Wednesday, September 10, 2025
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नन्हे हाथ बड़ी करामात

गहरी खुदाई जोरहाट जजले के जििाबोर में यंग फामर्सर् क्लब से जुड़े छात्र काम करिे हुए
गहरी खुदाई जोरहाट जजले के जििाबोर में यंग फामर्सर् क्लब से जुड़े छात्र काम करिे हुए

पुबाली और सुनती सैकिया के चेहरे की खुशी आज देखते ही बनती है. 13 साल की पुबाली टमाटर तोड़ रही है और लगभग उसकी ही उम्र की सुनती बींस की फलियां इकट्ठा करने में लगी है. एक ही क्लास में पढ़ने वाली इन दोनों सहेलियों का उत्साह स्वाभाविक भी है. आखिर यह उनकी जिंदगी की पहली उपज जो है. ऊपरी असम मेंे जोरहाट जिले के तिताबोर उपखंड में इन दिनों ऐसे कई उदाहरण देखने को मिल जाएंगे. दरअसल इस इलाके के कई प्राथमिक विद्यालयों में ऑर्गेनिक खेती (रसायनों के इस्तेमाल से रहित जैविक खेती) की एक अनूठी पहल शुरू हुई है. इसके तहत बच्चों को औपचारिक शिक्षा के साथ खेती-किसानी से सफल उद्यमी बनने का पाठ भी पढ़ाया जाता है. फार्मप्रेन्योर नाम से शुरू हुई यह पहल ग्रामीण इलाकों के खेतिहर परिवारों के बच्चों पर केंद्रित है.

पुबाली और सुनती एक 20 सदस्यीय युवा किसान समूह की सदस्य हैं. यह समूह तिताबोर के रायदंगजुरी नागाबात प्राथमिक विद्यालय में बना है. सभी बच्चे अपने स्कूल में ही बने और 2,500 वर्ग फुट में फैले किचन गार्डन में सब्जियां उगाते हैं. इन बच्चों ने जैविक खेती के सबक का इस्तेमाल करके गाजर, मूली, टमाटर, सेम, मिर्च और पालक जैसी सब्जियां सफलता से उगाई हैं. इन सब्जियों का इस्तेमाल स्कूल में मध्याह्न भोजन पकाने के लिए किया जाता है. पुबाली कहती है, ‘हमारा किसान क्लब हमें बहुत अच्छा लगता है. मैं बचपन से ही सब्जियां उगाने में अपने पिता की मदद करती आई हूं. लेकिन वे खेत में कैमिकल खाद का इस्तेमाल करते हैं. जब मैंने अपने स्कूल के किसान क्लब के साथ काम करना शुरू किया तब मुझे पता चला कि ऑर्गेनिक खेती क्या होती है. अब हमें पता है कि वर्मीकंपोस्ट खाद (कूड़े-कचरे और कीड़ों से बनने वाली खाद) कैसे बनाई जाती है. हमें सिखाया जा रहा है कि खेती को एक कारोबार के रूप में भी अपनाया जा सकता है और यह भी कि हम खेती को बैंकिंग से जोड़ सकते हैं. बैंक में हम सबके बचत खाते खुले हुए हैं.’

पुबाली के पिता लीलाकांत सैकिया (47) ने सारी जिंदगी खेती ही की है. वे बहुत उत्सुकता से अपनी बेटी के स्कूल से वापस आने की प्रतीक्षा करते हैं. लीलाकांत कहते हैं, ‘मैं चौथी पीढ़ी का किसान हूं. हमारा पूरा गांव खेती से ही अपना पेट पालता है. खेती के बारे में जो भी जानकारी है वह हमें अपने पुरखों से मिली है, लेकिन हम रासायनिक खाद के बुरे असर से अब तक अनजान थे. मेरी बेटी ने मुझे जैविक खेती करना सिखाया, उसने मुझे वर्मीकंपोस्ट बनाना भी सिखाया. बच्चों के इस किसान क्लब ने सारे गांव को जैविक खेती करने के लिए प्रेरित किया है.’

अकेले इस सीजन में ही इस छोटे-से क्लब ने 32 किलो सब्जियां उगाई हैं. इसका अधिकांश हिस्सा स्कूल में दिन का भोजन बनाने में इस्तेमाल हुआ. बची सब्जियों को उन्होंने स्थानीय बाजार में बेचकर 320 रुपये भी कमाए. वर्मीकंपोस्ट खाद की पहले ही स्थानीय किसानों के बीच अच्छी-खासी मांग हो चुकी है. बच्चों के क्लब ने इस खाद की बिक्री करके भी 650 रुपये कमाए. इस पैसे को सबमें बराबर-बराबर बांट कर नए खुले बैंक खातों में जमा कर दिया गया.

सुनती कहती है, ‘मैंने देखा है कि मेरे पिता खेत में बहुत मेहनत करते हैं, लेकिन उसके हिसाब से पैदावार नहीं होती. मुझे नहीं लगता था कि मैं खेती से जुड़ी रहूंगी. लेकिन फार्मप्रेन्योर ने सब कुछ बदल दिया. अब हम उद्यमी किसान बनना चाहते हैं.’

इस पहल की नींव मार्च, 2013 में पड़ी थी. तब फार्म2फूड फाउंडेशन और धरित्री नामक दो स्वयंसेवी संगठनों ने एक मंच पर आकर इस पहल की शुरुआत की. फार्म2फूड फाउंडेशन के संस्थापक गौरव गोगोई कहते हैं, ‘फार्मप्रेन्योर के विचार के पीछे दरअसल खेती की प्रतिष्ठा को स्थापित करने की भावना है. इसके अलावा ग्रामीण इलाके के युवाओं को यह दिखाना है कि कैसे उनके पुरखों का पेशा आज भी कमाल कर सकता है. हमारा ध्यान इस बात पर केंद्रित है कि युवाओं के मन से यह धारणा निकाल दी जाए कि किसान गरीब और अशिक्षित होते हैं. हम उनको यह सिखाना चाहते हैं कि खेती के काम में विज्ञान, वाणिज्य और तकनीक के ज्ञान की जरूरत होती है. हमें लगता है कि यही रास्ता भारत की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है.’

फार्मप्रेन्योर योजना की शुरुआत तिताबोर उपखंड के 10 प्राथमिक विद्यालयों के साथ हुई. हर स्कूल में 20 बच्चों का एक क्लब बनाया गया. चुन गए छात्रों को ऑर्गेनिक खेती के तौर-तरीके सिखाए गए. परियोजना के निदेशक दीपज्योति सोनू ब्रह्मा कहते हैं, ‘हमने स्कूलों के चयन में सर्व शिक्षा अभियान की मदद ली. हमने बच्चों को ऑर्गेनिक खेती के बारे में जानकारी दी. हर बच्चे को एक डिब्बा दिया ताकि वे उसमें अपना वर्मीकंपोस्ट रखें. हमने उन्हें विशेषज्ञों तथा उन मॉडल किसानों से भी मिलवाया जिन्होंने जैविक खेती का इस्तेमाल करके कामयाबी पाई है.’

बच्चों के लिए इसी बात को ध्यान में रखते हुए किताबें भी तैयार की गईं. बच्चों द्वारा उपजाई गई चीजों की प्रदर्शनी लगाई जा रही है और इसके जरिए उन्हें  सिखाया जा रहा है कि फसलों की कीमत कैसे तय की जाए. ब्रह्मा कहते हैं, ‘इससे कई मकसद पूरे हुए. पहला, बच्चे खेती में अपना भविष्य देख सकते हैं. अब तक रासायनिक खाद पर निर्भर रहे इस इलाके में वे जैविक खेती के अगुआ बन गए हैं. उन्हें यह भी समझ में आ गया है कि अपने बचत के पैसे को बैंक में कैसे रखा जाता है. इसके अलावा उन्हें कृषि ऋण और अपने उत्पाद की मार्केटिंग जैसी चीजों का भी ज्ञान हो रहा है.’

अभी प्रयोग के तौर पर चल रही इस परियोजना को सर्व शिक्षा अभियान आर्थिक मदद मुहैया करा रहा है. उसकी तरफ से फाउंडेशन को किताबें और कुछ और शैक्षिक सहायता दी जा रही है. तिताबोर के ही निवासी 70 वर्षीय तंकेश्वर बोरा कहते हैं, ‘सरकार को इससे सीखना चाहिए. यह सबक है कि कैसे बहुत कम खर्च वाले किसी विचार पर भी अगर ईमानदारी और गंभीरता से काम किया जाए तो वह नई पीढ़ी के मन में खेती के बीज बो सकता है. और अगर मार्केटिंग और बैंकिंग को भी इसमें जोड़ दिया जाए तो भविष्य के लिए उम्मीदों का एक भंडार बन सकता है. ये बच्चे यह भी सीख रहे हैं कि वे कैसे बिचौलियों और जमाखोरों से बच सकते हैं.’

यह परियोजना कई मायनों में सफल की जा सकती है. किताबी पढ़ाई के अलावा बच्चे नियमित कार्यशालाओं में भाग लेते हैं. दिलचस्प बात यह भी है कि इस पूरे कार्यक्रम को बेहद सावधानी के साथ बच्चों के पाठ्यक्रम से भी जोड़ा गया है. उदाहरण के लिए, परियोजना से जुड़े एक अधिकारी समीर बोरदोलोई कहते हैं, ‘कक्षा आठ में विज्ञान विषय का पहला ही अध्याय कृषि उत्पादन और उसके प्रबंधन से जुड़ा है. इसी तरह गणित में बच्चे यह हिसाब लगाते हैं कि जमीन के एक खास माप के हिस्से में कितनी उपज पैदा की जा सकती है. वे यह भी सीखते हैं कि पौधों के बढ़ने का चार्ट कैसे बनाया जाए. इसी तरह वित्तीय साक्षरता के क्रम में उनको मूल्य तय करना, बेचना, ऋण लेना और बचत खातों में पैसा जमा करना आदि सिखाया जाता है. यानी उद्यमिता की मूलभूत तैयारी.’

