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वे, जो अपने डर से हार गए

गोविंद पानसरे (26 नवंबर 1933 - 20 फरवरी, 2015)
गोविंद पानसरे (26 नवंबर 1933 – 20 फरवरी, 2015)

बहुत नहीं थे सिर्फ़ चार कौए थे काले/उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़नेवाले/

उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खाएं और गाएं/वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनाएं.

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता की उपरोक्त पंक्तियां एकाएक मन में कौंध गई जब से काॅमरेड गोविंद पानसरे की हत्या की खबर सुनी. इन  मुट्ठीभर काले कौओ की हमेशा से यही चाल रहती है कि जो उनके तयशुदा नियमों को तोड़ेगा वह उसका जीना मुहाल कर देंगे. हमारे देश के ये कौए भी ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले से लेकर शंकर गुहा नियोगी, एमएफ हुसैन ….  और हाल ही में नरेंद्र दाभोलकर  और अब काॅमरेड पानसरे तक को अपने प्रतिगामी तयशुदा नियमों के तहत बांधना चाहते थे. डराना चाहते थे.  जब हरा नहीं पाए, बांध नहीं पाए तो धमकाने पर उतर आए. और जब इससे भी बात नहीं बनी तो हर तरह से हैरान-परेशान किया. इन काले कौओं ने कभी पत्थर चलाए तो कभी चित्र फाड़े और इससे भी मन नहीं भरा तो कायरों की तरह छुपकर वार कर भागे. दरअसल यह इनके भीतर का डर है जो किसी न किसी शक्ल में सामने आता है. काॅमरेड पानसरे की कायरतापूर्ण हत्या के पीछे भी यही डर काम कर रहा था. पर हमेशा की तरह ये भूल गए कि तर्कपूर्ण विचार, कायरतापूर्ण हत्यारी कार्रवाईयों से मारे नहीं मरता है, इतना अवश्य होता है कि ये कायर हर बार अपने इस डर से हार जाते हैं. सो, अभी ये कौए अपने अच्छे दिनों का भले ही त्यौहार मना लें पर इनकी हार निश्चित है. इतिहास का कूड़ेदान इनकी प्रतिक्षा में है.

गोविंद पानसरे से कौन डरता है

इसी 16 फरवरी की सुबह जब महाराष्ट्र के कोल्हापुर से 82 वर्षीय काॅमरेड पानसरे को गोली मारे जाने की खबर आई तो देश की प्रगतिशील, बहुजन, लोकतांत्रिक और साम्यवादी जमातों में एक भारी रोष की लहर पैदा हुई. इसी सब के बीच एक अहम बात की फिर से तस्दीक हुई कि देश, इतिहास और जन विरोधी जमात एक सच्चे और तर्कशील व्यक्ति से कितना डरती है. याद रहे कि काॅमरेड पानसरे अपने लगभग साठ वर्ष के सार्वजनिक जीवन में इन्हीं पूंजीवादी, सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों के खिलाफ आवाज बुलंद किए हुए थे. छत्रपति शिवाजी को संकीर्ण हिंदुवादी ताकतों द्वारा गौ-ब्राह्मण प्रतिपालक हिंदु राजा साबित करने की भरपूर कोशिशों को पानसरे की लिखी चर्चित पुस्तिका शिवाजी कौन था,  ऐतिहासिक तथ्यों और तार्किक दलीलों से ध्वस्त कर देती है। संक्षिप्त किंतु सारगर्भित कलेवर लिए यह पुस्तिका अनेक भाषाओं में अनुवादित होकर व्यापक तौर पर पढ़ी गई है। पानसरे द्वारा एक जगह लाकर रख दिए ऐतिहासिक तथ्य पुष्टी करते हैं कि शिवाजी आम जनता के पालक थे न कि कोई धर्मांध राजा जो अपनी प्रजा में भेद करता है. यही नहीं बहुजन मुक्ति के प्रतीक शाहूजी महाराज की क्रांतिकारी विरासत को चर्चा में लाने और मिसाल बनाने का महत्वपूर्ण काम भी पानसरे ने शिद्दत के साथ किया। गोडसेवादी उनसे डरने लगे थे क्योंकि वे उनकी तथाकथित सामाजिक समरसता की पोल खोल रहे थे.

कोल्हापुर में शहरी सीमा के भीतर ही आने-जाने के लिए वसूले जानेवाले टोल टैक्स के वे घोर विरोधी थे. इसके खिलाफ एक सशक्त आंदोलन चलाए हुए थे. ऐसे अभियानों के कारण धनपति और बाहुबलि गिरोह उनके विरोधी थे. सांप्रदायिक दुराग्रहों और दक्षिणपंथी आर्थिक सोच के बीच पनपे और मजबूत होते जा रहे गठजोड़ को वे खुली चुनौती दे रहे थे. हाल ही में नाथूराम गोडसे को जिस तरह राष्ट्रभक्त करार देने की घृणित कोशिशें तेज हुई हैं, पानसरे उसके प्रबल विरोधी तो थे ही, उस सोच के पोले पन को सतत बेनकाब करने में भी लगे हुए थे. सो अंदाज लगाना क्या मुश्किल है कि इस दुनिया में उनके न रहने से किस तरह की ताकतों का हित सध सकता है. ऐसे कितने उदाहरण हमारे सामने हैं जो यह बताते हैं कि पानसरे हिंदुत्ववादी और पूंजीवादी ताकतों के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुके थे. उनकी सक्रियता ही फासीवादी ताकतों की आंख की किरकिरी बनी हुई थी. कायरों ने वही किया जो वे कर सकते थे. अब हमें कुछ करना है.

पानसरे की हत्या एक व्यक्ति की हत्या भर नहीं है. वह तर्कशील विचार परंपरा को नष्ट करने की कोशिश है. पानसरे की हत्या के बाद और हत्याएं ना हों, इसलिए  जरूरी है कि समाज के विचारशील, संवेदनशील, समतावादी लोग और समूह संगठन चुप ना बैठें। सांप्रदायिकता, जातिवाद, कायरता, हिंसा, गैर बराबरी की खिलाफत करे। जरूरी है सब मिलकर अस्तित्व की मुद्दे पर बल दें,  भ्रामक अस्मिता पर नहीं। ऐसा कार्य हो, यही काॅमरेड पानसरे को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

असली दोषी कौन

काॅमरेड पानसरे की हत्या प्रगतिशील राष्ट्र के लिए एक बड़ा हादसा है. साथी नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारों की तलाश और उन पर कोई कार्यवाई न होते हुए फिर इस मार्क्सवादी नेता पर इसी प्रकार से हमला होना बहुत कुछ संदेश दे रहा है।  दाभोलकर और कॉमरेड पानसरे पर हमला एक ही तरीके से हुआ है. हालांकि, अभी तक की कानूनी कार्रवाई में यह साफ नहीं हुआ है कि पानसरे की हत्या के असली हत्यारे कौन हैं लेकिन आज के राजनीतिक और सामाजिक हालत पर नजर डालें तो समझ में आता है कि इस कायरतापूर्ण हत्याकांड के पीछे असली षडयंत्रकारी कौनसी ताकतें हो सकती हैं. यह वही मुट्ठीभर लोग हैं, जो जाति और धर्म के नाम पर गर्व व अस्मिता का मुद्दा बनाते हैं. वही दोषी हैं. इनमें पूंजीपति और धर्मपति दोनों का गठजोड़ साफ दिखता है. दाभोलकर की हत्या का समर्थन, ‘अपने कर्मों से ही उन्हें मौत आ गई’ यह कहकर करनेवाले तथा ‘पानसरे भी दाभोलकर के ही मार्ग से जाएंगे’ यह कहकर धमकानेवाले भी महाराष्ट्र में ही हैं। खुले या छुपे राजनीतिक  समर्थन-संरक्षण भी इन्हें प्राप्त है. इन्हें पहचानना कठिन नहीं है. सवाल है इन्हें कानून की जद में लाने का.

जमशेदपुर की जकड़न

जमशेदपुर लंबी और असहज खामोशी का शहर है. इस भयावह चुप्पी को तोड़ने का जरिया टाटा स्टील में हर रोज काम शुरू होने और फिर खत्म होने के बाद बजनेवाला सायरन है. स्टील सिटी के लोगों के लिए सब कुछ, खास तौर पर उनका रोजगार, टाटा स्टील के इर्द-गिर्द ही घूमता है. विडंबना है कि शहर के लोग अक्सर खामोश ही रहते हैं और बातचीत का प्रयास करने पर धीरे से मुस्कुराते हुए निकल जाते हैं. ऐसा आपके साथ जरूर होगा अगर आपने किसी जमशेदपुरवासी से टाटा स्टील के बारे में बात करने की कोशिश की, मसलन कैसे देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने ने जमशेदपुर के अतीत पर काबिज होकर इसकी प्राकृतिक संपदा का दोहन किया और शहरवासियों को बेदर्दी से शोषण के अंतहीन चक्र में फंसा दिया.

सबसे पहले मिलते हैं फागु सोरेन से. इस शहर के लाखों गरीब लोगों में से एक. फागु सोरेन जमशेदपुर के मूल निवासियों में से हैं, लेकिन अब शहर के बाहरी इलाके में रहते हैं. सोरेन सुवर्णरेखा नदी के किनारे टीन के एक घर में रह रहे हैं. इस घर का फर्श कीचड़ से सना है और बांस के सहारे प्लास्टिक लगाकर घर की छत खड़ी की गई है. फरवरी की दोपहर, सोरेन सुवर्णरेखा नदी, जिसका अर्थ ‘सोने की नदी’ है, के किनारे गुमसुम बैठे हैं. उनके एक हाथ में सामान से भरा पुराना थैला और दूसरे हाथ में पुरानी टोपी है. सोरेन की उम्र बमुश्किल 40 साल होगी, लेकिन वह उम्र से कहीं अधिक बड़े नजर आते हैं. सोरेन ज्यादा बोल नहीं रहे लेकिन उनकी आंखें अभी से ही नम हो गईं. सोरेन की गमगीन आंखें अन्याय और शोषण को स्थापित करने का पहला जरिया-भर हैं.

अगर सोरेन को मौका मिले तो वह मुझे, आपको और जो भी उनकी कहानी सुनना चाहे उन्हें बताएंगे कि स्वघोषित ‘इस्पात से भी मजबूत हमारे उसूल’ की बात करने वाली कंपनी ने कैसे उनकी रोजी-रोटी छीन ली. रोजगार छीनने के साथ ही कंपनी ने उनके शहर की प्राकृतिक संपदाओं का भरपूर दोहन किया और उनके पुरखों के गृहनगर को जानलेवा वायु प्रदूषण से भर दिया. सोरेन ने लोगों को अपनी दर्दनाक कहानी से आगाह करने की जगह चुपचाप बिना किसी प्रतिरोध के गुमनामी की जिंदगी का रास्ता अपना लिया. इसकी वजह है कि सोरेन के पास विकल्पों का अभाव था, या फिर कह सकते हैं कि कोई विकल्प था ही नहीं. सोरेन देश में टाटा के सबसे बड़े स्टील प्लांट वाले शहर की जहरीली गैस से प्रदूषित हवा में सांस लेने के लिए मजबूर हैं. इंसान के लिए नुकसानदेह सुवर्णरेखा नदी के पानी को पीने के लिए इस्तेमाल करना उनकी मजबूरी है. सोरेन की आंखें अनायास ही दलमा की उन पहाड़ियों की तरफ उठ जाती हैं, जो कभी हरी-भरी और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर थीं. इसी पहाड़ी के तले कभी उनके पूर्वजों ने जन्म लिया और कई पीढ़ियों ने जिंदगी बिताई. अब दलमा की ये पहाड़ियां कठोर चट्टानों में तब्दील हो चुकी हैं.

सोरेन इन त्रासदियों के बाद भी ज्यादा नहीं बोलते. वह सिर्फ सुनते हैं-सरकारी अधिकारियों को, टाटा स्टील के पदाधिकारियों को, पर्यावरणविदों को और पत्रकारों को. ये सभी लोग भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बनाने की बात करते हैं, भूमि कानूनों के न होने पर चिंता जाहिर करते हैं, नागरिक सुविधाओं के अभाव, पर्यावरण के दूषित होने और कॉरपोरेट चालाकियों की बात करते हैं. इन सबके बाद भी सोरेन की स्थिर चुप्पी नहीं टूटती है. ‘इस्पात से भी मजबूत उसूल’ की बात करनेवाले टाटा स्टील के लिए लगता है कि ‘उसूल’ महज 3000 करोड़ के विज्ञापन तक ही सीमित है. टाटा ग्रुप ऑफ कंपनीज के संस्थापक जमशेदजी नसरवानजी टाटा के नाम पर बने शहर जमशेदपुर की जमीनी हकीकत कुछ अलग है. 3.72 लाख करोड़ की अनुमानित लागतवाली टाटा कंपनी के विज्ञापन, भारतीय औद्योगिक घरानों से खुद को अलहदा कहनेवाली, पूंजीवादी नैतिकता और सामाजिक सरोकार की बातें जमशेदपुर के निवासियों के लिए एक क्रूर मजाक हैं. साथ ही यह उस दावे का भी मजाक उड़ाती है, जो टाटा ग्रुप के पूर्व चेयरमैन रतन टाटा ने ‘नैनो’, जिसे आम आदमी की कार भी कहते हैं, के बारे में किया था. रतन टाटा ने कहा था कि एक बार बारिश में 4 सदस्यों के परिवार को उन्होंने स्कूटर पर भीगते देखा था. इसे देखकर वह इतने द्रवित हो गये कि उन्हें एक सस्ती ‘आम आदमी के लिए’ कार बनाने की प्रेरणा मिली.

 

कानूनी कवच और टालमटोल

एक क्रूर पहलू यह भी है कि कानूनी दांव-पेंच और जटिल कानूनी प्रक्रियाओं के सहारे टाटा समूह ने जमशेदपुर शहर के लोगों को उनके द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित कर रखा है. जमशेदपुर में कोई नगर निगम नहीं है. हालांकि फैक्ट्रियों के इस शहर में निर्वाचित नगर निगम के लिए 1967 से ही कोशिशें चल रही हैं. लेकिन टाटा समूह ने भ्रामक कानूनी प्रक्रियाओं और याचिकाओं के सहारे लंबे समय से नगर निगम की स्थापना की सभी कोशिशों को सफलतापूर्वक रोके रखा है. स्टील सिटी में नागरिक सुविधाओं के दायरे में आनेवाली चीजें मसलन सड़कों का निर्माण, सीवरेज, ड्रेनेज, पानी की आपूर्ति, स्ट्रीट लाइट लगाने जैसे काम टाटा की व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर हैं.

जमशेदपुर प्रशासन की राह में मूल समस्या उसके लीज समझौते के प्रावधान हैं, जिन्हें जानबूझकर एक पक्ष में रखा गया है. इसके नियम और शर्तें संदिग्ध नजर आती हैं. 37,000 एकड़ क्षेत्रवाले जमशेदपुर में समझौते के तहत टाटा स्टील का लगभग इसके आधे हिस्से पर अधिकार है और यहां के निवासियों को मूलभूत नागरिक सुविधाएं मुहैया कराना टाटा की जिम्मेदारी है.

2011 के जनगणना आंकड़ों के तहत जमशेदपुर पूर्वी भारत में कोलकाता और पटना के बाद तीसरा सबसे बड़ा शहर है. 13 लाख की आबादीवाले इस शहर का प्रशासन जमशेदपुर नोटिफाइड एरिया कमिटी (जेएनएसी) के तहत होता है. जमशेदपुर शहरी समुदाय के तहत यू/ए (यूए) सिटी की श्रेणी में आता है. यह दस लाख से ऊपर के शहरों के लिए मिलता है. इसमें जमशेदपुर शहर जिसकी आबादी छह लाख है, मैंगो (नोटिफाइड एरिया कमिटी के तहत) क्षेत्र जिसकी आबादी करीब दो लाख से अधिक और आदित्यपुर की नगर पंचायत जिसकी आबादी 1.7 लाख है, के क्षेत्र इसमें समाहित हैं. यह फैक्ट्री क्षेत्र में आता है और इस आबादी की स्पष्ट जिम्मेदारी किसी की भी नहीं है.

आज स्थिति यह है कि जमशेदपुर के भीतरी इलाकों में पड़नेवाली टेल्को कॉलोनी जैसी कुछेक संभ्रांत कॉलोनियों और उसके आस-पास के लोगों का ही नागरिक सुविधाओं पर एकाधिकार है. इन इलाकों में रहनेवाले लोगों के पास बड़े बंगले, हरे-भरे बगीचे, खूबसूरत पार्क, पानी से भरे तालाब और मुख्य सड़क से जोड़नेवाली चमचमाती सड़कें हैं. वहीं दूसरी तरफ शहर की एक बड़ी आबादी टूटे-फूटे घरों में रह रही है. इन घरों की दीवारों पर प्लास्टर तक नहीं है, टूटी नालियों से कचरा बहता है और बरसात में छतों से पानी टपकता है, सड़कें भी खस्ताहाल हैं. हवा में फैला जहरीला प्रदूषण नुकसानदायी स्तर से भी कई गुना ज्यादा है.

