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भगौड़ों की सूची सार्वजनिक

बैंकिंग प्रणाली पर उठ रहे सवाल

भारतीय बैंकों से कथित तौर पर बड़ा क़र्ज़ लेने वाले उन 28 व्यवसायियों की एक सूची आजकल सोशल मीडिया पर सार्वजनिक (वायरल) हो रही है, जो सैकड़ों करोड़ रुपये का क़र्ज़ लेकर उसे लौटाने के बजाय विदेश भाग गये। ‘तहलका’ के लिए सनी शर्मा की विशेष रिपोर्ट :-

इस बारे में पहली पुष्टि संसद के निचले सदन में पेश किये गये एक लिखित उत्तर के अलावा कहीं और से नहीं हुई थी, जब तत्कालीन वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने स्वीकार किया था कि पहली जनवरी, 2015 से 31 दिसंबर, 2019 तक पाँच साल की अवधि के दौरान 38 आर्थिक अपराधी देश छोडक़र भाग गये थे। मंत्री ने लोकसभा में एक लिखित जवाब में बताया था कि केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) ने अवगत कराया है कि उसके द्वारा बैंकों के साथ वित्तीय अनियमितताओं से सम्बन्धित मामलों में दर्ज मामलों में शामिल 38 व्यक्ति 1 जनवरी, 2015 से 31 दिसंबर, 2019 के दौरान देश से भाग गये थे।

अब सोशल मीडिया में वायरल सूची में जिन लोगों के नाम होने का दावा है कि उनमें विजय माल्या, मेहुल चौकसी, नीरव मोदी, निशान मोदी, पुष्पेश बैद्य, आशीष जोबनपुत्र, सनी कालरा, आरती कालरा, संजय कालरा, वर्षा कालरा, सुधीर कालरा, जतिन मेहता, उमेश पारिख, कमलेश पारिख, नीलेश पारिख, विनय मित्तल, एकलव्य गर्ग, चेतन जयंतीलाल, नितिन जयंतीलाल, दीप्ति बेइन चेतन, साविया सेठ, राजीव गोयल, अलका गोयल, ललित मोदी, रितेश जैन, हितेश नागेंद्र भाई पटेल, मयूरी बेन पटेल और आशीष सुरेश भाई के नाम शामिल हैं। वायरल हो रही सूची में आरोप लगाया गया है कि जो सामने नज़र आता है, उससे भी कुछ ख़ास है। किसी भी अपराधी को आतंकवादी घोषित नहीं किया गया था, न ही उनमें से कोई शहरी नक्सली या समाज के निचले तबक़े से था। वायरल सूची में आरोप लगाया गया है कि विजय माल्या को छोडक़र बाक़ी सभी गुजरात के हैं।

वायरल सूची के मुताबिक, विजय माल्या पर बैंकों के एक समूह के 9,000 करोड़ रुपये बक़ाया हैं। नीरव मोदी, उनकी पत्नी अमी मोदी, भाई नीशाल मोदी और चाचा मेहुल चौकसी का नाम पंजाब नेशनल बैंक में 12,636 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी में है। विनसम डायमंड्स के जतिन मेहता पर 7,000 करोड़ रुपये बक़ाया हैं; इंडियन प्रीमियर लीग के पूर्व प्रमुख ललित मोदी पर देश के क्रिकेट बोर्ड से 125 करोड़ रुपये निकालने का आरोप है और स्टर्लिंग बायोटेक लिमिटेड के निदेशक चेतन जयंतीलाल संदेसरा और नितिन जयंतीलाल संदेसरा को 5,000 करोड़ रुपये की कथित बैंक धोखाधड़ी के लिए नामित हैं। अन्य व्यवसायियों में मुम्बई स्थित कपड़ा निर्यात फर्म एबीसी कॉट्सपिन प्राइवेट लिमिटेड के प्रमोटर आशीष जोबनपुत्र और उनकी पत्नी शामिल हैं, जो 770 करोड़ रुपये के बिल डिस्काउंटिंग घोटाले और बैंकों को चपत लगाने के आरोपी हैं। अवैध रूप से देश से बाहर 1500 करोड़ ले जाने वाले हीरा कारोबारी रितेश जैन हैं। सुरेंद्र सिंह, अंगद सिंह और हरसाहिब सिंह धोखाधड़ी के लिए, सब्या सेठ ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स से 390 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी के लिए, संजय भंडारी पर 150 करोड़ रुपये की कथित कर चोरी का आरोप है; जबकि 2,223 करोड़ रुपये की बैंक धोखाधड़ी के आरोपी श्री गणेश ज्वेलरी हाउस के नीलेश पारेख को सीबीआई ने जाँच में शामिल होने के लिए भारत लौटने पर गिरफ़्तार किया था।

आरबीआई ने भी डिफॉल्टर्स की पुष्टि की है। विडंबना यह है कि आरबीआई ने सितंबर, 2019 तक कुल 68,607 करोड़ रुपये के ऋण को बट्टे खाते में डाल दिया। आरटीआई जाँच के एक जवाब में आरबीआई ने पुष्टि की कि डिफॉल्टरों में फ़रार मेहुल चौकसी और भगौड़े व्यवसायी विजय माल्या की कम्पनियाँ शामिल हैं। आरबीआई के अनुसार, चौकसी की कम्पनी गीतांजलि जेम्स 30 सितंबर तक 5,492 करोड़ रुपये की बड़ी राशि के साथ डिफॉल्टरों की सूची में सबसे ऊपर है। भगौड़े व्यवसायी की अन्य फर्मों गिल्ली इंडिया और नक्षत्र ब्रांड्स पर भी 1,447 करोड़ रुपये और 1,109 रुपये का क़र्ज़ है, जिसे बट्टे खाते में डाल दिया गया है। माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस 1,943 करोड़ रुपये के बक़ाया क़र्ज़ के साथ नौवें स्थान पर है।

विजय माल्या यूके, मेहुल चौकसी एंटीगुआ, जतिन मेहता सेंट किट्स एंड नेविस, नीरव मोदी यूके, नितिन और चंदन संदेसारा नाइजीरिया, उमेश पारेख, कमलेश पारेख और नीलेश पारेख दुबई और केन्या, ललित मोदी यूके सभा सेठ दुबई, विनी मित्तल इंडोनेशिया और सनी कालरा ओमान भाग गये हैं। आश्चर्यजनक रूप से भगौड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम, ग़ैर-दोषी-आधारित कुर्की और अपराध की आय और भगौड़े आर्थिक अपराधियों की सम्पत्तियों को ज़ब्त करने का अधिकार देता है; लेकिन फिर भी कई आरोपी भागने में कामयाब रहे। भगौड़ा अपराधी अधिनियम राज्य को उन आर्थिक अपराधियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का अधिकार देता है, जहाँ भारत में किसी भी अदालत द्वारा गिरफ़्तारी वारंट जारी किया गया है और जिन्होंने आपराधिक अभियोजन या न्यायिक प्रक्रियाओं से बचने के लिए देश छोड़ दिया है।

जून, 2021 के दौरान भ्रष्टाचार से लडऩे के लिए चुनौतियों और उपायों पर संयुक्त राष्ट्र महासभा के विशेष सत्र को सम्बोधित करते हुए केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने इस तरह के अपराधों के लिए माँगे गये व्यक्तियों और सम्पत्तियों की वापसी के लिए अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों और घरेलू क़ानूनी प्रणाली के तहत एक मज़बूत गठबन्धन और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का आह्वान किया था। उन्होंने कहा कि चूँकि आरोपी विदेशों में शरण लेते हैं और विभिन्न देशों और क्षेत्राधिकारों में फैले जटिल क़ानूनी ढाँचे में अपराध की आय को छिपाते हैं, इस क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के अंतराल और कमज़ोरियों का ऐसे भगौड़ों द्वारा अपने लाभ के लिए पूरी तरह से फ़ायदा उठाया जाता है।

क्या कर सकती है सरकार?

1. सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) को बड़े मूल्य के बैंक धोखाधड़ी से सम्बन्धित मामलों का समय पर पता लगाने, रिपोर्टिंग, जाँच आदि के लिए नियमावली जारी की है, जो अन्य बातों के साथ-साथ, 50 करोड़ रुपये से अधिक के सभी खातों, जिन्हें यदि ग़ैर-निष्पादित आस्तियों के रूप में वर्गीकृत किया गया है, की बैंकों द्वारा सम्भावित धोखाधड़ी के दृष्टिकोण से जाँच की जानी चाहिए और इस जाँच के निष्कर्षों पर एनपीए की समीक्षा के लिए बैंक की समिति के समक्ष एक रिपोर्ट रखी जाने चाहिए। साथ ही भारतीय रिजर्व बैंक को धोखाधड़ी की सूचना देने के तुरन्त बाद जानबूझकर चूक के लिए जाँच शुरू की जाए और यदि कोई खाता एनपीए हो जाता है, तो उधारकर्ता पर केंद्रीय आर्थिक ख़ुफ़िया ब्यूरो से रिपोर्ट तलब की जाए।

2. भगौड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम, 2018 आर्थिक अपराधियों को भारतीय अदालतों के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहकर भारतीय ख़ुफ़िया की प्रक्रिया से बचने से रोकने के लिए अधिनियमित किया गया है। यह एक भगौड़े आर्थिक अपराधी की सम्पत्ति की कुर्की, ऐसे अपराधी की सम्पत्ति की ज़ब्ती और अपराधी को किसी भी नागरिक दावे का बचाव करने से वंचित करने का प्रावधान करता है।

3. केंद्रीय धोखाधड़ी रजिस्ट्री (सीएफआर) को बैंकों और चुनिंदा वित्तीय संस्थानों द्वारा दायर धोखाधड़ी निगरानी रिटर्न के आधार पर बैंकों द्वारा उपयोग के लिए एक खोज योग्य ऑनलाइन केंद्रीय डाटाबेस के रूप में आरबीआई द्वारा स्थापित किया गया है।

4. लेखा परीक्षा मानकों को लागू करने और लेखा परीक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने एक स्वतंत्र नियामक के रूप में राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण की स्थापना की है।

5. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को निर्देश दिया गया है कि वे निर्धारित समय सीमा के भीतर, बैंकों में तुरन्त परिचालन वातावरण को मज़बूत करने के लिए आरबीआई द्वारा निर्धारित उपायों का कार्यान्वयन सुनिश्चित करें और साथ ही आरबीआई के निर्देशों के अनुसार और उनकी बोर्ड-अनुमोदित नीति के अनुसार विलफुल डिफॉल्टरों की तस्वीरें प्रकाशित करने का निर्णय लें।

6. बैंकों से कहा गया है कि वे ऋण धोखाधड़ी और रेड फ्लैग खातों से निपटने के लिए आरबीआई के ढाँचे का सावधानीपूर्वक पालन करें, एटीएम / डेबिट / क्रेडिट कार्ड की स्किमिंग को रोकने के लिए आरबीआई दिशा-निर्देशों को लागू करें, और बड़े मूल्य के ऋण खातों के सम्बन्ध में शीर्षक दस्तावेज़ों का क़ानूनी ऑडिट सुनिश्चित करें, 50 करोड़ रुपये से अधिक की ऋण सुविधा प्राप्त करने वाली कम्पनियों के प्रमोटरों / निदेशकों और अन्य अधिकृत हस्ताक्षरकर्ताओं के पासपोर्ट की प्रमाणित प्रति प्राप्त करें और अधिकारियों / कर्मचारियों के रोटेशनल ट्रांसफर को सख़्ती से सुनिश्चित करें।

ख़तरे की आहट, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान शासन भारत सहित पड़ोसी देशों के लिए बड़ी चुनौती!

देखते-ही-देखते पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का क़ब्ज़ा हो गया। इतनी जल्दी और आराम से कि हर कोई हैरान है। भारत तालिबान को मान्यता देगा या नहीं? इस पर भी नज़र रहेगी। क्योंकि आज तक कभी भारत ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है। चीन सरकार एक आतंकी संगठन को समर्थन देती दिख रही है; जबकि पाकिस्तान ने तालिबान को ताक़त दी है। जो स्थितियाँ तालिबान के आने से बनी हैं, उनका भारत पर भी असर पडऩा लाज़िमी है। हालाँकि भारत फ़िलहाल ‘देखो और इंतज़ार करो’ की नीति पर चल रहा है। क्या तालिबान सभी के लिए ख़तरा बनेगा या अपना स्वरूप बदलेगा? बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

जिस अफ़ग़ानिस्तान में हम पीढिय़ों से रह रहे हैं, वहाँ हम एक ऐसी स्थिति देख रहे हैं, जो हमने पहले कभी नहीं देखी। सब कुछ ख़त्म हो गया। लोगों की ज़िन्दगी ख़त्म हो गयी। 20 साल से बनी सरकार टूट गयी। सब कुछ शून्य हो गया। यह शब्द हैं- काबुल से जान बचाकर भारत पहुँचे अफ़ग़ानिस्तान के सिख सीनेटर नरेंद्र सिंह खालसा के। खालसा अकेले नहीं हैं, जो मानते हैं कि तालिबान के आने से अफ़ग़ानिस्तान बर्बाद हो गया। क्योंकि वहाँ अब तालिबानी अपने अत्याचार से आम नागरिकों और महिलाओं का जीना हराम कर देंगे; भले फ़िलहाल वे अच्छा होने का नाटक कर रहे हों। यह अफ़ग़ानिस्तान का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है- अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद उसका दूसरे देशों पर होने वाला असर, जिनमें भारत भी शामिल है। पाकिस्तान के तालिबान से मज़बूत रिश्ते रहे हैं। यही नहीं अफ़ग़ानिस्तान में चीन का तालिबान को समर्थन भी एक ख़तरनाक गठजोड़ है। चीन ने तालिबान को मान्यता दे दी है, जबकि अभी तक वहाँ उनकी सरकार बनी ही नहीं है। उधर अफ़ग़ानिस्तान की पंजशीर घाटी, जहाँ तालिबान का कभी क़ब्ज़ा नहीं हो पाया है; में नॉर्थर्न एलायंस की तरफ़ से तालिबान के हथियारबंद विरोध की ज़मीन तैयार हो रही है, जो देश को गृह युद्ध की तरफ़ धकेल सकती है। क्योंकि आम जनता में भी तालिबान का विरोध देखने को मिल रहा है। तालिबान ने अमेरिका को 31 अगस्त तक देश छोडऩे की चेतावनी दी हुई है और यदि अमेरिका वहाँ से जाने से इन्कार करता है, तो यह भी संघर्ष का रास्ता खोल सकता है। सबसे बड़ा सवाल यही पैदा होता है कि इतने बड़े अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान ने इतनी जल्दी और इतनी आसानी से क़ब्ज़ा कैसे कर लिया?

अफ़ग़ानिस्तान में वैसे अमेरिका से लेकर ब्रिटेन और सोवियत संघ सहित दुनिया की कई शक्तियाँ हारकर लौट चुकी हैं। यहाँ तक कि तालिबान भी एक बार अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करके देश छोडऩे को मजबूर हो चुका है। अफ़ग़ानिस्तान पर सन् 1996 से सन् 2001 तक तालिबान का राज रहा। लेकिन 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले से बिफरे अमेरिका की अगुवाई में मित्र देशों की साझी सेना ने अफ़ग़ानिस्तान में उनका शासन ख़त्म कर दिया था। अब अमेरिका ने भी अफ़ग़ानिस्तान को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। यह इतना गम्भीर मसला है कि अमेरिका में इसे लेकर लोग बँटे नज़र आ रहे हैं और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप खुलकर जो बाइडन के ख़िलाफ़ आ चुके हैं।

अफ़ग़ानिस्तान की तस्वीर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद भयावह दिखने लगी है। क्योंकि वहाँ आतंकी तबाही काबुल में तीन बम धमाकों के साथ शुरू हो चुकी है। इन धमाकों में 100 से ज़्यादा लोग मारे गये और क़रीब 150 लोग घायल हुए। मारे गये लोगों में 90 लोग अफ़ग़ानी नागरिक और एक दर्ज़न से ज़्यादा अमेरिकी सैनिक हैं। आम लोगों पर तालिबान के पहले शासन के ज़ुल्म की कहानियाँ दोहराये जाने की ख़बरें बहुत तेज़ी से आ रही हैं। महिलाओं में ख़ौफ़ है और उन्हें लगता है कि तालिबान उन पर सख़्त पाबंदियाँ लगाकार उनका जीना हराम कर सकता है। बेशक अभी तालिबान के प्रवक्ता ख़ुद को ‘नया तालिबान’ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं; लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त इससे अलग है। हाल के 20 दिनों में तालिबान ने काबुल में घर-घर की तलाशी ली है। अन्य प्रान्तों में भी यही हालत है।

अफ़ग़ानिस्तान से बचकर भारत पहुँचे लोगों ने जो बताया है, वह तालिबान के दावे के विपरीत है और ज़मीनी हक़ीक़त को बयाँ करता है। अफ़ग़ानिस्तान से लोग तालिबान के डर से देश छोडक़र भाग रहे हैं। जो अफ़ग़ान के नागरिक दूसरे देशों में हैं, वे अब वापस वतन नहीं लौटना चाहते। भारत में मौज़ूद अफ़ग़ानी नागरिक राजधानी दिल्ली में अलग-अलग देशों के दूतावास के सामने इकट्ठा हो रहे हैं और मदद की गुहार लगा रहे हैं। अमेरिकी दूतावास के बाहर मौज़ूद एक अफ़ग़ान नागरिक अब्दुल्ला साहेल ने कहा- ‘तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में उनका परिवार डरा हुआ है। मैं ख़ुद तीन महीने पहले यहाँ आया हूँ। मेरे पास कोई रोज़गार नहीं है और आर्थिक परेशानियों का सामना कर रहा हूँ।’