माना जा रहा है कि यह योजना युवाओं में कृषि को बढ़ावा देने के लिहाज से आगे एक लंबा सफर तय कर सकती है. अगली पीढ़ी के लिए यह एक शुभ संकेत है. दूसरी तरफ, यह देश के खाद्य सुरक्षा लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में भी एक छोटा-सा कदम साबित हो सकता है.  राज्य की 2.52 करोड़ की आबादी यानी 52 लाख परिवार इसके दायरे में आएंगे. राज्य के नागरिक आपूर्ति मंत्री नजरुल इस्लाम कहते हैं, ‘हम ग्रामीण इलाकों की 84 और शहरी इलाकों की 60 फीसदी आबादी को इस योजना के दायरे में लाने की सोच रहे हैं.’

2013 में इस परियोजना में 17 स्कूलों के 340 छात्र शामिल थे. इस साल लक्ष्य 63 स्कूलों में 1,260 फार्मप्रेन्योर तैयार करने का है. तिताबोर के इस स्कूल के प्राध्यापक रवींद्रनाथ गोगोई कहते हैं, ‘हालांकि यंग फार्मर्स क्लब के लिए केवल 20 छात्रों का ही चयन किया जा सकता है, लेकिन समूचा स्कूल इससे जुड़ा रहता है. इसने मध्याह्न भोजना योजना के तहत बच्चों को ताजा और अच्छी गुणवत्ता वाला भोजन उपलब्ध कराने की हमारी समस्या दूर कर दी है. सबसे अच्छी बात यह है कि बच्चे खुद सब्जी उगा रहे हैं और उसे बेचकर लाभ भी कमा रहे हैं.’

पुबाली कहती है, ‘पहले मैं डॉक्टर बनना चाहती थी, लेकिन अब किसान बनना चाहती हूं. अपने पिता जैसी छोटी किसान नहीं. मेरा सपना है कि मैं बैंक से लोन लूं, और ज्यादा खेत खरीदूं और उस पर ऐसी जैविक खेती करूं कि ज्यादा से ज्यादा फसल हो.’

साफ है कि यह पहल सही दिशा में जा रही है.

घुन लगी गुंडाई और सौ किलो शोर

gunday
िफल्म » गुंडे
निदेर्शक» अली अब्बास जफर
लेखक » अली अब्बास जफर, संजय मासूम
कलाकार » रणवीर नसंह, अजुर्ि कपूर, नियंका चोपड़ा,
इरफाि खाि, सौरभ शुक्ला

अतिनाटकीयता और मेलोड्रामा का पता नहीं कौन-सा ग्रंथ है जिसका कुछ खास तरह की मसाला फिल्में बनाने वाले रोज पाठ करते हैं. यही अतिनाटकीयता / मेलोड्रामा ‘भाग मिल्खा भाग’ की समस्या थी, और वैसे तो ‘गुंडे’ किसी भी स्तर पर भाग मिल्खा भाग का नाखून भी नहीं छू पाती, लेकिन समस्या के स्तर पर दोनों गले में हाथ डाल कर खड़ी हैं. ‘गुंडे’ देखने वालों के लिए फिल्म तभी खत्म होना शुरू हो जाती है जब शुरुआत में दो छोटे-छोटे बच्चों से ‘गुस्से को पालना सीख, बड़े काम की चीज है’ और ‘गोली से तो बच गए, लेकिन भूख मार देगी यार’ जैसे बातें उगलवाई जाती हैं, उन्हें उड़ा कर चलती ट्रेन की कोयले से भरी बोगियों में पहुंचवाया जाता है और ‘तुम दोनों हिंदुस्तानी नहीं बांग्लादेशी शरणार्थी हो’ जैसे ट्रैजिक संवादों से बेवकूफियों को जायज ठहराया जाता है. फिल्म में कभी भी चुप न होने वाला बैकग्राउंड स्कोर, गाने, मार-धाड़ और दोनों नायकों की बावलों वाली हंसी मिलकर इतना शोर पैदा करती है कि एक क्विंटल बोझ सह रहा सर सजदे में है, ऐसा दुष्यंत कुमार वाला ही धोखा हमें भी होता है.

कहानी सत्तर-अस्सी के दशक के कलकत्ता की है, कोयले के चारों तरफ घूमती गुंडाई की, लेकिन चश्मे आज के हैं और अर्जुन कपूर की हेयर स्टाइल भी. कलकत्ता में रहकर दोनों नायक हिंदी प्रदेश वाली हिंदी बोलते हैं, और रेडियो में जब हिंदी गाने बजते हैं तो वे किशोर कुमार के न होकर रफी के होते हैं. इसीलिए शायद यह पहली हिंदी फिल्म है, धारा के विपरीत जाने वाली, जिसमें बंगाल में लोग सिर्फ किशोर कुमार को नहीं सुनते हैं! लेकिन जब कहानी की धारा के विपरीत एक नायक बहने या दौड़ने लगता है तो दूसरा नायक, अच्छा, भी फिल्म को नहीं बचा पाता. अर्जुन कपूर अभिनय भूले हुए वो नायक हैं जो रणबीर कपूर वाली पीढ़ी के तुषार कपूर न बन जाएं, डर लगता है. दूसरा नायक जो ऊर्जा का गोला है और अच्छा अभिनेता भी, रणवीर सिंह, अर्जुन कपूर की संगत में खुद भी खराब हो जाता है. दोनों की दोस्ती के आगे हालांकि कलकत्ता के लाल झंडे भी झुकते हैं, लेकिन दोस्ती के लिए दो नायकों के बीच जो संगत, जो लय-ताल होनी चाहिए उसे फिल्म बैकग्राउंड स्कोर की तीव्रता और मौला टाइप गानों से भरने की खराब कोशिश करती है. इन दो नायकों के बीच प्रियंका वही करती हैं जो वे इस तरह की फिल्मों में आसानी से करती रही हैं, और बुरा नहीं करतीं, लेकिन अच्छे का अवसर उन्हें फिल्म नहीं देती.

‘गुंडे’ में कुछ वक्त गुजारते ही आप समझ जाते हैं कि इसे लगातार देखते रहने की एकमात्र वजह इरफान खान को ही होना है. लेकिन वे पुलिस अफसर के रोल में पान सिंह तोमर की तरह प्रवचनी करते हैं, और हमें बुरा लगता है, लेकिन फिर भी वे पसंद आते हैं क्योंकि हम डूबते को तिनके का सहारा नाम की कहावत को गंभीरता से लेते हैं. फिल्म दूसरे अच्छे अभिनेताओं को भी कम अवसर देती है. उसके लिए पंकज त्रिपाठी और मनु ऋषि से ज्यादा जरूरी हावड़ा ब्रिज का फ्रेम में रहना है.

फिल्म उस वक्त का कलकत्ता खूबसूरत रचती है जिस वक्त की यह कहानी है. लेकिन कहानी दमदार गुंडे नहीं रचती. उसे घुन लगी चीजों से प्यार है और हमारे साथ समस्या यह है कि हमें घुन को धुनने वालों की दरकार है.

सुर्खियों की शोखी

मनीषा यादव
मनीषा यादव

अखबार के कार्यालय का दृश्य. संपादक महोदय किसी बात पर भड़के हुए थे. कमरे के बाहर उनके बोलों के दहकते शोले उड़ रहे थे. अभी मैं संपादक महोदय के केबिन तक पहुंचा ही था कि उनकी गरजदार आवाज मेरे कानों से टकराई, ‘तुमने पत्रकारिता का कोर्स किया है कि घास काटी है!’

बहरहाल, मेरी इंट्री उनके चैंबर में हुई. मुझे देखते हुए उन्होंने आंखों से बैठने का इशारा किया. अभी मैं सीट पर जमा भी नहीं था कि वे फटे, नहीं-नहीं फूटे, ‘यार, इस खबर में ऐसा क्या है कि प्रथम पृष्ठ पर लीड होनी चाहिए.’ संपादक महोदय जिससे मुखातिब थे वह प्रथम पेज का प्रभारी था. वह बोला, ‘सर, किसान ने खुदकुशी की है.’ संपादक महोदय तपाक से बोले, ‘अरे यार! यहां तो रोज ही किसान मरते रहते हंै.’ ‘पर सर! उसने पूरे परिवार के साथ आत्महत्या की है!’ ‘तो!’ ‘सर, उसके साथ उसकी बीवी, एक पांच साल की बच्ची, एक दो साल का बच्चा भी था!’ ‘कहां किसान और कहां नेताजी की बीवी! लगता है तुम्हें पत्रकारिता का अलिफ बे फिर से पढ़ाना पड़ेगा!’ वह चुप रहा. मैं भी चुपचाप मेज पर फैले हुए अखबार में मुंह गड़ाए पढ़ने का अभिनय कर रहा था.

