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हदें पार करता आततायी चीन

बातचीत से नहीं निकल रहा हल, सीमा पर चीन बढ़ा रहा दबाव और गतिविधियाँ

इसी महीने के मध्य में चीन के सरकारी अख़बार ग्लोबल टाइम्स की इस बात को गम्भीरता से लिया जाना चाहिए, जिसमें उसने धमकी भरे शब्दों में कहा है कि यदि दोनों देशों के बीच युद्ध होता है, तो नई दिल्ली को हार का सामना करना पड़ेगा। इससे कुछ दिन पहले ही अरुणाचल सेक्टर में अक्टूबर के शुरू में दोनों देशों के सैनिकों के बीच टकराव हुआ था। गलवान घाटी में पिछले साल दोनों देशों के बीच हुई ख़ूनी भिड़ंत के बाद लगातार तनाव बना हुआ है। हालाँकि इस मामले में 13 दौर की बातचीत के बाद भी कोई हल नहीं निकल सका है। हालात बताते हैं कि दोनों देशों के बीच शीत युद्ध जैसी स्थिति बन रही है।

यदि हाल की घटनाओं पर नज़र दौड़ाएँ, तो साफ़ ज़ाहिर होता है कि चीन की नीयत ठीक नहीं है। वह सीमा के कई हिस्सों में जो गतिविधियाँ चला रहा है, वो उसके इरादों का संकेत देती हैं। अरुणाचल प्रदेश से लेकर नेपाल तक उसके निर्माण संदिग्ध हालात का इशारा करते हैं। नेपाल में तो हाल में स्थानीय लोगों ने देश की ज़मीन हड़पने का आरोप लगाते हुए चीन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया। चीन भले यह दावा कर कि उसने अपनी ज़मीन पर निर्माण किये हैं। लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन की गतिविधियाँ भारत के लिए चिन्ता पैदा करने वाली हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पिछले साल जून में गलवान घाटी की ख़ूनी भिड़ंत के बाद पहली बार सीमा पर तनाव गम्भीर स्तर पर दिख रहा है और स्थिति काफ़ी तनावपूर्ण बनी हुई है। अब चीन के सरकारी अख़बार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने अपने सम्पादकीय में जिन शब्दों का इस्तेमाल किया है, उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। जानकारी के मुताबिक, भारत के साथ हो रही बैठकों में कोई सकारात्मक नतीजा इसलिए नहीं निकल रहा; क्योंकि चीन भारत के किसी भी सुझाव पर सहमत नहीं हो रहा।

दोनों देशों के बीच 13वें दौर की बातचीत पूर्वी लद्दाख़ में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चूशुल-मोल्दो सीमा इलाक़े में चीन की तरफ़ रविवार को हुई थी जिसमें भारत की तरफ़ से 14वीं कॉप्र्स कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल पीजीके मेनन और साउथ शिनजियांग मिलिट्री डिस्ट्रिक चीफ मेजर जनरल लियु लिन की अगुआई में दोनों देशों के बीच क़रीब साढ़े आठ घंटे तक बातचीत हुई। भारत का कहना है कि चीन ने उसके सकारात्मक सुझावों को नहीं माना।

दरअसल देपसॉन्ग बुल्ज एरिया में कई जगह भारत और चीन के सैनिक जिस तरीक़े से अड़े हुए हैं, जिससे वहाँ तनाव स्थिति है। पीएलए भारतीय सैनिकों को पिछले साल से ही अपने पारम्परिक गश्त स्थल (पेट्रोलिंग प्वाइंट्स) पीपी-10, 11, 11(ए), 12 और 13 के साथ-साथ देमचॉक सेक्टर में ट्रैक जंक्शन चार्डिंग निंगलुंग नाला (सीएनएन) तक जाने नहीं दे रही है। चीनी सैनिकों ने इन इलाक़ों के रास्ते रोक रखे हैं। चीन की नीति भारत पर लगातार दबाव बनाये रखने की है।

जानकारी कहती है कि पैंगॉन्ग त्सो और गोगरा पोस्ट के उत्तर और दक्षिण तट पर तो हालात में कुछ सुधार हुआ है। हालाँकि हॉटस्प्रिंग्स में पिछले साल मई से ही दोनों देशों की सेनाएँ आमने-सामने हैं और यहाँ सुधार की सम्भानाएँ क्षीण दिख रही हैं। हाल में यह रिपोट्र्स आयी हैं कि चीनी सैनिक, भारतीय सेना को दौलत बेग ओल्डी में रणनीतिक भारतीय चौकी के पास स्थित डेपसांग गश्त स्थल (पेट्रोलिंग प्वाइंट) पर जाने से भी रोक रहे हैं। अभी तक की अन्तिम बैठक में भारतीय प्रतिनिधियों ने बाक़ी तीन इलाक़ों में समाधान के लिए कई सुझाव दिये; लेकिन चीनी प्रतिनिधि इनसे बिल्कुल सहमत नहीं हुए। वैसे दोनों पक्ष आगे भी बातचीत पर सहमति जता रहे हैं; लेकिन निश्चित ही इन बैठकों के नतीजों पर कई सवाल हैं।

भारतीय सेना ने 13वीं बैठक के बाद एक बयान में कहा कि बैठक में भारतीय पक्ष ने बाक़ी तीन विवादित क्षेत्रों में यथास्थिति बहाल करने के लिए चीन से उचित क़दम उठाने को कहा है। भारतीय पक्ष ने ज़ोर देते हुए कहा कि बाक़ी तीन ठिकानों के समाधान से ही दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सम्बन्ध भी आगे बढ़ेंगे।

भारतीय प्रतिनिधियों ने कहा कि एलएसी पर यह स्थिति चीन की ओर से यथास्थिति बदलने और द्विपक्षीय समझौतों के उल्लंघन के कारण हुई। लिहाज़ा यह ज़रूरी था कि चीन इस मामले में उचित क़दम उठाये। यह भी दिलचस्प है कि 13वें दौर की सैन्य वार्ता से पहले दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने दुशांबे में मुलाक़ात की थी, जहाँ भारत-चीन के शेष मुद्दों को जल्दी सुलझाने सहमति जतायी थी।

कुछ विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि इस साल के शुरू में दोनों देशों के बीच तनाव वाली स्थिति से पीछे हटने का जो समझौता हुआ था, उसमें भारत कहीं-न-कहीं नुक़सान में रहा है। तब पैंगोंग झील से सैनिकों की वापसी के बदले भारत ने ऊँचाई वाली कैलाश पर्वतमाला (कैलाश रेंज हाइट्स) को छोडऩे पर सहमति दे दी थी। उस समय कुछ रक्षा विशेषज्ञों ने कहा था कि ऊँचाई वाली कैलाश पर्वतमाला पर भारत का रहना भविष्य में उसके लिए बड़ी उपयोगी बढ़त साबित हो सकता है; लेकिन उसके हाथ में जाने से अब भारत नुक़सान में दिख रहा है। यदि भारत का अभी की ऊँचाई वाली कैलाश पर्वतमाला पर क़ब्ज़ा होता, तो वह इस बढ़त को चीन को पूर्वी लद्दाख़ के उन सभी इलाक़ों से उसके सैनिकों की वापसी को मजबूर करने के लिए इस्तेमाल कर सकता था, जहाँ उसने घुसपैठ कर ली है।

