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यस बैंक के पूर्व एमडी राणा कपूर के घर छापा, धनशोधन का मामला दर्ज

संकट में घिरे यस बैंक के पूर्व प्रोमोटर और प्रबंध निदेशक (एमडी) राणा कपूर के घर प्रवर्तन निदेशलय के छापे के बाद उनके खिलाफ धन शोधन (मणी लांड्रिंग) का मामला दर्ज कर लिया गया है।  करीब १३ महीने पहले राणा कपूर ने यस बैंक के प्रबंध निदेशक पद से इस्तीफा दे दिया था।

जानकारी के मुताबिक राणा के खिलाफ पीएमएलए के तहत केस दर्ज किया है। उन्होंने २००४ में यस बैंक की शुरुआत की थी। वित्‍तीय संकट में घिरने के बाद आरबीआई ने दो दिन पहले ही बैंक से पैसे निकलने की सीमा ५०,००० रूपये तय कर  दी थी जिससे बैंक के ग्राहकों में घबराहट फ़ैल गयी।

शुक्रवार देर रात तक राणा कपूर के मुंबई के वर्ली स्थित उनके घर ”समुद्र महल” पर प्रवर्तन निदेशालय ने छापा मारा। निदेशालय ने उनके खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के तहत केस दर्ज कर लिया है। याद रहे करीब १३ महीने पहले ही राणा कपूर ने यस बैंक के प्रबंध निदेशक पद से इस्तीफा दे दिया था।

राणा से अधिकारी पूछताछ कर रहे हैं। पूरी रात उनसे पूछताछ होती रही। उनसे डीएचएफएल से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में भी पूछताछ की जा रही है। ईडी की टीम उनसे इन दोनों ही मामलो पर पूछताछ कर रही है।

रिजर्व बैंक ने ३० दिन के लिए यस बैंक के बोर्ड की कमान अपने हाथ में ले ली है। बैंक की इस हालत का जिम्मेदार बन के फाउंडर, पूर्व मैनेजिंग डायरेक्टर और सीईओ राणा कपूर को ही बताया जा रहा है। उन पर मनी लॉन्ड्रिंग के साथ ही बड़े व्यापारियों को कर्ज  देकर उसे वसूलने की प्रक्रिया को अपने हिसाब से पूरी करने का भी आरोप लगा है।

यस बैंक पर पाबंदी अच्छे संकेत तो नहीं

देश की अर्थव्यवस्‍था की हालत सही नहीं है, यह तो पिछले काफी समय से हमारे सामने है। नोटबंदी के बाद से हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। सबसे ज्यादा बोझ बैंकों पर ही पड़ा है और उन्हीं पर ही दबाव है। यहां तक कि रिजर्व बैंक पर भी अच्छा खासा दबाव है। इन सबके बावजूद जल्द सुधरते हालात नहीं नजर आ रहे हैं। अब ताजा मामला देश के निजी क्षेत्र के चौथे सबसे बड़े बैंक पर  केंद्रीय बैंक यानी रिजर्व बैंक की ओर से पाबंदी लगाए जाने का सामने आया है। यानी इसका मतलब ये है कि जिस भी ग्राहक का बैंक का खाता यस बैंक में है, वह महीने में 50 हजार रुपये से अधिक नहीं निकाल पाएगा। सरकार और रिजर्व बैंक से लाख सफाई आने के बावजूद ग्राहकों का भरोसा वापस आना मुश्किल ही लग रहा है।

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है ‌कि यस बैंक को बचाने के लिए सरकार और आरबीआई मिलकर काम कर रहे हैं। उन्होंने हर खाताधारक को भरोसा दिलाया कि उनका पैसा सुरक्षित है। सरकार बैंक के लिए जल्द ही रिजॉल्यूशन प्लान लेकर आएगी। सीतारमण ने कहा कि पिछले दो महीनों से वह खुद स्थिति को देख रही हैं। निर्मला बोलीं, वह आरबीआई से बात करेंगी कि यस बैंक के जमाकर्ताओं को नकदी की समस्या का सामना न करना पड़े। साथ ही कम से कम एक साल के लिए बैंक में काम करने वालों की नौकरी न जाए, यह सुनिश्‍चित किया जाएगा।

शेयर बाजार में यस बैंक के शेयर धड़ाम हुए हैं। बीएसई और एनएसई दोनों में हाहाकार मच गया। इतना ही नहीं, बैंक को एसबीआई में मर्ज करने की बात की जा रही है तो एसबीआई के भी शेयरों में गिरावट दर्ज की गई। निजी क्षेत्र के बैंक में गड़बड़ी के बारे में जांच एजेंसियों को भी मालूम है। कर्ज के जोखिम भरे फैसलों का पता चलने के बाद रिजर्व बैंक ने यस बैंक प्रबंधन में बदलाव पर जोर दिया था।

2004 में बने इस निजी बैंक के संस्‍थापक राणा कपूर भी बयानों को लेकर चर्चा में रहे हैं। पीएम मोदी की नोटबंदी के ऐलान को उन्होंने मास्टर स्ट्रोक करार दिया था। इसके अलावा उन्होंने ही  भारत के सबसे पहले 2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्‍था हासिल करने की बात कही थी। यस बैंक ने अनिल अंबानी, एसेल ग्रुप, डीएचएफएल, वोडाफोन जैसी कंपनियों को लोन दिया जो डिफॉल्ट हुए हैं।

समाधान जल्द कर लिया जाएगा : आरबीआई गर्वनर

आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा कि बैंक से जुड़े मुद्दों का समाधान जल्दी कर लिया जाएगा। इसके लिए 30 दिन की समय सीमा तय की गई है। रिजर्व बैंक इस दिशा में जल्द कार्रवाई करेगा। उन्होंने कहा कि यस बैंक पर रोक लगाने का निर्णय किसी एक इकाई को ध्यान में रखकर नहीं किया गया है। यह निर्णय देश के बैंकिंग और वित्तीय प्रणाली की सुरक्षा और स्थिरता को बनाए रखने के लिए किया गया है। वहीं, भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन रजनीश कुमार ने कहा कि यस बैंक की समस्या सिर्फ उससे जुड़ी है, यह पूरे बैंकिंग सेक्टर की समस्या नहीं है। स्टेट बैंक ने कहा है कि यस बैंक मामले में निवेश के सभी विकल्प खुले हुए हैं। उन्होंने ये भी कहा कि ग्राहकों चिंता करने की जरूरत नहीं है।

कोरोना के नाम पर इलाज कर ठग रहें है

आजकल दिल्ली में कोरोना वायरस को लेकर अजीब तरह का माहौल है । आलम ये है कि मास्क , सैनेटाइजर , हाथों के ग्लब्स मेडिकल स्टोरों में आसानी से मिल नहीं रहें है ऐसे में वे लोग भी अब  मास्क की दलाली  में लग गये है जिनका दूर दूर तक मेडिकल के क्षेत्र में कोई लेना देना तक नहीं है, वे भी अब कोरोना वायरस का इलाज करने में लगे है। सबसे दुखद पहलू तो ये है कि भोले भाले मरीजों को इस समय दिल्ली के झोलाछाप नकली डाक्टर जमकर पैसा लूटने में लगे है। ऐसा ही मामला दिल्ली के मंगोलपुरी मे सामने आया यहाँ नकली डाक्टर सोहिल ने कोरोना का तुरन्त इलाज के नाम पर औने पौने दाम वसूल रहे है।मरीज जतन ने बताया कि सरकारें तमाम दावे कर ले पर आज भी दिल्ली के कई एरिया ऐसे है । जहाँ पर आज भी नकली डाक्टरों का आतंक मरीजों के लिये कोरोना वायरस से कम नहीं है।

सबसे चौकानें वाली बात तो ये है कि कोरोना के नाम पर इस समय सियासत भी जमकर हो रही है। सियासतदानों का कहना है कि कोरोना वायरस के नाम पर  केन्द् सरकार ओर दिल्ली सरकार अपनी कमियों को छिपा रहें है। कांग्रेस के नेता श्याम सुन्दर कद ने बताया मंहगाई , बेरोजगारी, और हिंसा से जनता परेशान है।पर सरकारें कोरोना के नाम पर जनता को गुंमराह कर रही हे। क्योंकि सरकारें स्वास्थ्य के क्षेत्र में कोई काम नहीं कर रही है ऐसे में जनता बीमारी से मर खप रही है।

कैंसर का डर दिखा निकाले गर्भाशय!

12 साल की आयु में सरिता ताई (बदला हुआ नाम) की शादी गन्ना काटने का काम करने वाले एक मज़दूर से हुई। 17 साल की उम्र तक सरिता तीन बच्चों की माँ बन गयीं। जब सरिता ताई की उम्र 20 वर्ष हुई, तो एक निजी चिकित्सक ने उसे बताया कि उन्हें कैंसर होने का खतरा है। उसने इसका सरल समाधान सुझाया कि आपको (सरिता को) अपना गर्भाशय निकलवाना होगा। जीवन के इस पड़ाव तक शिक्षा से महरूम और जागरूकता से दूर रहने वाली सरिता अपने तीन छोटे बच्चों के अनिश्चित भविष्य की चिन्ता के भय में फँस गयीं और डॉक्टर के द्वारा दिया गया आसान-सा फैसला ले बैठीं। उन्होंने बिना हिचक के डॉक्टर को 50,000 रुपये की राशि अदा कर दी, ताकि सर्जरी करके उनका गर्भाशय शरीर से बाहर निकाल दिया जाए। तहलका की प्रमुख संवाददाता ने सरिता ताई, जो अब 45 साल की हैं और दो पोतों की दादी हैं; से बातचीत की, तो हैरत भरी जानकारी हासिल हुई।

ताई! क्या बजह थी कि आपको डॉक्टर के पास जाना पड़ा?

मैं 20 साल की थी। मुझे पेट के निचले हिस्से और पीठ में लगातार दर्द रहता था और जननांग से भारी रक्तस्राव और गाढ़ा सफेद स्राव होता था।

सर्जरी के बाद कोई सुधार हुआ?

नहीं; खून बहना तो रुक गया, लेकिन मुझे अन्य शारीरिक व्याधियों से छुटकारा नहीं मिला है। सच तो यह है कि मुझे अब अन्य स्वास्थ्य समस्याएँ हो गयी हैं। 33 साल पहले यानी शादी के कुछ हफ्ते बाद गरीबी ने ताई को महाराष्ट्र के बीड में गन्ना काटने का काम करने को मजबूर कर दिया। आजीविका की तलाश में पति के साथ उन्होंने पश्चिमी महाराष्ट्र और पड़ोसी राज्यों में गन्ने के खेतों में जगह-जगह प्रवास पर रहना शुरू कर दिया। विदित हो कि गन्ने के खेतों में काम करना बेहद कठिन और कमर तोड़ देने वाला होता है, खासकर महिलाओं के लिए। यही नहीं, उन्हें लगातार 12 से 16 घंटे काम करना होता है और महीनों तक कोई अवकाश भी नहीं मिलता। यह सब इन महिलाओं की ज़िन्दगी को दुश्वारियों से भर देता है।

मासिक धर्म से जुड़ी महिलाओं की समस्याएँ गन्ने के खेतों में नियमित उपस्थिति में एक बड़ी बाधा हैं। काम से एक दिन की भी गैर-हाज़िरी पर परिवार को भारी ज़ुर्माना भरना पड़ता है, जिसे वे वहन नहीं कर सकते। यह भी एक प्रमुख कारण है कि खासकर बीड की महिलाएँ, गर्भाशय निकालने (हिस्ट्रेक्टमी) को लेकर डॉक्टर की सलाह पर सवाल नहीं उठातीं; जबकि गर्भाशय निकलवाने से पहले अभी तक किसी परीक्षण से यह भी पुष्टि की गयी है कि किसी महिला को वास्तव में कैंसर था। दरअसल, भविष्य में कोई और गम्भीर समस्या न घेर ले और उन्हें खेतों में काम पर जाने में कोई बाधा न आये, इसके डर से महिलाएँ डॉक्टर की सलाह पर गर्भाशय निकलवाने को एक आसान विकल्प चुन लेती हैं।

बीड के केज तालुका में नवचेतना सर्वांगीण विकास केंद्र ने 2018 में एक सर्वे में पाया कि 12 से 48 साल की 48 फीसदी महिलाओं के गर्भाशय इसी तरह कैंसर का डर दिखाकर निकाले जा चुके थे। इस बात की पड़ताल के लिए तहलका  की प्रमुख संवाददाता ने बीड में 25 महिलाओं से बातचीत की, जिनमें से 15 केज की थीं। इन महिलाओं में से अधिकतर ने बताया कि महज़ 20 साल की उम्र में ही उनका गर्भाशय निकाला जा चुका है। आश्चर्य की बात है कि ये महिलाएँ बुजुर्ग और कमज़ोर-सी दिखने लगी हैं और उनके चेहरे पर झुर्रियाँ आ गयी हैं। ये महिलाएँ ऐसी दिखने लगी हैं, जैसे 60 साल की हों। इस बारे में एक स्थानीय डॉक्टर ने बताया कि गर्भाशय निकालने से महिलाओं की उम्र ढलने की प्रक्रिया तेज़ तेज़ गति से होती है और शरीर सामान्य रूप से कार्य नहीं करता है। इन महिलाओं को भी सरिता ताई की तरह ही डॉक्टरों ने एक ही कारण बताया- कैंसर का खतरा। हालाँकि, इन महिलाओं ने दावा किया कि सर्जरी उनकी स्वास्थ्य समस्याओं में सुधार करने में विफल रही, बल्कि उनकी स्थिति और खराब हो गयी। 45 वर्षीय सविता बाई (बदला नाम) ने बताया कि ऑपरेशन के बाद भी, उसके पेट के निचले हिस्से में दर्द खत्म नहीं हुआ। कभी-कभी मेरा हृदय तेज़ गति से धडक़ने लगता है और मुझे साँस लेने में तकलीफ होती है। कमज़ोरी भी महसूस होती है। उन्होंने कहा कि अभी से बूढ़े लोगों की तरह मेरी नज़र कमज़ोर हो गयी है।

