विश्व भर और देश में जो आर्थिक हालात हैं उसकी वजह से आज उन्हें तरह-तरह की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ रहा है. शोमा चौधरी और शांतनु गुहा रे के साथ बातचीत में वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने चिरपरिचित आक्रामक स्पष्टता के साथ अपनी बातें रखीं .
शांतनु: शुरुआत उस मुद्दे से करते हैं जो सबसे ज्यादा सुर्खियों में है. थोक मूल्य आधारित मुद्रास्फीति की दर 7.83 फीसदी पर जा पहुंची है. क्या सरकार इससे चिंतित है खासकर तब जब इसके प्रति लोगों की सहनशक्ति में गिरावट आई है?
मैं पहले भी कई बार ये बात कह चुका हूं. 70 और 80 के दशक में औसत मुद्रास्फीति की दर आठ फीसदी से ज्यादा ही थी. 50 और 60 के दशक में तो ये आंकड़ा इससे भी अधिक होता था. मगर 90 के बाद इसके प्रति लोगों की सहनशक्ति के स्तर में काफी गिरावट आई. मुझे लगता है कि अब ये स्तर 4-5 फीसदी है. इसलिए ‘मुद्रास्फीति की दर पांच के पार’ हेडलाइन छपते ही राजनीतिक पार्टियां इसे मौके की तरह इस्तेमाल कर सरकार की लानत-मलानत करने लगती हैं. हम हालात पर काबू पाने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं पर मुझे नहीं लगता कि हमारी सरकार पर इसका कोई खास प्रतिकूल असर पड़ेगा.
शांतनु: विकास की बात करते हैं. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने हाल ही में कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था ‘ओवरहीटिंग’ के कगार पर खड़ी है. क्या आपको लगता है कि तेज आर्थिक विकास के उलटे परिणाम भी हो सकते हैं?
‘ओवरहीटिंग’ क्या है? ‘ओवरहीटिंग’ की स्थिति तब पैदा होती है जब मांग क्षमताओं से कहीं ज्यादा बढ़ जाए. एक अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में ऐसा हो सकता है. मगर जहां तक भारत का सवाल है तो मुझे नहीं लगता कि मांग क्षमता से ज्यादा है. मसलन हमारे यहां इस्पात की मांग है मगर हम इसका निर्यात भी करते हैं. यही बात सीमेंट और चावल पर भी लागू होती है. कुछ ऐसे क्षेत्र जरूर हैं जिनमें कृत्रिम मांग के बुलबुले उभर आए हैं मसलन रियल एस्टेट और शेयर बाजार मगर इस बात से मैं सहमत नहीं हूं कि भारतीय अर्थव्यवस्था को ‘ओवरहीटिंग’ का खतरा है. मुझे लगता है कि हमारी अर्थव्यवस्था में अब भी पहले से तेज विकास दर के साथ बढ़ने की क्षमता है. भारतीय अर्थव्यवस्था में ‘ओवरहीटिंग’ के खतरे पर बहस करने का परिणाम विकास दर के घटने के रूप में सामने आयेगा और भारत के लिए इसके परिणाम विनाशकारी होंगे.
शोमा: अपने एक बजट भाषण में आपने तीन ऐसे क्षेत्रों के बारे में कहा था जिन पर ध्यान देने की जरूरत है—विकास, समानता और सामाजिक न्याय. पहले की सफलता की तो पूरी दुनिया में चर्चा है. मगर बाकी दो की स्थिति पर क्या आपको चिंता होती है?
हर चीज का एक संदर्भ होता है. गरीबी का अविष्कार यूपीए सरकार ने नहीं किया. न ही आप ये कह सकते हैं कि 2004 से पहले भारत में सब कुछ बढ़िया था और गरीबी की समस्या आज ही हमारे सामने आई है. गरीबी इस देश में 5000 सालों से है. इसके अलावा बच्चों की शिक्षा और उनके स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं भी काफी समय से हमारे देश में मौजूद रही हैं. मुद्दा ये है कि क्या हमारी नीतियां इस स्थिति में कुछ परिवर्तन ला पाई हैं? साफ देखा जा सकता है कि हालात पहले से बेहतर हुए हैं. प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है. स्कूल बीच में ही छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या धीरे ही सही पर गिर रही है. नौकरियां बढ़ रही हैं. इस संदर्भ में देखा जाए तो हमारी नीतियां स्पष्ट रूप से विकास और समानता समर्थक रही हैं. पर यदि पूछा जाए कि क्या हम एक ऐसे बिंदु तक पहुंच गए हैं जहां हम सबकी भागीदारी वाले विकास की रफ्तार से संतुष्ट हैं तो मैं बेबाकी से कहूंगा कि नहीं. बेशक हमारी विकास दर प्रभावशाली है मगर उसमें सबकी भागीदारी की रफ्तार बहुत धीमी है. अगर हमारे पास एक बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था होती, गरीबों तक फायदे पहुंचाने के लिए एक बेहतर और जिम्मेदार व्यवस्था होती तो हम इस विकास के फायदे कहीं ज्यादा लोगों तक पहुंचा सकते थे.