संपादक महोदय बोले, ‘यार, यहां एक नेताजी की बीवी ने खुदकुशी की है. यही लीड बननी चाहिए न!’ ‘सर, किसान अपने पूरे परिवार के साथ रेल के आगे कट गया…’ ‘क्या फितूर है! किसान की लाश क्या फाइव स्टार में मिली है! क्या उसके नाम से लोग परिचित हंै! क्या किसान कोई सेलिब्रेटी है!’ ‘सर, कोई खुद को तो मार सकता है, मगर अपने परिवार को… वो भी अपने छोटे-से दुधमुंहे बच्चों को भी मार दे, तो मुझे लगता है कि यह एक गंभीर और महत्वपूर्ण खबर है…’ ‘लोग सनसनी पढ़ना चाहते है!’ ‘सर, इस खबर से मेरे रोंगटे खड़े हो गए! रूह कांप गई!’ ‘रूह, यू मीन टू से… आत्मा!’ ‘यस सर!’ ‘उंहू! भावुकता का पत्रकारिता में कोई काम नहीं. जाओ साहित्यकार बनो!’ जिस खबर में रहस्य, उत्सुकता, रोमांच हो उसे प्राथमिकता देनी चाहिए कि नहीं! हैं! फिर इसमें लव, सेक्स, धोखा वाला एंगल भी है. नेताजी की दिवंगत पत्नी ने मरने से पहले उन पर बेवफाई का इल्जाम लगाया था. पता है न!’

‘ऐसे नहीं चलेगा! सोचता हूं तुमको चिट्ठी-पत्री वाले काम में लगा दिया जाए. तुमसे नहीं होगा.’ संपादक महोदय कड़केे. ‘माफ कीजिए सर, नेताजी की पत्नी की खुदकुशी वाली खबर को किसान की आत्महत्या से अधिक कैसे तरजीह दी सकती है! वह भी जब उसने परिवार सहित…’ ‘तुम्हें समझाना मुश्किल है!’ ‘सर, विद ड्यू रिस्पेक्ट… नेताजी की दिवगंत पत्नी ने क्या महिलाओं के अधिकार के लिए कोई काम वगैरह किया था?’ ‘बहुत खूब! अब तुम मुझको पत्रकारिता करना सिखाओगे! पूरी उम्र गुजर गई है इसमें.’  संपादक महोदय अभिनय करते हुए बोले. ‘नहीं सर, मैं तो बस यह कह रहा था कि… उस किसान का सपरिवार आत्महत्या करना बहुत विचारणीय और गंभीर मुद्दा है. सर, कृषिप्रधान देश में किसान को ब्लैक में खाद खरीदनी पड़ती है. उसके लिए लाठी खानी पड़ती है. इसने भी खरीदा था. इसने भी लाठी खाई थी. कर्ज लेना पड़ता है, इसने भी लिया था. वह भी अधिकतर बैंक से नहीं स्थानीय महाजन से लेते हंै, इसने भी ऐसा किया था…’ संपादक महोदय रुक कर फिर बोले, ‘तुम्हारी बुद्धि पर तरस आता है! एक तरफ व्यवस्था है… व्यवस्थापक की खबर है और दूसरी तरफ व्यवस्था के भोगी की! यह बात समझो!’

संपादक का मित्र होने के बाद भी इस गरमागरम बहस के बीच मैंने वहां से निकलने में ही भलाई समझी. आज भोर से ही अखबार का इंतजार कर रहा हूं. देखना है खबर की मौत होगी या मौत की खबर! फिलहाल अखबार अभी मेरे हाथ नहीं आया..

जिस नफासत से तोड़ते हैं आप दरवाजे… जय हो!

jaiho
जय हो
िफल्म » जय हो
निदेर्शक» सोहेल खाि
लेखक » एआर मुरुगदॉस, नदलीप शुक्ला
कलाकार » सलमाि खाि

कहानियां भी कैसे-कैसे सफर तय करती हैं. एक विकसित देश में उपन्यास लिखा गया, पे इट फारवर्ड, जिस पर फिल्म भी बनी इसी नाम की. ग्यारह साल के लड़के की कहानी, जिसे सामाजिक विज्ञान की क्लास में एक ऐसा प्लान बनाने का असाइनमेंट मिला जिससे दुनिया में बदलाव आ सके. सातवीं के लड़के ने प्लान बनाया, अगर किसी को कोई बड़ी मदद मिले तो वह तीन और लोगों की मदद करके उसे मिली मदद का शुक्रिया अदा करे. 320 पन्नों की यह कहानी जब कुछ समंदर पार कर हिंद पहुंची तो दक्खिन के रास्ते दाखिल हुई और वहां गजनी बनाने वाले एआर मुरुगदॉस की नजरों ने इसे तौला. समंदरों की यात्रा ने ढेर सारा नमक मिला कहानी को नमकीन बना दिया था, और दक्खिन में मसालों की कोई कमी नहीं थी. इस तरह 2006 में ग्यारह साल के लड़के की कहानी में चिरंजीवी, राजनीति, बदला और ऐक्शन आ गए और एक मसाला फिल्म बनी, ‘स्तालिन’. कुछ तालाब, नदी, नहरें पार करके फिर वह कहानी, जो अब स्तालिन थी, चंद साल बाद मुंबई पहुंची. इस बार नजर पड़ी भाई की, और उसके बाद सबसे पहले कहानी को वापस उसके पुराने देश भेजा गया और भाई के भाई सोहेल खान ने बिना कहानी के उसी कहानी पर फिल्म बनाई, ‘जय हो’.

इन ब्योरों से भरी फिल्म समीक्षा लिखने की वजह छोटी-सी जागृति फैलाना है.‘जय हो’ इतनी बार ‘थैंक्स मत बोलिए, तीन और लोगों की मदद कीजिए’ बोलती है कि इस आइडिया को आप बीइंग ह्यूमन में रचे-बसे सलमान की उपज न मान लें, डर लगता है. अब जब आप जान गए हैं, यह बताना आसान हो जाता है कि फिल्म आम लोगों को साथ लाने की बातें करती है, उससे जुड़ी भावुकता पैदा करती है, लेकिन शुरू से आखिर तक सिर्फ वन मैन शो रहती है. फिल्म को यह फैसला करने में बहुत दिक्कत होती है कि उसे असल कहानी के हिसाब से दिलों को छूता एक मानवीय ड्रामा बनना है, या सलमान के हिसाब से, दरवाजे-हड्डियां तोड़ते दक्खिनी एक्शन के कई सारे मोंटाज का छायागीत.

‘जय हो’ का सलमान देसी भीम और विदेशी हल्क के दिव्य रूप में एक आम आदमी है. असल में एक ऐनार्किस्ट, जिसका किरदार ‘तेरे नाम’ के राधे-सा है, बस प्यार इस बार उसे देश से होता है. राधे-सी ही अव्यवस्थित मानसिक अवस्था यहां भी है जो कभी उसे शेर बना देती है, और वह काटने-फाड़ने लग जाता है, तो कभी माइकल जैक्सन. फॉरन लोकेशन पर नाचते हुए टक्सिडो और साड़ी का तरल मिश्रण है, ढेर सारी मुक्का-लात है, लेकिन फिल्म के ज्यादातर हिस्से में बंदूकें नहीं हंै, जो इस फिल्म को हथियारों के विरोध में खड़ी आवाजों का नया नायक बनाती है. कृपया इस बात पर हमारा यकीन जरूर करें! फिल्म में महेश ठाकुर भी हैं, सूरज बड़जात्या वाली सौम्यता का स्पर्श देने के लिए. तब्बू हैं, क्यों हैं, पता नहीं, बस हैं. डेविड-रोहित-प्रभुदेवा वाली फिल्मों का एक-सा टेंपलेट है, जिसमें एक खास तरह के गाने और साइड-किरदार होते हैं, और जानी लीवर वाला हास्य होता है. इधर, काव्य सा हास्य सुनील शेट्टी पैदा करते हैं, सलमान की खातिर शहर के हाइवे पर ‘पर्सनल’ मिलिट्री टैंक लाकर.

‘जय हो’ अपने एक गाने की प्रथम पंक्ति को जीती है, नसों में घोलती है, किरदारों में भरती है और स्क्रिप्ट में रचती है, ‘अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता’. जय हो!

हंसी तो फंसी

imविशाल-शेखर ने नई धुनें और नए गाने बनाना लगभग बंद कर दिया है. विशाल शेखर संगीत प्राइवेट लिमिटेड में अब नए गिफ्ट रैप में पुराना सामान ही मिलता है. आपको भी पता है, यह उस युग की बात है जिसमें सामान से महंगा गिफ्ट रैप बिकता है. एक ने दूसरे दिन कहा, लोग अब घरों में रहते नहीं हैं, कहीं ठहरते नहीं हैं, इसलिए गानों में भी ठहराव रहा नहीं. गाने भी जल्दी में हैं, आपके साथ वे भी जल्दी-जल्दी शादियों और पबों में पहुंचना चाहते हैं. ‘हंसी तो फंसी’ में बैंड-बाजे वाले शुरुआती तीन गाने इसी जल्दी के गीत हैं. ये गाने करण जौहर की ही ‘गोरी तेरे प्यार में’ भी हो सकते थे, ‘ये जवानी है दिवानी में’ भी, और अगर बच जाते तो आने वाली ‘टू स्टेट्स’ में भी. ‘पंजाबी वेडिंग सांग’ और ‘शेक इट लाइक शम्मी’ के लिए अमिताभ भी सूत भर मेहनत नहीं करते, नहीं तो वे अक्सर खराब और सामान्य गीतों को जिंदा रहने लायक बनाते रहे हैं. ‘ड्रामा क्वीन’ को भी उनके लिखे ‘बड़ी-बड़ी आंखें हैं, आंसुओं की टंकी है’ की वजह से ही एक बार सुनने वाला जीवनकाल मिल पाता है. बाकी बचे तीन गीत मेलोडी की सेफ जेब्रा क्रॉसिंग वाले हैं. उसमें भी शफकत का ‘मनचला’ विशाल-शेखर के पुराने शफकत वाले गीतों जैसा ही हो कर साधारण हो जाता है.