भारत ने चीन के साथ जो समझौता किया था, उसमें ज़्यादातर प्रतिरोधी इलाक़े (बफर जोन) वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के भारतीय इलाक़े के बाहर ही बनाये जाने पर भी विशेषज्ञों ने चिन्ता जतायी थी। उनका कहना था कि इससे गलवान घाटी में गश्त स्थलों 14 और गोगरा के पास 17(ए) और पैंगोंग झील इलाक़ों में भारतीय सैनिक भी पेट्रोलिंग नहीं कर पाएँगे, जो कि भारत अपना इलाक़ा है। विशेषज्ञों के मुताबिक, भारत समझौते से साथ मोल-भाव करने की स्थिति में नहीं रहा है, जो रणनीतिक रूप से घाटे का सौदा कहा जा सकता है।

यह सही है कि भारत ने चीन के साथ बातचीत का रास्ता अपनाया है; लेकिन इसके यह मायने नहीं हैं कि इस दौरान भारत ने अपनी तैयारियों को बेहतर नहीं किया है। हाल के महीनों में भारत ने अपने सैन्य बेड़े को मज़बूत किया है। राफेल से लेकर दूसरे अस्त्र उसने इस बेड़े में जोड़े हैं।

हालाँकि चीन के साथ युद्ध की स्थिति में क्षेत्रीय स्थिति भारत के बहुत पक्ष में नहीं दिखती। पाकिस्तान के साथ भारत छत्तीस का आँकड़ा बना हुआ है, जबकि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से भी भारत को रणनीतिक नुक़सान हुआ है। चीन तालिबान को समर्थन देता दिख रहा है, जो उसकी रणनीति का एक बड़ा अहम पहलू है। याद रहे भारत ने गलवान की ख़ूनी झड़प के बाद पिछले साल अगस्त के आख़िर में ऊँचाई वाली कैलाश पर्वत माला पर क़ब्ज़ा करके बड़ी रणनीतिक बढ़त हासिल कर ली थी। चीन इसके बाद दबाव में दिखा था। तब भारत ने कहा था कि उसके सैनिकों का कैलाश रेंज पर मोर्चा सँभालाने का मक़सद चीनी सैनिकों को वहाँ किसी तरह का दुस्साहस करने से रोकना है। हालाँकि इस साल के शुरू में चीन के साथ समझौते के बाद भारत ने वहाँ से हटने पर सहमति जता दी थी।

लगातार युद्धाभ्यास कर रहा चीन

एक रिपोर्ट के मुताबिक, हाल में चीन ने सीमा के पास युद्ध के कई बार अभ्यास कर चुका है। इनमें पीएलए को नये हथियारों के इस्तेमाल के साथ अभ्यास करते देखा गया है। ग्लोबल टाइम्स भी भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के इरादे से इन युद्धाभ्यासों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता रहा है। इसके अलावा चीन भारत के साथ लगती सीमाओं के नज़दीक बड़े पैमाने पर निर्माण कर रहा है। अरुणाचल से लेकर नेपाल तक चीन ने ढाँचे खड़े कर लिये हैं। भारत को इसकी जानकारी है। यह भी रिपोट्र्स हैं कि चीन सीमाओं पर बंकर तक बना रहा है।

नेपाल में तो हाल में चीन के ख़िलाफ़ इसलिए जबरदस्त प्रदर्शन हुए हैं कि वह नेपाल की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर रहा है। काठमांडू में डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े युवा संगठन ने महंत ठाकुर के नेतृत्व में चीन के ख़िलाफ़ जबरदस्त विरोध-प्रदर्शन किया। इसके अलावा डेमोक्रेटिक यूथ एसोसिएशन ने भी ध्वज मन मोकतन के नेतृत्व में मैतीघर मंडाला में प्रदर्शन किया। कार्यकर्ता हाथों में पोस्टर लिए हुए थे, जिनमें चीन से कहा गया था कि ‘हमारी क़ब्ज़ायी ज़मीन वापस करो।‘

हालाँकि चीन का कहना है कि उसने जो कुछ किया है, वह उसकी अपनी ज़मीन है। नेपाल के प्रदर्शनकारी लगातार नेपाल-चीन सीमा पर लीमी लापचा से हुमला ज़िले में हिल्सा तक चीन द्वारा कथित भूमि अतिक्रमण का अध्ययन करने के लिए बनायी गयी समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक करने की माँग अपनी सरकार से कर रहे हैं। नेपाल ने अपनी ज़मीन पर चीन के क़ब्ज़े के मामले की जाँच के लिए यह समिति बनायी थी। याद रहे भारत के साथ गलवान में हुई सैन्य झड़प के तुरन्त बाद चीन ने नेपाल के हुमला में क़रीब 150 हेक्टेयर ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया था। हाल में भी ऐसी और रिपोट्र्स आयी हैं, जिनसे पता चलता है कि चीन वहाँ निर्माण कर रहा है।

 

चीन की धमकी

नई दिल्ली स्पष्ट रूप से समझ ले कि जिस तरीक़े से वह सीमा को हासिल करना चाहती है, उस तरीक़े से उसे वह नहीं मिलेगी। अगर युद्ध शुरू होता है, तो निश्चित रूप से उसे हार का सामना करना पड़ेगा। चीन और भारत के बीच सीमा विवाद अभी भी बरक़रार है। इसका मूल कारण भारतीय पक्ष की ओर से वार्ता में एक सही रवैये की कमी है। वास्तविक स्थिति के इतर भारत की माँगें अव्यावहारिक होती हैं।

(ग्लोबल टाइम्स का सम्पादकीय)

 

“चीनी सैनिकों की हर गतिविधियों पर भारतीय सेना की पैनी नज़र है। चीन को उसकी सैन्य कार्रवाई के आधार पर ही जवाब दिया जाएगा। पूर्वी लद्दाख़ क्षेत्र में चीन द्वारा सैन्य निर्माण और बड़े पैमाने पर तैनाती बनाये रखने के लिए नये बुनियादी ढाँचे का विकास चिन्ता का विषय है और भारत चीनी पीएलए सैनिकों की सभी गतिविधियों पर कड़ी नज़र रख रहा है। वहाँ बड़े पैमाने पर चीन की तरफ़ से आधारभूत ढाँचे का निर्माण किया जा रहा है। इसका मतलब है कि वो लोग वहाँ टिकेंगे। यदि वो लोग वहाँ टिकेंगे, तो हम भी वहाँ डटे रहेंगे। चीन के साथ अरुणाचल में हाल के टकराव की प्रमुख वजह चीन की तरफ़ से बड़े पैमाने पर किया जा रहा निर्माण और पूर्व में निर्धारित प्रोटोकाल का पालन न करना रहा है।”

जनरल एम.एम. नरवणे

सेना प्रमुख

महँगाई का चाबुक

कोरोना-काल के चलते बाज़ारों में माहौल पहले से फीका चल रहा है। अब लगातार पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के दामों में इज़ाफ़ा होने से आम जनमानस और किसान महँगाई के बोझ तले दबता जा रहा है। ईंधन महँगा होने से खाद्य सामग्री महँगी हो रही है। महँगाई को लेकर दुकानदारों, आम लोगों और आर्थिक मामलों के जानकारों से तहलका संवाददाता ने बातचीत की। उनका कहना है कि यह ठीक है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के दामों में बढ़ोतरी हो रही है; लेकिन महँगाई के तेज़ी से बढऩे में कहीं-न-कहीं सरकारी व्यवस्था भी दोषी है। अगर समय रहते महँगाई पर सरकार ने क़ाबू नहीं पाया, तो जनता की मुश्किलें और बढ़ जाएँगी।

