आतंक के मोहरे या बलि के बकरे ?

हर शुक्रवार की तरह 25 जुलाई को भी मौलाना अब्दुल हलीम ने अपना गला साफ करते हुए मस्जिद में जमा लोगों को संबोधित करना शुरू किया. करीब दो बजे का वक्त था और इस मृदुभाषी आलिम (इस्लामिक विद्वान) ने अभी-अभी अहमदाबाद की एक मस्जिद में सैकड़ों लोगों को जुमे की नमाज पढ़वाई थी. अब वो खुतबा (धर्मोपदेश) पढ़ रहे थे जो पड़ोसियों के प्रति सच्चे मुसलमान की जिम्मेदारी के बारे में था. गंभीर स्वर में हलीम कहते हैं, “अगर तुम्हारा पड़ोसी भूखा हो तो तुम भी अपना पेट नहीं भर सकते. तुम अपने पड़ोसी के साथ हिंदू-मुसलमान के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकते.”

तीस घंटे बाद, शनिवार को 53 लोगों की मौत का कारण बने अहमदाबाद बम धमाकों के कुछ मिनटों के भीतर ही पुलिस मस्जिद से सटे हलीम के घर में घुस गई और भौचक्के पड़ोसियों के बीच उन्हें घसीटते हुए बाहर ले आई. पुलिस का दावा था कि हलीम धमाकों की एक अहम कड़ी हैं और उनसे पूछताछ के जरिये पता चल सकता है कि आतंक की इस कार्रवाई को किस तरह अंजाम दिया गया. पुलिस के इस दावे के आधार पर एक स्थानीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें दो हफ्ते के लिए अपराध शाखा की हिरासत में भेज दिया.

त्रासदी और आतंक के समय हर कोई जवाब चाहता है. हर कोई चाहता है कि गुनाहगार पकड़े जाएं और उन्हें सजा मिले. ऐसे में चुनौती ये होती है कि दबाव में आकर बलि के बकरे न ढूंढे जाएं. मगर दुर्भाग्य से सरकार इस चुनौती पर हर बार असफल साबित होती रही है. उदाहरण के लिए जब भी धमाके होते हैं सरकारी प्रतिक्रिया में सिमी यानी स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया का नाम अक्सर सुनने को मिलता है. ज्यादातर लोगों के लिए सिमी एक डरावना संगठन है जो घातक आतंकी कार्रवाइयों के जरिये देश को बर्बाद करना चाहता है.

मगर सवाल उठता है कि ये आरोप कितने सही हैं?

एक न्यायसंगत और सुरक्षित समाज बनाने के संघर्ष में ये अहम है कि असल दोषियों और सही जवाबों तक पहुंचा जाए और ईमानदारी से कानून का पालन किया जाए. इसके लिए ये भी जरूरी है कि झूठे पूर्वाग्रहों और बनी-बनाई धारणाओं के परे जाकर पड़ताल की जाए. इसीलिए तहलका ने पिछले तीन महीने के दौरान भारत के 12 शहरों में अपनी तहकीकात की. तहकीकात की इस श्रंखला की ये पहली कड़ी है.

हमने पाया कि आतंकवाद से संबंधित मामलों में, और खासकर जो प्रतिबंधित सिमी से संबंधित हैं, ज्यादातर बेबुनियाद या फिर फर्जी सबूतों पर आधारित हैं. हमने पाया कि ये मामले कानून और सामान्य बुद्धि दोनों का मजाक उड़ाते हैं.

इस तहकीकात में हमने पाया कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के पूर्वाग्रह, राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव और सनसनी का भूखा व आतंकवाद के मामले पर पुलिस की हर कहानी को आंख मूंद कर आगे बढ़ा देने वाला मीडिया, ये सारे मिलकर एक ऐसा तंत्र बनाते हैं जो सैकड़ों निर्दोष लोगों पर आतंकी होने का लेबल चस्पा कर देता है. इनमें से लगभग सारे मुसलमान हैं और सारे ही गरीब भी.

 हलीम का परिवार

हलीम का परिवार

अहमदाबाद के सिविल अस्पताल, जहां हुए दो धमाकों ने सबसे ज्यादा जानें लीं, का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना था, “हम इस चुनौती का मुकाबला करेंगे और मुझे पूरा भरोसा है कि हम इन ताकतों को हराने में कामयाब होंगे.” उन्होंने राजनीतिक पार्टियों, पुलिस और खुफिया एजेंसियों का आह्वान किया कि वे सामाजिक ताने-बाने और सांप्रदायिक सद्भावना को तहस-नहस करने के लिए की गई इस कार्रवाई के खिलाफ मिलकर काम करें. मगर निर्दोषों के खिलाफ झूठे मामलों के चौंकाने वाले रिकॉर्ड को देखते हुए लगता है कि अक्षम पुलिस और खुफिया एजेंसियां कर बिल्कुल इसका उल्टा रही हैं. मौलाना अब्दुल हलीम की कहानी इसका सुलगता हुआ उदाहरण है.

