ख़तरे की आहट, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान शासन भारत सहित पड़ोसी देशों के लिए बड़ी चुनौती!

देखते-ही-देखते पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का क़ब्ज़ा हो गया। इतनी जल्दी और आराम से कि हर कोई हैरान है। भारत तालिबान को मान्यता देगा या नहीं? इस पर भी नज़र रहेगी। क्योंकि आज तक कभी भारत ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है। चीन सरकार एक आतंकी संगठन को समर्थन देती दिख रही है; जबकि पाकिस्तान ने तालिबान को ताक़त दी है। जो स्थितियाँ तालिबान के आने से बनी हैं, उनका भारत पर भी असर पडऩा लाज़िमी है। हालाँकि भारत फ़िलहाल ‘देखो और इंतज़ार करो’ की नीति पर चल रहा है। क्या तालिबान सभी के लिए ख़तरा बनेगा या अपना स्वरूप बदलेगा? बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

जिस अफ़ग़ानिस्तान में हम पीढिय़ों से रह रहे हैं, वहाँ हम एक ऐसी स्थिति देख रहे हैं, जो हमने पहले कभी नहीं देखी। सब कुछ ख़त्म हो गया। लोगों की ज़िन्दगी ख़त्म हो गयी। 20 साल से बनी सरकार टूट गयी। सब कुछ शून्य हो गया। यह शब्द हैं- काबुल से जान बचाकर भारत पहुँचे अफ़ग़ानिस्तान के सिख सीनेटर नरेंद्र सिंह खालसा के। खालसा अकेले नहीं हैं, जो मानते हैं कि तालिबान के आने से अफ़ग़ानिस्तान बर्बाद हो गया। क्योंकि वहाँ अब तालिबानी अपने अत्याचार से आम नागरिकों और महिलाओं का जीना हराम कर देंगे; भले फ़िलहाल वे अच्छा होने का नाटक कर रहे हों। यह अफ़ग़ानिस्तान का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है- अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद उसका दूसरे देशों पर होने वाला असर, जिनमें भारत भी शामिल है। पाकिस्तान के तालिबान से मज़बूत रिश्ते रहे हैं। यही नहीं अफ़ग़ानिस्तान में चीन का तालिबान को समर्थन भी एक ख़तरनाक गठजोड़ है। चीन ने तालिबान को मान्यता दे दी है, जबकि अभी तक वहाँ उनकी सरकार बनी ही नहीं है। उधर अफ़ग़ानिस्तान की पंजशीर घाटी, जहाँ तालिबान का कभी क़ब्ज़ा नहीं हो पाया है; में नॉर्थर्न एलायंस की तरफ़ से तालिबान के हथियारबंद विरोध की ज़मीन तैयार हो रही है, जो देश को गृह युद्ध की तरफ़ धकेल सकती है। क्योंकि आम जनता में भी तालिबान का विरोध देखने को मिल रहा है। तालिबान ने अमेरिका को 31 अगस्त तक देश छोडऩे की चेतावनी दी हुई है और यदि अमेरिका वहाँ से जाने से इन्कार करता है, तो यह भी संघर्ष का रास्ता खोल सकता है। सबसे बड़ा सवाल यही पैदा होता है कि इतने बड़े अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान ने इतनी जल्दी और इतनी आसानी से क़ब्ज़ा कैसे कर लिया?

अफ़ग़ानिस्तान में वैसे अमेरिका से लेकर ब्रिटेन और सोवियत संघ सहित दुनिया की कई शक्तियाँ हारकर लौट चुकी हैं। यहाँ तक कि तालिबान भी एक बार अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करके देश छोडऩे को मजबूर हो चुका है। अफ़ग़ानिस्तान पर सन् 1996 से सन् 2001 तक तालिबान का राज रहा। लेकिन 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले से बिफरे अमेरिका की अगुवाई में मित्र देशों की साझी सेना ने अफ़ग़ानिस्तान में उनका शासन ख़त्म कर दिया था। अब अमेरिका ने भी अफ़ग़ानिस्तान को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। यह इतना गम्भीर मसला है कि अमेरिका में इसे लेकर लोग बँटे नज़र आ रहे हैं और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप खुलकर जो बाइडन के ख़िलाफ़ आ चुके हैं।

अफ़ग़ानिस्तान की तस्वीर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद भयावह दिखने लगी है। क्योंकि वहाँ आतंकी तबाही काबुल में तीन बम धमाकों के साथ शुरू हो चुकी है। इन धमाकों में 100 से ज़्यादा लोग मारे गये और क़रीब 150 लोग घायल हुए। मारे गये लोगों में 90 लोग अफ़ग़ानी नागरिक और एक दर्ज़न से ज़्यादा अमेरिकी सैनिक हैं। आम लोगों पर तालिबान के पहले शासन के ज़ुल्म की कहानियाँ दोहराये जाने की ख़बरें बहुत तेज़ी से आ रही हैं। महिलाओं में ख़ौफ़ है और उन्हें लगता है कि तालिबान उन पर सख़्त पाबंदियाँ लगाकार उनका जीना हराम कर सकता है। बेशक अभी तालिबान के प्रवक्ता ख़ुद को ‘नया तालिबान’ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं; लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त इससे अलग है। हाल के 20 दिनों में तालिबान ने काबुल में घर-घर की तलाशी ली है। अन्य प्रान्तों में भी यही हालत है।