आखिरी दो गीत बढ़िया हैं. नए नहीं. ‘इश्क बुलावा’ पुराने वक्त की नजाकत को सनम पुरी की आवाज में प्यारा बनाता है, और वक्त का हिसाब लगाने की क्रिया रोकता है. ‘तितली’ वाली चिन्मयी ‘जहनसीब’ बेहद कमाल गाती हैं और शेखर भी काफी वक्त बाद बढ़िया. इसी गाने को सुनकर लगता है कि संगीतकार विशाल-शेखर लौटेंगे जरूर. देर-सवेर सही.

‘हम तो भाजपा के परिवारवाद से त्रस्त हैं’

फोटोः विनय शमा्

2008 की अपेक्षा 2013 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश में कांग्रेस की सीट और मतों का प्रतिशत बढ़ा ही है. लेकिन इसके बावजूद पार्टी सरकार क्यों नहीं बना पाई?
कांग्रेस की हार का कारण भाजपा का चुनाव प्रबंधन है. चुनाव प्रबंधन से मेरा आशय भ्रष्ट तरीका अपनाकर मतदाताओं को प्रभावित करने से है. भाजपा ने सत्ता का दुरुपयोग किया और सरकार बनाने में कामयाब हो गई. सरकारी एंबुलेंसों में धन और शराब को भरकर मतदाताओं तक पहुंचाया गया. गरीब जनता को डराया गया कि भाजपा को वोट नहीं दिया तो तुम्हारा राशनकार्ड निरस्त कर देंगे. कई तरह के दबाव मतदाताओं पर डाले गए. लोग परिवर्तन तो चाह रहे थे. आपने देखा ही होगा कि चुनाव परिणाम आने के बाद जनता में उत्साह की लहर दिखाई नहीं दी. बस्तर में तो जनता ने भाजपा को सबक भी सिखाया. आप देखेंगे कि मतदाता विधानसभा चुनाव की अपनी गलती लोकसभा चुनाव में जरूर सुधारेंगे.

लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई पर क्या कहेंगे? अजीत जोगी ने एक साल तक के लिए खुद को राजनीतिक गतिविधियों से दूर कर लिया है.
देखिए, जब तक हम भाजपा से लड़ते रहेंगे, यानी बड़ी लडाई लड़ते रहेंगे तो छोटी-छोटी लड़ाइयों के लिए वक्त ही नहीं मिलेगा. पार्टी के भीतर की खींचतान खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी. इसके लिए जरूरी है कि सब व्यस्त रहें. जहां तक जोगी जी के राजनीतिक संन्यास की बात है तो ऐसा कुछ नहीं है. वे कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में शामिल हुए थे. पार्टी की हर बैठक में भाग ले रहे हैं. वे अभी भी दिल्ली में सक्रिय हैं.

यहां चर्चा चल रही है कि कांग्रेस फिर से पुराने और हारे चेहरों को लोकसभा चुनाव में उतारने वाली है?
हमारी कोशिश है कि हम ज्यादा से ज्यादा नए चेहरों को मैदान में उतारें. लोकसभा चुनाव का टिकट देकर महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने पर भी विचार चल रहा है. लेकिन कहीं-कहीं कुछ अनुभवी चेहरों को दोहराने की जरूरत महसूस की जा रही है. ऐसे में हम संतुलन बनाकर उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारेंगे ताकि अधिकतम सीटें जीती जा सकें.

इसका मतलब कि लोकसभा चुनाव में भी राहुल गांधी के  ‘फार्मूले’  की अनदेखी की जाएगी?
ऐसा नहीं है. उम्मीदवारों पर आखिरी फैसला की राहुल जी को ही लेना है. हम उनके निर्णय में बाधक नहीं बन सकते. लेकिन हमारी कोशिश यही होगी कि जिताऊ उम्मीदवारों की सूची बनाकर दिल्ली भेजी जाए. किसी के साथ नाइंसाफी भी ना हो और पार्टी अधिक से अधिक सीटें जीतने की स्थिति में रहे.

छत्तीसगढ़ कांग्रेस परिवारवाद का गढ़ बनी हुई दिख रही है. श्यामाचरण शुक्ल परिवार, मोतीलाल वोरा परिवार, जोगी परिवार, सत्यनारायण शर्मा परिवार ऐसे उदाहरण हैं जहां कांग्रेस की राजनीति पिता-पुत्र के इर्द-गिर्द ही घूम रही है. क्या जमीनी नेताओं को कोई मौका नहीं मिलेगा?
सबको कांग्रेस का परिवारवाद दिखाई दे रहा है, भाजपा का नहीं. जबकि हम तो भाजपा के परिवारवाद से त्रस्त हैं. असल में भाजपा में परिवारवाद का चलन ज्यादा दिखाई दे रहा है. छत्तीसगढ़ में ही भाजपा में परिवारवाद के दर्जनों उदाहरण हैं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला हों या लखीराम अग्रवाल के बेटे अमर अग्रवाल.

बस्तर में बलिराम कश्यप का परिवार देख लीजिए. उनका एक बेटा कैबिनेट मंत्री है, दूसरा बेटा सांसद है. वैसे राजनेताओं के परिवारों में उनके पुत्र-पुत्रियों का राजनीति में आना स्वाभाविक है. जो योग्य हैं उन्हें आना भी चाहिए.

पार्टी के अन्य नेताओं से, खासकर अजीत जोगी से क्या अपेक्षा रखते हैं?
इस वक्त सबका एकमात्र लक्ष्य राहुल जी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अधिक से अधिक सीट जीतना है. मैं तो सबसे यही निवेदन करना चाहता हूं कि सभी नेता पूरी ताकत के साथ पार्टी की बेहतरी के लिए जुट जाएं. चाहे वे युवा नेता हों, महिला या अन्य वरिष्ठ नेता हों. सभी को अपना अहं छोड़कर पूरी क्षमता के साथ मिशन 2014 को सफल बनाना चाहिए.

लोकसभा चुनाव के मुद्दे क्या होंगे?
हम यूपीए 1 और 2 की उपलब्धियों को जनता के बीच ले जाएंगे. रमन सरकार के भ्रष्टाचार को भी सामने लाया जाएगा. इसकी शुरुआत हम कर चुके हैं. हमने राज्यपाल शेखर दत्त से मिलकर कुछ मंत्रियों और अफसरों के भ्रष्ट आचरण की शिकायत की है. यदि भाजपा अपने सांसद उम्मीदवारों को दोहराती है तो प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में सांसदों का आचरण भी एक मुद्दा होगा. कुछ सांसद निष्क्रिय रहे हैं तो कुछ के नक्सलियों के साथ संबंध उजागर हुए हैं. कुछ पर भ्रष्टाचार के भी आरोप हैं.

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की स्थिति सुधारने के लिए किस रणनीति पर काम कर रहे हैं?
कांग्रेस हमेशा से जनता के मुद्दों पर आंदोलित होती है. आजादी के पहले भी और आजादी के बाद भी. छत्तीसगढ़ में भी हम जनता के मुद्दों पर आंदोलन जारी रखेंगे. किसानों को धान का बोनस देने का मुद्दा हो या उद्योगों को जमीनों की बंदरबांट का. चाहे महिलाओं की सुरक्षा से लेकर कानून व्यवस्था का मुद्दा हो. हम सड़क से सदन की लड़ाई जारी रखेंगे. यही हमारी एकमात्र रणनीति है कि हमें जनता की आवाज बनना है. कांग्रेस की परंपरा को जिंदा रखना है. कुछ समय के लिए जरूर कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा है लेकिन जल्द ही जनता ही हमें राज्य की सत्ता सौंपेगी.

लेकिन मुख्यमंत्री रमन सिंह तो पूरी 11 लोकसभा सीटें जीतने का दावा कर रहे हैं?
वे ऐसा अपनी साख बचाने के लिए कर रहे हैं. मुख्यमंत्री रमन सिंह केवल माहौल बना रहे हैं क्योंकि उन्हें पता चल चुका है कि अब उन पर राष्ट्रीय नेतृत्व को भरोसा नहीं है. बस्तर में मिली करारी हार ने उन्हें डरा दिया है. कवर्धा, जो कि मुख्यमंत्री का गृहजिला है, वहां भी भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है. ऐसे में वे और उनकी पार्टी घबरा गई है. इसलिए वे बार-बार बोल रहे हैं कि उनकी पार्टी पूरी की पूरी 11 सीटें जीतेगी. आप खुद ही देखिए कि बस्तर की हार के बाद भाजपा का मनोबल गिर गया है. वे केवल अपना और पार्टी का आत्मविश्वास बढ़ा रहे हैं. उनके दावों में मुझे तो कोई दम नजर नहीं आ रहा. मुख्यमंत्री जी बस्तर को लेकर नित नई घोषणाएं कर रहे हैं. देखते हैं कि उनकी घोषणाएं कितना असर दिखाती हैं.

