मर गया मुरुगन!

muruदेश में लेखन और रचनात्मकता पर हो रहे हमलों की बात करें तो मकबूल फिदा हुसैन से शुरू हुआ सिलसिला वेंडी डोंनिगर से होते हुए अब पेरुमल मुरुगन तक आ पहुंचा है. तमिल भाषा के बेहतरीन लेखकों में शुमार पेरुमल मुरुगन ने बीती 14 जनवरी को अपने भीतर के लेखक की मृत्यु की घोषणा कर दी. उन्होंने यह सूचना अपने फेसबुक पेज पर देते हुए जो कुछ लिखा, उसका भावानुवाद इस प्रकार है- ‘लेखक पेरुमल मुरुगन मर गया है. चूंकि वह भगवान नहीं है इसलिए वह खुद को पुनर्जीवन भी नहीं दे सकता. वह तो पुनर्जन्म में विश्वास तक नहीं करता. भविष्य में पेरुमल मुरुगन केवल एक अध्यापक के रूप में जिंदा रहेगा, जो वह हमेशा से रहा है.’

यह एक लेखक द्वारा अपने भीतर के लेखक की मौत की विचलित कर देनेवाली घोषणा थी. लेखक जो किसी समाज का आईना होता है, उसके आगे मशाल लेकर चलनेवाला अग्रदूत होता है. उसे अपनी मौत की घोषणा क्यों करनी पड़ती है. क्यों जिस समाज में हत्यारे, बलात्कारी, आततायी और लुटेरे ठठाकर हंस रहे होते हैं, सर्वसुविधायुक्त जीवन जी रहे होते हैं, वहां एक लेखक को अपनी मौत की घोषणा करनी पड़ती है? वह कौन सी सभ्यता या संस्कृति है जिसे एक उपन्यास से खतरा उत्पन्न हो जाता है?

एक साक्षात्कार में मुरुगन ने कहा, ‘सच पूछिए तो जब मैंने अपनी किताबों को जलते हुए देखा तब मेरे मन में यह सवाल उठा कि क्या मैं इसी समाज के लिए लिखता हूं? यह जो सड़कों पर मेरी किताबें जला रहा है. लेकिन बाद में अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों की ओर से मिले समर्थन ने मेरी मानसिकता में थोड़ा बदलाव लाया.’ भविष्य के लेखन के बारे में मुरुगन कहते हैं कि यह तय नहीं है कि वे अब कुछ भी लिखते समय खुद को उतना आजाद महसूस कर पाएंगे या नहीं जितना पहले करते थे.

लेखक बिरादरी का एक धड़ा जहां मुरुगन के ‘आत्मसमर्पण’ को अच्छा संकेत नहीं मानता, वहीं एक समूह ऐसा भी है जिसका कहना है कि यह मुरुगन द्वारा उठाया गया रणनीतिक कदम है जिसके बाद इस पूरे प्रकरण को राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय बनाया जा सका. ‘मधोरुबगन’ नामक मुरुगन के जिस उपन्यास को विवाद का विषय बनाया गया वह दरअसल वर्ष 2010 में प्रकाशित हुआ था. इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘वन पार्ट वुमन’ वर्ष 2013 में पेंग्विन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ.

लेखक को अपनी मौत की घोषणा क्यों करनी पड़ती है. वह कौन-सी सभ्यता या संस्कृति है जिसे एक उपन्यास से खतरा उत्पन्न हो जाता है?

48 वर्षीय पेरुमल मुरुगन पेशे से शिक्षक हैं और तमिलनाडु के नमक्कल में शासकीय कला विद्यालय में अध्यापन करते हैं. उन्होंने अब तक 30 से अधिक पुस्तकों की रचना की है जिनमें से सात उपन्यास हैं. उनका उपन्यास मधोरुबगन प्रदेश के कोंगू इलाके में रहनेवाले एक निस्संतान दंपती, पोन्ना और काली की कहानी कहता है. पोन्ना और काली, के बीच बहुत प्यार है लेकिन संतानहीनता के कारण पड़ रहा सामाजिक और पारिवारिक दबाव उनके प्यार को प्रभावित करता है. खासतौर पर पोन्ना को नाते-रिश्तेदारों के तानों का शिकार होना पड़ता है, क्योंकि वह स्त्री है. उसे बांझ कहकर अपमानित किया जाता है और एक समय ऐसा आता है जब वह खुद को घर की चहारदीवारी में सीमित कर लेती है. उसका पति काली भी तानों और फुसफुसाहटों से बच नहीं पाता और गाहेबगाहे उसे सुनने में आता है कि लोग उसे नपुंसक कहते हैं. तमाम नाते-रिश्तेदार ऐसे भी हैं जिनकी नजर काली की संपत्ति पर है. इस बीच काली का परिवार उसे दूसरा विवाह करने को प्रेरित करता है, लेकिन पत्नी के प्रति उसका प्रेम उसे ऐसा नहीं करने देता. उनका हित चाहने की कोशिश में परिजन पोन्ना को परपुरुष समागम के लिए तैयार करते हैं और उसे झांसा देते हैं कि उसका पति इसके लिए तैयार है. उसे एक ऐसे मेले में ले जाया जाता है जहां संतान की चाह रखनेवाली स्त्रियां किसी भी अनजाने पुरुष के साथ शारीरिक संबंध स्थापित कर सकती है. पोन्ना के मन में इस बात की राहत है कि वहां उसे लोगों की शिकायती और तंग नजरों का सामना नहीं करना पड़ता, लेकिन हर पुरुष में उसे अपना प्रेमी और पति काली ही नजर आता है. उधर काली को जब यह बात पता चलती है तो उसे लगता है कि उसकी पत्नी ने उसे धोखा दिया है.