अफ़ग़ानिस्तान से बचकर भारत पहुँचे लोगों ने जो बताया है, वह तालिबान के दावे के विपरीत है और ज़मीनी हक़ीक़त को बयाँ करता है। अफ़ग़ानिस्तान से लोग तालिबान के डर से देश छोडक़र भाग रहे हैं। जो अफ़ग़ान के नागरिक दूसरे देशों में हैं, वे अब वापस वतन नहीं लौटना चाहते। भारत में मौज़ूद अफ़ग़ानी नागरिक राजधानी दिल्ली में अलग-अलग देशों के दूतावास के सामने इकट्ठा हो रहे हैं और मदद की गुहार लगा रहे हैं। अमेरिकी दूतावास के बाहर मौज़ूद एक अफ़ग़ान नागरिक अब्दुल्ला साहेल ने कहा- ‘तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में उनका परिवार डरा हुआ है। मैं ख़ुद तीन महीने पहले यहाँ आया हूँ। मेरे पास कोई रोज़गार नहीं है और आर्थिक परेशानियों का सामना कर रहा हूँ।’

अनुमान है कि अफ़ग़ानिस्तान के वर्तमान संकट में लाखों अफ़ग़ानी शरणार्थी बनकर दूसरे देशों में पहुँचे हैं। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से पूरे एशिया में सुरक्षा का बड़ा ख़तरा पैदा हो गया है। अमेरिका की सेना की पूर्ण वापसी से कई दिन पहले ही तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान को अपने क़ब्ज़े में ले लेने से भी हैरानी जतायी जा रही है। तालिबान लड़ाकों ने कुछ दिन में ही देश के बड़े शहरों पर जिस आसानी से क़ब्ज़ा किया और अफ़ग़ानी सेना ने कोई विरोध नहीं किया, जिसे लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। इसे अफ़ग़ानी सेना के भ्रष्ट होने से जोड़ा जा रहा है। यहाँ तक कि अफ़ग़ानी राष्ट्रपति अशरफ़ गनी तक जनता को क्रूर तालिबानों के भरोसे छोड़ देश छोडक़र यूएई भाग गये। 20 साल बाद अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का फिर क़ब्ज़ा हो गया है।

इसी तालिबान को 2001 के हमले के बाद अमेरिका ने तहस-नहस कर सत्ता से उखाडक़र भागने के लिए मजबूर कर दिया था। लेकिन इस बार अमेरिकी सेना की उपस्थिति के बीच ही तालिबान ने देश पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया था। अभी तक जो जानकारियाँ छनकर बाहर आयी हैं, उनके मुताबिक अमेरिका और नाटो सहयोगियों ने अफ़ग़ान सुरक्षाबलों को प्रशिक्षित करने के लिए जो लाखों डॉलर ख़र्च किये वह वास्तव में फलीभूत नहीं हुए और इसका सबसे बड़ा कारण उसकी ही समर्थित अफ़ग़ान सरकार का भ्रष्टाचार में गहरे से डूबा होना था। अफ़ग़ान सेना में भी भ्रष्टाचार के ख़ूब आरोप लगे हैं और उसके कमांडर इन वर्षों में पैसा हड़पने के लिए अपने सैनिकों की झूठी संख्या अमेरिकियों के सामने पेश करते रहे। जब तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर हल्ला बोला। उसकी सेना के पास न तो गोला-बारूद था; न अन्य संसाधन। यहाँ तक कि उसके पास खाद्य चीज़ें की भी क़िल्लत थी। ऊपर से देश के राष्ट्रपति तक विदेश भाग निकले। नतीजा यह निकला कि तालिबान को थाली में रखा हुआ देश मिल गया।

अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के युद्ध में ज़्यादा ख़ून-ख़राबा हुआ; लेकिन अमेरिकी आक्रमण ज़्यादा ख़र्चीला साबित हुआ। सोवियत संघ ने जहाँ अफ़ग़ानिस्तान में प्रति वर्ष लगभग 2 अरब अमेरिकी डॉलर ख़र्च किए, वहीं अमेरिका के लिए 2010 और 2021 के बीच, युद्ध की लागत प्रति वर्ष क़रीब 100 अरब अमेरिकी डॉलर हो गयी थी।

क़रीब 3.9 करोड़ की आबादी वाले देश में अब आतंक और ख़ौफ़ का माहौल है। वहाँ से आ रहे लोगों ने अब तक जो बताया है उससे तालिबान के ख़तरनाक इरादों की झलक मिलती है। अफ़ग़ानिस्तान की जनता को सबसे ज़्यादा डर तालिबान के निरंकुश और अराजक शासन का है, जिसे वह एक बार पहले देख चुके हैं। देश की नयी पीढ़ी खुली और उदार सत्ता के दौर में पली-बढ़ी है। अब उसे शरिया राज में ज़िन्दगी जीना कितना मुश्किल होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। तालिबान ने आते ही जिस तरह दुकानों और मॉल के होर्डिंग्स में लगी महिलाओं की तस्वीरों पर कालिख या सफ़ेद रंग पोता, उससे महिलाओं में ख़ौफ़ का माहौल है। यह आरोप लगते रहे हैं कि पिछले शासन में तालिबान ने बड़ी संख्या में महिलाओं और बच्चियों तक को हबस मिटाने के लिए इस्तेमाल किया।

ऐसे लोग, जो अमेरिका की सेना की मौज़ूदगी में तालिबान की निंदा करते रहे हैं; वे भी बहुत डरे हुए हैं। तालिबानी राजधानी काबुल जैसी जगह में आने के बाद घर-घर की तलाशी लेते रहे हैं। रिपोट्र्स के मुताबिक, तालिबान के आने के बाद बड़ी संख्या में लोगों, ख़ासकर महिलाओं ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स डिलीट कर दिये और अपनी तस्वीरें वहाँ से हटा दी हैं। तालिबान प्रवक्ताओं ने बेशक अपनी पहली प्रेस वार्ता में वादा किया कि वह किसी से बदला नहीं लेंगे और महिलाओं-बेटियों की सुरक्षा को भी कोई ख़तरा नहीं है। लेकिन 99 फ़ीसदी लोगों को तालिबान के बयानों पर भरोसा नहीं है। अफ़ग़ानी अब मान चुके हैं कि उनके पास नरक भरी ज़िन्दगी जीने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पिछले 20 दिनों में तालिबान ने कई इलाक़ों में युवा और विधवा महिलाओं की सूची लोगों से माँगनी शुरू कर दी है। यह उस वादे के बिल्कुल विपरीत है, जिसमें महिलाओं को किसी भी तरह के उत्पीडऩ से बाहर बताया है। तालिबान ने यहाँ तक कहा है कि इस्लामिक क़ानून के हिसाब से महिलाओं को सरकार में भी भागीदारी दी जाएगी। लेकिन अभी तक उसने जो किया है, उससे अफ़ग़ानिस्तानियों को तालिबान के हिंसक, अराजक और शोषक बर्ताव की पूरी आशंका है।