मैं आपको सिर्फ एक उदाहरण देता हूं. सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को लीजिए. 2004 के बाद हमने इस व्यवस्था के तहत पिछले वर्षों के मुकाबले 70 लाख टन ज्यादा खाद्यान्न बांटने का प्रबंध किया. इसका परिणाम और भी ज्यादा लोगों तक खाद्यान्न पहुंचने के रूप में सामने आना चाहिए था. मगर लीकेज यानी रिसाव की बहुत अधिक दर, जो कि कई साल से 35-36 फीसदी पर अटकी हुई है, के चलते ये धारणा बन गई है कि ये व्यवस्था ढह चुकी है और लोगों में इसके प्रति नाराजगी बढ़ी है.
शोमा: जब आप अर्थव्यवस्था में आमूलचूल बदलाव ला चुके हैं तो क्या इन क्षेत्रों की दशा सुधारने के लिए भी ऐसा ही नहीं किया जा सकता?
बिल्कुल किया जा सकता है. अपने पहले बजट में मैंने कहा था कि हमें स्मार्ट कार्ड आधारित सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को अपनाना होगा. हरियाणा और चंडीगढ़ को छोड़कर किसी ने इसके प्रति दिलचस्पी नहीं दिखाई. इस दिशा में काम की रफ्तार धीमी है मगर कम से कम इसकी शुरुआत तो हो ही चुकी है. काफी पहले मैंने ये भी कहा था कि खाद सब्सिडी सीधे किसानों को दी जानी चाहिए. खाद मंत्रालय को ये विचार पसंद नहीं आया. इसलिए कई मामलों में हम पुराने और बिगड़े हुए ढर्रे पर सिर्फ इसलिए चल रहे हैं क्योंकि हम लोगों को इसके लिए तैयार नहीं कर पाते.
शोमा: विरोध की वजह क्या है?
नई व्यवस्था के साथ हमेशा एक असंभावना जुड़ी होती है. ये सफल भी हो सकती है और असफल भी. दरअसल देखा जाए तो कई अच्छे लोग भी इसका विरोध महज असफलता के डर की वजह से करते हैं. उनके डर कुछ ऐसे होते हैं—अगर फर्टिलाइजर्स सीधे किसान तक नहीं पहुंचे तो क्या होगा, अगर वितरण व्यवस्था में कोई मुश्किल पैदा हो गई तो क्या होगा, हमारे देश में भुखमरी फैल जाएगी वगैरह वगैरह. मगर असली बाधा ये है कि दरअसल कोई भी अपनी सरपरस्ती छोड़ना नहीं चाहता. जरूरी नहीं है कि इस शब्द को निंदात्मक अर्थों में ही लिया जाए. सरपरस्ती भ्रष्टाचार और बेईमानी के बिना भी हो सकती है मगर चूंकि लोग इसे खोना नहीं चाहते इसलिए पुरानी व्यवस्था चलती जा रही है.
शांतनु: प्रधानमंत्री कॉर्पोरेट जगत को समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की सलाह देते रहे हैं. आपने भी विकलांगों को रोजगार देने पर कंपनियों को बडे़ फायदे देने की बात कही है. मगर सवाल ये है कि ऐसा अपने आप क्यों नहीं होता. कॉर्पोरेट जगत को उसकी सामाजिक जिम्मेदारियां निभाने के लिए तैयार करने की कीमत सरकार क्यों चुकाए?
ऐसा अपने आप कब और कहां होता है? अमेरिकी कॉर्पोरेट जगत में अश्वेत लंबे समय तक नौकरियों से वंचित रहे. आपने कल ही सेंट्रल बैंक की प्रबंधनिदेशक एच ए दारूवाला को टीवी पर बोलते सुना होगा कि 1972 में जब वो नौकरी ढूंढ रहीं थीं तो हर व्यापारिक घराने ने ये कहकर उन्हें लौटा दिया कि आप बहुत योग्य हैं पर हम किसी पुरुष को प्राथमिकता देंगे. आप देख सकते हैं कि ऐसा कभी भी अपने आप नहीं होता. आमतौर पर लोग विकलांगों को नौकरियों पर नहीं रखते. हमें उन्हें इसके लिए मनाना होगा. यही वजह है कि हमने विकलांगों को नौकरियां देने वाली कॉर्पोरेट कंपनियों के लिए खास फायदों का एलान किया है.
शोमा: आज धारणा ये बन चुकी है कि सरकार की नीतियां पूरी तरह से कॉर्पोरेट जगत के पक्ष में झुकी हुई हैं. सामाजिक क्षेत्र में खर्च कम कर कॉर्पोरेट सेक्टर को इतनी सारी सुविधाएं देने का मकसद क्या है? अगर ये सब मुक्त और प्रतिस्पर्द्धायुक्त बाजार निर्मित करने के लिए है तो फिर विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज़), टैक्स हॉलीडे और भूमि अधिग्रहण क्यूं?
आपके कहे को दुरुस्त करने के लिए मैं आपको बता रहा हूं कि हम सामाजिक क्षेत्र में खर्च को नहीं घटा रहे हैं. आंकड़े बताते हैं कि हमने इस खर्च में काफी बढ़ोतरी की है.
