अलग राह पर अभय

बॉलीवुड के इतिहास को जानने का एक तरीका देओल परिवार भी है. धर्मेंद्र अपने दौर के एक्शन हीरो तो थे ही मगर कॉमेडी के मामले में भी उनका कोई जवाब नहीं था. उधर, सन्नी को सिनेमा के पर्दे पर अक्सर भले स्वभाव वाले एक ऐसे हीरो के तौर पर देखा गया जिसे दुनिया की ज्यादतियां गुस्से का ज्वालामुखी बना देती हैं. बॉबी जब आए तो मसाला रोमांस वाली फिल्मों का दौर अपने चरम पर आकर ढलने लगा था. इस तरह की फिल्मों के लिए वे फिट हीरो नहीं थे और जिस तरह की फिल्मों में वे चल सकते थे उनका दौर आने में अभी देर थी. 1998 में आई विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म करीब में जब उन्होंने एक चोर का किरदार निभाया तो इसकी उतनी चर्चा नहीं हुई. मगर एक दशक बाद आज जब उनके चचेरे भाई अभय देओल ओए लकी लकी ओए में एक ऐसे ही चोर बने हैं तो हर तरफ उनकी तारीफ हो रही है.

शुरुआत से ही वे ऐसे निर्देशकों की खोज में रहे जो अपने दर्शकों को चौंकाना पसंद करते हैं

एक तरह से देखा जाए तो 32 साल के अभय बॉलीवुड में आए नएपन का प्रतीक हैं. देओल खानदान की शख्सियतों की तरह उनका व्यक्तित्व आकर्षक है और अब तक के उनके सफर पर निगाह डाली जाए तो लगता यही है कि वे अपने परिवार की समृद्ध विरासत को नए आयाम देंगे. अभिनय के मोर्चे पर वे मजबूत हैं और कई नौजवान निर्देशकों की पहली पसंद भी. और सबसे बड़ी बात ये है कि फिल्म इंडस्ट्री में उनका आना शायद बिल्कुल सही वक्त पर हुआ है.

ओए लकी.. के निर्देशक दिबाकर बनर्जी कहते हैं, ‘अभय जैसा सिर्फ एक ही है. होने तो कई चाहिए. शुरुआत से ही वे ऐसे निर्देशकों की खोज में रहे जो अपने दर्शकों को चौंकाना पसंद करते हैं. और अब तो हालत ये है कि जो निर्माता विशुद्ध आर्थिक लाभ के नजरिए से सोचते हैं, उनके लिए भी अभय सबसे भरोसेमंद विकल्प हैं. मुङो लगता है कि अभय ने फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह अपने बूते बनाई है.’

अभय की हॉलीवुड स्टार जॉनी डेप से तुलना करने वाले फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप कहते हैं, ‘पिछले कुछ साल में छोटी-छोटी और आम से हटकर जो फिल्में आई हैं उन पर नजर डालिए. उनमें एक बात समान होगी और वो है अभय का होना. उन्होंने बाजार के दबाव को खुद पर हावी नहीं होने दिया और वही किया जो वो करना चाहते थे.’

अभय एक खुशमिजाज इंसान हैं. अब तक उन्होंने जो भी किरदार निभाए हैं उनमें से उनका व्यक्तित्व सबसे ज्यादा अपनी पहली फिल्म सोचा न था के उस हीरो से मिलता है जो आशावान है और जिसमें कोई घमंड नहीं है. फोन पर उनसे बात करते हुए भी ये महसूस होता है. उनके बात करने के तरीके में किसी नए फिल्मी सितारे वाला गर्व कहीं से भी नहीं झलकता. अभय बताते हैं कि देओल परिवार में बचपन का मतलब था ढेर सारी पाबंदियां. धर्मेंद्र के छोटे भाई अजित सिंह देओल के बेटे अभय इस संयुक्त परिवार के सात बच्चों में सबसे छोटे हैं. उनकी परवरिश बेहद सख्त माहौल में हुई. घूमने का मौका पारिवारिक यात्रा के साथ ही मिलता था और देर रात तक घर से बाहर रहने का तो सवाल ही नहीं होता था. दिलचस्प बात ये है कि धर्मेंद्र को अभय डैड कहते हैं. वो बताते हैं, ‘बाहर वालों को ये अजीब लगता है मगर मैं अपने मम्मी-पापा को अजित अंकल और ऊषा आंटी कहते हुए बड़ा हुआ हूं. मगर मुझे ये कभी भी अजीब नहीं लगा.’