बताते चलें कोरोना वायरस के कहर के चलते मार्च, 2020 से देश के सभी छोटे-बड़े बाज़ारों की फीकी पड़ी रौनक़ जैसे-तैसे लौटनी शुरू हुई, लेकिन महँगाई ने लोगों को इतना मार रखा है कि ख़रीदारी का स्तर काफ़ी निम्न है।

दिल्ली के व्यापारियों का कहना है कि पेट्रोलियम पदार्थों की क़ीमतों में अगर ऐसे ही बढ़ोतरी होती रही, तो लोगों को अपने दैनिक बुनियादी ख़र्च पूरे करने में भी दिक़्क़त होगी। क्योंकि डीजल-पेट्रोल के बढ़ते दामों से ढुलाई भाड़ा बढ़ा है, जिससे खाद्यान्न से लेकर हर वस्तु के दाम 10 से 15 फ़ीसदी तक बढ़ चुके हैं; जिसका सीधा बोझ जनता की जेब पर पड़ेगा। सदर बाज़ार व्यापारी नेता राकेश यादव का कहना है कि दिल्ली में इसी साल में डीजल के दाम क़रीब 75 रुपये प्रति लीटर से 92 रुपये प्रति लीटर के क़रीब पहुँच गये हैं। यानी 10 महीने में डीजल पर 17 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी हुई है। इसी तरह पेट्रोल के दाम बढ़े हैं और वह आज दिल्ली में 103 रुपये से अधिक प्रति लीटर है। आर्थिक मामलों के जानकार दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. हरीश खन्ना का कहना है कि डीजल-पेट्रोल के बढ़े हुए दामों से बाज़ार-व्यवस्था तहस-नहस हो गयी है। हर वस्तु के दाम सवा गुने से दोगुने तक हुए हैं। रसोई गैस के दाम लगातार बढ़ रहे हैं, जिससे घरेलू बजट और भी बिगड़ा है। इसी साल में रसोई के गैस के दामों में 200 रुपये से अधिक की बढ़ोतरी होना चिन्ताजनक है। इस बेतहाशा बढ़ोतरी ने ग़रीब और मध्यम वर्ग के लोगों को झझकोर कर रख दिया है।

दिल्ली में दूध, मिठाई और चाय की दुकान चलाने वालों का कहना है कि गैस सिलेंडर और दूसरी चीज़ों के दाम बढऩे के चलते उन्हें भी दाम बढ़ाने पड़ रहे हैं, जो कि उनकी मजबूरी है। सब्ज़ी उगाने वाले किसानों का कहना है कि सारा खेल डीजल, बीज, कीटनाशक और खादों के दामों में बढ़ोतरी से बिगड़ा है। इससे खेती की लागत बढ़ी है, जिसके चलते बाज़ारों सब्ज़ियाँ महँगी हो रही हैं। खेत से बाज़ार सब्ज़ी ले जाने का ख़र्च भी बढ़ा है, जिसके चलते लोगों को सब्ज़ियाँ महँगे दामों में ख़रीदने को मजबूर होना पड़ रहा है। किसान राधेश्याम ने बताया कि वो दिल्ली के यमुना नदी के किनारे वर्षों से सब्ज़ियाँ उगा रहे हैं। लेकिन इस साल डीजल के दाम जिस तरह बढ़े हैं, इस गति से डीजल महँगा होता कभी नहीं देखा। यह निश्चित तौर पर किसानों के हित में नहीं है। डीजल, पेट्रोल और रसोई गैस के दाम जिस तरह हर दिन बढ़ रहे हैं, उससे निम्न और मध्यम वर्ग का किसान टूट जाएगा। क्योंकि लागत बढऩे के चलते उसे बैंक या साहूकार से क़र्ज लेना होगा, जिससे उसकी दशा और भी बिगड़ेगी।

आयकर मामलों के जानकार एवं अधिवक्ता नवीन कृष्ण गिरि ने कहा कि डीजल, पेट्रोल और रसोई गैस के लगातार बढ़ते दाम यह संकेत करते हैं कि आने वाले दिनों में अभी और बढ़ोतरी होगी। एक साल में जिस तेज़ी से इन ईंधनों के दाम बढ़े हैं, वह कभी नहीं हुआ। कोई विरोधी राजनीतिक दल बढ़े हुए दामों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाला नहीं है। एक दौर वो था, जब एक रुपये की भी बढ़ोतरी होने पर संसद से सड़क तक हंगामा होता था। लेकिन अब कोई विरोध-प्रदर्शन नहीं होता, जिससे सरकार मनमाने तरीक़े से महँगाई बढ़ा रही है। इससे देश में ग़रीबी और बढ़ेगी। ग़रीब और हो रहा है तथा अमीर और अमीर हो रहा है। मौज़ूदा हालात में सरकार सीधे तौर पर व्यापारियों से कर (टैक्स) लेने की बजाय जनता से अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में बढ़ोतरी का हवाला देकर महँगाई बढ़ाकर वसूली कर रही है। इससे लोगों की परेशानियाँ बढ़ रही हैं। महँगाई बढ़ाने का सारा खेल डीजल-पेट्रोल के दामों में बढ़ोतरी करके खेला जा रहा है, जिसका ठीकरा अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में महँगाई के नाम पर फोड़ा जा रहा है; ताकि सरकार पर कोई आरोप न लग सके। जबकि सच यह है कि जब देश में 65 रुपये के आसपास डीजल और 70-71 रुपये के आसपास पेट्रोल होता था, तब क्रूड ऑयल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में आज की अपेक्षा तक़रीबन दोगुने थे।

धतकर्मों का परदा

ईश्वर पर दुनिया के अधिकतर लोगों की आस्था है। इसी आस्था के सहारे चालाक लोग धार्मिक चोला ओढ़कर सामान्य समझ वालों को बड़े आराम से अपनी उँगलियों पर नचाते हैं। फिर भी अगर कोई इक्का-दुक्का जागरूक व्यक्ति या समूह इन धर्म के ठेकेदारों का विरोध करता भी है, तो उन्हें उस व्यक्ति या समूह से लडऩे की ज़रूरत नहीं पड़ती, बल्कि उनको और उनकी बातों को मानने वाले लोग ही धर्म (मज़हब) और ईश्वर पर हमले के नाम पर विरोधी व्यक्ति या समूह से निपट लेते हैं।

