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दिल्ली दंगों में दहशत, वहशत और अफवाह

राजधानी दिल्ली में कभी किसी ने सोचा तक नहीं था कि एक समाज में रहने वाले वे लोग, जो दशकों से एक साथ मिलकर रह रहे हैं, रातोंरात दो भागों मेें बँटकर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाएँगे। कई बार आपस में हिसंक झड़पें होती रही हैं, लेकिन इस तरह कत्लेआम, लूटपाट और आगजनी जैसी हिंसक वारदात होने की किसी को भी ज़रा भी आशंका नहीं थी। 23 से 25 फरवरी तक, तीन दिनों के भीतर जाफराबाद, ब्रह्मपुरी, चाँद बाग, करावल नगर, शिव विहार, मौजपुर सहित तमाम वे गलियाँ जहाँ पर हिन्दू-मुस्लिम साथ रहते थे, एक-दूसरे के सुख-दु:ख में मिलकर हमेशा साथ खड़े रहते थे, वहाँ पर भीषण दंगों की आग की लपटों ने सब कुछ जलाकर राख कर दिया। सबसे दु:खद पहलू यह है कि लोगों में जो प्यार और विश्वास था, वह अब नफरत में बदल-सा गया है। दंगे के भीषण नरसंहार में दिल्ली पुलिस के हेडकांस्टेबल रतन लाल सहित 50 से अधिक लोगों की मौत हो गयी और 300 से अधिक लोग गम्भीर रूप से घायल हो गये। वहीं, इस दंगे में दर्ज़नों लोग लापता हैं, जिनकी तलाश जारी है। दंगा प्रभावित क्षेत्र में तहलका संवाददाता ने मृतकों, घायलों के परिजनों से बात की, तो उन्होंने बताया कि यह तो एक दिन होना ही था; क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान और शाहीन बाग में जो कुछ धरना-प्रदर्शन को लेकर सियासी बयानबाज़ी चल रही थी, वह पूरी तरह से विभाजन वाली और आपसी सौहार्द बिगाडऩे वाली रही है। आिखरकार यह बयानबाज़ी 23 फरवरी को दंगे के रूप में सामने आ ही गयी। यहाँ पर भले ही शान्ति की बात कही जा रही है, पर दहशत और तनाव की स्थिति जल्द खत्म होने वाली नहीं है। एक-दूसरे को शक की नज़र से देखा जा रहा है।

अब बात करते हैं कि आिखर क्यों इतने भीषण दंगे हुए? इसकी मुख्य वजह दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान सियासी दलों द्वारा एक-दूसरे पर तंज भरे बयान देने के साथ-साथ दिल्ली के शाहीन बाग में सीएए के विरोध मेंं एक बड़ा धरना बताया जा रहा है। इस धरने को दिल्ली में दो समुदाय के कुछ लोग अपनी प्रतिष्ठा और हीन भावना के तौर पर देखते रहे हैं। ऐसे में उत्तेजक बातों का होना भी एक कारण है। दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले यहाँ पर एक पार्टी के कार्यकर्ता ने 10 जनवरी को साफतौर पर कहा था कि केंद्र सरकार की नीतियों को नहीं, बल्कि उसकी पार्टी को हराना है; तबसे यहाँ पर ये बातें होने लगी थीं कि विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद देखा जाएगा।

वैसे, जाफराबाद में सीएए के विरोध में लम्बे समय से शान्तिपूर्वक धरना चल रहा था। किसी को धरने से कोई आपत्ति भी नहीं थी। 23 फरवरी को एक सोची-समझी साज़िश के तहत सीएए के विरोध में एक समुदाय की महिलाओं ने सडक़ के बीचोंबीच धरने का विस्तार करके केंद्र विरोधी नारेबाज़ी शुरू कर दी। उधर, उसी समय भाजपा के नेता कपिल मिश्रा ने वहाँ आकर सीएए का समर्थन करते हुए चेतावनी दी कि अगर यह धरना ऐसे ही चलता रहा, तो हम मेहमान के रूप में भारत दौरे पर आये अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के जाने तक का इंतज़ार करेंगे, उसके बाद हम पुलिस की भी नहीं सुनेंगे। यह कहकर कपिल मिश्रा तो वहाँ से चले गये, लेकिन अगले दिन ही दंगे भडक़ गये। कपिल का कहना था कि कुछ अराजक तत्त्वों ने हमलेबाज़ी, गाली-गलौज शुरू कर दी। इसके अगले दिन ही अचानक ऐसा खूनी तांडव हुआ, जो सबके सामने है।

चाँद बाग और शिव विहार में सबसे ज़्यादा हत्या, लूटपाट और आगजनी की घटनाओं को भयानक अंजाम दिया गया। यहाँ के नाले में इंटेलिजेंस ब्यूरो में सहायक अंकित शर्मा का शव मिला। अंकित के भाई अंकुर ने तहलका संवाददाता को बताया कि उनके भाई की हत्या में ‘आप’ के पार्षद ताहिर हुसैन का हाथ है; क्योंकि उनके भाई को कुछ लोग खींचकर ताहिर के घर पर ले गये थे; बाद में उसका जो शव मिला।

बता दें कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में अंकित के शरीर पर 400 बार चाकुओं से वार होने की पुष्टि हुई है। यहाँ के निवासी विनोद सिंह ने कहा कि चाँद बाग के नाले को सरकार को सही तरीके से साफ करवाकर देखना चाहिए, ताकि पता चल सके कि अभी और कितने शव वहाँ पर हैं। क्योंकि कई परिवार वाले आज भी अपने परिजनों की तलाश कर रहे हैं। शिव विहार में एक गली तो पूरी तरह से जला दी गयी है। वहाँ सन्नाटा चीत्कार करता महसूस हो रहा है। यहाँ के निवासी रमेश कुमार ने  बताया कि जब हिंसक दंगा करने वाले उनके घर की तरफ जब आ रहे थे, तब वह बड़ी मुश्किल से अपनी बहू को लेकर जान बचाकर भागे थे। चाँद बाग निवासी फरहत ने बताया कि उनके पति सोनू दिलशाद का चाँद बाग में बवाल के बाद से कुछ पता नहीं है। फरहत ने बताया कि ऐसे दंगे सामने से देखने पर उनके मन में डर समा गया है। पुलिस में लापता होने की शिकायत की है।

इसी तरह का हाल मोहनीश की माँ का है। रो-रोकर उनका हाल बेहाल है। उनका कहना है कि वह शव जीटीबी अस्पताल में देख चुकी हैं, पर उनके परिजनों का कोई अता-पता नहीं है। 25 फरवरी को जान बचाकर भागने वाली फरहीन ने बताया उनके पति और भाई को कुछ लोगों ने घर से निकालकर मारा, जिसमें उन्होंने अपने पति आरिफ को तो बचा लिया, पर उग्र भीड़ के सामने वह अपने भाई मुशर्रफ को नहीं बचा सकीं। 24 फरवरी की रात शिव विहार स्थित होटल में दिलवर काम करता था। जब शोरशराबा हुआ कि होटल में आग लग गयी है, तभी भागती भीड़ को देखकर दिलवर जान बचाकर भाग रहा था, लेकिन भीड़ ने दिलवर को पकडक़र जलते कमरे में फेंक दिया; जिससे उसकी दर्दनाक मौत हो गयी। दिलवर के परिजनों ने बताया कि दिलवर होटल में काम करने के साथ-साथ पढ़ाई और सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहा था। इसी तरह उन तमाम लोगों की तमाम दर्द भरी कहानियाँ हैं, जिन्होंने अपने परिजनों को इस हिंसक दंगे में खो दिया।

दिल्ली का जब एक हिस्सा जल रहा था, तब पुलिस और सियासतदाँ कहाँ थे? इस बात को लेकर यहाँ के लोगों ने जमकर दिल्ली सरकार, केंद्र सरकार और पुलिस पर गुस्सा व्यक्त किया। लोगों का कहना है कि सियासत करनेे वाले अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। वेलकम निवासी परवेज़ बताया कि चुनाव के दौरान नेताओं को जनता अपना हितैषी समझकर इनका साथ देती है और वोट देती है; लेकिन जैसे ही इनका भला-बुरा हो जाता है, ये आग लगाने से नहीं चूकते हैं।

परवेज़ का कहना है कि अब जनता समझ चुकी है कि हिंसा की जड़ में शाहीन बाग है। अगर दिल्ली सरकार का या केंद्र सरकार का कोई नेता चाहता, तो शाहीन बाग का धरना समाप्त करवा सकता था; लेकिन ऐसा नहीं हुआ है, जो पूर्वी दिल्ली वालों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ रहा है। सरदार इंद्रजीत सिंह ने बताया कि 1984 के बाद दिल्ली में पहली बार बड़े पैमाने पर कत्लेआम और लूटपाट हुई है, तब भी सियासत के लोग थे, आज भी सियासत के लोग हैं। क्योंकि दिल्ली में जो खूनी खेल खेला गया है, वह एक दिन का नतीजा नहीं है। यह सब सुनियोजित और मारपीट तथा लोगों की जान लेने के लिए साज़िशन किया गया है। घरों में पेट्रोल बम, गुलेलों और पत्थरों का मिलना इस बात का प्रतीक है कि दंगे की तैयारी पहले से ही की जा चुकी थी; बस मौके की तलाश थी और यह मौका उनको 23, 24 और 25 फरवरी को मिला।

दिल्ली और देश की राजनीति में दो समुदायों के बीच जो शब्दों के बाण चलाये जा रहे हैं, उसमें समाज एक तीसरा समुदाय गुपचुप तरीके से आगजनी और मौतों के ‘खेल’ को अंजाम दे रहा है। बतातें चलें कि जो तीसरा समुदाय है, वह किसी राजनीतिक दल से पैसा लेकर सियासत में अपनी धाक ज़माने के लिए काम कर रहा है, उसमें कुछ धर्म के कथित ठेकेदार भी हैं, जो मौका मिलते ही एक धर्म से दूसरे को लड़ाने ने की िफराक में रहते हैं। कहीं लाउडस्पीकर से, तो कहीं मजमा लगाकर उत्तेजक बातें करके दंगों का रास्ता बना रहे हैं। धर्म के नाम पर घोषित रूप से दुकानें चलाने वालों पर अगर सरकार कार्रवाई करे, तो काफी हद तक दंगों को रोका जा सकता है।

हालाँकि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने जिस अंदाज़ में दंगाग्रस्त इलाकों का दौरा करके मरने वाले और घायलों के परिजनों से मिलकर सुरक्षा का भरोसा दिया और पुलिस व्यवस्था को चौकस करने का आदेश दिया है, तबसे यहाँ प्रकार किसी प्रकार की अप्रिय घटना नहीं घटी है। दिन-ब-दिन कफ्र्यू में भी ढील दी जा रही है और बाज़ारों में फिर से आहिस्ता-आहिस्ता रौनक लौटने लगी है। सुरेश भगत ने बताया कि पुलिस के साथ अद्र्धसैनिक बलों की तैनाती के बाद भले ही अभी शान्ति है, पर ये शान्ति स्थायी रूप से कायम रहनी चाहिए। मौजपुर में अध्यापक राम कौशिक ने बताया कि केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार जब तक मिलकर स्थायी समाधान नहीं निकालती हैं, तब तक यहाँ पर तनाव रहेगा। क्योंकि जिस तरह से सुनियोजित तरीके से दंगों को अंजाम दिया गया है, वह इतनी आसानी से शान्त होने की उम्मीद नहीं है। लोग अब भी  दहशत में हैं। यहाँ निवासियों का कहना है कि दंगे में जो लोग भी गिरफ्तार किये गये हैं, उन सबके मोबाइल फोन की डिटेल देखी जाए, तो बहुत-सी बातों का खुलासा हो जाएगा। जैसे- दंगे करने का मंसूबा क्या था? कितने लोग देश को आग में झोंकना चाहते हैं?

दिल्ली की राजनीति के जानकार व वकील पीयूष जैन का कहना कि नफरत का जो नंगा नाच खेला जा रहा है, उसमें पुलिस को दोष देना ठीक नहीं है। क्योंकि दिल्ली में खुले तौर पर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान वाली राजनीति हो रही है। ऐसी राजनीति एक दिन हर हाल में भयंकर व घातक घटनाओं को अंजाम देती है और यहाँ यही हुआ भी। ऐसे में सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को एक शपथ लेनी होगी कि वे भारतीय राजनीति में भारत से जुड़े मामलों को ही महत्त्व देंगे, न कि पड़ोसी देश को; खासतौर सो दो धर्मों से जुड़ी बात के मामले में तो बिल्कुल नहीं।

भले ही आज दिल्ली का एक हिस्सा जला है, लेकिन इसकी सियासी लपटों से कहीं-न-कहीं पूरा देश झुलसा है और एक तरह से नयी राजनीति को जन्म दे रहा है। अगर समय रहते इस तरह की घटनाओं को गहराई से न परखा गया और उनसे सख्ती से नहीं निपटा गया, तो आगे भी ऐसी घटनाओं की आशंका बनी रहेगी।

ट्रंप का ‘तारीफी’ दौरा

जैसा कि पहले से उम्मीद थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड टं्रप के दौरे के बीच कोई बड़ी डील की सम्भावना नहीं है, बल्कि यह सियासी फायदे का दौरा साबित होने वाला है। कुछ वैसा ही दौरे में देखने को मिला। ट्रंप के पूरे दौरे में उन्होंने सिर्फ मोदी की तारीफ की और अहमदाबाद में अपनी तारीफ के पुल में आयोजित कार्यक्रम की खूब वाहवाही की। 24-25 फरवरी को दो दिवसीय दौरे पर आये अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत के साथ तीन अरब डॉलर (करीब 21 हज़ार करोड़ रुपये) का रक्षा सौदा किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ट्रंप की द्विपक्षीय वार्ता में इस सौदे पर हस्ताक्षर किये गये। सौदे के तहत भारत अमेरिका से तीन अरब डॉलर के हेलीकॉप्टर और सैन्य उपकरण खरीदेगा। इसके अलावा दोनों नेताओं के बीच व्यापार सन्धि पर भी चर्चा हुई, पर उसे अंतिम रूप नहीं दिया जा सका।

भारत में कदम रखने से पहले 24 फरवरी को ट्रंप ने हिन्दी में ट्वीट करके भारतीयों का दिल जीतने की कोशिश की साथ ही हाउडी मोदी की तर्ज पर अहमदाबाद के मोटेरा स्टेडियम में आयोजित भव्य कार्यक्रम ‘नमस्ते ट्रंप’ की तारीफ में भी पुल बाँधे। 25 फरवरी को मोदी और ट्रंप के बीच हैदराबाद हाउस में द्विपक्षीय वार्ता हुई। इसके बाद दोनों नेताओं ने साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि दोनों देशों के बीच तीन साल में व्यापार में दो अंक की बढ़ोतरी हुई है। द्विपक्षीय व्यापार मामले में सकारात्मक बातचीत हुई है। हम एक बड़े व्यापार सौदे पर सहमत हुए हैं। सम्भव है कि अमेरिका के चुनाव सेपहले इस पर सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे। ट्रंप ने कहा कि मोदी के साथ बातचीत में 21 हज़ार करोड़ रुपये के रक्षा सौदे को मंज़ूरी दी गयी है। इसके अलावा दोनों देश आतंकवाद को खत्म करने के लिए काम करेंगे। पाकिस्तान पर इसके लिए दबाव भी बनाएँगे। मोदी बोले- ‘इस बात की खुशी है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सपरिवार यहाँ आये।’ पिछले आठ महीने में उनसे यह पाँचवीं मुलाकात है। अमेरिका-भारत के सम्बन्ध सिर्फ दो सरकारों के बीच नहीं, पीपुल सेंट्रिक है। यह 21वीं सदी की सबसे महत्त्वपूर्ण स्थिति में हैं। इस रिश्ते को यहाँ तक लाने में ट्रंप का अमूल्य योगदान है।

