहजहां को अपनी पत्नी के नाम पर इमारत बनवानी होती तो वह उसके पूरे नाम यानी मुमताज महल का इस्तेमाल करते न कि आधा अधूरा. पीएन ओक का कहना है कि ताजमहल दरअसल तेजोमहालया का अपभ्रंश है. शिवमंदिर से एक और तुलना करते हुए वह कहते हैं कि ताजमहल में दोनों कब्रों के ऊपर निरंतर पानी की बूंदे टपकने की व्यवस्था की गई जो कि दुनिया के तमाम शिवालयों में देखी जा सकती है जहां शिवलिंग पर कलश से जल की बूंदें गिरती हैं.


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इतिहास का ज्ञान रखनेवाला हर विद्यार्थी जानता है कि ताजमहल का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां ने अपनी प्रिय पत्नी मुमताज महल के नाम पर करवाया था. सन् 1631 से 1653 के बीच 22 सालों की अवधि में बनी इस इमारत में शाहजहां और मुमताज की कब्रें दफन हैं. इस इमारत की प्रेरणा दिल्ली स्थित हुमायूं का मकबरा है. ताजमहल काफी हद तक उसकी अनुकृति लगता है. ताजमहल परिसर में मौजूद बागे बहिश्त शैली में बने चारबाग भी इसके मुगल वास्तु की गवाही देते हैं. इसका वास्तु उस्ताद अहमद लाहौरी ने तैयार किया था. करीब 20,000 मजदूर 22 सालों तक दिन रात इसे बनाने में लगे रहे. देश की सर्वोच्च अदालत सन् 2000 में ही पीएन ओक की स्थापना को खारिज कर चुकी है.

महात्मा गांधी ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलाए

कमोबेस भारत का हर नागरिक क्रिकेट और राजनीति का महारथी होता है. उसी तरह हमारे यहां लगभग हर व्यक्ति महात्मा गांधी के बारे में कोई न कोई राय जरूर रखता है, फिर चाहे वह अच्छी हो या बुरी. गांधी अक्सर लोगों के बीच बहस का विषय भी बनते हैं और बहस में जब गांधी विरोधी परास्त होने लगते हैं तब अक्सर ही वह कहानी सामने आती है जिसके सहारे उनके विरोधी गांधी वध को जायज ठहराने की हद तक चले जाते हैं. कहानी यूं है- ‘गांधी ने भारत सरकार को ब्लैकमेल करके पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलवाए थे.’ महात्मा गांधी द्वारा पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलवाने की बात सुर्खियों में तब आई जब गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे ने अदालत में अपने बयान में गांधी की हत्या की वजहें गिनवाते हुए इन रुपयों का भी जिक्र किया. गांधी विरोधियों का कहना है कि कश्मीर में पाकिस्तान की तमाम आक्रामक गतिविधियों और घुसपैठ के बावजूद गांधी ने अनशन करके भारत सरकार पर यह दबाव बनाया कि वह पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये की आर्थिक मदद दे. मिर्चमसाले के तौर पर कहानी में यह भी जोड़ा जाता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल कतई नहीं चाहते थे कि पाकिस्तान को यह मदद दी जाए लेकिन महात्मा गांधी ने उपवास करके ये 55 करोड़ रुपये पाकिस्तान को देने को मजबूर कर दिया.


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यह सच है कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये की राशि दी गई थी लेकिन मदद का प्रचार एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया है जो कि मिथ्या है. पाकिस्तान को दी गई मदद खैरात नहीं थी बल्कि भारत-पाक के विभाजन की शर्तों के मुताबिक परिसंपत्तियों और देनदारियों का जो बंटवारा हुआ था उसके तहत यह राशि भारत द्वारा पाकिस्तान को सौंपी जानी थी. वास्तव में पाकिस्तान को 75 करोड़ रुपये दिए जाने थे. 20 करोड़ रुपये की पहली किस्त पाकिस्तान को जारी की जा चुकी थी जबकि 55 करोड़ रुपये देने बाकी थे. इसी बीच कश्मीर पर पाकिस्तानी हमले की वजह से भारत ने 55 करोड़ की शेष राशि का भुगतान रोक दिया था. इस पर तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने महात्मा गांधी से मुलाकात की और कहा कि यह पाकिस्तान के साथ हुई संधि का उल्लंघन होगा. उसूलों के पक्के गांधीजी को उनकी बात जंची सो उन्होंने सार्वजनिक वक्तव्य देकर कहा कि पाकिस्तान को उसका बकाया पैसा दे दिया जाना चाहिए. यह बात निराधार है कि गांधीजी ने यह पैसा दिलवाने के लिए उपवास किया. गांधीजी विभाजन के बाद शांति बहाली की अपील करने पाकिस्तान भी जाना चाहते थे लेकिन उसके पहले वे पाकिस्तान को उसका पूरा हक दिलवाना चाहते थे.