शोमा: शायद बीजेपी की तुलना में मगर…
नहीं, आप सही नहीं कह रहीं. शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, स्वच्छता—इन सभी चीजों पर जितनी राशि खर्च हो रही है उतनी भारत के इतिहास में पहले कभी खर्च नहीं हुई. आपने सेज़ का जिक्र किया मगर मैं उसका जवाब नहीं देना चाहूंगा क्योंकि मैं सरकार की नीतियों से बंधा हुआ हूं.
शोमा: चीन की बात करें तो वहां केवल छह सेज़ हैं. मगर हमारे यहां बोर्ड ऑफ कंट्रोल ने अपनी पहली ही बैठक में 200 से भी ज्यादा ऐसे क्षेत्रों को मंजूरी दे दी. मैं जानती हूं कि व्यक्तिगत तौर पर आप सोचते हैं कि…
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं क्या सोचता हूं. हम ऑफ द रिकॉर्ड बात नहीं कर रहे और मैं इसके बारे में बात नहीं करना चाहता क्योंकि मैं सरकार की नीतियों से बंधा हुआ हूं. जिस तरह से इस नीति को आगे बढ़ाया जा रहा है उससे कई लोगों को चिंताएं हो रही हैं. और संबंधित मंत्रियों के समूह को इस पर विचार करने के लिए कहा गया है. इसमें मेरी उम्मीद से ज्यादा ही वक्त लग रहा है मगर आशा है कि सेज़ के बारे में जो चिंताए व्यक्त की गई हैं उन्हें दूर किया जाएगा.
शोमा: भारत के लिए विकास का ये अवसर ऐसे समय पर आया है जब हम दूसरे देशों की गलतियों से सीख सकते हैं, जब हम पर्यावरण, जलवायु बदलाव आदि जैसे मुद्दों पर नई तरह से सोच सकते हैं. क्या जरूरी है कि हम विकास का वही रास्ता अपनाएं और वही गलतियां करें? क्या हमारा रास्ता अलग नहीं हो सकता?
कुछ हद तक, पर विकसित देशों के इन तर्कों से ज्यादा मुग्ध होने की जरूरत नहीं है कि विकसित होने की प्रक्रिया में जिन नए विचार और संकल्पनाओं का इस्तेमाल वो नहीं कर पाए उनका इस्तेमाल हमें करना चाहिए. हम उन देशों में से हैं जिनका उत्सर्जन सबसे कम है.
शोमा: मगर ये इसलिए कम है क्योंकि हम अभी अपनी औद्योगीकरण प्रक्रिया की चोटी तक नहीं पहुंचे हैं.
हमने पेशकश की है कि हमारा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विकसित देशों की तुलना में कम होगा. दरअसल हमने तो विकसित देशों को चुनौती दी है कि वे अपना प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कम करें और हमारा वादा है कि हम अपना उत्सर्जन उससे भी कम रखेंगे. हमारा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन ज्यादातर विकसित देशों के उत्सर्जन का मात्र बीसवां हिस्सा ही है. इसलिए हमें विकसित देशों के तर्कों से ज्यादा प्रभावित होने की जरूरत नहीं है. अपने हित में हमने फैसला किया है कि हम ऐसी नीतियां और योजनाएं अपनाएंगे जिससे उत्सर्जन कम रहे और कुछ समय के बाद इसकी दर और भी कम होती जाए मगर इससे हमारी विकास दर पर कोई नकारात्मक असर न पड़े. हमें भी विकसित देशों की तरह तरक्की करने का अधिकार है. कभी उनका मौका था. अब हमारा है.
शोमा: पर हमारी औद्योगिक परियोजनाओं और शहरों में पर्यावरण और मानवीय पहलुओं की अनदेखी की जाती है. क्या विकास की इस कहानी में जीवन की गुणवत्ता भी एक महत्वपूर्ण कारक नहीं होना चाहिए? फ्रांस सकल घरेलू उत्पाद को फिर से परिभाषित कर रहा है. वहां इसमें ‘खुशहाली’ को भी शामिल किया जा रहा है.
हां, मगर तभी जब आप सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति आय के एक निश्चित स्तर तक पहुंच जाएं.
शोमा: मुद्दा यही है. हम पहले मुश्किल तक पहुंचेंगे और फिर उसका समाधान ढूंढेंगे.
गरीबी प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक है. गरीब सबसे गंदी दुनिया में रहते हैं. उनकी दुनिया में सफाई, पेयजल, आवास, हवा…जैसी चीजें नारकीय अवस्था में होती हैं. हर चीज प्रदूषणयुक्त होती है. इसलिए मैंने कहा कि सबसे ज्यादा प्रदूषण गरीबी फैलाती है. ये हमारा अधिकार और कर्तव्य है कि पहले गरीबी को हटाया जाए. इस प्रक्रिया में हम उन चिंताओं के प्रति संवेदनशील रहेंगे जो दूसरे देशों द्वारा व्यक्त की गई हैं. मगर ऐसा हम विकास और अपने जीवनकाल में गरीबी को जड़ से मिटाने के मकसद की कीमत पर नहीं करेंगे.