अनुमान है कि अफ़ग़ानिस्तान के वर्तमान संकट में लाखों अफ़ग़ानी शरणार्थी बनकर दूसरे देशों में पहुँचे हैं। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से पूरे एशिया में सुरक्षा का बड़ा ख़तरा पैदा हो गया है। अमेरिका की सेना की पूर्ण वापसी से कई दिन पहले ही तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान को अपने क़ब्ज़े में ले लेने से भी हैरानी जतायी जा रही है। तालिबान लड़ाकों ने कुछ दिन में ही देश के बड़े शहरों पर जिस आसानी से क़ब्ज़ा किया और अफ़ग़ानी सेना ने कोई विरोध नहीं किया, जिसे लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। इसे अफ़ग़ानी सेना के भ्रष्ट होने से जोड़ा जा रहा है। यहाँ तक कि अफ़ग़ानी राष्ट्रपति अशरफ़ गनी तक जनता को क्रूर तालिबानों के भरोसे छोड़ देश छोडक़र यूएई भाग गये। 20 साल बाद अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का फिर क़ब्ज़ा हो गया है।

इसी तालिबान को 2001 के हमले के बाद अमेरिका ने तहस-नहस कर सत्ता से उखाडक़र भागने के लिए मजबूर कर दिया था। लेकिन इस बार अमेरिकी सेना की उपस्थिति के बीच ही तालिबान ने देश पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया था। अभी तक जो जानकारियाँ छनकर बाहर आयी हैं, उनके मुताबिक अमेरिका और नाटो सहयोगियों ने अफ़ग़ान सुरक्षाबलों को प्रशिक्षित करने के लिए जो लाखों डॉलर ख़र्च किये वह वास्तव में फलीभूत नहीं हुए और इसका सबसे बड़ा कारण उसकी ही समर्थित अफ़ग़ान सरकार का भ्रष्टाचार में गहरे से डूबा होना था। अफ़ग़ान सेना में भी भ्रष्टाचार के ख़ूब आरोप लगे हैं और उसके कमांडर इन वर्षों में पैसा हड़पने के लिए अपने सैनिकों की झूठी संख्या अमेरिकियों के सामने पेश करते रहे। जब तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर हल्ला बोला। उसकी सेना के पास न तो गोला-बारूद था; न अन्य संसाधन। यहाँ तक कि उसके पास खाद्य चीज़ें की भी क़िल्लत थी। ऊपर से देश के राष्ट्रपति तक विदेश भाग निकले। नतीजा यह निकला कि तालिबान को थाली में रखा हुआ देश मिल गया।

अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के युद्ध में ज़्यादा ख़ून-ख़राबा हुआ; लेकिन अमेरिकी आक्रमण ज़्यादा ख़र्चीला साबित हुआ। सोवियत संघ ने जहाँ अफ़ग़ानिस्तान में प्रति वर्ष लगभग 2 अरब अमेरिकी डॉलर ख़र्च किए, वहीं अमेरिका के लिए 2010 और 2021 के बीच, युद्ध की लागत प्रति वर्ष क़रीब 100 अरब अमेरिकी डॉलर हो गयी थी।

क़रीब 3.9 करोड़ की आबादी वाले देश में अब आतंक और ख़ौफ़ का माहौल है। वहाँ से आ रहे लोगों ने अब तक जो बताया है उससे तालिबान के ख़तरनाक इरादों की झलक मिलती है। अफ़ग़ानिस्तान की जनता को सबसे ज़्यादा डर तालिबान के निरंकुश और अराजक शासन का है, जिसे वह एक बार पहले देख चुके हैं। देश की नयी पीढ़ी खुली और उदार सत्ता के दौर में पली-बढ़ी है। अब उसे शरिया राज में ज़िन्दगी जीना कितना मुश्किल होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। तालिबान ने आते ही जिस तरह दुकानों और मॉल के होर्डिंग्स में लगी महिलाओं की तस्वीरों पर कालिख या सफ़ेद रंग पोता, उससे महिलाओं में ख़ौफ़ का माहौल है। यह आरोप लगते रहे हैं कि पिछले शासन में तालिबान ने बड़ी संख्या में महिलाओं और बच्चियों तक को हबस मिटाने के लिए इस्तेमाल किया।

ऐसे लोग, जो अमेरिका की सेना की मौज़ूदगी में तालिबान की निंदा करते रहे हैं; वे भी बहुत डरे हुए हैं। तालिबानी राजधानी काबुल जैसी जगह में आने के बाद घर-घर की तलाशी लेते रहे हैं। रिपोट्र्स के मुताबिक, तालिबान के आने के बाद बड़ी संख्या में लोगों, ख़ासकर महिलाओं ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स डिलीट कर दिये और अपनी तस्वीरें वहाँ से हटा दी हैं। तालिबान प्रवक्ताओं ने बेशक अपनी पहली प्रेस वार्ता में वादा किया कि वह किसी से बदला नहीं लेंगे और महिलाओं-बेटियों की सुरक्षा को भी कोई ख़तरा नहीं है। लेकिन 99 फ़ीसदी लोगों को तालिबान के बयानों पर भरोसा नहीं है। अफ़ग़ानी अब मान चुके हैं कि उनके पास नरक भरी ज़िन्दगी जीने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पिछले 20 दिनों में तालिबान ने कई इलाक़ों में युवा और विधवा महिलाओं की सूची लोगों से माँगनी शुरू कर दी है। यह उस वादे के बिल्कुल विपरीत है, जिसमें महिलाओं को किसी भी तरह के उत्पीडऩ से बाहर बताया है। तालिबान ने यहाँ तक कहा है कि इस्लामिक क़ानून के हिसाब से महिलाओं को सरकार में भी भागीदारी दी जाएगी। लेकिन अभी तक उसने जो किया है, उससे अफ़ग़ानिस्तानियों को तालिबान के हिंसक, अराजक और शोषक बर्ताव की पूरी आशंका है।

तालिबान का विरोध

तालिबान ने भले अफ़ग़ानिस्तान के बड़े हिस्से पर बंदूकों के ज़ोर पर क़ब्ज़ा जमा लिया हो, लेकिन देश में उनका विरोध भविष्य में नयी जंग का रास्ता खोल सकता है। तालिबान से दशकों से शत्रुता रखने वाले पंजशीर घाटी के नेता आपस में मिल गये हैं और उनकी फ़ौजे तालिबान को सबक़ सिखाने की तैयारी में हैं। तालिबान आज तक पंजशीर घाटी पर क़ब्ज़ा नहीं जमा पाया है। उसने इस बार पंजशीर के नेताओं को धमकी दी है और क़रीब 3,000 लड़ाकों को पंजशीर की सीमा पर भेजा है। पंजशीर बेहद दुर्गम घाटी है और वहाँ ब्रिटिश और रूसी सेना से लेकर अमेरिका की सेना तक पहुँच नहीं पायी।

दरअसल पंजशीर घाटी ख़ुद को राष्ट्रपति घोषित करने वाले उप राष्ट्रपति अमरूल्ला सालेह के अलावा अफ़ग़ान सरकार में जनरल अब्दुल रशीद दोस्तम और अता मोहम्मद नूर के अलावा नॉदर्न अलायंस के ताक़तवर नेता अहमद मसूद आदि का मज़बूत और अभेद्य गढ़ है। इन सबके पास अपनी मज़बूत सेनाएँ हैं। अपने लोगों में पंजशीर के शेर के नाम से जाने जाने वाले पूर्व अफ़ग़ान नेता अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद पहले ही तालिबान के साथ दो-दो हाथ करने का ऐलान कर चुके हैं।

तालिबान ने बीच में चालाकी दिखाते हुए यह सन्देश देने की कोशिश की कि अहमद मसूद उसके (तालिबान) साथ बातचीत को तैयार हैं; लेकिन मसूद ने तत्काल इसका खण्डन कर तालिबान की कोशिशों पर पानी फेर दिया। विद्रोहियों ने पंजशीर में नॉदर्न अलायंस यानी यूनाइटेड इस्लामिक फ्रंट (यूआईएफ) का झण्डा भी फहरा दिया है और उनका लक्ष्य पूरी पंजशीर घाटी पर क़ब्ज़ा करने का है।

तालिबान के लिए पंजशीर की जंग कितनी मुश्किल है? यह इस बात से ज़ाहिर हो जाता है कि तालिबान के ख़िलाफ़ बग़ावत का ऐलान करने वाले मसूद के नॉदर्न अलायंस ने परवान प्रान्त के चारिकार इलाक़े पर दोबारा नियंत्रण हासिल कर लिया है। चारिकार राजधानी काबुल को उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान के सबसे बड़े शहर मज़ार-ए-शरीफ़ से जोड़ता है और ऐसे में वहाँ जीत तालिबान के लिए बड़ा झटका है। बता दें यह नॉदर्न अलायंस ही था, जिसने 1990 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की हुकूमत के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था। सन् 2001 में अपनी मौत तक अफ़ग़ान नेता अहमद शाह मसूद ने सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध और तालिबान के साथ गृह युद्ध के दौरान सफलतापूर्वक पंजशीर घाटी का बचाव किया था।

हालाँकि कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि तालिबान को ताज़िक़ बहुल पंजशीर के भीतर जाकर लडऩे की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। तालिबान यदि पंजशीर घाटी की नाकेबंदी भी कर लेता है, तो वहाँ लोगों के लिए बहुत-सी मुश्किलें खड़ी हो जाएँगी। उनका कहना है कि पंजशीर घाटी की कई ज़रूरतें बाहर से पूरी होती हैं; लिहाज़ा नाकेबंदी से घाटी के लोगों को कठिनाई झेलनी पड़ेगी। दूसरे तालिबान ने आज तक पंजशीर घाटी में घुसने की कभी कोशिश नहीं की है। इससे उसे इस दुर्गम घाटी को समझने में तो मुश्किल आएगी। लेकिन वह अपने पास मौज़ूद नये हथियारों और बड़ी संख्या में अपने लड़ाकों के बूते पंजशीर पर हमला कर सकता है।

तालिबान के क़ब्ज़े में वह हथियार भी आ चुके हैं, जो अमेरिकी सेना वापस जाते हुए यहाँ छोड़ गयी है। अफ़ग़ानिस्तान पंजशीर के विद्रोही अलायंस के पास पुराने हथियार हैं और उसके पास बड़ा युद्ध लडऩे के लिए साधनों की भी कमी हो सकती है। हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि इनमें से ज़्यादातर लोग तालिबान के कट्टर विरोधी हैं और वे उसे हारने के लिए पूरी ताक़त झोंक देंगे।

इस संवाददाता की जुटायी जानकारी के मुताबिक, पंजशीर में शुरू में अलायंस से सिर्फ़ तज़ाख़ और तालिबान विरोधी मुजाहिद्दीन ही जुड़े थे। हालाँकि अब दूसरे क़बीलों के सरदार भी अपने लड़ाकों के साथ इसमें शामिल हो चुके हैं। कभी अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व रक्षा मंत्री अहमद शाह मसूद ने नॉदर्न अलायंस का नेतृत्व किया था। कुछ जानकार मानते हैं कि इसमें कोई दो-राय नहीं कि तालिबान हथियारों और संख्या बल के लिहाज़ा से काफ़ी ताक़तवर है; लेकिन अफ़ग़ानिस्तान पर उसके इतनी जल्दी क़ब्ज़े का एक कारण अफ़ग़ान सेना का बिल्कुल भी विरोध नहीं करना है। लेकिन पंजशीर में तालिबान को तश्तरी में कुछ नहीं मिलेगा। उसे वहाँ एक बेहद कठिन और अनजान भौगोलिक इलाक़े में ताक़तवर विरोधी समूहों से लादना पड़ेगा, जो बिल्कुल भी आसान नहीं है। यह भी हो सकता है पंजशीर के विद्रोहियों को कहीं से समर्थन मिल जाए।

वर्तमान में तालिबान से टक्कर के लिए पंजशीर अलायंस ख़ुद को अफ़ग़ानिस्तान का राष्ट्रपति घोषित कर चुके अमरुल्ला सालेह के नेतृत्व में मज़बूत करने में जुटा है। वे साफ़ शब्दों में अन्तिम साँस तालिबान से जंग लडऩे का ऐलान कर चुके हैं। उनका यह कहना बहुत मायने रखता है कि देश को कभी तालिबान के हवाले नहीं होने देंगे। सालेह को पाकिस्तान का मुखर विरोधी कहा जाता है, जबकि वे भारत के नज़दीक रहे हैं। दरअसल पंजशीर घाटी अफ़ग़ानिस्तान के 34 प्रान्तों में से एक है। राजधानी काबुल के उत्तर में एक बेहद कठिन घाटी पंजशीर को लेकर कहा जाता है कि वहाँ परिन्दा भी पर नहीं मार सकता। ‘पाँच शेरों की घाटी’ के नाम से विख्यात पंजशीर को लेकर माना जाता है कि 10वीं शताब्दी में एक परिवार के पाँच भाइयों ने गजनी के सुल्तान महमूद के लिए एक बाँध बनाया, जिससे वहाँ तबाही मचाने वाली बाढ़ से लोगों की सम्पत्ति बचाने में मदद मिली। इसके बाद इसका नाम पंजशीर घाटी पड़ गया। वर्तमान में यह घाटी अफ़ग़ानिस्तान के नेशनल रेजिस्टेंस फ्रंट का गढ़ है। देखना है कि तालिबान की घेरेबंदी और दबाव के बावजूद पंजशीर कितनी मज़बूती  से उसका विरोध कर पाता है? रेजिस्टेंस फ्रंट और नॉदर्न अलायंस के ताक़तवर नेता अहमद मसूद पहले ही कुछ देशों से अलायंस की मदद की अपील कर चुके हैं। फ़िलहाल किसी देश से उन्हें मदद का भरोसा अभी नहीं मिला है। लेकिन भविष्य में उन्हें मदद मिलने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता; क्योंकि ऐसे देश हैं, जो तालिबान की बढ़ती ताक़त को कुचलना चाहते हैं।

तालिबान शासन में कौन होगा राष्ट्रपति?

 

अफ़ग़ान में तालिबान के क़ब्ज़े की बाद अब यह सवाल है कि कौन राष्ट्रपति बनेगा? अफ़ग़ानिस्तान में मिली-जुली सरकार बनाने की भी कोशिशें हैं। हालाँकि तालिबान शायद ही इसके लिए राज़ी हो, या फिर सरकार की कमान अपने पास ही रखेगा। तालिबान की सरकार की सूरत और सीरत क्या होगी? अफ़ग़ानिस्तान की हुकूमत प्रेसिडेंट पैलेस से चलती है, जहाँ अब तालिबान का क़ब्ज़ा है। तालिबान के पाँच सबसे ताक़तवर नेताओं में मुल्ला अब्दुल गनी बरादर, हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा, मुल्ला मोहम्मद याक़ूब, सिराजुद्दीन हक़्क़ानी और शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकज़ई हैं। हाल के दिनों में तालिबान नेताओं ने अफ़ग़ानिस्तान के कई बड़े नेताओं के साथ बातचीत की है, जिनमें पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई भी शामिल हैं, जिन्हें पाकिस्तान का क़रीबी कहा जाता है। तालिबान का सबसे बड़ा चेहरा मुल्ला अब्दुल गनी बरादर का है, जो अफ़ग़ानिस्तान आ चुका है। तालिबान के तमाम नीतिगत फ़ैसलों के लिए उसे जानत जाता है। अफ़ग़ानिस्तान के उरुजगान सूबे से ताल्लुक़ रखने वाला बरादर पाकिस्तानी की बदनाम ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई का आदमी माना जाता है। वैसे पाकिस्तान के ख़िलाफ़ उसकी तल्ख़ी भी है; क्योंकि सन् 2010 में उसे आईएसआई ने गिरफ़्तार कर लिया था। कहते हैं इसके पीछे अमेरिका का दबाव था।

आईएसआई ने उसे आठ साल जेल में रखा। बरादर ने ही सन् 1994 में अपने ससुर और अन्य साथियों के साथ मिलकर कंधार में तालिबान की नींव रखी थी। बरादर इसके बाद अफ़ग़ानिस्तान में बनी तालिबान की पहली सरकार में उप रक्षा मंत्री रहा। अमेरिका ने 9 /11 के बाद जब तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान से दर-बदर किया, तो बरादर दोहा चला गया। अब तालिबान का जब अफ़ग़ानिस्तान पर फिर क़ब्ज़ा हो गया है, तो बरादर वापस काबुल लौट आया है। उसे राष्ट्रपति की दौड़ में सबसे आगे माना जाता है।

उसके बाद हिब्तुल्ला अख़ुंदज़ादा तालिबान का सबसे अहम चेहरा है, जो वर्तमान में तालिबान की कमान सँभाल रहा है। सन् 2016 में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे जाने वाले सरगना मुल्ला मंसूर अख़्तर के बाद अख़ुंदज़ादा ने ही तालिबान को सँभाला। उसे बहुत चतुर और लड़ाकों को एकजुट करने में माहिर नेता माना जाता है। अख़ुंदज़ादा को ही तालिबान को टूटने से बचाने का श्रेय दिया जाता है। अफ़ग़ान सेना के कमांडरों तक को अपने साथ मिलाने से उसकी क्षमता का पता चलता है। मज़हबी नेता अख़ुंदज़ादा ने तालिबान की कमान सँभालने के बाद अलक़ायदा प्रमुख अयमान अल जवाहिरी का भी भरोसा जीता है। कहा जाता कि तालिबान के तमाम राजनीतिक, धार्मिक और जंग से जुड़े मामलों पर अन्तिम मुहर अख़ुंदज़ादा की ही लगती है। उसके बाद मुल्ला मोहम्मद याक़ूब का नाम आता है, जो तालिबान बनाने वाले मुल्ला उमर का बेटा है। अभी महज़ 35 साल का याक़ूब तालिबान का सैन्य कमांडर है। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के हर ऑपरेशन का ज़िम्मा उसका रहा है। उसे तालिबान का वास्तविक उत्तराधिकारी कहा जाता है। चौथा नाम सिराजुद्दीन हक़्क़ानी का है, जो तालिबान के टॉप कमांडरों में से एक रहे जलालुद्दीन हक़्क़ानी का बेटा है। हक़्क़ानी नेटवर्क उसी के पास है, जो तालिबान का सहयोगी संगठन है।

पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर तालिबान की वित्तीय और सैन्य सम्पत्ति का ज़िम्मा उसी के पास है। पाकिस्तान का क़रीबी है और उसके सर पर एक करोड़ अमेरिकी डॉलर का इनाम है। तालिबान का पाँचवाँ बड़ा चेहरा शेर मोहम्मद स्तानिकज़ई है। तालिबान की तरफ़ से जब भी किसी से बात की जाती है, तो इसका ज़िम्मा काफ़ी शिक्षित स्तानिकज़ई पर रहता है। कट्टर धार्मिक नेता की छवि वाले स्तानिकज़ई दोहा में अमेरिका के साथ हुए शान्ति समझौते में शामिल था।

देश छोड़ यूएई पहुँचे गनी

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की दस्तक का सबसे दिलचस्प पहलू यह रहा कि तालिबान के राजधानी काबुल पर क़ब्ज़ा करने से पहले ही 15 अगस्त को राष्ट्रपति अशरफ़ गनी इस्तीफ़ा देकर देश छोडक़र यूएई चले गये। उनका दावा है कि ऐसा उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान को ख़ूनी जंग से बचाने के लिए किया।  अगर वह देश में रहते, तो निर्दोष जनता मरती। लेकिन उन पर अब ढेरों आरोप लग रहे हैं। ताजिकिस्तान में अफ़ग़ानिस्तान के राजदूत मोहम्मद ज़हीर अग़बर ने दावा किया है कि राष्ट्रपति अशरफ़ गनी जब अफ़ग़ानिस्तान से भागे, तो वह अपने साथ 169 मिलियन डॉलर (12.67 अरब रुपये) ले गये। उन्होंने तो गनी को गिरफ़्तार करने और उनसे देश की सम्पति वापस लेने तक की माँग कर दी है। लेकिन पूर्व राष्ट्रपति ने पैसे लेकर देश से भागने के आरोपों से इन्कार किया। उन्होंने यूएई से एक वीडियो संदेश जारी कर सफ़ार्इ दी कि वो सिर्फ़ एक जोड़ी कपड़े में अफ़ग़ानिस्तान से निकले हैं। अशरफ़ गनी वैसे जाने-माने मानवविज्ञानी और अर्थशास्त्री रहे हैं। इमर्जिंग मार्केट्स ने सन् 2003 में उन्हें एशिया का सर्वश्रेष्ठ वित्त मंत्री घोषित किया गया था। प्रॉस्पेक्ट मैगजीन ने पूर्व राष्ट्रपति गनी को दुनिया का दूसरा शीर्ष विचारक चुना था। यूएई ने पुष्टि की है कि अरब राष्ट्र ने मानवीय आधार पर राष्ट्रपति अशरफ़ गनी और उनके परिवार का देश में स्वागत किया है।

इधर अग़बर ने एक इंटरव्यू में कहा- ‘अशरफ़ गनी ने अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान को सौंप दिया। हमारे पास 3,50,000 से अधिक ट्रेंड सैनिक और अनुभवी सैन्यकर्मी थे। वे तालिबान से नहीं लड़े। अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी क्षेत्रों में ताजिकिस्तान की सीमा से लगे 20 ज़िले बिना किसी प्रतिरोध के तालिबान के पास चले गये। मुझे लगता है कि गनी का तालिबान के साथ पूर्व समझौता था। उनके दिमाग़ में विश्वासघात की योजना पहले से थी। उन्होंने अपने समर्थकों को छोड़ दिया और अफ़ग़ानिस्तान के लोगों से धोखा किया। मुझे नहीं लगता कि कोई भी सरकार अपने देश के आतंकवादियों के साथ अफ़ग़ानिस्तान में रहने और तालिबान के संरक्षण में काम करने जा रही है। अफ़ग़ानिस्तान ऐसा देश नहीं होना चाहिए, जो पड़ोसी देशों के लिए ख़तरा हो।’

गनी के देश छोडक़र भाग जाने के बाद उनके भाई हशमत गनी अहमदज़र्इ ने तालिबान का समर्थन करने का ऐलान कर दिया। कुचिस की ग्रैंड काउंसिल के प्रमुख हशमत गनी अहमदज़र्इ ने तालिबान नेता ख़लील-उर-रहमान और धार्मिक विद्वान मुफ़्ती महमूद ज़ाकिर की उपस्थिति में तालिबान के लिए समर्थन की घोषणा की। हशमत गनी का साथ मिलने से तालिबान की ताक़त बढ़ सकती है; क्योंकि हशमत अफ़ग़ानिस्तान के प्रभावशाली नेताओं में एक हैं। यह आरोप लगते रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति रहते हुए अशरफ़ गनी ने अपने भाई और एक अमेरिकी ठेकेदार को एक बड़े खनिज प्रसंस्करण का परमिट दिलाने में मदद की थी।

ट्रंप और बाइडन में जंग

  

अफ़ग़ानिस्तान के मसले को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच ही जंग छिड़ गयी है। बाइडन की अफ़ग़ानिस्तान नीति को ट्रंप ने देश के लिए शर्म की स्थिति बताया है, जबकि बाइडन ने कहा अपने फ़ैसले का बचाव किया और अफ़ग़ान सेना पर जमकर बरसे। बाइडन का कहना है कि अमेरिकी सेना ऐसे युद्ध में न लड़ सकती है और न मर सकती है, जिसमें अफ़ग़ान सेनाएँ लडऩे और मरने के लिए तैयार नहीं हैं। राष्ट्रपति ने कहा- ‘हम क़रीब 20 साल पहले स्पष्ट लक्ष्यों के साथ अफ़ग़ानिस्तान गये थे। 11 सितंबर, 2001 को हम पर हमला करने वालों को पकडऩा और यह सुनिश्चित करना कि अलक़ायदा अफ़ग़ानिस्तान को अपने अड्डे के रूप में इस्तेमाल न करे, ताकि हम पर दोबारा हमला न किया जा सके। हमारा मिशन कभी भी राष्ट्र निर्माण नहीं होना चाहिए था।’

वैसे यह दिलचस्प ही है कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका सेना वापस करने का फ़ैसला ट्रंप के ही समय में हुआ था। हालाँकि ट्रंप अब कह रहे हैं कि बाइडन प्रशासन ने जिस तरीक़े से सब कुछ किया, उससे अमेरिका की इज़्ज़त को बट्टा लगा है। वैसे बाइडन ने पहले ही कहा था- ‘मुझे पता है कि अफ़ग़ानिस्तान पर मेरे फ़ैसले की आलोचना की जाएगी। लेकिन मैं इस ज़िम्मेदारी को एक और राष्ट्रपति को सौंपने के बजाय सारी आलोचना को स्वीकार करना चाहूँगा।’

भारत पर क्या होगा तालिबान का असर?

तालिबान ने पहली प्रेस वार्ता में भारत को लेकर कहा कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में जिन योजना पर काम कर रहा था, उसे उन्‍हें वह पूरा कर सकता है; क्योंकि वह अफ़ग़ानिस्तान की अवाम के लिए हैं। लेकिन हम अपनी ज़मीन का इस्तेमाल किसी भी मुल्क को अपना मक़सद पूरा करने या अदावत निकालने के लिए नहीं देंगे। इसमें कोई दो-राय नहीं कि अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान स्थितियों का भारत के हितों पर प्रभाव पड़ेगा। पिछले एक साल में सबसे यह दिखने लगा था कि अमेरिकी सेना वापस जा रही है और तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान आना तय है, भारत सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान में अपनी राजनयिक उपस्थिति को कम करना शुरू कर दिया था। भारत के सामने अब यह सबसे बड़ी चिन्ता है कि तालिबान को मान्यता के मामले पर वह क्या फ़ैसला करे। आज तक कभी भी किसी भारत सरकार ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है। स्थितियों को देखते हुए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने 26 अगस्त को कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों के नेताओं के साथ बैठक करके अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर चर्चा की।

भारत सरकार ने सुरक्षा के मद्देनज़र हेरात और जलालाबाद में अपने मिशन के सभी कर्मचारियों को भारत बुला लिया था, जबकि जुलाई में कंधार और मज़ार-ए-शरीफ़ के वाणिज्य दूतावासों को बन्द कर दिया था। पुलित्जर अवॉर्ड से सम्मानित भारतीय पत्रकार-कैमरामैन दानिश सिद्दीक़ी की कंधार में हत्या कर दी गयी थी। अब अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में भारत ने अपना दूतावास भी बन्द कर दिया है। अगस्त के आख़िर तक भारत 1000 के क़रीब भारतीयों और अन्य लोगों को काबुल से भारत वापस ला चुका है, जिनमें हिन्दू, सिख समुदायों के अलावा मुस्लिम भी शामिल हैं।

तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़े से भारत की सबसे बड़ी चिन्ता वहाँ आतंकी गुटों के मज़बूत होने की है। तालिबान के आने से भारत के पड़ोस में कट्टरपंथ और इस्लामिक आतंकी समूहों के बढऩे का ख़तरा पैदा हो गया है। इनमें लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद शामिल है, जो भारत में ख़ून-ख़राबा करते रहे हैं। कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि तालिबान के आने से अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तानी सेना और उसकी बदनाम ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई का प्रभाव बढ़ जाएगा। भारत के लिए ख़तरा तालिबान के राज में अलक़ायदा के फिर से खड़े होने का भी है। बेशक दोहा समझौते में तालिबान ने अमेरिका से आतंकवाद के ख़िलाफ़ लडऩे का वादा किया था; लेकिन अमेरिकी नेतृत्व को इस पर बिल्कुल भरोसा नहीं है। अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक स्टेट (आईएस) से जुड़े गुट सक्रिय हैं और वे शियाओं पर हमला करते रहे हैं।

पाकिस्तान से तालिबान के रिश्ते पर एक बड़ा पेंच यह है कि वर्तमान में वह पूरी तरह पाकिस्तान पर निर्भर नहीं है। पहले तालिबान पूरी तरह पाकिस्तान के नियंत्रण में था। संगठन का दूसरा सबसे ताक़तवर नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर अख़ुंदज़ादा आठ साल तक पाकिस्तान की जेल में सड़ा है। कहा जाता है कि उसे पाकिस्तानी यातनाएँ झेलनी पड़ीं और वह कभी इस बात को नहीं भूलेगा। तालिबान के इस बार अफ़ग़ानिस्तान पर बिना प्रतिरोध क़ब्ज़ा करने में उसकी अपनी रणनीति रही है और पाकिस्तान का इसमें सहयोग बहुत ज़्यादा नहीं माना जाता। ऐसे में पाकिस्तान के लिए भी यह चिन्ता वाली बात हो सकती है।

भारत ने पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय में अफ़ग़ानिस्तान में ढेरों विकास परियोजनाएँ शुरू की हैं और बड़े पैमाने पर इनमें निवेश किया है। अब इन परियोजनाओं के आगे चलने पर प्रश्नचिह्न लग गया है। क्योंकि अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके पाकिस्तान इन परियोजनाओं को ठप करवा सकता है। पाकिस्तान पहले ही भारत के अफ़ग़ानिस्तान में निवेश से तिलमिलाया रहता था। क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान की जनता इस सहयोग के लिए भारत के नज़दीक रही है, जबकि उसका एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान को नापसन्द करता है। ज़ाहिर है अफ़ग़ानिस्तान में भारत की भूमिका अब लगभग ख़त्म हो जाएगी। तालिबान के आने से अफ़ग़ानिस्तान से कारोबार कराची और ग्वादर बंदरगाह के ज़रिये हो सकता है। लिहाज़ा पाकिस्तान को दरकिनार करने के लिहाज़ा से ईरान के चाबहार बंदरगाह को विकसित करने के लिए किया जा रहा भारत का निवेश अब अव्यावहारिक हो सकता है।

भारत के सामने अब तालिबान सरकार बनने पर उसे मान्यता देने या नहीं देने जैसी मुश्किल चुनौती भी पैदा हो गयी है। यह भी एक बड़ा सवाल है कि क्या भारत को अपना राजदूत वापस अफ़ग़ानिस्तान भेजना चाहिए? कुछ जानकार मानते हैं कि भारत को न केवल राजदूत को वापस भेजना चाहिए, बल्कि सभी सलाहकारों को भी दूतावास में तैनात करना चाहिए। रूस, चीन, इरान और पाकिस्तान के दूतावास अभी तक वहाँ काम कर रहे हैं। इन जानकारों के मुताबिक, भारत को तालिबान के साथ ख़ुद को एंगेज रखना चाहिए। वैसे भारत फ़िलहाल देखो और इंतज़ार करो की रणनीति पर काम कर रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में तस्वीर साफ़ होने में अभी शायद बक़्त लगेगा। बहुत से जानकार मानते हैं कि पुराने तालिबान और नये तालिबान में अंतर है और वह एकतरफ़ा शायद नहीं चलेंगे और वे ख़ुद को विश्व समुदाय से जोडऩा चाहेंगे; क्योंकि नये तालिबान का वैश्वीकरण हो चुका है। तालिबान ने अपनी पहली पत्रकार वार्ता में कहा कि महिलाओं को बु$र्के की जगह हिज़ाब पहनकर काम करने की अनुमति दी जाएगी। अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन को किसी दूसरे देश के उद्देश्यों या उसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल की इजाज़त नहीं होगी। यही नहीं गुरुद्वारे में सिख और हिन्दुओं को भी सुरक्षा का भरोसा उसने दिया। लेकिन तालिबान का पिछले शासन इतना क्रूर रहा है कि लोगों में अभी भी दहशत है। इनमें महिलाएँ भी शामिल हैं।

हालाँकि अफ़ग़ानिस्तान से अभी तक आयी ख़बरें कहती हैं कि तालिबान के लड़ाके लोगों पर ज़ुल्म करने से बाज़ नहीं आ रहे। इसके अलावा शरीयत क़ानून को पूरी तरह लागू करने पर भी तालिबान का ज़ोर है। भारत के लिए सबसे सकारात्मक पहलू यही है कि आम अफ़ग़ानी की भारत के प्रति भावनाएँ बहुत अच्छी रही हैं। पाकिस्तान को वहाँ ज़्यादा पसन्द नहीं किया जाता। निश्चित ही भारत सरकार के लोग अफ़ग़ानिस्तान के हर हालात का ज़मीनी मूल्यांकन कर उसके बाद ही कोई फ़ैसला किया जाएगा। फ़िलहाल तो अफ़ग़ानिस्तान से आने वाली चीज़ें के बन्द होने से भारत में उनके मूल्यों में भारी उछाल आया है, जिनमें सूखे मेवे शामिल हैं।

कुछ जानकार मानते हैं कि हो सकता है भारत भविष्य में अफ़ग़ान नेशनल डिफेंस एंड सिक्योरिटीज फोर्सेज (एएनडीएसएफ) को सम्भवत: ईरान के रास्ते से गोला-बारूद और हवाई सहायता जैसी सैन्य मदद दे। हालाँकि तालिबान प्रवक्ता सुहैल शाहीन भारत को ऐसा करने की स्थिति में गम्भीर नतीजों की धमकी दे चुका है। ऐसे में हो सकता है कि मोदी सरकार के भरोसेमंद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल तालिबान के साथ सम्पर्क बढ़ाने का सुझाव दें। वे अफ़ग़ानिस्तान को लेकर काफ़ी सक्रिय रहे हैं। भारत की कोशिश तालिबान राज में पाकिस्तान की भूमिका को सीमित करने की है।

अमेरिका भी तालिबान के मज़बूत होने का भी कम ज़िम्मेदार नहीं। उसने हाल के वर्षों में तालिबान को पाकिस्‍तान की आर्थिक मदद और हथियारों की आपूर्ति को गम्भीरता से नहीं लिया। यही नहीं, सन् 1990 में भी अमेरिका जब अफ़ग़ानिस्तान से बाहर गया था, तो उसने अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तानी हस्तक्षेप को रोकने की कोई कोशिश नहीं की थी। अमेरिका पाकिस्तान के साथ ज़रूरत से ज़्यादा उदार रहा है। इससे तालिबान को भी ताक़त मिली है। भारत के विरोध के बावजूद अमेरिका ने कभी उसे पाकिस्तान को रोकने की कोशिश नहीं की; क्योंकि सामरिक पार्टनर के रूप में वह पाकिस्तान को महत्त्वपूर्ण मानता रहा है।

काबुल हवाई अड्डे पर अफ़रा-तफ़री

अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद अफ़ग़ानिस्तान से आने वाली तस्वीरें काफ़ी विचलित करने वाली हैं। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के क़ब्ज़े के बाद लोग देश छोडऩे के लिए जान जोखिम में डालते देखे गये। हवा में उड़ते प्लेन से गिरकर तीन लोगों की मौत होने का वीडियो पूरी दुनिया को अफ़सोस और क्षोभ से भर गया। देश छोडऩे के काबुल एयरपोर्ट पर भागते लोगों की तस्वीरें काफ़ी विचलित करने वाली थीं। एक और घटना में काबुल हवाई अड्डे पर भगदड़ और फायरिंग में पाँच लोगों की मौत हो गयी। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक काबुल का एयरपोर्ट अमेरिका सेना के नियंत्रण में था। काबुल से ही आयी- एक मासूम बच्चे की एक और तस्वीर काफ़ी वायरल हुई, जिसमें अफ़ग़ानी काँटों की तार से लिपटीं दीवार के पार अमेरिकी सैनिकों को सौंप रही हैं, ताकि उसकी जान बच सके। ख़बरें आईएन कि हवाई अड्डे पर फँसे लोग अपने बच्चों को नाटो सैनिकों के हवाले कर रहे थे। लोगों का कहना है कि अगर अमेरिकी या नाटो सैनिक हमें लेकर नहीं जा सकते, तो हमारे बच्चों को लेकर जाएँ। पेंटागन के प्रवक्ता जॉन कर्बी ने भी बताया कि अभिभावकों ने सैनिकों से बच्चे की देखभाल को कहा; क्योंकि वह बीमार था और इसलिए सैनिकों ने उसे दीवार के ऊपर से ले लिया। वहाँ से हवाई अड्डे पर स्थित नॉर्वे के अस्पताल ले जाया गया। वहाँ पर बच्चे का इलाज करके पिता को लौटा दिया गया।

  अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान स्थिति के लिए धूर्त पाकिस्तान ज़िम्मेदार है। पाक के कारण ही अमेरिका की अफ़ग़ान नीति फेल हुई है। हम इस स्थिति में कैसे आये, इस पर कुछ भी कहना आसान नहीं है। पिछले 20 साल में उत्पन्न हुए विभिन्न कारण इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। इन हालात के ठोस कारणों को अब जानना ज़रूरी हो गया है। अफ़ग़ान संकट ख़ुफ़िया और कूटनीति की विफलता के कारण भी पैदा हुआ है। पाकिस्तान ने भरोसे को क़ायम करते हुए कार्य किया होता, तो आज इन स्थितियों को नहीं देखना पड़ता।

जैक रीड, वरिष्ठ अमेरिकी सीनेटर

 

 हम अपने हीरो अहमद शाह मसूद की विरासत के साथ धोखा नहीं कर सकते। हम आख़िरी साँस तक तालिबान से लड़ेंगे। अफ़ग़ानिस्तान से मेरी आत्मा को सिर्फ़ अल्लाह ही अलग कर सकता है; लेकिन मेरे अवशेष हमेशा यहाँ की मिट्टी से जुड़े रहेंगे। तालिबान अंदराब घाटी में खाना और ईंधन नहीं आने दे रहा है। मानवीय स्थिति बेहद ख़राब हो चुकी है। हज़ारों महिलाएँ और बच्चे पहाड़ों को छोडक़र जा चुके हैं। दो दिनों में तालिबान ने बच्चों और बुज़ुर्गों को अगवा किया है। आतंकी इनका इस्तेमाल ढाल की तरह कर रहे हैं, ताकि वे खुलेआम घूम सकें और घर-घर जाकर तलाशी ले सकें।

अमरुल्ला सालेह, अफ़ग़ानिस्तान के स्वघोषित राष्ट्रपति

 

 फ़िलहाल हमारा फोकस इस युद्धग्रस्‍त देश में मौज़ूद भारतीय नागरिकों की सुरक्षा और सुरक्षित वापसी पर है। जहाँ तक तालिबान नेतृत्‍व की बात है, अभी शुरुआती दिन हैं। इस समय हम काबुल के हालात पर ध्‍यान दे रहे हैं। तालिबान और इसके प्रतिनिधि काबुल पहुँच गये हैं। इसलिए मुझे लगता है कि हमें चीज़ें को वहाँ से शुरू करने की ज़रूरत है। अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के साथ ऐतिहासिक सम्बन्ध जारी हैं। यह आने वाले दिनों में हमारे दृष्टिकोण का निर्धारण करेगा। हमारा फोकस वहाँ मौज़ूद भारतीय लोगों की सुरक्षा पर हैं।

एस. जयशंकर

विदेश मंत्री, भारत

सीबीआई सुलझा पाएगी धनबाद में हुई न्यायाधीश की मौत की गुत्थी!

तकनीक और इनाम के भरोसे आगे बढ़ रही सीबीआई के हाथ अब तक ख़ाली, गहन जाँच में लगे अफ़सर

झारखण्ड की राजधानी धनबाद शहर पूरे देश में कोयले के कारण विख्यात है। कोल नगरी से जाना जाने वाला यह शहर कोयले के साथ-साथ कुछ बाहुबलियों की वजह से भी देश में गाहे-ब-गाहे सुर्ख़ियों में रहा है। इन दिनों धनबाद के एडिशनल डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन न्यायाधीश उत्तम आनंद की ‘संदेहास्पद मौत’ और ‘पुलिस के मुताबिक हत्या’ के कारण धनबाद एक बार फिर पूरे देश में चर्चा में है।

28 जुलाई, 2021 की सुबह एक ऑटो के टक्कर मारने से एडीजे उत्तम आनंद की मौत हो जाती है। यह मौत उनके परिजनों और पुलिस के द्वारा हत्या क़रार दी गयी है। हादसे की तस्वीरें सीसीटीवी कैमरे में क़ैद हो जाती हैं। कुछ ही घंटों में वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो जाता है। पुलिस की तफ़्तीश हिट एंड रन से बदलकर हत्या के रूप में शुरू हो जाती है। हाई प्रोफाइल मामला होने के कारण राज्य सरकार द्वारा आनन-फ़ानन में एसआईटी का गठन किया गया। न्यायाधीश की इस सन्देहास्पद मौत को सर्वोच्च न्यायालय और झारखण्ड उच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लिया है। मामले की जाँच सीबीआई के हवाले कर दिया गया है। सीबीआई के हवाले जाते ही इस मामले के ख़ुलासे की एक उम्मीद जगी है। पर सीबीआई की आरम्भिक जाँच की कार्रवाई से मामले की गुत्थी को फ़िलहाल सुलझाती नहीं दिख रही है। अभी तक सीबीआई के हाथ ख़ाली हैं। सीबीआई के हाथ अभी तक कुछ ख़ास नहीं मिला है, जिससे इसके ख़ुलासे के आसार दिखायी दें। फ़िलहाल सीबीआई ने मामले को सुलझाने के लिए सूचनादाताओं को पाँच लाख रुपये का इनाम देने की घोषणा की है। सीबीआई अब तक पकड़े गये दो आरोपियों के सत्य परीक्षण (ब्रेन मैपिंग) जाँच के लिए अहमदाबाद लेकर गयी है।

हत्या या हादसा?

पहले 28 जुलाई, 2021 की उस मनहूस सुबह पर आते हैं। एडीजे उत्तम आनंद प्रतिदिन की तरह अपने आवास से सुबह सैर के लिए निकलते हैं। सडक़ के किनारे चल रहे न्यायाधीश की एक ऑटो की टक्कर से मौक़े पर मौत हो जाती है। प्रथम दृष्टया यह हिट एंड रन का मामला लगता है। पर सीसीटीवी फुटेज देखने पर न्यायाधीश की सुनियोजित हत्या की ओर इशारा मिलता है। सीसीटीवी फुटेज में दिख रहा है कि एडीजे उत्तम आनंद सडक़ की बायीं ओर चहलक़दमीकरते जा रहे हैं। पूरी सडक़ ख़ाली पड़ी है। उनके पीछे बीच सडक़ पर चलता हुआ एक ऑटो आता दिखता है। वह ऑटो अचानक बायीं ओर मुड़ जाता है और न्यायाधीश को पीछे से धक्का मारता है। फिर पथ (लेन) बदलकर बीच सडक़ होते हुए निकल जाता है। न्यायाधीश उत्तम आनंद वहीं गिर जाते हैं। सुबह की सैर से घर नहीं लौटने पर घर वाले परेशान हो जाते हैं। उनकी खोजबीन शुरू होती है और अंतत: न्यायाधीश के साथ हुए हादसे का ख़ुलासा होता है। एक न्यायाधीश से मामला सम्बन्धित होने के कारण पुलिस तुरन्त हरकत में आती है। पुलिस आईपीसी की धारा-302 के तहत हत्या का मुक़दमा दर्ज कर मामले की तफ़्तीश शुरू कर देती है। अगले दिन की सुबह ही पुलिस को सफलता मिली। ऑटो बरामद हुआ और हत्या में शामिल ऑटो चालक लखन वर्मा और उसका सहयोगी राहुल वर्मा को गिरफ़्तार कर लिया जाता है।

उधर झारखण्ड सरकार भी एसआईटी का गठन कर देती है। हत्यारे के गिरफ़्तारी के बाद लगा कि मामला सुलझ गया; पर ऐसा नहीं हुआ। एसआईटी और पुलिस को कुछ भी हाथ नहीं लगा। हत्या में सबसे अहम होता है- हत्या का मक़सद। दोनों की गिरफ़्तारी के बाद भी हत्या का मक़सद पता नहीं चला। यहाँ तक कि दोनों आरोपियों ने एडीजे उत्तम आनंद को जानने से भी इन्कार कर दिया। नतीजतन पुलिस के सामने हत्या या हादसा यह पहेली अनसुलझी ही रही।

बयान भी नहीं आया काम

ऑटो ड्राइवर लखन वर्मा और उसका सहयोगी राहुल वर्मा ने नशे में होने की बात कही। सूत्रों के अनुसार पूछताछ में उन्होंने क़ुबूल किया कि जिस ऑटो को वह चला रहे थे, उससे एडीजी को टक्कर लगी थी। उन्होंने कहा कि एडीजी का हत्या नहीं किया। नशे में उनसे दुर्घटना हो गयी, जिसमें एडीजे साहब की जान चली गयी। इस बीच पुलिस ने ऑटो मालिक का पता कर लिया। ऑटो के मालिक रामदेव लोहार से पुलिस ने पूछताछ शुरू की। सूत्रों के मुताबिक, उसने कहा कि एडीजे की हत्या की तो उसे कोई जानकारी ही नहीं है। क्योंकि उसका ऑटो घटना से तीन दिन पहले ही चोरी हो गया था। वह तीन दिनों से थाने के चक्कर काट-काटकर थक चुका था। तब घटना वाले दिन ऑटो चोरी की रिपोर्ट लिखाने में कामयाब हो सका। यानी मामला फिर वहीं का वहीं पहुँच गया।

अब तक जो बयान सामने आये हैं, उससे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। न ही हत्या का कारण का पता चल पाया और न ही इसके पीछे के मस्टर माइंड का अता-पता चला। क्योंकि एक बात तो तय है कि अगर यह हत्या है, तो कम-से-कम केवल एक ऑटो चालक की इसमें भूमिका नहीं हो सकती है।

अपराधियों पर नकेल

इस हत्याकांड के बाद धनबाद पुलिस ने अपराधियों पर नकेल कसनी शुरू की। सूत्रों की मानें तो अब तक 275 छोटे-बड़े बदमाशों को हिरासत में लेकर पूछताछ की गयी। कई अपराधियों को अलग-अलग मामले में जेल के अन्दर डाला गया। लेकिन सच्चाई यही है कि इतना सब कुछ करने के बावजूद न तो अब तक हत्या का मक़सद तक नहीं पता चला। मामला हाई प्रोफाइल होने और देश की सबसे बड़ी न्यायालय की भी इस पर नज़र होने के कारण कोई भी पुलिस अधिकारी टिप्पणी नहीं करना चाहता है। पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा केवल सीसीटीवी फुटेज से ऐसा लग रहा कि मामला हत्या का है। इसके अलावा अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं सामने आया है, जिससे मामले को हत्या कहा जा सके। सम्भव है कि यह हत्या का मामला न हो। सही में नशे में टक्कर मारकर भागने का मामला हो।

सीबीआई जाँच कहाँ तक?

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के स्वत: संज्ञान लेने के बाद मामले में किसी स्तर पर लापरवाही सम्भव नहीं रह गया। झारखण्ड सरकार ने 31 जुलाई को सीबीआई जाँच की सिफ़ारिश की। सीबीआई ने 4 अगस्त को केस दर्ज कर लिया। सीबीआई अधिकारियों ने धनबाद पुलिस और एसआईटी से सारी जानकारी ली। फिर शुरू हुई सीबीआई की तफ़्तीश। सीबीआई दल धनबाद में जिस जगह एडीजे उत्तम आनंद की हत्या हुई थी, वहाँ पहुँची। दल द्वारा दुर्घटना के दृश्य को फिर से समझा गया। इसकी वीडियोग्राफी भी की गयी।

सूत्रों के मुताबिक, गिरफ़्तार दोनों आरोपियों से बातचीत में पुरानी बात निकलकर सामने आयी। इस बीच एडीजे उत्तम आनंद का पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी आ गयी। रिपोर्ट के मुताबिक, सिर पर गम्भीर चोट लगने की वजह से न्यायाधीश की मौत हुई। उनका जबड़ा टूटा हुआ था। सिर की हड्डी कई जगहों से टूटी हुई थी। इसके अलावा शरीर पर तीन जगह बाहरी, जबकि सात जगह अंदरूनी चोटें थीं। सीबीआई के सामने कई सवाल खड़े हैं। हत्या का कारण क्या है? लखन, राहुल और रामदेव के बयान सच हैं या झूठ? अगर सच नहीं हैं, तो क्या एडीजे की मौत के पीछे कोई गहरी साज़िश है? इस हत्याकांड का मास्टरमाइंड कोई और तो नहीं है? क्या ऑटो ड्राइवर उस साज़िश के मोहरे हैं? सीबीआई इन सवालों का जवाब तलाशने के लिए हाथ-पैर मार रही है।

न्यायालय कर रहा निगरानी

झारखण्ड उच्च न्यायालय मामले पर नज़र रख रही है। न्यायालय लगातार निगरानी कर रहा है। इसी क्रम में 19 अगस्त को न्यायाधीश हत्या कांड मामले पर सुनवाई हुई। उच्च न्यायालय ने मामले की जाँच कर रही सीबीआई की विशेष टीम से एफएसएल रिपोर्ट पेश करने को कहा। सीबीआई ने न्यायालय को बताया कि अभियुक्तों की मूत्र और ख़ून के नमूने विश्लेषण के लिए पिछले सप्ताह ही एफएसएल को भेजे गये थे। लेकिन यह कहते हुए उन्हें लौटा दिया गया कि यहाँ इसकी सुविधा नहीं है। कोई विशेषज्ञ भी नहीं है। इसलिए हमारी टीम एफएसएल की रिपोर्ट नहीं ला सकी। न्यायालय ने इसे बेहद ही शर्मनाक बताते हुए कहा कि एफएसएल में रांची में यूरीन एनालिसिस की सुविधा तक नहीं है? न्यायालय ने मामले में गहरी नाराज़गी जताते हुए 27 अगस्त को राज्य के गृह सचिव और एफएसएल के निदेशक को हाज़िर होने का आदेश दिया है।

इनाम का ऐलान

एडीजे उत्तम आनंद की हत्या की गुत्थी सुलझाने के लिए सीबीआई हर फार्मूला अपना रही है। सीबीआई वैज्ञानिक टेस्ट की ओर बढ़ी, तो हत्यारा का सुराग़ देने के लिए इनाम की भी घोषणा की है। सीबीआई की टीम ने 10 दिन के रिमांड पर मामले के आरोपित ऑटो चालक लखन वर्मा और उसका सहयोगी राहुल वर्मा को लिया है। दोनों का वैज्ञानिक तरीक़े से जाँच कराने के लिए 16 अगस्त को दिल्ली लेकर गयी है। अब इनका लाई डिटेक्टर, ब्रेन मैपिंग, पॉलीग्राफ, नार्को टेस्ट, सस्पेक्ट डिटेंसन, लायर्ड वॉइस एनालाइजिंग और ब्रेन इक्ट्रिकल ऑक्सीलेशन आदि कई तरह के वैज्ञानिक जाँचें (साइनटिफिक टेस्ट) करायी जाएँगी। इस बीच सीबीआई ने साज़िश का पता लगाने के लिए पाँच लाख रुपये के इनाम की घोषणा की है।

शक की सुई किधर?