ऐसे नासमझ लोग ऐसे सत्य को भी बर्दाश्त नहीं करते, जो धर्म में किसी कमी को उजागर करता है। ये वही लोग होते हैं, जो दूसरे धर्म के अनुयायियों को ही नहीं, बल्कि उनकी भाषा में पुकारे जाने वाले उसी ईश्वर को गालियाँ देते हैं, जो उनका भी ईश्वर है। ऐसे अज्ञानी और धर्मांध लोग ही धर्म के नाम पर लड़ाने वालों की बातों को आँख बन्द करके ईश्वर के आदेश की तरह मानते हैं। अफ़सोस यह है कि दुनिया के अधिकतर लोग इसी पागलपन में डूबे हुए हैं। यही वजह है कि जीवन भर लोग एक-दूसरे का सिर फोड़ते रहते हैं, जिसके चलते चालाक लोग अपनी रोटियाँ सेंकते रहते हैं और मज़े करते हैं। दुनिया के लगभग सभी धर्मों में यही सब हो रहा है? अफ़सोस की बात यह है कि अब अपने फ़ायदे के लिए धर्मों में मोटी फंडिंग राजनीतिक दल और कुछ ताक़तवर लोग कर रहे हैं। यह फंडिंग न सिर्फ़ धर्म के नाम पर मोटी कमायी करने के लिए की जाती है, बल्कि सत्ता में बने रहने के लिए भी की जाती है। यही वजह है कि धर्मों की ठेकेदारी से जुड़े लोग ईश्वर और धर्म का डर दिखाकर आम लोगों को धर्म की अफ़ीम खिलाये रखना चाहते हैं, ताकि उनकी दूकान चलती रहे। इस खेल में रोचक बात यह है कि जो लोग धर्म पर चलने के लिए लोगों को प्रेरित करते हैं, सच्चाई से कहें तो जो लोग धर्म की दूकान चलाते दिखते हैं, वास्तव में वो धर्म के असली खिलाड़ी नहीं होते; वे केवल पादरी, पुजारी, मौलवी जैसी पदवियों तक ही सीमित होते हैं और उनका काम लोगों को अपने-अपने धर्म से जोड़कर रखना ही होता है। असल में सत्ता सुख जिन्हें मिलता है, वे परदे के पीछे सुरक्षित खेल खेलते हैं और साज़िशों के जाल बुनते हैं। यह खेल उन धर्म स्थलों के ज़रिये अधिक चलता है, जिनकी मान्यता ज़्यादा होती है। कितनी ही बार ऐसे लोगों की पोल हमारे सामने खुल चुकी है। लेकिन इसके बावजूद लोगों की आँखें नहीं खुलतीं।

इसे नादानी ही कहा जाएगा कि लोग उस धर्म के नाम पर लड़कर मर तक जाते हैं, जो धर्म इतनी आस्था के बावजूद उनकी रक्षा नहीं करता। अब तक दुनिया में धर्म के नाम पर जितने भी दंगे या युद्ध हुए हैं, उनमें मरने वालों में वही लोग अधिक रहे हैं, जिनका धर्म से सीधा कोई स्वार्थ नहीं रहा है। दरअसल धर्म के ठेकेदार धर्म की अफीम भी ऐसे ही लोगों को आसानी से खिला पाते हैं। इससे उन लोगों के कई स्वार्थ एक साथ बड़ी आसानी से सध जाते हैं। पहला स्वार्थ तो यह कि धर्म के सम्मान में आस्था से सिर झुकाये दण्डवत् पड़े लोगों, जो कि ग़ुलामी की हद तक यह सब करते हैं; को धर्म के इन ठेकेदारों की अय्याशियाँ और ख़ामियाँ नज़र नहीं आतीं। दूसरा इनके नीचे दबी बेकाम की सम्पत्ति किसी को नज़र नहीं आती।

बेकाम की सम्पत्ति इसलिए, क्योंकि यह सम्पत्ति अरबों-ख़बरों में होने के बावजूद समाज, देश और आम लोगों के कल्याण अथवा हित में किसी भी रूप में काम नहीं आती; जबकि यह सम्पत्ति आम लोगों के द्वारा ही दान में मिली होती है। इस सम्पत्ति का उपयोग धर्म के ठेकेदार अपनी अय्याशियों, ऐश-ओ-आराम के लिए करते हैं। या फिर इसे दंगे भड़काने, अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच झगड़ा कराने वालों को पालने और अपने द्वारा बनाये गये संगठनों को मज़बूत करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। या अगर किसी धर्म की साँठ-गाँठ किसी नेता अथवा राजनीतिक दल से है, तो चुनावों में जीत के लिए इस धन का इस्तेमाल किया जाता है। हैरत की बात यह है कि धार्मिक स्थलों अर्थात् धर्मों के इन अड्डों के निर्माण के लिए अब कुछ लोग पैसा भी लगाते हैं, ताकि इन स्थलों से उनकी कमायी हो सके। इस्कॉन मन्दिर इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। इस्कॉन मन्दिरों के ज़रिये विदेशी संगठन मोटी कमायी करते हैं। इसी तरह भारत के अन्दर देश के ही कई मज़बूत संगठन हर धर्म में हैं, जो कि धन-संग्रह के इसी खेल में लगे हैं। लेकिन किसी भी देश में धर्म को ईश्वर में आस्था का बड़ा रास्ता माना जाता है, जिसके चलते अगर कोई गड़बड़ी किसी धर्म के ठोकेदारों द्वारा की भी जाती है अथवा वे पकड़े भी जाता हैं, तो भी उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं होती। धर्म के नाम पर धार्मिक स्थलों द्वारा किये गये इस धन संग्रह की न कोई गिनती ही सार्वजनिक की जाती है और न ही इस धन पर कोई कर लगता है। यही वजह है कि इस धन्धे में आने वाले अपने आप को सबसे सुरक्षित महसूस करते हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि एक यही ऐसा धन्धा है, जो उनके धतकर्मों को छिपाने का परदा है। इस परदे की बिना पर उनके बड़े-से-बड़े पाप बड़ी आसानी से छिप जाते हैं और लोगों में वे ज़रूरत से ज़्यादा सम्मान पाते हैं। यह तो धर्म की अफीम खाने वाले लोगों को सोचना होगा कि क्या धर्म के ठोकेदार इस सम्मान के लायक होते हैं? क्या लोग धर्म की आस्था के नाम पर जिस धारा में बह रहे हैं, ईश्वर तक पहुँचने के लिए उसकी ज़रूरत है? क्या वे धर्म के नाम पर जो दान दे रहे हैं, वास्तव में उसका सदुपयोग हो रहा है?

हरियाणा सरकार के शौक़ीन मंत्री!

मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने अपने और मंत्रियों के लिए ख़रीदीं फाच्र्यूनर और मर्सिडीज बैंज जैसी महँगी गाडिय़ाँ

सरकारी ख़र्चों में कटौती के दावे के विपरीत हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर अपनी और मंत्रियों की निजी सुविधाओं में कोई कोताही नहीं करते। उनके क़ाफ़िले में पहले ही लग्जरी गाडिय़ों की कमी नहीं; लेकिन बावजूद इसके चार नयी फाच्र्यूनर और जोड़ लीं। उनका कारवाँ अब पहले से बड़ा हो गया है। मुख्यमंत्री और मंत्रियों के बड़े लाव-लश्कर से आम लोगों को क़ाफ़ी दिक़्क़तें झेलनी पड़ती है।

क़ाफ़िले में वाहनों की संख्या में कमी होनी चाहिए; लेकिन विडम्बना यह कि यह संख्या बढ़ती जा रही है। नयी-से-नयी लग्जरी गाडिय़ों को सरकार अपना वाहन बना रही है। नये लग्जरी वाहनों की ज़रूरत कृत्रिम तौर पर पैदा की जाती है और बाद में ऐसी स्थिति पेश की जाती है कि बिना उनके सरकारी दौरों पर निकलना ही मुश्किल है। फाइलें तैयार होती हैं और बिना किसी देरी के प्रस्ताव को मज़दूरी मिल जाती है।