शोमा: चिंता की बात ये है कि जो आप कह रहे हैं जमीनी स्तर पर उसका ठीक उल्टा हो रहा है. पॉस्को या फिर वेदांता परियोजना को ही लीजिए. औद्योगीकरण की सबसे ज्यादा मार गरीबों पर ही पड़ी है. हमारे देश में सबसे ज्यादा उथल-पुथल उन्हीं विकास परियोजनाओं पर मच रही है जो जनविरोधी हैं. भूमि अधिग्रहण, संसाधनों को छीनने और हवा-पानी के प्रदूषण के मुद्दे पर विवाद पैदा हो रहे हैं. ये वही चीजें हैं जिनकी आपने बात की है यानी हवा, पानी, बुनियादी स्वास्थ्य और आवास व्यवस्था. जिस विकास का मकसद गरीबी हटाना था वो गरीबों की मुश्किलें और बढ़ा रहा है. क्या आप इसे स्वाभाविक बात कहेंगे या फिर ये मानेंगे कि जिस तरीके से हम आगे बढ़ रहे हैं वो गलत है?
मेरे हिसाब से लोगों को छलावे में रखकर ये यकीन दिलाया जा रहा है कि जिंदगी के मौजूदा हालात आदर्श हालात हैं और विकास व औद्योगीकरण इन्हें बदतर कर देंगे. यहां हम खूब बहस करते हैं कि स्टील की कीमतें ऊपर जा रही हैं. मगर दूसरी तरफ हमने तीन साल से दुनिया के सबसे बड़े इस्पात निर्माता को भारत में इस्पात संयंत्र लगाने से रोक रखा है. ये एक साजिश है कि गरीब लोग गरीब ही रहें. हम जीवन की किस गुणवत्ता की बात कर रहे हैं? उनके पास खाना नहीं है, नौकरियां नहीं हैं, शिक्षा नहीं है, पेयजल नहीं है. उड़ीसा के ये जिले तब से गरीब हैं जब से दुनिया बनी होगी. वे घोर गरीबी में जी रहे हैं और आप चाहती हैं कि मैं मान जाऊं कि अगर वहां एक इस्पात संयंत्र लग जाएगा तो वो और भी गरीब हो जाएंगे? हम क्या बात कर रहे हैं?
शोमा: मैं, जिस तरह से ये किया जा रहा है, उसकी बात कर रही हूं.
तो हम क्या करें? हम खनिज धरती में ही दबे रहने दें? क्या हम लौह अयस्क को जमीन के भीतर ही रहने दें? हम कोयले को उसकी और गरीबों को उनकी हालत पर छोड़ दें? क्या आप यही सुझाव देना चाह रही हैं? मेरा कहना ये है कि हमें लौह अयस्क की उन खदानों को विकसित करना चाहिए. हमें कोयले का खनन करना चाहिए. हमें उद्योगों की स्थापना करनी चाहिए ताकि हम लोगों को रोजगार दे सकें. अगर आपके तर्क के हिसाब से काम होते तो जमशेदपुर बना ही नहीं होता. आज जमशेदपुर में जीवन की गुणवत्ता दूसरी जगहों से कहीं बेहतर है. यहां 24 घंटे बिजली और पेयजल की सुविधा है. दूसरे शहर इससे सीख ले सकते हैं. अगर ये तर्क देने वाले लोग सलाहकार के रूप में 1908 में जमशेदजी टाटा के इर्दगिर्द होते तो जमशेदपुर का अस्तित्व ही नहीं होता. आप आज वहां के पर्यावरण को देखिए. हो सकता है शुरुआत में कुछ नुकसान हुआ हो पर ये स्वाभाविक है. औद्योगीकरण की प्रक्रिया के दौरान ऐसा होता है. मगर फिर एक स्थिति आती है जहां से चीजें सुधरने लगती हैं. क्या आप ये चाहती थीं कि वहां के लोग हमेशा घोर गरीबी में जिएं? आप क्यों ये मानकर बैठी हैं कि पॉस्को या मित्तल्स उड़ीसा और झारखंड में जमशेदपुर जैसी कोई जगह नहीं बसा सकते. क्यों आपने ऐसा सोच लिया है?
शोमा: ऐसा मानने की वजहें हैं. सर्वहित और राष्ट्रनिर्माण की जो संस्कृति पहले दिखाई देती थी आज वो कहीं नजर नहीं आती.
मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता कि पर्यावरण के प्रति संवेदना रखने वाली अंतरात्मा इस देश में सिर्फ गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) के पास ही बची रह गई है और व्यापारिक घराने और व्यवसायी इसकी कोई परवाह नहीं करते. मैं इससे बिल्कुल सहमत नहीं हूं. आप तमिलनाडु के नेवेली जाइये और देखिए. नेवेली क्या था? ये तमिलनाडु का सबसे विपन्न इलाका था. आज ये एक समृद्ध कस्बा है. यहां एक स्कूल है जहां का परीक्षा परिणाम हर साल सौ फीसदी रहता है. इस स्कूल के लड़के-लड़कियां प्रतियोगी परीक्षाओं में शीर्ष पर रहते हैं. मुझे उम्मीद है इस बात को आप भी मानेंगी कि नेवेली में जीवन की इस सुधरी गुणवत्ता का फायदा उठाने वालों को गरीब नहीं कहा जा सकता.