तालिबान का विरोध

तालिबान ने भले अफ़ग़ानिस्तान के बड़े हिस्से पर बंदूकों के ज़ोर पर क़ब्ज़ा जमा लिया हो, लेकिन देश में उनका विरोध भविष्य में नयी जंग का रास्ता खोल सकता है। तालिबान से दशकों से शत्रुता रखने वाले पंजशीर घाटी के नेता आपस में मिल गये हैं और उनकी फ़ौजे तालिबान को सबक़ सिखाने की तैयारी में हैं। तालिबान आज तक पंजशीर घाटी पर क़ब्ज़ा नहीं जमा पाया है। उसने इस बार पंजशीर के नेताओं को धमकी दी है और क़रीब 3,000 लड़ाकों को पंजशीर की सीमा पर भेजा है। पंजशीर बेहद दुर्गम घाटी है और वहाँ ब्रिटिश और रूसी सेना से लेकर अमेरिका की सेना तक पहुँच नहीं पायी।

दरअसल पंजशीर घाटी ख़ुद को राष्ट्रपति घोषित करने वाले उप राष्ट्रपति अमरूल्ला सालेह के अलावा अफ़ग़ान सरकार में जनरल अब्दुल रशीद दोस्तम और अता मोहम्मद नूर के अलावा नॉदर्न अलायंस के ताक़तवर नेता अहमद मसूद आदि का मज़बूत और अभेद्य गढ़ है। इन सबके पास अपनी मज़बूत सेनाएँ हैं। अपने लोगों में पंजशीर के शेर के नाम से जाने जाने वाले पूर्व अफ़ग़ान नेता अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद पहले ही तालिबान के साथ दो-दो हाथ करने का ऐलान कर चुके हैं।

तालिबान ने बीच में चालाकी दिखाते हुए यह सन्देश देने की कोशिश की कि अहमद मसूद उसके (तालिबान) साथ बातचीत को तैयार हैं; लेकिन मसूद ने तत्काल इसका खण्डन कर तालिबान की कोशिशों पर पानी फेर दिया। विद्रोहियों ने पंजशीर में नॉदर्न अलायंस यानी यूनाइटेड इस्लामिक फ्रंट (यूआईएफ) का झण्डा भी फहरा दिया है और उनका लक्ष्य पूरी पंजशीर घाटी पर क़ब्ज़ा करने का है।

तालिबान के लिए पंजशीर की जंग कितनी मुश्किल है? यह इस बात से ज़ाहिर हो जाता है कि तालिबान के ख़िलाफ़ बग़ावत का ऐलान करने वाले मसूद के नॉदर्न अलायंस ने परवान प्रान्त के चारिकार इलाक़े पर दोबारा नियंत्रण हासिल कर लिया है। चारिकार राजधानी काबुल को उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान के सबसे बड़े शहर मज़ार-ए-शरीफ़ से जोड़ता है और ऐसे में वहाँ जीत तालिबान के लिए बड़ा झटका है। बता दें यह नॉदर्न अलायंस ही था, जिसने 1990 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की हुकूमत के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था। सन् 2001 में अपनी मौत तक अफ़ग़ान नेता अहमद शाह मसूद ने सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध और तालिबान के साथ गृह युद्ध के दौरान सफलतापूर्वक पंजशीर घाटी का बचाव किया था।

हालाँकि कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि तालिबान को ताज़िक़ बहुल पंजशीर के भीतर जाकर लडऩे की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। तालिबान यदि पंजशीर घाटी की नाकेबंदी भी कर लेता है, तो वहाँ लोगों के लिए बहुत-सी मुश्किलें खड़ी हो जाएँगी। उनका कहना है कि पंजशीर घाटी की कई ज़रूरतें बाहर से पूरी होती हैं; लिहाज़ा नाकेबंदी से घाटी के लोगों को कठिनाई झेलनी पड़ेगी। दूसरे तालिबान ने आज तक पंजशीर घाटी में घुसने की कभी कोशिश नहीं की है। इससे उसे इस दुर्गम घाटी को समझने में तो मुश्किल आएगी। लेकिन वह अपने पास मौज़ूद नये हथियारों और बड़ी संख्या में अपने लड़ाकों के बूते पंजशीर पर हमला कर सकता है।

तालिबान के क़ब्ज़े में वह हथियार भी आ चुके हैं, जो अमेरिकी सेना वापस जाते हुए यहाँ छोड़ गयी है। अफ़ग़ानिस्तान पंजशीर के विद्रोही अलायंस के पास पुराने हथियार हैं और उसके पास बड़ा युद्ध लडऩे के लिए साधनों की भी कमी हो सकती है। हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि इनमें से ज़्यादातर लोग तालिबान के कट्टर विरोधी हैं और वे उसे हारने के लिए पूरी ताक़त झोंक देंगे।

