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कमायी का अड्डा सोशल मीडिया

फेसबुक, व्हाट्सऐप और इंस्ट्राग्राम का अचानक बन्द होना तकनीकी चूक या कुछ और है मक़सद?

कभी चिट्ठियों के सहारे बातचीत हुआ करती थी, फिर टेलीफोन ने क्रान्ति की और अब एंड्रायड फोन और सोशल मीडिया सब कुछ निर्भर है। आज के मोबाइल युग में बातचीत और सूचना से लेकर व्यापार तक, बहुत कुछ में व्हाट्सऐप, फेसबुक और दूसरे पर निर्भर हो चुका है। ऐसे में ज़रा-सी तकनीकी चूक लोगों के विचलित कर देती है। पूरी-की-पूरी व्यवस्था को हिलाकर रख देती है। 4 अक्टूबर की रात लगभग 9:00 बजे से फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्ट्राग्राम सहित मैसेंजर सब कुछ अचानक बन्द होने से लोगों को लगा कि इंटरनेट काम नहीं कर रहा है। लेकिन जब पता चला कि सारा तंत्र (सिस्टम) ही बन्द हुआ है,  तो लोग भौंचक और परेशान हुए।

विशेषज्ञों का कहना है कि जब हम किसी पर पूरी तरह से आश्रित होते हैं, तो हमें हर हाल में सावधान रहना होता है। लेकिन ऐसा नहीं हो सका, जिसके चलते सैकड़ों करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ। इस बन्द के चलते फेसबुक ने 4,00 करोड़ रुपये से ज़्यादा हर घंटे गँवाये। इस मामले में कम्प्यूटर इंजीनियर ऐश्वर्य शर्मा ने बताया कि फेसबुक और उसके सभी मौज़ूदा तंत्र लगभग छ: घंटे तक बन्द रहने की वजह कंफिग्रेशन में अचानक तकनीकी ख़राबी आयी, जिसके चलते ऑनलाइन विज्ञापनों में रुकावट से फेसबुक, व्हाट्सऐप और दूसरे सोशल मीडिया ऐप्स को हर घंटे कई करोड़ों का नुक़सान हुआ है। ऐश्वर्य शर्मा ने कहा कि जबसे कोरोना का कहर दुनिया में बरपा है, तबसे छोटे स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षा तक मोबाइल और इंटरनेट पर निर्भर हो चुकी है। ऐसे में अचानक सभी सेवाएँ ठप होने से एक-एक सेकेंड में नुक़सान होता है, फिर छ: घंटे मे तो बड़ा फ़र्क़ पडऩा ही था। जूम और व्हाट्सऐप जैसे ऐप्स के ज़रिये पढ़ाई और कोंचिंग कक्षाएँ लगने के चलते भारत में शहरों से लेकर गाँव तक अब ज़्यादातर विद्यार्थियों के हाथों में मोबाइल है। बच्चों की अधिकतर ऑनलाइन कक्षाएँ भी शाम से 10 बजे तक के आसपास तक चलती हैं। आज करोड़ों का व्यापार भी ऑनलाइन होता है। ऐसे में फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्ट्राग्राम और मैसेंजर के बन्द होने से लोगों के साथ-साथ विद्यार्थियों को दिक़्क़त तो होनी ही थी। इंजीनियर पारस कुमार कहते हैं कि इंस्ट्राग्राम का अक्सर बन्द होना आम बात है। वह एक साल में 70-80 बार बन्द हुआ है। लेकिन फेसबुक की सभी प्रमुख कम्पनियों का बन्द होना चौंकाने वाली बात है। इसके बन्द होने के पीछे के क्या मक़सद है? यह तो आने वाले दिनों में सामने आएगा। फेसबुक के उपाध्यक्ष सन्तोष जनार्दन ने मीडिया में इस असुविधा के लिए लोगों से माफ़ी माँगी और कहा कि भविष्य में ऐसी स्थिति न आये, इसके लिए व्यापक पैमाने पर काम किया जा रहा है और बुनियादी तंत्र को मज़बूत किया जा रहा है।

दिल्ली के कुछ अभियंता (इंजीनियर) के छात्रों ने बताया कि सोशल मीडिया एक बड़े कारोबार के रूप में उभरकर सामने आया है, जिसकी बाग़डोर भले ही विदेशी हाथों में हो, पर इसके कारोबार में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए भारत भी बहुत पीछे नहीं है। विज्ञापन मिलने में गूगल के बाद फेसबुक का कारोबार दूसरे स्थान पर है। ऐसे में फेसबुक से जुड़े सारे तंत्र में अपनी-अपनी भागीदारी को लेकर कार्पोरेट घराने इस जुगत में हैं कि वे भी इस कारोबार का हिस्सा बनें। डीटीयू से अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) करने वाले कुमार हर्ष कहते हैं कि एक साथ कई सोशल साइट्स के बन्द होने के साथ ही फेसबुक.कॉम और व्हाट्सऐप.कॉम को बेचने की कोशिशें तेज़ हो रही हैं।

साइबर विशेषज्ञों का मामना है कि कई बार तकनीकी तंत्र इस क़दर मज़बूत होता है कि चाहकर भी आसानी ने कुछ बदला नहीं जा सकता। क्योंकि इसके पीछे डाटाबेस (आँकड़ों और विवरण पर आधारित) है। सारा काम इन्हीं का है और इन्हें एकजुट करके हासिल करना बड़ी बात होती है। ऐसे में फेसबुक और व्हाट्सऐप को बेचने की तामाम सम्भावनाएँ अटकलबाज़ी हो सकती हैं; क्योंकि मामला 2,00 करोड़ से अधिक उपभोक्ताओं से जुड़ा हुआ है।

शेयर बाज़ार में काम करने वाले करने वाले राजकुमार कहते हैं कि फेसबुक ने ख़राबी को लेकर असली वजह नहीं बतायी है। लेकिन जानकारों का अनुमान है कि यह सब डोमेन नेम सिस्टम की समस्या हो सकती है। शेयर बाज़ार का अपना मिजाज़ है और उसमें ज़रा-सी गड़बड़ी से उथल-पुथल मच जाती है। सोशल मीडिया का तकनीकी तंत्र ख़राब होने से अमेरिका में फेसबुक के शेयर काफ़ी नीचे तक गिर गये थे, जिसका आंशिक असर भारत के शेयर बाज़ार भी पड़ा। राजकुमार कहते हैं कि जब भी कोई बड़ा कारोबार पल भर के लिए ही बाधित होता है, तो उससे लाखों-करोड़ों का नुक़सान होता है। फिर यह तो सोशल मीडिया वह नेटवर्क तंत्र है, जो पूरी दुनिया और उसके एक बड़े कारोबार क्षेत्र को आपस में जोड़कर रखे हुए है।

महिला लोको पायलट के लिए मुफ़ीद नहीं रेलवे इंजन

भारतीय रेल के साथ तक़रीबन हर भारतीय की खट्टी-मीठी यादें जुड़ी हुई हैं। भारत का रेल नेटवर्क (संजाल) 65,000 किलोमीटर लम्बा है और दुनिया के पाँच बड़े नेटवर्क में चौथे स्थान पर है।

भारतीय रेल भारत सरकार नियंत्रित सार्वजनिक रेल सेवा है। रेलवे देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक इकाई है, जिसमें सबसे अधिक 13 लाख से अधिक कर्मचारी काम करते हैं। यह आँकड़ा प्रभावशाली है। लेकिन इन 13 लाख से अधिक कर्मचारियों में महिला कर्मचारियों की तादाद महज़ एक लाख के आस-पास है, जिनमें बहुत-सी महिलाओं को नौकरी उनके पति के बदले उनकी मृत्यु की वजह से मिली हुई है। इस एक लाख में भी अधिकतर महिला रेल कर्मचारी सी और डी श्रेणी के तहत काम करती हैं। ए और बी श्रेणी यानी आधिकारिक पदों पर महिलाओं की संख्या बेहद कम है। यात्रियों को अक्सर रेलवे प्लेटफॉर्म पर, रेलवे स्टेशनों के भीतर महिला रेल कर्मचारी बहुत-ही कम दिखायी देती हैं।

अधिकतर रेलवे इंजनों में नहीं बने हैं शौचालय

पुरुष प्रधान इस रेल विभाग में महिला लोको पायलट्स यानी महिला इंजन ड्राइवरों (चालकों) की संख्या क़रीब 2,000 है। केंद्र सरकार महिला सशक्तिकरण के तहत रेलवे में महिलाओं को बतौर सहायक लोको पायलट नौकरी तो दे रही है और इसके लिए अपनी पीठ ख़ुद ही थपथपाती भी रहती है; लेकिन यह नहीं बताती कि अधिकतर ट्रेनों (रेल गाडिय़ों) के इंजनों में शौचालय नहीं हैं। ऐसे में महिला लोको पायलट की परेशानियों का अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है। शौच जैसी बुनियादी सुविधा उपलब्ध न होने से उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पडऩे की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। इंजनों में शौच की सुविधा नहीं होने से पुरुष पायलट्स को भी दिक़्क़तें होती हैं। लेकिन पुरुष पायलट अपने साथ बोतल लेकर चलते हैं। लेकिन महिला पायलट अपनी शारीरिक संरचना के मद्देनज़र बोतल का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं। लिहाज़ा लघु या दीर्घ शंका की स्थिति से निपटने के लिए वे सेनेटरी पेड का इस्तेमाल करती हैं। पीरियड के दौरान उनके लिए हालात और भी कठिन हो जाते हैं।

बीमारियों की चपेट में लोको पायलट

पुरुष और महिला लोको पायलट पर किया गया एक अध्ययन बताता है कि उन पर पेशे का दबाव बराबर बना रहता है। इस अध्ययन में ख़ुलासा किया गया है कि 36.3 फ़ीसदी लोको पायलट अति दबाव के कारण उच्च रक्तचाप से पीडि़त थे। इन पर मनोवैज्ञानिक दबाव बराबर बने रहने का एक मुख्य कारण सिग्नल पासिंग डेंजर फीयर फेक्टर का बना रहना होता है। अगर इस दौरान कोई ग़लती हो गयी, तो नौकरी भी जा सकती है। ऐसे मनोवैज्ञानिक दबाव के दूरगामी प्रभाव भी पड़ते हैं। बहरहाल हर प्रकार की नौकरी की अपनी चुनौतियाँ होती हैं।

रेलवे में भेदभाव!

सरकार, रेलवे विभाग को रेल इंजनों में मौज़ूदा दिक़्क़तों और विभाग की अन्य चुनौतियों का समाधान निकालने की ओर अग्रसर होना चाहिए; न कि एक ख़ास लिंग के लिए वहाँ के दरवाज़े बन्द करने के रास्ते तलाशने और बहाने बनाकर हतोत्साहित करने की कोशिश करनी चाहिए। जैसा कि सन् 2019 में रेल मंत्रालय ने किया। जनवरी, 2019 को रेल मंत्रालय ने कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को लिखा कि उसे ड्राइवर, पोटर्स, गाड्र्स और गैंगमैन यानी रेलवे ट्रेक की रख-रखाव का काम करने वाले पदों पर केवल पुरुषों की ही नियुक्ति करने की इजाज़त दी जाए। रेलवे के आला आधिकारियों की राय में इन पदों पर 24 घंटे और सातो दिन काम करना पड़ता है और यह काम आसान नहीं है। उनका मानना है कि ये काम और इनके हालात महिलाओं के लिए प्रतिकूल, असुविधाजनक हैं।

यही नहीं, रेल विभाग के इस प्रतिगामी क़दम, मानसिकता की जब आलोचना हुई, तो तर्क दिया गया कि ऐसे पदों पर काम करने वाली महिलाओं की ओर से विभाग को सौंपी गयी शिकायतों के आधार पर ही यह क़दम उठाया गया। क्या विडम्बना है कि कार्यस्थल, काम के घंटों के दौरान कठिन हालात से निपटने सम्बन्धी बुनियादी ढाँचा महिला कर्मचारियों को मुहैया कराने की बजाय पुरुष संरक्षणवाद की सोच को आगे रखकर महिलाओं को पीछे रखने की चाल चली जा रही है। जबकि सच्चाई यह है कि महिलाएँ हर काम में पुरुषों की बराबरी कर रही हैं। यहाँ तक कि युद्ध में भी हिस्सा ले रही हैं। फ्रांस से ख़रीदे गये लड़ाकू विमान ‘राफेल’ को उड़ाने के लिए प्रशिक्षु दल में शिवांगी सिंह का चयन होना इसका ताज़ा उदाहरण है।

रेलवे में महिला ड्राइवरों के लिए कार्य और माहौल मुफ़ीद न होने की दलील क्या बेमानी और बेबुनियाद नहीं लगती? रेलवे के एक कर्मचारी का कहना है कि रेलवे ने यह क़दम अपने महिला कर्मचारियों की सुरक्षा और काम के हालात को ध्यान में रखते हुए उठाया है। यही उसका प्रमुख सरोकार है। हालाँकि एक अन्य अधिकारी ने कहा है कि इस पत्र पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई और इसकी सम्भावना भी कम है। क्योंकि रेल विभाग लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता। एक महिला अधिकारी का मानना है कि रनिंग रेलवे महिला कर्मचारियों की काम कठिन होता है। पर इसका मतलब यह नहीं कि रेलवे में महिलाओं को ऐसे पदों से दूर रखने के लिए कोशिश की जाए। ऐसी हर कोशिश की पुरज़ोर आलोचना और विरोध होना चाहिए। दरअसल उच्च पदों पर आसीन पुरुष अधिकारियों को महिलाओं की विशेष परेशानियों से कोई वास्ता नहीं है। वे अपना दबदबा नहीं खोना चाहते।

