आज वामपंथियों के अतिरिक्त जनता दल(एस), आरएलडी, इनेलो, तेलगूदेशम पार्टी, टीआरएस आदि सभी दल सुश्री मायावती के साथ इसलिए खड़े हैं क्योंकि उनके पास जनाधार है। यह जनाधार क्यों और किन परिस्थितियों में आया, यदि उसे न समझा गया तो इस देश में सिद्धांतों की नहीं बल्कि मजबूरी, सुविधा और स्वार्थ की राजनीति ही होती रहेगी।
आज़ादी के तुरंत बाद पिछड़ों और दलितों में जागृति नहीं थी और सभी राजनैतिक दल कमोबेश सवर्णों के नेतृत्व में कार्यरत थे। यही वह समय था जब राजनीति केवल स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवस्था को बदलने पर भी होनी चाहिए थी। आज़ादी के तुरंत बाद लोगों को जिस तरह से चलने के लिए प्रेरित किया जाता, वे चल भी पड़ते। इतना अच्छा मौका हाथ से निकल गया, जिसकी भरपाई होना असंभव है। चाहे राजनेता हों, बुद्धिजीवी, साहित्यकार या समाजसेवी, सभी इसके गुनहगार हैं। दरअसल वे जिस जाति से थे, उसी मानसिकता के कारण यह भयंकर गलती हुई।
समय रहते अगर सावधानी बरती गयी होती तो दबे पिछड़ों के नेता आज जातिगत भावनाओं को उकसाकर सस्ते में नेता न बन जाते। आज कम्युनिस्टों को मजबूरन मायावती की शरण न लेनी पड़ती। ब्राह्मणों को भी बसपा के दरवाजे से सत्ता में भागीदारी की जरूरत न पड़ती। यहां की सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी है कि बिना गलत काम किए या सिद्धांत के समझौते के लोगों को संगठित करना मुश्किल है। जाति के नाम पर लोग कुछ भी करने को तैयार हैं। हाल में गुर्जर आंदोलन से सीख ली जा सकती है कि जाति के नाम पर लोगों ने जान दे दी लेकिन देश के नाम पर शायद एक भी आदमी ऐसा करने वाला नहीं होगा। देश के नाम पर गिने चुने लोग ही अब तक जान देते रहे हैं। जिस तरह से जाति के नाम पर बहादुर गुर्जर पुलिस की गोलियां खा गए, यदि देश के नाम पर इतने लोग बलि देने को तैयार होते तो हम आज कहां पहुंच गए होते।
अगर सावधानी बरती गयी होती तो दबे पिछड़ों के नेता आज जातिगत भावनाओं को उकसाकर सस्ते में नेता न बन जाते।
22 जुलाई के घटनाचक्र के बाद यदि हम नए सिरे से सोचना नहीं शुरू करेगें, तो भूल जाएं कि कभी महाशक्ति बनेंगे और आने वाले 50 वर्ष में भी गांव और शहर के बीच दूरी कम हो पाएगी, साम्प्रदायिकता समाप्त हो सकेगी और जातीय भावनाएं कम होंगी। राजनीति और नेता समाज की उपज हैं। शुरू में गड़बड़ी फैलाने का काम नेताओं ने ही किया, लेकिन धीरे-धीरे इसमें जनता भी शामिल हो गयी। मुसीबत अब उन लोगों के लिए पैदा हो गयी है जो विकास, सिद्धांत एवं मानवता की राजनीति करना चाहते हैं। इस होड़ में पैसे का महत्व इतना बढ़ गया है कि अगर संगठन, सिद्धांत एवं कार्यकर्ता सभी हों तो भी बिना पैसे के मामला नहीं बन सकता। राजनीति में नोट का इस्तेमाल तो ऐसा हो गया है कि जैसे कार के चार पहिए में, एक पहिया न हो तो वह चल नहीं सकती।
कुछ पिछड़े और दलित, जातीय भावनाओं को भड़काकर राजनीति में जबर्दस्त रूप से सफल हुए और अब यह होड़ बढ़ती ही जा रही है। जाति के लोगों का भला हो या नहीं, ज्यादातर लोग इसी बात से खुश हैं कि उनकी जाति का नेता और दल हुकूमत में हैं। बहुजन समाज पार्टी के उभार से इसमें कोई दो मत नहीं है कि दलितों में हुकूमत की भूख जगी है, लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि वे खो भी बहुत कुछ रहे हैं। जब तक बसपा नहीं आयी थी, दूसरे दल दलितों के अधिकारों की बात करते थे। स्पेशल काँपोनेंट प्लान, 20 सूत्रीय कार्यक्रम, आरक्षण लागू करने का काम, खाली पदों पर भर्ती आदि सभी कांग्रेस की ही सरकार में हुए। ऐसा इसलिए कि कांग्रेस को दलित वोटों का लालच हुआ करता था। जब से यह वोट कांग्रेस से कटा है, वह सिर्फ ऊपर से दलितों की बात करती है। इसको हम इस तरह से समझ सकते हैं कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल दलितोत्थान की बातें जैसे – निजी क्षेत्र में दलितों को आरक्षण, खाली पदों पर भर्ती, आरक्षण कानून बनाना, भूमिहीनों को भूमि आदि में से एक भी लागू नहीं किया गया। निजी क्षेत्र में आरक्षण की बात कभी कभार प्रधानमंत्री एवं नौकरशाही के स्तर पर तो होती रहती है, लेकिन गंभीरता होती तो अब तक यह हो चुका होता। इसके विपरीत निजीकरण को बढ़ावा देकर रहा-सहा अधिकार भी समाप्त किया जा रहा है। परोक्ष रूप से बसपा ही इसके लिए जिम्मेदार है और वह स्वयं भी इन मुद्दों पर कुछ नहीं करती। योजनागत बजट का जो पैसा दलितों की आबादी के अनुपात में खर्च होना चाहिए, वही अगर कर दिया जाए तो भी बहुत बड़ा परिवर्तन हो सकता है। उपरोक्त बातों पर बहुत कुछ किया जा सकता है, बशर्ते कांग्रेस और यहां तक कि भाजपा को यह लालच हो जाए कि दलित का वोट उन्हें भी मिल सकता है।