इस संवाददाता की जुटायी जानकारी के मुताबिक, पंजशीर में शुरू में अलायंस से सिर्फ़ तज़ाख़ और तालिबान विरोधी मुजाहिद्दीन ही जुड़े थे। हालाँकि अब दूसरे क़बीलों के सरदार भी अपने लड़ाकों के साथ इसमें शामिल हो चुके हैं। कभी अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व रक्षा मंत्री अहमद शाह मसूद ने नॉदर्न अलायंस का नेतृत्व किया था। कुछ जानकार मानते हैं कि इसमें कोई दो-राय नहीं कि तालिबान हथियारों और संख्या बल के लिहाज़ा से काफ़ी ताक़तवर है; लेकिन अफ़ग़ानिस्तान पर उसके इतनी जल्दी क़ब्ज़े का एक कारण अफ़ग़ान सेना का बिल्कुल भी विरोध नहीं करना है। लेकिन पंजशीर में तालिबान को तश्तरी में कुछ नहीं मिलेगा। उसे वहाँ एक बेहद कठिन और अनजान भौगोलिक इलाक़े में ताक़तवर विरोधी समूहों से लादना पड़ेगा, जो बिल्कुल भी आसान नहीं है। यह भी हो सकता है पंजशीर के विद्रोहियों को कहीं से समर्थन मिल जाए।

वर्तमान में तालिबान से टक्कर के लिए पंजशीर अलायंस ख़ुद को अफ़ग़ानिस्तान का राष्ट्रपति घोषित कर चुके अमरुल्ला सालेह के नेतृत्व में मज़बूत करने में जुटा है। वे साफ़ शब्दों में अन्तिम साँस तालिबान से जंग लडऩे का ऐलान कर चुके हैं। उनका यह कहना बहुत मायने रखता है कि देश को कभी तालिबान के हवाले नहीं होने देंगे। सालेह को पाकिस्तान का मुखर विरोधी कहा जाता है, जबकि वे भारत के नज़दीक रहे हैं। दरअसल पंजशीर घाटी अफ़ग़ानिस्तान के 34 प्रान्तों में से एक है। राजधानी काबुल के उत्तर में एक बेहद कठिन घाटी पंजशीर को लेकर कहा जाता है कि वहाँ परिन्दा भी पर नहीं मार सकता। ‘पाँच शेरों की घाटी’ के नाम से विख्यात पंजशीर को लेकर माना जाता है कि 10वीं शताब्दी में एक परिवार के पाँच भाइयों ने गजनी के सुल्तान महमूद के लिए एक बाँध बनाया, जिससे वहाँ तबाही मचाने वाली बाढ़ से लोगों की सम्पत्ति बचाने में मदद मिली। इसके बाद इसका नाम पंजशीर घाटी पड़ गया। वर्तमान में यह घाटी अफ़ग़ानिस्तान के नेशनल रेजिस्टेंस फ्रंट का गढ़ है। देखना है कि तालिबान की घेरेबंदी और दबाव के बावजूद पंजशीर कितनी मज़बूती  से उसका विरोध कर पाता है? रेजिस्टेंस फ्रंट और नॉदर्न अलायंस के ताक़तवर नेता अहमद मसूद पहले ही कुछ देशों से अलायंस की मदद की अपील कर चुके हैं। फ़िलहाल किसी देश से उन्हें मदद का भरोसा अभी नहीं मिला है। लेकिन भविष्य में उन्हें मदद मिलने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता; क्योंकि ऐसे देश हैं, जो तालिबान की बढ़ती ताक़त को कुचलना चाहते हैं।

तालिबान शासन में कौन होगा राष्ट्रपति?

 

अफ़ग़ान में तालिबान के क़ब्ज़े की बाद अब यह सवाल है कि कौन राष्ट्रपति बनेगा? अफ़ग़ानिस्तान में मिली-जुली सरकार बनाने की भी कोशिशें हैं। हालाँकि तालिबान शायद ही इसके लिए राज़ी हो, या फिर सरकार की कमान अपने पास ही रखेगा। तालिबान की सरकार की सूरत और सीरत क्या होगी? अफ़ग़ानिस्तान की हुकूमत प्रेसिडेंट पैलेस से चलती है, जहाँ अब तालिबान का क़ब्ज़ा है। तालिबान के पाँच सबसे ताक़तवर नेताओं में मुल्ला अब्दुल गनी बरादर, हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा, मुल्ला मोहम्मद याक़ूब, सिराजुद्दीन हक़्क़ानी और शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकज़ई हैं। हाल के दिनों में तालिबान नेताओं ने अफ़ग़ानिस्तान के कई बड़े नेताओं के साथ बातचीत की है, जिनमें पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई भी शामिल हैं, जिन्हें पाकिस्तान का क़रीबी कहा जाता है। तालिबान का सबसे बड़ा चेहरा मुल्ला अब्दुल गनी बरादर का है, जो अफ़ग़ानिस्तान आ चुका है। तालिबान के तमाम नीतिगत फ़ैसलों के लिए उसे जानत जाता है। अफ़ग़ानिस्तान के उरुजगान सूबे से ताल्लुक़ रखने वाला बरादर पाकिस्तानी की बदनाम ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई का आदमी माना जाता है। वैसे पाकिस्तान के ख़िलाफ़ उसकी तल्ख़ी भी है; क्योंकि सन् 2010 में उसे आईएसआई ने गिरफ़्तार कर लिया था। कहते हैं इसके पीछे अमेरिका का दबाव था।

आईएसआई ने उसे आठ साल जेल में रखा। बरादर ने ही सन् 1994 में अपने ससुर और अन्य साथियों के साथ मिलकर कंधार में तालिबान की नींव रखी थी। बरादर इसके बाद अफ़ग़ानिस्तान में बनी तालिबान की पहली सरकार में उप रक्षा मंत्री रहा। अमेरिका ने 9 /11 के बाद जब तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान से दर-बदर किया, तो बरादर दोहा चला गया। अब तालिबान का जब अफ़ग़ानिस्तान पर फिर क़ब्ज़ा हो गया है, तो बरादर वापस काबुल लौट आया है। उसे राष्ट्रपति की दौड़ में सबसे आगे माना जाता है।

