पिताजी ठीक ही कहते थे…

रेडियो पर किसी कार लोन वाले विज्ञापन में कोई गला फाड़ रहा था—“और मैं कार इसलिए भी नहीं लेता क्योंकि ऑफिस देर से पहुंचने का बहाना जो मिल जाता है.”

किसने कहा कि कार से जल्दी ऑफिस पहुँच जाते हैं? मेरे घर से ऑफिस की दूरी करीब 6-7 किलोमीटर है. कुछ महीने पहले अपनी मोटरसाइकिल से आराम से मैं, 10-15 मिनट में वहां पहुंच जाता था–हालांकि टाइम पर मैं तब भी कभी नहीं पहुंचा. फिर थोड़ी तनख्वाह मेरी और थोड़ी बीवी की बढ़ी तो शान दिखाने, खुद को आराम पहुंचाने और बीबी को सड़क चलते हरेक की घूरती निगाहों से बचाने के लिए कार ले ली. अब गनीमत रही तो आधा घंटे में, न रही तो आधा प्लस एक में, और फंस गया तो बस किसी तरह ऑफिस पहुंच भर जाता हूं. ऐसा क्यों भाई? जवाब है, कार, मोटरसाइकिल की तरह एक फुट जगह में से थोड़े ही निकाली जा सकती है. इतनी देर में तो शायद नहीं बल्कि पक्का ही समझें कि आदमी पैदल ही 6 किमी चल सकता है. ऑटो और बस में जाने पर भी, जहां थोड़ा अटके, उसे छोड़ कर दूसरा किया या दूसरी में बैठा जा सकता है. मगर अपनी जेम्सबांड की सुविधाओंरहित कार में जाने पर दिन के सबसे कीमती समय का एक बड़ा हिस्सा सड़क की भेंट चढ़ना ही चढ़ना है क्योंकि यातायात को व्यवस्थित और सड़कों को दुरुस्त करने वाला कोई तंत्र कहीं नज़र ही नहीं आता.

पहली कार थी और पार्किंग की विकट समस्या के चलते घर से आधा किलोमीटर दूर खड़ी करनी पड़ती थी. यानी कि बचपन में नये जूतों को तकिये के नीचे रख के सोने वाला, नई कार को घर की खिड़की से झांक के देख भी नहीं सकता था.

शुरू में शौक था तो कार में आधा पौना घंटा सड़क पर रहना इतना बुरा नहीं लगता था. पहली कार थी और पार्किंग की विकट समस्या के चलते घर से आधा किलोमीटर दूर खड़ी करनी पड़ती थी. यानी कि बचपन में नये जूतों को तकिये के नीचे रख के सोने वाला, नई कार को घर की खिड़की से झांक के देख भी नहीं सकता था. ज़ाहिर है कार के साथ रहना पहले अच्छा और बाद में उतना बुरा नहीं लगता हो…मगर अब तो मन कार का आदी होने के साथ-साथ, रोज़-रोज़ की धक्कमपेल और एफ एम स्टेशनों के घिसे हुए रिकॉर्डों से बुरी तरह त्रस्त हो चुका है…

एक दिन फिल्म जोधा अकबर देखने निकला तो अरबिंदो मार्ग पर आईआईटी से ठीक पहले जो जाम में फंसा तो निकलने की कोई राह ही नज़र नहीं आती थी…जानने की कोशिश की तो कोई एक्सीडेंट, चैकिंग जैसी तात्कालिक वजह नज़र ही नहीं आई…जो समझ आया वो ये कि ये यहां रोज़ की बात है. डेढ़ घंटे पहले निकलने वाला, फिल्म में आधा घंटा लेट पहुंचा. गुस्सा और हताशा इतनी थी कि फिल्म में भी देश, देश की समस्याओं इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों को मन ही मन कोसता रहा…तभी फिल्म में अचानक एक दृश्य आया जिसमें बादशाह अकबर वेश बदलकर अपनी रियाया का हाल जानने जाते हैं. क्या देश के तारणहार भी, करोड़ों रुपया खर्च करके समस्याओं का कानों सुना और आंखों पढ़ा हाल जानने के बजाय, कुछ ऐसा ही नहीं कर सकते. क्या देश के हालात ऐसे डरावने और ये लोग इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि कोई इन्हें न पहचाने तब भी इनकी जान को भयंकर खतरा है और आम आदमी के ऊपर हर समय मंडराने वाला ये खतरा इन खास लोगों के लिए मोल नहीं लिया जा सकता…या फिर देश की बागडोर थामने वाले ये सारथी अब 200 रुपये किलो वाले खास अल्फाँस आम के अलावा किसी भी आम चीज़ के नज़दीक तक नहीं जाना चाहते…या फिर उन्हें सब पता है और कदम केवल उठते दिखें इसलिए कमेटियों-शमेटियों का हो हल्ला होता रहता है. 

छोटे से गांव जैसे शहर में बचपन बीता और एक पड़ोसी की टीवी और दूसरे के अखबार में दिल्ली-बंबई के दृश्य देख मन ये सोच-सोच कर बड़ा दुखी होता था कि हमारे शहर में बड़ी-बड़ी चिमनियों जैसी इमारतें और सड़क पर पौं-पौं करती दौड़ती कारें क्यों नहीं हैं…शहर की सबसे व्यस्त सड़क पर अगर हम कभी एक मिनट में दो कारें निकलती देख लेते थे तो मन बाग-बाग हो सोचने लग जाता था कि अब हमारा शहर भी बस बड़ा बनने ही वाला है और अभी नहीं तो जब तक हम बड़े होएंगे तब तक तो ऐसा हो ही जाएगा. फिर हमारी ऐश ही ऐश होगी…आज लगता है कि पिताजी ठीक ही कहते थे जब कहते थे कि “मासूम बच्चे अगर दिल से कुछ चाहते हैं तो वो पूरा हो जाता है” और “संजू! बहुत सी बातें तुम बड़े होकर ही समझोगे…”

मेरा कस्बा अब शहर बन चुका है और मुझे इसके ऐसा होने और छुटपन में इसे ऐसा बनाने के लिए भगवान से प्रार्थना करने पर गहरा अफसोस है. भगवान को समझना चाहिए था कि नादानी में मांगी गई हर दुआ सही ही हो ऐसा थोड़े ही होता है.

संजय दुबे

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