शोमा: कॉर्पोरेट्स की लोगों के प्रति जवाबदेही तय करने के मामले में हमारी सरकार उदासीन रही है. उड़ीसा के नियमगिरि हिल्स में वेदांता की परियोजना इसका एक उदाहरण है. स्थानीय आदिवासी इसका विरोध कर रहे हैं. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय वेदांता की आलोचना कर रहा है. नार्वे के एक फंड ने तो कंपनी में लगाया अपना पैसा तक वापस ले लिया. मगर यहां परियोजना को रुकवाने के लिए एक जनहित याचिका दाखिल करनी पड़ी. क्या आप मानते हैं कि हमारी सरकार आम आदमी के हितों का ध्यान रखने में नाकाम होती जा रही है?
इस मुद्दे को हल करने के लिए हमारे पास पर्याप्त कानून हैं. उनका इस्तेमाल कीजिए. अगर केंद्र या राज्य सरकार पर्यावरण संबंधित कानूनों का पालन नहीं करवाती तो ये उसका दोष है. अगर कानून कमजोर हैं तो उन्हें मजबूत बनाइए. पर भगवान के लिए पर्यावरण के नाम पर ये मत कहिए कि गरीबों को अगले 5000 साल तक गरीब ही रहना चाहिए.
शोमा: एक बार फिर वेदांता की बात करते हैं. मैं ये पूछ रही हूं कि सरकार उनके बारे में क्या सोच रही है? सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी परियोजना पर रोक लगाने के बावजूद सरकार ने कंपनी से कहा कि वो अपनी भारतीय इकाई के नाम से इसके लिए फिर से आवेदन करे. आप जब वित्त मंत्री नहीं थे तो आपने एक वकील के रूप में उनकी तरफ से जिरह की थी.
ये उनके राजस्व कर मामलों में से एक था. उसका इससे क्या सबंध है? क्या आप अप्रत्यक्ष रूप से ये कह रही हैं कि मैं उनसे मिला हुआ हूं? अगर कोई वकील हत्या के मामले के किसी आरोपी की तरफ से जिरह कर रहा है तो क्या इसका ये मतलब है कि उसकी भी हत्या में मिलीभगत है? आपके सवाल का मतलब क्या है?
शोमा: ठीक है, मैं अपने शब्द वापस लेती हूं. मेरा सवाल ये है कि उड़ीसा में वेदांता के खराब रिकॉर्ड के बावजूद सरकार उसका पक्ष क्यों ले रही है? उसे अयोग्य घोषित क्यों नहीं किया जाता? उसे अपना रवैया सुधारने के लिए मजबूर क्यों नहीं किया जाता?
तो कीजिए ना. कौन आपको रोक रहा है? कानून का सहारा लीजिए. मगर परियोजना को क्यों रोकते हैं. उन लोगों को घोर गरीबी के पंजे से छुड़ाने का ये एकमात्र तरीका है.
शांतनु: विषय बदलते हैं. आप खाद्य फसलों द्वारा जैव ईँधन उत्पादन के खिलाफ क्यों हैं?
हम फसलें खाने के लिए उगाते हैं. उनसे ईंधन बनाने के लिए नहीं. अमेरिका में मक्का की फसल का 20 फीसदी ईंधन बनाने में इस्तेमाल हो रहा है. गन्ने से ईँधन बन रहा है. ताड़ के तेल से ईँधन बन रहा है. और चूंकि ईंधन के बढ़ते मूल्यों की वजह कच्चे तेल की बढ़ती कीमत है इसलिए लोग जिस जमीन पर खाने के लिए फसल उगाते थे अब उसी जमीन पर ईंधन बनाने के लिए फसल उगाते हैं. दुनिया में आज भी जब करोड़ों लोग भूख से पीड़ित हों तो आप इस बात को कैसे जायज ठहरा सकते हैं? हम गरीबी को इतिहास बनाने के प्रति गंभीर हैं. हम भूख और कुपोषण को खत्म करने के बारे में भी गंभीर हैं. मुझे लगता है कि सब को इस बात पर सहमत होना चाहिए कि खाने को ईंधन में न बदला जाए. अगर आप जैव ईंधन बनाना ही चाहते हैं तो ऐसी चीजों से बनाएं जिनका भोजन के रूप में इस्तेमाल न होता हो. जैव ईंधन के उत्पादन हेतु फसलें अलग जमीन पर उगाई जानी चाहिए.
शांतनु: वायदा बाजार पर लगी रोक के बारे में आपका क्या कहना है? अभिजीत सेन कमेटी के मुताबिक इस बात के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं कि वायदा बाजार के कारण कीमतें बढ़ रही हैं. मगर साथ ही कमेटी ने रोक को जारी रखने का सुझाव दिया है. क्या ये दुविधाजनक नहीं है?