तहलका की प्रमुख संवाददाता ने पाया कि इन सभी महिलाओं को सविता बाई की तरह ही कोई-न-कोई स्वास्थ्य समस्या है। इस बारे में स्थानीय डॉक्टर शुभांगी अहंकारी ने बताया कि बहुत ही आपात स्थिति में कम उम्र की किसी महिला का गर्भाशय निकाला जाता है और अगर किसी महिला को कैंसर होने का डर है या गर्भाशय स्वत: बाहर आ जाता है या बहुत अधिक रक्तस्राव होता है, तब 35 से 49 साल की उम्र में उसे निकाला जाता है।

कोई समाधान नहीं

महाराष्ट्र के बीड में गन्ने के खेत में कार्य की व्यस्तता के बीच पति के साथ दोपहर के खाने के लिए बैठी 27 वर्षीय मालती ने कहा कि मैडम! मैं इस बार अपना गर्भाशय निकलवा दूँगी। डॉक्टर ने मुझे बताया कि भारी रक्तस्राव के कारण मेरे भीतर कैंसर विकसित हो सकता है। मालती, जो 8 और 12 वर्ष की दो बेटियों की माँ हैं; मार्च में गन्ने की कटाई के सीजन के खत्म होने के बाद अपने गाँव उस्मानाबाद लौटकर गर्भाशय हटाने की कष्टप्रद सर्जरी से गुज़रने वाली हैं।

आँसू भरी आँखों के साथ पति की तरफ देखते हुए मालती कहती हैं कि यदि मैं अपने गर्भाशय को जल्द-से-जल्द नहीं निकलवाऊँगी, तो मैं निश्चित रूप से कैंसर से मर जाऊँगी। हम ऑपरेशन के लिए पैसे की व्यवस्था के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। मासिक धर्म के कारण काम से एक दिन भी अनुपस्थित रहने का मतलब है कि मुकद्दम (ठेकेदार) भारी ज़ुर्माना ठोक देगा, जिसे हम वहन नहीं कर सकते।

कुल मिलाकर यहाँ भारी रक्तश्राव का मतलब कैंसर विकसित होने का खौफ है, जो सभी महिलाओं को घेरे है। मालती ने कहा कि मैं मासिक धर्म के दौरान होने वाले दर्द के चलते हर बार छुट्टी लेकर आॢथक दण्ड (ज़ुर्माना) भुगतने का जोखिम नहीं ले सकती। सिर्फ अभी तीन दिन पहले ही मैंने उन्हें तीन दिन की छुट्टी के लिए 1500 रुपये का ज़ुर्माना अदा किया है; क्योंकि मैं मासिक धर्म के दर्द के कारण काम नहीं कर पा रही थी। गन्ना कटाई के ही काम से जुड़ी एक अन्य महिला, जो गन्ना पेराई सीजन के बाद हिस्ट्रेक्टमी के दौर से गुज़रेगी; ने कहा कि मैंने तीन बार चेकअप कराया। गोलियाँ लीं। लेकिन सफेद पानी के स्राव और पेट के निचले हिस्से में दर्द की समस्या में सुधार नहीं हो रहा है। डॉक्टरों ने कहा है कि अगर मैं अपने गर्भाशय को नहीं निकवाऊँगी, तो मुझे गम्भीर समस्या हो जाएगी।

क्या डॉक्टर ने बताया कि आप किस तरह की समस्या से पीडि़त हो सकती हैं?

उसने तुरन्त जवाब दिया- हाँ, कैंसर।

चिलचिलाती धूप से बचने के लिए शेड के नीचे एक साथ खाना खा रहे किसानों के साथ मुकद्दम (ठेकेदार) भी उपस्थित था। तहलका संवाददाता का उससे मिलना एक संयोग ही था। प्रमुख संवाददाता को देखकर करीब 30 साल की एक महिला मज़दूर ने गुस्से से भरकर ठेकेदार की तरफ इशारा करते हुए कहा कि मैडम! इस आदमी को देखो, यही हमारे भारी मेडिकल बिलों के लिए ज़िम्मेदार है। जब हम बीमार पड़ते हैं, तो वह हमें छुट्टी नहीं देता है। अगर हम मजबूरीवश छुट्टी कर लेती हैं, तो यह हमारी मज़दूरी काटने के अलावा हम पर भारी ज़ुर्माना भी लगाता है। महिला की शिकायत है कि इसी की तरह बाकी के ठेकेदार दशकों से आपराधिक प्रथाओं का इस्तेमाल करते हुए मज़दूरों का शोषण कर रहे हैं।

लालची डॉक्टरों को कैसे दें चुनौती?

भगवान के बाद डॉक्टर ही होता है। लेकिन यहाँ के कुछ डॉक्टर पैसे के लालच में महिलाओं को कैंसर का भय दिखाकर उनका गर्भाशय निकलवाने की सलाह देते हैं और मज़दूर महिलाएँ डर से गर्भाशय निवलवा देती हैं। बीड के बंजारा बस्ती की महिलाओं के एक समूह ने बताया कि डॉक्टरों ने यह कहकर कि उनका गर्भाशय गम्भीर रूप से क्षतिग्रस्त हो चुका है और देरी होने पर कैंसर हो जाएगा; उन्हें गर्भाशय निकलवाने की सलाह दी थी। साक्षात्कार के दौरान कई पीडि़तों ने पुष्टि की कि डॉक्टरों के कहने पर उन्होंने अपने-अपने गर्भाशय निकलवा दिये। हैरत की बात कि ये डॉक्टर महिलाओं को सलाह देते हैं कि अब उनके कई बच्चे हैं, इसलिए उन्हें बच्चेदानी की ज़रूरत नहीं है और उन्हें सर्जरी करा लेनी चाहिए, ताकि कैंसर से बच सकें। बता दें कि सूखाग्रस्त मराठवाड़ा क्षेत्र में लालची डॉक्टरों द्वारा गढ़ी गयी इन परिभाषाओं ने गरीब ग्रामीण महिलाओं के बीच एक धारणा बना दी है कि हिस्ट्रेक्टमी ही सभी समस्याओं का इलाज है। महिलाओं के दिमाग में यह भर दिया गया है कि इस तरह की सर्जरी किसी भी तरह की स्त्रीरोग सम्बन्धी समस्याओं, यहाँ तक कि मासिक धर्म के दर्द को भी दूर कर देती है। यह डॉक्टर महिलाओं को सर्जरी के गम्भीर नतीजों के बारे में कुछ भी नहीं बताते। इसलिए, वे आसानी से गर्भाशय को निकलवाने का विकल्प चुन लेती हैं। बता दें कि डॉक्टरों की यह बेशर्मी चौंकाने वाली है और व्यापक मीडिया रिपोट्र्स के बाद भी इन डॉक्टरों के िखलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती है। तहलका की प्रमुख संवाददाता को नाम न छापने की शर्त पर एक डॉक्टर ने बताया कि कई ठेकेदार एक-एक बार में दज़र्नों महिलाओं को बहला-फुसलाकर डॉक्टरों के पास ले जाते थे और गर्भाशय निकलवा देते थे। जब मीडिया ने इस मामले को उठाया है, तबसे ठेकेदार सर्जरी के लिए महिलाओं को ले जाने से बच रहे हैं।

कैंसर : अफवाह है या असलियत?

देश के सर्वश्रेष्ठ कैंसर अनुसंधान संस्थानों में से एक, नरगिस दत्त मेमोरियल कैंसर अस्पताल महाराष्ट्र के बार्शी में स्थित है। सांकेतिक मामलों की जाँच के लिए इस संस्थान द्वारा कई गाँवों में स्वास्थ्य शिविर और कैंसर जाँच क्लीनिक समय-समय पर लगाये जाते हैं। ऐसे शिविरों से कई ग्रामीण लोग भी लाभान्वित हुए हैं।

सवाल यह है कि अगर मराठावाड़ा क्षेत्र में महिलाओं में कैंसर होने की सम्भावना इतनी ज़्यादा रहती है, तो अभी तक किसी स्वास्थ्य केंद्र ने इस मामले को संज्ञान में क्यों नहीं लिया? अभी तक कोई स्वास्थ्य अलर्ट जारी क्यों नहीं किया गया? और डॉक्टरों द्वारा इस तरह ऑपरेशन करने के मामले की जाँच क्यों नहीं की गयी? जबकि कुछ स्थानीय डॉक्टरों ने कैंसर का डर दिखाकर अधिकतर महिलाओं के गर्भाशय निकाल दिये। क्या कैंसर के नाम पर सर्जरी करके गर्भाशय निकालने वाले इन डॉक्टरों ने महिलाओं का प्री-कैंसरस सेल्स एग्ज़ामिनेशन टेस्ट कराया था? जो कि कैंसर के ऑपरेशन से पहले बेहद ज़रूरी होता है। क्या ऑपरेशन से पहले और बाद में डॉक्टरों की टीम ने मेडिकल काउंसलिंग की थी?

सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर भरोसा नहीं

हैरानी की बात यह है कि मराठवाड़ा में अधिकतर ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की ज़रूरतों के लिए निजी अस्पतालों में जाने को प्राथमिकता देते हैं। कारण? चूँकि, अधिकांश ग्रामीण स्वास्थ्य के आधार पर छुट्टी लेने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। इससे दैनिक मज़दूरी का नुकसान होता है। वहीं, लम्बे समय तक उपचार और नशीली दवाओं के उपयोग का उनके लिए अर्थ है- ज़्यादा परिवहन लागत, दवा की लागत और डॉक्टर को अदा किया जाने वाला ज़्यादा शुल्क। इसलिए अधिकांश ग्रामीण महिलाएँ तत्काल स्वास्थ्य समाधान के लिए निजी अस्पतालों में जाना पसन्द करती हैं। एक धारणा बन गयी है कि सरकारी अस्पतालों में काम (इलाज) धीमी गति से होता है। इसके अलावा सार्वजनिक अस्पतालों में स्वास्थ्य लाभ की योजनाओं और सुविधाओं के बारे में ग्रामीणों में जागरूकता का नितांत अभाव है; जबकि सच यह है कि वहाँ स्वास्थ्य सुविधाएँ कमोवेश मुफ्त में उपलब्ध हैं।

अब तक की कार्रवाई

मई, 2019 में कई मीडिया रिपोट्र्स के ज़रिये जब इन डॉक्टरों की दुर्भावनाओं की जानकारी सामने आयी और गरीब ग्रामीण महिलाओं पर हिस्ट्रेक्टमी (उनका गर्भाशय निकाल देने) की चौंकाने वाली दर का खुलासा हुआ, तो महाराष्ट्र राज्य संदेह के घेरे में आ गया। फेडरेशन ऑफ ऑब्स्ट्रेटिक एंड गायनेकोलॉजिकल सोसाइटीज ऑफ इंडिया (एफजीएसआई) ने ‘गर्भाशय बचाओ’ अभियान के तहत बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाया। इस मामले को देखने के लिए सरकार ने सात सदस्यीय समिति नियुक्त की और नये निर्देश जारी किये, जिसके तहत अब निजी अस्पतालों को ज़िला सिविल सर्जन या तालुका स्वास्थ्य अधिकारी से प्रक्रिया पूरी करने की अनुमति लेनी होगी। इसके अलावा, अब महिला गन्ना मज़दूरों की उनके प्रवास और उसके बाद गन्ने के खेतों से लौटने पर स्वास्थ्य जाँच आवश्यक होगी। इस मामले में तहलका ने राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) से बात की। एनसीडब्ल्यू ने दावा किया कि उसने 2009 की मीडिया रिपोर्ट पर संज्ञान लिया था। एनसीडब्ल्यू ने कहा कि उसने महाराष्ट्र सरकार से इस मामले में सख्त कार्रवाई करने को भी कहा था और पीडि़तों के पुनर्वास और मुख्यधारा के लिए भी कार्रवाई की माँग की है। इसके अलावा प्रवास करने से पहले और अब महिला गन्ना मज़दूरों की गन्ने के खेतों से लौटने के बाद स्वास्थ्य जाँच होगी। हालाँकि, प्रमुख संवाददाता को कई महिला मज़दूरों ने बताया कि प्रवास से पहले उनकी कोई भी जाँच नहीं की गयी। हिस्ट्रेक्टमी या अन्य स्त्रीरोग सम्बन्धी मुद्दों, जैसे- गले का कैंसर, फाइब्रॉयड ट्यूमर, सफेद प्रदर, भारी रक्तस्राव, गर्भाशय में परेशानी, एंडोमेट्रियोसिस आदि मामले में गरीब महिलाओं में जागरूकता स्तर शून्य है। राज्य सरकार ने भी इन महिलाओं की स्वास्थ्य जाँच के लिए कोई कदम नहीं उठाया है, जो अतीत में हिस्ट्रेक्टमी से गुज़री थीं।

न मुआवज़ा, न कार्रवाई, आखिर क्यों?

अब उन महिलाओं का क्या, जिनकी हिस्ट्रेक्टमी हुई थी? उनकी वर्तमान स्वास्थ्य स्थिति पर जाँच करने का कोई निर्देश क्यों नहीं दिया गया? गम्भीर चिकित्सा जटिलताओं के बावजूद प्रभावित महिलाओं को राज्य सरकार की तरफ से कोई सहायता क्यों नहीं प्रदान की गयी है?  और दोषी डॉक्टरों के िखलाफ क्या कार्रवाई हुई? क्या डॉक्टरों और गन्ना खेत ठेकेदारों के बीच मिलीभगत है? जबकि यह साफ है कि इन महिला मज़दूरों में मासिक धर्म की बुनियादी जानकारी का अभाव है, तो सरकार इन ज़िलों में बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान क्यों नहीं चला रही है? हिस्ट्रेक्टमी से गुज़र चुकी कई महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति बिगड़ रही है और उनकी स्थिति की जाँच करने का कोई राज्य का निर्देश नहीं है। न ही उन डॉक्टरों या अस्पतालों के िखलाफ कोई कार्रवाई की गयी थी, जहाँ यह सब हुआ?

