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मर गया मुरुगन!

muruदेश में लेखन और रचनात्मकता पर हो रहे हमलों की बात करें तो मकबूल फिदा हुसैन से शुरू हुआ सिलसिला वेंडी डोंनिगर से होते हुए अब पेरुमल मुरुगन तक आ पहुंचा है. तमिल भाषा के बेहतरीन लेखकों में शुमार पेरुमल मुरुगन ने बीती 14 जनवरी को अपने भीतर के लेखक की मृत्यु की घोषणा कर दी. उन्होंने यह सूचना अपने फेसबुक पेज पर देते हुए जो कुछ लिखा, उसका भावानुवाद इस प्रकार है- ‘लेखक पेरुमल मुरुगन मर गया है. चूंकि वह भगवान नहीं है इसलिए वह खुद को पुनर्जीवन भी नहीं दे सकता. वह तो पुनर्जन्म में विश्वास तक नहीं करता. भविष्य में पेरुमल मुरुगन केवल एक अध्यापक के रूप में जिंदा रहेगा, जो वह हमेशा से रहा है.’

यह एक लेखक द्वारा अपने भीतर के लेखक की मौत की विचलित कर देनेवाली घोषणा थी. लेखक जो किसी समाज का आईना होता है, उसके आगे मशाल लेकर चलनेवाला अग्रदूत होता है. उसे अपनी मौत की घोषणा क्यों करनी पड़ती है. क्यों जिस समाज में हत्यारे, बलात्कारी, आततायी और लुटेरे ठठाकर हंस रहे होते हैं, सर्वसुविधायुक्त जीवन जी रहे होते हैं, वहां एक लेखक को अपनी मौत की घोषणा करनी पड़ती है? वह कौन सी सभ्यता या संस्कृति है जिसे एक उपन्यास से खतरा उत्पन्न हो जाता है?

एक साक्षात्कार में मुरुगन ने कहा, ‘सच पूछिए तो जब मैंने अपनी किताबों को जलते हुए देखा तब मेरे मन में यह सवाल उठा कि क्या मैं इसी समाज के लिए लिखता हूं? यह जो सड़कों पर मेरी किताबें जला रहा है. लेकिन बाद में अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों की ओर से मिले समर्थन ने मेरी मानसिकता में थोड़ा बदलाव लाया.’ भविष्य के लेखन के बारे में मुरुगन कहते हैं कि यह तय नहीं है कि वे अब कुछ भी लिखते समय खुद को उतना आजाद महसूस कर पाएंगे या नहीं जितना पहले करते थे.

लेखक बिरादरी का एक धड़ा जहां मुरुगन के ‘आत्मसमर्पण’ को अच्छा संकेत नहीं मानता, वहीं एक समूह ऐसा भी है जिसका कहना है कि यह मुरुगन द्वारा उठाया गया रणनीतिक कदम है जिसके बाद इस पूरे प्रकरण को राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय बनाया जा सका. ‘मधोरुबगन’ नामक मुरुगन के जिस उपन्यास को विवाद का विषय बनाया गया वह दरअसल वर्ष 2010 में प्रकाशित हुआ था. इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘वन पार्ट वुमन’ वर्ष 2013 में पेंग्विन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ.

लेखक को अपनी मौत की घोषणा क्यों करनी पड़ती है. वह कौन-सी सभ्यता या संस्कृति है जिसे एक उपन्यास से खतरा उत्पन्न हो जाता है?

48 वर्षीय पेरुमल मुरुगन पेशे से शिक्षक हैं और तमिलनाडु के नमक्कल में शासकीय कला विद्यालय में अध्यापन करते हैं. उन्होंने अब तक 30 से अधिक पुस्तकों की रचना की है जिनमें से सात उपन्यास हैं. उनका उपन्यास मधोरुबगन प्रदेश के कोंगू इलाके में रहनेवाले एक निस्संतान दंपती, पोन्ना और काली की कहानी कहता है. पोन्ना और काली, के बीच बहुत प्यार है लेकिन संतानहीनता के कारण पड़ रहा सामाजिक और पारिवारिक दबाव उनके प्यार को प्रभावित करता है. खासतौर पर पोन्ना को नाते-रिश्तेदारों के तानों का शिकार होना पड़ता है, क्योंकि वह स्त्री है. उसे बांझ कहकर अपमानित किया जाता है और एक समय ऐसा आता है जब वह खुद को घर की चहारदीवारी में सीमित कर लेती है. उसका पति काली भी तानों और फुसफुसाहटों से बच नहीं पाता और गाहेबगाहे उसे सुनने में आता है कि लोग उसे नपुंसक कहते हैं. तमाम नाते-रिश्तेदार ऐसे भी हैं जिनकी नजर काली की संपत्ति पर है. इस बीच काली का परिवार उसे दूसरा विवाह करने को प्रेरित करता है, लेकिन पत्नी के प्रति उसका प्रेम उसे ऐसा नहीं करने देता. उनका हित चाहने की कोशिश में परिजन पोन्ना को परपुरुष समागम के लिए तैयार करते हैं और उसे झांसा देते हैं कि उसका पति इसके लिए तैयार है. उसे एक ऐसे मेले में ले जाया जाता है जहां संतान की चाह रखनेवाली स्त्रियां किसी भी अनजाने पुरुष के साथ शारीरिक संबंध स्थापित कर सकती है. पोन्ना के मन में इस बात की राहत है कि वहां उसे लोगों की शिकायती और तंग नजरों का सामना नहीं करना पड़ता, लेकिन हर पुरुष में उसे अपना प्रेमी और पति काली ही नजर आता है. उधर काली को जब यह बात पता चलती है तो उसे लगता है कि उसकी पत्नी ने उसे धोखा दिया है.

उपन्यास बगैर किसी फैसले के यहीं पर समाप्त हो जाता है. वह कोई निष्कर्ष भले ही नहीं देता है, लेकिन वह हमारे समाज में व्याप्त इन कुरीतियों को मुखर ढंग से हमारे सामने लाता है. बात केवल इतनी सी है कि एक प्रेमी युगल का सुखमय जीवन केवल संतान न होने के चलते सामाजिक और पारिवारिक हस्तक्षेप और फूहड़ रीति-रिवाजों की वजह से नष्ट हो जाता है. इस प्रेमकथा की अंतर्कथा में मुरुगन जाति और समाज की दबंगई तथा कुरीतियों को बहुत विस्तार से चित्रित करते हैं. मुरुगन ने इस प्रेम का जितना भावनात्मक और संवेदनशील चित्रण किया है वह उनके लेखक की सफलता है, लेकिन सामाजिक कुरीतियों पर किए गए हमले कथित राष्ट्रवादी ताकतों को रास नहीं आए. वे एक लेखक के अंतर्मन के जरिये उसे रचनालोक की यात्रा करने के बजाय उससे यह करार करवाते हैं कि वह दोबारा कुछ नहीं लिखेगा.