सरदार पटेल प्रधानमंत्री बनते तो भारत हिंदू राष्ट्र बन जाता

sardar_patelयह कथा बनारस के अस्सी घाट पर बातचीत में तल्लीन दो पुलिसकर्मियों के बीच से निकल कर आई. इस कहानी में दो खलनायक और एक बेचारा रूपी नायक है जो प्रधानमंत्री बनने से रह गया. दोनों पुलिस बंधुओं के बीच कथा कुछ ऐसे आगे बढ़ी की आजादी के समय पूरा देश और पूरी कांग्रेस पार्टी मिलकर सरदार बल्लभ भाई पटेल को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी. सरदार पटेल बहुत ही निडर, जीवटवाले और इरादों के पक्के नेता थे. वे न होते तो जितना भारत आज बचा हुआ है वो भी नहीं बच पाता. जवाहरलाल नेहरू तो प्रधानमंत्री बनने के लालच में थे. उनका बस चलता तो इस देश के कई और टुकड़े हो जाते. वो तो सरदार पटेल अड़ गए अपनी बात पर कि पाकिस्तान के अलावा दूसरा हिस्सा नहीं मिलेगा मुसलमानों को. पाकिस्तान मुसलमानों का देश बनेता तो भारत हिंदूराष्ट्र बनेगा. पटेलजी की इस बात पर पूरी कांग्रेस पार्टी उनके साथ हो गई और उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाने पर एकराय हो गई थी. तब जवाहरलाल नेहरू ने गहरी चाल चली. वे गांधीजी को अपने वश में रखते थे. गांधीजी के साथ मिलकर उन्होंने खुद को प्रधानमंत्री घोषित करवा लिया. महात्मा गांधी का कद बहुत बड़ा था, उनकी बात कोई नहीं टालता था. इसी का फायदा नेहरू ने उठाया. भारत हिंदूराष्ट्र भी नहीं बन पाया और आज देखिए पाकिस्तान जब मन करता है आंख दिखाने लगता है. भारत का सारा गुड़गोबर नेहरूजी के प्रधानमंत्री पद की लालच की वजह से हुआ.


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यह सच है कि आजादी के समय गांधीजी के बाद नेहरू और पटेल सबसे कद्दावर नेता थे. दोनों के बीच में कई विषयों को लेकर टकराव भी रहते थे. लेकिन कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि कांग्रेस पार्टी ने पटेलजी को प्रधानमंत्री पद के लिए नामित किया हो. न ही कभी पटेल भारत को हिंदूराष्ट्र बनाने का सपना देखते थे. एक बार को यह मानकर चीजों को परखें कि पटेल अगर प्रधानमंत्री बनते तो भारत का चेहरा अलग होता तब भी यही बात साबित होती है कि कमोबेश जैसा भारत आज है वैसा ही रहता. इसकी वजह ये है कि 15 दिसंबर 1950 को सरदार पटेल की स्वाभाविक मृत्यु हो गई. यानी स्वतंत्र भारत का पहला लोकतांत्रिक चुनाव होने से पहले ही पटेल का देहांत हो चुका था. उनकी अनुपस्थिति में दूसरे सबसे बड़े कद के नेता एक बार फिर से जवाहरलाल नेहरू ही सामने आते. और जितने लंबे समय तक नेहरू देश के प्रधानमंत्री रहे उसे देखते हुए एक दो साल कम या ज्यादा होने पर भी भारत का मौजूदा चेहरा कुछ खास अलग होता यह मानने की ठोस वजह नहीं मिलती.

संजय गांधी की मौत के पीछे इंदिरा गांधी का हाथ

sanjay_gandhiराजनीति में न कोई मां-बाप होता है, न कोई बेटा-बेटी. बीती सर्दियों में आजमगढ़ के निजामाबाद बाजार में आग ताप रहे आठ-नौ लोगों के एक समूह में यह कहानी संजय गांधी और इंदिरा गांधी के संदर्भ में एकदम नए सिरे से सुनने को मिली. संजय गांधी की मौत एक ट्रेनर विमान दुर्घटना में हुई थी. हादसा दिल्ली के सफदरजंग एयरपोर्ट के पास हुआ था. संजय की मौत के बाद से यह कहानी जितने मुंह उतने तरीके से सुनने को मिलती रही है कि कहीं न कहीं इस हत्या के पीछे उनकी मां इंदिरा गांधी का हाथ था. तो आग ताप रहे झुंड के बीच इस कथा की शुरुआत कुछ इस तरह से हुई कि संजय गांधी मुसलमानों के घनघोर विरोधी थे. आलम यह था उस जमाने में कि कमलनाथ समेत उनके कुछ डॉक्टर साथी खुद हाथों में उस्तरे लेकर दिल्ली के तुर्कमान गेट के इलाके में रात-बिरात घूमा करते थे और अगर ऐसा कोई मुसलमान उन्हें मिल जाता जिसकी नसबंदी नहीं हुई होती थी तो वे उसकी लगे हाथ नसबंदी कर देते थे. उनका मानना था कि कई-कई शादियां करने की वजह से मुसलमानों की आबादी देश में बढ़ती जा रही थी. संजय का जलवा सिर्फ यहीं नहीं था. उस समय इंदिराजी की सरकार में भी उन्हीं की तूती बोलती थी. कांग्रेसी नेता और मंत्री प्रधानमंत्री कार्यालय की बजाय सफदरजंग मार्ग स्थित प्रधानमंत्री आवास, जहां संजय गांधी रहते थे वहां से सारी जरूरी फाइलें पास करवाते थे.