उपन्यास बगैर किसी फैसले के यहीं पर समाप्त हो जाता है. वह कोई निष्कर्ष भले ही नहीं देता है, लेकिन वह हमारे समाज में व्याप्त इन कुरीतियों को मुखर ढंग से हमारे सामने लाता है. बात केवल इतनी सी है कि एक प्रेमी युगल का सुखमय जीवन केवल संतान न होने के चलते सामाजिक और पारिवारिक हस्तक्षेप और फूहड़ रीति-रिवाजों की वजह से नष्ट हो जाता है. इस प्रेमकथा की अंतर्कथा में मुरुगन जाति और समाज की दबंगई तथा कुरीतियों को बहुत विस्तार से चित्रित करते हैं. मुरुगन ने इस प्रेम का जितना भावनात्मक और संवेदनशील चित्रण किया है वह उनके लेखक की सफलता है, लेकिन सामाजिक कुरीतियों पर किए गए हमले कथित राष्ट्रवादी ताकतों को रास नहीं आए. वे एक लेखक के अंतर्मन के जरिये उसे रचनालोक की यात्रा करने के बजाय उससे यह करार करवाते हैं कि वह दोबारा कुछ नहीं लिखेगा.

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मुरुगन को धमकियां मिलने का सिलसिला दिसंबर में शुरू हुआ. इसके बाद बात धमकी से आगे बढ़ती है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तिरुचेंगोंडे नगर इकाई के सदस्य 26 दिसंबर को एक बड़ा जुलूस निकालते हैं और उपन्यास की प्रतियों को आग लगाई जाती है. मानो इतना ही काफी नहीं हो, शहर बंदी का आयोजन भी किया जाता है. 12 जनवरी को नमक्कल का प्रशासन मुरुगन को विरोधियों के साथ बातचीत करने के लिए आमंत्रित करता है. उनके ऊपर दबाव बनाया जाता है कि वे बिना शर्त माफी मांगें, विवादास्पद अंशों को अगले अंक से हटाएं और भविष्य में ऐसा कुछ नहीं लिखने का वादा करें.

इसके बाद मुरुगन ने लेखन छोड़ने की घोषणा करते हुए कहा कि वे अपनी किताबें वापस ले रहे हैं. उन्होंने प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं को आश्वस्त किया कि वे उनके नुकसान की भरपाई करेंगे. हालांकि मुरुगन के प्रकाशक कन्नन सुंदरम पूरी तरह अडिग हैं. उन्होंने कहा है कि किसी तरह के दबाव में झुकने के बजाय वे इस मामले को अदालत में हर स्तर पर लड़ेंगे.

यह देखना सुखद रहा कि देश के विभिन्न इलाकों में लेखक और सांस्कृतिक संगठनों ने बड़े पैमाने पर मुरुगन के साथ एकजुटता का प्रदर्शन किया. जन संस्कृति मंच के महासचिव और हिंदी के वरिष्ठ आलोचक प्रणय कृष्ण लिखते हैं कि मुरुगन के लिखे इन प्रसंगों का विरोध करनेवालों को जरा अपने प्राचीन ग्रंथों पर एक नजर डाल लेनी चाहिए. शास्त्र और लोक की बात छोड़ भी दें, तो मानवशास्त्र यह बतात है कि ऐसी प्रथाएं सभी प्राचीन और आधुनिक समाज में मौजूद रही हैं. वर्तमान में भी उन्होंने अपना रूप भले ही बदल लिया हो लेकिन उनकी निरंतरता प्रभावित नहीं हुई है. प्रणय कृष्ण जोर देकर कहते हैं कि मुरुगन को अपनी मृत्यु की घोषणा के बावजूद लिखना नहीं छोड़ना चाहिए. वह उम्मीद जताते हैं कि मुरुगन के पाठक उनको ऐसा नहीं करने देंगे. वे उन ताकतों को परास्त कर देंगे जो मुरुगन को डरा- धमका रही हैं. प्रगतिशील लेखक संघ ने भी गत 24 जनवरी को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक संगोष्ठी आयोजित कर मुरुगन के साथ एकजुटता का प्रदर्शन किया. इस अवसर पर मशहूर लेखक और शिक्षाविद पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले बढ़ रहे हैं. इनको रोकने के लिए सक्रिय प्रतिरोध आवश्यक है. उन्होंने श्रोताओं से अपील की कि वे इस बहस को सड़कों और गली-मोहल्लों तक ले जाएं तभी आम जनता में इन मुद्दों पर चेतना पनपेगी.

यह पहला अवसर नहीं है जब हिंदुत्ववादी संगठनों ने किसी  रचनाकर्मी पर  हमला किया हो अथवा प्रतिबंध लगाने की मांग की हो. कुछ वर्ष पहले ऐसी ही घटनाओं के चलते मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को आत्मनिर्वासन का चयन करना पड़ा था वहीं पिछले साल ऐसे ही गुटों के तीव्र विरोध के बाद पेंग्विन प्रकाशन को वेंडी डोनिगर की एक पुस्तक को नष्ट करना पड़ा था. अच्छी बात यह है कि जो तीव्रता इन घटनाओं में है उतना ही मुखर इनका विरोध भी है.