अपनी भारत दौरे पर हुए अभूतपूर्व स्वागत पर खुशी जताते हुए ट्रंप ने कहा कि ये दो दिन शानदार रहे, विशेषकर पहला दिन जब मोटेरा स्टेडियम में ‘नमस्ते ट्रंप’ में बिताया। यह सम्मान की बात है। भारतीयों की मेहमाननवाज़ी याद रहेगी। ट्रंप बोले कि मोदी यहाँ बेहतरीन काम कर रहे हैं। गाँधी जी के आश्रम में हमें खास अनुभूति हुई। हम एक बड़ी ट्रेड डील पर सहमत हुए हैं, जल्द इसके सकारात्मक परिणाम निकलेंगे।

ट्रंप ने कहा कि रक्षा, तकनीक, ग्लोबल कनेक्टिविटी, ट्रेड और पीपुल-टू-पीपुल टाईअप पर दोनों देशों के बीच सकारात्मक चर्चा हुई। पिछले कुछ वर्षों में हमारी सेनाओं के संयुक्त युद्धाभ्यास में इज़ाफा हुआ है। अब होमलैंड में हुए समझौते से इसे बल मिलेगा। हमने आतंकवाद के िखलाफ प्रयासों को और बढ़ाने का भी फैसला किया है। हमने ड्रग्स और नारकोटिक्स रोकने पर भी बात की है।

पाकिस्तान, अनुच्छेद-370, सीएए पर भी चर्चा

पीएम मोदी और राष्ट्रपति ट्रंप के बीच पाकिस्तान, कश्मीर और संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) को लेकर भी चर्चा हुई। राष्ट्रपति ट्रंप ने फिर दोहराया कि वे कश्मीर पर मध्यस्थता करने से पीछे नहीं हटेंगे। प्रधानमंत्री मोदी के साथ साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में पाकिस्तान की धरती से चलने वाले आतंकवाद के बारे में ट्रंप ने कहा कि भारत और पाकिस्तान अपनी समस्या को सुलझाने पर काम कर रहे हैं। दोनों देशों के प्रधानमंत्री के साथ मेरे मज़बूत रिश्ते हैं।

अगर दोनों देश चाहें और तैयार हों, तो कश्मीर पर मध्यस्थता के लिए मैं जो कुछ भी कर सकता हूँ, करूँगा। इस्लामिक कट्टर आतंकवाद को लेकर ट्रंप ने कहा कि मुझे लगता है कि इसे काबू करने के लिए मुझसे ज़्यादा कोशिश किसी ने नहीं की। भारत में चल रहे सीएए के विरोध-प्रदर्शन के मामले में अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि यह भारत का अंदरूनी मसला है। हालाँकि उन्होंने उम्मीद जताई कि भारत अपने लोगों के लिए सही फैसला लेगा। मोदी की तारीफ करते हुए ट्रंप ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी एक बेहतरीन नेता हैं। भारत एक शानदार देश है। ऊर्जा क्षेत्र में दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ रहा है। भारत बड़ी मात्रा में रक्षा उपकरण खरीद रहा है।

पाकिस्तान की तरफ से सीमा पार आतंकवाद पर सवाल पर ट्रंप ने का कहना था कि मैंने प्रधानमंत्री मोदी के साथ पाकिस्तान के बारे में भी बात की। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ मेरे अच्छे रिश्ते हैं। वे सीमा पार से आतंकवाद को काबू करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर एक बड़ी समस्या है। ट्रंप ने मोदी से धार्मिक धार्मिक स्वतंत्रता के मुद्दे पर भी बात की। उन्होंने कहा- प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं कि देश में लोगों के पास धार्मिक आज़ादी हो।

अगर आप देखें, तो भारत इसके लिए गम्भीर प्रयास करता रहा है। दिल्ली में हिंसक प्रदर्शनों के बारे में बोले कि मैंने सुना है और पता भी चला है पर इस बारे में मोदी से कोई बात नहीं की है। यह भारत का अपना मसला है। अफगानिस्तान में ‘तालिबान के साथ समझौते पर ट्रंप ने कहा कि मैंने इस बारे में प्रधानमंत्री मोदी से बात की है। मुझे लगता है कि भारत भी इससे खुश होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में रूस की तरफ से जासूसी के मुद्दे पर ट्रंप ने कहा कि खुफिया एंजेंसियों ने इस बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं दी।

सपरिवार भारत पहुँचे

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड टं्रप के साथ उनकी पत्नी मेलानिया ट्रंप, बेटी व सलाहकार इवांका ट्रंप, दामाद जेरेड कुशनर समेत ट्रंप प्रशासन के उच्चाधिकारियों का प्रतिनिधिमंडल भी पहुँचा। इनमें अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रॉबर्ट ओ ब्रायन भी आये। इस दौरान पूरा परिवार आगरा भी पहुंचा और ताजमहल के परिसर में करीब दो घंटे बिताये। वह अमेरिका से सीधे अहमदाबाद एयरपोर्ट पर उतरे थे। जहाँ से पहले साबरमती आश्रम जाकर बापू को नमन किया और फिर मोटेरा स्टेडियम में अपने स्वागत समारोह में शिरकत की। 36 घंटे के भारतीय दौरे को टं्रप ने कहा कि भारत महान् है, यात्रा बेहद सफल रही।

भारत में ज़ोरदार स्वागत-सत्कार हुआ, जिससे बेहद गद्गद् हूँ। भारत एक महान् देश है। यात्रा बेहद सफल रही।                                        डोनाल्ड टं्रंप, अमेरिकी राष्ट्रपति

व्यापार की राजनीति

2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिकी यात्रा के दौरान बड़े सौदे किये जाने की उम्मीदें की जा रही थीं, जो लगातार टाल दी जाती रही हैं। इस बार भी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दौरे में कोई बहुत बड़ा सौदा नहीं हुआ। इस पर ट्रंप ने कहा भी कि बड़ा सौदा अमेरिका के चुनाव से पहले हो सकता है। उन्होंने मीडिया से भी कहा कि हम भारत के साथ एक व्यापार सौदा कर सकते हैं, लेकिन बड़ी डील को अभी बचा रहा हूँ, जिसको चुनाव से पहले कर सकते हैं। इतना ही नहीं, ट्रंप ने कथित तौर पर भारत को दुनिया का टैरिफ-किंग करार दिये जाने का आरोप लगाया। हार्ले डेविडसन मोटरबाइक प्रकरण को ट्रंप पहले ही सामने रख चुके हैं। भारत के साथ व्यापार घाटा 25.2 अरब डॉलर था, जिसमें से 2018 में माल व्यापार घाटा 20.8 अरब डॉलर था। ट्रंप ने अपनी अमेरिका फस्र्ट नीति के तहत कहा कि भारत ने हमारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया, लेकिन मोदी हमारे अच्छे दोस्त हैं।

व्यापारिक रिश्ते पहले से ही अच्छे संकेत नहीं दे रहे हैं। वाशिंगटन ने भारत को विकासशील देशों की सूची से हटा दिया है, जबकि वह व्यापारिक नियमों की बात करता है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, हाल के दिनों में अमेरिकी व्यापार वार्ताकार भारतीय बाज़ार में पहुँच के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। क्रैनबेरी और पेकान नट्स भी इसमें शामिल हैं, जिनका अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान है। विशेषज्ञ कहते हैं कि द्विपक्षीय सम्बन्धों में दोहरी चुनौतियाँ लागू होती हैं। पहली, अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि के हाथों में ज़्यादा शक्ति का होना, जिसे व्यापार हाक कहा जाता है; और दूसरी, व्यापार ने वाशिंगटन और नई दिल्ली के बीच द्विपक्षीय सम्बन्धों के लिए एक अलग मध्यस्थ की भूमिका अदा की है।

व्यापार के आँकड़ों पर नज़र डालें, तो 1999 से 2018 तक दोनों देशों के बीच वस्तुओं और सेवाओं का व्यापार 16 अरब से बढक़र 142 अरब डॉलर हो गया। भारत वस्तुओं और सेवाओं में अमेरिका के आठवें सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार के रूप में उभरा है। निस्संदेह, व्यापार बढऩे के साथ ही कई तरह की दिक्कतें भी सामने आने लगती हैं। हालाँकि किसी भी बड़े व्यापार को अपनी शर्तों पर धकेलने के सख्त अमेरिकी रुख के मद्देनज़र, भारतीय अधिकारी इस इस कूटनीति में कामयाब नहीं हुए, जिससे यह बताया जा सके कि भारत किसी भी सौदे के लिए किसी भी तरह की जल्दबाज़ी में नहीं है।

िफलहाल दोनों ओर से कई तरह की खामियों के बावजूद वर्तमान यात्रा में किसी बड़े सौदे की उम्मीद पहले से ही नहीं थी। निस्संदेह, भारत का अमेरिकी पक्षपात की सामान्य योजना (जीएसपी) विशेषाधिकारों के अमेरिकी निरस्तीकरण, ट्रंप प्रशासन के दृष्टिकोण को अमेरिका फस्र्ट के संचालित करने और अमेरिकी व्यापार अधिकारियों के आग्रह को बनाये रखने के लिए भारतीय पक्ष दबाव में है। फिर भी भारत-अमेरिका व्यापार चर्चा भारत के लिए इसलिए भी महत्त्वपूर्ण रही; क्योंकि जो आर्थिक संकट की स्थिति है, उससे अर्थ-व्यवस्था के सभी क्षेत्रों को प्रभावित करने वाली आर्थिक मंदी पिदले 11 साल के निचले स्तर पर है। इसलिए इसमें बेहतर किये जाने की उम्मीद है।

भारतीय पक्ष ने ट्रंप प्रशासन के लिए विस्तारित ‘अभूतपूर्व’ समर्थन को 2019 में पाकिस्तान द्वारा जैश-ए-मोहम्मद के पुलवामा आतंकी हमले और पाकिस्तान से बाहर चल रहे आतंकवादियों के संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की ओर सहयोग किये जाने को स्वीकारा है। इसलिए भारत को उम्मीद है कि ट्रम्प की वर्तमान यात्रा के दौरान इस सहयोग को और मज़बूत किया जा सकता है, कुछ हद तक इसे आगे बढऩे का रास्ता मान सकते हैं। अमेरिका अफगानिस्तान के साथ शान्ति वार्ता में भारत को शामिल करना चाहता है और कहा कि इससे भारत भी खुश होगा।

आगे का रास्ता

राष्ट्रपति ट्रंप और पीएम मोदी आमतौर पर इस बात एक से नज़र आते हैं कि दोनों मीडिया को अहमियत नहीं देते। इस मामले में दोनों ट्विटर पर भरोसा करते हैं। एक आलोचक की नजर से देखा जाए, तो अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रंप’ नामक मेगा शो में ट्रंप का ओवर-द-टॉप टेस्ट, उनके मेजबान पीएम मोदी के साथ बिल्कुल फिट बैठता है, जैसा कि अमेरिका के ह्यूस्टन में हाउडी मोदी इवेंट का आयोजन किया गया था। इसमें ट्रंप ने हिस्सा भी लिया और स्टेडियम में अच्छी-खासी भीड़ भी जमा थी। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव से पहले कोई बड़ी डील और द्विपक्षीय व्यापार सौदे में दोनों देश ऐतिहासिक करार भी कर सकते हैं।

दाऊद का जयपुर पर नया दाँव

क्या पिंकसिटी के नाम से मशहूर जयपुर गोल्ड तस्करी के बेताज बादशाह दाऊद इब्राहीम के काले कारोबार का नया ठिकाना बनने की डगर पर चल पड़ा है? हकीकत चाहे जो हो, लेकिन खबरें आ रही हैं कि सब कुछ निश्चित संकेतों के बरअक्स हो रहा है। सोने की खपत और उपयोग का बढऩा इस बात का संकेत है कि लोगों का रुझान सोने और हीरे के भंडारण की तरफ बढ़ा है। पारखी कहते हैं कि इन्हें भुनाना भी आसान और छुपाना भी आसान। लेकिन इससे इतर बाज़ार की अंदरूनी तहों में झाँकने की दाऊद इब्राहीम की दिलचस्पी का लब्बोलुआब समझें तो, सब कुछ बड़ी रफ्तार के साथ हुआ है।

इसका असर यह हुआ है कि जयपुर सोने, रत्नों और हीरों की खपत को लेकर दुनिया के सबसे बड़े शहरों में शुमार हो चुका है। लागत-लाभ अनुपात का खेल और भी दिलचस्प है कि तस्करी से आये सोने के दामों का भुगतान हीरों में किया जा रहा है। उधर, इस कारोबार में माफियागीरी रोकने के लिए निगरानी करनेे वाली एजेंसियों के अफसरों को अभी तक यह बात हैरान किये जा रही है कि पहली नज़र में मुख्तसर-सी नज़र आने वाली तस्करी एक पेचदार खेल में क्यों पिरोयी हुई लगती है?

तस्करी में करियर के खिलौने नामालूम से शेखावाटी के वो वाशिंदे बने हुए हैं, जिनका मज़दूरी की खातिर खाड़ी देश में आना-जाना लगा रहता है। इनकी निगरानी में हज़ार तरह का लोचा है। जानकार सूत्रों का दावा है कि बेशक तस्करी की निगरानी करने वाली एजेंसियों के अफसर हर लिहाज़ से तस्करों की घेराबंदी में माहिर होते हैं, लेकिन सोने की तस्करी में अक्ल नहीं, अनुभव की दरकार होती है। वजह साफ है कि एयरपोर्ट पर लगी मशीनें सोने को स्कैन करने में कतई कारगर नहीं होतीं। अलबत्ता इसमें अनुभवी अफसर ही मेटल डेन्सिटी देखकर पहचान सकते हैं कि शरीर में सोना है या नहीं? हालाँकि यह बात जुदा है कि इसकी तस्दीक कस्टम महकमे के अफसर ही करते हैं।

क्या सोने की तस्करी के इस खेल के पीछे बड़े आकाओं का हाथ है? काफी हीला-हवाली के बाद अब जाँच एजेंसियों ने इस बात की तस्दीक की है कि हाँ, हमें इसके पुख्ता सुबूत मिल चुके हैं कि कहीं-न-कहीं सोने की तस्करी में अंडरवल्र्ड माफिया दाऊद लिप्त है। क्योंकि इसका सुबूत यह है कि जयपुर स्थित सांगानेर अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर लगातार हो रही सोने की तस्करी के तार डी-कम्पनी (दाऊद की कम्पनी) और अंडरवल्र्ड से जुड़े हुए हैं। इस खेल की नकेल भी पूरी तरह दाऊद इब्राहीम के हाथों में है। दाऊद की देखरेख में काली कमाई की कारोबारी गतिविधियों को दाऊद इब्राहीम के छोटे भाई अनीस, फहीम मचमच और सिकंदर समेत तमाम प्यादे अंजाम दे रहे हैं। दाऊद की इस तिकड़ी ने अलबत्ता निगरानी एजेंसियों के अफसरों को गुमराह करने के लिए ट्रेंड बदल लिया है। नतीजतन इस खेल के नये खिलाड़ी वे लोग हैं, जो एक साल से ज़्यादा खड़ी देशों में रह चुके हैं।  इसके अलावा ऐसे मासूम लोगों का भी कन्धा इस्तेमाल किया जा रहा है, जो एकाएक शक की ज़द में नहीं आते हों? अब इस खेल में कस्टम अफसर कितने बेदाग हैं? वे ही जानें। लेकिन सवाल यह है कि काली कमाई का कारेाबार क्या मैली और ललचाई नज़रों से अछूता रह सकता है? लालच के कुटीर उद्योग को  एक तरफ रखें, तो सूत्रों का कहना है कि दुबई में डी-कम्पनी अपने मज़बूत नेटवर्क का फायदा उठाकर बिना कस्टम ड्यूटी की अदायगी के भी हीरे पार करवा लेती है। कहा जाता है कि क्राइम और कारोबार का संगम हर जगह अपने रास्ते तलाश लेता है। मसलन एक किलो से कम मिकदार में होने वाली सोने की तस्करी का रहस्य कैसे भी करके शक-शुब्हा से परे रखना था। अब अगर नारकोटिक्स में बढ़ते खतरों के मद्देनज़र डी-कम्पनी सिंगापुर को हीरों की तस्करी का हेडक्वार्टर बना रही है, तो इसके पीछे भी दाऊद की दूरगामी रणनीति है। डी-कम्पनी के खेल का नया दस्तूर समझें, तो सिंगापुर की अर्थ-व्यवस्था में हज़ार छेद हैं। यहाँ दो नम्बर के हीरों को एक नम्बर में तब्दील करने के लिए हीरों पर कर्ज़ लिया जा सकता है। यह रकम होटल, ट्यूरिज्म और कैसिनो जैसे कारोबार में लगा दी जाती है। इस कारोबार की कमाई से ही कर्ज़े की ईएमआई भरी जाती है। अब इससे मज़ेदार खेल और क्या होगा?