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मुरुगन को धमकियां मिलने का सिलसिला दिसंबर में शुरू हुआ. इसके बाद बात धमकी से आगे बढ़ती है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तिरुचेंगोंडे नगर इकाई के सदस्य 26 दिसंबर को एक बड़ा जुलूस निकालते हैं और उपन्यास की प्रतियों को आग लगाई जाती है. मानो इतना ही काफी नहीं हो, शहर बंदी का आयोजन भी किया जाता है. 12 जनवरी को नमक्कल का प्रशासन मुरुगन को विरोधियों के साथ बातचीत करने के लिए आमंत्रित करता है. उनके ऊपर दबाव बनाया जाता है कि वे बिना शर्त माफी मांगें, विवादास्पद अंशों को अगले अंक से हटाएं और भविष्य में ऐसा कुछ नहीं लिखने का वादा करें.

इसके बाद मुरुगन ने लेखन छोड़ने की घोषणा करते हुए कहा कि वे अपनी किताबें वापस ले रहे हैं. उन्होंने प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं को आश्वस्त किया कि वे उनके नुकसान की भरपाई करेंगे. हालांकि मुरुगन के प्रकाशक कन्नन सुंदरम पूरी तरह अडिग हैं. उन्होंने कहा है कि किसी तरह के दबाव में झुकने के बजाय वे इस मामले को अदालत में हर स्तर पर लड़ेंगे.

यह देखना सुखद रहा कि देश के विभिन्न इलाकों में लेखक और सांस्कृतिक संगठनों ने बड़े पैमाने पर मुरुगन के साथ एकजुटता का प्रदर्शन किया. जन संस्कृति मंच के महासचिव और हिंदी के वरिष्ठ आलोचक प्रणय कृष्ण लिखते हैं कि मुरुगन के लिखे इन प्रसंगों का विरोध करनेवालों को जरा अपने प्राचीन ग्रंथों पर एक नजर डाल लेनी चाहिए. शास्त्र और लोक की बात छोड़ भी दें, तो मानवशास्त्र यह बतात है कि ऐसी प्रथाएं सभी प्राचीन और आधुनिक समाज में मौजूद रही हैं. वर्तमान में भी उन्होंने अपना रूप भले ही बदल लिया हो लेकिन उनकी निरंतरता प्रभावित नहीं हुई है. प्रणय कृष्ण जोर देकर कहते हैं कि मुरुगन को अपनी मृत्यु की घोषणा के बावजूद लिखना नहीं छोड़ना चाहिए. वह उम्मीद जताते हैं कि मुरुगन के पाठक उनको ऐसा नहीं करने देंगे. वे उन ताकतों को परास्त कर देंगे जो मुरुगन को डरा- धमका रही हैं. प्रगतिशील लेखक संघ ने भी गत 24 जनवरी को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक संगोष्ठी आयोजित कर मुरुगन के साथ एकजुटता का प्रदर्शन किया. इस अवसर पर मशहूर लेखक और शिक्षाविद पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले बढ़ रहे हैं. इनको रोकने के लिए सक्रिय प्रतिरोध आवश्यक है. उन्होंने श्रोताओं से अपील की कि वे इस बहस को सड़कों और गली-मोहल्लों तक ले जाएं तभी आम जनता में इन मुद्दों पर चेतना पनपेगी.

यह पहला अवसर नहीं है जब हिंदुत्ववादी संगठनों ने किसी  रचनाकर्मी पर  हमला किया हो अथवा प्रतिबंध लगाने की मांग की हो. कुछ वर्ष पहले ऐसी ही घटनाओं के चलते मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को आत्मनिर्वासन का चयन करना पड़ा था वहीं पिछले साल ऐसे ही गुटों के तीव्र विरोध के बाद पेंग्विन प्रकाशन को वेंडी डोनिगर की एक पुस्तक को नष्ट करना पड़ा था. अच्छी बात यह है कि जो तीव्रता इन घटनाओं में है उतना ही मुखर इनका विरोध भी है.

