भारतीय मुसलमान आशाएं व आशंकाएं

यह वह आतंकवादी है जिसने इस्लाम धर्म के जेहाद की शब्दावली को ही बदल डाला है और जो कई मौकों पर काफिर भारत को मटियामेट कर देने की कसम खा चुका है. ऐसी परिस्थिति में मुसलमान विरोधी प्रचार करने वालों को एक ठोस दलील मिल जाती है. फिर शुरू होता है संघ परिवार का वह मुस्लिम विरोधी प्रचार जिसकी जड़ें उस राष्ट्रीयता से जुड़ी हुई हैं जो इस्लाम धर्म ही को भारत माता के लिए एक अभिशाप समझता है. संघ ने बड़ी चतुराई से मुसलमानों के खिलाफ यह दुष्प्रचार किया है कि मुसलमान भारत के मूल निवासी नहीं हैं. इनके पूर्वज आक्रमणकारी थे. मुसलमानों के खिलाफ जिस बात को सबसे ज्यादा प्रचारित किया गया है, वह है उनकी असहिष्णुता. इसके लिए उन इस्लामी देशों का खासतौर पर जिक्र किया जाता है, जहां गैर मुसलमानों के साथ दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसा बर्ताव किया जाता है. मुसलमानों के बारे में यह धारणा भी आम है कि सरकार नाजायज रियायतें देकर उनका तुष्टिकरण करती है. मुसलमानों के बारे में यह तो दूसरों की प्रचलित धारणाएं थीं, लेकिन स्वयं मुसलमानों की भी खुद को लेकर कुछ धारणाएं हैं. मसलन आम ही नहीं प्रबुद्ध मुसलमान भी यही मानते हैं कि इस देश में उनके साथ सरासर अन्याय हो रहा है और उनके लिए इस देश की न्याय व्यवस्था तक ईमानदार नहीं रही. उनका प्रबल मत है कि 12 मार्च, 1993 को मुंबई के बम विस्फोटों के अतिरिक्त देश भर में जितने भी बम विस्फोट हुए हैं उनमें एक भी मुसलमान लिप्त नहीं है, बल्कि एक बड़ी साजिश के तहत मुस्लिम युवकों को आतंकवाद के झूठे मुकदमों में फंसाया जा रहा है. स्वतंत्रता के बाद से नौकरियों में उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है. बार-बार दंगे इसलिए करवाए जाते हैं ताकि मुसलमान कभी भी स्वाश्रित न हो सकें. आम मुसलमानों का सबसे बड़ा दुख है कि उनकी राष्ट्रीयता पर हमेशा प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है.

मुसलमानों पर किए जाने वाले संदेहों और उनके भीतर से उठने वाले सवालों में ही कहीं निहित हैं वह उत्तर, जिन तक पहुंचने में न उन्हें कोई दिलचस्पी है जो यह प्रश्न उठाते रहे हैं और न ही उन्हें जो इन प्रश्नों से आहत हैं. स्वतंत्रता के बाद से इतना वक्त बीत चुका है कि भारतीय मुसलमानों के भविष्य पर नए दृष्टिकोण से विचार करना होगा. वह नस्ल अब नहीं रही जिसने आजादी के बाद ‘मुसलमानों के यूटोपिया’ पाकिस्तान पर अपनी जन्मभूमि को तरजीह दी थी. अब वह नस्ल भी बूढ़ी हो चुकी है जो 1962 के भारत-पाक युद्ध के दिनों में छिप कर धीमी आवाज में पाकिस्तान रेडियो सुना करती थी. आज उस नस्ल पर भी उम्र का भारी साया पड़ चुका है जो पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के जीतने पर अपनी गलियों में पटाखे छोड़ती थी. 1977 में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार की स्थापना के चमत्कार के बाद मुसलमानों की सोच में कुछ तब्दीली आई. 1980 के बाद खाड़ी के देशों में जाने वाले भारतीय मुसलमानों ने अपनी कौम के पाकिस्तानी भाइयों को करीब से देखा तो उन्हें पहली बार अनुभव हुआ कि पाकिस्तानियों के लिए वे उनके ‘मुसलमान भाई’ नहीं बल्कि ऐसे भारतीय मुसलमान हैं जिनका ईमान मुकम्मल नहीं है और जो काफिरों में रहते हुए काफिरों जैसे हो गए हैं. यहीं से शुरू हुआ था उनका पाकिस्तान से मोहभंग.

अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद तालिबान का पिशाच धर्म का चोला पहन कर पहले पाकिस्तान में घुसा और फिर सिमी का पहचान पत्र हासिल करके इस्लामी राष्ट्र के मार्ग से भारत में प्रवेश कर गया

आजादी के बाद के तीस बरसों में एक पीढ़ी गुजर चुकी थी और एक पीढ़ी जवान हो गई थी कि 1984 में शाहबानों के तलाक के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने मुसलमानों में हलचल मचा दी. हकीकत यह थी कि इस फैसले ने उन रुढ़िवादी मुसलमानों को विचलित कर दिया था जो मुस्लिम समाज पर अपनी पकड़ उसी तरह मजबूत रखना चाहते थे जिस प्रकार 17वीं शताब्दी तक ईसाइयों पर ही नहीं ईसाई बाहुल्य देशों पर भी चर्च का वर्चस्व कायम था. यह अजीब विडंबना है कि जिस इस्लाम में पोप जैसे किसी धर्म गुरू का कोई स्थान नहीं है, उसके मुल्लाओं में पोप जैसा धार्मिक रुतबा रखने की लालसा अब तक भरी है. शाहबानो के मुकदमे से खौफ खाए इन्हीं रुढ़िवादी मुल्लाओं ने अपने निहित स्वार्थो के लिए देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले के खिलाफ पूरे देश में बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया. आम हिंदू चकित था कि सरकारी नौकरियों में सिर्फ 6 प्रतिशत और गरीबी रेखा के नीचे 40 प्रतिशत जगह पाने वाले इन मुसलमानों ने अपनी आर्थिक मांगों को लेकर तो आज तक ऐसा कोई आंदोलन नहीं किया. तो फिर एक 70 वर्षीय तलाकशुदा बुढ़िया को केवल तीन सौ रुपए गुजारा देने के अदालती फैसले में ऐसा क्या है कि ये उसके खिलाफ जीवन-मरण की लड़ाई लड़ रहे हैं? वोट बैंक खोने के डर से राजीव गांधी की नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने संसद में एक अध्यादेश लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदल दिया.  यह भारत के इतिहास का वह टर्निग प्वाइंट था, जहां से देश की राजनीति को धर्माधता की उस अंधी सुरंग में प्रवेश करना था जिसका रास्ता अयोध्या की बाबरी मस्जिद से होकर गुजरता था.

जिन हिंदुओं को शाहबानो के प्रति मुसलमानों की नफरत समझ में नहीं आ रही थी उनकी परेशानी को संघ ने इस विचित्र तर्क के साथ दूर कर दिया कि मुसलमान सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अगर मान लेते तो जिस आसानी से तलाक देकर वे तीन-चार शादियां कर लेते हैं वह संभव न होगी. ऐसे में वे हिंदुओं से अधिक आबादी बढ़ाने का अपना गुप्त मंसूबा पूरा नहीं कर सकेंगे और भारत पर फिर कब्जा करने का उनका मकसद पूरा नहीं होगा! सीधा सा ये गणित आम हिंदुओं को आसानी से समझ में आ गया पर मुसलमान ही नहीं समझ सके अपने इस कथित धार्मिक आंदोलन की उस प्रतिक्रिया को जो आठ वर्ष बाद राम जन्मभूमि मंदिर के भयावह आंदोलन के रूप में सामने आने वाली थी.

1971 में इरान में आयतुल्ला खुमैनी के इस्लामी इंकलाब ने भारत सहित बाकी दुनिया के तमाम रूढ़िवादी मुसलमानों का हौसला बढ़ा दिया था. खुमैनी शिया संप्रदाय के धर्मगुरु थे. शिया और सुन्नी संप्रदाय में गत 1400 सालों से तनाव चला आ रहा है मगर खुमैनी शिया ही नहीं उन सुन्नियों के भी नायक बन गए थे जिनके मन में कहीं इस्लामी राष्ट्र के लिए नरम गोशा था. 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अफगानिस्तान में कट्टर रुढ़िवादी तालिबान अमेरिका और पाकिस्तान की सहायता से अपना वर्चस्व स्थापित कर चुके थे. उनकी जीत को तमाम भारतीय  मुसलमानों ने भी, इस्लाम की जीत और राष्ट्रपति मुजीबुल्ला की पराजय और उनकी दर्दनाक हत्या को कम्युनिज्म की पराजय के तौर पर देखा था. 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद भाजपा और संघ ने भी मुसलमानों के खिलाफ नफरत को पुख्ता करने में सफलता प्राप्त कर ली.

अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद तालिबान का पिशाच धर्म का चोला पहन कर पहले पाकिस्तान में घुसा और फिर सिमी का पहचान पत्र हासिल करके इस्लामी राष्ट्र के मार्ग से भारत में प्रवेश कर गया. बाबरी मस्जिद विरोधी आंदोलन ने हिंदुओं में मुसलमानों के खिलाफ दबे उस क्रोध को एक हिंसक दिशा दे दी, जो शाहबानो केस में संघ ने पैदा किया था. इस बार मुसलमानों की ओर से बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को मान लेने का प्रस्ताव रखा गया तो संघ ने आस्था के नाम पर उसे स्वीकार करने से ठीक वैसे ही इंकार कर दिया जिस प्रकार शाहबानो के केस में मुसलमानों ने इंकार किया था! नतीजा बाबरी मस्जिद विध्वंस के रूप में सामने आया था. इस के बाद हुए दंगों ने एकदम से पूरे देश का माहौल बदलकर मुसलमानों में ऐसा भय पैदा कर दिया जिसने समूची व्यवस्था पर से उनका विश्वास उठा दिया. अचानक ही 1977 में कायम की गई सिमी ने मुस्लिम युवकों में और 1926 से स्थापित ‘तबलीगी जमात’ ने आम मुसलमानों में वह जगह बना ली जो उन्हें अब तक नहीं मिली थी. आम मुसलमानों में मजहब के नाम पर धर्माधता, दाढ़ी और बुर्के  की शक्ल में फैलती चली गई. सबसे हैरत की बात थी कि उर्दू अखबारों ने सिमी की धर्माधता और उसकी जेहादी गतिविधियों की कभी आलोचना नहीं की. उनकी यह नीति रही है कि जिस व्यक्ति या संगठन के साथ इस्लाम शब्द जुड़ा हो उसकी आलोचना में एक भी शब्द भी प्रकाशित नहीं किया जाएगा, वह चाहे संपादक के नाम पाठक का कोई पत्र ही क्यों न हो. जिस समाज में यह सूरते हाल पैदा कर दी जाए उसका मानस क्या होगा?

बाबरी मस्जिद की घटना का एक रौशन पहलू यह भी है कि असुरक्षा की जिस भावना ने उन्हें धर्माध शक्तियों की ओर ढकेला था उसी ने उन्हें आत्मनिर्भर होने के लिए भी प्रेरित किया. मुसलमानों में शिक्षा का महत्व काफी बढ़ा. वह नौकरियों पर आश्रित न रह हर छोटे-मोटे कारोबारों में लग गए. आज तक भारतीय मुसलमानों को किसी घटना ने इतना आहत और असुरक्षित महसूस नहीं कराया था जितना कि मुंबई और गुजरात के दंगों ने. व्यवस्था के अत्याचार और अन्याय के अहसास का नतीजा ये हुआ कि कभी उच्च शिक्षा का लक्ष्य रखने वाले मुस्लिम युवा सरहद पार करने लगे. इसकी जिम्मेदारी किसके सिर रखी जाएगी?

1878 में मुस्लिम सुधारवादी विचारक सर सैयद अहमद खान ने मुसलमानों को उदारवादी बनाने के विचार से, मोहम्मडन कॉलेज के नाम से अलीगढ़ में भविष्य के सबसे बड़े मुस्लिम विश्वविद्यालय की जो नींव रखी थी. वह आज रुढ़िवादी आंदोलनों का गढ़ बन चुका है. स्वतंत्रता से पूर्व सरकारी उपक्रमों में मुसलमानों का अनुपात 18 प्रतिशत था वह आज घट कर 8 प्रतिशत पर पहुंच गया है. साठ साल बाद भी मुसलमान आज वहीं ठगा हुआ सा खड़ा है जहां वह 60 साल पूर्व खड़ा था. लेकिन उसे अपने ठगे जाने का एहसास शायद आज भी नहीं है.                                                                                                                                               

साजिद रशीद