उसके बाद हिब्तुल्ला अख़ुंदज़ादा तालिबान का सबसे अहम चेहरा है, जो वर्तमान में तालिबान की कमान सँभाल रहा है। सन् 2016 में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे जाने वाले सरगना मुल्ला मंसूर अख़्तर के बाद अख़ुंदज़ादा ने ही तालिबान को सँभाला। उसे बहुत चतुर और लड़ाकों को एकजुट करने में माहिर नेता माना जाता है। अख़ुंदज़ादा को ही तालिबान को टूटने से बचाने का श्रेय दिया जाता है। अफ़ग़ान सेना के कमांडरों तक को अपने साथ मिलाने से उसकी क्षमता का पता चलता है। मज़हबी नेता अख़ुंदज़ादा ने तालिबान की कमान सँभालने के बाद अलक़ायदा प्रमुख अयमान अल जवाहिरी का भी भरोसा जीता है। कहा जाता कि तालिबान के तमाम राजनीतिक, धार्मिक और जंग से जुड़े मामलों पर अन्तिम मुहर अख़ुंदज़ादा की ही लगती है। उसके बाद मुल्ला मोहम्मद याक़ूब का नाम आता है, जो तालिबान बनाने वाले मुल्ला उमर का बेटा है। अभी महज़ 35 साल का याक़ूब तालिबान का सैन्य कमांडर है। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के हर ऑपरेशन का ज़िम्मा उसका रहा है। उसे तालिबान का वास्तविक उत्तराधिकारी कहा जाता है। चौथा नाम सिराजुद्दीन हक़्क़ानी का है, जो तालिबान के टॉप कमांडरों में से एक रहे जलालुद्दीन हक़्क़ानी का बेटा है। हक़्क़ानी नेटवर्क उसी के पास है, जो तालिबान का सहयोगी संगठन है।

पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर तालिबान की वित्तीय और सैन्य सम्पत्ति का ज़िम्मा उसी के पास है। पाकिस्तान का क़रीबी है और उसके सर पर एक करोड़ अमेरिकी डॉलर का इनाम है। तालिबान का पाँचवाँ बड़ा चेहरा शेर मोहम्मद स्तानिकज़ई है। तालिबान की तरफ़ से जब भी किसी से बात की जाती है, तो इसका ज़िम्मा काफ़ी शिक्षित स्तानिकज़ई पर रहता है। कट्टर धार्मिक नेता की छवि वाले स्तानिकज़ई दोहा में अमेरिका के साथ हुए शान्ति समझौते में शामिल था।

देश छोड़ यूएई पहुँचे गनी

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की दस्तक का सबसे दिलचस्प पहलू यह रहा कि तालिबान के राजधानी काबुल पर क़ब्ज़ा करने से पहले ही 15 अगस्त को राष्ट्रपति अशरफ़ गनी इस्तीफ़ा देकर देश छोडक़र यूएई चले गये। उनका दावा है कि ऐसा उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान को ख़ूनी जंग से बचाने के लिए किया।  अगर वह देश में रहते, तो निर्दोष जनता मरती। लेकिन उन पर अब ढेरों आरोप लग रहे हैं। ताजिकिस्तान में अफ़ग़ानिस्तान के राजदूत मोहम्मद ज़हीर अग़बर ने दावा किया है कि राष्ट्रपति अशरफ़ गनी जब अफ़ग़ानिस्तान से भागे, तो वह अपने साथ 169 मिलियन डॉलर (12.67 अरब रुपये) ले गये। उन्होंने तो गनी को गिरफ़्तार करने और उनसे देश की सम्पति वापस लेने तक की माँग कर दी है। लेकिन पूर्व राष्ट्रपति ने पैसे लेकर देश से भागने के आरोपों से इन्कार किया। उन्होंने यूएई से एक वीडियो संदेश जारी कर सफ़ार्इ दी कि वो सिर्फ़ एक जोड़ी कपड़े में अफ़ग़ानिस्तान से निकले हैं। अशरफ़ गनी वैसे जाने-माने मानवविज्ञानी और अर्थशास्त्री रहे हैं। इमर्जिंग मार्केट्स ने सन् 2003 में उन्हें एशिया का सर्वश्रेष्ठ वित्त मंत्री घोषित किया गया था। प्रॉस्पेक्ट मैगजीन ने पूर्व राष्ट्रपति गनी को दुनिया का दूसरा शीर्ष विचारक चुना था। यूएई ने पुष्टि की है कि अरब राष्ट्र ने मानवीय आधार पर राष्ट्रपति अशरफ़ गनी और उनके परिवार का देश में स्वागत किया है।

इधर अग़बर ने एक इंटरव्यू में कहा- ‘अशरफ़ गनी ने अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान को सौंप दिया। हमारे पास 3,50,000 से अधिक ट्रेंड सैनिक और अनुभवी सैन्यकर्मी थे। वे तालिबान से नहीं लड़े। अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी क्षेत्रों में ताजिकिस्तान की सीमा से लगे 20 ज़िले बिना किसी प्रतिरोध के तालिबान के पास चले गये। मुझे लगता है कि गनी का तालिबान के साथ पूर्व समझौता था। उनके दिमाग़ में विश्वासघात की योजना पहले से थी। उन्होंने अपने समर्थकों को छोड़ दिया और अफ़ग़ानिस्तान के लोगों से धोखा किया। मुझे नहीं लगता कि कोई भी सरकार अपने देश के आतंकवादियों के साथ अफ़ग़ानिस्तान में रहने और तालिबान के संरक्षण में काम करने जा रही है। अफ़ग़ानिस्तान ऐसा देश नहीं होना चाहिए, जो पड़ोसी देशों के लिए ख़तरा हो।’