वर्ष 2014 इतिहास के बर्बर कोने में अपना स्थान सुरक्षित कर चुका है. जब यह अंक आपके हाथों में होगा, तब लोगों की स्मृतियों पर पाकिस्तान के पेशावर शहर में मानवता को तार-तार करने वाली आतंकी वारदात का कब्जा होगा. बीतते-बीतते यह साल निरीह बच्चों के साथ आधुनिक काल की मध्ययुगीन निर्ममता का गवाह बना. इस नैराश्य के वातावरण में भी तहलका हमेशा की भांति नए वर्ष का पहला अंक एक विशेषांक के तौर पर अपने पाठकों के सामने ला रहा है. प्रचलित मान्यता तो यही कहती है कि इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद यह समाचार ही सर्वाधिक प्रमुखता से पत्रिका में प्रकाशित होना चाहिए था. ऐसा न होना किसी को भी अटपटा लग सकता है. लेकिन अपने थोड़े से जीवनकाल में तहलका ने इस तरह के पारंपरिक सांचों को तोड़ने से कभी भी परहेज नहीं किया है. इसका मकसद घटना की गंभीरता को कम करना या नजरअंदाज करना नहीं है. इसके पीछे मौजूदा समय की नकारात्मकता और अंधियारे का सामना जीवन और उल्लास से करने की सोच-भर है. अंतत: यही वह नुस्खा है जो चौतरफा फैलते जा रहे आतंकवाद के खतरे से निपटने का रास्ता दिखा सकता है.
जब यह साल अपनी सबसे बर्बर घटना के लिए इतिहास में जगह मुकर्रर करने की कोशिश कर रहा था, तब तहलका ने इस साल से जुड़े कुछ उजास के कोने अपने पाठकों के सामने रखने की कोशिश की है. यह वर्ष भारत और दुनिया के इतिहास के कुछ दुर्लभ व्यक्तित्वों, परिवर्तनकारी घटनाओं और संस्थाओं का महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है. इस लिहाज से यह अंक अपनी परंपरा, इतिहास और जड़ों से जुड़ने का जरिया भी है.
2013 में तहलका हिंदी पत्रिका ने अपनी स्थापना के पांच वर्ष पूरे किए थे. इस अवसर पर प्रकाशित पांच वर्ष की प्रतिनिधि कथाएं नामक अंक पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय रहा था. यह अंक पांच वर्ष की यात्रा में तहलका द्वारा अर्जित उपलब्धियों से रूबरू होने का जरिया भी बना. विशेषकर तब जब बीता कुछ समय उठापटक से भरा रहा था. यह अफवाहें बार-बार सुनने को मिलीं कि तहलका बंद हो चुका है. लेकिन इन अफवाहों ने छोटी-सी टीम के हौसले को तोड़ने की बजाय उसे एक बार फिर से खुद को साबित करने के लिए प्रेरित किया- उन्हीं जमीनी रिपोर्टों, धारदार लेखों, बारीक विश्लेषणों के जरिए जो अतीत में तहलका की पहचान रही हैं. यह वह समय था जब वापसी करने की आसान राह के तौर पर सेक्स सर्वे से लेकर शानदार रेस्त्रां और अभिजात्य खानपान की तरफ रुख किया जा सकता था, लेकिन तहलका ने फिर से कठिन राह चुनी. इसका सबूत पिछले कुछ समय में आई वे रपटें और कहानियां हैं जिनके आधार पर आप तहलका का आकलन कर सकते हैं. असम राइफल्स में व्याप्त भ्रष्टाचार की कहानी हो, जेट एयरवेज द्वारा रसूखदार लोगों को पहुंचाई जा रही वीआईपी सुविधाओं का खुलासा हो, महिलाओं के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते आइवीएफ कारोबार का कच्चा चिट्ठा हो या बिहार में हाल के दिनों में दलितों के साथ अनपेक्षित रूप से बढ़ी जातिगत हिंसा. इस दौरान राजनीति, फिल्म, कला और संस्कृति जगत की तमाम हस्तियों ने भी अपनी बात तहलका के माध्यम से रखी है.
इस अंक का विचारसूत्र यह है कि वर्ष 2014 का देश और दुनिया के इतिहास से अनूठा संबंध है. इसी साल आधुनिक भारत के रचयिता पंडित जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती पूरे देश ने मनाई, यह सुर साम्राज्ञी बेगम अख्तर की जन्मशती का वर्ष भी है, हिंदी साहित्य में प्रगतिशीलता के प्रखर स्तंभ गजानन माधव मुक्तिबोध के निधन की यह 50वीं बरसी है. देश में मार्क्सवादी मार्का राजनीति भी इसी साल 50वें वर्ष में प्रवेश कर गई है. देश के अवचेतन पर गहरी छाप छोड़ने वाली भोपाल गैस त्रासदी और भागलपुर के दंगे भी किसी न किसी रूप में इस साल अहम रहे हैं. यह साल अंतरराष्ट्रीय घटनाओं के लिहाज से भी महत्वपूर्ण रहा. बर्लिन की दीवार गिरने का ऐतिहासिक अवसर भी इस साल अपने 25 वर्ष पूरे कर चुका है.
यह अंक उन सारी ऐतिहासिक घटनाओं, इतिहास के पड़ावों और उसे नई दिशा देने वाली विभूतियों के छुए-अनछुए पहलुओं से साक्षात्कार का प्रयास है, और अंत में इसकी सफलता-असफलता का निर्णय आप लोगों के ऊपर है जो पत्रिका के इस पड़ाव तक पहुंचने के साक्षी रहे हैं.

सदाबहार है जयपुर राजघराने के खजाने की कहानी

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देश और समाज के जनमानस और जीवन की बहुत सी बातें, इतिहास, घटनाएं आदि आपस में इस तरह से घुली-मिली रहती हैं कि मिथक, विभ्रम या फिर गल्प कथा की शक्ल ले लेते हैं. आधुनिक भारत के जीवन में भी ऐसी अनेक कथाएं हैं जो लगती तो इतिहास हैं पर हैं विभ्रम या गल्प शिल्प का गजब संजोग. इस संजोग की एक खास बात है जैसे बिना धुएं के आग नहीं होती वैसे ही बिन घटना के कोई बात नहीं होती. कुछ होता है जो घटा होता है जिस पर गल्प और भ्रम सवार होकर जनमानस में बस जाते हैं. कई बार तो इस हद तक रच-बस जाते हैं कि इन्हें इतिहास माना जाने लगता है. जन इस रसिक गल्प इतिहास का पान अपनी आवश्यता के अनुसार गाहे-बगाहे करता रहता है.

इन गल्प कथाओं का अपना एक देशज भूगोल होता है, संस्कृति होती है और साथ-साथ एक विशिष्ट राजनीति होती है. दरअसल हर गल्प कथा का आवरण राजनीति से ही संबल पाता है. यह संबल ही इन्हें संजीवनी प्रदान करता है. ऐसी परिकथा के दुखांत-सा किस्सा है जयपुर राजघराने के खजाने का जिसे आज तक राजनीति की संजीवनी ने राजस्थान समेत उत्तर भारत से लेकर बंगाल-बिहार तक जिंदा रखा हुआ है.

जयपुर का राजघराना मुगलों के वक्त से लेकर आधुनिक भारत तक किसी न किसी रूप में चर्चा में रहा है. गायत्री देवी की विश्व प्रसिद्ध सुदंरता के किस्से हों या राजा जयसिंह द्वितीय का शिल्प प्रेम, सभी किस्से जनमानस में रच-बस गए हैं. इन सब कहानियों पर सबसे भारी एक किस्सा पड़ता है.

यह बतकही इंदिरा काल की है. आपातकाल का दौर था. आज की भारतीय जनता पार्टी का पूर्ववर्ती जनसंघ लोकतंत्र के साथ-साथ तत्कालीन राजतांत्रिक शक्तियों को भी साधने की जी-तोड़ कोशिशें कर रहा था. इंदिरा गांधी द्वारा राजाओं-सामंतों को मिल रही सुविधाओं को बंद करने की वजह से इनमें सरकार को लेकर खासा असंतोष था. जनसंघ और आरएसएस इस असंतोष को अपने पक्ष में करने में सफल हो चुका था. जयपुर राजघराने की गायत्री देवी और ग्वालियर राजघराने की विजयराजे सिंधिया के साथ संघ करीबी राजनीतिक संबंध स्थापित कर चुका था.