राज्य सरकार ने इसी वर्ष सात करोड़ रुपये से ज़्यादा के 17 लग्जरी वाहनों की ख़रीद की गयी। इसमें 15 फाच्र्यूनर, एक मर्सीडीज बैंज ई-200 और एक मारुति इरटिगा है। फाच्र्यूनर की क़ीमत 36,30,657 रुपये, मर्सीडीज बैंज ई-200 बैंज की क़ीमत 65,75,000 रुपये है और मारुति इरटिगा 8,60,265 रुपये है। इनमें चार फाच्र्यूनर मुख्यमंत्री मनोहर लाल के क़ाफ़िले में जोड़ी गयी हैं। मर्सीडीज बैंच ई-200 गृहमंत्री अनिल विज के लश्कर में रहेगी। फाच्र्यूनर पाने वालों में विधानसभा उपाध्यक्ष रणबीर गंगवा, मंत्री कँवर पाल, मूलचंद शर्मा रणजीत सिंह, जयप्रकाश दलाल, वनवारी लाल के अलावा राज्यमंत्री ओमप्रकाश यादव, कमलेश ढांढा और अनूप धानक हैं। विपक्ष के नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा को भी फाच्र्यूनर दी गयी है। मुख्यमंत्री के ओएसडी सतीश सैनी को मारुति इरटिगा मिली है।

ख़र्च अगर ज़रूरत के हिसाब से हो, तो उचित होता है; वरना तो उसे फ़िज़ूलख़र्ची ही कहा जाएगा। वाहन ख़रीद से ही सरकार पर अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ता, बल्कि ईंधन और उसके चालक आदि से भी क़ाफ़ी फ़र्क़ पड़ता है। बढ़ती महँगाई से ख़र्च में कटौती सरकार की ठोस नीति होनी चाहिए; लेकिन यह सब काग़ज़ों और भाषणों में नज़र आता है। लोगों की गाढ़ी कमायी का हिस्सा जनप्रतिनिधियों की सुख सुविधाओं के लिए नहीं, बल्कि जनकल्याण पर ख़र्च होना चाहिए। सरकारी नुमाइंदों को तो सरकार सुविधाओं का कम-से-कम इस्तेमाल करके मिसाल पेश करनी चाहिए। लेकिन वे तो ज़्यादा-से-ज़्यादा सरकारी सुख-सुविधाएँ चाहते हैं।

संकट में ख़रीदीं गाडिय़ाँ

इस वर्ष 17 लग्जरी वाहनों की ख़रीद उस दौरान की गयी, जब देश में कोरोना की दूसरी लहर चरम पर थी। दवाइयों और ऑक्सीजन की कमी से लोग मर रहे थे। लगभग चार माह राज्य में लॉकडाउन जैसी स्थिति रही। सामान्य जीवन बुरी तरह से प्रभावित हो रहा था। रात में कफ्र्यू और दिन में लॉकडाउन, लगभग सब कुछ बन्द जैसी हालत में था। ऐसे में लग्जरी वाहनों की ख़रीद प्रक्रिया ज़रा भी प्रभावित नहीं हुई। इसी वर्ष जनवरी से जुलाई तक सात माह के दौरान मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और विभिन्न मंत्रियों की गाडिय़ाँ ख़ूब दौड़ीं।

मोटा ख़र्च

नारनौल से भाजपा विधायक और राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) ओमप्रकाश यादव के क़ाफ़िले की गाडिय़ों ने तो सात माह (लगभग 210 दिन) में 56,000 किलोमीटर की दूरी नाप दी। अकेले मार्च माह के दौरान इनकी गाडिय़ों ने 21,000 किलोमीटर की दूरी तय कर ली। इस माह औसत तौर पर उनकी गाड़ी प्रतिदिन 700 किलोमीटर चली। सात माह में उनके क़ाफ़िले के वाहनों का ईंधन ख़र्च 11,56,000 से भी ज़्यादा रहा। सात माह के दौरान उनकी सक्रियता मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री या किसी अन्य मंत्री से कहीं ज़्यादा रही। इस दौरान मुख्यमंत्री खट्टर 21,000 से कम और उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला 27,000 किलोमीटर से कुछ ज़्यादा पर ही सिमट गये।

किसान आन्दोलन में जब सरकार के प्रतिनिधियों का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो रहा था। सरकारी परियोजनाओं के उद्घाटन वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से हो रहे थे। निजी कामों से जाते प्रतिनिधियों का घेराव हो रहा था। ऐसे में राज्य सरकार के दो प्रतिनिधियों ने सात माह के दौरान एक लाख किलोमीटर की दूरी पार कर ली। इस दौरान ज़्यादा दूरी तय करने वालों में बिजली मंत्री रणजीत सिंह भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने क़रीब 92,000 किलोमीटर, मंत्री मूलचंद शर्मा ने 88,000 और राज्यमंत्री अनूप धानक ने 80,000 किलोमीटर की दूरी नाप डाली।

विधानसभा उपाध्यक्ष रणबीर गंगवा की तीन गाडिय़ों ने लगभग 1,08000 का सफ़र पूरा कर लिया। इस दौरान उनका ईंधन ख़र्च लगभग 11,00,000 तक पहुँच गया। किलोमीटर और ईंधन ख़र्च में यादव और गंगवा में मुक़ाबला तक़रीबन काँटे का ही रहा; लेकिन अव्वल राज्यमंत्री ही रहे। इसके विपरीत इस अवधि में विधानसभा अध्यक्ष ज्ञानचंद गुप्ता के क़ाफ़िले की गाडिय़ों ने 53,000 किलोमीटर की दूरी नापी। उनका ईंधन ख़र्च साढ़े पाँच लाख रुपये से कुछ ज़्यादा ही रहा। मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री, मंत्रियों और राज्यमंत्रियों को अपने विधानसभा क्षेत्र के अलावा विभिन्न सरकारी कामों से जाना पड़ता है। कोरोना-काल की वजह से जनवरी से जुलाई के दौरान सामान्य हालात न होने की वजह से ईंधन ख़र्च कुछ कम हुआ, जबकि सामान्य समय में यह ख़र्च बहुत ज़्यादा होता है।

सरकारी ख़जाने पर कम-से-कम असर हो, इसके लिए वाहनों के क़ाफ़िले को बड़ा से बड़ा नहीं, बल्कि छोटा से छोटा करने का प्रयास होना चाहिए। इसकी वजह से कोई काम प्रभावित नहीं होता; लेकिन रुतबे के लिए बड़ा लश्कर लेकर चलना शान समझा जाता है। केवल वाहन ही क्यों हर मद में कटौती होनी चाहिए। लेकिन सुख सुविधाओं में कमी रहे, तो फिर सरकार में रहने का फ़ायदा ही क्या हुआ? जितना ज़्यादा सरकारी पैसे का इस्तेमाल हो जाए वही कम है।

धरातल से जुड़े नेता भी सत्ता में आने के बाद सुविधाएँ चाहने लगते हैं। आवास से लेकर पेंशन तक उन्हें भरपूर सुविधाएँ मिलती हैं। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर तो जनसभाओं में दावा करते रहे हैं कि उनके कार्यकाल में बहुत-सी सरकारी परियोजनाएँ तय अवधि से पूरी हुई, जिसमें सरकार को फ़ायदा मिला। अक्सर देरी से पूरी होने वाली परियोजनाओं का ख़र्च निर्माता पर कम सरकार पर ही ज़्यादा पड़ता है। सरकार को फ़ायदा हो, यह तो अच्छी बात है; लेकिन जहाँ तक अपनी सुख सुविधाओं का सवाल है, उसमें किसी तरह का समझौता नहीं किया जा रहा।