जमशेदपुर टाटा स्टील फैक्ट्री की विशालकाय परछाई तले जीता है. फैक्ट्री से रोज निकलने वाले टनों अलग-अलग रंग के धुएं की उल्टी से शहर का आकाश सफेद रंग से ढंका रहता है. धुंध भरी सुबहों के साथ दिन की शुरुआत होती है और अंत तारों से खाली रात के आकाश के साथ होता है. इस शहर के लोग हर वक्त पानी और दूसरी कई बीमारियों से होनेवाले डर में जीते हैं. टाटा स्टील प्लांट के आस-पास (आधा दर्जन से अधिक जगहों) पर कचरे का ढेर लगा है और लोग उस दमघोंटू बदबू से गुजरकर बच्चों को स्कूल छोड़ने जाते हैं. शहर के 12 लाख से अधिक लोग नागरिक सुविधाओं के अभाव में जी रहे हैं. स्टील सिटी का यह हिस्सा जरूरी सुविधाओं के बिना जीने के लिए अभिशप्त हैं.

आश्चर्य की बात है कि जमशेदपुर में स्थिति ऐसी क्यों बनी हुई है? सवाल यह भी है इस शहर में नागरिक सुविधाओं को बहाल करने के लिए देशभर में कहीं से कोई आवाज क्यों नहीं आती? टाटा स्टील कानूनन शहर में नागरिक सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए जिम्मेदार है, संवैधानिक तौर पर भी और कॉरपोरेट-सोशल उत्तरदायित्व के तहत भी. इसके बावजूद विरोध के स्वर नदारद क्यों हैं? इन सवालों के जवाब के लिए हमें लगभग एक दशक से भी पीछे जाना होगा और जमीनी स्तर पर टाटा का विशाल भवन कैसे डगमगाते हुए खड़ा है, इसकी पड़ताल करनी होगी.

जमशेदपुर में टाटा स्टील प्लांट की स्थापना 1907 में की गई थी. 21 जून 1924 को नोटिफिकेशन नंबर 5960 के तहत जमशेदपुर को अधिसूचित क्षेत्र घोषित किया गया था. 21 अगस्त 1989 को स्थानीय नागरिक जवाहरलाल शर्मा की ओर से दाखिल 1988 की रिट याचिका (सिविल) नंबर 154 की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने की थी. जस्टिस सब्यसाची मुखर्जी, एस. रंगनाथन और कुलदीप सिंह की इस पीठ ने रेखांकित किया था, ‘यह हमारे ध्यान में लाया गया है कि 1967 में बिहार और उड़ीसा नगर निगम अधिनियम 1922 की धारा 390A के तहत बिहार सरकार ने जमशेदपुर के अधिसूचित क्षेत्र को नगरनिगम में बदलने की मंशा जाहिर की थी. मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद 1973 में जमशेदपुर को नगरनिगम में बदलने का विचार रद्द कर दिया गया था हम इस पक्ष में हैं कि याचिका में उठाए गए बिंदुओं, तथ्यों और प्रस्तुतियों के आलोक में बिहार सरकार को इस मामले पर नए सिरे से विचार करना चाहिए. हम सरकार को निर्देश देते हैं कि वह इस तारीख से आठ सप्ताह के भीतर उक्त अधिनियम की धारा 390A के तहत जमशेदपुर को नगरनिगम में बदलने की मंशा की घोषणा के संबंध में एक अधिसूचना जारी करे.’

इसके बाद जमशेदपुर में नगरनिगम बनाने के लिए 23 नवंबर 1990 को बिहार और उड़ीसा नगरनिगम अधिनियम 1922 की धारा 390A के तहत एक अधिसूचना जारी की गई थी. हालांकि 11 जनवरी 1991 को टिस्को (टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड, जिसे अब टाटा स्टील के नाम से जाना जाता है) ने इस अधिसूचना को चुनौती देते हुए पटना उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दाखिल की, जिसके बाद न्यायालय ने अधिसूचना पर रोक लगा दी. फिर 11 मार्च 1992 को जमशेदपुर नोटिफाइड एरिया कमेटी (जेएनएसी) का गठन किया गया और न्यायालय ने 25 नवंबर 1992 को इस संबंध में स्थगन आदेश जारी कर दिया.

एक जून 1993 को जब संविधान का 74वां संशोधन प्रस्तुत किया गया, तब इसमें नगरनिगम/औद्योगिक नगर बसाने के लिए अनुच्छेद 243Q जोड़ा गया. यहां भी टाटा समूह का सर्वव्यापी प्रभाव काम कर रहा था. जमशेदपुर पश्चिम से पूर्व भाजपा सांसद सरयू रॉय इसे इस तरह से बताते हैं, ‘सरकार के शहरी विकास विभाग के उच्चतम स्तर के सबसे विश्वसनीय सूत्रों ने एक बार बताया था कि टाटा स्टील प्रबंधन संविधान के अनुच्छेद 243Q में औद्योगिक नगरी के नाम पर एक नई इकाई की शुरुआत चाहता था. यह तथ्य सच भी हो सकता है और नहीं भी, लेकिन जमशेदपुर में नगरपालिका को लेकर टाटा स्टील का विरोध जगजाहिर है.’

संविधान के 74वें संशोधन के अनुपालन में बिहार सरकार ने 30 मई 1994 को बिहार नगरपालिका अधिनियम में संशोधन करते हुए औद्योगिक नगर के प्रावधानों को जहां जैसी जरूरत थी वैसा प्रस्तुत किया. रॉय स्पष्ट करते हैं कि कैसे प्रावधान सिर्फ सांकेतिक बने रहे और व्यवहार में इनके कार्यान्वयन के लिए विशिष्ट नियम तैयार करने के बावजूद इन्हें लागू नहीं किया जा सका. रॉय के अनुसार, ‘किसी वृहत्तर नगरीय क्षेत्र के लिए नगरनिगम का गठन किया जाएगा, परंतु इस खंड के अधीन कोई नगरनिगम ऐसे नगरीय क्षेत्र या उसके किसी भाग में गठित नहीं की जा सकेगी जिसे राज्यपाल, क्षेत्र के आकार और उस क्षेत्र में किसी औद्योगिक स्थापना द्वारा दी जा रही या दिए जाने के लिए प्रस्तावित नगरनिगम सेवाओं और ऐसी अन्य बातों को, जो वह ठीक समझे, ध्यान में रखते हुए, लोक अधिसूचना द्वारा, औद्योगिक नगरी के रूप में विनिर्दिष्ट करे.’

आठ सितंबर 1998 को एक दूसरी अधिसूचना जारी की गई और 1992 में गठित किए गए जेएनएसी को खत्म कर दिया गया. 28 अप्रैल 2000 को पटना उच्च न्यायालय में रिट याचिका दाखिलकर इस अधिसूचना को चुनौती दी गई. फिर न्यायालय ने राज्य सरकार को एक उपयुक्त अधिसूचना जारी करने का निर्देश देते हुए इस याचिका का निपटारा किया.

15 नवंबर 2000 को बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 लागूकर बिहार से एक नए राज्य झारखंड का गठन किया गया. इसके बावजूद जमशेदपुर के निवासियों से अछूतों की तरह व्यवहार जारी रहा. 2003 में जवाहरलाल शर्मा ने एक दूसरी रिट याचिका इस प्रार्थना के साथ दाखिल की कि राज्य जेएनएसी के स्थान पर एक नगरनिगम विधिवत रूप से गठित की जाए. इसके बाद मई 2005 में उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को नगरनिगम चुनाव कराने के निर्देश दिए. अगस्त 2005 में जब टाटा स्टील का पट्टा अगले 20 साल के लिए बढ़ाया गया, तो नगरनिगम सेवाएं देने के लिए कंपनी को शुल्क लगाने का अधिकार था. यह भारत के संविधान के भाग 11 के विपरीत था.

एक सदी से चल रहे इस खेल में राज्य सरकार ने जमशेदपुर को नगरनिगम घोषित करने के अपने इरादों से संबंधित एक अधिसूचना दिसंबर 2005 में जारी की. आठ दिसंबर 2005 को यह अधिसूचना आधिकारिक गजट में प्रकाशित की गई. जून 2006 में झारखंड उच्च न्यायालय ने रिट याचिका का निपटारा करते हुए मामला राज्य सरकार के पाले में डाल दिया.

हालांकि, उम्मीद के मुताबिक 10 अगस्त 2006 को टाटा स्टील ने रिट याचिका (सिविल) नंबर 517/06 में 23 जून 2000 को दिए गए निर्णय को चुनौती देते हुए विशेष अनुमति याचिका संख्या 14926/06 दाखिल की. इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने 25 सितंबर 2006 और 9 जनवरी 2008 को नोटिस जारीकर आदेश दिया कि जमशेदपुर में यथास्थिति बनाए रखी जाएगी.

जमशेदपुर में नगरनिगम के गठन को लेकर अपना प्रयास जारी रखते हुए शर्मा ने 1 मई 2008 को सुप्रीम कोर्ट में सीए संख्या 467/08 में कार्रवाई (आईए संख्या 3) के लिए आवेदन दायर किया. तब शीर्ष अदालत ने अक्टूबर 2008 में सुनवाई और आदेश के लिए याचिका प्रस्तुत करने का निर्देश दिया. हालांकि छह साल बाद भी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है और जमशेदपुर के लोगों का इंतजार हमेशा की तरह जारी है.

72 वर्षीय शर्मा कहते हैं, ‘यह मामला सबसे लंबे समय तक चलने वाले मुकदमों में से एक है. जमशेदपुर में नागरिक अधिकारों की यह लड़ाई 1988 में हमने जेएनएसी की जगह नगरनिगम स्थापित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दाखिल करके शुरू की थी. इस साल  कभी न खत्म होने वाली मुकदमेबाजी के 27 साल पूरे हो जाएंगे. टाटा स्टील के कार्य आपराधिक होने के साथ ही नगरपालिका की कार्यप्रणाली के संबंध में संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन भी है.’ उन्होंने कहा, ‘2005 में 30 साल के लीज एग्रीमेंट के नवीनीकरण के तहत 1996 से सर्वव्यापी प्रभाव के साथ टाटा स्टील सफाई, सड़क निर्माण और उसका रखरखाव, पानी की सप्लाई, पानी की पाइपलाइन के निर्माण, स्ट्रीट लाइट और बिजली जैसी तमाम जनसुविधाएं जमशेदपुर की जनता को देने के लिए कानूनन बाध्य है.’

हालांकि, चारों ओर अगर सरसरी निगाह डाली जाए जो पता चलाता है कि जमशेदपुर यूटिलिटीज एंड सर्विसेज कंपनी (जस्को) सिर्फ नाम के लिए ही नागरिक सेवाएं प्रदान कर रही है (2004 में जस्को, टाटा स्टील के नगर सेवा प्रभाग से ही अलग करके बनाई गई थी). मुकदमेबाजी में देरी की रणनीति अपनाने को लेकर टाटा स्टील के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई, जिसका असर ये हुआ कि इस विशालकाय इस्पात कंपनी को जस्को के जरिए जमशेदपुर के नागरिकों से जनसुविधाओं के नाम पर नए कर वसूलने का हौसला मिल गया.

नाम जाहिर न करने की शर्त पर एक दुकानदार ने बताया, ‘जस्को क्या सेवा प्रदान कर रही है? झारखंड जैसे पिछड़े राज्य में रहने के बावजूद हम यहां की सुविधाओं को उससे भी निचले स्तर पर पाते हैं. यहां किसी भी तरह की नागरिक सुविधा नहीं दी जा रही है. सब कुछ स्थानीय नागरिकों की ओर से खुद की पहल पर किया जा रहा है.’

असमः हिंसा और तस्करी की उपजाऊ धरती

गुवाहाटी रेलवे स्टेशन पर कदम रखते ही 15 वर्ष की नताशा की आंखों में आंसू आ गए. उसकी आंखें लगातार अपने माता-पिता की खोज में इधर-उधर घूम रही थी. वे मां-बाप जिन्हें उसने लंबे समय से देखा नहीं था. नताशा उन पीड़ितों में से एक है, जिन्हें महाराष्ट्र में एक मछली पकड़ने वाली कंपनी पर छापामारी के दौरान पुलिस ने बचाया था. नताशा असम के शोनिलपुर जिले के बालिखुढी गांव की रहनेवाली है.

पिछले साल सितंबर महीने में भी एक गैर सरकरी संस्था के अभियान में 40 बच्चों को मुंबई के एक कारखाने से मुक्त करवाया गया था. सभी बच्चे जिनमें 36 लड़कियां और चार लड़के शामिल थे, उन्हें असम से ही तस्करी के जरिए मुंबई पहुंचाया गया था. अमानवीय स्थितियों में बिना खाए-पीए दिन में लगातार 14 घंटे तक इन बच्चों से काम करवाया जाता था. बदले में इन्हें 700 रुपये महीने की तनख्वाह मिलती थी. वापस असम पहुंचने पर उनमें से ज्यदातर बच्चे सदमे में थे और किसी से ठीक से बात तक नहीं कर पा रहे थे.

असम में बाल एवं महिला तस्करी के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. इस समस्या के पीछे असम के ग्रामीण इलाकों में लोगों का बेघर होना, भूमिहीन होना, प्राकृतिक आपदाओं का आना और इन सबसे बड़ी समस्या है जातीय संघर्ष और उग्रवाद. जनवरी 2014 के बाद से जातीय और धार्मिक हिंसा का दौर यहां अपने विकृत रूप में देखने को मिला है. कार्वि आलांज में आतंकवादी हमलों की वजह से, जो रेंजामा नगा और कार्बी ग्रामीणों पर किया गया था, 900 से ज्यादा बच्चे विस्थापन शिविरों में पहुंच गए. इसी प्रकार बोडो बहुल इलाकों में मई 2014 में 200 से भी ज्यादा बच्चे हिंसा की चपेट में आकर विस्थापित हुए थे. यह विस्थापन निचले असम के बक्सा जिले में नेशनल डेमोक्रेडिट फ्रंट (संविजित गुट) द्वारा मुसलमानों की हत्या की घटना के कारण हुआ था. हिंसा और विस्थापन की घटनाएं निरंतर जारी हैं. 2014 में ही नागा हमलावरों द्वारा नागालैंड और असम की सीमा पर रहनेवाले लोगों पर हमले के बाद 2000 से अधिक बच्चे गोलाघाट जिले में स्थापित राहत शिविरों में पहुंचाए गए थे. हाल ही में दिल दहला देने वाली एक घटना तब घटी जब एनडीएफवी द्वारा आदिवासियों के ऊपर किए गए हमले में कोकराझार और सोनितपुर जिलों में 50,000 आदिवासी महिला, पुरुष और बोडो बच्चे विस्थापित हुए.

यह आम तथ्य है कि ज्यादातर लोग उसी समय तस्करों के जाल में फंसते हैं जब जातीय संघर्ष या प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप रहता है.

हिंसक झड़पों के बाद देखा जाता है कि विस्थापन शिविरों के आस-पास तस्कर डेरा डाल लेते हंै. हिंसा से प्रभावित गांवों के आस-पास का इलाका इन तस्करों के लिए उपजाऊ जमीन साबित होता है. संघर्ष में अपना सब कुछ लुटा चुके बेघर-बार लोगों को बड़ी आसानी से ये तस्कर अपना निशाना बना लेते हैं. बच्चे और महिलाएं इनके निशाने पर सबसे ऊपर होते हैं. इन मामलों पर नजर रखनेवाली असम सरकार की इकाई सीआईडी के आंकड़े बाल तस्करी की बड़ी भयावह तस्वीर पेश करते हैं. पिछले पांच वर्षों में असम के विभिन्न जिलों से लापता हुए बच्चों की कुल संख्या 4000 से ऊपर है. इनमें 2000 के लगभग लड़कियां है.

इन घटनाओं को लेकर पुलिस और प्रशासन का रवैया बेहद लचर है. असम सरकार के पास अभी भी तस्करी को रोकने की कोई स्पष्ट योजना नहीं है. जातीय संघर्ष के पीड़ितों के पुनर्वास का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है. लिहाजा विस्थापन शिविरों में रह रहे गरीब, बीमार लोग न चाहते हुए भी तस्करों के चंगुल में फंस जाते हंै. ‘फिलहाल सरकार की तरफ से किसी भी तरह कि जागरुकता देखने को नहीं मिल रही है.’  गुवाहाटी के बाल अधिकार कार्यकर्ता मिजुएल दाश कुया ने यह बात बताई.

मानव तस्करी के लिहाज से असम देश का एक अति संवेदनशील राज्य है. पूर्वोततर के देशों का द्वार होने के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से भी इसका महत्व बढ़ जाता है. निरंतर संघर्ष के कारण सामाजिक, आर्थिक बदलाव, व्यापक जनसांख्यिकीय परिवर्तन और कभी समाप्त नहीं होनेवाली बाढ़ की समस्या मिलकर ऐसा दुष्चक्र रचती है, जिसमें असमवासी पिस रहे हैं. तस्करों का लक्ष्य शरणार्थी शिविर होते हैं जहां विस्थापित लोग जातीय संघर्ष/प्राकृतिक आपदाओं के कारण शरण लेते हैं. असम सीआईडी की एक आंतरिक रिपोर्ट कहती है कि साल 2012 में बच्चों की तस्करी सबसे अधिक संख्या में हुई है. गौरतलब है कि वर्ष 2012 में बोडो जनजाति और बंगाली मुसलमानों के बीच जो खूनी संघर्ष हुआ था उसमें 100 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी और लाखों की संख्या में लोग विस्थापित हुए थे.