जयपुर के सांगानेर अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट की शीशे जड़ी मोटी और ट्रांसपैरेंट दीवारों को लाँघकर सतह पर तो अभी तक इतना ही सच आ सका है कि निगरानी एजेंसियों के अफसर अभी तक इस तस्करी के असली माफियाघेरों के चारो ओर चक्करघिन्नी किये हुए हैं। यानी अभी कोई ठोस सुबूत यानी किसी माफिया के गिरेबान तक जाँच एजेंसियाँ नहीं पहुँची हैं। मज़े की बात यह है कि जाँच की असली शुरुआत तब हो पायी, जब जाँच एजेंसियों के सक्रिय होने की भनक गोल्ड तस्करी के तालाब की बड़ी मछलियों को लग गयी और वे एकाएक ‘छूमंतर’ हो गयीं। ऐसे में जाल में फँसे भी तो छोटे-मोटे नामालूम से ‘केंकड़े’! लेकिन एटीएस अफसरों की बद-गुमानी का गुब्बारा तब फूटा, जब प्रवर्तन निदेशालय की टीम ने जयपुर की तीन फर्मों पर बड़ी कार्रवाई करते हुए 26.97 किलो सोना 12.24 किलो चाँदी और 15 करोड़ की नकदी ज़ब्त कर ली। ईडी ने चौंकाने वाली कार्रवाई करके अगर कुछ किया, तो यह कि हवाला कारोबार को सतह पर ला दिया। फर्मों ने कुबूल किया कि हम तस्करी में शामिल थे। रकम का भुगतान हवाला के ज़रिये किया जा रहा था। जानकारियाँ खुरचने की मशक्कत शुरू हुई, तो एटीएस अफसरों के दिमाग के भी तोते उड़ गये। पता चला किडी-कम्पनी पूरी तरह ज़िन्दा है। यही नहीं सोने की तस्करी की हकीकत भी अफसरों के होश उड़ाने वाली थी।

बताया जा रहा है कि अब गोल्ड तस्करी का नया रूट बन गया है। तस्करी के गोल्डन ट्रायंगल में इसे चेन्नई, कलकत्ता, जयपुर के नाम से जाना जाता है। यह रहस्योद्घाटन भी दिलचस्पी से परे नहीं है कि चेन्नई की फर्म बांका बुलियान प्राइवेट लिमिटेड सोने की छड़ें की तस्करी कर इसके मार्क को हटा देती थी। बाद में इसे कोलकत्ता की फर्म को भेजा जाता है था फिर हवाला के ज़रिये भुगतान केे बाद सोना जयपुर पहुंचता था। प्रवर्तन निदेशालय के अफसरों का कहना है कि इन फर्मों ने करोड़ों रुपये के जीएसटी, कस्टम ड्यूटी और इन्कमटैक्स की चोरी की है। इसलिए इन पर फोरन एक्सचेंज मैनेजमेंट एक्ट (फेमा) के तहत कार्रवाई की जा रही है। बहरहाल बड़े पैमाने पर हो रही तस्करी की वजह क्या है? इसे खंगाले तो सरकार ने सोने पर 12.5 फीसदी कस्टम शुल्क लगा दिया है। निगरानी एजेंसियाँ भी इतना तो मानती है कि भारत में कुल तस्करी का 10 फीसदी से ज़्यादा सोना नहीं पकड़ जा सकता। आज सोना पाँच हज़ार प्रति ग्राम के भाव पर जा रहा है। वल्र्ड गोल्ड काउंसिल की मानें, तो भारत तथा अन्य देशों में कीमत में ज़्यादा फर्क कारण ही सोने की तस्करी में इज़ाफा हो गया है। वरिष्ठ पत्रकार मधुरेन्द्र सिन्हा कहते हैं कि जयपुर में हाल ही कस्टम अधिकारियों ने एक कोरियाई नागरिक को करीब दो करोड़ रुपये के सोने के साथ पकड़ा। ऐसी खबरें कई जगहों से आ रही है। कोई ऐसा दिन नहीं गुज़रता, जब हवाई अड्डों पर तस्करी से लाया गया सोना पकड़ा नहीं जाता। यहाँ तक कि ऑनलाइन तस्करी भी हो रही है और अरबों रुपये का सोना तस्करी से आ रहा है। 2017-18 में देश में सरकारी एजेंसियों ने 3223 किलो सोना, जिसकी कीमत 974 करोड़ रुपये भी पकड़ा था।

सिन्हा कहते हैं कि सोने की तस्करी तेज़ी से बढ़ी भी है। कभी जब भारत में सोने की खरीद-बिक्री पर कई तरह के नियंत्रण थे, तो तस्करी दुबई से होती थी; जिसने अंतत: अंडरवल्र्ड को जन्म दिया था। आज हालात वैसे तो नहीं है; जो इलाके पहले इससे अछूते थे, उनका नाम भी अब सोने की तस्करी से जुड़ रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है- पूर्वोत्तर भारत। किसी ज़माने में हथियार तस्कर वहाँ उग्रवादी समूहों को म्यांमार से हथियार लाकर बेचते थे। जोखिम के कारण अब उन्होंने सोने की तस्करी शुरू कर दी है। वहाँ से सोने के बिस्कुट भारत पहुँचाये जाते हैं और फिर नागालैंड-असम होते हुए कोलकाता। फिर यह सोना सामान्य बाज़ार का हिस्सा बन जाता है।

दिलचस्प बात यह है कि स्थानीय लोगों के अलावा वहाँ राजस्थान के भी कुछ लोग सोने की तस्करी में शामिल पाये गये हैं। उनके लिए यह पैसा बनाने का आसान रास्ता है। इतना ही नहीं, इस समय सोना उन देशों से भी आने लगा है, जहाँ पहले ऐसी बातें सुनाई नहीं पड़ती थीं। जैसे नेपाल, बांग्लादेश, हांगकांग, श्रीलंका वगैरह। नेपाल और म्यांमार में दोनों देशों के नागरिकों के आवागमन पर रोक-टोक नहीं है और तस्कर इसका फायदा उठाते हैं।

लगातार जारी है गोल्ड तस्करी : अफसर

जयपुर के सांगानेर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पिछले कुछ अर्से से लगातार तस्करी हो रही है। इस बारे में कस्टम विभाग के डिप्टी कमिश्नर यतीश कुमार ने कुछ खुलासे ‘तहलका’ संवाददाता से हुई बातचीत में किये। डिप्टी कमिश्नर ने बताया कि फ्लाइट एसजी-57 से उतरने वाले दो यात्रियों को शक की बिना पर गिरफ्त में लिया गया। पूछताछ करने पर पहले तो उन्होंने इन्कार किया, लेकिन बाद में जामा तलाशी के दौरान गजानंद नामक व्यक्ति के कपड़ों से 116 ग्राम के सोने के चार बिस्किट मिले। गजानंद चूरू ज़िले के रतनगढ़ का रहने वाला है। दूसरा व्यक्ति भँवर सिंह सीकर ज़िले के लक्ष्मण गढ़ का रहने वाला था। उससे भी इतने ही वजह का सोना बरामद हुआ। यतीश कुमार ने बताया कि इससे पहले 10 जनवरी को उत्तर कोरिया के एक नागरिक से तस्करी का साढ़े चार किलो सोना बरामद किया गया। सोना सौ-सौ ग्राम के 45 बिस्किटों की शक्ल में था। उधर राजस्व अधिसूचना निदेशालय (डीआरआई) के सूत्रों ने बताया कि बैंकाक सोना लेकर आये इस युवक ने अहमदाबाद में तो निगरानी अफसरों को चकमा दे दिया, लेकिन साढ़े चार किलो सोने के साथ जयपुर एयरपोर्ट पर पकड़ा गया। युवक के पास 1.85 करोड़ का सोना मिला। वरिष्ठ पत्रकार आनंदमणि त्रिपाठी का कहना है कि  सांगानेर एयरपोर्ट पर लगातार हो रही सेाने की तस्करी ने इस बात की तस्दीक कर दी है कि दाऊद के गुर्गों ने अपनी चाल बदल दी है। त्रिपाठी कहते हैं कि जाँच एजेंसियों से इस बात के पुख्ता सुबूत मिले हैं कि सोने की तस्करी के तार ‘डी कम्पनी’ और ‘अंडरवल्र्ड’ से जुड़े हुए हैं। कस्टम विभाग के सूत्रों के अनुसार, सांगानेर एयरपोर्ट पर 5 जनवरी को दो सो ग्राम सोना पकड़ा गया। इसी प्रकार 23 जनवरी को एक किलो 25 जनवरी को एक किलो 31 जनवरी को 585 ग्राम तथा 01 फरवरी को 933 ग्राम सोना पकड़ा गया। उधर कस्टम विभाग के सूत्रों ने एक और तस्करी का रोचक मामला पकड़ा है। विभागीय सूत्रों का कहना है कि कस्टम के अपर आयुक्त मंसूर अली के नेतृत्व में हुई कार्रवाई में सोने की बनी पूडिय़ाँ पकड़ी गयी। इसकी कीमत 32 लाख बतायी जाती है। इस मामले में विक्रमजीत सिंह को गिरफ्तार किया गया। विक्रम सिंह स्पाइजेट की फ्लाइट से दुबई से जयपुर पहुँचा था। उधर, एक न्यूज एजेंसी की खबर की मानें, तो पंकज साधवानी नामक व्यक्ति से 6 बिस्किटों की शक्ल में एक किलो सोना पकड़ा गया है। उसने यह सोना गुदा में छिपा रखा था।

उधर, जयपुर में हुई ईडी की कार्रवाई को लेकर सूत्रों का कहना है कि चेन्नई के हर्ष बोथरा, बाँका बुलिटांस प्राइवेट लिमिटेड से इनपुट मिलने के बाद जयपुर की टीम ने ताराचंद सोनी की महाराजा ज्वेलर्स, रामगोपाल सोनी की भगवती ज्वेलर्स तथा हनी लड़ीवाला की लड़ीवाला एसोसिएट्स पर कार्रवाई की गयी। ईडी सूत्रों का कहना है कि ये फर्में सोने की तस्करी कर रही थीं, जिसका भुगतान जयपुर से हवाला के ज़रिये किया जा रहा था।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, बदल रही या बन्द की जा रही?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्र्रीय मंत्रिमंडल ने पीएमएफबीवाई और आरडब्ल्यूबीसीआईएस की चल रही योजनाओं के कुछ मापदंडों / प्रावधानों को संशोधित करने का प्रस्ताव दिया है। नये प्रावधानों के तहत बीमा कम्पनियों को व्यवसाय का आवंटन तीन साल के लिए किया जाएगा। वित्त या ज़िला स्तर पर औसतन मूल्य का चयन करने के लिए प्रदेशों और केंद्र शासित प्रदेशों को यह विकल्प दिया जाएगा कि वे बीमा राशि का किसी भी ज़िले के फसल संयोजन के लिए किसका न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) क्या है? ऐसी फसलें जिनका एमएसपी घोषित नहीं किया गया हो उनके लिए फार्म गेट की कीमत पर विचार किया जाएगा। संशोधित योजना में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव यह होगा कि पीएमएफबीवाई/ आरडब्ल्यूबीसीआईएस के तहत केंद्रीय सब्सिडी असिंचित क्षेत्रों / फसलों के लिए 30 फीसदी और सिंचित क्षेत्रों / फसलों के लिए 25 फीसदी तक सीमित हो जाएगी। 50 फीसदी या अधिक सिंचित क्षेत्र वाले ज़िलों को सिंचित क्षेत्र माना जाएगा।

राज्यों / केंद्र्रशासित प्रदेशों के लिए यह विकल्प खुला रहेगा कि योजना लागू करने के लिए अतिरिक्त जोखिम कवर / सुविधाओं का चयन कर सकेंगे। जैसे कि बुआई, स्थानीय आपदा, मध्य-मौसम प्रतिकूलता, और कटाई के बाद के नुकसान को शामिल कर सकते हैं। इसके अलावा, राज्य-केंद्र शासित प्रदेश पीएमएफबीवाई के तहत विशिष्ट एकल जोखिम या बीमा कवर, जैसे ओलावृष्टि आदि की पेशकश किसानों के लिए कर सकते हैं। राज्यों द्वारा अपेक्षित बीमा कम्पनियों से सम्बन्धित प्रीमियम सब्सिडी जारी करने में राज्यों के अधिक विलम्ब के मामले में फसल के सीजन के बाद इस योजना को लागू करने की अनुमति निर्धारित समय सीमा से इतर नहीं मिलेगी। खरीफ और रबी की फसल के लिए इस प्रावधान को लागू करने के लिए कट-ऑफ की तारीखें दोनों बीमा योजनों के लिए क्रमश: 31 मार्च और 30 सितंबर होंगी।

बीमा के तहत फसलों के नुकसान / स्वीकार्य दावों के आकलन के लिए तय डेविएशन मैट्रिक्स के आधार पर दो स्तर की प्रक्रिया अपनायी जानी है। सामान्य सीमाओं और अन्य क्षेत्र के साथ ही मौसम के संकेतक, उपग्रह संकेतक आदि जैसे विशिष्ट उपाय अपनाये जाएँगे। पैदावार के नुकसान के आकलन के लिए नुकसान वाले क्षेत्रों को केवल फसल काटने के प्रयोगों (सीसीई) के अधीन किया जाएगा।