गनी के देश छोडक़र भाग जाने के बाद उनके भाई हशमत गनी अहमदज़र्इ ने तालिबान का समर्थन करने का ऐलान कर दिया। कुचिस की ग्रैंड काउंसिल के प्रमुख हशमत गनी अहमदज़र्इ ने तालिबान नेता ख़लील-उर-रहमान और धार्मिक विद्वान मुफ़्ती महमूद ज़ाकिर की उपस्थिति में तालिबान के लिए समर्थन की घोषणा की। हशमत गनी का साथ मिलने से तालिबान की ताक़त बढ़ सकती है; क्योंकि हशमत अफ़ग़ानिस्तान के प्रभावशाली नेताओं में एक हैं। यह आरोप लगते रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति रहते हुए अशरफ़ गनी ने अपने भाई और एक अमेरिकी ठेकेदार को एक बड़े खनिज प्रसंस्करण का परमिट दिलाने में मदद की थी।

ट्रंप और बाइडन में जंग

  

अफ़ग़ानिस्तान के मसले को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच ही जंग छिड़ गयी है। बाइडन की अफ़ग़ानिस्तान नीति को ट्रंप ने देश के लिए शर्म की स्थिति बताया है, जबकि बाइडन ने कहा अपने फ़ैसले का बचाव किया और अफ़ग़ान सेना पर जमकर बरसे। बाइडन का कहना है कि अमेरिकी सेना ऐसे युद्ध में न लड़ सकती है और न मर सकती है, जिसमें अफ़ग़ान सेनाएँ लडऩे और मरने के लिए तैयार नहीं हैं। राष्ट्रपति ने कहा- ‘हम क़रीब 20 साल पहले स्पष्ट लक्ष्यों के साथ अफ़ग़ानिस्तान गये थे। 11 सितंबर, 2001 को हम पर हमला करने वालों को पकडऩा और यह सुनिश्चित करना कि अलक़ायदा अफ़ग़ानिस्तान को अपने अड्डे के रूप में इस्तेमाल न करे, ताकि हम पर दोबारा हमला न किया जा सके। हमारा मिशन कभी भी राष्ट्र निर्माण नहीं होना चाहिए था।’

वैसे यह दिलचस्प ही है कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका सेना वापस करने का फ़ैसला ट्रंप के ही समय में हुआ था। हालाँकि ट्रंप अब कह रहे हैं कि बाइडन प्रशासन ने जिस तरीक़े से सब कुछ किया, उससे अमेरिका की इज़्ज़त को बट्टा लगा है। वैसे बाइडन ने पहले ही कहा था- ‘मुझे पता है कि अफ़ग़ानिस्तान पर मेरे फ़ैसले की आलोचना की जाएगी। लेकिन मैं इस ज़िम्मेदारी को एक और राष्ट्रपति को सौंपने के बजाय सारी आलोचना को स्वीकार करना चाहूँगा।’

भारत पर क्या होगा तालिबान का असर?

तालिबान ने पहली प्रेस वार्ता में भारत को लेकर कहा कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में जिन योजना पर काम कर रहा था, उसे उन्‍हें वह पूरा कर सकता है; क्योंकि वह अफ़ग़ानिस्तान की अवाम के लिए हैं। लेकिन हम अपनी ज़मीन का इस्तेमाल किसी भी मुल्क को अपना मक़सद पूरा करने या अदावत निकालने के लिए नहीं देंगे। इसमें कोई दो-राय नहीं कि अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान स्थितियों का भारत के हितों पर प्रभाव पड़ेगा। पिछले एक साल में सबसे यह दिखने लगा था कि अमेरिकी सेना वापस जा रही है और तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान आना तय है, भारत सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान में अपनी राजनयिक उपस्थिति को कम करना शुरू कर दिया था। भारत के सामने अब यह सबसे बड़ी चिन्ता है कि तालिबान को मान्यता के मामले पर वह क्या फ़ैसला करे। आज तक कभी भी किसी भारत सरकार ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है। स्थितियों को देखते हुए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने 26 अगस्त को कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों के नेताओं के साथ बैठक करके अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर चर्चा की।

भारत सरकार ने सुरक्षा के मद्देनज़र हेरात और जलालाबाद में अपने मिशन के सभी कर्मचारियों को भारत बुला लिया था, जबकि जुलाई में कंधार और मज़ार-ए-शरीफ़ के वाणिज्य दूतावासों को बन्द कर दिया था। पुलित्जर अवॉर्ड से सम्मानित भारतीय पत्रकार-कैमरामैन दानिश सिद्दीक़ी की कंधार में हत्या कर दी गयी थी। अब अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में भारत ने अपना दूतावास भी बन्द कर दिया है। अगस्त के आख़िर तक भारत 1000 के क़रीब भारतीयों और अन्य लोगों को काबुल से भारत वापस ला चुका है, जिनमें हिन्दू, सिख समुदायों के अलावा मुस्लिम भी शामिल हैं।

तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़े से भारत की सबसे बड़ी चिन्ता वहाँ आतंकी गुटों के मज़बूत होने की है। तालिबान के आने से भारत के पड़ोस में कट्टरपंथ और इस्लामिक आतंकी समूहों के बढऩे का ख़तरा पैदा हो गया है। इनमें लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद शामिल है, जो भारत में ख़ून-ख़राबा करते रहे हैं। कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि तालिबान के आने से अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तानी सेना और उसकी बदनाम ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई का प्रभाव बढ़ जाएगा। भारत के लिए ख़तरा तालिबान के राज में अलक़ायदा के फिर से खड़े होने का भी है। बेशक दोहा समझौते में तालिबान ने अमेरिका से आतंकवाद के ख़िलाफ़ लडऩे का वादा किया था; लेकिन अमेरिकी नेतृत्व को इस पर बिल्कुल भरोसा नहीं है। अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक स्टेट (आईएस) से जुड़े गुट सक्रिय हैं और वे शियाओं पर हमला करते रहे हैं।