पिछले रविवार से ही मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उनमें पुलिस के हवाले से हलीम को सिमी का सदस्य बताया जा रहा है जिसके संबंध पाकिस्तान और बांग्लादेश स्थित आतंकवादियों से हैं.  गुजरात सरकार के वकील ने मजिस्ट्रेट को बताया कि आतंकवादी बनने का प्रशिक्षण देने के लिए हलीम मुसलमान नौजवानों को अहमदाबाद से उत्तर प्रदेश भेजा करते थे और इस कवायद का मकसद 2002 के नरसंहार का बदला लेना था. वकील के मुताबिक इन तथाकथित आतंकवादियों ने बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई दूसरे नेताओं को मारने की योजना बनाई थी. पुलिस का कहना था कि इस मामले में आरोपी नामित होने के बाद हलीम 2002 से ही फरार चल रहे थे.

इस मौलाना की गिरफ्तारी के बाद तहलका ने अहमदाबाद में जो तहकीकात की उसमें कई अकाट्य साक्ष्य निकलकर सामने आए हैं. ये बताते हैं कि फरार होने के बजाय हलीम कई सालों से अपने घर में ही रह रहे थे. उस घर में जो स्थानीय पुलिस थाने से एक किलोमीटर दूर भी नहीं था. वे एक सार्वजनिक जीवन जी रहे थे. मुसलमानों को आतंकवाद का प्रशिक्षण देने के लिए भेजने का जो संदिग्ध आरोप उन पर लगाया गया है उसका आधार उनके द्वारा लिखी गई एक चिट्ठी है. एक ऐसी चिट्ठी जिसकी विषयवस्तु का दूर-दूर तक आतंकवाद से कोई लेना-देना नजर नहीं आता.

दिलचस्प ये भी है कि शनिवार को हुए बम धमाकों से पहले अहमदाबाद पुलिस ने कभी भी हलीम को सिमी का सदस्य नहीं कहा था. ये बात जरूर है कि वह कई सालों से 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के पीड़ितों की मदद में उनकी भूमिका के लिए उन्हें परेशान करती रही है. हलीम के परिजन और अनुयायी ये बात बताते हैं. इस साल 27 मई को पुलिस थाने से एक इंस्पेक्टर ने हलीम को गुजराती में एक पेज का हस्तलिखित नोटिस भेजा. इसके शब्द थे, “मरकज-अहले-हदीस (इस्लामी पंथ जिसे हलीम और उनके अनुयायी मानते हैं) ट्रस्ट का एक दफ्तर आलीशान शॉपिंग सेंटर की दुकान नंबर चार में खोला गया है. आप इसके अध्यक्ष हैं…इसमें कई सदस्यों की नियुक्ति की गई है. आपको निर्देश दिया जाता है कि उनके नाम, पते और फोन नंबरों की सूची जमा करें.”

कानूनी नियमों के हिसाब से बनाए गए एक ट्रस्ट, जिसके खिलाफ कोई आपराधिक आरोप न हों, से की गई ऐसी मांग अवैध तो है ही, साथ ही इस चिट्ठी से ये भी साबित होता है कि पुलिस को दो महीने पहले तक भी सलीम के ठिकाने का पता था और वह उनसे संपर्क में थी. नोटिस में हलीम के घर—2, देवी पार्क सोसायटी का पता भी दर्ज है. तो फिर उनके फरार होने का सवाल कहां से आया. हलीम के परिवार के पास इस बात का सबूत है कि पुलिस को अगले ही दिन हलीम का जवाब मिल गया था.

एक महीने बाद 29 जून को हलीम ने गुजरात के पुलिस महानिदेशक और अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त को एक टेलीग्राम भेजा. उनका कहना था कि उसी दिन पुलिस जबर्दस्ती उनके घर में घुस गई थी और उनकी गैरमौजूदगी में उनकी पत्नी और बच्चों को तंग किया गया. हिंदी में लिखे गए इस टेलीग्राम के शब्द थे,“हम शांतिप्रिय और कानून का पालन करने वाले नागरिक हैं और किसी अवैध गतिविधि में शामिल नहीं रहे हैं. पुलिस गैरकानूनी तरीके से बेवजह मुझे और मेरे बीवी-बच्चों को तंग कर रही है. ये हमारे नागरिक अधिकारों का उल्लंघन है.”