समय-समय पर जनप्रतिनिधियों के वेतन और भत्ते बढ़ते रहते हैं। इसका कहीं कोई विरोध नहीं होता। विपक्ष चाहे हर मुद्दे पर राजनीति करे; लेकिन जहाँ निजी लाभ की बात हो, वहाँ हाथ उठाकर सर्वसम्मति से फ़ैसले हो जाते हैं। वेतन, भत्तों और अन्य सुविधाओं का प्रस्ताव रखने वाले प्रतिनिधि और उन्हें बिना बहस के पास करने वाले जनता के नुमाइंदे ही हों, तो देर कहाँ होती है? ‘चट मँगनी, पट ब्याह’ जैसी उक्ति लागू हो जाती है। जल्द-से-जल्द अधिसूचना जारी होकर सुविधाएँ लागू हो जाती हैं।

नयी व्यवस्था के तहत सरकारों में संख्या बल के हिसाब से मंत्रियों की संख्या निश्चित है; लेकिन उनकी सुख सुविधाएँ तय नहीं हैं। यही वजह है कि पहले से ही लग्जरी वाहनों की भरमार होने के बावजूद राज्य सरकार ने करोड़ों रुपये के वाहन ख़रीद डाले। लोगों के कर (टैक्स) आदि से होने वाली सरकारी कमायी को जनप्रतिनिधियों की शान-ओ-शौक़त के लिए लुटाना ठीक क़दम नहीं माना जा सकता।

 

पैसे की बर्बादी

स्वास्थ्य शिक्षा सहयोग संगठन के प्रदेश अध्यक्ष बृजपाल परमार ने सूचना के अधिकार-2005 के तहत जनवरी से जुलाई के दौरान हरियाणा सरकार के नये वाहनों की ख़रीद और मंत्रियों और राज्य मंत्रियों के ईंधन ख़र्च के बारे में जानकारी माँगी थी। सामाजिक कार्यकर्ता परमार शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में वंचित लोगों को लाभान्वित करने की इच्छा रखते हैं। उनका संगठन इस दिशा में क़ाफ़ी सक्रिय भूमिका भी निभा रहा है। उनके मुताबिक, सरकारों को जनप्रतिनिधियों की सुख-सुविधाओं के लिए नहीं, बल्कि समाज के दबे-कुचले और वंचित लोगों के कल्याण पर ध्यान देना चाहिए। योजनाएँ हैं; लेकिन वे अन्तिम व्यक्ति तक पूरी नहीं पहुँच पा रही हैं। निजी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चों का कोटा तय है; लेकिन इसका पूरी तरह से पालन नहीं हो पा रहा। शिक्षा और स्वास्थ्य की दिशा में सरकार काम कर रही है। उपलब्धि के आँकड़ें भी बहुत है; लेकिन यह तस्वीर का दूसरा पक्ष है। पहला पक्ष जो उपेक्षित है, उसके लिए धरातल पर काम करने की ज़रूरत है।

प्राकृतिक खेती से चमकी हिमाचल सेब उत्पादकों की क़िस्मत

शिमला ज़िले के ठियोग में सेब उत्पादक शकुंतला शर्मा की ख़ुशी के अपने कारण हैं। प्राकृतिक खेती की तकनीक से उनके बाग़ में पैदा हुए सेब से उन्हें इस बार बाज़ार में अप्रत्याशित रूप से 100 रुपये प्रति किलोग्राम से अधिक की क़ीमत मिली। यह अभी तक उन्हें मिली सबसे ज़्यादा क़ीमत है। शकुंतला के मुताबिक, इसका एक और लाभ हुआ है कि लागत का ख़र्चा पहले से काफ़ी घटा है।

शकुंतला बताती हैं कि जैसे ही स्थानीय बाज़ार में ख़रीदार जब उनके सेब के बक्सों पर ‘प्राकृतिक सेब’ का लेबल देख रहे हैं, तो तुरन्त निर्धारित क़ीमत पर ख़रीदार रहे हैं। इससे ज़ाहिर होता है कि वे ग़ैर-रासायनिक उत्पाद को प्राथमिकता दे रहे हैं। उनके मुताबिक, ग़ैर-रासायनिक सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती (एसपीएनएफ) के साथ खेती की लागत पर 50,000 से 60,000 रुपये की बचत हो जाती है, जो वास्तव में एक बड़ा लाभ है।

महिला किसान पाँच बीघा सेब के बाग़ सहित कुल 10 बीघा ज़मीन पर एसपीएनएफ का इस्तेमाल कर रही हैं। शकुंतला के मुताबिक, प्राकृतिक सब्ज़ियों के ख़रीदार भी उनके दरवाज़े पर आते हैं और अच्छी क़ीमत में उन्हें ख़रीदारते हैं। एसपीएनएफ पद्धति देसी गाय के गोबर, मूत्र और कुछ स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों से प्राप्त चीज़ें पर आधारित है। एसपीएनएफ के लिए फॉर्म इनपुट घर पर तैयार किये जा सकते हैं। इस तकनीक में किसी भी तरह के रासायनिक खाद या कोई कीटनाशक का प्रयोग नहीं किया जाता है।

शिमला ज़िले के रोहड़ू खण्ड में समोली पंचायत के एक और बाग़वान रविंदर चौहान ने बताया कि वह काफ़ी वित्तीय फ़ायदे में हैं; क्योंकि रासायनिक स्प्रे पर लगातार बढ़ते ख़र्च के कारण उन्हें अपने सेब बाग़ में कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। उन्होंने कहा कि प्राकृतिक खेती में बदलाव ने मुझे पिछले तीन साल में अच्छा मुनाफ़ा कमाने में मदद की है।

प्राकृतिक खेती की तकनीक से आठ बीघा ज़मीन पर सेब उगाने वाले चौहान ने तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्यों में सेब का एक डिब्बा (वज़न 25 किलो) 4200 से 4500 रुपये में बेचा। इसमें परिवहन लागत भी शामिल है। रविंदर चौहान के मुताबिक, सामान्य बाज़ार में क़ीमतों में उतार-चढ़ाव का उन पर ज़्यादा असर नहीं पड़ता; क्योंकि उनके सेब रसायन मुक्त, प्राकृतिक और स्वस्थ हैं। वह पहले से दर (क़ीमत) तय करते हैं।

राज्य सरकार द्वारा सन् 2018 में शुरू किये गये पीके3वाई योजना के एक हिस्से के रूप में हिमाचल प्रदेश में कृषि और बाग़वानी फ़सलों के लिए ग़ैर-रासायनिक कम लागत वाली जलवायु लचीला एसपीएनएफ तकनीक को बढ़ावा दिया जा रहा है। राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई (एसपीआईयू) द्वारा साझा किये गये आँकड़ों के अनुसार, हिमाचल प्रदेश में अब तक (आंशिक या पूर्ण रूप से) 1,33,056 किसान प्राकृतिक खेती कर रहे हैं, जिसमें 7,609 हेक्टेयर क्षेत्र शामिल है। इसमें तक़रीबन 12,000 सेब बाग़वान शामिल हैं।

बाहरी बाज़ार, उत्पादन, कृषि स्थिति और कम ख़र्च पर शून्य निर्भरता के सन्दर्भ में प्राकृतिक खेती के परिणामों से जहाँ किसान ख़ुश हैं, वहीं उन्होंने बेहतर लाभ के साथ प्राकृतिक उपज के विपणन के लिए अपने स्वयं के सम्बन्ध बनाने के प्रयास भी शुरू कर दिये हैं। इनमें से कुछ को स्थानीय मण्डियों में रासायनिक मुक्त प्राकृतिक उपज के अच्छे दाम मिल रहे हैं। अन्य लोग इन सेबों को देश के विभिन्न हिस्सों में भेज रहे हैं और कई को तो दरवाज़े पर ही ख़रीदार मिलने लगे हैं।