मानवाधिकार संगठन के एशियाई केंद्र की रिपोर्ट के अनुसार असम के चार जिलों (सोनितपुर, कोकराझार, उदालजुरी और चिरांग) में आंतरिक रूप से विस्थापितों की आबादी 3,00,000 से अधिक है. ये विस्थापित इन चार जिलों में बने करीब 85 राहत शिविरों में भटक रहे हैं. इन विस्थापन शिविरों की यात्रा के बाद एशियाई केंद्र ने पाया कि असम सरकार विस्थापन को रोकने और पुनर्वास की गति को बढ़ाने के प्रति पूरी तरह से उदासीन हैं. यहां तक कि वह मूलभूत मानवीय सहायता प्रदान करने में भी असफल रही है.

चिंताजनक तथ्य यह भी है कि मानव तस्करी में ज्यादातर महिलाएं और लड़कियां हैं, जिन्हें देश-भर के वैश्यालयों में बेच दिया जाता है.

23 दिसंबर 2014 को नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट (संबिजित गुट) द्वारा सोनितपुर, कोकराझार और चिरांग जिले में आदिवासियों पर हमले के बाद आंतरिक रूप से विस्थापितों की नई बाढ़ आ गई. आदिवासयों पर हुए इस आकस्मिक हमले में 90 से ज्यादा महिलाएं और बच्चे मारे गए थे. इन अादिवासियों को निशाना बनाने के पीछे वजह यह थी कि उन पर सुरक्षाबलों को जानकारी देने का शक था. इसके बाद सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई में 21 दिसंबर 2014 को तीन बोडो उग्रवादी मारे गए. यह जानकारी एशियाई केंद्र, नई दिल्ली के निदेशक सुहास चाकमा ने दी.

असम से बच्चों और महिलाओं की तस्करी के मुख्य गंतव्य हैं सिलीगुड़ी, चेन्नई, गोवा, मुम्बई, हरियाणा, पंजाब, बिहार और दिल्ली. भारत-भूटान सीमा से लगे जिले बाक्सा, चिरांग, कोकराझार मजंलढ़, उदालजुरी और बारा अवैध तस्करी से सबसे ज्यादा ग्रस्त हैं. यहां से बोडो, नेपाली आदिवासी (चाय जनजाति), संभा, राजवंशी और मुसलमानों की तस्करी सबसे ज्यादा होती है. यूनिसेफ द्वारा जारी किए गए एक अध्ययन में असम के छह जिलों को तस्करी से बुरी तरह प्रभावित इलाके के रूप में चिन्हित किया गया है. ये छह जिले हैं, सोनितपुर, धमाजी, लखीमपुर, बाक्सा, कोकराझार, उदालजुरी और कामरूप. रिपोर्ट के अनुसार तस्कर असम के पश्चिम हिस्से को ट्रांजिट कॉरिडोर के रूप में इस्तेमाल करते हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार साल

2012 में महिलाओं के अपहरण के लगभग 3360 मामले इन्हीं इलाकों में दर्ज किए गए थे.

असम पुलिस के रिकार्ड के मुताबिक उन्होंने बीते साल 422 मानव तस्करी के पीड़ितों को बचाया है, जिसमें से ज्यादातर नाबालिग हैं और 281 अपराधियों को गिरफ्तार किया गया है. लापता बच्चों की बड़ी संख्या को देखते हुए यह आंकड़ा बहुत निराश करनेवाला है. असम पुलिस ने बाल एवं महिला तस्करी के बढ़ते खतरे से निपटने के लिए 14 मानव तस्करी विरोधी इकाइयां गठित की हैं. अपराधिक जांच विभाग (सीआईडी) ने 20 और इकाइयां गठित करने की मांग की है. इनमें से एक राजकीय रेलवे पुलिस से जुड़ी हुई है. ‘तस्करी के दौरान होनेवाले टकरावों में अक्सर बड़ी संख्या में लोगों की जानमाल को खतरा पैदा हो जाता है. लिहाजा हमने जातीय संघर्ष होने की हालत में स्थानीय एनजीओ को राहत आदि के काम में सहायता करने के लिए अलर्ट किया है. ये संगठन राहत शिविरों पर नजर रखने का काम करते हैं. इससे सुरक्षा बलों को शांति बहाली के कामों में लगाया जा सकता है. इस व्यवस्था से तस्करों का राहत शिविरों में घुसना कठिन हो जाता है.’ यह कहना है असम के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक मुकेश सहाय का.

यह आम तथ्य है कि ज्यादातर लोग उसी समय तस्करों के जाल में फंसते हैं, जब जातीय संघर्ष या प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप रहता है. सहाय के मुताबिक हाल के दिनों में बड़ी संख्या में लड़कियों और बच्चों की मुंबई, हरियाणा, चेन्नई और सिलीगुड़ी से बचाया गया है. हमने तीन महीने के अंदर 3000 गायब हुए बच्चों को दोबारा से उनके घर वापस पहुंचाया है. ये बच्चे देश के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न कल-कारखानों में काम कर रहे थे. साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि बहुत सी महिलाओं को भी इस दौरान खोज निकालने में सफलता मिली है. महिलाओं की तस्करी का सबसे बड़ा गंतव्य है हरियाणा. गौरतलब है कि हरियाणा में लड़के और लड़कियों के लिंगानुपात की विषमता के कारण तस्करों को यहां से ले जाई गई लड़कियों के लिए खरीददार आसानी से मिल जाते हैं. सहाय मानते हैं कि हमें अभी काफी सुधार करने की जरूरत है.

एक चिंताजनक तथ्य यह भी है कि बीते एक-दो सालों के दौरान मानव तस्करी की घटनाओं में अनपेक्षित बढ़ोत्तरी हुई है. एक सरकारी अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज आंकड़ों पर मत जाइए. पिछले एक साल के दौरान अगर उन सभी मामलों को जोड़ दिया जाय जिनका पुलिस रिकॉर्ड में कोई जिक्र ही नहीं है, तो यह आंकड़ा 10,000 तक पहुंच जाएगा. इनमें से ज्यादातर महिलाएं और नाबालिग लड़कियां हैं, जिन्हें देश-भर के वैश्यालयों में बेच दिया जाता है. ग्लोबल ऑर्गनाइजेशन फॉर लाइफ डेवलपमेंट की सहायक महासचिव कावेरी शर्मा कहती हंै, ‘अधिकांश मामले ग्रामीण और संघर्ष पीड़ित क्षेत्रों से ही देखने को मिल रहे हैं. लड़कियों की तस्करी का एक बड़ा हिस्सा देह व्यापार के लिए हो रहा है.’

जाहिर है बारंबार संघर्ष और प्राकृतिक आपदाओं का दुष्चक्र असम के लोगों को मानव तस्करी की ऐसी अंधेरी सुरंग में धकेल चुका है, जिसका निकट भविष्य में अंत होता नहीं दिख रहा.

‘किसानविरोधी है भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन’

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 में संशोधन कर दिया है.  सालभर के भीतर दूसरी बार संशोधन की नौबत क्यों आई? बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सरकार के इस निर्णय से होनेवाले असर को लेकर कड़ा ऐतराज जताया है, लेकिन उनकी आवाज दबती दिख रही है. नए संशोधन में मूल अधिनियम की 13 धाराओं को बदला गया है. यह बदलाव कार्यकर्ताओं और किसानों के लिए एक बड़ा झटका है. खास तौर पर किसानों के लिए यह संशोधन काफी अहम है क्योंकि इसका वास्तविक असर उन्हीं पर पड़ना है. किसानों के लिए कुठाराघात इसलिए भी है कि वे इस सरकार से अपने लिए एक उचित और संवेदनशील नजरिए की अपेक्षा कर रहे थे. यह अध्यादेश 31 दिसंबर 2014 को लागू हो गया.

सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने इसके विरोध में आवाज बुलंद करते हुए कहा कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 को संशोधित करने के लिए केंद्र सरकार ने संसद के बाहर का रास्ता अपनाया है, जो भारतीय संविधान की मूल भावना के खिलाफ है. पाटकर ने इसे अलोकतांत्रिक और उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने की कोशिश करार दिया है. कांग्रेस ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने इस अध्यादेश के जरिए किसानों से वे सारे अधिकार छीन लिए हैं जो उन्हें यूपीए सरकार ने दिए थे. पूर्व मंत्री और वयोवृद्ध कांग्रेस नेता एएच विश्वनाथ ने यह अध्यादेश लाने के केंद्र के निर्णय के खिलाफ पोस्ट कार्ड अभियान शुरू किया है.

इस संशोधन के खिलाफ आदिवासी नेता और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने राज्यव्यापी विरोध आरंभ कर दिया है. उन्होंने कहा कि यह संशोधन जहां संवैधानिक प्रक्रिया के विरुद्ध है, वहीं यह आदिवासियों व किसानों के हितों पर गहरा आघात है. विभिन्न प्रगतिवादी लोकतांत्रिक संगठनों और कार्यकर्ताओं ने इस अध्यादेश के विरोध में भारत के राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया है.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा सांसद जयराम रमेश बताते हैं, ‘वित्तमंत्री अरुण जेटली और उनके सहयोगी जिस तरह के संकेत दे रहे थे, उनके मुताबिक भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 में संशोधन तो अपेक्षित थे, लेकिन यह काम अध्यादेश के जरिए किया जाना उन लोगों को भी चौंका गया जो इन संशोधनों के पक्षधर थे.’

अधिनियम में जो ताजा संशोधन किए गए हैं उन्हें देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि भूमि अधिग्रहित करनेवाले के हितों की रक्षा पर ही इसका सारा जोर है. जाहिर है इसका खामियाजा उन किसानों को उठाना पड़ेगा जिनकी जमीने अधिग्रहीत होंगी. उचित मुआवजे का अधिकार एवं भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना अधिनियम 2013 के अध्याय तीन और धारा 10 में एक नया अध्याय तीन-अ और धारा 10-अ जोड़ी गई है. इस नई धारा 10-अ ने सरकार को कुछ परियोजनाओं को छूट देने की शक्ति दे दी है. ऐसी परियोजनाएं जो राष्ट्रीय सुरक्षा या भारत की सुरक्षा और उससे संबंधित सभी पहलुओं से जुड़ी हों, विद्युतीकरण सहित ग्रामीण बुनियादी ढांचा, औद्योगिक गलियारे, बुनियादी ढांचे और सामाजिक बुनियादी ढांचे से संबंधित परियोजनाएं जिनमें सार्वजनिक, निजी भागीदारीवाली वे परियोजनाएं भी शामिल हैं, जिनमें जमीन का मालिकाना हक सरकार के पास ही होगा. अगर कोई प्रस्तावित परियोजना ताजा अध्यादेश में बताई गई इन पांच श्रेणियों के भीतर आती है, तो अध्यादेश इस बात की अनुमति देता है कि जमीन के मालिक की सहमति की प्रक्रिया आरंभ किए बगैर या इसके सामाजिक प्रभाव का आकलन किए बिना ही उससे जमीन ली जा सकेगी.

पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री रमेश के अनुसार, चूंकि भविष्य में किए जानेवाले अधिकांश अधिग्रहण औद्योगिक गलियारे और बुनियादी ढांचे व सामाजिक बुनियादी ढांचे से संबंधित परियोजनाओं के तहत ही आ जाएंगे, ऐसे में किसानों के हितों की सुरक्षा से जुड़े वे सारे उपाय पूरी तरह बेकार हो जाएंगे, जो 2013 के मूल कानून में किए गए थे. इसके अलावा, उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई ‘अदा मुआवजा’ शब्द की परिभाषा को भी इस बदलाव के जरिए निष्प्रभावी कर दिया गया है. उच्चतम न्यायालय ने ‘अदा मुआवजा’ शब्द की जो परिभाषा दी थी, उसका अर्थ था वह राशि जो न्यायालय में जमा कराई गई है. लेकिन नई धारा कहती है कि इस संदर्भ में किसी भी खाते में अदा की गई कोई राशि इस लिहाज से पर्याप्त होगी.

रमेश के अनुसार, भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 दो सालों तक चले राष्ट्रव्यापी विचार-विमर्श, दो सर्वदलीय बैठकों, संसद के दोनों सदनों में 14 घंटों तक चली बहस, जिसमें 60 से अधिक सदस्यों ने भाग लिया था और उस समय के प्रमुख विपक्षी दल (भाजपा) द्वारा सुझाए गए संशोधनों को शामिल करने के बाद बनाया गया था. साल 2013 के कानून की धारा 101 में कहा गया था कि अगर अधिग्रहित की गई भूमि का पांच साल तक उपयोग नहीं किया जाता, तो उसे वापस उसके मालिक को लौटाना होगा. लेकिन इस संशोधन के जरिए इस अवधि को खत्म कर दिया गया है.

रमेश आगे कहते हैं, निजी क्षेत्र की परियोजनाओं और पीपीपी परियोजनाओं के लिए बलपूर्वक अधिग्रहण के विरुद्ध किसानों के हितों की रक्षा के लिए साल 2013 के कानून में सहमति की शर्त जोड़ी गई थी. इसमें कहा गया था कि निजी परियोजना की स्थिति में 80 फीसदी और पीपीपी परियोजना की स्थिति में 70 फीसदी जमीन मालिकों की सहमति अनिवार्य होगी. लेकिन इस अध्यादेश ने प्रभावी रूप से सहमति की यह शर्त ही हटा दी है.

अबकी बार अध्यादेश सरकार

rs2नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने शुरुआती कुछ महीनों के दौरान ही जिस तरह अध्यादेशों की झड़ी लगा दी है, वह इन दिनों बहस का विषय बन गया है. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस इन अध्यादेशों में मौजूदा सरकार की तानाशाही प्रवृत्तियों की झलक देख रही है, जबकि कुछ दूसरे लोग इसे संवैधानिक और संसदीय तरीकों से बचकर आगे बढ़ने की कोशिश करार दे रहे हैं. बड़ी संख्या में अध्यादेश जारी किए जाने की वजह से मौजूदा केंद्र सरकार को अध्यादेश सरकार भी कहा जाने लगा है.

आठ महीने, दस अध्यादेश
केंद्र की सत्ता में आने के बाद से अब तक सरकार दस अध्यादेश जारी कर चुकी है. इनमें बीमा अधिनियम (संशोधन) अध्यादेश, कोयला खदान (विशेष प्रावधान) अध्यादेश, कोयला खदान (विशेष प्रावधान) द्वितीय अध्यादेश, खदान एवं खनिज (संशोधन) अध्यादेश, नागरिकता (संशोधन) अध्यादेश, मोटर वाहन अधिनियम (संशोधन) अध्यादेश, वस्त्र उपक्रम राष्ट्रीयकरण अधिनियम (संशोधन एवं विधिमान्यकरण) अध्यादेश, आंध्र प्रदेश पुनर्गठन (संशोधन) अध्यादेश और भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (संशोधन) अध्यादेश शामिल हैं.

विपक्ष भले ही अध्यादेशों से नाखुश हो, लेकिन उद्योग जगत सरकार के इस कदम को लेकर उत्साहित है. महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने एक टेलीविजन इंटरव्यू में कहा, ‘जहां तक अध्यादेशों का सवाल है, मेरी इसके बारे में राय सकारात्मक है क्योंकि यह डिलीवरी सुनिश्चित करने के लिए है. अध्यादेशों की राह अपनाकर सरकार ने यह संकेत दिया है कि यह महज बातचीत से आगे बढ़ने को तैयार है. अगर ऐसा करने के लिए उसे अध्यादेश जारी करने पड़ रहे हैं, तो यही सही.’

2008 इंदिरा गांधी ने तकरीबन 16 साल के अपने शासन काल में 208 अध्यादेश जारी कराए थे, जबकि जवाहर लाल नेहरू के लगभग 17 साल के शासन काल में 200 अध्यादेश जारी किए गए

आठ महीनों के दौरान 10 अध्यादेश जारी किए जाने से ऐसा लगता है कि सरकार किसी जल्दबाजी में है. ऐसा लगता है कि इस जल्दबाजी में सरकार यह भी भूल गई है कि किसी कानून को पारित कराने के लिए ही संविधान के जरिए लोकसभा और राज्यसभा के नाम से दो विधायी सदन बनाए गए हैं. इस बारे में सरकार का तर्क यह है कि उसके पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था. संसदीय कार्य मंत्री एम वैंकैया नायडू ने दिसंबर के आखिरी हफ्ते में सरकार का पक्ष रखते हुए कहा कि संसद में कांग्रेस के नकारात्मक और बाधक रवैए की वजह से उसे ऐसा करने को बाध्य होना पड़ा.