वीसी शुक्ल रहे नहीं, आप बेशक इसे नकार रहे हैं लेकिन जोगी के एक साल के राजनीतिक वनवास की बात सामने आ रही है. चरणदास महंत से आपका तालमेल ठीक नजर आ रहा है. तो ऐसे में यह माना जा सकता है कि अभी के हालात में पार्टी के भीतर से आपको कोई चुनौती देने वाला नहीं है?
 देखिए, वैसे भी हमारे लिए अपनी ही पार्टी या नेता चुनौती नहीं रहे हैं. हमारे लिए असल चुनौती भाजपा को जड़ समेत उखाड़ फेंकना है. हर संगठन में नेताओं के अपने-अपने अहं होते हैं. वरिष्ठता के आधार पर सबका मान-सम्मान भी करना ही होता है. लेकिन इसे इस तरह देखा जाना चाहिए कि सबको साथ लेकर कैसे चला जाए या उनके अनुभवों का लाभ पार्टी के लिए कैसे उठाया जाए. नेताओें और कार्यकताओं के आपसी मनमुटाव भी पार्टी फोरम में दूर कर लिए जाते हैं. गुटबाजी के नाम पर बेवजह बातों को तूल देना ठीक नहीं है.

आपको आक्रामक नेता के तौर पर पहचाना जाता है. इसका कांग्रेस को कितना लाभ मिलेगा?
लोगों का मानना है कि मैं आक्रामक हूं, लेकिन मैं खुद को कांग्रेस की नीतियों और रीतियों के हिसाब से चलने वाला सिपाही मानकर चल रहा हूं. अब यदि किसी को उसमें आक्रामकता दिखाई दे रही है तो यह दूसरी बात है. मैं तो राज्य में काबिज भाजपा सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहा हूं. हम हर मोर्चे पर भाजपा से दो-दो हाथ करने को तैयार हैं. मंत्रियों के भ्रष्टाचार को उजागर भी कर रहे हैं. हमारी पार्टी में हर नेता आक्रामक है.

स्वर्गीय नंदकुमार पटेल के अध्यक्ष बनने के पहले तक कांग्रेस मुद्दा विहीन, ऊर्जा विहीन और निर्जीव-सी दिखाई देती थी. इसके पीछे क्या कारण जिम्मेदार थे?
किन परिस्थितियों ने कांग्रेस को निष्प्राण कर रखा था, उस पर बात करना तो मुश्किल है लेकिन यह सच है कि नंदकुमार पटेल जी ने कांग्रेस में जान फूंक दी थी. वे आम लोगों से जुड़े हुए व्यक्ति थे. मुद्दों को पूरी ताकत से उठाते थे. पटेल जी ने लोगों और कार्यकर्ताओं में पार्टी के प्रति विश्वास पैदा किया था. दुर्भाग्य से वे जीरम घाटी नक्सल हमले में शहीद हो गए. लेकिन हम उनके द्वारा शुरू किए गए आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. हम युवाओं, महिलाओं, बेरोजगारों, बुजुर्गों और किसानों, सभी के मुद्दों पर लड़ाई जारी रखेंगे.

घोटालों का उत्तम प्रदेश

जिस ज्वैलरी की कीमत आंकने में जवाहरात के व्यापारी चक्कर खा जाएं, जिस रकम को गिनने में इनकम टैक्स वालों को भी पसीने छूट जाएं, उसी रकम को कमाना उत्तर प्रदेश के एक अदना से अधिकारी के लिए बाएं हाथ का खेल था. यादव सिंह की काली कमाई को लेकर जिस तरह के नए-नए खुलासे हुए हैं वह सचमुच मिट्टी से सोना बनाने की कला का एक नमूना है, मगर यादव सिंह तो शायद काली कमाई के खेल की एक कमजोर कड़ी था जो अब आसानी से फंसता दिख रहा है. उत्तर प्रदेश की शस्य श्यामला धरती की उर्वरता वाकई सोना उगलती है, हीरे-जवाहरात पैदा करती है. ऐसी फसल काटनेवाले मजे से सिरउठा कर जीते रहे हैं, उनका कुछ भी नहीं बिगड़ पाता है. यहां के किसान भले ही भुखमरे हों, गन्ना उगाकर रुपये गिनने के लिए दर-दर ठोकरें खाने पर मजबूर होते रहें, मगर जिस पल उनकी जमीनों पर विकास की दृष्टि पड़ जाती है उसी क्षण से ‘यादव सिंहों’ के लिए काली कमाई की फसल के अंकुर फूटने लगते हैं. नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना एक्सप्रेस वे प्राधिकरण इस मामले में पूरे सूबे में सिरमौर हैं और इसलिए यहां ‘यादव सिंहों’ की फसल भी खूब लहलहाती है. लेकिन सोना पैदा करने की ये कीमियागिरी सिर्फ यादव सिंह जैसों के दम पर चल रही है यह सोचना भी अपने आप में धोखा है. दरअसल यादव सिंहों को पैदा करने में उत्तर प्रदेश की राजनीति का भरपूर सहयोग, प्रेरणा और संरक्षण मिलता रहा है. और अनेक बार तो यह राजनीति सीधे-सीधे नए-नए यादव सिंहों को अवतरित भी करती रही है.

उत्तर प्रदेश में हाल के वर्षों में जनता के हिस्से के बजट, जनता के हित की योजनाओं और जनता की गाढ़ी कमाई के पैसों की लूट-खसोट के एक के बाद एक अनगिनत मामले सामने आए हैं. पिछले कुछ वर्षों में सबसे पहला ऐसा मामला मुलायम सिंह यादव की सरकार के दौरान सामने आया था. आयुर्वेद घोटाले के रूप में चर्चित इस मामले में दवाओं की फर्जी खरीद, 100 गुना तक बढ़े दामों में खरीद और फर्जी कम्पनियों के जरिए आयुर्वेद विभाग का सारा बजट साफ किया जाता रहा . पोल खुलने के बाद राज्य के आयुर्वेद निदेशक सहित कई डॉक्टर गिरफ्तार हुए और समाजवादी पार्टी से जुडे़ व्यवसायी की भी गिरफ्तारी हुई. तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री बलराम यादव से भी इस मामले में पूछताछ हुई. करोड़ों रुपये के इस पहले चर्चित घोटाले की महापरिणति माया सरकार में हुए एनआरएचएम घोटाले के रूप में हुई. तीन हत्याओं सहित 6 लोगों की संदिग्ध मौत के कारण यह मामला सीबीआई तक पहुंचा और मायावती की सरकार के अंतिम दिनों में मायावती को अपने सबसे खास मंत्री और सहयोगी बाबू सिंह कुशवाहा को बर्खास्त करना पड़ा. एक अन्य मंत्री अनंत मिश्र भी हटाए गए. मामला अब अदालत में है और कई सीएमओ, कुछ व्यवसायी, बाबू सिंह कुशवाहा और अपने बैच के आईएएस टॉपर प्रदीप शुक्ल इस मामले में जेल भी गए. प्रदीप शुक्ल (फिलहाल जमानत पर) का इस मामले में जेल जाना बहुत लोगों को चौंका गया था लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में नाम कमानेवाले वे पहले आईएएस नहीं थे. 1997 में उत्तर प्रदेश में आईएएस अधिकारियों ने खुद ही वोट के जरिए अपने बीच तीन महाभ्रष्टों को चुना था. इन तीन में से दो को मुलायम सिंह सरकार में मुख्य सचिव पद से सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के कारण पद छोड़ना पड़ा था. इनमें से एक अखंड प्रताप सिंह की काली कमाई का खुलासा आयकर छापे में हुआ था और दूसरी नीरा यादव को नोएडा के प्लॉट आवंटन घोटाले में 2010 में चार वर्ष की सजा भी सुनाई गई.

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उत्तर प्रदेश में एक और बड़ा घोटाला मुलायम सरकार के दौरान हुआ खाद्यान्न घोटाला है, जो 2001 से 2011 तक लगातार चलता रहा. लखीमपुर खीरी में पहली बार इसका खुलासा हुआ, जहां गरीबों के हिस्से का राशन उनके पास पहुंचने के बजाय ऊंची दरों पर बाजार में बेच दिया गया. इसमें राजनीतिक दलों के नुमाइंदे, व्यापारी, खाद्यान्न विभाग और एफसीआई के अधिकारी, कर्मचारियों सहित कई प्रशासनिक अधिकारी शामिल थे. इसकी जांच राज्य की एजेंसियों से लेकर सीबीआई तक पहुंची. जांच में पता चला कि गरीबों का अनाज नेपाल और बांग्लादेश तक बेचा गया था. राज्य के 54 जिलों में फैले इस घोटाले में अनेक पीसीएस और प्रोन्नत आईएएस जेल में हैं. कई व्यापारी और कर्मचारी भी जेल में बंद हैं. अभी यह मामला अदालत में चल रहा है और इस घोटाले की रकम 3000 से 8500 करोड़ के बीच आंकी गई है.

ऐसा ही एक घोटाला ‘मिड डे मील’ घोटाला था, जो चर्चा में आने के तुरंत बाद ही राजनीतिक प्रभाव से दबा दिया गया. इस घोटाले में शामिल लोग माया सरकार में भी मलाई खा रहे थे और चुनाव के दिनों में इस घोटाले पर गुर्राती रही समाजवादी पार्टी के राज में भी खा रहे हैं.

