सुर्खियों की शोखी

मनीषा यादव
मनीषा यादव

अखबार के कार्यालय का दृश्य. संपादक महोदय किसी बात पर भड़के हुए थे. कमरे के बाहर उनके बोलों के दहकते शोले उड़ रहे थे. अभी मैं संपादक महोदय के केबिन तक पहुंचा ही था कि उनकी गरजदार आवाज मेरे कानों से टकराई, ‘तुमने पत्रकारिता का कोर्स किया है कि घास काटी है!’

बहरहाल, मेरी इंट्री उनके चैंबर में हुई. मुझे देखते हुए उन्होंने आंखों से बैठने का इशारा किया. अभी मैं सीट पर जमा भी नहीं था कि वे फटे, नहीं-नहीं फूटे, ‘यार, इस खबर में ऐसा क्या है कि प्रथम पृष्ठ पर लीड होनी चाहिए.’ संपादक महोदय जिससे मुखातिब थे वह प्रथम पेज का प्रभारी था. वह बोला, ‘सर, किसान ने खुदकुशी की है.’ संपादक महोदय तपाक से बोले, ‘अरे यार! यहां तो रोज ही किसान मरते रहते हंै.’ ‘पर सर! उसने पूरे परिवार के साथ आत्महत्या की है!’ ‘तो!’ ‘सर, उसके साथ उसकी बीवी, एक पांच साल की बच्ची, एक दो साल का बच्चा भी था!’ ‘कहां किसान और कहां नेताजी की बीवी! लगता है तुम्हें पत्रकारिता का अलिफ बे फिर से पढ़ाना पड़ेगा!’ वह चुप रहा. मैं भी चुपचाप मेज पर फैले हुए अखबार में मुंह गड़ाए पढ़ने का अभिनय कर रहा था.

संपादक महोदय बोले, ‘यार, यहां एक नेताजी की बीवी ने खुदकुशी की है. यही लीड बननी चाहिए न!’ ‘सर, किसान अपने पूरे परिवार के साथ रेल के आगे कट गया…’ ‘क्या फितूर है! किसान की लाश क्या फाइव स्टार में मिली है! क्या उसके नाम से लोग परिचित हंै! क्या किसान कोई सेलिब्रेटी है!’ ‘सर, कोई खुद को तो मार सकता है, मगर अपने परिवार को… वो भी अपने छोटे-से दुधमुंहे बच्चों को भी मार दे, तो मुझे लगता है कि यह एक गंभीर और महत्वपूर्ण खबर है…’ ‘लोग सनसनी पढ़ना चाहते है!’ ‘सर, इस खबर से मेरे रोंगटे खड़े हो गए! रूह कांप गई!’ ‘रूह, यू मीन टू से… आत्मा!’ ‘यस सर!’ ‘उंहू! भावुकता का पत्रकारिता में कोई काम नहीं. जाओ साहित्यकार बनो!’ जिस खबर में रहस्य, उत्सुकता, रोमांच हो उसे प्राथमिकता देनी चाहिए कि नहीं! हैं! फिर इसमें लव, सेक्स, धोखा वाला एंगल भी है. नेताजी की दिवंगत पत्नी ने मरने से पहले उन पर बेवफाई का इल्जाम लगाया था. पता है न!’

‘ऐसे नहीं चलेगा! सोचता हूं तुमको चिट्ठी-पत्री वाले काम में लगा दिया जाए. तुमसे नहीं होगा.’ संपादक महोदय कड़केे. ‘माफ कीजिए सर, नेताजी की पत्नी की खुदकुशी वाली खबर को किसान की आत्महत्या से अधिक कैसे तरजीह दी सकती है! वह भी जब उसने परिवार सहित…’ ‘तुम्हें समझाना मुश्किल है!’ ‘सर, विद ड्यू रिस्पेक्ट… नेताजी की दिवगंत पत्नी ने क्या महिलाओं के अधिकार के लिए कोई काम वगैरह किया था?’ ‘बहुत खूब! अब तुम मुझको पत्रकारिता करना सिखाओगे! पूरी उम्र गुजर गई है इसमें.’  संपादक महोदय अभिनय करते हुए बोले. ‘नहीं सर, मैं तो बस यह कह रहा था कि… उस किसान का सपरिवार आत्महत्या करना बहुत विचारणीय और गंभीर मुद्दा है. सर, कृषिप्रधान देश में किसान को ब्लैक में खाद खरीदनी पड़ती है. उसके लिए लाठी खानी पड़ती है. इसने भी खरीदा था. इसने भी लाठी खाई थी. कर्ज लेना पड़ता है, इसने भी लिया था. वह भी अधिकतर बैंक से नहीं स्थानीय महाजन से लेते हंै, इसने भी ऐसा किया था…’ संपादक महोदय रुक कर फिर बोले, ‘तुम्हारी बुद्धि पर तरस आता है! एक तरफ व्यवस्था है… व्यवस्थापक की खबर है और दूसरी तरफ व्यवस्था के भोगी की! यह बात समझो!’

संपादक का मित्र होने के बाद भी इस गरमागरम बहस के बीच मैंने वहां से निकलने में ही भलाई समझी. आज भोर से ही अखबार का इंतजार कर रहा हूं. देखना है खबर की मौत होगी या मौत की खबर! फिलहाल अखबार अभी मेरे हाथ नहीं आया..