सुविधाओं की पहल

ग़ौरतलब है कि सन् 2011 में भारत सरकार ने पूर्व सचिव डी.पी. त्रिपाठी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया, जिसका काम रेलवे में रनिंग स्टाफ यानी चल रही रेल गाड़ी में काम कर रहे कर्मचारियों के काम के घंटों और सुरक्षा की समीक्षा करना था। समिति का मानना था कि लम्बे काम के घंटे, बीच में ब्रेक न मिलने, नींद पूरी नहीं होने से उनकी कार्य क्षमता पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इससे सचेत बने रहने और फ़ैसले लेने की क्षमता प्रभावित हो सकती है। लोको पायलट का बराबर सचेत रहना यात्रियों की सुरक्षा के लिए अत्याधिक महत्त्वपूर्ण है। इस समिति ने केबिन यानी इंजन आदि को क्रू फ्रेंडली यानी कर्मचारियों की ज़रूरतों के अनुकूल बनाने की सिफ़ारिश की थी। इस सिफ़ारिशनामे के मुताबिक, लोकोमोटिव केबिन वातानुकूलित होने चाहिए और उसमें जलरहित तकनीक या पूर्ण बायोडिग्रेडबेल शौचालय होने चाहिए। लेकिन 10 साल बाद ज़मीनी हक़ीक़त नहीं बदली। इसी साल मार्च में तत्कालीन रेल मंत्री पीयूष गोयल ने एक सवाल के जवाब में बताया कि 12,147 लोकोमोटिव ट्रेनों में से 1,914 ट्रेनों में ट्रायल के तौर पर वातानुकूलित क्रू केबिन मुहैया कराये गये हैं और कुछ केबिन में शौचालय का बंदोबस्त किया गया है। यानी अभी एक बड़े स्तर पर क्रू केबिन में परिवर्तन करने की ज़रूरत है।

हालाँकि रेलवे में इस परीक्षण की सफलता के आधार पर आगे की योजना बनायी जाएगी। भारतीय रेलवे बेशक अपनी उपलब्धियों पर गर्व करता है; लेकिन एक कड़वा सच कठिन हालात में काम करने वाली रेलवे महिला कर्मचारियों से जुड़ा हुआ है। पूरा तंत्र महिलाओं को ऐसे कार्य (ड्यूटी) न देने की जुगत में लगा रहता है। महिला डाइवरों की लम्बी दूरी वाली गाडिय़ों पर ड्यूटी नहीं लगायी जाती है। अमूमन उन्हें मेज़ का काम (डेस्क ड्यूटी) दिया जाता है और यह कहा जाता है कि महिला ड्राइवर स्वेच्छा से डेस्क ड्यूटी करना चाहती हैं।

समिति ने दिये थे सुझाव

सन् 2015 में कमेटी ऑन इम्पावरमेंट ऑफ वुमेन (महिला अधिकारिता सम्बन्धी समिति) ने संसद में एक रिपोर्ट पेश की थी, जो भारतीय रेल में महिला कर्मचारियों की स्थिति को देश के सामने रखती है। इस समिति ने पाया कि रेलवे में कुल कर्मचारियों में महिलाओं की भागीदारी महज़ 6.7 फ़ीसदी है। ए और बी श्रेणी में भी महिला अधिकारियों की कम संख्या चिन्ताजनक है।

समिति ने रेल मंत्रालय से कम महिला भागीदारी का कारण जानना चाहा, तो रेल मंत्रालय ने लिखित में बताया कि लड़कियों और उनके अभिभावकों की प्राथमिकता 9:00 बजे से 5 :00 बजे वाली मेज़ की नौकरी (डेस्क जॉब) के प्रति अधिक होती है। क्योंकि उसमें अधिक मेहनत नहीं करनी होती।

भारत में सामाजिक माहौल के चलते लड़कियों को प्रशिक्षण संस्थानों में भेजने की प्रथा अधिक नहीं है। रेलवे में भत्र्ती की प्रक्रिया कम्पयूटरीकृत है। कहा तो यही जाता है कि इस विभाग में भर्ती के लिए कोई भेदभाव नहीं किया जाता। जो चयन प्रक्रिया के सभी मापदण्डों को पूरा कर लेता है, उसकी नियुक्ति हो जाती है। मौखिक तौर यह भी बताया गया कि हम यह भी महसूस करते हैं कि रेलवे में 365 दिन, 24 घंटे काम होता है। चाहे बरसात का मौसम हो या कड़ाके की सर्दी या भीषण गर्मी- रेलवे में अधिकांश नौकिरयाँ खुले में करनी होती हैं; जो कि महिलाओं के अनुकूल नहीं हैं। कहने को यह भी कहा जा सकता है कि महिलाएँ ऐसी नौकरियों को अपनी पसन्द के अनुकूल नहीं मानती हैं। लेकिन आख़िर यह सब भेदभाव की श्रेणी में ही आता है। रेल मंत्रालय ने एक सवाल के जवाब में बताया कि महिला कर्मचारियों की भर्ती के लिए कोई विशेष मुहिम तो नहीं चलायी गयी है; लेकिन महिला उम्मीदवारों के लिए आवेदन शुल्क माफ़ कर दिया गया है और शारीरिक जाँच (फिजिकल टेस्ट) के कुछ मानकों में उन्हें रियायत दी गयी है।

समिति ने इस तरह के जवाब पाने के बाद रेलवे मंत्रालय से अनुशंसा की कि वह महिला भर्ती की ख़ास मुहिम की सम्भावना तलाशे और महिलाओं की बुनियादी ज़रूरतों को बेहतर बनाए। महिलाएँ रेलवे में नौकरी करना चाहती हैं। बशर्ते सरकार पुरुषों की ओर झुके रेलवे तंत्र में सुधार करते हुए उसे समावेशी बनाए और लैंगिक विविधता वाले इस तंत्र में निवेश करे।

कोयला संकट से जूझता देश

 समय रहते समस्या पर कोई बोला क्यों नहीं? 

 क्या राज्यों में और बढ़ेगा बिजली संकट?

कोरोना वायरस की दूसरी लहर के ख़त्म होने के बाद देश की अर्थ-व्यवस्था ने जो तेज़ी पकड़ी थी, उसे बिजली कटौती ने फिर धीमा कर दिया है। विभिन्न राज्यों से आ रही बिजली कटौती की ख़बरों से साफ़ है कि आने वाले कुछ दिन तक कोयले का यह संकट हल होने वाला नहीं है। फिर केंद्रीय कोयला मंत्री भले ही दावा करते रहें कि कोल इंडिया के पास 430 मिलियन टन कोयले का भण्डार है, जिससे 24 दिन की कोयले की माँग पूरी की जा सकती है। अगर ऐसा ही था, तो फिर 5 अक्टूबर को एक अंगे्रजी अख़बार को दिये साक्षात्कार में केंद्रीय ऊर्जा मंत्री आर.के. सिंह ने कोयले की भारी कमी के कारण गिनाते हुए क्यों कहा कि हालात को सामान्य होने में क़रीब छ: महीने लग सकते हैं। हालात गम्भीर थे। सम्भवतया इसीलिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 11 अक्टूबर को एक उच्च बैठक करके स्थिति का जायज़ा लिया और उससे निपटने की रणनीति तैयार की। देश में बिजली की कुल खपत की 70 फ़ीसदी आपूर्ति कोयला संयंत्रों से होती है।

बहरहाल सरकार के दावे जो भी हों, विभिन्न राज्यों से बिजली कटौती की ख़बरें लगातार आ रही हैं। सरकारें ही नहीं, ख़ुद बिजली वितरक कम्पनियाँ भी अपने ग्राहकों से बिजली कम इस्तेमाल करने का अनुरोध कर रही हैं। दिल्ली में बिजली की वितरक कम्पनी टाटा पॉवर ने 9 अक्टूबर को ही अपने ग्रहकों को एक सन्देश भेजकर अनुरोध किया कि कोयले की कमी को देखते हुए वे बिजली का इस्तेमाल किफ़ायत से करें।

इससे पहले राजस्थान सरकार ने भी बिजली अधिकारियों से जनता को बिजली के सावधानी पूर्वक इस्तेमाल के लिए जागरूक करने को कहा था। वहाँ के गाँवों में बिजली कटौती तो कई दिन पहले ही शुरू हो गयी थी। उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, कर्नाटक, तमिलनाडु भी बिजली कटौती शुरू कर चुके हैं। कटौती करने वाले राज्यों की सूची आये दिन लम्बी होती जा रही है। बहुत-से राज्य दूसरे संयंत्रों से बिजली ख़रीद रहे हैं। लेकिन यह इतनी महँगी है कि ज़्यादा दिन उनके लिए सम्भव ही नहीं होगा। ऐसे में दिवाली पर भी इस बार कोयले की काली छाया कहीं कहीं दिख जाए, तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। महँगी दरों पर बिजली ख़रीदने का अर्थ है उसका भार उपभोक्ताओं पर आएगा। उन्हें बिजली महँगी दरों पर मिलेगी; आज नहीं, तो कल सही।

पॉवर कट का सीधा असर औद्योगिक उत्पादन पर भी पड़ेगा। इससे पटरी पर आती अर्थ-व्यवस्था फिर से प्रभावित होगी और पहले से ही सिर चढ़कर बोल रही महँगाई का ग्राफ और ऊपर चला जाएगा। किसानों को बिजली नहीं मिली, तो कृषि उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है। घर से काम करने वालों की परेशानी भी बढ़ेगी। हर किसी का रोज़मर्रा का जीवन प्रभावित होगा, सो अलग। यह समस्या इसलिए भी गम्भीर है कि अभी तक डीजल जनरेटर लगाकर पॉवर कट की कमी को पूरा लिया जाता था, पर अब प्रदूषण नियंत्रण के नियम उसकी छूट किसी को नहीं देते हैं।

सवाल है कि आख़िर कोयले का इतना घोर संकट अचानक कैसे खड़ा हो गया? ऊर्जा मंत्रालय के प्रेस बयान के अनुसार, कोयला उत्पादन क्षेत्रों में सितंबर महीने में भारी बारिश होने के कारण कोयला खदानों में पानी भर गया था, जिससे कोयले की निकासी नहीं हो सकी। इससे बिजली संयंत्रों तक कोयला नहीं पहुँचाया जा सका। दूसरा, कोरोना की दूसरी लहर के बाद देश के उद्योग, कम्पनियाँ, दफ़्तर और बाज़ार खुलने लगे, जिससे बिजली की माँग में एक साथ भारी वृद्धि हो गयी। विनिर्माता इकाइयाँ अपनी पूरी क्षमता से काम करने लगीं और बाक़ी क्षेत्र भी पहले की तरह बिजली का उपयोग करने लगे। इससे सन् 2019 के अगस्त महीने के मुक़ाबले 2021 में बिजली की माँग में क़रीब 20 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो गयी। बढ़ी हुई इस माँग को पूरा करने के लिए बिजली संयंत्रों ने अपनी पूरी क्षमता से बिजली का उत्पादन किया, जिससे कोयले की खपत ज़्यादा हुई। सामान्य हालात में संयंत्र अपनी क्षमता से 54 फ़ीसदी कम बिजली पैदा करते हैं। तीसरा कारण रहा कि अप्रैल से जून के बीच में सभी कोयला कम्पनियाँ कोयले का जो भण्डारण कर लेती हैं, वह नहीं किया गया। इसके पीछे का कारण सरकार की ओर से नहीं बताया गया है।

कोई पूछ सकता है कि हालात जब क़ाबू से इस हद तक बाहर हो चुके हैं, तो कोयले का आयात कर स्थिति से क्यों नहीं निपटा जा रहा? यह सम्भव नहीं। कारण, अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कोयले के दाम 13 साल की रिकॉर्ड-तोड़ ऊँचाई पर हैं। मार्च, 2021 में इंडोनेशिया से आ रहे कोयले की क़ीमत 60 डॉलर प्रति टन थी, जो सितंबर-अक्टूबर में बढ़कर 200 डॉलर प्रति टन हो गयी। ऐसे में भारतीय कोयला कम्पनियों ने अपना कोयला आयात रोक दिया है।

भारत वैसे तो कोयला उत्पादन में दुनिया के पहले पाँच देशों में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है, मगर कोयला आयातक देशों में भी वह दूसरे स्थान पर ही है। कारण, यहाँ बिजली उत्पादन और आम उपयोग में काम आने वाले ईंधन का मुख्य स्रोत कोयला ही है।

अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कोयले की क़ीमतों में इस बेतहाशा बढ़ोतरी का मुख्य कारण पैट्रोल और कच्चे तेल की क़ीमतों का लगातार बढ़ते जाना है, जिससे प्राकृतिक गैस की क़ीमतें भी आसमान छूने लगी हैं। दूसरा, कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के जलवायु परिवर्तन के समझौते के तहत बहुत-से देशों द्वारा कोयले का इस्तेमाल कम करने की नीयत से कोयला उत्पादन को लगातार घटाते जाना भी एक कारण है।

ज़ाहिर है इससे दुनिया में एक तरफ़ कोयले का उत्पादन कम हुआ, दूसरी तरफ प्राकृतिक गैस का उपयोग बढ़ा। पर अब जब गैस ही इतनी महँगी होती जा रही है, तो अमेरिका समेत यूरोप और एशिया के अधिकतर देश कोयले पर फिर से आने पर मजबूर हो गये हैं। दो-तीन रात अँधेरे में रहने के बाद चीन ने अपनी बंदरगाहों पर रोके गये आस्ट्रेलिया के कोयले से भरे जहाज़ों से माल उताराना शुरू कर दिया, तो इसलिए कि वह अपने यहाँ कोयला उत्पादन काफ़ी कम कर चुका था।

सर्दियों में यूरोप में कोयले की माँग के और बढऩे के आसार को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कोयले के दामों में कमी आने के आसार नहीं लगते। यही कारण है कि भारत सरकार ने अपने यहाँ बिजली संयंत्रों को बन्द होने से बचाने के लिए निजी कोयला उत्पादक कम्पनियों को अपने रिजर्व भण्डार का 50 फ़ीसदी खुले बाज़ार में बेचने के आदेश दिये हैं। इसके लिए उसने कई नियमों में परिर्वतन किया है या फिर ढील दी है। इसके साथ कई उन खदानों में से भी कोयला निकालने का प्रयास किया जा रहा है, जिनसे उत्पादन बन्द कर दिया गया था। बिजली संयंत्रों से भी कहा गया है कि वो अपनी बन्धक खदानों में से उत्पादन को बढ़ाएँ, जिससे अपनी ज़रूरत को ख़ुद ही पूरा करने की स्थिति में आ सकें।