धीरे-धीरे संजय की यह मनमानी इंदिरा गांधी की सियासत और देश की एकता-अखंडता के लिए खतरा बनने लगी. संजय के खिलाफ शिकायतों का अंबार इंदिरा के दरबार में लगने लगा. संजय और उनके साथियों की अजब-गजब करतूतें सामने आती मसलन कभी रात में किसी की कार उठा लेना तो कभी किसी लड़की को छेड़ देना. मतलब यह कि हर दिन के साथ इंदिरा के सामने अपने बेटे की कारगुजारियों का पहाड़ बड़ा ही होता जा रहा था. अंतत: हर दिन की किचकिच से आजिज आकर इंदिरा गांधी ने एक हवाई जहाज दुर्घटना के जरिए अपने ही बेटे की हत्या का षडयंत्र रचा ताकि अपनी राजनीति को जिंदा रख सकें. इस तरह से 23 जून 1980 की वह मनहूस सुबह आ गई जब इस षडयंत्र को अंजाम दिया गया. संजय गांधी के साथ उस ग्लाइडर विमान में एक और साथी था, उसकी भी मौत हो गई.


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संजय गांधी की मौत पर गढ़ी गई ये कहानी उन तमाम कहानियों का एकमात्र संस्करण है. इस दुर्घटना पर कई लेखकों ने जमकर अपनी लेखनी चलाई है. वरिष्ठ पत्रकार और आउटलुक पत्रिका के संपादक रहे विनोद मेहता ने अपनी किताब द संजय स्टोरी में उनकी मौत की घटना की बारीक पड़ताल की है. अगर इस पड़ताल से किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जाय तो यह लापरवाही से, बिना किसी जरूरी प्रशिक्षण और योग्यता के विमान चलाने का मामला था. विमान चलाने का जूनून संजय में ताजा-ताजा पैदा हुआ था. यह बात सर्वविदित है कि संजय थोड़ा झक्की और जिद्दी स्वभाव के थे. वे हर बार जरूरी सुरक्षा उपायों की अनदेखी करते थे. जिस दिन उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ उस दिन भी संजय कोल्हापुरी चप्पल और पजामा-कुर्ता पहनकर विमान उड़ा रहे थे. साफ बात है कि विमान उड़ाने जैसी बहुत ही विशेषज्ञता का काम बेहद लापरवाही से करने का नतीजा था संजय गांधी की मौत.

सप्तमो अध्याय समाप्ते !

sdfबिहार के कुछ ब्राह्मण नेताओं से बात कीजिए और उनकी बातों पर गौर कीजिए. बहुत दिलचस्प जवाब मिलते हैं उनसे. मिसाल के तौर पर जगन्नाथ मिश्र से पूछें कि फिलहाल तो किसी सवर्ण या ब्राह्मण के हाथ सत्ता की बागडोर आने की गुंजाइश नहीं दीखती, इसके जवाब में वे कह उठते हैं- अरे! क्यों नहीं. राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है. मिश्र तमिलनाडु का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘देखिए, वहां दलित राजनीति होती है लेकिन दलितों की नेता तो जयललिता ही हैं न! फिर बिहार में ऐसी स्थिति क्यों नहीं हो सकती है? जयललिता ब्राह्मण हैं लेकिन दलितों की नेता हैं. एक और बड़े ब्राहमण नेता हैं जयनारायण त्रिवेदी. वे ब्राह्मण समाज के प्रमुख हैं और जदयू के उपाध्यक्ष भी रहे हैं. फिलहाल वे केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के कोषाध्यक्ष हैं. इससे आगे बढ़कर वे अतीत में झांकते हैं और फिर कहते हैं, ‘देखिए ब्राह्मणों ने हमेशा से चाणक्य की भूमिका निभाई है और भविष्य में भी वे इस भूमिका में सक्रिय रहेंगे. चाणक्य के बगैर सत्ता चल ही नहीं सकती.