स्मार्ट सैंपलिंग तकनीक (एसएसटी) जैसे प्रौद्योगिकी समाधान और सीसीई (पीएमएफबीवाई) के संचालन में सीसीई की संख्या इन्हीं के अनुकूल बनायी जाएगी। कट-ऑफ तारीख से इतर फसल की उपज के आँकड़े न मिल पाने की स्थिति में राज्यों द्वारा बीमा कम्पनियों को उपज समाधान के तरीके अपनाने के लिए प्रौद्योगिकी समाधान (सिर्फ पीएमएफबीवाई) का उपयोग लागू किया जाएगा। इस योजना की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता यह सभी किसानों (पीएमएफबीवाई और आरडब्ल्यूबीसीआईएस) के लिए स्वैच्छिक होगी। दोनों ही बीमा योजनाओं के वर्तमान 50:50 के मौज़ूदा हिस्सेदारी को में पूर्वोत्तर के राज्यों में केंद्रीय हिस्सेदारी को बढ़ाकर 90 फीसदी कर दिया गया है।

योजना के लिए कुल आवंटन का कम-से-कम 3 फीसदी का प्रावधान केंद्र और राज्य सरकारों के प्रशासनिक खर्च पर किया जाएगा। यह प्रत्येक राज्य (दोनों पीएमएफबीवाई और आरडब्ल्यूबीसीआईएस) के लिए डीएसी और एफडब्ल्यू द्वारा निर्धारित ऊपरी सीमा के अधीन होगा। इसके अलावा अन्य हितधारकों / एजेंसियों के परामर्श से कृषि, सहकारिता और किसान कल्याण विभाग प्रीमियम की उच्च दर वाले फसलों / क्षेत्रों के लिए राज्य विशिष्ट, वैकल्पिक जोखिम शमन कार्यक्रम को फिर से शुरू किये जाएँगे। चूँकि यह योजना सभी किसानों के लिए स्वैच्छिक बनायी जा रही है, इसलिए 151 विशेष ज़िलों में फसल बीमा के माध्यम से वित्तीय सहायता और प्रभावी जोखिम का सहयोग प्रदान किया जा रहा है। इसके अलावा 29 ऐसे ज़िलों को चिह्नित किया गया है, जहाँ पानी की कमी है साथ ही वहाँ के किसानों की आमदनी भी कम है और सूखे जैसे हालात रहते हैं, वहाँ के लिए अलग योजना तैयार की जा रही है। योजना के सम्बन्धित प्रावधान / मापदंड दोनों बीमा योजनाओं को लागू करने के दिशा-निर्देशों को उपरोक्त संशोधनों को शामिल करने के लिए बदला जाएगा साथ ही 2020 की खरीफ की फसल से ही इसे लागू कर दिया जाएगा।

कितने फायदे?

सरकार ने दावा किया कि इन फसल बीमा से जुड़े इन बदलावों के बाद उम्मीद की जाती है कि किसान बेहतर तरीके से कृषि उत्पादन में जोखिम प्रबन्धन करने में सक्षम होंगे और कृषि आय की भरपाई करने में भी कामयाब होंगे। इसके अलावा पूर्वोत्तर राज्यों में इसका दायरा बढ़ेगा। सुदूर पूर्वोत्तर के किसान भी कृषि जोखिम का प्रबन्धन कर सकेंगे। इन परिवर्तनों को अपनाने के बाद त्वरित और सटीक उपज अनुमान भी लगाने में आसानी होगी, जिससे दावा निपटान में आसानी होगी। इन बदलावों को पूरे देश में इसी साल खरीफ की फसल के साथ ही लागू किये जाने का प्रस्ताव है।

कांग्रेस की ओर से 20 फरवरी को लिखित बयान जारी कर कहा कि फसल बीमा से निजी बीमा कम्पनियों को प्रीमियम और किसानों के छोटे दावों से बड़ा मुनाफा हुआ है। बताया गया कि एक या दो को छोडक़र इस क्षेत्र में बाकी सभी निजी बीमा कम्पनियाँ हैं और ये आँकड़े जो सरकार ने जारी किये हैं, वे अप्रामाणिक हैं। इसमें दिखाया गया है कि प्रीमियम के ज़रिये ही बीमारियों ने कुल 77,801 करोड़ रुपये की राशि जुटायी। तमाम भुगतान और दावों के बावजूद इसमें दावा किया गया है कि जो कम्पनियों को शुद्ध लाभ हुआ, उसकी राशि 19,200 करोड़ रुपये रही।  सोचने वाली बात यह है कि अब इस योजना को पूरी तरह से बन्द किया जा रहा है। किसान कहाँ होगा, भारत के किसान प्राकृतिक आपदाओं का सामना कैसे करेंगे। यह सवाल अनुत्तरित है और दुर्भाग्य की बात यह है कि कृषि मंत्री यह कहने का दुस्साहस कर रहे हैं कि उन्होंने एक बड़ा कदम उठाया है। तहलका ने भी कुछ समय पहले इस तथ्य को उजागर करते हुए एक रिपोर्ट छापी थी। तहलका की रिपोर्ट में बताया गया था कि योजना के लॉन्च होने के दो साल के भीतर सभी 18 कम्पनियों ने मिलकर 15,795 करोड़ का मुनाफा कमाया। ऐसा लगता है कि किसानों को आत्महत्या प्रदान करने के लिए सरकार ने यह बीमा योजना शुरू कीं, जो अपने मकसद से हार गयीं। पीएमएफबीवाई में कहा गया कि इसका उद्देश्य ‘मौसम के प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण बीमित किसानों को तत्काल राहत प्रदान करना है, जिससे अपेक्षित उपज 50 फीसदी से कम थी।’ इस योजना का लक्ष्य अंतिम उपज आँकड़ों की प्रतीक्षा किये बिना ऑन-अकाउंट आंशिक भुगतान (सम्भावित दावों का 25 फीसदी तक) प्रदान करना था और यह सभी किसानों के लिए एक अनिवार्य कवरेज था।

वर्ष 2017-2018 की सालाना रिपोर्ट भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) जिसे आईआरडीएआई के चेयरमैन डॉ. सुभाष सी खुंटिया ने भारत सरकार के वित्त मंत्रालय को भेजी, उसमें इन तथ्यों पर मुहर लगायी है। यह रिपोर्ट 28 नवंबर, 2018 को सचिव के नाम भेजी गयी थी। पड़ताल में पता चला कि 2016-17 के दौरान 13 निजी कम्पनियों का लाभ 3,283 करोड़ रुपये था। वर्ष 2017-18 में यह और बढ़ गया, जो कुल मिलाकर 4,863 करोड़ हो गया। बीमा की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, नियामक और विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) 11 निजी क्षेत्र की बीमा कम्पनियों ने प्रीमियम के रूप में 11,905.89 करोड़ रुपये की राशि जमा की। हालाँकि, इन बीमा कम्पनियों ने किसानों को केवल 8,831.78 करोड़ रुपये के दावों का भुगतान किया, जिससे इन्होंने तेज़ी से भारी मुनाफा कमाया।

पिछले साल राज्यसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में वित्त और कॉर्पोरेट मामलों के राज्य मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर ने कहा कि उपज आधारित योजना अर्थात् प्रधानमंत्री आवास बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) और एक मौसम सूचकांक आधारित रिस्ट्रिक्टेड वेदर बेस्ड क्रॉप इंश्योरेंस स्कीम (आरडब्ल्यूबीसीआईएस) को खरीफ 2016 से शुरू किया गया था, जिसका उद्देश्य सभी तरीके से प्राकृतिक क्षति से किसानों की फसलों के लिए व्यापक जोखिम कवर को सुनिश्चित करना था। इसके लिए एक सरल और सस्ती फसल बीमा उत्पाद प्रदान कराया गया।  बुआई पूर्व से लेकर फसल कटाई के बाद होने वाले जोखिम, पर्याप्त दावा राशि और दावों को तय समय पर निपटान को इसमें शामिल किया गया। मंत्री ने कहा कि बीमाकर्ता अच्छे सत्रों / वर्षों में प्रीमियम बचाते हैं और उच्च दावों का भुगतान करते हैं, यदि  खराब वर्षों में किसी भी बचत को अच्छे वर्षों में किया जाता है।’  मंत्री ने स्पष्ट किया कि 18 सामान्य योजना के कार्यान्वयन के लिए पाँच सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कम्पनियों सहित निजी बीमा कम्पनियों को सूचीबद्ध किया गया है। निजी और सार्वजनिक दोनों बीमा कम्पनियाँ पीएमएफबीवाई के कार्यान्वयन के लिए राज्य सरकार द्वारा आमंत्रित निविदाओं में हिस्सा लेती हैं और बीमा कम्पनी के कार्यान्वयन का चयन सबसे कम बोली लगाने वाली को आधार के रूप में किया जाता है। इसके अलावा, कुल फसल से पाँच सार्वजनिक क्षेत्र का बीमा एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कम्पनी ऑफ इंडिया लिमिटेड योजना का 50 फीसदी से अधिक का बीमा व्यवसाय कवर करती है।

अनुराग सिंह ठाकुर ने कहा कि 2017-18 की सालाना रिपोर्ट में भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) ने बताया कि इसमें कुल कितने किसानों को कवर किया गया और कुल कितना प्रीमियम जमा हुआ साथ ही 31 मार्च, 2018 तक दावा करने वाले लाभार्थियों की संख्या का ज़िक्र किया गया है।  उन्होंने कहा कि जब सकल लिखित प्रीमियम पूरे वर्ष से जुड़ा हुआ है, तो दावा किये जाने वाली रिपोर्ट में पिछले वर्षों के दावे भी शामिल हो सकते हैं, जिससे लाभ-हानि के बारे में पुनर्बीमा लागत का भी ध्यान रखना होगा।

पीएमएफबीवाई के तहत पिछले तीन वर्षों के दौरान किसानों को सामान्य बीमा कम्पनियों द्वारा प्रीमियम के ज़रिये जुटायी गयी राशि का विवरण इस प्रकार है :-  (राशि करोड़ रुपये में)

वर्ष        कुल प्रीमियम      किसानों का हिस्सा           केंद्र का हिस्सा    राज्य का हिस्सा

2016-17           22,104 4,232   8,842   9,030

2017-18           26,163 4,488   10,798 10,877

2018-19*         20,923 3,196   8,783   8,944

* 2018 में सिर्फ खरीफ की फसल शामिल। खरीफ 2018 के कुछ दावे और रबी 2018-19 के अधिकांश दावे रिपोर्ट नहीं किये गये हैं। स्रोत : कृषि मंत्रालय

भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) द्वारा प्रदान किये गये पिछले तीन वित्तीय वर्षों के लिए फसल बीमा के सकल अनुमानित दावे इस प्रकार हैं :-

वित्तीय वर्ष          सकल दावा (करोड़ रुपये में)

2016-17           17,687.75

2017-18           22,101.31

2018-19           27,550.00

स्रोत : आईआरडीएआई

दिल्ली में ‘आप’ की जीत का असर दिखा उत्तर प्रदेश के बजट में

दिल्ली सहित कई राज्यों में हाल के चुनावी नुकसान के बाद, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य उत्तर प्रदेश में अपना िकला बचाना है। दिल्ली की सत्ता का मार्ग उत्तर भारत के इसी सबसे महत्त्वपूर्ण राज्य से गुज़रता है, जहाँ  2022 का विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए सबसे बड़ी राजनीतिक परीक्षा होगा।

दिल्ली के चुनावों में रणनीतिक विफलता का ही नतीजा है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को अपने बजट में युवा, बुनियादी ढाँचा, शिक्षा जैसा लोकलुभावन मुखौटा ओढऩा पड़ा; वो भी उन हालत में, जब राज्य वहाँ आर्थिक स्थिति बुरी हालत में है और कर्ज़ पर सारा दारोमदार चल रहा है। हालत यही है कि सरकार के कर्ज़ के कारण उत्तर प्रदेश के प्रत्येक व्यक्ति के सिर पर 22,442 रुपये के कर्ज़ का बोझ है। भाजपा का उद्देश्य सामाजिक, शैक्षणिक और अधोसंरचना क्षेत्रों में लोकलुभावन योजनाओं के ज़रिये अपने लिए सुखद राजनीतिक नतीजे लेना है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि उनकी सरकार का पहला बजट कृषि क्षेत्र पर केंद्रित था, दूसरा औद्योगिक विकास के लिए बुनियादी ढाँचे को बढ़ावा देने के लिए, तीसरा महिला सशक्तीकरण के लिए और उत्तर प्रदेश की विशाल क्षमता को देखते हुए चौथे बजट का फोकस युवाओं के लिए स्वरोज़गार के अवसरों के सृजन पर है। बजट में महत्त्वाकांक्षी वन डिस्ट्रिक्ट, वन प्रोडक्ट के तहत राज्य सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों को बढ़ावा देने के लिए 250 करोड़ और इतने ही गरीब परिवारों की लड़कियों की शादी के लिए रखे गये हैं। उन्होंने लखनऊ में अटल मेडिकल विश्वविद्यालय की स्थापना और यूपी पुलिस के लिए सरकार की महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं की भी घोषणा की। सरकार सहारनपुर, आज़मगढ़ और अलीगढ़ में नये विश्वविद्यालय स्थापित कर रही है। हवाई अड्डे, मेट्रो और एक्सप्रेसवे परियोजनाओं के बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए राज्य ने 5,400 करोड़ रुपये से अधिक का आवंटन किया गया है। इसमें सबसे प्रतिष्ठित जेवर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा (2,000 करोड़ रुपये) शामिल है, जो पूर्वी और पश्चिमी समर्पित गलियारों, अयोध्या हवाई अड्डे (500 करोड़ रुपये) को जोडऩे वाले अपनी रणनीतिक लोकेशन  के कारण आर्थिक विकास में क्रान्ति ला सकता है। इसके अलावा क्षेत्रीय सम्पर्क योजना के तहत अन्य हवाई अड्डों के लिए भी 92.50 करोड़ रुपये की राशि प्रदान की गयी है।

कानपुर, आगरा और गोरखपुर की मेट्रो रेल परियोजनाओं को 844 करोड़ रुपये और गंगा एक्सप्रेसवे को 2000 करोड़ रुपये। पूर्वांचल एक्सप्रेसवे, बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे, गोरखपुर लिंक एक्सप्रेसवे, मेरठ को प्रयागराज (इलाहाबाद) से गंगा एक्सप्रेसवे के माध्यम से जोडऩे के लिए मेगा बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए सरकार को कठिन समय का सामना है। राज्य लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) के तहत ग्रामीण सडक़ और राजमार्ग परियोजनाओं को विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक (एडीबी) से वित्तपोषित सडक़ परियोजनाओं के अलावा 7,400 करोड़ रुपये प्रदान किये गये। बजट में पूर्वांचल (पूर्वी यूपी) और बुंदेलखंड के पिछड़े क्षेत्रों के लिए क्रमश: 300 करोड़ और 210 करोड़ रुपये आवंटित किये गये हैं।

राज्य ने विभिन्न जल परियोजनाओं के लिए लगभग 9,000 करोड़ रुपये आवंटित किये हैं, जिनमें नहरें, पीने योग्य पानी, जल संरक्षण, सिंचाई आदि शामिल हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संकल्प को पूरा करने के लिए 2024 तक एक ट्रिलियन डॉलर की अर्थ-व्यवस्था प्राप्त करने के लिए खुद को प्रतिबद्ध किया है, ताकि भारत को पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थ-व्यवस्था का लक्ष्य हासिल किया जा सके। लेकिन कमज़ोर ज़मीनी वास्तविकताएँ और कमज़ोर राजस्व प्राप्ति आर्थिक वास्तविकता के लिए एक बड़ी चुनौती हैं।