खजाना और राजकुमारियां लोकतांत्रिक समाज के स्वप्नों से अभी पूरी तरह से खारिज नहीं हुए हैं, इसीलिए आज भी जब उन्नाव में एक बाबा द्वारा खजाना छिपा होने की तथाकथित भविष्यवाणी की जाती है तो पूरे देश की निगाहें अपना सारा काम-धाम छोड़कर उसी पर लग जाती हैं. मीडिया रोज इस खजाने का नया इतिहास तक खोज लाता है. बाबा जनाब के भक्त चारों ओर नए-नए किस्सों को जनमानस में फैलाते हैं और जनता खजाने के रसास्वादन में डूब जाती है.

चार्ली चैपलिन की एक फिल्म ‘गोल्ड रश’ में कुछ इसी किस्म की लोभी मानव वृत्ति का बेहद सजीव चित्रण हुआ है. कुल जमा बात यह है कि खजाना प्राप्ति एक ऐसा मुफ्त का चंदन है जिसे हर कोई अपने माथे पर सजाना चाहता है. भले ही इसके लिए उसे कितने ही अनजाने सांपों से क्यों न भिड़ना पड़े. यह अलग बात है अगर किसी को किस्से में भी इसके मिलने का जिक्र हो तो सीने पर सांप भी कम नहीं लोटते हैं. तिसपर अगर जिक्र भारत के प्रधानमंत्री का हो तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोग सामान्य तर्क को भी चूल्हे में फेंकने में वक्त नहीं गंवाते हैं. ऐसा ही किस्सा है आमेर के खजाने का. पांच वर्ष पूर्व अपने तीन वर्ष के जयपुर प्रवास के दौरान चाय की थड़ी से लेकर आमेर के गाइड तक से इस किस्से को सुना. यही नहीं आज भी गाहे-बगाहे कई ब्लॉग और खबरिया वेबसाइट इस किस्से की याद को ताजा कर देते हैं. इतना तो तय है कि यह अनंत कथा आज माता-पिता बन चुकी पीढ़ी ने अवश्य सुनी होगी. इसे सुनाने और फैलाने में जनसंघियों की खासी भूमिका रही है. आज भी कुछ स्वघोषित स्वामी टाइप लोग इस गल्प को जिंदा रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं.

किस्सा कुछ यूं फैलाया गया है कि जयपुर राजघराने के आमेर महल में छिपे खजाने को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने निकालकर सीधे विदेश भेज दिया था. इस काम में उनके बेटे संजय गांधी और बांग्लादेश के राजनेता मुहम्मद युनुस ने मदद की थी. इस छिपे खजाने को खोजने और कब्जा करने के पीछे वजह इंदिरा गांधी की जयपुर राजघराने से तथाकथित नाराजगी थी. वह राजघराने की गायत्री देवी से नाराज थी. बात यहीं तक नहीं रुकी. इस पूरे मामले में व्यक्तिगत छींटाकशी भी बेहद निम्न स्तर तक जाकर की गई. विपक्ष ने न केवल प्रधानमंत्री के पद की गरिमा-मर्यादा को चोट पहुंचाई बल्कि व्यक्तिगत चरित्र हनन तक इस मामले में किया. यहां तक कहा-सुना गया कि इंदिरा गांधी की हत्या और अल्प आयु में संजय गांधी की मृत्यु के पीछे भी मुख्य वजह इस खजाने को लूटने का श्राप था. आमेर महल के गाइड के मुताबिक तो इस महल के खजाने की खोज में इंदिरा गांधी को तीन माह का समय लगा और खजाना मिलने के बाद तीन दिन के लिए दिल्ली-जयुपर हाईवे आम आवाजाही के लिए पूरी तरह बंद कर दिया गया. आर्मी के लगभग साठ ट्रकों में खजाने को भरकर सीधे एयरपोर्ट भेजा गया. कहा यह भी जाता है कि यह खजाना मान सिंह प्रथम ने अफगानिस्तान युद्घ में विजय के बाद हासिल किया था. तब से यह खजाना जयपुर के राजाओं के पास सुरक्षित रखा गया था. गाइड साहब इसकी सुरक्षा व्यवस्था के प्रमाण में आमेर संग्रहालय में रखी एक चाभी भी दिखाते हैं जिसके ताले में एक खास कोड पड़ा था और वह सिर्फ राजा को मालूम था. राजा जब भी खजाने का मुआयना करने जाते तो कारिंदों की आंखों में पट्टी बांध दी जाती ताकि कोई खजाने और ताले के कोड को देख न सके. यानी यह एक ऐसा खजाना था जिसे राजा और उसके परिवार के अलावा किसी ने नहीं देखा था. और इंदिरा गांधी द्वारा विदेश भेजने तक भी इसके दर्शन किसी ने नहीं किए. जो फौजी ट्रक इसे भरकर ले गए थे और जिन फौजियों ने इसे ट्रकों में भरा था आज तक उनकी ओर से इसकी कोई आधिकारिक तस्दीक नहीं की है कि किसी ने खजाना देखा था या फिर वह उसे सीधे एयरपोर्ट लेकर गए थे. लगता है कि सदाबहार देवानंद की तरह खजाने की भी अंतिम इच्छा रही होगी कि कोई रसिक और प्रशंसक उसका अंतिम दर्शन न करे. पर इसके बावजूद किस्सा है कि हर बार कुछ नए रंग लेकर सामने आ जाता है. हर बार नई बात और कुतर्क के साथ इसका रसास्वादन करने का मौका जनता को मिल ही जाता है.


गौर फरमाएं

इस पूरे किस्से पर अगर ज्यों का त्यों यकीन कर लिया जाए तो सबसे बड़ा सवाल तो भारतीय फौज की निष्पक्षता और देशभक्ति पर खड़ा हो जाएगा. कैसे भारतीय फौज सिर्फ एक व्यक्ति के हित में देश का अहित कर सकती है. यह संभव नहीं है. अगर खजाना मिला भी होगा तो फौज ने उसे राजकोष में जमा कराया होगा न कि विदेश पहुंचाया होगा. इसके अलावा यह एक ऐसा खजाना था जिसका इस्तेमाल खस्ताहाल राजघराने ने अपने सबसे बुरे दिनों में भी नहीं किया. सवाल उठता है कि क्यों नहीं किया. क्या इस किस्से का प्रिवी पर्स और बैंकों के राष्ट्रीयकरण से अप्रत्यक्ष संबंध नहीं दिखाई देता. क्या वजह है कि आज तक इस बात का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं दिया गया कि इस खजाने को गांधी परिवार ने अपनी निजी संपत्ति बनाकर रखा है जबकि तत्कालीन विपक्षी दलों के वंशज कई बार केंद्र और राज्य सरकार में आ चुके हैं. आज भी राज्य और केंद्र में उनकी ही सरकार है. अगर यह इतनी अहम बात है तो आज तक कोई जांच क्यों नहीं करवाई गई. आज तक क्यों राज परिवार के अलावा किसी ने इस खजाने के दर्शन नहीं किए. यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब इस बतकही में नहीं मिलता .