जैसा कि संभावित था, उन्हें इसका कोई जवाब नहीं मिला. अप्रैल में जब सोशल यूनिटी एंड पीस फोरम नाम के एक संगठन, जिसके सदस्य हिंदू और मुसलमान दोनों हैं, ने एक बैठक का आयोजन किया तो लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत के लिए संगठन ने पुलिस को चिट्ठी लिखी. इस चिट्ठी में भी साफ जिक्र किया गया था कि बैठक में हलीम मुख्य वक्ता होंगे. ये साबित करने के लिए कि हलीम इस दौरान एक सामान्य जीवन जीते रहे हैं, उनका परिवार उनका वो ड्राइविंग लाइसेंस भी दिखाता है जिसका अहमदाबाद ट्रांसपोर्ट ऑफिस द्वारा 28 दिसंबर, 2006 को नवीनीकरण किया गया था. तीन साल पहले पांच जुलाई 2005 को दिव्य भास्कर नाम के एक गुजराती अखबार ने उत्तर प्रदेश के एक गांव की महिला इमराना के साथ उसके ससुर द्वारा किए गए बलात्कार के बारे में हलीम का बयान उनकी फोटो के साथ छापा था.

हलीम की रिहाई के लिए गुजरात के राज्यपाल से अपील करने वाले उनके मित्र हनीफ शेख कहते हैं, “ये आश्चर्य की बात है कि हमें मौलाना हलीम की बेगुनाही साबित करनी है.”  नाजिर, जिनके मकान में हलीम अपने परिवार के साथ किराये पर रहा करते थे, कहते हैं, “मैं मौलाना को सबसे करीब से जानता हूं. वे धार्मिक व्यक्ति हैं और उनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं रहा है.”  हलीम की पत्नी भी कहती हैं कि उनके पति आतंकवादी नहीं हैं और उन्हें फंसाया जा रहा है.

हलीम को जानने वालों में उनकी गिरफ्तारी को लेकर हैरत और क्षोभ है. 27 वर्षीय अहसान-उल-हक कहते हैं, “मौलाना हलीम ने सैकड़ों लोगों को सब्र करना और हौसला रखना सिखाया है.” ये साबित करने के लिए कि हलीम फरार नहीं थे, हक अपना निकाहनामा दिखाते हैं जो हलीम की मौजूदगी में बना था और जिस पर उनके हस्ताक्षर भी हैं.

 

यासिर की पत्नी सोफिया

उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले 43 वर्षीय अब्दुल हलीम 1988 से अहमदाबाद में रह रहे हैं. वे अहले हदीस नामक एक इस्लामी संप्रदाय के प्रचारक हैं जो इस उपमहाद्वीप में 180 साल पहले अस्तित्व में आया था. ये संप्रदाय कुरान के अलावा पैगंबर मोहम्मद द्वारा दी गई शिक्षाओं यानी हदीस को भी मुसलमानों के लिए मार्गदर्शक मानता है. सुन्नी कट्टरपंथियों से इसका टकराव होता रहा है.  मीडिया में लंबे समय से खबरें फैलाई जाती रही हैं कि अहले-हदीस एक आंतकी संगठन है जिसके लश्कर-ए-तैयबा से संबंध हैं. पुलिस दावा करती है कि इसके सदस्य 2006 में मुंबई में हुए ट्रेन धमाकों सहित कई आतंकी घटनाओं में आरोपी हैं. करीब तीन करोड़ अनुयायियों वाला ये संप्रदाय इन आरोपों से इनकार करता है और बताता है कि दो साल पहले जब इसने दिल्ली में अपनी राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की थी तो गृह मंत्री शिवराज पाटिल इसमें बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए थे.

14 साल तक अहमदाबाद में अहले हदीस के 5000 अनुयायियों का नेतृत्व करने के बाद हलीम तीन साल पहले इस्तीफा देकर एक छोटी सी मस्जिद के इमाम हो गए. अपनी पत्नी और सात बच्चों के परिवार को पालने के लिए उन्हें नियमित आय की दरकार थी और इसलिए उन्होंने कबाड़ का व्यवसाय शुरू किया.

