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पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक का गिरफ़्तारी मामला न्यायालय से राहत, सरकार की आफ़त

पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक सुमेध सिंह सैनी की गिरफ़्तारी से सतर्कता ब्यूरो (विजिलैंस) की ही नहीं, बल्कि राज्य सरकार की भी किरकिरी हुई। गृह विभाग चूँकि मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के पास ही है, लिहाज़ा वह भी न्यायालय की विपरीत टिप्पणी की ज़द से बाहर नहीं हैं। विजिलैंस प्रमुख बी.के. उप्पल उन्हें पूरे घटनाक्रम की बराबर जानकारी देते रहे होंगे। हाई प्रोफाइल मामला मुख्यमंत्री के संज्ञान से बाहर जा नहीं सकता। गिरफ़्तारी से पहले उन्हें भरोसे में लिया होगा। वहाँ से हरी झण्डी मिलन के बाद ही कार्रवाई को अंजाम दिया होगा।

पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने पूछताछ के लिए बुलाये गये सैनी की सतर्कता ब्यूरो द्वारा की गिरफ़्तारी को ग़ैर-क़ानूनी बताते हुए तल्ख़ टिप्पणी की है। सैनी की जिस मामले में ब्यूरो ने गिरफ़्तारी की है, उसमें उन्हें उच्च न्यायालय ने अग्रिम जमानत दे रखी थी। ब्यूरो ने दूसरी दर्ज प्राथमिकी में गिरफ़्तारी को सही बताया। लेकिन पंजाब सरकार उच्च न्यायालय में अपनी बात को सही साबित नहीं कर सकी, लिहाज़ा उसे मुँह की खानी पड़ी।

सैनी को हिरासत से छोडऩे के आदेश के बाद राज्य के जेल और सहकारिता मंत्री सुखजिंदर सिंह रंधावा ने एडवोकेट जनरल, गृह सचिव और विजिलैंस ब्यूरो चीफ को पद से हटाने की माँग कर डाली। जवाब में मुख्यमंत्री ने कहा कि सरकार से जुड़े किसी मंत्री या अन्य को सार्वजनिक तौर पर ऐसी आलोचना करने से पहले तथ्यों आदि पर विचार करना चाहिए। सीधा इशारा अपने ख़िलाफ़ चल रहे उन मंत्रियों पर है, जो उनके ख़िलाफ़ गुटबंदी कर रहे हैं।

उच्च न्यायालय के आदेश पर ही सैनी मोहाली में सतर्कता ब्यूरो दफ़्तर गये थे; लेकिन बजाय इसके उन्हें मामले में गहन पूछताछ की जाती, उन्हें हिरासत में ले लिया गया। इसके बाद मीडिया में उनकी गिरफ़्तारी और सलाख़ों के पीछे जाने की ख़बरें चलने लगीं। सैनी की पत्नी की शिकायत पर उच्च न्यायालय ने ब्यूरो की कार्रवाई को ग़लत बताते हुए न केवल फटकार लगायी, बल्कि भविष्य में सैनी को गिरफ़्तार करने से एक सप्ताह पहले उन्हें (न्यायालय) को अवगत कराने की अनिवार्यता का आदेश दिया। तो क्या सतर्कता ब्यूरो ने जल्दबाज़ी और हड़बड़ी में सैनी को गिरफ़्तार किया या फिर उनके पास दर्ज प्राथमिकी में कोई ठोस सुबूत थे? निश्चित तौर पर हड़बड़ी में और मुख्यमंत्री को यह दिखाने के लिए कि वह बहुत कुछ करने में सक्षम है।

न्यायालय के आदेश पर मुँह की खाने के बाद भी सरकार की सेहत पर कुछ ख़ास पड़ता नहीं दिख रहा। शिअद-भाजपा सरकार के दौरान बरगाड़ी और बहबलकलां गुरु ग्रंथ साहिब बेअदबी और गोलीकांड मामले में कांग्रेस सरकार की विशेष जाँच टीम की रिपोर्ट भी उच्च न्यायालय ने निरस्त कर दी थी। रिपोर्ट में पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल आदि को इन सबके लिए ज़िम्मेदार बताया गया था।

इसे एक पक्षीय बताते हुए रिपोर्ट पर ही सवालिया निशान लगा दिया था। अगर सब कुछ ठीक होता, तो राज्य सरकार इसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती देती; लेकिन अब तक इस दिशा में कोई प्रयास नज़र नहीं आता। हालाँकि सरकार ने नयी समिति गठित कर जाँच शुरू करा दी है। नैतिकता के आधार पर तत्कालीन आईजी कुँवर विजय प्रताप सिंह ने इस्तीफ़ा दे दिया था। बेअदबी से जुड़ा मामला कांग्रेस सरकार के लिए बहुत महत्त्व रखता है। तय समय में नयी समिति इसे अंजाम तक पहुँचा पाएगी, यह कहना फ़िलहाल मुश्किल है। सैनी ने न्यायालय से अपने मामलों की जाँच सीबीआई या किसी केंद्रीय स्वतंत्र एजेंसी से कराने की गुहार लगायी है। उन्हें लगता है कि पंजाब में कांग्रेस सरकार के दौरान वह किसी-न-किसी मामले में फँसते रहेंगे। वह राज्य सरकार के निशाने पर हैं। इसलिए उनके ख़िलाफ़ नये मामले दर्ज किये जा रहे हैं। सैनी के आरोप अपनी जगह ठीक हो सकते हैं; लेकिन विजिलैंस प्रमुख और पुलिस महानिदेशक रहते उन्होंने जो कुछ शिअद-भाजपा सरकार के लिए किया, वह तो जगज़ाहिर है।

सैनी तेज़ तर्रार पुलिस अधिकारी के तौर पर जाने जाते रहे हैं। एक बार किसी से ख़ुन्नस हो जाए, तो उसे जल्दी से भुला नहीं पाते। बेअदबी के मामलों में शिअद-भाजपा सरकार की आलोचना होने के बाद वह सरकार की नज़रों से उतर गये। तब शिअद का भाजपा के साथ गठजोड़ था। लिहाज़ा राज्य में आलोचना और केंद्र के दबाव के चलते सैनी को सन् 2015 में पद से हटाना पड़ा। उसके बाद से सैनी नैपथ्य में चले गये और उनके एक तरह से बुरे दिन शुरू हो गये। सन् 2018 में सेवानिवृत्ति के बाद से तो वह कांग्रेस सरकार विशेषकर कैप्टन अमरिंदर सिंह को किसी खलनायक की तरह लगने लगे हैं और कई मुसीबतों में घिर गये हैं।

सैनी हिरासत में हत्या और मानवाधिकार के उल्लंघन जैसे गम्भीर आरोपों से घिरे हैं; लेकिन अभी तक उनकी कभी गिरफ़्तारी नहीं हुई। न्यायालय से उन्हें अब तक राहत मिलती रही है। वे कई मामलों का सामना कर रहे हैं। इनमें चंडीगढ़ के बलवंत सिंह मुल्तानी की हिरासत में हत्या का मामला, बरगाड़ी और बहबलकलां में गुरु ग्रंथ साहिब बेअदबी के मामले, पुलिस गोलीबारी में दो लोगों की मौत, चंडीगढ़ के सेक्टर-20 में एक कोठी का मामला, सभी उनसे जुड़े हैं। मोहाली ज़िले के कुराली में वल्र्डवाइड इमीग्रेशन कंसलटैंसी सर्विस मामले में भी उनका नाम जुड़ गया है। सतर्कता ब्यूरो ने इस सन्दर्भ में कम्पनी की ही इकाई एस्टेट प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक देविंदर संधू को गिरफ़्तार कर लिया है। कम्पनी पर कृषि भूमि पर मिलीभगत और झूठे काग़ज़ातों के आधार पर आवासीय क्षेत्र बनाने का आरोप है। यह मामला काफ़ी पुराना है; लेकिन अब सैनी का नाम भी अपरोक्ष तौर इसमें जुड़ गया है।

सैनी को पंजाब का सबसे युवा पुलिस महानिदेशक बनने का मौ$का योग्यता से मिला या तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की मेहरबानी से यह बहस का विषय हो सकता है; लेकिन वह बने और लगभग तीन साल तक बादल परिवार के चहेते अधिकारी रहे। इससे पहले सतर्कता ब्यूरो के प्रमुख रहते उन्होंने इस परिवार के लिए बहुत कुछ किया; लेकिन इसे योग्यता नहीं माना जा सकता। राज्य में सन् 1980 से सन् 1990 तक आतंकवाद के दौर में सुमैध सैनी के काम की सराहना हुई। उन्हें इसके लिए वीरता पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। आतकंवादियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई के बाद वह उनके निशाने पर थे।

सन् 1991 में चंडीगढ़ में उनकी कार को बम से उड़ाने का प्रयास हुआ, जिसमें वह बाल-बाल बच गये; लेकिन उनके तीन सहयोगियों की मौत हो गयी। तब वह चंडीगढ़ में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात थे। ख़ालिस्तानी अभियान को नेस्तानाबूद करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही; लेकिन इसकी आड़ में बहुत-से लोगों के ग़ायब होने और मानवाधिकारों का उल्लंघन करने के आरोप भी उन पर लगे।

उनकी छवि विवादास्पद अधिकारी की रही है, जो सरकार के इशारे पर कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाए। वह बादल परिवार के चहेते बने, तो उनकी सरकार के इशारे पर कैप्टन अमरिंदर सिंह के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई करने में भी गुरेज़ नहीं किया। शिअद सरकार के दौरान ही लुधियाना का सिटी सेंटर घोटाला सामने आया। इसमें कैप्टन अमरिंदर सिंह और उनके बेटे रणिंदर सिंह और अन्य प्रमुख लोगों के नाम सामने आये। तब सैनी विजिलैंस विभाग के प्रमुख थे। इस मामले में कैप्टन, उनके बेटे, रिश्तेदार और अन्य को क्लीन चिट मिल चुकी है।

कभी कैप्टन अमरिंदर सिंह के मीडिया सलाहकार रहे भरत इंदर सिंह चहल की तत्कालीन सरकार में तूती बोलती थी। कांग्रेस के सत्ता से बाहर और शिअद की सरकार बनने पर उन्हीं चहल को विजिलैंस प्रमुख रहते हुए सैनी ने ही गिरफ़्तार करवाया था। आज वही चहल कैप्टन के सलाहकार हैं और उनका ख़ूब रुतबा भी है। लेकिन पहले की तरह अब वह खुलकर सामने नहीं आते; फिर भी सरकार जो चाहे, वह मैनेज कराने में सक्षम हैं। पूछताछ के बहाने सैनी की गिरफ़्तारी पुरानी ख़ुन्नस मिटाने की भी हो सकती है। सेवानिवृत्ति के बाद शीर्ष स्तर के अधिकारी आराम की ज़िन्दगी बसर करना चाहते हैं; लेकिन सैनी के लिए यह किसी सपने जैसा है।

कोठी बनी मुसीबत

चंडीगढ़ के सेक्टर-20 में बनी एक कोठी का मामला सैनी के लिए मुसीबत बना हुआ है। एक प्राथमिकी इसे लेकर ही है। काग़ज़ों में सैनी इस कोठी में किरायेदार के तौर पर है। लेकिन हक़ीक़त में क्या ऐसा है? यह तो न्यायालय के फ़ैसले से पता चलेगा; लेकिन इसमें राज़ बहुत हैं। समझौते (एग्रीमेंट) के मुताबिक, सैनी कोठी के एक हिस्से का किराया 2.50 लाख रुपये देते हैं। शुरू के 11 माह का कुल किराया लगभग 27.50 लाख बनता है; लेकिन सैनी ने 40 लाख रुपये प्रतिभूति सुरक्षा (सिक्योरिटी) के नाम से मकान मालिक के खाते में जमा कराये; जबकि दो माह के किराये के पाँच लाख रुपये अलग से जमा कराये। विजिलैंस विभाग ने सैनी और मकान मालिक के बैंक खातों की पड़ताल की है; जिसके आधार पर वह जाँच कर रही है।

उत्तर प्रदेश की चीनी मिल परियोजना में भारी घोटाला

चीनी निगम की पिपराइच व मूँडेरवा की स्थापना में रमाला मिल के समान मशीनरी होने पर भी विशेष पार्टी को करोड़ों रुपये ज़्यादा में दिया ठेका

आगामी साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने और गन्ना किसानों की आय बढ़ाने के उद्देश्य से उत्तर प्रदेश सरकार ने सन् 2017 में भाजपा की योगी सरकार ने तीन नयी बड़ी और अत्याधुनिक चीनी मिलें लगाने की घोषणा की। इस परियोजना में गोरखपुर के पिपराइच और बस्ती ज़िले की मूँडेरवा की चीनी मिलें थीं, जो बन्द पड़ी थीं; जबकि तीसरी शुगर फेडरेशन की बाग़पत जनपद की रमाला मिल थी। इस मिल की वर्तमान गन्ना पेराई क्षमता 2750 टीसीडी से बढ़ाकर 5000 टीसीडी की जाने की बात हुई थी।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इन तीनों चीनी मिल परियोजनाओं में 5,000 टीसीडी गन्ना पेराई की क्षमता के साथ-साथ 27 मेगावॉट बिजली उत्पादन इकाई की स्थापना करायी, ताकि गन्ना किसानों को समय से भुगतान मिल सके। लेकिन बीते क़रीब साढ़े चार साल से गन्ना मंत्री का आशीर्वाद प्राप्त विभाग से सम्बन्धित सरकारी उच्चाधिकारियों, चीनी निगम और शुगर फेडरेशन में परियोजना से जुड़े अधिकारियों ने चीनी मिल के अधिकारियों की मिली-भगत से गन्ना किसानों को जल्द भुगतान करने के बजाय अपनी आय दोगुनी कर ली। स्थिति यह आ गयी कि उपरोक्त चीनी मिलें करोड़ों के घाटे में चली गयीं।