खाद्यान्न घोटाले की तर्ज पर ही लगभग 5000 करोड़ के मनरेगा घोटाले में भी प्रशासनिक अधिकारियों, राजनेताओं और व्यवसाइयों की जुगलबन्दी सामने आई थी. 2007 से 2010 के बीच हुए इस घोटाले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश पर सभी जिलों में सीबीआई जांच चल रही है. शुरुआती जांच में महोबा, गोण्डा बलरामपुर, कुशीनगर, सोनभद्र, संतकबीरनगर और मिर्जापुर जिलों में मनरेगा की रकम की बड़े पैमाने पर बंदरबांट होने के प्रमाण मिले हैं. इस धांधली में भी 24 आईएएस तथा पीसीएस अधिकारियों के शामिल होने के सबूत हैं. सोनभद्र जिले में एक तालाब पर तीन-तीन बार खुदाई, गैर जरूरी सामान की खरीद और फर्जी दस्तखतों से 250 करोड़ रुपये की रकम हड़पने के प्रमाण मिले. लेकिन जब वहां जांच चल रही थी उसी दौरान वहां के तत्कालीन जिलाधिकारी पंधारी यादव मुख्यमंत्री सचिवालय में ओएसडी बन चुके थे और पूर्व केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश को कहना पड़ा, ‘पंचम तल पर तैनात एक अफसर सीबीआई जांच की राह में रोड़ा बना हुआ है’.

मायावती सरकार में हुए 1400 करोड़ के प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना घोटाले का खुलासा होना नई सरकार के मंत्री को भी रास नहीं आ रहा था. इसलिए घोटाले का खुलासा करनेवाले अधिकारी हरिशंकर पाण्डे को निलंबित कर दिया गया. बाद में हाईकोर्ट से पाण्डे को तो राहत मिल गई लेकिन घोटाला हमेशा के लिए दब गया. मायावती राज का स्मारक घोटाला तो अब सुनाई भी नहीं देता. विधानसभा चुनाव से पूर्व ‘मुख्यमंत्री से लेकर संतरी’ तक को जेल भिजवाने की धमकी देनेवाले अखिलेश यादव को भी न जाने क्यों इस मामले में सांप सूंघ गया है. हालांकि मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने कहा था ‘यह घोटाला तो 40 हजार करोड़ के आसपास का है’. स्थिति यह है कि राज्य सरकार की चुप्पी पर खुद कई विवादों में रहे राज्य के लोकायुक्त एन के मेहरोत्रा तक राज्यपाल को दोषियों पर कार्रवाई के लिए विशेष अनुरोध कर चुके हैं. स्मारक घोटाले में सरकारी जमीनें हड़पने, 250 से ज्यादा इमारतें ध्वस्त करने, तीन जेल और 100 करोड़ की लागत से छह वर्ष पूर्व स्वयं मायावती द्वारा बनाए गए भव्य स्टेडियम को ध्वस्त करने के साथ तीन लाख के हाथी को 70 लाख में बनवाने और 25 हजार रुपये में एक-एक पौधे की खरीद जैसे कई मामलों की जांच अलग-अलग स्तरों पर अटकी पड़ी है. इस घोटाले के आरोपी अरबों डकारकर मौज कर रहे हैं. एलडीए के इंजीनियर एबी मिश्र हों या स्मारक सलाहकार एसए फारूकी, सब बेदाग हैं और मायावती तक तो कोई आरोप पहुंच ही नहीं पाया है.

‘यादव सिंहों’ के विकास में मायावती का पिछला राज अनुकूल परिस्थितियों वाला था. यूपी एसआईडीसी के इंजीनियर अरुण मिश्र की प्रतिभा इसी काल में निखरी. करोड़ों के बैंक घोटाले में जेल गए और फिर फर्जी दस्तावेजों के आधार पर नौकरी पाने के आरोप में बर्खास्त हुआ, यह भ्रष्ट इंजीनियर अब भी मौज में है. यादव सिंह की तरह दोनिका सिटी मामले में चर्चित होनेवाले इस इंजीनियर की काली कमाई की एक अट्टालिका दिल्ली में प्रवर्तन निदेशालय ने जब्त भी की थी मगर काली कमाई के पैसों से ऊंची पैरवी की काबिलियत के चलते यह इंजीनियर फिर से बहाल होकर अब तक सुख से जी रहा है. ऐसा ही कारनामा मायाराज में राजकीय निर्माण निगम के एमडी पद पर रहे सीपी सिंह का भी था. बड़े भ्रष्टाचार के आरोप में सिंह के खिलाफ लोकायुक्त और विजिलेंस जांच भी हुई. पैसे के खेल से वह बच निकला और सेवानिवृत्त होने के बाद उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का सलाहकार बन गया. हालांकि मीडिया में चर्चा होने के बाद बहुगुणा को उसे हटाना पड़ा. ऐसे ही एक प्रतिभावान इंजीनियर टी राम थे जो मायावती के काल में पीडब्ल्यूडी के मुख्य अभियन्ता बने. दो बार सेवा विस्तार पाया. घर पर नोट गिनने की मशीनें लगाने के लिए चर्चित रहे टी राम अब सूबे में बसपा के विधायक बन चुके हैं.

सोना पैदा करने की जादूगरी सिर्फ यादव सिंह जैसों के दम पर नहीं चल रही है, दरअसल यादव सिंहों को पैदा करने में उत्तर प्रदेश की राजनीति का भरपूर सहयोग, प्रेरणा और संरक्षण मिलता रहा है

इन सारे मामलों में एक बात साफ दिखाई देती है कि इन तमाम ‘यादव सिंहों’ के बनने, फलने-फूलने में राजनेताओं और सत्ता का सीधा-सीधा वरदहस्त रहता है. राज्य के विकास प्राधिकरणों में तो यह और भी साफ दिखाई देता है. इलाहाबाद, गोरखपुर, बनारस, मेरठ किसी भी विकास प्राधिकरण को देख लें हर जगह ‘यादव सिंह ही यादव सिंह’ नजर आते हैं. गाजियाबाद विकास प्राधिकरण में लंबे समय तक रहे इंजीनियर अनिल गर्ग हों या लखनऊ विकास प्राधिकरण के इंजीनियर, निलम्बन और फिर बहाली, इसके अलावा इनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाया. लखनऊ विकास प्राधिकरण की जानकीपुरम योजना में तीन सेक्टरों में 425 प्लॉट ग्रीन बैल्ट पर बना दिए गए. इनका मनमाना आवंटन भी कर दिया गया. फायदा एलडीए के लोगों ने उठाया, मगर 2006 में सीबीआई जांच शुरू हुई तो अब सारे निर्माण ध्वस्त किए जाने की तैयारी है. एलडीए के कुछ अधिकारी जेल में हैं, 11 लोग निलंबित हैं और तीन बर्खास्त हो चुके हैं, लेकिन बड़ी मछलियां अब भी आराम से किसी दूसरे तालाब में तैर रही हैं. हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ के कड़े रुख के बाद लखनऊ में 600 से अधिक बड़े अवैध निर्माण जांच के घेरे में हैं, मगर चर्चा इस बात की ज्यादा है कि ‘कोई भी निर्माण ध्वस्त नहीं होगा, सब सही कर लिया जाएगा’. जाहिर है यह सब ऊपर के निर्देशों और नोटों की गर्मी के कमाल से ही होगा.

यादव सिंह का मामला अब चूंकि एसआईटी की निगरानी में है और यह एसआईटी केन्द्र की मोदी सरकार की प्रतिष्ठा से जुड़ी है. कालेधन और मोदी के ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ जैसे सूत्र वाक्य से भी इसका तार जुड़ता है. इसलिए यह माना जाना चाहिए कि यह मामला पिछले प्रकरणों की तरह यूं ही ठण्डे बस्ते में नहीं चला जाएगा और यादव सिंह की अंगूठियों के हर खरीददार, हर सूत्रधार तक इसकी आंच जाएगी. अमर सिंह ने जिस तरह इस प्रकरण में एसआईटी को कुछ साक्ष्य सौंपने का दावाकर और अशोक चतुर्वेदी का नाम लेकर राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है उससे काली कमाई के धंधे के असीमित विस्तार का कुछ-कुछ खुलासा हो रहा है. ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि यादव सिंह प्रकरण काली कमाई के गोरखधंधे को पूरी तरह खत्म करने का एक उदाहरण बनेगा और फिर किसी मामले में अदालतों को ‘आईएएस राजीव कुमार और संजीव शरण जैसे अधिकारियों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तैनात न करने’ जैसे कड़े निर्देश नहीं देने पड़ेंगे. लेकिन अगर इस मामले का हश्र भी मुलायम सिंह और मायावती के आय से अधिक सम्पत्ति वाले मामलों जैसा ही हुआ तो यह न सिर्फ मोदी सरकार की छवि के लिए खतरनाक होगा बल्कि बदलाव की बाट जोह रही जनता के साथ भी एक बड़ा विश्वासघात होगा.

मिलेगी फुटबॉल को ‘किक’

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नेहा (27 वर्ष) फ्रीलांस फोटोग्राफर हैं. फुटबॉल क्लब चेल्सिया को लेकर उनके भीतर जबरदस्त दीवानगी है और वह सप्ताहांत पर कभी मैच देखना नहीं भूलतीं. लेकिन गत 12 अक्टूबर को इस विदेशी क्लब को लेकर उनकी वफादारी दांव पर लग गई क्योंकि उस दिन दिल्ली डायनेमोज समेत देश के सात अन्य फुटबॉल क्लबों के दरमियान इंडियन सुपर लीग (आईएसएल)की शुरुआत हुई.

आईएसएल खेल प्रबंधन क्षेत्र की कंपनी आईएमजी- रिलायंस के दिमाग की उपज है. इस कंपनी ने अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ (एआईएफएफ) के साथ वर्ष 2010 में 700 करोड़ रुपये का करार किया था ताकि इस खूबसूरत खेल को देश में और अधिक लोकप्रिय बनाया जा सके. इसके मूल मसौदे में पहले से चल रही आई-लीग को सुधारने की बात शामिल थी लेकिन इसमें कुछ दिक्कतें आईं. नतीजा, आईएसएल के रूप में हमारे सामने आया.