अनइंडिकेटेड हिस्ट्रेक्टमी के मामलों और डॉक्टरों के िखलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने को लेकर बीड ज़िले के सिविल सर्जन डॉ. अशोक थोरात कहते हैं कि हमारे पास अस्पतालों की, जो सूची है उसके डॉक्टरों को लेकर कोई विसंगति नहीं मिली है। न ही यह साबित किया जा सका है कि किसी डॉक्टर ने किसी रोगी को हिस्ट्रेक्टमी के लिए मजबूर किया था या उसे धमकी दी थी।

थोरात ने कहा कि अब हम हिस्ट्रेक्टमी के नये मामलों की जाँच के तरीकों के साथ सामने आये हैं। सिविल सर्जन की अनुमति के बिना अस्पताल हिस्ट्रेक्टमी नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए इस रिपोर्ट को देखें (एक मरीज़ की मेडिकल रिपोर्ट की ओर इशारा करते हुए, जो सिविल सर्जन से अनुमोदन लेने के लिए आया था), इसकी रिपोर्टों में कहा गया है कि उसके गर्भाशय में रसोली (गाँठ) है। पूरी तरह जाँच के बाद ही हम अस्पताल को सर्जरी के लिए अनुमति देंगे। राज्य सरकार की तरफ से जारी किये गये आँकड़े बताते हैं कि 2016 से 2019 तक तीन वर्षों में करीब 4,605 महिलाओं ने 99 अस्पतालों में महाराष्ट्र में हिस्ट्रेक्टमी सर्जरी की। यह भी बताया गया है कि बीड ज़िले में राज्य या देश के लिहाज़ से हिस्ट्रेक्टमी की दर 14 गुना ज़्यादा है। राज्य के स्वास्थ्य अधिकारियों ने यह भी खुलासा किया है कि उनके पास उन सभी अस्पतालों और डॉक्टरों का रिकॉर्ड था, जिन्होंने हाल के वर्षों में इस तरह की सर्जरी की; फिर भी हमने देखा कि उनके िखलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है।

‘तहलका’ ने ज़मीनी हकीकत भी देखी। गन्ने के खेतों में कोई शौचालय नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप ये महिलाएँ जंगल में शौच करती हैं। पीने के साफ पानी की कोई सुविधा नहीं है, वे झुगियों में रहती हैं और उनके छोटे बच्चों के लिए क्रेच आदि की कोई सुविधा नहीं है। महिलाओं की ज़रूरतों के लिए सैनिटरी नैपकिन और अन्य सुविधाओं का नितांत अभाव है। राज्य सरकार के अधिकारियों की तरफ से महिलाओं में मासिक धर्म और स्त्री रोग सम्बन्धी मुद्दों पर जागरूकता जगाने की कोई कोशिश नहीं हुई है। पूर्ण अज्ञानता के चलते, ग्रामीण महिलाएँ आसानी से झाँसे में आ जाती हैं और उनका शोषण होता है। लेकिन सरकार की तरफ से उन्हें इस चंगुल से बाहर निकालने के लिए कोई प्रयास नहीं दिखा है। इस स्थिति को देश भर के मीडिया ने उजागर किया है, लेकिन अब तक राज्य सरकार की तरफ से इसके समाधान के लिए कोई विश्वसनीय कोशिश नहीं की गयी है।

इन ज़िलों के कई डॉक्टर पिछले कई साल से 20 साल की छोटी उम्र की महिलाओं को भी गर्भाशय निकालने की सलाह दे रहे हैं। वे इस सर्जरी को इन क्षेत्रों में युवा महिलाओं के बीच उनकी तमाम समस्याओं के रामबाण हल के रूप में बेच रहे हैं और कथित तौर पर उन्हें बता रहे हैं कि गर्भाशय को निकालने में देरी से उन्हें कैंसर होने का पूरा खतरा है।  ऐसे कई सवाल हैं, जिनके जवाब हमें नहीं मिले। महाराष्ट्र के अलावा कर्नाटक, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान और आंध्र प्रदेश में भी इस तरह के इसी तरह के अनावश्यक हिस्ट्रेक्टमी के मामले सामने आये हैं, जिनके पीछे का कारण गरीबों का शोषण है। दुर्भाग्य से इन राज्यों में भी हमने समस्या के निवारण की दिशा में कोई प्रगति नहीं देखी। अदालत में मामले दायर किये गये हैं, लेकिन न्याययिक प्रणाली को फैसले तक पहुँचने में समय लगता है।

सुलगते सवाल

क्या सभी महिलाओं को पूर्व-कैंसर कोशिकाओं की परीक्षा से गुज़रना पड़ा या उनकी स्थिति के बारे में परामर्श दिया गया?

अगर चीनी पट्टी (शुगर बेल्ट क्षेत्र) की महिलाओं को वास्तव में कैंसर विकसित होने की आशंका है, तो राज्य सरकार ने कभी कोई रिपोर्ट या बयान जारी क्यों नहीं किया?

यदि कैंसर वास्तविकता नहीं है, तो कैंसर की अफवाह किसने फैलाई और क्यों?

क्या कैंसर का इलाज करने के लिए महिलाओं का गर्भाशय निकालना ही समाधान है?

क्या महिलाओं का गर्भाशय निकालने वाले डॉक्टर प्रशिक्षित हैं? या ऐसे ही कैंची और दूसरे औज़ारों का प्रयोग करके वे ऑपरेशन कर डालते हैं?

क्या महिलाओं का गर्भाशय निकालने वाले डॉक्टर इस बात की गारन्टी लेते हैं कि उनके द्वारा किये गये ऑपरेशन से महिलाओं को दूसरी नयी बीमारियाँ नहीं होंगी?

अगर चीनी पट्टी (शुगर बेल्ट क्षेत्र) की महिलाओं को वास्तव में कैंसर विकसित होने की आशंका है, तो राज्य सरकार ने कभी कोई रिपोर्ट या बयान जारी क्यों नहीं किया?

इस मामले में प्रमुख संवाददाता ने सिविल सर्जन डॉ. अशोक थोरात से बातचीत की…

बीस साल से कम उम्र की इतनी सारी महिलाएँ हिस्ट्रेक्टमी से क्यों गुज़रती हैं?

मासिक धर्म की कमी और व्यक्तिगत स्वच्छता, गन्ने के खेतों में शौचालय की सुविधा की कमी आदि के कारण लगातार जननांग संक्रमण आदि हिस्ट्रेक्टमी के मुख्य कारण हैं।

क्या सर्जरी से पहले सभी महिला मज़दूर स्वास्थ्य जाँच से गुज़रती हैंै, जैसा कि नयी गाइडलान में कहा गया है?

हमने ज़िला स्वास्थ्य अधिकारियों (डीएचओ) को अधिकृत किया है और उन्हें सुझाव दिया है कि इसकी निगरानी और जाँच करना उन पर निर्भर है। मैं 100 प्रतिशत नहीं कह सकता, लेकिन उनमें से अधिकांश ने बीड में स्क्रीनिंग की है।

अनइंडिकेटेड हिस्ट्रेक्टमी करने वाले डॉक्टरों के िखलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गयी है?

हमारी तरफ से की गयी जाँच कहती है कि सभी 5,000 महिलाओं के पास पूरे मामले के कागज़ात, रिपोर्ट और दस्तावेज़ हैं और इसमें उनके हिस्ट्रेक्टमी के संकेत मिले थे। इसके अलावा, अस्पतालों की जाँच के दौरान हमें ऐसे रिकॉर्ड मिले, जिनसे साबित होता है कि उनके पास सर्जरी करने के पर्याप्त कारण थे। हमें ऐसा कोई मामला नहीं मिला, जिससे यह साबित किया जा सके कि डॉक्टरों ने मरीज़ों के साथ बल या धमकी का इस्तेमाल किया। दूसरे, पुराने मामलों में पर्याप्त सुबूत के बिना, कोई यह चुनौती नहीं दे सकता है कि रोगियों को दिया गया कारण वास्तव में वास्तविक था या नहीं।

लेकिन, ज़्यादातर महिलाओं को ज़्यादातर डॉक्टरों ने हिस्ट्रेक्टमी के पीछे कारण के रूप में कैंसर क्यों बताया?

बीड में ऐसा कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है।

फिर कैंसर की अफवाह कौन फैला रहा है?

मैं वास्तव में नहीं जानता। कम-से-कम डॉक्टर तो नहीं। पूछताछ दो स्तर पर थी। ज़िला और राज्य स्तर पर। ऐसी एक भी रिपोर्ट नहीं मिली, जिसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि किसी भी डॉक्टर ने महिलाओं को हिस्ट्रेक्टमी के लिए धमकी दी या बल प्रयोग किया। किसी एनजीओ की तरफ से अफवाह थी कि अनइंडिकेटेड हिस्ट्रेक्टमी वाली महिलाओं को राज्य सरकार की तरफ से 50,000 रुपये का मुआवज़ा मिलेगा। इसका नतीजा यह हुआ कि मुआवज़े के लालच में कई महिलाओं ने यह झूठ ही कह दिया कि उन्हें अनइंडिकेटेड हिस्ट्रेक्टमी है। यह सम्भव है कि जिन महिलाओं से आपकी बात हुई, वे वही महिलाएँ हों, जो यह लाभ (मुआवज़ा) पाने की हसरत रखती हों।

स्थिति सुधारने के लिए आप क्या करते हैं?

इसके लिए हम ज़िले में हेल्थ स्क्रीनिंग कर रहे हैं, ताकि कोई भी अनइंडिकेटेड हिस्ट्रेक्टमी न हो। हमने निजी चिकित्सकों को भी नियमों से अवगत कराया है और उन्हें उपचार के लिए चिकित्सा नियमों का पालन करने की हिदायत दी है। हमने हरेक निजी क्लिनिक में हिस्ट्रेक्टमी पर नियमों को दर्शाने वाले बोर्ड डिस्प्ले करवाये हैं।

ग्रामीण स्तर पर जागरूकता के लिए क्या कर रहे हैं?

ज़मीनी स्तर पर स्थानीय लोगों की मदद के लिए हमारे पास आँगनवाड़ी और स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं।

महिलाओं पर हो रहे अत्याचार अब तो जागो महाराष्ट्र सरकार

हाल ही में महाराष्ट्र में भाजपा व विपक्ष के नेता देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की सरकार पर किसानों से धोखा करने का आरोप लगाया था। इस पर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने दावा किया कि उनकी सरकार किसानों से किये गये वादों को पूरा करेगी। यह मसला तो विपक्षी पार्टी भाजपा ने सदन में उठाया था; लेकिन महाराष्ट्र सरकार में भागीदार कांग्रेस पार्टी के ही मंत्री नितिन राउत ने तकरीबन उसी दौरान मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को किसानी व खेतिहर महिला मज़दूरों की बाबत एक पत्र लिखा था। विदित हो कि महाराष्ट्र में किसान, सूखा व उनकी समस्याएँ हमेशा चर्चा में रहती हैं। लेकिन नितिन राउत ने मुख्यमंत्री ठाकरे को लिखे पत्र में उनका ध्यान इस सूबे में शुगर बेल्ट यानी गन्ना खेती प्रधान इलाकों में काम करने वाली महिला मज़दूरों की स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या की ओर खींचते हुए फौरन उचित कदम उठाने का अनुरोध कर दिया।

नितिन राउत ने कहा कि गन्ना खेतों में काम करने वाली 30,000 महिलाओं ने अपने सर्जरी के ज़रिये अपने गर्भाशय निकलवा दिये हैं, ताकि वे अपने पीरियड के दौरान भी खेतों में मज़दूरी कर सकें। हालाँकि मंत्री नितिन राउत ने आँकड़ों का ज़िक्र करते समय स्रोत का उल्लेख नहीं किया पर उन्होंने मुख्यमंत्री से इस मामले की गम्भीरता के मद्देनज़र ऐसे कदम उठाने की अपील कर डाली, जो इन महिला किसान मज़दूरों की मदद करने वाले हों। वे अपनी जान जोखिम में डालकर जीविकोपार्जन करने को मजबूर न हों।

बीते साल मीडिया में रिपोर्ट छपी थी कि गन्ना खेतों में काम करने वाली महिला मज़दूर अपनी दिहाड़ी कटने के दबाव में गर्भाशय निकलवाने वाला ऑपरेशन करा रही हैं। ये महिलाएँ पीरियड के दौरान दो या तीन दिन काम करने में सहज महसूस नहीं करतीं। लिहाज़ा खेतों से गैर-हाज़िर होने पर उनकी ही नहीं, बल्कि उनके पति की भी दिहाड़ी काट ली जाती है।

गन्ना खेतों में कटाई आदि के काम के लिए ठेकेदार बाहर से मज़दूरों को ले जाते हैं और पति-पत्नी को एक ही यूनिट समझा जाता है। महिला मज़दूर पीरियड के दौरान अगर एक दिन की छुट्टी लेती है, तो उसका व उसके पति के अंदाज़न 500 रुपये कट जाते हैं। कई महिला मज़दूरों ने यह भी बताया कि कई ठेकेदार गर्भाश्य निकलवाने के लिए महिलाओं को एडवांस में भी रकम देते हैं और फिर उनकी दिहाड़ी से काट लेते हैं।