सच्चाई यह है कि उत्तर प्रदेश में गन्ना एवं चीनी विभाग के अधिकारियों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने, कुप्रबन्धन बनाकर रखने और अपनी जेबें गरम करने के चलते कई चीनी मिलें भारी घाटा होने के कारण बन्द होती चली गयीं। यहाँ तक कि एक ज़माने में उत्तर प्रदेश की चीनी का कटोरा (शुगर बाउल) कहे जाने वाले ज़िला देवरिया में सबसे ज़्यादा चीनी मिलें थीं, जो सरकारों की अनदेखी और अफ़सरों के भ्रष्टाचार के कारण कालांतर में बन्द हो गयी। एक समय ऐसा भी आया, जब पूर्वांचल के तक़रीबन सभी ज़िलों में चल रहीं निगम और सरकारी मिलें भारी घाटे के कारण बन्द हो गयीं और गन्ना किसान न के बराबर रह गये।

सन् 2017 में भाजपा की सरकार बनते ही योगी आदित्यनाथ ने पूर्वांचल के किसानों को संजीवनी देने के लिए गोरखपुर सहित वर्षों से बन्द पड़ी चीनी निगम की दो चीनी मिलों को लगाने के लिए ई-टेंडर निकाले। शुगर मिल लगाने वाली फर्मों का चयन किया गया। लेकिन गन्ना विभाग में शासन के मुखिया सहित तत्कालीन एमडी, फेडरेशन और निगम में परियोजना से जुड़े अधिकारियों ने योगी की शून्य भ्रष्टाचार (ज़ीरो टॉलरेंस) नीति की धज्जियाँ उड़ा दीं। रमाला की चीनी मिल परियोजना के लिए मशीनरी आपूर्ति सहित इरेक्शन और सिविल का ठेका सरकार ने ग़ाज़ियाबाद की एक पार्टी को 310 करोड़ रुपये में दिया। चीनी निगम के परियोजना से जुड़े एक अधिकारी ने तत्कालीन एमडी तथा एसीएस गन्ना से मिलकर बड़ी सफ़ार्इ से रमाला की निविदा दे दी। रमाला के समान तकनीकी स्पेसिफिकेशन पर पिपराइच और मूँडेरवा के लिए समान काम का ठेका 42 करोड़ रुपये प्रति मिल ज़्यादा में तय करके उनका ठेका 252 करोड़ रुपये में दे दिया। इस प्रकार रमाला मिल की तुलना में एक ही विभागीय मंत्री, एसीएस गन्ना व एमडी के होते योगी के ज़िलों में स्थापित होने वाली निगम की चीनी मिलों में फर्म से साँठ-गाँठ करके क़रीब 84 करोड़ से अधिक का चूना लगाकर अपनी अपनी जेबें भर लीं, जिसकी किसी को कानोंकान ख़बर तक नहीं हुई।

विभागीय सूत्र बताते हैं कि बाग़पत की रमाला परियोजना में तकनीकी बिड में 5000 टीसीडी क्षमता वाली दो मिलें लगाने के अनुभव की शर्त रखी गयी। निगम की पिपराइच एवं मूँडेरवा मिलों में 3,500 टीसीडी की पेराई क्षमता बड़ी सफ़ार्इ से और बढ़ा दी गयी। इसी तरह वित्तीय बिड में भी रमाला के विगत पाँच साल के औसतन टर्नओवर 250 करोड़ रुपये की शर्त को निगम के अधिकारियों ने बढ़ाकर औसतन 300 करोड़ रुपये कर दिया और दो मिलें लगाने पर इसे बढ़ाकर 600 करोड़ रुपये कर दिया। नतीजा यह हुआ कि रमाला की बिड में भाग लेने वाली नोएडा की इस फर्म को छोडक़र सभी पार्टियाँ बिड से बाहर हो गयीं। विभागीय मंत्री सहित अपर मुख्य सचिव गन्ना, तत्कालीन एमडी और परियोजना के अधिकारियों ने इन महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं के लिए योजनाबद्ध तरीक़े से तीन-चार बार टेंडर निकालकर अन्तिम बार एक ही फर्म का ठेका

84 करोड़ रुपये से ज़्यादा में देकर वारे-न्यारे कर लिये। इस सम्बन्ध में जब एसीएस गन्ना, गन्ना मंत्री और गन्ना आयुक्त से पूछा गया, तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। इसका ख़ामियाज़ा इन मिलों के गन्ना किसानों पर पड़ा। जहाँ रमाला मिल पर अभी भी गन्ना किसानों का पेराई सत्र 2020-21 के क़रीब 130 करोड़ रुपये का भुगतान और चीनी निगम की मिलों पर भी कुल क़रीब 128 करोड़ रुपये का भुगतान का बक़ाया है।

अब भाजपा सरकार आगामी 2022 के विधानसभा चुनावों में जीत का सपना सजाये बैठी है। इसके लिए हो सकता है कि योगी सरकार गन्ने का भाव बढ़ा दे और गन्ने का बक़ाया भुगतान भी तेज़ी से करे। लेकिन यह भी सच है कि आगामी पेराई सत्र 2021-22 के शुरू होने में दो महीने से भी कम का समय रह गया है, जबकि गन्ना किसानों का कुल बक़ाया मूलधन भी क़रीब 7,000 करोड़ रुपये है। यदि इसमें योगी सरकार के कार्यकाल के समय का ब्याज और जोड़ दिया जाए, तो गन्ना मूल्य भुगतान का कुल बक़ाया क़रीब 10,000 करोड़ रुपये से ऊपर है।

जबकि एसीएस, गन्ना आयुक्त एवं विभागीय मंत्री भाजपा की चार साल की सरकार में गन्ना किसानों को होर्डिंग लगवाकर रिकॉर्ड 1,40,000 करोड़ रुपये के भुगतान का दावा करते हैं। मैं स्वयं के गन्ना किसान के परिवार से होने के नाते इस दावे को सिरे से नकारता हूँ। क्योंकि विगत वर्ष उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों पर किसानों का पेराई सत्र 2019-20 का तक़रीबन 4,000 करोड़ रुपये से ऊपर बक़ाया था। गन्ना मंत्री एवं गन्ना आयुक्त ने नियमों को ताक पर रखते हुए इस बक़ाया धनराशि का भुगतान पेराई सत्र 2020-21 में किसानों से गन्ना ख़रीदकर उससे उत्पादित चीनी की बिक्री कराकर गुपचुप तरीक़े से पहले कराया। चीनी मिलों के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ हो कि अधिकतर मिलों ने इस तरह ग़लत तरीक़े से गन्ना आयुक्त की शह पर भुगतान किया हो। इसका ख़ामियाज़ा गन्ना किसानों को भुगतना पड़ा। क्योंकि नयी चीनी बेचकर मिलों ने पुराना भुगतान कर दिया, जिससे चीनी मिलों पर अब किसानों के क़रीब 7,000 करोड़ रुपये बक़ाया हैं। सवाल यह उठता है कि जब पेराई सत्र 2020-21 की उत्पादित चीनी से विगत वर्ष का भुगतान किया गया, तो फिर पेराई सत्र 2019-20 के गन्ने द्वारा उत्पादित चीनी कहाँ गयी?

जानकार बताते हैं कि पेराई सत्र 2020-21 में जो क़रीब 7,000 करोड़ रुपये बक़ाया हैं, उसमें से क़रीब 1200-1300 करोड़ रुपये सहकारी और निगम की चीनी मिलों पर बक़ाया हैं। शेष 5,600 करोड़ रुपये निजी मिलों पर बक़ाया हैं। इसमें मुख्य डिफाल्टर की सूची में बजाज की 14 मिलों के साथ-साथ मोदी, सिम्भावली, यदु आदि मिलें हैं। इन मिलों पर गन्ना आयुक्त की इतनी मेहरबानी है कि इन मिलों ने किसानों की बक़ाया धनराशि का अभी तक केवल 15 से 35 फ़ीसदी भुगतान ही किया है। जबकि इन्हीं उत्पादों और सह-उत्पादों के साथ बलरामपुर ग्रुप सहित डीएससीएल, त्रिवेणी, धामपुर, डालमिया, बिरला, मुज़फ़्फ़रनगर की टिकौला, सीतापुर की बिसवा, पीलीभीत की एलएच सहित अन्य ऐसी कई चीनी मिलों ने अपने गन्ना किसानों को 100 फ़ीसदी भुगतान जुलाई में ही कर दिया। मंत्री व अधिकारियों से पूछा जाना चाहिए कि उसी चीनी, शीरा, बैगास, बिजली उत्पादन और इथेनॉल के सहारे समय से इन मिलों ने पूरा गन्ना मूल्य भुगतान कर दिया, तो फिर बजाज, मोदी, सिम्भावली सहित अन्य ग्रुप की चीनी मिलें किसानों की बक़ाया धनराशि का भुगतान क्यों नहीं कर पा रही हैं? गन्ना आयुक्त ने सरकार को दिखाने के लिए पिछले पाँच साल के अपने कार्यकाल में मात्र इस वर्ष पाँच मिलों की ही आर.सी. काटी है, तो फिर किसानों का भुगतान न करने वाली शेष चीनी मिलों की आर.सी. क्यों नहीं काटी गयी? एक अनुमान के अनुसार, सरकारी चीनी मिलों का अब तक घाटे का आँकड़ा तक़रीबन 500 करोड़ से कही ऊपर पहुँच चुका है। सवाल यह है कि जब चीनी उत्पादन में कोई कमी नहीं है, तो मिलें घाटे में क्यों हैं?

बहरहाल मेरे द्वारा प्रदेश के गन्ना मंत्री और गन्ना आयुक्त को इस विषय में भेजे गये सवालों और फोन पर वार्ता के बावजूद कोई जवाब न देना यह दर्शाता है कि सरकार के महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी मुख्यमंत्री योगी की इस ड्रीम परियोजना को पलीता लगाने का काम कर रहे हैं। मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री का साल 2022 में किसानों की आय को दोगुना करने का सपना और मुख्यमंत्री योगी की ड्रीम परियोजना सहकारी गन्ना मिलों की तकनीकी को उन्नत करते हुए उत्पादन बढ़ाकर चीनी मिलों की हालत में सुधार करना चाहती है, तो सबसे पहले उनमें हो रहे भ्रष्टाचार को ख़त्म करना होगा। इसके लिए हर साल ऑडिट और गम्भीरता पूर्वक जाँच कराकर भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करनी होगी। साथ ही यह देखना होगा कि सहकारी चीनी मिलों की तकनीक और उनके अधिकारियों का अनुभव निजी चीनी मिलों की तुलना में कहाँ और किस प्रकार कमतर है?

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

सेवा द्वारा प्रशिक्षित 10 हज़ार अफ़ग़ानी महिलाएँ बेरोज़गार

काबुल में रह रही हफ़ीज़ा जान कहती हैं- ‘16 अगस्त की सुबह जब मैंने सुना कि दश्त-ए-बारची (जहाँ से तालिबान पश्चिम काबुल में दाख़िल हुए) पर तालिबानों का क़ब्ज़ा हो गया है, तो मेरा शरीर काँप गया। आँखों के सामने वह दृश्य तैर गया, जब सन् 2013 में बंदूकधारी तालिबानों ने मेरी इतनी पिटाई की थी और मैं मरते-मरते बमुश्किल बची। उसके बाद काबुल में हम औरतों के लिए काम कर रहे हिन्दुस्तानी सेवा संगठन के साथ मैं जुड़ी। कपड़े सिलने का काम सीखा और पैसा कमाकर अपना व परिवार का पेट पालने लगी। अब फिर मुझे अपनी और माँ की सुरक्षा की चिन्ता सताने लगी है। मेरी अल्लाह से दुआ है कि वह किसी ऐसी जगह पर जाने में मेरी मदद करे, जहाँ मैं आज़ादी से रह सकूँ। ‘सेवा’ नामक इस की मदद से मैंने जो काम सीखा है, उसे करते हुए अपनी ज़िन्दगी चला सकूँ।’
वह आगे कहती हैं-‘अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबानों के शासन का मतलब है कि काम के लिए अब मुझे अपने केंद्र पर नहीं जाने दिया जाएगा। काम नहीं करूँगी, तो परिवार को न तो खिला सकूँगी, न माँ के लिए दवा ला सकूँगी। यह सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं होगा। मेरे जैसी लाखों महिलाओं को अब तालिबानों के नियंत्रण में रहकर उनके दमन का सामना करना होगा।’
काबुल में ही रह रहीं सोसन ने बताया- ‘मैं अपने बच्चों को लेकर अपने माता-पिता के साथ रहती हूँ। मेरी कमायी से ही घर का ख़र्च चलता है। अभी यहाँ जो कुछ हो रहा है, उससे घबराकर मैं अपना सारा पैसा निकलवाने के लिए बैंक गयी। लेकिन वहाँ बैंक वालों ने कह दिया कि उनके पास देने के लिए पैसे नहीं हैं। बैंक ख़ाली हो चुका है। सुनते ही मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। यहाँ भविष्य बेहद असुरक्षित है। मैं अफ़ग़ानिस्तान छोडक़र किसी सुरक्षित जगह पर चली जाना चाहती हँू। सेवा ने मुझे आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया है। मुझे भरोसा है कि मैं किसी भी दूसरी जगह जाकर इतना कमा लँूगी कि अपने परिवार को दो जून की रोटी खिला सकूँ। यहाँ मुझे और मेरे परिवार को ख़तरा है। हमें मदद चाहिए।’