मैं इस बात से सहमत हूं कि इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि वायदा बाजार पर रोक से कीमतों पर कोई असर पड़ता है. मगर चावल, गेहूं, अरहर और उड़द की दाल पर रोक जारी रखने का फैसला मैंने नहीं बल्कि कमेटी ने दिया है. अगर संसदीय समिति यही बात कहती है, अगर सभी राजनीतिक पार्टियां प्रतिबंध की मांग करती हैं, अगर गांवों की जनता भी वायदा बाजार को बढ़ती कीमतों का कारण मानती है तो आपको उनकी बात पर ध्यान देना पड़ता है. यही हमने किया है. मैं इस बारे में निश्चित हूं कि इस रोक का इन चीजों की कीमतों पर कोई असर नहीं पड़ेगा. कभी-कभी आप ऐसे कदम उठाते हैं जिनका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं होता और नकारात्मक भी नहीं.
शोमा- उस सवाल पर लौटते हैं जो सबको परेशान कर रहा है. भारत जैसे जटिल देश में गरीबी खत्म करने के लिए आपके पास क्या योजना है? क्या इसका अर्थ ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था का सह-अस्तित्व है?
शहरीकरण को रोका नहीं जा सकता. यह एक अनवरत प्रक्रिया है. आप सिर्फ इतना कर सकते हैं कि अविवेकपूर्ण शहरीकरण के नुकसानदेह प्रभावों को- नए शहर बनाकर, शहरों का आकार निर्धारित करके, शहरों में ज्यादा से ज्यादा हरियाली और खुला स्थान छोड़कर—नियंत्रित कर सकते हैं. मेरे ख्याल से इस प्राकृतिक विकास को रोकने की ताकत किसी के हाथ में नहीं है. हमें इसमे हस्तक्षेप करने की बजाय इसका प्रबंधन करने की कोशिश करनी होगी. गरीबी मुक्त भारत को लेकर मेरा जो विचार है उसमें एक बड़ी आबादी, तकरीबन 85 फीसद लोग शहरों में रहेंगे. महानगरों में नहीं बल्कि शहरों में. किसी शहरी वातावरण में जल आपूर्ति, बिजली, शिक्षा, सड़क, मनोरंजन और सुरक्षा को प्रभावी तरीके से मुहैया करवाना 6 लाख गांवों के मुकाबले ज्यादा आसान है. मैं ये भी मानता हूं कि एक बड़ी आबादी गांवों में रहना और खेती करना चाहेगी. इसका स्वागत होना चाहिए और हमें इसे बढ़ावा देना चाहिए, लेकिन ये संख्या शहरों की तरफ पलायन कर गई आबादी के मुकाबले काफी छोटी होगी. मेरा ये भी मानना है कि हमें लंबे समय तक ऊंची विकास दर की जरूरत पर ज़ोर देते रहना होगा. हम बहुत जल्द थक जाते हैं. हमने तीन-चार साल ऊंची विकास दर हासिल की और फिर बैठ गए, हमें लगता है कि ये ऐसे ही चलता रहेगा. विकास ऐसे नहीं होता. इसके लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. हमें सुनिश्चित करना होगा कि विकास की ऊंची दर अगले 20-30 सालों तक जारी रहे। जब हम गरीबी, अशिक्षा का उन्मूलन कर लेंगे, असाध्य रोगों पर लगाम कस लेंगे, जब हम हर बच्चे को सुरक्षित कर लेंगे, जब हम मूलभूत जरूरतों जैसे पेयजल, बिजली, ग्रामीण सड़क संपर्क को पूरा कर लेंगे- उस वक्त विकास की प्रक्रिया खुद ब खुद संचालित होने लगेगी, लोग खुद ही इस बात का ध्यान रखने लगेंगे कि विकास की दर निश्चित रफ्तार से जारी रहे. लेकिन वो समय आने के लिए, अपने जीवनकाल में ही गरीबी उन्मूलन के लिए हमें 9 फीसदी की विकास दर को 10 फीसदी तक ले जाना होगा और इसके लिए हमें कठिन मेहनत करने की दरकार होगी. अगर आप अगले 100 सालों में गरीबी खत्म करना चाहते हैं तो आपके पास अलग योजना हो सकती है. लेकिन अगर हमें इसे अगले 20 सालों में मिटाना है तो हमें कठिन मेहनत की जरूरत होगी.
शोमा- ये तो दिवास्वप्न जैसा है क्योंकि ज़मीनी हकीकत इससे बिल्कुल जुदा है. गुड़गांव को देखिए- भारत उदय का प्रतीक, बिल्कुल नए सिरे से विकसित हुआ. ये तो शहरी रामराज्य साबित हो सकता था, बजाय इसके आज यहां न तो पानी है, न बिजली है, न यातायात की सुविधा है, भयंकर प्रदूषण है और गरीबों के लिए बिल्कुल भी न तो जगह है न ही योजना है. किसी भी मंझोले दर्जे के शहर को ले लीजिए। मुरादाबाद, सिलीगुड़ी, पटना। किसी भी महानगर को लीजिए–विकास के बोझ तले दबे जा रहे हैं. इन जगहों पर स्पष्ट रूप से गरीबों को कोई फायदा मिलता नहीं दिख रहा है.