कुल मिलाकर कोयला मंत्रालय कोयले की कमी से निपटने के लिए हर सम्भव क़दम उठाने की कोशिश कर रहा है, जिससे जल्द-से-जल्द कोयले की इस कमी को पूरा कर बिजली संयंत्रों को बन्द होने से बचाया जा सके। सरकार नहीं चाहती कि गति पकड़ रही अर्थ-व्यवस्था को फिर कोई झटका लगे। पर कई संयंत्र तो बन्द हो चुके हैं। कुल 135 संयंत्रों में से क़रीब 100 के पास मात्र चार दिन का कायेला बचना एक बड़ा झटका और भविष्य के लिए डर तो दिखाता ही है, जिससे समय रहते निपटना ज़रूरी है।

सरकार का दावा है कि उसके पास ज़रूरत का पूरा कोयला है और अगले कुछ दिन में उसमें और बढ़ोतरी हो जाएगी। पर बड़ी मात्रा में आयात होने वाले कोयले की कमी और चुनौतियाँ तो फ़िलहाल बनी ही रहेंगी। ऐसे में बिजली की आपूर्ति सामान्य होने के दावों पर कितना यक़ीन किया जाए। दूसरे सवाल ये हैं कि अप्रैल से जून-जुलाई तक कोयले का भण्डारण क्यों नहीं हो सका? न अभी तक यह साफ़ हुआ है कि अगर कोयले की बिजलीघरों में इतनी अधिक कमी हो रही थी, तो किसी ने भी पहले यह चेतावनी क्यों नहीं दी? क्या राज्यों में बिजली संकट और बढ़ेगा? क्या कोल इंडिया को अपने मंत्रालय को यह सूचना नहीं देनी चाहिए थी? क्या बिजली निर्माता कम्पनियों को ऊर्जा मंत्रालय को आगाह नहीं करना चाहिए था? हो सकता है आने वाले दिनों में इस पर भी कुछ ख़ुलासे हों।

पिछले अंक का शेष… चमक गँवाता हीरा

हीरे के काम से जुड़े मज़दूरों की दशा बहुत अच्छी नहीं है, जबकि हीरा व्यापारी मालामाल रहते हैं

ज्वेलरी कॉर्पोरेट व्यवसाय के काम-काज को अन्दर तक खँगाले तो, लेब डायमंड ने भी हीरे की गरिमा को प्रभावित किया है। नतीजतन असमंजस का माहौल गर्व करने को प्रेरित नहीं करता। लेकिन अगर रत्नों के समूचे आख्यान और वैभव की तरफ़ लौटें तो हमें हीरे (डायमण्ड)पर अपना ध्यान केंद्रित करना होगा। आज भारत के कई हीरा व्यापारी विदेशों में जाकर हीरे का व्यापार कर रहे हैं, जिनमें कुछ यहाँ के हीरा बाज़ारों की हाल और दुश्वारियों को देखते हुए विदेशों का रूख़ कर चुके हैं, तो कुछ बैंकों से क़र्ज़ लेकर रफ़ूचक्कर हो चुके हैं।

इस चमकते व्यापार की बदसूरती यह है कि कोयले से हीरा निकालने और उसे तराशकर उसमें चमक भरने वाले मज़दूरों की दशा बहुत अच्छी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में हीरा-तराशी के काम से जुड़े कई मज़दूरों ने आत्महत्या तक की है। कह सकते हैं कि कोयले से हीरा निकालने वाले मज़दूर दिन-रात काले ही रहते हैं और हीरा-तराशी करने वाले मज़दूरों के हाथ कटे रहते हैं; लेकिन मालामाल इस व्यवसाय से जुड़े व्यापारी ही रहते हैं। यह इस व्यवसाय का सियाह पहलू ही कहा जाएगा। केवल सावजी ढोलकिया अकेले ऐसे हीरा व्यापारी हैं, जो अपने कर्मचारियों को हर साल महँगे तोहफ़े देते हैं और हर साल अनेक ग़रीब युवतियों की शादी कराते हैं।

राहत की बात

फ़ख़्र की बात यह है कि मौज़ूदा समय में अमेरिका और चीन के बाद भारत विश्व का सबसे बड़ा हीरा बाज़ार है। भारत के मध्यम वर्ग में हीरे के सालाना 12 फ़ीसदी रुझान बढ़ रहा है। भारत और पड़ोसी देश चीन में 70 फ़ीसदी लोगों का मानना है कि शादियों के लिए हीरा सबसे बेहतरीन तोहफ़ा हो सकता है।

वैश्विक हीरा उद्योग के समूचे आख्यान पर नज़र डालें तो कहना ग़लत नहीं होगा कि हीरों के उत्पादन में क़रीब 20 फ़ीसदी की ढलाई तो बीते बरस ही शुरू हो गयी थी। नतीजतन खुरदरा हीरा (रफ डायमंड) की बिक्री में क़रीब 33 फ़ीसदी की कमी आ गयी। उत्पादन और माँग में अन्तर का फ़ासला बढ़ा, तो खनन कम्पनियों का मुनाफ़ा भी 20 से 22 फ़ीसदी तक कम हो गया। बावजूद इसके हीरे के प्रति लोगों का रुझान दिनोंदिन बढ़ रहा है। अलबत्ता बेन की रिपोर्ट खँगालें तो लॉकडाउन नीति, सरकारी समर्थन और फुटकर विक्रेताओं के रुझान के मद्देनज़र हीरे की माँग में बढ़त अहम हो सकती है। विशेषज्ञों का कहना भी है कि हीरा उद्योग को पटरी पर लाने में मध्यम वर्ग का योगदान अहम भूमिका निभा सकता है। इस लिहाज़ से यह एक अच्छी ख़बर हो सकती है कि कच्चे हीरे के प्रबन्धन में जिस तरह सुधार किया जा रहा है। कलई (पॉलिश) किये गये हीरे की तुलना में उसकी बाज़ार में माँग बढ़ सकती है। उधर क्रिसिल रेटिंग्स के निदेशक राहुल गुट्टा कहते हैं कि जिस तरह हीरे का निर्यात बढ़ रहा है, अक्टूबर तक इसमें प्रतिमाह औसतन दो बिलियन डॉलर (तक़रीबन 14,822 करोड़ रुपये) तक बढ़ोतरी होने की उम्मीद की जा सकती है। निर्यात से पिछले वित्त वर्ष राजस्व में आयी बढ़ोतरी ने आँकड़ा 16.4 बिलियन डॉलर (1,21,540.40 करोड़ रुपये) तक पहुँच गया। क्रिसिल की रिपोर्ट कहती है कि हीरा व्यापारियों की आय में 20 फ़ीसदी में बढ़ोतरी हुई है। भारत में हीरे के निर्यात के लिए सबसे अच्छा संकेत मानें तो यात्रा पर प्रतिबन्ध और आतिथ्य समारोह पर ख़र्च को सीमित करने से यह हालात बने है।

लॉकडाउन से हुआ नुक़सान

लॉकडाउन में निर्यात प्रभावित होने से इन्कार नहीं किया जा सकता। भारत में वायरस को फैलने से रोकने के लिए लगाये गये लॉकडाउन से बढ़ी मंदी और शादियों पर लगी रोक के कारण हीरों की खुदरा बिक्री में 26 फ़ीसदी की गिरावट आ गयी। हालाँकि चीन में हीरा जड़े आभूषणों की माँग की भरपायी इस साल हो जाएगी; लेकिन भारत को पिछले स्तर पर आने में भी ज़्यादा समय लग सकता है। कोरोना-काल में सिर्फ़ जयपुर ही नहीं, बल्कि पूरे देश के रत्न कारोबारियों को झटके पहले तो पिछले साल हॉन्गकॉन्ग, अमेरिका, इंडोनेशिया और ताइवान के जेम्स ज्वेलरी शो (रत्नाभूषण प्रदर्शन) के निरस्त होने से भारी नुक़सान हुआ। इसके बाद पिछले साल अप्रैल में शुरू हुए दुनिया के दूसरे सबसे बड़े जेम्स शो (रत्न प्रदर्शन) तुसान में भी उन्हें शामिल नहीं होने दिया गया, जबकि तमाम कारोबारी भारी उम्मीदें लिये इस प्रदर्शन में पहुँचे थे। लेकिन यूएएन अथॉरिटी ने क़रीब 70 जौहरियों को लौटा दिया। इनमें 35 से ज़्यादा जौहरी जयपुर के थे। जौहरियों का कहना है कि उन्होंने एक माह पहले ही पार्सल भेज दिये थे, इससे उन्हें 7,000 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ है। सूत्रों का कहना है कि जौहरियों को यह कहकर वापस लौटा दिया गया कि उनका वीजा रत्नाभूषणों की बिक्री के लिए नहीं है।

अब तक मिले बड़े हीरे

दुनिया का सबसे क़ीमती हीरा तो आज भी कोहेनूर ही है। बड़ी बात यह है कि यह भारत की अमानत है। भले ही उसे अंग्रेजों ने बड़ी चालाकी से उड़ा लिया। कोहेनूर के अलावा अगर बात करें, तो वज़न में दुनिया का बड़ा ‘क्यूलिनन’ नाम का हीरा दक्षिण अफ्रीका में सन् 1905 में मिला, जिसका वज़न 3,106 कैरेट है। दूसरा बड़ा हीरा हीरा बोत्सवाना में मिला, जिसका वज़न 1,174.76 कैरेट है। इसके बाद सन् 2015 में पूर्वोत्तर बोत्सवाना में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा हीरा ‘लसेडी ला रोना’ पाया गया। टेनिस-बॉल के आकार का यह हीरा 1109 कैरेट का है। इस हीरे को कनाडा की हीरा कम्पनी लूकारा ने करोवे हीरा खदान से खोजा था। दक्षिण अफ्रीकी देश वोत्सवाना में दुनिया का चौथा सबसे बड़ा हीरा मिला है। 1098 कैरेट के 73 मिलीमीटर चौड़े इस हीरे को खोजने वली कम्पनी देवस्वाना है। देवस्वाना की प्रबन्ध निदेशक लयनेटे आर्मस्ट्रॉन्ग ने कहा कि माना जा रहा है कि गुणवत्ता के आधार पर यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा हीरा है। यह दुर्लभ और असाधारण पत्थर अंतरराष्ट्रीय हीरा उद्योग और बोत्सवाना के लिए काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। फ़िलहाल हीरे को नाम नहीं दिया गया है।

बता दें कि बोत्सवाना अफ्रीका का शीर्ष हीरा उत्पादक देश है। इसकी राजधानी गोबोरानी कच्चे हीरों की खुदाई के अलावा इनकी कटाई, कलई और बिक्री के लिए भी मशहूर है। कोरोना-काल में संकट से जूझ रही बोत्सवाना सरकार को इस हीरे की खोज से बड़ी राहत मिली है। इसके ज़रिये सरकार को बड़ी रक़म मिलने की सम्भावना है। देवस्वाना कम्पनी जितने हीरे बेचती है, उसका 80 फ़ीसदी राजस्व सरकार को मिलता है।

कुछ समय पहले श्रीलंका के रत्नपुरा इलाक़े में एक घर के आँगन में कुएँ की खुदाई के दौरान बहुमूल्य रत्न नीलम का दुनिया का सबसे बड़ा क्लस्टर (समूह) मिला। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में 510 किलोग्राम वज़नी इस हीरे की क़ीमत 100 मिलियन डॉलर (तक़रीबन 7.5 अरब रुपये) है। इसे सेरेंडिपिटी सफायर यानी क़िस्मत से मिला नीलम नाम दिया गया है। इस नीलम को कोलम्बो में एक बैंक की तिजोरी में रखा गया है। रतनपुर को श्रीलंका की रत्न राजधानी के तौर पर जाना जाता है। पूर्व में भी इस शहर से कई क़ीमती रत्न मिले हैं। श्रीलंका दुनिया भर में पन्ना, नीलम और अन्य बेशक़ीमती रत्नों का प्रमुख निर्यातक है। इसकी खोज आठ माल पहले हुई थी। तब सुरक्षा कारणों से घोषणा नहीं की गयी थी। इसकी सफ़ार्इ व अन्य अशुद्धियाँ निकालने में काफ़ी समय लगा।

राहुल का दल

कांग्रेस को भाजपा से लड़ सकने वाला संगठन बनाने में जुटे हैं राहुल गाँधी

हाल के महीनों में कांग्रेस में लीक से हटकर नियुक्तियाँ करके नये और युवा चेहरे पार्टी में लाये गये हैं। लाये जा रहे नेताओं को देखने से लगता है कि पार्टी में भविष्य की योजना के साथ कुछ हो रहा है। निश्चित ही इसके पीछे राहुल गाँधी हैं, जो अपना एक दल (टीम) तैयार कर रहे हैं। प्रक्रिया थोड़ी धीमी है। लेकिन साफ़ झलकता है कि बदलाव ठोस तैयारी के साथ किये जा रहे हैं, जिनमें जाति, क्षेत्र, युवा प्रतिनिधित्व के अलावा आरएसएस-भाजपा विचारधारा पर आक्रमण कर सकने की कुव्वत वाला प्रतिबद्ध संगठन तैयार करने की कोशिश झलकती है। राहुल की इस कोशिश से वरिष्ठ नेता ख़ुद को उपेक्षित महसूस करते हुए बाग़ी तेवर अपनाये हुए हैं। लेकिन तय है कि राहुल इससे बेपरवाह हैं। कांग्रेस में ऐसा नेतृत्व राज्यों में उभारा जा रहा है, उसके बाद राष्ट्रीय स्तर की बारी है। राहुल गाँधी की इस कोशिश को इसलिए साहसपूर्ण कहा जाएगा; क्योंकि वह यह सब विपक्ष में रहते हुए कर रहे हैं।

लखीमपुर में किसानों की हत्या के तुरन्त बाद राहुल गाँधी का प्रियंका गाँधी को वहाँ भेजना और उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा रोके जाने पर पीडि़तों से मिलने जाने की ज़िद करना और माँग न माने जाने पर वापसी के बजाय गिरफ़्तारी देकर जेल में रहना दर्शाता है कि कांग्रेस एक नये तेवर के साथ सामने आने की कोशिश में जुटी है। राहुल गाँधी ने ख़ुद यही किया। जब लखनऊ हवाई अड्डे पर उतरने के बाद जब उन्हें निजी वाहन से लखीमपुर खीरी जाने देने की उत्तर प्रदेश सरकार ने इजाज़त देने से इन्कार किया, तो वह हवाई अड्डे ही धरने पर बैठ गये। आख़िरकार सरकार को झुकना पड़ा और उन्हें उनके निजी वाहन से जाने की मंज़ूरी देनी पड़ी।