कर्ज़ का बोझ बढ़ रहा है और विभिन्न स्रोतों से अगले वित्त वर्ष 2020-21 के अन्त तक यह कर्ज़ 5.16 ट्रिलियन रुपये से अधिक हो जाने की आशंका है। साल 2020-21 के बजट का आकार 5.12 ट्रिलियन रुपये है और यह प्रदेश पर चढ़ चुके कर्ज़ से भी कम है, जिससे सहज ही प्रमुख विकास सम्बन्धी कार्यों को शुरू करने के लिए राजकोषीय हालत का अंदाज़ा लग जाता है। इस वर्ष का बजट वर्तमान 2019-20 के वार्षिक बजट से लगभग 7 फीसदी अधिक है जो कि लगभग 4.79 ट्रिलियन रुपये था। राज्य का कुल ऋण। हालाँकि, 2017-18 में राज्य सकल घरेलू उत्पाद (एसजीडीपी) के 29.6 फीसदी से नीचे आ गया और 2020-21 में इसके 28.8 फीसदी होने का अनुमान है। करीब 5.16 ट्रिलियन से अधिक के कर्ज़ के बोझ के साथ, यूपी के प्रत्येक निवासी के सिर पर 22,442 रुपये का कर्ज़ है। करीब 230 मिलियन हो रही आबादी के साथ राज्य का ऋण बोझ राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के 28 फीसदी से 30 फीसदी के आसपास है। वित्त मंत्री सुरेश कुमार खन्ना ने 18 फरवरी, 2020 को विधानसभा में 2020-21 के लिए बजट को पेश करते हुए उल्लेख किया, वित्त वर्ष 2019-20 के दौरान राज्य में प्रति व्यक्ति ऋण 20,702 रुपये होने का अनुमान है; क्योंकि कुल ऋण बोझ 4.76 ट्रिलियन रुपये से थोड़ा अधिक रहेगा। कुल कर्ज़ के बोझ में यूपी पॉवर कॉरपोरेशन, यूपी आवास और विकास बोर्ड और शहरी विकास प्राधिकरण जैसे सार्वजनिक उपक्रमों के बैंकों और वित्तीय संस्थानों से शामिल नहीं हैं। राज्य सरकार ही सार्वजनिक उपक्रमों के कर्ज़ लेने के िखलाफ गारंटर भी है। राज्य सरकार के 2020-21 के दौरान कुल वर्तमान कर्ज़ में से अधिकतम 32,346 करोड़ रुपये का बाज़ार ऋण होगा, जो कुल ऋण का 18.1 फीसदी है। राज्य को केंद्र से 11,815 करोड़ रुपये, वित्तीय संस्थानों से 19,368 करोड़ रुपये और बिजली बांड से 42,277 करोड़ रुपये के ऋण की उम्मीद है।

बजट में राज्य की कुल अनुमानित प्राप्तियों को पाँच ट्रिलियन रुपये से अधिक दर्शाया गया है, जिनमें से 33 फीसदी राज्य करों से, 30.4 फीसदी केंद्रीय करों के राज्य हिस्से से और 14.4 फीसदी केंद्रीय सहायता से आएगा। यह सार्वजनिक ऋणों से भी राजस्व का 13.1 फीसदी एकत्र करेगा। कुल 5.12 ट्रिलियन रुपये के खर्च में से सबसे अधिक 37.1 फीसदी सरकारी कर्मचारियों के वेतन, पेंशन, सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों और सरकारी कर्मचारियों के भत्तों पर खर्च होगा। राज्य, कर्ज़ चुकाने के लिए 16 फीसदी से थोड़ा अधिक खर्च करेगा, जबकि 16.1 फीसदी पूँजीगत व्यय पर खर्च होगा। सरकार अपने खर्च का 3.3 फीसदी सब्सिडी पर भी देगी। आर्थिक मंदी ने राज्य के औद्योगिक विकास पर बुरा असर डाला है और इसके परिणामस्वरूप करों की उगाही में कमी सूबे की वित्तीय सेहत पर दबाव डाल रही है। यूपी ने 2019-20 के पहले आठ महीनों (अप्रैल-नवंबर) के दौरान करों में लगभग 80,000 करोड़ रुपये एकत्र किये, जो चालू वित्त वर्ष के दौरान 1.40 ट्रिलियन रुपये से अधिक के लक्ष्य का लगभग 58 फीसदी है। चालू वित्त वर्ष के पहले छ: महीनों में राज्य ने महज़ 56,000 करोड़ रुपये इकट्ठे किये, जो लक्षित 1.50 ट्रिलियन राजस्व का सिर्फ 36 फीसदी था। अब राज्य सरकार ने व्यापारियों के जीएसटी आधार को 14 लाख से बढ़ाकर 50 लाख करने का लक्ष्य रखा है। अपने स्वयं के कर राजस्व के संग्रह में आ रही कमी ने स्थिति को और खराब कर दिया है; क्योंकि इससे केंद्रीय करों में इसके अपने हिस्से में बड़ी कमी हो सकती है। राजस्व के राजस्व में निरंतर कमी और सरकार पर कर्ज़ के बढ़ते बोझ ने बाज़ार के उधार के विकल्प को बहुत सीमित कर दिया है, जो कि एक बहुत ही कठिन स्थिति है। अगले मार्च के अन्त तक यूपी सरकार पर कुल कर्ज़ का बोझ 5 खरब रुपये को पार कर जाएगा, जो कि लगभग 2020-21 के बजट आकार के समान होने की सम्भावना है। यूपी सरकार पर ऋण सेवा का वार्षिक बोझ भी 2020-21 के अंत तक 1.5 ट्रिलियन रुपये से अधिक होने की सम्भावना है। योगी सरकार के सामने बिजली क्षेत्र सबसे बड़ी चुनौती रहा है। उदय (उज्ज्वला डिस्कॉम एश्योरेंस योजना) के बेलआउट पैकेज के बावजूद यूपी पॉवर कॉरपोरेशन के घाटे में बढ़ोतरी जारी है। राज्य सरकार स्वयं सबसे बड़ी डिफॉल्टर है, क्योंकि इसके विभिन्न विभागों को मार्च, 2019 के अन्त तक बिजली के बिलों का ही 15,000 करोड़ रुपये का बकाया है। यूपी में बिजली उत्पादन 800 किलोमीटर दूर दिल्ली में प्रेषित होता है, जो इसे उत्तर प्रदेश से कम टैरिफ पर बेचता है; क्योंकि दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने चोरी और िफज़ूल खर्ची पर रोक लगा दी है। राज्य में स्थिति खराब है, जहाँ 30 नवंबर, 2017 से 1 सितंबर, 2019 तक बिजली दरों में लगभग 27 फीसदी की वृद्धि हुई है। लेकिन बिजली निगमों के घाटे और राजस्व संग्रह में कोई सुधार नहीं हुआ है।

सामाजिक-आर्थिक विकास, महिलाओं को बिजली, पानी और शहर की बस सेवा की मुफ्त-सस्ती सुविधा और सामाजिक कल्याण के साथ मुफ्त सुविधाओं के आधार पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत ने शासन के नये रुझानों में क्रान्ति ला दी है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनकी टीम के लिए इससे सबक लेना ज़रूरी हो गया है, क्योंकि परिवर्तन की नयी हवा विकास चाहती है और साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण का एजेंडा हमेशा एक सफल मंत्र नहीं हो सकता। इसलिए, विकास के मोर्चे पर प्रदर्शन और युवाओं के लिए रोज़गार का दबाव योगी आदित्यनाथ के लिए खराब वित्तीय संसाधनों के बीच चुनौती का प्रमुख क्षेत्र होगा।

राज्यसभा की 55 सीटें खाली, कौन-कौन हैं दावेदार?

संसद के ऊपरी सदन (राज्यसभा) की खाली हो रही 55 सीटों पर 26 मार्च  को  चुनाव होने हैं। परिणाम 26 मार्च शाम को ही जारी हो जाएँगे। इसके बाद जून में और पाँच सीटें, जुलाई में एक और नवंबर में 11 अन्य सीटें खाली होंगी। इसी के चलते खाली हो रही सीटों के लिए अभी से दौड़ शुरू हो गयी है।

अप्रैल में खाली होने वाली वाली 55 सीटों में सबसे ज़्यादा 7 सीटें महाराष्ट्र की हैं। इसके अलावा तमिलनाडु की 6 सीटें, पश्चिम बंगाल और बिहार की 5-5 सीटें, ओडिशा, गुजरात और आंध्र प्रदेश की 4-4 सीटें, असम, राजस्थान और मध्य प्रदेश की 3-3 सीटें, हरियाणा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की 2-2 सीटें और मणिपुर, मेघालय और हिमाचल प्रदेश की 1-1 सीट खाली होगी। इसी तरह पाँच सीटें जून में खाली हो जाएँगी। इनमें से 4 कर्नाटक की होंगी और एक अरुणाचल प्रदेश की। जुलाई में मिजोरम में एक सीट खाली हो रही है। वहीं, नवंबर में 11 सीटें राज्यसभा में भरी जाएँगी, जिनमें से उत्तर प्रदेश की 10 सीटें होंगी और एक उत्तराखंड की।

रिटायर हो रहे सदस्य

जो राज्यसभा सदस्य सेवानिवृत्त हो रहे हैं, उनमें महाराष्ट्र के 7 सदस्य शामिल हैं। यह हैं- रामदास अठावले, हुसैन दलवई, राजकुमार धूत, संजय दत्तात्रेय काकड़े, मालेद मेमन, शरद पवार और अमर शंकर सेबल हैं। अप्रैल 2020 में सेवानिवृत्त हो रहे तमिलनाडु के छ: राज्यसभा सदस्य एस. मुथुकरुप्पन, डॉ. शशिकला पुष्पा रामास्वामी, टीके रंगराजन, एके सेल्वरई, सत्यनथ लीला और तिरुचि शिवा हैं।

पश्चिम बंगाल से राज्यसभा के जो पाँच सदस्य सेवानिवृत्त हो रहे हैं, उनमें ऋतब्रत बनर्जी, प्रो. जोगन चौधरी, मनीष गुप्ता, अहमद हसन और डॉ. कँवर दीप सिंह शामिल हैं। बिहार से उच्च सदन के पाँच सेवानिवृत्त सदस्य हरिवंश, कहकशाँ परवीन, आरके सिंह, डॉ. सीपी ठाकुर और राम नाथ ठाकुर हैं। गुजरात से रिटायर होने वाले चार राज्यसभा सदस्य हैं- कनिभाई गोहिल, मधुसूदन मिस्त्री, महंत शंभुप्रसाद टुंडिया और लाल सिंह वड़ोदिया। आंध्र प्रदेश से राज्यसभा के अप्रैल में सेवानिवृत्त होने वाले सदस्य हैं- डॉ. केशव राव, थोटा लक्ष्मी सीताराम और मोहम्मद अली खान।

सेवानिवृत्त होने वाले ओडिशा के तीन राज्यसभा सदस्यों में रंजीब बिस्वाल, सरोजिनी हेम्ब्रम और नरेंद्र कुमार स्वैन शामिल हैं। राजस्थान से सेवानिवृत्त सदस्य विजय गोयल, नारायण लाल पंचरिया और राम नारायण डूडी हैं। मध्य प्रदेश से राज्यसभा के तीन सेवानिवृत्त सांसद डॉ. सत्यनारायण जटिया, प्रभात झा और दिग्विजय सिंह हैं। झारखंड से परिमल नथवाणी और प्रेमचंद गुप्ता, छत्तीसगढ़ से रणविजय सिंह जूदेव और मोतीलाल वोरा, तेलंगाना से गरिकपति मोहन राव और डॉ. केवीपी रामचंद्र राव अप्रैल में सेवानिवृत्त होंगे। अप्रैल में सेवानिवृत्त होने वाले अन्य लोगों में शामिल हैं- कुमारी शैलजा (हरियाणा), बिस्वजीत दैमरी (असम) और वंसुक सियाम (मेघालय)। कुल 245 सदस्यीय राज्यसभा में वर्तमान में 239 सदस्य हैं। कुल मिलाकर, भाजपा के राज्यसभा में सबसे ज़्यादा 82 सदस्य हैं; जबकि कांग्रेस के पास 46 सदस्य हैं। भाजपा के वर्तमान सहयोगी-अन्नाद्रमुक, जेडी (यू), एसएडी, एजीपी, बीपीएफ, बीजेएफ, एलजेपी, आरपीआई (ए) और एसडीएफ के 25 सदस्य हैं; जो एनडीए की संख्या को 107 तक पहुँचा देते हैं।

जीत की सम्भावनाएँ

भाजपा, जिसके पास वर्तमान में 82 सदस्य हैं; के 13 उम्मीदवारों के जीतने की प्रबल सम्भावना है। उधर, प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस, जिसके 46 सदस्य हैं; को चुनाव में 10 सीटें मिलने की सम्भावना है। हालाँकि, उसके 11 सदस्य अप्रैल में सेवानिवृत्त हो जाएँगे, जिससे उसका नफा-नुकसान कमोवेश बराबर ही रहेगा। भाजपा को महाराष्ट्र से राज्यसभा की दो सीटें जीतने का भरोसा है। शिवसेना को एक सीट मिल सकती हैं। एनसीपी को दो और कांग्रेस को एक। पश्चिम बंगाल में, टीएमसी को चार सीटों पर जीत मिलने की उम्मीद है या पाँचों रिक्तियों के मुकाबले सभी पाँच भी हो सकती हैं, जिनके लिए उसे कांग्रेस के समर्थन की ज़रूरत रहेगी, जिसे लेकर अभी तक स्थिति साफ नहीं है। वैसे कांग्रेस ने संकेत दिया है कि अगर माकपा उसे मैदान में लाती है, तो वह सीताराम येचुरी की उम्मीदवारी का समर्थन करेगी।

बिहार से जनता दल (यूनाइटेड) यानी जद(यू) और भाजपा गठबंधन को तीन और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को दो सीटें मिल सकती हैं। तमिलनाडु में छ: सीटों में से, ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडग़म (एआईएडीएमके) और द्रविड़ मुनेत्र कडग़म (डीएमके) को 3-3 सीटें जीतने की सम्भावना है। मध्य प्रदेश से भाजपा और कांग्रेस दोनों को अपनी मौज़ूदा संख्या के हिसाब से एक-एक सीट मिलने की सम्भावना है।

हालाँकि, भाजपा और कांग्रेस दोनों के पास खाली पड़ी 55 सीटों में से अधिकांश पर जीत की सम्भावना है; लेकिन दोनों दलों की वास्तविक संख्या वर्तमान से नीचे आ सकती है। कांग्रेस, जिसमें 46 सदस्य हैं, को आगामी चुनावों में 10 सीटें मिलने की सम्भावना है।

पार्टी के अप्रैल में अपने 11 सदस्य सेवानिवृत्त हो जाने से हैं और इस लिहाज़ से उसे एक सीट का नुकसान होना तय है। भाजपा के सदन में 82 सदस्य हैं, जिसमें 13 नये सदस्यों के जीतकर आने की उम्मीद है। हालाँकि जो 55 सदस्य सेवानिवृत्त हो रहे हैं, उनमें से अकेले भाजपा के 18 सदस्य हैं। इस लिहाज़ से भाजपा का पाँच सीटों का नुकसान हो जाएगा।