शिमला ज़िले के चौपाल ब्लॉक के लालपानी दोची गाँव के एक फल उत्पादक सुरेंद्र मेहता को सन् 2019 और 2020 में प्राकृतिक रूप से उत्पादित सेब के लिए जयपुर और दिल्ली में ख़रीदार मिले। शिमला ज़िले के शिलारू की एक महिला सेब उत्पादक सुषमा चौहान, जो कुल 50 बीघा में से 10 बीघा भूमि पर एसपीएनएफ कर रही हैं; ने कहा कि रासायन-मुक्त प्राकृतिक उपज के बारे में जागरूकता धीरे-धीरे बढ़ रही है और अब बाहर से ख़रीदार उनके पास आ रहे हैं।

पीके3वाई के कार्यकारी निदेशक, राजेश्वर सिंह चंदेल कहते हैं कि राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई स्थानीय कृषि आधारित विपणन मॉडल के लिए विभिन्न किसानों की तलाश कर रही है, जिन्हें उन्होंने स्वयं विकसित किया है। इससे हमें इन सफल किसान-बाज़ार सम्बन्धों को अपने कार्यक्रम के साथ जोडऩे में मदद मिलेगी; जिसमें हम सभी किसानों को बाज़ार से जोडऩे पर विचार कर रहे हैं।

“वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि एसपीएनएफ तकनीक से सेब की फ़सल में खेती की लागत में 56.5 फ़ीसदी की कमी की है; जबकि सेब की फ़सल में लाभ में 27.4 फ़ीसदी बढ़ोतरी हुई है। सेब में स्कैब और मार्सोनिना ब्लॉच की घटना भी पारम्परिक प्रथाओं की तुलना में प्राकृतिक खेती में कम होती है और किसान एसपीएनएफ को अपनाकर एक ही खेत में कई फ़सलें लेने में सक्षम हैं।“

शकुंतला शर्मा

सेब उत्पादक

 

सिद्धू बने रहेंगे पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष, कल होगी बड़ी घोषणा !

पंजाब कांग्रेस के बीच चल रहा संकट ख़त्म होने की खबर है। नवजोत सिंह सिद्धू का पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा पार्टी आलाकमान ने फिलहाल नामंजूर कर दिया है। वे अध्यक्ष बने रहेंगे। कल कांग्रेस आलाकमान पंजाब कांग्रेस से जुड़ा कोई बड़ा फैसला कर सकती है। सिद्धू ने आज शाम पार्टी के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल और प्रभारी महासचिव हरीश रावत से मुलाकात की, जिसके बाद यह जानकारी सामने आई है। पार्टी ने हाल में पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह को मनाने की कोशिश की थी और कल उनसे जुड़ी कोई बड़ी घोषणा हो सकती है।

सिद्धू ने बैठक के बाद कहा है कि वे आलाकमान की हर बात मानेंगे और उनका कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और राहुल गांधी पर पूरा भरोसा है। सिद्धू ने कांग्रेस आलाकमान पर पूरा भरोसा जताया है। उधर पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने आज पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह से परिवार सहित मुलाकात की।  हाल में चन्नी के बेटे की शादी हुई है। याद रहें रहे सिद्धू ने 28 सितंबर को कांग्रेस की पंजाब इकाई के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था और आज की बैठक इसी सिलसिले में थी।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक पंजाब से जुड़े मसलों पर विवाद सुलझा लिया  गया है। आलाकमान की तरफ से शुक्रवार को पंजाब को लेकर कोई बड़ा फैसला किया जा सकता है। आज शाम सिद्धू ने संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल और प्रदेश प्रभारी हरीश रावत से करीब 45 मिनट गुफ्तगू की। समझा जाता है कि पार्टी अलाकमान अमरिंदर सिंह को मनाने की कोशिश कर रही थी और कल कोई बड़ी घोषणा उनसे जुड़ी हो सकती है। अमरिंदर की पत्नी परनीत कौर कांग्रेस की सांसद हैं और माना जाता है कि वे कांग्रेस छोड़ने के पक्ष में नहीं हैं।

इस बैठक के बाद सिद्धू के बाद प्रभारी हरीश रावत ने मीडिया को बताया -‘सिद्धू ने आपसे साफ़ बताया है कि वे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का जो भी आदेश होगा, उन्हें मान्य होगा और वह उसका पालन करेंगे। आदेश बिल्कुल साफ है कि वह पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष के तौर पर अपना काम पूरी शक्ति से करें और सांगठनिक ढांचे को मजबूत करें। कल आपको इससे बड़ी सूचना विधिवत तरीके से मिल जाएगी।’

हरीश रावत ने कहा – ‘सिद्धू से कांग्रेस संगठन को मजबूत करने के लिए कहा गया है। कल तक आपको स्थिति और साफ हो जाएगी।’ उधर सिद्धू ने कहा – ‘मुझे पक्का भरोसा है कि आलाकमान पंजाब के हित में फैसला लेगा। मैंने पंजाब के प्रति, पंजाब कांग्रेस के प्रति जो भी मेरी चिंताएं थी वो पार्टी आलाकमान को बताई हैं। मुझे कांग्रेस अध्यक्ष पर, प्रियंका जी पर और राहुल जी पर पूरा भरोसा है। वे जो भी निर्णय लेंगे वो कांग्रेस और पंजाब के हित में होगा, उनके हर आदेश का पालन करूंगा।’

एम्स में भर्ती पूर्व पीएम मनमोहन सिंह की हालत स्थिर, राहुल मिले

बुखार खार और थकावट के बाद एम्स में भर्ती पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की हालत स्थिर बनी हुई है। उनके स्वास्थ्य का हाल जानने के लिए आज शाम कांग्रेस नेता राहुल गांधी एम्स पहुंचे। इससे पहले सुबह केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया भी एम्स पहुंचे थे। उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ट्वीट करके  जल्द स्वस्थ होने की कामना की है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आज शाम एम्स जाकर मनमोहन सिंह के स्वास्थ्य की।  उन्होंने सिंह की देखभाल कर रहे डाक्टरों से बातचीत की। सुबह केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने भी एम्स में भर्ती पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात की थे और उनकी सेहत की जानकारी ली थी। अस्पताल में सिंह को देख रहे डाक्टरों के मुताबिक पूर्व प्रधानमंत्री की स्थिति स्थिर है। मांडविया ने सिंह की देखरेख कर रहे चिकित्सकों से उनके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी ली।

उधर सिंह से मिलने के बाद स्वास्थ्य मंत्री मांडविया ने ट्वीट में कहा – ‘पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से एम्स, नई दिल्ली में मुलाकात की और उनकी सेहत का हाल जाना। स्वास्थ्य मंत्री ने सिंह के जल्द स्वस्थ होने की कामना की।

उत्तर प्रदेश के चुनावी परिणाम चौकाने वाले साबित हो सकते है, यदि विपक्ष एकजुटता रखें तो

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव को लेकर 6 महीनें से कम का समय बचा है पर, सियासत का बाज़ार गर्म है। किसानों को लखीमपुर में रौंदें जाने के बाद से उत्तर प्रदेश में नये समीकरण बनकर ऊभरें है। मौजूदा दौर में विपक्ष एकता की तो बात कर रहा है। परंतु एकजुटता के अभाव के कारण राजनीतिक समीकरण बनते–बनते बिगड़ने लगते है।