राहुल का यह तरीक़ा अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना भर नहीं है, बल्कि वह आम समाज और आरएसएस-भाजपा की विचारधारा के बीच एक लकीर खींचने की कोशिश कर रहे हैं। राहुल यह बताना चाह रहे हैं कि आरएसएस-भाजपा की यह विचारधारा देश के भविष्य के लिए अच्छी नहीं है। वह तात्कालिक चुनावी लाभ वाली कांग्रेस नहीं, वैचारिक प्रतिबद्धता वाली कांग्रेस बनाना चाह रहे हैं। वैसे ही, जैसे आरएसएस वैचारिक रूप से एक प्रतिबद्ध संगठन है। हाँ, राहुल गाँधी वैचारिक भिन्नता के साथ अपने काम में जुटे हैं।

ऐसा संगठन बनाने के लिए राहुल गाँधी नेताओं को खोने का जोखिम भी ले रहे हैं। क्योंकि इन दिनों राजनीति में वैचारिकता पर सत्ता हावी है, और जो जा रहे हैं, वो सत्ता न पा सकने की टीस से भरे हैं। यही वजह है कि वैचारिकता उनके लिए गौण हो गयी है। भाजपा के बड़े नेताओं के बयान देखिए, वे जब भी कांग्रेस और राहुल गाँधी को निशाने लेते हैं, तो चुनाव जीतने-हारने की बात करते हैं। वे एक तरह से कांग्रेस के नेताओं पर चुनावों में पार्टी की हार का मानसिक दबाव बनाने की कोशिश करते हैं। ऐसा करके वे कांग्रेस नेताओं में एक तरह की कुंठा और निराशा पैदा करके उनके मन में यह भरने की कोशिश करते हैं कि कांग्रेस में उनका राजनीतिक भविष्य सुरक्षित नहीं है। यानी कह सकते हैं किऐसा करके वे उन्हें बिना कहे पार्टी छोडऩे के लिए उकसाने की कोशिश करते हैं। राहुल सत्ता की इस कुंठा से प्रभावित न होने वाला दल (टीम) बनाना चाहते हैं। भले ही इसके पीछे उनकी यह भी सच हो कि राजनीति की मूल लड़ाई तो सत्ता के लिए ही होती है।

राहुल गाँधी नयी कांग्रेस में आरएसएस-भाजपा की विचारधारा को चुनौती दे सकने वाला दल तैयार कर रहे हैं। भाजपा चाहे जो कहे, किन्तु सच यही है कि उसका थिंक टैंक मानता है कि एक संगठन के तौर पर भाजपा और आरएसएस को चुनौती दे सकने वाली विचारधारा वाला राजनीतिक दल कांग्रेस ही है, जो भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से ज़्यादा गम्भीर चुनौती वाला साबित हो सकता है।

आरएसएस से जुड़े एक वरिष्ठ पत्रकार व विचारक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा- ‘वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा के सामने बिना किसी प्रतिबद्ध राजनीतिक विचारधारा के दल हैं। इसलिए उसके सामने की चुनौती कमज़ोर है। हाँ, यह महसूस किया जा सकता है कि कांग्रेस में उसके नेता (राहुल गाँधी) सीधे इस (आरएसएस) विचारधारा को प्रतिबद्ध चुनौती देने वाला संगठन खड़ा करना चाहते हैं। यह आसान नहीं है। लेकिन कर पाये तो बड़ी चुनौती बनेंगे। आपने देखा होगा कि वह (राहुल) कमोवेश हरेक बयान, हर पत्रकार वार्ता में आरएसएस के विरोध वाला बयान ज़रूर देते हैं।‘

याद कीजिए, इसी साल जुलाई में कांग्रेस के सोशल मीडिया सेल के वॉलंटियर्स सम्मलेन में राहुल गाँधी ने बिना नाम लिये उनके मित्र रहे और कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गये ज्योतिरादित्य सिंधिया को सुनाते हुए क्या कहा था- ‘जिन्हें डर लग रहा है, वो पार्टी से जा सकते हैं। कई निडर लोग हैं, जो कांग्रेस में नहीं हैं। ऐसे लोगों को कांग्रेस में आना चाहिए। और वैसे कांग्रेसी, जो भाजपा से डरे हुए हैं; उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाना चाहिए। हमें ऐसे लोगों की ज़रूरत नहीं है, जो आरएसएस की सोच में विश्वास रखते हैं या उससे डरते हैं। हमें निडर लोगों की ज़रूरत है। यह हमारी विचारधारा है।‘

सवाल यही है कि क्या राहुल गाँधी अपनी इस विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध एक ऐसी कांग्रेस बना पाएँगे, जो आरएसएस और भाजपा की विचारधारा को चुनौती देते हुए परास्त कर सके? हाल के वर्षों में कांग्रेस में यह नये तरीक़े का तेवर है। कन्हैया कुमार जैसे युवा नेता का कांग्रेस में आना और जिग्नेश मेवाणी का कांग्रेस के साथ आना राहुल की सोच का बड़ा उदाहरण है। दलित, पिछड़े, वामपंथी, मुस्लिम और सवर्ण समुदायों में भी अपनी और पार्टी की स्वीकार्यता मज़बूत करके आरएसएस और सत्ता के विरोध के लिए युवाओं का यह राजनीतिक सम्मिश्रण राहुल गाँधी के राजनीतिक प्रयोग का बड़ा उदाहरण है। दलित किसी समय कांग्रेस का वोट बैंक रहे हैं। राहुल उसे पार्टी में वापस लाना चाहते हैं। पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाना इसका उदाहरण है।

हालाँकि इसके बावजूद राहुल गाँधी की यह कोशिश महज़ पुरानी पीढ़ी की जगह नयी पीढ़ी को पार्टी की कमान देने भर की नहीं है। वह नेताओं का चयन बहुत सोच-समझकर कर रहे हैं। उनका ज़्यादा ज़ोर कांग्रेस को ऐसे नेताओं का संगठन बनाने की लगती है, जो संगठन के प्रति तो प्रतिबद्ध हों ही, समाज के बँटवारे की सोच के भी ख़िलाफ़ हों और गाँधी की अहिंसा और सबको साथ लेकर चलने की सोच में भरोसा रखते हों। चूँकि राहुल तोडऩे की सोच को आरएसएस-भाजपा की विचारधारा कहते हैं, लिहाज़ा माना जा सकता है कि वह कांग्रेस की गाँधीवादी विचारधारा को मज़बूती से आधार रूप में सामने लाना चाहते हैं।

यहाँ महत्त्वपूर्ण यह है कि राहुल गाँधी जो फ़ैसले कर रहे हैं, वह तुरन्त नतीजे देने वाले नहीं हैं। रणनीतिक रूप से सही होते हुए भी इनके नतीजे देर से मिलेंगे। हालाँकि राजनीतिक जानकारों का मानना है कि वह नतीजे स्थायी साबित हो सकते हैं। राहुल वामपंथ की ढलान को देखकर उसका वोट बैंक कांग्रेस में लाना चाहते हैं। वह दलित और पिछड़ा वर्ग का कांग्रेस का पुराना वोट बैंक वापस लाना चाहते हैं और मज़बूत क्षेत्रीय दलों में चले गये मुस्लिमों को साथ लाना चाहते हैं।

राहुल पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा के साथ चले गये उस मतदाता को कांग्रेस में लाना चाहते हैं, जो भाजपा की विचारधारा से तो नहीं जुड़ा है; लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से प्रभावित होकर भाजपा को मतदान करने लगा है। राहुल गाँधी समझते हैं कि देश की वर्तमान स्थिति में इनमें से बड़ा वर्ग भाजपा से छिटक रहा है। यही कारण है कि वह मोदी सरकार पर हर उस मुद्दे को लेकर प्रहार करते हैं, जो इस बड़े मतदाता वर्ग को प्रभावित करता है। इसमें महँगाई से लेकर बेरोज़गारी, कोरोना महामारी की दूसरी लहर में ऑक्सीजन से हुई मौतों और कालाबाज़ारी, अर्थ-व्यवस्था का कमज़ोर होने जैसे मुद्दे शामिल हैं।

हाल के महीनों में राहुल गाँधी कांग्रेस में ऐसे लोगों को लाये हैं, जिन्होंने विभिन्न मंचों पर अलग तरह से काम किया। इनमें एक शिमोगा के युवा श्रीनिवास बी.वी. भी हैं, जो थे तो क्रिकेटर; लेकिन उन्होंने कोरोना मरीज़ों के लिए आपातकाल सेवा में उल्लेखनीय योगदान देकर नाम कमा लिया। बता दें कि राहुल गाँधी ने श्रीनिवास को युवा कांग्रेस का ज़िम्मा सौंप दिया है। भाजपा सहित दूसरे दलों में ऐसे प्रयोग देखने को नहीं मिले हैं। ज़मीनी स्तर पर समाज सेवा और कार्यों में नाम कमाने वाले व्यक्ति को किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल की युवा विंग का मुखिया बना देने का ऐसा उदाहरण देश की राजनीति में कम ही देखने को मिलता है।

यदि हाल की ही बात करें, तो राहुल गाँधी अभिजात (एलीट) परिवारों की जगह ग़रीब या आम पृष्ठभूमि वाले नेताओं को साथ जोड़ रहे हैं। कन्हैया कुमार की ही बात करें, तो वह एक आँगनबाड़ी कार्यकत्री के पुत्र हैं। हालाँकि भाजपा के नेता उन्हें टुकड़े-टुकड़े गैंग का अगुआ बताते रहे हैं। लेकिन छात्र मुद्दों को पुरज़ोर तरीक़े से उभारने वाले कन्हैया कुमार को छात्र राजनीति का ‘पोस्टर ब्यॉय’ भी कहा जाता रहा है। लेकिन राहुल गाँधी ने उनका चयन एक और बड़े कारण से किया है, वह यह कि कन्हैया कुमार आरएसएस की सोच के कट्टर विरोधी हैं।

ऐसे ही जिग्नेश मेवाणी हैं। दलित नेता के तौर पर उनकी पहचान है। उन्हें भी वामपंथ के क़रीब माना जाता रहा है। प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात से ताल्लुक़ रखने वाले मेवाणी दलितों में अच्छा असर रखते हैं। कांग्रेस को समर्थन देने के बाद मेवाणी ने कहा कि वह अगला चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ेंगे। मेवाणी को भी आन्दोलनकारी तबीयत का नेता माना जाता है और वह भी आरएसएस-भाजपा के सख्त विरोधी हैं। कांग्रेस को समर्थन देने के बाद मेवाणी ने कहा भी कि हम राज्य की जनता के बीच जाएँगे और उससे बात करेंगे। हमारा उद्देश्य राज्यों में एक जन-आन्दोलन छेडऩा है, जो देश को भाजपा शासन से हो रही तबाही से मुक्ति दिलाने में मदद देगा। हम पानी, स्वास्थ्य, सफ़ार्इ, शिक्षा और मानवाधिकारों के मुद्दों पर बात करेंगे।

मूलत: राहुल गाँधी की कोशिश कांग्रेस को राज्यों में खड़ा करने की है। इसमें क्षेत्रीय दल उनके लिए रुकावटें डाल सकते हैं। यह दल नहीं चाहते कि राज्यों में कांग्रेस मज़बूत हो। ऐसा होता है, तो इसका सबसे बड़ा नुक़सान इन क्षेत्रीय दलों को ही उठाना पड़ेगा। इसलिए ये सभी दल कांग्रेस का समर्थन करते हुए बहुत सावधानी बरतते हैं। हालाँकि वो भाजपा के बराबर ही कांग्रेस की भी निंदा करते हैं।

राहुल जब कांग्रेस अध्यक्ष बने थे, तब पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का काफ़ी दख़ल रहता था। कहते हैं कि उनमें यह सहयोग की कमी थी, अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने की कोशिश ज़्यादा थी। कुछ नेताओं ने दबाव की राजनीति करने की कोशिश भी की। राहुल इससे प्रसन्न नहीं थे और अपने हिसाब से काम करना चाहते थे। लेकिन ऐसा सन् 2019 के लोकसभा चुनाव तक नहीं हो पाया। यही कारण था कि जब कांग्रेस लगातार दूसरे आम चुनाव में 55 सीटों तक सिमट गयी, तो बिना देरी किये उन्होंने इस हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया। हालाँकि चुनावों में हार की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए ख़ुद इस्तीफ़ा दे दिया; लेकिन पार्टी के कुछ युवा नेताओं के मुताबिक, वरिष्ठ नेताओं की चुनाव में भूमिका बहुत नकारात्मक थी।

लेकिन अब वक़्त बदला हुआ लगता है। अध्यक्ष नहीं होते हुए भी राहुल गाँधी पार्टी के फ़ैसले कर रहे हैं। हाल के महीनों में प्रदेशों में जो नये अध्यक्ष बने हैं, वे सभी राहुल गाँधी की पसन्द के हैं। अमरिंदर सिंह जैसे  मुख्यमंत्री को हटा दिया गया है, जो अब बाग़ी सुर अपनाये हुए हैं।

कांग्रेस मामलों का विशेषज्ञ माने जाने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं- ‘राहुल गाँधी संगठन में बदलाव की स्पष्ट तौर पर कोशिश कर रहे हैं। भले कुछ लोग भूल गये हों, किन्तु सच यह है कि उपाध्यक्ष बनते ही राहुल गाँधी ने जनवरी, 2014 के जयपुर सम्मलेन में ही अपने भाषण में कांग्रेस में बदलाव की बात कही थी।‘

