नवाब गिरफ्तार हो गए क्योंकि कोई जूता पहनानेवाला नहीं था

nawabलखनऊ के आखिरी बादशाह वाजिद अली शाह के बारे में सैंकड़ों मनगढ़ंत किस्से अवध से लेकर दुनियाभर में फैले हुए हैं. उनमें से दो किस्से सबसे ज्यादा कहे सुने-जाते हैं. पहला, वाजिद अली शाह अय्याश और नाकारे थे और लखनऊ की जनता उनके राज-काज से खुश नहीं थी इसीलिए अंग्रेजों ने जनहित में उन्हें गद्दी से हटा दिया. दूसरा, अंग्रेज जब नवाब को गिरफ्तार करने आए तो उनके आस-पास के सारे लोग भाग गए, नवाब साहब अकेले रह गए और अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए. वे भाग सकते थे मगर भाग नहीं सके क्योंकि उनको जूते पहनानेवाला खादिम पहले ही भाग गया था. खुद जूते उठाकर पहनना नवाबी शान के खिलाफ था. सो नवाब साहब ने गिरफ्तारी कबूल की पर खुद के हाथों से जूता पहनना गवारा नहीं किया. लखनऊ के इतिहास की पड़ताल करें तो साफ हो जाता है कि इन कहानियों में जरा भी सच्चाई नहीं है. फिर भी सालों साल से ये मनगढ़ंत किस्से लोगों का मनबहलाव करते आ रहे हैं. इन किस्सों के आधार पर वाजिद अली शाह की शख्सियत पर फैसला सुनाया जाता रहा है. लखनउआ जबान में कहें तो ये किस्से ‘कुल लोकल’ हैं लेकिन दुर्भाग्य ये है कि इन्होंने एक संवेदनशील, कलाप्रेमी, कविहृदय शासक की छवि बिगाड़कर रख दी है. लखनऊ की तमीज-तहजीब, नजाकत-नफासत और नाज-ओ-अंदाज का मखौल उड़ानेवाले इन किस्सों को रस लेकर सुनते-सुनाते हैं. वाजिद अली शाह के बारे में इस कोरी गप्प के प्रचार-प्रसार में इतिहास न जाननेवाले एवं कुछ सांप्रदायिक जहन के साथ ही बड़ी भूमिका अंग्रेजों की है जिन्होंने अवध की ‘हड़प’ को जायज ठहराने के लिए वाजिद अली शाह के खिलाफ इस तरह का प्रोपेगेंडा खूब फैलाया.


गौर फरमाएं

लखनऊ के चर्चित इतिहासकार अब्दुल हलीम ‘शरर’ ने अपनी मशहूर किताब गुजिश्ता लखनऊ में वाजिद अली शाह के शासनकाल और जनता में उसकी लोकप्रियता की विस्तार से चर्चा की है. किताब इस बात का सिरे से खंडन करती है कि वाजिद अली शाह अयोग्य शासक थे और लखनऊ की जनता उनसे खुश नहीं थी. प्रो. जीडी भटनागर समेत दूसरे इतिहासकारों ने भी ऐसा ही मत व्यक्त किया है. जोश मलीहाबादी ने भी अपनी आत्मकथा ‘यादों की बारात’ में अपने बचपन का जिक्र करते हुए कहा है कि उनके बचपन में बड़ी-बूढ़ियां वाजिद अली शाह के साथ अंग्रेजों द्वारा किए गए अन्याय को याद करके रोती थीं. जोश के मुताबिक वाजिद अली शाह आम जनता में कितने लोकप्रिय थे इसका अंदाजा इसी बात से हो सकता है उनके लखनऊ से जाने के आधी सदी बाद भी रियाया उन्हंे नम आंखों से याद करती थी. इसी तरह जूते पहननेवाला किस्सा भी इतिहास से कतई मेल नहीं खाता. न ही कहीं इतिहास में इस घटना का जिक्र मिलता है. सच ये है कि वाजिद अली शाह को अकेले नहीं बल्कि उनके कई साथियों के साथ हिरासत में लिया गया था और वो एक बड़े कारवां के साथ ही कलकत्ता रवाना हुए थे.