हलीम की मुश्किलें 2002 की मुस्लिम विरोधी हिंसा के बाद तब शुरू हुईं जब वे हजारों मुस्लिम शरणार्थियों के लिए चलाए जा रहे राहत कार्यों में  शामिल हुए. उस दौरान शाहिद बख्शी नाम का एक शख्स दो दूसरे मुस्लिम व्यक्तियों के साथ उनसे मिलने आया था. कुवैत में रह रहा शाहिद अहमदाबाद का ही निवासी था. उसके साथ आए दोनों व्यक्ति उत्तर प्रदेश के थे जिनमें से एक फरहान अली अहमद कुवैत में रह रहा था. दूसरा व्यक्ति हाफिज़ मुहम्मद ताहिर मुरादाबाद का एक छोटा सा व्यापारी था. ये तीनों लोग 2002 की हिंसा में अनाथ हुए बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा और देखभाल का इंतजाम कर उनकी मदद करना चाहते थे. इसलिए हलीम उन्हें चार शरणार्थी कैंपों में ले गए. एक हफ्ते बाद एक कैंप से जवाब आया कि उसने ऐसे 34 बच्चों को खोज निकाला है जिन्हें इस तरह की देखभाल की जरूरत है. हलीम ने फरहान अली अहमद को फोन किया जो उस समय मुरादाबाद में ही था और उसे इस संबंध में एक चिट्ठी भी लिखी. मगर लंबे समय तक कोई जवाब नहीं आया और योजना शुरू ही नहीं हो पाई. महत्वपूर्ण ये भी है कि किसी भी बच्चे को कभी भी मुरादाबाद नहीं भेजा गया.

तीन महीने बाद अगस्त 2002 में दिल्ली पुलिस ने शाहिद और उसके दूसरे साथी को कथित तौर पर साढ़े चार किलो आरडीएक्स के साथ गिरफ्तार किया. मुरादाबाद के व्यापारी को भी वहीं से गिरफ्तार किया गया और तीनों पर आतंकी कार्रवाई की साजिश के लिए पोटा के तहत आरोप लगाए गए. दिल्ली पुलिस को इनसे हलीम की चिट्ठी मिली. चूंकि बख्शी और हलीम दोनों ही अहमदाबाद से थे इसलिए वहां की पुलिस को इस बारे में सूचित किया गया. तत्काल ही अहमदाबाद पुलिस के अधिकारी डी जी वंजारा(जो अब सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में जेल में हैं) ने हलीम को बुलाया और उन्हें अवैध रूप से हिरासत में ले लिया. घबराये परिवार ने उनकी रिहाई के लिए गुजरात हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की. उनके परिवार के वकील हाशिम कुरैशी याद करते हैं, “जज ने पुलिस को आदेश दिया कि वह दो घंटे के भीतर हलीम को कोर्ट में लाए.” पुलिस ने फौरन हलीम को रिहा कर दिया. वे सीधा कोर्ट गए और अवैध हिरासत पर उनका बयान दर्ज किया गया जो अब आधिकारिक दस्तावेजों का हिस्सा है.

जहां दिल्ली पुलिस ने उत्तर प्रदेश के दोनों व्यक्तियों और शाहिद बख्शी के खिलाफ आरडीएक्स रखने का मामला दर्ज किया वहीं अहमदाबाद पुलिस ने  इन तीनों के खिलाफ मुस्लिम युवाओं को मुरादाबाद में आतंकी प्रशिक्षण देने के लिए फुसलाने का मामला बनाया. अहमदाबाद के धमाकों के बाद पुलिस और मीडिया इसी मामले का हवाला देकर हलीम पर मुस्लिम नौजवानों को आतंकी प्रशिक्षण देने का आरोप लगा रहे हैं. हलीम द्वारा तीस नौजवानों को प्रशिक्षण के लिए मुरादाबाद भेजने की बात कहते वक्त गुजरात सरकार के वकील सफेद झूठ बोल रहे थे. जबकि मामले में दाखिल आरोपपत्र भी किसी को अहमदाबाद से मुरादाबाद भेजने की बात नहीं करता.