तुम्हारे लिए मेरे पास सिर्फ जूते हैं

बीएचयू से ही जुड़ा एक और किस्सा बहुत मशहूर है, जो अब कम सुनाया जाता है लेकिन कुछ बरस पहले तक खूब सुनाया जाता था. किस्सा यह है कि जब मालवीयजी बीएचयू के लिए दान मांगने निकले तो वे हैदराबाद के निजाम के पास भी गये थे. हैदराबाद के निजाम ने कहा आपको देने के लिए मेरे पास सिर्फ मेरा जूता ही है. मालवीयजी ने निजाम से जूता ले लिया और उस जूते की निलामी की और फिर उससे मिले पैसे को दान खाते में डाल दिया. चटखारे ले-लेकर बताया-सुनाया जाता है कि हैदराबाद के निजाम ने हिंदू विश्वविद्यालय के नाम पर दान मांगने पहुंचने पर अपमान के लिए यह किया था लेकिन उस अपमान को ही वरदान में बदलते हुए मालवीयजी ने जूते की बड़ी नीलामी कर दी. इससे हैदराबाद का निजाम शर्मसार भी हुआ. कहानी में आगे जोड़ दिया गया है कि बीएचयू में जो हैदराबाद कॉलोनी है, वह उसी नीलामी के पैसे से बनी है. कुछ तो इसमें यह भी जोड़ देते हैं कि इतना ही नहीं, जब हैदराबाद के निजाम ने जूते को दान में दिया तो उसकी निलामी का इश्तेहार छपा. फिर जूते की बोली लगाने देशभर के बड़े लोग जुटे. और उसके बाद हैदराबाद के निजाम ने भी अपने आदमी को भेजा कि जूता नहीं बल्कि उनकी इज्जत की नीलामी की जा रही है.


गौर फरमाएं

इस कहानी को पुख्ता करनेवाला कोई दस्तावेज आजतक उपलब्ध नहीं हो सका है. ज्यादातर कहानियों की तरह ही यह भी काल्पनिक किस्सा ही है. बीएचयू के दानकर्ताओं की पूरी सूची उपलब्ध है और पूरी प्रक्रिया भी दस्तावेजों में दर्ज है. उसमें हैदराबाद के निजाम से जुड़ी ऐसी बातों का कोई जिक्र नहीं है.

नवाब गिरफ्तार हो गए क्योंकि कोई जूता पहनानेवाला नहीं था

nawabलखनऊ के आखिरी बादशाह वाजिद अली शाह के बारे में सैंकड़ों मनगढ़ंत किस्से अवध से लेकर दुनियाभर में फैले हुए हैं. उनमें से दो किस्से सबसे ज्यादा कहे सुने-जाते हैं. पहला, वाजिद अली शाह अय्याश और नाकारे थे और लखनऊ की जनता उनके राज-काज से खुश नहीं थी इसीलिए अंग्रेजों ने जनहित में उन्हें गद्दी से हटा दिया. दूसरा, अंग्रेज जब नवाब को गिरफ्तार करने आए तो उनके आस-पास के सारे लोग भाग गए, नवाब साहब अकेले रह गए और अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए. वे भाग सकते थे मगर भाग नहीं सके क्योंकि उनको जूते पहनानेवाला खादिम पहले ही भाग गया था. खुद जूते उठाकर पहनना नवाबी शान के खिलाफ था. सो नवाब साहब ने गिरफ्तारी कबूल की पर खुद के हाथों से जूता पहनना गवारा नहीं किया. लखनऊ के इतिहास की पड़ताल करें तो साफ हो जाता है कि इन कहानियों में जरा भी सच्चाई नहीं है. फिर भी सालों साल से ये मनगढ़ंत किस्से लोगों का मनबहलाव करते आ रहे हैं. इन किस्सों के आधार पर वाजिद अली शाह की शख्सियत पर फैसला सुनाया जाता रहा है. लखनउआ जबान में कहें तो ये किस्से ‘कुल लोकल’ हैं लेकिन दुर्भाग्य ये है कि इन्होंने एक संवेदनशील, कलाप्रेमी, कविहृदय शासक की छवि बिगाड़कर रख दी है. लखनऊ की तमीज-तहजीब, नजाकत-नफासत और नाज-ओ-अंदाज का मखौल उड़ानेवाले इन किस्सों को रस लेकर सुनते-सुनाते हैं. वाजिद अली शाह के बारे में इस कोरी गप्प के प्रचार-प्रसार में इतिहास न जाननेवाले एवं कुछ सांप्रदायिक जहन के साथ ही बड़ी भूमिका अंग्रेजों की है जिन्होंने अवध की ‘हड़प’ को जायज ठहराने के लिए वाजिद अली शाह के खिलाफ इस तरह का प्रोपेगेंडा खूब फैलाया.


गौर फरमाएं

लखनऊ के चर्चित इतिहासकार अब्दुल हलीम ‘शरर’ ने अपनी मशहूर किताब गुजिश्ता लखनऊ में वाजिद अली शाह के शासनकाल और जनता में उसकी लोकप्रियता की विस्तार से चर्चा की है. किताब इस बात का सिरे से खंडन करती है कि वाजिद अली शाह अयोग्य शासक थे और लखनऊ की जनता उनसे खुश नहीं थी. प्रो. जीडी भटनागर समेत दूसरे इतिहासकारों ने भी ऐसा ही मत व्यक्त किया है. जोश मलीहाबादी ने भी अपनी आत्मकथा ‘यादों की बारात’ में अपने बचपन का जिक्र करते हुए कहा है कि उनके बचपन में बड़ी-बूढ़ियां वाजिद अली शाह के साथ अंग्रेजों द्वारा किए गए अन्याय को याद करके रोती थीं. जोश के मुताबिक वाजिद अली शाह आम जनता में कितने लोकप्रिय थे इसका अंदाजा इसी बात से हो सकता है उनके लखनऊ से जाने के आधी सदी बाद भी रियाया उन्हंे नम आंखों से याद करती थी. इसी तरह जूते पहननेवाला किस्सा भी इतिहास से कतई मेल नहीं खाता. न ही कहीं इतिहास में इस घटना का जिक्र मिलता है. सच ये है कि वाजिद अली शाह को अकेले नहीं बल्कि उनके कई साथियों के साथ हिरासत में लिया गया था और वो एक बड़े कारवां के साथ ही कलकत्ता रवाना हुए थे.