कांग्रेस और भाजपा के विपरीत पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (वाईएसआरसीपी) कहीं बड़े फायदे में रहने वाले हैं। बीजद को ओडिशा से तीन रिक्तियों में से दो सीटें जीतने की सम्भावना है, जबकि भाजपा एक पर जीत सकती है। भाजपा हिमाचल प्रदेश और हरियाणा से से एक-एक सीट अपने खाते में जोड़ लेगी, जबकि महाराष्ट्र में शिवसेना एक सीट की उम्मीद कर रही है। उसके सत्तारूढ़ गठबन्धन सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) और कांग्रेस क्रमश: दो और एक सीट पर जीतेंगे। चुनाव की तारीख तय हो चुकी है, इसलिए अब सम्भावित नामों को लेकर चर्चा और विचार-विमर्श शुरू हो चुका है। इन चुनाव परिणामों के बाद उच्च सदन यानी राज्यसभा का पार्टीवार नक्शा भी बदला-बदला दिखेगा। राज्यसभा में इस बदलाव का सबसे बड़ा कारण हाल के विधानसभा चुनाव हैं, जिनमें भाजपा को कई जगह हार मिली है; जिससे उसकी सदस्य संख्या घटेगी।

सम्भावित प्रमुख नाम

राज्यसभा के लिए सत्ता के गलियारों में जिन नामों पर चर्चा हो रही है, उनमें कांग्रेस से प्रियंका गाँधी वाड्रा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, रणदीप सुरजेवाला, आरपीएन सिंह, मोतीलाल वोरा, मधुसूदन मिस्त्री, कुमारी शैलजा, दिग्विजय सिंह, बी.के. हरिप्रसाद और एमवी राजीव गौड़ा शामिल हैं। जबकि राज बब्बर और पीएल पुनिया के उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश से दोबारा नामांकित होने की सम्भावना नहीं है। बिहार में राजद को भाजपा और जद(यू) के नुकसान की कीमत पर फायदा होने की सम्भावना है। जेडीयू के पाँच सेवानिवृत्त होने वाले सदस्यों में से तीन सदस्य हैं- पार्टी उपाध्यक्ष हरिवंश, कहकशाँ परवीन और राम नाथ ठाकुर। अन्य दो आर.के. सिन्हा और सी.पी. ठाकुर भाजपा से हैं। चूँकि बिहार विधानसभा में सदस्यों की संख्या 243 है, इसलिए एक उम्मीदवार को उच्च सदन में अपनी जगह बनाये रखने के लिए 42 विधायकों के पहले अधिमान्य मतों की आवश्यकता होगी।

मौज़ूदा ताकत के आधार पर राजद अपने 81 विधायकों और 26 कांग्रेस विधायकों के साथ आसानी से दो सीटें जीतने की उम्मीद कर रहा है। सत्तर विधायकों की अपनी शक्ति के साथ नीतीश कुमार की जेडीयू को उच्च सदन के लिए दो नामांकन मिलेंगे, जबकि भाजपा को एक सीट मिल सकती है। इस परिदृश्य में भाजपा को अपने दो नेताओं- आर.के. सिन्हा या सीपी ठाकुर में से एक को चुनना होगा। राम नाथ ठाकुर जो पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के बेटे हैं या कोई ऐसा, जो राजनीतिक रूप से अहम अति पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से आता हो; वह भी अंतत: उसकी पसंद हो सकता है। राजद में रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह, शिवानंद तिवारी, जय प्रकाश नारायण यादव और बुलो मंडल जैसे वरिष्ठ नेता दौड़ में हैं। हालाँकि, लालू प्रसाद यादव बिहार से प्रेमचंद गुप्ता को चुन सकते हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री और लालू प्रसाद के करीबी सहयोगी गुप्ता ने जनवरी में राजद प्रमुख से मुलाकात की थी। वैसे तेजस्वी यादव गुप्ता के पक्ष या िखलाफ निर्णय कर सकते हैं। ऐसी भी चर्चाएँ हैं कि राजद राबड़ी देवी को राज्यसभा प्रत्याशियों में से एक के रूप में नामित कर सकती है।

झारखंड में झामुमो एक सीट जीतने के लिए पूरी तरह तैयार है, और सबसे ज़्यादा सम्भावना है कि पार्टी शिबू सोरेन को मैदान में उतारे। कांग्रेस दूसरी सीट पर चुनाव लडऩे की योजना बना रही है। हालाँकि, पार्टी को एक ऐसे उम्मीदवार की ज़रूरत होगी, जो आजसू के दो वोटों के साथ निर्दलीय वोट भी हासिल कर सके। मध्य प्रदेश में कांग्रेस दिग्विजय सिंह को एक और कार्यकाल के लिए भेजने की मंशा रखती है और दूसरी सीट के लिए वरिष्ठ कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को मैदान में लाने पर बातचीत चल रही है।

पश्चिम बंगाल में, जो तीन मनोनीत सदस्य 2 अप्रैल को सेवानिवृत्त होने वाले हैं; उनमें चित्रकार और प्रोफेसर जोजन चौधरी, पत्रकार अहमद हसन इमरान और डॉ. के.डी. सिंह शामिल हैं। हालाँकि टीएमसी सुप्रीमो पार्टी के भीतर किसी टकराव से बचने के लिए सम्भावित उम्मीदवारों के नामों का खुलासा नहीं किया है। वह अच्छी तरह जानती हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान जब उन्होंने 10 मौज़ूदा सांसदों को बदलकर 42 सीटों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा की थी, तो पार्टी के कुछ नेताओं, जैसे- सौमित्र खान, अनुपम हाज़रा और अर्जुन सिंह ने खुलेआम बगावत कर भाजपा का दामन थाम लिया था। ममता बनर्जी की रणनीति नामों को अंतिम रूप देने से पहले विश्वास में लेने की होगी। ओम प्रकाश मिश्रा और मौसम बेनज़ीर नूर के नाम राज्यसभा के लिए टीएमसी के उम्मीदवार के रूप में लिए जा रहे हैं।

बेहद रोचक होंगे बिहार के विधानसभा चुनाव

बिहार में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे वहाँ चुनावी सरगर्मियाँ बढ़ती जा रही हैं। इस बार बिहार के चुनाव काफी रोचक होने वाले हैं। इसकी कई वजह हैं। पहली तो यह कि इस बार महागठबन्धन का नेतृत्व पिछले विधानसभा चुनाव में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव करेंगे। इस बार महागठबन्धन बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) यानी जद (यू) प्रमुख नीतीश कुमार के िखलाफ भी खड़ा होगा; क्योंकि पिछली बार जीत के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव के साथ गठबंधन की सरकार तोडक़र भाजपा से हाथ मिला लिया था। लेकिन इस बार महागठबन्धन के आगे भी कम चुनौतियाँ नहीं हैं। क्योंकि अभी से महागठबन्धन में दो फाड़ की स्थिति है। इसकी वजह उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश निषाद जैसे दिग्गज नेताओं द्वारा शरद यादव के नेतृत्व में चुनाव लडऩे की माँग करना है। इसके लिए इस पक्ष ने शरद यादव के पटना पहुँचने पर हाल ही में एक बैठक भी कर डाली।

सूत्रों की मानें, तो इस पक्ष का कहना है कि यदि महागठबन्धन का नेतृत्व तेजस्वी यादव जैसे नये राजनीतिज्ञ करेंगे, तो बिहार में विरोधी जीत सकते हैं, साथ ही यह दिग्गजों को दरकिनार करने जैसा होगा। वहीं, जो राजद नेता तेजस्वी यादव का समर्थन कर रहे हैं, वे नीतीश के काट के लिए एक तेज़-तर्रार युवा आइकन के रूप में तेजस्वी यादव को देख रहे हैं और मान रहे हैं कि यदि महागठबन्धन की जीत होती है, तो बिहार की राजनीति में तेजस्वी बदलाव लाएँगे। यही वजह है कि महागठबन्धन के ज़्यादातर नेताओं ने लालू प्रसाद यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप सिंह को महागठबन्धन के नेतृत्व के लिए नहीं चुना है, क्योंकि वे कई बार विवादों में रहे हैं।

इधर, भाजपा-जद (यू) गठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा, इसकी आधिकारिक घोषणा अभी बाकी है। माना जा रहा है कि इस गठबन्धन का नेतृत्व नीतीश कुमार ही करेंगे। लेकिन यहाँ भी कई सवाल खड़े होते हैं। इन सवालों में बड़ा सवाल यह है कि क्या बिहार में भाजपा नेता नीतीश नेतृत्व को स्वीकार करेंगे? दूसरा सवाल यह कि क्या बिहार में भी भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ेगी या सुशील मोदी अपने दम पर मैदान मारने का प्रयास करेंगे?

तीसरा सवाल यह है कि इस बार महागठबन्धन में कौन-कौन सी पार्टियाँ शामिल होंगी और कौन-कौन सी पार्टियाँ अलग गठबन्धन बनाएँगी। सवाल यह भी है कि नीतीश कुमार के अलग होने, लालू प्रसाद यादव की साख को नुकसान पहुँचने  और उनका नेतृत्व महागठबन्धन को न होने से महागठबन्धन चुनाव जीतकर सरकार बनाने की स्थिति में होगा? यह सब समय तय करेगा, िफलहाल तो माना जा रहा है कि महागठबन्धन को शरद यादव और उनके पक्ष में उतरे नेता ही कमज़ोर कर देंगे। राजनीतिक गलियारे में चल रही चर्चा पर भरोसा करें, तो शरद यादव गुट भी टूट सकता है, क्योंकि इस गुट के नेताओं में सब मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए बेताब हैं और चुनाव में अपनी-अपनी पार्टी को अधिक से अधिक सीटों पर उतारने का प्रयास करेंगे। दूसरी तरफ राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव की तरफ से अभी यह संकेत नहीं मिले हैं कि शरद यादव का समर्थन करने वाले दलों में से किस-किसको वह महागठबन्धन में शामिल करेंगे। क्योंकि महागठबन्धन के असली खिलाड़ी और परदे के पीछे से दिशा-निर्देश देने वाले तो लालू ही होंगे। साथ ही पुत्र मोह भी उन पर स्वाभाविक तौर पर हावी रहेगा ही रहेगा।

इतना ही नहीं, चुनाव इसलिए भी दिलचस्प होंगे, क्योंकि प्रशांत किशोर यानी पीके नीतीश कुमार और भाजपा के खिलाफ भूमिका निभाएँगे। विदित हो कि इस बार पीके ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी के लिए चुनावी रणनीति बनायी थी। नीतीश के िखलाफ लगातार बयानबाज़ी के बाद नाराज़ नीतीश ने उन्हें जद (यू) से निकाल दिया था। इसके अलावा बिहार का चुनाव इसलिए भी रोमांचक होगा, क्योंकि दिल्ली में भाजपा नेताओं, केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों, दूसरे भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और भाजपा समर्थक दलों व कार्यकर्ताओं की तमाम कोशिशों के बावजूद पार्टी को हार का मुँह देखना पड़ा।

दिल्ली में करारी हार के बाद हर किसी के मन में सवाल उठ रहे हैं कि क्या भाजपा बिहार में बहुत अच्छा प्रदर्शन कर पाएगी? दूसरा यह कि नीतीश के साथ मिलकर चुनाव लडऩे की भाजपा की योजना क्या है? और अगर वह नीतीश के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है, तो फिर उसको किस स्थिति में रहना पड़ेगा? क्या नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बनेंगे और भाजपा छोटी पार्टी बनकर बिहार में काम करेगी? या फिर नीतीश को मिलकर कमज़ोर करने की राजनीतिक चाल में वह इस बार कामयाब होकर अपने नेतृत्व वाली सरकार बनाएगी? भाजपा सूत्रों की मानें, तो माना तो यह जा रहा है कि दिल्ली की तरह भाजपा नेता बिहार में भी पूरी ताकत झोंकेंगे।

पार्टी के कद्दावर नेताओं का मानना है कि दिल्ली और बिहार के चुनावों में बहुत अंतर है और दोनों राज्यों के मुद्दे भी अलग-अलग हैं। साथ ही बिहार में पहले से ही भाजपा की गठबन्धन वाली सरकार है और उनकी सरकार ने बिहार में विकास किया है। इसके अलावा बिहार में भाजपा के कई स्थानीय कद्दावर नेता भी हैं। यह भी माना जा रहा है कि बिहार के चुनाव प्रचार में भाजपा नेता दिल्ली वाली अपनी प्रचार-भाषा (भडक़ाऊ भाषा) का इस्तेमाल करने से परहेज़ करेंगे, क्योंकि भाजपा के बड़े नेता और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपनी पार्टी के नेताओं के बयानों को बड़ी गलती बताकर उन्हें इशारा भी कर दिया है कि वे आगे से कम-से-कम चुनाव प्रचार में ऐसी भाषा न बोलें। लेकिन इस बार बिहार के चुनाव दिल्ली से काफी प्रभावित होंगे, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

ऐसे में भाजपा के लिए बिहार जीतना ही नहीं, बल्कि गठबन्धन की ही सही, सरकार बनाना भी आसान नहीं है। दूसरी तरफ तेजस्वी यादव और तेज प्रताप सिंह अपने पिता की लालू प्रसाद यादव की साख बचाने के लिए बिहार में ज़ोर-शोर से चुनाव लड़ेंगे। हाल ही में हुए एक सर्वे में पाया गया कि लालू प्रसाद यादव की पार्टी यानी जदयू को सबसे अधिक सीटें बिहार में मिलेंगी। लेकिन क्या यह इतना आसान होगा? सूत्र यह भी कहते हैं कि प्रशांत किशोर बिहार में कांग्रेस के लिए रणनीति बना सकते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि दिल्ली में दो बार शून्य पर रह चुकी कांग्रेस क्या बिहार में अपनी साख बचाने में कामयाब रह सकेगी? इधर यह भी एक धारणा बन चुकी है कि जिस पार्टी के लिए पीके चुनावी रणनीति बनाते हैं, चुनाव जीत जाती है। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि अगर बिहार चुनाव में पीके कांग्रेस के साथ खड़े होते हैं, तो क्या माना जाए कि दिल्ली में शून्य हो चुकी कांग्रेस बिहार में अच्छा प्रदर्शन कर सकेगी? क्या यह माना जाए कि बिहार में राजद के साथ मिलकर कांग्रेस चुनाव लड़ेगी?