दिलचस्प ये भी है कि सबसे छोटा होने के नाते सबसे ज्यादा प्यार-दुलार में पले जिस शख्स ने कभी जीवन की कड़वी साइयां, उनसे उपजने वाला दुख और भ्रष्टाचार जैसी चीजें देखी भी नहीं होंगी वो आज इन्हीं चीजों से जुड़े भावों को बेहद सजीव तरीके से परदे पर उतार रहा है. उनके करीबी दोस्त और निर्देशक नवदीप सिंह ने जब मनोरमा सिक्स फीट अंडर बनाने की सोच रहे थो तो छोटे कस्बे में जिंदगी से निराश इस फिल्म के हीरो सत्यवीर के लिए उन्हें अभय कुछ ज्यादा ही छोटी उम्र के लगे थे. अभय ने उन्हें मनाने की कोशिश की मगर नाकाम रहे. फिर उन्होंने एक दूसरा तरीका अपनाया. वीडियो कंपनी शेमारू अभय के साथ एक फिल्म बनाना चाहती थी. उधर, नवदीप को अपनी फिल्म के लिए एक निर्माता की तलाश थी. अभय ने दोनों की जरूरत पूरी कर दी और सत्यवीर की भूमिका के लिए मूंछें लगा लीं. इसके बाद उन्होंने किरदार को जिस जीवंत तरीके से निभाया उसने नवदीप के लिए शिकायत का कोई मौका नहीं छोड़ा.

मुझे नाचते हुए बहुत झिझक होती है. मैं अड़ियल और घमंडी नहीं दिखना चाहता इसलिए अगर फिल्म के लिए बहुत जरूरी हुआ तो मैं डांस कर लूंगा

कुछ ही समय पहले अभय को एक आइडिया आया. ये था देवदास बनने का. उन्होंने संजय लीला भंसाली की देवदास  के स्क्रिप्ट राइटर विक्रम मोटवानी को सुझाव दिया कि देवदास की कहानी को आज के वक्त से जोड़कर लॉस एंजेल्स में फिल्माया जाए. मोटवानी को आइडिया तो पसंद आया मगर उन्होंने अभय से कहा कि वो पहले एक बार मूल कहानी को पढ़ लें. मोटवानी कहते हैं, ‘मैंने उनसे कहा कि देवदास ‘कूल’ नहीं बल्कि लड़खड़ाकर चलने वाला एक शराबी था.’ अभय ने बात मान ली और प्यार और नशे की इस दुखांत कहानी में ऊर्जा का समावेश कर दिया. मोटवानी ने फिल्म का पहला ड्राफ्ट लिखा और इसे अनुराग कश्यप को दे दिया. कश्यप ने इसमें कुछ बदलाव किए और इसी पर आधारित फिल्म अब देव-डी के नाम से आ रही है जिसे पंजाब और दिल्ली की पृष्ठभूमि में बनाया गया है.

अभय के साथ काम करने वाले तमाम लोग बताते हैं कि अगर पटकथा सुधरती हो तो वे हमेशा अपने दृश्य कटवाने के लिए तैयार रहते हैं. कश्यप कहते हैं, ‘वह उन अभिनेताओं में से नहीं हैं जो अपनी भूमिका को ज्यादा से ज्यादा रखना चाहते हैं.’ ऐसा लगता है जसे अभय के लिएफिल्म की अहमियत अपने स्टारडम से ज्यादा है. उन्हें जानने वाले बताते हैं कि वो स्क्रिप्ट धीरे-धीरे पढ़ते हैं और उसमें कुछ भी बिना पढ़े नहीं छोड़ते. फिल्मों को लेकर उनकी समझ बहुत विस्तृत है. अभय कहते हैं, ‘हमारी परवरिश सख्त माहौल में हुई मगर हम चाचा को देखने शूट्स पर जाया करते थे. मुङो फिल्म लोहा  के सेट की याद है जहां मैंने मंदाकिनी को देखा था.’