दिल्ली में दर्ज मामले में जहां हलीम को गवाह नामित किया गया तो वहीं अहमदाबाद के आतंकी प्रशिक्षण वाले मामले में उन्हें आरोपी बनाकर कहा गया कि वो भगोड़े हैं. कानून कहता है कि किसी को भगोड़ा साबित करने की एक निश्चित प्रक्रिया होती है. इसमें गवाहों के सामने घर और दफ्तर की तलाशी ली जाती है और पड़ोसियों के बयान दर्ज किए जाते हैं जो बताते हैं कि संबंधित व्यक्ति काफी समय से देखा नहीं गया है. मगर अहमदाबाद पुलिस ने ऐसा कुछ नहीं किया. हलीम के खिलाफ पूरा मामला उस पत्र पर आधारित है जो उन्होंने सात अगस्त 2002 को फरहान को लिखा था. इस पत्र में गैरकानूनी जैसा कुछ भी नहीं है. ये एक जगह कहता है, “आप यहां एक अहम मकसद से आए थे.”  कल्पना की उड़ान भर पुलिस ने दावा कर डाला कि ये अहम मकसद आतंकी प्रशिक्षण देना था. हलीम ने ये भी लिखा था कि कुल बच्चों में से छह अनाथ हैं और बाकी गरीब हैं. पत्र ये कहते हुए समाप्त किया गया था, “मुझे यकीन है कि अल्लाह के फज़ल से आप यकीनन इस्लाम को फैलाने के इस शैक्षिक और रचनात्मक अभियान में मेरी मदद करेंगे.”  आरडीएक्स मामले में दिल्ली की एक अदालत के सामने हलीम ने कहा था कि उनसे कहा गया था कि मुरादाबाद में बच्चों को अच्छी तालीम और जिंदगी दी जाएगी. उन्हें ये पता नहीं था कि बख्शी और दूसरे लोग बच्चों को आतंकी प्रशिक्षण देने की सोच रहे हैं.

पिछले साल दिल्ली की एक अदालत ने “आरडीएक्स मामले” में बख्शी और फ़रहान को दोषी करार दिया और उन्हें सात-सात साल कैद की सज़ा सुनाई. बावजूद इसके कि तथाकथित आरडीएक्स की बरामदगी के चश्मदीद सिर्फ पुलिस वाले ही थे, कोर्ट ने पुलिस के ही आरोपों को सही माना. फरहान का दावा था कि उसे हवाई अड्डे से तब गिरफ्तार किया गया था जब वो कुवैत की उड़ान पकड़ने जा रहा था और उसके पास इसके सबूत के तौर पर टिकट भी थे. लेकिन अदालत ने इसकी अनदेखी की.

 

यासिर 

बख्शी और फरहान ने इस सज़ा के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की जिसने निचली अदालत द्वारा दोषी करार देने के बावजूद उन्हें ज़मानत दे दी. वहीं गुजरात हाई कोर्ट ने उन्हें “आतंकी प्रशिक्षण” मामले में  ज़मानत देने से इनकार कर दिया जबकि उन पर आरोप सिद्ध भी नहीं हुआ था. गुजरात क्राइम ब्रांच भी ये मानती है कि इस मामले में उनका अपराध सिर्फ षडयंत्र रचने तक ही सीमित हो सकता है.

सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता. मुरादाबाद के ताहिर को आरडीएक्स मामले में बरी कर दिया गया था. वो एक बार फिर तब भाग्यशाली रहा जब गुजरात हाई कोर्ट ने जून 2004 में उसे आतंकवाद प्रशिक्षण मामले में ज़मानत दे दी. अदालत का कहना था, “वर्तमान आरोपी के खिलाफ कुल मिलाकर सिर्फ इतना ही प्रमाण है कि वो अहमदाबाद आया था और कैंप का चक्कर भी लगाया था, ताकि उन बच्चों की पहचान कर सके और उनकी देख रेख अच्छे तरीके से हो सके और इसे किसी तरह का अपराध नहीं माना जा सकता.”

बख्शी और फरहान पर भी बिल्कुल यही आरोप थे, लिहाजा ये तर्क उन पर भी लागू होना चाहिए. लेकिन गुजरात हाई कोर्ट के एक अन्य जज ने उन्हें ज़मानत देने से इनकार कर दिया और दोनों को जेल में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस बीच ताहिर अहमदाबाद आकर रहने लगा क्योंकि गुजरात हाई कोर्ट ने उसकी ज़मानत के फैसले में ये आदेश दिया था कि उसे हर रविवार को अहमदाबाद क्राइम ब्रांच ऑफिस में हाजिरी देनी होगी. 26 जुलाई को हुए धमाकों के बाद अगली सुबह रविवार के दिन डरा सहमा ताहिर अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के ऑफिस पहुंचा. ताहिर ने तहलका को बताया, “उन्होंने चार घंटे तक मुझसे धमाके के संबंध में सवाल जवाब किए. उस वक्त मुझे बहुत खुशी हुई जब उन्होंने मुझे जाने के लिए कहा.” आतंकी प्रशिक्षण मामले की सुनवाई लगभग खत्म हो चुकी है. अब जबकि हलीम भगोड़े नहीं रहे तो ये बात देखने वाली होगी कि उसके खिलाफ इस मामले में अलग से सुनवाई होती है या नहीं. इस बीच हलीम के परिवार को खाने और अगले महीने घर के 2500 रूपए किराए की चिंता सता रही है। हलीम की पत्नी बताती है है कि उनके पास कोई बचत नहीं है. हलीम की कबाड़ की दुकान उनका नौकर चला रहा है.