एक नेता प्रेमचंद मिश्र हैं. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं. वे बताते हैं कि असल में बिहार के ब्राह्मणों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया इसलिए उनकी दुर्गति हो रही है. वे बुनियादी तौर पर ब्राह्मणों के विरोधी रहे लालू प्रसाद के साथ कांग्रेस से किनारा करके जाते रहे. प्रेमचंद मिश्र कहते हैं जिस दिन ब्राह्मण फिर से कांग्रेस के साथ आ जाएंगे, उसी दिन से उनका भाग्य बदल जाएगा.

आप अलग-अलग ब्राह्मण नेताओं से बात कीजिए, आपको सभी मंगल ग्रह से बात करते हुए नजर आएंगे. मानों वे राजनीति के मैदान से दूर आभासी संसार रचने में जुटे हों. वे चाणक्य से लेकर अब तक बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों की राजनीतिक भूमिका बता देंगे. वे हकीकत से अनजान बने रहना चाहते हैं. बिहार को वे बार-बार चाणक्य की कर्मभूमि बताते हैं. चंद्रगुप्त को बनाने में चाणक्य की भूमिका को रेखांकित करते हैं लेकिन सच तो यह है कि उसी बिहार में जीतन राम मांझी प्रकरण के बाद नीतीश कुमार के नेतृत्व में जो सरकार बनी है, उस मंत्रिमंडल में एक भी ब्राह्मण शामिल नहीं है. संभव है कि यह आजादी के बाद का पहला मंत्रिमंडल है जिसमें एक भी ब्राह्मण नहीं है. इस मंत्रिमंडल को देखते हुए यह बात पानी की तरह साफ हो चुकी है कि बिहार की राजनीति में कभी ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा होगा लेकिन अब उन्हें तवज्जो देने न देने से कोई फर्क नहीं पड़नेवाला. राज्य की राजनीति के लिए अब ‘वे सबसे निष्क्रिय व अनुपयोगी समूह में तब्दील हो चुके हैं.

दिलचस्प यह है कि जाति की राजनीति के खोल में समा चुकी या समाने को बेचैन बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों को एक सिरे से बाहर कर देने का मसला महत्वपूर्ण नहीं है. हां, सवर्णों के नाम पर राजनीतिक गलियारे मंे रोज-ब-रोज बात जरूर हो रही है. नीतीश कुमार पहले तो सवर्णों के लिए सवर्ण आयोग बनाकर अपनी राजनीति साधने में लगे हुए थे लेकिन मांझी सवर्णों के लिए अलग से आरक्षण का पासा फेंक चुके हैं. इस बिगड़े समीकरण में अगड़ी जातियों को एक सवर्ण समूह में बदलने के बाद ब्राह्मणों का नुकसान सबसे ज्यादा हुआ है.

गौरतलब है कि बिहार में सवर्ण जातियों में आबादी के आधार पर सबसे बड़ी जाति ब्राह्मणों की है लेकिन जिस बिहार में चाणक्य को एक प्रतीक मानकर बार-बार ब्राह्मणों को श्रेष्ठ रणनीतिकार बताया जाता रहा है और जिस बिहार में कई ब्राह्मण नेताओं ने बतौर मुख्यमंत्री और मंत्री रहकर लंबे समय तक राज किया है आज वहां ओबीसी राजनीति के उभार के बाद अतिपिछड़ों व दलित-महादलितों की राजनीति के उभार के दौर में ऐसा क्या हो गया कि सवर्ण समूह की तो हैसियत बढ़ी लेकिन ब्राह्मण इतने उपेक्षित या अनुपयोगी होते गये? राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि  बताते हैं कि सवर्णों के समूह में ब्राह्मणों को हाशिये पर धकेल दिया जाना बहुत स्वाभाविक है. यह वह समूह है, जो कुख्यात लोगों को पैदा नहीं कर सकता. दबंगों को पैदा नहीं कर सकता फिर राजनीतिक पार्टियों के लिए क्यों उपयोगी बना रहेगा? मणि कहते हैं- ‘बिहार की राजनीति में ब्राह्मण एक ही बार सबसे महत्वपूर्ण रहे हैं. यह एक मिथ गढ़ लिया गया है कि कांग्रेस के समय में ब्राहमणों की चलती थी. वह कहते हैं कि 30 के दशक में जायेंगे तो कायस्थों का वर्चस्व कांग्रेस में था. उसके बाद भूमिहारों व राजपूतों का आया. बाद में इंदिरा गांधी ने जब नये राजनीतिक समीकरण बनाये तो उसमें ब्राहमणों को अलग किया और ब्राह्मणों के साथ पिछड़े, दलितों व मुसलमानों को मिलाकर सत्ता की सियासत के लिए एक नया समीकरण बनाया जो हिट हुआ. इसे लेकर सवर्णों की ही दूसरी जातियों में ब्राह्मणों से ईर्ष्या बढ़ी. मणि कहते हैं कि बिहार में जेपी (जयप्रकाश नारायण) आंदोलन के समय ब्राह्मणों को दरकिनार कर दिया गया था. जेपी आंदोलन के समय इस तरह का एक नारा चला था- लाला, ग्वाला और अकबर के साला वाली जाति की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है. मणि संभावना टटोलले हुए कहते हैं कि बिहार में अब आगे दूसरे रूप में ब्राह्मणों का राजनीतिक महत्व बढ़ने की गुंजाइश दिखाई देती है क्योंकि जीतन राम मांझी ने दलित राजनीति के नये अध्याय की शुरुआत कर दी और दलित जब राजनीति में अपना आयाम तलाशेगा तो अतिपिछड़ों के साथ ब्राह्मणों का ही समीकरण बनाना उसके लिए सबसे बेहतर होगा. ब्राह्मणों को दलितों के नेतृत्व का साथ देना होगा और इससे ब्राह्मण समूह को कोई परेशानी भी नहीं होगी. ऐसा पहले भी होता रहा है.

राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन ने बातचीत में कहा, ‘ब्राह्मणों को ऐतिहासिक सम्मोह छोड़ना होगा. वे अब भी अतीत में जी रहे हैं इसलिए उनकी यह गति तो होनी  थी. रही बात भूमिहार और राजपूतों को तवज्जो मिलने की तो उसकी एक वजह यह है कि इन दोनों अगड़ी जातियों का एक हिस्सा समाजवादी और वामपंथी आंदोलन में सक्रिय भूमिका में रहा इसलिए उनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. सुमन कहते हैं कि एक और बात पर आप गौर करें कि 1980 से 90 के बीच ब्राह्मणों का वर्चस्व बिहार की राजनीति में रहा और रामलखन सिंह यादव जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं को दरकिनार कर विंदेश्वरी दुबे और भागवत झा ‘आजाद’ को मंत्री और मुख्यमंत्री बनाया गया था.  यह प्रकृति और राजनीति का नियम है कि शीर्ष पर पहुंचने के बाद ढलान की बारी आती है. कुछ वर्षों बाद ओबीसी राजनीति का भी पराभव काल शुरू होगा जिसकी दस्तक सुनायी देने लगी है.

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कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रेमचंद मिश्र का मानना है कि जिस दिन ब्राह्मण पार्टी के साथ हो जाएंगे उस दिन हमारे भाग्य बदलने लग जाएंगे   

sasasबिहार में कुछ जो चर्चित ब्राह्मण नेता हुए, उसमें कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके प्रजापति मिश्र, ललित नारायण मिश्र, विनोदानंद झा, जगन्नाथ मिश्र, विंदेश्वरी दुबे, केदार पांडेय, भागवत झा ‘आजाद’ आदि का नाम लिया जाता है. इसमें कुछ मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचे. ये सभी कांग्रेसी रहे. समाजवादी नेताओं में रामानंद तिवारी एक बड़े नाम हुए लेकिन उनकी पहचान ब्राह्मण नेता की नहीं रही. बाद में उनके बेटे शिवानंद तिवारी भी राजनीति में आये और चर्चित रहे लेकिन उनकी पहचान भी ब्राहमण नेता की नहीं रही. समाजवादी राजनीति में ब्राह्मण नेताओं की उपस्थिति कभी ‘ब्राह्मण’ की नहीं रही. जेपी आंदोलन में भी ब्राह्मणों की भूमिका वैसी नहीं रही. जो खुर्राट ब्राह्मण नेता हुए, कांग्रेसी पृष्ठभूमि के रहे और वे धीरे-धीरे अपने ही कुनबे में सिमटते गये. भागवत झा ‘आजाद’ की राजनीतिक फसल उनके बेटे कीर्ति झा  ‘आजाद’ के सांसद बनने तक सिमट गयी. ललित नारायण मिश्र के परिवार से उनके बेटे विजय मिश्र जदयू से विधान परिषद के सदस्य हैं, विजय मिश्र के भी बेटे ऋषि मिश्र जदयू के कोटे से ही विधायक हैं लेकिन नीतीश कुमार की पार्टी में उनकी हैसियत भी बस एक विधान पार्षद या विधायक भर की है. इसी परिवार से ताल्लुक रखनेवाले जगन्नाथ मिश्र के परिवार की कहानी कुछ अलग है. जगन्नाथ मिश्र खुद कई बार मुख्यमंत्री रहे, बाद में जब कांग्रेसी राजनीति के दिन लद गये तो अपनी राजनीति बचाये रखने के लिए नीतीश के संगी-साथी बने, फिर अपने बेटे नीतीश मिश्र की सियासत को चमकाने में ऊर्जा लगाते रहे. नीतीश मिश्र मंत्री भी बने. अब जगन्नाथ मिश्र और उनके बेटे जीतन राम मांझी खेमे में हैं. जदयू खेमे में एक संजय झा का नाम बीच-बीच में आता रहा और कहा जाता रहा कि वे नीतीश कुमार के रणनीतिकारों में से हैं. लेकिन अब संजय झा भी हाशिये पर भेजे गये नेता से मालूल पड़ रहे हैं.