हफ़ीज़ा और सोसन अफ़ग़ानिस्तान की ग़रीबी रेखा से नीचे के परिवारों की ऐसी महिलाएँ हैं, जो अकेले ही अपने-अपने परिजनों की देखभाल कर रही हैं। पिछले 40 साल से तालिबानों और विदेशी फ़ौजों के शिकंजे में फँसे इस देश का पुरुष वर्ग बड़ी संख्या में या तो गोलीबारी में मारा जा चुका है, या देश से बाहर चला गया है, या फिर उसने भी तालिबानी होकर हाथ में बंदूक थाम ली है। ऐसे में बड़ी संख्या में परिवार चलाने का ज़िम्मा औरतों पर आ चुका है। सन् 1995 में सत्ता में आये तालिबानों के पहले शासन के दौर के बाद सन् 2004 में जब हामिद करजई की सरकार बनी, तो औरतें बेहद बदतर हालत में थीं। वे न तो घर से बाहर निकल सकती थीं; न पढ़ सकती थीं और न रोज़गार के लिए कोई हुनर उनके पास था। लम्बे समय के बाद देश में निर्वाचित सरकार बनी और देश के पुनर्निर्माण का काम शुरू हुआ।
पुनर्निर्माण के इस काम में भारत भी आगे आया। आज हर तरफ़ भारत की ओर से वहाँ बनाये गये पुलों, अस्पतालों और स्कूलों की चर्चा तो हो रही है; लेकिन पर उस केंद्र की बात कोई नहीं कर रहा, जिस पर अब नहीं जा सकने की बात हफ़ीज़ा कर रही हैं। जिसका नाम है- सबाह बाग़-ए-ख़ज़ाना सोशल एसोसिएशन। काबुल स्थित यह केंद्र वहाँ की ऐसी बेबस, विधवा और असहाय महिलाओं का अपना केंद्र है, जहाँ वे एक साथ जमा होकर अलग-अलग तरह के हुनर सीखती और सिखाती हैं। अपने उत्पाद तैयार करती हैं और फिर उन्हें बाज़ार में बेचकर पैसे कमाकर अपने परिवार का पेट पालती हैं। इस केंद्र को बनाने का काम इन बहनों ने ख़ुद ही किया और आज उसे चला भी ख़ूद ही रही थीं। इसे बनाने और चलाने की हिम्मत और सलाहियत उन्हें सेवा से ही मिली। अहमदाबाद की स्वाश्रयिन (अपने भरोसे रहने वाली) महिलाओं के लिए संघ सेवा की स्थापना सन् 1972 में इला भट्ट ने स्वरोज़गार में लगी असंगठित क्षेत्र की कामगार महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए की थी। आज देश के 18 से अधिक राज्यों में इसके केंद्र 10 लाख से अधिक महिलाओं के परिवारों को ग़रीबी से बाहर निकालकर आत्मनिर्भर बनाने का काम कर रहे हैं।


इस संस्था की मौज़ूदा निदेशक रीमा नानावटी के अनुसार, सन् 2006 में प्रधानमंत्री कार्यालय से सेवा के पास एक पत्र आया। इसमें कहा गया था कि अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण कार्य के तहत भारत क़रीब 1,000 ग़रीब ग्रामीण महिलाओं को प्रशिक्षित करना चाहता है, ताकि वे अपनी आजीविका ख़ूद कमा सकें। क्या ‘सेवा’ इस काम से जुड़ सकता है? प्रस्ताव को स्वीकार करने से पहले सेवा ने काबुल में जाकर हालात का जायज़ा लिया। उसने पता लगाया कि वहाँ के स्थानीय संसाधन क्या हैं? और उनके आधार पर वहाँ की महिलाओं को किस-किस प्रकार के रोज़गार का प्रशिक्षण दिया जा सकता है? जिससे वे अपने ही स्थानीय संसाधनों को आधार बनाकर आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सकें। हमें ऐसे तीन क्षेत्र समझ में आये- पहला, कपड़ों की सिलाई और कढ़ाई; क्योंकि वे कढ़ाई बहुत सुन्दर करती थीं। दूसरा, खाद्य प्रसंस्करण; क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में फलों और मेवों का भण्डार है। और तीसरा, पौधों की नर्सरी; क्योंकि उत्सवों में वहाँ फूलों का जमकर उपयोग होता है। इन तीनों क्षेत्रों की बाज़ारी सम्भावनाओं का भी पता लगाया गया और यह भी कि क्या वहाँ कोई ऐसा संगठन है, जिसके साथ मिलकर यह काम किया जा सके? वहाँ से लौटकर रिपोर्ट सरकार को दे दी। उसके बाद काम शुरू हुआ। इसमें भारत सरकार, अफ़ग़ानिस्तान सरकार के महिला मंत्रालयों और सेवा संगठन, तीनों ने मिलकर काम किया और अभी तक कर रहे हैं।
ग़रीब अफ़ग़ानिस्तानी महिलाओं को रोज़गार प्रशिक्षण देने की इस साझा परियोजना के साथ शुरू से ही जुड़ी सेवा की तीन बहनों- मनीषा पंड्या, प्रतिभा पंड्या और मेघा देसाई के अनुसार, शुरू में वे काबुल में प्रशिक्षण देने गयीं। लेकिन जब बार-बार तालिबानों के हमले होने लगे, तो योग्य बहनों का चयन कर उन्हें अहमदाबाद के सेवा दफ़्तर में प्रशिक्षण दिया जाने लगा। तालिबानी हमलों ने उनके आत्मविश्वास को बुरी तरह तोड़ दिया था। वे बोल नहीं पाती थीं; लेकिन कुछ करना चाहती थीं। हमने सबसे पहले तो उनके आत्मविश्वास को लौटाया। फिर वस्त्र निर्माण, खाद्य प्रसंस्करण और पौधों की नर्सरी के क्षेत्र में मास्टर ट्रेनर्स तैयार किये। महिलाओं को सिखाया कि कैसे वे अपने शहर में जाकर प्रशिक्षण की इच्छुक महिलाओं को प्रशिक्षित कर उनका कौशल्य संवर्धन कर सकती हैं। काम के हुनर के साथ-साथ हमने इन तीनों बहनों को बाज़ार प्रबन्धन और अपने आसपास की स्थितियों को देखकर काम तथा बाज़ार की सम्भावनाओं का पता लगाने की क्षमता बढ़ाने का प्रशिक्षण भी दिया। शुरू के तीन साल तो तीन-तीन महीने के लिए सेवा दल (टीमें) एक के बाद एक लगातार वहाँ जाते रहे। वहाँ काम करना आसान नहीं था; लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। एक बार तो जहाँ हम ठहरी हुई थीं, वहीं पर बमों से हमला किया गया। प्रशिक्षण ले रही बहनों को भी धमकियाँ मिलती रहती थीं। ख़ुद महिलाओं की अपनी पारिवारिक और सामाजिक दिक़्क़तें थीं। तब हमने उनके पुरुषों को भी बैठकों में बुलाना शुरू किया। महिलाओं को समूहों में संगठित किया। फैक्ट्रियों में उन्हें काम नहीं मिलता था, तो उनके मालिकों से बात की। इन सब प्रयासों से उनकी आर्थिक, सामाजिक और मानसिक ताक़त काफ़ी बढ़ गयी। अब वे अपना रोज़गार भी करने लगीं। उन्होंने सबाह बाग़-ए-ख़ज़ाना सोशल एसोसिएशन को अपना केंद्र बना लिया। उनका सामान बाज़ार में ब्रांड के नाम से बिकने लगा। वे भारत में सेवा की व्यापार प्रदर्शनियों में भाग लेने लगीं। कमाने लगीं, तो घर के लोगों का विरोध बन्द हो गया। वे पढऩा-लिखना सीखने लगीं। बच्चों को स्कूल भेजने लगीं। ये सभी महिलाएँ ऐसी थीं, जिन पर उनके परिवार हर प्रकार से निर्भर थे। इनको आत्मनिर्भर होते देख वहाँ के महिला विकास मंत्रालय ने दूर-दराज़ के प्रान्तों में भी महिलाओं को प्रशिक्षण दिलवाने का फ़ैसला किया। सन् 2008 से लेकर इस साल 2021 तक सेवा काबुल शहर और पाँच प्रान्तों- मज़ार-ए-शरीफ़, हेरात, कंधार, बग़लान और परवान में 10,000 से ज़्यादा महिलाओं को आत्मनिर्भर बना चुकी है। 15 अगस्त तक सबाह केंद्र चल रहा था।
सेवा के अनुसार- ‘अभी अफ़ग़ानिस्तान के हालात के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। महिलाएँ एक बार फिर अपने को उसी हालत में पा रही हैं, जिसमें वे सन् 2008 में थीं। उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लग रहा है। फिर भी हम यही कह सकते हैं कि अपने को देश में असुरक्षित महसूस कर रही ये महिलाएँ जहाँ कहीं भी रहेंगी, अपना रोज़गार कर ही लेंगी। वे अन्दर से जागरूक हैं और हुनर का हौसला उनके पास है।’

मानसिक रोगियों से किनारा क्यों?

मैं पहले जिस अपार्टमेंट में रहती थी, वहाँ कभी-कभी किसी युवक के ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने, रोने की आवाज़ आती थी। पता चला कि एक घर में एक लडक़े की मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं रहती और जब वह बेक़ाबू हो जाता है, तो परिवार उसे रस्सियों से बाँध देता है। देश में ऐसे सैकड़ों क़िस्से हैं, जो मानसिक रोगियों के प्रति परिवार और समाज की सोच को सामने रखते ही हैं, साथ ही सरकारी व्यवस्था पर भी सवाल भी खड़े करते हैं।

दरअसल बीमारियों और उनके इलाज को लेकर जब चर्चा होती है, तो उसका दायरा शारीरिक बीमारियों तक ही सिमटकर रह जाता है। मानसिक स्वास्थ्य का उसमें ज़िक्र नहीं किये जाने की प्रवृत्ति जगज़ाहिर है। ऐसा क्यों होता है? इसके कई प्रमुख कारण हैं; मसलन- मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का अभाव। इसे कलंक के तौर पर देखना। तनाव, अवसाद, चिन्ता को बीमारी के तौर पर स्वीकार नहीं करना। झाडफ़ूँक के चक्कर में पड़े रहना। सार्वजनिक रूप से इसे छुपाना। इसे परिवार के लिए परेशानी का सबब मानना। समाज की असंवेदनशीलता, सरकारों द्वारा भी इस मुद्दे को अधिक महत्त्व नहीं देना। इसकी भारी क़ीमत भुक्तभोगी व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र सबको चुकानी पड़ती है।

भारत में लोगों की मानसिक स्वास्थ्य का ख़ूलासा स्वास्थ्य मंत्रालय और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने कोरोना महामारी के शुरू होने से ठीक पहले दिसंबर, 2019 में जारी जिस रिपोर्ट में किया था, जिसके मुताबिक हर सात भारतीयों में से एक मानसिक रोगी है। इस हिसाब से भारत में अदांज़न 20 करोड़ लोगों को इलाज की ज़रूरत है।

कोरोना महामारी को क़रीब 15 माह हो गये हैं और अब मानसिक रोगियों की संख्या बढऩे की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। क्योंकि पिछली महामारियों का इतिहास यही बताता है कि ऐसे मुश्किल क़रीब में मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी कहना है कि मौज़ूदा समय यानी महामारी में मानसिक रोगियों की स्थिति और ख़राब हो सकती है। कोरोना संक्रमित मरीज़, इससे ठीक हो चुके लोग, गर्भवती महिलाएँ, युवा, बुजुर्ग, स्वास्थ्य कार्यकर्ता, अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ता, खिलाड़ी, आपात स्थिति में काम करने वाले भी मानसिक तनाव के दायरे में शमिल हैं। यही नहीं, इस महामारी की वजह से पैदा अवसाद, चिन्ता का असर प्रजनन क्षमता पर भी पड़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गर्भवती महिलाओं और गर्भधारण के बारे में विचार करने वाली महिलाओं को विशेष सहयोग प्रदान करने की अपील की है। भारत में इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च इस मुश्किल घड़ी में गर्भावस्था व प्रजनन वाले मुद्दे से सम्बन्धित शोध आधारित सूचनाएँ लोगों को मुहैया करा रही है।

मानसिक स्वास्थ्य पर असर

प्राकृतिक आपदा हो या कोई अन्य त्रासदी उसका व्यक्ति, परिवार और समाज की मानसिक स्वास्थ्य पर अल्पकालिक या दीर्घकालिक असर पड़ता ही है। ताज़ा उदाहरण अफ़ग़ानिस्तान में तेज़ी से बदल रहे राजीनतिक हालात के सन्दर्भ में समझा जा सकता है। अफ़ग़ानिस्तान की अधिकांश जनता तालिबानियों के 20 साल पुराने ज़ुल्मों को याद करके डरी हुई है। अफ़ग़ानी लड़कियों, महिलाओं की ताज़ा मानसिक हालत उनके इन बयानों से जानी जा सकती है, जो रोज़ाना हम सुन, पढ़ रहे हैं। इसी तरह आतंकवाद से प्रभावित परिवारों की मानसिक स्वास्थ्य को समझने की ज़रूरत है।

भारत में सन् 1993 में महाराष्ट्र के लातूर और सन् 2001 में गुजरात में जो भूकम्प आया, उसमें कितने लोग मारे गये; आर्थिक नुक़सान भी विकट हुआ। मगर जो जीवित बच गये और उन्होंने यह सब अपनी आँखों से देखा, उनके मानसिक स्वास्थ्य पर काफ़ी असर हुआ। भोपाल गैस त्रासदी को कौन भूल सकता है? जो ज़िन्दा बच गये, उनमें से अधिकांश शारीरिक रूप से बीमार हैं और अवसाद, चिन्ता से आज तक उनका पीछा नहीं छूटा है।