देश की राजनीति जातीय भावना से अभिशप्त हो चुकी है। मंडल लागू करके कितना बड़ा काम वी पी सिंह ने पिछड़ों के लिए किया, लेकिन वे इस जाति से नहीं थे इसलिए उन्हें कभी वोट नहीं मिला।
बहुजन समाज पार्टी की सरकार जब भी उ0 प्र0 में बनी दलित अधिकार कम ही हुए हैं। तीसरी बार जब सुश्री मायावती मुख्यमंत्री थीं, तो उ0 प्र0 अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष, एस डी बागला उच्च अधिकारियों को सम्मन करके दलित उत्पीड़न की घटनाओं का समाधान करते थे। अधिकारियों ने मायावती से चुगली कर दी कि बागला जी उन्हें बुलाकर बैठा लेते हैं, जिससे वे अपना विभागीय कार्य नहीं कर पा रहे हैं। मायावती ने सलाह मांगी कि इसका समाधान क्या है? अधिकारियों ने कहा कि आयोग के अध्यक्ष का उच्च अधिकारियों को बुलाने का अधिकार छीन लिया जाए। ऐसा आदेश जारी हो गया और अब निचले स्तर का अधिकारी आयोग में हाजिरी लगाने पहुंच जाता है, ऐसे में समस्या का समाधान होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जब वी पी सिंह प्रधानमंत्री थे तो राम विलास पासवान आदि ने उनसे कहकर अनुसूचित जाति/जन जाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989, बनवाए। मायावती की सरकार ने इसके तहत 22 अपराधों में से 20 पर कार्यवाही न करने के लिए आदेश निकाला, जिसको हमने इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दाखिल करके दुरूस्त कराया वरना महेन्द्र सिंह टिकैत द्वारा की गयी जातिसूचक शब्द की टिप्पणी का बदला स्वयं मायावती न ले पाती। हाल में अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष, बूटा सिंह, ने ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण का मुआयना करने के बाद, उद्योग सचिव को तलब किया तो उ0 प्र0 की सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका फाइल करके रोक लगवा दी कि आयोग द्वारा सचिव को ही बुलाना ज़रूरी नहीं है। इस तरह से तीन बड़े अधिकार सुश्री मायावती के कर-कमलों से छिने।
भविष्य में यदि मायावती प्रधानमंत्री बन भी जाती हैं तो पक्का है कि कुछ न कुछ दलितों-पिछड़ों के अधिकार घटेगें। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, वामपंथी या और दल आत्ममंथन करें कि इसका क्या समाधान है? इन दलों को उन लोगों का साथ लेना पड़ेगा जो दलित और पिछड़ी जातियों से हैं और जो समतामूलक समाज, विकास की राजनीति, विश्वस्तरीय सोच आदि रखते हों, तभी मायावती जैसे नेताओं के बढ़ते हुए प्रभाव को कम किया जा सकता है। यदि यह नहीं किया गया तो भावी राजनीति में बहुत बड़ा परिवर्तन आएगा लेकिन वह स्वस्थ एवं विकासोन्मुख नहीं होगा। भले ही प्रकाश कारत कहें कि उनके दल ने मायावती को प्रधानमंत्री के रूप में नहीं प्रस्तुत किया है, लेकिन परमाणु करार के मुद्दे पर दस दलों के तमाम नेता ऐसा कर चुके हैं। भविष्य में चाहे ये सारे दल मायावती का साथ छोड़ भी दें तो भी तीर कमान से निकल चुका है।
जिस तरह से उ0 प्र0 के दलितों में दलित मुख्यमंत्री बनाने की भूख जगी थी, उसी तरह आज दलित प्रधानमंत्री बनाने की भूख पूरे देश में बड़ी तेजी से जगी है। कमोबेश मायावती का काम हो चुका है। इस पर किसी दलित नेतृत्व से ही रोक संभव है, क्योंकि
देश की राजनीति जातीय भावना से अभिशप्त हो चुकी है। इस राजनैतिक गणित को समझना मुश्किल भी नहीं है। मंडल लागू करके कितना बड़ा काम वी पी सिंह ने पिछड़ों के लिए किया, लेकिन वे इस जाति से नहीं थे इसलिए उन्हें कभी वोट नहीं मिला।
डॉ. उदित राज
उदित राज, अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ और इंडियन जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष हैं.