जदयू खेमे की बात छोड़ अगर राजद की बात करें तो वहां रघुनाथ झा ब्राह्मण नेता के तौर पर रहे लेकिन उनकी भी हैसियत कभी ऐसे ब्राहमण नेता की नहीं बन सकी, जिसकी राज्यव्यापी अपील हो. अब तो वे पूरी तरह पराभव की ओर अग्रसर हैं. भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय ब्राह्मण समुदाय से जरूर हैं लेकिन अपनी पार्टी में भी उनका वैसा प्रभाव नहीं, जैसा कि दूसरों का है. कहा जाता है कि वे आपसी गुटबाजी में इस्तेमाल करने के लिए बनाये गये अध्यक्ष हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता अश्विनी चौबे हैं जो भागलपुर से विधायक थे. वे राज्य में मंत्री भी थे, फिलहाल ब्राह्मण बहुल संसदीय क्षेत्र बक्सर से सांसद हैं. वैसे यह भी सच है कि बिहार से वर्तमान समय में दो सांसद ब्राह्मण हैं और दोनों भाजपा के ही हैं. प्रदेश अध्यक्ष भी ब्राह्मण हैं, इसलिए भाजपा भी राजनीतिक तौर पर ब्राह्मणों को अपने खेमे का मतदाता मानकर निश्चितंता की मुद्रा में ही है.

ब्राहमण समाज से ताल्लुक रखनेवाले बीएन तिवारी उर्फ भाईजी भोजपुरिया कहते हैं कि ब्राह्मणों की अगर आज राजनीतिक पूछ घटी है तो उसके लिए खुद ब्राह्मण नेता ही जिम्मेवार हैं. कभी किसी ब्राह्मण नेता ने भूमिहारों, राजपूतों या दूसरी जातियों की तरह गोलबंद करने की कोशिश नहीं की, जिसके चलते ब्राह्मण हमेशा बिखरे रहे और कभी इस खेमे में तो कभी उस खेमे में जाते रहे और आज वे इस स्थिति में पहुंच गए हैं.

स्वतंत्र पत्रकार अमित कहते हैं कि 90-95 तक ब्राहमणों का वर्चस्व रहा लेकिन उसके बाद वे उपयोग किये जाते रहे और उसके बाद तो उन्हें कठपुतली की तरह नचाया जाता रहा और वे नाचते भी रहे. भाजपा में भी यदि मंगल पांडेय अगर प्रदेश अध्यक्ष बने हैं तो ऐसा उनकी कोई राज्य स्तरीय अपील के कारण संभव नहीं हुआ. अपना मकसद साधने के लिए उन्हें मोहरे की तरह इस्तेमाल में लाया गया. अमित कहते हैं कि बिहार में ब्राह्मण राजनीति की नियति बस इतनी ही  है कि सभी नेताओं को अपने-अपने क्षेत्र में समेटकर रखा जाता रहा है और एक-दूसरे को आपस में ही लड़ाकर कभी किसी को तो कभी किसी को आगे किया जाता रहा है. अमित कहते हैं कि आप खुद ही देख लीजिए कि बक्सर में लालमुनी चौबे भाजपा के बड़े नेता थे. वे लगातार ब्राह्मण बहुल बक्सर से चुनाव लड़ते रहे, जीतते रहे. वे बहुत पहले ही विधायक दल के नेता भी बने थे. लेकिन एक बार कम वोट से लोकसभा चुनाव क्या हारे तो उन्हें दरकिनार करने के लिए ब्राह्मण नेता अश्विनी चौबे को वहां ले जाया गया और उनकी राजनीति खत्म की गई. अमित कहते हैं कि ब्राह्मणों का इस्तेमाल सभी दल इसी तरह करते रहे हैं. लालू प्रसाद ने भी राधानंदन झा को अपने साथ बनाये रखा और उन्हें चाणक्य और पता नहीं क्या-क्या कहा गया लेकिन राधानंदन को एक समय के बाद उपेक्षित किया गया.

जदयू के एक वरिष्ठ और नीतीश कुमार के करीबी नेता कहते हैं कि नीतीश के मंत्रिमंडल में अभी कोई ब्राह्मण नहीं है तो अचरज की क्या बात. इससे पहले भी नीतीश कुमार ऐसा करते रहे हैं. 2009 में भी लोकसभा चुनाव में उन्होंने एक भी ब्राह्मण को टिकट नहीं दिया था. ऐसा क्यों? नीतीश कुमार क्यों सवर्णों में भूमिहारों के प्रति और लालू प्रसाद यादव राजपूतों के प्रति दीवाने दिखते हैं जबकि नीतीश के मतदाताओं में ब्राह्माणों ने भी उनका उतना साथ दिया है जितना भूमिहार मतदाताओं ने. इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. जदयू के वरिष्ठ नेता रहे और लालू-नीतीश दोनों के साथ रह चुके वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने इस संवाददाता से बाचतीत में कहा कि इसमें अचरज की कोई बात नहीं है. लोकतंत्र में सियासत के समीकरण तो बदलते रहते हैं.