इतिहास गवाह है कि कोयलांचल क्षेत्र बहुबालियों का शहर रहा है। धनबाद, बोकारो, चास, झरिया आदि क्षेत्र आज से नहीं आज़ादी के पूर्व से ही हत्या, अपहरण, गैंगवार, गोलीबारी आदि आपराधिक घटनाओं का गढ़ रहा है। फ़िल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर में बहुत अच्छे तरीक़े से इस क्षेत्र में बहुबालियों के दबिश और अपराधियों का बोलवाला दिखाया गया है। इस क्षेत्र में यह सब कमोबेश आज भी बरक़रार है। लिहाज़ा एडीजे आनंद उत्तम आनंद की हत्या होने की बात को सीधे नकारा भी नहीं जा सकता है। सवाल है कि आख़िर न्यायाधीश उत्तम आनंद का दुश्मन कौन हो सकता है? कहीं उनसे दुश्मनी की वजह पेशे से जुड़ी तो नहीं? सूत्रों की मानें तो फ़िलहाल शक की सुई तो इसी तरफ़ जा रही है कि एडीजे उत्तम आनंद कुछ बड़े मामलों में आरोपी की जमानत अर्जी पर सुनवाई कर रहे थे।

हाल के दिनों में उन्होंने कुछ जमानत अर्जी ख़ारिज भी की थी। सम्भव है कि उनकी हत्या के पीछे यही कारण रहा हो। अगर ऐसा कुछ मामला सामने आता है, तो एक बात निश्चित है कि ऑटो चालक और उसका साथी एक मोहरा ही था, मास्टर माइंड कोई और है। क्योंकि ऑटो चालक और उसके साथी का एडीजे के पास चल रहे मामले से सीधा कोई सम्बन्ध, तो फ़िलहाल नहीं दिख रहा। सीबीआई को हत्या के कारण और उस मास्टर माइंड तक पहुँचना होगा। अभी तक की तफ़्तीश से गुत्थी आसानी से सुलझता हुआ नहीं दिख रहा। सीबीआई के सामने सुबूतों के साथ इस गुत्थी को सुलझाना एक चुनौती से कम नहीं है।

सुनंदा पुष्कर की रहस्यमय मौत और यातना भरे साढ़े सात साल

आख़िर सुनंदा पुष्कर की मौत के मामले में 18 अगस्त को राउज एवेन्यू अदालत ने फ़ैसला सुना दिया। इसमें आरोपी को आत्महत्या के लिए उकसाने और क्रूरता करने के आरोपों से बरी कर दिया गया। फ़ैसले के कुछ मिनट बाद ही आरोपी रहे कांग्रेस नेता शशि थरूर, जो सांसद भी हैं; ने ट्वीट में कहा- ‘यह उस लम्बे दु:स्वप्न का महत्त्वपूर्ण अन्त है, जिसने मुझे मेरी पत्नी सुनंदा के दु:खद निधन के बाद घेर लिया था।’

इससे सुनंदा पुष्कर की रहस्यमयी मौत के मामले से पर्दा हट जाता है। कांग्रेस नेता थरूर ने लिखा- ‘भारतीय न्यायपालिका में अपने दृढ़ विश्वास के कारण मैंने दर्ज़नों निराधार आरोपों और मीडिया की तरफ़ से की गयी बदनामी को धैर्यपूर्वक झेला है, और आज सही साबित हुआ हूँ। हमारी न्याय प्रणाली में प्रक्रिया अक्सर सज़ा होती है। फिर भी, यह तथ्य कि न्याय किया गया है। यह परिवार में हम सभी को सुनंदा की आत्मा को शान्ति की प्रार्थना करने की अनुमति देगा।

आरोप मेरे लिए साढ़े सात साल की कठिन यंत्रणा थी।’ बता दें कि पूर्व केंद्रीय मंत्री पुष्कर पर उनकी पत्नी की 2014 में संदिग्ध हालात में मृत्यु हो जाने के बाद आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप लगाया गया था। कांग्रेस नेता पर दिल्ली पुलिस ने धारा 498-ए (एक महिला के साथ पति या रिश्तेदार के क्रूरता करने) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा-306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत आरोप पत्र दायर किया था।

वर्चुअल सुनवाई में मौज़ूद वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने आदेश सुनाये जाने के कुछ क्षण बाद कहा- ‘मैं बहुत आभारी हूँ। साढ़े सात साल हो गये और यह यातना भरा समय था।’ विदित हो कि इस मामले में दिल्ली में राउज एवेन्यू अदालत ने थरूर को क्लीन चिट दे दी। न्यायाधीश गीतांजलि गोयल ने कहा- ‘आरोपी को बरी किया जाता है।’

आरोप थे कि प्रारम्भिक पोस्टमार्टम रिपोर्ट तैयार करने वाले डॉक्टर परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर भरोसा करके अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर चले गये। ग़ौरतलब है कि मनोवैज्ञानिक शव परीक्षण रिपोर्ट सहित विभिन्न मेडिकल बोर्डों की सभी रिपोट्र्स ने शशि थरूर को हत्या या आत्महत्या के आरोपों से बरी कर दिया था। थरूर पर उनकी पत्नी सुनंदा पुष्कर की मौत के मामले में एक महिला के साथ क्रूरता और आत्महत्या के लिए उकसाने की धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया था।

सुनंदा पुष्कर 17 जनवरी, 2014 की रात शहर के एक लग्जरी होटल के एक कमरे में मृत पायी गयी थीं। दिल्ली पुलिस के मुताबिक, सुनंदा पुष्कर के पति कांग्रेस सांसद शशि थरूर इस मामले में मुख्य आरोपी थे। मई, 2018 को मंत्री थरूर, जिन्हें बाद में मामले में जमानत मिल गयी थी; के ख़िलाफ़ दिल्ली पुलिस ने धारा-498(ए) और 306 (दुष्प्रेरण) केतहत आरोप पत्र दायर किया था। लोक अभियोजक अतुल श्रीवास्तव ने अदालत में ज़ोर देकर कहा कि सुनंदा पुष्कर मानसिक क्रूरता से गुज़री हैं, जिस कारण उनका स्वास्थ्य ख़राब हो गया। लोक अभियोजक ने यह भी तर्क दिया कि यह एक आकस्मिक मृत्यु नहीं थी और पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट बताती है कि मौत का कारण ज़हर है, जो खाने-पीने या इंजेक्शन के द्वारा दिया हो सकता है। उन्होंने आरोप लगाया कि पुष्कर से मानसिक क्रूरता के कारण उनका स्वास्थ्य ख़राब हो गया। हालाँकि उन्हें पहले किसी भी स्वास्थ्य समस्या का सामना नहीं करना पड़ा था और तनाव और विश्वासघात के कारण उनकी समस्याएँ शुरू हुईं।

हालाँकि सुनंदा के बेटे ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-161 के तहत बयान दर्ज किया। इसमें उन्होंने कहा कि एम्स के मुर्दाघर में मैंने पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर से मौत के मामले के बारे में पूछा, तो उसने (डॉक्टर ने) जवाब दिया कि किसी षड्यंत्र या ज़हर देने की कोई सम्भावना नहीं है। लेकिन वही डॉक्टर बाद में मीडिया में चला गया और कहा कि मौत ज़हर के कारण हुई है। बेटे ने यह भी कहा कि शशि एक मक्खी तक को नुक़सान नहीं पहुँचा सकते हैं।

बाहरी चोलों का भ्रम

कोई भी बच्चा जन्म लेने के बाद दो-ढाई साल तक न तो उस मज़हब के बारे में जानता है, जो उसे जीवन में उसके कुल, समाज के लोग अख़्तियार करना सिखाते हैं और न किसी दूसरे मज़हब के बारे में ही जानता है। शिशु अवस्था में उसे जाति, देश, सीमा, अपने-पराये, अच्छे-बुरे, मित्र-शत्रु की भी कोई पहचान नहीं होती। उसके लिए सब नया, अचम्भित-विस्मित करने वाला और सब कुछ वरण योग्य होता है। इसीलिए शिशु को परमहंस कहा गया है। यह भी कहा जाता है कि बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं।

यह धारणा यूँ ही नहीं उपजी, बल्कि यह एक ऐसा सत्य है, जिसे इंसान बड़ा होकर भी नहीं समझ पाता। वह जितना दुनियावी ज्ञान प्राप्त करता जाता है, उतना ही मज़हब, ज़ात-पात, ऊँच-नीच, भेदभाव, अपने-पराये और छल-कपट की दलदल में फँसता चला जाता है। अगर उसे इंसान बनने के बजाय कट्टरपंथी बनाया जाए, तो वह चालाक, धूर्त, पापी, अत्याचारी, क्रोधी, लालची, कामुक, स्वार्थी, डरपोक, अहंकारी और अधर्मी होता चला जाता है।

अगर कुछ बच्चों को जन्म लेते ही ऐसी परवरिश में बड़ा किया जाए, जहाँ उन्हें किसी मज़हब, ज़ात के बारे में कभी न बताया जाए और ईष्र्या, घृणा, क्रोध, लोभ-लालच, अहंकार, काम-वासना से दूर रखा जाए, तो न तो उन्हें कभी किसी मज़हब, ज़ात से मतलब होगा और न वे दुर्गुणों से भरे इंसान बनेंगे। लेकिन वहीं अगर किसी शिशु को जन्म से ही धार्मिक कट्टरता, जातिवादी, न$फरती, क्रोधी, लालची, अहंकारी और कामुक बनाया जाए, तो वह मानव समाज के लिए ख़तरा ही बनेगा। यहाँ तक कि अगर किसी शिशु को बोलना भी न सिखाया जाए, तो वह गूँगों जैसा व्यवहार वाला भी हो सकता है।

इसका मतलब यह हुआ कि बच्चे सब कुछ वही सीखते हैं, जो उनके आसपास से उन्हें सीखने को मिलता है। उसी के अनुसार उनका बर्ताव होता है। इसे हम संस्कार भी कहते हैं। यही वजह है कि संस्कारों को हर कोई महत्त्व देता है। आज दुनिया में जितने भी मज़हब हैं, सभी में अलग-अलग तरीक़े से ही सही, लेकिन बच्चे के जन्म से ही उसे संस्कार दिये जाते हैं; ताकि उसमें विकृत्ति पैदा न हो। अगर आज की पीढ़ी में विकृत्तियाँ पैदा हो रही हैं, तो इसके पीछे संस्कारों की कमी तो है ही, उससे बड़ी वजह यह है कि आज लोग अपने बच्चों में संस्कारों के नाम पर सिर्फ़ और सिर्फ़ मज़हबी होना सिखाते हैं। यही वजह है कि बड़े होकर अधिकतर बच्चे संस्कारी कम, धार्मिक ज़्यादा हो जाते हैं। अगर उन्हें केवल धार्मिकता सिखायी जाती, तो भी काफ़ी हद तक ठीक था; लेकिन उन्हें धार्मिक कट्टरता सिखायी जा रही है। कुछ ख़ास धार्मिक संगठन, जिन्हें कट्टरवादी संगठन कहना ग़लत नहीं होगा; आज की पीढ़ी को यही सब सिखा रहे हैं। ऐसे संगठन हर मज़हब में हैं।

एक सच्चाई यह है कि कट्टरवाद से लोग उन्मादी हो जाते हैं, जिससे धर्म के रास्ते ख़ून भरे और लोगों के हाथ ख़ून सने हो जाते हैं। आज की पीढ़ी के अधिकतर युवा इसी रास्ते पर चल पड़े हैं। दूसरी सच्चाई यह है कि इंसान का जन्म एक ही तरह से बिना किसी मज़हब की पहचान के होता है। जब कोई बच्चा कहीं भी जन्म लेता है, तो उसे किसी भी चीज़ का ज्ञान नहीं होता और न ही उसे देखकर कोई उसके मज़हब के बारे में बता सकता है। उसे उसका परिवार और परिवार से जुड़े लोग ही मज़हबी पहचान देते हैं। यह पहचान उसके ऊपरी लिबास से तय की जाती है। जिसे वह युवा होते-होते शारीरिक बनावट की शक्ल दे देता है। इस शक्ल को बड़ी आसानी से बदला जा सकता है। उदाहरण के लिए अगर कोई सनातनी दूसरे धर्म जैसा दिखना चाहे, तो बड़ी आसानी से दिख सकता है। इसी तरह अगर कोई दूसरे मज़हब का व्यक्ति अपनी वेशभूषा बदल ले, तो वह उसी मज़हब का दिखेगा, जैसी वेशभूषा उसने पहन ली हो। इससे साफ़ है कि कोई भी इंसान पैदाइशी किसी मज़हब विशेष का नहीं होता, उसे उस मज़हब के लोग जन्म लेने के आधार पर मज़हबी बनाते हैं। कई बार कुछ लोग जिस मज़हब में पैदा होते हैं, उसे छोडक़र दूसरे मज़हब को स्वीकार कर लेते हैं। इसका मतलब यह है कि अगर किसी इंसान को कोई मज़हब पसन्द नहीं है या वह उस मज़हब से सन्तुष्ट नहीं है, तो उसे बदल सकता है। उसे छोड़ भी सकता है। या फिर सभी मज़हबों से हमेशा के लिए दूरी बना सकता है। मतलब उन्हें नापसन्द कर सकता है।

आज तक बहुत-से लोगों ने ऐसा किया है और भविष्य में भी करेंगे। क्या इसके लिए किसी को ईश्वर सज़ा देगा? क्या मज़हबों में इसके लिए किसी के लिए कोई सज़ा है? नहीं न! क्योंकि न तो कोई मज़हब जबरन किसी को अपनी बात मनवाने के लिए प्रतिबद्ध है न ही ईश्वर के लिए लोग अलग-अलग हैं। फिर ये नफ़रत, ये बैर, ये कट्टरता क्यों? और किसके लिए? क्या ऐसा करने की कोई मज़हब इजाज़त या शिक्षा देता है? फिर भी लोग आपस में मज़हबी दीवारों में बँटे हुए हैं और आपस में लडऩे-मरने को तैयार हैं। क्यों? यह बात किसी को भी नहीं मालूम। इसका मतलब यह है कि लोग सिर्फ़ यह समझते हैं कि अगर वे अपने मज़हब को साथ कट्टरता से जुड़े रहेंगे, तो उन्हें स्वर्ग मिलेगा। लेकिन वे यह नहीं समझते कि जिस रास्ते पर वे चल रहे हैं, वह रास्ता उनके और उनकी नस्लों के लिए स्वर्ग नहीं, नरक का रास्ता तैयार कर रहा है। मरने के बाद को तो पता नहीं, जीते जी तो पक्का।

ख़तरे की आहट, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान शासन भारत सहित पड़ोसी देशों के लिए बड़ी चुनौती!

देखते-ही-देखते पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का क़ब्ज़ा हो गया। इतनी जल्दी और आराम से कि हर कोई हैरान है। भारत तालिबान को मान्यता देगा या नहीं? इस पर भी नज़र रहेगी। क्योंकि आज तक कभी भारत ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है। चीन सरकार एक आतंकी संगठन को समर्थन देती दिख रही है; जबकि पाकिस्तान ने तालिबान को ताक़त दी है। जो स्थितियाँ तालिबान के आने से बनी हैं, उनका भारत पर भी असर पडऩा लाज़िमी है। हालाँकि भारत फ़िलहाल ‘देखो और इंतज़ार करो’ की नीति पर चल रहा है। क्या तालिबान सभी के लिए ख़तरा बनेगा या अपना स्वरूप बदलेगा? बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

जिस अफ़ग़ानिस्तान में हम पीढिय़ों से रह रहे हैं, वहाँ हम एक ऐसी स्थिति देख रहे हैं, जो हमने पहले कभी नहीं देखी। सब कुछ ख़त्म हो गया। लोगों की ज़िन्दगी ख़त्म हो गयी। 20 साल से बनी सरकार टूट गयी। सब कुछ शून्य हो गया। यह शब्द हैं- काबुल से जान बचाकर भारत पहुँचे अफ़ग़ानिस्तान के सिख सीनेटर नरेंद्र सिंह खालसा के। खालसा अकेले नहीं हैं, जो मानते हैं कि तालिबान के आने से अफ़ग़ानिस्तान बर्बाद हो गया। क्योंकि वहाँ अब तालिबानी अपने अत्याचार से आम नागरिकों और महिलाओं का जीना हराम कर देंगे; भले फ़िलहाल वे अच्छा होने का नाटक कर रहे हों। यह अफ़ग़ानिस्तान का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है- अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद उसका दूसरे देशों पर होने वाला असर, जिनमें भारत भी शामिल है। पाकिस्तान के तालिबान से मज़बूत रिश्ते रहे हैं। यही नहीं अफ़ग़ानिस्तान में चीन का तालिबान को समर्थन भी एक ख़तरनाक गठजोड़ है। चीन ने तालिबान को मान्यता दे दी है, जबकि अभी तक वहाँ उनकी सरकार बनी ही नहीं है। उधर अफ़ग़ानिस्तान की पंजशीर घाटी, जहाँ तालिबान का कभी क़ब्ज़ा नहीं हो पाया है; में नॉर्थर्न एलायंस की तरफ़ से तालिबान के हथियारबंद विरोध की ज़मीन तैयार हो रही है, जो देश को गृह युद्ध की तरफ़ धकेल सकती है। क्योंकि आम जनता में भी तालिबान का विरोध देखने को मिल रहा है। तालिबान ने अमेरिका को 31 अगस्त तक देश छोडऩे की चेतावनी दी हुई है और यदि अमेरिका वहाँ से जाने से इन्कार करता है, तो यह भी संघर्ष का रास्ता खोल सकता है। सबसे बड़ा सवाल यही पैदा होता है कि इतने बड़े अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान ने इतनी जल्दी और इतनी आसानी से क़ब्ज़ा कैसे कर लिया?

