घुन लगी गुंडाई और सौ किलो शोर

gunday
िफल्म » गुंडे
निदेर्शक» अली अब्बास जफर
लेखक » अली अब्बास जफर, संजय मासूम
कलाकार » रणवीर नसंह, अजुर्ि कपूर, नियंका चोपड़ा,
इरफाि खाि, सौरभ शुक्ला

अतिनाटकीयता और मेलोड्रामा का पता नहीं कौन-सा ग्रंथ है जिसका कुछ खास तरह की मसाला फिल्में बनाने वाले रोज पाठ करते हैं. यही अतिनाटकीयता / मेलोड्रामा ‘भाग मिल्खा भाग’ की समस्या थी, और वैसे तो ‘गुंडे’ किसी भी स्तर पर भाग मिल्खा भाग का नाखून भी नहीं छू पाती, लेकिन समस्या के स्तर पर दोनों गले में हाथ डाल कर खड़ी हैं. ‘गुंडे’ देखने वालों के लिए फिल्म तभी खत्म होना शुरू हो जाती है जब शुरुआत में दो छोटे-छोटे बच्चों से ‘गुस्से को पालना सीख, बड़े काम की चीज है’ और ‘गोली से तो बच गए, लेकिन भूख मार देगी यार’ जैसे बातें उगलवाई जाती हैं, उन्हें उड़ा कर चलती ट्रेन की कोयले से भरी बोगियों में पहुंचवाया जाता है और ‘तुम दोनों हिंदुस्तानी नहीं बांग्लादेशी शरणार्थी हो’ जैसे ट्रैजिक संवादों से बेवकूफियों को जायज ठहराया जाता है. फिल्म में कभी भी चुप न होने वाला बैकग्राउंड स्कोर, गाने, मार-धाड़ और दोनों नायकों की बावलों वाली हंसी मिलकर इतना शोर पैदा करती है कि एक क्विंटल बोझ सह रहा सर सजदे में है, ऐसा दुष्यंत कुमार वाला ही धोखा हमें भी होता है.

कहानी सत्तर-अस्सी के दशक के कलकत्ता की है, कोयले के चारों तरफ घूमती गुंडाई की, लेकिन चश्मे आज के हैं और अर्जुन कपूर की हेयर स्टाइल भी. कलकत्ता में रहकर दोनों नायक हिंदी प्रदेश वाली हिंदी बोलते हैं, और रेडियो में जब हिंदी गाने बजते हैं तो वे किशोर कुमार के न होकर रफी के होते हैं. इसीलिए शायद यह पहली हिंदी फिल्म है, धारा के विपरीत जाने वाली, जिसमें बंगाल में लोग सिर्फ किशोर कुमार को नहीं सुनते हैं! लेकिन जब कहानी की धारा के विपरीत एक नायक बहने या दौड़ने लगता है तो दूसरा नायक, अच्छा, भी फिल्म को नहीं बचा पाता. अर्जुन कपूर अभिनय भूले हुए वो नायक हैं जो रणबीर कपूर वाली पीढ़ी के तुषार कपूर न बन जाएं, डर लगता है. दूसरा नायक जो ऊर्जा का गोला है और अच्छा अभिनेता भी, रणवीर सिंह, अर्जुन कपूर की संगत में खुद भी खराब हो जाता है. दोनों की दोस्ती के आगे हालांकि कलकत्ता के लाल झंडे भी झुकते हैं, लेकिन दोस्ती के लिए दो नायकों के बीच जो संगत, जो लय-ताल होनी चाहिए उसे फिल्म बैकग्राउंड स्कोर की तीव्रता और मौला टाइप गानों से भरने की खराब कोशिश करती है. इन दो नायकों के बीच प्रियंका वही करती हैं जो वे इस तरह की फिल्मों में आसानी से करती रही हैं, और बुरा नहीं करतीं, लेकिन अच्छे का अवसर उन्हें फिल्म नहीं देती.

‘गुंडे’ में कुछ वक्त गुजारते ही आप समझ जाते हैं कि इसे लगातार देखते रहने की एकमात्र वजह इरफान खान को ही होना है. लेकिन वे पुलिस अफसर के रोल में पान सिंह तोमर की तरह प्रवचनी करते हैं, और हमें बुरा लगता है, लेकिन फिर भी वे पसंद आते हैं क्योंकि हम डूबते को तिनके का सहारा नाम की कहावत को गंभीरता से लेते हैं. फिल्म दूसरे अच्छे अभिनेताओं को भी कम अवसर देती है. उसके लिए पंकज त्रिपाठी और मनु ऋषि से ज्यादा जरूरी हावड़ा ब्रिज का फ्रेम में रहना है.

फिल्म उस वक्त का कलकत्ता खूबसूरत रचती है जिस वक्त की यह कहानी है. लेकिन कहानी दमदार गुंडे नहीं रचती. उसे घुन लगी चीजों से प्यार है और हमारे साथ समस्या यह है कि हमें घुन को धुनने वालों की दरकार है.