गठबंधन के धर्म और संप्रदाय

आम चुनावों में अकेले उतरने का फैसला कांग्रेस ने अपनी ताकत या उसके लंबे-चौड़े आकलन पर नहीं लिया है. उसे मालूम है कि चुनाव के बाद जो भी सरकार बनेगी गठबंधन की होगी. उसका गठबंधन हो या भाजपा का. इसलिए उसके फैसले को गठबंधन-विरोधी कहना गलत है. हालांकि यह सही है कि गठबंधन जितने भाजपा को रास आते हैं कांग्रेस को नहीं आते.

आप कह सकते हैं कि कांग्रेस का स्वभाव गठबंधन का नहीं है. कारण ऐतिहासिक हैं. आजादी के तीस साल बाद तक तो कांग्रेस का वर्चस्व ही चला और देश में एक पार्टी शासन रहा. सन् सतत्तर में ढाई साल के लिए वह टूटा भी तो फिर दस साल चला. वीपी सिंह और चंद्रशेखर की गठबंधन सरकारों ने कोई डेढ़ साल तक कांग्रेस को रोके रखा. लेकिन फिर वह लौट कर आई और भले ही अल्पमत में रहे हों नरसिंह राव पूरे पांच साल रहे. आठ साल बाद कांग्रेस सत्ता में दो हजार चार में आई तो पहली बार गठबंधन में थी. यानी बावन साल बाद उसे गठबंधन की जरूरत पड़ी.

भाजपा गठबंधन धर्म की सच्ची पार्टी होने का दावा कर सकती है. लेकिन देखिए कि गठबंधनों का लाभ लेकर आज वह एक राष्ट्रीय पार्टी हो गई है

इसके उलट भारतीय जनता पार्टी और उसके पहले के अवतार जनसंघ को शुरुआत ही गठबंधन से करनी पड़ी. उसने मिलकर चुनाव लड़े और सन् सड़सठ में पहली बार गठबंधनों में ही राज्यों में सत्ता का स्वाद चखा. सन् सतत्तर में भी जनसंघ जनता पार्टी नाम के गठबंधन में पहली बार केंद्र में सत्ता में आया. कोई बीस साल के वनवास के बाद सन् अट्ठानवे में वह सत्ता में आया तो न सिर्फ भाजपा हो चुका था उसकी भूमिका भी बदल गई थी. अब भाजपा अपने गठबंधन की नेत्री थी. सन् छियानवे में जब राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने अटल बिहारी वाजपेयी को सबसे बड़ी पार्टी के नेता के नाते शपथ दिला दी तो तेरह दिन तक भाजपा का साथ देने कोई पार्टी आगे नहीं आई. यानी बावन साल में भाजपा बिना गठबंधन के कभी सत्ता में नहीं रही.

इसलिए गठबंधनों के प्रति अगर देश की दो राष्ट्रीय पार्टियों का रवैया अलग है तो यह स्वाभाविक ही है. लेकिन कांग्रेस मई का चुनाव राष्ट्रीय गठबंधन में नहीं लड़ना चाहती तो इसका कारण गठबंधनों से उसे पड़ने वाली छड़क नहीं है. यूपीए में जो भी पार्टियां उसके साथ हैं वे सब क्षेत्रीय पार्टियां हैं. जैसे कांग्रेस के साथ मिलकर वे केंद्र में सत्ता सुख भोगती हैं वैसे ही चुनाव के समय अपने-अपने क्षेत्रों से बाहर निकल कर फैलना चाहती हैं.

अपने वर्चस्व वाले इलाके में वे कांग्रेस से सीटों पर जो तालमेल करती हैं उसका इस्तेमाल दूसरे राज्यों या इलाकों में अपने लिए सीट पाने में करना चाहती हैं. राष्ट्रवादी कांग्रेस महाराष्ट्र से, समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश से और राष्ट्रीय जनता दल बिहार से बाहर फैलना को उत्सुक हैं. कांग्रेस अगर इनकी महत्वाकांक्षाओं को समोने लगे तो उसे अपना जनाधार लगातार सीमित करते जाना होगा. उसके गठबंधन की पार्टियां उसी की कीमत पर फल फैल सकती हैं. गठबंधन की आज की मजबूरियों से कांग्रेस अपनी महत्वाकांक्षाओं और भविष्य को क्यों सीमित करे? गठबंधन में दरअसल हर पार्टी इसलिए आती है कि सत्ता के जरिए वह अपना वर्चस्व-क्षेत्र बढ़ाना चाहती है.

अपना वर्चस्व-क्षेत्र बढ़ाए बिना न शरद पवार, न मुलायम सिंह, न लालू प्रसाद यादव प्रधानमंत्री होने का ख्वाब देख सकते हैं. इसलिए इनकी पार्टियों का अपने इलाके से बाहर निकलने का इरादा समझ जा सकता है. इस इरादे में अनुचित कुछ नहीं है. गठबंधन आखिर एक लेन-देन और सौदेबाजी है. यह गठबंधन धर्म ही है कि उसकी हर पार्टी उसका उपयोग अपनी शक्ति बढ़ाने में करे लेकिन इस तरह कि गठबंधन टूटे नहीं. भाजपा गठबंधन धर्म की सच्ची पार्टी होने का दावा कर सकती है. लेकिन देखिए कि गठबंधनों का लाभ लेकर आज वह एक राष्ट्रीय पार्टी हो गई है.

इसलिए कांग्रेस का फैसला कि राज्यों में जिससे उसका गठबंधन है उसे वह जारी रखेगी लेकिन चुनाव राष्ट्रीय गठबंधन में नहीं लड़ेगी गठबंधन धर्म के खिलाफ नहीं है. वह अपनी संभावनाओं को बनाए रखना चाहती है. उसका आकलन है कि उसकी स्थिति सन् दो हजार चार की स्थिति से बेहतर है. जरूरी नहीं कि आप इससे सहमत हों. चुनाव के पहले हर पार्टी को अपना गुब्बारा फुलाने और थिगाने का हक है. उसे और फुलाने या हवा निकाल देने का हक जनता को है.

भाजपा पर गठबंधन के उतने दबाव नहीं हैं. दक्षिण में कोई बड़ी क्षेत्रीय पार्टी उसके साथ नहीं है. तमिलनाड की एआईडीएमके और आंध्र की तेलुगुदेशम ने वामपंथियों के साथ जाना तय किया है. कर्नाटक में उसी का राज है. केरल उसकी पहुंच से बाहर है. महाराष्ट्र में शिव सेना ने अभी अपना अलग रास्ता पकड़ा नहीं है. हरियाणा में चौटाला का लोकदल, पंजाब में अकाली दल, बिहार में जनता दल (एकी) ओडीशा में बीजू जनता दल और असम में अगप उसके साथ हैं. इनमें बिहार का जनता दल (एकी) ही सबसे बड़ा है. लेकिन बिहार से बाहर उसकी कोई खास महत्वाकांक्षा भी नहीं है.

लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भाजपा के गठबंधन एनडीए का रास्ता आसान है. पिछली बार लालकृष्ण आडवाणी ने दावा किया था कि हारी भाजपा नहीं है. आखिर हमारी सीटें कांग्रेस से कुछ ही कम हैं. हारी हैं हमारे गठबंधन की दूसरी पार्टियां. इस बार उनके गठबंधन में ऐसी पार्टियां हैं ही नहीं कि मददगार संख्या दे सकें. इस बार जो भी करना है भाजपा को ही करना है और उसकी संभावनाएं तो सबसे कम दिखाई देती हैं.