शुरुआत करने के लिए उनके पास बेहद आसान विकल्प हो सकते थे मगर उन्होंने एक अलग ही राह पकड़ी. एक को छोड़कर उनकी सभी फिल्में ऐसी हैं जिनके निर्देशकों ने भी उसी फिल्म से अपनी शुरुआत की

अभय ने जब बचपन को पीछे छोड़ा तो उस समय फिल्में तकरीबन रटे-रटाए ढर्रे पर बन रही थीं. मगर उन्हें यकीन था कि एक दिन बॉलीवुड में ऐसी फिल्में बनेंगी जिनकी बुनियाद मजबूत स्क्रिप्ट होगी. वो कहते हैं, ‘मुझे विश्वास था कि बदलाव आएगा. मुझे बस अपना काम करना है.’ उन्होंने कुछ साल विदेश स्थित एक फिल्म स्कूल में बिताए और फिर कुछ अलग करने की धुन में मुंबई लौटे.

शुरुआत करने के लिए उनके पास बेहद आसान विकल्प हो सकते थे मगर उन्होंने एक अलग ही राह पकड़ी. एक को छोड़कर उनकी सभी फिल्में ऐसी हैं जिनके निर्देशकों ने भी उसी फिल्म से अपनी शुरुआत की. अभय ने खुद अच्छी फिल्मों का पीछा किया, सैकड़ों स्क्रिप्ट्स पढ़ीं  और स्टार की तरह लांच होने की बजाय निर्देशकों को अपनी तरह की फिल्में करने के लिए मनाया.

मोटवानी अभय को बचपन से जानते हैं. वो कहते हैं, ‘ह्रतिक रोशन के लांच ने किसी स्टार के लांच के मायने ही बदलकर रख दिए. अभय ने उस दिशा में जाने के दबाव को खुद पर हावी नहीं होने दिया. जब आपकी उम्र के लोगों को हाई प्रोफाइल फिल्में, ज्यादा प्रचार और ज्यादा पैसा मिल रहा हो तो इस लालच के आगे न झुकना बहुत मुश्किल होता है.’

आखिरकार ‘सोचा न था’ के साथ अभय को अपनी तरह की फिल्म मिल ही गई. उन्होंने फिल्म के निर्देशक इम्तियाज अली, जिनकी ये पहली फिल्म थी, को परिवार के बड़ों से मिलने के लिए मनाया जो इस फिल्म पर पैसा लगाना चाहते थे. उन्हें फिल्म ठीक लगी और इस तरह आयशा टॉकिया के साथ उनकी पहली जोड़ी बनी. अभय कहते हैं, ‘सोचा न था  किसी आम बॉलीवुड फिल्म जैसी लगती है पर है नहीं.’ और ये बात उन पर भी उतनी ही सटीकता से लागू होती है. अभय की शुरुआत अच्छी रही और उनके प्रति इंडस्ट्री का रुख सकारात्मक हो गया. उनकी कुछ फिल्मों को बड़ी कामयाबी भी मिली. अब तक अभय की सबसे बड़ी शिकायत ये रही थी कि छोटे बजट की फिल्मों का प्रचार उतने बढ़िया तरीके से नहीं हो पाता. ओए लकी..और देव डी  के साथ उनकी ये शिकायत भी दूर हो गई है.

अभय मानते हैं कि वो खुद को एक आम हीरो की भूमिका में नहीं देख पाते. वो कहते हैं, ‘मुझे नाचते हुए बहुत झिझक होती है. मैं अड़ियल और घमंडी नहीं दिखना चाहता इसलिए अगर फिल्म के लिए बहुत जरूरी हुआ तो मैं डांस कर लूंगा. मगर ज्यादातर निर्देशकों को ये महसूस हो जाएगा कि मैं ऐसा करते हुए बेहद असहज हो जाता हूं.’

अभय को सर्वशक्तिमान हीरो की बजाय ऐसी भूमिकाएं पसंद हैं जिनमें वो किसी आम आदमी जैसे ही लगते हों. वो कहते हैं, ‘हर दर्शक को सत्यवीर अपने आस-पास का कोई चरित्र लगेगा. वो सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र तो नहीं है मगर उसके कुछ सिद्धांत हैं. वह गुंडों से बदला नहीं ले सकता. वो किसी की धुनाई नहीं कर सकता.’देओल परिवार से आने वाले किसी हीरो के लिए ये कहना कि वह किसी की धुनाई नहीं कर सकता, वाकई नई बात है. और अभय का यही नयापन नए बॉलीवुड के साथ मेल बिठाकर चल निकला है.