जगन्नाथ मिश्र कई बार मुख्यमंत्री रहे लेकिन दिन लदे तो नीतीश कुमार के साथ लग गए आैर अपने बेटे नीतीश मिश्र की सियासत चमकाने में ऊर्जा लगाते रहे

बिहार की सियासत का जातीय समीकरण यह कहता है कि सवर्णों में ब्राह्मणों की आबादी करीब चार प्रतिशत है. ब्राह्मणों से थोड़ी कम आबादी भूमिहारों की है. लगभग तीन प्रतिशत राजपूत हैं और एक प्रतिशत के करीब कायस्थ. फिर ब्राह्मण समुदाय के बीच आज एक ऐसा बड़ा नेता नहीं है जो राजनीति में उनकी इस दुर्गति का जवाब दे! जवाब फिर वही मिलता है-बिहार में इस समय समाजवादियों की राजनीति का युग है. जेपी आंदोलन से निकले नेताओं का युग है. जेपी आंदोलन के दौरान ब्राह्मणों के वर्चस्व को खत्म करने का व्यापक अभियान चलाया गया, जिसका असर मानों अब हो रहा है. अब इतिश्री रेवाखंडे हो चुका है तो संभव है कि एक बार फिर से बिहार में नये किस्म से राजनीति की शुरुआत हो तो शायद ब्राह्मणों की भूमिका बढ़े लेकिन फिलहाल यह भी दिल बहलानेवाले एक खयाल की तरह ही लग रही है…

वे, जो अपने डर से हार गए

गोविंद पानसरे (26 नवंबर 1933 - 20 फरवरी, 2015)
गोविंद पानसरे (26 नवंबर 1933 – 20 फरवरी, 2015)

बहुत नहीं थे सिर्फ़ चार कौए थे काले/उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़नेवाले/

उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खाएं और गाएं/वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनाएं.

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता की उपरोक्त पंक्तियां एकाएक मन में कौंध गई जब से काॅमरेड गोविंद पानसरे की हत्या की खबर सुनी. इन  मुट्ठीभर काले कौओ की हमेशा से यही चाल रहती है कि जो उनके तयशुदा नियमों को तोड़ेगा वह उसका जीना मुहाल कर देंगे. हमारे देश के ये कौए भी ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले से लेकर शंकर गुहा नियोगी, एमएफ हुसैन ….  और हाल ही में नरेंद्र दाभोलकर  और अब काॅमरेड पानसरे तक को अपने प्रतिगामी तयशुदा नियमों के तहत बांधना चाहते थे. डराना चाहते थे.  जब हरा नहीं पाए, बांध नहीं पाए तो धमकाने पर उतर आए. और जब इससे भी बात नहीं बनी तो हर तरह से हैरान-परेशान किया. इन काले कौओं ने कभी पत्थर चलाए तो कभी चित्र फाड़े और इससे भी मन नहीं भरा तो कायरों की तरह छुपकर वार कर भागे. दरअसल यह इनके भीतर का डर है जो किसी न किसी शक्ल में सामने आता है. काॅमरेड पानसरे की कायरतापूर्ण हत्या के पीछे भी यही डर काम कर रहा था. पर हमेशा की तरह ये भूल गए कि तर्कपूर्ण विचार, कायरतापूर्ण हत्यारी कार्रवाईयों से मारे नहीं मरता है, इतना अवश्य होता है कि ये कायर हर बार अपने इस डर से हार जाते हैं. सो, अभी ये कौए अपने अच्छे दिनों का भले ही त्यौहार मना लें पर इनकी हार निश्चित है. इतिहास का कूड़ेदान इनकी प्रतिक्षा में है.