गरीब, अनपढ़ महिलाएँ भी अपने काम की उत्पादकता को बढ़ाने और दिहाड़ी कटने के भय से अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ कर लेती हैं। विदित हो कि महाराष्ट्र सूबे का एक बहुत बड़ा हिस्सा भौगोलिक दृष्टि से सूखा सम्भावित क्षेत्र है। इस सूबे में सतारा, बीड़, उस्मानाबाद, लातूर, नासिक, औरंगाबाद, शोलापुर, साँगली आदि सूखे प्रभावित इलाके हैं और यहाँ से बड़ी संख्या में मज़दूर शुगर बेल्ट में हर साल 5-6 महीने के लिए काम करने के वास्ते पलायन कर जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि अकेले बीड़ ज़िले से ही 5-6 लाख लोग पलायन करते हैं। पलायन करने वालों में महिला मज़दूरों की तादाद भी उल्लेखनीय होती है।

इनमें गर्भवती व बच्चों को दूध पिलाने वाली महिलाएँ भी शामिल होती हैं। बीड़ से मज़दूर सूबे के अन्य इलाकों व सूबे से लगी कर्नाटक की सीमा पर गन्ना खेतों में काम के लिए चले जाते हैं। हमेशा सूखाग्रस्त रहने वाले बीड़ में गरीबी बहुत है। भारत में खेतों में काम करने वाली महिला मज़दूरों की संख्या करीब 80 फीसदी है। इन खेतों में काम करना, खासकर गन्ना काटना-छीलना आसान नहीं होता। सातों दिन 16-17 घंटे काम करना होता है। खुले में ही शौच करना होता है। यही नहीं, इनके रहने की व्यवस्था भी जहाँ की जाती है, वहाँ भी शौचालय या तो होते नहीं या वहाँ पानी ही नहीं होता है।

साफ-सफाई की उचित व्यवस्था नहीं होने से ऐसे में महिलाओं के संक्रमण की चपेट में आने का खतरा अधिक रहता है और वे अक्सर इसकी चपेट में आ भी जाती हैं। फिर वे झोलाछाप डॉक्टरों के चक्कर में पड़ जाती हैं, जो उनकी हालत को बद् से बद्तर बना देते हैं। ये डॉक्टर जो संक्रमण आसानी से इलाज के द्वारा ठीक हो सकता है, उसे भी नज़रअंदाज़ कर महिलाओं को गर्भाशय निकलवाने पर ज़ोर देने लगते हैं। उनके दिमाग में यह बात बैठा दी जाती है कि आपकी सभी समस्याओं की जड़ गर्भाशय है, इसे निकलवाकर अपनी उत्पादकता को बढ़ाओ और पैसा कमाओ। हालात यह है कि इस सूबे के कई गाँवों को गर्भाशय मुक्त गाँव के नाम से जाना जाता है। महाराष्ट्र सरकार ने 2019 में माना था कि बीते तीन वर्षों में यानी 2016-19 के दरम्यान अकेले बीड़ ज़िले में ही 4605 महिलाओं ने गर्भाशय निकलवाने के लिए सर्जरी करायी। उन  महिलाओं की उम्र 40 साल से कम थी और कुछ की तो महज़ 20 साल ही थी।

नागरिक संगठनों के कार्यकर्ताओं का मानना है कि सरकारी आँकड़े असली तस्वीर सामने नहीं रखते। उनका मानना है कि ऐसा कदम उठाने वाली महिलाओं की संख्या बहुत अधिक है। महिलाओं को सर्जरी कराने का इकलौता विकल्प बताने वाले मेडिकल इंडस्ट्री के लोग उन्हें इसके साइड इफेक्ट के बारे में कुछ भी नहीं बताते। अक्सर ऐसी सर्जरी कराने वाली महिलाओं को बाद में पीठ दर्द, गर्दन, घुटने दर्द की शिकायत अक्सर रहती है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी इन महिलाओं की स्थिति को दयनीय बताते हुए राज्य सरकार से भविष्य में ऐसे अत्याचारों को रोकने वाले कदम उठाने को कहा।

भारत जैसे मुल्क में जहाँ महिलाओं के प्रति लैंगिक पूर्वाग्रह अभी भी खासतौर पर गाँवों में मज़बूती से नज़र आती है, वहाँ कुछ इलाकों में महिलाओं को अपनी उत्पादकता बढ़ाने के लिए आज भी गर्भाशय निकालने के लिए विवश किया जाता है। ठेकेदारों के द्वारा उनकी गरीबी, निरक्षरता व अन्य हालात का इस तरह फायदा उठाने पर रोक लगनी चाहिए और यह सरकारी तंत्र की विफलता भी है कि वह कामकाजी महिलाओं की इस समस्या के प्रति उदासीन नज़र आता है।

दरअसल, कई इलाकों में महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान रसोई में जाने पर प्रतिबन्ध है। उन्हें कई तरह से छुआछूत का भी सामना करना पड़ता है। महिलाओं को ऐसे वक्त में पेट में मरोड़ उठने, पीठ, टाँगों में दर्द व जी मचलाने की शिकायत भी रहती है। इस दौरान मूड भी स्विंग होता है। ऐसे में मुल्क में कामकाजी महिलाओं के लिए पीरियड लीव पर भी समय-समय पर चर्चा का माहौल बनता रहता है।

पीरियड लीव की माँग करने वाली लॉबी की दलील है कि यह महिलाओं का अधिकार है। भारत के संविधान में राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों में राज्य को महिला कर्मचारियों के कल्याण के लिए कानून बनाने की अनुशंसा वाले प्रावधान भी हैं। अनुच्छेद-42 कहता है कि कार्यस्थल पर न्यायसंगत व मानवीय हालात सुनिश्चित करना राज्य के लक्ष्यों में आता है और इसमें प्रसूति अवकाश भी शामिल है। इस नज़रिये से पीरियड अवकाश भी इस दायरे में आ जाता है।

गौरतलब है कि अरुणाचल प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेसी सांसद निनॉन्ग एङ्क्षरग ने 2018 में मेंसुरेशन बेनिफिट बिल-2017’ सदन में पेश करने के लिए इस बिल का मसौदा तैयार किया था। इस मसौदे में पीरियड के दौरान सरकारी व निजी संस्थानों में काम करने वाली महिलाओं को दो दिन की छुट्टी देने वाले प्रावधान के साथ-साथ इस दौरान कार्यालयों में आराम करने की व्यवस्था करने को भी कहा गया था। भारत में बिहार में बेशक बाल विवाह अधिक होते हैं और वहाँ प्रजनन दर भी अधिक है। शिक्षा के स्तर पर भी सवाल उठते रहते हैं; लेकिन इस सूबे में 1992 से ही कामकाजी महिलाओं को पीरियड लीव दी जा रही है। जापान में तो यह व्यवस्था 1947 से ही है। ताइवान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया व चीन के कुछ प्रान्तों में भी कामकाजी महिलाओं के लिए ऐसे अवकाश वाले प्रावधान हैं। भारत में अगर ऐसे अवकाश वाली कोई नीति बनती है, तो क्या अनौपचारिक सगठनों में काम करने वाली महिलाओं को इसका लाभ होगा?

गर्भाशय हटाने का अपराध!

वर्षों पहले पंजाब विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के एक छात्र के रूप में मैं निराश था कि कैसे कवि विलियम शेक्सपियर की उत्कृष्ट कृति हैमलेट में नायक अपनी प्रेमिका ओफेलिया को ‘निर्बलता, तेरा दूसरा नाम औरत है’ कहकर सम्बोधित करता है। यह 16वीं शताब्दी में व्याप्त मानसिकता को दिखाता था। लेकिन लगता है कि सदियों से अभी तक कुछ भी नहीं बदला है।

इस अंक में ‘तहलका’ की आवरण कथा, 8 मार्च के अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है; क्योंकि यह भारत की महिलाओं की मार्मिक कहानी का वर्णन करती है। ‘तहलका’ की प्रमुख संवाददाता परी सैकिया ने महाराष्ट्र के बीड और उस्मानाबाद, जो सूखा ग्रस्त ग्रामीण पट्टी है; के दुर्गम इलाकों में कई दिन की व्यापक यात्रा करके वहाँ उन हज़ारों असहाय महिलाओं की पीड़ा की जानकारी ली, जिन्हें कथित तौर पर हिस्ट्रेक्टमी यानी सर्जरी करवाकर गर्भाशय निकलवाना पड़ा। महिलाओं ऐसा इसलिए भी करना पड़ता है, ताकि वे उन दिनों में भी मज़दूरी कर सकें, जब वे मासिक धर्म से गुज़र रही होती हैं। कैंसर के खतरे से बचने के लिए भी इन महिलाओं ने गर्भाशय निकालवाया था। परी के मुताबिक, ‘20 साल की युवा भोली, अनपढ़ महिलाओं से मिलना चौंकाने वाला था, जिन्हें बिना किसी अड़चन के काम करने और घातक कैंसर से बचने के लिए कथित तौर पर उनके गर्भाशय को हटाने की सलाह दी गयी थी। ऐसा अब भी हो रहा है।’

विडम्बना यह है कि यह सब ऐसे दौर में हो रहा है, जब हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में भारतीय सेना में महिलाओं को समान अवसर देने के अधिकार को बरकरार रखा है। यह फैसला महिला अफसरों को अपने पुरुष समकक्षों की तरह स्थायी कमीशन के लिए योग्य होने का मार्ग प्रशस्त करेगा। उच्चतर ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए सेना में लैंगिक समानता के लिए यह पहला बड़ा कदम है। शीर्ष अदालत के फैसले से महिला अधिकारियों के लिए कमांड पोस्टिंग, पदोन्नति, रैंक और पेंशन प्राप्त करने के रास्ते खुल गये हैं, जबकि अभी तक शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत महिला अफसरों के लिए 14 साल तक का कार्यकाल सीमित था। दु:खद वास्तविकता यह थी कि महिलाएँ सेना में पुरुष श्रेष्ठता की झूठी धारणा के चलते अपने करियर में शिखर को नहीं छू सकती थीं। सर्वोच्च अदालत के फैसले से यह धारणा अब खत्म हो जाएगी। चौंकाने वाली बात यह है कि सरकार ने अदालत में यह रुख अपनाया कि महिलाएँ शारीरिक रूप से सेना के उच्च पदों के लिए अयोग्य हैं। न्यायालय ने सरकार के तर्कों में उन विरोधाभासों को तोड़ दिया है, जो सिर्फ पूर्वाग्रह और पुरुष मानसिकता को दर्शाते हैं। वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय ने सेना में समानता की आवश्यकता को पूरा करने के लिए वीरता और उपलब्धि के लिए 13 महिला अधिकारियों को नामित किया।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला स्वागत योग्य है। क्योंकि यह अनुच्छेद-14 के तहत भारतीय संविधान में निहित समानता के अधिकार को बरकरार रखता है; जिसमें कहा गया है कि राज्य धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भारत में कानून के समक्ष समानता से इन्कार नहीं करेगा। लिंग कभी भी किसी भी व्यक्ति के लिए असमान व्यवहार का आधार नहीं हो सकता। न्यायालय ने महिलाओं की शारीरिक सीमाओं पर केंद्र के तर्कों को भी खारिज कर दिया और कहा कि उनकी क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाना महिलाओं और भारतीय सेना दोनों का अपमान है। यह निर्णय सदियों से चली आ रही एक गलत परम्परा को खत्म कर देगा और सेना में योग्य महिलाओं के प्रवेश को प्रोत्साहित करेगा। यह फैसला सेना में लिंग असंतुलन को हमेशा के लिए खत्म कर देगा। परी ने कहा कि समय आ गया है कि हमारे चुने हुए प्रतिनिधि पहल करें और प्रत्येक व्यक्ति बदलाव के लिए सार्थक प्रयास करे। तहलका को इस बदलाव का इंतज़ार है।

महिलाओं ने जब-जब ठानी, अवरोधों से हार न मानी…

पहाड़ी राज्य हिमाचल के कुल्लू ज़िले के शक्ति गाँव की गत 21 फरवरी की घटना है। मोबाइल फोन और एम्बुलेंस के अभाव में एक गर्भवती महिला को दुर्गम गाँव की महिलाएँ मिलकर 18 किलोमीटर दूर मुश्किल और जंगल वाले मार्ग से अस्पताल तक पैदल पालकी में बैठाकर ले गयीं, ताकि उसका सुरक्षित प्रसव हो सके। जीवट भरे इस कार्य से देश की महिलाओं पर चस्पा बेचारी या अबला का ठप्पा हास्यास्पद लगता है। लेकिन फिर अचानक देश में रोज़ हो रहे दर्जनों वीभत्स दुष्कर्म या उनका उत्पीडऩ महिलाओं की सुरक्षा को लेकर दर्जनों सवाल खड़े कर देते हैं और इन सब के बीच सर्वोच्च न्यायालय का भारतीय सेना की महिलाओं को स्थायी कमीशन देने वाला ऐतिहासिक आदेश एक अलग तरह की उम्मीद जगाता है।

इस बात में कोई शक नहीं कि देश की असंख्य महिलाएँ आज भी जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। गरीबी और अशिक्षा का सबसे बड़ा असर उन पर ही है और एक अभिशाप की तरह उन्हें बार-बार डसता है। ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन महिलाओं के पक्ष के लिहाज़ से जहाँ बहुत लाचारियों भरी तस्वीर सामने आती है, वहीं बहुत उम्मीद भरे परिवर्तन भी देखने को मिलते हैं।

अधिकार पर मुहर

पहले बात करते हैं सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की, जिसने देश की सेना में सभी महिला अफसरों के लिए स्थायी कमीशन का रास्ता खोल दिया है। वायुसेना और नौसेना में यह पहले से था। कोर्ट का यह फैसला दुनिया की सबसे बड़ी सेनाओं में शामिल भारतीय सेना में काम कर रही महिलाओं के लिए एक बड़ा सम्मान है, जो वास्तव में उनका अधिकार था।