 कांग्रेस का आरोप, भाजपा का पलटवार
विपक्ष वेंकैया के इस दावे को हवा में उड़ा देता है. उसका सवाल है कि अगर बिल लोकसभा के शीतकालीन सत्र में पास नहीं हुए तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है. सरकार के लोग घर वापसी से लेकर रामजादे और हरामजादे जैसे कार्यक्रम चला रहे थे, प्रधानमंत्री सदन में बोलने को तैयार तक नहीं थे, तो विपक्ष के सामने क्या विकल्प बचता है. अगर प्रधानमंत्री ने घर वापसी जैसे मामलों पर विपक्ष की मांग मानते हुए संसद में बयान दे दिया होता, तो सत्र बर्बाद होने से बच जाता. उस हालत में अहम विधेयकों पर चर्चा के लिए अधिक समय मिल जाता, जिन पर बाद में सरकार को अध्यादेश जारी करने पड़े हैं. मोदी सरकार के दौरान जारी किए गए अध्यादेशों का हवाला देते हुए 13 जनवरी को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक के दौरान कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने टिप्पणी की कि नरेंद्र मोदी में ‘तानाशाही प्रवृत्तियां’ हैं. इस बीच भाजपा ने कांग्रेस पर पलटवार करते हुए पूछा है कि क्या इंदिरा गांधी और जवाहर लाल नेहरू को भी तानाशाह का दर्जा दिया जा सकता है? नायडू ने 14 जनवरी को पत्रकारों से बातचीत के दौरान कहा, ‘सोनिया गांधी को यह स्पष्ट करना चाहिए कि नेहरू तानाशाह थे या लोकतांत्रिक? वह (सोनिया) इंदिरा गांधी को किस नजरिए से देखती हैं? क्या वह तानाशाह थीं?’

नायडू जिन संदर्भों में इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू का उल्लेख कर रहे थे, उन पर भी नजर डालना जरूरी है. इंदिरा गांधी ने 5825 दिनों (तकरीबन 16 साल) के अपने शासन काल में 208 अध्यादेश जारी कराए थे, यानी तकरीबन हर 28 दिन में उनके शासन काल में एक अध्यादेश जारी हुआ. इसके अलावा, जवाहरलाल नेहरू के 6126 दिनों (तकरीबन 17 साल) के शासन काल में 200 अध्यादेश जारी किए गए थे यानि लगभग 31 दिन में एक. अब हम इन दोनों के शासनकाल की तुलना मौजूदा मोदी सरकार के साथ कर लेते हैं. मौजूदा केंद्र सरकार के शुरुआती नौ महीनों के दौरान 10 अध्यादेश जारी किए गए हैं, यानी तकरीबन 24 दिनों में औसतन एक अध्यादेश. लेकिन यह तुलना करते समय यह याद रखना भी अहम है कि गांधी और नेहरू के जमाने में कांग्रेसी सरकारों को कभी भी राज्यसभा में अल्पमत की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा था, जबकि नरेंद्र मोदी की मौजूदा सरकार को इस दिक्कत से भी दो-चार होना पड़ रहा है, क्योंकि उसके पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है.

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अध्यादेश और उसकी वैधता
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 123 राष्ट्रपति को विधि से संबंधित कुछ विशेष शक्तियां देता है. यह शक्तियां उस समय के लिए होती हैं जब संसद के दोनों सदन न चल रहे हों और संसद के जरिए कानून बनाना संभव न हो. लेकिन कानून बनाने के इस तरीके पर भी हमारे संविधान निर्माताओं ने कुछ सीमाएं लगा रखी हैं. अध्यादेश केवल उन्हीं विषयों के बारे में जारी किया जा सकता है, जिनके बारे में संसद को कानून बनाने का अधिकार है. इसके अलावा राष्ट्रपति केवल तभी अध्यादेश जारी कर सकता है जब संसद का सत्र न चल रहा हो.

अनुच्छेद 123 आगे कहता है, ‘राष्ट्रपति केवल तभी अध्यादेश जारी कर सकते हैं जब वह इस बात से पूरी तरह संतुष्ट हो जाएं कि मौजूदा परिस्थितियों में इस बारे में त्वरित कार्रवाई करना जरूरी है.’ दरअसल अनुच्छेद 123 का यही वह बिंदु है जिसकी वजह से विपक्षी दल सरकार पर हमलावर हो गए हैं. सवाल यह उठाए जा रहे हैं कि अब तक जो अध्यादेश जारी किए गए हैं, उनमें से आखिर किनमें मौजूदा परिस्थितियों में त्वरित कार्रवाई करना जरूरी हो गया था.

संसद के दो अधिवेशनों के बीच अधिकतम छह महीने का अंतर हो सकता है और संसद का सत्र बुलाए जाने के छह हफ्तों के भीतर अध्यादेश को कानून बनवाना अनिवार्य होता है. इसका मतलब यह है कि कोई अध्यादेश अधिकतम साढ़े सात महीने तक ही अस्तित्व में रह सकता है. अगर इस अवधि के दौरान उसे विधेयक के तौर पर पेशकर कानून का रूप नहीं दिलाया जाता, तो वह स्वतः समाप्त हो जाता है.

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 राष्ट्रपति दो बार कर चुके हैं टिप्पणी
अध्यादेशों का रास्ता अपनानेवाली मोदी सरकार पर इसकी वजह से राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी अब तक दो बार टिप्पणी कर चुके हैं. 66वें गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में मुखर्जी ने कहा, ‘बिना बहस के कानून लागू करना संसद की विधि निर्माण की भूमिका पर असर डालता है. यह उस भरोसे को तोड़ता है, जो लोग इस पर जताते हैं. यह न तो लोकतंत्र के लिए अच्छा है और न ही उन नीतियों के लिए.’ इससे पहले केंद्रीय विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के छात्रों व शिक्षकों को विडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए संबोधित करते हुए 19 जनवरी को मुखर्जी ने टिप्पणी की थी कि अध्यादेश खास उद्देश्यों के लिए होते हैं, इन्हें ‘असामान्य परिस्थितियों में असामान्य दशाओं से निबटने के लिए लाया जाता है.’ उन्होंने ताकीद की कि इस तरीके का इस्तेमाल सामान्य विधायी प्रक्रिया के लिए नहीं किया जाना चाहिए.

राष्ट्रपति ने विपक्ष को दी नसीहत
हालांकि 19 जनवरी के अपने संबोधन के दौरान राष्ट्रपति विपक्ष को भी नसीहत देने से नहीं चूके. उन्होंने कहा कि विपक्ष को सदन की गतिविधियों को बाधित करने से बचना चाहिए. उनके शब्दों में, ‘यह सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है कि वे एक साथ बैठें और मिलकर कामकाज का माहौल तैयार करें.’

राज्यसभा से बचने की मंशा
खबर है कि सरकार इन सभी अध्यादेशों के बदले विधेयक लाने की तैयारी कर रही है, ताकि 23 फरवरी से शुरू हो रहे बजट सत्र में इन्हें दोनों सदनों में पारित कराया जा सके. संसदीय कार्य मंत्रालय ने सभी संबंधित मंत्रालयों को विधेयक तैयार करने के लिए कहा है और जनवरी के आखिरी हफ्ते में ही सभी विभागों के प्रमुखों की बैठक बुलाई है, ताकि इन विधेयकों को संसद में पारित कराने की रणनीति तैयार की जा सके.

34 साल 1993 में सबसे अधिक 34 अध्यादेश जारी किए गए थे. अगर हम साल 1952 से 2014 के बीच जारी किए गए अध्यादेशों की बात करें, तो कुल 637 अध्यादेश जारी किए जा चुके हैं

अगर सरकार इसे दोनों सदनों में अलग-अलग पारित नहीं करा पाती है, तो राज्यसभा से बचकर विधेयक पारित कराने का एक संवैधानिक तरीका भी मौजूद है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 111 के मुताबिक, जब किसी एक सदन में कोई विधेयक पारित हो जाता है, तो उसके बाद उसे चर्चा के लिए दूसरे सदन में भेजा जाता है. वहां से भी पारित हो जाने के बाद उसे राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजा जाता है. जब उस पर राष्ट्रपति अपनी सहमति दे देता है, तभी वह विधेयक से अधिनियम का रूप ले पाता है. यह तो हुई बात सामान्य स्थितियों की, लेकिन मौजूदा स्थितियां अलग हैं. सरकार का तर्क यह है कि उसके पास राज्यसभा में पर्याप्त बहुमत नहीं है, ऐसे में उसे विधेयकों को पारित कराने में दिक्कत हो रही है. अगर हम विशिष्ट संवैधानिक प्रावधानों पर नजर डालें, तो सरकार दूसरे सदन में विधेयक को पारित कराए बगैर उसे कानून का रूप दे सकती है. संविधान के अनुच्छेद 108 के मुताबिक अगर कोई विधेयक एक सदन में पारित हो जाता है, लेकिन दूसरे सदन में उस पर सहमति नहीं बन पाती या दूसरा सदन उस विधेयक में किए गए संशोधनों से पूरी तरह असहमति व्यक्त कर चुका हो या पहले सदन में उस विधेयक को पारित कर दूसरे सदन को वह विधेयक मिलने की तारीख के बीच छह महीने से अधिक का वक्त बीत चुका हो और दूसरेे सदन ने उसे अब तक पारित नहीं किया हो, तो राष्ट्रपति उस विधेयक पर चर्चा और मतदान के लिए एक संयुक्त बैठक बुला सकता है. अगर संयुक्त बैठक में वह विधेयक दोनों सदनों के मौजूद और मतदान करनेवाले सदस्यों के बहुमत से पारित हो जाता है, तो उस विधेयक को दोनों सदनों में पारित मान लिया जाता है. यह प्रावधान धन विधेयक और संविधान संशोधन विधेयकों पर लागू नहीं होता.

ऐसे में आशंका यह भी है कि लोकसभा में पर्याप्त बहुमत होने और राज्यसभा में संख्याबल कम होने की वजह से केंद्र सरकार इनमें से कुछ अध्यादेशों को पारित कराने के लिए अनुच्छेद 108 के तहत बुलाए जानेवाली सदन की संयुक्त बैठक की मदद ले सकती है. ध्यान रहे कि 19 जनवरी के अपने संबोधन में मुखर्जी इस तरह के प्रयासों को यह कहते हुए खारिज कर चुके हंै कि सत्ताधारी दल के पास राज्यसभा में बहुमत न होने की स्थिति में कानून बनाने के लिए संख्या जुटाने के उद्देश्य से दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाना व्यावहारिक नहीं है.

‘मैं और बराक’ साथ-साथ

एशिया में शक्ति संतुलन स्थापित करने के क्रम में चीन भारतीय और अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के समक्ष विकट समस्या की तरह मौजूद था; फोटोः िीआईबी
एशिया में शक्ति संतुलन स्थापित करने के क्रम में चीन भारतीय और अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के समक्ष विकट समस्या की तरह मौजूद था;
फोटोः िीआईबी

वो आए, उन्होंने देखा और ज्यादातर चीजों से वे सहमत भी दिखे! रायसीना पहाड़ी का जो माहौल था उससे अगर कोई निष्कर्ष निकाला जाय तो यह बात कही जा सकती है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन सभी चीजों को बहुत करीब से देखा और समझा, जिसे उनके नये-नवेले दोस्त नरेंद्र मोदी दिखाना-बताना चाहते थे. कुछेक बातें जरूर अपवाद थीं मसलन ताजमहल के दीदार को टाल देना, प्रधानमंत्री द्वारा उनके पहले नाम से संबोधित करने पर कोई गर्मजोशी न दिखाना, यात्रा के अंतिम पड़ाव पर खुले शब्दों में धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक बहुलता जैसी नसीहतों को नजरअंदाज कर दें तो यह दौरा ऐतिहासिक तो नहीं लेकिन महत्वपूर्ण है. दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने एक साथ रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में आम जनता को संबोधित किया. भारतीय प्रधानमंत्री के साथ किसी अमेरिकी राष्ट्रपति का रेडियो पर यह पहला संयुक्त संबोधन था. यह कहना गलत नहीं होगा कि कम समय में भारतीय प्रधानमंत्री और अमेरिकी राष्ट्रपति ने इतिहास बनाने के रास्ते पर कदम बढ़ा दिया है.

ओबामा पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जिन्होंने बतौर मुख्य अतिथि गणतंत्र दिवस समारोह में शिरकत की और उन्होंने राष्ट्रपति रहते हुए दो बार भारत का दौरा किया, इन प्रतीकात्मक घटनाओं से परे अगर देखें तो भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों की दिशा में यह परिवर्तनकारी अध्याय की तरह है. पहली बार दोनों देशों के प्रमुखों के बीच जिस तरह से बातचीत हुई वह दो बराबरी के लोगों के बीच की बातचीत थी,  खुद के संघर्षों से जूझकर खड़े हुए नेताओं की बातचीत थी जिन्होंने इस मुकाम तक पहुंचने के पहले तमाम विषम परिस्थितियों को मात दी है. एक भारतीय प्रधानमंत्री जो अपने विचारों को शालीनता और शिष्टाचार के दबाव में छुपाता नहीं और एक अमेरिकी राष्ट्रपति जो बोलने से ज्यादा सुनना चाहता है. फिर चाहे मसला क्षेत्रीय सुरक्षा और शांति का हो, जलवायु परिवर्तन का या फिर विनिवेश और अंतरराष्ट्रीय व्यापार का.

यह बात स्पष्ट है कि द्विपक्षीय वार्ता के दौरान दोनों देशों के प्रतिनिधिमंडल के दिमाग में कहीं न कहीं चीन घूम रहा था. बातचीत शुरू होने से पहले भारत में अमेरिका के पूर्व राजदूत रॉबर्ट डी ब्लैकविल ने कहा, ‘चीन के बढ़ते प्रभुत्व को काबू में करने को लेकर भारत और अमेरिका दोनों में सुनियोजित तालमेल का बुरी तरह से अभाव है. कुछ हद तक इस समस्या की वजह यह भी है कि अब तक भारत ओबामा प्रशासन की दीर्घकालिक और तर्कसंगत चीन-नीति को नजरअंदाज करता आया है.’

महज कुछ साल पहले की  ही बात है जब ओबामा ने चीन के साथ मिलकर जी2 संघ की संकल्पना पेश की थी. इसका उद्देश्य दक्षिण एशिया को नियंत्रित करना था. इस समूह के जरिए ओबामा दक्षिण एशिया में एक शक्ति केंद्र की बात कर रहे थे जिसमें भारत के लिए भी एक बड़ी भूमिका की परिकल्पना थी. इसका विस्तार क्षेत्र अदन की खाड़ी से लेकर मलक्का जलडमरुमध्य तक था. नवंबर 2009 में अमेरिका और चीन द्वारा जारी संयुक्त वक्तव्य में कहा गया- ‘दोनों पक्ष दक्षिण एशिया में शांति, स्थिरता और विकास के सभी प्रयासों का स्वागत करते हैं. वे अफगानिस्तान और पाकिस्तान में आतंकवाद से मुकाबले के सभी प्रयासों का समर्थन करेंगे. इन देशों में आंतरिक स्थिरता और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को स्थापित करने के सभी प्रयासों को उनका समर्थन रहेगा. दोनों देश भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को सुधारने और बेहतर करने की कोशिश करेंगे. दोनों देश आपसी बातचीत, सहयोग के जरिए दक्षिण एशिया क्षेत्र में स्थिरता और विकास के लिए काम करेंगे.’

2012 आते-आते अमेरिका ने एशिया में पुन: शक्ति संतुलन की अपनी बदली हुई रणनीति के तहत भारत को इस क्षेत्र की मुख्य धुरी बताना शुरू कर दिया. भारत दौरे पर आने से ठीक पहले संयुक्त राज्य असेंबली को अपने संबोधन में ओबामा ने स्पष्ट कहा कि ‘अमेरिका वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनजर नए गठजोड़ निर्मित कर रहा है और साथ ही यह सुनिश्चित भी कर रहा है कि दूसरे देश नियम-कानूनों के दायरे में काम करें.’ इस वक्तव्य को ध्यान में रखकर नई दिल्ली में ओबामा की बातचीत और भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी के संयुक्त संबोधन में ‘एशिया पेसिफिक’ और हिंद महासागर क्षेत्र को लेकर दोनों देशों की भविष्य की रणनीति बहुत चौंकानेवाली है.

‘एशिया पैसिफिक और हिंद महासागर क्षेत्र में शांति, स्थिरता और विकास के लिए भारत और अमेरिका दोनों की ही भूमिका महत्वपूर्ण है. इस लिहाज से भारत की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ और अमेरिका की दक्षिण एशिया में पुन: शक्ति संतुलन की नीति, दोनों देशों के लिए अथाह अवसर ले आई है. यही बात एशिया पैसिफिक के दूसरे देशों के लिए भी कही जा सकती है. एशिया पैसिफिक के दूसरे देश आपसी सहयोग बढ़ाने और यहां के नेता द्विपक्षीय बातचीत के जरिए संबंधों को मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.’ दोनों देशों की शिष्टमंडल स्तरीय वार्ता के बाद जारी वक्तव्य में ये बातें कही गईं.