भारत में मानसिक पेशेवरों के द्वारा भोपाल गैस त्रासदी, बम ब्लास्ट, भूकम्प आदि त्रासिदयों का विस्तार से अध्ययन तो किया गया; लेकिन प्रशासकों के बीच इस मुद्दे को लेकर जागरूकता की कमी, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े धब्बे और पेशवरों की कमी के कारण मानसिक स्वास्थ्य पर कोई कामयाब हस्तक्षेप नज़र नहीं आता। तक़रीबन 135 करोड़ की आबादी वाले देश में महज़ 8,000 पेशेवर हैं और वो भी अधिकांश शहरी इलाक़ों में। गाँवों से भूत भागाने वाली ख़बरें बताती हैं कि वहाँ मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लोगों के बीच कितनी ग़लत धारणाओं ने जगह बनायी हुई है और इसके प्रसार को बल इसलिए भी मिलता है, क्योंकि वहाँ पेशेवर मनोचिकित्सकों की भारी कमी है। भारत सरकार ने 10 अक्टूबर, 2014 को राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति लागू की थी और इसका उद्देश्य भारतवासियों की मानसिक स्वास्थ्य को दुरुस्त रखना है। मानसिक रोगों से ग्रस्त लोगों के इलाज के वास्ते उन तक सेवाएँ पहुँचाना और इसके प्रति जागरूकता का प्रचार-प्रसार भी करना है। पर यह कितनी दुरस्त है? एक रिपोर्ट के मुताबिक, अंदाज़न 20 करोड़ देशवासियों को मानसिक बीमारियों के इलाज की दरकार है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का 2019 का एक अध्ययन बताता है कि देश में जिन लोगों ने अपनी ज़िन्दगी का अन्त ख़ुद किया, वे पारिवारिक दिक़्क़तों में थे। जिन लोगों ने अपनी ज़िन्दगी को ख़ुद मौत के हवाले किया, उनमें से एक-चौथाई दिहाड़ी मज़दूर थे। यह इस ओर भी इशारा करता है कि ग़रीबी और भावनात्मक परेशानियों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बहरहाल कोरोना-काल में मानसिक स्वास्थ्य के कई पहलुओं पर बहस छिड़ गयी है और समाज के भीतर इस बाबत जागरूकता फैलाने की दिशा में काम करने की बहुत ज़रूरत है।

हाल ही में जामा पैडियाट्रिक्स जर्नल में प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय शोध रिपोर्ट के मुताबिक, कोराना-काल के दौरान युवाओं में मानसिक परेशानियाँ दोगुनी हो गयीं। महामारी से पहले 10 में से केवल एक युवा में अवसाद व चिन्ता के लक्षण मिले थे; लेकिन इस महामारी में हर चार युवाओं में से एक को अवसाद का सामना करना पड़ा, तो हर पाँच में से एक युवा चिन्ता और चिड़चिड़ेपन का शिकार हुआ।

सरकारी प्रयास नाकाफ़ी

दरअसल कोरोना महामारी को हराने और भविष्य में ऐसे संकट से निपटने के लिए जिस तरह अस्पतालों में सेवाओं का विस्तार व उनकी गुणवत्ता सुधारने के लिए सरकार योजनाएँ बना रही है। इसी तरह लोगों की मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्धित मौज़ूदा ढाँचे को मज़बूत करने और नये ढाँचे को खड़ा करने की भी दरकार है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय ने बीते साल देश भर में तालाबंदी की घोषणा के एक हफ़्ते के अन्दर ही यानी 29 मार्च, 2020 को ही लोगों को मनोवैज्ञानिक व सामाजिक सहारा मुहैया कराने के लिए एक हेल्पलाइन नंबर-080-46110007 जारी कर यह सन्देश दिया कि उसे अपनी जनता के मानसिक स्वास्थ्य की भी फ़िक्र है। यह एक ऐसा प्रयास था, जिसकी इस महामारी में बहुत ज़रूरत है।

लेकिन इस हेल्पलाइन नंबर के बारे में बहुत कम लोग ही जानते होंगे। क्योंकि इसका अधिक प्रसार नहीं किया गया। कुछ लोग इसे महज़ खानापूर्ति भी कह चुके हैं। वैसे कोरोना महामारी और हाल ही में जापान के टोक्यो में आयोजित ओलंपिक खेलों ने मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे को फिर से चर्चा में ला ही दिया है।

अमेरिका की स्टार जिमनास्ट सिमोनी बाइल्स ने ओलंपिक खेलों में जिमनास्टिक की कई स्पर्धाओं से ख़ुद को हटाने का ऐलान करके सबको चौंका दिया था। पहले इसकी वजह बाइल्स का चोटिल होना बताया गया। लेकिन बाद में उसने ख़ुद स्पष्ट किया कि वह काफ़ी दबाव में है। दिमाग़ी तनाव और लोगों की आशाओं के बोझ से उनका आत्मविश्वास हिल गया।

विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी हालत में सिर्फ़ ख़तरा यह नहीं रहता कि खिलाड़ी का प्रदर्शन ठीक नहीं रहेगा, बल्कि यह भी रहता है कि उसका मानसिक स्वास्थ्य कहीं बड़े ख़तरे में न पड़ जाए। ग़ौरतलब है कि ओलंपिक खेलों में उठे मानसिक स्वास्थ्य वाली समस्या ने अमेरिका के लोगों में इसे लेकर गहरी दिलचस्पी पैदा कर दी है। मीडिया पर नज़र रखने वाली एक संस्था के आधार पर एक्सियासडॉटकॉम ने बताया है कि बाइल्स के स्पार्धाओं से हटने की ख़बर के बाद दिमाग़ी स्वास्थ्य के बारे में ख़बरें और जानकारियाँ तलाशने वाले लोगों की संख्या में काफ़ी वृद्धि हुई।

आज भारत में मानसिक स्वास्थ्य पर बात करने वाला माहौल बनाना एक बहुत बड़ी चुनौती है। शारीरिक स्वास्थ्य व मन की स्वास्थ्य को एक ही लैंस से देखना चाहिए। बेशक इसके प्रति जागरूकता फैलाने के लिए परिवार, समाज, सरकार और ग़ैर-सरकारी पक्षों को मिलकर काम करना होगा।

मानसिक स्वास्थ्य के सन्दर्भ में देश में नीति स्तर पर सक्रिय हस्तेक्षप और संसाधनों के आवंटन की दरकार है। वित्त वर्ष 2021-22 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय के लिए प्रस्तावित 71,269 करोड़ रुपये में मानसिक स्वास्थ्य के लिए महज़ 597 करोड़ ही रखे गये हैं। एक तरफ़ देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है कि स्वास्थ्य और सलामती आत्मनिर्भर भारत का एक अहम स्तम्भ है। क्या वास्तव में ऐसा है?

महाराष्ट्र में बढ़ीं आयुष डॉक्टरों और चिकित्साकर्मियों की मुश्किलें

महाराष्ट्र विधानसभा के मानसून सत्र से पहले राज्य के आदिवासी ज़िलों के सुदूर इलाक़ों में कार्यरत 281 डॉक्टरों ने स्वास्थ्य विभाग की उदासीनता से तंग आकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिखकर सामूहिक आत्महत्या की अनुमति माँगी थी।
लगभग दो दशकों से ये सभी बीएएमएस डॉक्टर 16 आदिवासी ज़िलों के दूरदराज़ के गाँवों के साथ-साथ उन गाँवों में चिकित्सा सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं, जहाँ सडक़ें तक नहीं हैं। इन क्षेत्रों में ये डॉक्टर गर्भवती महिलाओं के साथ-साथ कुपोषित बच्चों के स्वास्थ्य जाँच से लेकर छोटी-मोटी बीमारियों और साँप-बिच्छू के काटने जैसी विभिन्न बीमारियों का इलाज करते हैं।
इनका कहना है कि गढ़चिरौली जैसे नक्सल प्रभावित इलाक़ों में काम करने वाले पुलिस या अन्य सरकारी कर्मचारियों को विशेष प्रोत्साहन भत्ता दिया जाता है; लेकिन उन्हें 24,000 रुपये में बँधुआ मज़दूर-सा काम करना पड़ रहा है। 281 डॉक्टरों का नेतृत्व करने वाले डॉक्टर सूर्यवंशी का आरोप है कि स्वास्थ्य विभाग के वरिष्ठ डॉक्टर उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं; जबकि पिछले डेढ़ साल से बीएएमएस डॉक्टर गाँव में कोरोना मरीज़ों का इलाज कर रहे हैं। 11 महीने पहले सितंबर में उप मुख्यमंत्री अजित पवार, स्वास्थ्य मंत्री राजेश टोपे और आदिवासी मंत्रियों के बीच हुई बैठक में आदिवासी ज़िले में कार्यरत 281 डॉक्टरों की मानदेय राशि 24,000 रुपये से बढ़ाकर 40,000 रुपये करने का निर्णय लिया गया था। लेकिन आज तक उस पर अमल नहीं हो सका है। स्वास्थ्य विभाग में डॉक्टरों के हज़ारों पद ख़ाली हैं।
आज हमें स्वास्थ्य विभाग से 18,000 रुपये और आदिवासी विभाग से 6,000, यानी कुल मिलाकर 24,000 रुपये मिलते हैं। डॉक्टर ने यह भी कहा कि इसकी कोई गारंटी नहीं है कि यह समय पर मिल जाएगा। डॉ. अरुण कोली पूछते हैं कि अगर 11 महीने बाद भी सरकार 40,000 मानदेय वृद्धि के फ़ैसले को लागू नहीं करती है, तो डॉक्टरों को क्या करना चाहिए?
मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री और आदिवासी मंत्री को भेजे गये पत्र में डॉक्टरों पूछते हैं कि यदि सरकार अपने फ़ैसले को लागू नहीं करती है, तो हम कैसे जी सकते हैं? मेलघाट, नंदुरबार, गढ़चिरौली, अमरावती में डॉक्टरों से बातचीत करके देखिए फिर पता चलेगा कि हम लोग किस तरह पर ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। इन डॉक्टरों की उनसे अपील है कि वे आकर देखें कि हम किस परिस्थितियों और मानसिकता में काम कर रहे हैं। इन डॉक्टरों ने घर से दूर मरीज़ों की सेवा करते हुए अपने बच्चों और माता-पिता की देखभाल कैसे करें? इसका मुद्दा उठाया।
बक़ौल डॉ. राजू इंगले, पेट्रोल-डीजल, खाद्य तेल, गैस से लेकर बच्चों की पढ़ाई तक सब कुछ दिन-ब-दिन महँगा होता जा रहा है। यहाँ वर्षों से हम सभी अस्थायी हैं। डॉक्टरों को स्वास्थ्य विभाग की ओर से कोई बीमा कवरेज नहीं दिया गया है। यदि ड्यूटी के दौरान मौत हो जाती है, तो स्वास्थ्य विभाग एक पैसा भी नहीं देता है। हमारे कुछ डॉक्टर मर चुके हैं, उनके परिवार बर्बाद हो गये हैं। लेकिन स्वास्थ्य विभाग उनसे पूछता तक नहीं है।
हममें इंसानियत है; हम अमानवीय नहीं हो सकते। दूर-दराज़ के इलाक़ों में मरीज़ों के बारे में सोचकर आन्दोलन भी नहीं कर सकते और सरकार है कि किसी तरह की सहानुभूति के लिए तैयार नहीं है। इसलिए हमने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर कम-से-कम आत्महत्या की अनुमति देने का अनुरोध किया था।
राज्य में कोविड महामारी की स्थिति
दूसरी ओर कोविड महामारी की पहली और दूसरे लहर के दौरान आयुष डॉक्टरों की संविदा पर की गयी नियुक्ति, बिना पूर्व सूचना के किये जाने से आयुष डॉक्टर में रोष फैला हुआ है। उनका कहना है कि जब तक सरकार को महामारी में के दौरान उनकी सेवाओं की ज़रूरत थी, तो उसने हमारी सेवाएँ लीं। अब उन्हें लगता है कि महामारी ख़त्म हो रही है और हमारी उन्हें ज़रूरत नहीं है, तो उन्होंने हमें सडक़ में फेंक दिया है।
डॉक्टर अर्चना कहती हैं कि 02 अगस्त को अधिकतर आयुष डॉक्टरों को मौखिक रूप से कह दिया गया कि आपकी सेवाएँ समाप्त की जाती हैं। हमें इतना भी वक़्त नहीं दिया गया कि हम कुछ पूर्व तैयारियाँ करें। इतना ही नहीं, हमें मुहैया कराये गये आवास को भी तुरन्त ख़ाली करने को कह दिया गया। हमें पिछले दो महीने की तनख़्वाह तक नहीं मिली है। हम कहाँ जाएँ और किससे कहें? डॉक्टर अर्चना मुम्बई से सटे मीरा-भायंदर नगर पालिका से जुड़ी हैं। डॉक्टरों के अलावा नर्स एवं अन्य कर्मचारी भी हैं, जिन्हें महामारी के दौरान नियुक्त किया गया था, तक़रीबन 120 लोगों के सामने अचानक जीवनयापन की समस्या आन खड़ी हुई है।
ऐसी समस्या महाराष्ट्र के गोंदिया ज़िले की डॉक्टर शिल्पा के सामने आन खड़ी हुई है। गोंदिया नगर पालिका से जुड़े 100 से अधिक डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों को उनकी सेवा ख़त्म होने की मौखिक सूचना दे दी गयी। डॉक्टर शिल्पा कहती हैं कि महामारी के दौरान जब डॉक्टरों की भारी कमी थी। लोग डरे हुए थे, हम लोग बिना डरे अपनी सेवाएँ देने अपने गाँव, घर छोडक़र आये। हम जानते हैं कि हम जिस पेशे में हैं, वहाँ पर मानव सेवा सर्वोपरि मानी जाती है। हमने अपना फ़र्ज़ तो अदा कर दिया, अदा कर भी रहे हैं और आगे भी आगे करना चाहते हैं। लेकिन सरकार कब अपना फ़र्ज़ निभाएगी? डॉक्टर अर्चना कहती हैं कि जब तक इन्हें हमारी ज़रूरत थी, तब तक उनके पास हमें देने के लिए वेतन के लिए फंड था। आज यह कहते कि हमारे पास फंड नहीं है। प्रशासन इतना असंवेदनशील कैसे हो सकता? मीरा भायंदर के डॉक्टरों ने इस मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की है।
हालाँकि कोरोना वायरस की तीसरी लहर के मद्देनज़र बीएमसी, मुम्बई महानगर नगर पालिका ने तीन महीने के लिए अनुबन्ध पर लगभग 1,000 डॉक्टरों और इतनी ही संख्या में नर्सों को काम पर रखने पर विचार कर रही है। 900-1,000 एमबीबीएस, आयुर्वेद और होम्योपैथी डॉक्टरों से आवेदन आमंत्रित करते हुए एक विज्ञापन जारी किया गया। इसके अलावा 50-70 विशेषज्ञों की भी नियुक्ति की जाएगी।
बीएमसी से जुड़े एक डॉक्टर अपना नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि आयुष डॉक्टरों के साथ भेदभाव से इन्कार नहीं किया जा सकता; लेकिन बीएमसी में इस बात की गारंटी होती है कि तनख़्वाह समय पर मिल जाती है। हालाँकि कई डॉक्टरों को बीच में दो माह की तनख़्वाह नहीं मिली थी और उसके लिए डॉक्टरों को अपनी आवाज़ उठानी पड़ी, जो अच्छी बात नहीं। आप ही बताएँ महामारी के दौरान डॉक्टर मरीज़ों की सेवा करेंगे या फिर अपनी तनख़्वाह के लिए लामबन्द होंगे?
इस सिलसिले में सूबे के स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़े एक अधिकारी का कहना है कि यह मामला स्थानीय प्रशासन के अधिकृत है, जिसकी ज़िम्मेदारी स्थानीय कलेक्टर के पास है। सरकार की इस मामले में कोई भूमिका नहीं है। उनका कहना था कि जब डॉक्टरों व अन्य स्वास्थ्य कर्मियों को संविदा पर नियुक्त किया गया था, उस समय उन्हें पता था कि उनकी नियुक्ति सिर्फ़ वैश्विक महामारी रहने तक ही है। स्वास्थ्य मंत्रालय को इस बात की भी कि आयुष डॉक्टरों इस तरह से कोई पत्र सरकार को या सम्बन्धित विभाग को भेजा था; की जानकारी नहीं है।