स्वामी विवेकानंद ने इंदिरा गांधी के साथ शादी से इनकार किया

vivekanadगांव में एकमात्र जनार्दन माटसाब थे जो बेनागा बीबीसी हिंदी के समाचार रेडियो पर सुना करते थे. खबर सुनने के बाद गांव-भर में घूमकर बताने की उनके अंदर बेचैनी भी रहती थी. सामनेवाले को खबर बताते हुए उनके चेहरे पर गर्व का ऐसा भाव होता मानों युद्ध जीतकर आए हों. एक तरह से वो गांव के लोगों के लिए ऐसी खिड़की थे जिससे लोग बाहरी दुनिया में झांका करते थे. गांव में उन्हें जानकार का दर्जा हासिल था इसीलिए लोगों ने अपने बच्चों को उनसे ट्यूशन पढ़वाना शुरू कर दिया था.

एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने बच्चों को भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बारे में बताना शुरू किया. इंदिरा की जीवनी की शुरुआत उन्होंने उनकी शादी की कहानी से की. कथा कुछ यूं है- ‘नेहरूजी इंदिरा की शादी के लिए बहुत परेशान थे. इस बात की जानकारी उन्होंने गांधीजी को दी. गांधीजी ने कहा इसमें क्या दिक्कत है. उनकी नजर में एक बहुत विद्वान और योग्य लड़का है. नेहरूजी ने पूछा कौन? तो गांधीजी ने कहा- स्वामी विवेकानंद. नेहरू तैयार हो गए. घर पहुंचकर उन्होंने इंदिरा से कहा कि बाबू तुम्हारी शादी विवेकानंद से कराने को कह रहे हैं. उन्होंने विवेकानंद से बात भी कर ली है. अभी विवेकानंद शिकागो में हैं. तुम जाकर कुछ दिन शिकागों में उनके साथ रहो. अगर तुम्हारी सहमति होती है तो हम उनसे शादी की बात आगे बढ़ाएंगे. पिता की आज्ञा पर इंदिरा शिकागो पहुंच गईं. अगले दिन स्वामीजी सुबह चार बजे उठकर अपने कामकाज में लग गए जबकि इंदिरा दोपहर में ग्यारह बजे सोकर उठीं. उठने के बाद बिना नहाए-धोए इंदिरा पाउडर-क्रीम लगाकर तैयार हो गईं. उस दिन तो स्वामीजी कुछ नहीं बोले. संत आदमी थे. लेकिन अगले दिन फिर वही गत. बिना नहाए-धोए इंदिरा तैयार हो गईं.

इंदिरा गांदी के इस गंदे स्वभाव को देखकर स्वामीजी बोले, ‘देखिए हमारे और आपके व्यवहार में बहुत अंतर है. हम आपसे शादी नहीं कर सकते.’ स्वामीजी की इस बात पर इंदिरा तुरंत ही रोते-बिलखते हुए भारत वापसी की तैयारी करने लगीं. वापस आकर उन्होंने नेहरू को बताया कि स्वामीजी ने उनके साथ शादी से इनकार कर दिया है. तब जाकर उनकी शादी फिरोज गांधी से हुई.

मास्टरजी ने यह कहानी गांव के लगभग हर रहवासी को सुनाई थी. इतना ही नहीं बलिया और आस-पास के उस दयार में जाने किस स्रोत से यह कहानी थोड़े फेरबदल के साथ चौतरफा फैली हुई है. पूरी तरह से अफवाह और झूठ पर आधारित यह कहानी उस इलाके में ऐतिहासिक तथ्य बन चुकी थी. अधिकांश लोगों को इस कहानी की सत्यता पर कोई संदेह नहीं था. बाद के समय में जब कुछ पढ़-लिख गए लड़कों ने मास्टरजी की इस कहानी पर सवाल उठाया तो गांव के बड़े-बुजुर्ग और खुद मास्टरसाब कहने लगे, ‘बड़े होकर सारा संस्कार भूल गए हो तुम लोग इस तरह बड़े-बुजुर्गों की बात काटकर उनका अपमान कर रहे हो.’


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स्वामी विवेकानंद और इंदिरा की शादी की कहानी कितनी फर्जी है इसका प्रमाण यही एकमात्र तथ्य है कि स्वामी विवेकानंद की मृत्यु 4 जुलाई 1902 को हुई जबकी इंदिरा गांधी का जन्म 19 नवंबर 1917 को हुआ. यानी स्वामी विवेकानंद की मृत्यु के 15 साल बाद इंदिरा गांधी ने इस दुनिया में कदम रखा था.

‘लगिहें बीसा, न रहिएं ईसा, न रहिएं मूसा’

pos_negगांव-देहात में बसनेवाला समाज अपने हिसाब से अपनी कहानियां गढ़ता रहता है. देवी-देवता, चुनावी राजनीति और तो और दुनियाभर में घट रही घटनाओं तक पर इस समाज के अपने कुछ मिथक जरूर होते हैं. बिहार के कई इलाकों में एक ऐसी ही मिथकीय कहावत सुनी-सुनाई जाती है.

‘लगिहें बीसा, न रहिएं ईसा, न रहिएं मुसा’ इस कहावत का अर्थ यह है कि बीसवीं सदी की शुरुआत से हजार साल के दौर में यानी सन 3000 तक ईसाई धर्म के मानने वालों और इस्लाम को माननेवालों के बीच जबरदस्त लड़ाइयां होंगी और इस लड़ाई में इन दोनों समुदायों का लगभग सफाया हो जाएगा. दुनिया में सिर्फ भारतीय दर्शन ही शेष रह जाएगा.

इस कहावत का सच से कोई विशेष लेना-देना नहीं है लेकिन फिर भी यह एक खास इलाके में काफी सुनी-सुनाई जाती है. आलम यह है कि बिहार के एक हिस्से में बीसवीं सदी से जुड़ा यह मिथक इतना लोकप्रिय है कि लोग इसे कहावतों का हिस्सा बना चुके हैं. किसी कालखंड में इस कहावत को किसी व्यक्ति ने कहा या बोला होगा. फिर यह पूरे इलाके के मानस में बैठ गई है.