राहुल संगठन में महिलाओं को भी प्रोत्साहित कर रहे हैं। हाल में बिना राजनीतिक पृष्ठभूमि के युवाओं को राहुल गाँधी कांग्रेस में लाये हैं। कांग्रेस की महिला विंग की राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुकीं अनिता वर्मा कहती हैं- ‘राहुल गाँधी में एक नयी कांग्रेस बनाने का भरपूर जज़्बा है। वह अपना काम कर रहे हैं। कांग्रेस कार्यकर्ताओं और देश के युवाओं को उनसे बहुत उम्मीदें हैं। क्योंकि वह भारत को एक सूत्र में बाँधना चाहते हैं और मज़बूत राष्ट्र बनाने की परिकल्पना करते हैं।‘

लगता है कि राहुल गाँधी अब ठान चुके हैं कि अध्यक्ष पद सँभालने से पहले ही वह अपने हिसाब से कांग्रेस को तैयार कर देंगे। सम्भावना यही है कि साल के आख़िर में या विधानसभा चुनाव के बाद वह अध्यक्ष का पद सँभाल लेंगे। तब तक वह ज़्यादातर राज्यों में अपने हिसाब से अध्यक्ष बना चुके होंगे और राष्ट्रीय स्तर पर नया और युवा संगठन बनाने की राह पर होंगे। लखीमपुर खीरी की घटना के बाद राहुल गाँधी और पार्टी महासचिव प्रियंका गाँधी ख़ूब चर्चा में हैं। दोनों ने बता दिया है कि भाजपा को टक्कर देने का समय आ गया है। इसके बाद उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कांग्रेस संगठन में जान पड़ती दिख रही है।

फ़िलहाल कांग्रेस नये दौर में क़दम रख चुकी है। राहुल गाँधी इसका चेहरा हैं। उनके और पार्टी के सामने भीतरी चुनौतियाँ भी हैं; हारे हुए राज्यों में तो हैं ही, जहाँ कांग्रेस सत्ता में है, वहाँ भी हैं। बदलाव शुरू में जोखिम भरे लगते हैं; लेकिन बाद में अच्छे नतीजे देते हैं। राहुल इसी सोच के साथ संगठन में बदलाव करते दिखते हैं।

हाल में लखीमपुर घटना पर राहुल गाँधी के निर्णय का समर्थन करते हुए शिव सेना के नेता संजय राउत ने उनसे मुलाक़ात की थी और कहा था कि इससे पूरे विपक्ष में नयी ऊर्जा का संचार हुआ है। कांग्रेस यही चाहती है कि विपक्ष पार्टी को विपक्ष के मुख्य चेहरे के रूप में स्वीकार करे और इसके लिए सक्रियता दिखानी होगी। निश्चित ही लखीमपुर खीरी की घटना पर जबरदस्त राजनीतिक दबाव बनाकर कांग्रेस ने विपक्षी ताक़त को धार दी है। देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में देश और प्रदेशों की राजनीति अख़्तियार करती है और राहुल गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस क्या भूमिका अदा करने की स्थिति में पहुँचती है।

जी-23 से जुड़े नेताओं में बेचैनी क्यों?

क्या जी-23, जिसमें ज़्यादातर कांग्रेस के बुजुर्ग नेता हैं; राहुल गाँधी को कोई नुक़सान कर सकते है? यह जितना बड़ा सवाल है, उतना ही छोटा इसका जवाब है- ‘बिलकुल नहीं।‘ इनमें से ज़्यादातर नेता दफ़्तरों में बैठकर पार्टी के लिए काम करते रहे हैं और राज्यसभा के सदस्य रहे हैं। चन्द नेताओं को छोड़ दें, तो बाक़ी ऐसे हैं, जो अपने बूते चुनाव भी नहीं जीत सकते। राहुल गाँधी की इनमें से कुछ बड़े नेताओं से वैचारिक दूरी रही है। तबसे जब कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सत्ता में था। यह दूरी योजनाओं को लेकर बनी थी। राहुल गाँधी योजनाओं को जिस तरीक़े से लागू होता देखना चाहते थे, वैसा हुआ नहीं; या उन्हें कोष (फंड) देने में कुछ मंत्रियों ने कंजूसी की, या बाधाएँ डालीं।

एक ऐसा भी अवसर आया, जब राहुल गाँधी ने पत्रकार वार्ता के बीच में ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार के एक अध्यादेश की प्रति को यह कहकर फाड़ दिया कि यह नीति कांग्रेस की सोच का प्रतिनिधित्व नहीं करती। यूपीए-1 में तो चीज़ें ठीक ही रहीं; लेकिन यूपीए-2 में कुछ ऐसी चीज़ें हुईं जिनसे राहुल राहुल नाराज़ रहे। इसमें कोई दो-राय नहीं कि यूपीए की सन् 2009 में सत्ता में वापसी का श्रेय बहुत कुछ उन योजनाओं को जाता था, जो सोनिया गाँधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति ने सुझायी थीं। हालाँकि दूसरी बार सत्ता में आने के बाद यूपीए-2 के कार्यकाल में चीज़ें वैसी नहीं रहीं, जैसी यूपीए-1 में थीं। भले बड़े काम हुए; लेकिन यही वह दौर था, जब पार्टी के कुछ मंत्रियों ने राष्ट्रीय सलाहकार समिति (सोनिया गाँधी) और कांग्रेस के घोषणा-पत्र से बाहर जाकर चीज़ें करने की कोशिश की। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) भी इसके प्रति व्यावहारिक नहीं दिख रहा था। इस दौर में वे मंत्री या नेता गाँधी परिवार की निजी बातचीत में निंदा करते देखे गये, जो उनके समर्थक समझे जाते थे। प्रणब मुखर्जी समानांतर सत्ता केंद्र के रूप में उभरने की कोशिश में थे और पी. चिदंबरम का भी रूख़ बदला था; जिन्होंने मनरेगा जैसी योजना को कमज़ोर कर दिया। मंत्रिमंडल के फेरबदल ने भी गाँधी परिवार के ज़्यादातर क़रीबियों को ठिकाने लगा दिया गया था। सभी को मुफ़्त राशन जैसी सोनिया गाँधी की महत्त्वाकांक्षी योजना को प्रभावित कर दिया गया। इतना ही नहीं, एक तरह से कांग्रेस संगठन का ही प्रतिनिधित्व करने वाली सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति की गाँवों में रोज़गार वाली मनरेगा योजना और किसान क़र्ज़ माफ़ी जैसी लोकलुभावन योजनाओं को उपदान के लिए अपनी ही सरकार से समुचित पैसा नहीं मिल पाया। राहुल गाँधी के क़रीबी ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश की इसके लिए पी. चिदंबरम से खुली लड़ाई चली। उस समय की यह लड़ाई आज कांग्रेस संगठन में बदलाव की बयार लाती दिख रही है। इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और मनमोहन के साथ काम कर चुके वरिष्ठ नेता पार्टी के फ़ैसलों में अपना अधिकार चाहते हैं। लेकिन उनमें से कुछ ने जो कुछ सत्ता में रहते हुए किया था, वह सब अब उनके सत्ता के बाहर रहते हुए राहुल गाँधी कर रहे हैं। इनमें से कुछ को राज्य सभा की अवधि पूरी होने पर घर में बैठना पड़ा है और अन्य को राहुल गाँधी की तरफ़ से लिए जाने वाले फ़ैसलों की कोई जानकारी नहीं होती। यह नेता अब सवाल उठा रहे हैं कि पार्टी का कोई अध्यक्ष नहीं, तो फ़ैसले कौन कर रहा है? ज़ाहिर है उनके निशाने पर राहुल गाँधी हैं। लेकिन राहुल गाँधी उनकी आलोचना पर कोई संज्ञान न लेकर चुपचाप का कर रहे हैं। ऐसे में बुज़ुर्ग नेताओं के पास फडफ़ड़ाने के अलावा और कोई चारा नहीं है। कभी ये नेता सीडब्ल्यूसी की बैठक बुलाने की माँग कर देते हैं, तो कभी पंजाब के मुख्यमंत्री पद से अमरिंदर सिंह को हटाने की आलोचना करके राहुल गाँधी को घेरने की कोशिश करते हैं। लेकिन राहुल गाँधी इन सबसे बेख़बर-से अपने फ़ैसले लेने में व्यस्त हैं।

राहुल के निर्णय

1. दलित चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया।

2. वरिष्ठ नेता अमरिंदर सिंह को बाहर किया।

3. इस साल छ: राज्यों में पसन्द के अध्यक्ष बनाये।

4. कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवाणी जैसे दलित नेताओं को पार्टी में लाये।

5. कोरोना मरीज़ों की सेवा करके नाम कमाने वाले क्रिकेटर श्रीनिवास बी.वी. को युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया।

 

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2021

बढ़ रही हैं सत्तापक्ष की मुश्किलें

उत्तर प्रदेश में सियासत रोज़ करवट बदलती नज़र आ रही है। हर रोज़ एक नयी मुसीबत और नये-नये हंगामों के चलते न सत्तपक्ष चैन से बैठ पा रहा है और न विपक्षी दलों को क़रार आ पा रहा है। दोनों ही तरफ़ कुर्सी को पाने की तड़प इस क़दर है कि दोनों ही तरफ़ के लोग एक-दूसरे को दबाने और जनता में एक-दूसरे की छवि का ख़राब पहलू उजागर करने की कोशिश में परेशान हैं। इसकी वजह यह भी है कि योगी सरकार में एक के बाद एक ऐसी कई घटनाएँ अब तक घट चुकी हैं, जिन पर विपक्षी दलों को गरजना वाजिब है।

जनता ने भी योगी सरकार की ख़ामियों को काफ़ी क़रीब से देखा, फिर भी ख़ामोश रही। इसकी एक वजह यह भी है कि संख्या में ज़्यादा हिन्दुओं ने राम मंदिर के निर्माण का श्रेय योगी को देते हुए उनकी ओर झुकाव बरक़रार रखा है। यही वजह रही कि योगी सरकार एक अहं में घिर गयी और सत्ता के नशे में उसे अपनी ही ग़लतियाँ नज़र नहीं आ रहीं। प्रदेश में सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों के हनन से लेकर दबंगों के ख़िलाफ़ बोलने वालों की हत्याओं, बलात्कारों और उसके बाद कोरोना महामारी में कीड़े-मकोड़ों की तरह लोगों के मरने के बावजूद लोगों ने धैर्य नहीं खोया। परन्तु इस बार पुलिस द्वारा होटल में जाकर तलाशी के नाम पर कानपुर के कारोबारी मनीष गुप्ता (36) की हत्या और उसके बाद एक मंत्री के बेटे द्वारा अपनी गाड़ी से किसानों को कुचल देने की घटना ने पुराने जख़्मों को भुला बैठे लोगों को फिर से ग़ुस्से से भर दिया है। विशेषतौर पर किसानों की कार से कुचलकर की गयी हत्या ने जहाँ सत्ता पक्ष को बेतहाशा डरा दिया है; वहीं विपक्षी दलों को कुर्सी की राह बहुत आसान दिखने लगी है। विपक्ष को नेताओं की गिरफ़्तारी ने और मज़बूत कर दिया है। इसमें प्रियंका गाँधी की गिरफ़्तारी से उनका पलड़ा कुछ ज़्यादा ही भारी हुआ है। हादसे वाली जगह का दौरा करने और पीडि़तों से मिलने जाने की उनकी ज़िद और उन्हें वहाँ न जाने देने की सरकार की हनक ने उनकी गिरफ़्तारी को अंजाम दे डाला, जिससे लोग प्रियंका गाँधी और कांग्रेस के पक्ष में आने शुरू हो गये। परन्तु सत्तपक्ष का यह अहं ही कहा जाएगा कि उसने मृतक किसानों के परिवारों को 45 लाख का मुआवज़ा देने की घोषणा करके और उनकी माँगें मानकर ऐसे समझ लिया कि मानों कुछ हुआ ही न हो। इसी वजह से आरोपियों पर कार्रवाई करने के बजाय वह लम्बे समय तक अकड़ में तनी रही और घटनास्थल पर जाने की कोशिश करने वाले विपक्षी दलों के नेताओं की गिरफ़्तारी में लग गयी। शंका है कि यही अकड़ कहीं भारतीय जनता पार्टी की नाव न डुबो दे। क्योंकि किसान आन्दोलन के चलते किसानों का ग़ुस्सा पहले ही भाजपा के प्रति कम नहीं था, उस पर गन्ना किसानों को योगी ने नाख़ुश कर दिया और इसके बाद कार से आन्दोलनकारी किसानों को कुचलने की घटना ने लोगों में भी आक्रोश ही पैदा किया है। अब एक ऐसा धड़ा, जो अन्दर-ही-अन्दर कुछ गरम और कुछ नरम वाली स्थिति में था; लगभग भड़कने लगा है और सरकार की ख़ामियों पर तीखी नज़र फेरकर ज़ुबानी हमले कर रहा है।

भाजपा में भी विरोध

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार भले ही अपनी तारीफ़ में क़सीदे पढ़ रही हो, परन्तु हक़ीक़त यह है कि विपक्षी दल ही नहीं, बल्कि भाजपा के लोग भी अपनी ही सरकार के विरोध में बोल रहे हैं। लखीमपुर खीरी में चार किसानों सहित आठ लोगों की मौत को लेकर घिरी योगी सरकार पर पीलीभीत से भाजपा सांसद वरुण गाँधी ने निशाना साधा है। वरुण के अपनी ही सरकार के विरोध में मुखर होने से भाजपा में दो गुट साफ़ नज़र आने लगे हैं। हालाँकि वरुण गाँधी के अलावा कुछ भाजपा नेता दबी ज़ुबान से सरकार की कमियों की निंदा कर रहे हैं। यह कोई नयी बात नहीं है, पिछले समय में कई भाजपा विधायकों ने अपनी ही सरकार पर हनन के आरोप लगाये। वरुण गाँधी भी पहली बार विरोध नहीं कर रहे हैं। उन्होंने सरकार की कमियों और ग़लत नीतियों के विरोध में हमेशा ही बाग़ी तेवर अपनाये हैं और हर बार उन्होंने योगी आदित्यनाथ को चिट्ठियाँ लिखकर उनकी सरकार की कमियाँ उजागर की हैं। चाहे वो लखीमपुर खीरी का मामला हो, चाहे गन्ने के दामों में 25 रुपये प्रति कुंतल की मामूली बढ़ोतरी हो। उन्होंने हर बार सरकार की नीतियों की खुली आलोचना करते हुए विरोध प्रकट किया है। यहाँ तक वरुण गाँधी किसानों के पक्ष में साफ़तौर पर खड़े नज़र आये हैं। उन्होंने तो मुज़फ़्फ़रनगर में हुई महापंचायत को लेकर किसानों का समर्थन तक किया था। लखीमपुर खीरी मामले से जुड़ा एक वीडियो ट्वीट करके वरुण गाँधी ने लिखा कि लखीमपुर खीरी में किसानों को गाडिय़ों से जानबूझकर कुचलने का यह वीडियो किसी की भी आत्मा को झकझोर देगा। पुलिस इस वीडियो का संज्ञान लेकर इन गाडिय़ों के मालिकों, इनमें बैठे लोगों और इस प्रकरण में संलिप्त अन्य व्यक्तियों को चिह्नित कर तत्काल गिरफ़्तार करे। अपनी ही सरकार के विरोध में उठे वरुण गाँधी के इन शब्दों ने लाखों लोगों को एक ही झटके में योगी सरकार के ख़िलाफ़ खड़ा कर दिया, जिससे योगी सरकार और शायद केंद्र सरकार भी उनसे ख़ासी नाराज़ है। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सूची से वरुण गाँधी और उनकी माँ मेनका गाँधी को हटाना इसका संकेत है।

क्यों झुकी सरकार?