अप्रैल में इसके लिए बोली की जोरदार प्रक्रिया हुई जिसमें क्रिकेट के सितारे, बॉलीवुड के आला कलाकार और बड़े कारोबारी अपना पैसा लगाते देखे गए. आखिर में आठ शहर/राज्य/क्षेत्र चुने गए. उनके नाम हैं नई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, गोवा, केरल, पुणे, बेंगलूर और पूर्वोत्तर (अगस्त में बेंगलूर फ्रेंचाइजी की जगह चेन्नई ने ले ली). अंतिम सूची इस प्रकार बनी- एटलेटिको डी कोलकाता, चेन्नइयन एफसी, डेल्ही डायनेमोज, एफसी गोवा, केरला ब्लास्टर्स, मुंबई सिटी, नॉर्थईस्ट यूनाइटेड और पुणे सिटी.

भारतीय फुटबॉल फैन हमेशा से दूसरों से अलग रहे हैं. सन 1990 तक टेलीविजन पर अच्छी फुटबॉल कवरेज विश्व कप तक सीमित थी जो हर चार साल में एक बार होता है. लेकिन स्टार टीवी नेटवर्क ने इस पुरानी परंपरा को बदल डाला. इंग्लिश प्रीमियर लीग की वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के दर्शकों को नियमित अंतराल पर फुटबॉल का खेल देखने को मिलने लगा. यूरोप की दिग्गज टीमों को अब नए प्रशंसक मिल रहे थे.

जल्दी ही उन टीमों की पोशाक की नकल खेल के सामान की दुकानों पर नजर आने लगी. जगह-जगह पर फैन क्लब बनने लगे और स्पोर्टस बार उग आए.

इंडियन प्रीमियर लीग की सफलता ने हॉकी, बैडमिंटन और कबड्डी में इसी तर्ज के टूर्नामेंटों की बाढ़ ला दी. जाहिर है फुटबॉल भला इससे अछूता कैसे रह सकता था. लेकिन यहां पर थोड़ी दिक्कत है. जहां तक क्रिकेट, हॉकी और कबड्डी की बात है तो भारत में प्रतिभाओं का अंबार है लेकिन फुटबॉल के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है. टीम इंडिया को फीफा की विश्व रैंकिंग में 158वां स्थान हासिल है. यहां तक कि हाल में हमारी टीम एक दोस्ताना मुकाबले में फिलीस्तीन तक से 2-3 से पराजित हो गई. ऐसे में सवाल उठता है कि जब लोगों के पास यूरोप की बेहतरीन टीमों के मैच देखने का विकल्प मौजूद होगा तो वे 20वीं सदी की पिछड़ी फुटबॉल क्यों देखेंगे? यहीं पर दिग्गज खिलाड़ियों की अहमियत सामने आती है. हर टीम ने करीब 6 विदेशी खिलाड़ियों में कोई न कोई सितारा खिलाड़ी शामिल किया है. जुवेंट्स के सुपरस्टार अलेसांद्रो डेल पियेरो दिल्ली से खेल रहे हैं और उनको अब तक का सबसे चमकदार सितारा करार दिया जा सकता है. वहीं गोवा के लिए रॉबर्ट पायर्स, मुंबई के लिए फ्रेड्रिक जुंगबर्ग, पुणे के लिए डेविड टे्रजेगुएट, कोलकाता के लिए लुइस गार्सिया, केरल के लिए डेविड जेम्स, पूर्वोत्तर के लिए जॉन कैपडेविला और चेन्नई के लिए एलानो ऐसे ही नाम हैं.

आलोचक दलील देंगे कि ये सभी सितारा खिलाड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन पीछे छोड़ आए हैं और यहां वे केवल पैसे कमाने के लिए आए हैं. लेकिन इस बात से तो कोई इनकार नहीं कर सकता है कि यह भारतीय खिलाड़ियों के लिए सुनहरा अवसर है कि वे इन बुझते सितारों से ही कुछ सीख ले सकें.

बात केवल खिलाड़ियों की ही नहीं है. आईएसएल ने कुछ बेहतरीन कोच भी जुटाए हैं. उदाहरण के लिए गोवा की टीम के पास ब्राजील के बेहतरीन कोच जिको हैं और मुंबई के पास इंग्लिश कोच पीटश्र रीड. रोचक बात यह है कि चेन्न्ई के लिए इटली के मार्को मातेराज्जी और केरल के लिए डेविड जेम्स गोलकीपर और कोच की दोहरी भूमिका में हैं.

जहां तक क्रिकेट, हॉकी और कबड्डी की बात है तो भारत में प्रतिभाओं का अंबार है लेकिन फुटबॉल के बारे में यह बात विश्वास के साथ नहीं कही जा सकती

आखिर में सबकुछ तो मैदान पर ही देखने को मिलेगा. क्या आर्सेनल का कोई प्रशंसक जिसे बेहतरीन फुटबॉल देखने की आदत है वह गोवा एफसी का खेल हजम कर सकेगा?

क्रिकेट कमेंटेटर हर्ष भोगले का मानना है कि भारतीय प्रशंसकों को आईएसएल का भरपूर समर्थन करना चाहिए चाहे भले ही उनको बहुत शानदार फुटबॉल देखने को नहीं मिल रही हो. उन्होंने स्टार स्पोर्ट्स डॉट कॉम पर लिखा कि प्रशंसकों को टीम तक लाने के लिए प्रतिस्पर्धा को स्थानीय बनाना होगा. उन्होंने आगे लिखा कि दुनिया के अनेक देशों में प्रशंसक यह जानने के बावजूद क्लबों के प्रति समर्थन जताने जाते हैं कि उनका क्लब दुनिया के बेहतरीन क्लबों के समक्ष कहीं नहीं टिकता. उनके वहां आने की वजह दूसरी होती है. दक्षिण अफ्रीका इसका बेहतरीन उदाहरण है जहां वे अफ्रीकन कप तक में छाप छोड़ने के लिए भिड़ते हैं लेकिन स्थानीय लीग के प्रशंसक भी कम नहीं हैं. इंडियन सुपर लीग से भी हर्ष को कुछ ऐसी ही उम्मीद है.

बहरहाल फुटबॉल कॉलमिस्ट जॉन ड्यूरडन को लगता है कि यह उत्साह उलटा असर भी दिखा सकती है. उन्होंने सॉकरनेट डॉट कॉम पर लिखा, ‘नई फुटबॉल लीग का वादा है कि यह आऩे वाले समय में फुटबॉल की नौका देश में पार लगाएगी. पैसा आने से स्टेडियमों तथा अन्य सुविधाओं में सुधार होगा, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है क्योंकि क्लब पहले ही शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें उस 14 करोड़ डॉलर का कोई असर नहीं दिख रहा है जो एआईएफएफ को आईएमजी-रिलायंस से 2010 में मिले थे. अगर यह पूरा पैसा, प्रयास और समय इस नए उद्यम में लगाने के बजाय सीधे पुरानी आई-लीग में लगाया जाता तो उसका क्या असर होता? क्लबों को विपणन का तौर तरीका सिखाना एक बेहतर शुरुआत होगी.’

आईएसएल करीब दो महीने चलेगा और खिताबी जंग 20 दिसंबर को होगी. इसे पूरी प्रतिस्पर्धी लीग में बदलने की कोई योजना नहीं है जबकि देश के फुटबॉल जगत को इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है.

लेकिन उम्मीद की एक किरण है. ड्यूरडेन ने लिखा, ‘अच्छी  बात यह है इससे यह बहस शुरू हो सकती है कि इस पूरी प्रक्रिया में क्लब फुटबाल के दीर्घावधि हितों को कैसे सुरक्षित रखा जाए. ऐसी चर्चा बढ़ रही है कि क्लब और लीग एआईएफएफ के नियंत्रण से बाहर अपना अलग अस्तित्व बनाने में लगे हैं. यह क्लब मालिकों के लिए स्वाभाविक है क्योंकि उन्होंने बहुत बड़ी धनराशि लगाई है. जाहिर है वे लीग के भविष्य की दिशा तय करने में अधिक भागीदारी चाहते हैं.’

मर गया मुरुगन!

muruदेश में लेखन और रचनात्मकता पर हो रहे हमलों की बात करें तो मकबूल फिदा हुसैन से शुरू हुआ सिलसिला वेंडी डोंनिगर से होते हुए अब पेरुमल मुरुगन तक आ पहुंचा है. तमिल भाषा के बेहतरीन लेखकों में शुमार पेरुमल मुरुगन ने बीती 14 जनवरी को अपने भीतर के लेखक की मृत्यु की घोषणा कर दी. उन्होंने यह सूचना अपने फेसबुक पेज पर देते हुए जो कुछ लिखा, उसका भावानुवाद इस प्रकार है- ‘लेखक पेरुमल मुरुगन मर गया है. चूंकि वह भगवान नहीं है इसलिए वह खुद को पुनर्जीवन भी नहीं दे सकता. वह तो पुनर्जन्म में विश्वास तक नहीं करता. भविष्य में पेरुमल मुरुगन केवल एक अध्यापक के रूप में जिंदा रहेगा, जो वह हमेशा से रहा है.’