इस साल सात जनवरी को जब फ्रांस से छपनेवाली साप्ताहिक व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली हेब्दो’ के दफ्तर पर आतंकी हमला हुआ था तब बिहार के वैशाली जिले के एक गांव में इस कहावत से सामना हुआ. शार्ली हेब्दो पर हमले की खबर एक दिन बाद अखबार के जरिए गांव में पहुंची थी. खबर पढ़ने के बाद गांव के कुछ बड़े-बुजुर्ग इसी विषय पर गंभीर चर्चा में लगे हुए थे. तभी एक बुजुर्ग के मुंह से यह कहावत फूट पड़ी. वहां मौजूद बाकी लोगों ने भी पूरे विश्वास से सहमति में सिर हिला दिया. उस कहावत के बारे में थोड़ी गहरी पड़ताल करने पर पता चला कि उन्हें यह कहावत गांव के ही एक बुजुर्ग ने सुनाई थी.

तब 1962 का भारत-चीन युद्ध हो चुका था. गांव-देहात में बसनेवाले लोग भी यह जानते थे कि इस लड़ाई में भारत को चीन ने हरा दिया है. वे अपने कुछ दोस्त-यारों के साथ भारत-चीन युद्ध पर बात कर रहे थे. सारे लोग इस बात से परेशान थे कि चीन से हार जाने के बाद भारत पर कहीं दूसरे देश भी हमला न कर दें. इसी बातचीत के बीच गांव के एक बुजुर्ग भी शामिल हो गए. उन्होंने इस कहावत को सुनाकर लड़कों को भरोसा दिलाया कि भविष्य में जो लड़ाई होगी उससे भारत का कोई नुकसान नहीं होगा. भविष्य में लड़ाई उन देशों के बीच होगी जहां ईसाई और मुसलमान रहते हैं और राज करते हैं. यह कहावत उन बुजुर्ग की भी नहीं थी. गांव के लोगों के मुताबिक उनसे यह कहावत किसी बड़े संत ने कही थी. वो संत भविष्यवाणी के धंधे में थे और बिहार के इस पूरे इलाके उनकी भविष्यवाणी को सत्य माना जाता था.


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इस कहावत में जो कहा गया है उस पर यकीन करने का कोई आधार नहीं है क्योंकि यह बात ऐसे ही किसी ने अपने धर्म के श्रेष्ठता बोध में कही है. इसका कोई तार्किक या वैज्ञानिक आधार नहीं है. इस हवाले से इतना जरूर समझा जा सकता है कि लड़ाई हार चुके एक देश का गंवई समाज कैसे एक कहावत के जरिए अपनी चिन्ता या डर को छुपाने का प्रयास करता है और कैसे एक भविष्यवाणी करनेवाला इस डर की नींव पर अपनी धाक कायम करता है.

‘एडविना माउंटबेटन के प्रभाव में थे नेहरू’

sdfdrजवाहर लाल नेहरू के बारे में यह बात जगजाहिर है कि उनके एडविना माउंटबेटन से गहरे ताल्लुकात थे. सच या झूठ ज्यादा किसी को नहीं पता. मित्रता तक तो ठीक है, लेकिन कल्पनाशील, गप्पप्रेमी भारतीय समाज ने इस संबंध को कई और मुकाम दिए हैं. कल्पना यहां तक जाती है कि एडविना माउंटबेटन से नेहरू के जिस्मानी संबंध थे. कहानीकारों और इतिहासकारों का एक समूह दोनों के संबंधों को इस तरह से परिभाषित करता है कि एडविना को अंग्रेजों ने नेहरू को बरगलाने के लिए भारत भेजा था. एडविना ने नेहरू को अपने प्रेम में फांसकर ऐसी तमाम शर्तें मनवाईं जो भारत के हित में नहीं थी. नेहरूविरोधी धारा के लोगों ने यह प्रचार भी किया है कि एडविना के कहने पर ही नेहरू पाकिस्तान के बंटवारे के लिए तैयार हो गये थे. कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि भारत से जाने के बाद नेहरू विदेश नीति से लेकर कई राजनीतिक मुद्दों पर एडविना की सलाह लिया करते थे.


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एडविना माउंटबेटन की बेटी पामेला ह्रिक्स ने अपनी किताब डॉटर ऑफ एम्पायर में लिखा है कि उनकी मां एडविना भारत के पहले प्रधानमंत्री की करीबी दोस्त थीं. दोनों एक-दूसरे के साथ वक्त बिताते थे और खुश रहते थे. एडविना नेहरू के इस संबंध के बारे में पिता माउंटबेटन भी जानते थे. पार्टी और तेज रफ्तार जिंदगी की शौकीन लेडी माउंटबेटन के जीवन में नेहरू के आने के बाद ठहराव आया था और पामेला इस रिश्ते को आध्यात्मिक और रूहानी बताती हैं, जिसमें वासना के लिए कोई जगह नहीं थी.

यह सच है कि नेहरू और लेडी माउंटबेटन के बीच आत्मीय संबंध थे. दोनों एक-दूसरे से गहराई तक जुड़े हुए थे और 13 साल की इस दोस्ती में उन्होंने अच्छा वक्त बिताया. यह दो राजनेताओं या प्रमुख शख्सियतों के बीच बननेवाले रिश्ते की एक मिसाल है. नेहरू और एडविना के जिन चित्रों के आधार पर उनके संबंधों पर चुटकियां ली जाती हैं उनमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है. दुनिया की तमाम शीर्ष राजनीतिक और प्रभावशाली शख्सियतों के बीच आत्मीय और गहरे संबंध रहे हैं. एक-दूसरे के बीच पत्र व्यवहार भी होता है. अपने समय की इन दो महत्वपूर्ण हस्तियों के बीच का संबंध भी कुछ कुछ ऐसा ही था.

डॉ. हेडगेवार ने सुरंग खोदकर तिरंगा फहराया

asdasयूं तो स्वतंत्रता के आंदोलन में होम हुए सेनानियों के मामले में हमारे राष्ट्रवादी कुनबे का झोला रीता ही है लेकिन कहानियों और संघ साहित्य में ब्रिटश काल के दौरान प्रबल राष्ट्रवाद से जुड़ी अनेकानेक दंत कथाएं पूरी प्रखरता से मौजूद हैं. जब गांधी, नेहरू, पटेल, आजाद समेत आजादी के तमाम नायक अंग्रेजों से भारत को छुड़ाने की कोशिश में थे तब संघी कुनबा भारत को मलेच्छों और मुसलमानों से छुड़ाने की फिराक में था. खैर करने को भले न कुछ रहा हो लेकिन कहने को बहुत कुछ है.