2012 आते-आते अमेरिका ने एशिया में पुन: शक्ति संतुलन की अपनी बदली हुई रणनीति के तहत भारत को इस क्षेत्र की मुख्य धुरी बताना शुरू कर दिया

मोदी ने भी आगे बढ़कर ओबामा का साथ दिया. उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार द्वारा शुरू की गई सिविल न्यूक्लियर डील पर अंतिम मुहर लगाने के साथ ही चीन के साथ नीति को भी एक नया आयाम दिया है. उनके पूर्ववर्ती चीन के प्रति अपनी नीतियों को कभी भी स्पष्ट रूप में पेश नहीं कर सके थे. ‘चीन भारत के लिए खतरा है या फिर वह एक सहयोगी भी हो सकता है’ इस मसले पर भारत की दुविधा लगातार बनी हुई थी जिसे मोदी ने काफी हद तक साफ कर दिया है. पूर्ववर्ती सरकारों की दुविधा को समझने के लिए पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन के एक बयान को देखना चाहिए, जिसे उन्होंने 2008 में पूर्व एयर चीफ मार्शल पीसी लाल मेमोरियल लेक्चर में दिया था, नारायणन ने नाराजगी जताई थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मामलों और चीन के प्रति किसी तरह की सर्वसहमत नीति का घोर अभाव है.

मजबूत बहुमत और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के सहयोग के साथ ऐसा लगता है कि मोदी ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में पूरी दृढ़ता से अपने कदम आगे बढ़ाने का मन बना लिया है. इसमें उनकी एक्ट ईस्ट नीति भी शामिल है. पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन बताते हैं, ‘ओबामा-मोदी की मुलाकात ने उम्मीदों को नई उड़ान दे दी है. एशिया-प्रशांत के समुद्री क्षेत्र में अब भारत पहले से भी कहीं ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाएगा.’

हालांकि शेर की पूंछ से खिलवाड़ करने के अपने खतरे भी हैं. चीन की तरफ से मिलनेवाली चुनौतियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. इस यात्रा के दौरान बीजिंग की तरफ से आनेवाले बयानों पर अगर निगाह दौड़ाई जाए तो चीन के मन में चल रही उठापटक का कुछ हद तक अंदाजा मिल जाता है. उदाहरण के लिए चीन सरकार द्वारा प्रायोजित एक मीडिया संस्थान ने मोदी-ओबामा की मुलाकात पर चुटकी लेते हुए इसे सतही-घनिष्टता की संज्ञा दी है. इसी तरह एक अन्य अखबार, पाकिस्तान के सेना प्रमुख के चीन दौरे पर लिखता है कि पाकिस्तान चीन का वह मित्र है जिसे कोई दूसरा बदल नहीं सकता. पाकिस्तान चीन का बारहमासी दोस्त है.

सरन यहां सावधान करते चलते हैं कि भारत और अमेरिका के बीच सहयोग और वार्ता को चीन से जोड़कर देखना जरूरी नहीं है. भारतीय राजनयिकों का एक दल नये विदेश सचिव एस जयशंकर के नये नेतृत्व में इस साल के अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा की तैयारियों में जुट गया है. इस यात्रा की तैयारी में पूरी सावधानी बरती जा रही है. ऐसे में दोनों देशों से मिलनेवाला ऐसा कोई भी भ्रामक संदेश नई परेशानी को जन्म दे सकता है.

फिर से दो देशों के रिश्तों की चर्चा है लेकिन इस बार बात भारत-पाकिस्तान की नहीं बल्कि भारत और चीन की हो रही है.

भितरघात से मिलेगी मात!

कैप्टन अमरिंदर सिंह को कांग्रेस पार्टी ने भले ही संसद का उपनेता बना दिया हो लेकिन उनकी नजर प्रदेश (पंजाब) की राजनीति पर है
कैप्टन अमरिंदर सिंह को कांग्रेस पार्टी ने भले ही संसद का उपनेता बना दिया हो लेकिन उनकी नजर प्रदेश (पंजाब) की राजनीति पर है

लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद लगे झटके से कांग्रेस पार्टी उबर नहीं पा रही है. आम चुनावों के बाद पार्टी को हरियाणा समेत कई राज्यों में पराजय का मुंह देखना पड़ा. इस बात से न केवल आलाकमान का दबदबा कम हुआ है, बल्कि पंजाब जैसे अहम राज्य में क्षत्रपों ने उसे चुनौती देनी भी शुरू कर दी है.

दिल्ली से सटे हरियाणा में हालांकि गुटबाजी अभी सार्वजनिक नहीं हुई है, लेकिन वहां प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर तथा पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के बीच खींचतान चल रही है. वहीं पंजाब में पार्टी अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा और कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच आपसी विवाद भी सतह पर आ गया है. यह स्थिति पार्टी को असहज बना रही है.

कांग्रेस पार्टी के लिए हरियाणा और कांग्रेस दोनों ही चिंता का कारण बन गए हैं. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री हुड्डा अपने समर्थक विधायकों का शक्ति प्रदर्शन आलाकमान के सामने कर चुके हैं. लोहड़ी के मौके पर उन्होंने दिल्ली स्थित अपने निवास पर पत्रकारों को भोज पर आमंत्रित किया था जिसमें पार्टी के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल, मोतीलाल वोरा, ऑस्कर फर्नांडीज, जनार्दन दिवेदी, आनंद शर्मा तथा गुलाम नबी आजाद मौजूद थे. उल्लेखनीय है कि तंवर को राहुल गांधी का करीबी माना जाता है. हुड्डा के शक्ति प्रदर्शन के बावजूद उनके कट्टर विरोधी स्वर्गीय बंसीलाल की पुत्रवधु किरण चौधरी को आलाकमान ने विधायक दल का नेता बना दिया.

उधर पंजाब में हालत और खराब है. पार्टी लंबे समय से यहां सत्ता से बाहर है और राज्य के नेता गुटबाजी में व्यस्त हैं. पंजाब विधानसभा में वर्ष 2017 में चुनाव होने हैं इसे देखते हुए यह गुटबाजी कांग्रेस की चिंताओं में सबसे ऊपर है. कांग्रेस वहां दो बार अकाली दल और भाजपा गठबंधन से परास्त हो चुकी है. अकाली-भाजपा गठबंधन के खिलाफ एक स्वाभाविक सत्ता विरोधी लहर पूरे पंजाब में मौजूद है, लेकिन भयंकर गुटबाजी के चलते कांग्रेस पार्टी में जरूरी विश्वास पैदा नहीं हो पा रहा.

प्रदेश पार्टी अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा के नेतृत्व के खिलाफ लोकसभा में पार्टी के उपनेता और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री (अमृतसर से मौजूदा सांसद) कैप्टन अमरिंदर सिंह ने खुली बगावत कर दी है. न केवल इनके समर्थक, बल्कि ये दोनों नेता भी एक-दूसरे के खिलाफ जहर उगल रहे हैं. आलाकमान की तमाम नसीहतों के बावजूद दोनों एक-दूसरे के साथ अपने मतभेद सार्वजनिक रूप से जाहिर कर रहे हैं. यह बात जाहिर है कि तंवर की तरह बाजवा को भी राहुल गांधी की पसंद पर अध्यक्ष बनाया गया है.

प्रताप सिंह बाजवा 2009 के लोकसभा चुनाव में गुरदासपुर सीट से भाजपा के नेता विनोद खन्ना को हराकर राहुल गांधी की नजरों में आए थे

उनके खिलाफ बगावत को सीधे राहुल गांधी को दी गई चुनौती माना जा रहा है. इस बीच तीन विधायक पार्टी छोड़कर जा चुके हैं, इनमें से मोगा के जोगिंदर पाल जैन और तलवंडी के मोहिंदर सिंह तो अकाली दल का दामन भी थाम चुके हैं. पार्टी को ताजा झटका लगा है धुरी के विधायक अरविंद खन्ना के इस्तीफे से. हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर तो उन्होंने इस्तीफे की वजह सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर परिवार और कारोबार संभालने को बताया है, लेकिन माना जा रहा है कि अमरिंदर सिंह के समर्थन में उन्होंने यह कदम उठाया है. उनके इस्तीफे से अकाली दल को काफी मजबूती मिली है.

पंजाब की राजनीति दिलचस्प मोड़ पर खड़ी है. इन दिनों अकाली दल और भाजपा गठबंधन की दरारें भी स्पष्ट नजर आ रही हैं. राजनीतिक हल्कों में यह धारणा है कि भाजपा आगामी चुनाव से पहले अकाली दल के साथ अपना गठबंधन तोड़ लेगी. ताजा घटनाक्रम के तहत सूबे में नशीली दवा के धंधे में संलिप्त होने के आरोपी अकाली मंत्री तथा मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के रिश्तेदार विक्रम सिंह मजीठिया का इस्तीफा भाजपा की ओर से मांगा जा रहा है.

पंजाब में नशीली दवाओं का धंधा बड़ा चुनावी मुद्दा है. कांग्रेस और भाजपा दोनों बादल सरकार पर इस धंधे में शामिल लोगों को प्रश्रय देने का आरोप लगाती रही हैं. पंजाब कांग्रेस विधायक दल के नेता सुनील झाखड़ ने तो यहां तक आरोप लगाया है कि मोदी सरकार ने अकाली दल के दबाव में ही मजीठिया से पूछताछ करनेवाले प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों का तबादला किया है.

जाखड़ का यह भी कहना है कि अकाली दल ने भाजपा को धमकी दी थी कि वह दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक दर्जन जगहों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर सकता है. बाजवा समर्थकों का कहना है कि खन्ना ने इसलिए इस्तीफा दिया है ताकि उस सीट से अकाली उम्मीदवार जीत जाए. इससे विधानसभा में समीकरण अकाली दल के पक्ष में हो जाएंगे और वह बिना भाजपा के समर्थन के अपनी सरकार बना सकती है.

पंजाब कांग्रेस में चल रही गुटबाजी पर एक कहावत पूरी तरह से लागू होती है कि दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर रोटी ले भागा. जब अमरिंदर सिंह औ्र बाजवा आपसी लड़ाई में लीन हैं, तब पूर्व मुख्यमंत्री रजिंदर कौर भट्टल भी इसमें अपनी संभावनाएं तलाशने लगी हैं. उन्होंने खन्ना के इस्तीफे पर बयान दिया कि वह कांग्रेस के नहीं, बल्कि अमरिंदर सिंह के वफादार थे. भट्टल ने अपने लिए गुंजाइश देखते हुए तत्काल आलाकमान से यह मांग भी कर दी कि वह पार्टी की गुटबाजी रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए.

अमरिंदर सिंह ने अपने संसदीय क्षेत्र अमृतसर में ललकार रैली कर आलाकमान को अपनी ताकत दिखा दी है;
अमरिंदर सिंह ने अपने संसदीय क्षेत्र अमृतसर में ललकार रैली कर आलाकमान को अपनी ताकत दिखा दी है;

भट्टल का आकलन है कि पार्टी मौजूदा  हालत में बाजवा को तो पद से हटाएगी, लेकिन उनकी जगह अमरिंदर सिंह को अध्यक्ष नहीं बनाएगी. ऐसे में दो बिल्लियों की लड़ाई वाली कहावत चरितार्थ होने पर वे भी पार्टी अध्यक्ष बन सकती हैं. काबिलेगौर है की भट्टल पंजाब की पहली महिला मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं. भट्टल और अमरिंदर सिंह के रिश्ते भी काफी समय से खराब चल रहे हैं. 12 साल पहले उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री रहे अमरिंदर सिंह के खिलाफ खुली बगावत की थी. अपने समर्थक विधायकों के साथ उन्हें हटवाने के लिए दिल्ली में डेरा भी डाला था, लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई. इस उठापटक में भट्टल अपना पुराना हिसाब चुकाने की संभावना भी देख रही हैं.

पंजाब कांग्रेस विधायक दल के नेता सुनील जाखड़ फिलहाल अमरिंदर सिंह के साथ हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी हालांकि कहते हैं कि अध्यक्ष बदलना पार्टी का विशेषाधिकार है, लेकिन वह यह जोड़ना नहीं भूलते कि अमरिंदर सिंह पार्टी के बहुत कद्दावर नेता हैं.

अमरिंदर सिंह की मांग है कि बाजवा की जगह पार्टी की कमान उन्हें सौंपी जाए. वे अपने गुट की अलग बैठक करके आलाकमान को अपनी ताकत और इरादे का अहसास करा चुके हैं. इस गुटबाजी से निपटना पार्टी के लिए बड़ी दिक्कत बन गया है.  बाजवा की नियुक्ति से राहुल गांधी की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई ह,ै लिहाजा उन्हें हटाने की सूरत में राहुल की किरकिरी होनी तय है. यही वजह है कि बाजवा लगातार उनके दरबार में हाजिरी दे रहे हैं.

प्रताप सिंह बाजवा को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने दो वर्ष पहले पार्टी का अध्यक्ष बनाया था. युवक कांग्रेस से राजनीति शुरू करनेवाले बाजवा राजनीतिक परिवार से हैं. उनके पिता सतनाम सिंह बाजवा पंजाब में मंत्री रह चुके हैं. वे भी कई बार विधायक रह चुके हैं और उनकी पत्नी भी इस समय विधायक हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में गुरदासपुर सीट से भाजपा के तत्कालीन सांसद विनोद खन्ना को हराकर बाजवा राहुल गांधी की नजरों में आए थे.

लेकिन अब अपनी ही पार्टी के दिग्गज नेता अमरिंदर सिंह के सामने वे खुद को घिरा हुआ पा रहे हैं. भले ही बाजवा को आलाकमान और राहुल गांधी का वरदहस्त हासिल है, लेकिन ज्यादातर विधायक, राज्य इकाई के नेता और जिलाध्यक्ष आदि अमरिंदर सिंह के साथ हैं. ऐसे में बाजवा की सारी उम्मीदें राहुल गांधी पर ही टिकी हैं.

कलह से परेशान पार्टी के पंजाब प्रभारी और कांग्रेस महासचिव शकील अहमद ने कांग्रेसियों को एक भोज में एकता की नसीहत दी थी, लेकिन वह बेअसर रही

बाजवा के नेतृत्व के खिलाफ बगावत के सुर लोकसभा चुनाव के बाद ही फूटने लगे थे जब वे गुरदासपुर की सीट से चुनाव हार गए थे. जबकि उनके विरोधी अमरिंदर सिंह ने अमृतसर में भाजपा के कद्दावर नेता अरुण जेटली को पराजित कर दिया था. जाहिर है इससे उनका कद और हौसला दोनों बढ़ा है. पंजाब की राजनीति को जाननेवाले बताते हैं कि यहां के लोगों को अमरिंदर सिंह जैसे दबंग छविवाले नेता ही रास आते हैं. राजनीतिक विश्लेषक डॉ. रमेश मदान का कहना है कि अमरिंदर सिंह में प्रदेश की अकाली दल-भाजपा गठबंधन सरकार से टक्कर लेने का माद्दा है. पार्टी ने उन्हें संसद में उपनेता भले बना दिया है, लेकिन उनका मन पंजाब की राजनीति में ही रमा हुआ है.

अकाली दल और भाजपा सरकार के खिलाफ जनता में पैदा हुए रोष को देखते हुए दोनों नेताओं को सूबे की सत्ता अपने करीब आती दिख रही है. इस उम्मीद ने बाजवा और सिंह के बीच तनाव और संघर्ष को हवा दे दी है. अकाली दल के खिलाफ लोगों में भारी रोष है. वरिष्ठ अकाली मंत्री और मुख्यमंत्री बादल के रिश्तेदार विक्रम सिंह मजीठिया पर नशीली दवाओं के धंधे में शामिल होने का आरोप लग चुका है. प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों ने उनसे पूछताछ भी की है. ऐसे में कांग्रेस को पूरी उम्मीद है कि आगामी चुनाव में जनता उसे सरकार बनाने का मौका देगी. जाहिर है जिस नेता के पास चुनाव की कमान होगी वही मुख्यमंत्री पद का दावेदार होगा. पिछले तीन दशक से पंजाब की राजनीति को परख रहे राजनीतिक विश्लेषक और पत्रकार बलजीत बल्ली कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में अकाली दल-भाजपा सरकार के खिलाफ रोष का फायदा कांग्रेस के बजाय आम आदमी पार्टी को मिला और उसके चार सांसद जीते. इस बार फिर से कांग्रेस नेताओं की आपसी लड़ाई देखकर लगता है कि पार्टी विधानसभा चुनाव में किसी तरह का फायदा उठाने की स्थिति में नहीं है.’

कलह से परेशान पार्टी के पंजाब प्रभारी और कांग्रेस महासचिव शकील अहमद ने भी पंजाब के कांग्रेसियों को एक भोज में एकता की नसीहत दी थी, लेकिन वह बेअसर रही. हालांकि इस बीच दिखावे की राजनीति भी खूब हुई. इसने लोगों को हैरान भी किया. राहुल गांधी की उपस्थिति में मंच पर ही बाजवा और अमरिंदर सिंह गले मिलते भी नजर आए.

जानकारों का कहना है कि कांग्रेस को तो पिछले विधानसभा चुनाव में ही जीत मिलनी चाहिए थी, लेकिन वह सत्ता हासिल करने से चूक गई. उस पराजय में भी गुटबाजी और अंतर्कलह की अहम भूमिका रही. पंजाब में विधानसभा चुनाव अभी कुछ दूर हैं, लेकिन लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पर ग्रहण लग चुका है. शकील अहमद  द्वारा  पार्टी की गुटबाजी को खत्म न कर पाने के बाद पार्टी ने उनकी जगह पी.सी चाको को कमान दी, लेकिन वह भी कोई चमत्कार नहीं दिखा सके.