शिक्षा का दायरा बढ़ाकर ही सम्भव है भारत का सर्वांगीण विकास

प्रति वर्ष 8 सितंबर को अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने सन् 1966  में साक्षरता एवं शिक्षा के प्रति विश्व के लोगों में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से इस दिवस को मनाने का निर्णय लिया था। आज भारत समेत दुनिया के कई देश अलग-अलग सामाजिक समस्याओं से जूझ रहे हैं, अशिक्षा उन्हीं में से एक है। वर्तमान समय में शिक्षा किसी भी समाज के विकास की एक अनिवार्य शर्त है। साक्षर एवं शिक्षित नागरिक विज्ञान, स्वास्थ्य, आर्थिक, राजनीतिक तथा लोक प्रशासन जैसे विविध क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और समाज में अनुकूल बदलाव ला सकता है। यूरोपीय देश इसके शानदार उदाहरण हैं, जहाँ आज कई देशों में साक्षरता स्तर 100 फ़ीसदी तक पहुँच गया है। हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में दुनिया में साक्षरता तेज़ी से बढ़ी है; लेकिन यह दुर्भाग्य है कि आज भी करोड़ों युवा तथा महिलाएँ कई कारणों से अशिक्षित हैं। यूनेस्को के हाल के आँकड़े यह बताते हैं कि दक्षिण एशिया, पश्चिम एशिया तथा उप-सहारा अफ्रीकी देशों में सबसे ज़्यादा निरक्षर वयस्क आबादी रहती हैं। ज़्यादातर यूरोप, उत्तरी अमेरिका तथा एशिया के विकसित देशों में साक्षरता दर विकासशील देशों के मुक़ाबले बेहद शानदार है। दुनिया में वयस्क अशिक्षितों में आज भी लगभग दो-तिहाई संख्या महिलाओं की हैं। यह निराशाजनक है कि 21वीं सदी में आज जहाँ हमें उच्च एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के बारे में बातें करनी चाहिए थीं, वहीं हम अभी तक निरक्षरता और साक्षरता पर ही बहस कर रहे हैं। आज भी कई अफ्रीकी देश ऐसे हैं, जिन्हें 50 फ़ीसदी साक्षरता दर हासिल करने में अभी भी कई साल लगेंगे। दक्षिण सूडान, चाड, नाइजर, बुर्किना फासो तथा माली कुछ ऐसे ही देश हैं। इंटरनेट पर प्राप्त कुछ वेबसाइट्स के आँकड़ों के अनुसार, उत्तर कोरिया और उज्बेकिस्तान जैसे कुछ छोटे विकासशील देश ऐसे भी हैं, जिन्होंने अपनी साक्षरता दर तो लगभग शत-प्रतिशत कर ली है; लेकिन वे उच्च शिक्षा तथा विकास के अन्य पैमानों पर अभी भी बहुत पीछे हैं।

भारत में साक्षरता दर

पिछले वर्ष राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय द्वारा जारी 75वें राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) की रिपोर्ट बताती है कि देश की साक्षरता 77.7 फ़ीसदी है; जिसमें पुरुषों की साक्षरता दर 84.7 फ़ीसदी, जबकि महिलाओं की साक्षरता दर 70.3 फ़ीसदी है। इस रिपोर्ट के अनुसार, सर्वेक्षण में शामिल सभी राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में पुरुषों की साक्षरता दर महिलाओं से ज़्यादा है। केरल 96.2 फ़ीसदी साक्षरता के साथ एक बार फिर पहले पायदान पर है, जबकि आंध्र प्रदेश 66.4 फ़ीसदी साक्षरता दर के साथ राज्यों में सबसे निचले स्थान पर है। दिल्ली (88.7 फ़ीसदी), उत्तराखण्ड (87.6 फ़ीसदी), हिमाचल प्रदेश (86.6 फ़ीसदी) तथा असम (85.9 फ़ीसदी) में साक्षरता दर बहुत अच्छा है और ये शीर्ष पाँच में शामिल हैं। वहीं दूसरी ओर राजस्थान (69.7 फ़ीसदी), बिहार (70.9 फ़ीसदी), तेलंगाना (72.8 फ़ीसदी) व उत्तर प्रदेश (73 फ़ीसदी) में साक्षरता दर बाक़ी राज्यों की तुलना में कम हैं और यहाँ बेहतर करने की ज़रूरत है। यह सर्वेक्षण हिन्दी राज्यों में फैले इस भ्रम को तोड़ता है, जो यह मानते हैं कि दक्षिण के सभी राज्यों में साक्षरता दर ज़्यादा है। इस सर्वेक्षण से हमें यह भी पता चलता है कि आंध्र प्रदेश, राजस्थान, बिहार, तेलंगाना तथा उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की साक्षरता राष्ट्रीय साक्षरता दर के औसत से कम है।

इस सर्वेक्षण में एक बेहद महत्त्वपू्र्ण बात यह है कि केरल में पुरुषों और महिलाओं के बीच जो साक्षरता का अन्तर है, वह मात्र 2.2 फ़ीसदी है; जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह अन्तर 14 फ़ीसदी से भी ज़्यादा है। बड़े हिन्दी भाषी राज्यों में पुरुषों तथा महिलाओं के बीच साक्षरता का अन्तर राष्ट्रीय स्तर से भी बहुत ज़्यादा है। राजस्थान में यह अन्तर 23.2 फ़ीसदी, बिहार में 19.2 फ़ीसदी तथा उत्तर प्रदेश में 18.4 फ़ीसदी का है, जिसे कम करना बेहद ज़रूरी है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि शहरी साक्षरता दर 87.7 फ़ीसदी जबकि ग्रामीण साक्षरता दर 73.5 फ़ीसदी है। ग्रामीण साक्षरता के दृष्टिकोण से राजस्थान एक ऐसा राज्य है जहाँ पुरुषों तथा महिलाओं के बीच साक्षरता का अन्तर 25 फ़ीसदी है, जो बेहद गम्भीर स्थिति है।

देश में साक्षरता एवं शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से केंद्र सरकार, राज्य सरकार तथा ग़ैर- सरकारी संगठन आज देश के कोने-कोने में कार्य कर रहे हैं। लेकिन फिर भी सच यही है कि देश में आज भी करोड़ों लोग निरक्षर हैं। एक तरफ़ हम आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ करोड़ों लोग इस देश में ऐसे भी हैं, जो अपना हस्ताक्षर तक नहीं कर सकते। हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि साक्षर एवं शिक्षित भारत ही प्रगतिशील सोच का द्वार खोलेगा, जिसके द्वारा सही मायनों में सामाजिक विकास सम्भव होगा। यह दु:खद बात है कि आज शिक्षा से जुड़ी कई सरकारी योजनाएँ तथा अभियान जैसे मिड-डे मील,  छात्रवृत्ति योजना, समग्र शिक्षा अभियान, इत्यादि के बावजूद आज भी लाखों बच्चे स्कूल से बाहर हैं। बहुत सारे बच्चे स्कूल में तो आ जाते हैं; लेकिन वे प्राथमिक कक्षा से माध्यमिक तक पहुँचते-पहुँचते स्कूल ही आना छोड़ देते हैं। ऐसे में यहाँ सवाल यह उठता है कि कोई भी देश बिना बच्चों को शिक्षित किये कैसे बेहतर भविष्य का सपना देख सकता है?

हमें यह बात अच्छी तरह समझनी होगी कि सतत् विकास के कई वैश्विक लक्ष्यों में एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य गुणवत्तापूर्ण शिक्षा भी है, जो साक्षरता से कई क़दम आगे की बात है। अगर हमें वास्तव में इस वैश्विक लक्ष्य को एक समय सीमा के अन्दर प्राप्त करना हैं, तो सभी देशों की सरकारों, ग़ैर-सरकारी संगठनों तथा यूनेस्को जैसे वैश्विक महत्त्व के संस्थानों को बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। विश्वव्यापी उच्च साक्षरता दर प्राप्त करने के लिए सामाजिक जागरूकता तथा आर्थिक सशक्तिकरण ज़रूरी है। अत: इस दिशा में सभी देश की केंद्र और सभी राज्य सरकारों तथा वैश्विक संगठनों को गम्भरतापूर्वक प्रयास करने की ज़रूरत है।

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)

विपक्ष में ममता ही विकल्प!

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी विपक्षी एकता को एकजुट करने के लिए तामाम कोशिशें कर रही हैं। लेकिन हक़ीकत में भाजपा की तरह ही टीएमसी और सपा सहित अन्य क्षेत्रीय दल कांग्रेस के रूठे नेताओं को अपने पाले में लाने के लिए रात-दिन एक किये हुए हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि अनेकता में एकता की जगह एकता में अनेकता दिख रही है। भाजपा तो पहले से ही कांग्रेस के रूठे हुए नेताओं को अपने ख़ेमे में शामिल करती ही रही है। कई राज्यों में भाजपा की यह कोशिश कामयाब भी रही है, तो कई राज्यों में नाकाम भी। ऐसे में कांग्रेस को अपने को अंदरूनी कलह से बचकर ख़ुद को मज़बूत करने की पहले आवश्यकता है, उसके बाद ही वह अन्य दलों को अपने नेतृत्व में ले सकती है।
पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने 19 विपक्ष दलों का आह्वान कर एक बैठक का आयोजन किया। उनकी मंशा है कि सभी विपक्षी दल एक होकर भाजपा को सत्ता से बाहर करें। इसके लिए कांग्रेस ने 2024 के लोकसभा चुनाव को लक्ष्य में रखा है। कांग्रेस की मंशा है कि सभी दल एकजुट होकर भाजपा को न केवल सत्ता से बाहर कर दें, बल्कि उसे इतना कमज़ोर कर दें कि वह दोबारा सत्ता में न आ सके।
बताते चलें कि देश में मौज़ूदा समय में एनडीए की केंद्र्र सरकार के प्रति जनता में कई मामलों को लेकर काफी रोष है। इन दिनों महँगाई, बढ़ते गैस, डीजल, पेट्रोल के दाम और अब तक के सबसे बड़े किसान आन्दोलन जैसे मुद्दों को लेकर विपक्षी दल केंद्र्र सरकार को घेर रहे हैं। लेकिन हक़ीक़त में विपक्षी दल एक नहीं हो पा रहा है। दरअसल विपक्षी दल एकता के नाम पर दिखावे के तौर पर तो डिनर पार्टी में एक दिखते हैं; लेकिन फिर वही अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना ढोल बजाने लगते हैं। इसकी मुख्य वजह है कि नेतृत्व। सभी अपने-अपने हिसाब से नेतृत्व करने की चाहत रखते हैं।
सियासत में अपने-पराये के साथ-साथ निजी हित भी देखा जाता है। जैसा कि मौज़ूदा दौर में कांग्रेस की हालत पतली है; जबकि तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की अध्यक्ष व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राजनीति चमक रही है। उनके तेबर से साफ़ संकेत मिलते हैं कि वह केंद्र्र सरकार, ख़ासकर मोदी से सीधी टक्कर ले सकती हैं। हाल ही में कांगेस की नेता व पूर्व सांसद सुष्मिता देव ने कांग्रेस को छोडक़र टीएमसी का दामन थामा है। इससे ये सियासी तौर पर स्पष्ट है कि कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक दलों के नेता आने वाले दिनों में टीएमसी का दामन थाम सकते हैं। भाजपा सहित कांग्रेस के रूठे हुए नेता टीएमसी में आने के लिए बेताब दिख भी रहे हैं। वहीं कांग्रेस के नेताओं का मानना है कि भले ही कांग्रेस आज सत्ता में नहीं है; लेकिन देश की पुरानी और बड़ी पार्टी है। रहा सवाल नेताओं का दूसरे दलों में जाने का तो राजनीति में तो सब चलता ही रहता है।
कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि अगर कांग्रेस अध्यक्ष (सोनिया गाँधी) के नेतृत्व में विपक्ष एक नहीं हो सका, तो ममता बनर्जी के साथ एकता को बनाये जाने में कोई हर्ज नहीं है। मौज़ूदा दौर में सभी विपक्षी दलों को एकजुट होने में देर नहीं करनी चाहिए। क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में एकता के बलबूते पर भाजपा को घेरा ही नहीं जाना चाहिए, बल्कि उसे बंगाल की तर्ज पर परास्त भी करना चाहिए।
कांग्रेस के कई बड़े नेता इस बात को मानते हैं कि देश की सियासत आज धार्मिक और जातीय समीकरणों में उलझी हुई है। ऐसे में कांग्रेस को कुछ समय के लिए इंतज़ार और पैनी नज़र रखने की राजनीति करनी चाहिए।
यह बात विपक्षी दल खुलकर भले न कहें; लेकिन वो यह तो मानते हैं कि मौज़ूदा दौर में देश की राजनीति का जो मिजाज़ है, वो ममता बनर्जी के पक्ष में काफ़ी हद तक है। ममता के समर्थन का इशारा कुछ नेताओं ने पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में बता दिया था। कुछ राजनीतिक दलों ने तो ममता बनर्जी को जिताने के लिए ख़ुद को चुनावी रण से बाहर कर लिया था, तो कुछ ने ममता के साथ मंच साझा कर यह बता दिया था कि वे ममता के ही साथ हैं।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गाँधी एकता की क़वायद कर विपक्ष को एक करने में लगी हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि सारे कांग्रेसी सोनिया की क़वायद में शामिल हैं। ज़ोर इस बात पर दिया जा रहा है कि सही मायने में भाजपा, नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले में अगर कोई नेता है, तो वह हैं ममता बनर्जी। इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने जिस तरह से मोदी और उनकी टीम को ललकारा और पटखनी दी, उससे सभी विपक्षी दलों का हौसला बुलंद हुआ है। यह भी सम्भावना है कि उन्हें अन्य दलों के अलावा कांग्रेस का भी साथ मिल जाए।