वैसे यह एक लम्बी लड़ाई थी। करीब 17 साल के बाद इस लड़ाई का फैसला उनके हक में आया और महिलाओं के लिए सेना में स्थायी कमीशन का रास्ता खुल गया। सर्वोच्च न्यायालय ने 17 फरवरी को एक ऐतिहासिक फैसले में जहाँ सरकार को लताड़ लगायी; वहीं उसने यह सरकार और सेना पर छोड़ दिया कि महिलाओं को कॉम्बैट रोल देने का फैसला वही करे। आपको एक आँकड़ा भी बता दें कि 2016 से पहले करीब 2.5 फीसदी महिलाएँ भारतीय सशस्‍त्र सेनाओं में शामिल थीं। जनवरी 2019 तक सेना में महिलाओं की संख्‍या कुल सैन्‍य बल का 3.89 फीसदी, जबकि जून 2019 तक नौसेना और वायुसेना में यह क्रमश: 6.7 और 13.28 फीसदी था।

आज जब देश में महिला सशक्तिकरण एक बड़ा मुद्दा है, थलसेना में महिलाओं को लेकर नियम सच में चौंकाते थे। इस फैसले से पहले उन्हें (मेडिकल कोर और नॄसग सर्विसेस को छोडक़र, जहाँ पहले से स्थायी कमीशन है) न तो पेंशन मिलती थी न अन्य सुविधाएँ। वैसे सेना में शॉर्ट सर्विस कमीशन (एसएससी) के तहत भर्ती हुई महिलाएँ पहले केवल 10 साल तक ही नौकरी कर पाती थीं। बाद में 7वें वेतन आयोग में नौकरी की अवधि को बढ़ाकर 14 साल किया गया।

यदि इतिहास पर नज़र डालें, तो ज़ाहिर होता है कि साल 2010 में ही दिल्ली हाईकोर्ट ने महिला अफसरों को स्थायी कमीशन देने का फैसला सुनाया था। तब दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि हम महिलाओं पर अहसान नहीं कर रहे, बल्कि उन्हें उनका अधिकार दिला रहे हैं। इसके बाद सितंबर, 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी साफ कर दिया था कि वह हाईकोर्ट के फैसले पर रोक नहीं लगा रहा। तब केंद्र में यूपीए की सरकार थी; लेकिन इस दिशा में कुछ नहीं हुआ। साल 2014 में मोदी सरकार आ गयी, लेकिन उसके बाद भी छ: साल तक इस मामले में कोर्ई कदम नहीं उठाया गया। अब जाकर सर्वोच्च अदालत से महिला अधिकारियों को न्याय मिला है।

वैसे केंद्र सरकार ने पिछले साल फरवरी में सेना के 10 विभागों में महिला अफसरों को स्थायी कमीशन देने की नीति बनायी थी, लेकिन साथ में यह शर्त राखी कि मार्च, 2019 के बाद सेवा में आने वाली महिला अफसरों को ही इसका लाभ मिलेगा। इससे हुआ यह कि वे तमाम महिला अफसर परमानेंट कमीशन से वंचित हो गयीं, जो इतने लम्बे समय से इस अधिकार की कानूनी लड़ाई लड़ रही थीं। यही नहीं केंद्र ने यह भी दलील सर्वोच्च अदालत में बाकायदा याचिका दायर कर दी थी कि पुरुष सैनिक महिला अफसरों से आदेश लेने को तैयार नहीं होंगे। सर्वोच्च अदालत के फैसले से भारत की सेना की महिला अधिकारी भी उन देशों की बराबरी कर सकेंगी, जहाँ उन्हें स्थायी कमीशन दिया जाता है। भले उन्हें कॉम्बैट (युद्ध) क्षेत्र में अपना हुनर दिखाने में अभी वक्त लगे, इसमें कोई दो राय नहीं कि सर्वोच्च अदालत का आदेश सेना में जाने वाली लड़कियों के लिए बहुत प्रेरणा देने वाला फैसला है।

युद्ध क्षेत्र को छोडक़र अब बाकी तमाम क्षेत्रों में महिला अधिकारी कमांड पा सकेंगी। इससे पहले दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए सरकार ने महिलाओं को सेना में स्थायी कमीशन न देने के लिए सामाजिक और मानसिक कारण गिनाये थे, जिसके लिए सरकार को कोर्ट से लताड़ भी पड़ी। कोर्ट ने कहा कि महिलाओं को इस अवसर से वंचित करना भेदभावपूर्ण है; इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह फैसला जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच ने सुनाया।

दिलचस्प यह भी है कि वायुसेना और नौसेना में महिला अफसरों को स्थायी कमीशन पहले से मिल रहा है। सिर्फ थल सेना में काम कर रही महिलाओं के मामले में यह पाबंदी थी। दरअसल, सेना में महिलाओं के साथ इस भेदभाव को लेकर करीब 17 साल पहले एक याचिका दायर की गयी थी। दिल्ली हाइकोर्ट का फैसला याचिका के पक्ष में आया और कोर्ट ने कहा कि महिलाओं को सेना में कमीशन दिया जाना चाहिए।

इसके बाद केंद्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी। सभी पक्षों की सुनवाई पूरी होने के बाद आिखर सर्वोच्च अदालत ने भी दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को सही बताते हुए उस पर मुहर लगा दी। ज़ाहिर है सेना में काम कर रही महिला अधिकारियों की यह बहुत बड़ी जीत है और उनमें इस फैसले के बाद खुशी है।

ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि सेना से बाहर आने के बाद महिला अधिकारियों को पेंशन न मिलने के कारण आजीविका के लिए दूसरी नौकरियाँ ढूँढने के लिए मशक्कत करनी पड़ती थी। अपने जीवन के बेहतरीन 14 साल सेना को देने के बाद 40 साल की उम्र से पहले ही बेरोज़गार होने से उन्हें निराशा झेलनी पड़ती थी।

यह भी दिलचस्प है कि सेवानिवृत्ति के बाद नौकरियों में पुरुषों को ही अधिमान मिलता रहा है। कई तो अच्छे पदों पर बैठे हैं। महिलाओं को इक्का-दुक्का ही बेहतर विकल्प मिल पाता है। स्थायी कमीशन से कम से कम इतना तो होगा ही कि महिलाओं को सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें पेंशन और अन्य सभी सुविधाएँ मिल सकेंगी। इससे कम से कम उन्हें आजीविका की चिन्ता तो नहीं रहेगी।

दूसरी सबसे बड़ी बात, कोर्ट के इस फैसले से यह होगी कि वे कमांडिंग पद पर बैठ सकेंगी। सेना में रह चुकी हिमाचल के कांगड़ा की उज्ज्वला चौहान कहती हैं कि सेना में अधिकारी के रूप में आपकी सबसे बड़ी ख्वाहिश होती है- अपनी यूनिट को कमांड करना। अब कोर्ट के फैसले के बाद महिलाओं को यह सम्मान मिलने जा रहा है। लिहाज़ा यह उनके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है।

महिलाएँ पुरुषों की तरह बहादुर होती हैं; यह वायुसेना और नौसेना में स्थायी कमीशन के साथ कार्यरत महिला अफसर कई बार साबित कर चुकी हैं। इससे यह उम्मीद बँधती हैं कि सेना में महिलाओं को कॉम्बैट क्षेत्र में भी उतारने का फैसला आने वाले वर्षों में हो जाएगा। हालाँकि, यह फैसला करने का ज़िम्मा उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने सेना पर ही छोड़ दिया है। क्योंकि उसके मुताबिक यह एक नीतिगत फैसला है।

सुप्रीम कोर्ट के इस अहम फैसले में कहा गया है कि उन सभी महिला अफसरों को तीन महीने के अन्दर आर्मी में स्थायी कमीशन दिया जाए, जो इस विकल्प को चुनना चाहती हैं। साथ ही अदालत ने केंद्र की उस दलील को भी निराशाजनक बताया, जिसमें महिलाओं को कमांड पोस्ट न देने के पीछे शारीरिक क्षमताओं और सामाजिक मानदंडों का हवाला दिया गया था। दरअसल, शॉर्ट सर्विस और स्थायी कमीशन में अन्तर होता है। स्थायी कमीशन मिलने से महिला अधिकारी रिटायरमेंट की उम्र तक सेना में रह सकेंगी, जबकि शॉर्ट सर्विस के तहत वे 10 साल तक सेना में रह सकती थीं; जिसे बढ़ाकर 14 साल किया जा सकता था। वैसे शॉर्ट सर्विस में रहते हुए स्थायी कमीशन में जाने का विकल्प भी दिया जाता है। लेकिन यह सिर्फ पुरुषों के लिए ही था।

इसी तरह स्थायी कमीशन के लिए कॉमन डिफेंस सर्विस की परीक्षा की सुविधा अभी तक सिर्फ पुरुषों के लिए होती है। शार्ट कमीशन में ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी (ओटीए) के लिए सीडीएस की लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के आधार पर एंट्री होती है। शारीरिक मापदंडों पर खरा उतरना होता है। यह चयन प्रक्रिया महिला-पुरुष दोनों के लिए होती है। जहाँ तक प्रशिक्षण की बात है, स्थायी कमीशन में चुने हुए उम्मीदवार पढ़ाई और ट्रेनिंग के लिए देहरादून के आईएमए में भेजे जाते हैं। जबकि शॉर्ट कमीशन में उन्हें चेन्नई की ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी (ओटीए) में पढ़ाई और ट्रेनिंग के लिए भेजा जाता है।

जहाँ तक शॉर्ट सर्विस कमीशन की बात है, इसके तहत महिला अधिकारी आर्मी सर्विस कोर, ऑर्डनेंस, एजुकेशन कोर, जज एडवोकेट जनरल, इंजीनियर, सिग्नल, इंटेलिजेंस और इलेक्ट्रिक-मैकेनिकल इंजीनियरिंग ब्रांच में ही एंट्री पा सकती हैं। उन्हें कॉम्बैट सर्विसेस, जैसे- इन्फैंट्री, आम्र्ड, तोपखाने और मैकेनाइज्ड इन्फैंट्री में काम करने का मौका नहीं दिया जाता। हालाँकि, मेडिकल कोर और नॄसग सर्विसेस में ये नियम लागू नहीं होते। इनमें महिलाओं को परमानेंट कमीशन मिलता है, वे लेफ्टिनेंट जनरल पद तक पहुँचती रही हैं।

कोर्ट के आदेश के बाद अब सेना में महिला अधिकारी न्यायाधीश एडवोकेट जनरल, सेना शिक्षा कोर, सिग्नल इंजीनियर, आर्मी एविएशन, आर्मी एयर डिफेंस, इलेक्ट्रॉनिक्स और मैकेनिकल इंजीनियर, आर्मी सर्विस कोर, आर्मी ऑर्डिनेंस कोर और इंटेलिजेंस कोर में स्थायी कमीशन हासिल कर सकेंगी।

महिलाओं के हक के इस फैसले में सर्वोच्च अदालत की टिप्पणी केंद्र सरकार के लिए भी काफी तल्ख है, जिसमें कहा गया है कि महिला अधिकारियों की पोस्टिंग को लेकर केंद्र सरकार के नीतिगत फैसले बहुत अनोखे रहे हैं। हाईकोर्ट के फैसले के बाद केंद्र सरकार को महिला अफसरों को सेना में परमानेंट कमीशन देना चाहिए था; लेकिन ऐसा न करके उसने पूर्वाग्रह दिखाया है। दरअसल, केंद्र ने महिलाओं को सेना में कमीशन न देने के लिए तर्क दिया था कि शारीरिक सीमाओं और सामाजिक मानदंडों के चलते ऐसा करना सम्भव नहीं है। कोर्ट ने इस पर टिप्पणी की कि स्थायी कमीशन नहीं देने की केंद्र की यह दलील परेशान करने वाली है और इन्हें बिल्कुल स्वीकार नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने जो कहा वह सरकारों के लिए एक सबक है। कोर्ट का कहना था कि महिला अफसरों ने देश के लिए बहादुरी दिखायी है। अंग्रेजों का दौर खत्म होने के 70 साल बाद भी सरकार को सशस्त्र बलों में लैंगिक आधार पर भेदभाव खत्म करने के लिए मानसिकता बदलने की ज़रूरत है। कोर्ट का कहना था कि सेना में महिलाओं की बड़ी उपलब्धियाँ और भूमिका रही हैं और उनकी क्षमताओं पर संदेह करना महिलाओं ही नहीं, सेना का भी अपमान होगा।

दिलचस्प बात यह भी है कि वायुसेना में महिला अफसरों को स्थायी कमीशन का विकल्प है। वायुसेना में तो महिलाएँ कॉम्बैट रोल, जिसमें फ्लाइंग और ग्राउंड ड्यूटी आती है; में शामिल हो सकती हैं। यही नहीं, शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत भी महिलाएँ वायुसेना में हवाई जहाज़ और फाइटर जेट (लड़ाकू विमान) तक उड़ा सकती हैं। जहाँ तक नौसेना की बात है, उसमें महिला अफसर लॉजिस्टिक्स, कानून, एयर ट्रैफिक कंट्रोल, पायलट और नेवल इंस्पेक्टर कैडर में सेवाएँ दे सकती हैं। नौसेना में भी महिला अफसरों को स्थायी कमीशन का विकल्प पहले से है।

ऐसे में भला महिलाओं की शारीरिक और मानसिक क्षमता पर सवाल ही कहाँ उठता है? बल्कि सच यह है कि उन्होंने वायुसेना और नौसेना में अपनी क्षमताओं को साबित किया है। लिहाज़ा कोर्ट का फैसला महिलाओं की क्षमता का एक बहुत बड़ा सम्मान भी है। उम्मीद करनी चाहिए कि महिला अधिकारियों को भविष्य में कॉम्बैट सर्विसेस, जिनमें इन्फैंट्री, आम्र्ड, तोपखाने और मैकेनाइज्ड इन्फैंट्री शामिल हैं; में भी काम करने का अवसर मिलेगा और वे देश के लिए उतनी ही बड़ी एसेट साबित होंगी, जितना उनके पुरुष समक्ष रहे हैं।