अफ़ग़ानिस्तान में वैसे अमेरिका से लेकर ब्रिटेन और सोवियत संघ सहित दुनिया की कई शक्तियाँ हारकर लौट चुकी हैं। यहाँ तक कि तालिबान भी एक बार अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करके देश छोडऩे को मजबूर हो चुका है। अफ़ग़ानिस्तान पर सन् 1996 से सन् 2001 तक तालिबान का राज रहा। लेकिन 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले से बिफरे अमेरिका की अगुवाई में मित्र देशों की साझी सेना ने अफ़ग़ानिस्तान में उनका शासन ख़त्म कर दिया था। अब अमेरिका ने भी अफ़ग़ानिस्तान को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। यह इतना गम्भीर मसला है कि अमेरिका में इसे लेकर लोग बँटे नज़र आ रहे हैं और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप खुलकर जो बाइडन के ख़िलाफ़ आ चुके हैं।

अफ़ग़ानिस्तान की तस्वीर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद भयावह दिखने लगी है। क्योंकि वहाँ आतंकी तबाही काबुल में तीन बम धमाकों के साथ शुरू हो चुकी है। इन धमाकों में 100 से ज़्यादा लोग मारे गये और क़रीब 150 लोग घायल हुए। मारे गये लोगों में 90 लोग अफ़ग़ानी नागरिक और एक दर्ज़न से ज़्यादा अमेरिकी सैनिक हैं। आम लोगों पर तालिबान के पहले शासन के ज़ुल्म की कहानियाँ दोहराये जाने की ख़बरें बहुत तेज़ी से आ रही हैं। महिलाओं में ख़ौफ़ है और उन्हें लगता है कि तालिबान उन पर सख़्त पाबंदियाँ लगाकार उनका जीना हराम कर सकता है। बेशक अभी तालिबान के प्रवक्ता ख़ुद को ‘नया तालिबान’ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं; लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त इससे अलग है। हाल के 20 दिनों में तालिबान ने काबुल में घर-घर की तलाशी ली है। अन्य प्रान्तों में भी यही हालत है।

अफ़ग़ानिस्तान से बचकर भारत पहुँचे लोगों ने जो बताया है, वह तालिबान के दावे के विपरीत है और ज़मीनी हक़ीक़त को बयाँ करता है। अफ़ग़ानिस्तान से लोग तालिबान के डर से देश छोडक़र भाग रहे हैं। जो अफ़ग़ान के नागरिक दूसरे देशों में हैं, वे अब वापस वतन नहीं लौटना चाहते। भारत में मौज़ूद अफ़ग़ानी नागरिक राजधानी दिल्ली में अलग-अलग देशों के दूतावास के सामने इकट्ठा हो रहे हैं और मदद की गुहार लगा रहे हैं। अमेरिकी दूतावास के बाहर मौज़ूद एक अफ़ग़ान नागरिक अब्दुल्ला साहेल ने कहा- ‘तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में उनका परिवार डरा हुआ है। मैं ख़ुद तीन महीने पहले यहाँ आया हूँ। मेरे पास कोई रोज़गार नहीं है और आर्थिक परेशानियों का सामना कर रहा हूँ।’

अनुमान है कि अफ़ग़ानिस्तान के वर्तमान संकट में लाखों अफ़ग़ानी शरणार्थी बनकर दूसरे देशों में पहुँचे हैं। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से पूरे एशिया में सुरक्षा का बड़ा ख़तरा पैदा हो गया है। अमेरिका की सेना की पूर्ण वापसी से कई दिन पहले ही तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान को अपने क़ब्ज़े में ले लेने से भी हैरानी जतायी जा रही है। तालिबान लड़ाकों ने कुछ दिन में ही देश के बड़े शहरों पर जिस आसानी से क़ब्ज़ा किया और अफ़ग़ानी सेना ने कोई विरोध नहीं किया, जिसे लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। इसे अफ़ग़ानी सेना के भ्रष्ट होने से जोड़ा जा रहा है। यहाँ तक कि अफ़ग़ानी राष्ट्रपति अशरफ़ गनी तक जनता को क्रूर तालिबानों के भरोसे छोड़ देश छोडक़र यूएई भाग गये। 20 साल बाद अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का फिर क़ब्ज़ा हो गया है।

इसी तालिबान को 2001 के हमले के बाद अमेरिका ने तहस-नहस कर सत्ता से उखाडक़र भागने के लिए मजबूर कर दिया था। लेकिन इस बार अमेरिकी सेना की उपस्थिति के बीच ही तालिबान ने देश पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया था। अभी तक जो जानकारियाँ छनकर बाहर आयी हैं, उनके मुताबिक अमेरिका और नाटो सहयोगियों ने अफ़ग़ान सुरक्षाबलों को प्रशिक्षित करने के लिए जो लाखों डॉलर ख़र्च किये वह वास्तव में फलीभूत नहीं हुए और इसका सबसे बड़ा कारण उसकी ही समर्थित अफ़ग़ान सरकार का भ्रष्टाचार में गहरे से डूबा होना था। अफ़ग़ान सेना में भी भ्रष्टाचार के ख़ूब आरोप लगे हैं और उसके कमांडर इन वर्षों में पैसा हड़पने के लिए अपने सैनिकों की झूठी संख्या अमेरिकियों के सामने पेश करते रहे। जब तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर हल्ला बोला। उसकी सेना के पास न तो गोला-बारूद था; न अन्य संसाधन। यहाँ तक कि उसके पास खाद्य चीज़ें की भी क़िल्लत थी। ऊपर से देश के राष्ट्रपति तक विदेश भाग निकले। नतीजा यह निकला कि तालिबान को थाली में रखा हुआ देश मिल गया।

अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के युद्ध में ज़्यादा ख़ून-ख़राबा हुआ; लेकिन अमेरिकी आक्रमण ज़्यादा ख़र्चीला साबित हुआ। सोवियत संघ ने जहाँ अफ़ग़ानिस्तान में प्रति वर्ष लगभग 2 अरब अमेरिकी डॉलर ख़र्च किए, वहीं अमेरिका के लिए 2010 और 2021 के बीच, युद्ध की लागत प्रति वर्ष क़रीब 100 अरब अमेरिकी डॉलर हो गयी थी।

क़रीब 3.9 करोड़ की आबादी वाले देश में अब आतंक और ख़ौफ़ का माहौल है। वहाँ से आ रहे लोगों ने अब तक जो बताया है उससे तालिबान के ख़तरनाक इरादों की झलक मिलती है। अफ़ग़ानिस्तान की जनता को सबसे ज़्यादा डर तालिबान के निरंकुश और अराजक शासन का है, जिसे वह एक बार पहले देख चुके हैं। देश की नयी पीढ़ी खुली और उदार सत्ता के दौर में पली-बढ़ी है। अब उसे शरिया राज में ज़िन्दगी जीना कितना मुश्किल होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। तालिबान ने आते ही जिस तरह दुकानों और मॉल के होर्डिंग्स में लगी महिलाओं की तस्वीरों पर कालिख या सफ़ेद रंग पोता, उससे महिलाओं में ख़ौफ़ का माहौल है। यह आरोप लगते रहे हैं कि पिछले शासन में तालिबान ने बड़ी संख्या में महिलाओं और बच्चियों तक को हबस मिटाने के लिए इस्तेमाल किया।

ऐसे लोग, जो अमेरिका की सेना की मौज़ूदगी में तालिबान की निंदा करते रहे हैं; वे भी बहुत डरे हुए हैं। तालिबानी राजधानी काबुल जैसी जगह में आने के बाद घर-घर की तलाशी लेते रहे हैं। रिपोट्र्स के मुताबिक, तालिबान के आने के बाद बड़ी संख्या में लोगों, ख़ासकर महिलाओं ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स डिलीट कर दिये और अपनी तस्वीरें वहाँ से हटा दी हैं। तालिबान प्रवक्ताओं ने बेशक अपनी पहली प्रेस वार्ता में वादा किया कि वह किसी से बदला नहीं लेंगे और महिलाओं-बेटियों की सुरक्षा को भी कोई ख़तरा नहीं है। लेकिन 99 फ़ीसदी लोगों को तालिबान के बयानों पर भरोसा नहीं है। अफ़ग़ानी अब मान चुके हैं कि उनके पास नरक भरी ज़िन्दगी जीने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पिछले 20 दिनों में तालिबान ने कई इलाक़ों में युवा और विधवा महिलाओं की सूची लोगों से माँगनी शुरू कर दी है। यह उस वादे के बिल्कुल विपरीत है, जिसमें महिलाओं को किसी भी तरह के उत्पीडऩ से बाहर बताया है। तालिबान ने यहाँ तक कहा है कि इस्लामिक क़ानून के हिसाब से महिलाओं को सरकार में भी भागीदारी दी जाएगी। लेकिन अभी तक उसने जो किया है, उससे अफ़ग़ानिस्तानियों को तालिबान के हिंसक, अराजक और शोषक बर्ताव की पूरी आशंका है।

तालिबान का विरोध

तालिबान ने भले अफ़ग़ानिस्तान के बड़े हिस्से पर बंदूकों के ज़ोर पर क़ब्ज़ा जमा लिया हो, लेकिन देश में उनका विरोध भविष्य में नयी जंग का रास्ता खोल सकता है। तालिबान से दशकों से शत्रुता रखने वाले पंजशीर घाटी के नेता आपस में मिल गये हैं और उनकी फ़ौजे तालिबान को सबक़ सिखाने की तैयारी में हैं। तालिबान आज तक पंजशीर घाटी पर क़ब्ज़ा नहीं जमा पाया है। उसने इस बार पंजशीर के नेताओं को धमकी दी है और क़रीब 3,000 लड़ाकों को पंजशीर की सीमा पर भेजा है। पंजशीर बेहद दुर्गम घाटी है और वहाँ ब्रिटिश और रूसी सेना से लेकर अमेरिका की सेना तक पहुँच नहीं पायी।

दरअसल पंजशीर घाटी ख़ुद को राष्ट्रपति घोषित करने वाले उप राष्ट्रपति अमरूल्ला सालेह के अलावा अफ़ग़ान सरकार में जनरल अब्दुल रशीद दोस्तम और अता मोहम्मद नूर के अलावा नॉदर्न अलायंस के ताक़तवर नेता अहमद मसूद आदि का मज़बूत और अभेद्य गढ़ है। इन सबके पास अपनी मज़बूत सेनाएँ हैं। अपने लोगों में पंजशीर के शेर के नाम से जाने जाने वाले पूर्व अफ़ग़ान नेता अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद पहले ही तालिबान के साथ दो-दो हाथ करने का ऐलान कर चुके हैं।

तालिबान ने बीच में चालाकी दिखाते हुए यह सन्देश देने की कोशिश की कि अहमद मसूद उसके (तालिबान) साथ बातचीत को तैयार हैं; लेकिन मसूद ने तत्काल इसका खण्डन कर तालिबान की कोशिशों पर पानी फेर दिया। विद्रोहियों ने पंजशीर में नॉदर्न अलायंस यानी यूनाइटेड इस्लामिक फ्रंट (यूआईएफ) का झण्डा भी फहरा दिया है और उनका लक्ष्य पूरी पंजशीर घाटी पर क़ब्ज़ा करने का है।

तालिबान के लिए पंजशीर की जंग कितनी मुश्किल है? यह इस बात से ज़ाहिर हो जाता है कि तालिबान के ख़िलाफ़ बग़ावत का ऐलान करने वाले मसूद के नॉदर्न अलायंस ने परवान प्रान्त के चारिकार इलाक़े पर दोबारा नियंत्रण हासिल कर लिया है। चारिकार राजधानी काबुल को उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान के सबसे बड़े शहर मज़ार-ए-शरीफ़ से जोड़ता है और ऐसे में वहाँ जीत तालिबान के लिए बड़ा झटका है। बता दें यह नॉदर्न अलायंस ही था, जिसने 1990 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की हुकूमत के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था। सन् 2001 में अपनी मौत तक अफ़ग़ान नेता अहमद शाह मसूद ने सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध और तालिबान के साथ गृह युद्ध के दौरान सफलतापूर्वक पंजशीर घाटी का बचाव किया था।

हालाँकि कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि तालिबान को ताज़िक़ बहुल पंजशीर के भीतर जाकर लडऩे की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। तालिबान यदि पंजशीर घाटी की नाकेबंदी भी कर लेता है, तो वहाँ लोगों के लिए बहुत-सी मुश्किलें खड़ी हो जाएँगी। उनका कहना है कि पंजशीर घाटी की कई ज़रूरतें बाहर से पूरी होती हैं; लिहाज़ा नाकेबंदी से घाटी के लोगों को कठिनाई झेलनी पड़ेगी। दूसरे तालिबान ने आज तक पंजशीर घाटी में घुसने की कभी कोशिश नहीं की है। इससे उसे इस दुर्गम घाटी को समझने में तो मुश्किल आएगी। लेकिन वह अपने पास मौज़ूद नये हथियारों और बड़ी संख्या में अपने लड़ाकों के बूते पंजशीर पर हमला कर सकता है।

तालिबान के क़ब्ज़े में वह हथियार भी आ चुके हैं, जो अमेरिकी सेना वापस जाते हुए यहाँ छोड़ गयी है। अफ़ग़ानिस्तान पंजशीर के विद्रोही अलायंस के पास पुराने हथियार हैं और उसके पास बड़ा युद्ध लडऩे के लिए साधनों की भी कमी हो सकती है। हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि इनमें से ज़्यादातर लोग तालिबान के कट्टर विरोधी हैं और वे उसे हारने के लिए पूरी ताक़त झोंक देंगे।

इस संवाददाता की जुटायी जानकारी के मुताबिक, पंजशीर में शुरू में अलायंस से सिर्फ़ तज़ाख़ और तालिबान विरोधी मुजाहिद्दीन ही जुड़े थे। हालाँकि अब दूसरे क़बीलों के सरदार भी अपने लड़ाकों के साथ इसमें शामिल हो चुके हैं। कभी अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व रक्षा मंत्री अहमद शाह मसूद ने नॉदर्न अलायंस का नेतृत्व किया था। कुछ जानकार मानते हैं कि इसमें कोई दो-राय नहीं कि तालिबान हथियारों और संख्या बल के लिहाज़ा से काफ़ी ताक़तवर है; लेकिन अफ़ग़ानिस्तान पर उसके इतनी जल्दी क़ब्ज़े का एक कारण अफ़ग़ान सेना का बिल्कुल भी विरोध नहीं करना है। लेकिन पंजशीर में तालिबान को तश्तरी में कुछ नहीं मिलेगा। उसे वहाँ एक बेहद कठिन और अनजान भौगोलिक इलाक़े में ताक़तवर विरोधी समूहों से लादना पड़ेगा, जो बिल्कुल भी आसान नहीं है। यह भी हो सकता है पंजशीर के विद्रोहियों को कहीं से समर्थन मिल जाए।

वर्तमान में तालिबान से टक्कर के लिए पंजशीर अलायंस ख़ुद को अफ़ग़ानिस्तान का राष्ट्रपति घोषित कर चुके अमरुल्ला सालेह के नेतृत्व में मज़बूत करने में जुटा है। वे साफ़ शब्दों में अन्तिम साँस तालिबान से जंग लडऩे का ऐलान कर चुके हैं। उनका यह कहना बहुत मायने रखता है कि देश को कभी तालिबान के हवाले नहीं होने देंगे। सालेह को पाकिस्तान का मुखर विरोधी कहा जाता है, जबकि वे भारत के नज़दीक रहे हैं। दरअसल पंजशीर घाटी अफ़ग़ानिस्तान के 34 प्रान्तों में से एक है। राजधानी काबुल के उत्तर में एक बेहद कठिन घाटी पंजशीर को लेकर कहा जाता है कि वहाँ परिन्दा भी पर नहीं मार सकता। ‘पाँच शेरों की घाटी’ के नाम से विख्यात पंजशीर को लेकर माना जाता है कि 10वीं शताब्दी में एक परिवार के पाँच भाइयों ने गजनी के सुल्तान महमूद के लिए एक बाँध बनाया, जिससे वहाँ तबाही मचाने वाली बाढ़ से लोगों की सम्पत्ति बचाने में मदद मिली। इसके बाद इसका नाम पंजशीर घाटी पड़ गया। वर्तमान में यह घाटी अफ़ग़ानिस्तान के नेशनल रेजिस्टेंस फ्रंट का गढ़ है। देखना है कि तालिबान की घेरेबंदी और दबाव के बावजूद पंजशीर कितनी मज़बूती  से उसका विरोध कर पाता है? रेजिस्टेंस फ्रंट और नॉदर्न अलायंस के ताक़तवर नेता अहमद मसूद पहले ही कुछ देशों से अलायंस की मदद की अपील कर चुके हैं। फ़िलहाल किसी देश से उन्हें मदद का भरोसा अभी नहीं मिला है। लेकिन भविष्य में उन्हें मदद मिलने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता; क्योंकि ऐसे देश हैं, जो तालिबान की बढ़ती ताक़त को कुचलना चाहते हैं।

तालिबान शासन में कौन होगा राष्ट्रपति?

अफ़ग़ान में तालिबान के क़ब्ज़े की बाद अब यह सवाल है कि कौन राष्ट्रपति बनेगा? अफ़ग़ानिस्तान में मिली-जुली सरकार बनाने की भी कोशिशें हैं। हालाँकि तालिबान शायद ही इसके लिए राज़ी हो, या फिर सरकार की कमान अपने पास ही रखेगा। तालिबान की सरकार की सूरत और सीरत क्या होगी? अफ़ग़ानिस्तान की हुकूमत प्रेसिडेंट पैलेस से चलती है, जहाँ अब तालिबान का क़ब्ज़ा है। तालिबान के पाँच सबसे ताक़तवर नेताओं में मुल्ला अब्दुल गनी बरादर, हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा, मुल्ला मोहम्मद याक़ूब, सिराजुद्दीन हक़्क़ानी और शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकज़ई हैं। हाल के दिनों में तालिबान नेताओं ने अफ़ग़ानिस्तान के कई बड़े नेताओं के साथ बातचीत की है, जिनमें पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई भी शामिल हैं, जिन्हें पाकिस्तान का क़रीबी कहा जाता है। तालिबान का सबसे बड़ा चेहरा मुल्ला अब्दुल गनी बरादर का है, जो अफ़ग़ानिस्तान आ चुका है। तालिबान के तमाम नीतिगत फ़ैसलों के लिए उसे जानत जाता है। अफ़ग़ानिस्तान के उरुजगान सूबे से ताल्लुक़ रखने वाला बरादर पाकिस्तानी की बदनाम ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई का आदमी माना जाता है। वैसे पाकिस्तान के ख़िलाफ़ उसकी तल्ख़ी भी है; क्योंकि सन् 2010 में उसे आईएसआई ने गिरफ़्तार कर लिया था। कहते हैं इसके पीछे अमेरिका का दबाव था।

आईएसआई ने उसे आठ साल जेल में रखा। बरादर ने ही सन् 1994 में अपने ससुर और अन्य साथियों के साथ मिलकर कंधार में तालिबान की नींव रखी थी। बरादर इसके बाद अफ़ग़ानिस्तान में बनी तालिबान की पहली सरकार में उप रक्षा मंत्री रहा। अमेरिका ने 9 /11 के बाद जब तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान से दर-बदर किया, तो बरादर दोहा चला गया। अब तालिबान का जब अफ़ग़ानिस्तान पर फिर क़ब्ज़ा हो गया है, तो बरादर वापस काबुल लौट आया है। उसे राष्ट्रपति की दौड़ में सबसे आगे माना जाता है।