यह कथा संघ के शिक्षालयों और शिशु मंदिरों में संघ संस्थापक डॉ. केशव बलराम पंत हेडगेवार को लेकर है जिसे खूब कहा-सुना भी जाता है. कथा कुछ यूं है कि बचपन से ही हेडगेवार के मन में देशप्रेम की भावना बलवति थी. पंद्रह बरस की आयु में ही उनके मन में अंग्रेजों को इस देश से बाहर खदेड़ने का भाव हावी हो गया था. अंग्रेजी जमाना था. नागपुर के अंग्रेज मजिस्ट्रेट का दफ्तर किसी किले की मानिंद ऊंची दीवारों और अट्टालिकाओं से घिरा होता था. निरंतर संतरी पहरेदारी किया करते थे. किले के भव्य द्वार के शीर्ष पर कभी न अस्त होनेवाला अंग्रेजी साम्राज्य का प्रतीक यूनियन जैक फड़फड़ाता रहता था. हर दिन उधर से गुजरते बाल हेडगेवार के मन को यह बात बहुत कचोटती थी. अपमान के प्रतीक यूनियन जैक को उसकी हैसियत दिखाने और अंग्रेजों को उनकी वाजिब जगह दिखाने का प्रण बाल हेडगेवार ने कर लिया. रणनीति तय हो गई. बाल हेडगेवार ने अपने कुछ साथियों के साथ अपने घर के भीतर से एक सुरंग खोदनी शुरू कर दी. उनका दृढ़ निश्चय था कि यूनियन जैक के स्थान पर तिरंगा फहराना है. अपने बाल मित्रों के सहयोग से कुछ ही दिन में हेडगेवार ने इस काम को अंजाम तक पहुंचा दिया. यूनियन जैक हटाकर मजिस्ट्रेट के दफ्तर पर तिरंगा फहराने की यह कहानी शिशु मंदिरों में खूब कही सुनी जाती हैं. बाद में इस कहानी के सूत्र पकड़ने की तमाम कोशिशें व्यर्थ गईं. किसी स्वतंत्र इतिहासकार अथवा पुस्तक में इस तरह का कोई दृष्टांत देखने-सुनने को नहीं मिला.


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संघ का एक सच यह है कि आजादी के पहले और बाद तक वह तिरंगे को भारत का राष्ट्रीय प्रतीक मानता ही नहीं था. उसके सपनों में भारत का राष्ट्रीय ध्वज भगवा स्वरूप लिए हुए था. दूसरी बात हेडगेवार का जन्म 1889 में हुआ था. यानी यह घटना पंद्रह वर्ष बाद 1904 या 05 के आस पास की होनी चाहिए. उस समय तक तिरंगे का कोई अस्तित्व ही नहीं था. मौजूदा स्वरूपवाला तिरंगा 1947 में अस्तित्व में आया उससे पहले तिरंगे के बीच में चक्र की जगह चरखा होता था. उससे भी पहले का ध्वज औऱ भी अलग आकार-प्रकार का होता था. एक सच यह भी है कि लंबे समय तक संघ तिरंगे से खुद को इतना दूर रखता रहा कि नागपुर स्थित संघ मुख्यालय पर 2002 में पहली बार तिरंगा फहराया गया.

वीर सावरकर ने अंग्रेजों से नहीं मांगी थी माफी

tgfesdहिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करनेवालों में सबसे अग्रणी नाम विनायक दामोदर सावरकर का है. वीर सावरकर के नाम से जाने-जानेवाले इस क्रांतिकारी के बारे में कहा जाता है कि कालापानी की सजा पाने के बाद उन्होंने ब्रिटिश सरकार से माफी मांगी थी. यह उनकी एक चाल थी, ताकि जेल से रिहा होकर वह स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले सकें. अंग्रेजों से उनकी माफी को लेकर भारतीय समाज में कई मत हैं. सावरकर समर्थकों का मानना है कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार से माफी नहीं मांगी थी.

सावरकर के लिखे साहित्य पर ब्रिटिश सरकार ने पाबंदी लगा रखी थी. सात अप्रैल 1911 को नासिक के तात्कालिक कलेक्टर एटीएम जैक्सन की हत्या के संबंध में उन्हें कालापानी की सजा के तौर पर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में स्थित सेल्यूलर जेल (कालापानी) भेजा गया था. यहां कैदियों को जानवरों की तरह रखा जाता था और कठोर परिश्रम कराया जाता था. कहा जाता है कि इस जेल में कैदियों को नारियल से तेल निकालना पड़ता था. इसके लिए उन्हें कोल्हू के बैल की तरह जोत दिया जाता था. उनसे जंगलों को साफ रखने के लिए काम कराया जाता था. साथ ही दलदली और उबड़-खाबड़ जमीन को समतल करना होता था. कैदियों को लगातार काम करना होता था और रुकने पर कोड़े और बेंतों से पिटाई की जाती थी. उन्हें भरपूर खाना भी नहीं दिया जाता था. सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहने के बाद रिहा हो गए.

सावरकर की रिहाई अब भी विवाद का विषय है. विवाद इसलिए, क्योंकि कालापानी के बारे में मशहूर था कि वहां से कोई भी जिंदा वापस नहीं लौटता था. सावरकर के जेल से छूटने की कहानी को लेकर समाज दो धड़ों में बंट गया. एक धड़े का मानना है कि सावरकर ने माफी मांगी थी, वहीं दूसरे धड़े की सोच इसके विपरीत है.


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फ्रंटलाइन पत्रिका के मार्च 2005 के एक अंक में वह पत्र प्रकाशित हुआ था जो सावरकर की ओर से अंडमान के चीफ कमिश्नर को 30 मार्च 1920 को भेजा गया था. पत्रिका में छपी रिपोर्ट के मुताबिक चार जुलाई 1911 को सेल्यूलर जेल पहुंचने के छह महीने के भीतर सावरकर ने दया याचिका दाखिल की थी. अक्टूबर 1913 में वायसराय की कार्य परिषद के सदस्य सर रेगिनाल्ड क्रेडॉक जेल पहुंचकर सावरकर और कुछ दूसरे कैदियों से मिले थे लेकिन बात नहीं बनी. इसके बाद 14 नवंबर 1913 उन्होंने दूसरी दया याचिका दाखिल की थी. इसमें उन्होंने लिखा था, ‘मैं अपनी पूरी शक्ति के साथ सरकार की इच्छा के अनुसार सेवा करना चाहता हूं…’ पत्र के आखिर में उन्होंने खुद को सरकार का सबसे आज्ञाकारी मुलाजिम बताया था. यह पत्र भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में संरक्षित रखा गया है.