तो क्या हम लोगों को इन गांवो में रहने के लिए छोड़ दें?
शोमा- मेरा सवाल है कि क्या चीज़ों को करने का कोई स्थिर, मजबूत और अलग तरीका है ताकि समृद्धि का फायदा कुछ गिने-चुने लोगों तक सीमित रहने की बजाय संपूर्ण विकास सुनिश्चित हो?
नियमों को लागू कीजिए. टाउन प्लानिंग के क़ानूनों को लागू करिए. क़ानून आपको बिना पानी और खुला स्थान मुहैया करवाए निर्माण की इजाजत ही नहीं देगा. क़ानूनों के पालन में हमारी सामूहिक विफलता को आप विकास के मॉडल की असफलता के रूप में पेश करते हैं. मुझे नहीं लगता कि विकास के मॉडल में कोई कमी है. ये संबंधित विभागों की क़ानूनों के पालन के प्रति अनिच्छा से जुड़ा है. इसका हल ये नहीं है कि हम अतीत में चले जाएं और कहें कि हम कानूनों का पालन नहीं कर सकते इसलिए हम गरीबी और निराशा के आलम में रहते रहें.
शांतनू- अगर आपकी राजनीतिक मजबूरियां नहीं होतीं तो आप कृषि क्षेत्र को कैसे सुधारते?
आईसीआरए द्वारा किए गए 2008 के ताज़ा आंकलन के मुताबिक कृषि विकास दर 4.5 से 4.7 फीसदी रहेगी. इस साल अनाज का कुल उत्पादन 227 से 230 मिलियन टन रहेगा. यानी कि कृषि क्षेत्र भी बेहतर प्रदर्शन कर रहा है. इसके बावजूद किसान गरीब हैं क्योंकि कृषि पर निर्भर आबादी बहुत बड़ी है. अगर ये संख्या कम हो, या कहें कि आधी हो तो आप कहेंगे कि भारत में कृषि बहुत बढ़िया कर रही है. लिहाजा हमें इस मुद्दे पर दुविधा में नहीं पड़ना चाहिए कि कृषि का प्रदर्शन बढ़िया है जबकि किसानों की हालत खराब. कृषि की दशा सुधारने के लिए हमें पांच मुख्य चीजों की जरूरत पड़ेगी. पानी, बिजली, बीज, खाद और ऋण. मेरे ख्याल से हमने ऋण के मामले में बढ़िया किया है. पानी के मामले में भी हमने बढ़िया करना शुरू कर दिया है इसका श्रेय लंबी-चौड़ी सिंचाई परियोजनाओं को जाता है. इसमें कुछ वक्त लगेगा लेकिन जब ये परियोजनाएं पूरी हो जाएंगी तो पानी के मामले में स्थितियां सुधर जाएंगी. हमने अपने घरेलू बीजों की अनदेखी की है, हमारे पास पूरी तरह से विकृत उर्वरक सब्सिडी व्यवस्था है और बिजली के मामले में हम पूरी तरह से असफल रहे हैं. लेकिन गुजरात ने हमें दिखाया है कि कैसे कृषि के लिए बिजली की व्यवस्था की जाय. बीजों के साथ हमने पिछले साल एक नई शुरुआत की है. हम बीजों को बदलने की दर को बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं और उर्वरकों की समस्या से भी हम पार पा सकते हैं बशर्ते हम उसके परिणाम झेलने के लिए तैयार हो.
अगर इन पांचों चीज़ों में तालमेल बन जाता है तो कृषि क्षेत्र चार फीसदी से ज्यादा की रफ्तार से हर साल विकास करेगा. लेकिन अगर कृषि की विकास दर चार फीसदी बनी रही तो किसानों की गरीबी भी बनी रहेगी इसकी वजह है इसपर निर्भर लोगों की बड़ी संख्या. इसलिए इसका इलाज यही है कि किसान कृषि से दूर होकर औद्योगिक क्षेत्रों की तरफ रुख करें. इस रूमानी विचार को दूर करें कि हम अपनी 60 फीसदी आबादी को कृषि में लगाकर आगे बढ़ सकते हैं.
शोमा- राष्ट्रीय संसाधनों जैसेकि खनिजों की बात करते हैं. जब आप राष्ट्रीय संपदा को निजी कंपनियों के हाथ सौंपते हैं तो उनका मकसद शुद्ध रूप से मुनाफा कमाने का होता है, इस नीति का क्या तर्क है? निर्दयतापूर्वक किसी स्थान का दोहन करने से रोकने के लिए क्या उपाय हैं?
निजी कंपनियों के हाथ मत सौंपिए. इसकी बजाय अगर आप चाहें तो प्रभावी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी(पीएसयू) स्थापित कर सकते हैं.
शोमा- लेकिन आप तो पीएसयू के खिलाफ हैं.