गोविंद पानसरे से कौन डरता है

इसी 16 फरवरी की सुबह जब महाराष्ट्र के कोल्हापुर से 82 वर्षीय काॅमरेड पानसरे को गोली मारे जाने की खबर आई तो देश की प्रगतिशील, बहुजन, लोकतांत्रिक और साम्यवादी जमातों में एक भारी रोष की लहर पैदा हुई. इसी सब के बीच एक अहम बात की फिर से तस्दीक हुई कि देश, इतिहास और जन विरोधी जमात एक सच्चे और तर्कशील व्यक्ति से कितना डरती है. याद रहे कि काॅमरेड पानसरे अपने लगभग साठ वर्ष के सार्वजनिक जीवन में इन्हीं पूंजीवादी, सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों के खिलाफ आवाज बुलंद किए हुए थे. छत्रपति शिवाजी को संकीर्ण हिंदुवादी ताकतों द्वारा गौ-ब्राह्मण प्रतिपालक हिंदु राजा साबित करने की भरपूर कोशिशों को पानसरे की लिखी चर्चित पुस्तिका शिवाजी कौन था,  ऐतिहासिक तथ्यों और तार्किक दलीलों से ध्वस्त कर देती है। संक्षिप्त किंतु सारगर्भित कलेवर लिए यह पुस्तिका अनेक भाषाओं में अनुवादित होकर व्यापक तौर पर पढ़ी गई है। पानसरे द्वारा एक जगह लाकर रख दिए ऐतिहासिक तथ्य पुष्टी करते हैं कि शिवाजी आम जनता के पालक थे न कि कोई धर्मांध राजा जो अपनी प्रजा में भेद करता है. यही नहीं बहुजन मुक्ति के प्रतीक शाहूजी महाराज की क्रांतिकारी विरासत को चर्चा में लाने और मिसाल बनाने का महत्वपूर्ण काम भी पानसरे ने शिद्दत के साथ किया। गोडसेवादी उनसे डरने लगे थे क्योंकि वे उनकी तथाकथित सामाजिक समरसता की पोल खोल रहे थे.

कोल्हापुर में शहरी सीमा के भीतर ही आने-जाने के लिए वसूले जानेवाले टोल टैक्स के वे घोर विरोधी थे. इसके खिलाफ एक सशक्त आंदोलन चलाए हुए थे. ऐसे अभियानों के कारण धनपति और बाहुबलि गिरोह उनके विरोधी थे. सांप्रदायिक दुराग्रहों और दक्षिणपंथी आर्थिक सोच के बीच पनपे और मजबूत होते जा रहे गठजोड़ को वे खुली चुनौती दे रहे थे. हाल ही में नाथूराम गोडसे को जिस तरह राष्ट्रभक्त करार देने की घृणित कोशिशें तेज हुई हैं, पानसरे उसके प्रबल विरोधी तो थे ही, उस सोच के पोले पन को सतत बेनकाब करने में भी लगे हुए थे. सो अंदाज लगाना क्या मुश्किल है कि इस दुनिया में उनके न रहने से किस तरह की ताकतों का हित सध सकता है. ऐसे कितने उदाहरण हमारे सामने हैं जो यह बताते हैं कि पानसरे हिंदुत्ववादी और पूंजीवादी ताकतों के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुके थे. उनकी सक्रियता ही फासीवादी ताकतों की आंख की किरकिरी बनी हुई थी. कायरों ने वही किया जो वे कर सकते थे. अब हमें कुछ करना है.

पानसरे की हत्या एक व्यक्ति की हत्या भर नहीं है. वह तर्कशील विचार परंपरा को नष्ट करने की कोशिश है. पानसरे की हत्या के बाद और हत्याएं ना हों, इसलिए  जरूरी है कि समाज के विचारशील, संवेदनशील, समतावादी लोग और समूह संगठन चुप ना बैठें। सांप्रदायिकता, जातिवाद, कायरता, हिंसा, गैर बराबरी की खिलाफत करे। जरूरी है सब मिलकर अस्तित्व की मुद्दे पर बल दें,  भ्रामक अस्मिता पर नहीं। ऐसा कार्य हो, यही काॅमरेड पानसरे को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

असली दोषी कौन

काॅमरेड पानसरे की हत्या प्रगतिशील राष्ट्र के लिए एक बड़ा हादसा है. साथी नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारों की तलाश और उन पर कोई कार्यवाई न होते हुए फिर इस मार्क्सवादी नेता पर इसी प्रकार से हमला होना बहुत कुछ संदेश दे रहा है।  दाभोलकर और कॉमरेड पानसरे पर हमला एक ही तरीके से हुआ है. हालांकि, अभी तक की कानूनी कार्रवाई में यह साफ नहीं हुआ है कि पानसरे की हत्या के असली हत्यारे कौन हैं लेकिन आज के राजनीतिक और सामाजिक हालत पर नजर डालें तो समझ में आता है कि इस कायरतापूर्ण हत्याकांड के पीछे असली षडयंत्रकारी कौनसी ताकतें हो सकती हैं. यह वही मुट्ठीभर लोग हैं, जो जाति और धर्म के नाम पर गर्व व अस्मिता का मुद्दा बनाते हैं. वही दोषी हैं. इनमें पूंजीपति और धर्मपति दोनों का गठजोड़ साफ दिखता है. दाभोलकर की हत्या का समर्थन, ‘अपने कर्मों से ही उन्हें मौत आ गई’ यह कहकर करनेवाले तथा ‘पानसरे भी दाभोलकर के ही मार्ग से जाएंगे’ यह कहकर धमकानेवाले भी महाराष्ट्र में ही हैं। खुले या छुपे राजनीतिक  समर्थन-संरक्षण भी इन्हें प्राप्त है. इन्हें पहचानना कठिन नहीं है. सवाल है इन्हें कानून की जद में लाने का.