यदि समाजवादी पार्टी विजय यात्रा निकाल रही है। तो कांग्रेस मौन व्रत करके प्रदेश सरकार का विरोध कर रही है। बसपा के विरोध को मौजूदा सियासत में कोई विशेष महत्व नहीं दिया जा रहा है।

बतातें चलें, उत्तर–प्रदेश की राजनीति पूरी तरह से जातीय समीकरणों पर टिकी है। ऐसे में राजनीतिक दल जातीय ताना-बाना बुनने में लगें है। मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश में किसानों को लेकर राजनीति गर्म है। सभी राजनीति दल किसानों के इर्द – गिर्द राजनीति कर रहे है। उत्तर प्रदेश की राजनीति का मिजाज सियासी दल जनता के बीच जाकर भाप रहें है । उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार प्रदीप सिंह का कहना है कि, “अगर भाजपा ने समय रहते किसानों की मांगों को नहीं माना और लखीमपुर में रौदें गये किसानों के परिजनों  को न्याय नहीं दिया तो, चुनावी परिणाम चौंकाने वाले होगे। क्योंकि उत्तर प्रदेश की सियासत में हर पल समीकरण बन और बिगड़ रहे है।”

इसी तरह महगांई को लेकर जनता में भारी आक्रोश है। महगांई के चलते गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों को बजट बिगड़ा हुआ है। कोरोना काल के चलते लाखों लोगों के रोजगार छिन गये है। प्रदीप सिंह का कहना है कि चुनाव में समय कम बचा है। काम ज्यादा है। इस लिहाज से सरकार को जनहित में फैसलें धरातल पर लेना होगा। यदि विपक्ष एकता के साथ सरकार की  जन विरोधी नीतियों को जनता के बीच लें जाती है और जनता में पकड़ बनाती है। तो निश्चित तौर पर चुनावी परिणाम चौकाने वाले साबित होगें।

लखीमपुर खीरी मामले में राष्ट्रपति से मिला कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल, मंत्री को हटाने की उठाई मांग

कांग्रेस पार्टी का एक प्रतिनिधिमंडल बुधवार को नई दिल्ली में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिला और लखीमपुर खीरी में किसानों की हत्या के मुख्य आरोपी आशीष मिश्रा के केंद्र सरकार में गृह राज्यमंत्री पिता अजय मिश्रा को मंत्रिमंडल से हटाने की  मांग की। इस प्रतिनिधिमंडल में राहुल गांधी के अलावा पार्टी के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे, गुलाम नबी आजाद, एके एंटनी और उत्तर प्रदेश की प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी भी थीं।

राष्ट्रपति से मिलकर इन नेताओं ने उन्हें ज्ञापन दिया। राष्ट्रपति से मुलाकात के बाद   राहुल गांधी ने मीडिया के लोगों से कहा – ‘हम आज राष्ट्रपति से मिले हैं और केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा को पद से हटाए जाने की मांग की। मामले की सही से जांच होने के लिए यह जरूरी है कि अजय मिश्रा को पद से हटा दिया जाए। साथ ही   हमने सुप्रीम कोर्ट के दो मौजूदा जजों की ओर से मामले की जांच कराए जाने की भी मांग रखी है।’

गांधी ने कहा – ‘हमने घटना के बाद लखीमपुर में सभी पीड़ित परिवारों से मुलाकात की थी। हमने राष्ट्रपति को बताया है कि पीड़ित परिवार दो चीजें चाहते हैं। पहली बात यह है कि वे न्याय चाहते हैं। उनका कहना है कि जिस व्यक्ति ने ये हत्याएं की हैं, उसे सजा मिले। इसके अलावा परिवारों ने यह भी कहा कि जिस व्यक्ति ने हत्याएं की हैं, उसके पिता हिन्दुस्तान के होम मिनिस्टर हैं। इसलिए जब तक वह मिनिस्टर हैं, तब तक सही जांच और न्याय नहीं मिल सकता है। हमने यह बात देश के राष्ट्रपति को बताई और हमने कहा कि यह सिर्फ पीड़ित परिवारों की ही नहीं बल्कि पूरे हिन्दुस्तान की आवाज है।’

कांग्रेस नेता ने लखीमपुर कांड का जिम्मेवार अजय मिश्रा को बताया। राहुल ने कहा – ‘केंद्रीय गृह राज्य मंत्री ने पहले ही किसानों को धमकी दी थी। इस शख्स ने हत्या से पहले देश के सामने कहा था कि यदि सुधरोगे नहीं तो मैं सुधार दूंगा। इससे साफ है कि उस व्यक्ति ने पहले किसानों को धमकी दी और फिर उसके आधार पर उन्हें मारा। इसलिए हमने राष्ट्रपति को बताया कि इन्हें हटाना होगा।’

राष्ट्रपति से मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल में राहुल और प्रियंका गांधी के साथ मल्लिकार्जुन खड़गे, गुलाम नबी आजाद, एके एंटनी जैसे वरिष्ठ नेता भी थे। यह पहला अवसर है जब प्रियंका गांधी ऐसे किसी प्रतिनिधिमंडल के रूप में राष्ट्रपति से मिलने गईं। इससे जाहिर होता कि प्रियंका उत्तर प्रदेश  लेकर काफी गंभीर दिख रही हैं। वे लखीमपुर खीरी की घटना  भी लगातार उत्तर प्रदेश में बनी हुई हैं। उनकी सक्रियता ने यूपी की राजनीति में तूफान ला दिया है।

छठ पूजा को लेकर आप –भाजपा के बीच सियासी संग्राम

राजधानी दिल्ली में छठ पूजा को लेकर आप पार्टी और भाजपा के बीच मचा सियासी संग्राम दिन व दिन तूल
पकड़ता जा रहा है। जबकि सच्चाई ये है 4 महीने बाद दिल्ली नगर निगम के चुनाव को लेकर दोनों राजनीतिक
दल अपनी पूर्वाचंल वोट पर पकड़ बनाना चाहते है। आप पार्टी का कहना है कि कोरोना काल चल रहा है। दिल्ली
में छठ पूजा को लेकर कोई मनाही नहीं है। छठ पूजा लोगों अपने घरों में पिछली साल 2020 की तरह अपने
घरों में मनाये। ताकि कोरोना को संक्रमण को रोका जा सकें। वहीं भाजपा का कहना है कि पूर्वाचलवासियों की
उपेक्षा की जा रही है। यमुना तट पर छठ पूजा को लेकर रोका जा रहा है। दिल्ली में रह रहे लाखों पूर्वाचंल वासियों
की आस्था पर चोट की जा रही है। दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता और दिल्ली के सांसद मनोज

तिवारी का कहना है, कि जब सारी दिल्ली खुल गयी है। स्वमिंग पूल खुल गये है। तो छठ पूजा को रोककर दिल्ली
सरकार किसी की आस्था पर चोंट नहीं पहुंचा सकती है। वहीं आप पार्टी के नेता दुर्गेश का कहना है कि छठ पूजा
को लेकर भाजपा सियासत कर रही है। क्योंकि भाजपा हर मोर्चे पर असफल हो रही है। छठ पूजा को लेकर बिहार के निवासी बलबीर सिंह का कहना है कि कोरोना गाइड लाइन का पालन होना चाहिये । क्योंकि कोरोना के कहर से देश ने बड़ी तबाही देखी है। अभी छठ पूजा को लेकर लगभग एक महीने का समय है। जरूर कोई रास्ता निकलेंगा।ऐसे में छठ पूजा को लेकर सियासत करना ठीक नहीं है।