कोर्ट के फैसले के असर

अब शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत सेना में पहले से कार्य कर रही तमाम महिला अफसर भी स्थायी कमीशन की हकदार हो जाएँगी। सुप्रीम कोर्ट का आदेश कहता है कि शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत 14 साल से कम और उससे ज़्यादा सेवाएँ दे चुकी महिला अफसरों, जो रिटायरमेंट की उम्र तक नहीं पहुँची हैं; को स्थायी कमीशन का अवसर दिया जाए। हालाँकि, महिलाओं को कॉम्बैट (युद्ध) क्षेत्र में कोई रोल देने का फैसला सर्वोच्च अदालत ने सरकार और सेना पर छोड़ा है। कोर्ट ने इसे नीतिगत मामला बताया। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी यही कहा था। ज़ाहिर है सरकार को अब इस बारे में सोचना पड़ेगा। कोर्ट के फैसले से सेना में काम कर रही महिला अफसरों को कमांड पोस्टिंग अर्थात् यूनिट, कोर या कमान का नेतृत्व करने का अवसर मिल सकेगा।

कोर्ट में कैसे पहुँचा मामला

यह साल 2003 की बात है। एक महिला वकील बबिता पुनिया ने महिलाओं को थलसेना में स्थायी कमीशन देने के लिए पहली बार दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की। यह मामला चलता रहा और इसी बीच इसके करीब छ: साल बाद 2009 में जाकर सेना की 9 महिला अधिकारियों ने हाईकोर्ट में इसी मसले पर याचिकाएँ दायर कीं। हालाँकि, यह याचिकाएँ अलग-अलग दायर गयी थीं। एक साल बाद ही, 2010 में दिल्ली हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए महिलाओं को सेना में स्थायी (परमानेंट) कमीशन देने का आदेश दिया। हाईकोर्ट ने फैसले में कहा कि सेवानिवृत्ति की आयु तक नहीं पहुँची महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन के अलावा पदोन्नति जैसे लाभ भी प्रदान किये जाएँ। अब सर्वोच्च अदालत से जो फैसला आया है, वह कमोवेश हाईकोर्ट के फैसले जैसा ही है।

जब शर्मशार हुआ देश

हैदराबाद में महिला डॉक्टर से गैंगरेप और उसकी बर्बर हत्या ने देश को झकझोरकर रख दिया। नवंबर के आिखरी हफ्ते में हैदराबाद की इस 26 वर्षीय डॉक्टर से हैवानियत कर उसे पेट्रोल डालकर जिस बेहरमी से जला दिया गया, उससे ज़ाहिर होता है कि देश में महिलाएँ बड़ी असुरक्षा में जी रही हैं। इस घटना की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उत्तर प्रदेश के उन्नाव में एक रेप पीडि़ता को आरोपियों ने पेट्रोल डालकर जला दिया। कुल मिलाकर दिल्ली के निर्भया कांड से लेकर देशभर में महिला यौन उत्पीडऩ की कई ऐसी घटनाएँ हैं, जो रूह तक को कँपा देती हैं। हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली को लेकर यह शर्मनाक जानकारी सामने आयी थी कि यहाँ हर रोज़ छ: बलात्कार होते हैं। अन्य घटनाओं में जनवरी, 2019 में एक 16 वर्षीय लडक़ी के सिर के साथ-साथ शरीर के हर अंग को काट दिया गया और उसके बाद उस पर एसिड डाल दिया गया। फरवरी में मुम्बई के माहिम इलाके से 5 साल की बच्ची का अपहरण करने के बाद बलात्कार किया गया और फिर उसका शव सडक़ किनारे मिला। मार्च में यूपी में जहाँ एक व्यक्ति ने बंदूक के बल पर 16 साल की लडक़ी को किडनैप कर रेप किया। वहीं अगले ही महीने एक 30 वर्षीय व्यक्ति ने मंदिर जा रही लडक़ी के साथ बलात्कार करने के बाद उसकी हड्डियों को तोड़ दिया और फिर उसकी निर्मम हत्या कर दी। अप्रैल में ही कर्नाटक में एक महिला का जला हुआ शव मिला और जाँच के बाद पता चला उसके साथ रेप भी किया गया है। मई में जम्मू-कश्मीर में एक व्यक्ति ने तीन साल की मासूम के साथ तब बलात्कार किया, जब वो घर के बाहर खेल रही थी। यूपी के रामपुर में तीन लोगों ने 17 वर्षीय बहरी और मूक लडक़ी के साथ बलात्कार किया। मई में ही नोएडा में तीन पुरुषों ने एक 16 वर्षीय लडक़ी को कैद करके 51 दिन तक उससे दुष्कर्म किया। पति के साथ खरीदारी करने आयी महिला के साथ पाँच पुरुषों ने मारपीट की और फिर उससे दुष्कर्म किया और उसका वीडियो भी बना डाला। जून में तेलंगाना में एक व्यक्ति ने कथित तौर पर नौ महीने की बच्ची का बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी। यूपी के अलीगढ़ में उसी महीने एक व्यक्ति ने चार साल की बच्ची को 10 रुपये का लालच देकर फुसलाया और फिर सुनसान जगह ले जाकर उससे दुष्कर्म किया। मुम्बई के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने मानसिक रूप से विक्षिप्त महिला से दुष्कर्म किया।

दिल्ली के जनकपुरी में जुलाई में रिक्शा चालक ने छ: वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार किया। गुजरात के स्कूल की म्यूजिक क्लास में दो शिक्षकों ने ही एक दृष्टिहीन छात्रा के साथ दुष्कर्म किया। सितंबर में एक बहुत भयावह जानकारी सामने आयी कि 12 साल की एक बालिका से दो साल में 30 से ज़्यादा पुरुषों ने दुष्कर्म किया था। बालिका द्वारा सॉरी, अम्मा! लिखे आिखरी नोट ने सबकी आँखें तो नम की हीं, उनमें गुस्सा भी भर दिया। झारखंड में चौथी की छात्रा के साथ वाइस-प्रिंसिपल और दो टीचर्स ने बलात्कार किया। वहीं, प्रिंसिपल के पति द्वारा सातवीं की छात्र के यौन उत्पीडऩ करने का मामला तब सामने आया, जब वह गर्भवती हो गयी। एक महिला ने जब तीन तलाक दिये जाने पर अपने पति का विरोध किया, तो उसके ससुर और देवर ने ही उसके साथ बलात्कार कर डाला और अक्टूबर में एक 24 वर्षीय महिला ने तब फाँसी का फंदा डालकर जान दे दी, जब उसके साथ गैंगरेप किया गया।

साल 2019 में महिलाओं की उपलब्धियाँ

बीता साल देश की महिलाओं की उपलब्धियों के हिसाब से बाहर उम्दा रहा है। साल भर देश की महिलाओं ने लैंगिक भेदभाव और तमाम रूढिय़ों के बावजूद देश को गौरव के पल दिये। यह 2 दिसंबर की बात है, जब सब-लेफ्टिनेंट शिवांगी स्वरूप भारतीय नौसेना में पहली महिला पायलट बनीं। नौसेना के एविएशन डिपार्टमेंट में महिला अफसरों को एयर ट्रैफिक कंट्रोल अधिकारी के रूप में तैनात किया जाता है। इससे कुछ दिन पहले ही लेफ्टिनेंट कर्नल ज्योति शर्मा भारतीय सेना में ऐसी पहली जज एडवोकेट जनरल (जेएजी) बनीं, जो किसी विदेशी मिशन पर तैनात हुई हैं। अपनी नयी पोस्ट के अनुसार, लेफ्टिनेंट कर्नल शर्मा को सेशेल्स सरकार के साथ एक सैन्य कानूनी विशेषज्ञ के रूप में शामिल किया। देश को गौरव दिलाने वाली की एक नयी गाथा करीब 18 साल से भारतीय सेना का हिस्सा अंजलि सिंह ने भी लिखी, जब वे 10 सितंबर को देश की पहली महिला डिफेन्स अटैच बनीं। उनसे पहले पुरुष ही सैन्य अटैचमेंट के रूप में नियुक्त होते रहे थे। जामिया मिल्लिया इस्लामिया (जेएमआई) में पुरुष वाइस चांसलर रहे। लेकिन पिछले साल अप्रैल में नजमा अख्तर ने विश्वविद्यालय की पहली वाइस चांसलर बनकर देश को गौरवान्वित किया। शिक्षा के क्षेत्र में यह उपलब्धि इस मायने में भी बहुत बड़ी है, क्योंकि अख्तर पहली ऐसी शिक्षाविद् हैं, जो दिल्ली में किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर बनी हैं। चंद्रिमा शाह ने एक अलग तरह का इतिहास रचा जब वह इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी (आईएनएसए) के 85 साल के इतिहास में पहली महिला अध्यक्ष बनीं और पश्चिम बंगाल के एक चाय बागान के वर्करों की बेटियों ने रग्बी सीखकर नेशनल टीम में तो जगह बनायी ही। उन्हें आइकन ऑफ नार्थ बंगाल अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया। बॉलीवुड अभिनेत्री दीपिका पादुकोण का मोम का पुतला लंदन के मैडम तुसाद संग्रहालय में लगाया गया। इंटरनेट सेवा प्रदाता कम्पनी याहू इंडिया के एक आकलन में मोस्ट सच्र्ड पर्सनैलिटी की सूची में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को दूसरे स्थान पर रखा गया, जो अपने आप में बड़ी उपलब्धि की तरह है। चंद्रयान-2 के प्रोजेक्ट डायरेक्टर की ज़िम्मेदारी महिला वैज्ञानिक मुथैया वनिता को सौंपी गयी, जिन्होंने अपने ज़िम्मे को बखूबी निभाकर बता दिया कि महिलाएँ चूल्हे-चौके से बाहर भी कामयाब हैं। भारतीय वायु सेना में फ्लाइट लेफ्टिनेंट हिना जायसवाल देश की पहली महिला फ्लाइट इंजीनियर बनीं। मुम्बई की कैप्टन आरोही पंडित (24) लाइट स्पोट्र्स एयरक्राफ्ट (एलएसए) में अकेली अटलांटिक महासागर को पार करने वाली दुनिया की पहली महिला बनीं। भारत के वेल्लोर कृत्रिम चिकित्सा महाविद्यालय में स्थित एक क्लीनियन वैज्ञानिक गगनदीप कंग रॉयल सोसायटी में शामिल होने वाली पहली महिला बनीं। गगनदीप प्रतिष्ठित फेलो रॉयल सोसायटी में 358 वर्ष के इतिहास में चयनित होने वाली पहली भारतीय महिला वैज्ञानिक हैं। बीजू जनता दल (बीजेडी) की आदिवासी महिला और पेशे से इंजीनियर चंद्राणी मुर्मू (25) संसद पहुँचीं। वह सबसे कम उम्र की महिला सांसद बनी हैं। भारत की जीएस लक्ष्मी इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल (आईसीसी) ईवेंट की पहली महिला रेफरी बनीं। भारतीय महिला सलामी बल्लेबाज़ स्मृति मंधाना को इस साल के लिए आईसीसी वनडे और टी-20 टीम में शामिल किया गया है। एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक विजेता 19 साल की अर्जुन अवार्डी हिमा दास ने 2019 में साल भर में 6 गोल्ड जीतकर तहलका मचा दिया।

महिला शक्ति को बढ़ावा देने के पक्ष में हैं ओबामा

दिल्ली विधानसभा चुनाव से करीब डेढ़ महीने पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सिंगापुर में एक लीडरशिप इवेंट को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘मैं बिल्कुल आश्वस्त हूँ कि यदि दो साल के लिए इस दुनिया के हर देश की कमान महिलाओं को सौंप दी जाए, तो आप हर महत्त्वपूर्ण निर्णय पर उनक असर देखेंगे।’ ओबामा ने यह भी कहा कि दुनिया में अधिकतर समस्याएँ सत्ता में अहम पदों पर बैठे पुराने लोगों के कारण पैदा होती हैैं, खासकर पुरुषों के कारण; जो कुर्सी से चिपके रहते हैं। ओबामा का मानना है कि दुनिया के हर देश, राज्य की कमान महिला को सौंपने से लोगों का रहन-सहन सुधरेगा और बेहतर नतीजे सामने आएँगे। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली का मंत्रिमंडल तो 100 फीसदी पुरुष प्रधान है।

हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न विधानसभा चुनाव में 8 महिलाओं को सफलता मिली और 62 पुरुषों के हिस्से में जीत आयी। 70 सीटों वाली इस विधानसभा के लिए इस बार 672 उम्मीदवार मैदान में थे, इसमें महिला उम्मीदवारों की संख्या 79 थी। आप पार्टी ने 9 महिलाओं को टिकट दिया था, जिसमें से 8 जीत गयीं। दिल्ली की सातवीं विधानसभा में भाजपा के 8 विधायक हैं, सभी पुरुष। कांग्रेस के एक भी विधायक को सफलता नहीं मिली। अहम तथ्य यह है कि आप को जिताने में महिला मतदाताओं की भूमिका पुरुषों से ज़्यादा है, लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में मुख्यमंत्री समेत सातो मंत्री पुरुष है। महिला व पुरुष मतदान में महज़ 0.07 फीसदी का फासला है, आठ महिला विधायक विधानसभा में हैं। महिला मतदाता ने मतदान में विशेष उत्साह दिखाया लेकिन मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व ज़ीरो।