उसके बाद हिब्तुल्ला अख़ुंदज़ादा तालिबान का सबसे अहम चेहरा है, जो वर्तमान में तालिबान की कमान सँभाल रहा है। सन् 2016 में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे जाने वाले सरगना मुल्ला मंसूर अख़्तर के बाद अख़ुंदज़ादा ने ही तालिबान को सँभाला। उसे बहुत चतुर और लड़ाकों को एकजुट करने में माहिर नेता माना जाता है। अख़ुंदज़ादा को ही तालिबान को टूटने से बचाने का श्रेय दिया जाता है। अफ़ग़ान सेना के कमांडरों तक को अपने साथ मिलाने से उसकी क्षमता का पता चलता है। मज़हबी नेता अख़ुंदज़ादा ने तालिबान की कमान सँभालने के बाद अलक़ायदा प्रमुख अयमान अल जवाहिरी का भी भरोसा जीता है। कहा जाता कि तालिबान के तमाम राजनीतिक, धार्मिक और जंग से जुड़े मामलों पर अन्तिम मुहर अख़ुंदज़ादा की ही लगती है। उसके बाद मुल्ला मोहम्मद याक़ूब का नाम आता है, जो तालिबान बनाने वाले मुल्ला उमर का बेटा है। अभी महज़ 35 साल का याक़ूब तालिबान का सैन्य कमांडर है। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के हर ऑपरेशन का ज़िम्मा उसका रहा है। उसे तालिबान का वास्तविक उत्तराधिकारी कहा जाता है। चौथा नाम सिराजुद्दीन हक़्क़ानी का है, जो तालिबान के टॉप कमांडरों में से एक रहे जलालुद्दीन हक़्क़ानी का बेटा है। हक़्क़ानी नेटवर्क उसी के पास है, जो तालिबान का सहयोगी संगठन है।

पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर तालिबान की वित्तीय और सैन्य सम्पत्ति का ज़िम्मा उसी के पास है। पाकिस्तान का क़रीबी है और उसके सर पर एक करोड़ अमेरिकी डॉलर का इनाम है। तालिबान का पाँचवाँ बड़ा चेहरा शेर मोहम्मद स्तानिकज़ई है। तालिबान की तरफ़ से जब भी किसी से बात की जाती है, तो इसका ज़िम्मा काफ़ी शिक्षित स्तानिकज़ई पर रहता है। कट्टर धार्मिक नेता की छवि वाले स्तानिकज़ई दोहा में अमेरिका के साथ हुए शान्ति समझौते में शामिल था।

 

 

देश छोड़ यूएई पहुँचे गनी

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की दस्तक का सबसे दिलचस्प पहलू यह रहा कि तालिबान के राजधानी काबुल पर क़ब्ज़ा करने से पहले ही 15 अगस्त को राष्ट्रपति अशरफ़ गनी इस्तीफ़ा देकर देश छोडक़र यूएई चले गये। उनका दावा है कि ऐसा उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान को ख़ूनी जंग से बचाने के लिए किया।  अगर वह देश में रहते, तो निर्दोष जनता मरती। लेकिन उन पर अब ढेरों आरोप लग रहे हैं। ताजिकिस्तान में अफ़ग़ानिस्तान के राजदूत मोहम्मद ज़हीर अग़बर ने दावा किया है कि राष्ट्रपति अशरफ़ गनी जब अफ़ग़ानिस्तान से भागे, तो वह अपने साथ 169 मिलियन डॉलर (12.67 अरब रुपये) ले गये। उन्होंने तो गनी को गिरफ़्तार करने और उनसे देश की सम्पति वापस लेने तक की माँग कर दी है। लेकिन पूर्व राष्ट्रपति ने पैसे लेकर देश से भागने के आरोपों से इन्कार किया। उन्होंने यूएई से एक वीडियो संदेश जारी कर सफ़ार्इ दी कि वो सिर्फ़ एक जोड़ी कपड़े में अफ़ग़ानिस्तान से निकले हैं। अशरफ़ गनी वैसे जाने-माने मानवविज्ञानी और अर्थशास्त्री रहे हैं। इमर्जिंग मार्केट्स ने सन् 2003 में उन्हें एशिया का सर्वश्रेष्ठ वित्त मंत्री घोषित किया गया था। प्रॉस्पेक्ट मैगजीन ने पूर्व राष्ट्रपति गनी को दुनिया का दूसरा शीर्ष विचारक चुना था। यूएई ने पुष्टि की है कि अरब राष्ट्र ने मानवीय आधार पर राष्ट्रपति अशरफ़ गनी और उनके परिवार का देश में स्वागत किया है।

इधर अग़बर ने एक इंटरव्यू में कहा- ‘अशरफ़ गनी ने अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान को सौंप दिया। हमारे पास 3,50,000 से अधिक ट्रेंड सैनिक और अनुभवी सैन्यकर्मी थे। वे तालिबान से नहीं लड़े। अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी क्षेत्रों में ताजिकिस्तान की सीमा से लगे 20 ज़िले बिना किसी प्रतिरोध के तालिबान के पास चले गये। मुझे लगता है कि गनी का तालिबान के साथ पूर्व समझौता था। उनके दिमाग़ में विश्वासघात की योजना पहले से थी। उन्होंने अपने समर्थकों को छोड़ दिया और अफ़ग़ानिस्तान के लोगों से धोखा किया। मुझे नहीं लगता कि कोई भी सरकार अपने देश के आतंकवादियों के साथ अफ़ग़ानिस्तान में रहने और तालिबान के संरक्षण में काम करने जा रही है। अफ़ग़ानिस्तान ऐसा देश नहीं होना चाहिए, जो पड़ोसी देशों के लिए ख़तरा हो।’

गनी के देश छोडक़र भाग जाने के बाद उनके भाई हशमत गनी अहमदज़र्इ ने तालिबान का समर्थन करने का ऐलान कर दिया। कुचिस की ग्रैंड काउंसिल के प्रमुख हशमत गनी अहमदज़र्इ ने तालिबान नेता ख़लील-उर-रहमान और धार्मिक विद्वान मुफ़्ती महमूद ज़ाकिर की उपस्थिति में तालिबान के लिए समर्थन की घोषणा की। हशमत गनी का साथ मिलने से तालिबान की ताक़त बढ़ सकती है; क्योंकि हशमत अफ़ग़ानिस्तान के प्रभावशाली नेताओं में एक हैं। यह आरोप लगते रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति रहते हुए अशरफ़ गनी ने अपने भाई और एक अमेरिकी ठेकेदार को एक बड़े खनिज प्रसंस्करण का परमिट दिलाने में मदद की थी।

 

ट्रंप और बाइडन में जंग

       

अफ़ग़ानिस्तान के मसले को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच ही जंग छिड़ गयी है। बाइडन की अफ़ग़ानिस्तान नीति को ट्रंप ने देश के लिए शर्म की स्थिति बताया है, जबकि बाइडन ने कहा अपने फ़ैसले का बचाव किया और अफ़ग़ान सेना पर जमकर बरसे। बाइडन का कहना है कि अमेरिकी सेना ऐसे युद्ध में न लड़ सकती है और न मर सकती है, जिसमें अफ़ग़ान सेनाएँ लडऩे और मरने के लिए तैयार नहीं हैं। राष्ट्रपति ने कहा- ‘हम क़रीब 20 साल पहले स्पष्ट लक्ष्यों के साथ अफ़ग़ानिस्तान गये थे। 11 सितंबर, 2001 को हम पर हमला करने वालों को पकडऩा और यह सुनिश्चित करना कि अलक़ायदा अफ़ग़ानिस्तान को अपने अड्डे के रूप में इस्तेमाल न करे, ताकि हम पर दोबारा हमला न किया जा सके। हमारा मिशन कभी भी राष्ट्र निर्माण नहीं होना चाहिए था।’

वैसे यह दिलचस्प ही है कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका सेना वापस करने का फ़ैसला ट्रंप के ही समय में हुआ था। हालाँकि ट्रंप अब कह रहे हैं कि बाइडन प्रशासन ने जिस तरीक़े से सब कुछ किया, उससे अमेरिका की इज़्ज़त को बट्टा लगा है। वैसे बाइडन ने पहले ही कहा था- ‘मुझे पता है कि अफ़ग़ानिस्तान पर मेरे फ़ैसले की आलोचना की जाएगी। लेकिन मैं इस ज़िम्मेदारी को एक और राष्ट्रपति को सौंपने के बजाय सारी आलोचना को स्वीकार करना चाहूँगा।’

 

भारत पर क्या होगा तालिबान का असर?

 

तालिबान ने पहली प्रेस वार्ता में भारत को लेकर कहा कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में जिन योजना पर काम कर रहा था, उसे उन्‍हें वह पूरा कर सकता है; क्योंकि वह अफ़ग़ानिस्तान की अवाम के लिए हैं। लेकिन हम अपनी ज़मीन का इस्तेमाल किसी भी मुल्क को अपना मक़सद पूरा करने या अदावत निकालने के लिए नहीं देंगे। इसमें कोई दो-राय नहीं कि अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान स्थितियों का भारत के हितों पर प्रभाव पड़ेगा। पिछले एक साल में सबसे यह दिखने लगा था कि अमेरिकी सेना वापस जा रही है और तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान आना तय है, भारत सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान में अपनी राजनयिक उपस्थिति को कम करना शुरू कर दिया था। भारत के सामने अब यह सबसे बड़ी चिन्ता है कि तालिबान को मान्यता के मामले पर वह क्या फ़ैसला करे। आज तक कभी भी किसी भारत सरकार ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है। स्थितियों को देखते हुए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने 26 अगस्त को कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों के नेताओं के साथ बैठक करके अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर चर्चा की।

भारत सरकार ने सुरक्षा के मद्देनज़र हेरात और जलालाबाद में अपने मिशन के सभी कर्मचारियों को भारत बुला लिया था, जबकि जुलाई में कंधार और मज़ार-ए-शरीफ़ के वाणिज्य दूतावासों को बन्द कर दिया था। पुलित्जर अवॉर्ड से सम्मानित भारतीय पत्रकार-कैमरामैन दानिश सिद्दीक़ी की कंधार में हत्या कर दी गयी थी। अब अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में भारत ने अपना दूतावास भी बन्द कर दिया है। अगस्त के आख़िर तक भारत 1000 के क़रीब भारतीयों और अन्य लोगों को काबुल से भारत वापस ला चुका है, जिनमें हिन्दू, सिख समुदायों के अलावा मुस्लिम भी शामिल हैं।

तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़े से भारत की सबसे बड़ी चिन्ता वहाँ आतंकी गुटों के मज़बूत होने की है। तालिबान के आने से भारत के पड़ोस में कट्टरपंथ और इस्लामिक आतंकी समूहों के बढऩे का ख़तरा पैदा हो गया है। इनमें लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद शामिल है, जो भारत में ख़ून-ख़राबा करते रहे हैं। कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि तालिबान के आने से अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तानी सेना और उसकी बदनाम ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई का प्रभाव बढ़ जाएगा। भारत के लिए ख़तरा तालिबान के राज में अलक़ायदा के फिर से खड़े होने का भी है। बेशक दोहा समझौते में तालिबान ने अमेरिका से आतंकवाद के ख़िलाफ़ लडऩे का वादा किया था; लेकिन अमेरिकी नेतृत्व को इस पर बिल्कुल भरोसा नहीं है। अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक स्टेट (आईएस) से जुड़े गुट सक्रिय हैं और वे शियाओं पर हमला करते रहे हैं।

पाकिस्तान से तालिबान के रिश्ते पर एक बड़ा पेंच यह है कि वर्तमान में वह पूरी तरह पाकिस्तान पर निर्भर नहीं है। पहले तालिबान पूरी तरह पाकिस्तान के नियंत्रण में था। संगठन का दूसरा सबसे ताक़तवर नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर अख़ुंदज़ादा आठ साल तक पाकिस्तान की जेल में सड़ा है। कहा जाता है कि उसे पाकिस्तानी यातनाएँ झेलनी पड़ीं और वह कभी इस बात को नहीं भूलेगा। तालिबान के इस बार अफ़ग़ानिस्तान पर बिना प्रतिरोध क़ब्ज़ा करने में उसकी अपनी रणनीति रही है और पाकिस्तान का इसमें सहयोग बहुत ज़्यादा नहीं माना जाता। ऐसे में पाकिस्तान के लिए भी यह चिन्ता वाली बात हो सकती है।

भारत ने पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय में अफ़ग़ानिस्तान में ढेरों विकास परियोजनाएँ शुरू की हैं और बड़े पैमाने पर इनमें निवेश किया है। अब इन परियोजनाओं के आगे चलने पर प्रश्नचिह्न लग गया है। क्योंकि अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके पाकिस्तान इन परियोजनाओं को ठप करवा सकता है। पाकिस्तान पहले ही भारत के अफ़ग़ानिस्तान में निवेश से तिलमिलाया रहता था। क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान की जनता इस सहयोग के लिए भारत के नज़दीक रही है, जबकि उसका एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान को नापसन्द करता है। ज़ाहिर है अफ़ग़ानिस्तान में भारत की भूमिका अब लगभग ख़त्म हो जाएगी। तालिबान के आने से अफ़ग़ानिस्तान से कारोबार कराची और ग्वादर बंदरगाह के ज़रिये हो सकता है। लिहाज़ा पाकिस्तान को दरकिनार करने के लिहाज़ा से ईरान के चाबहार बंदरगाह को विकसित करने के लिए किया जा रहा भारत का निवेश अब अव्यावहारिक हो सकता है।

भारत के सामने अब तालिबान सरकार बनने पर उसे मान्यता देने या नहीं देने जैसी मुश्किल चुनौती भी पैदा हो गयी है। यह भी एक बड़ा सवाल है कि क्या भारत को अपना राजदूत वापस अफ़ग़ानिस्तान भेजना चाहिए? कुछ जानकार मानते हैं कि भारत को न केवल राजदूत को वापस भेजना चाहिए, बल्कि सभी सलाहकारों को भी दूतावास में तैनात करना चाहिए। रूस, चीन, इरान और पाकिस्तान के दूतावास अभी तक वहाँ काम कर रहे हैं। इन जानकारों के मुताबिक, भारत को तालिबान के साथ ख़ुद को एंगेज रखना चाहिए। वैसे भारत फ़िलहाल देखो और इंतज़ार करो की रणनीति पर काम कर रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में तस्वीर साफ़ होने में अभी शायद बक़्त लगेगा। बहुत से जानकार मानते हैं कि पुराने तालिबान और नये तालिबान में अंतर है और वह एकतरफ़ा शायद नहीं चलेंगे और वे ख़ुद को विश्व समुदाय से जोडऩा चाहेंगे; क्योंकि नये तालिबान का वैश्वीकरण हो चुका है। तालिबान ने अपनी पहली पत्रकार वार्ता में कहा कि महिलाओं को बु$र्के की जगह हिज़ाब पहनकर काम करने की अनुमति दी जाएगी। अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन को किसी दूसरे देश के उद्देश्यों या उसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल की इजाज़त नहीं होगी। यही नहीं गुरुद्वारे में सिख और हिन्दुओं को भी सुरक्षा का भरोसा उसने दिया। लेकिन तालिबान का पिछले शासन इतना क्रूर रहा है कि लोगों में अभी भी दहशत है। इनमें महिलाएँ भी शामिल हैं।

हालाँकि अफ़ग़ानिस्तान से अभी तक आयी ख़बरें कहती हैं कि तालिबान के लड़ाके लोगों पर ज़ुल्म करने से बाज़ नहीं आ रहे। इसके अलावा शरीयत क़ानून को पूरी तरह लागू करने पर भी तालिबान का ज़ोर है। भारत के लिए सबसे सकारात्मक पहलू यही है कि आम अफ़ग़ानी की भारत के प्रति भावनाएँ बहुत अच्छी रही हैं। पाकिस्तान को वहाँ ज़्यादा पसन्द नहीं किया जाता। निश्चित ही भारत सरकार के लोग अफ़ग़ानिस्तान के हर हालात का ज़मीनी मूल्यांकन कर उसके बाद ही कोई फ़ैसला किया जाएगा। फ़िलहाल तो अफ़ग़ानिस्तान से आने वाली चीज़ें के बन्द होने से भारत में उनके मूल्यों में भारी उछाल आया है, जिनमें सूखे मेवे शामिल हैं।

कुछ जानकार मानते हैं कि हो सकता है भारत भविष्य में अफ़ग़ान नेशनल डिफेंस एंड सिक्योरिटीज फोर्सेज (एएनडीएसएफ) को सम्भवत: ईरान के रास्ते से गोला-बारूद और हवाई सहायता जैसी सैन्य मदद दे। हालाँकि तालिबान प्रवक्ता सुहैल शाहीन भारत को ऐसा करने की स्थिति में गम्भीर नतीजों की धमकी दे चुका है। ऐसे में हो सकता है कि मोदी सरकार के भरोसेमंद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल तालिबान के साथ सम्पर्क बढ़ाने का सुझाव दें। वे अफ़ग़ानिस्तान को लेकर काफ़ी सक्रिय रहे हैं। भारत की कोशिश तालिबान राज में पाकिस्तान की भूमिका को सीमित करने की है।

अमेरिका भी तालिबान के मज़बूत होने का भी कम ज़िम्मेदार नहीं। उसने हाल के वर्षों में तालिबान को पाकिस्‍तान की आर्थिक मदद और हथियारों की आपूर्ति को गम्भीरता से नहीं लिया। यही नहीं, सन् 1990 में भी अमेरिका जब अफ़ग़ानिस्तान से बाहर गया था, तो उसने अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तानी हस्तक्षेप को रोकने की कोई कोशिश नहीं की थी। अमेरिका पाकिस्तान के साथ ज़रूरत से ज़्यादा उदार रहा है। इससे तालिबान को भी ताक़त मिली है। भारत के विरोध के बावजूद अमेरिका ने कभी उसे पाकिस्तान को रोकने की कोशिश नहीं की; क्योंकि सामरिक पार्टनर के रूप में वह पाकिस्तान को महत्त्वपूर्ण मानता रहा है।