दुखद बात ये है कि मौलाना अब्दुल हलीम की कहानी कोई अकेली नहीं है. 15 जुलाई की रात हैदराबाद में अपने पिता के वर्कशॉप से काम करके वापस लौट रहे मोहम्मद मुकीमुद्दीन यासिर को सिपाहियों के एक दल ने गिरफ्तार कर लिया. दस दिन बाद 25 जुलाई को जब बंगलोर में सीरियल धमाके हुए, जिनमें दो लोगों की मौत हो गई, तो हैदराबाद के पुलिस आयुक्त प्रसन्ना राव ने हिंदुस्तान टाइम्स को एक नयी बात बताई. उनके मुताबिक पूछताछ के दौरान यासिर ने ये बात स्वीकारी थी कि गिरफ्तारी से पहले वो आतंकियों को कर्नाटक ले गया था और वहां पर उसने उनके लिए सुरक्षित ठिकाने की व्यवस्था की थी. मगर जेल में उससे मिलकर लौटीं उसकी मां यासिर के हवाले से तहलका को बताती हैं कि पुलिस झूठ बोल रही है, और पुलिस आयुक्त जिसे पूछताछ कह रहे हैं असल में उसके दौरान उनके बेटे को कठोर यातनाएं दी गईं. वो कहती हैं, “उसे उल्टा लटका कर पीटा जा रहा था.”

हालांकि पुलिस के सामने दिये गए बयान की कोई अहमियत नहीं फिर भी अगर इसे सच मान भी लें तो ये हैदराबाद पुलिस के मुंह पर एक ज़ोरदार तमाचा होगा. आखिर यासिर सिमी का पूर्व सदस्य था, उसके पिता और एक भाई आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद हैं. उसके पिता की जमानत याचिका सुप्रीम कोर्ट तक से खारिज हो चुकी है. ये जानते हुए कि उसके भाई और बाप खतरनाक आतंकवादी हैं हैदराबाद पुलिस को हर वक्त उसकी निगरानी करनी चाहिए थी, और जैसे ही वो आतंकियों के संपर्क में आया उसे गिरफ्तार करना चाहिए था.

पुलिस ने न तो यासिर के बयान पर कोई ज़रूरी कार्रवाई की जिससे बैंगलुरु का हमला रोका जा सकता और न ही वो यासिर द्वारा कर्नाटक में आतंकियों को उपलब्ध करवाया गया सुरक्षित ठिकाना ही ढूंढ़ सकी. इसकी वजह शायद ये रही कि उसने ऐसा कुछ किया ही नहीं था. तहलका संवाददाता ने हैदराबाद में यासिर की गिरफ्तारी के एक महीने पहले 12 जून को उससे मुलाकात की थी. उस वक्त यासिर अपने पिता द्वारा स्थापित वर्कशॉप में काम कर रहा था. उसका कहना था, “मेरे पिता और भाई को फंसाया गया है.”

ऐसा लगता है कि अंतर्मुखी यासिर फर्जी मामलों का शिकार हुआ है. 27 सितंबर 2001 को सिमी पर प्रतिबंध लगाए जाने के वक्त वो सिमी का सदस्य था. (तमाम सरकारी प्रचार के बावजूद देश की किसी अदालत ने अभी तक एक संगठन के रूप में सिमी को आंतकवाद से जुड़ा घोषित नहीं किया है) यासिर ने देश भर में फैले उन कई लोगों की बातों को ही दोहराया जिनसे तहलका ने मुलाकात की थी. उसने कहा कि सिमी एक माध्यम था जो धर्म में गहरी आस्था और आत्मशुद्धि का प्रशिक्षण देता था और इसका आतंकवाद या फिर भारत विरोधी साजिशों से कोई नाता नहीं था। “सिमी चेचन्या से लेकर कश्मीर तक मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों की बात करता था”, यासिर ने बताया. “उसने कभी भी बाबरी मस्जिद का मुद्दा नही छेड़ा और इसी चीज़ ने हमें सिमी की तरफ आकर्षित किया”, वो आगे कहता है.