लखीमपुर खीरी कांड पर किसी भी स्थिति में अहं के नशे में चूर योगी सरकार को आख़िरकार कुछ हद तक झुकना पड़ा। परन्तु सवाल यह उठने लगे हैं कि किसानों को गाड़ी तले रौंदने की साज़िश के बाद कड़े तेवर अपनाने वाली योगी सरकार इतनी कैसे झुक गयी कि उसने विपक्षी नेताओं, ख़ासतौर पर राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी को लखीमपुर जाने की इजाज़त दे दी? सरकार ने हर दल के पाँच नेताओं को दो पीडि़त परिवारों से मिलने की अनुमति देते हुए अपने रवैये में नरमी बरती। लेकिन तब तक लोगों में यह सन्देश चला गया कि पीडि़तों के आँसू पोंछने के बजाय सरकार तानाशाही रवैया अपना रही है। सरकार के कुछ हद तक झुकने की वजह विपक्षी दलों और अपने कुछ नेताओं का सरकार के विरोध में खड़ा होना नहीं है, बल्कि लोगों में सरकार के प्रति पैदा हुआ ग़ुस्सा है। पिछले कई दिनों से सोशल मीडिया पर योगी सरकार के विरोध में ऐसी हवा चली कि योगी सरकार को हार का डर सताने लगा और वह नरम रूख़ अख़्तियार करने पर मजबूर हुई।

योगी की मुश्किलें

योगी आदित्यनाथ की मुश्किलें उनके मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने के बाद से बढऩे लगी हैं। वैसे तो जब प्रदेश में विधानसभा चुनावों की सुगबुगाहट शुरू हुई थी, तभी उन्हें मुख्यमंत्री चेहरा न बनाये जाने की चर्चा थी और सरकार की नाकामियों के चलते मुख्यमंत्री पद से उनकी छुट्टी भी लगभग तय मानी जा रही थी। केंद्रीय नेतृत्व से इसके संकेत भी थोड़े-थोड़े मिलने लगे थे, परन्तु अचानक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की तरफ़ से निर्देश आये कि योगी आदित्यनाथ ही अगले मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे। यह निर्देश आते ही केंद्रीय नेतृत्व के सुर बदल गये और उसने सहर्ष ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर योगी के नाम की घोषणा कर दी। परन्तु इसके बाद से प्रदेश में हो रही एक के बाद एक बड़ी घटनाओं ने योगी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। सम्भव है कि 300 से अधिक सीटें जीतना उनके लिए मुश्किल हो। परन्तु यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश की जनता अभी तक किसी दूसरे दल के नेता पर भी उतना भरोसा नहीं जता पा रही है, जितना कि किसी दल को सत्ता में आने के लिए चाहिए होता है।

बाक़ी दलों की स्थिति

उत्तर प्रदेश के चुनाव में हाथ आजमाने वाले बाक़ी दलों की स्थिति की समीक्षा करें, तो अखिलेश यादव उतने भाजपा से परेशान नहीं हैं, जितने कि दूसरे दलों से हैं। छोटे दलों से गठबन्धन की उनकी मंशा पर पानी फिर चुका है और कांग्रेस पहले से कुछ मज़बूत होती दिख रही है। इसके अलावा बसपा के अपने मतदाता पक्के हैं, तो रालोद भी पहले से काफ़ी मज़बूत दिख रही है, जिससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसी दूसरी पार्टी के पैर जमना आसान नहीं हैं। ऊपर से आम आदमी पार्टी ने भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया है। इस वजह से अखिलेश यादव को छोटे दलों से काफ़ी ख़तरा लग रहा है। क्योंकि वह जानते हैं कि भाजपा के विरोध में उतरे लोगों और अपने पक्ष के लोगों के समर्थन से उनकी सत्ता में वापसी पक्की है; परन्तु छोटे-छोटे दल उनका खेल बिगाड़ सकते हैं। इसके अलावा उनके चाचा शिशुपाल यादव भी उनके विरोध में उतरे हुए हैं, जो कि उनके लिए ठीक नहीं है। कांग्रेस इस बार पहले से कहीं बेहतर स्थिति में रह सकती है, जिसका श्रेय प्रियंका गाँधी को जाएगा। इसके अलावा रालोद, बसपा भी ठीक-ठाक स्थिति में रह सकती हैं। दूसरे छोटे दल और निर्दलीय भी कहीं-कहीं उभरकर आ सकते हैं। इस तरह इस बार लगता है कि स्थिति त्रिकोणीय बन सकती है, जिसमें सबसे ऊपर सम्भवत: भाजपा या सपा में कोई एक दल रहेगा। उसके बाद तीसरे नंबर पर कांग्रेस या रालोद के आने की उम्मीद है। अगर चुनावी परिणाम इसी तरह के निकले, तो सरकार बनाने में सपा कामयाब हो सकती है। क्योंकि बाक़ी दल भाजपा को समर्थन देने के बजाय सपा के साथ सरकार बनाना पसन्द करेंगे। योगी आदित्यनाथ को यह बात बहुत अच्छी तरह पता है कि उनकी राह इस बार आसान नहीं है और यह चुनाव उनके जीवन की कठिन परीक्षा तो है ही, मुख्यमंत्री पद की कुर्सी तक जाने की राह भी काँटों भरी है। इसके लिए कहीं-न-कहीं सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार भी वो ख़ुद ही हैं।

सियासी धुन्ध में तैरते पंजाब कांग्रेस के कई सवाल

कृपया, कोई अटकलबाज़ी नहीं। -पंजाब में सियासी उथल-पुथल के बीच पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ के ट्वीट का यह एक हिस्सा है। इसी ट्वीट में बाद में जाखड़ ने लिखा- ‘क्या अब सब कुछ ठीक है और युद्धविराम हो गया है? या यह केवल एक अस्थायी युद्धविराम है?’ पंजाब कांग्रेस में कुर्सी के अन्तहीन खेल के बीच सुनील जाखड़ के कटाक्ष से भरे इस ट्वीट का अर्थ हर कोई समझने के कोशिश कर रहा था। संक्षिप्त ट्वीट सन्देश तब और भी महत्त्वपूर्ण बन गया, जब देश भर में 3 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में चार किसानों को कथित तौर पर वाहन के नीचे रौंद देने की घटना पर चर्चा हो रही थी, और पंजाब कांग्रेस महीनों से उथल-पुथल के दौर के बाद अपने घर को व्यवस्थित करने के कोशिश में विफल दिख रही थी; जबकि कुछ ही समय में वहाँ चुनाव हैं।

जैसा कि हम जानते हैं कि सोशल मीडिया आपको अपने लक्षित पाठकों तक पहुँचने, आपकी बात को पोषित करने और उनसे जुडऩे की अनुमति देता है। लेकिन साथ ही यह एक दोधारी तलवार भी साबित हो सकता है। ऐसा तब हुआ, जब पंजाब के बड़े राजनीतिक नेता जाखड़ ने कुछ सन्देश भेजकर लोगों को हैरान कर दिया। जब कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था, तब सुनील जाखड़ हाल ही में एक छुपे रुस्तम के रूप में मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में उभरे थे। अगर ऐसा होता, तो वह शायद सन् 1966 में राज्य के पुनर्गठन के बाद से पंजाब के पहले हिन्दू मुख्यमंत्री होते। वह पहले पंजाब में विपक्ष के नेता और इसी जुलाई तक चार साल पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं। उनके पिता बलराम जाखड़ को सन् 1980 से सन् 1989 तक दो बार लोकसभा अध्यक्ष रहने का गौरव प्राप्त था।

सुनील जाखड़ ने ट्वीट के ज़रिये यह निशाना तब साधा, जब मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच बैठक ख़त्म हुई और जब पंजाब पुलिस प्रमुख और महाधिवक्ता की नियुक्तियों पर विरोध जताते हुए पार्टी प्रमुख सिद्धू ने इस्तीफ़े की घोषणा की। इसी साल 19 जुलाई को पीसीसी अध्यक्ष बनाये गये सिद्धू ने सहोता को पंजाब पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) का अतिरिक्त प्रभार देने के लिए अपनी ही पार्टी की सरकार का विरोध करते हुए दावा किया कि जब सन् 2015 में श्री गुरुग्रन्थ साहिब की बेअदबी हुई थी, तो उनके (सहोता के) नेतृत्व वाली एसआईटी ने दो सिखों को आरोपित किया था और बादलों को क्लीन चिट (दोषमुक्ति की पर्ची) दे दी थी। सिद्धू द्वारा ट्वीट किये जाने के कुछ घंटे बाद उनकी टिप्पणी आयी कि डीजीपी इक़बाल प्रीत सिंह सहोता और महाधिवक्ता (एजी) अमर प्रीत सिंह देओल को प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए; क्योंकि इनकी नियुक्तियाँ बेअदबी के पीडि़तों के घावों पर नमक छिड़कने जैसी हैं। जाखड़ को एक विनम्र राजनीतिक नेता माना जाता है, जो अपना कार्य अच्छी तरह से करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि विपक्षी नेता भी उनकी बात ध्यान से सुनते हैं।

सिद्धू ने ट्वीट किया था कि डीजीपी और महाधिवक्ता को नहीं बदलने से कांग्रेस कैसे अपना चेहरा दिखाएगी? उन्होंने कहा कि सन् 2017 में हमारी पार्टी सत्ता में आयी ही जनता से बेअदबी के मामलों में न्याय देने और नशीली दवाओं के व्यापार के मुख्य दोषियों की गिरफ़्तारी के वादे पर थी। इसी नाकामी के कारण पिछले मुख्यमंत्री को हटाया गया। ऐसे में एजी / डीजी पद पर से इन्हें बदला जाना चाहिए। अन्यथा हम जनता के सामने चेहरा दिखाने लायक नहीं रहेंगे। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी को लिखे एक पत्र, जिसे सिद्धू ने सोशल मीडिया पर भी साझा किया; में कहा- ‘नैतिकता से समझौता करने पर एक आदमी के चरित्र का पतन होता है। मैं पंजाब के भविष्य और पंजाब के कल्याण के एजेंडे (नीति) से कभी समझौता नहीं कर सकता। इसलिए मैं पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देता हूँ। मैं कांग्रेस की सेवा करता रहूँगा।‘

एडवोकेट जनरल एपीएस देओल पर सिद्धू की आपत्ति यह है कि उन्होंने कथित तौर पर पंजाब के पूर्व पुलिस प्रमुख सुमेध सिंह सैनी का बचाव किया, जो सन् 2015 के बहबल कलां पुलिस फायरिंग मामले में एक आरोपी थे। सहोता ने तब सिद्धू की नाराज़गी मोल ले ली, जब एक विशेष जाँच दल के प्रमुख के रूप में उन्होंने बेअदबी के मुद्दे पर कथित तौर पर बादलों को दोषमुक्ति की पर्ची दी थी। सुनील जाखड़ का नाम मुख्यमंत्री के लिए सबसे आगे था। लेकिन कांग्रेस के उच्च पदस्थ सूत्रों ने कहा कि पंजाब कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने राज्य में एक सिख को मुख्यमंत्री बनाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। इसमें कोई शक नहीं कि इसके बाद जाखड़ का नाम दौड़ से अचानक बाहर हो गया। ज़ाहिर है सिद्धू ख़ुद को पंजाब के भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे थे और जब उन्होंने वर्तमान मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को अपने बूते बदलाव करते और एक अलग छवि बनाते हुए देखा, तो उन्होंने पीसीसी अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। हालाँकि उनका इस्तीफ़ा अभी स्वीकार नहीं हुआ है।

मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और पीसीसी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच बैठक तब तय हुई, जब कई विधायकों ने दोनों नेताओं से एक सौहार्दपूर्ण समाधान खोजने का आग्रह किया। इसके बाद तनाव में कुछ कमी आती दिखी; लेकिन सिद्धू ने मुलाक़ात के बाद भी इस्तीफ़ा वापस लेने की घोषणा नहीं की। यह बैठक सरकार को सही तरीक़े से चलाने के लिए किसी शान्ति समझौते पर पहुँचने के लिए थी। इस्तीफ़े के बाद पटियाला स्थित अपने आवास पर रहने के बाद सिद्धू कांग्रेस के केंद्रीय पर्यवेक्षक हरीश चौधरी की मौज़ूदगी में चन्नी से मिलने पहुँचे। सिद्धू के क़रीबी सहयोगी और केबिनेट मंत्री परगट सिंह भी चन्नी के सुझाव पर हुई बैठक में शामिल थे।