चुनौतियों भरा बुज़ुर्गों का जीवन

देश और परिवार को आगे बढ़ाने के लिए पूरी ज़िन्दगी खपा देने वाले बुज़ुर्गों की सुध लेने में आख़िर क्यों पीछे हैं बच्चे? बुज़ुर्गों के हालात और उनकी देखभाल को लेकर तैयार किये गये सूचकांक पर आधारित श्वेता मिश्रा की रिपोर्ट :-

देश में पहली बार ‘बुज़ुर्गों के जीवन का गुणवत्ता सूचकांक’ जारी किया गया, जिसमें उनके सामने की चुनौतियों का आकलन किया गया है। इंस्टीट्यूट फॉर कॉम्पिटिटिवनेस ने यह रिपोर्ट हार्वर्ड बिजनेस स्कूल में इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजी एंड कॉम्पिटिटिवनेस के वैश्विक नेटवर्क के साथ मिलकर तैयार की है। इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजी एंड कॉम्पिटिटिवनेस के प्रोफेसर माइकल पोर्टर पिछले 25 वर्षों से इस पर कार्य कर रहे हैं। प्रधानमंत्री (ईएसी-पीएम) की आर्थिक सलाहकार परिषद् के समक्ष पेश इस रिपोर्ट में कहा गया है कि राजस्थान का बुर्ज़ुर्ग वर्ग में 54.61 के स्कोर (गणना) के साथ रैंकिंग में सबसे आगे है। हिमाचल (61.04) स्कोर के साथ अपेक्षाकृत बुर्ज़ुर्गवार श्रेणी में शीर्ष स्थान पर है। सूचकांक में उत्तराखण्ड दूसरे, हरियाणा तीसरे और पंजाब आठवें स्थान पर हैं।

केंद्र शासित प्रदेशों में चंडीगढ़ 61.81 के स्कोर के साथ शिखर पर है। यह केवल 33.03 के राष्ट्रीय औसत के मुक़ाबले 61.54 के उच्चतम स्कोर के साथ बुर्ज़ुर्ग स्तम्भ के लिए आय-सुरक्षा पर भारत का नेतृत्व करता है। हिमाचल 55.70 और हरियाणा 49.56 के स्कोर के साथ आय सुरक्षा के मामले में बेहतर राज्य हैं। बाक़ी राज्य राष्ट्रीय औसत से नीचे हैं। सामाजिक भलाई के मामले में हिमाचल, मेघालय, दादरा और नगर हवेली एवं मिजोरम प्रदर्शन करने वाले शीर्ष चार राज्य हैं।

रैंकिंग को चार श्रेणियों- बुर्ज़ुर्ग राज्य (50 लाख से अधिक बुर्ज़ुर्ग आबादी), अपेक्षाकृत बुर्ज़ुर्ग राज्य (50 लाख से कम बुर्ज़ुर्ग आबादी), केंद्र शासित प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्य में विभाजित किया गया है। राष्ट्रीय स्तर पर बुज़ुर्गों के स्वास्थ्य प्रणाली स्तम्भ का उच्चतम स्कोर 66.97 है, इसके बाद सामाजिक कल्याण श्रेणी में 62.34 है। बुज़ुर्गों के लिए अत्यधिक महत्त्व के रूप में गुणवत्ता पर सूचकांक 2021 में चार प्रमुख डोमेन में 45 विभिन्न संकेतक दर्शाये गये हैं; ये हैं- वित्तीय कल्याण, सामाजिक कल्याण, स्वास्थ्य प्रणाली और आय सुरक्षा। स्कोरकार्ड और रैंकिंग प्रणाली प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश की प्रगति के लिए एक संख्यात्मक मूल्य प्रदान करती है, जो उन्हें और बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित कर सकती है।

इंस्टीट्यूट फॉर कॉम्पिटिटिवनेस की ओर से बनाये गये प्रधानमंत्री के लिए आर्थिक सलाहकार परिषद् (ईएसी-पीएम) के अध्यक्ष डॉ. बिबेक देबरॉय ने बुज़ुर्गों के लिए जीवन की गुणवत्ता सूचकांक जारी किया। उन्होंने बताया कि इसमें राज्यों में उम्र बढऩे के साथ बदलावों पर मूल्यांकन किया गया है और देश के कुल बुज़ुर्गों का भी आकलन किया गया है। सूचकांक में आर्थिक अधिकारिता, शैक्षिक प्राप्ति और रोज़गार, सामाजिक स्थिति, शारीरिक सुरक्षा, बुनियादी स्वास्थ्य, मनोवैज्ञानिक भलाई, सामाजिक सुरक्षा और पर्यावरण को भी शामिल किया गया है। इस सूचकांक से भारत में बुर्ज़ुर्ग आबादी की ज़रूरतों और अवसरों को विस्तृत तरीक़े से समझा जा सकता है।

रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ

स्वास्थ्य प्रणाली के तौर पर उच्चतम राष्ट्रीय औसत 66.97, सामाजिक कल्याण में 62.34 है। वित्तीय कल्याण के लिए स्कोर 44.7 है, जिसमें शिक्षा प्राप्ति और रोज़गार के मामले में 21 राज्यों का प्रदर्शन सही नहीं है यानी उनमें सुधार की गुंजाइश है। राज्यों का आय सुरक्षा स्तम्भ में विशेष रूप से ख़राब प्रदर्शन है; क्योंकि आधे से अधिक राज्यों का स्कोर राष्ट्रीय औसत से नीचे है। यानी आय सुरक्षा में 33.03 स्कोर है, जो सभी स्तम्भों में सबसे कम है। राजस्थान और हिमाचल प्रदेश की स्थिति बाक़ी राज्यों की अपेक्षा बेहतर है। इससे पहले जून, 2011 में भारत सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने एक रिपोर्ट में बताया गया था कि 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। हालाँकि यह महज़ 7.4 फ़ीसदी थी। भारत जैसे विकासशील देश के लिए पेंशन परिव्यय, स्वास्थ्य देखभाल व्यय, वित्तीय अनुशासन, बचत स्तर, स्वास्थ्य आदि सहित विभिन्न सामाजिक आर्थिक मोर्चों के स्तर पर यह आबादी दबाव का कारण बन सकती है। इन मुद्दों पर अधिक ध्यान देने और वृद्ध समाज से निपटने के लिए समग्र नीतियों और कार्यक्रमों को बढ़ावा देना समय की ज़रूरत है।

केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के महानिदेशक एस.के. दास ने बताया कि बुर्ज़ुर्ग कुल आबादी का 7.4 फ़ीसदी हैं, जो समय के साथ बढ़ रहे हैं। अनुमान है कि सन् 2026 तक ये आबादी 12.4 फ़ीसदी तक हो सकती, जो कि सन् 1961 में 5.6 फ़ीसदी थी। सन् 2002-06 के दौरान जन्म के समय जीवन प्रत्याशा पुरुषों की उम्र 62.6 वर्ष की तुलना में महिलाओं की 64.2 वर्ष थी। 60 वर्ष की आयु के बाद जीवन की औसत शेष लम्बाई लगभग 18 वर्ष (पुरुषों के लिए 16.7, महिलाओं के लिए 18.9) पायी गयी और 70 वर्ष की आयु में 12 वर्ष (पुरुषों के लिए 10.9 और महिलाओं के लिए 12.4) से कम रही। 60-64 वर्ष आयु वर्ग के व्यक्तियों के लिए आयु-विशिष्ट मृत्यु दर में 20 (प्रति हज़ार) से 75-79 वर्ष की आयु के लोगों में 80 और 85 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों के लिए 200 की तीव्र वृद्धि हुई है। देश में वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात 1961 में 10.9 फ़ीसदी से बढक़र  2001 में 13.1 फ़ीसदी हो गया। 2001 में महिलाओं और पुरुषों के लिए अनुपात का मूल्य 13.8 फ़ीसदी और 12.5 फ़ीसदी था। लगभग 65 प्रतिशत बुज़ुर्गों को अपने दैनिक रखरखाव के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता था। 20 फ़ीसदी से कम बुर्ज़ुर्ग महिलाएँ, लेकिन अधिकांश बुर्ज़ुर्ग पुरुष आर्थिक रूप से स्वतंत्र थे। आर्थिक रूप से आश्रित बुर्ज़ुर्ग पुरुषों में से 6-7 फ़ीसदी को उनके जीवनसाथी द्वारा, लगभग 85 फ़ीसदी को उनके अपने बच्चों द्वारा, 2 फ़ीसदी पोते-पोतियों द्वारा और छ: फ़ीसदी को अन्य लोग आर्थिक रूप से सहयोग प्रदान कर रहे थे। बुर्ज़ुर्ग महिलाओं में से 20 फ़ीसदी से कम अपने जीवनसाथी पर, 70 फ़ीसदी से अधिक अपने बच्चों पर, तीन फ़ीसदी पोते पर और छ: फ़ीसदी या इससे अधिक ग़ैर-रिश्तेदारों पर निर्भर थे। आर्थिक रूप से निर्भर पुरुषों में से 65 फ़ीसदी की तुलना में 90 फ़ीसदी से अधिक महिलाओं के एक या अधिक आश्रित थे। ग्रामीण बुज़ुर्गों में लगभग 50 फ़ीसदी की मासिक प्रति व्यक्ति ख़र्च महज़ 420 से 775 रुपये रहा और शहरी बुज़ुर्गों में लगभग आधे का मासिक ख़र्च 2002 में 665 रुपये लेकर 1500 रुपये तक रहा। 60 वर्ष और उससे अधिक उम्र के लगभग 40 फ़ीसदी (60 फ़ीसदी पुरुष और 19 फ़ीसदी महिलाएँ) काम कर रहे थे। ग्रामीण क्षेत्रों में 66 फ़ीसदी बुर्ज़ुर्ग पुरुष और 23 फ़ीसदी से अधिक महिलाएँ भी आर्थिक गतिविधियों में भाग ले रही थीं, जबकि शहरी क्षेत्रों में महज़ 39 फ़ीसदी बुर्ज़ुर्ग पुरुष और लगभग सात फ़ीसदी बुर्ज़ुर्ग महिलाएँ आर्थिक रूप से सक्रिय थीं। ग्रामीण क्षेत्रों में बीमारी से पीडि़त 55 फ़ीसदी और बिना बीमारी वाले 77 फ़ीसदी लोगों ने महसूस किया कि वे स्वास्थ्य की बेहतर स्थिति में हैं। शहरी क्षेत्रों में यह अनुपात 63 फ़ीसदी और 78 फ़ीसदी रहा।

चल फिर लेने वाले बुर्ज़ुर्ग पुरुषों और महिलाओं का अनुपात 60-64 वर्ष के आयु वर्ग में लगभग 94 फ़ीसदी से घटकर पुरुषों के लिए क़रीब 72 फ़ीसदी रह गया, जबकि महिलाओं में इसकी स्थिति 63 फ़ीसदी से बढक़र 65 फ़ीसदी हो गयी। बुर्ज़ुर्ग आबादी में हृदय रोगों की व्यापकता ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में ज़्यादा देखी गयी। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति हज़ार 64 बुर्ज़ुर्ग और शहरी क्षेत्रों में प्रति हज़ार 55 बुर्ज़ुर्ग इसकी गिरफ़्त में था। बुर्ज़ुर्ग व्यक्तियों में सबसे आम विकलांगता लोको मोटर  की थी; क्योंकि उनमें से तीन फ़ीसदी इससे पीडि़त हैं। बुर्ज़ुर्ग पुरुष 20 फ़ीसदी से कम और लगभग आधी महिलाएँ अपने बच्चों के साथ रहती हैं। बुज़ुर्गों पर राष्ट्रीय नीति (एनपीओपी) बुज़ुर्गों की भलाई सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता की पुष्टि करती है। नीति का उद्देश्य वित्तीय व खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, आश्रय और बुज़ुर्गों की अन्य ज़रूरतों को पूरा करने के साथ विकास में समान हिस्सेदारी, दुव्र्यवहार और शोषण से सुरक्षा, जीवन-गुणवत्ता में सुधार के लिए सेवाएँ सुनिश्चित करने हेतु सरकार की ओर से पहल की परिकल्पना है।