 

मौलाना नसीरुद्दीन

सिमी पर जिस दिन प्रतिबंध लगाया गया था उसी रात हैदराबाद में यासिर और सिमी के कई प्रतिनिधियों को ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. अगले दिन उन्हें ज़मानत मिल गई. एक दिन बाद ही पुलिस ने तीन लोगों को सरकार के खिलाफ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. दो लोगों को फरार घोषित कर दिया गया जिनमें यासिर भी शामिल था. उन्होंने कोर्ट में आत्मसमर्पण किया और उन्हें जेल भेज दिया गया. यहां यासिर को 29 दिनों बाद ज़मानत मिली. इस मामले में सात साल बीत चुके हैं, लेकिन सुनवाई शुरू होनी अभी बाकी है.

यासिर के पिता की किस्मत और भी खराब है. इस तेज़ तर्रार मौलाना की पहचान सरकार के खिलाफ ज़हर उगलने वाले के रूप में थी, विशेषकर बाबरी मस्जिद और 2002 के गुजरात दंगो के मुद्दे पर इनके भाषण काफी तीखे होते थे. तमाम फर्जी मामलों में फंसाए गए मौलाना को हैदराबाद पुलिस ने नियमित रूप से हाजिरी देने का आदेश दिया था.

इसी तरह अक्टूबर 2004 को जब मौलाना पुलिस में हाजिरी देने पहुंचे तो अहमदाबाद से आयी एक पुलिस टीम ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनके ऊपर गुजरात में आतंकवादी साजिश रचने और साथ ही 2003 में गुजरात के गृह मंत्री हरेन पांड्या की हत्या की साजिश रचने का आरोप था।

मौलाना के साथ पुलिस स्टेशन गए स्थानीय मुसलमानों ने वहीं पर इसका विरोध करना शुरू कर दिया। इस पर गुजरात पुलिस के अधिकारी नरेंद्र अमीन ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर निकाल कर फायर कर दिया जिसमें एक प्रदर्शनकारी की मौत हो गई। इसके बाद तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा। नसीरुद्दीन के समर्थकों ने अमीन के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग को लेकर मृत शरीर को वहां से ले जाने से इनकार कर दिया। अंतत: हैदराबाद पुलिस ने दो एफआईआर दर्ज कीं। एक तो मौलाना की गिरफ्तारी का विरोध करने वालों के खिलाफ और दूसरी अमीन के खिलाफ।

अमीन के खिलाफ दर्ज हुआ मामला चार साल में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा है। हैदराबाद पुलिस को उनकी रिवॉल्वर जब्त कर मृतक के शरीर से बरामद हुई गोली के साथ फॉरेंसिक जांच के लिए भेजना चाहिए था। उन्हें अमीन को गिरफ्तार करके मजिस्ट्रेट के सम्मुख पेश करना चाहिए था। अगर गोली का मिलान उनके रिवॉल्वर से हो जाता तो इतने गवाहों की गवाही के बाद ये मामला उसी समय खत्म हो जाता। पर ऐसा कुछ नहीं किया गया।

अमीन, मौलाना नसीरुद्दीन को साथ लेकर अहमदाबाद चले गए और उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर फाइलों में दब कर रह गई। अमीन ही वो पुलिस अधिकारी हैं जिनके ऊपर कौसर बी की हत्या का आरोप है। कौसर बी गुजरात के व्यापारी सोहराबुद्दीन की बीवी थी जिसकी हत्या के आरोप में गुजरात पुलिस के अधिकारी वंजारा जेल में है। अमीन भी अब जेल में हैं।

इस बीच अमीन के खिलाफ हैदराबाद शूटआउट मामले में शिकायत दर्ज करने वाले नासिर के साथ हादसा हो गया। नासिर मौलाना नसीरुद्दीन का सबसे छोटा बेटा और यासिर का छोटा भाई है। इसी साल 11 जनवरी को कर्नाटक पुलिस ने नासिर को उसके एक साथी के साथ गिरफ्तार कर लिया। जिस मोटरसाइकिल पर वो सवार थे वो चोरी की थी। पुलिस के मुताबिक उनके पास से एक चाकू भी बरामद हुआ था। पुलिस ने उनके ऊपर ‘देशद्रोह’ का मामला दर्ज किया।