 

काबुल हवाई अड्डे पर अफ़रा-तफ़री

अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद अफ़ग़ानिस्तान से आने वाली तस्वीरें काफ़ी विचलित करने वाली हैं। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के क़ब्ज़े के बाद लोग देश छोडऩे के लिए जान जोखिम में डालते देखे गये। हवा में उड़ते प्लेन से गिरकर तीन लोगों की मौत होने का वीडियो पूरी दुनिया को अफ़सोस और क्षोभ से भर गया। देश छोडऩे के काबुल एयरपोर्ट पर भागते लोगों की तस्वीरें काफ़ी विचलित करने वाली थीं। एक और घटना में काबुल हवाई अड्डे पर भगदड़ और फायरिंग में पाँच लोगों की मौत हो गयी। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक काबुल का एयरपोर्ट अमेरिका सेना के नियंत्रण में था। काबुल से ही आयी- एक मासूम बच्चे की एक और तस्वीर काफ़ी वायरल हुई, जिसमें अफ़ग़ानी काँटों की तार से लिपटीं दीवार के पार अमेरिकी सैनिकों को सौंप रही हैं, ताकि उसकी जान बच सके। ख़बरें आईएन कि हवाई अड्डे पर फँसे लोग अपने बच्चों को नाटो सैनिकों के हवाले कर रहे थे। लोगों का कहना है कि अगर अमेरिकी या नाटो सैनिक हमें लेकर नहीं जा सकते, तो हमारे बच्चों को लेकर जाएँ। पेंटागन के प्रवक्ता जॉन कर्बी ने भी बताया कि अभिभावकों ने सैनिकों से बच्चे की देखभाल को कहा; क्योंकि वह बीमार था और इसलिए सैनिकों ने उसे दीवार के ऊपर से ले लिया। वहाँ से हवाई अड्डे पर स्थित नॉर्वे के अस्पताल ले जाया गया। वहाँ पर बच्चे का इलाज करके पिता को लौटा दिया गया।

 

 “अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान स्थिति के लिए धूर्त पाकिस्तान ज़िम्मेदार है। पाक के कारण ही अमेरिका की अफ़ग़ान नीति फेल हुई है। हम इस स्थिति में कैसे आये, इस पर कुछ भी कहना आसान नहीं है। पिछले 20 साल में उत्पन्न हुए विभिन्न कारण इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। इन हालात के ठोस कारणों को अब जानना ज़रूरी हो गया है। अफ़ग़ान संकट ख़ुफ़िया और कूटनीति की विफलता के कारण भी पैदा हुआ है। पाकिस्तान ने भरोसे को क़ायम करते हुए कार्य किया होता, तो आज इन स्थितियों को नहीं देखना पड़ता।”

जैक रीड,

वरिष्ठ अमेरिकी सीनेटर

 

हम अपने हीरो अहमद शाह मसूद की विरासत के साथ धोखा नहीं कर सकते। हम आख़िरी साँस तक तालिबान से लड़ेंगे। अफ़ग़ानिस्तान से मेरी आत्मा को सिर्फ़ अल्लाह ही अलग कर सकता है; लेकिन मेरे अवशेष हमेशा यहाँ की मिट्टी से जुड़े रहेंगे। तालिबान अंदराब घाटी में खाना और ईंधन नहीं आने दे रहा है। मानवीय स्थिति बेहद ख़राब हो चुकी है। हज़ारों महिलाएँ और बच्चे पहाड़ों को छोडक़र जा चुके हैं। दो दिनों में तालिबान ने बच्चों और बुज़ुर्गों को अगवा किया है। आतंकी इनका इस्तेमाल ढाल की तरह कर रहे हैं, ताकि वे खुलेआम घूम सकें और घर-घर जाकर तलाशी ले सकें।

अमरुल्ला सालेह,

अफ़ग़ानिस्तान के स्वघोषित राष्ट्रपति

 

फ़िलहाल हमारा फोकस इस युद्धग्रस्‍त देश में मौज़ूद भारतीय नागरिकों की सुरक्षा और सुरक्षित वापसी पर है। जहाँ तक तालिबान नेतृत्‍व की बात है, अभी शुरुआती दिन हैं। इस समय हम काबुल के हालात पर ध्‍यान दे रहे हैं। तालिबान और इसके प्रतिनिधि काबुल पहुँच गये हैं। इसलिए मुझे लगता है कि हमें चीज़ें को वहाँ से शुरू करने की ज़रूरत है। अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के साथ ऐतिहासिक सम्बन्ध जारी हैं। यह आने वाले दिनों में हमारे दृष्टिकोण का निर्धारण करेगा। हमारा फोकस वहाँ मौज़ूद भारतीय लोगों की सुरक्षा पर हैं।

एस. जयशंकर

विदेश मंत्री, भारत

महंगाई पर राहुल गांधी का मोदी सरकार पर हमला, कहा अन्याय के खिलाफ एकजुट हो रहा देश

सरकार ने बुधवार को घरेलू एलपीजी सिलेंडर की कीमतें बढ़ा दी हैं वहीं कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने शाम को एक प्रेस कांफ्रेंस करके मोदी सरकार पर बढ़ती महंगाई को लेकर जबरदस्त हमला बोला है। गांधी ने कहा कि देश में महंगाई बढ़ रही है और इसकी सबसे ज्यादा मार आम आदमी पर पड़ रही है। उन्होंने कहा कि सबसे ज्यादा   हैरानी की बात यह है कि जो पैसा यह (सरकार) जनता की जेब से ले रही है वह जा कहाँ रहा है।
एआईसीसी मुख्यालय में हुई इस प्रेस कांफ्रेंस में राहुल गांधी – ‘एक तरफ डिमोनेटाइजेशन है और दूसरी तरफ मोनेटाइजेशन। किसानों, मध्यम वर्ग, गरीबों और छोटे किसानों का डिमोनेटाइजेशन हो रहा है। मोनेटाइजेशन सिर्फ सरकार के चार-पांच दोस्तों का भला हो रहा है।’
राहुल ने कहा कि जब वे (भाजपा) सत्ता में आए थे तो कहते थे कि पेट्रोल-डीजल और गैस के दाम बढ़ रहे हैं। अब देखिए गैस और बाकी सबके दाम आसमान छू रहे हैं। कांग्रेस नेता – ‘ महंगाई बढ़ने से आम लोगों की जेब पर सीधा असर पड़ रहा है। तेल की कीमतें बढ़ने से सीधे लोगों पर असर पड़ रहा है।’ उन्होंने कहा कि सबसे ज्यादा   हैरानी की बात यह है कि जो पैसा यह (सरकार) जनता की जेब से ले रही है वह जा कहाँ रहा है।
कांग्रेस नेता ने कहा कि जीडीपी का मतलब है कि गैस, डीजल और पेट्रोल। उन्होंने कहा – ‘जीडीपी में बढ़ोतरी का मतलब है कि इनके चीजों के दाम में बढ़ोतरी। साल 2014 के मुकाबले रसोई गैस की कीमत 116 फीसदी बढ़ी है। पेट्रोल के दाम 42 फीसदी बढ़े हैं और डीजल की कीमत में भी 55 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। रही सही कसर सरकार देश की संपत्तियों को बेचकर पूरा कर रही है।’
इससे पहले राहुल गांधी ने सुबह एक ट्वीट करके एलपीजी की कीमतें बढ़ने पर मोदी सरकार पर निशाना साधा। राहुल ने घरेलू रसोई गैस (एलपीजी) के बढ़ते दामों को लेकर कहा कि देश अन्याय के खिलाफ एकजुट हो रहा है।
ट्वीट में कांग्रेस नेता ने कहा – ‘जनता को भूखे पेट सोने पर मजबूर करने वाला ख़ुद मित्र-छाया में सो रहा है। लेकिन अन्याय के खिलाफ देश एकजुट हो रहा है।’ कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने हैशटैग ‘भाजपा की लूट के खिलाफ भारत’ में चार महानगरों में जनवरी से लेकर अब तक, एलपीजी गैस सिलेंडर के दामों में हुई वृद्धि की एक सूची भी साझा की है।

सायरा बानो की तबीयत ख़राब, मुम्बई के अस्पताल में भर्ती

मरहूम एक्टर दिलीप कुमार की पत्नी सायरा बानो बीमार हो गयी हैं और उन्हें मुम्बई के हिंदुजा अस्पताल में भर्ती किया गया है। वे पिछले तीन दिन से अस्पताल में भर्ती हैं। दिलीप कुमार का 7 जुलाई को निधन हो गया था।

माना जाता है कि दिलीप कुमार के निधन के बाद सायरा बानो खुद को काफी अकेला महसूस करती हैं और उसके बाद उनका स्वास्थ्य ख़राब रहने लगा है। पिछले तीन  दिन से सायरा बानो मुम्बई के हिंदुजा अस्पताल में भर्ती हैं। उनका रक्तचाप सामान्य नहीं है और आक्सीजन का स्तर भी गड़बड़ है। उन्हें सांस लेने में दिक्कत हो जा रही है। फिलहाल वह तीन दिन से आईसीयू में हैं।

रिपोर्ट्स के मुताबिक डाक्टर उनके स्वास्थ्य पर गहन नजर रखे हुए हैं और उन्हें अभी कुछ और दिन अस्पताल में रहना पड़ सकता है। सायरा बानो के परिजनों के मुताबिक उनकी खराब तबीयत का कारण दिलीप साहब का चले जाना है। ख़बरों के मुताबिक सायरा दिलीप साहब के इंतकाल के बाद किसी से काम ही मिलती हैं और बात भी नहीं करती हैं।
सायरा बानो खुद मशहूर अभिनेत्री रही हैं। फिल्मों में अपनी एक्टिंग से उन्होंने करोड़ों लोगों को दीवाना बनाया। फिल्मों में अभिनय के लिए सायरो को दर्जनों अवार्ड भी मिले।

राजधानी में बारिश ने तोड़ा रिकार्ड, जल भराव से यातायात अस्त- व्यस्त

 

राजधानी दिल्ली में हुई मूसलाधार बारिश ने सालों का रिकार्ड तोड़ा। मौसम विभाग ने आज के लिए ऑरेंज अलर्ट और रविवार के लिए येलो अलर्ट जारी किया है। झमाझम हुई बारिश से लोगों को एक ओर भले ही उमस भरी गर्मी से राहत मिल गई हो पर, बारिश के चलते लोगों को घरों से पानी निकालनें में बढ़ी मशक्कत करनी पड़ रही है।

वहीं जगह–जगह जल भराव होने से वाहनों के आने-जाने से जगह-जगह लोगों को जाम से जूझना पड़ा है। समय पर कर्मचारी आँफिस नहीं पहुंच पाये है। आलम ये था कि सड़कों में जल भराव था। तो दिल्ली के पार्क तालाब की तरह भरे देखें गये।

बताते चले दिल्ली में आज ही 10 और 12 वीं कक्षा के स्कूल खुले थे। लेकिन बारिश के चलते छात्रों को स्कूल जाने में मशक्कत करनी पड़ी है।

12वीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्र विमल कुमार ने बताया कि स्कूल को बंद हुये लगभग सवा साल से ज्यादा हो गया है। कोरोना के चलते। लेकिन आज ही 1 सितम्बर से स्कूल के खुलने से एक पढ़ाई का माहौल बन रहा था। लेकिन बारिश के चलते स्कूल जाने में दिक्कत हो रही है।

दिल्ली के आई टी ओ, चाणक्य पुरी, शाहदरा ,सीलम पुरी और अक्षमधाम मंदिर सहित कई स्थानों  के पास लोगों को कई –कई घंटों जाम से जूझना पड़ा है। बसों और कारों की लम्बी-लम्बी क़तारो से  यातायात अस्त- व्यस्त रहा।

भारत आते ही छलका देश छूटने का दर्द

मेरी पूरी दुनिया से अपील है कि वो अफ़ग़ानिस्तान को अकेला न छोड़े। मदद के लिए आगे आये और वहाँ अमन बहाल करवाने में मदद करे। यदि अब दुनिया ने अफ़ग़ानिस्तान को छोड़ दिया, तो वह अगले 20 साल तक फिर एक ऐसी दुनिया में चला जाएगा, जहाँ से तरक़्क़ी के रास्ते पर वापसी मुश्किल होगी। अफ़ग़ानिस्तान से अपनी जान बचाकर भारतीय वायु सेना के विमान से दिल्ली पहुँचीं सांसद अनारकली कौर होनरयार ने अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी से भारतीय मीडिया के माध्यम से यह गुहार लगायी।

‘तहलका’ से विशेष बातचीत में उन्होंने बताया कि अफ़ग़ानिस्तान के हालात बहुत ख़राब हैं। अगर हमारी फ़ौजें काबुल की रक्षा नहीं कर पायीं, तो आप सोचिए बाक़ी शहरों, क़स्बों और गाँवों में इन्होंने क्या हाल किया होगा?

दिल्ली के एक होटल में अपने माता-पिता के साथ ठहरी अनारकली भारतीय मूल की सिख हैं। 22 अगस्त को वह भारत सरकार के बचाव अभियान के तहत सुरक्षित लायी गयीं। अनारकली पेशे से दन्त चिकित्सक हैं और 10 साल से अफ़ग़ानिस्तानी संसद के उच्च सदन में सांसद हैं। घबरायी-सहमी अनारकली की आँखों में आँसू बार-बार आ रहे थे। वह कहती हैं कि अपना घर कौन छोडऩा चाहता है? मैं अपने देश और देश के लोगों से बहुत प्यार करती हूँ। मैं अपने देश वापस जाना चाहती हूँ। आज मुझे महसूस हुआ कि देश माँ होता है और अपनी माँ की गोद से दूर होने का दर्द महसूस कर रही हूँ। मैं सौभाग्यशाली हूँ कि भारत हमें सुरक्षित ले आया है। मैं भारत सरकार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सिख नेता एवं इंडियन वल्र्ड फोरम के पुनीत सिंह चंडोक की बहुत शुक्रगुज़ार हूँ। हालाँकि भारत में रहकर मुझे नहीं लगेगा कि मैं अपने देश से दूर हूँ।

अनारकली बताती हैं कि आप लोग जो टीवी पर देख रहे हैं, हालात उससे बहुत ख़राब हैं। 20 साल में अफ़ग़ानिस्तान में विदेशों की मदद से जो तरक़्क़ी हुई, अब हम 100 साल पीछे चले गये हैं। दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच जो समझौता हुआ था, उसमें सारी बातें तालिबान की मानी गयीं और अफ़ग़ानिस्तान का ध्यान नहीं रखा गया। चीन और अमेरिका ने तालिबान के साथ क्या गुपचुप समझौता किया? वो तो अभी पता नहीं चल रहा है। लेकिन कुछ तो ऐसा हुआ है कि अफ़ग़ानिस्तान को इसके हालात पर छोड़ दिया गया। यह तो मैं सोच ही नहीं सकती थी कि काबुल इतनी जल्दी तालिबान के सामने घुटने टेक देगा।

अफ़ग़ानिस्तान की संसद में पहुँचने वाली अनारकली होनरयार पहली ग़ैर-मुस्लिम महिला हैं। वह कहती हैं- ‘सांसद होने के कारण मुझे लगता था कि मैं सुरक्षित हूँ और हमें यहाँ से निकलने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी; क्योंकि मुझे पूरा भरोसा था कि इंटरनेशनल कम्युनिटी हमारी मदद के लिए ज़रूर आगे आएगी। लेकिन जब हमारे राष्ट्रपति अशरफ़ गनी देश छोडक़र भाग गये, तो हमारी सारी उम्मीदें टूट गयीं। हौसला टूट गया। मैं अन्तिम दिन तक अपने दफ़्तर में काम कर रही थी। मुझे लगा था कि हम शान्ति बहाली के लिए विरोध करेंगे। लेकिन उस दिन दफ़्तर में फोन पर कॉल आने लगीं कि तालिबान ने काबुल को घेर लिया है। जब हालात ख़राब हुए तो मैं भी अपनी कार से निकली। रास्ते में अफ़रा-तफ़री थी। लोग सडक़ों पर बदहवास भाग रहे थे। कारों के हॉर्न बज रहे थे। मैं कार रास्ते पर ही छोडक़र पैदल घर पहुँची, तो माता-पिता घबराये हुए थे। उन्होंने कहा कि जितनी जल्दी हो सके काबुल छोड़ दो।

अनारकली को शक है कि तालिबान को जो खुला हाथ दिया गया है, उसके पीछे कोई गहरी अंतर्राष्ट्रीय साज़िश है। वरना अभी तो कम-से-कम छ: महीने का समय था अफ़ग़ानिस्तान सरकार के पास सँभलने के लिए। फ़ौजों का चुपचाप तालिबान को रास्ता देना राष्ट्रपति भाग जाना बहुत कुछ शक पैदा करता है। उन्होंने कहा तालिबानी न कभी बदले थे, न बदलेंगे। वे क्या बदले हैं, यह पूरी दुनिया चुपचाप देख रही है। अनारकली की आँखों में फिर आँसू बहने लगते हैं। वह आह भरकर कहती हैं कि इंटरनेशनल बिरादरी ने हमें अकेला छोड़ दिया; तालिबान के हवाले कर दिया। पता नहीं अब कभी हम अपने वतन लौट पाएँगे या नहीं! फ़िलहाल तो ख़ाली हाथ जान बचाकर आ गये हैं। अभी न आने वाले कल के बारे में सोचा है; न कोई प्लान है। देखते हैं क़िस्मत में क्या लिखा है? कल तक अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं का जीवन बेहतर बनाने की योजनाएँ लागू करने वाली अनारकली कौर होनरयार आज ख़ुद लाचार और बेबस हैं। घर से बेघर हैं; और बस दुआ कर रही हैं कि उनके देश में फिर अमन हो ख़ुशहाली हो।