बुज़ुर्गों के लिए जीवन की गुणवत्ता की श्रेणी-वार रैंकिंग

50 लाख से अधिक आबादी वाले राज्य           स्कोर          रैंकिंग

राजस्थान                                              54.61           1

महाराष्ट्र                                                53.31          2

बिहार                                                  51.82          3

तमिलनाडु                                              47.93          4

मध्य प्रदेश                                              47.11          5

कर्नाटक                                                 46.92         6

उत्तर प्रदेश                                              46.80         7

आंध्र प्रदेश                                              44.37         8

पश्चिम बंगाल                                            41.01         9

तेलंगाना                                                 38.19        10

 

अपेक्षाकृत बुर्ज़ुर्ग

50 लाख से कम आबादी वाले राज्य                 स्कोर         रैंकिंग

हिमाचल प्रदेश                                          61.04          1

उत्तराखण्ड                                              59.47          2

हरियाणा                                                 58.16         3

ओडिशा                                                53.95          4

झारखण्ड                                               53.40          5

गोवा                                                   52.56           6

केरल                                                 51.49           7

पंजाब                                                50.87           8

छत्तीसगढ़                                           49.78           9

गुजरात                                              49.00          10

 

केंद्र शासित प्रदेश

राज्य                                               स्कोर       रैंकिंग

चंडीगढ़                                           63.78       1

दादरा और नगर हवेली                          58.58        2

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह              55.54        3

दिल्ली                                            54.39        4

लक्षद्वीप                                           53.79       5

दमन और दीव                                   53.28       6

पुडुचेरी                                           53.03        7

जम्मू और कश्मीर                               46.16        8

 

पूर्वोत्तर राज्य

राज्य                                           स्कोर         रैंकिंग

मिजोरम                                      59.79         1

मेघालय                                      56.00          2

मणिपुर                                      55.71          3

असम                                       53.13          4

सिक्किम                                    50.82         5

नगालैंड                                     50.77         6

त्रिपुरा                                       49.18         7

अरुणाचल प्रदेश                            39.28        8

जान जोखिम में डालकर चल रहे यात्री

उत्तर प्रदेश देश में नंबर वन के बड़े-बड़े होर्डिंग-पोस्टर हमारे शहर में ख़ूब लगे हैं। एक चाय की दुकान के पास ही सडक़ किनारे लगा एक होर्डिंग दूर से दिखायी देता है, तो चाय की दुकान पर चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अख़बार के पन्ने पलटते-पलटते दो-तीन बुद्धिजीवी बड़ी गम्भीरता से पूछने की मंशा से तंज भरे लहज़े में कहते हैं कि किस बात में यूपी नंबर वन है? एक बुद्धिजीवी झट से कहते हैं- अगलई-पगलई में। एक सनकी, वॉट लगी सबकी। कुछ लोगों की हँसी छूट जाती है। इतने में ठट-ठट, ठठर-ठठर की आवाज़ करता एक डग्गामार वाहन (जिसमें जुगाड़ से अधिक सवारियाँ भरने का इंतज़ाम किया जाता है।) गुज़रता है, जिसमें चार सवारी बाहर की ओर लटककर खड़ी होती हैं और अन्दर खचाखच सवारियाँ भरी होती हैं। यह हमेशा की कहानी है और त्योहारों के सीजन में स्थिति और भी ख़राब हो जाती है। बेख़ौफ़ डग्गामार वाहनों के मालिक, चालक (ड्राइवर) और सह-संचालक (कंडक्टर) ट्रैफिक सुधार में लगी पुलिस से हाथ मिलाते कई बार दिखते हैं।

इसमें ताज़्ज़ुब की कोई बात नहीं; क्योंकि यह रोज़ का काम है। डग्गामार वाहन की प्रदूषण जाँच करायी हो या नहीं, वाहन के काग़ज़ पूरे हों या नहीं, पथ कर (रोड टैक्स) जमा हो या नहीं, गाड़ी का बीमा हो या नहीं, आठ सवारियों से ज़्यादा लेकर चलने की अनुमति (परमीशन) से भी कोई मतलब नहीं, बस पुलिस तक लाल पत्ती के चार-पाँच नोट महीने-दर-महीने जाने चाहिए, फिर चाहे कोई वाहन चालक 16 सवारियाँ भरे या 20-22 कोई दिक़्क़त नहीं। तेज़ गति में वाहन चलते रहेंगे और काली कमायी में बँटवारा होता रहेगा। शहर से ज़िले के तक़रीबन हर गाँव, क़स्बे में इन डग्गामारों का फेरा दिन भर होता है और जिन लोगों के पास चलने का कोई संसाधन नहीं है, वो लोग अपनी जान जोखिम में डालकर इनमें मुर्गियों की तरह भरकर चलना अपनी मजबूरी समझते हैं। कई बार सडक़ पर दुर्घटना का शिकार हुए लोगों में से बहुतों ने अपनी जान गँवायी है, तो बहुत-से लोग अपाहिज तक हुए हैं।

क्या कहते हैं दुर्घटना मामलों के जानकार?

दुर्घटना मामलों के जानकार वकीलों का कहना है कि डग्गामार वाहनों से अगर कोई दुर्घटना होती है, तो उसमें कई समस्याएँ आती हैं। पहली तो यह कि सडक़ दुर्घटना का मुक़दमा करने से पहले ही पुलिस मामले को पीडि़तों को नाम मात्र का मुआवज़ा दिलाकर और उन पर दबाव बनाकर मामले को रफ़ा-दफ़ा कर देती है। अगर गलती से कोई पीडि़त अथवा मरने वाले के परिजन मुक़दमा कर देते हैं, तो पुलिस की रिपोर्ट, गवाहों की कमी और वाहन के ख़िलाफ़ कोई रिपोर्ट न होने के कारण पीडि़तों को मुआवज़ा और दोषियों को सज़ा, दोनों नहीं मिलते या फिर एक ही काम हो पाता है। दूसरी बात यह कि डग्गामार वाहनों में अनुमति से ज़्यादा भरी सवारियों के चलते सबका दावा (क्लेम) न्यायालय मान्य नहीं कर पाता, क्योंकि बीमा कम्पनियाँ इसे देने से मना कर देती हैं। कई वाहनों का बीमा न होने के चलते भी मुक़दमा लडऩे में दिक़्क़त आती है।

ऐसे में अगर पुलिस ने ही वाहन मालिक को दोषी ठहरा दिया, तो थोड़ा-बहुत मुआवज़ा पीडि़तों को मिल जाता है; अन्यथा मालिकों की इतनी पहुँच तो होती ही है कि वे अपने वाहन चालकों को थाने में ही दोषी क़रार दिलवाकर उन्हें जेल भिजवा देते हैं और ख़ुद बच जाते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि कोई परेशानी बताकर चालक की जमानत तो हो ही जाएगी। लेकिन मुक़दमा करने के बाद पीडि़तों को मुआवज़ा मिलने में काफ़ी लम्बा समय लग जाता है।

सहूलियत के चक्कर में जोखिम

जिन गाँवों तथा क़स्बों से लोग अधिकतर शहर जाते हैं, उन्हें रोडवेज या दूसरी बसों की अपेक्षा डग्गामार वाहन आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। इसे सवारियाँ सहूलियत समझती हैं। इसके अलावा उन्हें मुख्य रोड तक जाने में लगने वाले किराये और फिर रोडवेज में लगने वाले किराये से कुछ कम किराया इन डग्गामार वाहनों का पड़ता है। इसी वजह से लोग डग्गामार वाहनों में बैठ जाते हैं और अपनी जान जोखिम में डालकर बिना सुरक्षा का सफ़र करते रहते हैं। डग्गामार वाहन चालक ठूँस-ठूँसकर सवारियाँ भरते हैं। पुलिस कुछ कहने से रही; क्योंकि उसे महीना चाहिए। आरटीओ दफ़्तर भी इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता। महीने, दो-महीने में कहीं अगर आरटीओ अधिकारी की गाड़ी जाँच (चेकिंग) पर खड़ी है, तो समझ लीजिए कि वह भी अपनी भूख मिटाने आया है और शाम तक डकार न मार पाने लायक पेट भरकर महीने भर तक आराम से दफ़्तर की कुर्सी तोड़ेगा। पूरे ज़िले में डग्गामार वाहनों की गिनती अगर की जाए, तो सैकड़ों निकलेंगे। इसके चलते डग्गामार वाहन चालक और सह चालक बेख़ौफ़ होकर रहते हैं और एक दबंग गैंग की तरह किसी से भी भिडऩे को तैयार रहते हैं।

सवारियों से खींचतान

डग्गामार वाहनों के चालक और सह चालक सवारियों के दिखते ही उन्हें हाथ पकडक़र जबरन अपने वाहन में बैठाते हैं। कई बार दो वाहन चालक और सह चालक अपने अपने वाहन की तरफ़ सवारियों को खींचते हैं, जिसके चलते उनमें आपस में भी झगड़ा हो जाता है। सवारी अगर एक डग्गामार में बैठ गयी अथवा उसका सामान चालक और सह चालक ने अपने वाहन में रख लिया, तो फिर सवारी दूसरे वाहन में जल्द जा नहीं सकती। अगर सवारी ने इसकी ज़िद की, तो उससे बदतमीजी करना इन डग्गामार चालकों, सह चालकों का काम है। इसमें पुलिस भी कुछ नहीं करती। हाल यह है कि अगर डग्गामार के चालक अथवा सह चालक ने सवारी को खड़ा कर दिया, तो भी वह दूसरे वाहन में जाने की ज़िद नहीं कर सकती, जब तक कि वह भी मज़बूत न हो। इन वाहनों की जो गति होती है, उससे सवारियाँ इधर-उधर होती रहती हैं; पर इन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। बच्चों तक को वाहनों में थोड़े से सहारे से टिकाकर खड़ा किया जाता है।

हर ज़िले की यही कहानी

यह पक्की ख़बर है कि पूरे राज्य मे डग्गामार वाहन गति में दौड़ते हैं। कई ज़िलों में जाकर देखने पर पता चलता है कि लगभग हर ज़िले में डग्गामार वाहनों की भरमार है। बड़ी बात यह है कि इन डग्गामार वाहनों के जो मालिक हैं, वो नये लोगों को अपने इस काम-धन्धे में घुसने नहीं देते। अगर कोई नया व्यक्ति वाहन लेकर सडक़ पर चलाने की सोचे, तो उसकी पुलिस और प्रशासन में अच्छी पकड़ होनी ज़रूरी है। मगर अगर किसी ने वाहन को नियम से चलाने की कोशिश की, तो नियमों की धज्जियाँ उड़ाकर चलने वाले वाहन चालक उसे ऐसा नहीं करने देंगे।

सरकार को लग रहा चूना

डग्गामार वाहनों के मालिक केवल वाहन का रोड टैक्स ही भरते हैं। सवारियों को टिकिट देने का चक्कर नहीं रखते और न ही उनसे हो रही कमायी से कोई अतिरिक्त कर भरते हैं। उनका बहुत छोटा कर काली कमायी करने के एवज़ में रिश्वत के रूप में पुलिस और आरटीओ अधिकारियों की जेबें गरम करने भर को भरा जाता है। सच तो यह है कि इन डग्गामार वाहनों के चलते उत्तर प्रदेश परिवहन विभाग को हर रोज़ लाखों रुपये का चूना लगता है। इतने पर भी न तो सरकार इस मामले में कुछ करती है और न प्रशासिनक अधिकारी। अगर कभी इन डग्गामार वाहनों पर कार्रवाई के आदेश कभी ऊपर से आते हैं, तो पुलिस और आरटीओ विभाग केवल खानापूर्ति करके उसका पालन नहीं करते। कुछ जगह एआरटीओ अधिकारी सख़्त हो, तो वहाँ चोरी-छिपे वाहन सडक़ों पर दौड़ते हैं। अगर कहीं आरटीओ अधिकारी चेकिंग के लिए खड़ा होता भी है, तो डग्गामार वाहन चालक बड़ी होशियारी से मेन रोड से बचाकर वाहन चला ले जाते हैं।

लडऩे को तैयार

डग्गामार वाहनों के मालिक और उनके चालकों, सह चालकों से जब यह पूछो कि वे नियमों की धज्जियाँ क्यों उड़ाते हैं, तो उनके तन-बदन में आग लग जाती है और लडऩे को तैयार हो जाते हैं। अगर कोई जान-पहचान का हो, तो वह अपना दर्द पहले बताता है। एक डग्गामार वाहन चालक का दर्द इसी तरह फूटा, जो कहता है कि आपको नहीं मालूम, अगर हम नियम के हिसाब से केवल आठ सवारियाँ भरकर चलें, तो जेब से पैसा लगाना पड़ेगा और साल भर में वाहन बिक जाएगा। उसका कहना है कि जितना ईंधन गाड़ी खाती है, उतनी ही क़ीमत पुलिस और आरटीओ विभाग खा जाते हैं। हम ईमानदारी से चलें या नियमों को तोडक़र उन्हें इससे कोई मतलब नहीं, उन्हें तो महीना चाहिए। अगर महीना नहीं देंगे, तो रोड पर नहीं चल सकते।

महामारी का ख़ौफ़ नहीं

इन डग्गामार वाहनों में ठूँस-ठूँसकर भरी सवारियों को देखकर लगता है कि अब लोगों में कोरोना महामारी का ख़ौफ़ नहीं रहा। क्योंकि न तो अधिकतर लोग ही ठीक से मास्क लगाना चाहते हैं और न वे सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) का पालन कर रहे हैं। रक्षाबन्धन और जन्माष्टमी के त्योहारों पर तो बाज़ारों और वाहनों में इतनी भीड़ जुट रही है कि ऐसा लगता है जैसे कोरोना नाम की कोई महामारी कभी थी ही नहीं। लोग यह भी भूल गये कि अभी कुछ महीने पहले ही हर शहर, हर गाँव और हर क़स्बे से लाशें उठी हैं। पुलिस और सरकार इसे भी अनदेखा कर रही है।