आश्चर्यजनक रूप से पुलिस ने अगले 18 दिनों में दोनों के 7 कबूलनामें अदालत में पेश किए। इनमें से एक में भी इस बात का जिक्र नहीं था कि वो सिमी के सदस्य थे। इसके बाद पुलिस ने आठवां कबूलनामा कोर्ट में पेश किया जिसमें कथित रूप से उन्होंने सिमी का सदस्य होना और आतंकवाद संबंधित आरोपों को स्वीकार किया था। 90 दिनों तक जब पुलिस उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल करने में नाकाम रही तो नासिर का वकील मजिस्ट्रेट के घर पहुंच गया, इसके बाद क़ानून के मुताबिक उसे ज़मानत देने के अलावा और कोई चारा नहीं था। लेकिन तब तक पुलिस ने नासिर के खिलाफ षडयंत्र का एक और मामला दर्ज कर दिया और इस तरह से उसकी हिरासत जारी रही। इस दौरान यातनाएं देने का आरोप लगाते हुए उसने पुलिस द्वारा पेश किए गए कबूलनामों से इनकार कर दिया।

दोनों को पुलिस हिरासत में भेजने वाले मजिस्ट्रेट बी जिनाराल्कर ने तहलका को एक साक्षात्कार में बताया:

“जब मैं उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजने के लिए जरूरी कागजात पर दस्तखत कर रहा था तभी अब्दुल्ला (दूसरा आरोपी) मेरे पास आकर मुझसे बात करने की विनती करने लगा।” उसने मुझे बताया कि पुलिस उसे खाना और पानी नहीं देती है और बार-बार पीटती है। वो नासिर के शरीर पर चोटों के निशान दिखाने के लिए बढ़ा। दोनों लगातार मानवाधिकारों की बात कर रहे थे और चिकित्सकीय सुविधा मांग रहे थे”।

“मुझे तीन बातों से बड़ी हैरानी हुई—वो अपने मूल अधिकारों की बात बहुत ज़ोर देकर कर रहे थे। वो अंग्रेज़ी बोल रहे थे और इस बात को मान रहे थे कि उन्होंने बाइक चुराई थी। मेरा अनुभव बताता है कि ज्यादातर चोर ऐसा नहीं करते हैं।”

जब एक पुलिस सब इंस्पेक्टर ने मजिस्ट्रेट को फोन करके उन्हें न्यायिक हिरासत में न भेजने की चेतावनी दी तब उन्होंने सबसे पहले सबूत अपने घर पर पेश करने को कहा। “उन्होंने मेरे सामने जो सबूत पेश किए उनमें फर्जी पहचान पत्र, एक डिजाइनर चाकू, दक्षिण भारत का नक्शा जिसमें उडुपी और गोवा को चिन्हित किया गया था, कुछ अमेरिकी डॉलर, कागज के दो टुकड़े थे जिनमें एक पर www.com और दूसरे पर ‘जंगल किंग बिहाइंड बैक मी’ लिखा हुआ था।

जब मैंने इतने सारे सामानों को एक साथ देखा तो मुझे लगा कि ये सिर्फ बाइक चोर नहीं हो सकते। बाइक चोर को फर्जी पहचान पत्र और दक्षिण भारत के नक्शे की क्या जरूरत? उनके पास मौजूद अमेरिकी डॉलर से संकेत मिल रहा था कि उनके अंतरराष्ट्रीय संपर्क हैं। कागज पर www.com से मुझे लगा कि वे तकनीकी रूप से दक्ष भी हैं। दूसरे कागज पर लिखा संदेश मुझे कोई कूट संकेत लगा जिसका अर्थ समझने में मैं नाकाम रहा। इसके अलावा जब मैंने दक्षिण भारत के नक्शे का मुआयना शुरू किया तो उडुपी को लाल रंग से चिन्हित किया गया था। शायद उनकी योजना एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान उडुपी में हमले की रही हो।”

“मुझे लगा कि इतने सारे प्रमाण नासिर और अब्दुल्ला को पुलिस हिरासत जांच को आगे बढ़ाने के वास्ते हिरासत में भेजने के लिए पर्याप्त हैं।”

तो क्या मौलाना हलीम, मुकीमुद्दीन यासिर, मौलाना नसीरुद्दीन, और रियासुद्दीन नासिर के लिए कोई उम्मीद है?  यासिर और नासिर की मां को कोई उम्मीद नहीं है। वे गुस्से में कहती हैं, “क्यों नहीं पुलिस हम सबको एक साथ जेल में डाल देती है।” फिर गुस्से से ही कंपकपाती आवाज़ कहती है, “और फिर वो हम सबको गोली मार कर मौत के घाट उतार दें।”