महिला शून्य मंत्रिमंडल के सवाल पर दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का कहना है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का मानना है कि दिल्ली की जनता ने सरकार के कामों पर भरोसा जताया है, लिहाज़ा मंत्रिमंडल में फेरबदल करने का कोई औचित्य नहीं नज़र आता। जहाँ तक महिला सशक्तीकरण का सवाल है, वह आँकड़ों में नहीं, बल्कि आपकी सोच, नीतियों व प्रयासों से झलकता है।

दिल्ली के उप मुख्यमंत्री के इस कथन से यही संदेश निकलता है कि उनकी पार्टी के लिए सत्ता में महिलाओं की भागीदारी कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। मंत्रिमंडल में लैंगिक विविधता के दूरगामी फायदों से उन्हें कोई खास सरोकार नहीं है। जबकि कई अध्ययन इस ओर इशारा करते हैं कि संसद / विधानसभा में महिलाओं की संख्या बढऩे व मंत्रिमंडल में महिलाओं के प्रतिनिधित्व से नीतिगत फैसलों में महिला पहलुओं को भी ध्यान में रखा जाता है। बहरहाल, 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में महिलाओं ने कई रिकॉर्ड बनाये, जो इस बात का संकेत है कि यहाँ की महिलाओं के लिए लोकतंत्र काफी महत्त्वपूर्ण है। दिल्ली में 1.47 करोड़ मतदाता हैं, जिसमें 81.05 लाख पुरुष और 66.08 लाख महिला मतदाता हैं। 869 थर्ड जेंडर हैं।

महिला मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक बुलाने के लिए आयोग ने छोटे बच्चों के लिए क्रेच की व्यवस्था की थी। मतदान केंद्रों पर वहाँ बच्चों के लिए झूले और खेलने के लिए अन्य सुविधाएँ मौज़ूद थीं। यही नहीं, पिंक बूथों पर महिलाओं के लिए मेहंदी लगाने की व्यवस्था की गयी थी। दिल्ली में मतदान करने वाली महिलाओं का ग्राफ बराबर ऊपर की ओर जा रहा है। 2003 के विधानसभा चुनाव में पुरुष मतदान 54.89 फीसदी और महिला मतदान 51.53 फीसदी था। 2008 में पुरुष मतदान 58.34 फीसदी, तो महिला मतदान 56.62 फीसदी था। 2013 में पुरुष मतदान 66.03 फीसदी, तो महिला मतदान 65.14 फीसदी था।

2015 में पुरुष मतदान 67.64 फीसदी, तो महिला मतदान 66.50 फीसदी था। 8 फरवरी 2020 को कुल मतदान 62.59 फीसदी था। इसमें पुरुष मतदान 62.62 फीसदी, तो महिला मतदान 62.55 फीसदी था। इस तरह पुरुष व महिला के मत फीसदी में अन्तर महज़ 0.07 फीसदी का है। 2015 विधानसभा चुनाव में महिला व पुरुष मतदान में अन्तर 1.14 फीसदी का था और 2020 में यह अन्तर और कम हुआ है। इस विधानसभा चुनाव में महिला पुरुष मतदान में इस मामूली से अन्तर के अलावा इस विधानसभा चुनाव में महिला मतदाताओं की मतदान में रुचि का राजनीतिक सामाजिक महत्त्व है। बेशक इस बार दिल्ली में 2015 की तुलना में 4.54 फीसदी कम मतदान हुआ है, लेकिन महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में आप को अधिक वोट डाले। लोकनीति-सीएसडीसी के सर्वे के मुताबिक, 60 फीसदी महिलाओं ने आप के पक्ष में वोट डाला, तो 49 फीसदी पुरुषों ने आप को वोट डाला। 11 फीसदी प्वांइट का अन्तर उल्लेखनीय है। इस अन्तर का मतलब आप के लिए विशेष है यानी अगर यह नहीं होता, तो आप को चुनाव में जो एकतरफा जीत मिली है, वह नहीं मिलती। जीत का फासला बहुत कम हो सकता था। इस बार 69 फीसदी महिलाओं ने वोट के लिए आप का चयन किया, तो 35 फीसदी महिलाओं ने भाजपा को चुना।

किसी भी जाति, समुदाय, आयुवर्ग की बात करें, तो यही खुलासा होता है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के अधिक वोट आप को मिले। लोकनीति 1998 से दिल्ली की विधानसभा चुनाव के नतीजों का आकलन कर रही है और आँकड़ें यही बोलते हैं कि पहली मर्तबा 2020 में ऐसा व्यापक लैंगिक फासला वोट की प्राथमिकता सम्बन्धी रुझान में देखने को मिला। यहाँ तक कि जब कांग्रेस की शीला दीक्षित भी दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी, तब भी यह रुझान देखने को नहीं मिला था। इसके पीछे की मुख्य वजह शिक्षा, स्कूली इमारतें, आम आदमी के लिए मोहल्ला क्लिीनक, फ्री बिजली-पानी-बस सेवा आदि तो बताया ही जा रहा है; इसके अलावा ठीक चुनाव से पहले जामिया मिल्लिया व जेएनयू के छात्र जिस तरह पुलिस हिंसा के शिकार हुए, उस मुद्दे ने भी महिलाओं को अपने बच्चों की सुरक्षा के प्रति अधिक सतर्क कर दिया।

इसके अलावा महिलाओं ने भाजपा के विवादित बयानों व बाँटने, नफरत फैलाने वाले प्रयासों को नापन्सद किया और काम तथा विकास की राजनीति को चुनकर अपनी मंशा से राजनेताओं को अवगत करा दिया। दिल्ली की महिला मतदाताओं ने आप पर भरोसा जताया मगर मंत्रियों में एक भी महिला चेहरा नहीं। महिला कार्यकर्ता भी इस फैसले से नाराज़ हैं, भले ही खुलकर यह नाराज़गी सामने नहीं आ रही है। लोग यह भी पूछ रहे हैं कि कालका जी सीट से जीत हासिल करने वाली आतिशी को मंत्रिमंडल में क्यों नहीं शमिल किया?

यह सवाल इसलिए भी किया जा रहा है, क्योंकि दिल्ली में सरकारी स्कूलों में शिक्षा के जिस नये प्रयोग मॉडल की अधिक चर्चा होती है, उसकी पहल करने वालों में आतिशी का भी नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इसी सवाल से जुड़ी एक चर्चा यह भी है कि दिल्ली के उप मुख्यमंत्री व शिक्षा मंत्री मनीष सिसाोदिया शिक्षा मंत्रालय छोडऩे को तैयार नहीं है। वह शिक्षा में सुधार का क्रेडिट अपने पास ही रखना चाहते हैं। अरविंद केजरीवाल जब पहली बार 2013 में दिल्ली के मुख्यमंत्री बने थे, तब उन्होंने विधायक राखी बिड़लान को महिला व विकास मंत्री बनाया था और कांग्रेस के सहयोग से बनी यह सरकार महत 49 दिन ही चली थी। 2015 में आप पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीतकर एक रिकॉर्ड बनाया।

67 विधायकों में से 6 महिलाएँ थीं। इस बार 2020 में आप को 62 सीटों पर सफलता मिली और इसमें महिलाओं की संख्या आठ है। ध्यान देने वाली बात यह है कि 2015 में आप की 6 महिला विधायक थी और तब भी किसी महिला को मंत्री नहीं बनाया गया था और 2020 में 8 महिलाएँ हैं; लेकिन मंत्रिमंडल में 100 फीसदी मर्द हैं। अरविंद केजरीवाल ने दावा किया था कि उनकी पार्टी की राजनीतिक सोच मुख्यधारा से अलग है, यह आन्दोलन से निकली पार्टी है। लेकिन सत्ता में निर्णायक पदों पर महिलाओं की भागदारी को बढ़ावा देने के मामले में वह पीछे क्यों हैं?

उनमें इतनी हिम्मत क्यों नहीं है कि वह महिलाओं को मंत्रिमंडल में शमिल करें। लगातार दूसरी बार महिलाओं को मंत्रिमंडल से बाहर रखकर उन्होंने अपनी संकुचित राजनीतिक-सामाजिक मानसिकता की ही परिचय दिया है। आप सरकार दिल्ली को प्रदूषण मुक्त, लंदन शहर बनाना चाहती है। इस दिशा में प्रयास तेज़ करेगी। मगर बिन महिला वाले मंत्रिमंडल से भी लैंगिक प्रदूषण बिगड़ता है। आप चाहे महिलाओं को लाभ पहुँचाने, उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सशक्त करने के लिए कितनी ही योजनाएँ चला लें, लेकिन  मंत्रिमंडल में महिलाओं को मौका देना और बड़ी भूमिकाओं के लिए उन पर भरोसा जताना मुख्यमंत्री की ज़िम्मेदारी है। लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एक बार फिर अपनी इस ज़िम्मदारी को निभाने में असफल नज़र आये।

घर से बाहर तक होता है नौकरीपेशा महिलाओं का उत्पीडऩ

आपने क्राइम पेट्रोल, सावधान इंडिया जैसे सच्ची घटनाओं पर आधारित सीरियल देखें ही होंगे। इन सीरियलों में अधिकतर में महिलाओं की प्रताडऩा, हत्या और यौन हिंसा पर सामने आते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इन घटनाओं में अधिकतर पीडि़ताएँ नौकरीपेशा या कामकाज से बाहर निकलने वाली ही होती हैं। कुछ घर पर रहने वाली महिलाएँ अक्सर कहती हैं कि नौकरीपेशा महिलाओं को क्या? वे तो नौकरी करती हैं; उनके आनंद-ही-आनंद हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। सच्चाई इससे बहुत परे है। दरअसल, आज हम भले ही आधुनिक युग में जी रहे हैं, लेकिन महिलाओं को दासी समझने वाले संकीर्ण सोच के लोग आज भी दुनियाभर में बड़ी तादाद में हैं; खासतौर से भारत और दूसरे पिछड़े देशों में। हमारे देश के सम्भ्रांत लोगों ने भले ही हमारे पुरुष समाज को सिखाया है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, तत्र रमंते देवता’; परन्तु अधिकतर पुरुषों के लिए नारी एक दासी और भोग की वस्तु से ज़्यादा आज भी कुछ नहीं दिखती। यही कारण है कि हर क्षेत्र में पुरुषों के कन्धे-से-कन्धा मिलाने वाली नारी आज भी पुरुष प्रधानता के आगे बौनी और प्रताडि़त है। यह बात हम यूँ ही नहीं कह रहे हैं। इसके लिए हमने बाकायदा नौकरीपेशा महिलाओं की पीड़ा सुनी और समझी है। इन महिलाओं में अधिकतर ने बताया कि वे घर में किसी-न-किसी बहाने से प्रताडि़त होती हैं। अहमदाबाद के नारोल क्षेत्र में स्थित अनुनय फेब्रिक प्रा.लि. नामक कम्पनी में तकरीबन 60 से अधिक महिलाएँ नौकरी करती हैं। इनमें से एक हैं सीमा कुमारी। सीमा बताती हैं कि उन्हें घर पहुँचने में दो-चार मिनट की देरी हो जाए, तो उनका पति उन्हें भद्दी-भद्दी गालियाँ देने लगता है। इतना ही नहीं, जब उसे किसी बात पर गुस्सा आता है, तो वह मुझे ही पीटने लगता है। सास भी अपने बेटे का ही पक्ष लेते हुए कहती है कि बाहर क्या निकली है, बिगड़ गयी है। सीमा कहती हैं कि अगर वह घर में बैठती हैं, तो भी उनकी पिटाई होती है। कहा जाता है कि बैठे-बैठे खा-खाकर भैंस हो रही है। यह कहते-कहते सोनी की आँखें भर आती हैं और गला रुँध जाता है। इसी कम्पनी में दूसरी महिला रुचि कहती हैं कि उनका पति मारते तो नहीं हैं, पर कभी-कभी शक करते हैं। हाँ, कभी मेरी तबीयत खराब हो और मैं घर में काम न कर पाऊँ या नौकरी पर न जाऊँ, तो गाली-गलौज देने लगते हैं। लेकिन मैं कोशिश करती हूँ कि ऐसी नौबत ही न आने दूँ।

यह तो सामान्य घरों की महिलाएँ हैं। बड़े और सम्भ्रांत घरों की महिलाएँ भी घरों में कम प्रताडि़त नहीं होती हैं। ऐसे ही संभ्रांत परिवार से ताल्लुक रखने वाली एक महिला पूजा भास्कर (बदला हुआ नाम) हैं। पूजा भास्कर कहती हैं कि मेरे पति अधिकारी हैं और मैं क्लर्क। मेरे पिता ने एक अधिकारी से यही सोचकर मेरी शादी की थी कि मैं हमेशा सुखी और खुश रहूँगी, लेकिन यह सोच गलत साबित हुई। कभी-कभी सोचती हूँ कि मेरा पति भले ही गरीब होता, पर कम से कम मेरी इज़्ज़त और मेरा भरोसा करने वाला होता। कई बार सोचा कि तलाक ले लूँ, लेकिन फिर माता-पिता की इज़्ज़त और समाज के बारे में सोचकर खामोश रह गयी। पूजा बताती हैं कि उनका पति कभी-कभी उन्हें इतनी भद्दी-भद्दी गालियाँ देता है कि उससे ज़्यादा सम्भ्रांत अनपढ़ लोग लगते हैं।

यह तो चन्द उदाहरण हैं समाज में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार के, अगर पूरे देश में देखें, तो 85 फीसदी महिलाएँ किसी-न-किसी तरह पुरुषों की प्रताडऩा की शिकार होती रहती हैं। आज जब अंतरिक्ष से लेकर शिक्षा, कानून, पत्रकारिता, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, खेल, सेना, राजनीति, व्यापार, पुरातत्त्व विभाग और दूसरे क्षेत्रों में महिलाएँ पुरुषों के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर उल्लेखनीय सेवाएँ दे रही हैं, तब भी पुरुष मानसिकता उनके प्रति उतनी नहीं बदली है, जितनी कि बदलनी चाहिए थी।