अंतर्कलह की बात की जाए तो फिलहाल हरियाणा और पंजाब के बीच कमोबेश एक जैसी परिस्थितियां हैं. यही वजह है कि लोकसभा चुनाव में दोनों राज्यों में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा. पंजाब को लेकर आलाकमान की चिंता लगातार बढ़ती जा रही है. अकाली दल और भाजपा गठबंधन लगातार दूसरी बार सत्ता में हैं. इसे देखते हुए होना तो यह चाहिए था कि बेहतर समन्वय के जरिए पार्टी संगठन को मजबूत करती और इसका इस्तेमाल चुनावों में विरोधियों को मात देने के लिए करती.

फिलहाल तो पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता दिल्ली के विधानसभा चुनाव में व्यस्त हैं. ऐसे में तत्काल बाजवा को हटाए जाने की कोई सूरत नहीं नजर आती. पिछले दिनों राज्य में दौरे पर आई राज्यसभा सदस्य और सोनिया गांधी के कार्यालय से जुड़ी अंबिका सोनी ने भी साफ कहा था कि किसी के महज शक्ति प्रदर्शन करने भर से प्रदेश अध्यक्ष को पद से नहीं हटाया जाएगा. हालांकि जब उनसे नेतृत्व परिवर्तन की संभावना पर सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि फिलहाल पार्टी का सदस्यता अभियान जारी है और अप्रैल में इसके खत्म होने के बाद संगठन चुनाव होंगे. चुनाव में कोई भी चुनकर आ सकता है. लेकिन जमीनी हालात अलग हैं. नेताओं और उनके समर्थकों की आपसी बयानबाजी को आलाकमान भी नहीं रोक पा रहा है.

कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा
कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा

अमरिंदर सिंह जहां पटियाला स्थित मोतीबाग निवास में अपने समर्थकों की बैठक बुलाकर आलाकमान को अपनी ताकत दिखा चुके हैं, वहीं उन्होंने पार्टी द्वारा माघी मेले के मौके पर मुक्तसर में आयोजित कार्यक्रम का बहिष्कार भी किया. उस कार्यक्रम में बाजवा, भट्टल, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मोहिंदर सिंह केपी और युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा शामिल हुए. बाजवा से जब पूछा गया कि पार्टी के इस कार्यक्रम में अमरिंदर सिंह क्यों नहीं आये, तो उन्होंने गोलमोल जवाब देते हुए कहा कि क्या अकालियों के कार्यक्रम में सारे अकाली नेता आये थे.

बाजवा, अमरिंदर सिंह के समर्थकों पर कार्रवाई करने में भी पीछे नहीं हैं. उन्होंने अमरिंदर समर्थक माने जानेवाले लुधियाना  शहर के पार्टी अध्यक्ष पवन दीवान को पद से हटा दिया. वहीं बाजवा द्वारा विधानसभा उपचुनाव में पार्टी की हार के लिए अमरिंदर सिंह को जिम्मेदार ठहराये जाने की सिंह समर्थकों में तीखी प्रतिक्रिया हुई है. बाजवा के गृह नगर गुरदासपुर के कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष सुखजिंदर सिंह ने कहा कि बाजवा तो खुद लोकसभा चुनाव हार चुके हैं जबकि वे खुद को भावी मुख्यमंत्री बता रहे थे.

उन्होंने यहां तक कहा कि बाजवा को अमरिंदर सिंह की आलोचना करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं क्योंकि अमरिंदर सिंह अरुण जेटली को हराकर अपनी लोकप्रियता साबित कर चुके हैं. इतना ही नहीं पिछले दिनों लुधियाना में अमरिंदर सिंह के समर्थकों ने बाजवा को काले झंडे दिखाए और बाजवा वापस जाओ के नारे भी लगाए. दोनों नेताओं के समर्थकों के बीच हाथापाई की नौबत आ गई थी.

इसी बीच अमरिंदर सिंह द्वारा अपने संसदीय क्षेत्र अमृतसर में ललकार रैली के आयोजन को खुले तौर पर आलाकमान के खिलाफ चुनौती के रूप में देखा जा रहा है. मौजूदा सरकार द्वारा नशीली दवाओं के कारोबार में लगे लोगों को संरक्षण देने के खिलाफ इस रैली का आयोजन किया गया था. यह वास्तव में अमरिंदर सिंह का शक्ति प्रदर्शन था. रैली में पूरे प्रदेश से काफी तादाद में लोग आए. पंजाब के 43 कांग्रेस विधायकों में से 33 ने यहां अपनी मौजूदगी दर्ज कराई. यहां तक कि प्रताप सिंह बाजवा के गृह जिले गुरदासपुर के चार विधायक सुखजिंदर सिंह रंधावा, राजिंदर सिंह बाजवा, अश्वनी शेखरी और अरुणा चौधरी भी रैली  में शामिल  हुए.  इसके अलावा  कांग्रेस विधायक दल के नेता सुनील जाखड़, पूर्व केंद्रीय मंत्री परनीत कौर, मनीष तिवारी, जालंधर के सांसद चौधरी संतोष सिंह व पूर्व राजयपाल आरएल भाटिया भी रैली में शामिल हुए. जबकि बाजवा और भट्टल समेत विरोधी गुट के नेता इस रैली से दूर रहे. रैली में एक के बाद एक नेताओं ने अमरिंदर सिंह से पार्टी की कमान संभालने का आग्रह किया. चौधरी संतोष सिंह ने तो यहां तक ऐलान कर दिया की आज की रैली ने दो वर्ष बाद कांग्रेस के सत्ता में आने की नींव रख दी है. नेतृत्व परिवर्तन का मुद्दा इतना छाया रहा कि नशे के मुद्दे पर सरकार को घेरने का मुख्य एजेंडा कहीं पीछे छूट गया.

राजनीतिक हलकों में कहा जा रहा है कि रैली में अमरिंदर सिंह ने अपनी ताकत पार्टी आलाकमान को दिखा दी है. रैली से एक दिन पहले ही प्रताप सिंह बाजवा ने कह दिया था की न तो उन्हें रैली में बुलाया गया है और न ही रैली को आलाकमान का समर्थन  है. लेकिन बाजवा ने यह जरूर कहा था की अमरिंदर सिंह अमृतसर से सांसद हैं और अपने क्षेत्र में रैली करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं.

पिछले दिनों लुधियाना में अमरिंदर सिंह के समर्थकों ने बाजवा को काले झंडे दिखए और बाजवा वापस जाओ के नारे तक लगाए गए

पिछले दिनों ऐसी चर्चा भी चली थी कि अमरिंदर  सिंह भाजपा नेताओं के सम्पर्क में है तथा वे कांग्रेस पार्टी छोड़ सकते है. सिंह के समर्थक इन अफवाहों के पीछे बाजवा का हाथ होने की बात कह रहे हैं. सिंह साफ कह चुके हैं कि वे पार्टी के निष्ठावान सिपाही हैं और उसे छोड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता.

हालांकि पिछले दिनों लोकसभा के शीतकालीन सत्र में भाग नहीं लेने बारे अमरिंदर सिंह कहते है कि वे पारिवारिक कारणों से वे सत्र में हिस्सा नहीं ले पाए. इसकी पूर्व सूचना उन्होंने आलाकमान को दे दी थी.

वह खुलकर कहते हैं कि बाजवा के नेतृत्व में पार्टी कमजोर हो रही है. जबकि बाजवा का दावा है कि उन्होंने कमान संभालने के बाद पार्टी में नई जान फूंकी है और प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्ववाली गठबंधन सरकार को नशे के कारोबार से जुड़े मुद्दों पर कई बार कठघरे में खींचा है. यहां यह बात ध्यान देनेवाली है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी इसी मुद्दे पर अमृतसर में रैली करनेवाले थे, लेकिन अमरिंदर सिंह द्वारा उसी दिन अमृतसर में रैली करने की चुनौती देने के बाद शाह की रैली रद्द कर दी गई. हालांकि इसकी वजह दिल्ली विधानसभा चुनाव को बताया गया. अब  अमरिंदर सिंह के समर्थक इसे अपनी जीत के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं.

फिलहाल बाजवा और अमरिंदर सिंह दोनों के समर्थक दिल्ली में जमे हुए हैं और एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी का सिलसिला जारी है. बाजवा का कहना है कि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से अपनी मुलाकात के बारे में अमरिंदर सिंह मीडिया में बयानबाजी कर रहे हैं. वहीं सिंह ने पार्टी अध्यक्ष को साफ बता दिया है कि वह प्रदेश में पार्टी की कमान अपने हाथ में चाहते हैं. इन तमाम बातों के बीच एक बात तो तय है कि प्रदेश के इन दोनों नेताओं की आपसी लड़ाई ने जनाक्रोश का सामना कर रही अकाली दल-भाजपा गठबंधन सरकार को मुस्कराने का अवसर दे दिया है.

‘एनआईए’ पर मत जाइये

फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय
फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय

देश में राजनेताओं के अब तक के सबसे बड़े हत्याकांड की जांच कर रही राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) अपनी अंतिम रिपोर्ट के कारण खुद सवालों के कठघरे में नजर आ रही है. रिपोर्ट देखकर लगता है कि एनआईए ने इस जघन्य हत्याकांड के कारणों की पड़ताल करने के बजाय राज्य सरकार को क्लीन चिट देने में ज्यादा रुचि दिखाई है.

छत्तीसगढ़ में बस्तर का केंद्र कहलाने वाले जगदलपुर की झीरम (दरभा) घाटी में 25 मई 2013 को नक्सलियों ने कांग्रेस के 27 नेताओं को मौत के घाट उतारकर देश के लोकतंत्र को सीधी चुनौती दी थी. परिवर्तन यात्रा पर निकले कांग्रेस के निहत्थे नेताओं को घेरकर नक्सलियों ने न केवल उनकी हत्या कर दी थी, बल्कि उनके शवों के साथ भी अमानवीय व्यवहार किया था. इस घटना में किसी तरह बच गए कांग्रेस के ही नेताओं ने इसे राजनीतिक हत्याकांड करार दिया था. विभिन्न आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच राज्य सरकार ने झीरम हत्याकांड की न्यायिक जांच कराने के निर्देश दिए थे, लेकिन मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने इसकी पड़ताल एनआईए को सौंप दी थी. उसके बाद से ही यानी पिछले दो वर्षों से एनआईए की जांच रिपोर्ट का इंतजार किया जा रहा था, जिसे नवंबर 2014 में गुपचुप रूप से बिलासपुर हाईकोर्ट में पेश भी कर दिया गया. लेकिन अब जबकि एनआईए का अंतिम चालान सार्वजनिक हो गया है, तो इस पर कई सवाल उठाए जा रहे हैं. सवाल लाजिमी भी हैं, क्योंकि झीरम हत्याकांड के प्रभावितों के साथ-साथ आम लोग भी इस हमले की वजहों को जानना चाहते थे. लेकिन एनआईए की रिपोर्ट ‘खोदा पहाड़, निकली चुहिया’ साबित हुई है. अपने अंतिम चालान के बाद एनआईए की विश्वसनीयता पर ग्रहण लगता दिखाई दे रहा है.

फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय
फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय

जब तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने रायपुर में ही ऐलान कर झीरम नक्सल हत्याकांड की जांच एनआईए को सौंपी थी, तब लोगों के साथ ही साथ कांग्रेस पार्टी को भी उम्मीद थी कि यह जांच एजेंसी किसी ठोस नतीजे पर जरूर पहुंचेगी. लेकिन अब एनआईए ने जो अंतिम चालान बिलासपुर हाईकोर्ट में पेश किया है, उसमें कई खामियां नजर आ रही हैं. यह तो सभी जानते हैं कि कांग्रेस नेताओं की हत्या नक्सलियों ने की थी, लेकिन हैरानी की बात यह है कि एनआईए की रिपोर्ट भी ‘केवल’ यही बता रही है. आश्चर्य की बात है कि पूरी रिपोर्ट में कहीं भी न तो सुरक्षा चूक का जिक्र किया गया है और न ही किसी की जिम्मेदारी तय की गई है. जबकि घटना के बाद खुद राज्य सरकार ने ही यह माना था कि नेताओं की सुरक्षा में बड़ी चूक हुई है.

यही नहीं, एनआईए ने राज्य की पुलिस की उन गुप्त सूचनाओं की चर्चा भी नहीं की है, जो 25 मई को हुए हत्याकांड के करीब तीन माह पहले से ही साझा की जा रही थीं (तहलका के पास वे गोपनीय पत्र मौजूद हैं). इन गोपनीय पत्रों में यह बात बार-बार कही जा रही थी कि नक्सली झीरम घाटी में किसी बड़ी वारदात को अंजाम दे सकते हैं. इस तरह की सूचना की एक बानगी 19 मार्च 2013 को पुलिस मुख्यालय के गोपनीय पत्र क्रमांक पु.मु/विआशा/सूत्र/2013 (एस-580) को देखकर मिल सकती है. पत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि जगदलपुर के दरभा थाना के तहत क्षेत्रों में 100 से 150 की संख्या में माओवादियों की उपस्थिति बनी हुई है. पत्र में लिखा गया है कि माओवादी 10 मार्च से 10 जून 2013 तक टेक्टिकल काउंटर ऑफेंसिव कैम्पेन (टीसीओसी) अभियान चला रहे हैं. इस दौरान वे दरभा या बयानार थाना पर हमला कर सकते हैं या फिर घात लगाकर गश्त पर निकली पुलिस पार्टी पर बड़ा हमला कर सकते हैं. 10 और 17 अप्रैल 2013 को पुलिस मुख्यालय के दो अलग-अलग पत्रों पु.मु/विआशा/सूत्र/2013 (एस-739) और (एस-799) में सूचना दी गई है कि माओवादी टीसीओसी अभियान 2013 के दौरान पूर्व नेता प्रतिपक्ष और सलवा जुडूम नेता महेंद्र कर्मा, कांग्रेस नेता विक्रम मंडावी, अजय सिंह (निवासी भैरमगढ़) और कांग्रेस नेता राजकुमार तामो (निवासी दंतेवाड़ा) को मारने के लिए एक एक्शन टीम का गठन किया गया है, जिसका दायित्व माओवादी मिलिट्री कम्पनी नंबर 02 के पार्टी प्लाटून सदस्य राकेश को सौंपा गया है. इस एक्शन टीम में भैरमगढ़ प्लाटून, गंगालूर प्लाटून तथा भांसी एलओएस से एक-एक सदस्य को शामिल किया गया है. एक्शन टीम के प्रभारी को 9 एमएम पिस्टल और सदस्यों को रिवाल्वर उपलब्ध कराया गया है. पत्र में खास ताकीद की गई है कि महेंद्र कर्मा की सुरक्षा में तैनात अधिकारियों और जवानों को विशेष सतर्कता बरतने को कहा जाए. साथ ही उनके सुरक्षा मापदंड के अनुरूप ही सुरक्षा मुहैया कराई जाए.

यह तो सभी जानते हैं कि कांग्रेस नेताओं की हत्या नक्सलियों ने की थी, लेकिन हैरानी की बात यह है कि एनआईए की रिपोर्ट भी ‘केवल’ यही बता रही है

यही नहीं, 9 मई 2013 यानी हत्याकांड के महज 16 दिन पूर्व पीएचक्यू के एक गोपनीय पत्र पु.मु/विआशा/सूत्र/2013 (एस-1046) में भी चेताया गया है कि सुकमा के थाना तोंगपाल में आनेवाले ग्राम बाढ़नपाल में 50 से 60 सशस्त्र वर्दीधारी नक्सली अस्थाई कैम्प किए हुए हैं, जो राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर झीरम घाटी के पास घटना को अंजाम दे सकते हैं. इसी पत्र में बताया गया है कि थाना गादीरास के ग्राम फूलबगड़ी के जंगल केरलापाल में एरिया कमेटी सचिव केशा भी अपने 35 सशस्त्र नक्सलियों के साथ डेरा डाले हुए है, जो राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर ग्राम बोरगुडा रामाराम के पास सुरक्षा बलों पर हमलाकर नुकसान पहुंचा सकते हैं.

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यह था मामला
25 मई 2013 को नक्सलियों ने झीरम घाटी में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला किया था. इसमें उस समय के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, विद्याचरण शुक्ल और महेंद्र कर्मा सहित 27 लोगों की मौत हुई थी. घटना के बाद सुरक्षा में बड़ी चूक की बात सामने आई थी.


पुलिस जांच भी बेनतीजा
झीरम हमले को लेकर पुलिस की विभागीय जांच बेनतीजा रही. मामले में न तो कोई खुलासा हुआ है और न ही विभागीय अधिकारियों-कर्मचारियों की लापरवाही तय की गई. यही नहीं, नक्सली प्रवक्ता गुडसा उसेंडी से पूछताछ में भी छत्तीसगढ़ पुलिस को कुछ हाथ नहीं लगा. अब पुलिस मुख्यालय के आला अधिकारी एनआईए जांच का हवाला देकर कुछ भी जानकारी देने से बच रहे हैं. घटना के समय पीएचक्यू के आला अधिकारियों ने मामले में लापरवाही तय होने पर कार्रवाई की बात कही थी. घटना की जांच सीआईडी के हवाले की गई थी.