हालाँकि नीतीश कुमार को किसी भी तरह कम नहीं आँका जाना चाहिए, क्योंकि वह बिहार के कद्दावर नेता भी हैं और मुख्यमंत्री भी। उन्होंने बिहार में जो काम किये हैं, उनको जनता काफी हद तक सराहती है। लेकिन उनकी छवि के दूसरे पहलू भी हैं। पहला तो यह कि शराबबंदी के बाद काफी लोग उनसे नाराज हैं और माना जा रहा है कि सुशासन बाबू ने बिहार में शराबबंदी करके सिर्फ माफियागीरी को बढ़ावा दिया है। हाल ही में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी चुनौती दी है कि बिहार के मंत्रियों और अधिकारियों के घरों में और उनके ठिकानों पर छापा मारकर देखिए अगर उनके यहाँ शराब न निकले, तो वह राजनीति छोड़ देंगे। ऐसे में बहुत सारे सवाल तो उठते ही हैं कि बिहार में शराबबंदी हुई है या बड़े पैमाने पर शराब की माफियागीरी शुरू हुई है। तीसरी तरफ जन अधिकार पार्टी के संरक्षक और सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव भी इस बार नीतीश के लिए कम सिरदर्द साबित नहीं होंगे। बिहार में 2019 में जब बहुत विकट बाढ़ आयी थी, तो सरकार लोगों की उतनी मदद नहीं कर पायी, खासतौर से जनता का दर्द बाँटने केमामले में; जितनी पप्पू यादव ने की।

ऐसे में पप्पू यादव का राजनीतिक चेहरा काफी चमका है और माना जा रहा है कि वह लोगों के काफी प्रिय नेता बन चुके हैं। चौथी और है आम आदमी पार्टी, जो कि दिल्ली में दूसरी बड़ी जीत के साथ बाद अब बिहार में भी अपना हाथ आजमा सकती है। दिल्ली की सत्ता में काबिज़ आम आदमी पार्टी के कुछ उम्मीवारों के जीतने के आसार भी बन सकते हैं; खासतौर से बिहार में। क्योंकि इस बार दिल्ली में जिस तरह से विकास और काम के नाम पर आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों ने वोट माँगे और बड़ी जीत हासिल की, उसका असर तो कहीं न कहीं हर राज्य में पहुंच रहा है। इतना ही नहीं दूसरे राज्य के विपक्षी नेता इस बात से घबराये हुए हैं कि वह अब जुमलेबाज़ी और केवल चुनावी वादे करके बड़ी जीत हासिल कर भी पाएँगे या नहीं? विदित हो कि इन दिनों केजरीवाल के चर्चे दिल्ली और देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी हो रहे हैं। ऐसे में आम आदमी पार्टी मान रही है कि वह इस बार बिहार और उत्तर प्रदेश की विधानसभाओं में अपना वर्चस्व बढ़ा पायेगी। इसके लिए उसने भी तैयारियाँ शुरू कर दी हैं।

यह भी तय है कि इस बार जिस तरह से दिल्ली के चुनावी मैदान में अनेक पार्टियाँ उतर पड़ी थीं, उसी तरह से बिहार के चुनावी मैदान में भी कई पार्टियाँ दिखेंगी। इस बार यह भी सोचने वाली बात है कि सर्वे की रिपोर्ट आते ही फिल्म अभिनेता और भाजपा के पूर्व कद्दावर नेता शत्रुघ्न सिन्हा ने लालू प्रसाद से मिलकर तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने की बात विश्वास के साथ कही और उन्हें अग्रिम शुभकामनाएँ भी दीं। इसका मतलब यह भी होता है कि शत्रुघ्न सिन्हा महागठबन्धन के समर्थन में खड़े रहेंगे, जिसका फायदा पक्के तौर पर लालू परिवार को मिल सकता है।

दूर क्यों जा रहे हैं भाजपा-अकाली दल?

एक कहावत है कि सफलता में हर कोई साथ होता है और असफलता में आप अकेले रह जाते हैं। दिल्ली के विधानसभा चुनाव के बाद में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हार के बाद गठबन्धन सहयोगी शिरोमणि अकाली दल (शिअद) ने नतीजों की ज़िम्मेदारी लेने के बजाय भाजपा को सहयोगियों के साथ तालमेल की कमी के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है।

शिअद के प्रवक्ता दलजीत सिंह चीमा ने कहा है कि हमारे साथ बेहतर समन्वय बनाया जाता, तो भाजपा के लिए बेहतर नतीजे मिलते। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा कि स्थानीय भाजपा नेता चाहते थे कि अकाली चुनाव में भाग न लें, जिसके चलते हम चुनाव से दूर रहे। इसके अलावा मुसलमानों को सीएए में शामिल करने के मामले में हमारे और भाजपा के रुख में मतभेद थे।

अकाली दल के नेता ने कहा कि मतदान से कुछ ही पहले मतभेदों को दूर किया गया, लेकिन तब तक हमारे लिए चुनाव प्रचार में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए बहुत देर हो चुकी थी। चूँकि हमारी पार्टी का कोई उम्मीदवार मैदान में नहीं था, इसलिए कैडर को सक्रिय नहीं किया जा सका। हमारी भागीदारी भाजपा को फायदा दे सकती थी।

अकाली नेता ने कहा कि भाजपा सिख बहुल विधानसभा सीटों, जैसे- तिलक नगर, राजौरी गार्डन, हरि नगर, कालकाजी और शाहदरा में बुरी तरह हार गयी। यदि उसे इन सीटों पर जीतना था, तो वह क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर चलती।

दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष मनजिंदर सिंह सिरसा ने कहा कि अगर भाजपा ने उसके स्थानीय नेतृत्व को किनारे नहीं किया होता, तो परिणाम अलग होते। सिरसा ने कहा कि राजौरी गार्डन और तिलक नगर जैसी सिख बिरादरी की सीटों से सिख उम्मीदवारों को मैदान में उतारना भी भाजपा ने उचित नहीं समझा।

उन्होंने कहा कि राजौरी गार्डन में मतदान में 10 फीसदी की गिरावट आयी। हमें लगता है कि ये सिख वोटर थे, जो मतदान से दूर रहे। यह एकमात्र कारण नहीं है कि शिरोमणि अकाली दल अपने सबसे पुराने सहयोगी भाजपा से नाराज़ है।

 बहुत कम लोगों को पता है कि 31 जनवरी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एनडीए) की बजट से पहले की बैठक को छोडक़र शिअद ने सार्वजनिक रूप से क्यों हंगामा किया? एसएस ढींढसा और एचएस फूलका को पद्म पुरस्कारों से सम्मानित करना भी शिअद की नाराज़गी का एक कारण था; क्योंकि अब ढींढसा से पार्टी के कटु रिश्ते हैं। ढींढसा पहले शिअद के महासचिव थे, लेकिन बाद में उनके सम्बन्धों में दरार आयी और सीनियर ढींढसा ने आिखर पार्टी से किनारा ही कर लिया।

सूत्रों का कहना है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के पुत्र और राज्यसभा सांसद व अकाली दल के नेता नरेश गुजराल ने सिखों के मामलों में महाराष्ट्र सरकार के हस्तक्षेप पर आपत्ति जतायी थी और भाजपा नेतृत्व के सामने शिअद का पक्ष रखा था। यह मामला पंजाब के पूर्व उप मुख्यमंत्री और शिअद अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने गृह मंत्री अमित शाह के समक्ष भी उठाया था। तब गृह मंत्री ने कथित तौर पर वादा किया था कि वह सुनिश्चित करेंगे कि महाराष्ट्र सरकार (तत्कालीन देवेंद्र फडणवीस सरकार) तख्त श्रीनांदेड़ बोर्ड अधिनियम में विवादास्पद संशोधन वापस ले ले। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बता दें कि विवाद की जड़ वह अधिकार है, जो राज्य सरकार को श्राइन बोर्ड के अध्यक्ष नियुक्त करने के लिए मिला है। इस तरह का विवाद वर्ष 2000 में भी देखने को मिला था, जब तत्कालीन आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन ने कहा था कि सिख हिन्दू धर्म का ही हिस्सा हैं और उनकी आस्था का मूल आधार मुगल शासकों के अत्याचार के िखलाफ हिन्दुओं की रक्षा करना था, जिसके लिए उन्हें तैयार किया गया था।

अकाली दल ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा के साथ अपना गठबन्धन तोड़ा था और जब वे फिर से वरिष्ठ साथी से जुड़े, तो दिल्ली में समर्थन करने में बहुत देर हो गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि सिख बहुल इलाकों में आम आदमी पार्टी (आप) की जीत हुई। यह कोई रहस्य नहीं है कि ऐतिहासिक रूप से अकाली दल ने नागरिकता कानून मामले में मुसलमानों का पक्ष लिया है। शिअद के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि पार्टी का विचार था कि केवल सीएए ही नहीं, पार्टी को संविधान के अनुच्छेद-370 के हनन के िखलाफ भी सख्त रुख अपनाना चाहिए, जिसने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म कर दिया।

विडम्बना यह है कि केंद्रीय मंत्री और अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरत कौर बादल ने कैबिनेट की बैठकों में नागरिकता (संशोधन) विधेयक के िखलाफ बिल्कुल आवाज़ नहीं उठायी। यहाँ तक कि संसद में सीएए के पक्ष में भी अपनी बात रखी। यही नहीं, विधानसभा चुनावों के सम्पन्न होने के बाद अकाली दल ने आिखर भाजपा से हाथ मिला लिया; लेकिन पंजाब में इसका क्या असर होगा? इसका अंदाज़ा किसी को नहीं है। सूत्रों का कहना है कि भाजपा नेतृत्व ने शिअद के साथ सम्बन्ध जारी रखे हुए थे; क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहित भाजपा नेता शिअद के वरिष्ठ नेता सुखबीर सिंह बादल का काफी सम्मान करते हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा के रिश्ते खत्म होने के बाद भाजपा सहयोगियों को खो रही है; क्योंकि शिअद और भाजपा की नाराज़गी के बारे में सभी जानते हैं।

शिअद देश में भगवा पार्टी के सबसे पुराने गठबन्धन सहयोगियों में से एक है। दोनों दल 1977 से तब से गठबन्धन करते आ रहे हैं, जब अकालियों ने विधानसभा चुनाव जनसंघ के साथ लड़ा; जो उस समय जनता पार्टी गठबन्धन का हिस्सा था। माना जा रहा है कि दोनों दलों के सम्बन्धों में अभी और खटास आ सकती है; क्योंकि भाजपा के नेता 2022 में अगले राज्य विधानसभा चुनावों में अकेले जाने की बात कर रहे हैं। सूत्र बताते हैं कि कुछ भाजपा नेता अकालियों से कटे रहते हैं।

साल 2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान शिअद और भाजपा का गठबन्धन तीसरे स्थान पर आ गया था, जब आप और शिअद दोनों को हराकर कांग्रेस सत्ता में आ गयी थी। मई, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को ज़बरदस्त जीत मिली; लेकिन पंजाब में उसे मुँह की खानी पड़ी। अब भाजपा ने पहले ही अपने इरादे दिखा दिये हैं कि अगर पंजाब में 2022 में शिअद और उसके रिश्ते खट्टे हो जाएँ, तो शिअद अकेला पड़ सकता है।

पंजाब में अपना आधार बढ़ाने के लिए भाजपा पहले ही बड़े स्तर पर सदस्यता अभियान शुरू करने की तैयारी कर चुकी है। वह यह देख रही है कि ग्रामीण इलाकों में कैसे उसका आधार बन सकता है। खासतौर से भाजपा उस वोटबैंक में सेंध लगाना चाहती है, जो कि पारम्परिक तौर पर अकालियों का है। इतना ही नहीं, सिखों को खुश करने के लिए भाजपा लंगर पर से जीएसटी खत्म करने और सिख कैदियों को रिहा करने जैसे लुभावने फैसले कर चुकी है। यह भी सच है कि भाजपा ने पंजाब में अपना कार्यकर्ता आधार बढ़ाया है। यह भी हो सकता है कि भाजपा अगले पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले शिअद से गठबन्धन के बिना चुनाव लडऩे का फैसला करके सबको चौंका दे।

भाजपा के लिए एक और विकल्प होगा कि वह अधिक सीटों पर दावेदारी करे और शिअद को गठबन्धन में बड़े भाई की तरह काम न करने दे। दोनों पार्टियों के बीच के मनमुटाव से सम्बन्धित कई सवालों के साथ-साथ एक असमंजस पंजाब में विधानसभा चुनाव करीब आने तक बना रहेगा भाजपा और शिअद की पंजाब इकाइयों के भीतर होने वाली चर्चा और उथल-पुथल को देखना दिलचस्प होगा। संयोग से देश की सबसे पुरानी क्षेत्रीय पार्टी शिअद इस साल 2020 में अपने अस्तित्व के 100 साल पूरे कर रही है।

क्या सुधर पाएगी पुलिस व्यवस्था?

सरकार ने इंटरऑपरेबल क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम (आईसीजेएस) भी लॉन्च किया है, जिसके ज़रिये अदालतों, पुलिस, अभियोजन, जेलों और फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं के बीच डाटा के आदान-प्रदान की प्रक्रिया त्वरित हो सकेगी और जल्द न्याय का रास्ता खुलेगा। यौन उत्पीडऩ के मामलों में पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज करने के दो महीने के भीतर पुलिस जाँच पूरी करने के लिए सरकार ने इंवेस्टिगेटिंग ट्रैकिंग सिस्टम फॉर सेक्सुअल ऑफेंसेज (आईटीएसएसओ) पोर्टल के माध्यम से सीसीटीएनएस डाटा का उपयोग करते हुए जाँच पर नज़र रखी जा सकेगी। आईटीएसएसओ कानून से जुड़ी प्रवर्तन एजेंसियों के लिए उपलब्ध है और इसमें लम्बित मामलों का विवरण रहता है। इसके साथ ही सरकार ने कानून से जुड़ी एजेंसियों के लिए यौन अपराधियों का भी एक राष्ट्रीय स्तर का डाटा बेस तैयार किया है। एनडीएसओ ऐसे यौन अपराधियों पर नज़र रखती है, जो बारम्बार अपराध करते हैं; साथ ही इनसे बचाव की पहल भी शुरू की गयी है। एक साइबर क्राइम पोर्टल भी काम कर रहा है।

भारतीय संविधान के अनुसार, पुलिस और पब्लिक ऑर्डर राज्य के विषय हैं। इसमें पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए राज्यों की मदद की योजना के तहत सम्बन्धित राज्यों की पुलिस फोर्स को अधुनिक उपकरणों से लैस करने की ज़रूरत है, ताकि उनको अपराधियों से निपटने में आसानी हो सके। राज्यों की पुलिस के आधुनिकीकरण की योजना के तहत राज्यों को केंद्र से सहयोग मिलता है, जिसके तहत गैजेट का प्रशिक्षण प्रदान करना, उन्नत संचार, पुलिस भवन, आवास फॉरेंसिक उपकरण शामिल हैं। इसमें राज्य सरकारों के पास प्राथमिकताओं और ज़रूरतों के आधार पर चुनाव करने का भी विकल्प है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के लिए कॉमन कॉज और लोकनीति प्रोग्राम की तैयार ‘भारत में पुलिस बल की स्थिति रिपोर्ट-2019’ में स्थितियों में नीति निर्धारण का ज़िक्र किया है कि किस तरह से भारतीय पुलिस काम करती है। इसमें पुलिसकर्मियों की संवेदनशीलता और सेवा शर्तों के साथ ही संसाधनों का भी विस्तार से विश्लेषण किया गया है। इसके साथ ही ​इस रिपोर्ट में पुलिस तंत्र के बुनियादी ढाँचे, आम लोगों से सम्पर्क व उनके नियमित कार्य और राज्य की पुलिस के कामकाज की स्थिति की जानकारी प्रदान की गयी है।