सिद्धू-चन्नी की बैठक के बाद जाखड़ ने सवाल उठाया- ‘क्या अब समझौता हो गया है? युद्धविराम कर दिया गया है? या यह केवल एक अस्थायी युद्धविराम है?’ कहानी को एक अलग मोड़ देने के लिए सुनील जाखड़ ने बाद में अपने आधिकारिक ट्वीटर हैंडल पर पोस्ट कर कहा कि वह हाल ही में हमारे क्षेत्र में चीनी घुसपैठ के बाद वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर स्थिति का ज़िक्र कर रहे थे। कृपया कोई अटकल न लगाएँ। फिर भी जंग जारी रही, तो जाखड़ ने ट्वीट किया- ‘बस बहुत हो गया। मुख्यमंत्री की सत्ता को बार-बार कमज़ोर करने की कोशिशों पर विराम लगाएँ। एजी और डीजीपी के चयन पर बात करने से वास्तव में मुख्यमंत्री और गृह मंत्री की ईमानदारी / क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं। यह शान्त रहने और अफ़वाहों पर लगाम लगाने का समय है।‘

अपने रूख़ को नरम करते हुए पंजाब के मुख्यमंत्री ने एक नियमित डीजीपी की नियुक्ति के लिए संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) को 10 अधिकारियों का एक पैनल भेजा। जानकारी के मुताबिक, भेजे गये 10 नामों में सन् 1986 के बैच (जत्थे) के आईपीएस अधिकारी एस. चट्टोपाध्याय, सन् 1987 के बैच के मौज़ूदा डीजीपी दिनकर गुप्ता के अलावा एम.के. तिवारी, वी.के. भवरा, प्रबोध कुमार, रोहित चौधरी, आईपीएस सहोता, संजीव कालरा, पराग जैन (केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर) और बी.के. उप्पल शामिल हैं।

सत्ता के गलियारों में चर्चा है कि चट्टोपाध्याय सिद्धू के चहेते हैं। यूपीएससी तीन अधिकारियों का पैनल अधिकारियों के सेवा रिकॉर्ड और अन्य आवश्यकताओं के आधार पर विचार कर सरकार को लौटाएगा। इन तीनों में से राज्य को शीर्ष पद के लिए एक अधिकारी का चयन करना होता है।

हालाँकि सरकार ने मौज़ूदा डीजीपी दिनकर गुप्ता को बदलने का मन बना लिया है; जो एक महीने की छुट्टी पर गये हुए हैं। इसके बाद आईपीएस सहोता को कार्यालय का प्रभार दिया गया है। मुख्यमंत्री कार्यालय (सीएमओ) के एक बयान में कहा गया है कि अब उसे तीन नामों के एक पैनल को केंद्र की मंज़ूरी का इंतज़ार है, जिसमें से नये डीजीपी की नियुक्ति की जाएगी। सीएमओ के बयान में कहा गया है कि सिद्धू, सभी मंत्रियों और विधायकों के साथ विचार-विमर्श के बाद नाम को अन्तिम रूप दिया जाएगा। मामले को शान्त करने के प्रयास में चन्नी सरकार ने बेअदबी से सम्बन्धित सभी मामलों को देखने के लिए आरएस बैंस को विशेष लोक अभियोजक के रूप में नियुक्त किया है।

ग़ौरतलब है कि कुछ प्रमुख पदों पर दाग़ी लोगों को लेने के विरोध में नैतिक आधार पर उच्च पद छोड़ देने वाले प्रदेश कांग्रेस प्रमुख नवजोत सिंह सिद्धू ने इस्तीफ़े पर फ़िलहाल स्थिति स्पष्ट नहीं की है। हाँ, उन्होंने यह ज़रूर कहा है कि वह गाँधी परिवार के साथ खड़े रहेंगे; चाहे उनके पास कोई पद हो, या न हो।

ग़रीबी से निजात क्यों नहीं चाहतीं सरकारें?

Passanten auf der Strasse in einem Slum, in den die Bevoelkerung in erster Linie vom Muellsammeln lebt. Neu-Delhi, 05.10.2015. Copyright: Michael Gottschalk/photothek.net [Tel. +493028097440 - www.photothek.net - Jegliche Verwendung nur gegen Honorar und Beleg. Urheber-/Agenturvermerk wird nach Paragraph13 UrhG ausdruecklich verlangt! Es gelten ausschliesslich unsere AGB.]

पिछले पाँच-छ: दशकों से देश के चुनावों में ग़रीबी सबसे प्रमुख मुद्दा रहा है। लेकिन तमाम राजनीतिक दलों की सरकारें इस मुद्दे पर गम्भीरता से काम करने से बचती रही हैं। सवाल यह है कि क्या सरकारें ग़रीबी ख़त्म करना ही नहीं चाहतीं? शायद! क्योंकि अगर ग़रीबी ख़त्म हुई, तो उनका यह प्रमुख चुनावी मुद्दा ख़त्म हो जाएगा। ज़ाहिर है भारत में ग़रीबी को चुनावी मुद्दा बनाकर तमाम सियासी दल मत (वोट) बटोरने का काम करते हैं और यही कारण है कि किसी भी दल सरकार यह नहीं चाहती कि देश ग़रीबी से ख़त्म हो। जबकि देश में आँकड़ों की बाज़ीगरी से काग़ज़ों में ग़रीबी कम हो रही है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की वर्ष 2006 से 2016 तक के सर्वे के मुताबिक, भारत में क़रीब 27 करोड़ से अधिक लोग ग़रीबी रेखा से बाहर निकले हैं। बावजूद इसके आज क़रीब 37 करोड़ से अधिक लोग ग़रीब हैं।

देश में तेज़ी से बढ़ती ग़रीबी के अनेक कारण हैं, जिनमें सबसे प्रमुख कारण बढ़ती जनसंख्या, भ्रष्टाचार, खेती सुधारों में शिथिलता, रूढि़वादी सोच, भयंकर जातिवाद, चरम पर बेरोज़गारी, अशिक्षा, बीमारियाँ और हर लगभग 10 साल में महामारी का आना आदि शामिल हैं। स्वंतत्रता के बाद भूमि सुधारों के लिए जो क़दम उठाये गये वे अपर्याप्त हैं। इसके अलावा सरकार की ग़रीब लोगों के लिए बनायी जाने वाली योजनाओं की अदूरदर्शिता भी एक कारण है। एक कृषि प्रधान देश में किसानों की दुर्दशा देश के लिए बेहद शर्म की बात है। अगर चार-पाँच फ़ीसदी को छोड़ दें, तो आज किसान ही सबसे ज़्यादा ग़रीब हैं।

देश की जनसंख्या और महँगाई, दोनों में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है; जबकि भूमि भी सीमित है और किसानों से खाद्यान्न भी सस्ते में ख़रीदकर व्यापारी उन्हें ऊँचे दामों में बेचते हैं। श्रम उत्पादकता और प्रति व्यक्ति आय में लगातार कमी आ रही है। इससे आय की असमानता बढ़ रही है। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि जितनी सम्पत्ति देश के दो-तीन फ़ीसदी लोगों के पास है, उतनी ही सम्पत्ति बाक़ी 97-98 फ़ीसदी लोगों के पास है। एक अनुमान के मुताबिक, आज देश में क़रीब 20 फ़ीसदी लोगों के पास देश कि कुल 80 फ़ीसदी सम्पत्ति है। जबकि देश की 80 फ़ीसदी जनता के पास मात्र 20 फ़ीसदी ही है। आज लोकतंत्र के मन्दिर संसद में क़रीब 350 करोड़पति सांसद है। ये माननीय अपने हितों और स्वार्थों को ध्यान में रखकर नीतियाँ बनाते-बिगाड़ते रहते हैं। इसीलिए देश में आर्थिक विषमता गहराती जा रही है, जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है या सरकार नियंत्रण करना ही नहीं चाहती। अमीरों के पास जुड़े हुए वैध और अवैध धन का लाभ ग़रीबों को नहीं मिल पा रहा है। लगातार बढ़ती अमीरी ग़रीबी-निवारण के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा बन गयी है। तमाम सरकारें ग़रीबी निवारण हेतु अनेक कार्यक्रम चलाकर उन पर अरबों रुपये ख़र्च करती हैं, किन्तु इनका पूरा लाभ ग़रीबों तक नहीं पहुँच पाता। यही कारण है कि ग़रीब लोग अपनी आने वाली पीढिय़ों को खेती-किसानी और गाँव से दूर करके शहरों और महानगरों में अन्य काम-धन्धों में लगाना चाहते हैं।

पिछले दो-तीन दशकों में देश में तेज़ी से हुए भ्रष्टाचार और करोड़ों-अरबों रुपये के घोटालों ने ग़रीबी को और अधिक बढ़ा दिया है। देश में बढ़ते पूँजीवाद के कारण नव उदारवादी और खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की नीतियाँ ग़रीबों के लिए अहितकारी साबित हुई हैं। नेताओं और नौकरशाहों के तेज़ी से बढ़ते वेतन, भत्ते और अन्य सुविधाओं के अलावा तथा उनके द्वारा एकत्रित अरबों की अवैध सम्पत्ति से अमीरी और ग़रीबी की खाई दिन-दिन बढ़ती जा रही है। क्या इसके लिए सरकार की आर्थिक नीतियाँ ज़िम्मेदार नही हैं?

सरकार अगर वाक़र्इ ग़रीबों के लिए कुछ करना चाहती है, तो सर्वप्रथम पर्याप्त भूमि, जल, शिक्षा, स्वास्थ्य, ईंधन और परिवहन सुविधाओं का विस्तार करे। प्रत्येक वर्ष इसकी समीक्षा और मूल्यांकन किया जाए, साधनों के निजी स्वामित्व, आय और साधनों के असमान वितरण एवं प्रयोग पर सख़्त नियंत्रण की आवश्यकता है।

ग़रीबी निवारण कार्यक्रमों का अधिकतम लाभ अमीरों के बजाय ग़रीबों को पहुँचाने का ठोस प्रयास होना चाहिए। इसके लिए ग़रीबों के कल्याण के लिए आर्थिक नीतियाँ बनाते हुए ग़रीबों को दो वर्गों में बाँटा जाए। एक वर्ग में वे ग़रीब हों, जिनके पास कोई कौशल है और वे स्वरोज़गार कर सकते हैं। दूसरे वर्ग में वे ग़रीब हों, जिनके पास कोई कौशल या प्रशिक्षण नहीं है और वे केवल मज़दूरी पर ही आश्रित हैं। प्रत्येक वर्ग की उन्नति के लिए अलग नीति बने। अमीरों और पूँजीवाद को बढ़ावा देने वाली नीतियों में बदलाव लाया जाए, साथ ही सरकार को संस्थानों को बड़े कारोबारियों को नहीं सौंपना चाहिए और न ही निजीकरण करना चाहिए। ताकि ग़रीबी और अमीरी के बीच की खाई को पाटा जा सके। देश को ग़रीबी के कलंक से छुटकारा मिल सके और महात्मा गाँधी के भारत नवनिर्माण का सपना साकार हो सके। आज देश में महामारी के मद्देनज़र किये गये लॉकडाउन से पैदा हुए हालात भी कहीं-न-कहीं ग़रीबी के लिए ज़िम्मेदार हैं। इन हालात से निपटने के उपाय सरकार नहीं कर रही है, जबकि उसके हाथ में है कि वह स्थिति में सुधार करे और बेरोज़गार हाथों को काम दे। सिर्फ़ सत्ता हथियाने के लिए बयानबाज़ी करने से देश नहीं चल सकता, उसके लिए उद्यम की ज़रूरत है, जिसकी इन दिनों काफ़ी कमी है। लेकिन ज़मीनी स्तर पर सरकार का लोगों से, उनकी समस्याओं और ग़रीबी से कोई सरोकार नज़र नहीं आता। सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक प्रेमसिंह सियाग कहते हैं कि देश के ज़्यादातर संसाधनों और पूँजी निर्माण की प्रक्रियाओं पर उच्च जातियों का क़ब्ज़ा है। निम्न जातियों के साथ बड़े स्तर पर भेदभाव किया जाता है। देश में भयंकर जातिवाद है। निम्न वर्ग के लिए तमाम संसाधन हासिल करने की कोशिशों को नाकाम कर दिया जाता है। सरकारें भी उच्च वर्गों के साथ खड़ी दिखती हैं और निम्न वर्ग को पूँजी निर्माण की प्रक्रिया में मज़दूर से ऊपर उठने नहीं दिया जाता है। ग़रीबी के दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए सबसे बड़ा रोड़ा जातिगत भेदभाव है। उच्च वर्ग के लोग नौकरी देने में अपनी जाति को प्राथमिकता देते हैं। लेकिन अगर मज़दूरों की ज़रूरत पड़े और अपनी जाति में न मिले, तो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (एससी, एसटी) के ऊपर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को तरजीह दे दी जाती है।

मेरे विचार से एससी और एसटी के लोगों के जीवन में आज़ादी के बाद जो थोड़ा-बहुत परिवर्तन आया है, वो सिर्फ़ आरक्षण की वजह से आया है। लेकिन आरक्षण ख़ात्मे की प्रक्रिया ने ग़रीबी के दुष्चक्र को तोडऩे की प्रक्रिया पर लगभग रोक ही लगा दी है। वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय ग़रीबों को मध्यम वर्ग तक का सफ़र तय करने में सात पीढिय़ों तक संघर्ष करना पड़ता है। सन् 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में एससी और एसटी की जनसंख्या क़रीब 24 फ़ीसदी है। लेकिन ग़रीबी की रेखा के नीचे की कुल जनसंख्या में क़रीब 72 फ़ीसदी लोग एससी और एसटी के हैं। मसलन तीन-चौथाई भारत के ग़रीब एससी और एसटी से ताल्लुक़ रखते हैं। जातिगत भेदभाव की ज़ंजीरे तोडऩे की जद्दोजहद में अति पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) ने आज़ादी के बाद काफ़ी हद तक कामयाबी हासिल की। इसलिए छोटे-मोटे पूँजी निर्माण के क्षेत्र में ख़ुद को स्थापित करके ग़रीबी के दुष्चक्र को तोड़कर मध्यम वर्ग में काफ़ी संख्या में जगह बनाने में कामयाब हुआ है।

संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की सन् 2005-06 की रिपोर्ट के मुताबिक, उस समय भारत में क़रीब 64 करोड़ लोग ग़रीब थे। 2015-16 की रिपोर्ट के मुताबिक, सन् 2005 से सन् 2015 के बीच तक़रीबन 37 करोड़ लोग ग़रीबी से बाहर आये। यानी ग़रीब घटकर 28 फ़ीसदी रह गये थे। इस परिवर्तन में तत्कालीन सरकार द्वारा चलायी गयी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (नरेगा), जो कि बाद में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) कहलायी; ने अहम भूमिका निभायी और रोज़गार सृजन की नीतियों के कारण लोगों को हर साल नये रोज़गार मिले। भारत में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय से जुड़े रिसर्च स्कॉलर्स की सोशल फैक्टर को ध्यान में रखते हुए ग़रीबी और रोज़गार के आँकड़ों पर अध्ययन की रिपोर्ट बताती है कि सन् 2015 के बाद केंद्र की मोदी सरकार द्वारा मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्मार्ट गाँव, स्मार्ट सिटी, आत्मनिर्भर आदि तमाम योजनाएँ शुरू की गयीं; लेकिन अव्यवहारिकता, सरकारी झंझटों और तमाम ख़ामियों की वजह से नये रोज़गार पैदा करने में लगभग सभी योजनाएँ नाकाम ही रहीं। रही-सही क़सर संस्थानों के निजीकरण के त्वरित फ़ैसले से पूरी हुई और बेरोज़गारी बढ़ती गयी। बड़े पैमाने पर सरकारी संस्थानों में होने वाली सरकारी भर्तियों पर ताला लगाकर संस्थानों में छँटनी की तलवार लटका दी गयी। जो थोड़ी-बहुत रिक्तियाँ निकलीं भी, वो भाई-भतीजावाद, जातिवाद और भ्रष्टाचार की बलि चढ़ गयीं। इससे ग़रीबों और आरक्षित वर्ग को लाभ लेने से वंचित कर दिया गया। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की रिपोर्ट बताती है कि अप्रैल, 2020 से अप्रैल, 2021 तक तक़रीबन 23 करोड़ लोग मध्यम वर्ग से दोबारा ग़रीबी के दुष्चक्र में फँस चुके हैं। पिछले पाँच वर्षों से विकास की गंगा उलटी बहने लगी। नोटबन्दी, जीएसटी, महँगाई और कोरोना महामारी के चलते दो बार किया गया लॉकडाउन आदि इसके प्रमुख कारण हैं। इन वर्षों में करोड़ों लोग बेरोज़गार हुए हैं और सैकड़ों छोटे-मोटे धन्धे चौपट हो गये।

कुल मिलाकर वर्तमान में ग़रीबों की संख्या क़रीब 50 करोड़ पहुँच चुकी है। इस दौरान जो मध्यम वर्ग से ग़रीबी की खाई में गिरे हैं, उनमें ज़्यादातर ओबीसी के लोग हैं। पिछले एक साल में संगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों में से क़रीब 50 फ़ीसदी की या तो नौकरी चली गयी या उनका वेतन आधा कर दिया गया। जिन पुरुषों की नौकरी गयी, उनमें से मात्र सात फ़ीसदी पुरुषों और क़रीब 46 फ़ीसदी महिलाओं को दोबारा नौकरी मिल सकी है। भारत में असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों की संख्या तक़रीबन 40 करोड़ है। असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों को सामाजिक वर्गीकरण की दृष्टि से देखा जाए, तो ज़्यादातर हिस्सा निम्न वर्ग का ही नज़र आएगा।

लेकिन संख्याबल के हिसाब से इनका औसत सरकारी नौकरी की तरह यहाँ भी काफ़ी कम है। पिछले क़रीब पाँच-छ: वर्षों में लिये गये फ़ैसले और सरकारी नीतियाँ सामाजिक वर्गीकरण के हिसाब से पूँजी वितरण को मदद करने वाले रहे हैं। कुछ सीमित लोगों का ही संसाधनों और पूँजी निर्माण की प्रक्रिया पर एकाधिकार रहने से इन्होंने जमकर लाभ उठाया और जो निम्न वर्ग के लोग मध्यम वर्ग में आये थे, उनको वापस ग़रीबी में धकेल दिया गया। दूसरी ओर, आज गाँव में कृषि उत्पादन अपर्याप्त हैं और वहाँ आर्थिक गतिविधियों का अभाव है। इन क्षेत्रों की ओर ध्यान देते हुए कृषि क्षेत्र में सुधार की ज़रूरत है, ताकि मानसून पर निर्भरता कम हो। आज बैंकिंग, उधार (क्रेडिट) क्षेत्र, सामाजिक सुरक्षा, उत्पादन और विनिर्माण क्षेत्रों को बढ़ावा देने और ग्रामीण विकास में सुधार करने एवं स्वास्थ्य, शिक्षा पर अधिक निवेश किये जाने की ज़रूरत है, ताकि चहुँतरफ़ा विकास हो सके। आर्थिक वृद्धि दर बढ़ सके। आर्थिक वृद्धि दर जितनी अधिक होगी, ग़रीबी उतनी ही कम हो जाएगी।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

कोरोना से नहीं डिगा कोटा कोचिंग का हौसला

प्रतिष्ठा क़ायम रखना आसान काम नहीं है। ख़ासकर कोरोना वायरस के कहर में जब स्थितियों के नियंत्रण से बाहर जाने का अंदेशा उत्पन्न हो गया है, कोटा कोचिंग ने अपनी श्रेष्ठता की विरासत बरक़रार रखते हुए एक बार फिर लम्बी छलाँग लगायी और जेईई-मेन्स में अखिल भारतीय स्तर पर शीर्ष रैंकिंग में शुमार किये जाने वाले छ: स्थानों में से चार पर क़ब्ज़ा जमा लिया। एलन कोचिंग की धाक क़ायम रखते हुए काव्या चोपड़ा ने 300 में से 300 अंक लाकर साबित कर दिया कि कोटा कोचिंग को सिरमोर बनाये रखने में कोरोना को बाधक नहीं बनने दिया जाएगा।

पिछले लॉकडाउन के दौरान 50,000 से ज़्यादा छात्रों की सकुशल वापसी के साथ केयरिंग सिटी के रूप में अपनी विश्वसनीयता साबित कर कोटा कोचिंग एक बार फिर पुराने जोश के साथ सक्रिय है। कोरोना के कहर के चलते कोटा की यादों के साथ अपने घरों को लौट रहे विद्यार्थी यहाँ की पढ़ाई के माहौल को लेकर अत्यंत भावुक नज़र आये। राहुल पारीक ने बताया कि कोटा में पढ़ाई का अच्छा माहौल है। लेकिन मजबूरी में उन्हें लौटना पड़ रहा है। हालात सुधर जाएँगे, तो वह वापस आना चाहेंगे। अक्षय ने कहा कि कोटा कोचिंग का कोई मुक़ाबला नहीं है। यहाँ की सबसे बड़ी विशेषता नियमित और साल भर चलने वाला शिक्षा सत्र है। आज जब छात्र कोटा वापस लौट रहे हैं, तो उम्मीदों की तस्दीक़ हो रही है। एलन करियर के निदेशक गोविंद माहेश्वरी कहते हैं कि साल भर लॉकडाउन, ऑनलाइन शिक्षा तथा कफ्र्यू सरीखी प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद इंजीनियरिंग तथा मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी में हमने न केवल अपनी साख को बनाये रखा, बल्कि श्रेष्ठ परिणाम भी जारी रखे। हम जो कहते हैं, वही करते हैं। नीट के नतीजों में हमारे यहाँ के छात्र शोएब आफ़ताब ने 720 में से 720 अंक लाकर इतिहास रच दिया। हमारे यहाँ शिक्षकों से आसानी से सम्पर्क किया जा सकता है। पढ़ाई यहाँ बोझिल नहीं है। छात्रों का शिक्षकों से आसानी से सम्पर्क रहता है, जिससे वे कम समय में बेहतर तैयारी कर सकते हैं।

हालाँकि कोरोना वायरस के चलते शैक्षिक व्यवस्था में निरंतर बदलाव आ रहा है। छात्रों की सुविधा, इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं के लक्ष्य को देखते हुए अलग-अलग समयावधि के पाठ्यक्रम शुरू किये गये हैं।

एलन करियर द्वारा 31 शैय्याओं वाले आरोग्यतम अस्पताल की शुरुआत से कोटा कोचिंग के सर्वोच्च सिद्धांतों का पता चलता है कि स्वाथ्य के प्रति वे कितने जागरूक हैं। अस्पताल पूरी तरह छात्रों को समर्पित है। बीमार होने की स्थिति में हॉस्टल में ही क्वारंटाइन (एकांतवास) करने की व्यवस्था की हुई है। प्रवेश द्वार पर सेनेटाइजेशन और टेम्पेरेचर लेने की व्यवस्था है।

24 घंटे खुले रहने वाले रेस्तरां और देर रात तक पढऩे वाले छात्रों के खाने की ज़रूरत भी यहाँ पूरी होती है। छात्रा अंकिता श्रीवास्तव कहती हैं कि पढ़ाई के लिए कोटा कोचिंग आदर्श स्थान है। यहां पढ़ाई के दौरान छात्रों से सीधा सम्बन्ध होता है। यहाँ की हवा में ही पढ़ाई घुली हुई है।

मोशन कोचिंग के निदेशक नितिन विजयवर्गीय कहते हैं कि कोरोना के सभी दिशा-निर्देशों का पालन करना तो हमारी प्राथमिकता है ही; लेकिन चिकित्सा सुविधा, जो छात्रों को एक क्लिक पर उपलब्ध है; सबसे बड़ी बात है।

वाइब्रेट एकेडमी के निदेशक महेंद्र सिंह चौहान कोटा कोचिंग की विश्वसनीयता को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि विद्यार्थियों को सफलता का क्षुद्र रूप (शॉर्टकट) नहीं सिखाया जाता, बल्कि उन्हें इस योग्य बनाया जाता है कि सफलता उनके पीछे भागे। कोटा डिस्ट्रिक्ट सेंटर हॉस्टल एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक माहेश्वरी कहते हैं कि विद्यार्थी ही इसकी धुरी हैं। हम सुरक्षा और उसके सभी मानदण्डों पर खरे उतरे हैं।

कोरलपार्क हॉस्टल एसोसिएशन के अध्यक्ष सुनील अग्रवाल कहते हैं कि विद्यार्थियों को घर जैसा माहौल ही हमारा मूल मंत्र है। हम कोशिश करते हैं कि छात्र निश्चिंत होकर अपना उज्ज्वल भविष्य निर्मित कर सकें। कोटा हॉस्टल एसोसिएशन के अध्यक्ष नवीन मित्तल ने कहा कि ज्ञान की खोज के लिए आने वाले हर छात्र के लिए कोटा का सफ़र ख़ास है और हमारे लिए हर छात्र ख़ास है। ऐसा तभी हो सकता है, जब हमारी व्यवस्थाएँ हों और इसमें कोई सन्देह नहीं है।

सिंघु बार्डर पर पेड़ से लटका मिला शव; किसान मोर्चा की मांग, जांच हो

सिंघु बॉर्डर में एक युवक की हत्या करके उसका शव टांगने की घटना ने तूल पकड़ लिया है। यह शव आज सुबह किसान आंदोलन के एक मंच के पीछे मिला था और उसका हाथ भी कटा हुआ था। किसान मोर्चा ने घटना की कड़ी जांच की मांग की है। उधर कांग्रेस ने भी इसे गंभीर मामला बताते हुए इसकी जांच की मांग की है।

जानकारी के मुताबिक सिंघू बॉर्डर पर मृत मिले शख्स की पहचान लखबीर सिंह के रूप में हुई है। पुलिस ने कहा कि लखबीर सिंह को हरनाम सिंह ने 6 साल की उम्र में गोद लिया था। लखबीर सिंह मजदूरी का काम करता था और पंजाब के तरनतारन के गांव चीमा खुर्द का निवासी था। इस 35 साल के व्यक्ति की 3 बेटियां हैं। यह भी कहा जा रहा है कि उसकी पत्नी लखबीर से अलग रह रही थी। लखबीर को नशे की भी लत बताई जा रही है।

संयुक्त किसान मोर्चा ने घटना की निंदा करते हुए जांच की मांग की है। किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल ने आरोप लगाया कि व्यक्ति की हत्या के पीछे निहंग सिखों का हाथ हो सकता है। राजेवाल ने कहा – ‘उन्होंने (निहंग) इसे स्वीकार कर लिया है। निहंग शुरू से ही हमारे लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं।’ उधर पुलिस ने कहा कि उन्हें अभी ऐसी कोई जानकारी नहीं मिली है कि घटना के लिए कौन जिम्मेदार है।

सोशल मीडिया पर कुछ वीडियो वायरल हो रहे हैं, जिसमें कुछ निहंग हत्या की बात स्वीकार करते दिख रहे हैं। इन वीडियो में यह लोग दावा कर रहे कि ‘इस युवक ने कथित तौर पर गुरु ग्रंथ साहिब से बेअदबी की है और उसकी सजा के तौर पर हत्या की गई है’। ‘तहलका’ इन सभी वायरल वीडियो के कंटेंट की पुष्टि नहीं करता है।

पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया है। पुलिस ने कहा है कि वह  वायरल वीडियोज की जांच कर रहे हैं। उधर संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) ने पूरी घटना से खुद को दूर कर लिया है। किसान संगठन ने कहा कि वह दोषियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए हरियाणा सरकार के साथ सहयोग करने को तैयार है।

जानकारी के मुताबिक शख्स का हाथ काटकर उसके शव को लटका दिया गया। इस घटना का वीडियो दिल दहला देने वाला है। वायरल हो रहे वीडियो में दिख रहा है कि जमीन पर पड़ा युवक तड़प रहा है। पास ही उसका कटा हुआ हाथ पड़ा है। वहां उपस्थित निहंग की भेष वाले लोग गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी के आरोप लगा रहे हैं। तड़प रहे शख्स से उसका नाम-पता पूछ रहे हैं और ‘सत श्री अकाल’ नारे लगा रहे हैं।

पुलिस ने बताया कि सुबह पांच बजे उसे सूचना मिली थी कि थाना कुंडली क्षेत्र में किसान आंदोलन इलाके में मंच के पास एक व्यक्ति के हाथ-पैर काटकर लटकाया हुआ है। थाने से एएसआई संदीप टीम के साथ मौके पर पहुंचे। वहां देखा कि शख्स के शरीर पर सिर्फ अंडरवियर था।