हम नहीं हैं, किसने कहा हम ऐसे हैं? हम तो एनटीपीसी, सेल और एनएमडीसी में और पैसे का निवेश कर रहे हैं. हमने पिछले चार सालों में 29 बीमार इकाइयों के सुधार के लिए 13,000 करोड़ रूपए का निवेश किया. लिहाजा पीएसयू बनाने से कोई परहेज नहीं है. लेकिन ये रूढ़िवादी मानसिकता क्यों, कि निजी क्षेत्र लालची हैं इसलिए बुरे हैं और सार्वजनिक क्षेत्र अच्छे हैं.
शोमा-बहुत सारे कड़वे उदाहरण हैं. यूनियन कार्बाइड, एनरॉन.
अगर आप निजी और सार्वजनिक क्षेत्र से जुड़े इन रूढ़िवादी विचारों के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. मेरा कहना है कि कोयला और लौह अयस्क ज़मीन के नीचे दबे रहने के लिए नहीं है. उनका उपयोग होना चाहिए. जहां तक पर्यावरण और जरूरत से ज्यादा दोहन को लेकर आपकी चिंता है, जब भी हमको लगेगा कि कुद्रेमुख में खनन प्रदूषण पैदा कर रहा है, हम इसका खनन बंद कर देंगे. लेकिन संसाधनों का दोहन न होने देने की बहस को किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता. जो लोग ऐसा कर रहे हैं उनके हित गरीबी कायम रहने से जुड़े हुए हैं.
शोमा- आप कुद्रेमुख में खनन रोक देंगे, लेकिन इस इलाके का तो विनाश हो चुका है.
शांतनु- एक औऱ बड़े खतरे की तरफ बढ़ते हैं. खुदरा बाजा़र- हाल ही में आए सरकार प्रायोजित एक अध्ययन में ये बात साफ हुई थी कि बड़े घरानों के खुदरा बाज़र में घुसने का परिणाम अंतत: छोटे और मझले दर्जे के विक्रेताओं के सफाए के रूप में सामने आएगा.
ये एक स्वाभाविक भय है. इस बात का कोई प्रामाणिक सबूत नहीं है जिससे पता चलता हो कि खुदरा चेन के आने से छोटे-मोटे दुकानदार खत्म हो गए. उदाहरण के लिए वॉलमार्ट को लीजिए- एक बार मैं उसके चेयरमैन से मिला, उन्होंने कहा उनका 47वां स्टोर चीन में खुल गया है और इस बात का कोई सबूत नहीं है कि छोटे खुदरा विक्रेता खत्म हो गए हों. फिर भी चिंताएं स्वाभाविक हैं. जब तक ये पूरी तरह से खत्म नहीं हो जाती हैं हम धीरे-धीरे और सावधानी से आगे बढ़ेंगे. हम ये नहीं कह रहे हैं कि चिंताएं ग़लत हैं. इसीलिए हमने सिर्फ थोक, एक ही ब्रांड वाले खुदरा केंद्रों में विदेशी निवेश की इजाजत दी है. हमने अभी तक सभी ब्रांड वाले खुदरा चेन में विदेशी निवेश की छूट नहीं दी है.
शोमा- आपको लगता है कि माओवादी-नक्सल समस्या का संबंध वित्तीय समस्याओं से है?
नक्सल प्रभावित इलाके काफी बुरी दशा में हैं. निश्चित रूप से इन इलाकों के आदिवासी गरीबी और अशिक्षा से जूझ रहे हैं. राज्यों को इसकी जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी क्योंकि उनहोंने इन क्षेत्रों के विकास पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है और न ही यहां के निवासियों के लोकतांत्रिक अधिकारों का सम्मान किया है. आज ये राज्य, आदिवासियों के साथ टकराव की अवस्था में नज़र आ रहे हैं. और नक्सलवादी-माओवादी इन आदिवासियों के सहयोगियों के रूप में देखे जाते हैं. लेकिन राज्य की असफलता का मतलब वामपंथी उग्रवाद को बढ़ावा देना नहीं है. हमें नक्सलवाद से लड़ना होगा और साथ ही राज्य को आदिवासियों की बेहतरी के प्रति और संवेदनशील होना पड़ेगा.
शोमा- प्रधानमंत्री ने फिजूलखर्ची पर चिंता जतायी है. क्या एक ऐसी अर्थव्यवस्था के लिए ये सही है जो अभी निर्माण के दौर में है?
बिल्कुल, लेकिन इसे आप क़ानून बना कर नहीं रोक सकते. इसे स्कूलों और घरों में मूल्यों पर आधारित शिक्षा देकर ही रोका जा सकता है.
शोमा- बीजेपी और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में अंतर कर पाना मुश्किल है. इस पर क्या विचार है?
मुझे नहीं लगता कि बीजेपी किसी आर्थिक नीति की जनक है. कांग्रेस नई आर्थिक नीतियों की जनक है. बीजेपी ने उसी प्रक्रिया को अपने तरीके से आगे बढ़ाया, इस दौरान उन्होंने कई ग़लतियां भी की. लिहाजा ये सवाल उनसे किया जाना चाहिए– क्या बीजेपी कांग्रेस जनित आर्थिक नीतियों का अनुसरण करना चाहती है?