इन बिंदुओं पर होनी थी जांच
घटना कैसे हुई? क्या घटना के पहले नक्सलियों का जमावड़ा आसपास के इलाके में था? परिवर्तन यात्रा के दौरान रोड ओपनिंग पार्टी थी या नहीं? थाना बल तैनात थी या नहीं? इन्हीं बिंदुओं पर सीआईडी की जांच केंद्रित थी. घटनास्थल पर मौजूद पीएसओ तथा अन्य लोगों के बयान भी दर्ज किए गए थे. जांच के बाद रिपोर्ट पुलिस मुख्यालय को सौंपी जानी थी, लेकिन रिपोर्ट पूरी ही नहीं हुई.


संपत्ति की जांच तक नहीं कर पाई एनआईए
एनआईए यह भी पता नहीं लगा पाई कि फरार आरोपियों के नाम पर कोई संपत्ति है भी या नहीं. एनआईए ने बिलासपुर हाईकोर्ट में 25 फरार आरोपियों की संपत्ति कुर्क करने के लिए इस्तगासा पेश किया था. लेकिन पुलिस जांच के दौरान पता चला कि उनके नाम पर संपत्ति ही नहीं है. इस मामले में भी कोर्ट में एनआईए की किरकिरी हुई. झीरम घाटी मामले में कुल 34 नामजद आरोपी हैं. इनमें नौ लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं, जबकि 25 आरोपी अब तक फरार हैं, जिनकी तलाश की जा रही है.


कुछ खास उपलब्धि नहीं रही है एनआईए की
मुंबई हमलों के बाद वर्ष 2008 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी नाम के संघीय संगठन के गठन के लिए संसद में एक विधेयक पेश किया था. देशभर में बने माहौल के चलते हालात को देखते हुए सभी राजनीतिक दलों ने इस विधेयक का समर्थन किया. 17 दिसंबर 2008 को लोकसभा में पारित होने के बाद 31 दिसंबर को इसे राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिल गई. यह बात और है कि सभी दलों की सहमति के बाद भी 6 जनवरी 2009 को नई दिल्ली में प्रधानमंत्री द्वारा बुलाए गए मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में ज्यादातर गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने एनआईए के गठन पर आपत्ति जताई थी, जिनमें छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह भी शामिल थे. रमन सिंह एनआईए को दिए गए अधिकारों को राज्य के अधिकारों में हस्तक्षेप के रूप में देख रहे थे. जम्मू-कश्मीर कैडर के 1975 बैच के आईपीएस अधिकारी राधा विनोद राजू को एनआईए का पहला मुखिया नियुक्त किया गया था.

एनआईए का गठन देश की ऐसी आंतरिक जांच एजेंसी के रूप में किया गया है, जिसका काम आतंकवाद या नक्सलवादी हमलों की तह तक जाना है. इसका काम ऐसे हमलों की सहायक बनी परिस्थितियों की पड़ताल करनी है. देश की संप्रभुता और एकता से जुड़ी चुनौती, विस्फोट, विमान या जलपोत अपहरण और परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमले इसी एजेंसी की जांच के दायरे में आते हैं. एजेंसी ऐसी घटनाओं की भी जांच करती है, जो पेचीदा अंतर-राज्यीय और अंतरराष्ट्रीय संपर्कों वाली होती हैं और जिनका संभावित संबंध हथियारों और नशीली दवाओं की तस्करी, जाली भारतीय मुद्रा और सीमापार से घुसपैठ से होता है. लेकिन आज तक एनआईए के खाते में कोई विशेष उपलब्धि नहीं आई है.


न्यायिक जांच आयोग कर रहा है अलग जांच
झीरम कांड न्यायिक जांच आयोग मामले की अलग से जांच कर रहा है. अभी उसकी जांच पूरी नहीं हुई है. मामले में अब तक 44 लोगों का बयान दर्ज किया जा चुका है. आयोग के समक्ष एक गवाह मदन दुबे ने शपथ पत्र में दिए गए बयान में कहा है कि अतिविशिष्ट लोगों को दिए जानेवाले सुरक्षा मानक के अनुरूप सुरक्षा व्यवस्था झीरम की घटना के दौरान नहीं की गई थी. यही कारण था कि नक्सली अपने मंसूबों में कामयाब हो गए.

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इसके अलावा 17 मई 2013 को भेजे गए एक पत्र में नक्सलियों द्वारा ग्रामीणों की बैठक में भाजपा की विकास यात्रा व कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा का विरोध करने और किसी भी नेता को गांव में न घुसने देने का निर्देश देने की सूचना भेजी गई थी. एनआईए अपने चालान में नक्सलियों द्वारा जो चावल व चंदा एकत्र करने की बात कर रही है, उसके बारे में भी राज्य की पुलिस के गोपनीय पत्रों में घटना के पहले ही बता दिया गया था. ऐसे तीन-चार नहीं बल्कि दर्जनों गोपनीय पत्र पुलिस मुख्यालय से जगदलपुर, दंतेवाड़ा, बस्तर, कोंडागांव, सुकमा के पुलिस अधीक्षकों को भेजे जा रहे थे, जिनमें नक्सलियों के टीएलओसी अभियान के तहत 10 जून 2013 तक किसी बड़ी वारदात की आशंका जताई जा रही थी. पुलिस यह भी जानती थी कि वारदात राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर दरभा थाना के आसपास ही होनी थी. पुलिस की गोपनीय सूचनाओं में बार-बार झीरम घाटी का भी जिक्र हो रहा था. लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि एनआईए ने अपनी जांच रिपोर्ट में एक बार भी यह जिक्र नहीं किया है कि जब स्थानीय पुलिस के पास इतनी पुख्ता सूचनाएं थीं, तो कांग्रेस नेताओं को झीरम घाटी जाने की अनुमति क्यों दी गई. सवाल कई हैं. यदि कांग्रेस नेताओं को झीरम घाटी से गुजरने की अनुमति दी गई, तो उन्हें सुरक्षा मुहैया क्यों नहीं करवाई गई. कांग्रेस के काफिले के पहले रोड ओपनिंग पार्टी (पुलिस का गश्ती दल, जो यह सुनिश्चित करता कि रास्ते में कोई खतरा नहीं है) क्यों नहीं भेजी गई. जब राज्य की पुलिस के पास यह पुख्ता जानकारी थी कि झीरम घाटी में नक्सली किसी बड़ी वारदात को अंजाम देने की फिराक में हैं और महेंद्र कर्मा को मारने के लिए एक्शन टीम बनाई गई है, तो भी कांग्रेस नेताओं को नक्सलियों की मांद में बगैर किसी सुरक्षा के कैसे भेज दिया गया. लेकिन एनआईए ने इन सभी सवालों को अनदेखा करते हुए अपनी अंतिम रिपोर्ट पेश कर दी.

फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय
झीरम घाटी की असभ्यता नक्सलियों के नृशंस हमले की तस्वीरें जिसमें छत्तीसगढ़ कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं के साथ कुल 27 लोग मारे गए थे;
फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय

एनआईए के अंतिम चालान से घटना के वे प्रत्यक्षदर्शी भी आश्चर्यचकित हैं, जिन्हें कभी बयान के लिए बुलाया ही नहीं गया. प्रत्यक्षदर्शियों का यह आरोप गंभीर प्रश्न खड़े करता है. कई प्रत्यक्षदर्शियों को एनआईए की तरफ से केवल एक बार कॉल की गई कि वे तैयार रहें, उनके बयान लिए जाएंगे, लेकिन कभी उन्हें बयान के लिए बुलाया ही नहीं गया. झीरम हमले में मारे गए कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल के प्रवक्ता रहे दौलत रोहड़ा घटना के वक्त शुक्ल के साथ उसी गाड़ी में थे. हमले से वह सकुशल बचकर वापस आ गए. रोहड़ा बताते हैं, ‘राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने मुझे एक बार फोन किया कि आप तैयार रहें, आपको कभी भी बयान देने के लिए बुलाया जा सकता है. लेकिन कभी बुलाया नहीं.’  नक्सल हमले में घायल हुए कांग्रेस के एक अन्य नेता शिवनारायण द्विवेदी सवाल करते हैं, ‘हमसे एनआईए ने पूछताछ क्यों नहीं की. हमसे ब्यौरा क्यों नहीं लिया गया, जबकि हम अपने नेताओं की हत्या के वक्त मौके पर मौजूद थे.’

एनआईए के अंतिम चालान से घटना के वे प्रत्यक्षदर्शी भी आश्चर्यचकित हैं, जिन्हें कभी बयान के लिए बुलाया ही नहीं गया

इस बारे में एनआईए के आईजी संजीव सिंह केवल यही बताते हैं कि ‘अब तक नौ नक्सलियों की गिरफ्तारी हो चुकी है. घटना को आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नक्सलियों ने मिलकर अंजाम दिया था. झीरम घाटी में वारदात को अंजाम देनेवाले नक्सलियों में ओडीसा का एक भी बड़ा कमांडर शामिल नहीं है. इसे एनआईए की टीम नक्सलियों के बीच चल रहे वैचारिक मतभेद के रूप में देख रही है.’ लेकिन एनआईए की जांच रिपोर्ट में छूटे गए बिंदुओं पर वह कोई भी बात करने को तैयार नहीं दिखते. सिंह कहते हैं, ‘रिपोर्ट तथ्यपरक है, जो पाया गया, वही पेश किया गया है.’ वहीं छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक अमरनाथ उपाध्याय कहते हैं, ‘झीरम घाटी में नक्सली वारदात की जांच एनआईए की टीम ने की है. इस मामले में छत्तीसगढ़ पुलिस का कोई हस्तक्षेप नहीं है. कोर्ट में मामला होने के कारण अभी कोई टिप्पणी नहीं कर सकता.’

फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय
फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय

कांग्रेस ने इस रिपोर्ट को पूरी तरह नकार दिया है. कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल का आरोप है कि एनआईए ने आधी-अधूरी रिपोर्ट पेश की है और यह राज्य सरकार को बचाने का काम रह रही है. नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव और उमेश पटेल (हमले में मारे गए तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल के पुत्र) ने झीरम घाटी में मारे गए कांग्रेस नेताओं के परिजनों के साथ मुख्यमंत्री रमन सिंह से मुलाकातकर एनआईए की रिपोर्ट पर आपत्ति दर्ज करवाई है. कांग्रेस के इस प्रतिनिधिमंडल ने घटना की सीबीआई जांच करवाने की मांग दोहराई है. रमन सिंह ने प्रतिनिधि मंडल को गृहमंत्री राजनाथ सिंह से भी मुलाकात करने की सलाह दी है.

हालांकि एनआईए की रिपोर्ट पर खुद राज्य सरकार दो तरह से प्रतिक्रिया देती नजर आ रही है. मुख्यमंत्री रमन सिंह ने रिपोर्ट से पल्ला झाड़ते हुए कहा है, ‘मुझे तो जस्टिस प्रशांत मिश्रा की अध्यक्षता में बनाई गई न्यायिक जांच रिपोर्ट का इंतजार है. एनआईए की रिपोर्ट से राज्य सरकार का कोई लेना-देना नहीं है.’ वहीं प्रदेश के गृहमंत्री रामसेवक पैकरा ने रिपोर्ट को सही ठहराया है. पैकरा कहते हैं, ‘एनआईए ने जो पाया, वही अपने अंतिम चालान में पेश किया है.’

हालांकि छत्तीसगढ़ समाज पार्टी के अध्यक्ष अनिल दुबे, जिन्होंने झीरम घाटी हत्याकांड के बाद पुलिस मुख्यालय के गोपनीय पत्रों को सार्वजनिक करने में अहम भूमिका निभाई है, उनकी इस बात से सहमत नजर नहीं आते. वह तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘माओवाद की समस्या केंद्र और राज्य सरकार की मिलीभगत का नतीजा है. यह एक बार फिर एनआईए की आधी-अधूरी रिपोर्ट से साबित हो गया है.’ दुबे कहते हैं, ‘कांग्रेस और भाजपा दोनों की यह नीयत नहीं है कि माओवाद खत्म हो, क्योंकि इसमें बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार की संभावना बनी रहती है. यह बात सभी जानते हैं कि झीरम घाटी की घटना सोची-समझी साजिश है, जो बिना राजनीतिक संरक्षण के संभव नहीं थी. आप देखिए, उसी दौरान मुख्यमंत्री की विकास यात्रा भी निकल रही थी, जिसे पूरी सुरक्षा प्रदान की गई थी, वहीं उसके पंद्रह दिन बाद कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा निकली. लेकिन परिवर्तन यात्रा के दौरान जितने नेता थे, उतने सिपाही भी नहीं लगाए गए. सरकार को हर दिन किसी बड़े हमले की जानकारी मिल रही थी, लेकिन फिर भी जरूरी कदम नहीं उठाए गए.’

दुबे आगे कहते हैं, ‘एनआईए की रिपोर्ट में केवल एक महत्वपूर्ण काम किया गया है. वह यह कि इसमें आरोपी नक्सलियों को सूचीबद्ध कर दिया गया है. लेकिन दूसरे अहम बिंदुओं की इसमें कोई पड़ताल नहीं की गई है. सरकार को मिल रही सटीक गोपनीय सूचनाओं तक का इसमें हवाला नहीं दिया गया है. सही मायनों में एनआईए की जांच अधूरी है.’

‘फिलहाल लक्ष्मण की जरूरत सबसे ज्यादा है’

आरके लक्ष्मण।1921-2015। इलेस्ट्रेशनः जव‍जिथ सीवी
आरके लक्ष्मण।1921-2015।
इलेस्ट्रेशनः जव‍जिथ सीवी

‘आम आदमी’ के रचयिता विश्वविख्यात कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण ने पुणे के एक अस्पताल में आखिरी सांस ली. छह दशक तक लगातार, हर सुबह आम आदमी को अपनी पेंसिल से गुदगुदाने, छेड़ने और कुछ लोगों को नाराज करने के बाद अब यह लंबी यात्रा थम गई है. 93 बसंत, पतझड़ और सावन देख चुके आरके लक्ष्मण की जीवनयात्रा जितनी लंबी रही, उनकी कार्टून यात्रा भी उतनी ही विस्तृत रही. उनका जीवन अभिव्यक्ति के बंधनों को लगातार तोड़ता रहा और साथ ही आजाद भारत की लोकतांत्रिक यात्रा के तमाम उजास भरे पहलुओं का गवाह भी बनता रहा. दशकों तक बेनागा आदमी टाइम्स ऑफ इंडिया के पन्नों पर आनेवाला उनका आम आदमी आम भारतीयों की जीवनचर्या का एक तरह से हिस्सा ही बन चुका था.

आरके लक्ष्मण राजनीति, समाज, खेल, चिकित्सा, कानून व्यवस्था यानी आम आदमी से जुड़े हर उस मुद्दे पर हर रोज कटाक्ष करते थे जिसका सरोकार देश की आम जनता से होता था. उनके कार्टून देश के उस आम आदमी को भरोसा देते थे, जिसे आमतौर पर व्यवस्था के हाशिए पर रखा जाता है. शुरुआत से ही लक्ष्मण अपने समकालीनों के विपरीत गहरे राजनीतिक कार्टूनिस्ट नहीं थे. उनकी कूची कॉमन मैन के इर्द-गिर्द ही घूमती थी. उनके प्रिय विषय महंगाई, भ्रष्टाचार, बिजली, सड़क और पानी हुआ करते थे. और इन विषयों पर वे पूरी बेबाकी से अपनी कूची फेरते थे. उनकी  कूची के निशाने पर अपने समय के लगभग सभी बड़े राजनेता और उद्योगपति रहे. इस निडरता की वजह से उन्हें चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा. आपातकाल में सत्तारूढ़ इंदिरा सरकार ने उन्हें मनमुताबिक काम न करने पर देश छोड़कर चले जाने को कहा. उन्होंने सरकार की शर्तों पर काम करने की बजाय देश छोड़ना पसंद किया. इस तरह देश का यह प्रखर कार्टूनिस्ट आपातकाल के खत्म होने तक मॉरिशस में निर्वासित जीवन जीता रहा. कहना गलत नहीं होगा कि वह एक ‘पिक्चर परफेक्ट’ कार्टूनिस्ट थे. उनके ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के पॉकेट कार्टून ‘यु सेड इट’ की खास बात यही थी, जैसा दृश्य किसी कैमरे से दिखाई पड़ता है, वैसा हूबहू लक्ष्मण वर्षों तक लगातार कागज पर उतारते रहे. उनके बनाये नेहरू, इंदिरा, राजीव, लालू प्रसाद यादव, डॉ. अब्दुल कलाम जैसी तमाम मशहूर हस्तियों के कैरीकेचर अद्भुत हैं.