पाकिस्तान से तालिबान के रिश्ते पर एक बड़ा पेंच यह है कि वर्तमान में वह पूरी तरह पाकिस्तान पर निर्भर नहीं है। पहले तालिबान पूरी तरह पाकिस्तान के नियंत्रण में था। संगठन का दूसरा सबसे ताक़तवर नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर अख़ुंदज़ादा आठ साल तक पाकिस्तान की जेल में सड़ा है। कहा जाता है कि उसे पाकिस्तानी यातनाएँ झेलनी पड़ीं और वह कभी इस बात को नहीं भूलेगा। तालिबान के इस बार अफ़ग़ानिस्तान पर बिना प्रतिरोध क़ब्ज़ा करने में उसकी अपनी रणनीति रही है और पाकिस्तान का इसमें सहयोग बहुत ज़्यादा नहीं माना जाता। ऐसे में पाकिस्तान के लिए भी यह चिन्ता वाली बात हो सकती है।

भारत ने पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय में अफ़ग़ानिस्तान में ढेरों विकास परियोजनाएँ शुरू की हैं और बड़े पैमाने पर इनमें निवेश किया है। अब इन परियोजनाओं के आगे चलने पर प्रश्नचिह्न लग गया है। क्योंकि अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके पाकिस्तान इन परियोजनाओं को ठप करवा सकता है। पाकिस्तान पहले ही भारत के अफ़ग़ानिस्तान में निवेश से तिलमिलाया रहता था। क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान की जनता इस सहयोग के लिए भारत के नज़दीक रही है, जबकि उसका एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान को नापसन्द करता है। ज़ाहिर है अफ़ग़ानिस्तान में भारत की भूमिका अब लगभग ख़त्म हो जाएगी। तालिबान के आने से अफ़ग़ानिस्तान से कारोबार कराची और ग्वादर बंदरगाह के ज़रिये हो सकता है। लिहाज़ा पाकिस्तान को दरकिनार करने के लिहाज़ा से ईरान के चाबहार बंदरगाह को विकसित करने के लिए किया जा रहा भारत का निवेश अब अव्यावहारिक हो सकता है।

भारत के सामने अब तालिबान सरकार बनने पर उसे मान्यता देने या नहीं देने जैसी मुश्किल चुनौती भी पैदा हो गयी है। यह भी एक बड़ा सवाल है कि क्या भारत को अपना राजदूत वापस अफ़ग़ानिस्तान भेजना चाहिए? कुछ जानकार मानते हैं कि भारत को न केवल राजदूत को वापस भेजना चाहिए, बल्कि सभी सलाहकारों को भी दूतावास में तैनात करना चाहिए। रूस, चीन, इरान और पाकिस्तान के दूतावास अभी तक वहाँ काम कर रहे हैं। इन जानकारों के मुताबिक, भारत को तालिबान के साथ ख़ुद को एंगेज रखना चाहिए। वैसे भारत फ़िलहाल देखो और इंतज़ार करो की रणनीति पर काम कर रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में तस्वीर साफ़ होने में अभी शायद बक़्त लगेगा। बहुत से जानकार मानते हैं कि पुराने तालिबान और नये तालिबान में अंतर है और वह एकतरफ़ा शायद नहीं चलेंगे और वे ख़ुद को विश्व समुदाय से जोडऩा चाहेंगे; क्योंकि नये तालिबान का वैश्वीकरण हो चुका है। तालिबान ने अपनी पहली पत्रकार वार्ता में कहा कि महिलाओं को बु$र्के की जगह हिज़ाब पहनकर काम करने की अनुमति दी जाएगी। अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन को किसी दूसरे देश के उद्देश्यों या उसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल की इजाज़त नहीं होगी। यही नहीं गुरुद्वारे में सिख और हिन्दुओं को भी सुरक्षा का भरोसा उसने दिया। लेकिन तालिबान का पिछले शासन इतना क्रूर रहा है कि लोगों में अभी भी दहशत है। इनमें महिलाएँ भी शामिल हैं।

हालाँकि अफ़ग़ानिस्तान से अभी तक आयी ख़बरें कहती हैं कि तालिबान के लड़ाके लोगों पर ज़ुल्म करने से बाज़ नहीं आ रहे। इसके अलावा शरीयत क़ानून को पूरी तरह लागू करने पर भी तालिबान का ज़ोर है। भारत के लिए सबसे सकारात्मक पहलू यही है कि आम अफ़ग़ानी की भारत के प्रति भावनाएँ बहुत अच्छी रही हैं। पाकिस्तान को वहाँ ज़्यादा पसन्द नहीं किया जाता। निश्चित ही भारत सरकार के लोग अफ़ग़ानिस्तान के हर हालात का ज़मीनी मूल्यांकन कर उसके बाद ही कोई फ़ैसला किया जाएगा। फ़िलहाल तो अफ़ग़ानिस्तान से आने वाली चीज़ें के बन्द होने से भारत में उनके मूल्यों में भारी उछाल आया है, जिनमें सूखे मेवे शामिल हैं।

कुछ जानकार मानते हैं कि हो सकता है भारत भविष्य में अफ़ग़ान नेशनल डिफेंस एंड सिक्योरिटीज फोर्सेज (एएनडीएसएफ) को सम्भवत: ईरान के रास्ते से गोला-बारूद और हवाई सहायता जैसी सैन्य मदद दे। हालाँकि तालिबान प्रवक्ता सुहैल शाहीन भारत को ऐसा करने की स्थिति में गम्भीर नतीजों की धमकी दे चुका है। ऐसे में हो सकता है कि मोदी सरकार के भरोसेमंद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल तालिबान के साथ सम्पर्क बढ़ाने का सुझाव दें। वे अफ़ग़ानिस्तान को लेकर काफ़ी सक्रिय रहे हैं। भारत की कोशिश तालिबान राज में पाकिस्तान की भूमिका को सीमित करने की है।