काले सोने के काले नाग

शनिवार 17 जुलाई की सुरमई शाम थी। बादल गरजकर बरस चुके थे; लेकिन घटाएँ अभी भी घुमड़ रही थी। बारिश में भीगी हवाओं ने हल्की-फुल्की ठिठुरन पैदा कर दी थी। कोटा के ‘हैंगिंग ब्रिज’ टोल नाके के पास भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के नायब पुलिस अधीक्षक अजीत सिंह बागडोलिया अपनी टीम के साथ पूरी मुस्तेदी से निगरानी बनाये हुए थे। एसीबी को सूचना मिली थी कि उत्तर प्रदेश ग़ाज़ीपुर स्थित अफीम फैक्ट्री के महाप्रबन्धक शशांक यादव नीमच में अफीम काश्तकारों से 15-16 लाख रुपये रिश्वत के तौर पर वसूलकर चित्तौडग़ढ़ से कोटा होते हुए ग़ाज़ीपुर जा रहा है। शशांक यादव के पास नीमच स्थित फैक्ट्री का भी अतिरिक्त चार्ज था। शशांक यादव ने काश्तकारों से यह रक़म अवैध रूप से वसूली थी। सूचना के मुताबिक, यादव कार में सफ़र कर रहा था। टोल नाके पर पूरी सतर्कता से वाहनों की जाँच (चेकिंग) की जा रही थी। इंतज़ार की घडिय़ाँ लम्बी हुईं, तो नायब पुलिस अधीक्षक (एसपी)बागडोलिया ने एसीबी कोटा के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक चंद्रशील ठाकुर को फोन करके अपना संदेह व्यक्त किया- ‘सर! कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारा शिकार हमें मात देने की कोशिश में किसी और रास्ते से निकल गया हो?’ एएसपी ठाकुर के शब्द पूरी तरह आत्मविश्वास से भरे हुए थे- ‘यह मात नहीं, शुरुआत है। आप निराश मत होइए। हमें सफलता ज़रूर मिलेगी। अलबत्ता बारिश का मौसम है। इसलिए इंतज़ार लम्बा हो सकता है।’

उन्होंने मशविरा देते हुए कहा- ‘आपको हर गाड़ी यहाँ तक की स्कूटर की भी जाँच करनी है। अपनी टीम के कुछ लोगों को छिपाकर भी तैनात करिए, ताकि किसी को शक न हो; और हाँ किसी अधिकारी को जीप लेकर सतर्क रखिए, ताकि ज़रूरत पडऩे पर पीछा किया जा सके।’

‘लेकिन सर! क्या वाक़र्इ हमारे पास पुख़्ता सूचना है?’ -नायब पुलिस अधीक्षक ने पूछा।

एएसपी ठाकुर को एकाएक इस सवाल का उत्तर नहीं सूझा। अलबत्ता उन्होंने इतना ही कहा- ‘कुछ गुप्त सूचनाएँ ऐसी हैं, जिन्हें हम फिर साझा करेंगे। अब इसे पुख़्ता समझें या नहीं? आख़िर तुम भी उसी टीम में शामिल हो, जो पिछले 15 दिनों से शशांक यादव की निगरानी कर रही है।’

बागडोलिया से कुछ कहते नहीं बना; लेकिन उन्होंने सब कुछ समझते हुए आगे कोई सवाल खड़ा नहीं किया। तभी तेज़ बारिश का झोंका आया, तो बागडोलिया बैरियर (अवरोधक) की ओट में पहुँचे। अभी वह तेज़ बारिश से बचाव के लिए ओट लेने की कोशिश में ही थे कि पुलिस का लोगो लगी सफ़ेद गाड़ी बैरियर पर थमती नज़र आयी। पुलिस वैन होने के नाते उन्होंने उसे अनदेखी करने की कोशिश की। लेकिन वह यह देखकर चौंक गये कि गाड़ी के चारों दरवाज़ें और शीशों पर क़रीब दसों जगह पुलिस लिखा था। कार पर लाल-नीली बत्ती (रेड-ब्लू लाइट) लगी हुई थी। इसका मतलब था- पुलिस का कोई बड़ा अधिकारी सफ़र कर रहा था। बागडोलिया तेज़ी से कार की तरफ़ लपके। खिडक़ी पर पहुँचते ही उन्हें समझते देर नहीं लगी कि यह कोई पुलिस का उच्चाधिकारी नहीं, बल्कि उनका शिकार शशांक यादव था। बागडोलिया ने एक पल की भी देर किये बिना शशांक यादव को घेर लिया। अचानक हुई इस घटना से हक्का-बक्का हुआ यादव कहता ही रह गया कि क्या कर रहे हो? जानते नहीं कौन हूँ मैं। एएसपी बागडोलिया ने यादव के कन्धों पर अपनी पकड़ सख़्त बनाते हुए कहा- ‘चिन्ता मत करिए यादव साहब! अब तो आपको हमें जानना होगा।’

शशांक यादव की कार की तलाशी ली गयी, तो मिठाई के डिब्बे में 15 लाख रुपये तथा बैग और पर्स में रखे 1.32 लाख समेत कुल 16,32,000 रुपये मिले। इतनी बड़ी रक़म के बारे में डीएसपी बागडोलिया के सवाल से हड़बड़ाये यादव को कोई जवाब कैसे सूझता? अलबत्ता यादव ने बागडोलिया की बाँह थामते हुए एक तरफ़ ले जाने की कोशिश करते हुए कहा- ‘सवाल-जवाब छोडि़ए और ले-देकर मामला निपटा लीजिए।’ यादव के रवैये से बुरी तरह झल्लाये हुए नायब एस.पी. बागडोलिया झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद करते हए उस पर बरस पड़े- ‘तुम सीधे-सीधे सब कुछ बताओगे या फिर घसीटकर ले चलूँ।’ पासा उलटा पडऩे से सन्नाटे में आये यादव ने हकलाते हुए बमुश्किल इतना ही कहा- ‘कौन हैं आप लोग?’ नायब एसपी बागडोलिया ने यादव की गिरहबान थामते हुए उसे झिंझोडक़र रख दिया- ‘हम एसीबी से हैं और अफीम काश्तकारों से अवैध वसूली के इल्ज़ाम में आपको गिरफ़्तार कर रहे हैं।’

यादव तेवर बदलते हुए एएसपी बागडोलिया से उलझ पड़ा- ‘ अरे कैसी अवैध वसूली? यह मेरे अपने पैसे हैं। मैं क्यों बताऊँ? कहाँ से आये? या किसने दिये? अफीम काश्तकारों से भला क्यों वसूली करूँगा मैं?’

नायब एस.पी. बागडोलिया ने फटकारते हुए कहा- ‘मतलब आप सीधे-सीधे कुछ नहीं बताएँगे। कोई बात नहीं, हमें सच उगलवाना आता है। हम अफीम काश्तकारों से अवैध वसूली के आरोप में आपको गिरफ़्तार करते हैं।’

यह कार्रवाई भ्रष्टाचार निरोधक दस्ते ने महकमे के अतिरिक्त महानिदेशक दिनेश एम.एन. के निर्देशन में की गयी। एसीबी कोटा इकाई के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक चन्द्रशील ठाकुर की निगरानी में सर्किल इंस्पेक्टर अजीत बागडोलिया ने अपनी टीम के साथ इसे अंजाम दिया था। महाप्रबन्धक सरीखे क़द्दावर अफ़सर की गिरफ़्तारी की ख़बर कोटा समेत पूरे राजस्थान में आग की तरह फैली, तो जैसे हडक़म्प मच गया। एसीबी के अतिरिक्त महानिदेशक दिनेश एमएन का कहना था- ‘हम पिछले सात दिनों से सूचनाओं की पुष्टि करने में जुटे हुए थे। जब हमें लगा कि सूचना पुख़्ता है, तो हमने यादव को रंगे हाथ गिरफ़्तार करने की कार्रवाई को अंजाम दिया। एसीबी के अनुसार, शशांक ने नीमच में अफीम फैक्ट्री में कार्यरत अन्य कर्मचारी अजीत सिंह व कोडिंग टीम के दीपक कुमार के माध्यम से दलालों के ज़रिये अफीम के बढिय़ा गाढ़ेपन एवं मारफीन प्रतिशत ज़्यादा बताकर 60 से 80 हज़ार रुपये प्रति किसान वसूले थे। यह वसूली चित्तौडग़ढ़ प्रतापगढ़ कोटा एवं झालावाड़ के अफीम किसानों से की गयी थी। अजीत सिंह और दीपक ने दलालों के माध्यम से 6,000 से अधिक अफीम किसानों से 10-12 आरी के पट्टे दिलावाने के नाम पर 30 से 36 करोड़ रुपये अग्रिम तौर पर वसूल लिये थे। शेष 40,000 से अधिक किसानों की अफीम की जाँच होनी अभी बाक़ी थी।

अफीम फैक्ट्री नीमच में पूरे मध्य प्रदेश एवं राजस्थान के नारकोटिक्स विभाग के लाइसेंसी अफीम काश्तकारों की अफीम जमा की जाती है। इस फैक्ट्री में वर्तमान में इस वर्ष अफीम देने वाले मध्य प्रदेश और राजस्थान के काश्तकारों की अफीम के नमूनों की जाँच का कार्य चल रहा है। गाढ़ापन एवं मारफीन प्रतिशत के हिसाब से ही नारकोटिक्स विभाग द्वारा अफीम काश्तकारों को 6 आरी, 10 आरी एवं 12 आरी के पट्टे वितरित किये जाते हैं।

कौन है डॉ. शशांक यादव? कैसे इसने भ्रष्टाचार का खेल रचा? ये तथ्य बेहद चौंकाने वाले हैं। नीमच अफीम फैक्ट्री को भारत की सबसे दूसरी बड़ी फैक्ट्री कहा जाता है। उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर स्थित अफीम फैक्ट्री के महाप्रबन्धक डॉ. शशांक यादव के पास नीमच फैक्ट्री का भी अतिरिक्त कार्यभार है। मलाईदार फैक्ट्री का बाक़ी मिलने के बाद आईआरएस डॉ. शशांक और उसके साथी अधिकारियों और दलालों ने मिलकर महकमे को संगठित भ्रष्टाचार का अड्डा बना दिया। यादव ने किसानों से उगाही करने के दो तरीक़े अख़्तियार किये। पहला, कोडिंग सिस्टम करके किसानों की शिनाख़्त बनायी। दूसरा, गुणवत्ता जाँचने वाली मशीन की रिपोर्ट में तब्दीलियाँ कर दी। नतीजतन अफ़सर किसानों से मोल-भाव की ओट में अफीम का गाढ़ापन और मारफीन प्रतिशत में घट-बढ़ का खेल करने में जुट गये।

सूत्रों का कहना है कि जब तक कोई कोडिंग टीम का बड़ा अधिकारी किसानों की अफीम के कोड के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं कराये, तब तक पता नहीं किया जा सकता कि अफीम किस किसान की है। यादव के पकड़े जाने के बाद नीमच अफीम फैक्ट्री में जाँच का काम बन्द हो गया है। यहाँ पर अभी मध्य प्रदेश के 32,560 और राजस्थान के 20,000 किसानों के अफीम सैंपल की जाँच होनी है। जाँच रिपोर्ट के बाद किसानों को ब$काया राशि का भुगतान होना है। अब एसीबी के ख़ुलासे के बाद कई नमूने जाँच के दायरे में आ गये हैं।

डॉ. शशांक यादव ने भ्रष्टाचार का सिंडिकेट बनाने के लिए नीमच का अतिरिक्त प्रभार मिलने के बाद अफीम फैक्ट्री का पूरा निजाम ही बदल डाला था। यादव नीमच में आने के पहले से पूरी रणनीति बनाकर आया था। लिहाज़ा कुछ दिनों बाद ही उसने बड़ा बदलाव किया। इस बदलाव से फैक्ट्री के कर्मचारी और अधिकारी भी चौंक गये। क्योंकि उसने जिन लोगों को महत्त्वपूर्ण जगहों पर तैनाती दी थी, उनमें से कई के लिहाज़ा पहले से भ्रष्टाचार के आरोप थे। यादव ने कोडिंग डिपार्टमेंट, प्रयोगशाला और मशीन विभाग के महत्त्वपूर्ण पदों पर अपने ख़ास अधिकारियों को तैनात कर दिया। ताकि किसानों से करोड़ों की उगाही आसानी से की जा सके। ऐसे में भ्रष्टाचार का खेल खुलना ही था।

 

किस काम की कितनी रिश्वत?

 बुवाई होते ही नारकोटिक्स के अधिकारी रक़बे की नपायी करते हैं। किसान तय ज़मीन से ज़्यादा में बुवाई कर सके। इसके एवज़ में हर किसान से 5,000 रिश्वत ली जाती है। यानी कुल 16 करोड़ रुपये की अवैध वसूली।

 25 फ़ीसदी चहेते किसानों की फ़सल बरसात और ओलों से ख़राब दिखा दी जाती है। इसके लिए नारकोटिक्स के अधिकारी प्रति किसान 10,000 रिश्वत लेते हैं। यानी कुल आठ करोड़ रुपये की अवैध वसूली।

 नियमानुसार अफीम निकालने के बाद फ़सल नष्ट की जाती है। इसका वीडियो बनता है। लेकिन नारकोटिक्स वाले कपास व कचरे का जलता वीडियो बनाने के लिए प्रति किसान 20,000 रुपये लेते हैं। यानी कुल 66 करोड़ रुपये की अवैध वसूली।

 तस्करी के लिए भरायी के दौरान पिकअप के 50,000 और ट्रक के 3,00,000 रुपये की रिश्वत पुलिस लेती है। और इतनी ही राशि नारकोटिक्स के अधिकारी लेते हैं। फिर नाकाबंदी हटाने के लिए 25,000 हर क्षेत्रीय थाने को जाते हैं। यानी रिश्वत का गणित मोटा है।