मेरे अपने कार्टूनिस्ट जीवन के ऊपर भी उनका कुछ असर है, जिसे यहां बताना चाहूंगा. वे अपने कार्टून ब्रश से ही बनाते थे. उनकी देखा-देखी ही मैं भी अपने कैरियर के शुरुआती सालों में ब्रश का इस्तेमाल किया करता था. वह बड़ा ही मुश्किल काम था, मगर लक्ष्मण तो लक्ष्मण थे. उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि वे अपना दस्तखत भी ब्रश से ही करते थे. तकनीक चाहे जितनी आगे निकल गई हो, उन्होंने ब्लैक एंड व्हाइट कार्टून ही बनाये, यानी आखिर तक उनका ब्रश किसी तकनीक का मोहताज नहीं हुआ. दुख की बात यह है कि आज जब लक्ष्मण हमारे बीच से चले गए हैं तब भ्रष्टाचार, अपराध और बेईमानी का माहौल पहले से ज्यादा घना हुआ है, ऐसे में लक्ष्मण की जरूरत किसी भी समय से ज्यादा इस समय है.

नस्लवादी दिल्ली?

इलेस्ट्रेशनः एम दिनेश, आनंि नॉरम
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साल 2014 में राजनीतिक बदलाव से लेकर टेस्ट क्रिकेट से धोनी के सन्यास तक काफी कुछ हुआ लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में बसा एक तबका ऐसा भी है जिसके लिए बीता साल सिर्फ दुख और अवसाद के पल ही लाया. पूर्वोत्तर भारत के ये लोग किसी अन्य राज्य के लोगों की तरह ही दिल्ली की प्रगति की आंच को तेज करते हैं. ‘चिंकी’, ‘मोमोस’ और कई दूसरी नस्ली टिप्पणियों से उन्हें हर रोज दो-चार होना पड़ता है. सालभर का आंकड़ा देखें, तो दिल्ली के अंदर उत्तर भारतीयों के खिलाफ बढ़ती आपराधिक घटनाएं राजधानी का अलग चेहरा दिखलाती हंै. क्या यह शहर उत्तर पूर्व के लोगों के प्रति घृणाभाव रखता है या फिर सारी घटनाए एक संयोग मात्र हैं? इसमें मेन लैंडर यानी ‘मूल निवासी’ होने की दम्भी सोच किस हद तक जिम्मेदार है, यह भी महत्वपूर्ण सवाल है. नस्लवादी घटनाओं की बढ़ती संख्या देखकर कह सकते हैं कि यह दिलवालों की दिल्ली का बदनुमा चेहरा है.

बीते साल दिल्ली में पूर्वोत्तर भारत से आए छात्रों और कामकाजी लोगों के साथ भेदभाव का नतीजा मारपीट, हमले और हत्या जैसे गंभीर अपराधों के रूप में हमारे सामने आया. मणिपुर महिला गन सरवाईवर्स नेटवर्क की संस्थापक बिनालक्ष्मी नेप्राम बताती हंै, ‘दिल्ली पूर्वोत्तरवासियों के साथ बहुत कठोर व्यवहार करती है. 2009 से 2014 के बीच में नस्लभेदी घंटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. पूर्वोतर की महिलाओं और लड़कियों को विशेष रूप से निशान बनाया जा रहा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ 60 फीसदी हिंसा के मामलें अकेले पूर्वोतर की महिलाओं के साथ होते हैं’. पूर्वोत्तरवासियों के साथ घट रही हिंसा की घटनाएं हमें मामले की गंभीरता को समझने और सोचने पर मजबूर करती है. दिल्ली पुलिस के आंकड़ों के अनुसार बीते वर्ष में नवंबर महीने तक पूर्वोत्तरवासियों के साथ हिंसा और मारपीट की 650 घटनाएं दर्ज हुई थी. इनमंे से 139 में एफआईआर दर्ज हुईं थी. यह आंकड़ा साल 2013 में इसी अवधि के दौरान घटी घटनाओं का दो गुना है. इनमें से सिर्फ दक्षिणी दिल्ली में 259 वारदातें सामने आईं.

साल की शुरुआत में नीडो तनिया पर हुआ हमला इसकी शुरुआत थी. इसके बाद पूरे साल दिल्ली में पूर्वोत्तरवासियों के साथ हिंसा और झड़प की खबरें आती रहीं. जनवरी में 19 वर्षीय नीडो पर हुए हमले में पुलिस ने सात लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर की थी. इनमें से तीन नाबालिग थे, जिनका मामला जुवेनाइल कोर्ट में चल रहा है. उत्तरपूर्वी क्षेत्र के लोगों के बढ़ते गुस्से और दबाब को देखते हुए नीडो का मामला सीबीआई को सौंपा गया था. मई में सीबीआई ने हत्या की धाराओं को गैर-इरादतन हत्या के मामले में तब्दील कर दिया. बाद में कोर्ट ने दिल्ली पुलिस द्वारा लगाई गई एससी-एसटी की धाराओं को भी खारिज कर दिया. यह मामला अभी कोर्ट में लंबित है.

इलेस्ट्रेशनः एम दिनेश, आनंि नॉरम
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फरवरी में पूर्वोत्तर वासियों पर हमलों की गति तेज हो गई. मुनिरका इलाके में किराए पर रह रही मणिपुर की 14 वर्षीय लड़की के साथ उसके ही मकान मालिक के बेटे ने बलात्कार किया. इस घटना के बाद विभिन्न छात्र संगठनों द्वारा पुलिस स्टेशन का घेराव कर प्रदर्शन हुआ. इधर छात्र प्रदर्शन कर रहे थे दूसरी तरफ मुनिरका गांव में स्थानीय लोगों ने एक पंचायत बुलाई. वहां से उड़ती-पड़ती खबर आई की पंचायत ने ‘गंदे लोग’ यानी उत्तर पूर्व समुदाय के किराएदारों से छुटकारा पाने का निर्णय लिया है. पंचायत के फैसले के खिलाफ जेएनयू छात्र संघ और पूर्वोत्तर के छात्र संगठनों ने मुनिरका पुलिस थाने का घंटों घेराव किया. उस समय प्रदर्शन में शामिल आइसा कार्यकर्ता शेहला राशीद बताती हैं, ‘पंचायत के फैसले के बाद मुनिरका में रह रहे पूर्वोत्तर के छात्रों के अंदर डर बैठ गया था. उनके रिश्तेदार इतने सहमे हुए थे कि उन्होंने मुनिरका छोड़, दिल्ली के किसी और इलाके में रहने का दबाव बना दिया था.’ स्थानीय लोगों का कहना था कि मुनिरका में देर रात लड़के शराब पीकर हंगामा करते हैं और पंचायत या आरडब्ल्यूए की सभा इस मसले से निपटने के लिए की गई थी. अगर पंचायत के फैसले में थोड़ा भी सच का अंश है तो यह दिल्ली में बढ़ रही मूल निवासी की सोच को दर्शता है, और यह चिंता की बड़ी वजह है.

दिल्ली विश्वविद्यायल पूर्वोत्तर से आने वाले छात्रों का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. यहां बड़ी संख्या में पूर्वोत्तर के छात्र रहते और पढ़ते हैं. स्थितियां यहां भी बहुत बेहतर नहीं हैं. नस्लभेदी टिप्पणियां और हिंसा यहां भी रोजमर्रा का हिस्सा है. साउथ कैंपस के पीजीडीएवी कॉलेज में एक मामूली बात पर भरी कैंटीन में असम के प्राण सैकिया को बुरी तरह से पीटा गया. ‘मेरी हालत को देखते हुए मुझे तुरंत ट्रामा सेंटर ले जाया गया था. कान पर लगी गहरी चोटों की वजह से काफी समय तक सुनने में भी दिक्कत होती रही. हालांकि इस मामले में कॉलेज प्रसाशन ने तेजी दिखाते हुए प्रशासनिक व कानूनी दोनों करवाईयों को तेजी से अंजाम दिया. हमला करनेवाले लड़के को सस्पेंड भी कर दिया गया’ प्राण बताते हैं. प्रशासनिक कार्रवाई के नजरिये से डीयू में पढ़ रहे पूर्वोत्तर के हर छात्र की किस्मत प्राण जैसी नहीं है. नस्लवादी हिंसा से निपटने के लिए कॉलेज कैंपसों के अंदर कोई भी एंटी रेसियल सेल नहीं है. डीयू प्रशासन ने अब तक इस ओर कुछ खास प्रयास नहीं किए हैं. ऐसे में सालों बाद भी कैंपस के अंदर किसी ठोस तंत्र का न होना मामले को लेकर विश्वविद्यालय प्रसाशन के लचर रवैये को दर्शाता है. डूसू चुनाव के दौरान भी हर साल यह मुद्दा एनएसयूआई और आईसा वोट बैंक की राजनीत के बीच खो जाता है.

दिल्ली में नस्लीय हिंसा पूर्वोत्तरवासियों के मानस का हिस्सा बन चुकी है. मई में तीस हजारी कोर्ट में हुई घटना बेहद शर्मनाक है. पूर्वोत्तर की नोशी अपनी 38 वर्षीय मुवक्किल के साथ बीती रात हुई छेड़खानी का मामला दर्ज कराने पहुंची थी. अभियुक्त जो खुद भी पेशे से एक वकील था उसने अपने साथियों के साथ मिलकर कोर्ट परिसर में ही नोशी से बदसलूकी शुरू कर दी. बाद में मामले ने हिंसक रूप ले लिया. जमा हुई भीड़ ने बिना सोचे-समझे नोशी और उसके साथियों को खदेड़ दिया.

जुलाई 21 की रात दिल्ली के साउथ एक्स इलाके में सीसीटीवी कैमरे में माणिपुर के शालोनी की आखिरी तसवीरें कैद हुईं. सेनापति गांव का रहनेवाला शालोनी अपने दोस्त को छोड़ने कोटला मुबारकपुर आया था. हमलावरों ने पहले उसे छेड़ा और विरोध करने पर उसकी पीट-पीटकर हत्या कर दी. इस मामले में किसी तरह की कहासुनी भी नहीं हुई थी. हत्या करने वाले सभी अभियुक्त दक्षिणी दिल्ली के गढ़ी गांव के रहने वाले थे. ठीक इसी तरह 15 सितम्बर की रात में मणिपुर के 20 वर्षीय लैथ गोलाइन और बॉयले पर चार स्थानीय लड़कों ने नस्लभेदी टिप्पणी करने के बाद बुरी तरह से हमला किया. चार में से दो हमलावर नाबालिग थे.

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binalakshmi‘दिल्ली पूर्वोत्तरवासियों के साथ बहुत कठोर व्यवहार करती है. पूर्वोतर की लड़कियों को विशेष रूप से निशान बनाया जा रहा है.

बिनालक्ष्मी नेप्राम समाजिक कार्यकर्ता

 


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फेसबुक और व्हाट्सऐप की मदद से हम दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर के लोगों से संपर्क स्थापित करने में सफल हुए हैं.

रॉबिन हिबू ज्वाइंट कमिश्नर दिल्ली पुलिस

 


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पूर्वोत्तर के लोगों पर हो रहे हमले चिंता का विषय तो हैं पर भारत में नस्लवाद की कल्पना करना गलत है.

‌डॉ अवनिजेश अवस्थी प्रो. दिल्ली विश्वविद्यालय

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जो हाल दिल्ली शहर का है वही स्थिति इससे सटे एनसीआर की भी है. गुड़गांव की साइबर सिटी के समीप बसे सिकंदरपुर गांव में 15 अक्टूबर की रात नागालैंड के रहनेवाले अवांग स्वांग और अलोतो चीसी के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. सात स्थानीय लड़कों ने पहले दोनों को हॉकी स्टिक और बल्लों से पीटा और फिर अवांग के बाल कतर दिए. पीड़ित के परिजनों का कहना था कि हमलावरों ने इलाके में रह रहे सभी पूर्वोत्तर के किराएदारों को मकान खाली करने की भी धमकी दी.

पूर्वोत्तर के लोग रूप-रंग से बाकी भारतीयों से अलग दिखते हैं, लेकिन नस्लवाद की समस्या सिर्फ दिल्ली में तेजी से फैली है. दिल्ली और बंगलुरु के अलावा किसी और मेट्रो शहर में नस्लवाद ने इतना हिंसक रूप नहीं लिया है. इग्नू की प्रो वाईस चांसलर प्रो सुषमा यादव कहती हैं, ‘बाकी मेट्रो शहरों की तरह दिल्ली अभी कॉस्मोपॉलिटन नहीं हो पाई है. इस वजह से भी वह सांस्कृतिक भिन्नता व मातृप्रधान सोच में पले समुदाय के प्रति अपना नजरिया बदल नहीं पा रही है. खुद को मूल भारतीय मानने के साथ-साथ यह भावना भी दिल्लीवालों के मन में बैठी हुई है कि पूर्वोत्तर के लोग चीनी मूल के हैं.’ उनका कहना है, ‘यह एक सुनियोजित षड्यंत्र भी हो सकता है. जिसके तहत उत्तर पूर्व को मूल भारत से दूर रखने की कोशिश की जा रही हो. लेकिन इस ओर अभी गंभीर अध्यन व विश्लेषण की जरूरत है.’

इत्तफाकन दिल्ली पुलिस के ज्वॉइंट कमीश्नर व पूर्वोत्तर मामलों के नोडल ऑफिसर रोबिन हिबु खुद भी पूर्वोत्तर के हैं. अरुणाचल कैडर के पहले आईपीएस हिबु पूर्वोत्तरवासियों पर लगातार हो रहे हमलों के संदर्भ में कहते हैं, ‘1093 (पूर्वोत्तर हेल्पलाइन न.) के आने के बाद तस्वीर काफी बदली है. फेसबुक और व्हाट्सऐप की मदद से हम दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर के लोगों से संपर्क स्थापित करने में सफल हुए हैं. दिल्ली पुलिस द्वारा पूर्वोत्तर राज्यों के युवा प्रतिनिधियों को वालंटियर के तौर पर नियुक्त करना और उन्हें अपेक्षित ट्रेनिंग देना, दोनों ही सही कदम थे. ये वालंटियर्स कई मामलों में पीड़ितों के लिए सबसे पहली राहत साबित हुए हैं.’

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नीडो तान्या की हत्या के बाद गठित की गई बेजबरुआ कमेटी के सुझावो पर केंद्र सरकार गौर कर रही है. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को जुलाई 2014 में सौंपते हुए ठोस कदम उठाने की सिफारिश की थी. दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर  के लोगों की प्राथमिकता नस्लभेदी टिप्पणियों पर अंकुश लगाने की है. कमेटी ने इसके लिए आईपीसी के सेक्शन 159 में बदलाव कर ‘चिंकी’, ‘चू-चू’ जैसे शब्दों का प्रयोग करनेवाले लोगों पर नकेल कसने के लिए पांच साल के कारवास के प्रावधान की सिफारिश की है. साथ ही सभी उत्तर पूर्वी राज्यों से दस महिला और दस पुरुष पुलिसकर्मियों की दिल्ली पुलिस में भर्ती करने को कहा है. स्थानीय लोगों, पुलिस और पूर्वोत्तर समुदाय के लोगों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिहाज से यह कदम महत्वपूर्ण है.

बेजबरुआ का दूसरा पक्ष रखते हुए मणिपुर छात्र एसोसिएशन दिल्ली (मसाद) के एक्टिविस्ट मनीश्वर का कहना है, ‘कमेटी की रिपोर्ट और उसकी सिफारिशें मुआवजे की रकम की तरह हैं. पहले हिंसा करो और फिर पीड़ित समुदाय को संतुष्टि का आभास कराने के लिए कमेटी का गठन कर दो. जब तक सिफारिशों के लिए जमीनी ढांचा तैयार नहीं किया जाता, सब व्यर्थ है.’ मसाद ने दिल्ली में लगातर बढ़ रही नस्लवादी हिंसा को साबित करने के कई महत्पूर्ण दस्तावेज़ कमिटी के सामने रखे थे.

इसका दूसरा पहलू भी है कि दिल्ली में एक तबका ऐसा भी है जो मानता है की इस संघर्ष को नस्लीय रूप देना ठीक नहीं है. दिल्ली विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ अवनिजेश अवस्थी के शब्दों में, ‘भारत एक विशाल देश है और प्रांत व भाषा के नाम पर अलग-अलग समय में यहां टकराव होते आए हैं. पूर्वोत्तर के लोगों पर हो रहे हमले चिंता का विषय तो हैं, पर भारत में नस्लवाद की कल्पना करना गलत है. यह पूर्ण रूप से लॉ एंड आर्डर का मामला है. बेशक इसे प्रांतीय संघर्ष का नाम दिया जा सकता है. लेकिन जब यही व्यवहार यहां पर बिहार जैसे पूर्वी राज्यों के लोगों के साथ भी होता है तब मीडिया इसे दो गुटों के बीच का मामला बनाकर पेश करती है.’

ऐसे संघर्षों को देखने का एक तरीका न्यूटन का तीसरा सिद्धांत भी है. पूर्वोत्तर में पढ़ रहे हिंदीभाषी छात्र और रह रहे लोगों तक भी इसकी धमक पहुंचने लगी है. निफ्ट शिलांग में पढ़ रहे विकास बताते हैं, ‘जैसा व्यवहार दिल्ली में पूर्वोतर के लोगों के साथ किया जाता है शिलांग मे चीज़ें उसी दिशा में आगे बढ़ रही हैं. उत्तर भारतीय लड़कियां इनके निशाने पर रहती हैं. पूर्व में भी असम में कई बार हिंदीभाषियों के साथ हिंसा की वारदाते हुई हैं. ऐसे में राष्ट्रीय राजधानी को कई मायनों में खुद को बदलना है.