अपर्याप्त क्षमता

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) और ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (बीपीआरडी) के आँकड़ों से पता चलता है कि भारत में पुलिस अपनी स्वीकृत क्षमता के 77 फीसदी या अपनी ज़रूरी क्षमता के महज़ तीन-चौथाई हिस्से पर काम कर रही है। कांस्टेबल स्तर से लेकर सीनियर रैंक तक के अधिकारियों के लिए रिक्तियाँ की जानी हैं। यह तथ्य है कि केवल दो राज्यों पश्चिम बंगाल और बिहार से इतर पद्मनाभ समिति की सिफारिश के अनुसार, हर चार कांस्टेबल पर प्रति वरिष्ठ अधिकारी का अनुपात है। बाकी सभी राज्यों में हर अफसर की तुलना में कांस्टेबल की संख्या कहीं ज़्यादा है। पिछले पाँच वर्षों में औसतन केवल 6.4 फीसदी पुलिस बल को इन-सर्विस प्रशिक्षण प्रदान किया गया। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को कांस्टेबल स्तर के कर्मियों की तुलना में इन-सर्विस प्रशिक्षण कहीं ज़्यादा प्रदान किये गये। 22 राज्यों के 70 पुलिस स्टेशनों में वायरलेस डिवाइस तक नहीं हैं, 214 पुलिस स्टेशनों में टेलीफोन की सुविधा नहीं है और 24 पुलिस स्टेशनों में न तो वायरलेस और न ही टेलीफोन की पहुँच है। भारत में पुलिस स्टेशनों में औसतन प्रति थाने में छ: कम्प्यूटर होते हैं, लेकिन असम और बिहार जैसे राज्यों में औसतन हरथाने से एक से कम कम्प्यूटर है।

22 राज्यों के करीब 240 पुलिस स्टेशनों में वाहनों की पहुँच नहीं है। आरक्षित पदों पर भारी रिक्तियों के साथ पुलिस में एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं का प्रतिनिधित्त्व न के बराबर है। यूपी और हरियाणा में एससी के आरक्षित पदों के लिए क्रमश: 60 और 53 फीसदी पद रिक्त पड़े हैं। ये रिक्तिया राज्य के कुल पदों की तुलना में काफी अधिक हैं। रिपोर्ट बताती है कि एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं को सामान्य पुलिसकर्मियों की तुलना में अधिकारी स्तर की भर्ती / तैनात किये जाने की सम्भावनाएँ भी बेहद कम हैं। हालाँकि, दो साल से कम समय में एसएसपी और डीआईजी स्तर के अधिकारी का स्थानांतरण 2007 से काफी कम हो गया है। 2016 तक अखिल भारतीय स्तर के 12 फीसदी अफसरों का तबादला दो साल से भी कम समय में कर दिया गया। हरियाणा और यूपी में दो साल से कम समय में तबादले सबसे ज़्यादा देखे गये। चुनावी राज्यों में समय से पहले स्थानांतरण के मामले सबसे अधिक देखने को मिलते हैं।

14 घंटे तक की ड्यूटी

रिपोर्ट बताती है कि पुलिसकर्मी औसतन 14 घंटे काम करते हैं, जिसमें लगभग 80 फीसदी पुलिसकर्मी 8 घंटे से अधिक काम करते हैं। नागालैंड को छोडक़र सर्वे किये गये 21 राज्यों में पुलिसकर्मियों के काम करने के औसत घंटे 11 से 18 के बीच हैं। लगभग हर दो में से एक पुलिसकर्मी नियमित रूप से ओवरटाइम काम करता है, जबकि 10 में आठ पुलिसकर्मियों को ओवरटाइम का कोई भुगतान नहीं किया जाता है। तकरीबन पाँच में से तीन के परिवार वाले सरकार द्वारा उपलब्ध कराये आवास से संतुष्ट नज़र नहीं आये। आधे पुलिसकर्मियों को कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलता है। चार में से तीन कर्मियों का मानना है कि उनके काम के बोझ के चलते उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है। हर चार में से एक पुलिसकर्मी ने बताया कि उनका सीनियर अफसर अपने जूनियर से अपने घर / व्यक्तिगत काम करवाता है; जबकि यह उनका काम नहीं होता है। एससी, एसटी और ओबीसी कर्मियों को अन्य जाति समूहों की तुलना में इस तरह का काम करवाने के मामले अधिक पाये गये हैं। हर पाँच में से दो वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पुलिस वालों से बदतमीजी से बात करते हैं। 37 फीसदी पुलिसकर्मी नौकरी मिलने पर किसी और पेशे में जाने को तैयार हैं, भले ही इसके लिए उन्हें इतना ही वेतन और भत्ता मिले।

संसाधनों की कमी

12 फीसदी कर्मियों ने बताया कि उनके पुलिस थानों में पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं है। 18 फीसदी ने कहा कि साफ शौचालय नहीं है और 14 फीसदी ने माना कि लोगों के लिए बैठने की जगह नहीं है। करीब 46 फीसदी कर्मचारियों के लिए ऐसी परिसिथतियाँ आती हैं कि उन्हें सरकारी वाहन की आवश्यकता होती है, लेकिन ये उपलब्ध नहीं होते हैं। इसके अलावा 41 फीसदी पुलिसकर्मी अक्सर ऐसी स्थितियों में रहते हैं, जहाँ वे कर्मचारियों की कमी के चलते समय पर अपराध या घटना वाली जगह पर नहीं पहुँच पाते हैं। डिजिटल और तकनीकी की उपलब्धता का विस्तार अभी न कि बराबर हुआ है। आठ फीसदी कर्मियों ने कहा कि कम्प्यूटर पर काम करने की उपलब्धता कभी नहीं होती है। 17 फीसदी ने कहा कि सीसीटीएनएस सुविधा सुविधा नहीं है। 42 फीसदी बोले कि थानों में फोरेंसिक तकनीक की सुविधा है ही नहीं। पश्चिम बंगाल के 31 फीसदी और असम के 28 फीसदी पुलिसकर्मियों ने कहा कि काम करने योज्य एक भी कम्प्यूटर उनके पुलिस स्टेशन / कार्य स्थल पर नहीं मिला। इन तमाम तथ्यों के बावजूद एनसीआरबी के जारी आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, सीसीटीएनएस के अनुपालन के मामले में असम सबसे आगे है। रिपोर्ट बताती है कि तीन में से एक पुलिसकर्मी को कभी भी फोरेंसिक तकनीक का प्रशिक्षण नहीं मिला।

साइबर क्राइम, मनी लॉन्ड्रिंग, आतंकवाद और उग्रवाद के नये तरीके के खतरे उभर रहे हैं, जिनसे निपटना खुफिया एजेंसियों और पुलिसिंग के लिए नयी चुनौतियाँ हैं। दुनियाभर में पुलिस के लिए प्रशिक्षण और दक्षता के नए स्तरों का प्रयोग किया जा रहा है, इनमें रीयल टाइम डाटा, मानवीय पर प्रभावी तरीके से पूछताछ की तकनीक और निगरानी के लिए पारदर्शी उपकरण शामिल हैं।

साइबर क्राइम जैसे-फिशिंग (मसलन, जंक ई-मेल के ज़रिये फँसाना), जानकारी चुराना, ऑनलाइन बैंकिंग धोखाधड़ी से पुलिस को निपटने के लिए आधुनिक तकनीक के साथ खुद को अपडेट रखना मजबूर है। इसके लिए पुलिसिंग को आधुनिक और डिजिटल बनाये जाने की तत्काल आवश्यकता है। डिजिटल इंडिया जैसे अभियान तब तक खोखले होंगे, जब तक पुलिस तक कम्प्यूटर व ज़रूरी सॉफ्टवेयर के साथ-साथ कुशल और प्रशिक्षित कर्मचारी न हों।

काम का दबाव

निष्पक्ष प्रतिनिधित्व और विविधता बरतने से इतर पुलिस में महिलाओं का एकीकरण, पुलिस संरचना पर सकारात्मक सुधार है। अध्ययनों से संकेत मिला है कि पुलिस में बढ़ता महिलाओं का प्रतिनिधित्व सीधे तौर पर औरतों के िखलाफ हिंसक अपराधों की रिपोॄटग और घरेलू हिंसा में कमी का सबब बन रहा है। इसका असर प्रभावित क्षेत्र व अपराध के स्तर और कर्मचारियों की मौज़ूदगी के हिसाब से अलग-अलग हो सकता है। पड़ताल में कर्मियों के अनुभव और उनकी अड़चनों के बारे में जानना चाहा जैसे कि बाहरी दबाव या राजनेताओं, मीडिया, जनता आदि का हस्तक्षेप। इसके अलावा ऐसे तमाम तरह के दबावों के बावजूद नियमों का पालन करते हुए सामान्य परिणाम हासिल करना। 36 फीसदी पुलिसकर्मियों के अनुसार, पिछले दो-तीन वर्षों में अपराध में वृद्धि दर्ज की गयी। इसके पीछे बड़ा कारण बेरोज़गारी और शिक्षा की कमी जैसे सामाजिक कारण माने गये हैं। जो लोग सोचते हैं कि अपराध के मामले कम हुए हैं, तो वे इसका श्रेय बेहतर पुलिसिंग (पुलिस अधिक सक्रिय, सख्त इत्यादि) बनाने की सम्भावनाओं को कम कर रहे हैं। 28 फीसदी पुलिसकर्मियों का मानना है कि राजनेताओं का दबाव अपराधियों की जाँच करने में सबसे बड़ी बाधा तीन में से एक पुलिसकर्मी ने माना कि आपराधिक जाँच के दौरान उन्होंने कई बार राजनीतिक दबाव का अनुभव किया। 38 फीसदी पुलिसकर्मियों ने रिपोर्ट के लिए बताया कि प्रभावशाली व्यक्तियों से जुड़े अपराध के मामलों में हमेशा राजनेताओं का दबाव रहता है। पाँच में से तीन कर्मियों ने ऐसे बाहरी दबावों का अनुपालन नहीं करने के चलते तबादला किये जाने से परिणाम भुगते।

पुलिस बल में महिलाएँ

इस अध्याय में लिंग के आधार पर पुलिसिंग को देखा गया। हम एक तरफ पुलिस बल के भीतर महिलाओं के अनुभवों को परखते हैं, साथ ही महिलाओं को लेकर पुलिसकर्मियों की सोच और काम के तौर तरीकों को परखते हैं। दूसरी ओर, हम महिलाओं और लिंग आधारित हिंसा के िखलाफ अपराधों की शिकायतों के बारे में कर्मियों की धारणाओं को देखते हैं। महिला पुलिसकर्मियों को घर के कार्यों में लिप्त होने की सम्भावना के चलते जैसे रजिस्टरों, डेटा आदि को बनाये रखने की होती है, जबकि पुरुष कर्मियों के क्षेत्र-आधारित कार्यों में शामिल होने की अधिक ज़्यादा सम्भावना रहती है, जैसे कि जाँच, गश्त, कानून-व्यवस्था का पालन आदि।

पाँच में से एक महिलाकर्मी ने अपने पुलिस स्टेशन / कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए अलग शौचालय न होने की जानकारी प्रदान की। चार पुलिसकर्मियों में से एक ने माना कि उनके पुलिस स्टेशन / अधिकार क्षेत्र में कोई यौन उत्पीडऩ समिति नहीं बनायी गयी थी। आधे से अधिक कर्मियों (पुरुषों और महिलाओं दोनों) को लगता है कि पुलिस बल में पुरुषों और महिलाओं को पूरी तरह से समान व्यवहार नहीं किया जाता। उच्च रैंक पर पुलिसकर्मी भेदभाव की रिपोर्ट करने की अधिक सम्भावना रहती हैं। बिहार, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पुलिस बल में महिलाओं के िखलाफ पूर्वाग्रह का स्तर सबसे अधिक है। इन राज्यों के कर्मियों को सबसे ज़्यादा लगता है कि महिला पुलिसकर्मी कम मेहनती, कम कुशल होती हैं और उनको अपने घरेलू कामों पर ध्याना देना चाहिए। पाँच में से लगभग एक पुलिसकर्मी की राय ये है कि लिंग भेदभाव या इससे जुड़ी हिंसा की शिकायतें झूठी हैं और किसी को फँसाने के लिए की जाती हैं। आठ फीसदी पुलिसकर्मियों की राय है कि ट्रांसजेंडर स्वाभाविक रूप से बहुत कम ही अपराध में शामिल होते हैं।

यौन उत्पीडऩ के मामले देखने के लिए नहीं है कोई कमेटी

2013 के कार्यस्थल अधिनियम में महिलाओं का यौन उत्पीडऩ के मामले में सभी कार्यस्थलों के लिए एक समिति का गठन करना अनिवार्य बना दिया गया है। किसी भी कार्यस्थल पर महिला कर्मचारियों द्वारा यौन उत्पीडऩ की शिकायतों के लिए यह समिति विचार करेगी। सर्वेक्षण में सामने आया कि पुलिस महिलाओं में से लगभग एक-चौथाई (24 फीसदी) ने अपने कार्यस्थल या अधिकार क्षेत्र में इस तरह की समिति की न होने की सूचना दी। इस मामले में पूरे देश में स्थिति निराशाजनक है। सर्वेक्षण किये गये राज्यों में से 13 में यानी तीन-चौथाई से भी कम में महिला पुलिसकर्मियों ने ऐसी किसी समिति के होने के बारे में जानकारी दी। बिहार की स्थिति सबसे ज़्यादा खराब थी, जहाँ पर 76 फीसदी महिला पुलिसकर्मियों ने ऐसे किसी समिति न होने की बात कही। दिल्ली, आंध्र प्रदेश, राजस्थान और ओडिशा की स्थिति इस मामले में थोड़ी बेहतर है, जहाँ 79 फीसदी या इससे अधिक महिला पुलिसकर्मियों ने माना कि उनके यहाँ ऐसी समिति है। तकरीबन हर पाँच में से दो महिला पुलिसकर्मियों (37 फीसदी) ने कहा कि वे पुलिस बल छोडऩे और किसी अन्य नौकरी के लिए जाने की इच्छुक हैं, भले ही उनको वेतन और भत्ते उतने ही क्यों न मिलें, जितने इसमें मिल रहे हैं। इससे उनके पेशे को लेकर असंतोष को समझा जा सकता है। यूपी में 63 फीसदी महिला पुलिसकर्मी कोई दूसरी नौकरी मिलने पर अपनी जॉब छोडऩे को तैयार हैं, जो उन्हें समान वेतन और भत्तों के साथ प्रदान करती है। मामले में उत्तर प्रदेश टॉप पर है, इसके बाद उत्तराखंड (54 फीसदी) और हिमाचल प्रदेश (52 फीसदी) का नम्बर आता है। गुजरात, छत्तीसगढ़ और केरल में भी असंतोष का स्तर काफी ज़्यादा था, जहाँ पर महिला पुलिसकर्मी अपनी नौकरी छोडऩे के लिए तैयार थीं। इससे ऐसा लगता है कि पुलिस विभाग में महिला कर्मियों के लिए उचित माहौल नहीं बन सका है। महिला और ट्रांसजेंडर के मामले में अभी पुलिस बल में समानता के लिए लम्बा सफर तय करना होगा।

महिला पुलिसकर्मियों में पहली दफा गर्भाधान बेहद कम देखने को मिला। यहाँ तक कि महिलाओं के काम के प्रोफाइल जो मौज़ूदा पुलिस बल का हिस्सा हैं, उनको कमज़ोर माना जाता है। लिंग समानता के बीच के अंतराल को पाटकर पुलिस की दक्षता को बेहतर किया जा सकेगा। लिंग-समावेशी पुलिस बल होने से कानून व सम्बन्धित एजेंसियों और लोगों के बीच भरोसा बढ़ सकता है। इससे पुलिस और आम लोगों के बीच काम करना भी आसान होगा। अगर थानों में पर्याप्त महिलाएँ होंगी, तो महिलाओं का उन तक पहुँचना भी आसान हो जाएगा, लेकिन इसमें अभी लम्बा समय लग सकता है।