दोहरी ज़िम्मेदारी उठाती हैं नौकरीपेशा महिलाएँ

बड़े दु:ख की बात है कि हमारे समाज में महिलाओं और पुरुषों को दो अलग-अलग दृष्टियों से देखा जाता है। यह दृष्टि का अन्तर जन्म से ही शुरू हो जाता है। हालाँकि अनेक पुरुषों की सोच बदली है और वे बेटियों को बेटों से कम नहीं समझते, लेकिन वहीं ऐसे भी लोग हैं, जो गर्भ में ही बेटियों की हत्या करने तक से नहीं हिचकते। ऐसे ही लोग महिलाओं को दासी और भोग की वस्तु समझते हैं। यही वजह है कि अधिकतर घरों में बेटियों को बचपन से पढ़ाई के बोझ के साथ-साथ घर के कामकाज में धकेल दिया जाता है। अधिकतर देखा जाता है कि पुरुष पैसा कमाने के अलावा बाकी काम करने से बचते हैं। खासतौर से वे घर के कामकाज से तो काफी दूर ही रहते हैं। लेकिन वहीं महिला अगर नौकरीपेशा भी हो, तो भी उसे घर का काम करना ही पड़ता है। यानी नौकरीपेशा महिलाओं पर दोहरी ज़िम्मेदारियों का बोझ होता है। कई बार तो कुछ महिलाओं पर इतना ज़्यादा काम पड़ता है कि उनका पूरा जीवन तनाव में ही व्यतीत हो जाता है।

दोहरी ज़िम्मेदारियाँ कर देती हैं बीमार

90 फीसदी नौकरीपेशा महिलाएँ दोहरी ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाती हैं। ऐसी महिलाओं पर घर के काम का बोझ बमुश्किल कम होता है। नेहा नाम की 26 वर्षीय विवाहित युवती बताती हैं कि वह प्राइवेट नौकरी करती हैं। हर रोज़ 8:30 से 9:00 घंटे के दफ्तर में काम करने के बाद वह घर का भी सारा काम करती हैं। वह सुबह 5 बजे उठती हैं और रात को 11:00-12:00 घर के कामों से फ्री हो पाती हैं। इस पर भी ज़रूरी नहीं कि उन्हें तुरन्त सोने को मिल जाए। दिन-रात काम में लगे रहने के चलते वह थकान, तनाव, पैरों में दर्द और कमज़ोरी महसूस करने लगी हैं। अहमदाबाद के नारौल में महिला विशेषज्ञ डॉक्टर सविता बेन कहती हैं कि ऐसी महिलाओं की परेशानी को घर वालों को भी समझना चाहिए, वरना आगे चलकर गम्भीर बीमारियों से महिलाएँ घिर जाती हैं। डॉक्टर सविता बेन सलाह देती हैं कि महिलाओं को भी चाहिए कि वे अपने लिए समय निकालें। एसोचैम की एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, 78 फीसदी नौकरीपेशा महिलाओं के जीवन में कोई-न-कोई तनाव है। जबकि 42 फीसदी महिलाएँ अधिक काम करने के चलते उम्र से पहले पीठ दर्द, पैर दर्द, सिर दर्द, कमर दर्द, थाइराइड, कमज़ोरी, मोटापा, हृदयाघात, अवसाद, तनाव, भूख न लगना या कम खाना खाने, मधुमेह, उच्च रक्तचाप में से एक या कई बीमारियों से पीडि़त हैं। सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार, 60 फीसदी महिलाओं में 35 साल की उम्र तक हृदयाघात तक की शिकायत मिली है। इन बीमारियों का एक बड़ा कारण यह भी है कि 83 फीसदी महिलाएँ किसी तरह का व्यायाम नहीं करतीं, जबकि 57 फीसदी महिलाएँ पौष्टिक आहार नहीं ले पाती हैं।

कम खाकर भी करती हैं अधिक काम

अक्सर महिलाएँ कम खाकर भी अधिक काम करती हैं। ऐसा देखने में आया है कि महिलाएँ पहले पूरे परिवार का खयाल रखती हैं, फिर अपना। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर पाया जाता है कि कुछ महिलाएँ बिना सबको खिलाये खाना ही नहीं खातीं। इसी तरह से नौकरीपेशा महिलाएँ भी अधिकतर सबको खाना खिलाने के या सबके लिए खाना बनाकर ही साथ में खाना खा पाती हैं। ऐसे में अधिक काम और कम वजन या कम पोषण वाला भोजन करने से उनको परेशानी होने लगती हैं।

घर से बाहर तक होती हैं प्रताडि़त

नौकरीपेशा महिलाएँ घर में ही प्रताडि़त नहीं होती, बल्कि बाहर भी प्रताडि़त होती हैं। क्योंकि जब ऐसी महिलाएँ घर से बाहर निकलती हैं, तब कहीं-न-कहीं गलत लोगों की नज़रों से बच नहीं पातीं। कई तो उनका पीछा करने लगते हैं, छेडख़ानी तक कर डालते हैं। यहाँ तक कि कई बार यौन शोषण की शिकार भी हो जाती है। यही नहीं, घर में वे कई तरह से प्रताडि़त होती हैं, जैसे काम न करने पर या कोई परेशानी होने पर काम से छुट्टी लेने की कोशिश करने पर बिना कारण ही पति अथवा परिजनों की खरी-खोटी सुननी पड़ती है।

देखी जाती हैं संदेह की नज़र से

नौकरीपेशा महिलाएँ कई बार संदेह की नज़रों से घर में ही देखे जाने लगती हैं। हमारे आसपास ऐसे मामले सामने आते रहते हैं, जिनमें महिलाओं को संदेह की नजरों से न केवल घर में देखा जाता है, बल्कि उनकी उन्हें प्रताडि़त भी किया जाता है। सपना (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि अगर वे नौकरी न करें, तो उनका पति उन्हें मारता है और अगर वह घर में नौकरी करने के लिए बाहर जाती हैं, तो उनको संदेह की नज़रों से देखा जाता है। ऐसे में वह बहुत परेशान हैं। समझ नहीं पा रही कि क्या करें? उन्होंने कई बार पति को समझाने की कोशिश की, लेकिन वह अपनी आदतों से बाज़ नहीं आता।

पुरुषों से अधिक सहनशील होती हैं महिलाएँ

एक सर्वे में यह तथ्य सामने आया है कि पुरुषों से अधिक संवेदनशील महिलाएँ होती हैं। न केवल संवेदनशील बल्कि दूसरों का खयाल रखने में महिलाएँ अगर नहीं होती हैं। महिलाओं की यही आदत उन्हें घर में ज़्यादातर काम करवाने के लिए विवश करती है और दूसरों का खयाल रखने के लिए विवश करती है। जबकि पुरुषों में यह पाया गया है कि पुरुष महिलाओं का उतना खयाल नहीं रखते, जितना उन्हें रखना चाहिए। यही कारण है कि कई महिलाएँ तनाव या ग्रस्त हो जाती हैं और कई बार तो आत्महत्या तक कर लेती हैं।

अपनी बात कहने पर भी होती है पाबंदी

महिलाओं के साथ एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि वह अपने मन की बात अपनी पीड़ा, अपना दु:ख-दर्द भी कहने से डरती हैं या उन्हें कहने नहीं दी जाती। बहुत कम महिलाएँ हैं, जो अपना दु:ख-दर्द अपने घर में शेयर कर देती हैं। और घर वाले उनके दु:ख-दर्द को समझते हैं। वरना अधिकतर यही होता है कि जब भी वे अपनी कोई तकलीफ बताती हैं, पति और परिजन, खासतौर से सास-ससुर उसे बहानेबाज़ी बताकर उनकी बात को दबाने की कोशिश करते हैं। यही नहीं पति तो महिला की तकलीफों पर ध्यान ही नहीं देता और पत्नी को उपभोग की वस्तु समझकर सिर्फ इस्तेमाल करने की कोशिश करता है।

बिना जुर्म किये भी ठहरा दी जाती हैं अपराधी

कई बार देखा गया है कि यदि कोई महिला नौकरीपेशा है और मैं बाहर जा रही है और यदि बाहर उस पर किसी तरह की फब्तियाँ कसी जाती हैं अथवा उसे से किसी प्रकार की छेड़छाड़ होती है और वह इस बात को घर में कह भी देती है, तो उस पर ही उलटे आरोप लग जाते हैं। बहुत कम लोग हैं, जो महिलाओं की बातों पर विश्वास करते हैं या उनके की गयी शिकायत को ध्यान में रखकर बाहरी अराजक तत्त्वों को रोकने की कोशिश करते हैं। दु:ख इस बात का है कि कई बार पुलिस भी ऐसे मामलों में एकदम कोई ठोस कदम नहीं उठाती, जब तक कि कोई अनहोनी न हो जाए। यही वजह है कि महिलाओं पर अत्याचार रुक नहीं रहे हैं।

क्या कहती है सर्वे रिपोर्ट?

एसोचैम की एक सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि माँ बनने वाली महिलाओं के लिए दफ्तर और घर में काम करने में सबसे ज़्यादा मुश्किल आती है। सर्वे के मुताबिक, 40 फीसदी महिलाएँ ऐसे समय में नौकरी छोडऩे पर मजबूर होती हैं। सर्वे में यह भी कहा गया है कि कामकाजी महिलाओं की तुलना में घरेलू महिलाओं में अवसाद और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही।

दागी पुलिसकर्मी बर्खास्त

पुलिस निजाम में अपराधियों से गठजोड़ की अनेक कहानियाँ आपने सुनी होंगी, या शायद किसी ऐसी सच्चाई से रू-ब-रू भी हुए होंगे। यह कोई नयी बात नहीं है। चिंगारी चमकने पर दागी पुलिस कर्मियों पर कोई कार्रवाई हुई भी, तो फौरी तौर पर मुअत्तल किये जाने सरीखी ही हुई है। अलबत्ता ऐसे पुलिसकॢमयों को बर्खास्त करने-कराने की अफवाहों का बाज़ार ज़्यादा गरम रहा। लेकिन इस बार मीडिया की सक्रियता ने दािगयों को बचने-बचाने का मौका नहीं दिया। खानसामों और माफिया की प्राइवेट पाॢटयों में आने-जाने वाले ऐसे पुलिकॢमयों की खबरें मीडिया में जमकर आयीं।

लेकिन ‘तहलका’ ने अपने 31 जनवरी के अंक में ‘‘खाकी की साख पर सवाल’ शीर्षक से व्यापक रिपोर्ट छापकर सरकार की गवर्नेंस पर कई सवाल खड़े कर दिये। नतीजतन हडक़ंप मचा, तो पुलिस सुप्रीमो डीजीपी भूपेन्द्र यादव को कहना पड़ा कि आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों और माफिया की पार्टी में शिरकत करने वालों तथा उनसे रिश्ते गाँठने वालों पर कार्रवाई होकर रहेगी। नतीजा यह हुआ कि एसएचओ स्तर के पुलिस अधिकारी सूर्यवीर और जोधाराम को बर्खास्त कर दिया गया। गौरतलब है कि जोधाराम के मृतक हिस्ट्रीशीटर रणवीर चौधरी तथा अन्य बदमाशों के साथ गोवा के कुछ फोटो फेसबुक पर वायरल हुए थे। इसी क्रम में साइबर सेल के इंचार्ज अजीत मोगा को भी विभागीय जाँच के बाद निलंबित कर दिया गया। वहीं, कोटा के हेडकांस्टेबल रवीन्द्र मलिक को हनी ट्रैप के मामले में लिप्त पाये जाने पर पहले ही बर्खास्त कर दिया गया था। बर्खास्त किये गये विज्ञान नगर थाने के निरीक्षक सूर्यवीर सिंह के फार्म हाउस पर दी गयी पार्टी में एसपी के निजी सहायक और गनर तक मौज़ूद थे। किन्तु उन्हें सिर्फ निलंबन की ही सज़ा दी गयी। अलबत्ता डीआईजी रविदत्त गौड़ कुछ और भी कहते हैं कि पुलिसकर्मियों का बदमाशों के साथ उठना-बैठना दो जुदा परिस्थितियों में होता है। बदमाशों का संग-साथ कभी इसलिए भी ज़रूरी होता है, ताकि उनकी गतिविधियों और साज़िशों का पता लगता रहे। लेकिन पुलिसकर्मियों को अपनी मर्यादा का खयाल खुद रखना चाहिए। अहम बात तो यह है कि किसी पुलिसकर्मी और बदमाशों के बीच यदि घनिष्ठता साबित होती है, तो वह पुलिसकर्मी गुनहगार माना जाएगा। रविदत्त गौड़ ने यह भी बताया कि पुलिसकर्मियों और बदमाशों के बीच गठजोड़ से ज़मीन के भावों में एकदम उछाल और अचानक से गिरावट आ जाती है, क्योंकि ज़मीन के सौदे बदमाश करवाते हैं और वे अपने फायदे के लिए पुलिसकर्मियों का इस्तेमाल करते हैं। इसी के चलते भ्रष्टाचार होता है।

अलबत्ता यह एक कड़वी सच्चाई ही कही जाएगी कि बजरी माफिया से लेकर नशे की तस्करी करने वालों से भी कई पुलिसकॢमयों के मधुर रिश्ते निकलते रहे हैं। अब पुलिस और अपराधियों के बीच मधुर रिश्ते होंगे, तो अपराधों की गिरह कैसे खुलेगी? अपराधी सीना तानकर क्यों नहीं कहेंगे कि उनका कोई क्या बिगाड़ सकता है? और अपराध कैसे होगा खत्म?