अमेरिका भी तालिबान के मज़बूत होने का भी कम ज़िम्मेदार नहीं। उसने हाल के वर्षों में तालिबान को पाकिस्‍तान की आर्थिक मदद और हथियारों की आपूर्ति को गम्भीरता से नहीं लिया। यही नहीं, सन् 1990 में भी अमेरिका जब अफ़ग़ानिस्तान से बाहर गया था, तो उसने अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तानी हस्तक्षेप को रोकने की कोई कोशिश नहीं की थी। अमेरिका पाकिस्तान के साथ ज़रूरत से ज़्यादा उदार रहा है। इससे तालिबान को भी ताक़त मिली है। भारत के विरोध के बावजूद अमेरिका ने कभी उसे पाकिस्तान को रोकने की कोशिश नहीं की; क्योंकि सामरिक पार्टनर के रूप में वह पाकिस्तान को महत्त्वपूर्ण मानता रहा है।

काबुल हवाई अड्डे पर अफ़रा-तफ़री

अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद अफ़ग़ानिस्तान से आने वाली तस्वीरें काफ़ी विचलित करने वाली हैं। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के क़ब्ज़े के बाद लोग देश छोडऩे के लिए जान जोखिम में डालते देखे गये। हवा में उड़ते प्लेन से गिरकर तीन लोगों की मौत होने का वीडियो पूरी दुनिया को अफ़सोस और क्षोभ से भर गया। देश छोडऩे के काबुल एयरपोर्ट पर भागते लोगों की तस्वीरें काफ़ी विचलित करने वाली थीं। एक और घटना में काबुल हवाई अड्डे पर भगदड़ और फायरिंग में पाँच लोगों की मौत हो गयी। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक काबुल का एयरपोर्ट अमेरिका सेना के नियंत्रण में था। काबुल से ही आयी- एक मासूम बच्चे की एक और तस्वीर काफ़ी वायरल हुई, जिसमें अफ़ग़ानी काँटों की तार से लिपटीं दीवार के पार अमेरिकी सैनिकों को सौंप रही हैं, ताकि उसकी जान बच सके। ख़बरें आईएन कि हवाई अड्डे पर फँसे लोग अपने बच्चों को नाटो सैनिकों के हवाले कर रहे थे। लोगों का कहना है कि अगर अमेरिकी या नाटो सैनिक हमें लेकर नहीं जा सकते, तो हमारे बच्चों को लेकर जाएँ। पेंटागन के प्रवक्ता जॉन कर्बी ने भी बताया कि अभिभावकों ने सैनिकों से बच्चे की देखभाल को कहा; क्योंकि वह बीमार था और इसलिए सैनिकों ने उसे दीवार के ऊपर से ले लिया। वहाँ से हवाई अड्डे पर स्थित नॉर्वे के अस्पताल ले जाया गया। वहाँ पर बच्चे का इलाज करके पिता को लौटा दिया गया।

  अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान स्थिति के लिए धूर्त पाकिस्तान ज़िम्मेदार है। पाक के कारण ही अमेरिका की अफ़ग़ान नीति फेल हुई है। हम इस स्थिति में कैसे आये, इस पर कुछ भी कहना आसान नहीं है। पिछले 20 साल में उत्पन्न हुए विभिन्न कारण इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। इन हालात के ठोस कारणों को अब जानना ज़रूरी हो गया है। अफ़ग़ान संकट ख़ुफ़िया और कूटनीति की विफलता के कारण भी पैदा हुआ है। पाकिस्तान ने भरोसे को क़ायम करते हुए कार्य किया होता, तो आज इन स्थितियों को नहीं देखना पड़ता।

जैक रीड, वरिष्ठ अमेरिकी सीनेटर

 

 हम अपने हीरो अहमद शाह मसूद की विरासत के साथ धोखा नहीं कर सकते। हम आख़िरी साँस तक तालिबान से लड़ेंगे। अफ़ग़ानिस्तान से मेरी आत्मा को सिर्फ़ अल्लाह ही अलग कर सकता है; लेकिन मेरे अवशेष हमेशा यहाँ की मिट्टी से जुड़े रहेंगे। तालिबान अंदराब घाटी में खाना और ईंधन नहीं आने दे रहा है। मानवीय स्थिति बेहद ख़राब हो चुकी है। हज़ारों महिलाएँ और बच्चे पहाड़ों को छोडक़र जा चुके हैं। दो दिनों में तालिबान ने बच्चों और बुज़ुर्गों को अगवा किया है। आतंकी इनका इस्तेमाल ढाल की तरह कर रहे हैं, ताकि वे खुलेआम घूम सकें और घर-घर जाकर तलाशी ले सकें।

अमरुल्ला सालेह, अफ़ग़ानिस्तान के स्वघोषित राष्ट्रपति

 

 फ़िलहाल हमारा फोकस इस युद्धग्रस्‍त देश में मौज़ूद भारतीय नागरिकों की सुरक्षा और सुरक्षित वापसी पर है। जहाँ तक तालिबान नेतृत्‍व की बात है, अभी शुरुआती दिन हैं। इस समय हम काबुल के हालात पर ध्‍यान दे रहे हैं। तालिबान और इसके प्रतिनिधि काबुल पहुँच गये हैं। इसलिए मुझे लगता है कि हमें चीज़ें को वहाँ से शुरू करने की ज़रूरत है। अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के साथ ऐतिहासिक सम्बन्ध जारी हैं। यह आने वाले दिनों में हमारे दृष्टिकोण का निर्धारण करेगा। हमारा फोकस वहाँ मौज़ूद भारतीय लोगों की सुरक्षा पर हैं।

एस. जयशंकर

विदेश मंत्री, भारत