यह एक लेखक द्वारा अपने भीतर के लेखक की मौत की विचलित कर देनेवाली घोषणा थी. लेखक जो किसी समाज का आईना होता है, उसके आगे मशाल लेकर चलनेवाला अग्रदूत होता है. उसे अपनी मौत की घोषणा क्यों करनी पड़ती है. क्यों जिस समाज में हत्यारे, बलात्कारी, आततायी और लुटेरे ठठाकर हंस रहे होते हैं, सर्वसुविधायुक्त जीवन जी रहे होते हैं, वहां एक लेखक को अपनी मौत की घोषणा करनी पड़ती है? वह कौन सी सभ्यता या संस्कृति है जिसे एक उपन्यास से खतरा उत्पन्न हो जाता है?

एक साक्षात्कार में मुरुगन ने कहा, ‘सच पूछिए तो जब मैंने अपनी किताबों को जलते हुए देखा तब मेरे मन में यह सवाल उठा कि क्या मैं इसी समाज के लिए लिखता हूं? यह जो सड़कों पर मेरी किताबें जला रहा है. लेकिन बाद में अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों की ओर से मिले समर्थन ने मेरी मानसिकता में थोड़ा बदलाव लाया.’ भविष्य के लेखन के बारे में मुरुगन कहते हैं कि यह तय नहीं है कि वे अब कुछ भी लिखते समय खुद को उतना आजाद महसूस कर पाएंगे या नहीं जितना पहले करते थे.

लेखक बिरादरी का एक धड़ा जहां मुरुगन के ‘आत्मसमर्पण’ को अच्छा संकेत नहीं मानता, वहीं एक समूह ऐसा भी है जिसका कहना है कि यह मुरुगन द्वारा उठाया गया रणनीतिक कदम है जिसके बाद इस पूरे प्रकरण को राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय बनाया जा सका. ‘मधोरुबगन’ नामक मुरुगन के जिस उपन्यास को विवाद का विषय बनाया गया वह दरअसल वर्ष 2010 में प्रकाशित हुआ था. इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘वन पार्ट वुमन’ वर्ष 2013 में पेंग्विन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ.

लेखक को अपनी मौत की घोषणा क्यों करनी पड़ती है. वह कौन-सी सभ्यता या संस्कृति है जिसे एक उपन्यास से खतरा उत्पन्न हो जाता है?

48 वर्षीय पेरुमल मुरुगन पेशे से शिक्षक हैं और तमिलनाडु के नमक्कल में शासकीय कला विद्यालय में अध्यापन करते हैं. उन्होंने अब तक 30 से अधिक पुस्तकों की रचना की है जिनमें से सात उपन्यास हैं. उनका उपन्यास मधोरुबगन प्रदेश के कोंगू इलाके में रहनेवाले एक निस्संतान दंपती, पोन्ना और काली की कहानी कहता है. पोन्ना और काली, के बीच बहुत प्यार है लेकिन संतानहीनता के कारण पड़ रहा सामाजिक और पारिवारिक दबाव उनके प्यार को प्रभावित करता है. खासतौर पर पोन्ना को नाते-रिश्तेदारों के तानों का शिकार होना पड़ता है, क्योंकि वह स्त्री है. उसे बांझ कहकर अपमानित किया जाता है और एक समय ऐसा आता है जब वह खुद को घर की चहारदीवारी में सीमित कर लेती है. उसका पति काली भी तानों और फुसफुसाहटों से बच नहीं पाता और गाहेबगाहे उसे सुनने में आता है कि लोग उसे नपुंसक कहते हैं. तमाम नाते-रिश्तेदार ऐसे भी हैं जिनकी नजर काली की संपत्ति पर है. इस बीच काली का परिवार उसे दूसरा विवाह करने को प्रेरित करता है, लेकिन पत्नी के प्रति उसका प्रेम उसे ऐसा नहीं करने देता. उनका हित चाहने की कोशिश में परिजन पोन्ना को परपुरुष समागम के लिए तैयार करते हैं और उसे झांसा देते हैं कि उसका पति इसके लिए तैयार है. उसे एक ऐसे मेले में ले जाया जाता है जहां संतान की चाह रखनेवाली स्त्रियां किसी भी अनजाने पुरुष के साथ शारीरिक संबंध स्थापित कर सकती है. पोन्ना के मन में इस बात की राहत है कि वहां उसे लोगों की शिकायती और तंग नजरों का सामना नहीं करना पड़ता, लेकिन हर पुरुष में उसे अपना प्रेमी और पति काली ही नजर आता है. उधर काली को जब यह बात पता चलती है तो उसे लगता है कि उसकी पत्नी ने उसे धोखा दिया है.

उपन्यास बगैर किसी फैसले के यहीं पर समाप्त हो जाता है. वह कोई निष्कर्ष भले ही नहीं देता है, लेकिन वह हमारे समाज में व्याप्त इन कुरीतियों को मुखर ढंग से हमारे सामने लाता है. बात केवल इतनी सी है कि एक प्रेमी युगल का सुखमय जीवन केवल संतान न होने के चलते सामाजिक और पारिवारिक हस्तक्षेप और फूहड़ रीति-रिवाजों की वजह से नष्ट हो जाता है. इस प्रेमकथा की अंतर्कथा में मुरुगन जाति और समाज की दबंगई तथा कुरीतियों को बहुत विस्तार से चित्रित करते हैं. मुरुगन ने इस प्रेम का जितना भावनात्मक और संवेदनशील चित्रण किया है वह उनके लेखक की सफलता है, लेकिन सामाजिक कुरीतियों पर किए गए हमले कथित राष्ट्रवादी ताकतों को रास नहीं आए. वे एक लेखक के अंतर्मन के जरिये उसे रचनालोक की यात्रा करने के बजाय उससे यह करार करवाते हैं कि वह दोबारा कुछ नहीं लिखेगा.

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मुरुगन को धमकियां मिलने का सिलसिला दिसंबर में शुरू हुआ. इसके बाद बात धमकी से आगे बढ़ती है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तिरुचेंगोंडे नगर इकाई के सदस्य 26 दिसंबर को एक बड़ा जुलूस निकालते हैं और उपन्यास की प्रतियों को आग लगाई जाती है. मानो इतना ही काफी नहीं हो, शहर बंदी का आयोजन भी किया जाता है. 12 जनवरी को नमक्कल का प्रशासन मुरुगन को विरोधियों के साथ बातचीत करने के लिए आमंत्रित करता है. उनके ऊपर दबाव बनाया जाता है कि वे बिना शर्त माफी मांगें, विवादास्पद अंशों को अगले अंक से हटाएं और भविष्य में ऐसा कुछ नहीं लिखने का वादा करें.

इसके बाद मुरुगन ने लेखन छोड़ने की घोषणा करते हुए कहा कि वे अपनी किताबें वापस ले रहे हैं. उन्होंने प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं को आश्वस्त किया कि वे उनके नुकसान की भरपाई करेंगे. हालांकि मुरुगन के प्रकाशक कन्नन सुंदरम पूरी तरह अडिग हैं. उन्होंने कहा है कि किसी तरह के दबाव में झुकने के बजाय वे इस मामले को अदालत में हर स्तर पर लड़ेंगे.

यह देखना सुखद रहा कि देश के विभिन्न इलाकों में लेखक और सांस्कृतिक संगठनों ने बड़े पैमाने पर मुरुगन के साथ एकजुटता का प्रदर्शन किया. जन संस्कृति मंच के महासचिव और हिंदी के वरिष्ठ आलोचक प्रणय कृष्ण लिखते हैं कि मुरुगन के लिखे इन प्रसंगों का विरोध करनेवालों को जरा अपने प्राचीन ग्रंथों पर एक नजर डाल लेनी चाहिए. शास्त्र और लोक की बात छोड़ भी दें, तो मानवशास्त्र यह बतात है कि ऐसी प्रथाएं सभी प्राचीन और आधुनिक समाज में मौजूद रही हैं. वर्तमान में भी उन्होंने अपना रूप भले ही बदल लिया हो लेकिन उनकी निरंतरता प्रभावित नहीं हुई है. प्रणय कृष्ण जोर देकर कहते हैं कि मुरुगन को अपनी मृत्यु की घोषणा के बावजूद लिखना नहीं छोड़ना चाहिए. वह उम्मीद जताते हैं कि मुरुगन के पाठक उनको ऐसा नहीं करने देंगे. वे उन ताकतों को परास्त कर देंगे जो मुरुगन को डरा- धमका रही हैं. प्रगतिशील लेखक संघ ने भी गत 24 जनवरी को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक संगोष्ठी आयोजित कर मुरुगन के साथ एकजुटता का प्रदर्शन किया. इस अवसर पर मशहूर लेखक और शिक्षाविद पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले बढ़ रहे हैं. इनको रोकने के लिए सक्रिय प्रतिरोध आवश्यक है. उन्होंने श्रोताओं से अपील की कि वे इस बहस को सड़कों और गली-मोहल्लों तक ले जाएं तभी आम जनता में इन मुद्दों पर चेतना पनपेगी.

यह पहला अवसर नहीं है जब हिंदुत्ववादी संगठनों ने किसी  रचनाकर्मी पर  हमला किया हो अथवा प्रतिबंध लगाने की मांग की हो. कुछ वर्ष पहले ऐसी ही घटनाओं के चलते मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को आत्मनिर्वासन का चयन करना पड़ा था वहीं पिछले साल ऐसे ही गुटों के तीव्र विरोध के बाद पेंग्विन प्रकाशन को वेंडी डोनिगर की एक पुस्तक को नष्ट करना पड़ा था. अच्छी बात यह है कि जो तीव्रता इन घटनाओं में है उतना ही मुखर इनका विरोध भी है.